हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 11 – 50 साल पहले जबलपुर का परिदृश्य और साइंस कॉलेज से ग्रेजुएशन – ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ 50 साल पहले जबलपुर का परिदृश्य और साइंस कॉलेज से ग्रेजुएशन।) 

☆  दस्तावेज़ # 11 – 50 साल पहले जबलपुर का परिदृश्य और साइंस कॉलेज से ग्रेजुएशन ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

काफी उथल-पुथल का समय था। एक संत, आचार्य विनोबा भावे, जबलपुर को संस्कारधानी घोषित करके जा चुके थे और दूसरे संत, आचार्य रजनीश, जिनका मिजाज़ कुछ अलग था, संभोग से समाधि की ओर जाने का मार्ग बता रहे थे। महर्षि महेश योगी के भावातीत ध्यान का भी प्रवर्तन हो रहा था। यह नगरी अभी इतनी प्रगतिशील नहीं हुई थी कि टॉर्च बेचने वाले जादूगरों के अलावा अन्य बुद्धिजीवियों को स्वीकार कर सके। व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई को ‘वैष्णव की फिसलन’ लिखने के परिणामस्वरूप अपने हाथ-पांव तुड़वाने पड़े थे।

रॉबर्टसन कॉलेज तब तक गवर्नमेंट साइंस कॉलेज कहलाने लगा था। बगल में, महाकौशल आर्ट कॉलेज था। सिविल लाइंस के पचपेड़ी में इनके विशालकाय परिसर थे। निकट ही, मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री, इंदिरा गांधी के राजनीतिक सलाहकार और ‘कृष्णायन’ ग्रन्थ के रचयिता, पंडित द्वारिकाप्रसाद मिश्र का निवास था। थोड़ा आगे चलकर, जबलपुर यूनिवर्सिटी थी, जिसका नामकरण अब रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय हो गया है।

सेठ गोविंददास लंबे समय तक जबलपुर के सांसद रहे। उन्होंने हिंदी की सेवा की और ‘केरल के सुदामा’ तथा अन्य रचनाओं का अपनी कलम से सृजन किया। मुझे तो उस वक्त शहर के सबसे बड़े विद्वान दर्शनाचार्य गुलाबचंद्र जैन प्रतीत होते थे क्योंकि पाठ्यक्रम में उन्हीं की लिखी पुस्तकें पढ़ाई जाती थीं! सेठ गोविंददास के बाद, विश्वविद्यालय के छात्र संघ के अध्यक्ष, शरद यादव, अगले सासंद चुने गए।

जब हमने कॉलेज में दाखिला लिया (1971), तो उसके तुरंत बाद पाकिस्तान से दूसरा युद्ध हुआ और बांग्लादेश स्वतंत्र हुआ। जनरल नियाज़ी और उसके साथ आत्म-समर्पण करने वाले पाक सैनिकों को कॉलेज के पास ही आर्मी एरिया में कैद रखा गया था। हम रांझी से साइकिल में, गन कैरेज फैक्ट्री होते हुए, सेंट्रल स्कूल के परिसर के अंदर से शॉर्टकट लेकर, कॉलेज की पिछली ओर साइकिल स्टैंड में पहुंचते थे। कुछ समय तक वेस्टलैंड खमरिया से, प्रदीप मित्रा का साथ मिला। लंबे रास्ते में हम कार्ल मार्क्स के साम्यवाद और अमेरिका में पूंजीवाद की चर्चा करते थे। मुझे तो इन विषयों की कोई खास समझ नहीं थी लेकिन प्रदीप, फर्ग्यूसन कॉलेज पूना और आई आई टी कानपुर होते हुए, अमेरिका पहुंचकर वहां प्रोफेसर बन गया।

कॉलेज में पढ़ाई का अनुकूल वातावरण था और प्रोफ़ेसर बहुत योग्य थे। प्रोफेसर हांडा हमें गणित पढ़ाते थे। वह बहुत लंबे थे। गर्दन टेढ़ी कर कार चलाते थे। क्लास के अंत में पूछते, “एनी क्वेशचन?” जब हम ‘न’ में सिर हिलाते, तो वो बोलते, “नो क्वेशचन, वैरी इंटेलीजेंट!” छोटे कद के, अत्यंत प्रखर, डॉ प्रेमचंद्र, गणित के हमारे दूसरे प्रोफेसर थे। उनकी मूछें बहुत आकर्षक थीं। वे ‘इक्वेशन’ और ‘इक्वल टू’ का बहुत अजीबोगरीब और नाटकीय उच्चारण करते थे। ऐसा करने में, उनकी मूछें, तराजू के दो पलड़ों की तरह ऊपर-नीचे झुक जाती थीं – एक नीचे की तरफ और दूसरी ऊपर की ओर!

केमिस्ट्री के प्रोफेसर डॉ महाला और मिश्रा सर सादगी की प्रतिमूर्ति लेकिन गहन विद्वान थे। महाला सर तो ब्लैकबोर्ड के सामने बीचोंबीच खड़े होकर, दोनों तरफ दाएं और बाएं हाथ से एक जैसा लिखते थे। सहस्त्रबुद्धे सर पुलिस अधिकारी की तरह कड़क थे, हम उनसे डरते थे। फिजिक्स डिपार्टमेंट के प्रोफेसर एस के मिश्रा और निलोसे सर बहुत सौम्य थे। उन्हें विषय का गहरा ज्ञान था। पालीवाल सर अप्लाइड मैथेमेटिक्स के अंतर्गत स्टेटिस्टिक्स पढ़ाते थे। उनका पढ़ाने का ढंग मज़ेदार था। वो पढ़ाते वक्त, कलाई को स्पिन गेंदबाज की तरह घुमाते थे, आँखें भी गोलगोल नचाते थे और उनकी जीभ भी घिर्रघिर्र करती थी। वे जब कक्षा को ‘कोरिलेशन’ का गणितीय पाठ पढ़ा रहे होते तो छात्र उस युग की तारिकाओं, शर्मीला टैगोर, वहीदा रहमान, तनूजा और डिंपल कपाड़िया के सौंदर्य का आपस में कोरिलेशन ढूंढ रहे होते।

जबलपुर उन दिनों फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन की महत्वपूर्ण टेरिटरी हुआ करती थी। राजकपूर की ‘मेरा नाम जोकर’ फ्लॉप हुई तो उन्होंने, नुकसान की भरपाई के लिए, एक बोल्ड फिल्म ‘बॉबी’ बना डाली जिसने सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले। इस शहर में, ‘दो रास्ते’ और ‘जय संतोषी मां’ जैसी फिल्मों ने सिल्वर जुबली मनाई। पुराने समय में तो श्याम टॉकीज, श्रीकृष्णा, सुभाष, प्लाजा, विनीत और लक्ष्मी टॉकीज जैसे ही पुराने सिनेमा हॉल थे। फिर, कुछ अच्छे बने जैसे ज्योति टॉकीज, आनंद और शीला टॉकीज। प्रेमनाथ की एम्पायर टॉकीज और डिलाइट टॉकीज का अपना ऑडियंस था। वहां हमने ‘द गंस ऑफ नेवरोन’, ‘एंटर द ड्रैगन’ और चार्ली चैपलिन की फिल्में देखीं। डिलाइट में एक बार हंगेरियन फिल्म फेस्टिवल भी आयोजित हुआ था।

हमारे सहपाठी थे – विजय कुमार चौरे, इंद्र कुमार दत्ता, जी पी दुबे, पी पी दुबे, अरविंद हर्षे, विजय कुमार बजाज, प्रवीण मालपानी (सेठ गोविंददास के नाती), रविशंकर रायचौधुरी, प्रदीप मित्रा, आशीष बैनर्जी… और मैं, जगत सिंह बिष्ट। एक नाम मैं भूल रहा हूं। उनकी उम्र हमसे कुछ अधिक थी और वो शायद सिहोरा के आसपास से आते थे। उनका स्वभाव अत्यंत मृदु था। दो छात्र यमन से पढ़ने आए थे – अब्दुल रहमान सलेम देबान और उमर बशर। हमारी कक्षा में दो ही छात्राएं थीं – मंजीत कौर और  उमा देवी। हम सब शुद्ध, सात्विक और दूध के धुले थे। न जाने किस मनचले ने कन्याओं की बेंच की ओर, चुपके से प्रेमपत्र खिसका दिया। तत्पश्चात वह प्रतिदिन उत्तर की प्रतीक्षा करता। कुछ दिन खामोशी रही। आखिर उस तरफ से, उस लड़के को एक पर्ची पहुंची, जिसमें लिखा था – “ईश्वर आपको सद्बुद्धि दे!”

