((श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आजकल वे हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना स्वीकार किया है जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग का खलनायक: के.एन.सिंहपर आलेख ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 2 ☆
☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग का खलनायक: के.एन.सिंह ☆
बरसात की रात (1960), वो कौन थी (1964), मेरा साया (1966), मेरे हुज़ूर (1968), दुश्मन, हाथी मेरे साथी(1971), लोफ़र, कच्चे धागे (1973) बढ़ती का नाम दाढ़ी (1974) जैसी भारतीय सिनेमा की यादगार फ़िल्मों की एक लंबी सूची है, जिनमें एक बात सामान्य है और वह है इन फ़िल्मों में के एन सिंह का अभिनय।
धीरे-धीरे के एन का मन इस नई फिल्मी दुनिया से खिन्न होने लगा। अमिताभ बच्चन स्टारर कालिया (1983) तक पहुंचते पहुंचते केएन का मन अभिनय से उचाट हो गया। तभी उनके साथ एक हादसा यह हुआ कि वे जिन आँखों से अभिनय में रहस्य घोलते थे, उन आंखों की रोशनी जाती रही। और जीवन के संध्याकाल में केएन कैमरा, लाइट, एक्शन और कट की दुनिया से पूरी तरह कट गए। 1987 में उनकी पत्नी का निधन हो गया।
के.एन की कोई संतान नहीं हुई इसलिए उन्होंने अपने भतीजे पुष्कर को बेटे की तरह पाला। पत्नी के निधन के बाद केएन की आवाज़ में तो पहले जैसी ही खनक बरकरार रही, लेकिन अंदर से टूट से गए। 1999 में वे फिसल कर गिर गए जिससे उनके पैर की हड्डी टूट गयी तब से वे 31 जनवरी 2000 में मृत्यु होने तक पलंग पर ही पड़े रहे। उनकी रिलीज़ होने वाली अंतिम फ़िल्म अजूबा (1991) थी।
कुदरत ने उन्हें गरजदार आवाज दी थी, भाव भंगिमाओं को खास आकार देने की शैली उन्होंने खुद विकसित की और इन दो चीजों के मेल ने भारतीय फ़िल्म जगत को बेमिसाल खलनायक दिया। सुअर के बच्चों, कमीने या इसी तरह की गालियां दिए बिना और चीखे चिल्लाए बग़ैर केएन सिंह भय और घृणा की भावना दर्शकों के मन में पैदा कर देने का हुनर रखते थे। न कभी अभिनय का शौक़ रहा न फ़िल्मों में काम करने की तमन्ना लेकिन बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले ना भीख की कहावत ने के एन सिंह के जीवन में महत्वपूर्ण रोल अदा किया।
के. एन. सिंह की पत्नी प्रवीण पाल भी सफल चरित्र अभिनेत्री थीं। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी। उनके छोटे भाई विक्रम सिंह थे, जो मशहूर अंग्रेज़ी पत्रिका फ़िल्मफ़ेयर के कई साल तक संपादक रहे। उनके पुत्र पुष्कर को के.एन. सिंह दंपति ने अपना पुत्र माना था।
ऋषि कपूर (जन्म: 4 सितंबर 1952, मृत्यु – 30 अप्रैल 2020) एक फ़िल्म अभिनेता, फ़िल्म निर्माता और निर्देशक थे। वह एक बाल कलाकार के रूप मे काम कर चुके है। उन्हें बॉबी के लिए 1974 में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार और साथ ही 2008 में फ़िल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार सहित अन्य पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चूका है। उन्होंने उनकी पहली फ़िल्म में शानदार भूमिका के लिए 1971 में राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार प्राप्त किया। दिनांक 30/04/2020 को निधन हो गया।
कपूर का जन्म पंजाब के हिंदू परिवार में ऋषि राज कपूर के रूप में मुंबई के चेम्बूर में हुआ था। वह अभिनेता-फिल्म निर्देशक राज कपूर के दूसरे पुत्र और अभिनेता पृथ्वीराज कपूर के पोते थे। उन्होंने कैंपियन स्कूल, मुंबई और मेयो कॉलेज, अजमेर में अपने भाइयों के साथ स्कूली शिक्षा की। उनके भाई रणधीर कपूर और राजीव कपूर; मामा प्रेम नाथ और राजेंद्र नाथ; और पैतृक चाचा, शशि कपूर और शम्मी कपूर सभी अभिनेता हैं। उनकी दो बहनें हैं, बीमा एजेंट रितु नंदा और रिमा जैन।
परम्परा के अनूसार उन्होने भी अपने दादा और पिता के नक्शे कदम पर चलते हूए फिल्मों में अभिनय किया और वे एक सफल अभिनेता के रूप में उभर आए। मेरा नाम जोकर उनकी पहली फिल्म है जिसमें उन्होने अपने पिता के बचपन का रोल किया। जो किशोर अवस्था में अपनी शिक्षिका से ही प्यार करने लगता है। परन्तु बॉबी फिल्म में वे बतौर अभिनेता के रूप में दिखायी दिए। ऋषि कपूर और नीतू सींह की शादी 22 जनवरी 1980 में हुई थी।
इनके दो बच्चे हैं रणबीर कपूर जो की एक अभिनेता है और रिदीमा कपूर जो एक ड्रैस डिजाइन है। करिश्मा कपूर और करीना कपूर इनकी भतीजियां हैं।
भावभीनी श्रद्धांजली
सौजन्य – श्री वसंत काशीकर, वरिष्ठ रंगकर्मी, जबलपुर
मृत्यु – 29 अप्रैल 2020, कोकिलाबेन धीरूभाई अम्बानी हॉस्पिटल एंड मेडिकल रिसर्च इंस्टिट्यूट, मुंबई
श्री वसंत काशीकर, वरिष्ठ रंगकर्मी, जबलपुर
? कम शब्दों में बहुत कुछ कहने वाले एक बेहतरीन अभिनेता को इस जहां ने खो दिया ?
“ज़िंदगी में अचानक कुछ ऐसा हो जाता है, जो आपको आगे लेकर जाता है। मेरी ज़िंदगी के पिछले कुछ दिन ऐसे ही रहे हैं। मुझे न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर नामक बीमारी हुई है. लेकिन, मेरे आसपास मौजूद लोगों के प्यार और ताक़त ने मुझमें उम्मीद जगाई है।”– यह ट्वीट किया था इरफान खान ने दो साल पहले मार्च 2018 में जब उन्हें अपनी बीमारी के बारे में पता चला था।
कम शब्दों में बहुत कुछ कहने वाले, उम्दा अभिनय कर दर्शकों का दिल जीतने वाले एक बेहतरीन अभिनेता, इस जहां से खो गया। पर उसका अभिनय और यादें हमेशा मौजूद रहेंगी।
इरफान खान ने लीक से हटकर काम किया। गुलज़ार के तहरीर सीरियल से लेकर इंग्लिश मीडियम तक हर किरदार में इरफान ने अपना लोहा मनवाया है। उनके चाहने वालों के लिए बेहद दु:खद धक्का पहुंचाने वाली खबर है।
अभी तो सफ़र शुरू हुआ था और अचानक विराम लग गया। उम्र भी ज्यादा नहीं थी। 53 साल कोई मरने की उम्र है।
इस दौर में जब रोज मरने वालों की खबरें नहीं आंकड़े आ रहे हैं, फिर भी प्रिय अभिनेता का इस तरह अचानक गुज़र जाना स्तब्ध करता है। अभी कुछ दिनों पहले जयपुर में मां का निधन हो गया और लाॅकडाउन के चलते मां की अंतिम यात्रा में इरफान नहीं शरीक हो पाये और परसों खबर मिली कि तबियत बिगड़ने की वजह से इरफान को मुंबई के कोकिलाबेन अस्पताल में भर्ती किया गया है।
आज कला की दुनिया ने एक बेहतर कलाकार खो दिया है।
सादर श्रद्धांजलि
– वसंत काशीकर, वरिष्ठ रंगकर्मी, जबलपुर
श्री सुरेश पटवा, वरिष्ठ लेखक, भोपाल
☆ इरफ़ान खान दिवंगत ☆
