हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ इतिहास के पन्ने पलटते तीन दिन! ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ यात्रा संस्मरण – इतिहास के पन्ने पलटते तीन दिन! ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

जब भी कभी यात्रा का या कहीं घूमने का संयोग बनता है तब तब निर्मल वर्मा मेरे कान में कह रहे होते हैं – यात्रायें न केवल हमें बाहर ले जाती हैं बल्कि अपने मन के कोनों में झांकने का अवसर भी प्रदान करती हैं ! इस बार संयोग बना हिसार प्रेस क्लब के उन्नीस साथियों के साथ आगरा, फतेहपुर सीकरी, वृंदावन व सोहना (हरियाणा) में तीन दिन की यात्रा का ! पहले बैठक हुई, मित्रों की इच्छा जानी गयी और फिर तैयारियां शुरू हो गयीं -वीडियो कोच, आगरा व वृंदावन में कहां  रात्रि के समय ठहराव होगा और  दो महिलायें बिंदू और नव प्रीत भी साथ चलेंगीं तो उनके मान-सम्मान का पूरा ख्याल रखना होगा, आदि आदि । इधर बहुत बरसों से कभी अकेले कहीं यात्रा पर नहीं गया तो नीलम कुछ अनमनी सी थी और कह रही थी कि इस उम्र में तबीयत बिगड़ गयी तो कौन संभालेगा ? और यह उम्र राम राम करने की है तो मैंने भी मज़ाक में कहा कि वृंदावन में राधे राधे ही तो करने जा रहा हूं  ! ऊपर से बेटी रश्मि ने मां को समझाया कि पापा का शौक है यात्राओं का, जा लेने दीजिये ! इस तरह घर से हरी झंडी मिलते ही कुछ तैयारी की मैंने भी और  एक रात पहले ही अटैची तैयार कर लिया । एक कंधे पर लटकाने वाले थैले में रवींद्र कालिया की ‘गालिब छुटी शराब’ की प्रति और अपनी ‘यादों की धरोहर’ की दो प्रतियां भी रख लीं क्योंकि आगरा में सविता शर्मा का पुलिस पर आधारित ‘खाकीवर्दी’ संकलन आया है, जिसमें मेरी रचना भी शामिल है तो फोन पर बात हुई कि होटल में बेटा यह संकलन मुझे देने आ जायेगा तो मैं उसे खाली हाथ नहीं लौटाऊंगा बल्कि अपनी ‘यादों की धरोहर’ संस्मरणात्मक पुस्तक उपहार में दूंगा ! इस तरह मेरी तैयारी चलती रही ।

आखिर हम दूसरी सुबह 20 नवम्बर को  हिसार प्रेस क्लब के कार्यालय में सभी एक एक कर एकत्रित होते गये, सबका सामान पीछे डिक्की में एहतियात से ड्राइवर रखता गया । फिर एक एक कप चाय और बिस्किट लेने के बाद लगभग छस बजे यात्रा शुरू हुई ।  क्लब के अध्यक्ष राज पाराशर भाई ऐसे एक थैला गले में लटकाये हुए थे जैसे बारात चलने पर दूल्हे का पिता पैसों से भरा थैला लटकाये चलता है ! इंतज़ाम में इनका साथ दे रहे थे आकाशवाणी वाले सतबीर और इकबाल सिंह ! अभी कुछ लोगों को रास्ते में पिकअप करना था जैसे हिसार कैंट के पास, हांसी शहर के अंदर और फिर पलवल के पास, इस तरह बढ़ते बढ़ते काफिला बनता गया तब पता चला कि एक सीट कम पड़ रही है तो पलवल से पहले हरियाणवी मूढ़ा खरीद कर अतिरिक्त सीट की व्यवस्था की गयी ! हांसी व नारनौंद से शामिल होने वाले साथी लाल वीर लाली बहुत बढ़िया मिठाई के  तीन डिब्बे लेकर आये‌ और सबका मुंह मीठा करवाया ! सुबह से चले और केएमपी हाईवे पर पहुंचे और पलवल के निकट नाश्ता किया ! फोटोज का दौर भी चल पड़ा । एक वाट्सएप ग्रुप बना दिया आगरा टूर के नाम से कि सब फोटो इसमें पोस्ट करते जाइये ! वैसे मोबाइल ने सचमुच क्रांति ला दी है फोटोग्राफी की दुनिया में ! इधर खींचो, उधर देख लो ! जो पसंद आये वह रख लो, जो पसंद न आये वह डिलीट कर दो ! केएमपी हाइवे काफी व्यस्त हाइवे है जो कुंडली, मानेसर व पलवल कहलाता है और उत्तर प्रदेश के साथ झट मिला देता है ! हम भी इसी हाइवे की कृपा से दो बजे आगरा के लाल किले की पार्किंग में वीडियो कोच लगा चुके थे और हमारी यात्रा का पहला पड़ाव यहीं निर्धारित था । सबसे खुशी की बात जब टिकटें लेने लगे तब पढ़ा एक बोर्ड कि कल यानी 19 नवम्बर से विश्व धरोहर सप्ताह मनाया जा रहा है ! इस तरह हम विश्व की धरोहर देखने का सुअवसर पा गये थे ! लम्बी लम्बी लम्बी कतारें, देसी कम विदेशी ज्यादा ! जैसे जैसे हम लम्बी कतार को पार कर अंदर पहुंच ही गये !

वैसे इससे पहले मैं दो बार विदेश में बसीं नीलम की बहनों कांता व सरोज के साथ आगरा घूम चुका हूं पर वे सन् 1984 व 1986 की बातें हैं और इसी किले की जानकारी देने वाले रतन गाइड की बर्णन की भाषा के लहजे में एक कहानी ‘देश दर्शन’ भी लिखी थी, जो मेरे ‘महक से ऊपर’ कथा संग्रह में शामिल है। निश्चय ही वे विदेशी संबंधी भी याद आये एक बार तो ! लाल पत्थर से बने किले में बादशाह शाहजहां को बेटे औरंगजेब ने कैद कर रखा था और यहीं शाहजहां ने अंतिम सांस लेने से पहले बेटी जेबुनिस्सा को बता दी थी आखिरी इच्छा कि मुझे मुमताज के पास ही सुपुर्दे खाक किया जाये ! शाहजहां अंतिम दिनों वे एक झिल्ली में से ताजमहल को बड़ी हसरत से देखा करते थे, यह रतन गाइड की भाषा थी, जो आज तक याद है और यह अंदाज भी कि बादशाह यहां शतरंज खेला करते थे जबकि खूबसूरत बांदियां हर चाल पर नाचतीं आगे बढ़ती थीं ! हर बार बेगम जीतती थी क्योंकि बादशाह तो उसके मस्त नैनों में खोये रहते थे ! है न गाइड की कमाल की कल्पना ? तब मात्र पांच रुपये में गाइड हो गया था ! अब न तो कोई गाइड दिखा, न ही कोई फोटोग्राफर और न ही कोई छोटी छोटी पुस्तिकायें बेचने वाले दिखे कि किले के बारे में इतिहास जान सकें ! इस तरह मोबाइल ने इनकी रोज़ी छीन ली ।

बस, अपनी ही मस्ती में किले में घूमते रहे, फोटोज खींचते रहे, ग्रुप में शेयर करते रहे, जब थक गये तब पहले से निर्धारित तारा होटल पहुच गये्, जो ताज परिसर के पास ही है, यहां से ताजमहल का पैदल रास्ता है ! विदेशियों की लम्बी लम्बी कतारें दिख रही थीं !

खैर, हम दो दो लोगों ने एक एक कमरे में डेरा जमाया जबकि मेरे साथी बने इकबाल, हम दोनो पंजाब के मूल‌ निवासी, जिनका अब हिसार में बरसों से डेरा है ! कुछ देर थकावट उतारने के बाद तीन चार ऑटो कर मीना बाज़ार देखने गये और वहीं शाम की चाय की चुस्कियां लीं ! लैदर मार्केट देखी । रंग बिरंगे पर्स और खूबसूरत जूते देखे और पंजाबी गाने की पंक्तियां याद आईं-आओ लोको हस्स के, मीना बाज़ार देक्खो नस्स के ! मीना बाज़ार से फिर होटल और रात का खाना ! इसी बीच होटल में सविता मिश्र का बेटा अमित ‘खाकीवर्दी’ लघुकथा संकलन देने आ पहुंचा और मैंने भी ‘यादों की धरोहर’ की प्रति उपहार में दी और बेटे को भी रात्रिभोज में प्यार भरे आग्रह से शामिल कर लिया । फिर उसे समय पर लौटने को कहा क्योंकि रात के साढ़े नौ बज गये थे और उसे अठारह किलोमीटर दूर जाना था । फिर सब थोड़ा थोड़ा टहलने निकले ! ताजमहल परिसर के चलते सड़क बहुत खूबसूरत बनी हुई है, खासतौर खूबसूरत गुलाबी टाइल्स लगी हैं ! सड़क के दोनों ओर खूबसूरत लाइट्स हैं । दिन जैसा लगता है ! बस, वहीं राह में एक प्याली चाय के बाद अपने अपने कमरों में लौटे और दिन भर की थकावट के चलते नींद ने अपनी बाहों में ले लिया ! इस तरह पहले दिन की यात्रा संपन्न हुई ।

दूसरे दिन सुबह नहा धोकर सभी नाश्ते पर इकट्ठे हुए और पूरी सब्ज़ी का लुत्फ उठाया, वैसे हल्का फुल्का पोहा भी था। सबने सामान वीडियो कोच में रखा और पैदल ही  ताजमहल की ओर बढ़ चले। विश्व धरोहर के तीसरे दिन हम सबसे बड़े प्रेम उपहार ताजमहल के अंदर थे ! बड़े बड़े हरे भरे बाग और खिली धूप ने हमारा स्वागत् किया ! सामने ताजमहल के दीदार हो रहे थे, लगातार फोटोज और   हंसी मज़ाक के बीच डेढ़ घंटा कब निकल गया पता ही नहीं चला !

फिर यात्रा शुरू हुई फतेहपुर सीकरी की ओर लेकिन रास्ते भर में कल से पढ़ रहे थे-पेठा और दालमोठ ! बस, एक दुकान पर कोच रोक कर सबने अपने अपने सामर्थ्य भर ये सौगातें खरीदीं परिवारजनों के लिए! यह भी पता चल गया कि दालमोठ, अंगूरी पेठा और लैदर का सामान यहां प्रमुख तोर पर बिकता है । पूरे देश में आगरा का पेठा ऐसे ही मशहूर‌ नहीं है ! कुछ बात तो है इसमें !

फिर पहुंचे फतेहपुर सीकरी, वहां सबने एक गाइड कर लेने पर सहमति जताई और गाइड मिला सौरभ ! एमबीए और टूरिज्म तक पढ़ा लिखा लेकिन गाइड बनना पसंद किया क्योंकि नित नये लोगो़ं से मिलना बहुत अच्छा लगता है सौरभ को ! उसने बताया कि जब अकबर के संतान नहीं हो रही थी तो वे अजमेर शरीफ गये चादर चढ़ाने तो किसी ने बताया कि फतेहपुर सीकरी में शेख सलीम चिश्ती के पास जाओ और अकबर आगरा से पैदल श्रद्धापूर्वक फतेहपुर सीकरी पहुंचा और शेख सलीम ने अकबर को संतान सुख का आशीर्वाद दिया तो बेटे का नाम भी अकबर ने ‘सलीम’ ही रखा, जो बाद में  बादशाह जहांगीर बना ! अकबर ने फतेहपुर सीकरी को ही राजधानी बना लिया और यहीं शेख सलीम की दरगाह भी बनवाई और जामा मस्जिद भी ! गुजरात की जीत के बाद गुजरात की ओर एक बुलंद दरवाजा बनवाया जिसकी साल के सप्ताह की तरह बावन सीढ़ियां हैं और ऊपर तेरह झरोखे क्योंकि अकबर ने तेरह साल की उम्र में राजकाज बैरम खा़ं की देखरेख में संभाला था और बेगम जोधाबाई का महल भी खूबसूरत है। कितनी फिल्मों की शूटिंग यहां होने की जानकारी दी सौरभ ने, जिनमें जोधा अकबर, परदेस व कुछ धारावाहिक भी शामिल हैं ! जोधाबाई राजपूत संतान थी । बाद में शेख सलीम के कहने पर अकबर ने फिर आगरा को राजधानी बनाया ! मैं कभी इतिहास का छात्र नहीं रहा, मैंने सिर्फ चार भाषाओं में ही ग्रेजुएशन की तो मेरा इतिहास का ज्ञान कम है, फिर भी पत्रकारिता के चलते रूचि बहुत है इतिहास में ।

फतेहपुर सीकरी असल में सिकरवार राजपूतों के कारण सीकरी कहलाता है और यहां पत्थर का काम ज्यादा होता है। हमारा गाइड सौरभ भी राजस्थान से है और राजपूत है पर सीकरी में परिवार बसा हुआ है ।  बुलंद दरवाजे की ऊंचाई पर खड़े होकर दूर सीकरी कस्बा भी दिखता है ! हमने पत्थर की बनी मालायें खरीदीं और फतेहपुर सीकरी की दरगाह में नंगे पांव ही जा सकते हैं क्योंकि यह एक पूजास्थल है और अंदर अनेक कब्रें बनी हुई हैं । यहां से दो घंटे बाद अगली यात्रा पर निकले -वृंदावन की ओर ! रास्ते में लंच का समय नहीं बच रहा था तो केले, अमरूद व आगरा का पेठा खिलाया गया !

