हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #75-10 – बिनसर वन अभ्यारण ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -10 – बिनसर वन अभ्यारण”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #75-10 – बिनसर वन अभ्यारण ☆ 

बिनसर वन अभ्यारण, अल्मोड़ा जिले में स्थित है । एक ऊंची पहाड़ी चोटी में हरे भरे वृक्षों से आच्छादित यह स्थल लगभग 200 प्रजातियों की वनस्पतियों और 150 किस्म के पक्षियों का घर है । स्थानीय भाषा में इस पहाड़ी को झांडी ढार  कहते हैं लेकिन बिनसर का अर्थ है नव प्रभात और इस पहाड़ी से सुबह सबरे नंदा देवी पर्वत शिखर में सूर्योदय देखना अनोखा अनुभव प्रदान करता है । सूर्य की प्रथम किरण जब नंदा देवी पर पड़ती है तो 300 किलोमीटर की यह पर्वतमाला गुलाबी रंग से सरोबार हो उठती है और फिर ज्यों ज्यों सूर्य की रश्मियाँ अपने यौवन की ओर बढ़ती हैं तो पूरी पर्वत श्रंखला रजत हो उठती है । यद्दपि हमने पिछली बार कौसानी से सूर्योदय के समय गुलाबी होते हिम शिखर के दर्शन किये थे पर इस सौभाग्य से हम बिनसर में तीन दिन तक रुकने के बाद भी वंचित ही रहे । प्रकृति के एक अन्य रूप, जल शक्ति के प्रतीक वरुण देवता ने धुंध और बादलों का ऐसा जाल बिछाया कि हिम शिखर का दिखना तो दूर , हिमालय की निचली पहाड़ियां भी लुकाछिपी का खेल खेलती रही । इस ऊँची पहाड़ी पर कुमायूं विकास मंडल ने एक सुन्दर होटल का निर्माण किया है । मेरी पुत्री को इंटरनेट के माध्यम से कुछ कार्य करना था और वाई-फाई की आशा में हम इस होटल के प्रबंधक से मिले । उन्होंने हमारे आग्रह को स्वीकार कर लिया । हमारे ड्राइवर महाशय होटल का एक चक्कर लगा आये और उनसे हमें पता चला कि यहाँ से हिम दर्शन हो रहे हैं, फिर क्या था हम होटल द्वारा निर्मित व्यू पॉइंट की ओर चले गए और वहाँ से हिमालय को निहारते रहे । बर्फ की श्वेत चादर से ढका  नंदा देवी पर्वत माला की चोटियों हमें  रुक रुक कर दिखने लगी । जब कभी बादलों के बीच से सूर्य देव अपनी छटा इन चोटियों पर बिखेरते तो अचानक ही हिम शिखर चांदी जैसा चमकने लगता । हम इस अद्भुत दृश्य को निहार ही रहे थे कि होटल प्रबंधक ने हमारे लिए गर्मागर्म चाय भिजवा दी । चाय की ट्रे लिए बेयरे ने हमारे अनुरोध को अनमने ढंग से स्वीकार करते हुए त्रिशूल से लेकर नेपाल तक फैली हिम चोटियों की दिशा बताई और साथ ही यह सूचना भी दी की मुख्य  शिखर बादलों की ओट में छिपे हुए हैं यह सब कुछ पर्वत माला का निचला हिस्सा है । लेकिन हमें इस सूचना से कोई सरोकार न था हम तो चाय की चुस्कियों के साथ हिमालय को निहारते रहे । कोई आधे घंटे में पुत्री ने  भी अपना काम निपटा लिया और हम सब बिनसर वन अभ्यारण में ट्रेकिंग के लिए निकल गए । मौसम खराब होने के कारण पर्यटक भी नहीं थे और गाइड भी गायब थे । मैंने वनस्पति शास्त्र के अपने अल्प ज्ञान का प्रयोग कर कुछ वनस्पतियों जैसे देवदार, चीड़, ओक आदि की पहचान की तो वाहन चालक ने हमें बांज, उतीस, बुरांश  के पेड़ दिखाए । देवदार एक सीधे तने वाला ऊँचा शंकुधारी पेड़ है, जिसके पत्ते लंबे, हरे रंग के और कुछ लाली लिए हुए होते है और कुछ गोलाई लिये होते हैं तथा लकड़ी मजबूत किन्तु हल्की और सुगंधित होती है। संस्कृत साहित्य में इसका बड़ा गुणगान किया गया है और इसका प्रयोग  औषधि व यज्ञादि में होता है । ओक या सिल्वर ओक की खासियत यह है कि इसके पत्ते खाँचेदार होते हैं। पेड़ की पहचान इसके पत्तों और फलों से होती है। सिल्वर ओक की लकड़ी सुन्दर होती  है और उससे बने फर्नीचर उत्कृष्ट कोटि के होते हैं। एक समय जहाजों के बनाने में इस्सका काष्ठ ही प्रयुक्त होता था। बुरांश, जिसे हमारे वाहन चालक ने पहचाना,  हिमालयी क्षेत्रों में 1500 से 3600 मीटर की मध्यम ऊंचाई पर पाया जाने वाला सदाबहार वृक्ष है। बुरांस के पेड़ों पर मार्च-अप्रैल माह में लाल सूर्ख रंग के फूल खिलते हैं। बुरांस के फूलों का इस्तेमाल दवाइयों में किया जाता है, वहीं पर्वतीय क्षेत्रों में पेयजल स्रोतों को यथावत रखने में बुरांस महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बुरांस के फूलों से बना शरबत हृदय-रोगियों के लिए बेहद लाभकारी माना जाता है। बुरांस के फूलों की चटनी और शरबत बनाया जाता है, वहीं इसकी लकड़ी का उपयोग कृषि यंत्रों के हैंडल बनाने में किया जाता है। हमें ऐसी जानकारी थी कि बिनसर वन्य जीव अभयारण्य में तेंदुआ पाया जाता है। इसके अलावा हिरण और चीतल तो आसानी से दिखाई दे जाते हैं। पर अभ्यारण्य में एक भी पशु नहीं दिखा हाँ लौटते वक्त एक लंगूर अवश्य दिख गया । यहां 150 से भी ज्यादा तरह के पक्षी पाये जाते हैं। इनमें उत्तराखंड का राज्य पक्षी मोनाल सबसे प्रसिद्ध है पर इन विभिन्न पक्षियों की  मधुर आवाज तो हमें सुनाई दी पर दर्शन किसी के न हुए ।  इस दो किलोमीटर की ट्रेकिंग का अंत जीरो प्वाइंट पर होता है । यह इस पहाड़ी की  सबसे उंचा शिखर है और यहाँ से हिम शिखर के दर्शन होते हैं ।  अधिक सर्दी पड़ने पर यहाँ बर्फबारी भी हो जाती है ।

