हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 199 ☆ “समय समय की बात” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक अविस्मरणीय संस्मरण – “समय समय की बात)

☆ संस्मरण ☆ “समय समय की बात” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

जमाना कितना बदल गया। हम लोगों ने परसाई जी के जीते जी 1991 में परसाई जन्मदिन के बहाने परसाई के व्यक्तित्व और कृतित्व पर तीन दिवसीय बड़ा आयोजन किया था, जिसमें गया से मुख्य अतिथि डॉ सुरेन्द्र चौधरी (ख्यातिलब्ध आलोचक) आये थे और अध्यक्षता महात्मा गांधी के निजी सचिव पूर्व सांसद डॉ महेश दत्त मिश्र जी ने की थी

इस अवसर पर ‘परसाई स्मारिका पुस्तिका’ हमारे सम्पादन में निकाली गई थी, उस समय कई सौ प्रतियां नि:शुल्क बांटी गईं थीं। आज के समय में प्रकाशक संग्रह छापने के पहले लेखक से सौ प्रतियां खरीदने की शर्त रख देते हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ कारगिल विजय दिवस विशेष – “बलिदान कारगिल में …” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित कारगिल विजय दिवस पर विशेष संस्मरण “बलिदान कारगिल में…”। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

 ☆ संस्मरण – कारगिल विजय दिवस विशेष – “बलिदान कारगिल में…”  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

घटना कारगिल की है । भारत के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाकर भी पाकिस्तान ने हमारी सीमाओं पर चुपचाप घुसपैठ शुरू कर दी थी । काश्मीर भारत का अभिन्न अंग है । सन् 1947 में काश्मीर रियासत के राजा हरीसिंह ने पूरी रियासत का देश में मिलना स्वीकार कर भारत देश के एक प्रदेश के रूप में रहना पसंद किया । काश्मीर पाकिस्तान से लगा हुआ है । पाकिस्तान उसे अपने देश में गैर कानूनी ढंग से मिलाने के लिये शुरू से ही लालायित है । ऐसा असंभव है । इसलिये वह हमेशा काश्मीर प्रदेश में भारतीय सीमाओं पर घुसपैठ कर, आतंक मचाकर जमीन हथियाना चाहता है । कई बार युद्ध में हारकर भी मई 1999 में सीमाओं पर द्रास – कारगिल और बटालिक क्षेत्र में ऊँचे पहाड़ों पर उसने फिर हमला किया । हमारे वीर बहादुर सैनिक प्राणपण से देश की रक्षा के लिये लड़कर विजयी हुये ।

यह कारगिल क्षेत्र की टाइगर पहाड़ी पर घुसपैठियों से युद्ध करते हुये अपनी भारत माँ के लिये प्राण देने वाले वीर हेमसिंह की वीरता की घटना है । हेमसिंह ग्राम खेड़ा फिरोजाबाद के निवासी थे । टाइगर पहाड़ी पर अपूर्व वीरता के साथ दुश्मन सेअपने भारत देश के लिए लड़ते हुये अपना बलिदान दे उन्होंने शहादत पाई । उनके मित्र नायक रामसिंह ने उनकी वीरता का वर्णन इस प्रकार किया है ।

हेमसिंह की बहादुरी देखकर दुश्मनों के भी छक्के छूट गये । कारगिल में टाइगर पहाड़ी को दुश्मनों से छुड़ाने की ज़िम्मेदारी 9 वीं पैरा यूनिट के जाँबाज कमाण्डों को सौंपी गई थी । कमाण्डो अपने दल के साथ एक के बाद एक कुछ फासले से पहाड़ी पर चढ़ रहे थे । नायक हेमसिंह भी अपने कुछ साथियों को ले पहाड़ी पर रस्सी बाँधकर चढ़ रहे थे । जब वे ऊपर पहुँचने वाले ही थे तो दुश्मनों ने गोली चलानी शुरू कर दी । भारतीय सेना दल ने भी गोली चलानी शुरू कर दी तो दुश्मन अपने बंकरों में भाग कर ऊपर से धुंआधार गोलियाँ बरसाने लगे । दुश्मन केवल 40-50 गज की दूरी पर थे । बिना कोई परवाह किये देशभक्त भारतीय सैनिक चढ़ते और बढ़ते गये तथा अनेकों दुश्मन सैनिकों को ढेर कर दिया । इसी बीच दुश्मन ने और सैनिक सहायता से बमबारी शुरू कर दी । हेमसिंह आगे बढ़ते जा रहे थे । उनके शरीर में बम के टुकड़े धंसते गये पर अपने साथियों के पीछे हटने का आग्रह ठुकराकर भी हेमसिंह अपने मोर्चे पर डटे रहे और अपनी बंदूक के निशाने से दुश्मन के चार सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया । साथियों ने उन्हें अस्पताल, जो 20 किमी. दूर था, ले जाने की तैयारी की । परन्तु अपनी कर्मभूमि पर ही कर्त्तव्य पूरा कर हेमसिंह मातृभूमि के लिये लड़ते हुए वीर गति को प्राप्त हुये । उनकी वीरता और जाँबाजी की चर्चा हमेशा अमर रहेगी । उन्होंने अपने बलिदान से एक बार फिर सबको सिखा दिया कि मातृभूमि जिसने हमें पाला – पोसा और बड़ा किया है, का ऋण समय आने पर ऐसे आदर्श बलिदान से दिया जा सकता है ।

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© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ यादें पिता की… ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक अविस्मरणीय संस्मरण ‘यादें  पिता  की…’।)

☆ संस्मरण – यादें  पिता  की… ☆  श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

वे जेब खर्ची देने वाले पिता नहीं थे।  वे उन पिताओं जैसे भी नहीं थे जो अपने बच्चों के बस्ते आप उठाकर उन्हे स्कूल बस में चढ़ाने जाते हैं। न ही वे हमें किसी आधुनिक पिता जैसा लाड़ प्यार करते थे। वे सख्त किस्म के पिता थे। उनका मानना था कि लाड़ प्यार से बच्चे बिगड़ते हैं अत: जहां वे मामूली गलती भी करें, उनकी पिटाई होती रहनी चाहिए। मार पीट के मामले में हम बचपन से ही ढीठ बन चुके थे।

(पिता स्वर्गीय चौधरी मुगला राम)

जीवन मूल्यों व संघर्ष की स्वयं अपनी शिक्षा के लिए पिताजी ने स्कूल वगैरा को कभी बीच में आने नहीं दिया। कोई लिखना पढ़ना नहीं। कोई थिअरी नहीं। सब कुछ प्रैक्टिकल। यही कुछ वे हमें सिखाना चाहते थे। 1947 में गांव में आ बसे पंजाबी परिवारों की सोभत में उन्होंने अपने पुत्रों को स्कूल भेजना तो शुरू किया पर जीवन कौशल की सख्त प्रैक्टिकल ट्रेनिंग में कोई रियायत नहीं की।

इस सब के बावजूद पिता सही मायने में  हमारे शुभचिंतक व संरक्षक थे। संतान प्राप्ति के लिए ही तो उन्होंने एक के बाद एक, चार शादियां की थी।

हमारे गांव में स्कूल नहीं था। पास के गांव पूंडरी में था। पहली क्लास में हमारा दाखिला वहीं हुआ।

हम कापियों पर पेंसिल या पैन से नहीं, तख्तियों पर स्याही और कलम से सुलेख लिखते थे। मुल्तानी मिट्टी से तख्ती पोची जाती थी।

तख्ती लड़ने के काम भी आती थी। कई बच्चे तो तलवार की तरह घुमाकर तख्ती चलाते थे। एक दिन दो बच्चों में ऐसा तख्ती युद्ध हुआ कि एक बच्चे के सिर से खून बहने लगा। एक अध्यापक ने उसकी मरहम पट्टी की। स्कूल में फर्स्ट एड बॉक्स था।

फिर सभी बच्चों को इकट्ठा किया और अध्यापक ने गुस्से से सभी को धमकाया कि अगर वे लड़ाई करेंगे तो उन्हे स्कूल से निकाल दिया जाएगा। जो पढ़ना नहीं चाहता वह स्कूल में न आए।

आखरी बात मुझे बड़ी अच्छी लगी। जब दोबारा कक्षाएं शुरू हुईं तो मैं अपना थैलानुमा बस्ता और तख्ती उठाकर अध्यापक के पास गया और उनसे कहा कि मैं नहीं पढ़ना चाहता। यहां बच्चे लड़ाई करते हैं। मैं घर जाना चाहता हूं।

“अबे जा उल्लू के पट्ठे। तुझे कौन बुलाने गया था कि तू स्कूल में आ!”

