हिन्दी साहित्य – रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत -9 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। 

हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ रहे थे। हम संजय दृष्टिश्रृंखला को कुछ समय के लिए विराम दे रहे हैं ।

प्रस्तुत है  रंगमंच स्तम्भ के अंतर्गत महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त धारावाहिक स्वरुप में श्री संजय भारद्वाज जी का सुप्रसिद्ध नाटक “एक भिखारिन की मौत”। )

? रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत – 9 ☆  संजय भारद्वाज ?

*प्रवेश तीन*

(अनुराधा चुपचाप बैठी है। विचारमग्न है। रमेश का प्रवेश।)

रमेश- क्या हुआ अनुराधा?

अनुराधा- कुछ नहीं।  यों ही सोच रही थी कि हम लोगों को क्या हो गया है? आखिर हमारा समाज कहाँ जा रहा है? समाज के इतने महत्वपूर्ण लोगों को भी उस औरत के भीतर की मज़बूरी क्यों नहीं दिखी? हर एक को केवल औरत का जिस्म ही दिखा। औरत को केवल जिस्म मानने की यह मानसिकता एक बीमार समाज का लक्षण है। कैसे उबरेंगे इससे?

रमेश- इतना परेशान होने की ज़रूरत नहीं है अनुराधा। समाज किसी रुके या ठहरे हुए समूह का नाम तो है नहीं। समाज एक निरंतर चलती, बनती, बिगड़ती सामूहिक प्रक्रिया है। दुर्भाग्य से समाज का नज़रिया अधिकांश मामलों में सकारात्मक कम और नकारात्मक ज़्यादा है। मेरे ख्याल से तो हम सब अपनी ज़रूरतों और स्वार्थ के बीच इतने घिरे हुए हैं कि हमारी कोई सोच ही बाकी ही नहीं बची है।…. हम बीमार हैं, यह तो मानना ही होगा।… पर आज बीमार हैं तो कल स्वस्थ भी होंगे याने बीमारी हमेशा नहीं रहेगी। केवल ज़रूरत है व्यापक बहस और मंथन की।

अनुराधा- फिर भी यह चित्र काफी निराशाजनक नहीं लगता कि जिनका भी हमने इंटरव्यू किया वे सभी समाज के प्रतिष्ठित वर्ग के लोग थे। उनमें एक ने भी भिखारिन की तकलीफ को महसूस नहीं किया। जब प्रतिष्ठित वर्ग ही ऐसा नहीं करता तो फिर बाकियों से क्या उम्मीद की जा सकती है?

रमेश- कम ऑन अनुराधा। ऐसे नाउम्मीद मत होओ। हर व्यक्ति का जीवन को देखने और समझने का नजरिया अलग होता है। यह अलग -अलग नज़रिया, दृष्टिकोणों का अंतर, काल, पात्र और समय पर निर्भर करता है। अमेरिका की एक सच्ची कहानी बताता हूँ। स्कूल में टीचर ने बच्चों को एक निबंध लिखने के लिए दिया। निबंध का विषय था, ‘मेरा गरीब दोस्त।’ एक बच्चे का निबंध यों था, ‘मेरे दोस्त का नाम टॉम फ्रेडरिक है। वह बहुत गरीब है। उसकी कार पंद्रह साल पुरानी है। टॉम के घर में सेकंडहैंड फ्रिज है। उनका टी.वी. सेट स्मार्ट नहीं है।  उनके पास ऑटोमेटिक वॉशिंग मशीन खरीदने के लिए पैसे नहीं थे, इसलिए उन्होंने मेन्युअल वॉशिंग मशीन खरीदी। उसके घर में जो कम्प्यूटर है..’

अनुराधा-  (जोर से हँस रही है।) बस, बस, बस।

रमेश- अब गरीबी के इस स्केल पर आम हिंदुस्तानी को मापा जाए तो..

दोनों एक साथ-  हम सब बहुत गरीब हैं। ( दोनों हँसते हैं।)

रमेश- समाज के संभ्रांत लोगों वाली तुम्हारी यह लिस्ट अब कैंसल। एक आख़िरी इंटरव्यू के लिए चलो मेरे साथ।

अनुराधा- पर कहाँ? किसके पास?

रमेश- समाज के उस लाल हिस्से के पास जिसका जीवन को देखने का नज़रिया बिल्कुल अलग है।

अनुराधा-मैं समझी नहीं। कौन है, क्या नाम है उसका?

रमेश-  तुम चलो तो सही।

 

*प्रवेश चार*

(कॉलगर्ल रूबी का घर। एक शेल्फ में शराब की बोतलें भरी हैं। रूबी पैग बनाकर पी रही है। सिगरेट भी सुलगा रखी है। पीछे दरवाजे पर एक महिला का शृंगारिक पोर्ट्रेट लगा है। रूबी ने टी-शर्ट और नेकर पहना हुआ है। रमेश और अनुराधा रूबी के साथ बैठे हैं।)

रूबी- रूबी नाम है मेरा। हमारे प्रोफेशन में केवल एक छोटा-सा नाम बताना ही काफी है। सरनेम वगैरह की जरूरत ही नहीं होती। वैसे पेशे से मैं कॉलगर्ल हूँ।… कॉलगर्ल समझते हो। ( हँसती है।).. जस्ट कॉल मी. आवाज़ लगाओ और मैं हाजिर हो गई। पैसे दो और मैं तुम्हारी हो गई।

रमेश- रूबी, तुम जानती हो हम यहाँ क्यों आए हैं?

रूबी- आप अकेले आए होते तो यह सवाल ही नहीं उठता… पर आप तो इनको भी साथ… ( हँसती है।)

रमेश- रूबी यह मेरी साथी पत्रकार हैं, अनुराधा चित्रे। हम लोग तुम्हारा इंटरव्यू लेना चाहते हैं।

रूबी- इंटरव्यू..?  इंटरव्यू..? (बुरी तरह से हँसती है।) मेरा इंटरव्यू..? क्यों नेताओं या फिल्म स्टार्स के स्कैंडल कम हो गए हैं क्या जो अब अखबार बेचने के लिए कॉलगर्ल्स की जरूरत पड़ने लगी?

अनुराधा- भाषा तो तुम्हारी बड़ी साफ है। लिखी-पढ़ी लगती हो फिर..?

रूबी- वैसे मैं नागपुर की हूँ। असली नाम वैशाली। वैशाली डॉट, डॉट, डॉट। ख़ैर वैशाली अब मर चुकी है, केवल रूबी है। वैशाली बी.कॉम. पास थी पर काम हासिल करने के लिए न तो कोई अनुभव था, न कोई सिफारिश करने वाला। रूबी के पास हर तरह के अनुभव हैं। बेवफा पतियों से लेकर करोड़पतियों तक के। …और हाँ रूबी को अब सिफारिश की ज़रूरत नहीं। रूबी अब खुद लोगों की सिफारिश किया करती है। गवर्नमेंट कोटे का काग़ज़ अखबार के लिए चाहिए तो बताना। मिनिस्ट्री से लेकर मिनिस्टर तक रूबी के बेडरूम में अख़बार की तरह बिछे रहते हैं। (बैठ जाती है।) इनमें से एक भी बात अख़बार में छापने के लिए नहीं है। अगर छप गई तो रूबी को अख़बार फाड़ने में भी बड़ा मज़ा आता है।.. समझ गए न। ( दूसरी सिगरेट निकालती है। अनुराधा से पूछती है।)  पीती हो?.. नहीं..( फिर हँसती है।)  कैसे पिओगी? औरत हो न! औरत को सिगरेट नहीं पीनी चाहिए , औरत को शराब नहीं पीनी चाहिए, औरत को भड़कीले कपड़े नहीं पहनने चाहिएँँ।… औरत को यह नहीं करना चाहिए, औरत को वह नहीं करना चाहिए। औरत, औरत, औरत। बास्टर्ड्स, साले, रास्कल। पूछो क्या पूछना है?

अनुराधा- (रमेश को देखती है। रमेश  स्वीकृतिसूचक सिर हिलाता है।) ….हमारा सवाल भी एक औरत को लेकर ही है।

रूबी- तो पूछ न। शरमाती क्यों है? पूछ।

क्रमशः …

नोट- ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक को महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त है। ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक के पूरे/आंशिक मंचन, प्रकाशन/प्रसारण,  किसी भी रूप में सम्पूर्ण/आंशिक भाग के उपयोग हेतु लेखक की लिखित पूर्वानुमति अनिवार्य है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत -8 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। 

हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ रहे थे। हम संजय दृष्टिश्रृंखला को कुछ समय के लिए विराम दे रहे हैं ।

प्रस्तुत है  रंगमंच स्तम्भ के अंतर्गत महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त धारावाहिक स्वरुप में श्री संजय भारद्वाज जी का सुप्रसिद्ध नाटक “एक भिखारिन की मौत”। )

? रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत – 8 ☆  संजय भारद्वाज ?

*प्रवेश दो*

(रमणिकलाल नामक छुटभैया नेता का कमरा। पीछे किसी राष्ट्रीय नेता की तस्वीर लगी हुई है। तिपाई पर शराब के साथ लिया जा सकने वाला मांसाहार है। हाथ में शराब की बोतल है। उससे ग्लास में शराब और सोडा डाल रहा है। मंच के कोने में टीवी सेट है। टीवी की स्क्रीन दर्शकों की विरूद्ध दिशा में है। रमणिक के संवादों और हाव-भाव से पता चलता है वह स्क्रिन पर किसी पोर्न फिल्म  की सीडी देख रहा है। बीच-बीच में शराब पी रहा है।)

रमणिक- आहा! क्या फिल्म है! पता नहीं पुलिस ऐसी सीडी क्यों जप्त कर लेती है? ख़ासतौर पर युवा पीढ़ी को तो… और युवा पीढ़ी ही क्यों, हर आयु की पीढ़ी को देखना चाहिए। कितना ज्ञान बढ़ता है। (दरवाज़े की घंटी बजती है। रमणिकलाल उछल पड़ता है। मांसाहार को अंदर के कमरे में रखता है। जल्दी-जल्दी शरीर पर स्प्रे छिड़कता है। ग्लास-बोतल भी अंदर रखता है। मुँह में कोई फ्रेशनर डालता है। भागकर सीडी बंद करता है।)

रमणिक- यह सीडी कहाँ रखूँ? (छिपा देता है।)  हाँ, यह रामायण की सीडी ठीक रहेगी।…( नई सीडी लगाकर कपड़े ठीक-ठाक करता है। टोपी लगाता है। तब तक दो-तीन बार घंटी बज चुकी हैं।)

रमणिक- आता हूँ भाई, आता हूँ। (दरवाज़ा खोलता है।) आइए, आइए। अहोभाग्य हमारे!  (रमेश और अनुराधा अंदर आते हैं।) पत्रकारिता के विश्व का इतना बड़ा जाना-माना नाम इस सेवक की कुटिया में पधारा है। आइए, आइए। आइए बहनजी, आइए। खड़े क्यों हैं आप लोग? बैठिए न।…बैठिए।.. आहा..हा.. क्या बात है! ऐसा लगता है जैसे साक्षात राम-सीता की जोड़ी हो। रमेश जी, आपकी धर्मपत्नी तो…

रमेश- रमणिकलाल जी, यह मेरी धर्मपत्नी नहीं हैं। यह हैं मेरी साथी पत्रकार अनुराधा चित्रे। नवप्रभात से ही जुड़ी हैं।

रमणिक- हें, हें हें, माफ कीजिएगा बहनजी। बैठा-बैठा रामायण का कैसेट देख रहा था तो मन में राम-सीता ही बसे थे। धन्य हो प्रभु! क्या लेंगे आप लोग?