इरफान अली खान का जन्म राजस्थान के एक मुस्लिम परिवार में बेगम खान और जगदीर खान के घर पर हुआ था। उनके माता पता टोंक जिले के पास खजुरिया गाँव से थे और टायर का कारोबार चलाते थे। इरफान और उनके अच्छे दोस्त सतीश शर्मा क्रिकेट खेलते थे तथा बाद में, उन्हें साथ में सीके नायडू टूर्नामेंट के लिए 23 साल से कम उम्र के खिलाड़ियों हेतु प्रथम श्रेणी क्रिकेट में कदम रखने के लिए चुना गया था। धन की कमी के कारण वे टूर्नामेंट में भाग लेने के लिए नहीं पहुँच सके।
उन्होंने 1984 में नई दिल्ली में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) में अध्ययन करने के लिए छात्रवृत्ति अर्जित की और वहीँ से अभिनय में प्रशिक्षण प्राप्त किया।
इरफ़ान हिन्दी अंग्रेजी फ़िल्मों व टेलीविजन के एक कुशलअभिनेता रहे हैं। उन्होने द वारियर, मकबूल, हासिल, द नेमसेक, रोग जैसी फिल्मों मे अपने अभिनय का लोहा मनवाया। हासिल फिल्म के लिये उन्हे वर्ष 2004 का फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ खलनायक पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। वे बालीवुड की 30 से ज्यादा फिल्मों में अभिनय कर चुके हैं। इरफान हॉलीवुड मे भी एक जाना पहचाना नाम हैं। वह ए माइटी हार्ट, स्लमडॉग मिलियनेयर और द अमेजिंग स्पाइडर मैन फिल्मों मे भी काम कर चुके हैं। 2011 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किया। 60वे राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार 2012 में इरफ़ान खान को फिल्म पान सिंह तोमर में अभिनय के लिए श्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार दिया गया।
इरफ़ान खान का निधन 29 अप्रेल को मुम्बई की कोकीलाबेन अस्पताल में हुआ था, जहाँ वे ट्यूमर के संक्रमण से भर्ती थे। वर्ष 2018 में उन्हें न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर (अंत:स्रावी ट्यूमर) का पता चला था, जिसके बाद वे एक साल के लिए ब्रिटेन में इलाज हेतु रहे। एक वर्ष की राहत के बाद वे पुनः कोलोन संक्रमण की शिकायत के कारण मुम्बई में भर्ती हुए। इस बीच उन्होंने अपनी फ़िल्म अंग्रेज़ी मीडियम की शूटिंग की, जो उनकी अंतिम फिल्म थी। उन्हें अंत:स्रावी कैंसर था, जोकि हॉर्मोन-उत्पादक कोशिकाओं का एक दुर्लभ प्रकार का कैंसर है।
2008 – फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार – लाइफ़ इन अ… मेट्रो
2004 – फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ खलनायक पुरस्कार – हासिल
कलाकार को विनम्र श्रद्धांजली
– सुरेश पटवा, सुप्रसिद्ध लेखक एवं फिल्मों के स्वर्णिम युग के शोध कर्ता, भोपाल
श्री अनिमेष श्रीवास्तव, वरिष्ठ रंगकर्मी, भोपाल
? तुम कहीं नहीं जा सकते ….अभिनेता…. ?
मेरे लिए तुम्हारा जाना ऐसा है जैसे कोई नाराज़ हो कर, बिना बताए मेरे बहुत पास से उठ चला गया हो।
तुम कहीं नहीं जा सकते हो अभिनेता.. जानता हूँ कि मुझे खिजाने के लिए कोई स्वांग कर रहे हो.. पर बता दूं इस बार अपने अभिनय में जान नहीं डाल पाये तुम।
मरने का अभिनय करने के लिए मरा नहीं जाता है दोस्त..
चलो अब खेल बहुत हुआ वापस आ जाओ। तुम्हारी इस हरक़त से कोई नाराज़ नहीं होगा और ना ही तुम्हे कुछ बोलेगा।
जल्दी आ जाओ हम इंतज़ार कर रहे हैं मित्र..
आओ और अपनी किसी फिल्म के माध्यम से हमें रिझाओ, मनाओ, रुलाओ, घमकाओ, गरियाओ, गिड़गिड़ाओ, हंसाओ, बहकाओ, समझाओ, बतियाओ..
आओ चले आओ कि हम तुम्हे खूब याद कर रहे हैं..
विनम्र श्रद्धांजलि
– अनिमेष श्रीवास्तव, वरिष्ठ रंगकर्मी, भोपाल
लंबे समय तक कैंसर से लड़ते लड़ते आखिर मशहूर अभिनेता पदमश्री प्राप्त इरफ़ान खान असमय में सिर्फ 53 वर्ष की उम्र में हम सब को अलविदा कह गए। ई-अभिव्यक्ति परिवार की और से विनम्र श्रद्धांजलि – विनम्र श्रद्धांजलि
((श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आजकल वे हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना स्वीकार किया है जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है हिंदी फ़िल्मों के स्वर्ण युग का मसखरा : ज़ानी वॉकर पर आलेख ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 1 ☆
☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्ण युग का मसखरा : ज़ानी वॉकर ☆
बदरुद्दीन जमालुद्दीन काज़ी, जिन्हें फ़िल्मी नाम जॉनी वाकर से जाना जाता था, एक हिंदी फ़िल्म अभिनेता थे। जॉनी वाकर का जन्म 11 नवम्बर 1926 को ब्रिटिश भारत के खरगोन जिले (बड़वानी) अब मध्य प्रदेश के मेहतागोव गाँव में एक मिल मजदूर के घर हुआ था। जिन्होंने लगभग 300 से अधिक फिल्मों में अभिनय किया था।
बडवानी जिले से जानी वाकर का परिवार इन्दौर आया यहां उनके वालिद कपडा मिल मे नौकरी करने लगे, यहीं उनके साथ वह हादसा हुआ और वे घर बैठ गये, अब परिवार को पालने की जिम्मेदारी जानीवाकर पर आ गई, इन्दौर मे भी बस कन्डक्टरी करी, ठेले पर सामान बेचा, छावनी इन्दौर मे क्रिकेटर मुशताक अली उनके पडोसी व मित्र हुआ करते थे।
दुर्घटना ने उनके पिता को पंगु करके निरर्थक बना दिया और वे रोज़ीरोटी की तलाश में सपरिवार बंबई चले आए। काजी ने परिवार के लिए एकमात्र कमाऊ सदस्य के रूप में विभिन्न नौकरियां कीं, अंततः वे बृहन्मुंबई इलेक्ट्रिक सप्लाई एंड ट्रांसपोर्ट (BEST) में बस कंडक्टर बन गए। परिवार के एकमात्र कमाऊ जानी दिन भर कई मील की बसयात्रा के बाद कैंडी, फल, सब्जियां, स्टेशनरी और अन्य सामान फेरी लगाकर बेचते थे।
जॉनी वॉकर बसों में काम करते हुए यात्रियों का मनोरंजन किया करते थे। उन दिनों वामपंथी नाटक संगठन इपटा से जुड़े कलाकार एक कमरे के कम्यून में रहते और बसों से यात्रा करते थे। अभिनेता बलराज साहनी ने उन्हें बस यात्रा के दौरान एक दिन भिन्न-भिन्न भावभंगिमाओं से चुटकुले बाज़ी और चुहल करते देख गुरुदत्त का पता देकर उनसे मिलने की सलाह दी। बलराज साहनी और गुरुदत्त उस समय मिलकर बाजी (1951) की पटकथा लिख रहे थे। गुरुदत्त बतौर निर्देशक देवनांद, गीताबाली, कलप्ना कार्तिक और के एन सिंग को लेकर बाज़ी के लिए कलाकारों को ले रहे थे उसमें एक शराबी की भी भूमिका थी। गुरुदत्त ने काजी को शराब पीकर शराबी का अभिनय करने को कहा। काजी ने बिना शराब पिए बड़े बढ़िया अन्दाज़ में शराबी का अभिनय कर दिखाया, उन्हें बाज़ी में एक भूमिका मिली।