मैं डर कर पीछे हटा। हैरान था कि कुछ देर पहले यह कहने  वाला अध्यापक कि जो पढ़ना नहीं चाहता, अपने घर जाए, अब क्यूं गुस्सा हो रहा था। खैर, मैं अपना तख्ती बस्ता लेकर त्यागी चौपाल में चल रहे स्कूल से वापिस अपने गांव और घर की ओर निकल गया।

गांव पहुंचा तो गली में ही चंद्रभान बनिए की दुकान पर बापू को बैठे पाया और ठिठक कर वहीं रुक गया। उन्होंने पूछा कि जल्दी कैसे आ गया तो मैंने साफ़ साफ़ सारा किस्सा सुना दिया यह कहते हुए कि मैं स्कूल में नहीं पढ़ना चाहता।

अच्छा तू नहीं पढ़ना चाहता… यह कहते हुए बापू ने अपने पैर की जूती उठाई और ज़ोर से मेरी तरफ फेंकी। उनका निशाना कुछ चूक गया और उन्हें अपनी तरफ आता देख मैं वहां से भाग लिया।

मैं आगे और बापू पीछे, गांव की फिरनी का पूरा चक्कर काट लिया। घूम कर स्कूल के रास्ते पर जब मैं मुड़ा तो बापू ने मेरा पीछा करना छोड़ा।

मैं बापू के गुस्से को समझ नहीं पाया पर पिटाई से बचने के लिए वापिस स्कूल की तरफ हो लिया। मन में एक और डर था कि अध्यापक भी पिटाई करेगा।

स्कूल की तरफ कुछ ही दूर गया था कि पंजाबी लड़का अविनाश ग्रोवर वापिस आता मिल गया। कहने लगा, आगे कोई लंबा सांप निकला है और उसने सांप के रास्ते से गुजरने के निशान देखे हैं।

मैं और डर गया। अकेला आगे कैसे जाऊं? रास्ते में सांप आ गया तो?

मैं वापिस अविनाश के साथ गांव की तरफ ही मुड़ लिया। पिता का भी डर था। मुझे दोनों तरफ सांप नज़र आने लगे। गांव की तरफ ही चलता गया यह सोच कर कि बापू तब तक दुकान से जा चुका होगा।

पर वो तो वहीं बैठा मिला ।

फिर वापिस आ गया तू? वह गुस्से से बोला। मैंने हकलाते हुए कहा, रास्ते में सांप था।

चन्द्रभान बनिए ने कुछ बीच बचाव किया। ….चाचा, बच्चा डर गया है, अब की बार माफ़ कर। आगे से यह स्कूल से नहीं भागेगा…

मैंने बगैर पूछे ही बार बार हामी भरते हुए गर्दन हिलाई।

“क्यों, फिर भागेगा”, बापू ने पूछा। वह पूरी तसल्ली करना चाहता था। मैंने दोनों कान पकड़ कर गर्दन दाएं बाएं हिलाते हुए ना कहा।

ऐसे काम नहीं चलेगा। नाक से तीन लकीरें निकाल कि तू फिर स्कूल से नहीं भागेगा।

मैंने तुरंत नाक से तीन लकीरें निकाली और कहा कि फिर कभी स्कूल से नहीं भागूंगा।

बापू ने कहा, जा घर जा।

आज माफ़ कर दिया, फिर नहीं करूंगा।

बस वो दिन और आज का दिन। मैं कभी स्कूल तो क्या कॉलेज या फिर दफ्तर की ड्यूटी से भी नहीं भागा। तीन लकीरें जो निकाली थीं नाक से।

तीन लकीरें सहज ही मेरे लिए बापू को दिए तीन वचन बन गईं :  पहला वचन कि कभी किसी काम से नहीं भागना भले ही कश्मीर के आतंकवाद में ड्यूटी करनी हो; दूसरा वचन कि पूरे मन से काम करना, इसी से ज्ञान व कौशल मिलेगा और मान सम्मान प्राप्त होगा तथा आखरी व तीसरा वचन यह कि जिस काम की दिल गवाही न दे, उसे करने से बचना।

पितृ दिवस पर नमन मेरे पिता को और उन जैसे सभी पिताओं को।

© श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन हिसार।

मो : 9466647034

(लेखक श्री अजीत सिंह हिसार स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे 2006 में दूरदर्शन केंद्र हिसार के समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए।)

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 191 ☆ “महान चित्रकार आशीष स्वामी…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक संस्मरण – महान चित्रकार आशीष स्वामी…”)

☆ संस्मरण — “महान चित्रकार आशीष स्वामी…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

उमरिया जैसी छोटी जगह से उठकर शान्ति निकेतन, जामिया मिलिया दिल्ली, फिल्म इंडस्ट्री मुंबई में अपना डंका बजाने वाले ख्यातिलब्ध चित्रकार, चिंतक, आशीष स्वामी जी ये दुनिया छोड़कर चले गए।  कोरोना उन्हें लील गया। मैंने एसबीआई ग्रामीण स्वरोजगार प्रशिक्षण संस्थान उमरिया में तीन साल से अधिक डायरेक्टर के रूप में काम किया। मेरे कार्यकाल के दौरान उमरिया जिले के दूरदराज के जंगलों के बीच से आये गरीबी रेखा परिवार के करीब तीन हजार युवक/युवतियों का साफ्ट स्किल डेवलपमेंट और हार्ड स्किल डेवलपमेंट किया गया और उनकी पसंद के अनुसार रोजगार से लगाया गया। भारत सरकार ने उमरिया आरसेटी के डायरेक्टर को दिल्ली में बेस्ट डायरेक्टर के अवार्ड से सम्मानित भी किया था।  

आरसेटी में ट्रेनिंग लेने आये बच्चों में सकारात्मक सोच भरने और उनकी संस्कृति की अलख जगाने में श्री आशीष स्वामी बड़ी मेहनत करते थे। नये नये आइडिया देकर उन्हें कुछ नया काम करने की प्रेरणा देते थे। क्या भूलूं? क्या याद करूं?

हां एक खास इवेंट आप वीडियो में देखिए,जो हम लोगों ने जनगण तस्वीर खाना लोढ़ा में आयोजित किया था, यूट्यूब में दुनिया भर के लोगों ने जब इस वीडियो को देखा तो दंग रह गए। ऐसा दुनिया में पहली बार हुआ था लोढ़ा में।

जो एक प्रयोग के तौर पर किया गया था, दूर दराज के जंगलों के बीच से प्रशिक्षण के लिए आये गरीब आदिवासी बच्चों द्वारा।

यूं तोआरसेटी में लगातार अलग-अलग तरह के ट्रेड की ट्रेनिंग चलतीं रहतीं थीं, पर बीच-बीच में किसी त्यौहार या अन्य कारणों से एक दिन का जब अवकाश घोषित होता था, तो बच्चों में सकारात्मक सोच जगाने और उनके अंदर कला, संस्कृति की अलख जगाने जैसे इवेंट संस्थान में आयोजित किए जाते थे। उमरिया जिले के दूरदराज से आये 25 आदिवासी बच्चों के दिलों में हमने और ख्यातिलब्ध चित्रकार आशीष स्वामी जी ने झांक कर देखा, और उन्हें उस छुट्टी में कुछ नया करने उकसाया, उत्साहित किया। फिर उन बच्चों ने ऐसा कुछ कर दिखाया जो दुनिया में कहीं नहीं हुआ था। दुनिया भर के लोग यूट्यूब में वीडियो देखकर दंग रह गए। हर्र लगे न फिटकरी, रंग चोखा वाली कहावत के तहत एक पैसा खर्च नहीं हुआ और बड़ा काम हुआ। आप जानते हैं कि खेतों में पक्षी और जानवर खेती को बड़ा नुक़सान पहुंचाते हैं, देखभाल करने वाला कोई होता नहीं, किसान परेशान रहता है। इस समस्या से निजात पाने के लिए सब बच्चों ने तय किया कि आज छुट्टी के दिन किसानों के लिए अलग अलग तरह के मुफ्त के पहरेदार कागभगोड़ा बनाएंगे। उमरिया से थोड़ी दूर कटनी रोड पर चित्रकार आशीष स्वामी का जनगण तस्वीरखाना कला-संस्कृति आश्रम में तरह-तरह के बिझूका बनाने का वर्कशॉप लगाना तय हुआ,सब चल पड़े। आसपास के जंगल से घांस-फूस बटोरी गयी, बांस के टुकड़े बटोरे गये, रद्दी अखबार ढूंढे गये, फिर हर बच्चे को कागभगोड़ा बनाने के आइडिया दिए गए। जुनून जगा, सब काम में लग गए, अपने आप टीम बन गई और टीमवर्क चालू…। शाम तक ऐतिहासिक काम हो गया था, मीडिया वालों को खबर लगी तो दौड़े दौड़े आये, कवरेज किया, दूसरे दिन बच्चों के इस कार्य को अखबारों में खूब सराहना मिली। अब आप उपरोक्त वीडिओ देखकर बताईए, आपको कैसा लगा। और महान कलाकार आशीष स्वामी जी को दीजिए श्रद्धांजलि…

