(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी विदेश यात्रा के संस्मरणों पर आधारित एक विचारणीय आलेख – ”न्यू जर्सी से डायरी…”।)
यात्रा संस्मरण ☆ न्यू जर्सी से डायरी… 6 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
किताबें जिंदाबाद
आज सुबह ही यह फोटो खींची है ।
गूगल की त्वरित जानकारियों वाली सुविधा से पुस्तकालयों को लेकर हम सभी प्रायः चिंताएं व्यक्त करते हैं । ऐसे समय में अमेरिका जैसे देश में नए पुस्तकालय प्रारंभ होने की ऐसी सूचनाएं हम जैसे पुस्तक प्रेमियों के प्रसन्न होने का पर्याप्त कारण हैं ।
जो मजा किताब पढ़ने में आता है , वह लेपटॉप पर जानकारियों को निकालने से सर्वथा भिन्न होता है । किताबें सच्ची दोस्त होती हैं , वे चिंतन को दिशा देती हैं , संदर्भ बनती हैं और शाश्वत होती हैं ।
विवेक रंजन श्रीवास्तव, न्यूजर्सी
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी विदेश यात्रा के संस्मरणों पर आधारित एक विचारणीय आलेख – ”न्यू जर्सी से डायरी…”।)
यात्रा संस्मरण ☆ न्यू जर्सी से डायरी… 5 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
पवेलियन आन व्हील
महत्वपूर्ण बातें तो कई लोग करते हैं , किताबें तथा मीडिया पर बड़ी बातों पर खूब सी सामग्री सहजता से मिल जाती है, इसलिए मैं उन छोटी और इग्नोर्ड विषयों पर चर्चा कर रहा हूं जो हम देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। ऐसे अनेक छोटे छोटे मुद्दे हैं जो सुविधाओ तथा दूरियों के चलते भारत से भिन्नता रखते हैं, और उन्हें जानने समझने में आपकी रुचि हो सकती है। ऐसा ही एक विषय है खेलों में आम आदमी की अभिरुचि ।
सुबह घूमते हुए मैने देखा की आवासीय परिसर में ही सड़क किनारे बास्केट बाल का चेन लिंक से घिरा पक्का ग्राउंड भर नहीं है , पर्याप्त दर्शको के लिए एल्यूमिनियम का पवेलियन आन व्हील भी बनाया गया है। फोल्डिंग, फटाफट फिट स्टेडियम, इस प्रकार के चके पर चलते स्टेडियम अपने भारत में मेरे देखने में नहीं आए । इससे पता चलता है की खेलने वाले भी हैं, और उन्हें बकअप कर उत्साह बढ़ाने वाले भी हैं। समाज में व्याप्त यह जज्बा ही अंतराष्ट्रीय स्तर पर मेडल टेली में देश को ऊपर लाता है ।
हमारे देश के वर्तमान हालात के महज चंद खिलाड़ियों के विभिन्न खेलों के कैंप, टीम तो बना सकते हैं पर प्रत्येक खेल में क्रिकेट की तरह का जज्बा तभी पैदा हो सकता है जब सामाजिक प्रवृत्ति खेलने , खेलो में हिस्सेदारी की बने । यह हिस्सेदारी दर्शक की भूमिका से आयोजक प्रायोजक तक गांव शहर मोहल्लों में बने । इसके लिए ऐसे सहज पेवेलियन आन व्हील्स और मैदानो के इंफ्रा स्ट्रक्चर की आवश्यकता से आप भी सहमत होंगे।
विवेक रंजन श्रीवास्तव, न्यूजर्सी
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी विदेश यात्रा के संस्मरणों पर आधारित एक विचारणीय आलेख – ”न्यू जर्सी से डायरी…”।)
यात्रा संस्मरण ☆ न्यू जर्सी से डायरी… 4 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
जेट लेग…न्यू जर्सी
भारत से अमेरिका की यात्रा , मतलब हमारे बनाए गए समय के अनुसार जिंदगी के साढ़े दस घंटे दोबारा जीने का मौका होता है । टाइम जोन का परिवर्तन । पूर्व से पश्चिम की यात्रा । हिंदू तो सदैव पूर्व के उगते सूरज को नमन करते हैं किंतु चूंकि काबा मक्का मदीना भारत से पश्चिम की ओर है इसलिए हमारे जो मुस्लिम भाई भारत में पश्चिम दिशा को पवित्र मानते हैं , वे भी यहां आकर अपनी इबादत पूर्व की ओर ही नमन करके करते हैं, क्योंकि यहां से मक्का मदीना पूर्व दिशा में ही है।
