(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ “कवितेच्या प्रदेशात” में उनकी बेबाक कविता मुक्त । संवेदनशील होकर मात्र कुछ शब्दों को छंदों बंधों में जोड़कर, उनकी तुकबंदी कर अथवा अतुकान्त गद्य में स्वांतः सुखाय कविता की रचना कर क्या वास्तव में सार्थक कविता की रचना हो सकती है? यह वाद का विषय हो सकता है। मैं निःशब्द हूँ। सुश्री प्रभा जी द्वारा तथाकथित साहसी अभिनेत्री एवं कवियित्री के संदर्भ से कविता के सांकेतिक जन्म का साहसी प्रयास पूर्णतः सार्थक रहा है। यह एक शाश्वत सत्य है कि – जिन कलाकारों और साहित्यकारों ने सामाजिक बंधनों को तोड़कर मुक्त अभिव्यक्ति का साहस किया है, उन्होने इतिहास ही रचा है। इस संदर्भ में मुझे प्रसिद्ध चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन जी का वक्तव्य याद आ रहा है जिसमें उन्होने कहा था कि – “कोई भी कलाकार या साहित्यकार अपनी कला अथवा साहित्यिक अभिव्यक्ति का दस प्रतिशत ही अभिव्यक्त कर पाता हैं, शेष नब्बे प्रतिशत उनके साथ ही दफन हो जाती है। इस बेबाक कालजयी रचना के लिए सुश्री प्रभा जी की कलम को पुनः नमन।
आप प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते हैं।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 11 ☆
☆ मुक्त ☆
तो म्हणाला,
“मला नाही आवडत कविता बिविता,शेरो शायरी…..”
ती नाही हिरमुसली,
तिनं बंद केला,मनाचा तो कप्पा!
ठरवलं मनाशी,
नाही लिहायची कविता इथून पुढे…..
फक्त संसार एके संसार……
भांडी कुंडी चा खेळ ही….
खेळलोय ना लहानपणी…..
बाहुला बाहुली चं लग्न ही लावलंय….
लग्न हेच इतिकर्तव्य हेच बिंबवलं
गेलं लहानपणापासून…
मग ती “नाच गं घुमा” चा खेळ
खेळत राहिली…
पण नाही रमली.
कधीतरी वाचलं, विकत घेऊन,
मल्लिका अमर शेख चं,
“मला उध्वस्त व्हायचंय”
दीपा साही चा,
*माया मेमसाब*
ही पाहून आली…
उमजला बाईपणाचा अर्थ…
आणि तिची सनातन दुःखंही…
तिच्या गर्भात गुदमरून गेलेली कविता अचानक बाहेर आली..
फोडला तिने टाहो….
स्वतःच्या अस्तित्वाचा…
तेव्हा पासून,
ती होतेय व्यक्त…
अवती भवती च्या पसा-यातून…
केव्हा च झालीय मुक्त…..
© प्रभा सोनवणे,
“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११
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