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण – “रमेश बत्तरा- लघुकथा की नींव का एक बड़ा कुशल कारीगर”☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

  

☆ संस्मरण – “रमेश बत्तरा- लघुकथा की नींव का एक बड़ा कुशल कारीगर” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(मित्र डाॅ घोटड़ की पुस्तक ‘रमेश बतरा की लघुकथाएं’ से)

रमेश बत्तरा -मेरा मित्र भी और कह सकता हूं कि कदम कदम पर मार्गदर्शक भी। हमारा परिचय तब हुआ जब करनाल से बढ़ते कदम नाम से एक पत्रिका संपादित करनी शुरू की रमेश ने और मुझे खत आया सहयोग व रचना के लिए। रचना भेजी। प्रवेशांक में आई भी। फिर रमेश का तबादला चंडीगढ़ हो गया और हमारी मुलाकातें भी शुरू हुईं। सेक्टर बाइस में घर तो सेक्टर आठ में

दफ्तर -दोनों जगह। फिर हम कब केशी और मेशी रह गये एक दूसरे के लिए यह पता ही नहीं चला। यह दूरी व औपचारिकता बहुत जल्द मिट गयी। चंडीगढ़ आकर शामलाल मेहंदीरत्ता यानी ‘प्रचंड’ की पत्रिका ‘साहित्य निर्झर’ की कमान रमेश ने संभाल ली। इससे पहले अम्बाला छावनी की पत्रिका तारिका(अब शुभ तारिका) का लघुकथा विशेषांक संपादित कर रमेश बत्तरा खूब चर्चित हो चुका था। यानी कदम कदम पर न केवल लघुकथाएं लिखकर बल्कि पत्रिकाओं का संपादन कर उसने लघुकथा को संवारने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। ‘बढ़ते कदम’ से ‘तारिका’ और तारिका से ‘सारिका’ तक का सफर जल्दी जल्दी तय कर लिया रमेश ने। इनके साथ ही नवभारत टाइम्स और फिर संडे मेल तक लघुकथाओं को प्रमुखता से प्रकाशित कर चर्चित करने में रमेश की बहुत बड़ी भूमिका है। मैंने अप्रत्यक्ष रूप से संपादन भी रमेश से सीखा जब वह साहित्य निर्झर का और फिर दिल्ली में सारिका का संपादन कर रहा था। कैसे वह डीटीसी की लोकल बसों में भी रचनाएं पढ़ता जाता, छांटने का काम करता। कैसे फोटोज का चयन करता और कैसे रचना को संशोधित भी करता। चंडीगढ़ में रहते ही लघुकथा विशेषांक की तैयारी करते देखा, कुछ सहयोग भी दिया और मुझसे बिल्कुल अंतिम समय में नयी लघुकथा मांगी जब हम सेक्टर 21 में प्रेस में ही खड़े थे और मैंने प्रेस की एक टीन की प्लेट उल्टी कर लिखी -कायर। जिसे पढ़ते ही रमेश उछल पड़ा था और कहा था कि यह ऐसी प्रेम कथा है जिसे अपने हर संपादन में प्रकाशित करूंगा और उसने वादा निभाया भी। यानी रचनाकारों से उनका श्रेष्ठ लिखवा लेने की कला रमेश में थी। ‘सारिका’ में भी मुझसे ‘दहशत”, ‘ चौराहे का दीया’ और ‘मैं नाम लिख देता हूं ‘ लिखवाई। संडे मेल में आई ‘मैं नहीं जानता’ को चर्चित करने में भी रमेश का ही हाथ रहा। जैसे मेरी रचनाओं को चर्चित किया, वैसे ही अनेक अन्य रचनाकार भी न केवल प्रकाशित किये बल्कि संशोधित व संपादित भी कीं रचनाएं, उन लेखकों की सूची बहुत लम्बी है। मार्गदर्शक की बात कहूं कि तो 25 जून, 1975 यानी आपातकाल की घोषणा होने वाले दिन मैं और रमेश एकसाथ ही थे चंडीगढ़ में। वह मुझे पंजाब बुक सेंटर ले गया और मार्क्स व एंगेल्स की पुस्तिकाएं खरीद कर दीं और कहा कि अब इन्हें जानने, पढ़ने व समझने की जरूरत है। फिर कुछ समय बाद रमेश ने कहा कि अब खूब पढ़ाई कर ली, अब इन पर आधारित कहानियां लिखने की जिम्मेदारी है। यह था उसका एक रूप। मित्रों को निखारने व समझाने का।

लघुकथा का जो रूप हम देख रहे हैं या लघुकथा जो सफर तय करके यहां तक पहुंची है, उसमें एक कुशल कारीगर की भूमिका रमेश बत्तरा की भी है। आठवें दशक में लघुकथा ने न केवल अपने कंटेंट बल्कि अपने कलेवर और तेवर में जो क्रांतिकारी बदलाव किये उनमें रमेश का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता। न केवल लघुकथा लिखने बल्कि लघुकथा की आलोचना को आगे बढ़ाने का काम भी बखूबी संभाला। साहित्य निर्झर में ‘लघुकथा नहीं ‘जैसे आलेख में रमेश स्पष्ट करता है कि लघुकथा को नीति कथाओं, लोक कथाओं, मात्र व्यंग्य से आगे ले जाने की समय की मांग है। अव्यावसायिक पत्रिकाओं के योगदान को भी रमेश ने उल्लेखित किया। लघुकथा में सृजनात्मकता लाने और चुटकुलेबाजी से मुक्ति का आह्वान किया। कहानी और लघुकथा में अंतर स्पष्ट करने और इसे संपूर्ण विधा के लिए मार्ग प्रशस्त किया। लघुकथा किसलिए और क्यों, लघुकथा में कितनी तरह की विविधता की जरूरत और इस आंदोलन का एक समय रमेश अगुआ की भूमिका में रहा।

चंडीगढ़ की अनेक मुलाकातों में कथा /लघुकथा और संपादन की बारीकियों पर चलते चलते भी बातचीत होती रहती। सबसे बड़ी चिंता कि इसे मात्र व्यंग्य की पूंछ लगाकर ही नहीं लिखा जा सकता। ऐसे एक सज्जन बालेन्दु शेखर तिवारी सामने आए भी और इसका आधार व्यंग्य ही न केवल माना बल्कि एक पूरा संकलन भी संपादित किया। इसलिए रमेश की चिंता इसी पर केंद्रित हो गयी कि लघुकथा में संवेदना को कैसे प्रमुखता दी जाये। यहां तक आते आते रमेश और मेरी लघुकथाएं विवरण की बजाय संवेदनात्मक होने लगीं। माएं और बच्चे, कहूं कहानी, उसकी रोटी, हालात, शीशा, निजाम, सूअर, नागरिक, वजह, चलोगे आदि लघुकथाओं में संवाद ही प्रमुख हैं। अनेक लघुपत्रिकाओं के विशेषांकों या लघुकथा संग्रहों के पीछे रमेश ही प्रमुख रहा। उसकी लघुकथाएं वैसे तो सभी चर्चित हैं लेकिन सर्वाधिक चर्चित हैं -सूअर, कहूं कहानी, उसकी रोटी, खोया हुआ आदमी और खोज। देखा जाये रमेश की लघुकथाओं में चिंता थी साम्प्रदायिकता की, बदलते समाज की, सभ्यता की और आम आदमी के स्वाभिमान की। इन बिंदुओं पर रमेश की लघुकथाएं आधारित हैं मुख्य रूप से।

