हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ डाॅ इंद्रनाथ मदान – पान, मदान और गोदान ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

☆ संस्मरण ☆ डाॅ इंद्रनाथ मदान – पान, मदान और गोदान ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

पंजाब विश्विद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे डाॅ इंद्रनाथ मदान को इसी टैग लाइन के साथ याद किया जाता है -पान , मदान और गोदान । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और डाॅ इंद्रनाथ मदान ने पंजाब विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग को जो ऊंचाई दी उसके बल पर देश भर में विभाग का डंका बजता आ रहा है । डाॅ मदान के साथ बहुत सारी मुलाकातें और यादें हैं । व्यंग्य का लहजा आम बातचीत में भी रहता था जैसा उनके व्यंग्य लेखों में । मैं बहुत छोटे से शहर नवांशहर से चंडीगढ़ आता था । पहले पहल फूलचंद मानव के पास , फिर रमेश बतरा और बाद में डाॅ वीरेंद्र मेंहंदीरत्ता के पास । वैसे उन दिनों डाॅ इंदु बाली, राकेश वत्स से भी चंडीगढ़ में ही मुलाकातें होती रहीं । अनेक समारोहों में मिलते रहे । रमेश बतरा तो शामलाल मेंहदीरत्ता प्रचंड की पत्रिका साहित्य निर्झर के संपादन के लिए चर्चित हो रहा था जिसका लघुकथा विशेषांक खूब रहा । डाॅ अतुलवीर अरोड़ा डाॅ मदान के प्रतिभाशाली शिष्यों में से एक थे । 

संभवतः पान, मदान और गोदान की यह टैग लाइन फूलचंद मानव के मुंह से ही शुरू में सुनी । वे ही पहली बार मुझे डाॅ मदान से मिलाने ले गये थे । डाॅ इंद्रनाथ मदान ने मुंशी प्रेमचंद और गोदान पर लिखा । एक मुलाकात में पूछा था मैंने कि क्या आप मुंशी प्रेमचंद से कभी मिले थे ? तब उन्होंने बताया था कि मिला था लेकिन यह ऐसा चित्र है कि उनके जूतों के तस्मे तक ढंग से बंधे नहीं थे । इतने लापरवाह किस्म के आदमी थे लेकिन लेखन में पूरे चाक चौबंद । यह गोदान पढ़ने के बाद समझ लोगे । उनकी कोठी बस स्टैंड के निकट सेक्टर अठारह में थी और हमारे क्षेत्र के विधायक दिलबाग सिंह भी वहीं निकट ही रहते थे । इसलिए जब कभी किसी काम से चंडीगढ़ अपने विधायक के यहां जाना हुआ तो डाॅ मदान की कोठी में भी झांक आता था । 

बहुत प्यारी सी याद आ रही हैं । दिल्ली से डाॅ नरेंद्र कोहली सपरिवार चंडीगढ़ आए तब मुझे भी सूचित किया । मैं चंडीगढ़ खासतौर पर गया । डाॅ कोहली के साथ मैं और रमेश बतरा पिंजौर भी गये । बाद में डाॅ मदान की कोठी पहुंचे । उनके लाॅन में  गोष्ठी चल रही थी । अचानक मुझे उल्टियां लग गयीं माइग्रेन की वजह से । मैं दो तीन बार लाॅन से उठ कर बाथरूम में गया । डाॅ मदान को पता    चला तो रमेश से बोले -क्या यार । कमलेश को फ्रिज में से शराब निकाल कर दो पैग पिला दो । ठीक हो जायेगा । सब तरफ ठहाके और मेरा माइग्रेन काफूर । ऐसे थे डाॅ मदान । हर नया रचनाकार चाहता था कि डाॅ मदान उसके बारे में , लेखन पर दो पंक्तिया लिख दें । डाॅ नामवर सिंह की तरह डाॅ मदान का सिक्का चलता था । रवींद्र कालिया हों या निर्मल वर्मा या फिर राजी सेठ । सबको उन्होंने रेखांकित किया , उल्लेखित किया और चर्चित किया । जब वे जीवन की सांध्य बेला में थे तब मेरा प्रथम कथा संग्रह महक से ऊपर आया था । मैंने उन्हें भेंट किया और कुछ दिन बाद जब दैनिक ट्रिब्यून के लिए उनका इंटरव्यू करने गया तब उन्होंने कहा कि तुमने अपना कथा संग्रह तब दिया जब मैं कुछ भी लिख नहीं पा रहा । पर मैंने सारा पढ़ लिया है और निशान भी लगाये हैं । बहुत संभावनाएं हैं तुम्हारे कथाकार में । ये वे दिन थे जब उन्हें पीजीआई से कैंसर के कारण अंतिम दिन भी बता दिए गये थे और वे मेरे जैसे नये कथाकार को पढ़ने के बाद प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे थे । मैंने कहा कि आप न भी लिख पाएं पर आपका आशीष मुझे मिल गया । मेरे लिए यही बड़ी बात है । 

अब उनके अंतिम इंटरव्यूज के बारे में बताता हूं । यह सन् 1984 के दिनों की बात है जब खटकड़ कलां में मेरे छोटे भाई तरसेम की प्रिंसिपल से ऐसी कहा सुनी हुई कि उसकी नौकरी खतरे में पड़ गयी । मैं उसकी नौकरी बचाने भागा डाॅ वीरेंद्र मेंहदीरत्ता के घर आकर रुका । रात खाना खाने लगे तो उन्होंने मुझे उदास देख सारा माजरा पूछा और कौन बाॅस है के बारे में जानकारी ली । जब मैंने अपने वाइस चेयरमैन प्रो प्रेम सागर शास्त्री का नाम लिया तो मेंहदीरत्ता जी बोले कि चुपचाप खाना खा लो । तुम्हारा काम हो गया समझो । असल में प्रेम सागर जी उनके सहयोगी रह चुके थे और परम मित्र थे । वह काम हो भी गया । फिर मैं अपने विधायक के पास दूसरे दिन जाने लगा तब डाॅ मेंहदीरत्ता ने कहा कि हो सके तो डाॅ मदान की खबर सार लेने जाना । वे पीजीआई से घर आ चुके हैं और अकेला महसूस करते हैं । तुम जाओगे तो खुश हो जायेंगे । मैंने वादा किया कि जरूर जाऊंगा क्योंकि आपको याद दिला दूं कि हमारे विधायक की कोठी बिल्कुल पास थी । डाॅ मेंहदीरत्ता ने बताया कि बेशक डाॅ मदान हमारे चेयरमैन थे लेकिन कभी किसी को अपने ऑफिस में नहीं बुलाते थे । जब कोई बात करनी होती तो हमारे ही पास कमरे में आ जाते । कभी अध्यक्ष होने का रौब गालिब नहीं किया ।

 वही किया मैंने जो कहा था डाॅ मेंहदीरत्ता को । विधायक से थोड़ी सी मुलाकात कर मैं डाॅ मदान की कोठी की ओर चल दिया । वे छड़ी पकड़े बाहर ही दिल बहलाने के लिए चक्कर काट रहे थे । मुझे देखकर अंदर चल दिए । हम आमने सामने बैठ गये । मुझे यह आइडिया तक नहीं था कि आज मैं डाॅ मदान की इंटरव्यू करने वाला हूं । वे बहुत खूबसूरत सी यादों में बह गये और बहते चले गये । सचमुच डाॅ मेंहदीरत्ता  ठीक कह रहे थे कि उदास रहते हैं । कुछ बात हो जाए और ज्यादा देर बैठ  सको तो अच्छा रहेगा । वही हुआ । वे यादों में बहते गये और मैं डायरी निकाल नोट्स लेता गया । कुछ कुछ पूछ भी लिये सवाल । काफी देर तक चला यह सिलसिला । ऐसे लगा मानो वे लेखकों पर छड़ी बरसा रहे थे । आखिर मैंने विदा ली । तब तक मैं अपने छोटे से कस्बे नवांशहर से दैनिक ट्रिब्यून का पार्ट टाइम रिपोर्टर भी बन चुका था सन् 1978 दिसम्बर से । इसलिए चंडीगढ़ जाने पर मेरा आकर्षण दैनिक ट्रिब्यून  का कार्यालय भी बन चुका था । वहां से निकल कर मैंने सीधी सेक्टर 29 की लोकल बस पकड़ी और दैनिक ट्रिब्यून में पहुंच गया । विजय सहगल  सहायक संपादक थे और राधेश्याम शर्मा संपादक । विजय सहगल से मैं काफी घुला मिला था सो पहले उनके पास पहुंचा । उन्होंने पूछा कि कहां से आ रही है मेरी सरकार ? जब मैंने बताया कि डाॅ मदान से मिल कर तब अगली बात पूछी कि कोई बात हुई उनसे ? मैंने बताया कि कोई क्यों ? बहुत सारी बातें । तो चलो पहले पंडित जी के पास । पंडित जी यानी संपादक राधेश्याम शर्मा जी । वे जोश में मुझे धकेलते हुए उनके कमरे में दाखिल हुए । बताया कि पंडित जी कमलेश डाॅ मदान से मिलकर आ रहा है । बस । वे तो मानो इसी इंतजार में थे कि कोई आए और डाॅ मदान का इंटरव्यू लिख कर दे दे । सो एकदम आदेश हुआ कि अभी मेरे ऑफिस में सामने मेज़ पर बैठो । पैड उठाओ और इंटरव्यू लिखकर दो । 

मैं हैरान । क्या इस तरह भी लिखना पड़ेगा ? किसी समाचारपत्र के कार्यालय में संपादक के सामने बैठ कर इंटरव्यू लिखना परीक्षा देने जैसा लगा । जैसे तपते बुखार में मैंने परीक्षा की तरह लिखा । राधेश्याम जी को सौपा तो उन्होंने कहा कि इसे मूल्यांकन के लिए विजय सहगल को न देकर रमेश नैयर से करवाते हैं क्योंकि विजय तो आपके दोस्त हैं । उन्होंने रमेश नैयर को वे पन्ने भेज दिए । कुछ समय बाद रमेश नैयर मेरा लिखा इंटरव्यू लेकर आए और बोले कि यह इंटरव्यू मेरे आजतक पढ़े श्रेष्ठ इंटरव्यूज में से एक है । बस । उसी रविवार इसे प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया गया । एक सवाल था कि सरकारी अकादमियां क्या कर पाती हैं ? डाॅ मदान का जवाब था कि भाषा को संवारने और साहित्य को बढ़ाने का काम सरकारी तौर पर नहीं हो सकता । जब पंजाब का भाषा विभाग बना था तो शुरू में कुछ गंभीरता से काम हुआ था लेकिन बाद में रूटीन बन गया और खाना पीना होने लगा । इतने स्पष्ट जवाब डाॅ मदान ही दे सकते थे । रवींद्र कालिया पर भी टिप्पणी थी कि पहले बहुत बढ़िया लिखा लेकिन अब घास काट रहा है । यानी किसी का लिहाज नहीं । निर्मल  वर्मा का उपन्यास पाठ्यक्रम में न लगवा पाने का भी उन्हें दुख साल रहा था । यह बहुत बड़ी बात भी कही कि यदि गद्य लेखन में यानी कहानी उपन्यास में पंजाब के लेखकों के योगदान की बात करनी है तो इन्हें यदि निकाल दिया जाए तो आधा लेखन रह जाए । इतना योगदान है । 

मैंने कहा कि आप इन दिनों कुछ लिख रहे हैं तो उनका कहना था कि लिखना चाहता हूं लेकिन शरीर साथ नहीं दे रहा । मैंनै सुझाव दिया कि किसी को डिक्टेशन दे दीजिए । आप कहो तो मैं आ जाया करूंगा नवांशहर से । कहने लगे कि जब तक अपने हाथ के अंगूठे के नीचे कलम न दबा लूं तब तक लिखने का मज़ा कहां ? फिर व्यंग्य के मूड में आए कि बताओ आजकल लोग हालचाल पूछने तो आते नहीं । मेरे बाद बड़े बड़े आंसू बहायेंगे और अखबार में शोक संदेश देंगे जैसे मेरे बिना मरे जा रहे हों । प्रकाशकों के बारे में पूछे जाने पर कहा कि जब हिंदी विभाग का अध्यक्ष था तब पीछे पीछे चक्कर काटते थे कि आपकी नयी किताब हम छापेंगे और अब कोई किताब कहूंगा छापने को तो कहेंगे कि हमारे पास आलोचनात्मक पुस्तक के लिए बजट नहीं । सीधी बात यह कि उसी बेरी को पत्थर मारते हैं जिस पर बार लगे हों । अब मैं किसी पद पर नहीं यानी मेरे कोई बेर नहीं लगा तो क्यों आएंगे ?