रमेश- जी कुछ नहीं। मैंने उस दिन आपसे कहा था न कि उस भिखारिन पर आपका इंटरव्यू लेना चाहते हैं।… सो आज चले आए।

रमणिक- कुछ नहीं लें, यह तो हो ही नहीं सकता। (शिकंजी तैयार करता है। साथ ही बातचीत करता रहता है।)… इंटरव्यू की भली कही आपने। इंटरव्यू तो होते ही रहते हैं, आप पत्रकारों की दया से।… अब परसों ही ‘जनतंत्र’ अखबार में इंटरव्यू छपा है हमारा, एकदम बड़े से फोटू के साथ। ….आपने नहीं देखा क्या? वह ट्रेन के सामने रास्ता रोको किया था ना हमने। अपनी जनता वसाहत में पानी की इतनी कमी, इतनी कमी कि पूछो मत। अब हम से जनता के दुख-दर्द तो देखे नहीं जाते तो बैठ गए ट्रेन के आगे।

अनुराधा- लेकिन पानी की कमी का ट्रेन रोकने से क्या संबंध?

रमणिक- अरे बहनजी, यही तो विशेषता है हमारे लोकतंत्र की। अब बताइए कि जनता वसाहत किसकी है?

अनुराधा- जनता की।

रमणिक- और रेल किसकी संपत्ति है?

अनुराधा- जनता की।

रमणिक- हाँ..। तो फिर जनता की वसाहत में, जनता को पानी उपलब्ध कराने के लिए, जनता की रेल के आगे, जनता धरना नहीं दे सकती क्या?… यही तो जनतंत्र है।.. अब देखिए, खुद महापौर ने आकर समझाया, वादा किया कि जलापूर्ति ठीक रहेगी, तभी उठे ट्रेन के आगे से।.. धरने के मामले में वैसे भी अपना रिकॉर्ड है, बैठ गए तो बस बैठ गए।

रमेश-  जी वह तो है, इसीलिए तो आप जैसे जुझारू नेता का इंटरव्यू लेने का फैसला किया हम लोगों ने।

रमणिक- धन्यवाद, धन्यवाद।..ये  लीजिए न।.. अब मुझ जैसे गरीब के घर में और कुछ तो मिल नहीं सकता, इसलिए नीबू-पानी तैयार किया है। ( दोनों को शिकंजी के गिलास देता है।)

अनुराधा- रमणिकलाल जी, आपने उस अर्द्धनग्न भिखारिन को तो देखा ही होगा।

रमणिक-हमने ही क्या, पूरे शहर ने देखा है। ढेर सारे स्त्री-पुरुषों ने देखा है। बहू-बेटियों की यह स्थिति केवल इस राज्य के शासन में ही हो सकती है।

अनुराधा- लेकिन यह दशा केवल स्त्रियों की तो नहीं है। गरीबी से लड़ते कमोबेश हर औरत-मर्द की यही कहानी है। पेट में खाना नहीं, बदन पर कपड़ा नहीं।

रमणिक- आप समझी नहीं बहनजी। मर्द केवल एक कच्छे में रहे तो भी चल सकता है पर बगैर कपड़े कोई औरत ऐसे सरे बाज़ार बैठी हो..,भई नौजवानों पर क्या असर पड़ेगा?.. हमारी बच्चियाँ, बेटियाँ, बहुएँ तो उस रास्ते से नज़र उठाकर भी नहीं  नहीं चल सकती ना।  क्या होगा इस देश की सभ्यता का, यहाँ की संस्कृति का?

अनुराधा- रमणिकलाल जी, यह औरत आपके वॉर्ड एरिया की रोड पर बैठी थी। आपने उसे वहाँ से हटाने की कोशिश क्यों नहीं की?

रमणिक-  कोशिश की थी, कोशिश हमने की थी।… पर पहले तो सोचते रहे कि एकाध दिन में जब भी भीख अच्छी इकट्ठा हो जाएगी तो अपने- आप चली जाएगी यहाँ से।

अनुराधा- फिर?

रमणिक- एक दिन तमाशा हो लिया, बर्दाश्त किया। दूसरे दिन भी वही तमाशा, बर्दाश्त किया। तीसरे दिन सुबह-सुबह पहुँच गए सीधे एसीपी भोसले के पास।..कह दिया उनसे कि ये क्या हाल हो गया है? ये क्या चल रहा है आपके राज में?….हमने भोसले से जो बातचीत की थी, उसके बारे में एक प्रेसनोट भी भेजा था सब अखबारों को।…आपको नहीं मिला क्या? प्रकाशित नहीं किया क्या?

रमेश- हो सकता है कि देर से आया हो। आजकल में प्रकाशित हो जाएगा।

रमणिक- रमेश जी, हमारी न्यूज़ ज़रा टाइम पर प्रकाशित किया करें।.. वैल्यू ही टाइम का है।..अब यह प्रेसनोट तो बेकार हो गया ना। वह भिखारिन ही मर गई।…ख़ैर!…वैसे ये इंटरव्यू कौनसी तारीख को प्रकाशित होगा?

रमेश- रमणिकलाल जी, जरा इंटरव्यू पूरा तो हो लेने दीजिए। अनुराधा के पास अभी कई सवाल है आपसे करने के लिए।

रमणिक- हाँ, हाँ बहनजी पूछिए ना।

अनुराधा- एसीपी भोसले ने क्या कहा?

रमणिक-  भोसले बोला कि नेताजी, मैं आप से पूरी तरह सहमत हूँ।.. पर पेपरों ने उस नंगी के बारे में छाप-छाप कर उसे न्यूज़ बना दिया है। अब अगर हम कोई स्ट्राँग एक्शन लेंगे तो पेपर वाले हल्ला करेंगे।.. कोई ह्यूमन राइट्स वाला ऑर्गनाइजेशन…., ह्यूमन राइट समझते हैं ना, मानवाधिकार वाला संगठन चीख-पुकार करेगा।

अनुराधा- याने पुलिस ने मामला सुलझाने से इंकार कर दिया।

रमणिक- अब भोसले भी क्या कर सकता था!  उसके हाथ बंधे हुए थे।

रमेश- एसीपी भोसले के हाथ बंधे हुए थे पर आपके हाथ तो खुले थे।

रमणिक- तो किया ना, हमने किया।… हम चुपचाप नहीं बैठे।

अनुराधा- क्या किया आपने?

रमणिक-  चौथे दिन हम कुछ कार्यकर्ताओं को लेकर वहाँ गए। रात को करीबन ग्यारह बजे। दिन में जाते तो तमाशा हो जाता,… तो रात को गए। देखा तो वह भिखारिन जमीन पर पसरी पड़ी है। हमने उसे पहली बार अच्छी तरह से देखा। हम तो बस बरस पड़े उस पर। बोल दिया, ” अरी बेशरम, बेहया, ऐसे पड़ा रहना है तो कहीं और जाकर मुँह काला कर। हमारा एरिया काहे गंदा कर रही है।”

रमेश- उसने क्या जवाब दिया?

रमणिक- एकदम बेशरम औरत थी। कोई जवाब नहीं। चुपचाप पड़ी रही। हमने कार्यकर्ताओं से कहा, “यह तो मानेगी नहीं, वापस चलो”…पर कार्यकर्ता भी इस नाटक से दुखी थे। एक नौजवान कार्यकर्ता ने उसके शरीर पर से एक निकरनुमा कुछ पहने थी, वह भी खींचकर दूर फेंक दिया। बोला, “शरम होगी तो अपने आप चली जाएगी सुबह तक।” ( हँसता है।) …और देखिए, जो कोई नहीं कर पाया, वह हमने कर दिखाया। मारे शर्म के सुबह तक सचमुच मर गई वह। (हँसता है।) चलिए इलाके से एक गंदगी दूर हो गई।… अरे बहनजी, आपने नीबू पानी तो पूरा पिया ही नहीं। अच्छा नहीं लगा क्या?.क्या है न कि मैं बीवी को साथ नहीं रखता। राजनीतिक आदमी हूँ, जाने कब क्या पचड़ा हो जाए।… लीजिए ना।

अनुराधा- रमणिकलाल जी, आपने उस भिखारिन को कुछ भीख दी थी?

रमणिक- लो जी, उल्टे बांस बरेली को। हम उसे भीख देंगे? हमारे कार्यकर्ताओं ने तो उसको हिला-डुलाकर भी देखा। कहीं भीख के पैसे हों तो लूट लो, अपने आप चली जाएगी।…पर कमाल की ठग थी साली। पता नहीं पैसे कहाँ छुपाकर रखती थी।

रमेश- एक पर्सनल सवाल। उस औरत को यों खुले बदन देखकर रमणिकलाल के भीतर के मर्द को कैसा लगा?

रमणिक- हम समझे नहीं।

अनुराधा- (भिखारिन की मुद्रा में खड़ी हो चुकी है।)  तो यहाँ समझ लो। आओ..देखो… ऐसी ही थी न वह..?

रमणिक-  हाँ, बहुत खूबसूरत थी वह, बहुत..। ….हमने तो कह दिया कार्यकर्ताओं से कि उठा ले चलो।… हम तो कोशिश भी कर रहे थे पर रोड पर दो तीन गाड़ियाँ आती दिखीं, इसलिए बदनामी के डर से भागना पड़ा।…आहा..क्या थी।…भिखारिन नहीं महारानी थी..।..महारानी, …मेरी महारानी….( रमणिक का आगे आगे बढ़ना, अनुराधा का पीछे पीछे हटना।)

क्रमशः …

नोट- ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक को महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त है। ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक के पूरे/आंशिक मंचन, प्रकाशन/प्रसारण,  किसी भी रूप में सम्पूर्ण/आंशिक भाग के उपयोग हेतु लेखक की लिखित पूर्वानुमति अनिवार्य है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत -7 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। 

हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ रहे थे। हम संजय दृष्टिश्रृंखला को कुछ समय के लिए विराम दे रहे हैं ।

प्रस्तुत है  रंगमंच स्तम्भ के अंतर्गत महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त धारावाहिक स्वरुप में श्री संजय भारद्वाज जी का सुप्रसिद्ध नाटक “एक भिखारिन की मौत”। )

? रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत – 7 ☆  संजय भारद्वाज ?

द्वितीय अंक – प्रवेश एक

(विश्वविद्यालय में प्रोफेसर पंत लेक्चर ले रहे हैं। केवल एक ब्लैकबोर्ड, मेज और कुर्सी से इसे दर्शाया जा सकता है।)

प्रोफेसर पंत- कल के विषय को हम आज आगे जारी रखेंगे। हमारा विषय था, ‘बदलते परिवेश में मानवीय मूल्य।’ एक बात ख़ास तौर पर ध्यान रखें। समाजशास्त्र को गहरे से समझने के लिए केवल इन किताबों को पढ़ने से काम नहीं चलेगा। समाज तो हर समय अपने मूल्य बदलते रहने वाला समूह है। इस वजह से समाजशास्त्र भी हर पल बदलता रहता है। लगातार के इस बदलाव की वजह से समाजशास्त्र को समझने के लिए समाज के सीधे संपर्क में रहिए। व्यक्ति के स्वभाव में, उसके आचरण में, सोच-विचार में लगातार परिवर्तन चलता रहता है। यह परिवर्तन लोगों के व्यवहार में खुलकर दिखाई देता है। इस बात को समझने के लिए हम कुछ उदाहरण लेंगे। आज से करीब सौ-सवा सौ साल पहले याने बीसवीं सदी के आरंभ तक भी लोगों की प्राथमिकता थी, मान सम्मान। लोग मान-सम्मान हासिल करने और उसे बनाए रखने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा देते थे। धीरे-धीरे बदलते समय के साथ मूल्य बदले। धन का महत्व समाज में ज्यादा बढ़ने लगा। लोगों की प्राथमिकता बदली। धन पहले नंबर पर आ गया और मान-सम्मान दूसरे नंबर पर चला गया। समय फिर अपनी रफ़्तार से चलता रहा। धन का महत्व बना रहा पर अब लोगों को महसूस होने लगा था कि धन ही सब कुछ नहीं है।आपके पास बाहुबल होना चाहिए, ताकत होनी चाहिए। ……….आगे जैसे-जैसे सामाजिक स्थितियाँ बदलीं, सामाजिक मूल्य भी बदलते रहे। हम अत्याधुनिक जेटयुग में आ पहुँचे। इस युग में अन्य सारी बातें पीछे छूट गईं और चर्चा में बने रहने की वृत्ति बढ़ गई। आज की तारीख में चर्चित होना, किसी भी तरह चर्चित रहना ज़रूरी-सा  हो गया है। आप चर्चित होंगे तो अन्य सामाजिक मूल्य खुद-ब-खुद आपको हासिल हो जाएँगे। इस मेनपोस्ट वाली भिखारिन का ही उदाहरण लें। वह अच्छे से जानती थी कि बदनाम होंगे तो क्या नाम ना होगा? औरत होने के नाते उसके पास चर्चा में रहने का बेहतरीन ज़रिया था उसका शरीर…. और इसका उसने भरपूर फायदा उठाया। (लेक्चर समाप्त होने की घंटी बजती है।)… आज हम यही रुकेंगे। कल इस भिखारिन वाले प्रसंग से ही विषय को आगे बढ़ाएँगे। (लेक्चर समाप्ति के बाद अपने कक्ष की ओर जाते प्रोफेसर पंत। कॉरिडोर में रमेश और अनुराधा प्रतीक्षा कर रहे हैं। तीनों चलते-चलते चर्चा करते हैं।)