एक एक शब्द पर चिंतन और एक एक वाक्य में कसावट और अपने उद्देश्य से भटकने न देना ही रमेश की लेखन कला का कमाल रहा। खोज, माएं और बच्चे, शीशा, बीच बाजार जैसी लघुकथाओं के पहले पहले श्रोता भी हम चंडीगढ़ के दोस्त ही रहे। कभी सेक्टर बाइस के बरामदे में तो कभी साहित्य निर्झर के प्रेस में। इस तरह वे भावुक से क्षण आज ही याद आते हैं, आते रहेंगे। रचना को बार बार संवारना और कभी अगली बार प्रकाशन के लिए भेजते समय शीर्षक भी बदल देना यह बताने के लिए काफी है कि किस प्रकार यह कुशल कारीगर अंतिम समय तक अपनी ही नहीं दूसरों की रचनाओं को देखता व समझता और निखारता रहता था। मेरी एक कहानी है -इसके बावजूद। यह शीर्षक उसी का दिया हुआ है। दोस्तों की रचनाओं के प्रकाशन और उपलब्धियों से रमेश बहुत खुश होता था जैसे उसकी अपनी उपलब्धि हो। कितने शाबासी भरे खत मुझे ही नहीं अन्य मित्रों को लिखता था और अंत में जय जय। सच रमेश तुम कमाल के संगठनकर्ता भी थे। क्या भुलूं, क्या याद करूं ? अब कोई अच्छी रचना के लिए बधाई नहीं देते एक दूसरे को। यह माहौल बनाने की जरूरत है। लघुकथा को अभी भी चुटकुले और बहुत सरल विधा मानने वालों की भीड़ है और अब जरूरत है इसका फर्क बताने वालों की।

खैर, कभी अलविदा न कहना तुम्हारा प्यारा गीत था और तुम रचना संसार है कभी अलविदा नहीं होंगे अगर न ही लघुकथा से… 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 189 ☆ “परसाई के शहर में शरद जोशी…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक माइक्रो व्यंग्य  – ——)

(जन्म: 21 मई 1931 – मृत्यु: 5 सितम्बर 1991)

☆ संस्मरण — “परसाई के शहर में शरद जोशी…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(स्व. शरद जोशी जी के जन्मदिवस पर विशेष) 

वर्षों पूर्व आदरणीय शरद जोशी जी “रचना”  संस्था के आयोजन में परसाई की नगरी जबलपुर में मुख्य अतिथि बनकर आए थे।  हम उन दिनों “रचना” के संयोजक के रूप में सहयोग करते थे। 

उन दिनों “रचना” को साहित्यिक सांस्कृतिक सामाजिक संस्था का मान था । प्रत्येक रंगपंचमी के अवसर पर राष्ट्रीय स्तर के हास्य व्यंग्य के ख्यातिलब्ध हस्ताक्षर आमंत्रित किए जाते थे। आदरणीय शरद जोशी जी के रुकने की व्यवस्था रसल चौक स्थित उत्सव होटल में की गई थी। वे  “व्यंग्य की दशा और दिशा” विषय पर केंद्रित इस कार्यक्रम के वे मुख्य अतिथि थे। व्यंग्य विधा के इस आयोजन के प्रथम सत्र में ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार श्री हरिशंकर परसाई जी की रचनाओं पर आधारित रेखाचित्रों की प्रदर्शनी का उदघाटन करते हुए जोशी जी ने कहा था-“मैं भाग्यवान हूँ कि परसाई के शहर में परसाई की रचनाओं पर आधारित रेखाचित्र प्रदर्शनी के उदघाटन का सुअवसर मिला।”

फिर उन्होंने परसाई की सभी रचनाओं को घूम घूम कर पढ़ा हंसते रहे और हंसाते रहे। ख्यातिलब्ध चित्रकार श्रीअवधेश बाजपेयी की पीठ ठोंकी। खूब तारीफ की। व्यंग्य विधा की बारीकियों पर उभरते लेखकों से लंबी बातचीत की। 

शाम को जब होटल के कमरे में वापस लौटे तो दिल्ली के अखबार के लिए ‘प्रतिदिन‘कालम लिखा, हमें डाक से भेजने के लिए दिया। साहित्यकारों के साथ थोड़ी देर चर्चा की, फिर टीवी देखते देखते सो गए ।

आज 21 मई को उनका जन्मदिन है, वे याद आ गए… अमिट स्मृतियों से निकल कर…    

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ रमेश बतरा : तुम्हारा एक पुराना खत मिला है… ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

(15 मार्च – स्व रमेश बतरा जी की पुण्यतिथि पर विशेष)

☆ संस्मरण ☆ रमेश बतरा : तुम्हारा एक पुराना खत मिला है… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

बीते बरस पर बरस पर याद और साथ बरकरार है । तुम्हारा एक पुराना खत मिला है संडे मेल के दिनों का लो पढ़ लो, तुम भी । जहां भी हो…  -कमलेश भारतीय)

@दिलशाद गार्डन से

@प्रिय कमलेश !

-तुम्हारा संग्रह ‘इस बार’ यथा समय प्राप्त हो गया था , लेकिन इधर लगातार अस्वस्थ रहने के कारण तुरंत पावती नहीं दे पाया । वैसे अभी भी छुट्टी पर हूं और डाॅक्टर की इजाजत मिली तो अगले सप्ताह से दफ्तर जाऊंगा ।

पता चला इस बीच तुम दिल्ली आये और मिले नहीं । इसकी शिकायत रहेगी ।

खैर ! ‘इस बार’ के लिये हार्दिक बधाई । इसे तुमने मेरे ही नाम करके एक तरह से मेरा मुंह ही बंद कर दिया है , वहीं यह तुम्हारा अपनापन है , अन्यथा मैंने तुम्हारे लिये ऐसा कुछ नहीं किया ! मुझे जो फर्ज लगा वही किया । यह वस्तुत: तुम्हारा अपना श्रम है और लगन जो ‘प्रयास’ से शुरू हुई , वही रंग ले रही है !

डाॅ महाराज कृष्ण जैन ने पुस्तक के बारे में बड़ी सूक्ष्मता और विद्वतापूर्ण तरीके से लिखा है । यह अच्छी तकनीक है(इस संदर्भ में ) का उदाहरण भी है । मैं यही कहूंगा कि अभी तुम्हें विकास करना है और ऐसा संग्रह देना है जो लघुकथा के आदर्श के रूप में देखा जा सके , क्योंकि इस संग्रह में भी ऐसी कथाएं हैं जो गैरजरूरी हैं -जरूरत के हिसाब से भी और प्रस्तुति के हिसाब से भी और प्रस्तुति तथा घटना की घटनात्मकता और तथ्य के यथार्थ की गहराई का कई बार यह गहराई या तो जलदबाज अंत के कारण उथला जाती है और कभी सटीक शब्दों के अभाव में तो कभी प्रतिक्रिया पाकर ! मुझे खुशी यह है कि ऐसा बहुत कम और पिछली बार से तो बहुत ही कम हुआ है !
मेरी तरफ से पुनः बधाई और शुभकामनाएं ! अवस्थी (जीतेंद्र अवस्थी ) और विजय ( संपादक विजय सहगल) को मेरा अभिवादन दें । सपरिवार स्वस्थ व आनंद होंगे । चंडीगढ़ में रम रहे होंगे तुम !

खुश ने घर बदल लिया है-1427/ 34 सी ,,,कभी कभी उसके पास चक्कर लगा लिया करो ! प्रचंड का पता मालूम हुआ ? उसके बारे में सूचना दो । सेक्टर सत्रह वाले पते से तो कोई जवाब नहीं आया ।

-तुम्हारा

रमेश बतरा ।

#रमेश बतरा अब कौन ऐसे बेबाक मेरी रचनाओं पर बात करेगा ? कितने मित्रों को याद कर लिया करते थे एकसाथ । इस पर कोई तारीख तो नहीं लेकिन यह सन् 1992 का है । ‘इस बार’ लघुकथा संग्रह इसी वर्ष आया था शुभतारिका प्रकाशन, अम्बाला छावनी से । डाॅ महाराज कृष्ण जैन से पहली बार रमेश बतरा ही मुझे मिलवाने ले गये थे । मैं भी उन दिनों दैनिक ट्रिब्यून में उपसंपादक होकर चंडीगढ़ आ चुका था । कथा कहानी साप्ताहिक पृष्ठ का संपादन मिला था मुझे जो सात वर्ष किया ।

#रमेश ! मैं आज भी खुश के घर चक्कर लगाने जाता हूं तुम कब आओगे ?