दरअसल जेटलेग और कुछ नही प्रकृति के साथ शरीर का सामंजस्य बैठना ही है । यह एक मानसिक अवस्था है। खास तौर पर नींद के समय को प्रारंभिक कुछ दिन लोग जेट लेग की समस्या से परेशान रहते हैं । मैंने देखा है की जब अल्प समय के लिए मैंने टाइम जोन पार किया और कोई आवश्यक काम रहा तो दिमाग अलर्ट मोड पर आकर प्राथमिकता के अनुरूप नीद एडजस्ट कर लेता है । पर जब रिलेक्स मूड हो तो यह नींद रात रात रंग दिखाती है। मौसम का परिवर्तन आबोहवा में घुला होता है । नींद न आए तो विचार आ जाते हैं, यादो के पुलिंदे, समस्या और समाधान के बादल मंडराते हैं । अभी भी यहां जर्सी में नर्म बिस्तर पर उलट पलट रहा हूं, तो सोचा लिख ही डालूं जेट लेग पर । अपनी बाडी क्लाक को प्रकृति से मिलाकर रिसेट करने का श्रेष्ठ तरीका है सूरज, धूप, सुबह से दोस्ती । बस घुमने निकल पड़िए भुंसारे ।
विवेक रंजन श्रीवास्तव, न्यूजर्सी
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी विदेश यात्रा के संस्मरणों पर आधारित एक विचारणीय आलेख – ”न्यू जर्सी से डायरी…”।)
यात्रा संस्मरण ☆ न्यू जर्सी से डायरी… 3 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
पाठको को नवरात्रि पर्व मंगलकारी हो। वसुधैव कुटुंबकम् … इसी सूत्र को बढ़ाते हुए, आज सुबह घूमते हुए नजर पड़ी इस बड़े से फ्रिज पर। भारत में प्रायः बचा हुआ भोजन गाय, स्ट्रीट डाग्स को दे दिया जाता है। यहां चूंकि पैक्ड फूड अधिक प्रयुक्त होता है, लेफ्ट ओवर खाद्य सामग्री, या किंचित लंबे समय के लिए बाहर जाते समय फ्रिज में रखे गए भोज्य पदार्थ इस तरह के कमयूनिटी फ्रिज में छोड़ दिया जाता है। रोज खाओ कमाओ वाली प्रवृति के लोग यहां भी हैं ही, भोजन का सदुपयोग हो जाता है । श्रीमती जी ने पिछले दो तीन दिनों में किचन का प्रभार बेटे से ले लिया है, तो उनके रिव्यू से फ्रिज से बाहर किया गया ढेर सा खाना हमने भी इस फ्रिज में रखकर हल्का अनुभव किया। जब हम मंडला में थे तो क्लब के अंतर्गत पिछली सदी के अंतिम दशक में ऐसे ही दो प्रोजेक्ट्स किए थे ।
पहला था तमाम डाक्टर मित्रों के घरों से उन्हें सेंपल में मिली दवाएं और अन्य अनेक परिवारों से घर पर बची हुई दवाएं एकत्रित करवा कर, झुग्गी बस्ती में मेडिकल कैंप लगाया था और निशुल्क दवा वितरण डाक्टर साहब की समझ के अनुरूप किया गया था।
दूसरा तो संभवतः आज तक चल ही रहा हो, कलेक्ट्रेट परिसर में प्रशासन के सहयोग से एक शेड में घर के पुराने कपड़े लाकर “वाल आफ चैरिटी” पर टांग दिए गए थे , स्लोगन यही था , जिसे जो लगे आकर टांग जाए , जिसे जो लगे ले जाए , इस तरह गरीबों को ठंड में कुछ सहारा मिल गया और लोगो के घरों की अलमारियों का बोझ कम हुआ ।
इसका अध्यातमिक पक्ष यह है की परमात्मा एक महान शक्ति है उसमे अपनी कण शक्ति समर्पण भाव से समाहित कर के देखिए फिर आप उस महान शक्ति के सामर्थ्य के साथ कनेक्ट हो जाते हैं और आपकी कणिक ऊर्जा असाधारण ऊर्जा बन जाती है।
विवेक रंजन श्रीवास्तव, न्यूजर्सी
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २७ – भाग २ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆
आसामी सिल्कचा, पदर भरजरीचा
ब्रह्मपुत्रेवरील साडेतीन किलोमीटर लांबीचा पूल आपल्या भारतीय अभियंत्यांनी बांधलेला आहे. आता असे आणखी दोन पूल ब्रह्मपुत्रेवर बांधले आहेत. ब्रह्मपुत्रा तिबेटमध्ये मानस सरोवराजवळ उगम पावते. नंतर विशाल पर्वतराजीतून वाहत आसामच्या खोऱ्यात प्रवेश करते. तिला दिनांग,सेसिरी,तिस्ता अशा उपनद्या येऊन मिळतात. प्रवाहाची अनेक वळणे बदलत ती बांगलादेशातून बंगालच्या उपसागराला मिळते .जलवाहतुकीचे हे एक उत्तम साधन आहे. अशी ही आसामची जीवनवाहिनी कधी कधी आसामचे अश्रू सुद्धा होते. प्रवाह एवढा प्रचंड आणि वेगवान की तिला ब्रह्मपुत्रा नद (नदी नव्हे ) असेच संबोधले जाते. तिचा प्रवाह सतत बदलतो. पाणलोट क्षेत्रात मुसळधार पाऊस पडतो. सुपीक जमीन पाण्याखाली जाते. माणसे, जनावरे वाहून जाणे हा वार्षिक शिरस्ता आहे. ब्रह्मपुत्राकाठच्या एका गणपती मंदिरात दर्शन घेऊन नदीकाठी गेलो. संध्याकाळच्या सोनेरी प्रकाशात ब्रह्मपुत्रेच्या विस्तीर्ण, गहन गंभीर पात्रावर भरजरी सोनेरी पदर पसरल्यासारखे वाटत होते.