जब हम पहाड़ी से नीचे उतर रहे थे तो एक पुरानी कोठरी पर मेरी निगाह पड गई । पत्थरों  से निर्मित    यह जल स्त्रोत 120 वर्ष पुराना है जिसका जीर्णोदार कैम्पा योजना के तहत अभी कोई दो बर्ष पहले किया गया था । सदियों पुरानी पेयजल की यह व्यवस्था कुमाऊं के गांवों में नौला व धारे के नाम से जानी जाती है। यह  नौले और धारे यहां के निवासियों के पीने के पानी की आपूर्ति किया करते थे। इस व्यवस्था को अंग्रेजों ने भी नहीं छेड़ा था। नौला भूजल से जुड़ा ढांचा है। ऊपर के स्रोत को एकत्रित करने वाला एक छोटा सा कुण्ड है। इसकी सुंदर संरचना देखने लायक होती है। ये सुंदर मंदिर जैसे दिखते हैं। इन्हें जल मंदिर कहा जाय तो ज्यादा ठीक होगा। मिट्टी और पत्थर से बने नौले का आधा भाग जमीन के भीतर व आधा भाग ऊपर होता है।नौलों का निर्माण केवल प्राकृतिक सामग्री जैसे पत्थर व मिट्टी से किया जाता है।नौला की छत चौड़े किस्म के पत्थरों  से ढँकी रहती है। नौला के भीतर की दीवालों पर किसी-न-किसी देवता की मूर्ति विराजमान रहती है।  हमारे वाहन चालक ने हमें बताया कि शादी के बाद जब नई बहू घर में आती है तो वह घर के किसी कार्य को करने से पहले नौला पूजन के लिए जाती है और वहां से अपने घर के लिए पहली बार स्वच्छ जल भरकर लाती है। यह परंपरा आज तक भी चली आ रही है। विकास की सीढ़ियों को चढ़ते हुए अब लोगों ने इस व्यवस्था को भुला देना शुरू कर दिया है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #74-9 – चितई गोलू मंदिर ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -8 – बिनसर ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #74-9 – चितई गोलू मंदिर ☆ 

