संस्मरण- विकास की दौड़ में खुद को खोते गाँव – सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

मालती मिश्रा ‘मयंती’

 

 

 

 

 

विकास की दौड़ में खुद को खोते गाँव

(सुश्री मालती मिश्रा जी का यह आलेख आपको जीवन  के उन  क्षणों का स्मरण करवाता है जो हम विकास की दौड़ में अपने अतीत के साथ खोते जा  रहे हैं। यह मेरे लिए अत्यन्त कठिन था कि इस आलेख को जीवन यात्रा मानूँ या संस्मरण। अब आप स्वयं ही तय करें कि यह आलेख जीवन यात्रा है अथवा संस्मरण।)

वही गाँव है वही सब अपने हैं पर मन फिर भी बेचैन है। आजकल जिधर देखो बस विकास की चर्चा होती है। हर कोई विकास चाहता है, पर इस विकास की चाह में क्या कुछ पीछे छूट गया, ये शायद ही किसी को नजर आता हो। या शायद कोई पीछे मुड़ कर देखना ही नहीं चाहता। पर जो इस विकास की दौड़ में भी दिल में अपनों को और अपनत्व को बसाए बैठे हैं उनकी नजरें, उनका दिल तो वही अपनापन ढूँढ़ता है। विकास तो मस्तिष्क को संतुष्टि हेतु और शारीरिक और सामाजिक उपभोग के लिए शरीर को चाहिए, हृदय को तो भावनाओं की संतुष्टि चाहिए जो प्रेम और सद्भावना से जुड़ी होती है।

मैं कई वर्षों बाद अपने पैतृक गाँव आई थी मन आह्लादित था…कितने साल हो गए गाँव नहीं गई, दिल्ली जैसे शहर की व्यस्तता में ऐसे खो गई कि गाँव की ओर रुख ही न कर पाई पर दूर रहकर भी मेरी आत्मा सदा गाँव से जुड़ी रही। जब भी कोई परेशानी होती तो गाँव की याद आ जाती कि किस तरह गाँव में सभी एक-दूसरे के सुख-दुख में साथ होते, गाँव में किसी बेटी की शादी होती थी तो गाँव के हर घर में गेहूँ और धान भिजवा दिया जाता और सभी अपने-अपने घर पर गेहूँ पीसकर और धान कूटकर आटा, चावल तैयार करके शादी वाले घर में दे जाया करते। शादी के दो दिन पहले से सभी घरों से चारपाई और गद्दे आदि मेहमान और बारातियों के लिए ले जाया करते। लोग अपने घरों में चाहे खुद जमीन पर सोते पर शादी वाले घर में कुछ भी देने को मना नहीं करते और जब तक मेहमान विदा नहीं हो जाते तब तक सहयोग करते। उस समय सुविधाएँ कम थीं पर आपसी प्रेम और सद्भाव था जिसके चलते किसी एक की बेटी पूरे गाँव की बेटी और एक की इज़्जत पूरे गाँव की इज़्ज़त होती थी।

बाबूजी शहर में नौकरी करते थे लिहाजा हम भी उनके साथ ही रहते, बाबूजी तो हर तीसरे-चौथे महीने आवश्यकतानुसार गाँव चले जाया करते थे पर हम बच्चों को तो मई-जून का इंतजार करना पड़ता था, जब गर्मियों की छुट्टियाँ पड़तीं तब हम सब भाई-बहन पूरे डेढ़-दो महीने के लिए जाया करते।