 वृंदावन प्रसिद्ध रचनाकार श्रीमती ममता कालिया का मायका है और मैंने फोन कर यह बात उन्हें बताई कि आज आपके मायके जा रहा हू़ं, वे बहुत खिलखिलाते बोलीं कि क्या बात है !

हमारा वृंदावन में रहने का ठिकाना भी पहले से तय था-श्रीकृष्ण जन्माष्टमी आश्रम, जिसके ट्रस्टियों में से एक हैं हिसार के ही सुभाष डालमिया, जो सन् 2017 तक हिसार की राजगुरु मार्केट में ही बिजनेस करते थे फिर दिल्ली शिफ्ट हुए और वहां से वृंदावन आ गये ! बेटा साहिल जरूर दिल्ली में ही बिजनेस चला रहा है। इनसे सम्पर्क साधा तो उन्होंने सहर्ष व्यवस्था कर देने का विश्वास दिलाया और हम उनके आश्रम में पहुंच गये ! वे हिसार की मिट्टी के प्रेम के चलते हमें तुरंत मिलने आ पहुचे और बढ़िया खाना खिलाने के आदेश भी दिये मैस वालों को, फिर हमें अपनी कार में बांके बिहारी मंदिर के दर्शन करवाने चल‌ दिये, बाकी साथी ऑटो में पहुंच गये और सबको वीआईपी दर्शन करवाने के बाद प्रसाद के साथ साथ गर्मागर्म समोसे भी खिलाये ! बांके बिहारी मंदिर कुंज गलियों की याद दिलाता है और अंदर बहुत भीड़ उमड़ रही है, कोई कतार नहीं, कोई व्यवस्था नहीं । बस, एक दूसरे को धकेलते आगे या पीछे बढ़ते रहो । इसी धक्कमपेल में दर्शन किये बांके बिहारी के ! वैसे मैं चार साल पहले परिवार के साथ वृंदावन आया था, तब तीन दिन रहा था और सब मंदिर देख रखे थे । गोवर्धन परिक्रमा पहले लोग पैदल करते थे लेकिन अब ऑटो पर करते हैं। हमने भी की थी । वह तुलसी वन भी देखा, जहां कृष्ण रास रचाया करते थे और इसे रात में‌‌ कोई नहीं देख सकता, ऐसी मान्यता है। रात को यह बंद रहता है । इस्काॅन मंदिर की खिचड़ी के प्रसाद का दो दिन आनंद‌‌ लेते रहे !

बांके बिहारी मंदिर से फिर वापसी कुछ मित्रों की वही ऑटो पर हुई तो डालमिया हमें अपने साथ कार में घर ले गये !  वहां उनकी धर्मपत्नी ने स्वागत् किया और उन्होंने गौशाला से आये दूध के गिलास भर भर कर पिलाये, मेवे के साथ ! डालमिया ने पड़ोस में प्रसिद्ध भजन गायक स्वर्गीय विनोद अग्रवाल का अंतिम बसेरा भी दिखाया, जो अब उनको ही समर्पित है और अंदर हाल में उनका कटआउट भी लगा है। वहां उनके रिकार्डिड भजन सुनाये जाते हैं, वैसे यहां बाइस कमरे हैं लेकिन मैस की व्यवस्था नहीं है ! इसलिए हमारी रहने की व्यवस्था यहां नहीं की। यह डालमिया ने बताया  ।

इस तरह दूसरे दिन की यात्रा बांके बिहारी मंदिर के दर्शनों के साथ संपन्न हुई । अपने अपने कमरों में कुछ देर विश्राम के बाद मैस में खाना खाया, कुछ टहले और फिर वही सोने चल‌ दिये !

तीसरा दिन लौटने का दिन होने के साथ साथ अरावली की पहाड़ियों का दिन था । जैसे ट्रस्टी सुभाष शाम को मिलने आये थे, वैसे भी विदा करने भी आने वाले थे, उन्होंने वृंदावन के पेड़े बढ़िया जगह से मंगवा दिये पहले ही और हमने पैसे दे दिये । सब आश्रम के मुख्य द्वार पर उनका इंतजार कर रहे थे और वे आ पहुंचे ! हमारे बीच तीन तीन प्रोफैशनल फोटोग्राफर थे-प्रवीण सोनी, प्रेम और बलवान ! तीनों‌‌ ने अलग अलग एंगल से विदाई के फोटोज खींचे, जिसमें श्रीकृष्ण जन्माष्टमी आश्रम भी आ जाये ! जिस तरह सुभाष डालमिया का मिट्टी से नाता नहीं टूटा, उसी तरह उनका यह प्यार का नाता भी नहीं टूटेगा ! जब जब वतन से चिट्ठी आयेगी, वे ऐसे ही दौड़े चले आयेंगे ! यह आश्रम न्यू वृंदावन में मुख्य हाइवे पर ही स्थित है।

अब वीडियो कोच चली सोहना(मेवात) की ओर, जहां एक शिव मंदिर बताया गया, जिसमें गर्म पानी के दो कु़ड हैं, जो चर्मरोग के लिए बहुत गुणकारी बताये जाते हैं । मंदिर से पहले खूब भीड़भाड़ वाला बाज़ार है, जिसके चलते कोच वहां नहीं जा सकता था। इसलिए कहीं दूर इसको वटवृक्षों की छांव में खड़ी कर हम मंदिर की ओर बढ़ते गये । मंदिर बिल्कुल बाज़ार के अंत में स्थित है । सबने जूता घर में जूते चप्पलें जमा करवाईं और अंदर पहुंचे ! दो कुंड तो थे लेकिन पानी नहीं था । लोग टूटी के पानी से नहा जरूर रहे थे, जो गर्म पानी ही था ! इस तरह हमारे फोटोग्राफर मित्र अपनी कुशलता दिखाते रहे । इसके बाद बाहर ब्रेड पकोड़े की दुकान देखकर सबके मुंह में पानी आ गया तो अध्यक्ष राज पाराशर ने तुरंत गर्मागर्म पकोड़ों का ऑर्डर दे दिया । सबने मज़े से, स्वाद‌ व चटखारे लेकर ब्रेड पकौड़े खाये और फिर पहुंचे कोच में । वहां से रास्ते में दिखीं अरावली की पहाड़ियां पर अब चूंकि निकट आ पहुचे थे तो सब ओर से ‘चलो चलो’ की आवाजें आने लगीं तब कहीं रास्ते में एक सुखदेव नाम का ढाबा दिखा और चाय के लिए रुक गते, यह हमारी यात्रा का अंतिम पड़ाव रहा ।  फिर हांसी में बरवाला और हांसी वाले मित्रों को विदा कर हम सब सायं छह बजे हिसार प्रेस क्लब ऑफिस सुरक्षित और आनंद‌‌‌ में पहुंच गये ! सबके चेहरे दमक रहे थे और जल्द फिर मिलने का वादा कर विदा ली एक दूसरे से ! मैं सबका आभारी हूं कि उम्र और वरिष्ठता के नाते सबने मेरा सम्मान लगातार बनाये रखा! फिर कभी और यात्रा पर मिलेंगे दोस्तो! पर विदा पर हिसार प्रेस क्लब ने एक एक खूबसूरत अटैची गिफ्ट में भेंट किया, यादें समेटते हुए घर लौटे !

दिल ढूंढता है फिर वही

फुरसत के रात दिन !

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क : 1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-१८ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-१८ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

अगली तीन आदतें परस्पर निर्भरता यानी, दूसरों के साथ काम करने के साथ उनसे अंतरसंबंधों से संबंधित हैं।

आदत 4: “परस्पर लाभप्रद समाधान के बारे में सोचें” (Think win-win)

अपने रिश्तों में पारस्परिक रूप से लाभप्रद समाधान या समझौते की तलाश करें। सभी के लिए “लाभ” की तलाश करके लोगों को महत्व देना और उनका सम्मान करना अंततः एक बेहतर दीर्घकालिक समाधान है। पारस्परिक लाभप्रदता, मानवीय संपर्क और सहयोग के लिए एक भावनात्मक मज़बूती देती है। इससे टीम का निर्माण होता है। हनुमान इसी विधि से सेना को तैयार करते हैं।

आदत 5: “पहले समझने की कोशिश करो, फिर समझाने की” (First seek to understand then to be understood)

अधिकांश लोग अपनी बातें दूसरों कों समझाते रहते हैं। जबकि टीम बनाने के लिए दूसरों को भी समझने की ज़रूरत होती है। जिसके बग़ैर समूह की सक्रियता नहीं बन सकती। किसी व्यक्ति को वास्तव में समझने के लिए सहानुभूतिपूर्वक सुनने का उपयोग करें। यह उन्हें प्रतिक्रिया देने और प्रभावित होने के लिए खुले दिमाग से काम करने के लिए मजबूर करता है। लंका उड़ान पूर्व हनुमान प्रतिक्रिया दिए बग़ैर साथियों को सुनते हैं।  इससे परस्पर सौहार्द, देखभाल और सकारात्मक समस्या-समाधान का वातावरण बनता है।

आदत 6: तालमेल बिठाना (Synergy)

समूह में तालमेल बिठाने के तीन आयाम हैं। भावनात्मक बैंक खाता की देखभाल, अन्य व्यक्तियों के साथ भावनात्मक रिश्तों का भरोसा और तार्किक आधार देना। बैंक खाते की तरह रिश्तों में भी भावनात्मक जमा-नामे प्रविष्टियाँ होती हैं। किसी की सराहना जमा और आलोचना नामे प्रिविष्टि होती है। आपसी बातचीत में इनका ध्यान रखा जाना चाहिए ताकि भावनात्मक खातों में अधिविकर्ष ना होने पाये। लेखक का आह्वान है कि सकारात्मक टीम वर्क के माध्यम से लोगों की शक्तियों को संयोजित करें, ताकि उन लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके जिन्हें कोई भी अकेले प्राप्त नहीं कर सकता। हनुमान इसी टेक्नीक का प्रयोग करके वानर सेना को एक टीम के रूप में तैयार करते हैं।

आदत 7: “निरंतर साधना का व्रत” (Sharpen the saw)

एक स्थायी, दीर्घकालिक, प्रभावी जीवनशैली बनाने के लिए किसी को अपने संसाधनों, ऊर्जा और स्वास्थ्य को संतुलित और नवीनीकृत करते रहना चाहिए। वह मुख्य रूप से शारीरिक नवीनीकरण के लिए व्यायाम, प्रार्थना और मानसिक नवीनीकरण के लिए नियमित अध्ययन से प्राप्त किया जाता रह सकता है। आध्यात्मिक नवीनीकरण के लिए समाज की सेवा का भी उल्लेख किया है।

जीवन संग्राम में हमारा स्वास्थ्य एक अस्त्र की तरह प्रयोग में आता है। स्वास्थ्य के चार आयाम हैं- शारीरिक, बौद्धिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक। नियमित व्यायाम से शरीर, अध्ययन से बुद्धि, भावनात्मक बैंक खाता रखरखाव और आध्यात्मिक भक्ति से स्वास्थ्य अस्त्र को हमेशा पैना रखा जा सकता है। तभी आप जीवन संग्राम में खरे उतर सकते हैं। हनुमान जी के संपूर्ण जीवन से यही शिक्षा मिलती है कि उन्होंने कभी भी स्वास्थ्य के नियमों में ढिलाई नहीं बरती।

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हनुमान जी एक बेहतरीन प्रबंधक भी रहे हैं। वे ना सिर्फ अपने लक्ष्यों को हासिल करना जानते हैं बल्कि मानव संसाधनों का किस तरह प्रयोग करना है, ये बात भी उन्हें अच्छी तरह मालूम है।