रमेश- प्रोफेसर पंत, जैसाकि आप स्टूडेंट्स को बता रहे थे कि उस भिखारिन ने अपने कपड़े चर्चित होने के लिए उतारे।

प्रोफेसर पंत-  जी हां निश्चित, सर्टेनली।

अनुराधा- पर सर वह भीख मांगने के लिए भी तो ऐसा कर सकती थी।

प्रोफेसर पंत- आप लोग मेरी बात समझे नहीं। (अपने कमरे तक पहुँच जाते हैं। जाकर बैठते हैं। रमेश और अनुराधा को बैठने के लिए कहते हैं।

प्रोफेसर पंत- आप चर्चा और भीख मांगने में जो संबंध है उसे समझ नहीं पाईं। उसने किसी भी वजह से ऐसा किया हो, हर हाल में उसके पीछे मूल प्रवृत्ति रही लोगों की भीड़ को आकर्षित करने की इच्छा याने चर्चित होने के मनोवृति। भीख मांगना उसका पेशा था। स्वाभाविक है कि व्यक्ति अपने पेशे में ज्यादा से ज्यादा कमाना चाहेगा। उसके अर्द्धनग्न हो जाने से बात बन गई होगी और हजारों लोग वहाँ गए होंगे। वह चर्चा के केंद्र में रही। स्वाभाविक था कि इस दौरान उसका बिजनेस भी खूब हुआ होगा।

अनुराधा- सर डोंट माइंड। समाजशास्त्र के नियमों के अनुसार आपकी बात में दम है। आई मीन आपका कहना सही है कि उसने चर्चा में रहकर अपना बिजनेस बढ़ाने के लिए ऐसा किया लेकिन तथ्य इसके विरुद्ध हैं। भिखारिन शायद कुपोषण या कमज़ोरी से मर गई। अगर मान लिया जाय कि लोगों को अपनी और आकर्षित करने के लिए उसने यह प्रोपेगैंडा किया तो भी इस प्रोपेगैंडा का कोई लाभ उसे नहीं मिला।

प्रोफेसर पंत-  जैसा मैंने कहा कि समाज में बदलाव निरंतर चलता रहता है। बदलते समय के साथ वृत्तियाँ भी बदलती हैं। आज भूखे रहकर भी या मरते-मरते भी चर्चित हो सकने की वृत्ति समाज में घर कर गई है,.. बुरी तरह घर कर गई है। संभव है कि इस भिखारिन को भी अपनी मौत सामने दिखाई दे रही हो और आख़िरी वक्त में चर्चित होने के लिए उसने ऐसा किया हो।

रमेश- आई एम सॉरी प्रोफेसर पंत। बात कुछ गले नहीं उतरती कि आदमी को मौत सामने दिखाई दे रही हो और वह चर्चित होने की कोशिश करे?

प्रोफेसर पंत- (बिगड़ उठते हैं।) आप पॉइंट तो समझना नहीं चाहते और बहस करते हैं। मैं कह रहा हूँ कि वृत्तियाँ भी बदलती हैं समय के साथ।…. और फिर जब मैं कह रहा हूँ,  प्रोफेसर पंत कह रहे हैं कि उसने चर्चित होने के लिए ऐसा किया तो मानते क्यों नहीं आप?  यू मस्ट एक्सेप्ट कि हाँ उसने चर्चित होने के लिए ऐसा किया।

रमेश- लेकिन एक्सेप्शन भी तो होते हैं ना सर।

प्रोफेसर पंत-  प्रोफेसर पंत के सिद्धांतों को, उनकी विचारधारा को कोई एक्सेप्शन लागू नहीं होता।… सोशियोलॉजी पढ़ा है आपने?

रमेश- जी नहीं।

प्रोफेसर पंत- (अनुराधा से) आपने?

अनुराधा- नहीं।

प्रोफेसर पंत-  मैंने पढ़ा है।  मैंने पढ़ा भी है और 24 साल से पढ़ा भी रहा हूँ.., तभी तो यूनिवर्सिटी में एचओडी बन पाया हँ।

अनुराधा- सही बात है सर। हम जानते हैं आपने सोशियोलॉजी बहुत पढ़ा है, पढ़ा रहे हैं और यूनिवर्सिटी में एचओडी हैं। इसी वज़ह से हम लोगों ने आपका इंटरव्यू लेने का फैसला किया।

रमेश- एक मिनट के लिए इस विवाद को किनारे कर दें कि उस भिखारिन ने ऐसा क्यों किया। इस पर चर्चा होती रहेगी। फिलहाल दो छोटे- छोटे सवाल। पहला.., क्या आपने उस भिखारिन को भीख दी?

प्रोफेसर पंत- सवाल ही नहीं उठता। पहली बात तो मैं वहाँ गया ही नहीं। यह सीधे-सीधे प्रोपेगैंडा और मूल्यों में बदलाव का एक मामला था। मैं अगर वहाँ गया भी होता तो उसे कुछ देता नहीं। शी वॉज़ मेड फॉर दिस काइंड ऑफ डेथ ओनली..। यदि वह कुपोषित थी, कमज़ोर थी  तो भी उसे इसी तरह की मौत की ज़रूरत थी ताकि चर्चित होने की इस वृत्ति पर अंकुश लग सके।

रमेश- सर, दूसरा सवाल। आपके अनुसार भिखारिन के इस कृत्य का समाज पर क्या प्रभाव पड़ा है?

प्रोफेसर पंत- समाज पर गलत, बेहद गलत प्रभाव पड़ा है। एक औरत यों पब्लिक प्लेस में अपनी नुमाइश करे तो असर तो खतरनाक होंगे ही। निकट भविष्य में शहर में औरतों के साथ होने वाले अपराधों की संख्या बढ़ सकती है।

अनुराधा- सर! इस घटना पर एक इंडिविजुअल पुरुष की प्रतिक्रिया क्या हो सकती है, बताएँगे आप?

प्रोफेसर पंत- सरल सी बात है। हर व्यक्ति के भीतर की वासना, हर पुरुष के अंदर की पशुता ऐसे दृश्यों को देखकर जग जाती है। फिर वह पंद्रह साल का बच्चा हो या सत्तर साल का वृद्ध।

रमेश- लेकिन इसके कुछ एक्सेप्शन तो होंगे ही न?

प्रोफेसर पंत- फिर वही एक्सेप्शन… मैंने आपसे अभी कहा था कि प्रोफेसर पंत के सिद्धांतों का कोई एक्सेप्शन नहीं होता। एवरीवन हैज टू एक्सेप्ट इट।

रमेश- देन वॉट डू यू थिंक अबाउट योरसेल्फ प्रोफेसर? आपके भीतर का भी वह मर्दाना जानवर उस भिखारिन को देखकर बेकाबू तो हुआ ही होगा!  अंदर की सारी कामवासना..

प्रोफेसर पंत- क्या बकते हो। पत्रकारिता के नाम पर पीत-पत्रकारिता करते हो। मैं तुम्हें अदालत में खींचूँगा। गेट आउट.., गेट लॉस्ट।

( क्रोध में प्रोफेसर रमेश को धक्के मारकर निकालता है। तब तक अनुराधा भिखारिन बनकर खड़ी हो जाती है। अनुराधा का यह रूप देखकर प्रोफेसर की वासना जागृत हो उठती है।)

प्रोफेसर पंत- तुम वही भिखारिन हो ना। अरे तुमको चर्चित होने की क्या ज़रूरत थी?…. ये जो स्टूडेंट्स को पढ़ाता हूँ मैं कि मूल्य बदलते हैं, ….ये सब बकवास है। एक मूल्य हमेशा पहले नंबर पर रहा है…..एक वृत्ति हमेशा पहली रही है……पुरुष के नर होने की वृत्ति….. स्त्री को मादा समझने की वृत्ति।… आओ ना मेरे पास।… मैं तुम्हारी सारी ज़रूरतें पूरी कर दूँगा।… आओ मेरे पास..!

(अनुराधा का हटना। प्रोफेसर का वासनापीड़ित होकर उसे खोजना।)

क्रमशः …

नोट- ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक को महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त है। ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक के पूरे/आंशिक मंचन, प्रकाशन/प्रसारण,  किसी भी रूप में सम्पूर्ण/आंशिक भाग के उपयोग हेतु लेखक की लिखित पूर्वानुमति अनिवार्य है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – रंगमंच/सिनेमा ☆ मुंबई में “का बा” के गीतकार – डॉ. सागर ☆ सुश्री मनिषा खटाटे

सुश्री मनिषा खटाटे

 ☆ रंगमंच/सिनेमा ☆ मुंबई में “का बा” के गीतकार – डॉ. सागर ☆  सुश्री मनिषा खटाटे☆ 

पिछले वर्ष मुंबई में “का बा” यह गीत मशहूर हुआ. यह गीत प्रसिद्ध अभिनेता मनोज बाजपेयी ने गाया और उन्हीं के उपर फिल्माया गया. यह गीत भोजपुरी भाषा में हैं. परंतु यथार्थवाद और सामाजिक संघर्ष की कहानी व्यक्त करने में स्वयं ही सक्षम हैं. सिनेमा भी साहित्य की तरह एक संरचना हैं. डाँ.सागर सिनेमा, गीत और साहित्य के इंद्रधनुष  हैं. बॉलीवुड में बलिया, उत्तरप्रदेश से आकर डा. सागर अपने गीतों मे तितलियों के रंग भरते हैं और उन्हे बेचने के लिये वे जे.एन.यु. से बॉलीवुड आ जाते है. डॉ. सागर के दादी का यह सपना उनके दिल की धड़कन बन जाता है और बॉलीवुड  पर छा जाता है, यह गीतों का सपना श्रेया घौषाल से लेकर तमाम महान गायको की आवाज से गूँजता हैं. शोरगुल की इस मायानगरी मे डॉ. सागर एक अजूबा गीतकार है. डॉ सागर का यह सफर किसी फिल्मी कहानी सें कम नही है.

साहित्य का सौंदर्य और तहजीब अगर गीतो से बरसने लगे तो सावन में भी आग लग जाती है. बंम्बई के उम्मीदों की उँची इमारतें और नंगे पांव चलने वाले रास्ते अपनी मंजिल तक पहुँच ही जाते है. मगर उनके इस पसीने में भी मजनू के मैले कुर्ते से साहिरवाली खुशबू आती है. यथार्थवाद और छायावाद के फूल कोरे कागज पर उमड़ते हैं. लोक जीवन प्रतीक और बिंबो मे जाम की तरह छलकता है. डॉ. सागर के गीत समाज के संघर्ष को किनारा देते है. सामान्य मनुष्य की आवाज को बुलंदी तक पहुँचाता है. यह हकीकत वे इस तरह अपने गीतो मे बयां करते हैं — “ख्वाबों को सच करने के लिये तितली ने सारे रंग बेच दिये”, “ख्वाबों की दुनिया मुकम्मल कहाँ है, जीने की ख्वाइशों में मरना यहाँ है”. “बॉलीवुड डायरीज” इस फिल्म ने उन्हे बतौर गीतकार एक पहचान करा दी हैं, नहीं तो बॉलीवुड में अक्सर यह कहते सुना हैं की ज्यादा गुलज़ार बनने की कोशिश मत कर. लेकिन इसका एक अर्थ यह है की बॉलीवुड सें उर्दू का प्रभाव कम करने में पंजाबी, भोजपुरी और मराठी संस्कृति तथा टॉलीवूड भी सफल रहा है. भारतीय फिल्मों पर अपनी अमिट छाप डाल रहे है. इस माहौल मे डॉ.सागरजी के गीत भोजपुरी तडका लगा रहे है. ये नया दौर है, ये नये जमाने की नयी आवाज है, ये बॉलीवुड को नयी डायरी लिखने के लिये मजबूर करेगी.

दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात यह हैं की बंम्बई मे का बा ! इस गीत ने एक बडा इतिहास रच दिया हैं. इस गीत को मशहुर अभिनेता मनोज वाजपेयी ने गाया है और उनके उपर चित्रित किया गया है. इस गीत ने मुंबई के जीवन को सही मायनों मे शब्दांकित किया हैं. रोटी, कपडा और मकान के चक्कर मे हम मुंबई आकर हमारा असली जीवन भी भूल जाते हैं. पैसे कमाने की इच्छा ने मुंबई हमसे क्या क्या नही छीनती? लोकल पकडने की भीड और होड में हम हमारे चेहरे भी भूलते है. यहाँ वडा पाव खाते समय गांव की रोटी आंसुओ के साथ याद आती हैं. यह करते वक्त कभी आतंकी हमले को भी सीने पर झेलना पडता है. जान जाती हैं फिर भी दूसरे दिन जिंदगी को पटरी पर लाना आवश्यक होता है. यही मुंबई है. यही अहसास डाँ.सागर फिल्मों की चकाचौंध मे भूले नही है. मुंबई का यह तथ्य इस गीत में उजागर होता हैं. मुंबई एक राक्षस की तरह हैं जो लोगों का पेट तो भरती है मगर उनके सपने निगल जाती हैं. यहाँ लोग पसीने से अपनी प्यास बुझाते हैं. मुंबई पर आज तक बहुत सारे गीत बने होंगे परंतु मुंबई का ऐसा तीखा, दिल को चुभनेवाला दर्द शायद ही कोई बयां कर पाया हैं. यह अदभुतवाद और यथार्थ का अनोखा संयोग है. यू.पी और बिहार से जो प्रवासी मजदूर है ज्यादातर उनकी यह कहानी हैं. यह कहानी आपको फुटपाथ पर और मुंबई के हर गलीं में या हर सडक पर दिखाई देगी. भूंख, प्यास बुझाने के चक्कर मे जिस्म की खरीद फरोख्त कब शुरु हो जाती है, इसका अहसास भी नहीं हो जाता. मुंबई की अपनी एक दुनियां हैं. इस दुनिया के रंग निराले हैं, किसी किसी के ही पकड में आते हैं. इसकी दिवाली अलग है तो इसकी होली भी. हाल ही में डाँ. सागर का और एक गीत मशहूर हो रहा है “बबुनी तेरे रंग में”. होली के रंग मे रंगने का यह एक नया अंदाज है. लोक जीवन के व्यवहार को पर्दे पर अंकित करने का काम बखूबी फिल्मे निभाती हैं. काव्य तथा गीत लोकजीवन का आधार होता हैं और गीत भारतीय फिल्मों का अहम् हिस्सा है. गीतो के बिना फिल्मे अधूरी होती है. वह फिल्म की आत्मा होती है. यह सुर डा. सागर के गीतो की लय है. गीत ही फिल्म की असली पहचान करा देते है. वे फिल्मों को सामर्थ्य प्रदान कराते है.

डा. सागरजी के जीवन के तीन प्रमुख पडाव है, बलिया, जे.एन.यू. और बॉलीवुड. अक्सर तीनों का प्रभाव आपके गीतों पर पडता दिखाई देता है. सितारों की तरह आकाश में झिलमिलाता है. ये गीत बॉलीवुड को प्रकाशित करते है.

डा. सागर जी का यह गीतों का सफर चलता रहे. न रुकने वाला एक कारवाँ बने यह कामना व्यक्त करती हूँ. डा. सागरजी में वह काव्य प्रतिभा है की उनके गीत इस मायानगरी को पुलकित करते रहेंगे.

© सुश्री मनिषा खटाटे

नासिक, महाराष्ट्र (भारत)

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत -6 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। 

हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ रहे थे। हम संजय दृष्टिश्रृंखला को कुछ समय के लिए विराम दे रहे हैं ।

प्रस्तुत है  रंगमंच स्तम्भ के अंतर्गत महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त धारावाहिक स्वरुप में श्री संजय भारद्वाज जी का सुप्रसिद्ध नाटक “एक भिखारिन की मौत”। )

? रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत – 6 ☆  संजय भारद्वाज ?

रमेश-  वाह मान गए मधु वर्मा। वेरी गुड शॉट विद क्लासिक टच ऑफ सेंटीमेंट्स एंड रियलिटी।

मधु-थैंक्यू।

रमेश- बाय द वे आय एम रमेश अय्यर। हिंदी ‘नवप्रभात’ का संपादक हूँ। (मधु हाथ मिलाती है।) मेरी साथी पत्रकार अनुराधा चित्रे।

मधु- हैलो।

अनुराधा- हैलो।

मधु- प्लीज हैव ए सीट।

रमेश-मधु लगता है इस बार तुम आलोचकों का मुँह बंद कर दोगी। मधु  को अभिनय नहीं आता, मधु इंग्लिश टोन में संवाद बोलती है… इंग्लिश टोन की हिंदी तो छोड़ो, ठेठ भोजपुरी में संवाद!

मधु- क्रिटिक्स? क्रिटिक्स की तो…( हँसती है।) छोड़ो यार तुम भी तो क्रिटिक हो। मुझे क्रिटिक्स पर बहुत गुस्सा आता है पर कुछ बोल दूँगी तो कल फिर हेडलाइंस होंगी कि मधु घमंडी है। अभी फ्लॉप है तो यह हाल है, कल अगर हिट हो जाएगी तो क्या होगा, वगैरह-वगैरह..( हँसती है।)  कहो कैसे याद किया? मेरे बारे में कोई नया गॉसिप छपा है क्या?

अनुराधा- मधु जी,  हम एक इंटरव्यू सीरीज़ तैयार कर रहे हैं।

मधु- कैसी इंटरव्यू सीरीज़? वैसे माफ कीजिएगा मैंने आपको पूछा नहीं कि क्या लेंगे? यहाँ कोल्ड ड्रिंक्स से लेकर… रादर सॉफ्ट ड्रिंक्स  से लेकर हार्ड ड्रिंक्स तक सब मिल जाएगा।

रमेश- नो थैंक्स। फिलहाल तो इंटरव्यू के सिवा दूसरा कुछ नहीं लेंगे।

मधु- (हँसती है।)

अनुराधा-  मधु जी, आपने उस मेनपोस्ट वाली भिखारिन को तो देखा होगा।

मधु- भिखारिन? आप फिल्मस्टार मधु वर्मा के पास किसी भिखारिन की बात लेकर आए हैं। आर यू ऑलराइट?

रमेश- वी आर वेरी मच ऑलराइट मिस मधु वर्मा। लेट मी एक्सप्लेन इट। ऐसा है मधु कि पिछले कुछ दिनों से मेनपोस्ट वाली वह भिखारिन इन काफी चर्चा में थी।

मधु- रमेश आप उस न्यूड भिखारिन की बात कर रहे हैं?

रमेश- हाँ वही। वह भिखारिन आज अपनी मौत के बाद भी एक इशू है इस शहर के लिए। हमने सोचा कि समाज के अलग-अलग लोगों से उनकी रिएक्शन्स जानी जाएँ इस मामले पर।… हमने एसीपी भोसले का इंटरव्यू किया। प्रसिद्ध चित्रकार नज़रसाहब का इंटरव्यू किया। फिल्म इंडस्ट्री से आपको चुना।

मधु- ओह थैंक्यू! पूछिए, क्या पूछ रही थीं आप?

अनुराधा- मधु जी आपने उस भिखारिन को देखा था?

मधु- हाँ देखा था। मैं कामत के स्टूडियोज में जा रही थी। कार सिग्नल की वज़ह से मेनपोस्ट पर काफी देर रुकी थी इसलिए उस भिखारिन को देखने का मौका मिल गया।

अनुराधा- जब आपने उसे देखा तो वह क्या कर रही थी?

मधु- क्या कर रही थी? (जोर से हँसती है।)..वॉट डू यू मीन? भिखारी क्या कर सकता है?

अनुराधा-आय मीन लोगों से भीख मांग रही थी। लोग उसे भीख दे रहे थे। या ऐसा ही कुछ..?

मधु- नहीं, ऐसा कुछ नहीं। यू नो मैंने जब उसे देखा तो उसने बदन के ऊपर के हिस्से पर कुछ भी नहीं पहना था। न खुद को हाथों से ही ढकने की कोशिश की थी। वह तो मेेनपोस्ट की दीवार का सहारा लिए चुपचाप आसमान को देख रही थी।

अनुराधा- लोग उसे भीख दे रहे थे?

मधु- शिट..। उसे देखने के बाद ऐसी घटिया बातें सोच में आ ही नहीं सकती थीं। शी वॉज़ मारवेलेस, ब्यूटीफुल, मोनालिसा ब्यूटी, वीनस टच..। यू नो, ज़िंदगी में पहली बार किसी औरत की ख़ूबसूरती से जलन हुई। अ पीस ऑफ इटरनल ब्यूटी, अ सिम्बल ऑफ सेक्स। अगर किसी प्रोड्यूसर की नज़र पड़ जाती उस पर तो वह औरत करोड़ों में खेलती।

अनुराधा- आपने उसे कुछ भीख देनी चाही?

मधु-वॉट डू यू एक्सपेक्ट फ्रॉम मी? फिल्म स्टार मधु वर्मा अपनी गाड़ी से उतरकर एक भिखारिन को  भीख देने जाए? पॉसिबल ही नहीं था…और होता भी तो मैं नहीं देती।

अनुराधा- क्यों?

मधु- शी वॉज़ सो ब्यूटीफुल। मैं तो उसे अपनी नज़रों में भर रही थी। उसकी वह फिगर, वे  फीचर्स सब मेरे ख़याल में हैं। मूवी में चांस मिला और रोल की डिमांड हुई तो मैं अपने ऑडियंस के लिए ऐसा सीन करना पसंद करूँगी पर…. साला यह सेंसर बोर्ड बीच में आ जाता है। (हँसती है।)

अनुराधा- कोई और कमेंट उस भिखारिन के बारे में?

मधु- नहीं बस वही ब्यूटी… क्या कहते हैं आप लोग हिंदी में…सुंदर-सुंदरया.. ऐसा कुछ वर्ड है न!

रमेश- सौंदर्य।

मधु- हाँ, हाँ, वही। यू नो हिंदी इज़ वेरी टफ़ यार। सौंदर्या का अद्भुत नमूना, मेनपोस्ट की अधनंगी भिखारिन। (हँसती है।)…….अच्छा हुआ, मर गई नहीं तो कई हीरोइनस् को खतरा पैदा हो जाता।…(जोर से हँसती है।)

(पार्श्व में वही अँग्रेज़ी धुन। मधु दोनों पत्रकारों को विदा करती है। फिर अपने रिहर्सल में जुट जाती है।)

।।इति प्रथम अंक।।

क्रमशः …

नोट- ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक को महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त है। ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक के पूरे/आंशिक मंचन, प्रकाशन/प्रसारण,  किसी भी रूप में सम्पूर्ण/आंशिक भाग के उपयोग हेतु लेखक की लिखित पूर्वानुमति अनिवार्य है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत -5 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। 

हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ रहे थे। हम संजय दृष्टि  श्रृंखला को कुछ समय के लिए विराम दे रहे हैं ।

प्रस्तुत है  रंगमंच स्तम्भ के अंतर्गत महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त धारावाहिक स्वरुप में श्री संजय भारद्वाज जी का सुप्रसिद्ध नाटक “एक भिखारिन की मौत”। )

? रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत – 5 ☆  संजय भारद्वाज ?