कॉलेज परिसर में एक छोटी सी कैंटीन थी जिसमें चाय और समोसे मिलते थे। कभी कभी हम कुछ दोस्त इंडियन कॉफी हाउस (सदर या सिटी) जाकर डोसा और कॉफी का लुत्फ़ उठाते थे। शायद इसी के लिए, हमें हर महीने स्कॉलरशिप मिलती थी। प्रिंसिपल के ऑफिस के बाहर ही बाबू लोग बैठते थे। हमें तो कोई परेशानी नहीं होती थी लेकिन अरविंद को अपने पिताजी को लेकर आना पड़ता था क्योंकि वो इतना मासूम लगता था कि बाबू उसके हाथ में पैसे देने से हिचकिचाते थे। तत्कालीन प्रिंसिपल, कालिका सिंह राठौर बहुत सख़्त थे। अनुशासन का पालन न करने वाले को ऐसी डांट लगाते थे कि वो तौबा करने लगता था।

इस बार मैं न्यूज़ीलैंड गया तो बेटे ने अपने दोस्त रौनक से मिलवाया। बातों ही बातों में मालूम हुआ कि उसके पापा भी जबलपुर के हैं और साइंस कॉलेज से पढ़े हैं। निकुंज श्रीवास्तव नाम है उनका। मॉडल स्कूल और साइंस कॉलेज में पढ़े हैं। हम दोनों ने स्कूल 1971 में पास किया और दोनों ही 1974 में ग्रेजुएट हुए। कॉलेज में सेक्शन जरूर अलग अलग थे। मिलते ही, पहली बात उन्होंने पूछी, “तुमने कॉलेज में घोड़े की आवाज़ सुनी थी?” मैंने कहा, “हां, कई बार।” बोले, “वो मैं ही था!” मैंने पूछा, “आपको एक बार सस्पेंड भी कर दिया था न?” बोले, “हां, एक बार नहीं, सात बार सस्पेंड हुआ हूं!” ज़बरदस्त शख्सियत है उनकी! लगता है, मेले में बिछुड़ गए थे हम। अब मिले हैं। उनसे मिलकर बहुत आनंद आता है। लगता है, अभी भी वही कॉलेज के दिन चल रहे हैं। वही उमंग, वही मस्ती। ढेर सारे किस्से हैं उन दिनों के जाे एक के बाद एक याद आते हैं। हरि अनंत, हरि कथा अनंता।

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 10 – ‘लगान’ से पहले, एक था रांझी क्रिकेट क्लब – ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ ‘लगान’ से पहले, एक था रांझी क्रिकेट क्लब।) 

  दस्तावेज़ # 10 – ‘लगान’ से पहले, एक था रांझी क्रिकेट क्लब ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

मुझे तो लगता है कि आशुतोष गोवारिकर को ‘लगान’ फिल्म की पटकथा लिखने की प्रेरणा, जबलपुर के रांझी क्रिकेट क्लब से मिली होगी। फिल्म तो 2001 में बनी, यह क्लब उसके कई साल पहले स्थापित हो चुका था। यहां बहुत पहले से भुवन, भूरा, लाखन, गोली, देवा और कचरा जैसे पात्र, टीम में शामिल रहे हैं। वही उमंग, वही जज़्बा, बीच-बीच में थोड़ा असमंजस, लेकिन कुछ कर गुज़रने की ख्वाहिश इनके दिलों में भी रही है। न कोई साधन, न परंपरा, न राह दिखने वाला कोई इशारा। बस, कुछ करके दिखाना है।

ब्रिटिश काल से, जबलपुर आयुध और सेना का बहुत बड़ा केंद्र रहा है। दूर तक फैले, हरे-भरे मैदान, क्रिकेट के लिए अनुकूल थे। यहां पुराने समय से ही खूब क्रिकेट खेला जाता था। मुझे याद है, बहुत पहले, कैंटोनमेंट के गैरिसन ग्राउंड में सोबर्स, हॉल और ग्रिफिथ वाली वेस्ट इंडीज़ की टीम प्रदर्शन मैच खेलने आई थी। उनकी पेस बॉलिंग हैरतअंगेज़ थी। गेंदबाज बाउंड्री लाइन से दौड़ते हुए आते थे। गेंद दिखाई ही नहीं देती थी।

शहर से दूर, ऑर्डनेंस फैक्टरी के नज़दीक, छोटा-सा उपनगर रांझी, 1965-70-75 के समय उन्नींदा-सा रहता था। न कोई आवागमन के साधन, न कोई सुख-सुविधा। कुछ बच्चे रबर की गेंद से और कुछ बड़े लड़के कॉर्क की गेंद से क्रिकेट खेलते दिख जाते थे। इतवार के दिन छोटे-मोटे मैच भी हो जाते थे।

अजित वाडेकर की कप्तानी में, भारतीय क्रिकेट टीम 1971-72-73 में, पहली बार वेस्ट इंडीज़ और इंग्लैंड से उनकी धरती पर सिरीज़ जीतकर लौटी। टीम में गावस्कर, विश्वनाथ, इंजीनियर के साथ-साथ बेदी, प्रसन्ना, वेंकटराघवन और चंद्रशेखर भी थे। तत्पश्चात, कपिल देव के जांबाज़ों की टीम 1983 का इतिहास रचने के लिए तैयार हो रही थी। देशभर में ही क्रिकेट के प्रति उत्साह की लहर दौड़ रही थी।

रांझी में भी हलचल होना स्वाभाविक था। युवा क्रिकेट प्रेमी मोहन, सुभाष, विनोद, विजय, पटेल और जॉली ने चंदा इकट्ठा किया और सदर में सरदार गंडा सिंह की स्पोर्ट्स शॉप से बैट, स्टंप्स, पैड्स, ग्लव्स और कुछ गेंद लेकर आए। तब मैं बहुत छोटा था। मैदान के बाहर बैठकर सामान की रखवाली करता था और किसी न किसी दिन खेलने के सपने देखा करता था। विनोद लंब की खब्बू स्पिन गेंदबाज़ी देखकर बहुत आनंद आता था। यह पीढ़ी जल्दी ही दुनियादारी में लग गई। इसकी वजह से, एक खालीपन सा आ गया।

कुछ समय बाद, हम बल्ला थामने लायक हो गए थे। किसी ने बताया कि राइट टाऊन स्टेडियम में एन एम पटेल टूर्नामेंट होने जा रहा है, एंट्री ले लो। तब तक न टीम बनी थी, न हमारे पास क्रिकेट की किट थी, और न ही प्रैक्टिस हो पाई थी। बस ठान लिया कि मैदान में उतरना है। गुंडी (अजय सूरी) ने कमान संभाली और टीम तैयार होने लगी – चेतन, गुरमीत, गुंडी, जगत, बब्बी, अशोक, प्रदीप, बुल्ली (सुशील), थॉमस डेविड, अनिल वर्मा, काले (हरमिंदर), नीलू, और कभी एकाध और।

सरदार मेला सिंह का क्रिकेट के प्रति गहरा लगाव था। उनकी कोठी का प्रांगण रांझी क्रिकेट क्लब का अघोषित हेडक्वार्टर बन गया। वहीं लॉन में प्रैक्टिस शुरू हुई। ईंट से टिकी कुर्सी बनी स्टंप्स और मेला सिंह अंकल ने रंदा घिसकर टेंपररी बैट तैयार किया। गेंद रबर की। पहले हफ्ते में ही उनके घर के सब शीशे टूट चुके थे। जिस दिन अंकल खुश होते थे तो बाकायदा ड्रिंक्स ब्रेक में चाय नसीब होती थी। मेरे पास डॉन ब्रैडमैन की पुस्तक ‘द आर्ट ऑफ क्रिकेट’ की प्रति थी। हम यदाकदा उससे कुछ सीखने का प्रयास करते।

हमारे पास किट नहीं थी। फिर, खेलेंगे कैसे? तय हुआ कि यहां-वहां से जो भी सेकंड हैंड मिल जाए, इकट्ठा कर लो। पैड मिले तो काफी पुराने और जर्जर थे। उनकी हालत ऐसी थी कि पैड नहीं, बल्कि पैड का एक्स-रे दिखाई देते थे। दोनों पैरों के एक-एक बक्कल टूटे हुए थे। गुरमीत ने कीपिंग ग्लव्स ढूंढ लिए। चंदा करके हम बैट भी ले आए। बैट को तेल पिलाना शुरू किया और कपड़े में लिपटी पुरानी बॉल से स्ट्रोक बनाया। दो पुराने एब्डोमन गार्ड भी मिल गए, जिनमें सिर्फ प्लास्टिक वाला हिस्सा बचा रह गया था, कमर से बांधने वाली इलास्टिक बेल्ट उनमें नहीं थी। गार्ड को उसके नियत स्थान पर फंसाना पड़ता था। थोड़ी लज्जा भी आती थी। एक बैट्समैन आउट होकर वापस आ रहा है और दूसरा अंदर जा रहा है। बीच मैदान में, पूरे पब्लिक व्यू में, गार्ड और पैड का आदान-प्रदान होता था। कुछ सामान दूसरी टीम से उधार भी मांग लेते थे।

टूर्नामेंट में अन्य टीमें मजबूत और प्रोफेशनल थीं – एम एच क्लब (मोहनलाल हरगोविंददास), टोरनैडो, ऑर्डनेंस फैक्टरी, व्हीकल फैक्ट्री, गन कैरेज फैक्ट्री, गवर्नमेंट साइंस कॉलेज, और बाद में जहांगीराबाद। उनके खिलाड़ी दक्ष और अनुभवी थे – श्रवण पटेल (इंग्लैंड में प्रशिक्षित), सिद्धार्थ पटेल, आजाद पटेल, मुकेश पटेल, गोपाल राव, अशोक राव, पंडित, अलेक्ज़ेंडर थॉमस, साल्वे, पम्मू, और अन्य।

एन एम पटेल टूर्नामेंट का हमारा पहला फिक्सचर, व्हीकल फैक्टरी से तय था। उनकी टीम सशक्त थी और खिलाड़ी अनुभवी थे। हमारा कोई इतिहास नहीं था, बस वर्तमान था, और हम भविष्य का निर्माण करने निकले थे। मैदान में उतरे तो किसी के कपड़े सफेद थे, किसी के क्रीम, किसी के बादामी। क्रिकेट शूज़ एक दो खिलाड़ियों के ही पैरों में थे। लेकिन खेल शुरू होते ही हमने पूरी तरह फोकस किया। उस दिन गोपाल की लेफ्ट आर्म स्पिन और मेरी मीडियम पेस गेंदबाजी चल निकली। सबको आश्चर्य हुआ जब हमने उन्हें बहुत कम स्कोर में निकाल लिया। हमारी बैटिंग की बारी आई तो चेतन ने ओपनिंग बल्लेबाजी करते हुए, ऑफ स्टंप के बाहर की गेंदों पर बेहतरीन फ्लैश लगाए। गुरमीत ने एक छोर संभाले रखा और गुंडी ने, मिडिल ऑर्डर में, कप्तान की पारी खेली। हमें भारी जीत हासिल हुई और अगली सुबह ‘नवभारत’ अखबार में हमारा और रांझी क्रिकेट क्लब का नाम आया। बहुत अच्छा लगा।

क्रिकेट जीवन को जीने की कला है। वह हमें जीत और हार को, खिलाड़ी भावना के साथ, समभाव से स्वीकार करना सिखाती है। अगला मैच हमारा गवर्नमेंट साइंस कॉलेज से था। हम हार गए और टूर्नामेंट से बाहर हो गए। फिर भी, हमारी टीम की थोड़ी-बहुत साख तो बन ही गई थी और हमें समय-समय पर मैच खेलने के लिए आमंत्रित किया जाने लगा। हम बाकायदा खेलने जाते, अच्छा प्रदर्शन करते, और जो दिन हमारा होता उस दिन शहर की किसी भी टीम को पराजित कर देते। अजय सूरी (गुंडी) के हम विशेष रूप से कृतज्ञ हैं कि शून्य से शुरू कर, वो टीम को बहुत आगे तक ले गए। शांत व्यवहार, होठों पर सदैव मुस्कान, धैर्य, और हम सब पर अटूट विश्वास था उनका। उन्हें मालूम था, एक-दो मैच हारेंगे, फिर जीतेंगे भी। हमारी टीम के कई खिलाड़ियों में बहुत प्रतिभा थी। हमारे पास अपना ग्राउंड होता, कुछ साधन होते, और कोई मार्गदर्शक होता तो हम क्या नहीं कर सकते थे!