उस समय स्टेशन से गाँव तक के लिए किसी वाहन की सुविधा नहीं थी तो हमें तीन-चार कोस की दूरी पैदल चलकर तय करनी होती थी। हम छोटे थे और नगरवासी भी बन चुके थे तो नाजुकता आना तो स्वाभाविक है, फिर भी हम आपस में होड़ लगाते एक-दूसरे संग खेलते-कूदते, थककर रुकते फिर बाबूजी का हौसलाअफजाई पाकर आगे बढ़ते। रास्ते में दूर से नजर आते पेड़ों के झुरमुटों को देकर आँखों में उम्मीद की चमक लिए बाबूजी से पूछते कि “और कितनी दूर है?” और बाबूजी बहलाने वाले भाव से कहते “बस थोड़ी दूर” और हम फिर नए जोश नई स्फूर्ति से आगे बढ़ चलते। गाँव पहुँचते-पहुँचते सूर्य देव अपना प्रचण्ड रूप दिखाना शुरू कर चुके होते। हम गाँव के बाहर ही होते कि पता नहीं किस खबरिये से या गाँव की मान्यतानुसार आगंतुक की खबर देने वाले कौवे से पता चल जाता और दादी हाथ में जल का लोटा लिए पहले से ही खड़ी मिलतीं। हमारी नजर उतारकर ही हमें घर तो छोड़ो गाँव में प्रवेश मिलता। खेलने के लिए पूरा गाँव ही हमारा प्ले-ग्राउंड होता, किसी के भी घर में छिप जाते किसी के भी पीछे दुबक जाते सभी का भरपूर सहयोग मिलता। रोज शाम को घर के बाहर बाबूजी के मिलने-जुलने वालों का तांता लगा रहता। अपनी चारपाई पर लेटे हुए उनकी बातें सुनते-सुनते सो जाने का जो आनंद मिलता कि आज वो किसी टेलीविजन किसी म्यूजिक सिस्टम से नहीं मिल सकता।

डेढ़-दो महीने कब निकल जाते पता ही नहीं चलता और जाते समय सिर्फ आस-पड़ोस के ही नहीं बल्कि गाँव के अन्य घरों के भी पुरुष-महिलाएँ हमें गाँव से बाहर तक विदा करने आते, दादी की हमउम्र सभी महिलाओं की आँखें बरस रही होतीं उन्हें देखकर यह अनुमान लगाना मुश्किल होता कि किसका बेटा या पोता-पोती बिछड़ रहे हैं।

धीरे-धीरे गाँव का भी विकास होने लगा, सुविधाएँ बढ़ने लगीं और सोच के दायरे घटने लगे। जो सबका या हमारा हुआ करता था, वो अब तेरा और मेरा होने लगा था। पहले साधन कम थे पर मदद के लिए हाथ बहुत थे अब साधन बढ़े हैं पर मदद करने वाले हाथ धीरे-धीरे लुप्त होने लगे हैं।

अब तो गाँव का नजारा ही बदल चुका है, सुविधाएँ बढ़ी हैं ये तो पता था पर इतनी कि जहाँ पहले रिक्शा भी नहीं मिल पाता था वहाँ अब टैम्पो उपलब्ध था वो भी घर तक। गाँव के बदले हुए रूप के कारण मैं पहचान न सकी , जहाँ पहले छोटा सा बगीचा हुआ करता था, वहाँ अब कई पक्के घर हैं। लोग कच्ची झोपड़ियों से पक्के मकानों में आ गए हैं, परंतु जेठ की दुपहरी की वो प्राकृतिक बयार खो गई जिसके लिए लोग दोपहर से शाम तक यहाँ पेड़ों की छाँह में बैठा करते थे।

कुछ कमी महसूस हो रही थी शायद वहाँ की आबो-हवा में घुले हुए प्रेम की। लोग आँखों में अचरज या शायद अन्जानेपन का भाव लिए निहार रहे थे, मुझे लगा कि अभी कोई दादी-काकी उठकर मेरे पास आएँगीं और मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए प्रेम भरी झिड़की देते हुए कहेंगी-“मिल गई फुरसत बिटिया?” पर ऐसा कुछ नहीं हुआ बल्कि मैं उस समय हतप्रभ रह गई जब मैंने गाँव की अधेड़ महिला से रास्ता पूछा, मुझे उम्मीद थी कि वो मेरा हाल-चाल पूछेंगी और बातें करते हुए घर तक मेरे साथ जाएँगीं पर उन्होंने राह तो बता दी और अपने काम में व्यस्त हो गईं। एक पल में ही ऐसा महसूस हुआ कि गाँवों में शहरों से अधिक व्यस्तता है।