इस पहली इंटरव्यू का इतना चर्चा हुआ कि राधेश्याम जी ने मुझे नवांशहर से बुलाया और दूसरा इंटरव्यू करने के लिए कुछ प्रश्न दिए और मेरे साथ फोटोग्राफर योग जाॅय को लेकर चले । वहां मुलाकात की । डाॅ मदान कम कहां थे – बोले कि कमलेश को नवांशहर से बुलाकर कुछ दोगे भी या रूखा सूखा इंटरव्यू करवाओगे ? इस हंसी मज़ाक के बीच फिर सवाल जवाब हुए और योग जाॅय का फोटो सैशन भी । सबसे मुश्किल सवाल मुझे दिया था कि पूछ लूं कि अंतिम समय क्या चाहते हैं ? 

इसका जवाब था कि अंतिम समय में मेरी अस्थियों को गंगा में विसर्जित न किया जाए बल्कि सतलुज में विसर्जित की जाएं क्योंकि मैंने इसी का पानी पिया है और अन्न खाया है । यही नहीं चूंकि वे आजीवन अविवाहित रहे थे और अंतिम समय में एक लड़की को गोद ले लिया था तो कोठी और पुस्तकों के भंडार का क्या किया जाए ?

डाॅ मदान की इच्छा थी कि इसे शोधछात्रों को अर्पित किया जाए और यह एक केंद्र बने लेकिन ऐसा नहीं हुआ । गोद ली हुई बेटी ने यह इच्छा पूरी नहीं की । वे विदेश चली गयीं । गोद ली हुई बेटी का नाम सरिता है जिसने हिंदी विभाग से एम ए की । बाद में डाॅ मदान ने उस मुंहफोली बेटी सलिता की विनोद से शादी कर दी और वह फ्रांस चली गयी । आजकल डाॅ मदान की कोठी सरिता ने अपनी बहन को दे रखी है । इस तरह डाॅ मदान की इच्छा अधूरी ही रही । डाॅ मदान और पंजाब विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग जैसे एक दूसरे के पर्याय बन चुके थे । व्य॔ग्य में एक बड़ा नाम । उन्होंने मुझे अपना व्यंग्य संग्रह भेंट किया जो एक मधुर याद की तरह मेरे पास सुरक्षित है ।  व्यंग्य को लेकर वे कहते थे कि दूसरों पर व्यंग्य करने की बजाय अपने पर करो । यह शेर भी सुनाया करते थे :

नशा पिला के गिराना तो सबको आता है साकी 

मज़ा तो तब है जो गिरतों को थाम ले साकी

डाॅ मदान ही नहीं , रमेश  बतरा की याद और वो लाॅन पर गोष्ठी और यह कहना कि कमलेश को दो पैग लगवा दे । आज तक हंसी ला देता है मेरे होंठों पर । रमेश बतरा से अनजाने ही दो बातें सीखीं । पहला संपादन । दूसरा संगठन चलाने के लिए गुण । संपादन तो वह दिल्ली की लोकल बस में सफर करते भी करता जाता था । नये रचनाकारों को प्रोत्साहित करना भी उसी से सीखा । चंडीगढ़ में हर वीकएंड रमेश के साथ बिताता रहा । और उसका आदेश कि एक माह में एक कहानी नहीं लिखी तो मुंह मत दिखाना -बड़ा काम आया । मैं निरंतर कहानी , सारिका , धर्मयुग और नया प्रतीक में प्रकाशित हुआ । 

संभवतः डाॅ इंद्रनाथ मदान के तीन तीन इंटरव्यूज ही मेरे दैनिक ट्रिब्यून में उपसंपादक बनने का मार्ग प्रशस्त कर गये और उनका यह कहना कि राधेश्याम, कमलेश को कुछ दोगे भी ? यह उपसंपादक बनना शायद उनकी ही दिखाई हुई राह थी । फिर तो इंटरव्यू दर इंटरव्यू  किए और बनी यादों की धरोहर जिसमें संभवतः सबसे लम्बा इंटरव्यू डाॅ मदान का ही है । उनका इंटरव्यू न केवल दैनिक ट्रिब्यून बल्कि राजी सेठ के संपादन में युगसाक्षी पत्रिका में भी आया और पंजाब की पत्रिका जागृति में भी । आह । इतना सच और खरा खरा बोलने वाला आलोचक नहीं मिला फिर और उनका यह मंत्र कि कृति की राह से गुजर कर । यानी जो कृति में है उसी की चर्चा करो । जो नहीं है उसको खोजना या चर्चा करना बंद करो । यह मंत्र बहुत कम आलोचकों ने स्वीकार किया पर यह लक्ष्मण रेखा जरूरी है । डाॅ मेंहदीरत्ता लगातार मांग करते रहे कि मदान विशेषांक निकाला जाए पर वह भी नहीं हो पाया किसी से । सबसे मीठा उलाहना डाॅ अतुलवीर अरोड़ा से बरसों बाद सुनने को मिला कि वे डाॅ मदान के प्रिय और प्रतिभाशाली छात्र जरूर रहे । शोध भी उनके निर्देशन में किया पर उनके भाग्य में डाॅ मदान का साथ और सहयोग कम रहा कि उन्होंने नियुक्ति में तटस्थता अपनाए रखी । खैर,अफसोस । 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 97 ☆ स्वच्छता मिशन ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता  ‘नकली इंजेक्शन)  

☆ संस्मरण # 97 ☆ स्वच्छता मिशन ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

ये बात ग्यारह साल पहले की है, जब स्वच्छता मिशन चालू भी नहीं हुआ था…….. ।
समाज के कमजोर एवं गरीब वर्ग के सामाजिक और आर्थिक उत्थान में स्टेट बैंक की अहम् भूमिका रही है। ग्यारह साल पहले हम देश की पहली माइक्रो फाइनेंस ब्रांच लोकल हेड आफिस, भोपाल में प्रबंधक के रुप में पदस्थ थे। ग्वालियर क्षेत्र में माइक्रो फाइनेंस की संभावनाओं और फाइनेंस से हुए फायदों की पड़ताल हेतु ग्वालियर श्रेत्र जाना होता था। माइक्रो फाइनेंस अवधारणा ने बैंक विहीन आबादी को बैंकिंग सुविधाओं के दायरे में लाकर जनसाधारण को परंपरागत साहूकारों के चुंगल से मुक्त दिलाने में प्राथमिकता दिखाई थी, एवं सामाजिक कुरीतियों को आपस में बातचीत करके दूर करने के प्रयास किए थे।
एक उदाहरण देखिए……..
स्व सहायता समूह की एक महिला के हौसले ने पूरे गाँव की तस्वीर बदल डाली , उस महिला से प्रेरित हो कर अन्य महिलाऐं भी आगे आई …. महिलाओं को देख कर पुरुषों ने भी अपनी मानसिकता को त्याग दिया और जुट गए अपने गाँव की तस्वीर बदलने के लिए….. ।
 ………ग्वालियर जिले का गाँव सिकरोड़ी की अस्सी प्रतिशत जनसँख्या अनुसूचित जाति की है लोगों की माली हालत थी , लोग शौच के लिए खुले में जाया करते थे, स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया ने माइक्रो फाइनेंस योजना के अंतर्गत वामा गैर सरकारी संगठन ग्वालियर को लोन दिया , वामा संस्था ने इस गाँव को पूर्ण शौचालाययुक्त बनाने का सपना संजोया …. अपने सपने को पूरा करने के लिए उसने स्टेट बैंक की मदद ली , गाँव के लोगों की एक बैठक में इस बारे में बातचीत की गई , बैठक के लिए शाम आठ बजे पूरे गाँव को बुलाया गया , हालाँकि उस वक़्त तक गाँव के पुरुष नशा में धुत हो जाते थे और इस हालत में उनको समझाना आसान नहीं था , लेकिन वामा और स्टेट बैंक ने हार नहीं मानी, और फिर बैठक की ….बैठक में महिलाओं और पुरुषों को शौचालय के महत्त्व को बताया , पुरुषों ने तो रूचि नहीं दिखी लेकिन एक महिला के हौसले ने इस बैठक को सार्थक सिद्ध कर दिया । विद्या देवी जाटव ने कहा कि वह अपने घर में कर्जा लेकर शौचालय बनवायेगी , वह धुन की पक्की थी उसने समूह की सब महिलाओं को प्रेरित किया इस प्रकार एक के बाद एक समूह की सभी महिलाएं अपने निश्चय के अनुसार शौचालय बनाने में जुट गईं , पुरुष अभी भी निष्क्रिय थे …. जब उन्होंने देखा कि महिलाओं में धुन सवार हो गई है तो गाँव के सभी पुरुषों का मन बदला और तीसरे दिन ही वो भी सब इस सद्कार्य में लग गए और देखते ही देखते पूरा गाँव शौचालय बनाने के लिए आतुर हो गया , प्रतिस्पर्धा की ऐसी आंधी चली कि कुछ दिनों में पूरे गाँव के हर घर में शौचालय बन गए और साल भर में  कर्ज भी पट गए …. तो भले राजनीतिक लोग स्वच्छता अभियान, और शौचालय अभियान का श्रेय ले रहे हों,पर इन सबकी शुरुआत ग्यारह साल पहले स्टेट बैंक और माइक्रो फाइनेंस ब्रांच भोपाल ने चालू कर दी थी।
 ……. जुनून पैदा करो और जलवा दिखाओ।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण#94 ☆ कला-संस्कृति के लिए जागा जुनून ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।)

☆ कला-संस्कृति के लिए जागा जुनून” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

(ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए हम श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के विशेष स्वर्णिम अनुभवों को साझा करने जा रहे हैं जो उन्होने एसबीआई ग्रामीण स्वरोजगार प्रशिक्षण संस्थान (आरसेटी) उमरिया के कार्यकाल में प्राप्त किए थे। आपने आरसेटी में तीन वर्ष डायरेक्टर के रूप में कार्य किया। आपके कार्यकाल के दौरान उमरिया जिले के दूरदराज के जंगलों के बीच से आये गरीबी रेखा परिवार के करीब तीन हजार युवक/युवतियों का साफ्ट स्किल डेवलपमेंट और हार्ड स्किल डेवलपमेंट किया गया और उनकी पसंद के अनुसार रोजगार से लगाया गया। इस उत्कृष्ट कार्य के लिए भारत सरकार द्वारा दिल्ली में आपको बेस्ट डायरेक्टर के सम्मान से सम्मानित किया गया था। मेरे अनुरोध को स्वीकार कर अनुभव साझा करने के लिए ह्रदय से आभार – हेमन्त बावनकर)  