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ ‘मास्कमैन ऑफ इंडिया’ ☆ तत्सम्यक मनु ☆

☆ संस्मरण ☆ ‘मास्कमैन ऑफ इंडिया’ ☆  तत्सम्यक मनु ☆

फरवरी 2020 के किसी तारीख की बात है। मैं बिहार की राजधानी पटना से परीक्षा देकर वापस घर को लौट रहा था, जिस ट्रेन के लिए सीट आरक्षित था, कैपिटल एक्सप्रेस थी। रात्रि के 11 बजे ट्रेन आई और मैं अपने गंतव्य को जाने के लिए पूर्वयोजित सीटपर बैठ गया, जो कि लोवर बर्थ थी ! उस तारीख में भी देश में कोरोनाअपनी मायाजाल फैलाते हुए बढ़ी जा रही थी, पटना में भी वायरस आ चुके थे, सिर्फ़ प्रमाणित होना बाकी था, किन्तु मैंने दूरअंदेशी को देखते हुए मास्कलगाना शुरू कर दिया था। जिस कंपार्टमेंट में मैं बैठा था, मैंने देखा कि उस कंपार्टमेंट में ही नहीं, वरन पूरी बोगी में किसी यात्री ने मास्क पहने हुए नहीं थे। मैंने सामने की सीट पर बैठे सहयात्री भाई साहब से पूछ ही बैठा- क्या सर कोरोना चली गयी क्या ? आपने मास्क नहीं लगाया है !

रात्रि का समय होने के कारण हो या अन्य कारणवश प्रत्युत्तर में उन्होंने मुझसे कहा- अरे भई, यह कोरोना-वोरोना कुछ नहीं है ! यह सरकार और डब्ल्यूएचओ का अपनी-अपनी कमजोरी छिपाने का प्रपंचमात्र है और तुम्हें मेरे मास्क न पहनने से इतनी ही असहजता है, तो मुझे एक मास्क दे दो !

मेरे पास उस समय स्वयं पहने मास्क के अतिरिक्त, अतिरिक्त मास्क नहीं था, इसलिए मैंने बात आगे नहीं बढ़ाया और क्षमाभावसे शुभ रात्रि कहकर अपनी सीट पर चादर तान सो गया ! अहले सुबह नींद तब टूटी, जब किन्नरबंधुओं द्वारा जबरन रुपये माँगे जाने लगे थे । मैंने उन्हें मना करते हुए आगे बढ़ जाने को कहा, लेकिन उसी समय पेपरसोप बेचने वाले आए और उनसे मैंने सोप खरीदा, तो देखा कि वे उसके साथ-साथ फेसमास्क भी बेच रहे थे। मैंने उनसे बिना हुज्जत किए एकदाम 55 रुपये में एक मास्क खरीदा, ताकि सामने के सीटवाले सहयात्री भाई साहब को दे सकूँ, क्योंकि उनके द्वारा रात में मुझसे माँगे गए मास्कको गिफ़्ट के तौर पर प्रदान कर सकूँ ! सचमुच में, उनकी बातें मुझे इंस्पायर कर चुका था और मेरे दिल को स्पर्श कर चुकी थी ! 

अब सुबह के 5 बज चुके थे, किन्तु सामनेवाले यात्री मुझे दिख नहीं रहे थे। मुझे लगा वे नित्यकर्म में गए होंगे, पर काफी देर बाद भी वे जब अपनी सीट पर नहीं आए, तो मैंने अपर बर्थवाले सहयात्री से पूछा कि इस भाई साहब को नहीं देख रहा हूँ, तो उसने कहा कि वे तो 2 घंटे पहले ही उतर गए हैं !

मैंने वह मास्क उसी भाई साहब के लिए लिया था, लेकिन अपर बर्थवाले सहयात्री को मास्क देकर कहा- भैया, मास्क पहनिए। कोरोना का प्रकोप बढ़ने लगा है ! उन्होंने मास्क लेते हुए धन्यवादकहा, किन्तु अन्य यात्री मुझे देखने लगे थे कि मैं मास्क उन्हें भी दूँगा, जबकि मैंने यह मास्क उन सभी के समक्ष ही 55 रुपये खर्च कर खरीदा था और बहरहाल उन सभी यात्रियों के लिए यह खरीद पाना संभव नहीं था, किन्तु मन में यह बात ठान लिया कि अपनी संचित राशि से और खुद सीकर जरूरतमंदों के बीच मुफ़्त मास्क बाँटेंगे !

जो भी हो, नियत समय से कुछेक घंटे की देरी पर ट्रेन गंतव्य जंक्शन पर लगभग 20 मिनट के लिए रुकी रही। उस दिन घर आने तक मेरे दिमाग में यह बात जोर-जोर से चलने लगी थी कि अगर कोरोना का प्रकोप बढ़ गया, तब क्या होगा, क्योंकि लोगों के बीच खुद के द्वारा मास्क खरीदने के प्रति इच्छा तो है ही नहीं, न ही मास्क पहनने के प्रति जागरूकता है?

घर पर मैंने ट्रेन वाली घटना व मेरे विचारों को यानी मुफ़्त में मास्क वितरण करने के विचारों को परिजनों के साथ शेयर किया। मास्क खरीदने में रुपये बहुत लग जाते, किन्तु खुद और परिजनों की इच्छाशक्ति ने मन की दृढ़ता को संबल प्रदान किया, साथ ही घर पर सिलाई मशीन ऐसे समय में बड़े काम आए और हम सबने मिलकर पहले सैकड़ों, फिर हजारों और फिर लाखों मास्क सी डाले और यह कार्य अनवरत जारी है। इसके साथ ही शनै: -शनै: लाखों की संख्या में मास्क खरीदे भी गए। शुरुआत के कुछ ही दिनों में हम पारिवारिक सदस्यों ने भौतिक दूरियों का पालन करते हुए कई हज़ार मास्क निःशुल्क वितरण कर दिए !

पहले जनता कर्फ्यू, फिर पार्ट-पार्ट कर लॉकडाउन भी लगने लगी, लेकिन मार्केट आने-जाने वक़्त आस-पास के गांव के हाट में, तो कहीं भीड़-भाड़ वाले इलाकों में, तो ठेलेवालों के पास, तो कभी झालमुढ़ीवालों के पास, कभी किरानों की दुकानों में, कभी कुरियर वाले को, तो कभी विद्यालय अथवा हॉस्पिटल के क्वाराइनटाइन सेंटरों में मुफ़्त में मास्क वितरित करते रहे !

साल 2020 के अंत में बिहार विधानसभा का चुनावी माहौल होने के कारण लोगों को ज्यों-ज्यों यह भनक लगने लगा कि अब तो कोरोना की लहर घटती जा रही है, त्यों-त्यों लोगों ने मास्क पहनना छोड़ने लगे, इसके बावजूद मेरे द्वारा इस हेतु जनजागरूकता अभियान चलते रहा और हर रोज कुछ घंटों की सेवा लिए मुफ़्त मास्क वितरित करते रहा। अब मैं मेडिकेटेड मास्कों को खरीदकर भी मुफ़्त वितरित करने लगा हूँ। मेडिकेटेड मास्कों की खरीद पर जो राशि लगती है, उस राशि को मेरे हिंदी उपन्यास वेंटिलेटर इश्क़की रॉयल्टी से पूरी हो जाती है।