हनुमान जी हर काम को योजनाबद्ध (Planning) तरीके और बड़ी आसानी से कर सकते थे। हनुमान जी स्वामी श्री राम के प्रति समर्पण, अनुशासन, दृढ़ संकल्प और वफादारी के लिए जाने जाते थे। मन, कर्म और वाणी पर संतुलन यह हनुमान जी से सीखने वाले गुण हैं। ज्ञान, बुद्धि, विद्या और बल के साथ ही उनमें विनम्रता भी अपार थी। इसके साथ जिस काम को लिया उसका समय पर करना उनकी खासियत थी।

हनुमान जी ज्ञान लेने के लिए सूर्य के पास गए। वो सूर्य को अपना गुरु बनाना चाहते थे। तब सूर्य ने कहा शिक्षा के लिए मुझे रुकना पढ़ेगा जो संभव नहीं है, इससे संसार का चलन बिगड़ जायेगा तुम किसी और को गुरु बना लो। हनुमान जी ने सूर्य को कहा कि आप चलते-चलते ज्ञान दीजिये मैं आपके साथ साथ चलता जाऊंगा और ज्ञान प्राप्त करूँगा। सूर्य इस बात के लिए मान गए इस तरह हनुमान जी ने सूर्य से ज्ञान प्राप्त किया। इस घटना से आप ये बात सीख़ सकते हैं कि जब हमें किसी से कुछ भी सीखना हो या ज्ञान लेना हो तो उसके हिसाब से अपने आप में बदलाव लाएँ।

जब हनुमान जी को लंका जा रहे थे, तब रास्ते में मेनाक पर्वत जो समुद्र के कहने पर ऊपर आया और उसने हनुमान जी से कहा की आप थोड़ा विश्राम कर के चले जाइएगा, हनुमान जी ने मेनाक पर्वत को छुआ और कहा कि मैंने आपकी बात रख ली है परन्तु मुझे जो काम सौंपा गया है वो मेरे विश्राम से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है, मैं विश्राम नहीं कर सकता। इस घटना से हमें ये शिक्षा मिलती है कि  जब भी हमें काम दिया जाये तो काम की समाप्ति तक विश्राम न किया जाए। हमें काम की सामयिक महत्ता को समझना चाहिए। यही सतत सक्रियता (Proactive ness) है।

जब हनुमान जी मेनाक पर्वत से आगे गए तब उनको सुरसा नाम की राक्षसी ने रोक लिया और हनुमान जी को निगलने के लिए आगे आई। हनुमान जी ने उसे समझाया पर वो न मानी। हनुमान जी ने अपना विशाल रूप धारण कर लिया, सुरसा ने भी अपना मुँह बड़ा कर लिया। जैसे ही उसका मुँह बड़ा किया हनुमान जी ने बिना समय गवायें अपना रूप बहुत छोटा कर लिया और उसके मुँह में जाकर वापिस आ गए। हनुमान जी ने सुरसा से कहा “माँ मैंने आपकी बात को रख लिया है अब मुझे जाने दो” इस बुद्धिमानी से सुरसा प्रसन्न हुईं और हनुमान जी को जाने दिया। यहाँ हनुमान का चातुर्य और विनम्रता गुण काम आता है।

इस घटना में हमने ये सीखा कि कई बार हमें समय खराब और लक्ष्य से भटकाने वाले लोग मिलते हैं जिनको हम प्यार से या बुद्धिमानी से अपने रास्ते से हटा सकते हैं और अपना लक्ष्य पा सकते हैं। कई बार हमें लक्ष्य हासिल करने के लिए कभी-कभी झुकना भी पड़ता है

 हनुमान जी लंका में प्रवेश हुए लेकिन लंका बहुत बड़ी थी, हनुमान जी माँ जानकी को ढूंढ़ते थोड़ा निराश हुए और बैठ गए और विचार किया की इतनी दूर मैं निराश और असफल होने के लिए नहीं आया हूँ। उन्होंने प्रभु राम का स्मरण किया और फिर से प्रयास किया और उन जगहों पर गए जहाँ उन्होंने नहीं ढूंढा था। आखिर वो अशोक वाटिका पहुंचे, जहाँ उन्हें माँ सीता मिल गईं।

 कई बार हम नई जगह जाते हैं तो वहां हमें कुछ समझ नहीं आ रहा होता है और बार बार प्रयास करने के बावजूद असफल हो रहे होते हैं, लेकिन अगर अपने आप पर पूर्ण विश्वास करके निरंतर प्रयास करते हैं तो आपको सफलता ज़रुर मिलेगी।

 जैसे-जैसे ताक़त आती है, सफलता मिलती जाती है तो घमंड अपने आप प्रवेश कर लेता है। हनुमान जी के पास अविश्वसनीय और अनंत शक्तियां थीं। हर काम को वो अपनी ताकत के ज़ोर से बड़ी आसानी से कर सकते थे, लेकिन इसके साथ साथ उनमे बुद्धिमानी और विनम्रता भी थी। जिससे वे साथियों/ अनुयायियों के ईर्षा भाजन न होकर उनके प्रिय होते थे।

आभार प्रदर्शन उपरांत महोत्सव का समापन हुआ। रात्रिभोज करके दूसरे दिन सुबह नौ बजे आंजनेय पर्वत भ्रमण हेतु बस में सवार होने के निर्देश सहित

निंद्रामग्न ही गए। खूब थके थे, खूब अच्छी गाढ़ी नींद ने खूब जल्दी दबोच लिया।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-१७ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-१७ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

हम लोग हम्पी भ्रमण करके शाम को सात बजे होटल वापस पहुंचने वाले थे। तभी राजेश जी ने बस में ही सभी को हनुमान महोत्सव और शोधपत्र वाचन हेतु होटल के कॉन्फ्रेंस हॉल में आठ बजे तक पहुंचने के निर्देश दिए। सभी हल्का आराम कर स्नान आदि करके नियत स्थान पर पहुंच मुख्य अतिथि कन्नड़ विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो बी. डी. परमशिवमूर्ति का इंतज़ार करने लगे। मुख्य अतिथि साढ़े आठ बजे पहुँचे।

इस प्रकार हनुमान महोत्सव का मुख्य आयोजन 29 सितंबर को कन्नड़ विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो बी. डी. परमशिवमूर्ति के मुख्य आतिथ्य और डॉक्टर राजेश श्रीवास्तव की अध्यक्षता में आरम्भ हुआ। इस अवसर पर रामायण केन्द्र की पत्रिका उर्वशी के हनुमान विशेषांक सहित अन्य पुस्तकों का लोकार्पण भी किया जाएगा। हम्पी विश्वविद्यालय के अनेक प्रोफेसर और यात्रा के साथियों ने हनुमान प्रसंग पर अपने शोधपत्र प्रस्तुत किए। सभी अतिथियों का अभिनंदन किया गया। हमने भी “सर्वकालिक प्रबंधन गुरु हनुमान” शोध पत्र निम्नानुसार प्रस्तुत किया।

☆ शोध पत्र – सर्वकालिक प्रबंधन गुरु हनुमान ☆

इस समय, जब भारतीय अर्थ व्यवस्था उड़ान भरने (टेक ऑफ़ स्टेज) को तैयार है। प्रबंधन सूत्रों के पौराणिक आधार खोजना हमारी आवश्यकता है कि किस तरह अत्याधुनिक प्रबंधकीय सिद्धांत सनातन वांग्मय साहित्य में समाविष्ट रहे हैं।

हमने स्टेट बैंक में 37 वर्ष सेवा की है, जिसमें से 32 वर्ष प्रशासन-प्रबंधन के विभिन्न उच्चतम पदों पर कार्य निष्पादन किया है। 05 वर्ष बैंक के प्रशिक्षण केंद्र में बैंक प्रबंधकों को प्रबंधकीय प्रशिक्षण दिया है। मध्यभारत ग्रामीण बैंक में तीन वर्ष महाप्रबंधक (प्रशासन) पद पर कार्यरत रहे। इस दौरान नेतृत्व क्षमता और प्रबंधन पर अनेक पुस्तकों का अध्ययन किया था। उनमें स्टीफन रिचर्ड कोवे (Stephen Richard Covey) द्वारा लिखित पुस्तक “सेवन हैबिट्स ऑफ़ हाईली इफेक्टिव पीपल” एक अद्भुत किताब है। जिसमें व्यवस्थित कार्य निष्पादन द्वारा वांछित परिणाम प्राप्ति हेतु 07 ऐंसी आदतों का उल्लेख किया गया है, जो जीवन में लक्ष्य हासिल करने हेतु आवश्यक होती हैं। यह पुस्तक जीवन प्रबंधन की गीता कही जा सकती है।

यह एक अद्भुत संयोग है कि बाईसवीं सदी में उद्भूत प्रबंधन सिद्धांत त्रेता युग में हनुमान जी द्वारा प्रयोग किए जा रहे थे। इसीलिए पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा मुस्लिम होकर भी हनुमान जी की छोटी सी धातु प्रतिमा अपने साथ रखते थे। यहाँ सनातन दर्शन की सर्वकालिक महानता परिलक्षित होती है। हम इन सात आदतों का विश्लेषण हनुमान जी के जीवन वृत्त से करेंगे।

हम जानते हैं कि एक उम्र के बाद आदमी आदतों का पुंज होता है। लेकिन ये आदतें जिन पर हम बातें करेंगे कुछ अलग क़िस्म की हैं। इन्हें होशोहवास में सीखना और ग्रहण करना पड़ता है। इन आदतों से मानसिक तनाव के बग़ैर उभरती प्रभावशीलता (इफेक्टिवनेस) से वांछनीय परिणाम प्राप्त करके उन परिणामों की सम्भाल की जा सकती है। इनके पालन से तनाव प्रबंधन स्वमेव होता चलता है।

प्रबंधकीय क्षमता का आधार नैतिक आचरण और व्यक्ति में निहित मूल्य होते हैं। लेखक नैतिकता के साथ मूल्यों को संयुक्त करके सार्वभौमिक कालातीत सिद्धांत विकसित करने की बात करता है। ऐसा करने के लिए सिद्धांतों और मूल्यों को अलग करना पड़ता है। लेखक सिद्धांतों को अंतर्वैयक्तिक संबंधों के प्रभावी नियमों के रूप में देखता है, जिसके दर्शन हमें हनुमान जी के व्यक्तित्व में होते हैं। जबकि व्यक्तिपरक आंतरिक मूल्य उनके व्यक्तित्व के अविभाज्य अंग हैं। मूल्य लोगों के व्यवहार को नियंत्रित करते हैं, जबकि सिद्धांत अंततः परिणाम निर्धारित करते हैं। हनुमान के जीवन वृत्त में कर्तव्य परायणता मूल्य और स्वामीभक्ति सिद्धांत दृष्टिगोचर होते हैं। पुस्तक में सात आदतों को एक श्रृंखला में प्रस्तुत किया गया है, जो निर्भरता से आत्म निर्भरता तदुपरांत परस्पर निर्भरता से सुखद कार्यप्रणाली द्वारा जीवन की राह आसान बनाते हैं।

दो लोग एक ही चीज़ को दो अलग दृष्टिकोण से देख सकते हैं। उन्हें एक बिंदु पर आकर परिपक्वता स्थापित करना होता है। परिपक्वता के तीन क्रमिक चरण हैं: निर्भरता, आत्मनिर्भरता और अन्योन्याश्रय। जन्म के समय, हर कोई निर्भर होता है, और निर्भरता के लक्षण लंबे समय तक बने रह सकते हैं; फिर वह परिवार और मित्रों के सहयोग से आत्मनिर्भर होना आरम्भ करता है। यह परिपक्वता की पहली अवस्था है। इस अवस्था में तीन आदतें जीवन प्रबंधन की नींव रखती हैं।

*

पहली तीन आदतों में से प्रत्येक का उद्देश्य  व्यक्ति को आत्म निर्भरता प्राप्त करने में मदद करना है। हम देखते हैं कि हनुमान जी जन्म से ही आत्मनिर्भर हैं। पहली तीन आदतों के बाद की तीन आदतों का उद्देश्य परस्पर निर्भरता प्राप्त करने में मदद करना है, और सातवीं आदत का उद्देश्य इन उपलब्धियों को बनाए रखने हेतु सतत तैयारी में निहित  है। हनुमान के व्यक्तित्व में इन सात आदतों का विस्मयी समावेश देखने को मिलता है। इसका अर्थ यह हुआ कि हिंदुओं के दर्शन में प्रबंधन के गुणों का समावेश रहा है। जिन्हें कल्पनाशीलता से पुराणों में उतारा गया था। इन्हें जानने और समझने की ज़रूरत है।

पहली तीन आदतों का लक्ष्य शिशुवत पराधीनता से आत्म निर्भरता द्वार आत्म-निपुणता का विकास करना है।

पहली आदत : “सतत सक्रियता” (Proactive)