आज ऐसे एक इवेंट को आप सब देख पायेंगे, जो एक प्रयोग के तौर पर किया गया था। दूर दराज के जंगलों के बीच से प्रशिक्षण के लिए आये गरीब आदिवासी बच्चों द्वारा।

यूं तो आरसेटी में लगातार अलग-अलग तरह के ट्रेड की ट्रेनिंग चलतीं रहतीं थीं, पर बीच-बीच में किसी त्यौहार या अन्य कारणों से एक दिन का जब अवकाश घोषित होता था, तो बच्चों में सकारात्मक सोच जगाने और उनके अंदर कला, संस्कृति की अलख जगाने जैसे इवेंट संस्थान में आयोजित किए जाते थे।

उमरिया जिले के दूरदराज से आये 25 आदिवासी बच्चों के दिलों में हमने और ख्यातिलब्ध चित्रकार आशीष स्वामी जी ने झांक कर देखा, और उन्हें उस छुट्टी में  कुछ नया करने उकसाया, उत्साहित किया, फिर उन बच्चों ने ऐसा कुछ कर दिखाया जो दुनिया में कहीं नहीं हुआ था, दुनिया भर के लोग यूट्यूब में वीडियो देखकर दंग रह गए। हर्र लगे न फिटकरी, रंग चोखा आए वाली कहावत के तहत एक पैसा खर्च नहीं हुआ और बड़ा काम हुआ।

आप जानते हैं कि खेतों में पक्षी और जानवर खेती को बड़ा नुक़सान पहुंचाते हैं, देखभाल करने वाला कोई होता नहीं, किसान परेशान रहता है।इस समस्या से निजात पाने के लिए सब बच्चों ने तय किया कि आज छुट्टी के दिन अलग अलग तरह के कागभगोड़ा बनाएंगे। उमरिया से थोड़ी दूर कटनी रोड पर चित्रकार आशीष स्वामी का जनगण खाना कला-संस्कृति आश्रम में तरह-तरह के बिझूका बनाने का वर्कशॉप लगाना तय हुआ, सब चल पड़े। आसपास के जंगल से घांस-फूस बटोरी गयी, बांस के टुकड़े बटोरे गये, रद्दी अखबार ढूंढे गये, फिर हर बच्चे को कागभगोड़ा बनाने के आइडिया दिए गए। जुनून जगा, सब काम में लग गए, अपने आप टीम बन गई और टीमवर्क चालू…..। शाम तक ऐतिहासिक काम हो गया था, मीडिया वालों को खबर लगी तो दौड़े दौड़े आये, कवरेज किया, दूसरे दिन बच्चों के इस कार्य को अखबारों में खूब सराहना मिली। अब आप देखकर बताईए, आपको कैसा लगा।

यूट्यूब लिंक >> SBI RSETI Umaria –Bichka Scarecrow) Workshop at Jangan Tasveer Khana Lorha (M.P.)

स्व आशीष स्वामी

इस अप्रतिम अनुभव को साझा करते हुए मुझे गर्व है कि मुझे आशीष स्वामी जी जैसे महान कलाकार का सानिध्य प्राप्त हुआ। अभी हाल ही में प्राप्त सूचना से ज्ञात हुआ कि उपरोक्त कार्यशाला के सूत्रधार श्रीआशीष स्वामी का कोरोना से निधन हो गया।

उमरिया जैसी छोटी जगह से उठकर शान्ति निकेतन, जामिया मिलिया, दिल्ली, फिल्म इंडस्ट्री मुंबई में अपना डंका बजाने वाले, ख्यातिलब्ध चित्रकार, चिंतक, आशीष स्वामी जी ये दुनिया छोड़कर चले गए, कोरोना उन्हें लील गया। महान कलाकार को विनम्र श्रद्धांजलि!!

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 104 ☆ संस्मरण – एक जनम की बात सात जनम का साथ – श्रीमती दयावती श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। साथ ही मिला है अपनी माताजी से संवेदनशील हृदय। इस संस्मरण स्वरुप आलेख के एक एक शब्द – वाक्य उनकी पीढ़ी के संस्कार, संघर्ष और समर्पण की कहानी है । गुरु माँ जी ने निश्चित ही इस आत्मकथ्य को लिखने के पूर्व कितना विचार किया होगा और खट्टे मीठे अनुभवों को नम नेत्रों से लिपिबद्ध किया होगा। यह हमारी ही नहीं आने वाली पीढ़ियों के लिए भी उनकी पीढ़ी के विरासत स्वरुप दस्तावेज हैं। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 104 ☆

? संस्मरण – एक जनम की बात सात जनम का साथ – श्रीमती दयावती श्रीवास्तव ?

(पुराने कम्प्यूटर पर वर्ष 2001 की फाइलों में  स्व माँ की यह वर्ड फाइल  मिली, अब माँ के स्वर्गवास के उपरांत  इसका दस्तावेजी महत्व है । यथावत, यूनीकोड कन्वर्जन कापी पेस्ट – विवेक रंजन श्रीवास्तव)

मारा वैवाहिक जीवन पहले उस मुरब्बे के समान रहा जो पहले पहल कुछ खट्टा मीठा मिलने पर होता ही है। परन्तु जैसे – जैसे त्याग, दृढ़ संकल्प, प्यार, उम्र के शीरे में पगता गया तो सचमुच जीवन अति मधुर – मधुरतम होता गया। जो संतोष सबों को नहीं मिलता, वह हमें मिला है। और हमारे पास इसकी एक कुंजी है, हम दोनों का एक दूसरे पर अटूट भरोसा करते हैं। हमारी सबसे बड़ी सम्पत्ति हैं हमारी सुयोग्य संतान।

यह सब शायद हमारे तपोमय गृहस्थ जीवन के फल हैं। धन तो नश्वर है, परन्तु चरित्रवान संतान पीढ़ी – दर – पीढ़ी रहने वाली सम्पत्ति है। सन 1951 में जब हमारी शादी हुई थी, तब मध्यप्रदेश सी.पी.एण्ड बरार कहलाता था मेरे पति जिला मण्डला के रहने वाले थे।  और मेरे पिता लखनऊ में शासकीय सेवा में थे। मेरी इन्टरमीडियट तक की शिक्षा (शादी के पहले) लखनऊ में ही हुई। मैं अपने सात बहनों व दो भाईयों में सबसे छोटी थी।  मेरे पति अपने चारों भाईयों में सबसे बड़े वे। शादी के समय मेरे पति इण्टर के साथ विशारद पास करके उच्च श्रेणी शिक्षक के पद पर खामगांव बरार में पदस्थ थे।  विशारद को उस समय बी.ए. के समकक्ष मान्यता थी। इसी आधार पर इन्हें उच्च श्रेणी शिक्षक का पद मिला था। सो शायद नासमझी में इन्होंने मेरे पिताजी को अपनी शैक्षणिक योग्यता स्नातक ही बताई थी।  पहली रात को जब हम मिले तो इन्होंने मजाक किया कि तुम मुझे बी.ए. पास समझती हो, परन्तु यदि ऐसा न हो तो तुम्हें बुरा तो नहीं लगेगा ? और इन्होंने मैट्रिक का एडमीशन कार्ड रोल नंबर दिखाया, क्योंकि महाराष्ट्र में पदस्थ होने से मराठी भाषा सीखने के लिये उन्होंने उसी वर्ष मराठी भाषा की मैट्रिक की परीक्षा दी थी। बचपन में पढ़ी हुई रामायण के आदर्श की छाप मेरे मन में थी। सीता जैसी पत्नि का स्वरूप मेरे मन व मस्तिष्क में अंकित था। माता – पिता के द्वारा दी गई शिक्षा भी ऐसी ही थी कि जो स्त्री हर परिस्थिति में पति की सहधर्मिणी हो, वही श्रेष्ठ कहलाती है। मेरी आगे पढ़ने की लालसा ने और भी प्रेरणा दी और खुश होकर मैने कहा कि तो क्या हुआ, हम दोनों ही साथ – साथ बी.ए. इसी वर्ष कर लेंगे ।

इनका परिवार सामान्य मध्यम वर्ग का था। मण्डला जैसे पिछड़े स्थान का भी कुछ प्रभाव था, बहू को पढ़ाना तो शायद सोचा भी नहीं जा सकता था। इनके पिता की अस्वस्थता के कारण इन्हें मैट्रिक पास करके परिवार का आर्थिक खर्च वहन करने के लिये लिपिक की नौकरी से जीवन की शुरुवात करनी पड़ी थी। उस पहली नौकरी के साथ ही इन्होंने प्राइवेट ही साहित्य सम्मेलन से संचालित परीक्षा दे डाली और विशारद पास कर लिया, और इसी आधार पर खामगांव में इनकी उच्च श्रेणी हिन्दी शिक्षक के पद पर नियुक्ति हो गयी। शादी के समय पहली बार ही 10-15 दिन मुझे ससुराल में रहना पड़ा। मैने महसूस किया कि घर की आर्थिक स्थिति डॉवाडोल है। मेरे मन में कुछ करने का उत्साह था, बस मैनें इनसे अपनी इच्छा जाहिर की,कि यदि में नौकरी कर लूंगी तो दोनों मिलकर अधिक आर्थिक बोझ उठा सकेंगे।

इत्तिफाक से इन्हीं के स्कूल में एक लेडी टीचर का स्थान रिक्त था, और तत्कालीन डी.एस.ई. (नियुक्ति अधिकारी) ने मेरी नियुक्ति उस स्थान पर करने की सहमति भी दे दी। किन्तु मेरे सास ससुर व मेरे माता पिता उन पितृपक्ष के कड़वे दिनों में विदा के लिये तैयार नहीं थे इन्होंने मेरी राय जाननी चाही। पता नहीं किस दैवी प्रेरणा से मैने अपनी स्वीकृति इन्हें पत्र द्वारा सूचित कर दी।  मैंने सोचा आज जो मौका मिल रहा है, पता नहीं कल मिले या न मिले ? अतः मौके का लाभ ले ही लेना चाहिए उस समय पितृपक्ष चल रहा था। परम्परा के अनुसार लड़की की विदाई आदि के लिये यह समय शुभ मुहूर्त नहीं माना जाता, परन्तु हम दोनों के कहने से हमारे बड़ों ने भी अनुमति दे दी और पितृपक्ष में ही हमारी बिदा कर दी गयी।

मैंने चिखली बरार में इनके साथ पहुंचकर शिक्षकीय कार्य संभाल लिया। हम दोनो ने बी.ए.का फार्म भी  नागपुर विश्वविद्यालय से प्राइवेट भर दिया। और नई नई शादी में पढ़ाई भी शुरू हो गई। उस छोटी सी उम्र में नौकरी, पढ़ाई और नई गृहस्थी के कार्य संभालना पड़ा।  थोड़ी कठिनाई जरूर महसूस हुई परन्तु पतिदेव के सहयोग से सारी कठिनाईयाँ हंसी – खुशी हल होती गई। निरन्तर प्रयास से हम दोनों ने बी.ए., फिर एम.ए. व बी.टी. बिना रुकावट के पास कर लिया। बाद में जब मेरे पिताजी को इनकी इतनी सारी डिग्रियों का व विवाह के बाद पढ़ने की असलियत का पता चला तो उन्होंने खुश होकर इनको ‘आफताब” का खिताब तक दे डाला था। इसी बीच बड़ी बेटी वन्दना का जन्म हुआ और घर – गृहस्थी व नौकरी की व्यस्तता में मेरी पढ़ाई में तो फुलस्टॉप लग गया। परन्तु इन्होंने लगातार पढ़ाई जारी रखी और डबल एम.ए. व एम एड। पास किया। शासकीय सेवा में प्रमोशन होते रहे।  मैं प्राचार्य पद से सेवानिवृत हो चुकी हूँ व मेरे पतिदेव उसी प्रांतीय शिक्षक प्रशिक्षण कालेज से प्रोफेसर पद से  सेवानिवृत हुए, जहाँ कभी हमने साथ साथ शिक्षक प्रशिक्षण लिया था।