अपने ही घर के बाहर खड़ी मैं अपना वो घर खोज रही थी जो कुछ वर्ष पहले छोड़ गई थी। मँझले चाचा के घर की जगह पर सिर्फ नीव थी जिसमें बड़ी-बड़ी झाड़ियाँ खड़ी अपनी सत्ता दर्शा रही थीं, छोटे बाबा जी का घर वहाँ से नदारद था और उन्होंने नया घर हमारे घर की दीवार से लगाकर बनवा लिया था। छोटे चाचा जी का वो पुराना घर तो था पर वह अब सिर्फ ईंधन और भूसा रखने के काम आता सिर्फ हमारा अपना घर वही पुराने रूप में खड़ा था और सब उसी घर में रहते हैं पर वो भी इसलिए क्योंकि बाबूजी ने भी गाँव के बाहर एक बड़ा घर बनवा लिया है पर वो अभी तक अपनी पुरानी ज़मीन से जुड़े हुए हैं, इसीलिए मँझले चाचा की तरह नए घर में रहने के लिए पुराने घर को तोड़ न सके।

विकास का यह चेहरा मुझे बड़ा ही कुरूप लगा, एक बड़े कुनबे के होने के बाद भी सुबह सब अकेले ही घर से खेतों के लिए निकलते हैं, इतने लोगों के होते हुए भी शाम को घर के बाहर वीरानी सी छाई रहती है। पड़ोसी तो दूर अपने ही परिवार के सदस्यों को एक साथ जुटने के लिए घंटों लग जाते हैं। विकास के इस दौड़ में गाँवों ने आपसी प्रेम, सद्भाव, सहयोग, एक-दूसरे के लिए अपनापन आदि अनमोल भावनाओं की कीमत पर कुछ सहूलियतें  खरीदी हैं। आज लोगों के पास पैसे और सहूलियतें तो हैं पर वो सुख नहीं है, जो एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर सहयोग से हर कार्य को करने में था। विकास ने गाँवों को नगरों से तो जोड़ दिया पर आपसी प्रेम की डोर को तोड़ दिया। विकास का ऊपरी आवरण जितना खूबसूरत लगता है भीतर से उतना ही नीरस है।

© मालती मिश्रा ‘मयंती’

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संस्मरण-भूली हुई यादें – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

भूली हुई यादें

(वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय श्री जयप्रकाश पाण्डे जी हमारी पीढ़ी के उन सौभाग्यशाली लोगों में शामिल हैं  जिन्हें कई वरिष्ठ हस्तियों से व्यक्तिगत रूप से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, जिनमें प्रमुख तौर पर स्व श्री हरीशंकर परसाईं और आचार्य रजनीश जैसी हस्तियाँ शामिल हैं। हम समय समय पर उनके संस्मरणों का उल्लेख अपने पाठक मित्रों  से साझा करते रहेंगे।)  

इन दिनों डर और अविश्वास ने हम सब की जिंदगी में ऐसा कब्जा जमा लिया है कि कुछ भी सच नहीं लगता, किसी पर भी विश्वास नहीं होता। कोई अपनी पुरानी यादों के पन्ने खोल कर किसी को बताना चाहता है तो सुनने वाला डर और अविश्वास की चपेट में लगता है।

जिस दोस्त को हम ये कहानी बता रहे हैं, वह इस कहानी के सच के लिए तस्वीर चाह रहा है, सेल्फी देखना चाह रहा है, विडियो की बात कर रहा है। उस जमाने में ये सब कहां थे। फिर कहां से लाएं जिससे उसे लगे कि जो वह सुन रहा है सच सुन रहा है।  लड़कपन की कहानी है जब हम छठवीं या सातवीं में पढ़ रहे थे गांव से पढ़ने शहर आये थे गरीबी के साथ गोलबाजार के एक खपरैल कमरे में रहते थे बड़े भाई उन दिनों डॉ महेश दत्त मिश्रा जी के अंडर में इण्डियन प्राइम मिनिस्टर संबंधी विषय पर पीएचडी कर रहे थे। पिता स्वतंत्रता संग्राम के दिनों नौकरी छोड़कर आँखें गवां चुके थे। माँ पिता जी गाँव में थे। घर के पड़ोस में महाकौशल स्कूल था और उस पार अलका लाज के पास साहू के मकान में महात्मा गांधी के निजी सचिव पूर्व सांसद डाक्टर महेश दत्त मिश्र जी दो कमरे के मकान में रहते थे। सीमेंट से बना मकान था। अविवाहित थे, खुद अपने हाथों घर की साफ-सफाई करते, खाना बनाते, बर्तन और कपड़े धोते। खेलते खेलते कभी हम उनके घर पहुंच जाते। एक दिन घर पहुँचे तो वे फूली फूली रोटियां सेंक रहे थे और एक पुरानी सी मेज में बैठे दाढ़ी वाले सज्जन को वो गर्म रोटियां परोस रहे थे, हम भी सामने बैठ गए, हमें भी गरमा गर्म एक रोटी परोस दी उन्होंने। खेलते खेलते भूख तो लगी थी वे गरम रोटियां जो खायीं तो उसका प्यारा स्वाद आज तक नहीं भूल पाए।