तब तक हमने हनुमंत सिंह, सलीम दुर्रानी, जगदाले और गट्टानी को अनेक बार रणजी में खेलते देखा था। 1977-78 के आसपास, राइट टाउन स्टेडियम में, चंदू सरवटे बेनिफिट मैच हुआ तो बहुत सारे खिलाड़ियों को खेलते देखा – गावस्कर, बेदी, संदीप पाटिल, मोहिंदर अमरनाथ, सुरिंदर अमरनाथ, मदन लाल, अशोक मांकड, धीरज परसाना, और अनेक अन्य। उस मैच में, हमारा अपना, सी एन सुब्रमण्यम भी खेला, जो शहर का बहुत ही होनहार खिलाड़ी था लेकिन किन्हीं कारणों से शिखर तक नहीं पहुंच सका। अब केवल उसकी स्मृतियां शेष हैं। जबलपुर में पुराने समय से ही खूब क्रिकेट खेला जाता है लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खिलाड़ियों का पहुंचना क्यों नहीं हो पाता?

लोग बताते हैं अब रांझी में बहुत कुछ बदल गया है। पहले हमें मैच के लिए नई गेंद लेने के लिए अंधेरदेव या सदर जाना पड़ता था। अब रांझी में स्पोर्ट्स का सारा सामान मिल जाता है। उत्सुकता है जानने की कि आजकल वहां क्रिकेट का क्या हाल है, कौन-कौन खेल रहा है, कौन से क्लब हैं, किन टूर्नामेंट्स में भाग लेते हैं और क्रिकेट प्रशिक्षण की क्या व्यवस्था है?

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© जगत सिंह बिष्ट

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – ““सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ साभार – स्व. जय प्रकाश पाण्डेय ☆

स्व. जय प्रकाश पाण्डेय

(स्व. जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर थे  उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा था। हमारे परम मित्र जयप्रकाश जी आज हमारे बीच नहीं रहे किन्तु, उनके द्वारा प्रारम्भ किए गए इस स्तम्भ को संस्कारधानी जबलपुर से ही भाई श्री प्रतुल श्रीवास्तव जी के सहयोग से जारी रख रहे हैं।  

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं – ““सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा  )

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३८ – “जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३९ – “सहृदय भावुक कवि स्व. अंशलाल पंद्रे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४० – “मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारी” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४१ – “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४२ – “जिनकी रगों में देशभक्ति का लहू दौड़ता था – स्व. सवाईमल जैन” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

डॉ महेश दत्त मिश्रा 

☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ ☆

☆ “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा  ☆ स्व. जय प्रकाश पाण्डेय ☆

(यह संस्मरण तकनीकी कारणों से स्व जय प्रकाश पाण्डेय जी के रहते प्रकाशित नहीं हो सका था।)

लड़कपन की एक बात याद आ गई, जब हम छठवीं या सातवीं में पढ़ रहे थे गांव से पढ़ने शहर आये थे। गरीबी के साथ गोलबाजार के एक खपरैल कमरे में रहते थे। बड़े भाई उन दिनों डाॅ महेश दत्त मिश्रा जी के अंडर में ‘इण्डियन प्राईममिनिस्टर थ्योरी एण्ड प्रेक्टिस’ संबंधी विषय पर पीएचडी कर रहे थे। पिताजी स्वतंत्रता संग्राम के दिनों नौकरी छोड़कर आंखें गवां चुके थे, मां पिता जी गांव में ही थे। घर के पड़ोस में महाकौशल स्कूल था और उस पार अलका लाज के पास साहू के मकान में महात्मा गांधी के निजी सचिव पूर्व सांसद डाक्टर महेश दत्त मिश्र  जी दो कमरे के मकान में रहते थे। सीमेंट से बना मकान था। अविवाहित थे, खुद अपने हाथों घर की साफ-सफाई करते, खाना बनाते, बर्तन और कपड़े धोते। खेलते खेलते कभी हम उनके घर पहुंच जाते, एक दिन घर पहुंचे तो वे फूली फूली रोटियां सेंक रहे थे और एक पुरानी सी मेज में बैठे दाढ़ी वाले सज्जन को वो गर्म रोटियां परोस रहे थे, हम भी सामने बैठ गए, हमें भी गरमा गर्म एक रोटी परोस दी उन्होंने। खेलते खेलते भूख तो लगी थी वे गरम रोटियां जो खायीं तो उसका प्यारा स्वाद आज तक नहीं भूल पाए।

मिश्र जी गोल गोल फूली रोटियां सामने बैठे दाढ़ी वाले को परोसते जाते और दोनों आपस में हंस हंसकर बातें भी कर रहे थे। वे दाढ़ी वाले सज्जन आचार्य रजनीश थे जो उन दिनों विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र पढ़ाते थे। लड़कपन था खाया पिया और हम बढ़ लिए…. ।

आज जब ‘कहां गए वे लोग’ कालम लिखते हुए आदरणीय डॉ महेश भाई बहुत याद आए। हां जी, मैं उन्हीं महेश भाई की बात कर रहा हूं जो महात्मा गांधी के निजी सचिव थे, पूर्व सांसद थे, और बहुत सहज सरल व्यक्तित्व के धनी थे। आज भी स्वाधीनता सेनानी स्वर्गीय प्रोफेसर महेश दत्त मिश्र को हरदा के गांधी के रूप में जाना जाता है। पिछले कई वर्षों से मिश्र जी के परिजन उनकी स्मृति में हरदा में व्याख्यान माला आयोजित करते हैं।

महेश दत्त मिश्र का जन्म 1915 में हरदा में हुआ था। उनके पिता का नाम स्वर्गीय पंडित चंद्र गोपाल मिश्र था। उन्होंने बी ए (आनर्स), एम ए किया। उनकी पढ़ाई राधा स्वामी शैक्षणिक संस्थान, दयालबाग, आगरा, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और इलाहाबाद से हुई। जबलपुर विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के वरिष्ठ रीडर; पूर्व में सहायक प्रोफेसर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय; 1958-59 में शिकागो विश्वविद्यालय के भारतीय सभ्यता पाठ्यक्रम के स्टाफ पर काम किया। 1952-57 में पीएसपी से जुड़े; 1930-32 में एक छात्र के रूप में और 1940  और 1942 में जेल गए; छात्र जीवन से कई वर्षों तक पीसीसी और एआईसीसी के सदस्य रहे। 1952 से 1957 तक वे मध्यप्रदेश विधानसभा में विधायक रहे । सामाजिक गतिविधियाँ: रचनात्मक कार्य, ग्रामीण उत्थान, सांस्कृतिक गतिविधियाँ में  बचपन से वे सक्रिय रहे।छात्र जीवन से ही सभी गांधीवादी गतिविधियों स जुड़े रहे।  रचनात्मक कार्य, खादी और ग्रामोद्योग, हरिजन उत्थान, हिंदू-मुस्लिम एकता, कृषि और ग्रामीण विकास में वे विशेष रुचि रखते थे। यूरोप, पूर्व के साथ-साथ पश्चिम, अमरीका, मध्य पूर्व देशों की उन्होंने अनेक बार विदेश यात्राएं की थी। वे जीवन भर अविवाहित रहे। प्रारंभिक नागरिक शास्त्र, सामाजिक अध्ययन जैसे अनेक विषयों पर उन्होंने किताबें लिखीं हैं। उन्हें सादर नमन।

साभार – स्व. जय प्रकाश पाण्डेय 

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 9 -रवींद्रनाथ त्यागी: मोती जैसे सुन्दर अक्षर, संतों जैसे स्पष्ट बोल- ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ रवींद्रनाथ त्यागी: मोती जैसे सुन्दर अक्षर, संतों जैसे स्पष्ट बोल।) 

☆  दस्तावेज़ # 9 – रवींद्रनाथ त्यागी: मोती जैसे सुन्दर अक्षर, संतों जैसे स्पष्ट बोल ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

श्रद्धेय रवींद्रनाथ त्यागी व्यंग्यकार के रूप में जाने जाते हैं लेकिन उन्होंने उत्कृष्ट कविताएं, और ललित निबंध भी लिखे हैं। साथ ही साथ, वे एक बड़े सरकारी अधिकारी भी थे।

गर्मियों की छुट्टी में हम अक्सर देहरादून जाते थे। वहां उनकी एक आलीशान कोठी थी। उनके पुस्तकालय में, संस्कृत, हिंदी और इंग्लिश की, हजारों पुस्तक और ग्रन्थ थे। उनके जैसा विद्वान और खूब पढ़ने वाला साहित्यकार मैंने नहीं देखा। उनके अक्षर मोती जैसे सुन्दर थे और वे बहुत मेहनत से, अपनी कलम से ही पुस्तकों की पांडुलिपि तैयार करते थे।