हमारे तीन बेटियां व एक बेटा है, सभी सुशिक्षित है। बेटा भी जैसी मेरी कल्पना थी कि ‘ वरम एको गुणी पित्ः न च मूर्खः शतान्यपि, वैसा ही गुणी निकला। आज वह भी विद्युत विभाग में एस.ई.के पद पर है। चारों बच्चों की अच्छी शादियां यथासमय हो गई। और सभी अपने परिवार के साथ प्रसन्न है। मुझे संतोष है कि नन्हें नन्हें प्यारे नाती नातिनो के रूप में मेरे अथक परिश्रम का फल मुझे पूरा मिल गया। बच्चों को सही दिशा मिल सकी। मेरे पतिदेव एक विख्यात साहित्यकार है, प्रारंभिक जीवन में पारिवारिक परिस्थितियों के कारण, साहित्य साधना के लिये समय व धन का अभाव रहा। इससे कुछ रचनायें यदि लिख भी लेते तो आर्थिक अभाव के कारण छपवाना कठिन था। कुछ तो इनका सिद्धांत था कि पहले इनके छोटे भाइयों की गृहस्थी बस जाये, फिर अपने लिये कुछ करूं। इसीलिए अपने लिये छोटे – छोटे खर्च भी नहीं करते थे। और 1972 के बाद ही, जब सब भाइयों की नौकरी, शादी आदि से निवृत हो गये, तभी अपनी गृहस्थी के लिये कुछ किया। कभी – कभी जब बच्चों तक की छोटी सी मांग को भी फिजूलखर्ची कहकर टाल जाते थे, तब जरूर मुझे दुख होता था और खिन्नता के कारण हमारी खटपट भी हो जाती थी। ऐसा नहीं था कि हमें अभाव में रखकर इन्हें दुःख नहीं होता था। कविता में मुखर हो जाते है उनके उदगार – कुछ इस प्रकार

“उदधि में तूफान में ही डाल दी है नाव अपनी” या 

” अंधेरी रात का दीपक बताये क्या कि उजियाला कहाँ है” अथवा

” रो रो के हमने सारी जिन्दगी गुजार दी, आई न  हँसी जिन्दगी में एक बार भी”

किन्तु आशावादी दृष्टिकोण के ही कारण  सारी झंझटें दूर होती गई व हमें सफलता हासिल हुई। मुझे भी इनके गीतों से बहुत सहारा मिलता था तथा प्रेरणा मिलती थी।

दुख से भरे मन को किसी का प्यार चाहिये।

दुख से घबरा न  मन, कर न गीले नयन।

आदमी वो जो हिम्मत न हारे कभी।

सचमुच अभाव में भी इनके प्यार के आगे सारे कष्ट विस्मृत हो जाते थे, और काम करते रहने की, सब कुछ  सहने की प्रेरणा मिलती थी। इनकी अनुगामिनी बनकर मैंने बहुत कुछ सीखा है। हमारे स्वभाव में साम्य होने को कारण ही हम कदम से कदम मिलाकर चल सके और स्वयं निर्धारित लक्ष्य को पा सके। हम दोनों ही सादगी, ईमानदारी, सच्चाई एवं कर्तव्य परायणता के कायल हैं। हमने कभी एक – दूसरे से कुछ छिपाया नही. एक – दूसरे पर अटूट विश्वास ही हमारी सफलता का राज है।

आज हम जीवन के अंतिम पड़ाव पर हैं और संतोषं परमं धनं, भरपूर है हमारे पास। सबका प्यार बना रहे, सब मिलकर प्यार से रहें, यही कामना है। इन्हीं की कविता की पंक्तियां हैं..

” मोहब्बत एक पहेली है, जो समझाई नहीं जाती” इसी प्रेरणा को लेकर हमारा परिवार,  हमारे बच्चे निरन्तर प्रगति की ओर अग्रसर हों, ऐसी कामना है।

जीवन की कुछ खट्टी – मीठी यादें ही शेष है। ईश्वर पर विश्वास है। भगवान की कृपा ने हमारी सारी योजनायें पूरी कर जीवन में सफलता दी। अंतिम इच्छा है कि “ पति के सामने मेरी अंतिम सांस पूरी हो”, परमात्मा यह साध अवश्य पूरी करेगा। आज तक जो सोचा, जो चाहा, वह अवश्य हासिल हुआ है, अंतिम इच्छा भी पूरी होगी।

आज साहित्य जगत में एक अच्छे साहित्यकार के रूप में उनकी ख्याति है- और अब उनकी काव्य – कृतिया छपती जा रही है, यह इस प्रकार है 1.  मेघदत का हिन्दी काव्यानुवाद २. ईशाराधन ३. वतन को नमन ४. अनुगुंजन ५. रघुवंश का हिन्दी काव्यानुवाद छपने जा रहा है। हमारी शादी की पचासवीं सालगिरह बच्चों ने धुमधाम से मनाई है। इनकी अनेको उपदेशात्मक कहानियां व अन्य रचनायें भी छप चुकी हैं। आज साहित्य साधना ही उनका मुख्य लक्ष्य है, उसी में अपना समय आनंद से बीत जाता है। मेरे पतिदेव दिखावे की दुनिया से बिल्कुल दूर है, इसलिए रचनायें स्वान्तः सुखाय ही लिखते है। जिनके प्रकाशन में मेरे पुत्र विवेक का प्रयास प्रशंसनीय है।

 – श्रीमती दयावती श्रीवास्तव

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 85 – संस्मरण – बोलता बचपन ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  “संस्मरण – बोलता बचपन।  हम एक ओर बेटियों को बोझ मानते हैं और दूसरी ओर नवरात्रि पर्व पर उन्हें कन्याभोज देकर  उनके देवी रूप से आशीर्वाद की अपेक्षा करते हैं।  यह दोहरी  मानसिकता नहीं तो क्या है ?  इस  संवेदनशील विषय पर आधारित विचारणीय संस्मरण एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 85 ☆

?? संस्मरण – बोलता बचपन ??

‘बेटा भाग्य से और बेटियां सौभाग्य से प्राप्त होती हैं।’  इसी विषय पर पर आज एक  संस्मरण – सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ 

ठंड का मौसम मैं और पतिदेव राजस्थान, कुम्बलगढ़ की यात्रा पर निकले थे। जबलपुर से कोटा और कोटा से ट्रेन बदलकर चित्तौड़गढ़ से कुम्बलगढ ट्रेन पकड़कर जाना था। क्योंकि ट्रेन चित्तौड़गढ़ से ही प्रारंभ होती थी।

हम ट्रेन पर बैठ चुके थे, ट्रेन खड़ी थी। स्टेशन पर मुसाफिरों का आना जाना लगा हुआ था। जैसे ही ट्रेन की सीटी हुई, दौड़ता भागता आता हुआ एक बिल्कुल ही गरीब सा दिखने वाला परिवार अचानक एसी डिब्बा में घुस कर बैठ गया। तीन चार सामान जो उन्होंने साड़ी और चादर की पोटली बना बांध रखा था। तीन बिटियाँ को चढ़ा, एक बेटा और स्वयं पति पत्नी चढ़कर बैठ गए।

सीटी बजते ही ट्रेन चल पड़ी। जल्दी-जल्दी चढ़ने से सभी हाँफ रहे थे, उनको कुछ लोगों ने डाँटा और कुछ सज्जनों ने कहा कि ठीक है अगले स्टेशन पर उतर कर सामान्य डिब्बा में चले जाना।

कंपकंपाती ठंड और उनकी दशा देख बहुत ही दयनीय स्थिति लग रही थी। परंतु बातों से वो बहुत ही बेधड़क, बोले जा रहे थे।

तीनों बच्चियों को महिला बार-बार आँखें दिखा डांट रही थी और पाँच वर्ष का एक बेटा जिसे गोद में बड़े प्यार से बिठा रखी थीं।

बेटे के हिसाब से उसको पूरा स्वेटर मोजा जूता सभी कुछ पहनाया गया था।

परंतु बच्चियों में सिर्फ एक बच्ची के पैरों पर चप्पल दिख रही थी। बाकी दो फटेहाल कपड़ो में दिख रहीं थीं। और फटी साड़ी को आधा – आधा कर सिर  से बांध गले में लपेट पूरे शरीर पर ओढ रखी थीं।

दोनों दंपत्ति भी लगभग कपड़े, स्वेटर, शाल पहने हुए थे। मेरे मन में बड़ी ही छटपटाहट होने लगी।

उसमें से छोटी बच्ची बहुत ही चंचल और नटखट, बार- बार देखकर मुस्कुरा कर कुछ कहना चाह रही थीं।

बातों का सिलसिला शुरु हो गया “आप कहां जा रही हैं आंटी जी?”  बस बात शुरू हो गई। पतिदेव नाराज हो रहे थे परंतु बच्चों की मासूमियत के कारण बात करने लगी।

बात कर ही रही थी कि आँखें दिखा बस महिला बात करना शुरु कर दी…” छोरियां है मैडम जी। बड़ी वाली तो शौक से आई ।बाकी दो छोड़ो वो तो राम जाणे और इस समर्थ बेटे को बहुत मन्नत और पूजा पाठ के बाद पाया है हमणे। या छोरियां तो किसी काम की ना रहेंगी।”

“एक दिन ससुराल चली जाएंगी और वंश तो बेटा ही चलावे है। इसीलिए बेटे की चाह में यह छोरियां हो गई है।”

“इन छोरियों को पालने का जी न करता है, परंतु रुखी- सूखी देकर पाल रहे हैं। सोच रहे हैं बारह-बारह बरस की हो जाएंगी तो शादी कर दूंगी। बाकी खुद जाणेगी।”

पूरे डिब्बे में उनकी बातों को मैं और मेरी सहेली और बाकी सभी सुन रहे थे। सभी आश्चर्य से देखने लगे।

” समर्थ की मन्नत पूरी करने हम चित्तौड़गढ़ माता की मंदिर जा रहे हैं। या छोरियां भी पीछे लग रखी इसलिए लाना पड़ा। बहुत पिटाई की पर नहीं माणी।” तीनों बच्चों के मासूम से मुसकुराते चेहरे हाँ में सिर हिला रहे थे।

ट्रेन अपनी रफ्तार से बढ़ती चली जा रही थी। मैं आवाक उसकी बातों को सोचने लगी ‘क्या ऐसा भी होता है कि वाकई माँ- बाप के लिए बेटियां बोझ होती हैं!’ कहने सुनने के लिए शब्द नहीं थे। कुछ बोलने की स्थिति भी नहीं लग रही थीं। तीनों बिटिया गोल बनाकर चिया- चुटिया खेलने में मस्त हो गई थी।

शायद हँसता मुस्कुराता बचपन मानो कह रहा हो “जाने दीजिये हम आखिर छोरियाँ (बेटियाँ) ही तो हैं।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ स्वदेश दीपक : कहानी से नाटक में आकर दृष्टिकोण व्यापक हुआ ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

☆ संस्मरण ☆ स्वदेश दीपक : कहानी से नाटक में आकर दृष्टिकोण व्यापक हुआ ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