गुवाहाटीमध्ये नीलांचल डोंगरावरील कामाख्या मंदिर हे देवीचे- आदिशक्तीचे- शक्तिपीठ मानले जाते. देऊळ खूप प्राचीन आहे. देवळात खूप काळोख असल्याने व बॅटरीसुद्धा लावायला परवानगी नसल्याने फार काही बघता आले नाही. अजूनही इथे बकरा, रेडा यांचे बळी दिले जातात.
ईशान्य भारतात दगडी कोळशापासून युरेनियमपर्यंत सर्व खनिजे विपुल प्रमाणात आहेत. दिग्बोई इथे तेल शुद्धीकरण रिफायनरी आहे. चहाच्या उत्पादनात जगात पहिला नंबर आहे. घनदाट जंगले, दुर्मिळ वनस्पती,विविध प्राणी, पक्षी आहेत. एक शिंगी गेंडा ही आसामची खासियत आहे. या शिंगात हाड नसते. गेंड्याचे शिंग औषधी असते या समजुतीने त्याची अवैध शिकार केली जाते. इथले मलबेरी, मुंगा, टसर हे सिल्क प्रसिद्ध आहे.
या संपूर्ण प्रदेशाला हिरव्या रंगाच्या नाना छटा असलेले अक्षय सौंदर्य लाभले आहे. या हिरव्या हिरव्या सिल्कला ब्रह्मपुत्रेचा झळाळता सोनेरी पदर आहे पण— पण इथला अस्वस्थपणा, अशांतपणा मध्ये मध्ये उफाळून येतो. हे गिरीजन अतिशय संवेदनशील आहेत. आपापसातही त्यांचे रक्तरंजित खटके उडत असतात. शिवाय स्वातंत्र्योत्तर या भागाकडे अक्षम्य दुर्लक्ष झाल्याचे शल्य त्यांच्या मनात आहे. या ईशान्य भारताच्या सीमांना भूतान, तिबेट, बांगलादेश, ब्रह्मदेश यांच्या सीमा खेटून आहेत. १९६२ च्या युद्धात चिन्यांनी तेजापूर घेतले होते.
या समाजाला मुख्य प्रवाहात आणण्यासाठी विश्व हिंदू परिषद, वनवासी कल्याण आश्रम, रामकृष्ण मिशन यांचे अखंड यज्ञासारखे काम चालू आहे. तिथल्या लहान मुला- मुलींची महाराष्ट्रातल्या शाळातून शिक्षणाची, वसतिगृहाची सोय करण्यात येते. आता तिथे कॉम्प्युटरवर आधारित उद्योगांचे, आयटी इंडस्ट्रीजची उभारणी होत आहे.
परत येताना गुवाहाटी- मुंबई असे विमान संध्याकाळी चारचे होते. आमच्या तेथील रिझर्व बँकेतल्या सहकार्यांनी दिलेल्या सल्ल्याप्रमाणे आम्ही विमानात उजव्या बाजूच्या खिडक्या मागून घेतल्या होत्या. विमानाने आकाशात झेप घेतल्यावर पाचच मिनिटात उजवीकडे एव्हरेस्टच्या बर्फाच्छादित रांगा सूर्यकिरण पडल्याने सोन्यासारख्या चमकताना दिसल्या. नकळत डोळ्यात पाणी आले. हात जोडले गेले. अस्वस्थ ईशान्य भारताबद्दलच्या विचारांना आशेची सोनेरी किनार लाभली.