मिश्र जी गोल गोल फूली रोटियां सामने बैठे दाढ़ी वाले को परोसते जाते और दोनों आपस में हंस हंसकर बातें भी कर रहे थे। वे दाढ़ी वाले सज्जन आचार्य रजनीश थे जो उन दिनों विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र पढ़ाते थे। लड़कपन था खाया पिया और हम बढ़ लिए…. ।

कुछ दिन बाद शहीद स्मारक के सामने हम लोग खेल रहे थे, खेलते खेलते शहीद स्मारक भवन के हाल में हम लोग घुस कर बैठ गए तो सामने मंच में बैठे वही दाढ़ी वाले रजनीश कुछ कुछ बोल रहे थे, थोड़े बहुत जो लोग सुन रहे थे वे भी धीरे-धीरे खिसक रहे थे पर वे लगातार बोले ही जा रहे थे। इस तरह से लड़कपन में आचार्य रजनीश से बिना परिचय के मिलना हुआ।

बड़े भैया के साथ परसाई जी के यहां जाते तब भी वहां ये बैठे दिखे थे पर उस समय हम न परसाई जी को जानते थे और न ये दाढ़ी वाले आचार्य रजनीश को। कमरे के पीछे आचार्य रजनीश के भाई अरविंद जैन रहते थे जो डी एन जैन महाविद्यालय  में पढ़ाते थे।

अभी दो तीन साल पहले जब पूना के आश्रम घूमने गए तो वहां हमारे एक दोस्त मिल गए, उनसे जब लड़कपन के दिनों की चर्चा करते हुए ओशो से भेंट की कहानी सुनाई तो पहले वे ध्यान से सुनते रहे फिर फोटो की मांग करने लगे……

अब बताओ कि 48 साल पहले की फोटो दोस्त को लाकर कहाँ से दिखायें, जब हमें ये भी नहीं मालूम था कि फोटो – ओटो भी होती थी। हमने कहा पूना आये थे तो सोचा ओशो आश्रम भी घूम आयें और आप मिल गए तो यादों के पन्ने भी खुल गए तो सोचा इन यादों को आपसे शेयर कर लिया जाए, फोटो तो नहीं हैं पर मन मस्तिष्क में सब यादें अचानक उभर आयीं। तब दोस्त ने एक अच्छी सलाह दी कि अब बता दिया तो बता दिया, अब किसी के सामने मत बताना, नहीं तो लोग सोचेंगे कि दिमाग कुछ घूम गया है…….

©  जय प्रकाश पाण्डेय

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संस्मरण-यादें: भूली-बिसरी – इन्दल – श्री संतोष रावत

यादें: भूली-बिसरी – इन्दल

‘मे आई कम इन सर’ सुनते ही पूरी क्लास का ध्यान दरवाजे की ओर गया और एक ही क्षण में शिक्षक की ओर। शिक्षक की ओर से कोई उत्तर नहीं। उन्होनें अपना रूल उठाया और दरवाजे की ओर खुद ही बढ़ चले।

दोनों हथेलियों को आपस में रगड़ रहा था क्लास में पिछली सीट पर बैठा इन्दल। गले से मफलर निकाल कर दोनों हथेलियों पर लपेटा, यह सोच कर कि भरी ठंड में रूल से मार खाई हथेलियों को आपस में रगड़ने से और मफलर की गर्माहट से दर्द से शीघ्र आराम मिल जाएगा।

पूरी क्लास स्तब्ध। कभी इन्दल के रुआंसे चेहरे की ओर देखती, कभी ब्लैक बोर्ड के सामने बैठे शिक्षक को।