(स्वदेश दीपक से मैंने अम्बाला छावनी उनके घर जाकर इंटरव्यू की थी दैनिक ट्रिब्यून के लिए। तब उपसंपादक की जिम्मेदारी थी। कभी सोचा नहीं था कि इंटरव्यूज पर आधारित कोई पुस्तक बन सकती है। पर एक फाइल सन् 2013 में हाथ लगी अपनी ही तो सारी इंटरव्यूज एक जगह मिलीं। उलट पलट कर देखा तो लगा यह तो एक पुस्तक है -यादों की धरोहर। इस रूप में सामने आई पर तब स्वदेश दीपक का इंटरव्यू नहीं मिला। पुराने समाचार की कटिंग से काम चलाया। अब कोरोना के एकांत और अकेलेपन के दिनों में अचानक बेटी रश्मि के हाथ मेरी सन् 1991की चंडीगढ़ एडमिनिस्ट्रेशन की डायरी लग गयी। पन्ने पलटने पर मैं हैरान। स्वदेश दीपक से इंटरव्यू के सारे नोट्स इसी डायरी में मिले। उनके साथ ही इसी डायरी में अम्बाला के राकेश वत्स और दिल्ली में मोहन राकेश की धर्मपत्नी अनिता राकेश के भी इंटरव्यूज के नोट्स देखे तो मन उस समय में पहुंच गया। जहां राकेश वत्स व अनिता राकेश के इंटरव्यूज मिल गये थे लेकिन स्वदेश दीपक का नहीं।  तो  सोचा फिर से कल्पना करूं कि मैं स्वदेश दीपक के सामने उनके घर बैठा हूं। अभी अभी गीता भाभी चाय के प्याले रख गयी हैं। ऊषा गांगुली भी कोलकाता से आई हुई हैं जो उनके नाटक कोर्ट मार्शल को मंचित करने की अनुमति मांग रही हैं। बीच में ब्रेक लेकर हमारी इंटरव्यू शुरू हो जाती है। लीजिए : एक बार नयी कोशिश। – कमलेश भारतीय

मैंने विधा बदल ली। कथाकार से नाटककार बन गया। इससे मुझे यह अहसास हुआ कि मेरा दृष्टिकोण व्यापक हो गया। सीधे दर्शकों के सम्पर्क में आया।  नाटक कोर्ट मार्शल ऊषा गांगुली बंगाली में अनुवाद कर मंचित करने जा रही हैं। बातचीत आपके सामने हो रही है। पंजाब से केवल धालीवाल चंडीगढ़ में इसे पंजाबी में मंचित करने जा रहा है। रंजीत कपूर काल कोठरी तो अल्काजी शोभायात्रा का मंचन करेंगे।

स्वदेश दीपक इस सबसे उत्साहित होकर कहने लगे कि कमलेश , देखो। कहानी प्रकाशित होती है तो दो लेखकों के खत आ गये और हम खुश हो लिए। इससे खुलेपन की ओर ले जा रहे हैं मुझे मेरे नाटक। खुलेपन की ओर यात्रा।

-नाटक से क्या हो जाता है?

-सीधा संवाद। विचार तत्त्व। मानवीय मूल्य। कहानी पढ़ने पर हम इतने उत्तेजित नहीं होते जबकि कोर्ट मार्शल को मंचित देख उत्तेजित होते दर्शक देखे हैं।

-दर्शक अच्छे नाटक का स्वागत् करते हैं?

-क्यों नहीं? दर्शक देखते भी हैं और ग्रहण भी करते हैं। नाटकों के माध्यम से पुनर्जागरण होता रहा है। यह कोई नयी बात नहीं।

-क्या ताकत है नाटक की?

-सामाजिक व राजनीतिक बुराइयों के खिलाफ लड़ने के लिए लिखे हुए शब्द से बोला हुआ शब्द ज्यादा कारगर साबित हो रहा है।

-आपमें कथाकार से नाटककार बन कर क्या बदलाव आया?

-अकेला सा , कटा सा महसूस कर रहा था। जीवन व्यतीत कर रहा था। अब कुछ बढ़िया महसूस कर रहा हूं।

-नाटकों का संकट क्या है आपकी नज़र में?

-सबसे बड़ा संकट यह है कि नब्बे प्रतिशत लोग किसी मिथ को लेकर नाटक लिखते हैं। लिखे जा रहे हैं – कबीर , कर्ण , अंधा युग  की परंपरा। मिथ को आधुनिक जीवन के साथ जोड़ कर लिखने के लिए मिथ का उपयोग नहीं किया गया। सामाजिक जीवन की मुश्किलें , राजनीति का हमारे जीवन में बढ़ता दखल , एक ही लाठी से सबको हांकते चले जाते राजनेता। समय आ गया है कि साफ साफ बात कही जाए। आड़ या ओट लेने का समय नहीं।

-नये नाटक शोभायात्रा के बारे में कुछ बताइए?

-सन् 1984 से शुरू होता है शोभायात्रा। मिथ में कहता हुआ। राजा रानी की कहानी कह कर। हिंदी में घबराहट पता नहीं क्यों है साफ बात कहने की। जबकि इसे साहसपूर्वक भी कह लिख सकते हैं। मैं पूजा भाव से किसी को नहीं देखता। राजनैतिक सत्यों को छिपा कर कहने का अब कोई अर्थ नहीं रहा। शोभायात्रा -एक प्रकार से है दुखों की यात्रा। मिथ तोड़ने की आवश्यकता है। भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता है जिसमें दूध दही  की नदियां बहती हैं। इस तरह की चुनौतियों को स्वीकार न करना ही सबसे बड़ा संकट है हिंदी में। नाटकों में। गिरीश कार्नाड जैसा आदमी भी मिथ का प्रयोग करता है।

-आप मिथ के विरोधी हैं?

-नहीं। मैं मिथ का विरोधी नहीं। मिथ को जीवन में उतार पाएं तो। नहीं तो नहीं कहें। बस। मशीनी मार्का लेखन की जरूरत क्या है? राजनीति जब लेखन पर हाॅवी हो जाती है तब लेखक की दृष्टि संकरी गली में चली जाती है। राजनीतिक विचारधारा को जब आरोपित कर देते हैं तब लेखन मशीनी होने लगता है।

-आपकी कहानियां मनोविज्ञान को जोड़  कर चलती हैं। कैसे?

-मनोविज्ञान जीवन से ही निकला है। विचार तत्त्व भूख से नहीं जुड़ा हुआ। धर्म के नाम पर लोगों को मारा जा रहा है। विदेशों को बेचने की तैयारी है। राजनीति से सेंकने की कोशिश जारी है। इसलिए ये खतरे हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं जो हमारे जनजीवन को बुरी तब तरह प्रभावित करने लगी हैं। सब्जबाग दिखा रही हैं युवाओं को। हिंदुस्तान में ऐसे नहीं चल सकता। लेखक के लिए ये सारे उपकरण उपयोगी हैं। तब जाकर साहित्य बनता है कमलेश भाई।

-क्या कहानी में ताकत नहीं रही पाठक को झिंझोड़ कर रख देने की?

-कहानी की ताकत से इंकार नहीं। साप्ताहिक हिंदुस्तान में प्रकाशित मेरी अपाहिज कहानी पर भी खूब चर्चा मिली। पर नाटक की बात कुछ और है। खेला जाए तभी महत्त्वपूर्ण बनता है। दर्शक से जुड़ना नाटक से ही संभव हुआ।

-साहित्यिक उत्सवों में आप दिखाई नहीं देते। अपने ही नाटक के मंचन को दर्शकों से छुप कर देखते हैं। क्यों?

-साहित्यिक उत्सवों में जाना समय नष्ट करना है। कोई नयी बात नहीं होती। साहित्यिक पंडे नयी बात नहीं बताते। रास्ता नहीं दिखाते युवा लेखकों को।

-युवा लेखकों को कोई मंत्र?

-साहित्य में किसी की सीढ़ी पकड़ कर चलने वाला जल्दी लुढक जाता है। आलोचकों को खुश करने में विश्वास न रखें। विचारधारा लेखक को सौंपी जा रही है। जो साहित्य किसी विशेष विचारधारा के लिए लिखा जायेगा वह अपनी मौत मारा जायेगा। साहित्यिक मूल्यांकन तो दर्शक या पाठक ही करेगा।

-टेली फिल्मों का अनुभव?

-सुरेन्द्र शर्मा ने तमाशा कहानी पर टेली फिल्म बनाई। महामारी और तुम कब आओगे पर टेली फिल्में बनीं। नम्बर 57 स्क्वाड्रन पर आकाश योद्धा  स्वीकृत हो गया है। प्राइम टाइम के लिए। धीमान निर्देशित करेंगे।

स्मरण रहे कि वायुसेना में भी एक समय स्वदेश दीपक कार्यरत रहे। बाद में अंग्रेजी प्राध्यापक बने।

-किसने प्ररित किया नाटकों की ओर?

-अम्बाला के एम आर धीमान निर्देशक ने। उन्होंने कहा कि मैं कहानियां ही नहीं , नाटक लिख सकता हूं। नाटक की तकनीकी बारीकियां समझाईं। पहला नाटक इन धीमान को ही समर्पित। नाटककार बनने की प्रेरणा धीमान ने ही दी।

-कोई और अनुभव जो नये रचनाकारों को देना चाहें।

-लेखन में जल्दबाजी न करें। किसी बड़े रचनाकार की छत्रछाया न ढूंढें। चीज़ को अपने अंदर पकने दें। कई बार तीन तीन वर्ष तक एक कहानी को पकने में लगे। विचारधारा ओढ़ी हुई न हो। मैं कभी किसी गुट का हिस्सा नहीं बना। इसलिए कोई दुख भी नहीं है। पाठक और दर्शक से कोई उपेक्षा नहीं मिली। बहुत प्यार मिला। मिल रहा है।

-कोई पुरस्कार?