मेरे और मेरे परिवार के प्रति उनका गहरा स्नेह था। उन्होंने हमें अनेक बार डिनर पर आमंत्रित किया। एक बार हम उनके लिए अल्मोड़ा की प्रसिद्ध बाल मिठाई लेकर गए। उन्होंने पूछा कि यह क्या है? जब हमने बताया कि बाल मिठाई है, तो मिठाई के बड़े आकार को देखकर बोले, “ये बाल मिठाई नहीं, बाप मिठाई है!” उन्होंने डब्बे में से एक पीस निकालकर कहा, “बाकी घर ले जाओ, यहां डायबिटीज़ की वजह से मीठा खाने वाला कोई नहीं है।”

एक दिन उन्होंने कहा, “मेरी एक मोटी पुस्तक आने वाली है – बादलों का गांव। उसकी पहली प्रति तुमको भेजूंगा।” पुस्तक प्रकाशित होने पर, उन्होंने एक प्रति मुझे रजिस्टर्ड डाक से भेजी। अंदर उनका पता लिखा एक पोस्टकार्ड था। उन्होंने लिखा था, “आज ही प्राप्ति की सूचना भेजो। पुस्तक पर प्रतिक्रिया पढ़कर भेजना।”

‘बादलों का गांव’ रवींद्रनाथ त्यागी की अति सुन्दर कृति है। एक-एक रचना मन पर गहरा प्रभाव छोड़ती है। शीर्षक रचना ‘बादलों का गांव’ तो अप्रतिम है। ऐसी करुणामय रचना हिंदी या विश्व साहित्य में शायद ही कोई और हो! ऐसे आत्मकथ्य के लिए बहुत साहस और ईमानदारी चाहिए। शत् शत् प्रणाम!

मेरे पहले व्यंग्य-संग्रह की उन्होंने सराहना की थी और लिखा, “यह मेरे पहले संग्रह से कहीं बेहतर है।”

एक बार उन्होंने कहा था – तुम्हारी ‘पल्पगंधा’ व्यंग्य-कथा मुझे बहुत अच्छी लगी। यह हिंदी साहित्य की एक उत्कृष्ट रचना है। जो जगत सिंह बिष्ट पल्पगंधा लिख सकता है, वह ऐसी और रचनाएं क्यों नहीं लिखता?

मेरे चौथे संग्रह पर उनकी तल्ख़ टिप्पणी थी, “आपकी पुस्तक (कुछ लेते क्यों नहीं) मिली। ध्यानपूर्वक पढ़ गया। बहुत कमज़ोर कृति है। बढ़िया पंक्तियां तीस से ज़्यादा नहीं निकलेंगी। इस तरह जल्दी करने से कुछ नहीं मिलेगा… सस्ती ख्याति का कोई महत्व नहीं होता। हर अगली किताब पिछली वाली से श्रेष्ठतर होनी है और आपको सबसे अलग कुछ देना है। मैं तुमसे आयु और अनुभव में बड़ा हूं। कभी कभी डांटना मेरा अधिकार है। मैं झूठी प्रशंसा करके आपको गुमराह नहीं करना चाहता हूं। आप मेरे आत्मीय हैं।”

पंद्रह दिन बाद, उनका अगला पत्र आया, जिसमें उन्होंने लिखा, “आपकी पुस्तक पर मैंने शायद कुछ ज़्यादा ही तीखा लिख डाला। कृपा करके तुरंत लिखो कि तुमने इस बड़े भाई को क्षमा कर दिया।” ऐसे नेक दिल इंसान थे बड़े भाई रवींद्रनाथ त्यागी जी!

उन्होंने मुझे अनेकों पत्र लिखे, यह मेरा सौभाग्य है। उनके द्वारा लिखे गए दो पत्रों की फोटो इस संस्मरण के साथ पोस्ट कर रहा हूं। इनसे आपको एक अंदाज़ा लग जाएगा। उनके जैसे सुन्दर अक्षर, मानो गढ़े हुए, अब दुर्लभ हो गए हैं। उनके ये पत्र, उस समय के मूल्यवान दस्तावेज़ बन गए हैं। उनके जैसे अनुशासित और कठिन परिश्रम करने वाले व्यक्तित्व अब मानो लुप्त हो गए हैं। उनके जैसा सुगठित लेखन भी अब कहां देखने को मिलता है। वैसा स्नेहिल बड़प्पन अब कहां खोजें? बहुत याद आते हैं श्रद्धेय रवींद्रनाथ त्यागी जी!

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 8 – तस्वीरें जब बन जाती हैं दस्तावेज़: नामवर, काशीनाथ, रवींद्र त्यागी और  ज्ञानरंजन ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ तस्वीरें जब बन जाती हैं दस्तावेज़: नामवर, काशीनाथ, रवींद्र त्यागी और  ज्ञानरंजन ।) 

☆  दस्तावेज़ # 8 – तस्वीरें जब बन जाती हैं दस्तावेज़: नामवर, काशीनाथ, रवींद्र त्यागी और  ज्ञानरंजन ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

ज्यों ज्यों समय आगे बढ़ता है, कुछ तस्वीरें दस्तावेज़ में तब्दील हो जाती हैं। उन तस्वीरों में उपस्थित कुछ इंसान हमें छोड़कर न जाने कहां चले जाते हैं और कुछ यहीं बैठे उनको याद करते हैं।

इस संस्मरण के साथ, यह कोलॉज जो आप देख रहे हैं, तीन तस्वीरों से बना है। तीनों के पीछे अपनी एक कहानी है।

पहली तस्वीर (ऊपर) रीवा विश्वविद्यालय के ऑडिटोरियम में ली गई है। संभवतः वर्ष 1995 के दौरान। डॉ कमला प्रसाद वहां हिंदी के विभागाध्यक्ष थे। उन्होंने हिंदी कहानी की दशा और दिशा पर एक भव्य संगोष्ठी आयोजित की थी। इसमें दिल्ली से ख्यातिप्राप्त आलोचक डॉ नामवर सिंह और काशी से प्रतिष्ठित कहानीकार काशीनाथ सिंह विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित थे। मेरा सौभाग्य कि मैं उस कार्यक्रम में सपरिवार उपस्थित था। नामवर जी को विश्वविद्यालय प्रांगण में 8-9 वर्ष के छोटे बालक (हमारे पुत्र अनुराग) को देखकर कौतूहल हुआ। जब हम उनसे मिले तो उन्होंने पूछा, “बालक, तुम भी कुछ लिखते-पढ़ते हो?” हमारे बेटे ने उन्हें तुरंत निराला की कविता, “अबे, सुन बे गुलाब..” सुनाकर अचंभित कर दिया। यह तस्वीर उस अवसर की है।

दूसरी तस्वीर (नीचे, बाएं) देहरादून में रवींद्रनाथ त्यागी के घर में उनके पुस्तकालय में ली गई है। 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध में कभी। हम गर्मियों की छुट्टी में उनसे मिलने लगभग हर दूसरे साल जाते थे। उनका विशेष स्नेह मुझे और मेरे परिवार को प्राप्त था। यदि मैं उनके पास साहित्यिक मार्गदर्शन के लिए कभी अकेला जाता, तो वे मुझे अगली शाम सपरिवार भोजन के लिए आमंत्रित करते। कहते, “जल्दी आ जाना, पहले कुछ देर बातें होंगी और फिर पेटपूजा।”

तीसरी तस्वीर जबलपुर की है। वर्ष 1992। साहित्यिक पत्रिका ‘पहल’ का आयोजन था। उस कार्यक्रम में, कहानीकार और संपादक ज्ञानरंजन के कर-कमालों से मेरे प्रथम व्यंग्य-संग्रह ‘तिरछी नज़र’ के विमोचन का यह दृश्य है। संयोगवश, ज्ञानरंजन जी ने ही कटनी में ‘पहल’ के एक आयोजन में, मेरी दूसरी पुस्तक ‘अथ दफ्तर कथा’ का विमोचन किया। फिर, प्रगति मैदान में, दिल्ली पुस्तक मेले में मेरी पुस्तक ‘हिन्दी की आख़िरी क़िताब’ का विमोचन जब डॉ शेरजंग गर्ग ने किया, तो वहां भी ज्ञानरंजन जी उपस्थित थे। इसका प्रसारण दूरदर्शन पर भी हुआ।

यह मेरा परम सौभाग्य है कि इन महान साहित्य-सेवियों का आशीर्वाद मुझे प्राप्त हुआ और उनके साथ खींची गई ये तस्वीरें एक यादगार बन गई हैं।

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४२ – “जिनकी रगों में देशभक्ति का लहू दौड़ता था – स्व. सवाईमल जैन” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

डॉ. वंदना पाण्डेय

परिचय 

शिक्षा – एम.एस.सी. होम साइंस, पी- एच.डी.

पद : प्राचार्य,सी.पी.गर्ल्स (चंचलबाई महिला) कॉलेज, जबलपुर, म. प्र. 