इन्दल हमारे साथ पढ़ता था। वैसे उसका नाम इंदर था। समाज में निम्न जाति का कहलाने वाला यह क्लास के सभी छात्रों से ज्यादा तगड़ा था। ऊंचा कद, सीधा होकर चलने वाला यह क्लास में सबसे बड़ा दिखता था। हालांकि उम्र में वह हमारे जितना ही बड़ा था। जहां हम निकर पहनते, वह अपने ऊंचे कद, लंबे हाथ-पैर की वजह से बड़ी मोहरी का पायजामा पहनता था। सातवीं कक्षा (सन 1967) में पढ़ने वाले हम छात्रों के बीच वह अपनी कद-काठी के कारण ग्यारहवीं का छात्र लगता था।

श्री रामनारायण दुबे जी, जो आर. एन. दद्दा (होशंगाबाद में डॉ. सीठा के पास जिनका निवास स्थान था) के नाम से प्रसिद्ध थे, हमें अंग्रेजी विषय पढ़ाते थे। सफेद झक्क धोती-कुर्ता पहनने वाले, सीधी कमर कर और कंधों को चौड़ा कर तेज कदमों से चलने वाले, रोबीले व्यक्तित्व के दद्दा जब एस. एन. जी. स्कूल में जब भी कोई क्लास लेते थे तो उस क्लास में पूर्ण अनुशासन रहता था। उनका पीरियड होता था तो समय पूर्व क्लास में पहुंच जाते थे और साथ ही अपनी कॉपी पुस्तक आदि तैयार रखते थे। जब वे क्लास लेते थे तो उनकी क्लास के सामने से स्कूल का कोई छात्र आपस में बात करते हुए और चलते समय जूते-चप्पल की आवाज करते हुए नहीं निकलता था।

समय के पाबन्द थे दद्दा। छात्रों को एकाग्रता, समय की पाबंदी, अनुशासन की शिक्षा उदाहरण सहित देते थे। सबसे ज्यादा जोर वे सत्य बोलने के लिए देते थे, हम छात्रों को। उनकी क्लास में आपस में बातचीत करना, समय पश्चात आना दंडनीय था। यही कारण था कि इन्दल को क्लास प्रारंभ होने के बाद आने की सजा मिली थी।

पूरी क्लास शान्त। इन्दल सिर झुकाए शान्त। कुर्सी पर बैठे दद्दा शान्त।

कुछ देर बाद दद्दा की तेज आवाज गूंजी – जानते हो अकेले तुम्हारे कारण पूरी क्लास को पढ़ाई का नुकसान हुआ है। ठंड में यदि ये सभी समय से आ सकते है तो तुम क्यों नहीं आ सकते हो? बोलों, सच-सच बोलों क्यों देर हुई?

इन्दल कांपते हुए अपनी जगह पर खड़ा हुआ और बोला- सर, मेरे पिताजी नहीं चाहते कि मैं पढ़ाई करूँ और न ही वे किताब-कापियों, फीस आदि के पैसे देते हैं। किंतु, मैं पढ़ना चाहता हूँ। इसलिए मैं टाकीज में गेटकीपर की नौकरी करता हूँ। (याद करें होशंगाबाद में उन दिनों एक ही टाकीज हुआ करती थी – बसंत टाकीज और वहां से कंजर मोहल्ला नजदीक था)। सर, रोज रात को बारह बजे तक घर आ जाता हूं।  किन्तु, कल फिल्मों के पोस्टर आदि चिपकाने में समय ज्यादा हो गया और आज मेरी नींद समय पर नहीं खुल पाई। यह कहते रुआंसा हो गया था इन्दल।

इन्दल बोल रहा था। क्लास की दीवारों से टकराकर उसकी आवाज प्रतिध्वनि के रूप में हमारे कानों में गूंज रही थी।

कुछ देर सन्नाटा छाया रहा। फिर दद्दा खड़े हुए। झुके कंधों, बोझिल कदमों से चलते हुए इन्दल के पास पहुंचे और उसके सिर पर हाथ रखकर अपने से चिपका लिया। इन्दल सुबक रहा था। दद्दा अपनी आँखों को हथेली से पोंछ रहे थे। हम छात्रों में कुछ के आँसू आ गए थे और कुछ की आँखें पनिया गई थी।