-बाल भगवान को जयशंकर प्रसाद पुरस्कार। उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी सन् 1989 पुरस्कार। और भी बहुत सारे।

यह इंटरव्यू संपन्न। और मैं जैसे एक सपने से जागा। अभी अभी तो मेरे सामने बातें कर रहे थे और डायरी पर मैं नोट्स ले रहा था और अभी कहां चले गये स्वदेश दीपक? जब से गये हैं कुछ खबर नहीं।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ रमेश बतरा : कभी अलविदा न कहना ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

(15 मार्च – स्व रमेश बतरा जी की पुण्यतिथि पर विशेष)

☆ संस्मरण ☆ रमेश बतरा : कभी अलविदा न कहना ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

(प्रिय रमेश बतरा की पुण्यतिथि । बहुत याद आते हो मेशी। तुम्हारी मां कहती थीं कि यह मेशी और केशी की जोड़ी है । बिछुड़ गये ….लघुकथा में योगदान और संगठन की शक्ति तुम्हारे नाम । चंडीगढ़ की कितनी शामें तुम्हारे नाम…. मित्रो । आज डाॅ प्रेम जनमेजय द्वारा रमेश बतरा पर संपादित पुस्तक त्रासदी का बादशाह में अपना लिखा लेख भी उनकी अनुमति से पोस्ट कर रहा हू । -कमलेश भारतीय)

प्रिय मित्र । रमेश बतरा । संभवतः मैं पंजाब से उसका पहला मित्र रहा होऊंगा क्योंकि उन दिनों वह करनाल में पोस्टेड था । वहीं उसने बढ़ते कदम नामक अखबारनुमा पत्रिका का संपादन और प्रकाशन शुरू किया और मुझसे पत्र व्यवहार हुआ । इसके प्रवेशांक में मेरी कविता प्रकाशित हुई । यानी रमेश बतरा के संपादन में मुझे बढ़ते कदम से लेकर , सारिका, तारिका और संडे मेल तक हर सफर में प्रकाशित होने का सुअवसर मिला । फिर उसकी ट्रांसफर चंडीगढ़ हो गयी । सेक्टर आठ में उसका कार्यालय था । मैं नवांशहर से हर वीकएंड पर चंडीगढ़ उसके पास आने लगा । इस तरह हमारी दोस्ती परवान चढ़ती गयी । यानी ऐसी कि यह दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे तक पहुंच गयी । मैं उसी के घर रहता जिसका पता था 2872, सेक्टर 22 सी । हमेशा याद । बस स्टैंड से उतरते ही वहीं पहुंचता । रमेश की मां के बनाए परांठे और उनका मेरी कद काठी देख कर प्यारा सा नामकरण कि रमेश, वो तेरा चूहा सा नवांशहर वाला दोस्त भारती आया नहीं क्या ? इस तरह सारे परिवार में घुल मिल गया । बहन किरण हो या भाई नरेश या खुश सबके साथ घुल मिल गया । खुश बतरा से तो आज भी मोहाली जाने पर मुलाकात करने जाता हूं और रमेश की यादों की पगडंडियों पर निकल लेता हूं । पुराने फोटोज । पुरानी यादें । हमारे निक नेम थे -केशी और मेशी । केशी मेरा और मेशी रमेश का ।

इतने साल तक रमेश पर कुछ नहीं लिखा तो इसलिए कि अंतिम दिनों की स्थिति को देखकर भाई खुश ने कसम ले ली थी कि भाई साहब आप नहीं लिखोगे कुछ भी । आज इतने बरसों बाद लिखने जा रहा हूं तो डाॅ प्रेम जनमेजय के प्रेम भरे आग्रह से । नरेश अब रहा नहीं । किरण विदेश रहती है । खुश से सारे समाचार मिलते रहते हैं ।

चंडीगढ़ में रमेश ने लगातार न केवल अपने लेखन को निखारा बल्कि एक ऐसी मित्र मंडली तैयार की जो आने वाले समय में पंजाब के लेखन में सबसे आगे रही । मैं, मुकेश सेठी, सुरेंद्र मनन, तरसेम गुजराल, गीता डोगरा, नरेंद्र निर्मोही, संग्राम सिंह, प्रचंड आदि । कितने ही नाम जो अब  चर्चित हैं । संगठन और संपादन गजब का । जो दो लोग आपस में बोलते तक नहीं थे उन्हें मिलाना और एक करना । पहले तारिका का लघुकथा विशेषांक संपादित किया । फिर शाम लाल मेहता प्रचंड की पत्रिका साहित्य निर्झर का । साहित्य निर्झर के कथा विशेषांक भी निकाले । राजी सेठ की कहानी मैंने मंगवा कर दी । तब वे चर्चित होने लगी थीं और अहमदाबाद के केंद्रीय हिंदी लेखक शिविर से मेरा परिचय हुआ जो आज तक जारी है ।  लघुकथा विशेषांक चर्चित रहे और वह सारिका के संपादक व प्रसिद्ध कथाकार कमलेश्वर की निगाहों में आ गया । इस तरह वह चंडीगढ़ से मुम्बई तक पहुंचा और फिर सारिका के दिल्ली आने पर दिल्ली पहुंच पाया लेकिन पंजाब या चंडीगढ़ फिर नहीं लौटा । लघुकथा में रमेश बतरा के योगदान का उल्लेख बहुत कम होने पर दुख होता है । हरियाणा वाले भी उल्लेख करना भूलते जा रहे हैं ।

चंडीगढ़ में एक बार हम दशहरे पर इकट्ठे थे । सेक्टर ग्यारह में चाय पीने एक दुकान में गये और दुकानदार ने बहुत आग्रह से जलेबियां भी परोस दीं, यह कह कर कि दशहरा है जलेबियां खाओ । खूब हंसे । हर साल याद करते और वहीं जाते । सेक्टर 22 में अरोमा होटल के पास चाय की रेहड़ी पर हमारा कथा पाठ होता और आलोचना । चर्चा । जगमोहन चोपड़ा, राकेश वत्स, अतुलवीर अरोड़ा कितने नाम जुड़े और जुड़ते चले गये । काफिला बनता चला गया ।

चंडीगढ़ में रमेश बतरा न केवल मेरा मित्र रहा बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से मार्गदर्शक भी । उसने एक शर्त लगा रखी थी मेरे साथ कि चंडीगढ़ मेरे पास आना है तो महीने में एक कहानी लिखनी होगी । यही कारण है कि जब तक रमेश चंडीगढ़ रहा , मेरी कहानियां लिखने की रफ्तार तेज़ रही और मैं कहानी के संपादक व मुंशी प्रेमचंद जी के सुपुत्र श्रीपत राय की पत्रिका कहानी में एक साल के भीतर दस कहानियां लिख पाया । अज्ञेय के नया प्रतीक में दो कहानियां आईं और रमेश बतरा इसे अपनी सफलता मान कर खुश होता था । जब सारिका के लिए मुम्बई जाने लगा तब आकाशवाणी के उद्घोषक विनोद तिवारी के यहां कार्यक्रम रखा गया और मैंने वहां अपनी नयी कहानी का पाठ किया तब उसने झोली फैला कर कहा कि इसे मुझे दे दो । मैं इसे सारिका में प्रकाशित करूंगा । वही कहानी उस वर्ष सारिका के नवलेखन अंक में आई । रमेश ने पंजाबी से बहुत अच्छी कहानियों का अनुवाद भी किया । इनमें शमशेर संधु की कहानी मुझे याद है । हालांकि शमशेर संधु आज पंजाबी का सबसे बढ़िया गाने लिखने वाला गीतकार है । फख्र जमां के उपन्यास का अनुवाद भी किया-सत गवाचे लोग । यानी वह अन्य भाषाओं के बीच पुल का काम भी कर रहा था ।

चंडीगढ़ की मधुर यादों में एक बार रमेश बतरा ने पंजाब यूनिवर्सिटी के गांधी भवन में आयोजित गोष्ठी में कहानी का पाठ किया और वहां मौजूद अंग्रेजी की प्राध्यापिका तृप्ति ने उठ कर कहा कि मुझे रमेश बतरा की कहानियों से प्यार है और मैं इसका अनुवाद अंग्रेज़ी में करूंगी । उस समय खूब ठहाके लगे और मेज़ थपथपा कर इसका स्वागत् किया गया लेकिन रमेश बतरा बुरी तरह शरमा रहा था जोकि देखने लायक था । चंडीगढ़ में रहते सभी साहित्यिक गोष्ठियों का वह सितारा था । तारिका के डाॅ महाराज कृष्ण जैन से पहली मुलाकात रमेश बतरा के चलते हुई और उसने उनकी इतनी मदद की कि वह उनके पाठ तक लिखा करता था जो कहानी लेखन महाविद्यालय को बड़ा सहारा साबित हुए ।

आपातकाल वाले दिन यानी 25 जून , 1975 को भी मैं और रमेश बतरा एक साथ थे । उसने बस स्टैंड के सामने पंजाब बुक सेंटर से मुझे मार्क्स और दूसरे साथी एंगेल्ज की बेसिक जानकारी देने वाली दो छोटी पुस्तिकाएं खरीद कर दीं और कहा कि अब इन्हें पढ़ो । समय आ गया है । इस तरह मैंने लेनिन के चार भाग खुद खरीद कर पढ़े और नौ साल तक घनघोर कामरेड लेखक रहा । बाद में डाॅ इंद्रनाथ मदान ने मुझे निकाला जब मेरा कथा संग्रह महक से ऊपर पढ़ा । कहने लगे – कमलेश । ये मार्क्सवादी तुम्हें उतनी रस्सी देंगे जितनी चाहेंगे । इसलिए तुम छलांग लगा कर इस बाड़े से बाहर कूद जाओ । खैर । रमेश बतरा के चंडीगढ़ रहते समय डाॅ नरेंद्र कोहली सपरिवार आए थे तब मैं और रमेश बतरा उनके साथ न केवल यादवेंद्रा गार्डन पिंजौर गये बल्कि शाम को डाॅ मदान के यहां गोष्ठी भी रखी थी । रमेश को चुटकुले सुनाने की आदत थी और किसी प्रोफैशनल हास्य कलाकार से ज्यादा चटखारे लेकर चुटकुले सुनाता था ।

मुम्बई जाने पर हमारी खतो खितावत जारी रही और फिर रमेश ने कहा कि अब पढ़ाई  पूरी हो गयी यानी दूसरों का साहित्य तुमने खूब पढ़ लिया । अब खुल कर अपना लिखो । इस तरह मैं सारिका, कादम्बिनी, हिंदुस्तान, धर्मयुग और न जाने कितनी पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगा । रमेश बतरा मेरी रचनाओं को देख खुशी भरा खत लिखकर मेरा हौंसला बढ़ाता रहता ।

फिर वह दिल्ली आया सारिका के साथ और मेरे वीकएंड नवांशहर से दिल्ली बीतने लगे । सारिका के ऑफिस के बाहर चाय वाले के पास कितने ही लेखकों से मुलाकातें होने लगीं । इन्हीं में कथादेश के संपादक भी होते थे । पाली चित्रकार भी । चर्चाओं में कथादेश का जन्म हुआ । रमेश उपाध्याय से लम्बी चर्चाओं का मैं साक्षी रहा । श्रोता भी ।  यहीं डाॅ प्रेम जनमेजय से दोस्ती हुई जो आज तक निभ रही है यानी डील हुई, वे कहते हैं ।

दिल्ली में जो सीखा रमेश बतरा से वह यह कि लोकल बस में भी वह समय बेकार नहीं जाने देता था । अपने झोले में से रचनाएं निकाल कर संपादन करने लगते था । शोर शराबे में भी संपादन । बाद में दैनिक ट्रिब्यून में उपसंपादक बना तो यह मंत्र बड़ा काम आया । यह सीख भी ली कि रचना छपने पर कोई लेखक सेलीब्रेट करने के लिए प्रेस क्लब ले जाने का ऑफर दे तो टोटली मना करना । नहीं तो रमेश बतरा की तरह बुरी लत के शिकार हो जाओगे । दैनिक ट्रिब्यून में रहते कोई मुझे प्रेस क्लब ले जाकर पैग नहीं दे सका तो इसके पीछे भी रमेश के जीवन की बहुत बड़ी सीख रही ।