अब मैं खुद के शहर और खुद के राज्य से इतर भी मुसाफिर की भाँति जहाँ भी जाता, वहीं निःशुल्क मास्क वितरित करने लग जाता। पश्चिम बंगाल, झारखंड और बिहार के कई जिलों, यथा- कटिहार, पूर्णिया, भागलपुर, समस्तीपुर, पटना, सहरसा इत्यादि में मैंने जमकर निःशुल्क मास्क वितरण किये। ….परन्तु कहते हैं न अच्छे कार्य करनेवालों की अगर प्रशंसा होगी, तो आलोचना भी ! इसे आलोचना नहीं कहिए, अपितु निंदा कहिये ! लोगों ने मेरे कार्यों को न केवल पागलपन कहा। कई लोगों को जब मास्क देने जाता और कोरोनासे बचने के लिए बताते फिरता, तो वे सब कहते कि कोरोना तो भाग गया है, फिर तुम क्यों पागलोंवाला काम कर रहा है, समय और रुपयों की बर्बादी कर रहे हो ! कई लोग सामने में मास्क पहनने के लिए लेते और बगल किसी दुकान में बेच देते, कई लोग तो मुफ़्त में मिलने के कारण कई-कई मास्क ले लेते, तो कोई व्यक्ति मुझसे मास्क लेकर मेरे सामने ही फेंक देते ! कई लोग तो अज़ीब ही फरमाइश कर बैठते कि उन्हें फलाँ रंग का मास्क अच्छा नहीं लगता है, इसलिए फलाँ रंग का मास्क चाहिए ! कई महिलाएं कहतीं कि मास्क लगाने से मेकअप छिप जाएगी ! कई लोग यह भी कहते कि 10 टकिया मास्कबाँटकर दानवीर कर्ण बनते फिरते हो ! कभी-कभी मैं उन्हें जवाब दे देता कि दस टकिया मास्कहै तो क्या ? पहनो तो सही ! पहनेंगे नहीं यानी पर उपदेश कुशल बहुतेरे ! मैं तो जागरूकता के लिए यह अभियान चला रहा हूँ, ताकि लोग बीमारियों से बच सके, क्योंकि मेरे द्वारा प्रदत्त मास्कनियमित साफ-सुथरे रखने पर सप्ताह- पन्द्रह दिन आसानी से चल सकते हैं !

वहीं एक दिन जब मार्केट में मैं मुफ़्त मास्कवितरण को गया था, तो एक फल विक्रेता ने मेरे कार्यों को देखकर मुझे मास्कमैननाम दे दिया और उस दिन से मेरे दोस्त, परिजन, रिश्तेदारों और समाज के लोगों ने मुझे इसी नाम से पुकारने लगे यानी मास्कमैन ! अब तो 25 माह हो गए…. मैं अब भी हर दिन मुफ़्त मास्क वितरित करता हूँ । गणतंत्र दिवस 2021 के दिन मैंने मुफ़्त में 51 हज़ार से अधिक मास्क मात्र 8 घंटे में वितरित किया है, 75 वें स्वतंत्रता दिवस के शुभअवसर पर 75 हज़ार मास्क, तो वहीं रक्षाबंधन और शिक्षक दिवस के अवसर पर क्रमशः 15 हज़ार और 12 हज़ार मास्क निःशुल्क वितरित किया, जिसके कारण मेरा नाम लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड्समें दर्ज होने हेतु संपादक के मेल प्राप्त हुए हैं। वहीं बिहार बुक ऑफ रिकार्ड्सऔर रिकॉर्ड्स होल्डर रिपब्लिक यूकेमें मेरे कृत्य और कीर्तिमान सहित यह उपलब्धि मास्कमैन ऑफ इंडियाके रूप दर्ज हो चुका है !

मैं अपने परिवार के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ, जो मेरे सद्कार्य में साझीदार भी बने ! मैं आभारी रहूँगा उस रेलयात्री का भी, जिसकी बातों के कारण आज मैं 22 लाख से अधिक मास्कनिःशुल्क वितरित कर चुका हूँ। मैं प्रेमश: आभारी रहूँगा, उस भिक्षुक का भी, जो मेरे पास भीख के एवज में रुपये नहीं, अपितु मास्कमाँगे ! फिर मैंने अपना संकल्प और भी दृढ़ किया कि जबतक कोरोनाजाएगी नहीं, तबतक मैं मास्कबाँटता रहूँगा !

◆◆◆

साक्ष्य:-

http://www.recordholdersrepublic.co.uk/world-record-holders/1372/t-manu.aspx

Most Distributed Free Mask By ‘MASKMAN OF INDIA’ In Corona Pandemic ~ BIHAR BOOK OF RECORDS

तत्सम्यक मनु (आत्मवृंतकार)

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ वर्तिका… निरंतरता की यात्रा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।
आज प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर की साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था वर्तिका के 35वें वार्षिकोत्सव पर आपके संस्मरण वर्तिका… निरंतरता की यात्रा।)

ई-अभिव्यक्ति द्वारा 14 नवंबर 2018 को डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी द्वारा “वर्तिका” पर आधारित आलेख आप निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

संस्थाएं – वर्तिका (संस्कारधानी जबलपुर की साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था) – डॉ विजय तिवारी “किसलय”

☆ संस्मरण ☆ वर्तिका… निरंतरता की यात्रा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(यह एक संयोग है की 1981-82 में मैंने वाहन निर्माणी प्रबंधन के सहयोग तथा स्व. साज जबलपुरी जी एवं मित्रों के साथ साहित्य परिषद, वाहन निर्माणी, जबलपुर की नींव रखी थी। 1983 के अंत में जब स्व साज भाई के मन में वर्तिका की नींव रखने के विचार प्रस्फुटित हो रहे थे, उस दौरान मैंने भारतीय स्टेट बैंक ज्वाइन कर लिया। नौकरी के सिलसिले में जबलपुर के साथ साज भाई का साथ भी छूट गया। 34 वर्षों बाद जब डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी और वर्तिका के माध्यम से  पुनः मिलने का वक्त मिला तब तक काफी देर हो चुकी थी। स्व साज भाई, श्री एस के वर्मा, श्री सुशील श्रीवास्तव, श्री एच एस खरे, श्री इन्द्र बहादुर श्रीवास्तव और मित्रों के साथ ‘प्रेरणा’ पत्रिका के प्रकाशन एवं वाहन निर्माणी इस्टेट सामाजिक सभागृह में आयोजित अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों के आयोजन के लिए दिन-रात की भाग-दौड़ के पल आज मुझे स्वप्न से लगते हैं और वर्तिका की वर्तमान जानकारी साझा करना मेरा व्यक्तिगत दायित्व लगता है।) 

वर्तिका… निरंतरता की यात्रा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र

१९९४, मैं मण्डला में पदस्थ था. अभिरुचि के अनुरूप लेखन, प्रकाशन के कार्य चल रहे थे. एक दिन अचानक फोन की घंटी बजती है, दूसरी ओर से आवाज आती है ” मैं साज जबलपुरी, वर्तिका, जबलपुर से बोल रहा हूं. आपका कविता संग्रह आक्रोश पढ़ा. हम वर्तिका के वार्षिकोत्सव में आपको सम्मानित करना चाहते हैं. क्या आप जबलपुर आ सकेंगे ?  मैंने सहर्ष स्वीकृति दे दी. रचनाकार को साहित्य जगत में उसकी रचनाओ के जरिये मान्यता मिले इससे बड़ा भला क्या सम्मान हो सकता है ! नियत तिथि, समय पर मैं रानी दुर्गावती संग्रहालय जबलपुर  के सभागार में पहुंचा. द्वार पर ही गुलाब के पुष्प से हमारा स्वागत किया गया, स्मरण नही पर संभवतः झौये से निकाल कर हर प्रवेश करने वाले को पुष्प देते हुये ये शायद विजय नेमा अनुज, और डा विजय तिवारी, सुशील श्रीवास्तव ही थे. इन सबसे यह मेरा प्रथम परिचय था, जो संबंध आज मेरी पूंजी बन चुका है.

इससे पहले भी मैने भोपाल, दिल्ली,  इलाहाबाद में अनेक बड़े साहित्यिक आयोजनो में कई भागीदारियां की थी पर  किसी साहित्यिक आयोजन में और वह भी गैर सरकारी, स्वागत की यह शैली सचमुच अद्भुत थी, जो मेरे लिये चिर स्मरणीय बन गई.

बाद में  मेरे जबलपुर स्थानातरण पर वर्तिका के अध्यक्ष और फिर  प्रांतीय अध्यक्ष के रूप में मुझे कार्य करने के अवसर मिले.

जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि ऐसे ही छोटे छोटे प्रयोग और आत्मीयता, से  सबको अवसर, सबको सम्मान, सबको जोड़ना वर्तिका की विशिष्टता है.