चितई गोलू मंदिर बिनसर से कोई तीस किलोमीटर दूर है । अल्मोड़ा से  यह ज्यादा पास है और आठ किलोमीटर दूर पिथौरागढ़ हाईवे पर है। यहां गोलू देवता का आकर्षक मंदिर है। मंदिर के बाहर अनेक प्रसाद विक्रेताओं की दुकानें है जिनमें तरह तरह की आकृति व आकार के घंटे मिलते हैं। मुख्य गेट से लगभग तीन सौ मीटर की दूरी पर एक छोटे से मंदिर के अंदर सफेद घोड़े में सिर पर सफेट पगड़ी बांधे गोलू देवता की प्रतिमा है, जिनके हाथों में धनुष बाण है।

उत्तराखंड में गोलू देवता को स्थानीय संस्कृति में सबसे बड़े और त्वरित न्याय के लोक देवता के तौर पर पूजा जाता है। उन्हें  शिव और कृष्ण दोनों का अवतार माना जाता है। उत्तराखंड ही नहीं बल्कि देश  विदेश से भी लोग गोलू देवता के इस मंदिर में लोग न्याय मांगने के लिए आते हैं। वे मनोकामना पूरी होने के लिए इस मन्दिर में अर्जी लिखकर आवेदन देते हैं और मान्यता पूरी होने पर पुनः आकर मंदिर में घंटियां चढ़ाते हैं। असंख्य घंटियों को देखकर  इस बात का अंदाजा लगता है  कि भक्तों की इस लोक देवता पर अटूट आस्था है, यहां मांगी गई  भक्त की मनोकामना कभी अधूरी नहीं रहती। अनेक लोग मन्नत के लिए स्टाम्प पेपर पर भी आवेदन पत्र लिखते हैं।आवेदन पत्र चितई गोलू देव, न्याय  के देवता, अल्मोड़ा को संबोधित करते हुए लिखते हैं। ऐसा वे इसलिए करते हैं क्योंकि कोर्ट में उनकी सुनवाई नहीं हुई या न्याय नहीं मिला। राजवंशी देवता के रुप में विख्यात गोलू देवता को उत्तराखंड में कई नामों से पुकारा जाता है। इनमें से एक नाम गौर भैरव भी है। गोलू देवता को भगवान शिव का ही एक अवतार माना जाता है। अद्भुत और अकल्पनीय देश में लोक मान्यताओं और विश्वास की परमपराएं सदियों पुरानी है। न्याय की आशा तो ग्रामीण जन करते ही हैं लेकिन न्याय उन्हें राजसत्ता से शायद कम ही मिलता है। और अगर न्याय न मिले तो गुहार तो देवता से ही करेंगे। इसी विश्वास और आस्था ने गोलू देवता को मान्यता दी है। हो सकता है वे कोई राजपुरुष रहे हों या राबिनहुड जैसा चरित्र रहे हों और सामान्यजनों के कष्टहरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो तथा ऐसा करते-करते वे लोक देवता के रुप में पूजनीय हो गए।