दिल्ली में ही उसकी मुलाकात जया रावत से हुई जो बाद में जया बतरा बनी । वे लोग जब लिव इन में रहते थे तब भी मैं घर ही रुकता और पता नहीं कैसे जया को यह देवर आज तक अच्छा लगा और मुझे भी मेरी प्यारी सी भाभी लगी जया । आज भी मेरा सम्पर्क बराबर है । कभी फोन कर लेते हैं । बच्चों को देख लेता हूं । मेरी साली साहिबा कांता विदेश से आईं तो जया के यहां ही रुकीं और जो उपहार दे सकती थीं , दिया और फिर इन लोगों की शादी में भी सहारनपुर तक शरीक हुईं । रमेश बतरा शादी से पहले जया को उत्तराखंड की मूल निवासी होने के कारण मज़ाक में कहता था -जया । तुम लंगूरपट्टी से आती हो न । वह प्यार में मारने दौड़ती । फिर हंसी मजाक चलता रहता । पर ये दिन कैसे बदल गये ? यह प्यार कहा सूख गया ? वह प्यार की नदी कहां खो गयी ? पता नहीं चला । कब डिप्रेशन और शराब की लत बढ़ती गयी और एक दिन शाम को खुश का फोन आया मेरे दैनिक ट्रिब्यून कार्यालय में कि भाई साहब आए हुए हैं । मैं ड्यूटी खत्म होते ही पहुंचा पर जिस रमेश को देखा कि बस दिल रो पड़ा । यह रमेश ? क्या हो गया इसको ? हाथों में कंपन । बात में कंपन । चलने में कंपन । यह कौन सा रमेश है ? फिर पीजीआई में दाखिल । लगभग हररोज़ ड्यूटी के बाद पहले पीजीआई जाता । खुश की पत्नी पीजीआई में ही कार्यरत थीं । इसलिए इलाज बेहतर । ठीक भी हो गया । चेहरे पर रौनक भी आ गयी । पर छूटी नहीं काफिर मुंह से लगी हुई । फिर वही हालत बना ली । वह रमेश जिसने मुझे मार्क्स हाथ में  दिया था, वह ज्योतिष की जानकारी इकट्ठी कर रहा था । आह । यह क्या हो गया मेरे दोस्त को ।

आखिर एक शाम दैनिक ट्रिब्यून के संपादक विजय सहगल का फोन आया । तब मैं हिसार में ब्यूरो चीफ होकर आ चुका था । मार्च का कोई दिन था । कहा –तुम्हारे दोस्त रमेश बतरा नहीं रहे । अब इस रविवार तुमने ही उस पर लिखना है । आदेश था । पर जब दिन भर की रिपोर्टिंग कर मैंने लिखने की कोशिश की तो कलम मुश्किल से सरकी । बड़ी मुश्किल से पूरा किया लेख और लिखने के बाद खूब रोया । बहुत बार मुझसे दिवंगत लेखकों पर लिखवाया लेकिन उस दिन पता चला कि किसी बहुत अपने के खो देने पर लिखना कितना मुश्किल काम होता है । वह कटिंग भी अब मेरा पास नहीं है । पर यादें हैं पर कोई चैलेंज नहीं कि हर माह एक कहानी लिख कर लाओ । तब से बहुत कम कहानियां लिखीं । काश । कहीं से रमेश कहे कि कहानी नहीं लिखोगे तो बात नहीं करूंगा । यादों में भी नहीं आऊंगा । बस । चंडीगढ़ से विदा देते समय रमेश बतरा ने यही गीत सबके बीच गुनगुनाया था –कभी अलविदा न कहना । अब कैसे कहें उसे अलविदा ?

अंतिम समय तक रमेश बतरा एक पत्रिका किस्सा नाम से निकालना चाहता था लेकिन वह किस्सा भी उसकी तरह अधूरा रह गया । मोहन राकेश के आधे अधूरे के नायक को नमन् । कभी फिर संपादन का अवसर मिला तो यह किस्सा भी पूरा करेंगे ।

 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संस्मरण – अनजाने में पढ़ा ‘उबूंटू’ का पाठ ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – संस्मरण – अनजाने में पढ़ा ‘उबूंटू’ का पाठ ☆

(किशोर अवस्था का एक संस्मरण आज साझा कर रहा हूँ।)

पढ़ाई में अव्वल पर खेल में औसत था। छुटपन में हॉकी खूब खेली। आठवीं से बैडमिंटन का दीवाना हुआ। दीवाना ही नहीं हुआ बल्कि अच्छा खिलाड़ी भी बना। दीपिका पदुकोण के दीवानों (दीपिका के विवाह के बाद अब भूतपूर्व दीवानों) को मालूम हो कि मैं उनके पिता प्रकाश पदुकोण के खेल का कायल था। तब दूरदर्शन पर सीधा प्रसारण तो था नहीं, अख़बारों में विभिन्न टूर्नामेंटों में उनके प्रदर्शन पर खेल संवाददाता जो लिख देता, वही मानस पटल पर उतर जाता। 1980 में ऑल इंग्लैंड बैडमिंटन चैम्पियनशिप जीतने के बाद तो प्रकाश पदुकोण मेरे हीरो हो गए। हवाई अड्डे पर लेने आई  अपनी मंगेतर उज्ज्वला करकरे (अब दीपिका की माँ) के साथ प्रकाश पदुकोण की अख़बार में छपी फोटो आज भी स्मृतियों में है।

अलबत्ता आप खेल कोई भी खेलते हों, एक सर्वसामान्य खेल के रूप में क्रिकेट तो भारत के बच्चों के साथ जुड़ा ही रहता है।

दसवीं की एक घटना याद आती है। स्कूल छूटने के बाद नौवीं के साथ क्रिकेट मैच खेलना तय हुआ। यह एक-एक पारी का टेस्ट मैच होता था। औसतन दो-ढाई घंटे में एक पारी निपट जाती थी। शायद आईसीसी को एकदिवसीय और टी-20 मैचों की परिकल्पना हमारे इन मिनी टेस्ट मैचों से ही सूझी।

शनिवार या संभवतः  महीने का अंतिम दिन रहा होगा। स्कूल जल्दी छूट गया। छोटी बहन उसी स्कूल में सातवीं में पढ़ती थी। मैं उसे साइकिल पर अपने साथ लाता, ले जाता था। शैक्षिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के कारण अनेक बार मैं छुट्टी के बाद भी लम्बे समय तक स्कूल में रुकता। मेरे कारण उसे भी ठहरना पड़ता। वह शांत स्वभाव की है। उस समय भी बोलती कुछ नहीं थी पर उसकी ऊहापोह मैं अनुभव करता।

आज मैच के कारण देर तक उसके रुकने की स्थिति बन सकती थी। मैं दुविधा में था। ख़ैर, मैच शुरू हुआ। मैं अपनी टीम का कप्तान था। उन दिनों कक्षा के मॉनीटर को खेल में भी कप्तानी देना चलन में था। टॉस हमने जीता। अपनी समझ से बल्लेबाजी चुनी। ओपनिंग जोड़ी मैदान में उतरी। उधर बहन गुमसुम बैठी थी। हमारा घर लगभग 7 किलोमीटर दूर था। सोचा साइकिल भगाते जाता हूँ और बहन को घर छोड़ कर लौटता हूँ। तब तक हमारे बल्लेबाज प्रतिद्वंदियों को छक कर धोएँगे।

बहन को घर छोड़कर लौटा तो दृश्य बदला हुआ था। टीम लगभग ढेर हो चुकी थी। 7 विकेट गिर चुके थे। जैसे-तैसे स्कोर थोड़ा आगे बढ़ा और पूरी टीम मात्र 37 रनों पर धराशायी हो गई।

पाले बदले। अब गेंदबाजी की ज़िम्मेदारी हमारी थी। कक्षा में बेंच पर कुलविंदर साथ बैठता था। अच्छा गेंदबाज था और घनिष्ठ मित्र भी। उससे गेंदबाजी का आरम्भ कराया। दो-तीन ओवर बीत गए। सामने वाली टीम मज़बूती से खेल रही थी।

गेंदबाजी में परिवर्तन कर कुलविंदर की जगह सरबजीत को गेंद थमाई। यद्यपि वह इतना मंझा हुआ गेंदबाज नहीं था पर मैच शुरू होने से पहले मैंने उसे गेंदबाजी का अभ्यास करते देखा था। भीतर से लग रहा था कि इस पिच पर सरबजीत प्रभावी साबित होगा।

सरबजीत प्रभावी नहीं घातक सिद्ध हुआ। एक के बाद एक बल्लेबाज आऊट होते चले गए। दूसरे छोर से कौन गेंदबाजी कर रहा था, याद नहीं। वह विकेट नहीं ले पा रहा था पर रन न देते हुए उसने दबाव बनाए रखा था। हमें छोटे स्कोर का बचाव करना था। वांछित परिणाम मिल रहा था, अतः मैंने दोनों गेंदबाजों के स्पैल में कोई परिवर्तन नहीं किया।

उधर बाउंड्री पर फील्डिंग कर रहे कुलविंदर की नाराज़गी मैं स्पष्ट पढ़ पा रहा था पर ध्यान उसकी ओर न होकर टीम को जिताने पर था। यह ध्यान और साथियों का खेल रंग लाया। प्रतिद्वंदी टीम 33 रनों पर ढेर हो गई। सरबजीत को सर्वाधिक विकेट मिले। कुलविंदर ने दो-चार दिन मुझसे बातचीत नहीं की।

अब याद करता हूँ तो सोचता हूँ कि टीम को प्रधानता देने का जो भाव अंतर्निहित था, वह इस प्रसंग से सुदृढ़ हुआ। हिंदी आंदोलन परिवार के अधिकारिक अभिवादन ‘उबूंटू’ (हम हैं, सो मैं हूँ) से यह प्रथम प्रत्यक्ष परिचय भी था।

‘उबूंटू!’

©  संजय भारद्वाज

(महाशिवरात्रि 2018, प्रातः 8 बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 84 – इलाहींच्या आठवणी…. ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

(जन्म – 1 मार्च 1946 मृत्यु – 31 जनवरी 2021)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 84 ☆

☆ इलाहींच्या आठवणी…. ☆

एकतीस जानेवारीला सुप्रसिद्ध गजलकार इलाही जमादार आपल्यातून निघून गेले. आणि मनात अनेक आठवणी जाग्या झाल्या…… तेवीस जानेवारीला मी त्यांना फोन केला होता तेव्हा त्यांच्या वहिनी ने फोन घेतला, मी म्हटलं, मी प्रभा सोनवणे, मला इलाहींशी बोलायचं आहे….त्यांनी इलाहींकडे फोन दिला, तेव्हा ते अडखळत म्हणाले, “आता निघायची वेळ झाली ……पुढे बोललेली दोन वाक्ये मला समजली नाहीत….मग त्यांच्या वहिनी ने फोन घेतला, त्या म्हणाल्या “आता त्यांना उठवून खुर्चीत बसवलं आहे, तब्बेत बरी आहे आता.”…..त्या नंतर सात दिवसांनी ते गेले!

मला इलाहींची पहिली भेट आठवते, १९९३ साली बालगंधर्व च्या कॅम्पस मधून चालले असताना अनिल तरळे या अभिनेत्याने माझी इलाहींशी ओळख करून दिली, मी इलाहीं च्या गजल वाचल्या होत्या, इलाही जमादार हे गजल क्षेत्रातील मोठं नाव होतं, मी त्यांच्यावरचा एक लेख ही त्या काळात वाचला होता, दारावरून माझ्या त्यांची वरात गेली मेंदीत रंगलेली बर्ची उरात गेली.. आता कशास त्याची पारायणे “इलाही’ माझीच भाग्यरेषा परक्या घरात गेली हा त्या लेखात उद्धृत केलेला शेर मला खुप आवडला होता, मी तसं त्यांना त्या भेटीत सांगितलं….कॅफेटेरियात आम्ही चहा घेतला, आणि इलाहींनी त्यांच्या अनेक गज़ला ऐकवल्या, मी खुपच भारावून गेले होते. त्यांनी मलाही कविता ऐकवायला सांगितलं तेव्हा मी पाठ असलेल्या दोन छोट्या कविता ऐकवल्या, त्यांनी छान दाद दिली.

एक छान ओळख करून दिल्याबद्दल अनिल तरळे चे आभार मानले, आणि म्हणाले, निघते आता, घरी जाऊन स्वयंपाक करायचा आहे तर ते म्हणाले “तुम्ही स्वयंपाक करत असाल असं वाटत नाही”, त्यांना नेमकं काय म्हणायचं होतं मला समजलं नाही…..