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी विदेश यात्रा के संस्मरणों पर आधारित एक विचारणीय आलेख – ”न्यू जर्सी से डायरी…”।)
यात्रा संस्मरण ☆ न्यू जर्सी से डायरी… 2 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
New Jersey में सुबह घूमते हुए…
सड़क किनारे, खुले में पेड़ के नीचे ज्यादा शायद शतरंजी बुद्धि, तेजी से चलती है। तभी तो सीमेंट के पक्के टेबल पर स्थाई शतरंज का बोर्ड बनाया दिखता है।
लोकतंत्र में पैदल भी वजीर बन सकता है ।
घोड़े, हॉर्स-ट्रेडिंग का हिस्सा बनकर ढाई घर की चालें चले बिना मानते ही नहीं।
ऊंट तिरछा ही भाग रहे हैं।
मुंशी प्रेमचंद की 1924 में लिखी कहानी शतरंज के खिलाड़ी पर आधारित फिल्म भारतीय सिनेमा की एक यादगार फिल्म रही है।
शतरंज के बोर्ड के मजेदार मैथेमेटिकल किस्से हैं। एक बार एक राजा से इनाम में एक गणितज्ञ ने कहा कि मुझे बस पहले दिन गेहूं के एक दाने से शुरू कर प्रतिदिन दो गुना करते हुए, शतरंज के 64 खानों के अनुसार गेहूं के दाने इनाम में दिए जाए। राजा ने हंसते हुए यह स्वीकार कर लिया, पर जल्दी ही उसे गणितज्ञ की प्रतिभा समझ आ गई, वह सारे राज्य की फसल देकर भी इस गणितीय इनाम को देने में असमर्थ था, आप भी केल्कुलेटर से गुणा भाग लगाते हुए जरा अंदाजा लगाइये।
कल मिलते हैं।
विवेक रंजन श्रीवास्तव, न्यूजर्सी
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी विदेश यात्रा के संस्मरणों पर आधारित एक विचारणीय आलेख – ”न्यू जर्सी से डायरी…”।)
यात्रा संस्मरण ☆ न्यू जर्सी से डायरी… 1 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
सुबह घूमते हुए …
अपने प्यारे पेड़ पौधों को आठ दस दिनों के लिए छोड़ कर जाना पड़े तो उनके लिए सिंचाई की व्यवस्था देखने मिली , सुबह घूमते हुए न्यूजर्सी में , जिप वाले पाली ट्री बैग्स पेड़ के तने को पहना दिए गए हैं, उनमें कोई 50 लीटर पानी भरा जा सकता है। व्यवस्था है की बूंद बूंद रिसाव जब तक पानी है अर्थात अगले लगभग 10 दिनों तक पेड़ की सिंचाई होती रहती है।
दक्षिण भारत में घूमते हुए ऐसी ही व्यवस्था देखी थी, जिसमे एक बड़े घड़े में पानी भरकर उसे पेड़ के तने के पास गाड़ दिया गया था, एक छेद करके उस में रुई भर दी गई थी।
नारियल के पेड़ के पास घड़े में नमक डाल दिया गया था, जिससे उसे समुद्र किनारे होने का अहसास हो।
खाद तथा वांछित रसायन भी इस तरह पेड़ो को धीमी गति से दिए जा सकने की प्रणाली बनाई जा सकती है।
विवेक रंजन श्रीवास्तव, न्यूजर्सी
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २७ – भाग २ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆
आसामी सिल्कचा, पदर भरजरीचा
तेजपूर हे आपल्या सैन्याचे मोठे ठाणे आहे. सैनिकांची ने-आण करणाऱ्या मिलिटरीच्या वाहनांची रस्त्यावर सतत ये- जा होती. लष्कराच्या उपयोगासाठी एक विमानतळही आहे. तेजपूर शहर आखीव-रेखीव,नेटके आहे. तेजपूर ओलांडून भालुकपॉ॑गच्या गर्द अरण्यातून आमची गाडी चालली होती. संध्याकाळचे सात वाजायचे होते तरी काळोख झाला होता. दोन्ही बाजूंच्या उंच, काळसर दिसणाऱ्या वृक्षांमुळे अंधार अधिकच घनदाट झाला होता. अचानक ड्रायव्हरने गाडीचा वेग कमी केला. ‘गणेशबाबा, गणेशबाबा’ असे दबक्या आवाजात म्हणत भक्तिभावाने एक हात कपाळाला लावून, मान झुकवून त्याने नमस्कार केला. आम्ही बाहेर पाहिले तर एक हत्ती रस्त्याच्या कडेला अंधारात झाडांमध्ये उभा होता. त्याला बहुतेक रस्ता ओलांडून पलीकडच्या जंगलात जायचे होते. आमच्या गाडीच्या दिव्यांच्या प्रकाशामुळे तो थांबला होता. जंगली हत्तीचे सहज दर्शन घडले. नंतर ड्रायव्हरने सांगितले की, अशा जंगलात दिसणाऱ्या हत्तींना ते ‘गणेशबाबा’ म्हणतात. त्यांना श्रद्धेने नमस्कार करतात. तो म्हणाला की, ‘आम्ही असे व्यवसायानिमित्त जंगलात फिरतो आणि आमची बायकामुले आसाममधल्या एखाद्या खेड्यात जंगलाजवळच राहत असतात. वाघ, गवे, रानरेडे व इतर जंगली प्राणी यांची आम्हाला कायम भीती असते. पण गणेशबाबा आमचे, आमच्या कुटुंबाचे रक्षण करतो. हत्तीच्या स्वरूपातील गणपती आपले रक्षण करतो ही श्रद्धाच त्यांना जगण्याचे बळ देत असावी.