रमेश- भोसले संभालो खुद को, संभालो। (भोसले को लाकर उसकी कुर्सी पर बैठाता है। भोसले को यों ही छोड़कर अनुराधा को लेकर रमेश तेजी से निकल जाता है।)

प्रवेश पाँच

(अनुराधा और रमेश दिखाई देते हैं। नवप्रभात का कार्यालय दिखाया जा सकता है अथवा खुले रंगमंच का भी उपयोग हो सकता है।)

अनुराधा -अजीब हालत है, अजीब हालत है। अजीब हालत है दुनिया की। सारे के सारे पुरुष एक खास रोग से जकड़े हुए। सब यौनकुंठा के मारे हुए। सेक्स मैनिएक्स! एक खूंखार, हिंसक जानवर छिपा है सबके भीतर।

रमेश- जानवर छिपा है, एग्रीड। लेकिन अनुराधा पशु हम में से हर एक के भीतर है। इसके लिए केवल पुरुषों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। जितना हिंसक पशु पुरुष के भीतर है,  उतना ही स्त्री के भीतर भी है।

अनुराधा- मैं नहीं मानती।

रमेश- सच्चाई को नहीं मानने से नहीं चल सकता। वैसे अनुराधा, पशु किसे कहती हो तुम?

अनुराधा- एक मनोदशा, एक विकृति, दूसरे के दुख से आनंद उठाने की प्रवृति।  वह आनंद शरीर का भी हो सकता है और मानसिक भी हो सकता है।

रमेश- करेक्ट। अनुराधा चित्रे, यही मैं भी समझाने की कोशिश कर रहा हूँ। बहू को तकलीफ देने वाली, चाहे वह शारीरिक तकलीफ हो या मानसिक,… तकलीफ देने वाली सास भी एक स्त्री ही होती है। बहू को अपने अधीन रखकर किए जाने वाले शासन से मिलने वाला सुख क्या औरत के भीतर का हिंसक पशु नहीं है?

अनुराधा- है पर इस पशु का….

रमेश- मुझे अपनी बात पूरी करने दो अनुराधा। ज्यादातर चकलों को, वेश्यालयों को चलाने वाली औरतें ही होती हैं। ये औरतें अपने से कमज़ोर औरतों को मजबूर कर उनसे धंधा करवाती हैं।

अनुराधा-पर यह तो पेट की ज़रूरत है। पेट भरने के लिए कुछ ना कुछ तो करना ही पड़ेगा न।

रमेश- कम ऑन अनुराधा। अपने भीतर के पशु को हम मज़बूरियों का नाम नहीं दे सकते। यों देखा जाय तो जो लोग सुपारी लेकर खून करते हैं, वे सुपारी अपना पेट भरने के लिए ही तो लेते हैं।…पर सवाल यह है कि क्या केवल वे ही भूखे हैं? दूसरे क्यों नहीं करते खून? किसी की जान लेने में आनंद अनुभव करने वाला सुपारी लेने के बजाय सुपारी बेच कर भी जो अपना पेट भर सकता है,… पर नहीं, वह ऐसा नहीं करता। वज़ह भीतर का पशु।

अनुराधा- आई एक्सेप्ट इट। मैं इस सच को स्वीकार करती हूँ पर रमेश इस भिखारिन का किसी स्त्री से संबंध तो आता नहीं। वैसे भी कोई औरत इस भिखारिन को शारीरिक या मानसिक रूप से क्यों प्रताड़ित करेगी?

रमेश- मैं पक्का तो नहीं कह सकता पर लाखों की भीड़ वाले शहर में ऐसी औरतें होंगी ज़रूर जो अपने भीतर के पशु का इस भिखारिन से सीधा संबंध जोड़ पाएँ।

अनुराधा- कहीं संपादक महोदय शहर की कुछ औरतों को अपने इंटरव्यू सीरीज़ का अगला पात्र बनाने की तो नहीं सोच रहे हैं?

रमेश- बिल्कुल सही अनुराधा। एक औरत को यों खुले बदन देखकर केवल मर्द रिएक्ट करेगा, यह ज़रूरी तो नहीं। अपनी सीरीज़ को ज्यादा रोचक बनाने के लिए हम इसमें एक-दो जानी-मानी महिला हस्तियों का नाम भी डाल देते हैं।

अनुराधा- एज़ यू विश सर। मैं अपनी लिस्ट में कुछ महिलाओं के नाम भी डाल देती हूँ।

प्रवेश छह

(अभिनेत्री मधु वर्मा का घर। मधु ट्रैक सूट में है। वह व्यायाम कर रही है। टेप पर कोई अँग्रेजी धुन बज रही है।  मधु बीच-बीच में शीशे में खुद को निहारती है, फिर संगीत पर थिरकती है। फिर व्यायाम करने लगती है।)

मधु- (शीशे में खुद को देखते हुए) वाह मधु वर्मा, वाह! क्या बैनर मारा है! खुराना फिल्म्स इंटरनेशनल..।… खुराना फिल्म्स इंटरनेशनल की धमाकेदार पेशकश, ‘एक हसीना’,… एक हसीना है..इन एंड एज़ मधु वर्मा..।.. एक हसीना, मधु वर्मा। … वही मधु वर्मा, जिसके लिए क्रिटिक लिखते हैं कि उसके चेहरे पर भाव नहीं आते। डायलॉग्स ठीक से नहीं बोल पाती।..यू नो शी हैज लॉट ऑफ इंग्लिश टोनिंग…इडियट्स…बिना इंग्लिश टोनिंग हिंदी फिल्म चलती है क्या…?..मधु वर्मा, एक फ्लॉप हीरोइन!.  क्या-क्या नहीं किया! हर तरह से कोशिश की। हर किस्म का समझौता किया पर हर मूवी फ्लॉप..!. ज्यादा से ज्यादा बोल्ड रोल किए, ज्यादा से ज्यादा अंग प्रदर्शन किया। पर रिजल्ट… ऊपर से वह ‘मूवी वर्ल्ड’ वाली रचना पूछती है, ‘मधु जी, आपकी इमेज को बिकनी इमेज कहा जाता है। आपको नहीं लगता कि आपकी इस इमेज की वज़ह से आपकी हर फिल्म का प्रोड्यूसर कम से कम एक सीन में आपको बिकनी पहनाना चाहता है। ..यू हैव बिकम अ सेक्स सिम्बल। इस वज़ह से अच्छे रोल आपके हाथ में नहीं आते।’ …हूँ.., सेक्स सिम्बल, माय फुट..। मुझे बिकनी गर्ल कहा जाए या पेंटी गर्ल, तुमसे मतलब?.. गो टू हेल।.. मुझे अपनी ज़िंदगी के फैसले लेने का हक है। ( शीशे के आगे खड़ी होकर खुद को अलग-अलग मुद्राओं में देखती है। फोन की घंटी बजती है।)

मधु- हैलो हाँ खुराना जी, मैं ही बोल रही हूँ।…बस जरा फिगर मेनटेन कर रही थी। (हँसती है।)  जी, आप फिक्र ना करें।…..जी, मुझे अच्छी तरह से आपकी बात याद है।.. यह रेप सीन मुझे इंडस्ट्री में नई ऊँचाइयों पर ले जाएगा।… यस…या….या…या आई अंडरस्टैंड खुराना जी,  मैं जानती हूँ कि मुझे एक बिग हिट की ज़रूरत है।…जी, जैसे आपने बताया था उससे ज्यादा रियलिटी आएगी सीन में।.. आई विल फुल्ली को-ऑपरेट सर.., आई हैव टू को-ऑपरेट सर.., ठीक है, फोटो सेशन नेक्स्ट वीक रख लेते हैं।…ओके…ओके..थैंक्यू सर। (फोन रखती है।)….बास्टर्ड… एक फिल्म हिट हो जाए तो मेरे चारों तरफ अपने आप चक्कर लगाएगा। ( स्क्रिप्ट उठाकर रिहर्सल शुरू करती है।)

मधु- नहीं…देखो…देखो हमका छोड़ दो।… हम एक सरीफ खानदान की औरत हैं। हमने तो कभी आपके कुछ बिगाड़े नहीं।.. कौनो गलती हो गई हो तो माफ कर दें बाबू।.. हम गरीब ज़रूर हैं पर इज़्जतदार हैं।…नहीं… हाथ नहीं लगाना…. हाथ नहीं लगाना।… हमका छोड़ दो… हमका छोड़ दो… हमका छोड़ दो।…. छोड़ दो हमका। ( यहाँ वहाँ भागना, रोना)

(रमेश और अनुराधा का तालियाँ बजाते हुए प्रवेश) 

रमेश-  वाह मान गए मधु वर्मा। वेरी गुड शॉट विद क्लासिक टच ऑफ सेंटीमेंट्स एंड रियलिटी।

मधु-थैंक्यू।

क्रमशः …

नोट- ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक को महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त है। ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक के पूरे/आंशिक मंचन, प्रकाशन/प्रसारण,  किसी भी रूप में सम्पूर्ण/आंशिक भाग के उपयोग हेतु लेखक की लिखित पूर्वानुमति अनिवार्य है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – रंगमंच ☆ “एक भिखारिन की मौत” – एक दर्शक की दृष्टि से ☆ श्रीमती वीनु जमुआर

श्रीमती वीनु जमुआर

“एक भिखारिन की मौत” निश्चित ही एक सार्थक मनोवैज्ञानिक कल्पना है जिसकी चर्चा आदरणीया श्रीमती वीनु जमुआर जी ने इस समीक्षा में किया है। इस नाटक के सन्दर्भ में  ई-अभिव्यक्ति में पूर्व प्रकाशित संस्मरण का लिंक दे रहे हैं जो श्री संजय भारद्वाज जी के रंगमंचीय अनुभव से आपको परिचित कराएगा।

☆ संजय दृष्टि  – समय कैसे पंख लगाकर उड़ जाता है!

श्री संजय भारद्वाज जी की पुस्तकें “एक भिखारिन की मौत” एवं अन्य पुस्तकें अमेज़न पर निम्न लिंक पर उपलब्ध हैं: 

1- एक भिखारिन की मौत, गंगा स्तुति और अन्य एकांकियाँ, रंग बिरंगा मेरा छाता, बूँद-बूँद मोती 

2- एक  भिखारिन  की  मौत, योंही, चहरे, मैं नहीं लिखता कविता 

 – संपादक ई अभिव्यक्ति 

? रंगमंच ☆ “एक भिखारिन की मौत” – एक दर्शक की दृष्टि से ☆ श्रीमती वीनु जमुआर ?

विश्व रंगमंच दिवस की संध्या!

आयोजन – बहुचर्चित नाटक  ‘एक भिखारिन की मौत ‘ के अंग्रेज़ी संस्करण का विमोचन !

जिसकी यादें मन के किसी कोने में अभी भी ठक-ठक करती हुई जीवित हैं। यह शाम ही क्यों, छः या सात वर्ष पूर्व  जब ‘एक भिखारिन की मौत’ का मंचन होने जा रहा था , उस दिन भी यह प्रश्न सम्मुख खड़ा था –

मृत्यु तो जीवन का सबसे बड़ा शाश्वत सत्य है फिर एक  मौत पर इतनी चर्चा ?   मुझ जैसे साधारण व्यक्ति के मन का यही प्रश्न , मेरे नाटक प्रेमी हृदय की उत्सुकता बनी और मुझे खींच ले गयी थी नाट्य भवन की ओर ! और जो देखा था वह आज भी जहन में वैसे ही धरा है, संजोया हुआ !

मानव मनोविज्ञान जिसे हम अंग्रेजी में  Human Psychology कहते हैं न – उसका अद्भुत प्रयोग !!