विशेष – 

  • 39 वर्ष का शैक्षणिक अनुभव। *अनेक महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल में सदस्य ।
  • लगभग 62 राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में शोध-पत्रों का प्रस्तुतीकरण।
  • इंडियन साइंस कांग्रेस मैसूर सन 2016 में प्रस्तुत शोध-पत्र को सम्मानित किया गया।
  • अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान शोध केंद्र इटली में 1999 में शोध से संबंधित मार्गदर्शन प्राप्त किया। 
  • अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘एनकरेज’ ‘अलास्का’ अमेरिका 2010 में प्रस्तुत शोध पत्र अत्यंत सराहा गया।
  • एन.एस.एस.में लगभग 12 वर्षों तक प्रमुख के रूप में कार्य किया।
  • इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अनेक वर्षों तक काउंसलर ।
  • आकाशवाणी से चिंतन एवं वार्ताओं का प्रसारण।
  • लगभग 110 से अधिक आलेख, संस्मरण एवं कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।

 प्रकाशित पुस्तकें- 1.दृष्टिकोण (सम्पादन) 2 माँ फिट तो बच्चे हिट 3.संचार ज्ञान (पाठ्य पुस्तक-स्नातक स्तर)

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारीके संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

स्व. सवाईमल जैन

☆ कहाँ गए वे लोग # ४२ ☆

☆ “जिनकी रगों में देशभक्ति का लहू दौड़ता था – स्व. सवाईमल जैन” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय

गौर वर्ण, ऊंची कद काठी वाले जबलपुर के पूर्व विधायक स्व. सवाईमल जी का व्यक्तित्व भी ऊंचा, गरिमापूर्ण और देशभक्ति के जज्बे से परिपूर्ण था। 30 नवम्बर 1912 में संस्कारधानी में श्री पूसमल एवं श्रीमती लक्ष्मी देवी जैन के परिवार में जन्मे सवाईमल जी की कर्मभूमि जबलपुर ही रही। आप बाल्यकाल से ही कुशाग्र बुद्धि के थे । तत्कालीन समय में देश की गुलामी, शासकाें के मनमाने अत्याचारों ने उनके मन को उद्वेलित कर दिया। उनके मन में विरोध की चिंगारी सुलग उठी जिसने शीघ्र ही विद्रोह का रूप धारण कर लिया, उन्हें अन्याय  के खिलाफ आवाज उठाने प्रेरित एवं विवश किया । 1930 के जनआंदोलन में उन्होंने सक्रियता के साथ भाग लिया, फलस्वरूप उन्हें स्कूल की शिक्षा से हाथ धोना पड़ा यद्दपि बाद में उन्होंने बी.कॉम. के साथ कानून की पढ़ाई भी की। देश-प्रेम की अटूट भावना के साथ वे जन आंदोलन में निरंतर भाग लेते रहे । मात्र 18 वर्ष की उम्र में उन्हें एक वर्ष के लिए जेल जाना पड़ा । जेल से बाहर आते ही वे पुनः आजादी प्राप्त करने की गतिविधियों और तरकीबों में जुट गए । 1932 के जन आंदोलन में उन्हें पुनः गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। इस बार उन्हें 6 महीने का कठोर कारावास एवं 20 रु. का जुर्माना भी लगाया गया। श्री सवाईमल जी अत्यंत स्वाभिमानी थे। सश्रम करवास के बाद उन्होंने जुर्माना भरने से  इनकार कर दिया । इस कारण उनकी सजा डेढ़ माह के लिए और बढ़ा दी गई । शरीर जहाँ कष्ट में तप रहा था, वहीं संकल्प और मजबूत होता जा रहा था। उनका स्वाभिमान और आत्मविश्वास मानो कह रहा हो –

हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं

हमसे ज़माना है ज़माने से हम नहीं।

देश प्रेम की ऊर्जा से भरे युवा सवाईमल जी ने1939 के त्रिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया और इसी बीच उनकी सक्रियता ने उन्हें पुनः 6 माह के लिए नागपुर जेल में भेज दिया।  जेल से रिहा होते ही पुनः पूरी शिद्दत और जुनून के साथ आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े। राष्ट्र को परतंत्रता से मुक्त कराने उन्होंने युवाओं की टोली बनाई। नई-नई तरकीबों के साथ उन्होंने अपनी गतिविधियां जारी रखीं । अच्छे नेतृत्व के साथ वे स्वतंत्रता प्राप्ति की रणनीति बनाकर कार्य करने लगे । 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भूमिगत हो गए किंतु अब तक वे अंग्रेजों की आंखों की किरकिरी बन चुके थे अन्ततः क्रांतिकारी सवाईमल जी को गिरफ्तार कर लिया गया। इस बार उन्हें 1 साल 10 माह 24 दिन की कठोर यातना के साथ कारागार में दिन बिताने पड़े। उनके संघर्ष की यात्रा चलती रही। उन जैसे वीर सपूतों के प्रयास से देश स्वतंत्र हुआ ।

श्री सवाईमल जी ने स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात 1952 से 1964 तक नगर निगम के विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया । इस बीच वे जबलपुर नगर के दो बार महापौर भी निर्वाचित हुए । 1970 के उपचुनाव में वे जबलपुर पश्चिम क्षेत्र से विधायक चुने गए पुनः 1972 में विधायक बनकर उन्होंने अपने क्षेत्र के विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया ।

शहर के सामाजिक, व्यापारिक संस्थाओं में उनका अविस्मरणीय योगदान रहा । प्रांत के प्रसिद्ध औद्योगिक प्रतिष्ठान परफेक्ट पॉटरी कंपनी के उच्च प्रशासनिक पदों पर कार्य किया एवं वित्तीय सलाहकार भी रहे । शिक्षा के क्षेत्र में उन्हें विशेष रुझान था । शैक्षणिक संस्थाओं के उन्नयन हेतु भी उन्होंने अनेक कार्य किए । महाकौशल शिक्षा प्रसार समिति जिसके द्वारा प्रथम प्रतिष्ठित चंचलबाई महिला महाविद्यालय संचालित हुआ वे  उसके 1977 से 1994 तक निरंतर अध्यक्ष रहे तथा उसे नई ऊंचाईयां दी।

1960 में सोवियत संघ एवं 1976 में भारतीय प्रतिनिधि मंडल के सदस्य के रूप में विदेश यात्रा की । भारत सरकार ने स्वतंत्रता संग्राम में उनके विशेष योगदान हेतु स्वतंत्रता दिवस की  25 वीं वर्षगांठ पर उनको ताम्रपत्र प्रदान कर सम्मानित किया ।

देश के गौरव श्री सवाईमल जैन जी का 82 वर्ष की आयु में 09 जनवरी 1994 को देहांत हो गया। उनके लिए केवल यही कहा जा सकता है कि –

जो शख्स मुल्क में लाता है इंकलाब

 उसका चेहरा जमाने से जुदा होता है।

राष्ट्रभक्त, राष्ट्रपुत्र स्व. सवाईमल जैन जी को शत-शत नमन ….

डॉ. वंदना पाण्डेय 

प्राचार्य, सी. पी. महिला महाविद्यालय

संपर्क : 1132 /3 पचपेड़ी साउथ सिविल लाइंस, जबलपुर, म. प्र. मोबाइल नंबर :  883 964 2006 ई -मेल : [email protected]

संकलन – श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 7 – जबलपुर का उपनगर रांझी: 1960 का दशक ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ जबलपुर का उपनगर रांझी: 1960 का दशक ।) 

☆  दस्तावेज़ # 7 – जबलपुर का उपनगर रांझी: 1960 का दशक ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

जबलपुर का उपनगर रांझी। उन्नीस सौ साठ का दशक। तब लगता था, शहर से बहुत दूर, लगभग बाहर है रांझी। देर रात को स्टेशन से घर आने के लिए दो बार सोचना पड़ता था। सतपुला पार करने के बाद, पूरा रास्ता सूना था।

इंजीनियरिंग कॉलेज से आगे चलकर, रांझी बाज़ार पहुंचते थे। उन दिनों बाज़ार में इतनी रौनक कहां थी! दुकानों को उंगलियों पर गिना जा सकता था – दर्शनसिंह आटा चक्की, ईश्वरसिंह किराना, खन्ना जनरल स्टोर, दोआबा साइकिल स्टोर, नानाभाई मैगज़ीन सेंटर, जनता टेलर, साहनी शूज़, नीलम स्वीट्स, चड्ढा क्लॉथ स्टोर, शायद कुछ और। डॉक्टर तारा सिंह एकमात्र एम.बी.बी.एस डॉक्टर थे। डॉक्टर ओझा बाद में आए।

बाज़ार से अन्दर की ओर जाकर, रांझी बस्ती में हमारा अपना छोटा-सा घर था। अंदर वाले कमरे में ऊपर रेडियो रखा हुआ था। स्टूल पर चढ़कर, चालू करना पड़ता था। सुबह रेडियो सीलोन (अब रेडियो श्रीलंका) से प्रसारित पुरानी फिल्मों के गीत सुनते थे। आखिरी गाना कुंदनलाल सहगल का होता था। गाने के ख़त्म होते ही, ठीक आठ बजे, हम स्कूल के लिए पैदल निकल पड़ते थे। रात में, रेडियो पर बीबीसी से प्रसारित समाचार, पिताजी नियमित रूप से सुनते थे। वो मकान अब मेरे स्कूल के एक सहपाठी चंद्रा बाबू का घर है। बहुत मन है, कभी वहां जाने का! उसके अंदर समूचे बचपन, माता-पिता और भाई-बहनों की यादें समाई हुई हैं। पुरानी स्मृतियां कई बार मन को आनंद विभोर कर जाती हैं।

हमारा घर सड़क की पिछली ओर था, सामने की ओर खोखोन (संतोष मुखर्जी) का घर था। दोनों की छत जुड़ी हुई थी, बीच में एक छोटी-सी दीवार थी। जब भी कोई इंटरनेशनल क्रिकेट मैच चल रहा होता तो हम मैच में लंच या चायकाल के दौरान छत पर पहुंच जाते। बीच की दीवार पर बैठकर चर्चा शुरू हो जाती। तब कमेंट्री रेडियो पर आती थी, टीवी पर नहीं। हम खेल की आपस में समीक्षा करते और एक-एक कर अपने प्रिय खिलाड़ियों पर चर्चा करते – सोबर्स, हॉल, ग्रिफिथ, कॉलिन काऊड्री, लिल्ली, थाम्पसन, पटौदी, इंजीनियर, सरदेसाई, वीनू मांकड… इत्यादि। मैच पुनः शुरू होते ही नीचे जाकर रेडियो पर कमेंट्री सुनने लगते।