नामेरीला पोहोचल्यावर आवरून, जेवून आम्ही तिथल्या गच्चीवर गेलो. आजूबाजूचे वृक्ष काळपट हिरवे पांघरूण घेऊन स्तब्ध उभे होते. आकाशाच्या मोकळ्या घुमटात तारकांच्या लक्ष लक्ष ज्योती उजळल्या होत्या. अपार शांतता अनुभवत उभे होतो. थंडी वाढल्याने फार वेळ गच्चीत थांबता आले नाही. दुसऱ्या दिवशी सकाळी जियाभरोली नदीने आणि तिच्या परिसराने आम्हाला भारून टाकले होते. नदीच्या पलीकडे अरुणाचल राज्याची हद्द सुरू होते. परदेशी प्रवासीही इथे मुक्कामाला असतात. इथून पुढे बोमदिला, सेला खिंड, तवांग इथे जाता येते.
आजचा मुक्काम काझीरंगाला होता. वनविभागाचे हे विश्रामधाम स्वच्छ, शांत आणि दाट झाडीत लपलेल्या छोट्याशा टेकाडावर आहे. काझीरंगा अभयारण्य म्हणजे दाट जंगल नसून दहा-बारा फूट उंच वाढलेल्या गवताचा विस्तीर्ण प्रदेश आहे. यात मध्ये मध्ये कच्चे- पक्के रस्ते आहेत. संध्याकाळी जीपमधून काझीरंगाचे दर्शन घेतले. लांबवर हरणे, माकडे, सांबर, रानरेडे, हत्ती, गेंडे दिसत होते. एका छोट्या पाणथळीवरील पुलावरून पाण्यातील मगर, छोटी कासवे दिसली. लांबवर उडणारे पांढरे बगळे, गरुड, नीलकंठ व काही इतर पक्षी या सर्वांचे दूरदर्शन झाले.
दुसऱ्या दिवशी पहाटे हत्तीवरून सैर केली तेंव्हा खरे काझीरंगा दिसले. सात आठ हत्ती एकदम निघतात. सर्वांना मिळून एक बंदूकधारी रक्षक त्यातल्या एका हत्तीवर असतो. सर्व हत्तींनी एकत्र राहायचे असते. आमच्या हत्तीणीचे नाव होते ‘जयमाला’. माहूत जरा पोरगेलासा होता. पुरुषभर उंचीच्या गवतातून जात असताना हत्ती मधे मधे सारखे सोंडेने गवत उपटून खातात.पहाटेच्या वेळी गवतावर पडलेले दंव आपल्या अंगावर गुलाबपाण्यासारखे उडत असते. हरणांचा कळप, एक शिंगी गेंडे, रानटी म्हशी, गवे असे काही दिसले की माहूत गवतातून आमच्या हत्तीणीला शक्य तितके त्यांच्याजवळ नेत असे. असाच एक रानटी म्हशींचा कळप होता. त्यात एक पिल्लूसुद्धा होते. आमच्या तरुण रक्ताच्या माहुताने जयमालेला पुढे काढून अगदी त्या रानटी म्हशींच्या जवळ नेले. त्यातल्या आईचा काय गैरसमज झाला कोण जाणे. पण अकस्मात ती आमच्या हत्तीणीवर चाल करून आली. तिने तिच्या फताड्या शिंगांनी जयमालेला जोरदार धडक दिली. बाकीचे हत्ती मागे होते. आमची हत्तीण या रानम्हशीशी झुंज देऊ शकली असती. पण हत्ती हा जात्याच अतिशय बुद्धिमान प्राणी आहे. तो सहसा चूक करीत नाही. आपल्या पाठीवर बसलेल्या चार प्रवाशांची आपल्यावर जबाबदारी आहे या उपजत शहाणपणामुळे तिने गर्कन अबाउट टर्न घेतला. ही युद्ध करण्याची वेळ नाही हे जाणून आम्हाला त्या रागीट म्हशीपासून शक्य तितक्या लांब घेऊन जाऊ लागली. पण ती म्हैस इतकी खवळली होती की तिने मागून येऊन जयमालेला जोरदार ढुशी दिली. उतरल्यावर पाहिले तर त्या हत्तीणीच्या पार्श्वभागावर त्या म्हशीच्या शिंगाचा अर्धचंद्राकृती ओरखडा उठला होता आणि त्यातून रक्त येत होते. माहूत तिला औषधपाणी करायला घेऊन गेला. आम्ही भालूकपाॅ॑गच्या ‘गणेशबाबाला’ मनोमन नमस्कार केला.