प्रयोग मैं इसलिए कह रही हूँ कि  हर चीज़ के दो पहलू होते हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष। इस नाटक में पुरुष द्वारा सहज छुपायी जाने वाली परोक्ष वृत्ति को दृश्यमान प्रत्यक्ष में परिवर्तित करने के लिए किए गए जद्दोजहद को नाटककार नें सशक्त  संवादों के माध्यम से जिस प्रकार दर्शाया है उसे अपने आपमें एक प्रयोग ही कहा जा सकता है।  नाटक के दो प्रमुख पात्र, संपादक रमेश अय्यर एवं उपसंपादिका अनुराधा चित्रे के मध्य  ‘हिप्नोटिज्म’ के विषय में होते संवाद कहीं दूर…हमें अपने समय के प्रसिद्ध जादूगर पी सी सरकार, के लाल आदि के सम्मोहन की दुनिया में खींच ले जाते हैं। हिप्नोटिज्म द्वारा परोक्ष को दर्शकों के समक्ष  दिखाने  की यह प्रक्रिया निश्चित ही नाटक को एक नया आयाम देती है।

जग जाहिर है, मनुष्य अपनी कमज़ोरियाँ प्रगट नही करना चाहता और फिर पुरुष की बात हो, वह भी  समाज में  सभ्य कहे जाने वाले पुरुष सत्ता की बात हो तो यह और कठिन हो जाता है।

मैं यहाँ नाटककार को बधाई देना चाहूँगी कि स्वयं एक पुरुष होते हुए  प्रकृति के इस  प्राकृतिक नकारात्मक वृत्ति को नाटक के माध्यम से समाज के समक्ष दर्शाने  की कोशिश की है।

स्त्री के प्रति यह नाटककार के आदर, सम्मान एवं संवेदनशीलता को दर्शाता है।

वहीं दूसरी ओर इस दर्दभरी  घटना से व्यावसायिक लाभ प्राप्त करने हेतु अति महत्वाकांक्षी लोगों द्वारा  किए जाने वाले घृणित  प्रयासों को भी रचनाकार ने बखूबी दर्शाया है।

समाज के विभिन्न वर्गों के पात्रों का चयन यथा- नज़रसाहब, एसीपी भोसले, प्रोफेसर पंत सर, रमणिकलाल एवं युवा पच्चीस वर्षीय  मधु वर्मा आदि के सशक्त संवाद को माध्यम बना  कर रचनाकार ने अपनी बात दर्शकों के सम्मुख बड़ी ही सशक्त तरीक़े से रखी है। और  यही सशक्त संवाद इस नाटक के प्राण हैं। नाटक के सभी पात्रों ने अपनी भूमिकाएँ बड़ी ही बेबाक़ी से निभायी हैं।

मूल नाटक के लेखक,निर्देशक  तथा संपादक के पात्र का अभिनय करने वाले कलाकार श्री संजय भारद्वाज स्वयं  एक बहुआयामी रचनाकार हैं। विविध विधाओं में सृजन के संग आप एक मँजे हुए रंगकर्मी हैं जिन्हें अनेक पुरस्कारों से नवाज़ा जा चुका है।

अंग्रेज़ी अनुवाद लखनऊ विश्वविद्यालय के  इंग्लिश एंड माॅडर्न युरोपियन लेंग्वेज़ेज विभाग की एसोसियेट प्रोफेसर डाॅ मीनाक्षी पाहवा, जो स्वयं एक अनुभवी रंगकर्मी हैं, द्वारा किया गया है। बचपन से रंगमंच से जुड़ी डाॅ मीनाक्षी  न सिर्फ़ कुशल रंगकर्मी हैं, वे एक सफल लेखिका, वक्ता एवं सटीक भावानुवादों के लिए भी जानी जाती हैं। A Fulbright  Scholar to New York University, she was a Mellon Fellow at Harvard University and  Charles Wallace India Trust Fellow at Cambridge.

‘एक भिखारिन की मौत ‘   का मंचन उनके  अनुवादित शब्दों के दर्पण में हम पुनः मंचित होते देख पायेंगे – यह मेरा विश्वास है।

 

© श्रीमती वीनु जमुआर

पुणे

संपर्क-  8390540808

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत -4 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। 

हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ रहे थे। हम संजय दृष्टि  श्रृंखला को कुछ समय के लिए विराम दे रहे हैं ।

प्रस्तुत है  रंगमंच स्तम्भ के अंतर्गत महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त धारावाहिक स्वरुप में श्री संजय भारद्वाज जी का सुप्रसिद्ध नाटक “एक भिखारिन की मौत”। )

? रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत – 4 ☆  संजय भारद्वाज ?

नज़रसाहब- अच्छा, बहुत अच्छा। बहुत खूबसूरत थी वह। ग़ज़ब की ख़ूबसूरत। तीन दिन लगातार उसका एक-एक अंग देखा है। कमबख्त ने पागल कर दिया था। ऐसा मन होता था…

रमेश-  कैसा मन होता था?

नज़रसाहब- जाकर सीने से लगा लूँ उसको। समा लूँ उसको अपने भीतर।…उसे… उसे.. बहुत खूबसूरत थी,.. बहुत..!

(रमेश और अनुराधा का लौटना। नज़र, वासना पीड़ित यहाँ-वहाँ घूमते हुए रंगमंच पर है। धीरे-धीरे अंधकार होना।)

प्रवेश तीन

(‘नवप्रभात’ का कार्यालय।)

रमेश- सो आई वॉज़ राइट अनुराधा।  नजर जैसे संभ्रांत, कुलीन और जाने-माने चित्रकार के भीतर का जानवर भी उस भिखारिन को देखकर बेकाबू हुआ था। वैसे सारा क्रेडिट तुम्हें है। तुम्हारा यह हिप्नोटिज़्म वाला प्रयोग ज़बरदस्त कामयाब रहा है। ताज्ज़ुब भी होता है न कि नज़र की उम्र का आदमी..

अनुराधा- क्यों नज़र मर्द नहीं है क्या? तुम सारे मर्द एक जैसे होते हो। औरत को एक चीज़, एक कमोडिटी बनाकर देखते हो, बस।

रमेश- बिल्कुल सही फरमाया मैडम आपने। दुनिया भर में ज़्यादातर विज्ञापनों में मॉडलिंग औरतें करती हैं। बताती हैं कि खरीदो हमें। अब जिसे खरीदना हो वह कमोडिटी ही तो हुई न। ख़ैर छोड़ो, यह बताओ कि हमारी इस इंटरव्यू वाली हिटलिस्ट में अगला नाम किसका है?

अनुराधा- हमारे हिटलिस्ट में अब वह सरकारी विभाग है जो जनता को हमेशा अपने हिटलिस्ट में रखता है याने पुलिस डिपार्टमेंट….और पुलिस डिपार्टमेंट का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं एसीपी जी.आर. भोसले।

दोनों- ( एकसाथ) सो टारगेट भोसले। (बंदूक से निशाना लगाने जैसा संकेत करते हैं।)

प्रवेश चार

(एसीपी भोसले का कार्यालय। फोन पर बातचीत में मशगूल है। उसकी बातचीत में  स्थानीय भाषा का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।)

भोसले- नाही, नाही, चालणार नाही। मराठी समझता है।…नहीं…च्या आईला! याला मराठी कळत नाही, मला हिंदी नीट बोलता येत नाही। उरली इंग्रजी ती दोघानां कळत  नाही अन बोलता ही येत नाही…। ( इसे मराठी नहीं आती। मैं हिंदी ठीक बोल नहीं पाता। बची अँग्रेज़ी जो न इसे आती है, न मुझे।)…हाँ देखो, हम बोला…नहीं.. मैं बोला.. क्या नाम इंस्पेक्टर मित्रा… मित्राच न।… बेंगाल का है क्या…  (हँसता है।) कैसा पहचाना!.. बेंगाल पोलिस का अपना जो टीम आया है, उनको बोलो सारा बंदोबस्त कर दिया है। आज रात तीन बजे होटल में धाड़ घालने का। धाड़ घालने का म्हणजे रेड मारने का रेड।… हाँ तुम्हारा रेकॉर्डेड क्रिमिनल चैटर्जी उधर सतरा नम्बर रूम में है। हाँ देखो एक्शन कम्बाइंड होगा। पेपर में हमारा पोलिस को भी क्रेडिट जाना मांगता, क्या..! (हँसता है।) ओके गुडनाइट। (फोन पर उसकी चर्चा के दौरान रमेश और अनुराधा आ चुके हैं। उन्हें बैठने का इशारा करता है।)

भोसले- आइए, आइए मि. रमेश अय्यर, हाउ डू यू डू?  कैसे हैं आप?.. हिंदी सुधर रही है ना मेरी?

रमेश- जी निश्चित। मेरी साथी पत्रकार अनुराधा चित्रे।

भोसले- चित्रे? तुम्हीं मराठी आहेत न बाई। (हँसना) कसं ओळखलं? (बहन जी, आप महाराष्ट्रीयन हैं न? कैसे पहचाना?)

रमेश- मराठी मला पण कळतय.(मराठी भाषा मैं भी समझ लेता हूँ)।

भोसले- मातृभाषा तेलुगू, अखबार निकाला हिंदी। अंग्रेजी तो सॉलिड रहेगा ही। ऊपर से मराठी भी आता है। सच्ची, यू साउथ इंडियन्स आर…. प्रामाणिकसाठी मराठीत कोणता शब्द आहे बाई? (प्रामाणिक के लिए अंग्रेजी में कौनसा शब्द है?)

अनुराधा-सिन्सिअर।

भोसले- हाँ, यू पीपल आर वेरी मच सिन्सिअर।

रमेश- सर, वैसे मेरी पढ़ाई कानपुर में हुई है, इसलिए हिंदी पर अधिकार स्वाभाविक है। फिर मुम्बई आ गया, आमची मुम्बई, मराठी कळलंच पाहिजे ( मुम्बई आ गया। मराठी भाषा आनी ही चाहिए।) वैसे भी मैं खुद को भारतीय मानता हूँ, केवल भारतीय। उत्तर भारतीय या दक्षिण भारतीय नहीं।

भोसले- दैट्स नाइस, नाइस। बोलो भाई आज इतने प्रेम से पुलिस को पत्रकारों ने कैसे याद किया? … सब ठीक तो है ना?  नहीं तो साला कोई गड़बड़ हो तो तुम पत्रकारों को पहले मालूम पड़ता है और पुलिस को बाद में!

अनुराधा- नहीं, नहीं,  ऐसी कोई बात नहीं। दरअसल हम एक इंटरव्यू सीरीज तैयार कर रहे हैं, मेनपोस्ट की उस भिखारिन के बारे में।

भोसले-  (जोर से हँसता है) भिखारियों पर इंटरव्यू?…तो बाकी भिखारियों से पूछिए ना! आप लोग मेरे पास… (हँसता है।)

रमेश- ऐसा है भोसले साहब कि यह अपने तरह की अलग इंटरव्यू सीरीज है। मेनपोस्ट की उस चर्चित भिखारिन को इस दौरान शहर की कई जानी-मानी हस्तियों ने देखा होगा। हम जानना चाहते थे कि इन हस्तियों की क्या प्रतिक्रिया रही इस अज़ीब-सी घटना पर।

अनुराधा- और जाहिर है कि इन जानी-मानी हस्तियों में एसीपी जी.आर. भोसले का नाम तो होगा ही ना!

भोसले- वह तो होगा ही।  (हँसता है।) पूछिए, क्या पूछना चाहते हैं?

अनुराधा- सर आपने उस अर्द्धनग्न भिखारिन को तो देखा ही होगा, कैसा लगा आपको?

भोसले- आप जानना क्या चाहती हैं?

अनुराधा- घबराइए मत एसीपी साहब। कैसा लगा मतलब इन जनरल। एक नागरिक के तौर पर आपकी प्रतिक्रिया क्या रही?

भोसले-  मैडम हम सरकारी विभाग के हैं। हम किसी भी मामले पर नागरिकों को प्रतिक्रिया नहीं करने देते और खुद भी नागरिक की हैसियत से प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते। (हँसता है)  वैसे खूबसूरत औरतें मुझे अच्छी लगती हैं।

रमेश-मतलब यह भिखारिन खूबसूरत थी?

भोसले-  ऑफकोर्स।

रमेश- लेकिन भोसले साहब, आप किस आधार पर कह सकते हैं कि यह भिखारिन खूबसूरत थी?