मेरा ऐसा सोचना सही भी है लोक कथाओं के अनुसार गोलू देवता चंद राजा, बाज बहादुर ( 1638-1678 ) की सेना के एक जनरल थे और किसी युद्ध में वीरता प्रदर्शित करते हुए उनकी मृत्यु हो गई थी । उनके सम्मान में ही अल्मोड़ा में चितई मंदिर की स्‍थापना की गई।

कोरोना काल में मंदिरों में लोगों का आना-जाना, काफी हद तक रोकथाम व पूजा-पाठ में निर्देशों का कड़ाई से पालन करने के कारण, कम हुआ है। इसलिए हमें इस मंदिर में ज्यादा समय नहीं लगा।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं – 8 – बिनसर ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -8 – बिनसर ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -8 – बिनसर ☆ 

बिनसर एक छोटा सा गाँव है और यहीँ क्लब महिंद्रा के वैली रिसार्ट में हम तीन दिन रुके और प्रत्येक दिन सुबह सबेरे पहाड़ी क्षेत्र में सैर का आनन्द लिया । ऐसी ही सुबह की सैर करते समय दो पांडेय बंधु मिल गए। मेहुल पांचवीं में पढ़ते हैं तो उनके चचेरे भाई वैभव पांडे जवाहर नवोदय विद्यालय की सातवीं कक्षा में पढ़ते हैं। मेहुल वैज्ञानिक बनने का इच्छुक है और वैभव बड़ा होकर गणित का शिक्षक बनने का सपना संजोए हुए है। वैभव कहता है सफल जीवन के लिए गणित में प्रवीणता जरुरी है, वैज्ञानिक भी वही बन सकता है जिसकी गणित अच्छी हो। मुझे उसकी बातें अच्छी लगी और थोड़ी आत्मग्लानि भी हुई, कारण मुझे तो गणित से शुरू से, बचपन से ही डर लगता था। गणित की कमजोरी ने मुझे जीवन में मनोवांछित सफलता से दूर रखा और दुर्भाग्य देखिए मुझे रसायनशास्त्र में स्नातकोत्तर अध्ययन भी भौतिक रसायन में करना पड़ा जिसे गणित ज्ञान के बिना समझना मुश्किल है फिर नौकरी भी बैंक में की जहां गणित का गुणा-भाग बहुत जरुरी है।  मैंने भी अपने अनुभव के आधार पर उसकी बात का समर्थन किया। पर्यावरण के विषय में दोनों बच्चों से चर्चा हुई, पर जितना स्कूल की किताबों में उन्होंने पढ़ा वे उसे स्पष्ट तौर से बता तो न सके लेकिन मोटा मोटी-मोटी जानकारी उन्हें थी। शायद गांव के बच्चे ऐसे ही होते हैं, उनमें संवाद क्षमता का अभाव होता है। मैंने अपना थोड़ा सा ज्ञान उन्हें दिया। मैंने बताया कि कैसे हिरण आदि जंगली जानवर पर्यावरण की रक्षा करते हैं। उनके द्वारा खाई गई घांस के बीज दूर दूर तक फैलते हैं और  दौड़ने से खुर पत्थर को मुलायम कर देता है इससे जमीन की पानी सोखने की क्षमता बढ़ती है। बच्चों ने मुझे बिनसर वाइल्ड लाइफ सेंचुरी देखने की सलाह दी और अनेक जंगली जानवरों, बार्किंग डियर, जंगली बकरी आदि के बारे में बताया। उन्होंने बताया की देवदार का पेड़ काफी उपयोगी है। लकड़ी जलाने के काम आती है और फर्नीचर भी बनता है। बच्चों से मैंने सुंदर लाल बहुगुणा के बारे में पूंछा । उन्हें  एकाएक याद तो नहीं आया पर जब मैंने पेड़ों की कटाई रोकने के योगदान की बात छेड़ी तो मेहुल बोल पड़ा हां चिपको आन्दोलन के बारे में उसने सुना है।