सक्रियता पहली आदत है, जो हनुमान जी को निरंतर परिणाम प्राप्ति में सहायक होती है। इससे हनुमान जी की सक्रियता का पता चलता है। वे जन्मते ही सूर्य के पास पहुँच जाते हैं। पूरे जीवन निष्क्रिय परिलक्षित नहीं होते हैं।  

सक्रियता का अर्थ है अपने ज्ञान और अनुभवों को सृजनात्मक विश्लेषण बुद्धि द्वारा श्रेष्ठ कार्यों में सतत लगाए रखना। बाहरी प्रतिक्रिया की जिम्मेदारी लेना, सकारात्मक प्रतिक्रिया देने और स्थिति को सुधारने के लिए पहल करना। जब उपलब्धि का वातावरण बनने लगता है तब विरोधी आपको उत्तेजित करने की कोशिश करते हैं। जैसे लंका जाते समय हनुमान जी को सुरसा उन्हें रोकने की कोशिश करती है। तब हनुमान बुद्धिमत्ता से उसका वचन पूरा करके निकल जाते हैं। “उत्तेजना और प्रतिक्रिया के बीच यह चुनने का अधिकार आपका है कि कैसे प्रतिक्रिया करनी है”, और आपकी सहमति के बिना कोई भी आपकी भावना को चोट नहीं पहुंचा सकता है। लेखक किसी की प्रतिक्रियाओं पर और उसके प्रभाव के केंद्र पर ध्यान केंद्रित करने पर चर्चा करते हैं।

आदत 2: “परिणाम को ध्यान में रखकर शुरुआत करना” (Begin with the end in mind)

लेखक इस बात पर जोर देता है कि आपका ध्यान अंतिम परिणाम पर केंद्रित होना चाहिए अर्थात् जीवन का “एक व्यक्तिगत मिशन” निर्धारित कर उस दिशा में काम करें। आपको संकल्पना करना है कि आपको भविष्य में कैसे याद किया जाना चाहिए? प्रभावी होने के लिए आपको उसी दिशा में सिद्धांतों के आधार पर कार्य करने और अपने मिशन की लगातार समीक्षा करने की आवश्यकता है।

हनुमान जी का मिशन पहले सुग्रीव की सेवा उसके बाद श्रीराम की सेवा में जीवन अर्पण करना था। आज भी उन्हें इसी रूप में स्मरण किया जाता है। आपकी सक्रियता मिशन की दिशा में होनी चाहिए। आपको यह निश्चित करना आवश्यक है कि संसार जीवन की संध्या में आपको किस रूप में जाने- एक प्रबुद्ध आदमी, धनवान व्यक्ति, त्यागी पुरुष या भले दयालु दानी इंसान या लालची दुश्चरित्र व्यक्ति। तदनुसार संकल्पित छवि के अनुसार मिशन आपके जीवन निर्वाह का तरीक़ा हो।

आदत 3: “प्राथमिकता तय करते रहें” (Put first thing first)

आपको अपनी प्राथमिकताओं को अत्यावश्यक (Urgent) और महत्वपूर्ण Important) में बाँट कर कार्य निष्पादन करना चाहिए। इस पद्धति से कार्य निष्पादन के चार युग्म बनते हैं।

1. अत्यावश्यक (Urgent) और महत्वपूर्ण Important)।

कौन सा काम अत्यावश्यक है और कौन सा महत्वपूर्ण है, अत्यावश्यक कार्य का निपटान पहले हो चाहे वह कितना भी कठिन क्यों न हो। जैसे लंका जाकर सीता माता का पता लगाना और रावण के दरबारियों व निवासियों को आतंकित करना है। जब लक्ष्मण को शक्ति लगती है तब जड़ी-बूटी लाना अत्यावश्यक हो गया था। तब हनुमान भरोसे पर खरा उतरते हैं। यदि आपको यात्रा पर जाना है तो समय पर आरक्षण करवाना अत्यावश्यक है, उसे निपटायें।

2. अत्यावश्यक नहीं लेकिन महत्वपूर्ण

कार्य सूची में अत्यावश्यक कार्य लंबित न हो तब महत्वपूर्ण कार्यों को हाथ में लें, इन्हें पूरा करने की योजना बनाएँ। निठल्ले ना बैठ जाएँ। लंका से लौटकर हनुमान वहाँ की स्थितियों के अनुसार सैनिकों को तैयार करते हैं। आपको यात्रा पर जाना है। आरक्षण हो गया है तो यात्रा का बैग तैयार करके रख लें। अंतिम समय की प्रतीक्षा में तनाव पैदा होता है, ख़ाली समय का सदुपयोग उत्तम नीति है।

3. अत्यावश्यक लेकिन अमहत्वपूर्ण

कोई कार्य अत्यावश्यक है लेकिन महत्वपूर्ण नहीं लगता फिर भी उसे निरंतर करते रहना है, जैसे नियमित व्यायाम, निरंतर अध्ययन और आपसी संबंधों को मज़बूत करना। हनुमान व्यायाम द्वारा तंदुरुस्त रहते हैं और सेना की तैयारी में निरंतर रत रहते हैं।

4. अनावश्यक और अमहत्वपूर्ण।

यह देखा गया है कि लोग अक्सर दूसरों या जिन चीजों पर उनका कोई प्रभाव या अधिकार नहीं होता है, उन फ़िज़ूल कार्यों पर अनावश्यक समय और ऊर्जा खर्च करते रहते हैं। इस तरह के तुच्छ ध्यान भटकाने वाली चीजों पर ध्यान ना देकर आप सार्थक योजना बनाने में संलग्न होते रह सकते हैं। हनुमान कभी निठल्ले नहीं बैठते।

लेखक का मत है कि लोगों को अपना अधिकांश समय पद्धति I और II पर खर्च करना चाहिए, लेकिन कई लोग पद्धति IV में बहुत अधिक समय बिताते हैं। पद्धति तीन निरंतर करने वाले कार्य हैं।

हनुमान के जीवन से सीख मिलती है कि वे ज़रूरत होने कर अत्यावश्यक कार्यों हेतु उपलब्ध होते हैं। अनावश्यक कार्यों में ऊर्जा और समय नष्ट नहीं करते।

ये पहली तीन आदतें ख़ुद के आंतरिक प्रबंधन से संबंधित हैं।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-१६ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-१६ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

लोटस महल परिसर

कृष्णदेव राय की दोनों रानियाँ जनाना महल में धिकांश समय सुख और शांति के साथ बिताती थी। लोटस महल जनाना  बाड़े का एक हिस्सा था। जहां विजयनगर साम्राज्य के शाही परिवार रहते थे। लोटस महल को उस समय की शाही महिलाओं के लिए घूमने और मनोरंजक गतिविधियों का आनंद लेने के लिए डिजाइन किया गया था। दरबारियों के रहवास महल परिसर के बाहर थे। महल राजा और उसके मंत्रियों के लिए बैठक स्थल के रूप में भी काम करता था। प्राप्त मानचित्रों में इस स्थान को परिषद कक्ष के रूप में भी जाना जाता है। 18 वीं सदी मे मिले नक्शों में कमल महल को काउंसिल चैंबर भी कहा गया है। कमल महल और चित्रांगिनी महल ऐसे अन्य नाम हैं जिनसे इसे पहले जाना जाता था। इस स्थान पर संगीत समारोह और अन्य मनोरंजन गतिविधियाँ आयोजित की गईं।

कमल महल को यह नाम इसके आकार के कारण दिया गया है। बालकनी और रास्ते एक गुंबद से ढके हुए हैं जो खिली हुई कमल की कली की तरह दिखता है। केंद्रीय गुंबद पर भी कमल की कली की नक्काशी की गई है। महल के घुमावों को इस्लामिक स्पर्श दिया गया है जबकि बहुस्तरीय छत का डिज़ाइन इमारतों की इंडो शैली से संबंधित है। शैली और डिज़ाइन इस्लामी और भारतीय वास्तुकला शैली का एक जिज्ञासु मिश्रण है।

महल दो मंजिला इमारत है, जो अच्छी तरह से संरचित है। यह एक आयताकार दीवार और चार मीनारों से घिरा हुआ है। ये मीनारें भी पिरामिड आकार में हैं जिससे कमल जैसी संरचना का दृश्य दिखाई देता है। महल की मेहराबदार खिड़कियों और बालकनी को सहारा देने के लिए लगभग 24 खंभे मौजूद हैं। दीवारों और खंभों पर समुद्री जीवों और पक्षियों जैसे पैटर्न की खूबसूरती से नक्काशी की गई है।

महल के आसपास का क्षेत्र कई छायादार पेड़ों से ढका हुआ है जो महल को एक शांत वातावरण प्रदान करता है। शाम के समय जब लोटस महल जगमगाता है, तो पर्यटकों को एक अद्भुत दृश्य दिखाई देता है। तस्वीरें लेने के लिए यह पूरे हम्पी में एक असाधारण स्थान है। हम्पी की यात्रा के दौरान लोटस महल सूची में एक निश्चित गंतव्य होना चाहिए। यह जानकर आप दंग रह जाएंगे कि सदियों पहले भारतीय वास्तुकला और कारीगर अपनी श्रेणी में कितने सर्वश्रेष्ठ थे।

दिन भर पैदल उठक बैठक से सभी लोग थकने लगे थे। शाम भी होने को आई। बस का रूख होटल की तरफ़ मोड़ने का आदेश हुआ। वापसी यात्रा में अधिकांश साथी झपकियों की थपकियों के अहसास से गर्दन झुका कर ऊँघने लगे। हमने कुछ जागृत मुसाफ़िरों को तेनाली राम का एक किस्सा सुनाया।

एक साथी ने पूछा – लगता है तेनाली और बीरबल एक ही व्यक्ति था।

हमने उन्हें बताया – नहीं, राजा कृष्ण देवराय के दरबार का सबसे प्रमुख और बुद्धिमान दरबारी था, तेनालीराम। असल में उसका नाम रामलिंगम था। तेनाली गांव का होने के कारण उसे तेनालीराम कहा जाता था। तेनालीराम की बुद्धिमत्‍ता के चर्चे दूर-दूर तक फैले थे। यह राजा कृष्ण देवराय का प्रमुख सलाहकार भी था। इतिहास से अनभिज्ञ सज्जन तेनाली राम को अकबर के दरबारी बीरबल से प्रभावित बता देते हैं। यह सही नहीं है।

तेनाली राम-कृष्णदेव राय 1526-1530 के आसपास बाबर के समकालीन थे। कृष्णदेव राय की मृत्यु 1529 में हुई जबकि बीरबल अकबर (1556-1605) के समकालीन थे। बीरबल तेनाली को जानते होंगे लेकिन तेनाली ने कभी बीरबल के बारे में नहीं सुना क्योंकि दोनों की उम्र में 50 साल का अंतर था। तेनाली उस समय के थे, जब इब्राहिम लोदी दिल्ली के सुल्तान थे। इसलिए बीरबल के तेनाली को जानने की संभावना भी कम है। हाँ, बाद में इनके किस्से आपस में घुलमिल गए। कल्पनाशील लेखकों को यहाँ का वहाँ चिपकाने में महारत हासिल होती है। अवसर भी था और ज़रूरत भी। हमने साथियों को तेनाली राम का ‘स्वर्ण मूषक पुरस्कार’ क़िस्सा सुनाया।

महाराज कृष्णदेव राय अपने दरबार के सभी सभासदों को विशेष महत्व देते थे, किंतु फिर भी सभासदों को प्राय: ऐसा लगा करता था कि महाराज तेनाली राम पर अधिक कृपालु हैं और उसे ऐसा मौक़ा दे दिया करते हैं कि वह शेष सभी सभासदों पर भारी पड़ता है। इसलिए आम सभासद ऐसे अवसरों की तलाश में रहते थे, जब तेनाली राम का मज़ाक उड़ाया जा सके।

एक दिन दरबार लगा हुआ था। आम दिनों की तरह ही कार्रवाई चल रही थी। तभी महाराज ने एक अजीब-सी गंध महसूस की। उन्होंने सभासदों से पूछा, ‘क्या उन्हें कोई दुर्गंध महसूस हो रही है?’

सभी सभासदों ने बिना सतर्कता से दुर्गंध अनुभव करने की कोशिश किए ही कहा, ‘नहीं महाराज!’