उस दौर में साम्प्रदायिक माहौल बिगड़ा होने से मुस्लिम कलाकारों को हिंदू नाम देने का चलन चल पड़ा था जैसे देविका रानी ने यूसुफ़ खान को दिलीप कुमार नाम दिया था वैसे ही मुस्लिम कलाकारों को मीना कुमारी, मधुबाला, नरगिस इत्यादि नाम मिले थे। गुरुदत्त जब उसी दिन शाम को के एन सिंग के साथ जॉनीवाकर ब्रांड की स्कॉच व्हिस्की का ज़ाम चढ़ा रहे थे, उन्होंने दो पेग चढ़ाने के बाद पहले सुरूर में ही के एन सिंग के मशवरे पर क़ाज़ी को जॉनीवाकर नाम दे दिया था। इस प्रकार फ़िल्मी पर्दे पर जॉनीवाकर नामक मसखरे का आगमन हुआ।
उसके बाद ज़ानी वाकर गुरुदत्त की सभी फ़िल्मों में दिखाई दिए। वे मुख्य रूप से हास्य भूमिकाओं के अभिनेता थे लेकिन पटकथा में उनकी भूमिका कथानक को आगे बढ़ाने वाली होती थी न कि ज़बरजस्ती ठूँसने वाले बेहूदा हँसोडियों जैसी। राजेंद्र कुमार के साथ मेरे महबूब, देवानंद के साथ सीआईडी, गुरुदत्त के साथ प्यासा, दिलीप कुमार के साथ मधुमती और राजकपूर के साथ चोरी-चोरी जैसी फिल्मों ने उन्हें स्टार बना दिया। वे 1950 और 1960 के दशक में नायक के साथ फ़िल्म सुपर हिट होने की गारंटी हुआ करते थे। 1964 में गुरुदत्त की मृत्यु से उनका केरियर प्रभावित हुआ। फिर उन्होंने बिमल रॉय और विजय आनंद जैसे निर्देशकों के साथ काम किया लेकिन 1980 के दशक में उनका करियर फीका पड़ने लगा। वे कहते थे कि “उन दिनों हम साफ-सुथरी कॉमेडी करते थे। हम जानते थे कि जो व्यक्ति सिनेमा में आया है, वह अपनी पत्नी और बच्चों के साथ आया है … कहानी सबसे महत्वपूर्ण हुआ करती थी। कहानी चुनने के बाद ही अबरार अल्वी और गुरुदत्त उपयुक्त अदाकार ढूंढते थे, अब यह सब उल्टा हो गया है … वे एक बड़े नायक के लिए एक कहानी लिखाते हैं जिसमें फिट होने के लिए हास्य अभिनेता एक चरित्र बनना बंद कर दिया है, वह दृश्यों के बीच फिट होने के लिए कुछ बन गया है। कॉमेडी अश्लीलता की बंधक बन गई थी। मैंने 300 फिल्मों में अभिनय किया और सेंसर बोर्ड ने कभी भी एक लाइन भी नहीं काटी।”
( ई- अभिव्यक्ति के माध्यम से रंगमंच स्मृतियों स्तम्भ में सहयोग के लिए वरिष्ठ नाट्यकर्मी एवं अग्रज श्री वसंत काशीकर जी का हृदय से आभार। श्री वसंत काशीकर जी को उनकी हाल ही में स्थापित की गई कला, साहित्य एवं संस्कृति पर आधारित संस्था ‘जिज्ञासा ‘ की सफलता के लिए हार्दिक शुभकामनाएं। जबलपुर में साझा रंगकर्म की नींव रखने में अन्य रंगकर्म संस्थाओं के संस्थापकों में आपका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वैचारिक मतभेदों के पश्चात इतनी रंगकर्म संस्थाओं का एक मंच पर आना एक ऐतिहासिक घटना है । इस सद्कार्य के लिए सभी संस्थाओं को ई -अभिव्यक्ति का साधुवाद )
(यह विडम्बना है कि – हम सिनेमा की स्मृतियों को तो बरसों सँजो कर रखते हैं और रंगमंच के रंगकर्म को मंचन के कुछ दिन बाद ही भुला देते हैं। रंगकर्मी अपने प्रयास को आजीवन याद रखते हैं, कुछ दिन तक अखबार की कतरनों में सँजो कर रखते हैं और दर्शक शायद कुछ दिन बाद ही भूल जाते हैं। कुछ ऐसे ही क्षणों को जीवित रखने का एक प्रयास है “रंगमंच स्मृतियाँ “। यदि आपके पास भी ऐसी कुछ स्मृतियाँ हैं तो आप इस मंच पर साझा कर सकते हैं।)
इस प्रयास में सहयोग के लिए श्री वसंत काशीकर जी एवं श्री दिनेश चौधरीजी का आभार। साथ ही भविष्य में सार्थक सहयोग की अपेक्षा के साथ
– हेमन्त बावनकर
☆ रंगमंच स्मृतियाँ – जबलपुर में साझा रंगमंच – श्री वसंत काशीकर ☆
स्थानीय रंगसंस्थाओं विवेचना रंगमंडल, समागम रंगमंडल, जिज्ञासा, रचना, विमर्श, नाट्यलोक, रंगाभरण, इलहाम, द्वारा जारी साझा वक्तव्य
“जबलपुर रंगमंच के लंबे शानदार इतिहास के केंद्र में ,साझा रंगमंच की कल्पना ,उसकी बुनियादी शुरुवात एक नई और बड़ी घटना है।नगर की रंग संस्थाएं, रंगकर्मी और रंग आंदोलनों के सक्रिय साथियों ने इस साझा रंगमंच को मूर्तरूप देने में अपनी सहमति प्रदान की है।यह कोई नई संस्था नहीं है, देशकाल की चुनोतियों को देखते हुए एक ताजा सहकारी आंदोलन का सूत्रपात है।कला ,साहित्य,संस्कृति की विविध धाराओं में अपनी पहचान और संस्थागत पहचानों को पूरी स्वायत्तता के साथ बनाये रखते हुए यह साझा रंगमंच एक समानांतर रूप में उत्प्रेरक का काम करेगा।यह सहकारिता, सामूहिकता और सार्वजनिक चेतना के साथ सहमत लोगों का एक बड़ा प्लेटफॉर्म होगा जिसमें भागीदारी और योगदान का हम संकल्प लेते हैं।”
अरुण पांडे,वसंत काशीकर,आशीष पाठक,समर सेनगुप्ता,डॉ प्रशांत कौरव,सत्येंद्र रावत,संजय गर्ग,आयुष राय,बृजेन्द्र राजपूत,विनोद विश्वकर्मा ,आशुतोष द्विवेदी द्वारा 23 जनवरी 2020 को तरंग प्रेक्षागृह में विवेचना रंगमंडल के नाट्य समारोह रंगपरसाई 2020 के अवसर पर जारी।
प्रस्तुति – श्री वसंत काशीकर, जबलपुर, मध्यप्रदेश
श्री दिनेश चौधरी
संक्षिप्त परिचय – रंगकर्म व लेखन-कार्य में सक्रिय। नाटकों की किताब व पुस्तिकाओं का सम्पादन व कुछ नाटकों का देश के विभिन्न नगरों में सफल मंचन। लेख, फीचर, रपट, संस्मरण, व्यंग्य-आदि देश की अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। संस्मरण और व्यंग्य संग्रह शीघ्र-प्रकाश्य।
☆ रंगमंच स्मृतियाँ – जबलपुर का साझा रंगकर्म बनाम स्टेम सेल – श्री दिनेश चौधरी ☆
वैचारिक मतभेद के मूल में विचार ही होते हैं। इसका होना समाज के लिए शुभ-संकेत होता है। इसके बरक्स जहाँ विचार शून्यता होती है, वहाँ सारे फसाद अहम को लेकर होते हैं। ऐसी संस्थाएँ बहुत दिनों तक अपनी रचनात्मकता कायम नहीं रख पातीं और उन अवसरों की तलाश में होती हैं जहाँ ‘शत्रु पक्ष’ को उखाड़ा जा सके और इस तरह उनके छद्म-अहम को खुराक मिलती रहे। यों थो बल्किड़ा-बहुत अहम होना भी कोई खराब बात नहीं होती, बशर्ते यह आपको आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करे और आत्म-सम्मान को बचाने के लिए कवच की तरह काम करे। यह मसला अलबत्ता विशुद्ध वैयक्तिक है और सामूहिक कार्यों इसके लिए कोई जगह नहीं होती।
जबलपुर में रंगमंच और रंगकर्म की एक लंबी और समृद्ध परंपरा रही है। नगर में अनेक नाट्य-संस्थाएं काम कर रही हैं और ये एक-दूसरे के समानांतर नहीं, बल्कि साथ-साथ हैं। भौतिकी का सर्वमान्य सिद्धांत है कि समानांतर क्रम में जुड़ने पर परिणामी प्रतिरोध कम हो जाता है और श्रेणी क्रम में यह इंडिजुअल्स के योग के बराबर हो जाता है। प्रतिरोध क्षमता बढ़ जाती है। सामने लहर बहुत बड़ी हो तो लोग हाथ जोड़कर श्रृंखलाबद्ध हो जाते हैं। समय के इस मोड़ पर जबलपुर की रंग संस्थाओं ने यही किया है।