दद्दा उसके कंधों पर हाथ रखे अपने साथ बोर्ड तक लाये और हमसे कहा – तुमको सिखाने वाला मैं आज एक बात सीखा- किसी को बिना कारण जाने सजा नहीं देना चाहिए। अब कोई विद्यार्थी बिना कारण जाने मुझसे सजा नही पायेगा। कौन जाने किसी का कारण इन्दल जैसा हो। मैं अपने इस कृत्य के लिए दुःखी हूँ।

सातवीं क्लास के छात्रों के सामने एक शिक्षक अपनी गलती स्वीकार करें इससे बड़ी महानता और क्या हो सकती है! और इन्दल, जो कद-काठी, ऊंचाई, चौड़े सीने के कारण हमारी क्लास में सबसे बड़ा दिखता था, वह अब हमें अपने स्कूल में सबसे ‘बड़ा’ लगने लगा।

इतने वर्षों बाद भी यह घटना मुझे प्रायः याद आती रहती है। सातवीं कक्षा का एक छात्र, स्वयं नौकरी कर अपनी पढ़ाई कर रहा हो, यह सन 1967 में कोई सोच भी नहीं सकता था। हमारी क्लास में भी किसी को नहीं मालूम था कि इन्दल नौकरी करते हुए पढ़ाई कर रहा है।

अब कहाँ है इन्दल मुझे नहीं  मालूम।

क्या आप में से किसी को मालूम है?

©  सन्तोष रावत

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संस्मरण-चुटका परमाणु घर – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

चुटका परमाणु घर 

बीस साल पहले मैं स्टेट बैंक की नारायणगंज (जिला – मण्डला) म. प्र. में शाखा प्रबंधक था। बैंक रिकवरी के सिलसिले में बियाबान जंगलों के बीच बसे चुटका गांव में जाना हुआ था आजीवन कुंआरी कलकल बहती नर्मदा के किनारे बसे छोटे से गांव चुटका में फैली गरीबी, बेरोजगारी, निरक्षरता देखकर मन द्रवित हुआ था और आज संस्मरण लिखने का अचानक मन हो गया। चुटका गांव की आंगन में रोटी सेंकती गरीब छोटी सी बालिका ने ऐसी प्रेरणा दी कि हमारे दिल दिमाग पर चुटका के लिए कुछ करने का भूत सवार हो गया। उस गरीब बेटी के एक वाक्य ने इस संस्मरणात्मक कहानी को जन्म दिया।

आफिस से रोज पत्र मिल रहे थे,……. रिकवरी हेतु भारी भरकम टार्गेट दिया गया था । कहते है – ”वसूली केम्प गाँव -गाँव में लगाएं, तहसीलदार के दस्तखत वाला वसूली नोटिस भेजें ….. कुर्की करवाएं ……और दिन -रात वसूली हेतु गाँव-गाँव के चक्कर लगाएं, … हर वीक वसूली के फिगर भेजें,…. और ‘रिकवरी -प्रयास ‘ के नित-नए तरीके आजमाएँ ………. । बड़े साहब टूर में जब-जब आते है ….. तो कहते है – ”तुम्हारे एरिया में २६ गाँव है, और रिकवरी फिगर २६ रूपये भी नहीं है, धमकी जैसे देते है …….कुछ नहीं सुनते है, कहते है – कि पूरे देश में सूखा है … पूरे देश में ओले पड़े है ….. पूरे देश में गरीबी है ……हर जगह बीमारी है पर हर तरफ से वसूली के अच्छे आंकड़े मिल रहे है और आप बहानेबाजी के आंकड़े पस्तुत कर रहे है, कह रहे है की आदिवासी इलाका है गरीबी खूब है ………….कुल मिलाकर आप लगता है की प्रयास ही नहीं कर रहे है …….आखें तरेर कर न जाने क्या -क्या धमकी ……… ।