लेकिन तेनाली राम आस-पास की हवा महसूस करता हुआ बोला, ‘हां, महाराज! ऐसी गंध मरे चूहे के शरीर में सड़न उत्पन्न होने के कारण पैदा होती है। लगता है, कहीं आस-पास ही कोई चूहा मरा पड़ा है।’

महाराज ने सेवकों से अविलम्ब चूहे की खोज करने के लिए कहा। थोड़ी ही देर में एक सेवक ने मरा चूहा ढूंढ़ निकाला और उसे लेकर महाराज के पास चला आया।

महाराज सेवक पर नाराज़ हो गए। उन्होंने कहा, ‘ठीक है! तुमने इसे खोज निकाला मगर इसे यहां लाने की आवश्यकता क्या थी? कहीं फेंक आते, फिर मुझे आकर सूचना दे देते। मैं इस चूहे का क्या करूंगा?’ सेवक डर से थरथर कांपने लगा।

तभी एक दरबारी ने कहा, ‘महाराज, आप चाहें तो चूहा इस दरबार के सबसे विद्वान सभासद तेनाली राम को भेंट कर सकते हैं। आपने उसे तरह-तरह के उपहार दिए हैं, आज मरा चूहा ही सही।’

दरबारी की बात पर सभासद ही-ही-ही-ही करने लगे। बोलने वाला सभासद भी दरबार में मसखरा माना जाता था, इसलिए महाराज ने उसकी बातें अनसुनी कर दीं। मगर तेनाली राम इस सभासद की बातों में छुपे कटाक्ष को समझ गया। तत्काल अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा, ‘माननीय सभासद, यदि महाराज ने मुझे यह चूहा उपहार में दिया तो मैं इसे आदर के साथ ग्रहण करूंगा। चूहा भगवान गणपति का वाहन ऐसे ही नहीं बन गया है।’

महाराज, तेनाली राम का प्रतिवाद सुन मुस्करा दिए और बोले, ‘मरे चूहे का तुम क्या करोगे?’

‘यदि आपने मुझे यह चूहा भेंट किया तब मैं यह समझूंगा कि आप मेरी बुद्धि की परीक्षा लेना चाहते हैं और यह परीक्षा देने के लिए मैं इस चूहे से व्यापार करूंगा महाराज, तेनाली राम ने कहा।

‘मरे चूहे से व्यापार, यह तुम कैसे कर सकते हो तेनाली राम?’ महाराज ने पूछा।

‘महाराज, संसार की प्रत्येक वस्तु का कोई-न-कोई उपयोग है। कुछ भी व्यर्थ नहीं है। मैं इस मरे चूहे को किसी सपेरे को बेच आऊंगा और उससे गुड़ ख़रीद लूंगा। गर्मी का मौसम है। मैं गुड़ को पानी में मिलाकर मीठा पानी बेचूंगा। इससे जो पैसे मिलेंगे, उससे चना ख़रीदूंगा और चना बेचकर चने से बने पकवान बेचकर पैसा कमाऊंगा और उन पैसों से बड़ा रोज़गार आरम्भ करूंगा।’ तेनाली राम ने कहा।

तेनाली राम की बातें सुनकर महाराज प्रसन्न हुए और सभासदों से कहा, ‘तेनाली राम की यही तर्कबुद्धि उसे तेनाली राम बनाती है। हमें इस बात का गर्व है कि हमारे दरबार में तेनाली जैसा बुद्धिमान सभासद है। मैं आज इसके उत्तर से इतना संतुष्ट हूं कि इसके लिए ‘स्वर्ण मूषक’ पुरस्कार की घोषणा करता हूं तथा राज्य के कोषाध्यक्ष को आदेश देता हूं कि तेनाली राम को पुरस्कृत करने के लिए पांच तोला सोने का चूहा बनवाकर दरबार को यथाशीघ्र सौंपे।’

महाराज के इस आदेश का पालन हुआ। उस दिन दरबार में महाराज ने तेनाली राम को सोने का चूहा पुरस्कार में देकर उसे अपने गले से लगा लिया। तेनाली राम के आलोचकों को महाराज की ओर से दिया गया यह एक करारा जवाब था। तो ऐसा था विजयनगर साम्राज्य का दरबार।

इस किस्से से यह पता चलता है कि उस समय विजयनगर साम्राज्य धनधान्य से भरा रहता था। तभी महल तक में चूहे पहुँच जाते थे, और व्यावसायिक उद्यमशीलता के विचारों को पोषित किया जाता था।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-१५ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-१५ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

विट्ठल मंदिर

हम्पी का विशाल फैलाव तुंगभद्रा के घेरदार आग़ोश और गोलाकार चट्टानों की पहाड़ियों की गोद में आकृष्ट करता है। घाटियों और टीलों के बीच पाँच सौ से भी अधिक मंदिर, महल, तहख़ाने, जल-खंडहर, पुराने बाज़ार, शाही मंडप, गढ़, चबूतरे, राजकोष… आदि असंख्य स्मारक हैं। एक लाख की आबादी को समेटे बहुत खूबसूरत नगर नदी किनारे बसा था। एक दिन में सभी को देखना कहाँ संभव है। हम्पी में ऐसे अनेक आश्चर्य हैं, जैसे यहाँ के राजाओं को अनाज, सोने और रुपयों से तौला जाता था और उसे निर्धनों में बाँट दिया जाता था। रानियों के लिए बने स्नानागार, मेहराबदार गलियारों, झरोखेदार छज्जों और कमल के आकार के फव्वारों से सुसज्जित थे।

हम्पी परिसर में विट्ठल मंदिर एक बहुत प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। विट्ठल मंदिर और बाजार परिसर तुंगभद्रा नदी के तट के पास विरुपाक्ष मंदिर के उत्तर-पूर्व में 3 किलोमीटर से थोड़ा अधिक  दूर है। यह हम्पी में सबसे कलात्मक रूप से परिष्कृत हिंदू मंदिर अवशेष विजयनगर के केंद्र का हिस्सा रहा है। यह स्पष्ट नहीं है कि मंदिर परिसर कब बनाया गया था, और इसे किसने बनवाया था। अधिकांश विद्वान इसका निर्माण काल 16वीं शताब्दी के आरंभ से मध्य तक बताते हैं। कुछ पुस्तकों में उल्लेख है कि इसका निर्माण देवराय द्वितीय के समय शुरू हुआ, जो कृष्णदेवराय, अच्युतराय और संभवतः सदाशिवराय के शासनकाल के दौरान जारी रहा। संभवतः 1565 में शहर के विनाश के कारण निर्माण  बंद हो गया। शिलालेखों में पुरुष और महिला के नाम शामिल हैं, जिससे पता चलता है कि परिसर का निर्माण कई प्रायोजकों द्वारा किया गया था।

यह मंदिर कृष्ण के एक रूप विट्ठल को समर्पित है, जिन्हें  विठोबा भी कहा जाता था। मंदिर पूर्व की ओर खुलता है, इसकी योजना चौकोर है और इसमें दो तरफ के गोपुरम के साथ एक प्रवेश गोपुरम है। मुख्य मंदिर एक पक्के प्रांगण और कई सहायक मंदिरों के बीच में स्थित है, जो सभी पूर्व की ओर संरेखित हैं। मंदिर 500 गुणा 300 फीट के प्रांगण में एक एकीकृत संरचना है जो स्तंभों की तिहरी पंक्ति से घिरा हुआ है। यह एक मंजिल की नीची संरचना है जिसकी औसत ऊंचाई 25 मीटर है। मंदिर में तीन अलग-अलग हिस्से हैं: एक गर्भगृह, एक अर्धमंडप और एक महामंडप या सभा मंडप है।

विट्ठल मंदिर के प्रांगण में पत्थर के रथ के रूप में एक गरुड़ मंदिर है; यह हम्पी का अक्सर चित्रित प्रतीक है। पूर्वी हिस्से में प्रसिद्ध शिला-रथ है जो वास्तव में पत्थर के पहियों से चलता था। इतिहासकार डॉ.एस.शेट्टर के अनुसार रथ के ऊपर एक टावर था। जिसे 1940 के दशक में हटा दिया गया था। पत्थर रथ भगवान विष्णु के आधिकारिक वाहन गरुड़ को समर्पित है। जिसकी फोटो 50 के नोट के पृष्ठ भाग पर अंकित है। पर्यटक 50 का नोट हाथ में रख दिखाते हुए फोटो ले रहे थे। हमारे साथियों ने भी सेल्फ़ी फोटो खींच मोबाइल में क़ैद कर लिए।

पत्थर के रथ के सामने एक बड़ा, चौकोर, खुले स्तंभ वाला, अक्षीय सभा मंडप या सामुदायिक हॉल है। मंडप में चार खंड हैं, जिनमें से दो मंदिर के गर्भगृह के साथ संरेखित हैं। मंडप में अलग-अलग व्यास, आकार, लंबाई और सतह की फिनिश के 56 नक्काशीदार पत्थर के बीम से जुड़े स्तंभ हैं जो टकराने पर संगीतमय ध्वनि उत्पन्न करते हैं। स्थानीय पारंपरिक मान्यता के अनुसार, इस हॉल का उपयोग संगीत और नृत्य के सार्वजनिक समारोहों के लिए किया जाता था। गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है।

मंदिर परिसर के बाहर, इसके दक्षिण-पूर्व में, लगभग एक किलोमीटर (0.62 मील) लंबी एक स्तंभयुक्त बाज़ार सड़क है। सभी कतारबद्ध दुकान परिसर अब खंडहर हो चुके हैं। अब बिना छत वाले पत्थरों के खंभे खड़े हैं। उत्तर में एक बाज़ार और एक दक्षिणमुखी मंदिर है जिसमें रामायण-महाभारत के दृश्यों और वैष्णव संतों की नक्काशी है। उत्तरी सड़क हिंदू दार्शनिक रामानुज के सम्मान में एक मंदिर में समाप्त होती है।  विट्ठल मंदिर के आसपास के क्षेत्र को विट्ठलपुरा कहा जाता था। इसने एक वैष्णव मठ की मेजबानी की, जिसे अलवर परंपरा पर केंद्रित एक तीर्थस्थल के रूप में डिजाइन किया गया था। शिलालेखों के अनुसार यह शिल्प उत्पादन का भी केंद्र था।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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English Literature – Travelogue ☆ Holy Dip of Faith: Mahakumbh 2025 : # 11 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Shri Jagat Singh Bisht

 

☆ Travelogue Holy Dip of Faith: Mahakumbh 2025 : # 11 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Standing at the confluence of the sacred rivers—the Ganga, Yamuna, and the mystical Saraswati—we felt an overwhelming sense of gratitude. The Mahakumbh Mela 2025 had beckoned us to Teerthraj Prayagraj, offering a once-in-a-lifetime opportunity to immerse ourselves in the celestial waters during the most auspicious planetary alignment, one that will reoccur only after 144 years.

(Beautiful sunrise as we move towards the Sangam during Mahakumbh 2025.)

As the first light of dawn painted the horizon, we embarked on our journey to the Sangam. An e-rickshaw carried us part of the way before we rode pillion on a bike, weaving through the throng of pilgrims making their way to the holy waters. The air was thick with devotion, the silent hum of prayers blending seamlessly with the awakening city.

(An early morning boat ride to the confluence of the holy rivers Ganga, Yamuna and Saraswati in Prayagraj during the Mahakumbh 2025.)

The boat ride to the Sangam was nothing short of enchanting. The river mirrored the sky, rippling with hues of crimson as the sun emerged from behind the clouds. Our boatman, a man of simple wisdom, had spent his life ferrying seekers to the confluence. His words carried the weight of timeless knowledge, as if the river itself spoke through him. Time seemed to dissolve as we floated over the vast, flowing expanse—deep, relentless, and eternal. The moment we reached the Sangam and took the sacred dip, an indescribable stillness embraced us. In that instant, all doubts and anxieties melted away. The water was cold, yet it carried a warmth that seeped into the soul, cleansing not just the body but the spirit. It was bliss—pure, untainted, divine.

(Siberian birds on the river Yamuna during Mahakumbh 2025.)

Emerging from the waters, we were awestruck by the endless procession of humanity moving patiently towards the holy confluence. Men, women, and children—many barefoot, many elderly—walked with unwavering faith, their hearts pulsating with devotion. Some had travelled for days with nothing but their trust in the divine to sustain them. What unseen force propels these millions to undertake such an arduous journey? What unshakable belief gives them the strength to surrender their worldly worries at the feet of the Almighty?

The administration had done its best to accommodate the vast influx of devotees. Temporary ‘raen baseras’ provided free lodging, while community-run ‘bhandaras’ ensured that no pilgrim went hungry. Rows of temporary toilets lined the pathways, a much-needed relief for the weary travellers. Yet, despite the meticulous planning, the sheer magnitude of over 550 million seekers compressed into a small town for a few weeks was beyond any human effort to fully contain. And yet, miraculously, the chaos found its own rhythm. Faith was the only guiding force—an invisible hand that organised the unorganisable.

We walked with the masses under the afternoon sun, attempting to understand the hearts of those around us. But the deeper we looked, the more elusive the answers became. The Maha Kumbh Mela is not merely an event—it is a phenomenon, a movement of the spirit that defies explanation. And in this realisation, our faith in the unseen deepened.