वर्तिका  पंजीकृत सक्रिय साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संस्था है.संस्था की निरंतर आयोजन क्षमता उसकी सबसे बड़ी विशेषता है. संस्था ने जबलपुर में विगत अनेक वर्षो से प्रति माह अंतिम रविवार को मासिक काव्य गोष्ठी आयोजित कर एक रचनात्मक वातावरण बनाया है. बिना विवाद के वर्षो से ऐसे आयोजन निर्विघ्न होते रहना अद्भुत रिकार्ड  है.  जिन साहित्यकारो का जन्म दिवस जिस माह में होता है उनकी रचनाओ पर आधारित काव्य पटल का विमोचन शहर की साहित्यिक गतिविधियो के केंद्र ड्रीमलैंड फन पार्क में किया जाता था, जिसे ड्रीम लैंड फन पार्क के विस्थापन के बाद प्रतिष्ठित शहीद स्मारक में लगाया जाने लगा है. जहां यह काव्य पटल पूरे माह आम जनता के लिये पठन और मनन हेतु प्रदर्शित रहता है.आज जब पाठको की कमी होती जा रही है, ऐसे समय में नई पीढ़ी को साहित्य से जोड़ने के लिये बड़े बैनर में कविता प्रकाशित कर उसे सार्वजनिक स्थल पर प्रदर्शित करने की वर्तिका की पहल ने साहित्य प्रेमियों का ध्यान खींचा है. काव्य गोष्ठी का आयोजन डा बी एन श्रीवास्तव चेरिटेबल ट्रस्ट मदन महल, ड्रीमलैण्ड फन पार्क के नये स्थान देवताल के सामने फिर हरिशंकर परसाई भवन  भातखण्डे विद्यालय, जानकी रमण महाविद्यालय, आनलाइन आदि स्थलों पर निरंतर रूप से जारी है. बीच बीच में किसी रचनाकार के निवास पर भी आयोजन होते रहे हैं, जिनमें विजय नेमा अनुज, डा विजय तिवारी, स्व सुनिता मिश्रा  के घर पर भी आयोजन संपन्न हुये हैं.

वर्तिका ने समय समय पर युवा रचनाकारो के मार्गदर्शन हेतु गजल कैसे लिखें ? दोहा कैसे लिखें ?, जैसे विषयों पर विद्वानो की कार्यशालायें आयोजित कर एक अलग क्रियाशील पहचान बनाई है.

प्रत्येक वर्ष संस्था वार्षिकोत्सव भी मनाती है. जिसमें संस्था  देश के विभिन्न अंचलो से अनेक रचना धर्मियो को आमंत्रित कर उनका सम्मान करती है.  वर्तिका से सम्मानित विद्वानो में स्व चंद्रसेन विराट, साहित्य अकादमी के निदेशक डा त्रिभुवन नाथ शुक्ल भोपाल,प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव,”विदग्ध”,आचार्य भगवत दुबे, श्री संजीव सलिल,दिल्ली के श्री जाली अंकल, हैदराबाद के स्व विजय सत्पट्टी, श्री अनवर इस्लाम, श्री कुंवर प्रेमिल डेली हंट के स्व आभास चौबे आदि कई विद्वान शामिल हैं.

इसके अतिरिक्त समाज के विभिन्न क्षेत्रो जैसे शिक्षा, चिकित्सा, समाज सेवा, आदि में महत्वपूर्ण योगदान करने वाली विभूतियो को भी समाज के ही लोगो से सहयोग लेकर अलंकृत करने की  परम्परा है. जिससे ऐसे लोग दूसरो के लिये उदाहरण बनते हैं और उन्हें  अपने कार्यो को बढ़ाने के लिये प्रोत्साहन मिलता है. शिक्षा  के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान करने वालो को शिक्षाविद् श्रीमती दयावती श्रीवास्तव स्मृति  वर्तिका शिक्षा अलंकरण, चिकित्सा के क्षेत्र में डा बी एन श्रीवास्तव स्मृति अलंकरण अन्य सामाजिक गतिविधियों हेतु भी संस्था उल्लेखनीय कार्यो के लिए सम्मानित करती आ रही है.जो सुधीजन अपने स्वजनो की स्मृति में ये अवार्ड प्रदान करना चाहते हैं  उनसे वर्तिका के पदाधिकारी  संपर्क कर सहयोग राशि लेकर सम्मान आयोजित करते  हैं.

इस हेतु साहित्य प्रेमियो से प्रकाशित किताबो या निरंतर साहित्य सेवा के अन्य साक्ष्य सहित नामांकन आमंत्रित किये जाते  हैं. नामांकन हेतु कोई शुल्क न होना वर्तिका की खासियत है. नामांकन स्वयं या कोई भी साहित्य प्रेमी कर सकता है. नामांकन सादे कागज पर स्वयं का तथा नामांकित व्यक्ति या संस्था का पूर्ण विवरण लिखते हुये संस्था के पदाधिकारियो के पास भेजने होते हैं.  एक और विशेषता है कि वर्तिका साहित्य व समाज सेवा के क्षेत्र में सक्रिय संस्थाओ को भी पुरस्कृत करती  है. गुंजन, गरीब नवाज कमेटी, प्रसंग, जागरण, एकता और शक्ति मंच आदि को वर्तिका सम्मान  प्राप्त हो चुके हैं.

वर्तिका की एक उच्चस्तरीय चयन समिति  प्राप्त नामांकनो तथा स्वप्रेरणा से  व्यक्तियो व संस्थाओ के योगदान के आधार पर अवार्ड का निर्णय करती है. निर्णायको में हमारे संरक्षक,पदाधिकारी व  वरिष्ठ  साहित्यकार प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध आदि रह चुके हैं.

इस अवसर पर सामूहिक काव्य संकलन, वार्षिक स्मारिका का प्रकाशन भी होता है. श्री विजय नेमा अनुज का सहयोग इस प्रकाशन में  अदभुत समर्पण और लगन का रहा है. वार्षिकोत्सव में इसका विमोचन अतिथियो के द्वारा किया जाता है. वर्तिका को कोई उल्लेखनीय वित्तीय सहयोग शासन से कभी नही मिला, हमारी वित्त पोषण व्यवस्था परस्पर आंतरिक सहयोग पर आधारित है, संरक्षक एक मुश्त राशि सहयोग स्वरूप देते हैं,जिसे बैंक में वर्तिका के खाते में जमा कर दिया जाता है, समय समय पर उसका उपयोग ही समिति की अनुशंसा पर किया जाता है. सदस्यता शुल्क, मासिक गोष्ठी में काव्य पटल शुल्क, तथा विशेष आयोजनो के लिये सदस्यो से स्वेच्छा से दी गई राशि से ही संस्था चलाई जा रही है.

संस्था के आयोजनो का साहित्यिक स्तर अति विशिष्ट रहा है. हमसे जुड़े अनेक रचनाकार राष्ट्रीय व वैश्विक क्षितिज पर महत्वपूर्ण साहित्यिक प्रतिष्ठा अर्जित करते दिखते हैं. हमारी एक विशेषता यह भी है कि जो हमसे एक बार जुड़ जाता है, हम उससे निरंतर जुड़े रहते हैं, स्व अंशलाल पंद्रे आजीवन हमसे जुड़े रहे,जबलपुर में कमिश्नर रहे श्री मदन मोहन उपाध्याय, श्री वामनकर  ढ़ेरो ऐसे नाम हैं जो वर्तिका से लंबे समय से जुड़े रहे हैं. न केवल साहित्यिक वरन पारिवारिक उत्सवो सहित जीवन के हर सुख दुख के क्षेत्र मे  वर्तिका के सदस्य परस्पर प्रेम भाव से जुड़े दिखते हैं यही संबंध वर्तिका की वास्तविक पूंजी है.

मैं वर्तिका से जुड़े रहने में गर्व महसूस करता हूं. व वर्तिका की उत्तरोत्तर प्रगति की कामना करता हूं. इस वर्ष मैं संस्था के आयोजन में यहां न्यूजर्सी अमेरिका से अपने शब्दों और पुरानी यादों के इस लेख से ही अपनी सहभागिता कर पा रहा हूं. सभी सम्मानितो को बधाई और आयोजन की सफलता की मंगलकामनाएं

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

वर्तमान में न्यूजर्सी अमेरिका

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पुनर्पाठ- वह निर्णय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना🌻

आज का साधना मंत्र  – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – पुनर्पाठ- वह निर्णय ??