बाजू में सरदार निरंजन सिंह का घर था। उन्हें हम भी पापाजी कहते थे। उस घर में दो बेबे (मां) थीं, बड़ी बेबे और छोटी बेबे। उनके अनेक पुत्र-पुत्रियां – मिंदी, सिंदर, हरमेल, सारदुल, पूछी, नीमा, केशी और बब्बी। उन्होंने दो भैंसें पाली थीं। सुबह से ही बड़ी बेबे उनके लिए खली-चूनी तैयार कर, दूध दोहती थीं। उसके बाद ही हमारे घर चाय बनती थी। छोटी बेबे दिनभर बुनाई का काम करती रहती। सर्दियों में, जब उनके घर मक्की की रोटी और सरसों का साग बन रहा होता, तो वो मुझे आवाज़ लगाकर बोलतीं, “ओए, चार अँक्खां वाले, साग बन रया है, शामी आ जाइं।” मेरे चश्मे की वजह से वो मुझे “चार अँक्खां वाले” कहती थीं। दोनों घर के बीच हमारा सांझा कुआं था।

घर से कुछ दूर, देशी शराब की एक कलारी थी। अगर कोई शराबी ज़्यादा पीकर उत्पात करता, तो पापाजी उसे रस्सी से, बिजली के खंभे के साथ बांध देते थे। उनके पास एक कड़क हंटर (कोड़ा) हुआ करता था। उस हंटर से वे शराबी की पिटाई करते थे। हर महीने, ऑर्डनेंस फैक्टरी के लेबर पेमेंट वाले दिन, यह दृश्य देखने को मिलता था। पापाजी का बहुत दबदबा था। लंबे-चौड़े, भरे-पूरे सरदार थे। उनके नाप के जूते और चौड़ी कलाई के लिए नाप का घड़ी का पट्टा नहीं मिलता था। पापाजी एक कुशल एवं उत्कृष्ट राजमिस्त्री थे। भवन निर्माण का काम उत्तम ढंग से करते थे।

हमारे सामने वाला विशालकाय मकान नैनजी का था। उसमें अनेकों किरायेदार रहते थे। हफ्ते में, एक-दो बार वो खुले मे तंदूर लगाती थीं। आस-पड़ोस के सभी घर के लोग अपना आटा लेकर पहुंच जाते थे। नैनजी सबको धैर्यपूर्वक, बारी-बारी से, तंदूरी रोटी सेंककर देती थीं, चाहे सर्दी का मौसम हो या गर्मी की तेज धूप।

हम तब नन्हे-मुन्ने बच्चे थे। गुल्ली-डंडा, चीटीधप्प, पिट्टुक, मार-गेंद और लंगड़ी हमारे प्रिय खेल थे। बरसातों में, हम पतंग उड़ाते और गपन्नी से खेलते थे। गपन्नी लोहे की लगभग डेढ़ फीट की छड़ होती थी, जिसके आगे नोक होती थी। उसे पटक कर, ज़मीन में मारकर, गड़ाते हुए, आगे बढ़ना होता था। अगर गपन्नी की नोक नहीं गपी और गपन्नी गिर गई, तो आपकी पारी खतम। पतंग उड़ाने का मांझा भी हम खुद तैयार करते थे। थोड़े बड़े हुए तो फुटबॉल, वॉलीबॉल और क्रिकेट खेलने लगे। दौड़, लॉन्ग जंप, हाई जंप और शॉटपुट थ्रो में भी भाग लेते थे। गर्मी की छुट्टियों में शतरंज, सांप-सीढ़ी, लूडो, गुट्टे और कैरम भी हम खूब खेलते थे।

कभी मम्मी ने आना-दो आना दे दिया तो बेर, खट्टा-मीठा चूरण, चना, मूंगफली या चूसने वाली संतरा गोली ले लेते। दिवाली पर हमें पटाखे मिलते और होली पर रंग। दिवाली की अगली सुबह पड़ोसियों को थाली में, रुमाल से ढंक कर, मिठाई और खिल-बताशे देने जाते। आजकल अब वो रिवाज कम हो गया है।

घर के नज़दीक राधाकृष्ण मंदिर था। अंदर राधा और कृष्ण की मनोरम मूर्तियां थीं। शाम के समय हम वहां दर्शन के लिए जाते थे। मंदिर के पुजारी, नित्यानंद जी, अत्यंत मधुर कंठ से, आकर्षक अंदाज़ में आरती करते थे। तत्पश्चात, तांबे के पात्र से चरणामृत और प्रसाद स्वरूप चिरौंजी दाना देते थे। उनके सभी पुत्र हमारे मित्र हो गए। आगे चलकर, उनका छोटा बेटा गोपाल हमारी क्रिकेट टीम का स्टार स्पिनर बना।

हमारे बहुत सारे दोस्त सिक्ख थे। उनके साथ हम यदाकदा गुरुद्वारे जाते थे। शबद-कीर्तन सुनते और कडाह परसाद ग्रहण करते। गुरुपरब पर लंगर के लिए भी जाते थे। स्कूल के पास सेंट थॉमस चर्च था। वहां के पादरी, हॉलैंड से आए फादर बॉक्स थे। बच्चे आते-जाते उन्हें “गुड मॉर्निंग फादर”, “गुड इवनिंग फादर” बोलते। उनके चोंगे की जेब में टॉफी होती थी। जब वो खुश होते थे तो बच्चों को टॉफी बांटते थे।

दशहरे के कुछ दिन पहले, रामलीला शुरू हो जाती थी। हम शाम को ही जाकर अपनी बोरी बिछा आते थे। इस तरह, आगे, मंच के पास हमारी सीट रिज़र्व हो जाती थी। रात को, खाना खाने के बाद, हम रामलीला देखने पहुंचते थे। रामलीला देर रात तक चलती थी। फिर, दशहरे पर रावण दहन का कार्यक्रम देखने जाते थे।

उन दिनों, पूरे जबलपुर में, दुर्गा पूजा बहुत धूमधाम से होती थी। बड़े-बड़े पंडाल लगते और दुर्गा मां की भव्य मूर्तियां स्थापित होतीं। शाम को विविध सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते, जिनमें हमारी विशेष रुचि नायिकर की कॉमेडी और मिमिक्री में होती। हम लोग, पूरे शहर में घूमकर, दुर्गापूजा देखने जाते। इसी तरह, गणेश चतुर्थी का पर्व भी मनाया जाता।

हम शहर से काफी दूर थे। फिर भी, फिल्में देखने, साइकिल चलाकर, जाते थे। दिलीप कुमार, राज कपूर और देवानंद हमारे प्रिय कलाकार थे। उन्हीं दिनों, कुछ मित्रों की साहित्यिक रुचि भी विकसित हो रही थी और वे उपलब्ध, उत्कृष्ट लेखकों को पढ़ रहे थे, जिनमें प्रमुख थे इब्ने सफी, वेद प्रकाश कंबोज, ओम प्रकाश शर्मा, गुलशन नंदा, प्रेम वाजपेई और मस्तराम कपूर।

हम कुएं के मेंढक थे। लगता था, पढ़ाई के उपरांत ऑर्डनेंस फैक्टरी या शहर के किसी रक्षा संस्थान में सुपरवाइजर की नौकरी मिल जाए, तो जीवन सफल हो जाए। साइकिल और रेडियो ही स्टेटस सिंबल थे। एक साइकिल परिवार में दादा से लेकर पोते तक काम आती थी। कभी-कभी अनेकों पीढ़ी तक वही साइकिल चलती थी। घरों में सोफा सेट और डाइनिंग टेबल नहीं होते थे। जब भी मन किया, किसी मित्र या रिश्तेदार के घर पहुंच जाते थे। पूर्व सूचना की कोई जरूरत नहीं होती थी।

उस दौरान जो मित्र बने, अब तक उनसे दोस्ती बरकरार है। पढ़ाई में की गई तपस्या, स्कूल और कॉलेज में प्राप्त मार्गदर्शन, और ईश्वर की असीम अनुकम्पा से ज़्यादातर सहपाठी, प्रतिष्ठित संस्थानों से उच्च पद पर सेवानिवृत हुए हैं और एक सुकून भरा जीवन व्यतीत कर रहे हैं। फिर भी, जब कभी उन दिनों को याद करते हैं तो वो सुनहरा समय बहुत याद आता है। तब हमारे पास कुछ नहीं था लेकिन हमारे भीतर असीम संभावनाएं छिपी हुई थीं। हम भविष्य के प्रति आशावान थे, किसी तरह की शंका या भय हमारे मन में नहीं था, और हम आस्थावान थे।

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

Laughter Yoga Master Trainer

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 573 ⇒ डेविड मैनुअल (David Manuel) ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “डेविड मैनुअल (David Manuel)।)

?अभी अभी # 573 ⇒ डेविड मैनुअल (David Manuel) ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बैंकिंग की दुनिया में मेरा वास्ता केवल मैन्युअल ऑफ इंस्ट्रक्शंस से ही पड़ा था, जो हमारे लिए गीता, बाइबल, कुरआन ही नहीं, बैंकिंग उद्योग का एक तरह से संविधान ही था। बस हमने बैंक ज्वॉइन करने के पहले सिर्फ इस संविधान की शपथ ही नहीं ली थी, लेकिन हम पूरी तरह से इसके लकीर के फकीर थे।

हमारी शाखा में एक जीता जागता मैनुएल और था, जिसका नाम डेविड मैनुअल था। एक हड्डी का, जवानी में बुजुर्गियत ओढ़े यह शख्स सिर्फ अंग्रेजी बोलना ही जानता था। मेन्यूअल ऑफ इंस्ट्रक्शंस और मिस्टर डेविड मैनुएल की अंग्रेजी एक जैसी थी, जिसे समझना हिंदीभाषी कर्मचारियों के लिए टेढ़ी खीर था।।

फिर भी जिस तरह हम हिंदी भाषी, टूटी फूटी अंग्रेजी से काम चला लेते हैं, मिस्टर डेविड भी टूटी फूटी हिंदी से काम चला ही लेते थे। यह तब की बात है, जब दफ्तरों में पान और धूम्रपान वर्जित नहीं था। मिस्टर डेविड भी एक चैन स्मोकर थे, और जरूरत पड़ने पर किसी डेली वेजेस के चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी से टूटी फूटी हिंदी में पुचकारते हुए, दो रुपए का नोट थमाकर, बाहर पान वाले से, दो विल्स और एक पान लाने का आग्रह करते थे। वह जब आदेश का पालन कर, बाकी पैसे लौटाने लगता, तो दरियादिली से कहते, कीप द चेंज। काम की अंग्रेजी हर भारतीय को आती है, वह खुश हो जाता।