रंग-परसाई 2020 में प्रवीण गुँजन के नाटक “कथा” के मंचन से पहले कल जबलपुर की सभी रंग-संस्थाएं एक मंच पर एक साथ खड़ी दिखाई पड़ीं। प्रतिनिधियों को आमंत्रित करते हुए आशुतोष द्विवेदी ने कहा कि यह सच है कि संस्थाएँ इस बीच टूटी भी हैं, पर उनके टूटने से नई संस्थाओं का निर्माण भी हुआ है। तो यह एक तरह से विखंडन नहीं, बल्कि विस्तार है। बात सच है। इन दिनों चिकित्सा-जगत में “स्टेम सेल थेरेपी” बहुत ज्यादा प्रचलित हो रही है और यह असाध्य रोगों को भी ठीक करने के काम आ रही है। स्टेम सेल वे कोशिकाएं होती हैं जो विखंडित होकर नई बन जातीं हैं और उन कोशिकाओं को ‘रिप्लेस’ कर देती हैं जो क्षतिग्रस्त हों। हमारे समाज में भी कई किस्म के रोग पनप रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए रंग-कोशिकाएं इन व्याधियों को दूर करने का प्रयास करेंगी।
रंग-संस्थाओं की ओर से वरिष्ठ निर्देशक वसंत काशीकर ने एक सयुंक्त-बयान जारी किया। यह बयान है:
” जबलपुर में रंगमंच के लंबे शानदार इतिहास के परिप्रेक्ष्य में ,साझा रंगमंच की कल्पना ,उसकी बुनियादी शुरुवात एक नई और बड़ी घटना है। नगर की रंग संस्थाएं, रंगकर्मी और रंग आंदोलनों के सक्रिय साथियों ने इस साझा रंगमंच को मूर्तरूप देने में अपनी सहमति प्रदान की है।यह कोई नई संस्था नहीं है, देशकाल की चुनोतियों को देखते हुए एक ताजा सहकारी आंदोलन का सूत्रपात है।कला , साहित्य,संस्कृति की विविध धाराओं में अपनी पहचान और संस्थागत पहचानों को पूरी स्वायत्तता के साथ बनाये रखते हुए यह साझा रंगमंच एक समानांतर रूप में उत्प्रेरक का काम करेगा।यह सहकारिता, सामूहिकता और सार्वजनिक चेतना के साथ सहमत लोगों का एक बड़ा प्लेटफॉर्म होगा जिसमें भागीदारी और योगदान का हम संकल्प लेते हैं।”
मंच को निम्न प्रतिनिधियों ने साझा किया: विवेचना रंगमंडल-अरुण पांडे,
संक्षिप्त परिचय – रंगकर्म व लेखन-कार्य में सक्रिय। नाटकों की किताब व पुस्तिकाओं का सम्पादन व कुछ नाटकों का देश के विभिन्न नगरों में सफल मंचन। लेख, फीचर, रपट, संस्मरण, व्यंग्य-आदि देश की अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। संस्मरण और व्यंग्य संग्रह शीघ्र-प्रकाश्य।
यह विडम्बना है कि – हम सिनेमा की स्मृतियों को तो बरसों सँजो कर रखते हैं और रंगमंच के रंगकर्म को मंचन के कुछ दिन बाद ही भुला देते हैं। रंगकर्मी अपने प्रयास को आजीवन याद रखते हैं, कुछ दिन तक अखबार की कतरनों में सँजो कर रखते हैं और दर्शक शायद कुछ दिन बाद ही भूल जाते हैं। कुछ ऐसे ही क्षणों को जीवित रखने का एक प्रयास है “रंगमंच स्मृतियाँ “। यदि आपके पास भी ऐसी कुछ स्मृतियाँ हैं तो आप इस मंच पर साझा कर सकते हैं।
इस प्रयास में सहयोग के लिए श्री दिनेश चौधरी जी का आभार। साथ ही भविष्य में सार्थक सहयोग की अपेक्षा के साथ – हेमन्त बावनकर
☆ रंगमंच स्मृतियाँ – “मौसाजी जैहिन्द ” – श्री दिनेश चौधरी ☆
☆ निराले बुंदेली मौसाजी भावुक कर देते हैं ☆
साझा रंगमंच द्वारा विगत 16 जनवरी 2020 को शहीद स्मारक, जबलपुर में ‘मौसाजी जैहिन्द’ नाटक की प्रस्तुति दी गई। साझा रंगमंच नगर के रंगकर्म क्षेत्र में नया प्रयोग व अवधारणा है। साझा रंगमंच – नगर की रंग संस्थाओं जिज्ञासा, रंगाभरण एवं इलहाम का संयुक्त प्रयास है। यह प्रयोग जबलपुर में पहली बार हुआ है, जिसमें तीन संस्थाओं के रंगकर्मियों ने संयुक्त रूप से नाट्य प्रस्तुति दी। ‘मौसाजी जैहिन्द’ विख्यात साहित्यकार उदय प्रकाश की कहानी पर आधारित बुंदेली रूपांतरण है। नाटक का बुंदेली रूपांतरण, निर्देशन और मौसाजी की मुख्य भूमिका वसंत काशीकर ने निभाई।
क्या है कहानी- मौसाजी एक अद्भुत चरित्र है, जो अपनी दुनिया में जीते हैं। वे एक गरीब बुजुर्ग ग्रामीण हैं, लेकिन उनके जीने का अंदाज़ निराला है। मौसाजी बात-बात में आज़ादी की लड़ाई में अपनी हिस्सेदारी के किस्से सुनाते रहते हैं। वो विपन्न हैं, परन्तु उनकी बातों से महसूस होता है कि वे सैकड़ों एकड़ ज़मीन के मालिक हैं। प्रत्येक किस्से के नायक वे स्वयं हैं। गांव वाले उनकी हालत व स्थिति को जानते-समझते हैं। मौसाजी ने अपना एक झूठा संसार रच लिया है। उनके हिसाब से महात्मा गांधी उनके दोस्त थे। वाइसराय जब-तब आ कर उनके चरण स्पर्श करते हैं। गांव वाले भी मौसाजी के किस्से व गप्पें मजे से सुनते और यह भ्रम बनाए रखते कि वे उनकी बातों को सच मानते हैं। मौसाजी के तीन पुत्र हैं, जो छोटे-मोटे काम कर गुजारा कर रहे हैं। पुत्र उनकी चिंता नहीं करते हैं, लेकिन मौसाजी हर समय उनका गुणगान करते रहते हैं। नाटक के अंत में मौसाजी के साथ एक घटना घटती है, जिससे कहानी अचानक मोड़ लेती है।
अभिनय व समग्र प्रस्तुति- लगभग सौ मिनट की अवधि का ‘मौसाजी जैहिन्द’ बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि का नाटक है। इसके संवाद सरल व सहज बुंदेली में है, इसलिए दर्शकों को पूरे समय मज़ा देते हैं। मौसाजी व अन्य ग्रामीण परिवेश के चरित्रों एवं किस्सागोई शैली के कारण नाटक देखने में अंत तक रोचकता बनी रहती है। मौसाजी की भूमिका में वसंत काशीकर ने संवेदनशील अभिनय किया। वे मौसाजी के चरित्र को आत्मसात किए हुए हैं। उनके बुंदेली संवाद दर्शकों को नाटक से कनेक्ट कर देते हैं। नाटक में नमन मिश्रा की थानेदार के रूप में निभाई गई भूमिका अभिनय व भाव भंगिमा के कारण आकर्षित करती है। अन्य भूमिकाओं में आयुष राय, शोभा उरकड़े, निमिषा नामदेव, ब्रजेन्द्र सिंह, शुभम जैन, तरूण ठाकुर, आयुष राठौर, अर्पित तिवारी, संदीप धानुक, लोकेश यादव, अमन मिश्रा और हिमांशु पटैल न्याय करते हैुं और नाटक की गति को बढ़ाते हैं।
बैक स्टेज- मौसाजी जैहिन्द में अक्षय ठाकुर की प्रकाश परिकल्पना और निमिष माहेश्वरी का संगीत नाटक को प्रभावी बनाने में मदद करता है। मेकअप, कास्ट्यूम और सेट विषयवस्तु को समेटे हुए रहे। वैसे ही सेट की परिकल्पना रही। नाट्य प्रस्तुति में सुहैल वारसी, निमिष माहेश्वरी और ब्रजेन्द्र सिंह राजपूत का विशेष सहयोग रहा।
☆ मौसाजी के जन्नत की हकीकत ☆
सच हमेशा सुंदर नहीं होता। अक्सर यह क्रूर या डरावने भेस में सामने आता है। जब भी कोई सपना टूटता है, हमेशा यही सामने होता है। हिंस्र पशु की तरह। डराता-चिढ़ाता हुआ-सा। यह बहुत ईर्ष्यालु होता है और इससे किसी की थोड़ी-सी भी खुशी बरदाश्त नहीं होती!