स्मृतियों की स्क्रीन पर अबाध धाराप्रवाह चलते रहनेवाला धारावाहिक होता है बचपन। आँखों की हार्ड डिस्क में स्टोर होता है अतीत और विशेषता यह कि डिस्क हमारी कमांड की गुलाम नहीं होती। आज कौनसा महा एपिसोड चलेगा, इसका निर्णय आँख का मीत मन करता है।

एकसाथ कुछ एपिसोड सामने आ रहे हैं। दो तो ट्रेलर हैं, एक मुख्य एपिसोड है। पुणे में चौथी कक्षा में पढ़ने का चित्र घूम रहा है। कमांड हॉस्पिटल के रेजिमेंटल स्कूल की पिद्दी-सी कैंटीन में मिलनेवाली टॉफी की गंध आज भी नथुनों में बसी है। बहुत हद तक पारले की आज की ‘किस्मी’ टॉफी जैसी। सप्ताह भर के लड़ाई-झगड़े निपटाने के लिए शनिवार का दिन मुकर्रर था। शनिवार को स्कूल जल्दी छूटता। हम सब उस दिन हंटर (उन दिनों हम छात्रों में बेल्ट के लिए यही शब्द प्रचलित था) लगाकर जाते। स्कूल से कुछ दूर पर पेड़ों की छांव में वह जगह भी तय थी जहाँ हीरो और विलेन में भिड़ंत होनी होती। कभी-कभी टीम बनाकर भी भव्य (!) युद्ध होता। विजेता टीम या नायक की वीरता की चर्चा दबी ज़ुबान में सप्ताह भर कक्षा के लड़कों में होती। हाँ, आपसी समझदारी ऐसी कि सारी मार-कूट शनिवार तक ही सीमित रहती और सोमवार से शुक्रवार फिर भाईचारा!

दूसरा ट्रेलर लखनऊ का है। पिता जी का पोस्टिंग आर्मी मेडिकल कोर्प्स के सेंटर, लखनऊ आ गया था। हम तो वहाँ पहुँच गए पर घर का लगेज संभवत: चार महीने बाद पहुँचा। मालगाड़ी कहाँ पड़ी रही, राम जाने! माँ के इष्ट हनुमान जी हैं (हनुमान जी को पुरुषों तक सीमित रखनेवाले ध्यान दें)। हमें भी उन्होंने हनुमान चालीसा और संकटमोचन रटा दिये थे। मैं और बड़े भाई मंगलवार और शनिवार को पाठ करते। उसी दौरान माँ ने बड़े भाई को ‘हरहुँ नाथ मम संकट भारी’ की जगह ‘करहुँ नाथ मम संकट भारी’ की प्रार्थना करते सुना। माँ को दृढ़ विश्वास हो गया कि लगेज नहीं आने और तत्सम्बंधी अन्य कठिनाइयों का मूल इस निष्पाप और सच्चे मन से कहे गये ‘ करहुँ नाथ..’ में ही छिपा है!

अब एपिसोड की बात! सैनिकों के बच्चों की समस्या कहिये या अवसर कि हर तीन साल बाद नई जगह, नया विद्यालय, नये मित्र। किसी के अच्छा स्कूल बताने पर ए.एम.सी. सेंटर से लगभग दो किलोमीटर दूर तेलीबाग में स्थित रामभरोसे हाईस्कूल में पिता जी ने प्रवेश दिलाया। लगभग साढ़े ग्यारह बजे प्रवेश हुआ। स्कूल शायद डेढ़ बजे छूटता था। पिता जी डेढ़ बजे लेने आने की कहकर चले गए। कपड़े के थैले में कॉपी और पेन लिए मैं अपनी कक्षा में दाखिल हुआ। कॉपी के पहले पृष्ठ पर मैंने परम्परा के अनुसार श्री गणेशाय नमः लिखा था। विशेष याद ये कि बचपन में भी मैंने पेंसिल से कभी नहीं लिखा। जाने क्या था कि लिखकर मिटाना कभी रास नहीं आया। संभवतः शिक्षित पिता और दीक्षित माँ का पाठ और किसी जन्म का संस्कार था कि ‘अक्षर, अक्षय है, अक्षर का क्षरण नहीं होता’ को मैंने लिखे को नहीं मिटाने के भाव में ग्रहण कर लिया था।

कुछ समय बाद शिक्षक आए। सुलेख लिखने के लिए कहकर चले गए। साथ के छात्र होल्डर से लिख रहे थे। मैंने जीवन में पहली बार होल्डर देखा था। शायद अक्षर सुंदर करने के लिए उसका चलन था। मैंने पेन से सुलेखन किया। लगभग एक बजे शिक्षक महोदय लौटे। हाथ में एक गोल रूलर या एक-डेढ़ फीट की बेंत भी कह सकते हैं, लिए कुर्सी पर विराजे। छात्र जाते, अपनी कॉपी दिखाते। अक्षर सुंदर नहीं होने पर हाथ पर बेंत पड़ता और ‘सी-सी’ करते लौटते। मेरा नम्बर आया। कॉपी देखकर बोले,‘ जे रामभरोसे स्कूल है। इहाँ पेन नाहीं होल्डर चलता है। पेन से काहे लिखे? हाथ आगे लाओ।’ मैंने स्पष्ट किया कि डेढ़ घंटे पहले ही दाखिला हुआ है, जानकारी नहीं थी। अब पता चल गया है तो एकाध दिन में होल्डर ले आऊँगा।…‘बचवा बहाना नहीं चलता। एक दिन पहिले एडमिसन हुआ हो या एक घंटे पहिले, बेंत तो खाना पड़ेगा।’ मैंने बेंत खाने से स्पष्ट इंकार कर दिया। उन्होंने मारने की कोशिश की तो मैंने हाथ के साथ पैर भी पीछे खींच लिए। कपड़े का बैग उठाया और सीधे कक्षा से बाहर!..‘कहाँ जा रहे हो?’ पर मैं अनसुनी कर निकल चुका था। जिन्होंने एडमिशन दिया था, संभवतः हेडमास्टर थे, बाहर अहाते में खड़े थे। अहाते में छोटा-सा गोल तालाब-बना हुआ था, जिसमें कमल के गुलाबी रंग के फूल लगे थे। प्रवेश लेते समय जो परिसर रम्य लगा था, अब स्वाभिमान पर लगी चोट के कारण नेत्रों में चुभ रहा था। हेडमास्टर अपने में ही मग्न थे, कुछ बोले नहीं। शिक्षक महोदय ने भी अब तक कक्षा से बाहर आने की जहमत नहीं उठाई थी। हो सकता है कि वे निकले भी हों पर हेडमास्टर कुछ पूछते या शिक्षक महोदय कार्यवाही करते, लम्बे डग भरते हुए मैं स्कूल की परिधि से बाहर हो चुका था।

एक और संकट मुँह बाए खड़ा था। स्कूल से घर का रास्ता पता नहीं था। पिता जी के साथ दोपहिया पर आते समय थोड़ा अंदाज़ा भर आया था। मैंने उसी अंदाज़े के अनुसार कदम बढ़ा दिये। अनजान शहर, अनजान रास्ता पर अनुचित को स्वीकार नहीं करने की आनंदानुभूति भी रही होगी। अपरिचित डगर पर लगभग एक किलोमीटर चलने पर ए.एम.सी. सेंटर की कम्पाउंड वॉल दिखने लगी। जान में जान आई। चलते-चलते सेंटर के फाटक पर पहुँचा। अंदर प्रवेश किया। शायद डेढ़ बजने वाले थे। पिता जी आते दिखे। मुझे घर के पास आ पहुँचा देखकर आश्चर्यचकित हो गए। पूछने पर मैंने निर्णायक स्वर में कहा,‘ मैंने ये स्कूल छोड़ दिया।’

बाद में घर पर सारा वाकया बताया। आखिर डी.एन.ए तो पिता जी का ही था। सुनते ही बोले, ‘सही किया बेटा। इस स्कूल में जाना ही नहीं है।’ बाद में सदर बाज़ार स्थित सुभाष मेमोरियल स्कूल में पाँचवी पढ़ी। छठी-सातवीं मिशन स्कूल में।

आज सोचता हूँ कि वह स्कूल संभवतः अच्छा ही रहा होगा। शिक्षक महोदय कुछ गर्म-मिज़ाज होंगे। हो सकता है कि बाल मनोविज्ञान के बजाय वे अनुशासन के नाम पर बेंत में यकीन रखते हों। जो भी हो, पिता जी के पोस्टिंग के साथ स्कूल बदलने की परंपरा में किसी ’फर्स्ट डे-फर्स्ट शो’ की तरह पहले ही दिन डेढ़ घंटे में ही स्कूल बदलने का यह निर्णय अब भी सदा याद आता है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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