अफसर हो अथवा क्लर्क, मिस्टर डेविड की धाराप्रवाह अंग्रेजी के बोझ से हमेशा दबे रहते, और फिर भी अपना रौब झाड़ने के लिए पूरा जोर लगाकर उन्हें अंग्रेजी में डांटने का प्रयास करते, जिसे मिस्टर डेविड अंग्रेजी में कोई घटिया सा जोक सुनाकर निष्प्रभावी कर देते। जोक हंसने के लिए होता है, इसलिए समझने वाले और नहीं समझने वाले दोनों, जोक पर हंस देते।।

मिस्टर डेविड मैनुएल कॉन्वेंट रिटर्न थे इसलिए उनका उच्चारण आम हिंदी भाषियों से अलग और परिष्कृत था। फिर भी वे हिन्दी प्रेमी थे, और एक आम नागरिक की तरह हिंदी और अंग्रेजी दोनों गालियों का बराबर प्रयोग करते थे। पूरे अंग्रेजी वाक्य में केवल हिंदी गालियों को इतना सम्मान देना, आसान नहीं। थ्री चीयर्स टू मिस्टर डेविड।

चीयर्स से याद आया, एक बरसात की शाम मिस्टर डेविड मुझसे बाजार में टकरा गए, और मुझे चाय का न्यौता दे बैठे। मुझे एक चाय की गंदी सी दुकान पर बैठाकर वे अचानक उठकर बाहर चले गए, और जब बाहर आए, तो उनके हाथ में एक बीयर की बोतल थी। मैं नहीं जानता था, उनकी चाय की परिभाषा। जब उन्होंने दो ग्लास और कुछ ठंडे भजिए बुलवाए, तो मैंने उनकी चाय पीने से मना कर दिया। उसी समय, मैं उनकी निगाह से गिर गया।।

इतना ही नहीं, पास की टेबल पर एक सज्जन को उल्टी हो गई, जिसे देख हमारे मित्र भी हड़बड़ा गए और उनकी बीयर की बोतल धक्का लगने से जमीन पर गिर, चकनाचूर हो गई। मुझे अफसोस हुआ कि मैने उनका मजा किरकिरा कर दिया। मैने आग्रह किया, मैं दूसरी बोतल ले आता हूं, लेकिन वे नहीं माने, और कसम खा ली कि कभी आगे से आपके साथ “चाय” नहीं पीऊंगा।

कल ही मिस्टर डेविड मैनुएल का जन्मदिन था, मैने विश किया, तो अनायास ही ४० वर्ष पुरानी दर्दनाक दास्तान याद आ गई। उम्र का असर उनकी अंग्रेजी पर भी पड़ गया है, अब वे केवल हिंदी में बात करते है हैं। बस इतना ही बोले, जिंदा हूं। आप कैसे हो शर्मा जी।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४१ – “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

श्री यशोवर्धन पाठक

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

स्व. हीरालाल गुप्ता

☆ कहाँ गए वे लोग # ४१ ☆

☆ “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक

सबको  प्रोत्साहन और प्रकाशन देने वाले स्व. हीरालाल जी गुप्ता प्रदर्शन से परे गुप्त ही बने रहना चाहते थे। न तो उन्होंने अपने पत्रकार होने का कभी ढिंढोरा पीटा और न ही कभी किसी पर रौब गालिब किया। कलम को कभी कुल्हाड़ी नहीं बनने दिया। पद और अधिकार उनके व्यक्तित्व पर कभी हावी नहीं हो पाये।

उपरोक्त प्रतिक्रिया है सुप्रसिद्ध साहित्यकार और पत्रकार श्रद्धेय डा. राजकुमार सुमित्र जी की, जो कि उन्होंने पत्रकारिता और साहित्य के सशक्त स्तंभ श्रद्धेय स्व. श्री हीरालाल जी गुप्ता के व्यक्तित्व और कृतित्व को उजागर करते हुए एक लेख में व्यक्त की थी। गुप्ता जी आत्म विज्ञापन और प्रचार से दूर रह कर सादा जीवन उच्च विचार के सिद्धांत पर ही विश्वास करते थे। वे जीवन पर्यन्त सादगी से ही रहे और उन्होंने नाटकीयता, बनावटीपन और प्रदर्शन से दूर रह कर अपने व्यवहार और वाणी में भी सादगी और स्वाभाविकता को ही प्रमुखता दी। यही कारण है कि जहां पत्रकारिता के क्षेत्र में उन्होंने निर्भीकता और निष्पक्षता जैसे मानदंडों को अपनाया वहीं कविता के क्षेत्र में उन्होंने भावनात्मकता और हार्दिकता के साथ अपनी काव्यात्मक प्रतिभा का परिचय दिया।

बचपन में मेरे घर पर जो विशिष्ट व्यक्ति परिवार के मध्य सराहनात्मक रुप से चर्चा का विषय बनते उनमें श्रद्धेय श्री हीरालाल जी गुप्ता भी प्रमुख रुप से शामिल रहते। पूज्य पिता स्व. पं. भगवती प्रसाद जी पाठक के अभिन्न मित्र के रुप में चाहे जब गुप्ता जी के व्यक्तित्व की चर्चा होती। बाद में बड़े भाई श्री हर्षवर्धन, सर्वदमन और प्रियदर्शन ने भी “नवीन दुनिया” समाचार पत्र से पत्रकारिता प्रारंभ की और श्री गुप्ता जी ने मेरे तीनों भाइयों के पत्रकारिकता कार्य में संरक्षक और शिक्षक  की प्रभावी भूमिका का निर्वहन किया। घर पर जब श्री गुप्ता जी की प्रखर लेखनी और प्रेरक व्यक्तित्व के बारे में बातचीत होती तो मैं बड़े ध्यान से बातें सुना करता। पिताजी द्वारा गणेश उत्सव पर आयोजित काव्य गोष्ठी में जब गुप्ता जी घर आते तो उनकी कविताएं सुनने का मुझे भी अवसर मिलता। उनकी कविताएं हम सभी को मंत्रमुग्ध कर जातीं। बड़े भाइयों के साथ मै भी उन्हें चाचा जी कहकर संबोधित और सम्मानित करता और गौरवान्वित होता।

महाविद्यालयीन अध्ययन के दौरान नवीन दुनिया प्रेस में मैं अक्सर आदरणीय श्री गुप्ता जी से मिलने जाया करता। वे मुझसे बड़े अपनेपन के साथ मेरे वर्तमान और भविष्य के संबंध में अनेक चर्चाएं करते और यथोचित मार्गदर्शन करते। उनका सोचना था कि व्यक्ति की जिस क्षेत्र में  रुचि हो, उसी क्षेत्र में उसे आगे बढ़ना चाहिए। वे मेरी रुचि को देखते हुए मुझे हमेशा लेखन के लिए प्रोत्साहित करते। उनका नजरिया था कि मुझे पत्रकारिता या अध्यापन के क्षेत्र में कार्य करना चाहिए। मैंने जब सहकारी  प्रशिक्षण के क्षेत्र में व्याख्याता और प्राचार्य के दायित्वों का निर्वाह करते हुए साहित्यिक लेखन भी जारी रखा  तो मुझे गुप्ता जी की सभी बातें बरबस याद आ गईं कि उनका मार्गदर्शन मेरे लिए कितना महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। एक मैं हूं जिसे गुप्ता जी का इतना प्यार मिला, प्रेरणा मिली, लेकिन मेरे जैसे न जाने कितने होंगे जिनके जीवन निर्माण में गुप्ता जी का मार्गदर्शन सहायक सिद्ध हुआ होगा।

कविता के क्षेत्र में गुप्ता जी का उपनाम “मधुकर” उनके जीवन में सदा अपनी सार्थकता प्रदर्शित करता रहा। उनकी सहजता और सरलता उनके जीवन की एक बड़ी विशेषता रही। तभी आदरणीय श्री श्याम सुन्दर शर्मा ने उनके बारे में लिखा था कि “श्री गुप्ता जी की एक और विशेषता थी, उनका वैष्णव स्वभाव। उनके व्यक्तित्व की सरलता और सहजता ने उनका साथ कभी नहीं छोड़ा। न तो उनकी वेषभूषा में बदलाव आया और न ही उनके व्यवहार में। आक्रामकता तो उन्हें छू तक नहीं गई थी लेकिन जो बात उन्हें सही लगती उस पर वे अडिग रहते थे और यही कारण था कि उन्हें पत्रकारिता के कार्य काल में अपने संपादकीय सहयोगियों का  भरपूर सहयोग मिला। गुप्ता जी अपने पत्रकारिता और सामाजिक जीवन में  अजातशत्रु  के रुप में सभी के मध्य सदा सम्मानित रहे। स्व. श्री हीरालाल जी गुप्ता आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी स्मृतियां हमारे मानस पटल पर आज भी हमें प्रेरित और प्रभावित करतीं हैं। स्व. गुप्ता जी की स्मृति में जबलपुर की  अनेक  साहित्यिक संस्थाऐं 24 दिसंबर को स्व. हीरालाल गुप्ता जयंती समारोह आयोजित करती रही हैं, मेरे दृष्टिकोण से यह आयोजन युवा पीढ़ी को पत्रकारीय मूल्यों के साथ सकारात्मक दिशा दर्शन का  प्रेरक आयोजन होता था। इस आयोजन में स्वर्गीय गुप्ता जी के परिवार के सभी सदस्यों की सहभागिता रहती थी। स्व. गुप्ता जी को सादर नमन।        ‌‌

© श्री यशोवर्धन पाठक

संकलन – श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 6 – हास्ययोग : एक विस्मयकारी जादू The Transformative Power of Laughter Yoga ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।

– श्री जगत सिंह बिष्ट 

(ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से “दस्तावेज़” श्रृंखला कुछ पुरानी अमूल्य यादें सहेजने का प्रयास है। दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित। इस शृंखला में अगला दस्तावेज़  “हास्ययोग : एक विस्मयकारी जादू The Transformative Power of Laughter Yoga।)

☆  दस्तावेज़ # 6 – हास्ययोग : एक विस्मयकारी जादू  ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

क्या आपको मालूम है कि निर्मल हंसी में एक खुशहाल, स्वस्थ और सौहाद्रमय जीवन की कुंजी छुपी हुई  है? लाफ्टर योग़ा (हास्ययोग) के साथ मेरी यात्रा, इस जिज्ञासा के साथ शुरू हुई और मेरे जीवन में आमूलचूल परिवर्तन आ गया। इसके फलस्वरूप, मेरा और मेरे माध्यम से, जाने कितने अन्य लोगों का जीवन आनंद से भर गया!