बच्चों को गांधी जी के बारे में भी मालूम है।  गांधी जी के नाम से लेकर उनके माता पिता कानाम, जन्म तिथि, जन्म स्थान, भारत की स्वतंत्रता में उनका योगदान आदि सब वैभव ने एक सांस में सुना दिया। अब मेहुल की बारी थी, उसने गांधी जी की हत्या की कहानी सुनाई कि 30 जनवरी को उन्हें तीन गोलियां मारी गई थी। मैंने पूंछा गांधी जी के बारे में इतना कुछ कैसे जानते हो, वे बोले हम तो गांधीजी के बारे में पुस्तकों में तो पढ़ते ही हैं फिर हमारे   परदादा स्व.श्री हर प्रसाद पाण्डेय (1907-1978 ) स्वतंत्रता सेनानी थे और अल्मोड़ा जेल में भी बंद रहे। हालांकि बच्चों ने उन्हें गांधी जी के साथ जेल में बंद होना बताया पर शायद वे नेहरू जी के साथ बंद रहे। उनकी मूर्ति भी गांव में लगाई गई है। पर मूर्त्ति में लगा उनका नाम पट्ट  छोटा है और उद्घाटनकर्ताओं की पट्टिका बहुत लंबी चौड़ी है।

दोनों बच्चों से मिलकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। वे सवर्ण समुदाय के हैं और तरक्की करना चाहते हैं। उनकी यह सोच मुझे सबसे अच्छी  लगी, अद्भुत व अद्वतीय लगी। ऐसी सोच का मुझे मध्य प्रदेश के सवर्ण छात्रों में अभाव दिखा है और उन्हें भी शनै शनै धार्मिक कट्टरवाद की ओर ढकेला जा रहा है। वैभव को जवाहर नवोदय विद्यालय में , प्रतियोगिता से प्रवेश मिला था, पूरे ब्लाक से उसका अकेला चयन हुआ। दोनों के पिता साधारण कर्मचारी हैं और उन्होंने अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य का जो सपना संजोया है उसे पूरा करने में अपनी ओर से कोताही नहीं बरती है।अब सरकार की जिम्मेदारी है कि उनके सपने ध्वस्त न होने दें। अगर वैभव सरीखे बच्चे आगे बढ़ेंगे तो देश का भविष्य संवरेगा और यह बच्चे आगे बढ़ें, खूब पढ़ें , तरक्की करें इसकी जिम्मेदारी समाज की है, हम सबकी भी है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -7 – कसार देवी मंदिर – अलमोड़ा ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -7 – कसार देवी मंदिर– अलमोड़ा”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -7 – कसार देवी मंदिर – अलमोड़ा  ☆

अल्मोड़ा बागेश्वर हाईवे पर “कसार” नामक गांव में स्थित कश्यप पहाड़ी की चोटी पर एक गुफानुमा जगह पर दूसरी शताब्दी के समय निर्मित कसार देवी का मंदिर है । इस मंदिर में माँ दुर्गा के आठ रूपों में से एक रूप “देवी कात्यायनी” की पूजा की जाती है  । लोक मान्यताओं के अनुसार इसी  स्थान पर  “माँ दुर्गा” ने शुम्भ-निशुम्भ नाम के दो राक्षसों का वध करने के लिए “देवी कात्यायनी” का रूप धारण किया था