Later, seeking a different perspective, we visited the digital museum that beautifully encapsulated the grandeur of the Kumbh Mela through short films and immersive exhibits. As evening descended, the Boat Club at Kali Ghat came alive with a mesmerising laser and drone show, a fusion of technology and tradition that narrated the timeless story of the Kumbh.

Despite the overwhelming crowds at the Sangam and the tent cities, we were fortunate to find solace in the relatively peaceful Civil Lines locality. With its delightful eateries, shopping avenues, and even a PVR cinema, it provided a refreshing contrast to the spiritual intensity of the Mela. Our dinner at El Chico, an iconic restaurant, was a comforting end to an extraordinary day. Before departing, we planned to pay our respects at the Amar Shaheed Chandra Shekhar Azad Park, honouring the brave son of India who had once walked these very streets.

As we prepared to leave, a quiet prayer lingered in our hearts:

May the divine essence of the Maha Kumbh Mela cleanse not just our bodies, but our souls. May it remind us of the eternal truth—that we are but droplets in the great river of existence, flowing towards the infinite. May peace and harmony reign within us, now and always.

© Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

Founder:  LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – नरसिम्हा – भाग-१४ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – नरसिम्हा – भाग-१४ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

विरुपाक्ष मंदिर दर्शन उपरांत हम लोग हम्पी के आइकोनिक पहचान वाले लक्ष्मी नरसिम्हा मंदिर पहुँचे। आप मुख्य सड़क मार्ग से इस स्थान तक पहुंच सकते हैं। यह मंदिर मुख्य सड़क पर मध्य में स्थित है जो इसको रॉयल सेंटर से जोड़ता है। कृष्ण मंदिर से लगभग 200 मीटर दक्षिण में मेहराब से होकर गुजरने वाली सड़क को पार करती हुई एक छोटी सी नहर दिखी।  दाहिनी ओर एक कच्चा रास्ता आपको नरसिम्हा प्रतिमा और उसके बगल से मंदिर तक ले जाता है। मंदिर तो पूरी तरह ध्वस्त कर दिया गया था। लेकिन खंडित लक्ष्मी नरसिम्हा मूर्तिभंजक अत्याचार की कहानी कहती खड़ी है।

हेमकुटा पहाड़ी के विरुपाक्ष मंदिर से लगभग 1 किलोमीटर दक्षिण में इसी रास्ते ओर दूसरी ओर कृष्ण मंदिर है, जिसे बालकृष्ण मंदिर भी कहा जाता है। हम्पी परिसर के इस हिस्से को शिलालेखों में कृष्णपुरा कहा गया है। खंडहर हो चुके मंदिर के सामने एक बाज़ार के बीच स्तंभयुक्त पत्थर की दुकान के खंडहरों के बीच एक चौड़ी सड़क है जो रथों को बाजार से सामान लाने और ले जाने के काम  आती थी। उत्सव समारोहों के जुलूस  निकला करते थे। इस सड़क के उत्तर में और बाजार के मध्य में एक बड़ी सार्वजनिक उपयोगिता वाली सीढ़ीदार पानी की टंकी है। टंकी के बगल में लोगों के बैठने के लिए एक मंडप है। मंदिर पूर्व की ओर खुलता है; इसमें नीचे मत्स्य अवतार से शुरू विष्णु के सभी दस अवतारों की नक्काशी वाला एक प्रवेश द्वार है। अंदर कृष्ण का खंडहर हो चुका मंदिर और देवी-देवताओं के छोटे-छोटे खंडहर हैं। मंदिर परिसर मंडपों में विभाजित है, जिसमें एक बाहरी और एक आंतरिक घेरा शामिल है। परिसर में दो गोपुरम प्रवेश द्वार हैं। इसके गर्भगृह में रखी बालकृष्ण  की मूल छवि अब चेन्नई संग्रहालय में है। पूर्वी गोपुरा के सामने से एक आधुनिक सड़क गुजरती है, जो हम्पी के सबसे नज़दीक बस्ती कमलापुरम को हम्पी से जोड़ती है। पश्चिमी गोपुरम में युद्ध संरचना और सैनिकों की भित्तिचित्र हैं।

कृष्ण मंदिर के बाहरी हिस्से के दक्षिण में दो निकटवर्ती मंदिर हैं, एक में सबसे बड़ा अखंड शिव लिंग है और दूसरे में विष्णु का सबसे बड़ा अखंड योग-नरसिम्हा अवतार है। 9.8 फीट का शिव लिंग एक घनाकार कक्ष में पानी में खड़ा है और इसके शीर्ष पर तीन आंखें बनी हुई हैं। इसके दक्षिण में 22 फीट ऊंचे नरसिम्हा – विष्णु के नर-शेर अवतार – योग मुद्रा में बैठे हैं। नरसिम्हा मोनोलिथ में मूल रूप से देवी लक्ष्मी भी थीं, लेकिन इसमें व्यापक क्षति के संकेत और कार्बन से सना हुआ फर्श दिखाई देता है – जो मंदिर को जलाने के प्रयासों का सबूत है। प्रतिमा को साफ कर दिया गया है और मंदिर के कुछ हिस्सों को बहाल कर दिया गया है।

नरसिम्हा हम्पी की सबसे बड़ी मूर्ति है। नरसिम्हा विशाल सात सिर वाले शेषनाग की कुंडली पर बैठे हैं। साँप का फन उसके सिर के ऊपर छत्र के रूप में है। भगवान घुटनों को सहारा देने वाली बेल्ट के साथ (क्रॉस-लेग्ड) पालथी योग मुद्रा में हैं। इसे उग्र नरसिम्हा अर्थात अपने भयानक रूप में नरसिम्हा भी कहा जाता है। उभरी हुई आंखें और चेहरे के भाव ही इस नाम का आधार हैं। तालीकोटा के युद्ध के बाद इस मूर्ति को पूरी तरह ध्वस्त करने के प्रयास  आयातितों ने किए। पत्थर को जब नहीं तोड़ा जा सका तो इसे गंदगी से अपवित्र किया गया। चारों तरफ़ आग लगाकर नष्ट करने के प्रयास हुए। फिर भी यह मूर्ति वर्तमान स्वरूप में बच गई।

मूल प्रतिमा में लक्ष्मी की छवि भी थी, जो उनकी गोद में बैठी थीं। लेकिन मंदिर तोड़ने के दौरान यह मूर्ति गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हो गई। यहां तक कि उनकी गोद में उकेरी गई लक्ष्मी की मूर्ति का क्षतिग्रस्त हिस्सा गायब है। संभवतः यह छोटे-छोटे टुकड़ों में इधर-उधर बिखर गई होगी। लेकिन देवी का हाथ आलिंगन मुद्रा में देव की पीठ पर टिका हुआ दिखाई देता है। अगर आपको इस घेरे के अंदर जाने का मौका मिले तो देवी का हाथ दिख सकता है। यहां तक कि उसकी उंगलियों पर नाखून और अंगूठियां भी बहुत अच्छी तरह से बनाई गई हैं। किसी तरह यह अकेली मूर्ति एक ही समय में प्रदर्शित कर सकती है कि मानव मन कितना रचनात्मक और विनाशकारी हो सकता है। नरसिम्हा दर्शन करके दाहिनी तरफ़ देखा तो कुछ दुकानों के बीच से विट्ठल मंदिर गोपुर दिखा। कदम बरबस ही इस बिट्ठल मंदिर की ओर बढ़ गए। 

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-१३ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-१३ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

छोटे गोपुरम के बाद का प्रांगण शिव मंदिर के मुख्य मंडप की ओर जाता है, जिसमें मूल वर्गाकार मंडप और कृष्णदेवराय द्वारा निर्मित दो जुड़े हुए वर्गों और सोलह खंभों से बना एक आयताकार विस्तार शामिल है। मंदिर की सभी संरचनाओं में सबसे अलंकृत, केंद्रीय स्तंभ वाला हॉल इस यहीं है। इसी प्रकार मंदिर के आंतरिक प्रांगण तक पहुंच प्रदान करने वाला प्रवेश द्वार टॉवर भी है। स्तंभित हॉल के बगल में स्थापित एक पत्थर की पट्टिका पर शिलालेख मंदिर में उनके योगदान की व्याख्या करते हैं। जिसमें दर्ज है कि कृष्ण देवराय ने 1510 ई. में अपने राज्यारोहण के उपलक्ष्य में इस हॉल का निर्माण करवाया था। उन्होंने पूर्वी गोपुरम का भी निर्माण कराया। मंदिर के हॉलों का उपयोग विभिन्न उद्देश्यों के लिए किया जाता था। कुछ ऐसे स्थान थे जिनमें संगीत, नृत्य, नाटक आदि के विशेष कार्यक्रमों को देखने के लिए देवताओं की तस्वीरें रखी जाती थीं। अन्य का उपयोग देवताओं के विवाह का जश्न मनाने के लिए किया जाता था।

विरुपाक्ष में छत की पेंटिंग देखी जो चौदहवीं और सोलहवीं शताब्दी की हैं। 19वीं शताब्दी की शुरुआत में प्रमुख नवीकरण और परिवर्धन हुए, जिसमें उत्तरी और पूर्वी गोपुरम के कुछ टूटे हुए टावरों को पुनर्स्थापित किया गया। मंडप के ऊपर खुले हॉल की छत को चित्रित किया गया है, जो शिव-पार्वती विवाह को दर्शाता है। एक अन्य खंड राम-सीता की कथा को बताता है। तीसरे खंड में प्रेम देवता कामदेव द्वारा शिव पर तीर चलाने की कथा को दर्शाया गया है, और चौथे खंड में अद्वैत हिंदू विद्वान विद्यारण्य को एक जुलूस में ले जाते हुए दिखाया गया है। जॉर्ज मिशेल और अन्य विद्वानों के अनुसार, विवरण और रंगों से पता चलता है कि छत की सभी पेंटिंग 19वीं सदी के नवीनीकरण की हैं, और मूल पेंटिंग के विषय अज्ञात हैं। मंडप के स्तंभों में बड़े आकार के उकेरी आकृतियाँ हैं, एक पौराणिक जानवर जो घोड़े, शेर और अन्य जानवरों की विशेषताओं को समेटे है और उस पर एक सशस्त्र योद्धा सवार है – जो कि विजयनगर की एक विशिष्ट पहचान को दर्शाता है।

मंदिर के गर्भगृह में पीतल से उभरा एक मुखी शिव लिंग है। विरुपाक्ष मंदिर में मुख्य गर्भगृह के उत्तर में पार्वती-पम्पा और भुवनेश्वरी के दो पहलुओं के लिए छोटे मंदिर भी हैं। भुवनेश्वरी मंदिर चालुक्य वास्तुकला का है और इसमें  पत्थर के बजाय ग्रेनाइट का उपयोग किया गया है। परिसर में एक उत्तरी गोपुर है, जो पूर्वी गोपुर से छोटा है, जो मनमाथा टैंक की ओर खुलता है और रामायण से संबंधित पत्थर की नक्काशी के साथ नदी के लिए एक मार्ग है। इस टैंक के पश्चिम में शक्तिवाद और वैष्णववाद परंपराओं के मंदिर हैं, जैसे क्रमशः दुर्गा और विष्णु के मंदिर। कुछ मंदिरों को 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश भारत के अधिकारी एफ.डब्ल्यू. रॉबिन्सन के आदेश के तहत सफेद कर दिया गया था, जिन्होंने विरुपाक्ष मंदिर परिसर को पुनर्स्थापित करने की मांग की थी। तब से ऐतिहासिक स्मारकों के इस समूह की सफेदी एक परंपरा के रूप में जारी है।

स्थानीय परंपरा के अनुसार, विरुपाक्ष एकमात्र मंदिर है जो 1565 में हम्पी के विनाश के बाद भी हिंदुओं का जमावड़ा स्थल बना रहा और तीर्थयात्रियों का आना-जाना लगा रहा। यह मंदिर बड़ी भीड़ को आकर्षित करता है; विरुपाक्ष और पम्पा के विवाह को चिह्नित करने के लिए रथ जुलूस के साथ एक वार्षिक उत्सव वसंत ऋतु में आयोजित किया जाता है, जैसा कि महा शिवरात्रि का पवित्र त्योहार है।

वर्तमान में, मुख्य मंदिर में एक गर्भगृह, तीन पूर्व कक्ष, एक स्तंभ वाला हॉल और एक खुला स्तंभ वाला हॉल है। इसे बारीक नक्काशी वाले खंभों से सजाया गया है। मंदिर के चारों ओर एक स्तंभयुक्त मठ, प्रवेश द्वार, आंगन, छोटे मंदिर और अन्य संरचनाएं हैं। दक्षिण वास्तुकला के इनके खम्भ और छत को देखते हुए हमने गर्भ गृह में पहुँच शिव लिंग के दर्शन किए।