तो उसको समझ में यही आया की वसूली हेतु बहुत प्रेशर है और अब कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा …….. सो उसने चपरासी से वसूली से संबधित सभी रजिस्टर निकलवाये , ….. नोटिस बनवाये … कोटवारों और सरपंचों की बैठक बुलाकर बैंक की चिंता बताई । बैठक में शहर से मंगवाया हुआ रसीला -मीठा, कुरकुरे नमकीन, ‘फास्ट-फ़ूड’ आदि का भरपूर इंतजाम करवाया ताकि सरपंच एवम कोटवार खुश हो जाएँ … बैठक में उसने निवेदन किया कि अपने इलाका का रिकवरी का फिगर बहुत ख़राब है कृपया मदद करवाएं, बैठक में दो पार्टी के सरपंच थे …आपसी -बहस ….थोड़ी खुचड़ और विरोध तो होना ही था, सभी का कहना था की पूरे २६ गाँव जंगलों के पथरीले इलाके के आदिवासी गरीब गाँव है, घर-घर में गरीबी पसरी है फसलों को ओलों की मार पड़ी है …मलेरिया बुखार ने गाँव-गाँव में डेरा डाल रखा है ,….. जान बचाने के चक्कर में सब पैसे डॉक्टर और दवाई की दुकान में जा रहा है ….ऐसे में किसान मजदूर कहाँ से पैसे लायें … चुनाव भी आस पास नहीं है कि चुनाव के बहाने इधर-उधर से पैसा मिले …….. सब ने खाया पिया और “जय राम जी की”कह के चल दिए और हम देखते ही रह गए ……. ।

दूसरे दिन उसने सोचा – सबने डट के खाया पिया है तो खाये पिए का कुछ तो असर होगा, थोड़ी बहुत वसूली तो आयेगी …….. यदि हर गाँव से एक आदमी भी हर वीक आया तो महीने भर में करीब 104  लोगों से वसूली तो आयेगी ऐसा सोचते हुए वह रोमांचित हो गया ….. उसने अपने आपको शाबासी दी ,और उत्साहित होकर उसने मोटर सायकिल निकाली और “रिकवरी प्रयास”’ हेतु वह चल पड़ा गाँव की ओर ………… जंगल के कंकड़ पत्थरों से टकराती ….. घाट-घाट कूदती फांदती … टेडी-मेढी पगडंडियों में भूलती – भटकती मोटर साईकिल किसी तरह पहुची एक गाँव तक ……… ।

सोचा कोई जाना पहचाना चेहरा दिखेगा तो रोब मारते हुए “रिकवरी धमकी” दे मारूंगा, सो मोटर साईकिल रोक कर वह थोडा देर खड़ा रहा, फिर गली के ओर-छोर तक चक्कर लगाया …………. वसूली रजिस्टर निकलकर नाम पड़े ………… बुदबुदाया …….उसे साहब की याद आयी …..फिर गरीबी को उसने गालियाँ बकी………पलट कर फिर इधर-उधर देखा ……..कोई नहीं दिखा। गाँव की गलियों में अजीब तरह का सन्नाटा और डरावनी खामोशी फैली पडी थी, कोई दूर दूर तक नहीं दिख रहा था, ………… ।

कोई नहीं दिखा तो सामने वाले घर में खांसते – खखारते हुए वह घुस गया, अन्दर जा कर उसने देखा ….दस-बारह साल की लडकी आँगन के चूल्हे में रोटी पका रही है, रोटी पकाते निरीह …… अनगढ़ हाथ और अधपकी रोटी पर नजर पड़ते ही उसने ”धमकी” स्टाइल में लडकी को दम दी ……. ऐ लडकी! तुमने रोटी तवे पर एक ही तरफ सेंकी है, कच्ची रह जायेगी ? ……………. लडकी के हाथ रुक गए, … पलट कर देखा, सहमी सहमी सी बोल उठी ………… बाबूजी रोटी दोनों तरफ सेंकती तो जल्दी पक जायेगी और जल्दी पक जायेगी तो ……. जल्दी पच जायेगी ….फिर और आटा कहाँ से पाएंगे …..?

वह अपराध बोध से भर गया …… ऑंखें नम होती देख उसने लडकी के हाथ में आटा खरीदने के लिए 100 का नोट पकड़ाया … और मोटर सायकिल चालू कर वापस बैंक की तरफ चल पड़ा ……………..।