शिलाॅ॑ग ही मेघालयाची राजधानी. नागमोडी, वळणावळणाच्या रस्त्याने डोंगर माथ्यावर वसलेले हे शहर ब्रिटिशांना स्कॉटलंडची आठवण करून देत असे. गारो, खासी व जयंती अशा टेकड्यांनी मेघालय बनले आहे. हिरव्यागार डोंगर माथ्यांवरून पांढऱ्या शुभ्र ढगांचे थवे भटकत असतात. वाटेत बांबूची झाडे, जंगली केळींची झाडे, लहान मोठे तलाव दिसत होते. वेगवेगळी रंगीबेरंगी फुले आणि त्यावर स्वच्छंद भिरभिरणारी, रंगवैभव मिरविणारी मोठी फुलपाखरे दिसली. ‘बडा पाणी’ या विस्तीर्ण तलावाकाठी थोडा वेळ थांबलो. हॉटेलवर सामान ठेवून संध्याकाळी तिथल्या बाजारात हिंडलो. तिथल्या ‘दिल्ली मिष्टान्न भांडार’ने सर्वात मोठ्या आकाराची जिलेबी बनवून गिनीज बुक मध्ये नाव नोंदविल्याचे वाचले होते. दुकानात खूप गर्दी होती. एका भल्या मोठ्या पसरट कढईत शिस्तीने सारख्या आकाराच्या जिलब्या तरंगत होत्या. कढईमागील तज्ञ आहात त्या व्यवस्थित उलटून पाकात बुडवून ताटात ठेवीत, की लगेच त्या प्रवाशांच्या ओठात पडत. पंधरा-वीस मिनिटांनी आमचा नंबर लागला. जिलेबी खरंच छान होती.
हॉटेलवर परतल्यावर काउंटरवरील मॅनेजर बाईंशी थोड्या गप्पा मारल्या. माहिती विचारली. तिथल्या भिंतीवर एक वेगळाच फोटो होता. एका झाडाची मुळे लांबवर वाढत जाऊन, खालचा खळाळता, दगड गोट्यांनी भरलेला ओढा पार करून पलीकडल्या झाडांना जाऊन भेटली होती. असा डबल डेकर ब्रिज त्या चित्रात दिसत होता. तिने सांगितले की ही एक प्रकारच्या रबर प्लांटची मुळे( हे एक शोभेचे जंगली रबर प्लांट आहे यापासून रबर मिळत नाही) अशी भक्कम असतात व लांब लांब वाढत जातात. हुशार मानवाने त्या मुळांना वळण देऊन, आधार देऊन दुसऱ्या टोकाला नेले. तिथल्या आजूबाजूच्या खेड्यातल्या माणसांना ओढा ओलांडायला त्याचा उपयोग होतो. आता ते प्रवाशांच्या आकर्षणाचे ठिकाण झाले आहे. या लिव्हिंग रूट ब्रिजचे (living root bridge) आकर्षण परदेशी प्रवाशांना जास्त आहे. कारण जगात फारच क्वचित असे नैसर्गिक जिवंत ब्रिज आहेत. आम्ही अर्थातच फोटो पाहून समाधान मानले कारण तिथपर्यंतचे जंगलातले धाडसी ट्रेकिंग आमच्या आवाक्याबाहेरचे होते.
☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २७ – भाग १ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆
आसामी सिल्कचा, पदर भरजरीचा
“आपण जर या नदीपलीकडे जाऊन त्या निळ्या डोंगरावर चढलो आणि थोडेसे पाय उंचावले तर तो पांढऱ्या शुभ्र ढगांचा मऊमऊ कापूस नक्की आपल्या हातात येईल” वंदन म्हणाली. आमच्या सर्वांच्या मनातल्या कल्पनेला तिने शब्दरूप दिले होते. नीरव शांतता, स्वच्छ, ताजी, थंड, मोकळी हवा. पुढ्यात जियाभरोली नदीचे नितळ, निळसर थंडगार पाणी वाहत होते. त्यात निळ्या आकाशात तरंगणाऱ्या पांढऱ्याशुभ्र ढगांचे आणि काठावरच्या हिरव्या वृक्षराजीचे प्रतिबिंब पडले होते नदीच्या मागे पांढरे शुभ्र पिंजलेले ढग माथ्यावर घेऊन निळसर डोंगरांच्या रांगा श्रीकृष्णाच्या मेघःशाम स्वरूपाची आठवण देत उभ्या होत्या.
आसाममधील तेजपूरपासून ३५ किलोमीटरवरील नामेरी इकोकॅ॑पमध्ये आमचा मुक्काम होता. लवकर म्हणून उठलो तरी छान उजाडलेलं होतं. नदीकाठी उंचावर बांधलेल्या लहान मोठ्या बंगल्यांमधून वाट काढीत तिथल्या वॉच टॉवरवर चढलो होतो. समोरच्या या दृश्याने आमची नजर खेळवून ठेवली होती.