गर्भ ग्रह से बाहर निकलने हेतु नौ-स्तरीय पूर्वी प्रवेश द्वार तरफ़ प्रवेश किया, जो सबसे बड़ा है, अच्छी तरह से आनुपातिक है और इसमें कुछ पुरानी संरचनाएं शामिल हैं। इसमें एक ईंट की अधिरचना और एक पत्थर का आधार है। यह कई उप-मंदिरों वाले बाहरी प्रांगण तक पहुंच प्रदान करता है। छोटा पूर्वी प्रवेश द्वार अपने असंख्य छोटे मंदिरों के साथ आंतरिक प्रांगण की ओर जाता है। तुंगभद्रा नदी का एक संकीर्ण चैनल मंदिर की छत के साथ बहता है और फिर मंदिर-रसोईघर तक उतरता है और बाहरी प्रांगण से होकर बाहर निकलता है।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-१२ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-१२ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

विरूपाक्ष मंदिर

बस से उतरकर सबसे पहले विरूपाक्ष मंदिर पहुंचे। विरुपाक्ष मंदिर खंडहरों के बीच बचा रह गया था। अभी भी यहाँ पूजा होती है। यह भगवान शिव को समर्पित है, जिन्हें यहां विरुपाक्ष-पम्पा पथी के नाम से जाना जाता है। शिव “विरुपाक्ष” के नाम से जाने जाते हैं। यह मंदिर  तुंगभद्रा नदी के तट पर है। विरुपाक्ष अर्थात् विरूप अक्ष, विरूप का अर्थ है कोई रूप नहीं, और अक्ष का अर्थ है आंखें। इसका अर्थ हुआ बिना आँख वाली दृष्टि। जब आप थोड़ा और गहराई में जाते हैं, तो आप देखते हैं कि चेतना आँखों के बिना देख सकती है, त्वचा के बिना महसूस कर सकती है, जीभ के बिना स्वाद ले सकती है और कानों के बिना सुन सकती है। ऐसी चीजें गहरी ‘समाधि’ में सपनों की तरह ही घटित होने लगती हैं। चेतना अमूर्त है। आप पांच इंद्रियों में से किसी के भी बिना सपने देखते हैं; सूंघते हैं, चखते हैं, आप सब कुछ करते हैं ना? तो विरुपाक्ष वह चेतना है जिसकी आंखें तो हैं लेकिन मूर्त आकार नहीं है।  समस्त ब्रह्मांड में शिव चेतना बिना किसी आकार के जड़ को चेतन करती है, जैसे बिजली दिखाई नहीं देती मगर पंखे को घुमाने लगती है। छठी इंद्रिय का अतीन्द्रिय अहसास ही विरूपाक्ष है। इंद्र की पाँच इन्द्रियों से परे छठी इन्द्रिय का मनोवैज्ञानिक सिद्धांत तो बहुत बाद उन्नीसवीं सदी में सिग्मंड फ्रॉड के अध्ययन के बाद आया। उसके बहुत पहले विरुपाक्ष चेतन शिव की मूर्ति बन चुकी थी।

विरूपाक्ष मंदिर का इतिहास लगभग 7वीं शताब्दी से अबाधित है। विरुपाक्ष मंदिर का निर्माण कल्याणी के चालुक्य शासक विक्रमादित्य-2 ने करवाया था जो इस वंश का सबसे प्रतापी शासक था। पुरातात्विक अध्ययन से इसे बारहवीं सदी के पूर्व का बताया गया है। विरुपाक्ष-पम्पा विजयनगर राजधानी के स्थित होने से बहुत पहले से अस्तित्व में था। शिव से संबंधित शिलालेख 9वीं और 10वीं शताब्दी के हैं। जो एक छोटे से मंदिर के रूप में शुरू हुआ वह विजयनगर शासकों के अधीन एक बड़े परिसर में बदल गया। साक्ष्य इंगित करते हैं कि चालुक्य और होयसल काल के अंत में मंदिर में कुछ अतिरिक्त निर्माण किए गए थे, हालांकि अधिकांश मंदिर भवनों का श्रेय विजयनगर काल को दिया जाता है। विशाल मंदिर भवन का निर्माण विजयनगर साम्राज्य के शासक देव राय द्वितीय के अधीन एक सरदार, लक्कना दंडेशा द्वारा किया गया था।

विजयनगर साम्राज्य के राजाओं ने समय-समय पर इस मंदिर का निर्माण और विस्तार किया। मंदिर के हॉल में संगीत, नृत्य, नाटक, और देवताओं के विवाह से जुड़े कार्यक्रम आयोजित होते थे। विरुपाक्ष मंदिर में  शिव, पम्पा और दुर्गा मंदिरों के कुछ हिस्से 11वीं शताब्दी में मौजूद थे। इसका विस्तार विजयनगर युग के दौरान किया गया था। यह मंदिर छोटे मंदिरों का एक समूह है, एक नियमित रूप से रंगा हुआ, 160 फीट ऊंचा गोपुरम, अद्वैत वेदांत परंपरा के विद्यारण्य को समर्पित एक हिंदू मठ, एक पानी की टंकी, एक रसोई, अन्य स्मारक और 2,460 फीट लंबा खंडहर पत्थर से बनी दुकानों का बाजार, जिसके पूर्वी छोर पर एक नंदी मंदिर है।

विरुपाक्ष मंदिर को द्रविड़ शैली में बनाया गया है। द्रविड़ शैली के मंदिरों की कुछ प्रमुख विशेषताएं हैं कि ये मंदिर आमतौर पर आयताकार प्रांगण में बने होते हैं। इन मंदिरों का आधार वर्गाकार होता है और शिखर पिरामिडनुमा होता है। इन मंदिरों के शिखर के ऊपर स्तूपिका बनी होती है। इन मंदिरों के प्रवेश द्वार को गोपुरम कहते हैं। इस मंदिर की सबसे खास विशेषताओं में, इसे बनाने और सजाने के लिए गणितीय अवधारणाओं का उपयोग हुआ है। मंदिर का मुख्य आकार त्रिकोणीय है। जैसे ही आप मंदिर के शीर्ष को देखते हैं, पैटर्न विभाजित हो जाते हैं और खुद को दोहराते हैं। इस मंदिर की मुख्य विशेषता यहां का शिवलिंग है जो दक्षिण की ओर झुका हुआ है। इसी प्रकार यहां के पेड़ों की प्रकृति भी दक्षिण की ओर झुकने की है।

तुंगभद्रा नदी से उत्तर की ओर एक गोपुरम जिसे कनकगिरि गोपुर के नाम से जाना जाता है। हमने तुंगभद्रा नदी की तरफ़ से कनकगिरि गोपुर से मंदिर प्रांगण में प्रवेश किया। द्वार पर द्वारपालों की मूर्तियां हैं। मंदिर का मुख पूर्व की ओर है, जो शिव और पम्पा देवी मंदिरों के गर्भगृहों को सूर्योदय की ओर संरेखित करता हैं। एक बड़ा पिरामिडनुमा गोपुरम है। जिसमें खंभों वाली मंजिलें हैं जिनमें से प्रत्येक पर कामुक मूर्तियों सहित कलाकृतियां हैं। गोपुरम एक आयताकार प्रांगण की ओर जाता है जो एक अन्य छोटे गोपुरम में समाप्त होता है। इसके दक्षिण की ओर 100-स्तंभों वाला एक हॉल है जिसमें प्रत्येक स्तंभ के चारों तरफ हिंदू-संबंधित नक्काशी है। इस सार्वजनिक हॉल से जुड़ा एक सामुदायिक रसोईघर है, जो अन्य प्रमुख हम्पी मंदिरों में पाया जाता है। रसोई और भोजन कक्ष तक पानी पहुंचाने के लिए चट्टान में एक चैनल काटा गया है। छोटे गोपुरम के बाद के आंगन में दीपा-स्तंभ  और नंदी हैं।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासी ☆ महाकाय कुंभलगड ☆ प्रा. भरत खैरकर☆

प्रा. भरत खैरकर

🌸 मी प्रवासी 🌸

☆ महाकाय कुंभलगड ☆ प्रा. भरत खैरकर 

बनास नदीच्या काठावर वसलेलं हे माउंट आबू हिल स्टेशन.. खूप दिवसापासून माउंटआबूबद्दल ऐकलं वाचलं होतं.. अरवली पर्वतरांगात वसलेलं माउंट आबू हे सर्वात उंच शिखर!

भारतात उत्तरेला हिमालय.. दक्षिणेला निलगिरी आणि मध्यभागी अरवली म्हणजेच माउंट आबू आहे! तलहाथीवरून गाडी वळणवळण घेत माउंटआबूवर म्हणजे अरवली पर्वत रांगातून चालली होती. अप्रतिम सौंदर्य!

आम्ही सरळ ‘गुरुशिखर’ साठीच निघालो. तिथलं सर्वात उंच ठिकाण! सकाळी सकाळी ह्या ठिकाणी पोहोचल्याने गर्दी जमायला जेमतेम सुरुवात झाली होती. गाडी पार्क करून आम्ही भराभर पायऱ्या चढून दत्ताच दर्शन घेतलं. तिथल्या प्राचीन घंटेचा स्वर आसमंतात निनादला.. फोटो काढले आणि खाली आलो तर एवढ्या वेळात इतकी गर्दी झाली की गाडी काढायला जागा नाही. लोक वाटेल तशा गाड्या पार्क करून गुरुशिखरावर गेले होते. वर येणाऱ्या गाड्यांची अजूनच त्यात लगीनघाई चालली होती. मी शिताफीने ड्रायव्हरला गाडी काढायला सांगितली. अवघ्या अर्ध्या तासात पाच-सहा किलोमीटर लांब ट्रॅफिक जाम झालं होतं. आम्ही पटकन खाली येऊन गेलो, नाहीतर पुढचं सारं शेड्युल बिघडलं असतं.

वाटेवरचं दिलवाडा टेम्पल बघितलं. तिथे असलेल्या कल्पवृक्षासह फोटो काढले. दिलवाडा मंदिर हे संपूर्णपणे संगमरवरात बनविलेले उत्कृष्ट वास्तू रचना असलेले जैन मंदिर आहे. अकराव्या शतकात बांधलेलं हे मंदिर जैन लोकांशिवाय इतरांसाठी दुपारपासून सायंकाळी सहा पर्यंत खुलं असतं. जैन लोकांच्या महत्त्वाच्या तीर्थक्षेत्रामध्ये याचा समावेश होतो.

तिथून आम्ही ‘नक्की लेक’ला गेलो. तोवर चांगलीच गर्दी वाढली होती. आम्ही नक्की लेक बघितला. तिथे राजस्थानी ड्रेसवर फोटो काढता येत होते.. सर्वांनी आपापले ड्रेस निवडले.. राजस्थानी ड्रेस वर फोटो सेशन झालं. फोटो मिळायला अर्धा तास असल्याने पुन्हा नक्कीलेकवर टाईमपास केला. मेहंदी काढली.. नचिकेतसाठी उंदीर आणि टमाटर हे खेळणे घेतले.. जोरात फेकून मारले की ते पसरायचे व परत हळूहळू ‘टर्मिनेटर’ सारखे मूळ आकार घ्यायचे.. खूपच मजेशीर होते! खेळणी बनविणाऱ्याच्या कल्पनाशक्तीच कौतुक वाटलं! मुलांना काय हवं, त्यांना काय आवडेल हे अचूक हेरणारे ते डिझायनर असतात.

आम्ही फोटो घेऊन माउंटआबूवरून खाली तलहाथीला आलो.. तिथे प्रजापिता ब्रह्मकुमारी यांचा आश्रम आहे.. तेथील कार्यकर्त्याने कार्य समजावून सांगितले.. वेळ कमी असल्याने मिळाला तो ‘गुरुप्रसाद’ घेऊन आम्ही कुंभलगडकडे रवाना झालो.. लांबचा पल्ला होता..

रानकापूर फाटा उदयपूरहून जोधपुरला जाणाऱ्या हायवेवर आहे‌. म्हणजे उदयपूर साईडला आपणास जावं लागतं. त्या रस्त्यावर भरपूर सिताफळाचे बन आहे. आजूबाजूच्या गावातली शाळकरी मुलं वीस रुपयाला टोपलीभर सीताफळ विकत होती. हायवेला असल्याने लोकही गाड्या थांबवून सीताफळ घेत होती. रस्ता खूपच मस्त होता.. ट्राफिक मात्र काहीही नव्हते.. कुंभलगड रानकापूर फाटा आला. सुरुवातीला कुंभलगड बघून घ्यावा म्हणून रानकापूर डावीकडे सोडून आम्ही सरळ कुंभलगड कडे निघालो..