मौसाजी सारे जगत के मौसाजी हैं। उनका यह सम्बोधन इतना लोकप्रिय है कि उनके अपने बेटे उन्हें मौसाजी कहते हैं। बेटे उनके साथ नहीं हैं। मंच पर भी नहीं। उनका बस जिक्र आता है। दो ठीक-ठाक हैं और तीसरा आवारा है। उसकी यही आवारगी मौसाजी द्वारा निर्मित उस किले को ध्वस्त कर देती है, जो भले ही छद्म है पर उनके जीने का सहारा है।
मौसाजी क़िस्सागो हैं। बड़बोले हैं। लम्बी-लम्बी हाँकते हैं। गाँधीजी उनके बड़े नजदीकी रहे। मुख्यमंत्री से वे फोन पर ही बतिया लेते हैं। डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर उनके साथ शिकार पर जाता है और बेटे की शादी में इतने बराती आए कि कुँए में ही शर्बत घोलनी पड़ी। मौसाजी जानते हैं कि वे झूठ बोल रहे हैं। गाँव वाले भी जानते हैं कि वे झूठ बोल रहे हैं। जनगणना अधिकारी को भी पता है कि मौसाजी झूठ बोल रहे हैं और अब दर्शकों को भी मालूम पड़ गया है कि मौसाजी अव्वल नम्बर के झुठल्ले हैं। पर सबकी सहानुभूति मौसाजी के साथ है। यही इस कथा की खूबसूरती है।
जैसे सच हमेशा सुंदर नहीं होता, वैसे ही झूठ की शक्ल हमेशा खराब नहीं होती। कभी-कभी ये अपनी शक्लें आपस में बदल लेते हैं। एक बूढ़ा आदमी है। अकेला है। पत्नी को गुजरे दशकों बीत चुके हैं। बेटे साथ नहीं हैं। उसने अपने लिए एक सपनों की दुनिया बुन ली है, तो किसी का क्या जाता है? वह खुश हो लेता है और गाँव वाले मजे ले लेते हैं। बस इतनी-सी बात!
खतरनाक झूठ तो वह होता है जो आंकड़ों के रूप में सरकारी फाइल में दर्ज होता है। रोटियों के लिए तरस रहे इंसान की ‘कैलोरी इंटेक” बढ़ा-चढ़ाकर बताई जाती है। इंसान को गरीबी रेखा से ऊपर लाने के लिए रेखा को घसीटकर नीचे ले आया जाता है। यह उस लड़ाई के बाद और उसके बावजूद है, जिसका जिक्र मौसाजी बार-बार करते हैं। वे गाँधी के आखिरी आदमी से सूखी रोटी का एक टुकड़ा तक छीन लेना चाहते हैं। मौसाजी यह होने नहीं देते और उन्हें सचमुच ही जैहिन्द करने का मन करता है और थोड़े सर्द हो गए इस मौसम में उनके साथ चाय पीने का!
वसन्त काशीकर अभिनय और निर्देशन दोनों के लिए बधाई के पात्र हैं। वे सचमुच के मौसाजी लगते हैं। प्रस्तुति की डोर को कसकर थामे रहते हैं-कहीं कोई झोल नहीं। गाँव वालों के रूप में बाकी अभिनेताओं की संगत अच्छी है। सभी बेहद सहज लगते हैं, कोई बनावट नहीं। बुंदेली में होने के कारण नाटक की रंजकता और बढ़ जाती है। सबसे दिलचस्प दृश्यों में मौसाजी और ‘डुकरो’ के बीच होनी वाली नोंक-झोंक है। “वैष्णव जन तो तेने कहिए’ का एक टुकड़ा बेहद प्रभावशाली है। इसमें प्रयुक्त रोशनी भी। ‘अंधे अभिनेता’ का गला बड़ा सुरीला है।
मौसाजी दर्शकों को अपने साथ ‘कनेक्ट’ कर लेते हैं, इसलिए उनका अपमान दर्शकों को अपना अपमान लगता है। धक्का लगता है। काश की वह भरम बना रहता जो मौसाजी ने बड़े जतन से बनाया था! यह संवेदना और सह-अनुभूति ही नाटक का हासिल है।
सुप्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता और रंगकर्मी श्रीराम लागू का 92 साल की उम्र में निधन हो गया. सातारा में जन्मे श्रीराम लागू पिछले कुछ समय से बीमार चल रहे थे. उन्हें मराठी थिएटर के 20वीं सदी के सबसे बेहतरीन कलाकारों में गिना जाता है. उन्होंने 100 से अधिक हिंदी और मराठी फ़िल्मों में काम किया था तथा वे मराठी, हिंदी और गुजराती रंगमंच से भी जुड़े रहे. श्रीराम लागू ने 20 से अधिक मराठी नाटकों का निर्देशन भी किया.
पेशे से ENT विशेषज्ञ डॉ श्रीराम लागू जी ने 42 साल की उम्र में थिएटर और फ़िल्मों की दुनिया में कदम रखा और 1969 में वह पूरी तरह मराठी थिएटर से जुड़ गए.
‘नटसम्राट’ नाटक में उन्होंने गणपत बेलवलकर की भूमिका निभाई थी जिसे मराठी थिएटर के लिए मील का पत्थर माना जाता है. नटसम्राट के इस रोल के बाद डॉक्टर लागू को भी दिल का दौरा पड़ा था.
कई पुरस्कारों से सम्मानित / अलंकृत थे. उन्हें घरौंदा के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहअभिनेता का अवॉर्ड मिला था. उन्होंने नटसम्राट, सिंहासन, सामना, पिंजरा जैस मराठी फिल्मों और चलते-चलते, मुक़दर का सिंकदर, सौतन और लवारिस जैसे कई हिंदी और मराठी फ़िल्मों में काम किया. रिचर्ड एटनब्रा की फ़िल्म गांधी में गोपाल कृष्ण गोखले की उनकी छोटी सी भूमिका को हमेशा याद रखा जायेगा। उनकी आत्मकथा ‘लमाण’ प्रत्येक अभिनेता के लिए प्रेरणा स्त्रोत से कम नहीं है.
ई- अभिव्यक्ति की ओर से उन्हें सादर विनम्र श्रद्धांजलि
(यह विडम्बना है कि – हम सिनेमा की स्मृतियों को तो बरसों सँजो कर रखते हैं और रंगमंच के रंगकर्म को मंचन के कुछ दिन बाद ही भुला देते हैं। रंगकर्मी अपने प्रयास को आजीवन याद रखते हैं, कुछ दिन तक अखबार की कतरनों में सँजो कर रखते हैं और दर्शक शायद कुछ दिन बाद ही भूल जाते हैं।
इस मंच से हम रंगमंच के कार्यक्रमों को जीवंतता प्रदान करने का प्रयास करते हैं. यदि रंगमंच से सम्बंधित कुछ प्रयोग, मंचन, उपलब्धियां आपके पास हों तो आप अवश्य साझा करें. हमें रंगमंच सम्बन्धी प्रत्येक उपलब्धि साझा करने में प्रसन्नता होगी. आज प्रस्तुत है विवेचना के २६वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह की विशिष्ट जानकारी श्री वसंत काशीकर जी के सौजन्य से.)