भोसले- आधार….? यार रमेश, तुम तो मर्द हो। तुमने उसके…..देखे थे?… सॉरी मैडम।.. रमेश मैडम साथ में हैं, नहीं तो…(हँसता है) लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि आप लोग पूछना क्या चाहते हैं?

अनुराधा- ठीक है सर, अब सीधा, सपाट सवाल। उस भिखारिन को इस हालत में देखकर एक पुलिस ऑफिसर के रूप में आपकी प्रतिक्रिया क्या थी?

भोसले-  प्रतिक्रिया क्या थी? बहुत गुस्सा आया। मेरे इलाके में इस तरह नाटक करने की क्या ज़रूरत थी? मैं तो पहले ही अपनी सख़्ती के लिए काफी बदनाम हूँ। हम तो प्रॉस्टिट्यूट्स को भी बाहर सड़क पर खड़ा नहीं होने देते।.. साली मेरा रिकॉर्ड खराब करना चाहती थी।

अनुराधा- अपना रिकॉर्ड बनाए रखने के लिए आपने क्या कदम उठाए?

भोसले-  मैं तो इस मामले पर तुरंत एक्शन लेना चाहता था। यह तो आप पत्रकारों ने उसके बारे में लिख-लिख कर उसे फोकस में ला दिया था इसलिए कुछ नहीं कर पाया।…नहीं तो मेरा बस चलता तो उसके बदन का एक-एक कपड़ा निकलवा कर बुरी तरह पिटाई करता, ताबड़तोड़ ठीक हो जाती।

रमेश-एक पुलिस ऑफिसर होने से पहले आप एक नागरिक भी हैं।  इंसान होने के नाते क्या आपको नहीं लगा कि ऐसी निरीह, असहाय, गरीब और भूखी की मदद की जानी चाहिए।

भोसले- यार अय्यर,  मेरे को एक बात बताओ। पुलिस स्टेशन के ऊपर बड़े-बड़े शब्दों में क्या लिखा है? ‘मे आय हेल्प यू?’ क्या मैं आपकी मदद कर सकता हूँ? हम तो यहाँ बैठे ही मदद के लिए हैं। हाँ पर पुलिस से मदद चाहिए तो पुलिस के पास आना भी चाहिए न!  अगर उसे किसी तरह की मदद चाहिए थी तो आ जाती पुलिस के पास। फिर हम देखते कि किसी तरह की डायरेक्ट या इनडायरेक्ट मदद की जा सकती है क्या?

रमेश- कैसे आ जाती यह देखते हुए कि आज तक जब भी कोई शोषित, असहाय औरत मदद लेने पुलिस के पास आई है तो पुलिस ने भी उसका शोषण किया है।

भोसले- एक्सेपशन्स…,अपवाद…बरोबर ना अपवाद।… अपवाद हो सकते हैं लेकिन उसको मदद चाहिए थी तो वह मेरे पास आती।… आई मीन पुलिस के पास आती।

अनुराधा- एसीपी साहब यह तो हो गई एसीपी जी.आर. भोसले की नपी-तुली, सधी हुई सरकारी प्रतिक्रिया।  अब एक पर्सनल सवाल, हम जानना चाहते हैं कि इस मामले पर मर्द जी.आर. भोसले की क्या प्रतिक्रिया थी?

भोसले-  क..क…क्या मतलब है आपका?

रमेश- मतलब यह कि मेनपोस्ट की उस अधनंगी भिखारिन को देखकर जी.आर. भोसले के भीतर का मर्द कैसे और कितना उबला?  उस खूबसूरत औरत का वह खुला यौवन..

भोसले-  मिस्टर अय्यर,  आप अपनी सीमा तोड़ रहे हैं।  (इस दौरान अनुराधा भोसले को सम्मोहित करती है,  वह जाकर भिखारिन की मुद्रा में दर्शकों की ओर पीठ करके खड़ी हो जाती है।)

अनुराधा- भोसले, यहाँ देखो, यहाँ देखो भोसले…

रमेश- भोसले कैसी लग रही है यह?

भोसले- एकदम एकदम उस भिखारिन जैसी। वैसी ही खूबसूरत, वैसी ही जवान। ..ए,.इसको, इसको पकड़कर पुलिस स्टेशन ले आओ। .. कितनी खूबसूरत!  यह मेरी है,  यह मेरी है।

रमेश- पर भोसले, ये भूखी है। पहले इसे कुछ खिला-पिला तो दो।

भोसले- भूखा प्यासा तो मैं भी हूँ।..बहुत भूखा हूँ मैं….बहुत प्यासा हूँ मैं।..पहले मैं अपनी प्यास बुझा तो लूँ..। (अनुराधा पर झपटना चाहता है। रमेश उसे पकड़ता है।)

रमेश- भोसले संभालो खुद को, संभालो। (भोसले को लाकर उसकी कुर्सी पर बैठाता है। भोसले को यों ही छोड़कर अनुराधा को लेकर रमेश तेजी से निकल जाता है।)

क्रमशः …

नोट- ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक को महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त है। ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक के पूरे/आंशिक मंचन, प्रकाशन/प्रसारण,  किसी भी रूप में सम्पूर्ण/आंशिक भाग के उपयोग हेतु लेखक की लिखित पूर्वानुमति अनिवार्य है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत -3 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। 

हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ रहे थे। हम संजय दृष्टि  श्रृंखला को कुछ समय के लिए विराम दे रहे हैं ।

प्रस्तुत है  रंगमंच स्तम्भ के अंतर्गत महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त धारावाहिक स्वरुप में श्री संजय भारद्वाज जी का सुप्रसिद्ध नाटक “एक भिखारिन की मौत”। )

? रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत – 3 ☆  संजय भारद्वाज ?

नज़रसाहब- एक मिनट मियाँ। इस पेंटिंग के बारे में एक आइडिया आया है, ज़रा उसको पूरा कर लूँ। (पेंटिंग पर  ब्रश से कुछ  स्ट्रोक्स मारता है। रमेश, अनुराधा एक दूसरे को देख कर मुस्कराते हैं। काम पूरा करने के बाद पीकदान में पीक थूँकता है।)है।)

नज़रसाहब- हाँँ क्या पूछा था? टोक भी लिया करो भाई बीच-बीच में। वरना हम एक बार अपनी पेंटिंग में खो गए तो फिर बैठे रहियेगा यहींं दो, चार, पाँच दिन। नज़रसाहब यूँँ ही नज़रसाहब तो बने नहीं। एक बार अगर पेंटिंग में लग गए तो अरे मियाँँ चार-चार दिन होश नहीं रहता। नौकर खाना रख जाता है। खाना ज्यों का त्योंं पड़ा रहता है। बेचारा फिर वापस ले जाता है। फिर रख जाता है, फिर वापस। (हँसता है।) ये चार-चार दिन खयाल ना रहने वाली बात नोट कर लें। अपने अखबार में ज़रूर लिखें।

अनुराधा- नज़रसाहब, आपने जब उस भिखारिन को देखा तो वह क्या कर रही थी? किस तरह के कपड़े लपेटी थी? कैसी लग रही थी? आख़िर ऐसा क्या था कि उसने नज़रसाहब जैसे जाने-माने चित्रकार को इतना प्रभावित किया कि वे उसे अपनी पेंटिंग का विषय बना बैठे!

रमेश-  पहली प्रतिक्रिया वाली बात भी पूछ लेना अनुराधा।

नज़रसाहब- हमें ध्यान है। है ध्यान हमें। एक-एक कर सारी बातों का खुलासा करेंगे हाँ..(पीक थूकता है)।  कहाँ थे हम?

रमेश- मेनपोस्ट पर।… मतलब मेनपोस्ट तक पहुँच गए थे।

नज़रसाहब- हां जब हम मेनपोस्ट पर उतरे और सामने वाले फुटपाथ पर नज़र डाली तो वहाँ अच्छी-ख़ासी भीड़ इकट्ठा हो रखी थी। अब हम तो उसे यों जाकर देख नहीं सकते थे न। आख़िर नज़रसाहब कोई ऐसे आदमी तो हैं नहीं कि कहीं भी भीड़ में खड़े हो जाएँ। भई अपने फैन्स जीना मुश्किल कर दें।

रमेश- तो फिर आपने…?

नज़रसाहब- उस फुटपाथ के साथ ही हमारे हुसैन मियाँ घड़ीसाज़ हैं न,  हुसैन वॉच रिपेअर्स, वह दुकान है ना। पहुँच गए वहाँ, कह दिया घड़ी थोड़ा पीछे चलती है। हुसैन मियाँ ने कुर्सी दी, चाय का इंतज़ाम किया तो हम वहाँ आराम से बैठ गए। वहाँ से  हमारे और भिखारिन के बीच बमुश्किल पाँच-सात हाथ का फ़ासला होगा। हमारी नज़र उस भिखारिन पर पड़ी और देखते ही रह गए, मियाँ देखते ही रह गए हम। करीबन उन्नीस-बीस साल की छोकरी। उलझी हुई बालों की लटों से बाहर आती हवा से उड़ती थोड़ी-सी जुल्फें। पतली, हल्की-सी उठी हुई नाक, बहुत बड़ी-बड़ी बोलती आँखें, आसमान की ओर देखती हुई, दुनिया से बेभान, ख़ूबसूरती से झुके हुए कंधे। अपने भीतर सारे जहां की खूबसूरती समेटे, दुनिया भर के जोबन से लदे दो घड़े,…सब कुछ यूँ ही खुला छोड़े, अधनंगी..! बदन के साथ लाजवाब एंगल बनाए पतली-सी कमर, कमर के नीचे केवल एक निकर पहने…, दोनों टांगें मोड़े, उन टांगों पर चढ़ आई मिट्टी की लकीरें भी भीतर की ख़ूबसूरती को छिपा नहीं पा रही थी…देखते ही रह गए हम…और हमने उन बोलती ख़ूबसूरत आँखों, सैलाबी जवानी की मुमताज़ मूरत, खूबसूरती को खुद में खूबसूरत ढंग से समेटे उस ज़िंदा पेंटिंग को नाम दिया ‘खूबसूरत।’

रमेश-  नज़रसाहब, इस खूबसूरत ज़िंदा पेंटिंग को आपने भीख में सौ-दो सौ रुपये तो दे ही दिए होंगे।

अनुराधा- रमेश, यह भी कोई पूछने की बात है। ‘खूबसूरत’ पर रिकॉर्ड दाम की बोली चढ़ेगी। इस पेंटिंग की प्रेरणा को नज़रसाहब ने रुपयों से तौलने की सोची हो तो भी ताज्ज़ुब नहीं होना चाहिए।

नज़रसाहब- लो कर लो बात। तुम दोनों ने कभी किसी तरह की छोटी-मोटी पेंटिंग भी की है।… नहीं ना.., तभी इस तरह की वाहियात बातें कर रहे हो। हम तो उसके किसी एंगल में एक परसेंट भी फर्क नहीं चाहते थे। तीन दिन हर रोज हुसैन की दुकान में बैठकर उसे देखते रहे। हुसैन मियाँ भी समझ गए थे कि घड़ी तो बहाना है, कोई और निशाना है।….. अच्छा हुआ इन तीन दिनों में शायद उसे किसी ने कुछ नहीं दिया था। उसके बदन में एक सूत का भी फ़र्क आ जाता तो ऐसी ग्रेट पेंटिंग नहीं बन पाती, कभी नहीं बन पाती। इस पेंटिंग का पहला एक्जिबिशन हम लंदन में करेंगे। वहां रॉयल फैमिली के एक मेम्बर के हाथों इसका इनॉगुरेशन होगा। तारीख अभी तय नहीं हुई है  पर अगले महीने के पहले हफ्ते के आसपास होगा।… अब खास तौर से लिखें कि इनागुरेशन यूके के राजघराने के एक मेम्बर के हाथों होगा। ‘खूबसूरत’, ‘खूबसूरत’ एन इंटरनेशनल पेंटिंग बाय नज़रसाहब, द इंटरनेशनल पर्सेनेलिटी। (हँसता है)।

रमेश- नज़रसाहब, यह तो हुई चित्रकार नज़रसाहब की प्रतिक्रिया। मैं नज़रसाहब के भीतर छिपे पुरुष, एक मर्द की ईमानदार और सच्ची प्रतिक्रिया जानना चाहूँगा।

नज़रसाहब- क्या मतलब?