इलाहींच्या अप्रतिम गज़ला ऐकून मला कविता करणं सोडून द्यावंसं वाटलं होतं त्या काळात!

त्यानंतर काही दिवसांनी मी अभिमानश्री हा श्रावण विशेषांक काढला, त्याच्या प्रकाशन समारंभात आयोजित केलेल्या कविसंमेलनात त्यांना आमंत्रित केलं होतं त्या संमेलनात त्यांनी त्यांची गजल सादर केली होती. एवढा मोठा गजलकार पण अत्यंत साधा माणूस!

मी त्या काळात काव्यशिल्प या संस्थेची सभासद होते.

इलाहींच्या प्रभावाने आम्ही काव्यशिल्प च्या काही कवींनी एक गजलप्रेमी संस्था सुरू केली. काही मुशायरे घेतले, इलाही अनेकदा माझ्या घरी आले आहेत.ते स्वतःच्या गज़ला ऐकवत आणि माझ्या कविता ऐकवायला सांगत, दाद देत.

गजल च्या बाबतीत ते मला म्हणाले होते, तुम्ही “आपकी नजरोने समझा…..” ही गज़ल गुणगुणत रहा त्या लयीत तुम्हाला गज़ल सुचेल! पण तसं झालं नाही!

क्षितीज च्या मैफिलीत सादर करण्यासाठी मी पहिली गज़ल लिहिली ती अगदी ढोबळमानाने, मी इलाहींकडून गज़ल शिकले नाही. पण त्यांच्या प्रेरणेतून स्थापन झालेल्या या संस्थेमुळे गजलच्या वातावरणात राहिले, इलाहींच्या अध्यक्षतेखाली औरंगाबाद येथे संपन्न झालेल्या गजलसागर च्या अ.भा.म.गजलसंमेलनात माझ्या गजलला व्यासपीठ मिळालं त्यानंतर च्या अनेक गज़लसंमेलनात माझा सहभाग होता. “गजलसागर” चे गज़लनवाज भीमराव पांचाळे यांचा परिचय पुण्यात अल्पबचत भवन मध्ये त्यांच्या एका गजलमैफिलीच्या वेळी झाला होता, त्या मैफीलीचे सूत्रसंचालन अभिनेते प्रमोद पवार करत होते.

या अफाट गज़लक्षेत्रात माझी खसखशी एवढी नोंद घेतली गेली याला कुठेतरी कारणीभूत इलाही आहेत. निगर्वी, हसतमुख, मिश्किल नवोदितांना नेहमी प्रोत्साहन देणारे आणि नेहमी सहज छानशी टिप्पणी देणारे इलाहीजमादार आज आपल्यात नाहीत, पण त्यांच्या खुप स्वच्छ आणि सुंदर आठवणी आहेत.

लिहिल्या कविता, लिहिल्या गज़ला, गीते लिहिली
सरस्वती चा दास म्हणालो चुकले का हो?

?? असं म्हणणा-या या प्रतिभावंत गजलकाराला भावपूर्ण श्रद्धांजली, अभिवादन! ??

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ याद गली से, एक सत्यकथा- कैमला गांव — 62 साल पुराना ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

श्री अजीत सिंह


(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक अविस्मरणीय संस्मरण  ‘याद गली से, एक सत्यकथा- कैमला गांव … 62 साल पुराना। हम आपसे आपके अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय समय पर साझा करते रहेंगे।)

☆ संस्मरण  ☆ याद गली से, एक सत्यकथा- कैमला गांव — 62 साल पुराना ☆

कैमला, जो चंद रोज़ पहले तक एक अज्ञात सा गांव था, अब मीडिया की सुर्खियों में बना हुआ है। गत रविवार दस जनवरी को हरियाणा के मुख्य मंत्री मनोहरलाल खट्टर ने वहां एक जनसभा को संबोधित करना था पर ग्रामवासियों के एक वर्ग तथा आस पास के गांवों से आए किसान आंदोलनकारियों ने भारी पुलिस बंदोबस्त के बावजूद उस जगह घुस कर धरना दे दिया जहां जनसभा होनी थी। खट्टर का हेलीकॉप्टर वहां नहीं उतर सका और वे वापस जिला मुख्यालय करनाल चले गए।

कैमला गांव और वहां के राजकीय विद्यालय के साथ मेरा पुराना संबंध है। मैंने वहां छटी से लेकर नौवीं कक्षा तक की स्कूली  शिक्षा प्राप्त की थी। यह 1958 से 1962 के बीच का समय था। मैं निकटवर्ती पैतृक गांव हरसिंहपुरा से पहले दो साल रोज़ाना तीन किलोमीटर पैदल चलकर और बाद के दो साल साइकिल द्वारा स्कूल जाता था।

बहुत अच्छा स्कूल था। छटी कक्षा में हम टाट पर बैठते थे, सातवीं से आगे बैंच आ गए थे।

अध्यापक भी निष्ठावान थे। वे हमें बगैर पैसे लिए एक्स्ट्रा कोचिंग यानी ट्यूशन देते थे।

बस एक बुरी बात थी। ज़रा सी बात पर पिटाई हो जाती थी। थप्पड़, डंडे से ही नहीं, लात घूंसों से भी। हम भी ढीठ से हो गए थे। सब भूल जाते थे। असल में इसमें हमारे मां बाप का भी हाथ था। वे अक्सर स्कूल में आकर अध्यापक से कह जाते थे, भले ही बच्चे की चमड़ी उतार दो पर इसे सीधा कर दो और कुछ पढ़ा दो। सज़ा मिलने पर हम घर भी नहीं बताते थे।

जो पिटता था, उसका मज़ाक उड़ाते थे पर वो आगे से कहता था, कल तेरी बारी आएगी बच्चू तब पूछूंगा कैसी रही।

एक बात पिटाई से भी खराब थी। बहुत ही खराब। कुछ अध्यापक हमें गालियां भी देते थे। उल्लू का पट्ठा, हरामखोर, हरामजादा तो बात बात पर कहते थे। हम कुछ नहीं कर सकते थे। बस हमने जो अध्यापक जैसी गाली देता था, उसका वही नाम रख दिया और एक तरह से बदला सा ले लिया।

अगर कोई बच्चा दूसरे से पूछता कि अगला पीरियड किसका है, तो जवाब मिलता, उल्लू के पट्ठे का।

एक अध्यापक तो बिल्कुल ही गिरा हुआ था। वह हमें बहन की गाली देने लगा। यह हमारी बर्दाश्त के बाहर था। सातवीं क्लास के हम सभी बच्चों ने इसका विरोध करने का फैसला किया। जिसे भी अध्यापक गाली दे, वही खड़ा होकर विरोध करेगा कि बहन की गाली न दी जाए।

अब इसे मेरी बुरी किस्मत कहिए कि उस दिन उस अध्यापक की गाली का शिकार मुझे बनना पड़ा। मैंने खड़े होकर डरते हुए कहा कि मास्टरजी  बहन की गाली मत दीजिए। मास्टरजी ने ज़ोर से कहा, क्या कहा तूने? मैंने अपनी बात फिर दोहरा दी। मास्टर कुछ हड़बड़ा सा गया और मेज़ पर रखा अपना डंडा उठा कर बड़ी तेज़ी से क्लास से बाहर चला गया।

हम सब हैरान थे, डरे हुए भी थे कि अब पता नहीं क्या होगा।

कोई दस मिनट बाद चपरासी आया और मुझे व क्लास मॉनिटर  पृथ्वी सिंह को बुला कर ले गया, हेडमास्टर के दफ्तर में। हेडमास्टर ने हमें दो दो थप्पड़ लगाए और ‘मुर्गा’ बना दिया। खुद निकल गए साथ लगते स्टाफ रूम के लिए जहां सभी अध्यापक अपनी कक्षाएं छोड़ कर इकठ्ठा हो गए थे। गर्मागर्म बहस हो रही थी अंदर पर कुछ स्पष्ट सुनाई नहीं दे रहा था। कोई एक घंटे बाद फिर सभी टीचर अपनी अपनी क्लास में आए और बच्चों को समझाने लगे अनुशासन की बातें। हेडमास्टर गाली गलौज करने वाले टीचर के साथ हमारी क्लास में आए। मुझे और पृथ्वी मॉनिटर को भी हेडमास्टर के दफ्तर से क्लास में बुला लिया गया।

“जिस तरह से इस विद्यार्थी ने गुस्ताखी की है, हम चाहें तो इसे अभी स्कूल से निकाल सकते हैं। आखरी चेतावनी दे रहे हैं सभी को। अगर फिर अनुशासनहीनता हुई तो कड़ी सज़ा मिलेगी। टीचर  कभी गुस्सा भी करते हैं तो वो तुम्हारी भलाई के लिए ही करते हैं। चलो माफी मांगो मास्टर जी से”।

हम डरे हुए थे। हमने माफी मांग ली। अंदर से बड़ा गुस्सा भी आ रहा था सभी को। ग़लत बात करे मास्टर और माफी मांगे हम।

अगले दिन हम बड़े हैरान थे कि किसी भी अध्यापक ने गाली नहीं दी। हमारा विद्रोह सफल हो गया था। गाली गलौज करने वाले टीचर हार गए थे। बाद में पता चला कि हमारे संस्कृत के अध्यापक राजपाल शास्त्री जी ने स्टाफ रूम मे गाली देने वाले अध्यापकों की कड़ी निन्दा करते हुए उन्हे फटकार लगाई थी।

सभी विद्यार्थी बड़े ही खुश थे। एक बार तो उन्होंने नारे भी लगा दिए।

“विद्यार्थी एकता ज़िंदाबाद”

“गाली गलौज नहीं चलेगी”

“मार कुटाई नहीं चलेगी”।

और इस तरह हम डर डर कर विद्यार्थी नेता बन गए। अब 62 साल बाद किसान आंदोलन के बीच मुझे यह घटना याद आई तो सहसा अपने सहपाठियों की भी याद आई। किसान आंदोलकारियों में मेरे सहपाठियों के बेटे या पोते भी हो सकते हैं। कुछ सहपाठी भी हो सकते हैं। आखिरकार हमने नारे लगाना तो 62 साल पहले सातवीं क्लास में ही सीख लिया था। पता नहीं मेरे सहपाठी या उनकी संतान आंदोलनकारियों के किस गुट में शामिल थे। मुख्यमंत्री को बुलाने वालों में या उसे भगाने वालों में। यह भी संभव है कि एक ही परिवार के कुछ व्यक्ति इधर हों और कुछ उधर। कुछ ऐसा ही तो हुआ था सदियों पहले केवल 50 किलोमीटर दूर कुरुक्षेत्र में।

कैमला में भी एक कुरुक्षेत्र तो बन ही गया। भारत में जब बड़े जन आंदोलनों का नाम आएगा तो किसान आंदोलन का नाम भी कहीं सर्वोपरि स्थानों में होगा। और इस आंदोलन में जब सिंघु बॉर्डर, टिकरी बॉर्डर और गाज़ीपुर बॉर्डर का नाम आएगा तो मेरी शिक्षास्थली कैमला गांव का संदर्भ सूत्र भी जुड़ा मिलेगा।

मेरे सहपाठी और उनकी संतान अपने अपने खेमों में किसान एकता जिंदाबाद के नारे लगा रहे होंगे। मैं  उनकी सुरक्षा की मंगल कामना करता हूं तो मेरे मन मस्तिष्क में वे पुराने नारे भी गूंजने लगते हैं जब हम कहा करते थे,

विद्यार्थी एकता ज़िंदाबाद,  कैमला स्कूल ज़िंदाबाद।

 

©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

संपर्क: 9466647037

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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