☆ रंगमंच – विवेचना का 26 वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह (25 से 29 सितंबर) ☆
☆ पांच चुनिंदा नाटकों का मंचन ☆
विवेचना थियेटर ग्रुप ( विवेचना, जबलपुर ) का 26 वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह इस वर्ष 25 सितंबर से 29 सितंबर 2019 तक आयोजित होगा।
इसका उद्घाटन 25 सितंबर को संध्या 7 बजे होगा। यह समारोह 5 दिवसीय होगा।
इस समारोह में विवेचना ने विशेष नाटकों का चुनाव किया है। इस समारोह के सभी नाटक कहानी उपन्यास पर आधारित हैं। हर नाटक की अपनी अपनी खासियत है।
पहले दिन 25 सितंबर को विवेचना का वसंत काशीकर निर्देशित नाटक ’’हमदम’ अपनी कहानी और अभिनय की श्रेष्ठता के लिये लाजवाब है। इसे स्व दिनेश ठाकुर ने लिखा है। यह नाटक बुजुर्गों के अकेलेपन और प्रेम को नई दृष्टि से देखता है।
दूसरे दिन 26 सितंबर को होने वाला नाटक ’नागिन तेरा वंश बढ़े’ प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता व नाट्य निर्देशक अवतार साहनी के निर्देशन में विजयदान देथा की कहानी पर आधारित है। इसे एक्टर्स रिपर्टरी थियेटर, दिल्ली के कलाकार प्रस्तुत करेंगे।
तीसरे दिन 27 सितंबर को नाटक ’सीमापार’ हिन्दी के प्रथम नाटककार भारतेन्दु के जीवन पर आधारित है जिसे राइजिंग सोसायटी भोपाल के कलाकार प्रीति झा तिवारी के निर्देशन मंचित करेंगे। उल्लेखनीय है कि अभी अभी प्रीति झा तिवारी को संगीत नाटक अकादमी युवा पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।
चौथे दिन 28 सितंबर को महान भारतीय लेखक फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी पर आधारित नाटक ’पंचलेट’ मंचित होगा। पिंक बर्ड सोसायटी भोपाल की इस रोचक प्रस्तुति का निर्देशन कमलेश दुबे,भोपाल ने किया है।
पांचवें और अंतिम दिन 29 सितंबर को अदाकार थियेटर सोसायटी, दिल्ली के कलाकार रोचक नाटक ’शादी के मंडप में’ का मंचन करेंगे। इसका निर्देशन गुनीत सिंह ने किया है।
यह समारोह तरंग प्रेक्षागृह में एम पी पावर मैनेजमेंट कं लि, केन्द्रीय क्रीड़ा व कला परिषद के सहयोग से आयोजित होगा। नाटकों का मंचन प्रतिदिन संध्या 30 बजे होगा।
विवेचना थियेटर ग्रुप की ओर हिमांशु राय, बांकेबिहारी ब्यौहार, वसंत काशीकर ने सभी नाट्य प्रेमी दर्शकों से समारोह के सभी नाटकों को देखने का अनुरोध किया है।
(यह विडम्बना है कि – हम सिनेमा की स्मृतियों को तो बरसों सँजो कर रखते हैं और रंगमंच के रंगकर्म को मंचन के कुछ दिन बाद ही भुला देते हैं। रंगकर्मी अपने प्रयास को आजीवन याद रखते हैं, कुछ दिन तक अखबार की कतरनों में सँजो कर रखते हैं और दर्शक शायद कुछ दिन बाद ही भूल जाते हैं। कुछ ऐसे ही क्षणों को जीवित रखने का एक प्रयास है “रंगमंच स्मृतियाँ “। यदि आपके पास भी ऐसी कुछ स्मृतियाँ हैं तो आप इस मंच पर साझा कर सकते हैं।
इस प्रयास में सहयोग के लिए श्री अनिमेष श्रीवास्तव जी का आभार। साथ ही भविष्य में सार्थक सहयोग की अपेक्षा के साथ – हेमन्त बावनकर)
☆ रंगमंच स्मृतियाँ – “न चीनी कम ना नमक ज़्यादा” – श्री अनिमेष श्रीवास्तव ☆
* निर्देशकीय *
नियति है.. अकेलापन.. ।
आना भी अकेले और जाना भी…. इससे दूर रहने के लिए इंसान ने ख़ूब उपाय किये । समाज बनाया, रीति-रिवाज बनाये, नियम बनाया, क़ानून बनाये.. कि सभ्य और सुसंस्कृत रूप से जी सके.. मगर फिर भी अकेलेपन से निजात नहीं पा सका.. क्योंकि वह इसकी जड़ में अपने मूल स्वभाव.. अहंकार को कभी समझ ही नहीं पाया ।
अहंकार जिसके ना रहने पर प्रेम होता है, प्रेम क़रीब लाता है । उसके अभाव में लोगों से घिरे रहने के बावजूद भी मनुष्य तनहा है। अनगिनत संबंधों की डोर से जुड़ा होने पर भी जो सिरा उसके पास है वह अकेलेपन का ही है…।
मनोवैज्ञानिक और तथाकथित सामाजिक रूप में संबंधों (दोस्त, प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नी के संबंध) की महती आवश्यकता हर इंसान की ज़रूरत है। यह रिश्ते मानसिक जीवन के भरण-पोषण के लिए अवश्यम्भावी हैं। दोस्त के रूप में मां-बाप, भाई-बहन या अन्य कोई भी बाहरी, प्रेमी-प्रेमिका के रूप में किसी भी आदर्श व्यक्ति या अपने ही किसी संबंधी की छवि जो पति-पत्नी के चयन में भी परिलक्षित होती है, के लिए मन खेल खेलता है और अपने मुताबिक ना होने पर खुद को छला महसूस करता है । मन का ये भ्रमण विलास और खोजते रहने की प्रवित्ति ही मानव जीवन का सत्य है ।
दुरूह है यह जानते हुए भी इंसान ने जीवन को स्वाभाविक ढंग से जीना शुरू किया और अपने सबसे बड़े गुण, बुद्धि का इतना विकास किया कि उससे अविष्कृत सुख-सुविधा में दुःख (जो मूल रूप में अकेलापन है, उसे) भूलने का छल भी अपने से किया ।
दिवा-स्वप्नों को जीते हुए इंसान अपने जीने के कारणों को तलाश रहा है और जीता चला जा रहा है।
मनुष्य अकेला है मगर उजागर नहीं है । दर्शन का उपयोग और शास्त्र का प्रयोग उसके अकेलेपन का बचाव है ।
प्रस्तुत नाटक में मानवीय अकेलापन सीधे-सीधे तो परिलक्षित नहीं होता मगर हास्य के क्षणों को, जो नाटक में हैं, हम देखें तो उसका दर्शन अवश्य होता है ।
यह एक मनोवैज्ञानिक नाटक है । एक एकाकी अविवाहित महिला जो जीने के कारणों को स्वप्न-दिवास्वप्न में तलाशती है । उसके यह सपने तो कभी पूरे नहीं होते किन्तु उसकी संपूर्णता की चाह ही उसके जीने का सबब हैं।
शारीरिक ज़रूरत कई समस्याओं की जड़ है लेकिन उसकी पूर्ति किसी समस्या का हल भी नहीं है।
नाटक की मुख्य पात्र मीरा के अकेलेपन का एक कारण लीबीदो है, जो जैविक मनोवैज्ञानिक कारण जैसे व्यक्तित्व और तनाव, और सामाजिक कारक जैसे काम और परिवार से प्रभावित होता है। इसके अलावा चिकित्सीय स्थितियों, जीवन शैली, रिश्ते के मुद्दों और उम्र से भी अपना स्वरूप ग्रहण करता है ।
मनुष्यों में अंतरंग संबंधों के निर्माण और निर्वहन में यौन इच्छाएं अक्सर एक महत्वपूर्ण कारक होती हैं।
ऐसे ही लीबीदो से वशीभूत होकर मीरा के जीवन में किसी एक दिन तीन लोगों का आगमन होता है । यह लोग उसके मनःस्थिति में बसे संबंधों के आदर्श रूप प्रस्तुत करते हैं । उनमें से एक दोस्त है, एक हीरो रूप (प्रेरणा) और तीसरा प्रेमी । इनसे दो-चार होकर उसे खुशी भी मिलती है और नैराश्य भी। इस खुशी और नैराश्य के पीछे लीबीदो ही है।
क्या खुशी और नैराश्य एक स्वप्न है ? सिर्फ लीबीदो ?
निर्णय आपका है !