ईशान्य भारताला आता पूर्वांचल म्हणून ओळखले जाते. पूर्वांचलची भौगोलिक परिस्थिती वैशिष्ट्यपूर्ण आणि वैविध्यपूर्ण आहे. दुर्गम पर्वतराजी, निबीड अरण्ये, महाबाहो ब्रह्मपुत्रा, तिच्या उपनद्या आणि इतर नद्या यांचे अनुपम सौंदर्य पाहून आपण थक्क होतो. तिथल्या विविध जनजातींच्या विविध भाषा, संस्कृती, आचारविचार सारेच आपले कुतूहल वाढविणारे आहे. हा गूढरम्य प्रदेश पूर्वी आसाम याच नावाने ओळखला जात असे. आसाम आता सात राज्यात वाटला गेला आहे. आसाम, मेघालय, अरुणाचल, त्रिपुरा, मणिपूर, मिझोराम आणि नागालँड. पुराणकथांचा, इतिहासाचा सुंदर गोफ या भूमीभोवती विणला गेला आहे. त्या अदृश्य धागांनी आपले या भूमीशी असलेले नाते घट्ट झाले आहे. असं सांगतात की नागालँडच्या डिमापूर शहराचे मूळ नाव हिडींबापूर असे होते. भीमाने ज्या हिडिंबेशी विवाह केला ती इथलीच. तर मणिपूरच्या राजकन्याशी म्हणजे चित्रांगदेशी अर्जुनाने विवाह केला होता. त्यांच्या पुत्राचे नाव बभ्रुवाहन.
गुवा म्हणजे सुपारी. ही सुपारीची बाजारपेठ गुवाहाटी पूर्वीच्या आसामची राजधानी होती. आताच्या आसामची राजधानी दिसपूर असली तरी गुवाहाटी आणि दिसपूर ही जुळी शहरे आहेत. महाभारतात आसामचा कामरूप असा उल्लेख आहे आणि गुवाहाटीचे नाव होते प्राग्ज्योतिषपूर. नरकासुराने हे शहर वसविले. श्रीकृष्णाने नरकासुराचा वध करून त्याच्या कैदेतील सोळा सहस्त्र नारींची सुटका केली. त्यांच्याशी विवाह करून त्या पुरुषोत्तमाने त्या स्त्रियांना सामाजिक प्रतिष्ठा मिळवून दिली ही गोष्ट सुद्धा सर्वांना माहीत असलेली.
आहोम राजांनी १३व्या शतकात आसाममध्ये आपले राज्य स्थापन केले. शिवसागर ही त्यांची राजधानी. जवळजवळ सहा शतके या हिंदुराजांचे राज्य आसाममध्ये होते. या काळात मोंगलांनी केलेली आक्रमणे इथे अयशस्वी ठरली. अजूनही गुवाहाटी शहरातील नवीन बांधकामाच्या वेळी तिथल्या ढिगार्यातून विविध आकारांचे तोफ गोळे सापडतात. १६७१ साली सराई घाट इथे आहोम राजे व मोंगल यांच्यामध्ये जी लढाई झाली त्यातील हे तोफगोळे असावेत असे इतिहास संशोधकांनी सांगितले.
कोलकत्याहून गुवाहाटीला आलो होतो. सकाळी लवकर आवरून निघालो. तेजपूर पासून पुढे ३५ किलोमीटरवरील नामेरी कॅम्प इथे मुक्काम करायचा होता. डोंगरदर्यांचा, वळणावळणांचा रस्ता असल्याने गुवाहाटी ते तेजपूर या १८० किलोमीटरच्या प्रवासाला दहा-बारा तास लागले. डोळ्यांना सुखविणाऱ्या हिरव्या रंगाच्या विविध छटा चारही बाजूंनी सोबत करीत होत्या. लांबवर पसरलेली पोपटी, हिरवी, सोनेरी भातशेती, चहाच्या विस्तीर्ण मळ्यांचा काळपट हिरवा गालिचा, शिडशिडीत उंच सुपारीची झाडं, जाड जाड बांबूंची बनं, नारळ, केळी, आणि डोंगरउतरणीवरचे अननसाचे मळे दिसले. त्याशिवाय साग, साल, देवदार, ओक हे वृक्ष अधून मधून दिसत होते. झाडांमध्ये लपलेली टुमदार कौलारू घरं मधूनच डोकावत होती. शेणाने किंवा मातीने लिंपलेल्या त्या घरांच्या भिंतींवर छान चित्रकला दिसत होती. बांबूच्या कलात्मक कुंपणाने वेढलेल्या या घरांशेजारी छोटेसे तळे असे. त्यातील ताजे, गोड्या पाण्यातले मासे आणि भात हेच इथले प्रमुख अन्न आहे.
☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २६ – भाग ४ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆
पूर्व पश्चिमेचा सेतू– इस्तंबूल
कॅपाडोकीयाजवळ चार हजार वर्षांपूर्वीचं एक भुयारी शहर पाहिलं. शत्रूच्या हल्ल्यापासून बचाव करण्यासाठी जमिनीखाली हे सात मजल्यांचं शहर बसवलं होतं.टर्कीमध्ये अशी आणखी काही शहरं प्रवाशांना दाखविण्यासाठी स्वच्छ करून प्रकाशाची सोय केलेली आहे. गाईडच्या मागून वाकून चालत, कधी ओणव्याने जाऊन ते भुयारी शहर पाहिलं. त्यात धान्य साठविण्याच्या जागा, दारू तयार करण्याची जागा, एकत्र स्वयंपाक करण्याची जागा, स्वयंपाकाचा धूर बाहेर दिसू नये म्हणून घेतलेली काळजी, मलमूत्र साठविण्याचे भले मोठं दगडी रांजण, मृत व्यक्तींना टाकण्याचेही वेगळे दगडी रांजण, प्रार्थनेसाठी जागा असं सारं काही होतं. सकाळपासून रात्रीपर्यंतचे सारे कार्यक्रम त्या अंधाऱ्या, सरपट जायच्या बोळातून करायचे. हजारो माणसांनी त्यात दाटीवाटीने राहायचं! कल्पनेनेही अंगावर काटा आला. सहा- सहा महिने बाहेरील ऊन वारा न मिळाल्याने माणसं फिकट पांढुरकी, आजारी होऊन जात. ‘सबसे प्यारा जीव’ वाचविण्यासाठी माणूस काय काय करू शकतो याचं मूर्तीमंत दर्शन झालं.
अंकारा ही टर्कीची राजधानी. तिथल्या ‘अनातोलिया सिव्हिलायझेशन म्युझियम’ मध्ये प्राचीन संस्कृतीचा वारसा नेटकेपणाने जपला आहे. उत्खननात सापडलेल्या दगडी मूर्ती, भलं मोठं दगडी रांजण, वेगवेगळ्या जातींच्या दगडांपासून बनविलेले दागिने, हत्यारे असं सारं आहे. त्यातील तीन- चार दगडी शिल्पे मात्र विलक्षण वाटली. अर्जुनाच्या रथाचं सारथ्य करणारे भगवान श्रीकृष्ण अर्जुनाला उपदेश करीत आहेत हे शिल्प आपल्याकडे आपण नेहमी पाहतो. अगदी तशाच प्रकारची शिल्पं, पण चेहरे थोडे वेगळे. अशी चार-पाच दगडी शिल्पे तिथे होती. त्याचा संदर्भ मात्र मिळाला नाही.
अंकारामध्ये राष्ट्रपिता केमाल पाशा यांचं अतिभव्य स्मारक आहे. एक राष्ट्रप्रमुख द्रष्टा असेल तर राष्ट्राची किती आणि कशी प्रगती होऊ शकते याचं अतातुर्क (म्हणजे तुर्कांचा पिता) केमाल पाशा हे उत्तम उदाहरण आहे. त्यांनी आपल्या अत्याधुनिक विचार शैलीने व थोड्या लष्करी शिस्तीने टर्कीला युरोपियन राष्ट्रांच्या पंक्तीत देऊन बसविले आहे. स्त्री- पुरुष सर्वांना सक्तीचं शिक्षण केलं. बुरखा, बहुपत्नीत्व या पद्धती रद्द केल्या. मुल्ला मौलवींचा विरोध खंबीरपणे मोडून काढून स्त्रियांना पूर्ण स्वातंत्र्य दिलं. तंत्रज्ञानाची, आधुनिक विज्ञानाची विद्यापीठे उभारली. व्यापार उद्योग, स्वच्छता, पेहराव, प्राचीन संस्कृतीचं जतन अशा अनेक गोष्टी त्यांनी राष्ट्राला शिकविल्या.१९३८ मध्ये मृत्यू पावलेल्या या नेत्याचे उत्तुंग स्मारक बघताना हे सारं आठवत होतं. त्यांच्या जीवनातील महत्त्वाच्या घटना, त्यांच्या वस्तू, फोटो, युद्धाचे देखावे असं त्या म्युझियममध्ये ठेवलेलं आहे.
रात्री विमानाने इस्तंबूल विमानतळावरून उड्डाण केलं. खिडकीतून पाहिलं तर इस्तंबूलच्या असंख्य प्रकाश वाटा हात हलवून आम्हाला निरोप देत होत्या. आम्हीही या पूर्व- पश्चिमेच्या सेतूचा ‘अच्छा’ (आणि ‘अच्छा’ म्हणजे ‘छान’ असंही) म्हणून निरोप घेतला.