रमेश-  मतलब कि.. एक जवान औरत को खुले बदन देखकर भीतर का मर्द कहीं ना कहीं तो…

नज़रसाहब- लाहौल विला कूवत, लाहौल विला कूवत!  ऐसे ओछे और छिछोरे सवाल नज़रसाहब से करने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी? शर्म आनी चाहिए। नज़रसाहब आज केवल हिंदुस्तान में नहीं, दुनिया में एक जाना- माना नाम है। उसके कैरेक्टर पर इस तरह कीचड़ उछालना.., लाहौल विला कूवत! गंदगी की भी कोई हद होती है! (अनुराधा नज़रसाहब को सम्मोहित करती है।)

अनुराधा-  मेरी आँखों में देखो, मेरी आँखों में देखो, मेरी आँखों में देखो।

(नज़रसाहब का सम्मोहित होना। अनुराधा, दर्शकों की ओर पीठ करके खड़ी होती है। कुर्ते के ऊपर डाले जैकेट को उतारने की मुद्रा में फैलाती है। पात्र की वेशभूषा के अनुसार ऐसा संकेत देना है जैसे वह भिखारिन की तरह शरीर के ऊपरी भाग को अनावृत किए हुए है। नज़र का बौखलाना।)

रमेश-  नज़र, तुम्हें यह चाहिए न?

नज़रसाहब-  हाँ,..हाँ..।

रमेश-  भिखारिन को खुले बदन देखकर कैसा लगा?

नज़रसाहब- अच्छा, बहुत अच्छा। बहुत खूबसूरत थी वह। ग़ज़ब की ख़ूबसूरत। तीन दिन लगातार उसका एक-एक अंग देखा है। कमबख्त ने पागल कर दिया था। ऐसा मन होता था…

क्रमशः …

नोट- ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक को महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त है। ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक के पूरे/आंशिक मंचन, प्रकाशन/प्रसारण,  किसी भी रूप में सम्पूर्ण/आंशिक भाग के उपयोग हेतु लेखक की लिखित पूर्वानुमति अनिवार्य है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत -2 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। 

हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ रहे थे। हम संजय दृष्टि  श्रृंखला को कुछ समय के लिए विराम दे रहे हैं ।

प्रस्तुत है  रंगमंच स्तम्भ के अंतर्गत महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त धारावाहिक स्वरुप में श्री संजय भारद्वाज जी का सुप्रसिद्ध नाटक “एक भिखारिन की मौत”। )

? रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत – 2 ☆  संजय भारद्वाज ?

अनुराधा- (रमेश को सम्मोहित करती है।) यहाँँ देखो… मेरी आँखों में देखो…मेरी आँखों में देखो… मेरी आँखों में देखो… (थोड़े से प्रतिरोध के बाद रमेश सम्मोहित हो जाता है।)

अनुराधा- क्या नाम है तुम्हारा?

रमेश- रमेश अय्यर।

अनुराधा- क्या करते हो?

 रमेश- ‘नवप्रभात’ अख़बार का संपादक हूँ।

अनुराधा- उपसंपादक कौन है?

रमेश- अनुराधा चित्रे।

अनुराधा-  कौन?

रमेश-अनुराधा चित्रे।

अनुराधा-  बोलते रहो।

रमेश-  अनुराधा चित्रे, अनुराधा चित्रे, अनुराधा चित्रे। (अनुराधा सम्मोहन समाप्त करती है।)

रमेश- अज़ीब-सा क्या हुआ था मुझे?

अनुराधा- श्रीमान रमेश अय्यर, प्रधान संपादक, ‘नवप्रभात’ को पता होना चाहिए कि अखबार की उपसंपादिका अनुराधा चित्रे को सम्मोहनशास्त्र का अच्छा ज्ञान है। इस ज्ञान को अभी-अभी वह साबित कर चुकी है। यदि संपादक महोदय चाहेें तो इस ज्ञान का उपयोग लोगों के भीतर के पशु को बाहर लाने के लिए किया जा सकता है।

रमेश- फैंटेस्टिक! वाह अनुराधा! सुपर्ब।

अनुराधा- और सुनो। मैंने तुम पर बहुत हल्के सम्मोहन का प्रयोग किया था। हम जिसका इंटरव्यू करेंगे, उस पर इसका गहरा सम्मोहन इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके चलते उसे इंटरव्यू के दौरान पूछी बातें याद आने में सात से आठ दिन का वक्त लग सकता है।

रमेश- इतने वक्त में तो हम सीरिज़ पूरी कर प्रकाशित भी कर देंगे। बस अब देखो, हर तरफ नवप्रभात, नवप्रभात, नवप्रभात।

अनुराधा- ओके रमेश, मैं ऐसे चुनिंदा लोगों की लिस्ट तैयार करती हूँ जिन्होंने उस भिखारिन वहाँँ देखा था। मेरे ख्याल से हम आज दोपहर से इंटरव्यू शुरू कर सकते हैं।

रमेश- राइट। लिस्ट तैयार करके ले आओ। 1:00 बजे निकलते हैं। लंच बाहर कहीं होटल में ले लेंगे।….अरे अनुराधा, कल के  फ्रंट पेज के लिए उस भिखारिन की लाश के चार फोटोग्राफ्स हैं। जरा देख लो, कौन सी डाली जाए। मेरे ख्याल से यह दो तो डाल नहीं सकते, कथित अश्लील हैं।

अनुराधा- यह बैक पॉश्चर डाल देना।

रमेश-  देख लो फिर कहीं अश्लीलता, वल्गैरिटी….।

अनुराधा-  नॉट अट ऑल। फ्रंट पोर्शन को लोग वल्गर मानते हैं और बैक पॉश्चर को आर्ट (हँसती है)। ओके देन, सी यू एट वन ओ क्लॉक, बाय।

रमेश-  (तस्वीर हाथ में है)  शहर की चर्चित भिखारिन की लाश।

प्रवेश दो

(प्रसिद्ध चित्रकार नज़रसाहब का घर है। यहाँँ-वहाँँ बेतरतीब-सा पड़ा सामान। एक ओर दो-तीन कुर्सियाँ। एक तिपाई। बीच में स्टैंड पर लगभग पूरी तैयार एक अर्द्धनग्न महिला की पेंटिंग। तिपाई पर रंग, ब्रश आदि बिखरे पड़े हैं। प्रकाश होने पर रमेश, अनुराधा और नज़रसाहब दिखाई देते हैं। ग़ज़ल का एक रेकॉर्ड बज रहा है।)

अनुराधा- नज़रसाहब, सुना है कि आपकी आने वाली पेंटिंग जिसे आपने ‘खूबसूरत’ नाम दिया है, उस मेनपोस्ट वाली भिखारिन से प्रेरित है।… तो ऐसा क्या था उस भिखारिन में जिसने आपको इतना प्रभावित किया।

नज़रसाहब- यह सच है कि हमारी पेंटिंग ‘खूबसूरत’ मेनपोस्ट वाली भिखारिन से प्रेरित है। दो-चार रोज से अखबारों में उस भिखारिन का चर्चा हो रहा था। नेचुरली हमारे भीतर का चित्रकार भी उसे देखने की तमन्ना करने लगा।

रमेश- तो आपने….

नज़रसाहब-  भाई जब कोई बात कर रहे हों तो पूरा करने दिया करो। बीच में टोकने से मज़ा नहीं आता। हाँ तो क्या कह रहे थे हम?

अनुराधा- उस मेनपोस्ट वाली भिखारिन की चर्चा सुनकर आपके इच्छा होने लगी थी उसे देखने की।

नज़रसाहब-  हूँ….और उस इच्छा के चलते हम एक दिन…. जुमां के पहले वाला दिन था, हाँँ, बृहस्पतिवार की बात है। सो बृहस्पतिवार को हमने फैसला कर लिया उस भिखारिन को देखने का।…… ऐसे मुँँह क्या देख रहे हो तुम दोनों?…. पूछो फिर क्या हुआ?…. एकदम नौसिखिए,  नए-नए जर्नलिस्ट हुए दिखते हो। इंटरव्यू लेते वक्त बीच-बीच में टोकते रहना चाहिए।

रमेश- जी आपने ही तो कहा था कि…. एनीवे, हम जानना चाहेंगे नज़रसाहब कि आपने उस भिखारिन को कब देखा? आई मीन कौन से दिन, किस वक्त, दोपहर, शाम, रात या फिर सुबह?

नज़रसाहब- किबला….(पानदान में पान थूकता है।)  कहा ना कि बृहस्पतिवार के अख़बार में उसके बारे में पढ़ा तो सोच लिया कि आज तो इस बला को देखना ही पड़ेगा। मियाँ दोपहर हो गई थी नहाने-धोने में। तब तक बड़े बेचैन-से रहे हम। लगता रहा कि बस उसे जब तक एक बार देख लेंगे चैन नहीं पड़ेगा। तैयार होकर करीबन दो बजे निकले होंगे घर से। शायद सवा दो बज रहा हो। हो सकता है कि ढाई बजा हो। अबे कमबख़्त वक्त  भी तो ठीक से याद नहीं रहता ना।

रमेश- जब आप मेनपोस्ट पहुँँचे…

नज़रसाहब- ठहरो यार! कोई भी बात पूरी बताने दिया करो। फिर अगला सवाल पूछो….और ये तुम टोका मत करो बीच में। हमारा सारा टोन खराब हो जाता है।.हाँँ तो..

अनुराधा- आप कह रहे थे कि आप की घड़ी में सवा दो बजा था।

नज़रसाहब- हां तो सवा बजे हम घर से निकले। नीचे जाकर टैक्सी के लिए खड़े हो गए। तुम लोग तो जानते ही हो कि आजकल तो टैक्सी भी जल्दी नहीं मिलती। खड़े रहे, खड़े रहे.., खड़े-खड़े तकरीबन आधा घंटा गुज़र गया।

रमेश- तो आधा घंटे बाद आपको टैक्सी मिल गई।

नज़रसाहब- मिलना ही थी। दरअसल उस आधा घंटे में कोई टैक्सी वहाँँ से गुज़री ही नहीं। जो पहली टैैक्सी आई, ख़ुुुद-ब-ख़ुद आकर ठहर गई पास। बड़े अदब से दरवाज़ा खोला बेचारे ने और इज्ज़त से बोला, ‘ तशरीफ़ लाइए नज़रसाहब।’ हम तो भौंंचक्के रह गए। पूछा, ‘मियाँँ, पहचानते हैं आप हमें?’ जानते हैं क्या जवाब दिया उसने? बोला, ‘आपको तो सारा हिंदुस्तान जानता है। इतना भी बेशर्म सिटिजन नहीं हूँ जो आपको न पहचानूँ।  नज़रसाहब को नहीं जाननेवाला हिंदुस्तान को नहीं जानता।’… यह बात ख़ास  तौर पर नोट करें और लिखें अपने परचे में।… और एक और ख़ास बात यह कि टैक्सीवाले ने हमसे पैसे भी नहीं लिए।

रमेश- तो आप पहुँँच गए मेनपोस्ट पर।

नज़रसाहब- पहुँँचना ही था भाई।

रमेश- जब आप की निगाहें पहले पहल उस भिखारिन पर पड़ी तो आपके मन में आई पहली, तुरंत पहली प्रतिक्रिया क्या थी?

नज़रसाहब- एक मिनट मियाँ। इस पेंटिंग के बारे में एक आइडिया आया है, ज़रा उसको पूरा कर लूँ। (पेंटिंग पर  ब्रश से कुछ  स्ट्रोक्स मारता है। रमेश, अनुराधा एक दूसरे को देख कर मुस्कराते हैं। काम पूरा करने के बाद पीकदान में पीक थूँकता है।)

क्रमशः …

नोट- ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक को महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त है। ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक के पूरे/आंशिक मंचन, प्रकाशन/प्रसारण,  किसी भी रूप में सम्पूर्ण/आंशिक भाग के उपयोग हेतु लेखक की लिखित पूर्वानुमति अनिवार्य है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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