मंच पर
मीरा – आस्था जोशी
सोनू – सोनू चौहान
अरुण – सतीश मलासिया
हरीशंकर – सौरभ लोधी
मुरली मनोहर – पीयूष पांडा
कुली – आशुतोष मिश्रा
(नाटक “न चीनी कम ना नमक ज़्यादा” के लिए यह पेंटिंग नाटक के सेट डिजाइनर चैतन्य सोनी जी ने बनाया था। चैतन्य ने इस नाटक के लिए ना सिर्फ सेट डिजाइन किया, बल्कि वस्त्र-विन्यास भी उन्ही का था, जिसके लिए उन्होंने एक पूरी शर्ट भी पेंट किया। इसके अलावा नाटक में मेकअप भी उन्ही का था।)
मंच परे
मंच व्यवस्थापक – आशुतोष मिश्रा
मंच परिकल्पना एवं निर्माण – चैतन्य सोनी / अक्षिका यादव
मंच सामाग्री – सोनू चौहान
वस्त्र विन्यास – चैतन्य सोनी
रूप सज्जा – चैतन्य सोनी
प्रचार प्रसार – भगवती चरण
विडियो फोटो – कृष्णा गर्ग
प्रकाश परिकल्पना – मुकेश जिज्ञासी
मूल लेखक – मोहित चट्टोपाध्याय
हिन्दी अनुवाद – समर सेनगुप्ता
संगीत संकलन – अंकित शिरबावीकर
संगीत संचालन – अभिषेक सिंह राजपूत
सहयोगी कलाकार – चन्द्र कुमार फाये, पीयूष तिवारी, अक्षिका यादव
परिकल्पना एवं निर्देशन – अनिमेष श्रीवास्तव
मार्गदर्शक – मुकेश शर्मा
* निर्देशकीय संस्मरणात्मक अभिव्यक्ति *
समान्तर नाट्य संस्था, भोपाल के कलाकारों के साथ पिछले एक महीने से रंगमंचीय कार्यशाला करने का अनुभव ले रहा हूँ… सिखाया क्या हूँ कुछ नहीं, बल्कि खुद जाने कितनी चीज़े सीख गया हूँ। नए और जवान प्रशिक्षु लबरेज़ होते हैं अनगढ़ खूबसूरती से जिसे आकार देने की ज़िम्मेदारी किसी पुराने को दी जाती है। मैं पुराना नहीं हूँ बल्कि मुझ से नया और कोई नहीं, मगर फिर भी एक दिन श्री मुकेश शर्मा सर ने कहा कि आइए और हमारे कलाकारों के साथ कुछ काम कीजिये। मैं गया साहब। कलाकारों से मिला। बातें-वातें की । कुछ खेल खेले। कभी नाचे तो कभी रेंके । कभी पढ़ने लगे तो कभी एक्सरसाइज़ की। अपने तथाकथित सीखे को उनके तथाकथित नौसिखियेपन से जोड़ा, हिलाया, मिलाया, और जब सबने मिलकर खूब पसीना बहाया तब जाके रिजल्ट में निकला यह प्रहसन। जिसे मोहित चट्टोपाध्याय जैसे महान लेखक ने बांग्ला में ‘गनधोराजेर हाथताली’ नाम से रचा था मगर हिंदी में हमारे लिए जिसका अनुवाद वरिष्ठ रंगकर्मी श्री समर सेनगुप्ता जी ने किया । जबलपुर में रहने वाले समर दा अभिनय और निर्देशन के अलावा लेखन में भी दखल रखते हैं और उनका यह अनुवाद अच्छा बन पड़ा है ।
इधर मुकेश सर की बेशकीमती सलाहियत से नाटक के कई कमज़ोर पक्षों को मजबूती मिली तो कहानी और साफ हुई।
मूल बांग्ला से अनुदित इस नाटक की हिंदी में संभवतः यह पहली प्रस्तुति है ।
यह कक्षा अभ्यास प्रस्तुति महज परिदृश्य है उसका जिसे इन कलाकारों ने कार्यशाला के दौरान समझा है और जाना है। कितना जाना है इसे तो आपका अवलोकन ही बेहतर बयान कर सकेगा।
(“परसाई स्मृति”के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति के पाठकों से साझा करने के लिए संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठ नाट्यकर्मी श्री वसंत काशीकर जी का हृदय से आभार। आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं श्री काशीकर जी द्वारा परसाई जी की रचना का नाट्य रूपान्तरण “सदाचार का तावीज “।)
नाटक – सदाचार का तावीज
सूत्रधार – एक राज्य में बहुत भ्रष्टाचार था, जनता में बहुत ज्यादा विरोध था। लोग हलाकान थे। समझ में नही आ रहा था कि भ्रष्टाचारियों के साथ क्या सलूक किया जाये। बात राजा के पास पहुंची।
(लोग राज दरबार को दृश्य बनाते है)
राजा- (दरबारियों से) प्रजा बहुत हल्ला मचा रही है कि सब जगह भ्रष्टाचार फैला हुआ है। हमें तो आज तक कहीं दिखा। तुम्हें कहीं दिखा हो तो बताओ।
दरबारी- जब हुजूर को नही दिखा तो हमें कैसे दिख सकता है।
राजा- नहीं ऐसा नहीं है। कभी-कभी जो मुझे नही दिखता तुम्हें दिखता होगा। जैसे मुझे कभी बुरे सपने नही दिखते पर तुम्हें दिखते होंगे।
दरबारी- जी, दिखते हैं। पर वह सपनों की बात है।
राजा – फिर भी तुम लोग सारे रज्य में ढूंढकर देखो कि कहीं भ्रष्टाचार तो नहीं हैं। अगर कहीं मिल जाये तो हमारे देखने के लिए नमूना लेते आना। हम भी देखंे कि कैसा होता है।
दरबारी- महाराज वह हमें नही दिखेगा। सुना है वह बहुत बारीक होता है। हमारी आंखें आपकी विरारता देखने की इतनी आदी हो गयी है कि हमें बारीक चीज दिखती ही नही है
हमें भ्रष्टाचार दिखा भी तो उसमें हमें आपकी छबि दिखेगी, क्योकि हमारी आंखों में तो आपकी सूरत बसी है।
दरबारी 2– महाराज अपने राज्य में एक जाति है। जिसे विशेषज्ञ कहते है। इस जाति के पास ऐसा अंजन होता है कि वे उसे आंखों में आंजकर बारीक से बारीक चीज़ भी देख लेते हैं।
दरबारी 3– हां महाराज! हमारा निवेदन है क इन विशेषज्ञों को ही हुजूर भ्रष्टाचार ढूंढने का काम सौंपें।
राजा- ठीक है हमारे सामने ऐसे विशेषज्ञ जाति के आदमी हाजिर किये जाये।
सभी (मुनादी जैसे) – विशेषज्ञ हाजिर हो….
पांच लोग विशेषज्ञ बनकर आते है, उन्हे एक आदमी जानवरों जेसा हांककर लाता है
आदमी- महाराज ये इस राज्य के पांच विशेषज्ञ हैं।
राजा- सुना है, हमारे राज्य में भ्रष्टाचार है, पर वह कहां है, यह पता नही चलता। अगर तिल जाये तो पकड़कर हमारे पास ले आना।
सूत्रधार- विशेषज्ञों ने उसी दिन से पूरे राज्य में छानबीन शुरू कर दी। और दो महीने बाद फिर से दरबार में हाजिर हुए।(दरबार का दृश्य)
राजा- विशेषज्ञों तुम्हारी जांच पूरी हो गई ?
विशेषज्ञ- जी सरकार ।
राजा- क्या तुम्हें भ्रष्टाचार मिला ?
विशेषज्ञ- जी बहुत सारा मिला।
राजा- (हाथ बढाते हुए) – लाओ, मुझे बताओ। देखूं कैसा होता है
विशेषज्ञ 1– हुजूर, वह हाथ की पकड़ में नही आता। वदस्थूल देखा नही जा सकता, अनुभव किया जा सकता है।
राजा– (सोचते हुए टहल रहे है)-विशेषज्ञों तुम लोग कहते हो वह सूक्ष्म है, अगोचर है और सर्वव्यापी है। ये गुण तो ईश्वर के है। तो क्या भ्रष्टाचार ईश्वर हैं ?
विशेषज्ञ(सभी) – हां महाराज, अब भ्रष्टाचार ईश्वर हो गया है।
दरबारी 1- पर वह है कहां ? कैसे अनुभव होता है।
विशेषज्ञ – वह सर्वत्र है। इस भवन में है। महाराज के सिंहासन में है।
राजा- सिंहासन में…- कहकर उछलकर दूर खडे़ हो गये।
विशेषज्ञ- हां सरकार सिंहासन में है। पिछले माह इस सिंहासन पर रंग करने के जिस बिल का भुगतान किया गया है, वह बिल झूठा है। वह वास्तव से दुगने दाम का है। आधा पैसा बीच वाले खा गये । आपके पूरे शासन में भ्रष्टाचार है और वह मुख्यतः घूस के रूप में है।
(सभी दरबारी एक दूसरे से काना फूंसी करते है,राजा चिंतित है।)
राजा- यह तो बड़भ् चिंता की बात है। हम भ्रष्टाचार बिल्कुल मिटाना चाहते है। विशेषज्ञों क्या तुम बता सकते हो कि वह कैसे मिट सकता है ?