रास्ते में नर्मदा के किनारे अलग अलग साइज के गढ्ढे खुदे दिखे तो जिज्ञासा हुई कि नर्मदा के किनारे ये गढ्ढे क्यों? गांव के एक बुजुर्ग ने बताया कि सन् 1983 में यहां एक उड़न खटोले से चार-पांच लोग उतरे थे गढ्ढे खुदवाये और गढ्ढों के भीतर से पानी मिट्टी और थोड़े पत्थर ले गए थे और जाते-जाते कह गए थे कि यहां आगे चलकर बिजली घर बनेगा। बात आयी और गई और सन् 2006 तक कुछ नहीं हुआ हमने शाखा लौटकर इन्टरनेट पर बहुत खोज की चुटका परमाणु बिजली घर के बारे में पर सन् 2005 तक कुछ जानकारी नहीं मिली। चुटका के लिए कुछ करने का हमारे अंदर जुनून सवार हो गया था जिला कार्यालय से छुटपुट जानकारी के आधार पर हमने सम्पादक के नाम पत्र लिखे जो हिन्दुस्तान टाइम्स, एमपी क्रोनिकल, नवभारत आदि में छपे। इन्टरनेट पर पत्र डाला सबने देखा सबसे ज्यादा पढ़ा गया….. लोग चौकन्ने हुए।

हमने नारायणगंज में “चुटका जागृति मंच” का निर्माण किया और इस नाम से इंटरनेट पर ब्लॉग बनाकर चुटका में बिजली घर बनाए जाने की मांग उठाई। चालीस गांव के लोगों से ऊर्जा विभाग को पोस्ट कार्ड लिख लिख भिजवाए। तीन हजार स्टिकर छपवाकर बसों ट्रेनों और सभी जगह के सार्वजनिक स्थलों पर लगवाए। चुटका में परमाणु घर बनाने की मांग सबंधी बच्चों की प्रभात फेरी लगवायी, म. प्र. के मुख्य मंत्री के नाम पंजीकृत डाक से पत्र भेजे। पत्र पत्रिकाओं में लेख लिखे। इस प्रकार पांच साल ये विभिन्न प्रकार के अभियान चलाये गये।

जबलपुर विश्वविद्यालय के एक सेमिनार में परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष डॉ काकोड़कर आये तो “चुटका जागृति मंच” की ओर से उन्हें ज्ञापन सौंपा और व्यक्तिगत चर्चा की उन्होंने आश्वासन दिया तब उम्मीदें बढ़ीं। डॉ काकोड़कर ने बताया कि वे भी मध्यप्रदेश के गांव के निवासी हैं और इस योजना का पता कर कोशिश करेंगे कि उनके रिटायर होने के पहले बिजलीघर बनाने की सरकार घोषणा कर दे और वही हुआ लगातार हमारे प्रयास रंग लाये और मध्य भारत के प्रथम परमाणु बिजली घर को चुटका में बनाए जाने की घोषणा हुई।

मन में गुबार बनके उठा जुनून हवा में कुलांचे भर गया। सच्चे मन से किए गए प्रयासों को निश्चित सफलता मिलती है इसका ज्ञान हुआ। बाद में भले राजनैतिक पार्टियों के जनप्रतिनिधियों ने अपने अपने तरीके से श्रेय लेने की पब्लिसिटी करवाई पर ये भी शतप्रतिशत सही है कि जब इस अभियान का श्रीगणेश किया गया था तो इस योजना की जानकारी जिले के किसी भी जनप्रतिनिधि को नहीं थी और जब हमने ये अभियान चलाया था तो ये लोग हंसी उड़ा रहे थे। पर चुटका के आंगन में कच्ची रोटी सेंकती वो सात-आठ साल की गरीब बेटी ने अपने एक वाक्य के उत्तर से ऐसी पीड़ा छोड़ दी थी कि जुनून बनकर चुटका में परमाणु बिजली घर बनने का रास्ता प्रशस्त हुआ। वह चुटका जहां बिजली के तार नहीं पहुंचे थे आवागमन के कोई साधन नहीं थे, जहां कोई प्राण छोड़ देता था तो कफन का टुकड़ा लेने तीस मील पैदल जाना पड़ता था। मंथर गति से चुटका में परमाणु बिजली घर बनाने का कार्य चल रहा है। प्रत्येक गरीब के घर से एक व्यक्ति को रोजगार देने कहा गया है जमीनों के उचित दाम गरीबों के देने के वादे हुए हैं वहां से बनी बिजली से मध्य भारत के जगमगाने की उम्मीदें कब पूरी होगीं चुटका का वो टीला इस इंतजार में है।

© श्री जय प्रकाश पांडेय

(श्री जय प्रकाश पाण्डेय, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा हिन्दी व्यंग्य है। )

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