कहते है कि स्वामी विवेकानंद 1890 में ध्यान के लिए कुछ महीनो के लिए इस स्थान में आये थे । और अल्मोड़ा से कुछ दूरी पर स्थित  काकडीघाट में उन्हें विशेष ज्ञान की अनुभूति हुई थी और उसके बाद ही उन्होंने पीड़ित  मानवता की सेवा का वृत संन्यास के साथ लिया ।   इसी तरह बौद्ध गुरु “लामा अन्ग्रिका गोविंदा” ने गुफा में रहकर विशेष साधना करी थी |

यह क्रैंक रिज के लिये भी प्रसिद्ध है , जहाँ 1960-1970 के दशक में “हिप्पी आन्दोलन” बहुत प्रसिद्ध हुआ था । इस  मंदिर में  1970 से 1980 के बीच अनेक तक डच संन्यासियों ने भी साधना की । हवाबाघ की सुरम्य घाटी में स्थित इस  मंदिर के पीछे एक विशाल चट्टान है जो देखने में शेर की मुखाकृति जैसी दिखती है ।

उत्तराखंड देवभूमि का यह  स्थान भारत का एकमात्र और दुनिया का तीसरा ऐसा स्थान है , जहाँ ख़ास चुम्बकीय शक्तियाँ  उपस्थित है ।दुनिया के तीन पर्यटन स्थल ऐसे हैं जहां कुदरत की खूबसूरती के दर्शनों के साथ ही मानसिक शांति भी महसूस होती है। जिनमें अल्मोड़ा स्थित “कसार देवी मंदिर” और दक्षिण अमरीका के पेरू स्थित “माचू-पिच्चू” व इंग्लैंड के “स्टोन हेंग” में अद्भुत समानताएं हैं । ये अद्वितीय और चुंबकीय शक्ति के केंद्र भी हैं। यह क्षेत्र ‘चीड’ और ‘देवदार’ के जंगलों का घर है । यह पर्वत शिखर  अल्मोड़ा शहर के  साथ साथ हिमालय के मनोरम दृश्य भी प्रदान करता है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -6 – नंदा देवी – अलमोड़ा ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -6 – नंदा देवी – अलमोड़ा”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -6 – नंदा देवी – अलमोड़ा  ☆

अल्मोड़ा नगर उत्तराखंड  राज्य के कुमाऊं मंडल  में स्थित है। यह समुद्रतल से 1646 मीटर की ऊँचाई पर लगभग  12 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। यह नगर घोड़े की काठी के आकार की पहाड़ी की चोटी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है। कोशी  तथा सुयाल नदियां नगर के नीचे से होकर बहती हैं।

अल्मोड़ा  की चोटी के पूर्वी भाग को तेलीफट, और पश्चिमी भाग को सेलीफट के नाम से जाना जाता है। चोटी के शीर्ष पर, जहां ये दोनों, तेलीफट और सेलीफट, जुड़ जाते हैं, अल्मोड़ा बाजार स्थित है। यह बाजार बहुत पुराना है और सुन्दर कटे पत्थरों से बनाया गया है। इसी नगर के बीचोंबीच उत्तराखंड राज्य के पवित्र स्थलों में से एक “नंदा देवी मंदिर” स्थित है जिसका विशेष धार्मिक महत्व है। इस मंदिर में “देवी दुर्गा” का अवतार विराजमान है । समुन्द्रतल से 7816 मीटर की ऊँचाई पर स्थित यह मंदिर चंद वंश की “ईष्ट देवी” माँ नंदा देवी को समर्पित है । माँ दुर्गा का अवतार, नंदा देवी भगवान शंकर की पत्नी है और पर्वतीय आँचल की मुख्य देवी के रूप में पूजनीय हैं । दक्षप्रजापति की पुत्री होने की मान्यता के कारण कुमाउनी और गढ़वाली उन्हें पर्वतांचल की पुत्री मानते है ।