डॉ. मदन कटारिया की परिकल्पना “लाफ्टर योग़ा” एक ऐसा अभ्यास है जो  हँसी को योग के साथ जोड़ता है। इससे प्रतिभागियों को बिना किसी कारण के हँसने में सक्षम बनाया जाता है। एक सचेत प्रयास के रूप में शुरू होकर, यह जल्द ही वास्तविक, हार्दिक और गहरी हँसी में परिवर्तित हो जाता है.  इससे शरीर ‘एंडोर्फिन’ से  लबालब हो जाता है और मन आनंदित हो उठता है। यह एक ऐसा सरल लेकिन गहन अभ्यास था जिसने मुझे और मेरी पत्नी राधिका को इसके जादू को फैलाने के लिए समर्पित कर दिया।

हास्ययोग – एक मिशन :

हमारी यात्रा इंदौर में विनम्रतापूर्वक शुरू हुई, जहां हमने एक सामुदायिक लाफ्टर क्लब की स्थापना की। यह प्रयास जल्दी ही खुशी और मेलजोल का केंद्र-बिंदु बन गया, जो जीवन के सभी क्षेत्रों के लोगों को आकर्षित करता है। हंसी के परिवर्तनकारी प्रभावों को प्रत्यक्ष रूप से देखते हुए, हमने अपने सत्रों को स्कूलों, कॉर्पोरेट वातावरण और यहां तक कि वंचित समुदायों तक विस्तारित करने की पहल की।

श्री शारदा रामकृष्ण विद्या मंदिर में, एक विशेष रूप से यादगार सत्र में, हमने शैक्षणिक तनाव से जूझ रही छात्रों को हास्ययोग का अमूल्य उपहार दिया।  इसका प्रभाव तत्काल और असाधारण था. मुस्कुराहट ने उनके तनावपूर्ण भावों को बदल दिया, और उनके उत्साह से कक्षा में ऊर्जा का संचार हुआ। शिक्षकों ने अभ्यास की सुगमता और प्रभावशीलता पर आश्चर्य व्यक्त किया जिसने बच्चों को एक नई ऊर्जा दी और उनका ध्यान पढाई पर केन्द्रित होने में सहायता मिली।

हास्ययोग से मेरे अपने जीवन में भी गहरा बदलाव आया। इसने मुझे गहरे, अधिक प्रामाणिक, स्तर पर लोगों से जुड़ना सिखाया। मेरी बातचीत और मेरा व्यवहार गर्मजोशी और आपसी सम्मान से ओतप्रोत हो गया। इस अभ्यास ने, न केवल मेरे अपने तनाव को कम किया, बल्कि जीवन को उद्देश्यपूर्ण बनाने  के लिए एक नई भावना को भी प्रेरित किया –  दूसरों के जीवन में खुशी भरने की भावना।

व्यापक  प्रभाव:

इन वर्षों में, हमारे हास्य योग सत्र विभिन्न समूहों तक पहुंचे हैं, गांवों के स्कूली बच्चों से लेकर कॉर्पोरेट बोर्डरूम में वरिष्ठ अधिकारियों तक। हमारे सबसे सुखद अनुभवों में से एक विशेष जरूरतों वाले बच्चों के साथ काम करना था। उनकी बेहिचक खुशी और हँसी को गले लगाने की इच्छा ने इस अभ्यास की असीम क्षमता की पुष्टि की।

लाफ्टर योगा के माध्यम से,  विश्व स्तर पर लोगों से जुड़ने के लिए मैं भाग्यशाली रहा हूं। ऋषिकेश में अंतरराष्ट्रीय प्रतिभागियों को प्रशिक्षित करने से लेकर भारतीय स्टेट बैंक और नेस्ले में सत्र आयोजित करने तक, हर सत्र ने हंसी की सार्वभौमिकता में मेरे विश्वास को मजबूत किया। यह भाषा और संस्कृति से परे है, ऐसे बंधन बनाता है जो उतने ही स्थायी होते हैं जितने कि वे आनंद से परिपूर्ण होते हैं।

एक दिव्य अस्त्र :

हास्य योग ने मुझे सिखाया है कि खुशी सिर्फ एक व्यक्तिगत खोज नहीं है – यह साझा करने के लिए एक उपहार है। इस अभ्यास ने मुझे दूसरों में, विशेष रूप से युवा पीढ़ी और जरूरतमंद लोगों में सकारात्मकता को प्रेरित करने के लिए सशक्त बनाया है। इसने पारस्परिक कौशल को बढ़ाया है, रचनात्मकता को बढ़ावा दिया है, और अनगिनत जीवन को बदल दिया है, जिसमें मेरा अपना भी शामिल है।

मुझे अच्छी तरह याद है कि मेरे बेटे ने एक बार मुझसे कहा था, “पापा, आपके पास दूसरों को खुशी देने का एक दिव्य अस्त्र है।“ यह वाक्य मेरे लिए प्रेरणाश्रोत बन गया। यह भावना उस सार को पकड़ती है जो लाफ्टर योगा ने मुझे दिया है – खुशी बांटने का मिशन और आनंद की विरासत।

हास्ययोग आन्दोलन :

हास्य योग एक व्यायाम से कहीं अधिक है – यह जीवन जीने की एक कला है,  एक उत्सव है। यह हमें अपने भीतर बच्चों की मस्ती को फिर से खोजने, अपनी चिंताओं को दूर करने और एक दूसरे के साथ गहराई से जुड़ने के लिए आमंत्रित करता है।

हम एक साथ हंसते हैं तो उत्साह और उमंग का अनुभव करते हैं।  इस साझा आनंद में एक उज्जवल, करूणामय संसार की आकांक्षा निहित है। क्या आप  हास्ययोग के इस पुनीत आंदोलन में शामिल होकर हंसते-हंसते ज़िन्दगी बिताना चाहेंगे?

– जगत सिंह बिष्ट

लाफ्टर योगा मास्टर ट्रेनर

☆ The Transformative Power of Laughter Yoga 

Have you ever wondered if a simple act of laughter could hold the key to a happier, healthier, and more connected life? My journey with Laughter Yoga began with this curiosity and unfolded into a life-transforming mission, bringing joy to myself and countless others.

Laughter Yoga, pioneered by Dr Madan Kataria, is a practice that combines intentional laughter with yogic breathing, enabling participants to laugh for no reason. What begins as a conscious act soon evolves into genuine, hearty laughter, flooding the body with endorphins and uplifting the spirit. It was this simple yet profound practice that drew my wife Radhika and me to dedicate ourselves to spreading its magic.

A Mission Rooted in Laughter:

Our journey started humbly in Indore, where we founded a community laughter club. This endeavour quickly blossomed into a hub of joy and connection, attracting people from all walks of life. Witnessing the transformative effects of laughter firsthand, we took the initiative to extend our sessions to schools, corporate environments, and even underprivileged communities.

In a particularly memorable session at Sri Sarada Ramakrishna Vidya Mandir, we introduced Laughter Yoga to students struggling with academic stress. The impact was immediate and extraordinary: smiles replaced their strained expressions, and their enthusiasm lit up the room. Teachers marvelled at the simplicity and effectiveness of the practice, which fostered a newfound energy and focus in the children.

Laughter Yoga also brought a profound change to my own life. It taught me to connect with people on a deeper, more authentic level. My interactions shifted from functional to personal, filled with warmth and mutual respect. This practice not only reduced my own stress but also inspired a renewed sense of purpose: to bring happiness to others.

Touching Lives Far and Wide:

Over the years, our laughter sessions have reached diverse groups, from schoolchildren in rural villages to senior executives in corporate boardrooms. One of our most heartening experiences was working with special needs children. Their uninhibited joy and willingness to embrace laughter reaffirmed the boundless potential of this practice to heal and uplift.

Through Laughter Yoga, I’ve been fortunate to connect with people globally. From training international participants in Rishikesh to conducting sessions at the State Bank of India and Nestlé, every session strengthened my belief in the universality of laughter. It transcends language and culture, creating bonds that are as enduring as they are joyful.

The Ripple Effect:

Laughter Yoga has taught me that happiness is not just an individual pursuit—it is a gift to be shared. The practice has empowered me to inspire positivity in others, especially the younger generation and those in need. It has enhanced interpersonal skills, fostered creativity, and transformed countless lives, including my own.

The compliment I hold closest to my heart came from my son, who once said, “Papa, you have the heavenly gift of bringing joy to others. It’s truly inspiring.” This sentiment captures the essence of what Laughter Yoga has given me: a mission to spread happiness and a legacy of joy.

A Call to Laugh:

Laughter Yoga is more than an exercise—it is a way of life, a celebration of the human spirit. It invites us to rediscover the childlike playfulness within, to let go of our worries, and to connect with one another in profound ways.

As we laugh together, we heal together. And in that shared joy lies the promise of a brighter, more compassionate world.

Will you join the movement and laugh your way to happiness?

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

Laughter Yoga Master Trainer

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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