हा रस्ता खूपच खराब होता.. शिवाय मध्येच गाडीच्या टपावर बांधलेली ताडपत्री उडाली.. घाटात गाडी थांबवून ती बांधून घेतली.. मध्ये एक शेतकरी राजस्थानी पद्धतीच्या मोटने शेताला पाणी देत होता.. ते बघायला गाडी थांबविली. एक छोटीशी क्लिप तयार केली. फोटो घेतले. मोटेचा जुना मेकॅनिझम बघून फार छान वाटलं.. अजूनही कुंभलगड यायचं नाव घेत नव्हता.. म्हणजे खूप दूर होता. अंतर जवळचं वाटायच पण नागमोडी आणि जंगलचा बिकट रस्ता शिवाय हळूहळू होणारा सूर्यास्त यामुळे खूप वेळ झाला की काय असं वाटायचं.. एवढ्यातच गाडीचा मागचा टायर बसला!

पूर्ण गरम झालेला टायर रस्त्यावरील खाचखडग्याने व अती घाई ह्यामुळे तापला व फाटला होता! आता जंगलात फक्त आम्हीच आणि सामसूम! भराभर मागच्या बॅगा काढून स्टेफनी काढली. चाकाचे नट काही केल्या ढिले होईना! गरम होऊन ते जाम झाले होते. शिवाय स्पॅनर ही स्लिप होत होता. गाडी चालवायला मस्त पण प्रॉब्लेम आल्यावर सगळी हवा ‘टाईट’ होते.

तेवढ्यात एक इनोव्हा मागच्या बाजूने दोन फॉरेनर टुरिस्टना घेऊन आली. तिला थांबण्यासाठी आम्ही रिक्वेस्ट केली. ड्रायव्हर तरुण पंजाबी मुलगा होता. कुठल्यातरी फाईव्ह स्टार हॉटेलमधील फॉरेनर टुरिस्टला कुंभलगड, रानकापूर आणि जंगल सफारी करण्यासाठी साठी घेऊन जात होता. त्याने पंधरा-वीस फुटावर गाडी थांबवली. त्यातील परदेशी पाहुण्यांना विचारून त्याने पंधरा मिनिटे मागितले. पटकन त्याचा ‘टूलबॉक्स’ त्याने काढला. सुरुवातीला त्यालाही नट हलेना! मग त्याने त्यावर पाणी टाकायला सांगितले. गरम झाल्याने एक्सपांड झालेले नट.. थंड झाल्यावर पटकन खोलल्या गेले. मग आम्ही आमची स्टेफनी टाकून गाडी ‘ओके’ केली. त्याचे आभार मानले. तोवर बऱ्यापैकी वेळ झाला होता. पण संकट टळल होतं. निदान आम्ही आमच्या गाडीत होतो. जंगलातून बाहेर पडू शकत होतो. किंवा शेजारच्या कुठल्यातरी गावात जाऊ शकत होतो. भगवंताने मदतीला पाठविलेला तो पंजाबी मुलगा आम्ही आयुष्यभर विसरणं शक्य नाही!

शेवटी कुंभलगडला आम्ही पोहोचलो. तो भव्य दिव्य किल्ला बघून डोळे दिपले. महाराणा कुंभाने बांधलेला हा गड.. त्याचे बुरुज कुंभाच्या म्हणजे मोठ्या मडक्याच्या आकाराचे म्हणून हा कुंभलगड! इथे जंगल सफारी व व्हिडिओ शो पाहता येतो. ह्या किल्ल्यावर बादलमहल, सूर्य मंदिर, भव्य परकोट, मोठमोठे कुंभाच्या आकाराचे बुरुज आहेत. एवढा भव्य किल्ला शाबूत अवस्थेत अजून पर्यंत आम्ही पाहिला नव्हता. इथे रात्री गडाची माहिती देणारा शो असतो. तो पर्यटकांमध्ये नवीन उत्साह भरतो. अरवली पर्वतरांगांच्या पश्चिमेकडे हा किल्ला आहे. उदयपूरपासून अंदाजे ८४ किमी अंतरावर असलेला हा किल्ला राणा कुंभाने १५ व्या शतकात बांधला आहे. कुंभलगडची भिंत ३८ किलोमीटर पसरलेली, जगातील सर्वात लांब अखंड भिंतींपैकी एक आहे. मेवाडचे महाराणा प्रताप यांचे हे जन्मस्थान आहे. भराभर फोटो काढले. जमेल तेवढा डोळ्यात साठवून घेतला. आतुर नेत्रांनी त्या किल्ल्याचा निरोप घेतला. कारण रानकापूर गाठायचे होते.

बऱ्यापैकी अंधार झाला होता. जंगलची रात्र होती. पण पुन्हा एवढ्या बिकट वाटेने आम्ही रानकापुर कडे निघालो होतो. एक वेळ वाटलं की इथून पुढे आता काहीच असणार नाही. ‘हेअर पीन टर्न’ एवढा शार्प होता की थोडा जरी बॅलन्स गेला तरी गाडी उलटणार.. पण आमचा ड्रायव्हर अमोलच.. त्याच्या वयाच्या मानाने ड्रायव्हिंग स्किल अप्रतिम होतं.. त्याने सही सलामत त्या अंधाऱ्या जंगलातून गाडी बाहेर काढली.. तर आम्ही रस्ता चुकलो!.. उजवीकडे जाण्याऐवजी डावीकडे लागलो.. पाच-सहा किलोमीटर गेल्यावर काहीतरी चुकतंय‌.. असं वाटलं.. पण विचारणार कोणाला? तेवढ्यात समोरून एक कार येताना दिसली. त्यांना थांबून विचारल्यावर त्यांनी सांगितले, ” तुम्ही उदयपूरकडे चाललात.. उलट जा किंवा आमच्या मागे या. ” मग आम्ही गाडी वळविली. आठ दहा किलोमीटर त्यांच्या मागे गेल्यावर आम्हीच मग पुढे निघालो.. शेवटी ‘सादरी’ गावातून रानकापूर या ठिकाणी आलो.. तेव्हा रात्रीचे साडेसात वाजले होते. जैन मंदिर असल्याने अशा अवेळी ‘उघडे’ असण्याची शंकाच होती. पण देवाच्या कृपेने आरती सुरू होती.. भगवान महावीरांना मनोमन नमस्कार केला व बिकट प्रसंगात वाट दाखविली म्हणून आभार मानले. दर्शन झाल्याने फार आनंद झाला रात्री दिव्यांच्या उजेडात मंदिराची भव्यता दिसत नव्हती पण जाणवत होती. दिवसाच बघावं असं हे जगातलं सर्वात सुंदर जैन मंदिर वर्ल्ड हेरिटेजचा भाग आहे. पण रात्री बघावं लागलं..

पंधराव्या शतकात राणा कुंभाने दान केलेल्या जागेत बांधलेलं हे कोरीव मंदिर खूपच सुंदर आहे. ४८००० चौरस फुटामध्ये पसरलेलं आहे. जैनांच्या जगातल्या पाच मंदिरांपैकी ते एक आहे. मंदिराला २९ खांब किंवा पिलर असलेला गाभारा आहे. मंदिराला एकूण १४४४ कोरीव स्तंभ आहेत. पण एकही स्तंभ एक दुसऱ्या सारखा नाही. मुख्य चौमुख मंदिरात आदिनाथाची मूर्ती आहे. जे प्रथम जैन तीर्थकर होते. हेही नसे थोडके.. म्हणून आम्ही मंदिरा बाहेर पडलो.

आता मुक्काम कुठे करावा? कारण आजचा मुक्काम जोधपुरला होता. जे इथून 130 किलोमीटरवर होतं आणि रस्ता तर असा.. पण तीस किलोमीटर नंतर ‘एन एच ८’ लागणार होता. तिथवर जावं मग जोधपुर गाठता येईलच हा विचार आला.

रणकापूरला आम्हांला पुण्याजवळील रांजणगावच्या तरुण मुलांचा एक ग्रुप भेटला. त्यांनाही जोधपुरला जायचे होते. पण एवढ्या रात्री अनोळखी रस्त्याने एका मागे एक आपण तिन्ही गाड्या काढू, असं त्यांनी सुचवलं.. त्यानुसार दहा-बारा किलोमीटर अंतरावर गेल्यावर ते दुसऱ्या रस्त्याने निघाले.. आम्ही दुसऱ्या.. अर्ध्या तासानंतर फोन केल्यावर ते पालीला हायवेला टच होणार होते. आम्ही अलीकडेच हायवेला टच झालो होतो.. ठीक झालं.. आलो एकदाचे हायवेवर.. अन् सुरू झाला जोधपुर कडे प्रवास! रात्री बारा वाजता घंटाघर ह्या जोधपूरच्या प्रसिद्ध भागात आम्ही पोहोचलो. सगळीकडे सामसूम.. गल्लीबोळातून गाडी हॉटेलच्या दिशेने चालली होती.

“कहा जाना है? चलो, हम हॉटेल दिखाते है” म्हणून जवळपास अंगावर आल्यासारखे दोन तरुण बाईकवर आमच्या गाडीपाशी आले. ते बराच वेळ गाडीचा पाठलाग करत होते. असं लक्षात आलं.. दरम्यान बरेचशे सीआरपीएफचे जवान गल्लीबोळात रायफलसह उभे होते.. असे भारतीय जवान मी काश्मीरमध्ये श्रीनगरला बघितले होते. वाटलं इथे सेन्सिटिव्ह एरिया असावा.. तरी हिंमत करून त्यातल्या एकाला विचारलं की “हॉटेल खरंच इकडे आहे कां?” तर तो “असेल. ” म्हणून मोकळा झाला.. ती दोघं मात्र त्यांना भीकही घालत नव्हती. मग एका जागी अरुंद मोड आली. गाडी पुढे नेता येईना!. मग “ईथेच गाडी थांबवा. माझ्यासोबत तुमच्यातला कोणीतरी या, हॉटेल दाखवीतो. ” म्हटल्यावर मी उतरलो. म्हटलं बघू करतात तरी काय? किंवा काय होईल? तेवढ्यात माझा एक सहकारीही गाडीतून उतरला. आम्ही एका हॉटेलच्या बंद दरवाजावर पोहोचलो. आत गेट उघडून गेलो तर मंद मंदसा प्रकाश.. हॉटेल सारखं काही वाटतच नव्हतं.. जुन्या वाड्यात आल्यासारखे वाटले.. फोन केला.. तर हॉटेल मालक फोन घ्यायला तयार नाही.. खूप वेळाने कसं बस त्याने एका नोकराला खाली पाठवलं.. त्या नोकरासोबत ते दोघेजण बोलले.. ” हमने लाया है!” वगैरे.. मग लक्षात आले की हे “दलाल” आहेत.. वर गेलो तर मालक पूर्ण टल्ली होता.. म्हणजे दारू पिऊन मग्न होता.. शिवाय अर्ध नग्नही होता.. चार फॉरेनर मुलं मुली आणि हा मालक एकमेकांशी अश्लील चाळे करत होते.. मला बघून “कमॉन सर!” म्हणत ते फॉरेनर आवाज देत होते.. माझं डोकं सटकलं.. पण मी सावरत मालकाला म्हटलं

“अरे, हमारा रूम किधर है?” तर तो म्हणाला, ” यहा पर कमरा वगैरे नही है !लेकिन मैने मेरे दोस्त को बोला है उसके हॉटेल मे आप रह सकते हो. ” असं म्हणत त्याने आपल्या नोकराला आमच्याबरोबर पाठविले.. नशीब!

परत गाडीजवळ येऊन त्याला गाडीत बसवून बाजूच्या गल्लीत असलेल्या हॉटेल ‘किंग्स रिट्रीट’ मध्ये आम्ही आलो.. तिथल्याही नोकरालाही धड माहिती नव्हती.. त्याने दार उघडलं. मग त्याने एका मोठ्याशा हॉलमध्ये आम्हांला सामान ठेवायला सांगितले.. हॉटेलमध्ये सगळीकडे फॉरेनर होते.. मिळाली एकदाची रूम.. आता रात्रीचे दीड वाजले होते.. गल्लीत गाडी दाबून लावली.. आणि झोपलो.. राजस्थान टूरच्या पहिल्याच दिवशी.. एकाच दिवसात आलेला खूप मोठा हा जीवनानुभव होता.. माणसांची किती प्रकारची रूपं आज आम्ही बघितली होती.. तरीही ‘रात गयी बात गयी’ म्हणून झोपी गेलो.

© प्रा. भरत खैरकर

संपर्क – बी १/७, काकडे पार्क, तानाजी नगर, चिंचवड, पुणे ३३. मो.  ९८८१६१५३२९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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