विशेषज्ञ- हां महाराज, हमने उसकी योजना तैयार की है। भ्रष्टाचार मिटाने के लिए महाराज को वर्तमान व्यवस्था में बहुत से परिवर्तन करने होंगे। भ्रष्टाचार के मौके ही मिटाने होगें। जैसे ठेका है तो ठेकेदार है, ठेकेदार है तो अधिकारियों की घूस हैं। यदि ठेका मिट जाये तो उसकी घूस मिट जायेगी। इसी तरह बहुत सी चीजें है जिन कारणों से आदमी घूस लेता है, उस पर विचार करना होगा।
राजा- अच्छा आप लोग अपनी पूरी योजनाऐं रख जाये। हम और हमारा दरबार उस पर विचार करेंगे
(दरबार का दृश्य समाप्त, विशेषज्ञ चले गये)
सूत्रधार- राजा और दरबारियों ने भ्रष्टाचार मिटाने की योजना को पढ़ा। उस पर विचार करते दिन बीतने लगे और राजा का स्वास्थ बिगड़ने लगा। एक दिन एक दरबारी ने राजा से कहा…
दरबारी 1- महाराज चिंता के कारण आपका स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा है। उन विशेषज्ञों ने आपको झंझट में डाल दिया है।
राजा- हां मुझे रात को नींद नही आती।
दरबारी 2- ऐसी रिपोर्ट को आग के हवाले कर देना चाहिऐ जिसके कारण महाराज की रातों की नींद में खलल पड़ा है।
राजा- पर करें क्या ? तुम लोगो ने भी तों भ्रष्टाचार मिटाने की योजना का अध्ययन किया है। तुम लोगो का मत है क्या ? उसे काम में लाना चाहिए।
दरबारी 3- महाराज यह योजना क्या है, एक मुसीबत है। उसके अनुसार कितने उलटफेर करने पडेंगे। कितनी परेशानी होगी। सारी व्यवस्था उलट-पुलट हो जायेगी।
दरबारी 4- जो चला आ रहा है, उसे बदलने से नई-नई कठिनाईयां पैदा हो सकती है।
दरबारी 1- हमें तो कुछ ऐसी तरकीब चाहिए जिससे बिना कुछ उलटफेर किये भष्टाचार मिट जाये।
राजा- मैं भी यह चाहता हूं पर हो कैसे ? हमारे प्रपितामाह को तो जादू आता था, हमें तो वह भी नही आता। तुम लोग ही कोई उपाय खोजो।
(दरबार का सीन विलोप)
सूत्रधार- सभी दरबारी अलग-अलग दिशाओं में चल पडे़ पूरे राज्य का सरकारी दौरा किया। बिना भ्रष्टाचार में लिप्त हुए पूरा राज्य घूमा। स्थितियों का जायजा लिया। और उपाय खोजते रहे। आखिर उपाय मिल गया। उन्होने एक दिन दरबार में राजा के सामने एक साधु को पेश किया।
(दरबार का दृश्य)
दरबारी 1- महाराज ‘‘एक कन्दरा में तपस्या करते हुए हमने इन महान साधक को देखा, ये चमत्कारी है। इन्होनें एक सदाचार का ताबीज बनाया है। वह मंत्रों से सिद्ध है, इसे पहनते ही आदमी एकदम सदाचारी हो जाता है।
(साधु ने अपने झोले से तबीज निकालकर राजा को दिया)
राजा- हे साधु, इस ताबीज के बारे मंे मुझे विस्तार से बताओ। इससे आदमी सदाचारी कैसे हो जाता है ?
साधु- महाराज, भ्रष्टाचार और सदाचार मनुष्य की आत्मा में होता हैं, बाहर से नही होता। विधाता जब मनुष्य को बनाता है तब किसी की आम्ता में ईमान की कला फिट कर देता है और किसी की आत्मा में बेईमानी की। इस कला में से इमान या बेईमानी के स्वर निकलते है, जिन्हे ‘‘आत्मा की पुकार‘‘ कहतेह है आत्मा की पुकार के अनुसार ही आदमी काम करता है।
राजा- जिनकी आत्मा से बेईमानी के स्वरे निकलते है उनसे कैसे ईमान के स्वर निकाले जायेंगे।
साधु- यही मूल प्रश्न है। मै कई वर्षो से इसी के चिंतन में लगा हूं। अभी मैने यह सदाचार का ताबीज़ बनाया है। जिस आदमी की भुजा पर यह बंधा होगा वह सदाचारी हो जायेगा। मैंने कुत्ते पर भी प्रयोग किया है। यह ताबीज गले में बांध देने से कुत्ता भी रोटी नही चुराता।
(राजा और दरबारी आश्चर्य चकित हैं)
राजा- और कुछ कुछ बताईये इस ताबीज़ के विषय में। इससे तो राज्य में चमत्कार हो जायेगा, ईमान की गंगा बह निकलेगी।
दरवारह कुछ और बताईए साधु जी ?
साधु- बात यह है कि इस ताबीज़ मे भी सदाचार के स्वर निकलते है। जब किसी की आत्मा बेईमानी के स्वर निकलने लगती है तब इस ताबीज़ की शक्ति आत्मा को गला घोंट देती है और आदमी को ताबीज़ के ईमान के स्वर सुनाई पड़ते है। वह इन स्वरों को आत्मा का स्वर समझकर सदाचार की ओर प्रेरित होता है। यही इस ताबीज का गुण है महाराज।
दरबारी- धन्य हो साधु महाराज।
राजा- मुझे नही मालूम था मेरे राज्य में ऐसे चमत्कारी साधु भी है। हम आपके आभारी हैं। आपने हमारा संकट दूर किया। हम सर्वव्यापी भ्रष्टाचार से परेशान थे। मगर हमें करोड़ो की संख्या में ताबीज चाहिए।
हम राज्य की ओर से ताबीज़ो का एक कारखाना खोल देते है, आप उसके जनरल मैनेजर होगे और आपकी देखरेख में ताबीज़ बनाये जायें।
दरबारी 1- महाराज, राज्य क्यों संकट में पडे़ ? मेरा तो निवेदन है कि इसका ठेका साधु बाबा को दे दिया जाय।
दरबारी 2– हमारा सुझाव है कि साधुबाबा को हरिद्वार में सौ दो सौ एकड़ जमीन दे दी जाय एवं फैक्ट्री खोलने के लिए सरकारी मदद। हरिद्वार पवित्र भूमि है, गंगा किनारे लगी फैक्ट्री से पवित्र सदाचार के ताबीज बनेगें।
राजा – सुझाव मंजूर है। इस पर शीघ्र अमल किया जावे।
(दरबार समाप्त)
सूत्रधार- सरकार की अनुदान योजना के अंतर्गत साधु बाबा हरिद्वार में ताबीज़ बनाने का कारखाना खुल गया। दो सौ करोड़ रूपये तबीज़ सप्लाई करने बतौर पेशगी राजा ने बाबा को दिये। राज्य के अखबारों में खबर आ गई । भ्रष्टाचारियों को चिंता सताने लगी। लाखों ताबीज़ बन गये। हर कर्मचारी की भुजा में सदाचार का ताबीज़ बांध दिया गया।
भ्रष्टाचार की समस्या का ऐसा हल निकल जाने से राजा और दरबारी खुश थे।
एक दिन राजा की उत्सुकता जागी और उन्होंने सोचा पता लगाया जाये सदाचार का ताबीज़ कैसे काम कर रहा है। वह वेश बदलकर एक कार्यालय पहुचें। जिस दिन पहुंचे महिने की दो तारीख थी।
राजा (एक कर्मचारी के पास) – मुझे जाति प्रमाण पत्र बनवाना है। (उसे सौ रूपये का नोट ेने लगता है)
कर्मचारी- भाग जा यहां से। घूस लेना पाप है।
राजा खुश होकर चला जाता है – दृश्य लोप
सूत्रधार- राजा बहुत खुश हुए। कुछ दिन बाद राजा फिर वेश बदलकर उसी कर्मचारी पास उसी दफतर में गये उस दिन महिने का आखिरि दिन 31 तारीख थी।
(कार्यालय का दृश्य)
राजा- मुझे जाति प्रमाण पत्र बनवाना है। (सौ रूपये का नोट देता है ) कर्मचारी नोट लेकर अपनी जेब में रख लेता है,
राजा (कर्मचारी का हाथ पकड़ते हुए) – मै तम्हारा राजा हूं। क्या तुम आ सदाचार का ताबीज बांधकर नहीं आये।
कर्मचारी- बांधा है सरकार ये देखिये (अस्तीन चढ़ाकर दिखाता है)
सूत्रधार- राजा असमंजस में पड़ गये, सोचने लगे ताबीज़ पहनने के बाद भी ऐसा कैसे हुआ ? क्या ताबीज़ का असर कम हो गया है। राजा ने ताबीज़ पर कान लगाया और सुना –
(सभी कलाकार एक विशेष फार्मेशन में राजा कर्मचारी के ताबीज़ के ऊपर कान लगाये है)
आवाज- (एक साथ) अरे आज इक्कतीस तारीख है, आज तो ले ले …
गीत – भरत व्यास
मालिक तेरे बंदे हम, ऐसे हो हमारे करम
नेकी पर चलें और बदी से डरें
ताकी हंसते हुए निकले दम
ऐ मालिक तेरे बंदे हम …
बड़ा कमजोर है आदमी, अभी लाखों है इसमें कमी
पर तू जो खड़ा, है दयालु बड़ा, तेरी कृपा से धरती थमी
दिया तूने हमें जब जनम, तू ही झेलेगा हम सब के गम
नेकी पर चले और बदी से डरे, ताकि हंसते हुए निकले दम