नंदा देवी मंदिर के पीछे कई ऐतिहासिक कथाएं हैं  और इस स्थान में नंदा देवी को प्रतिष्ठित  करने का श्रेय चंद शासको का है। सन 1670 में कुमाऊं के चंद शासक राजा बाज बहादुर चंद बधाणकोट किले से माँ नंदा देवी की सोने की मूर्ति लाये और उस मूर्ति को मल्ला महल (वर्तमान का कलेक्टर परिसर, अल्मोड़ा) में स्थापित कर दिया , तब से चंद शासको ने माँ नंदा को कुल देवी के रूप में पूजना शुरू कर दिया । इसके बाद बधाणकोट विजय करने के बाद राजा जगत चंद  ने माँ नंदा की वर्तमान प्रतिमा को मल्ला महल स्थित नंदादेवी मंदिर में स्थापित करा दिया । सन 1690 में तत्कालीन राजा उघोत चंद ने पार्वतीश्वर और चंद्रेश्वर नामक “दो शिव मंदिर” मौजूदा नंदादेवी मंदिर में बनाए । सन 1815 को मल्ला महल में स्थापित नंदादेवी की मूर्तियों को कमिश्नर ट्रेल ने चंद्रेश्वर मंदिर में प्रतिष्ठित करा दिया ।

अल्मोड़ा में मां नंदा की पूजा-अर्चना तारा शक्ति के रूप में तांत्रिक विधि से करने की परंपरा है। पहले से ही विशेष तांत्रिक पूजा चंद शासक व उनके परिवार के सदस्य करते आए हैं । नंदादेवी भाद्रपद के कृष्णपक्ष में जब अपनी माता से मिलने पधारती हैं तो इसे उत्सव के रूप में मनाया जाता है और  राज राजेश्वरी नंदा देवी की यात्रा  को राजजात या नन्दाजात कहा जाता है । आठ दिन चलने वाली इस  “देवयात्रा” का समापन  अष्टमी के दिन मायके से विदा कराकर  किया जाता है । राजजात या नन्दाजात यात्रा के लिए देवी नंदा को दुल्हन के रूप में सजाकर  डोली में बिठाकर एवम् वस्त्र ,आभूषण, खाद्यान्न, कलेवा, दूज, दहेज़ आदि उपहार देकर अपने मायके से पारंपरिक रूप में विदाई देकर  ससुराल भेजते हैं । नंदा देवी राज जात यात्रा हर बारह साल के अंतराल में एक बार आयोजित की जाती है ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -5 – जागेश्वर धाम या मंदिर ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -5 – जागेश्वर धाम या मंदिर”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -5 – जागेश्वर धाम या मंदिर ☆

उत्तराखंड के प्रमुख देवस्थलो में “जागेश्वर धाम या मंदिर” प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है । उत्तराखंड का यह  सबसे बड़ा मंदिर समूह ,कुमाउं मंडल के अल्मोड़ा जिले से 38 किलोमीटर की दूरी पर देवदार के जंगलो के बीच में स्थित है । जागेश्वर को उत्तराखंड का “पाँचवा धाम” भी कहा जाता है | जागेश्वर मंदिर में 125 मंदिरों का समूह है, इसमें से 108 मंदिर शिव के विभिन्न स्वरूपों, अवतारों को समर्पित हैं व शेष मंदिर अन्य देवी-देवताओं के हैं ।  अधिकाँश मंदिरों में पूजा अर्चना नहीं होती है केवल  4-5 मंदिर ही  प्रमुख है और इनमे  विधि के अनुसार पूजन-अर्चन होता है । जागेश्वर धाम मे सारे मंदिर समूह नागर   शैली से निर्मित हैं | जागेश्वर अपनी वास्तुकला के लिए काफी विख्यात है। बड़े-बड़े पत्थरों से निर्मित ये विशाल मंदिर बहुत ही सुन्दर हैं।

प्राचीन मान्यता के अनुसार जागेश्वर धाम भगवान शिव की तपस्थली है। यहाँ नव दुर्गा ,सूर्य, हमुमान जी, कालिका, कालेश्वर प्रमुख हैं। हर वर्ष श्रावण मास में पूरे महीने जागेश्वर धाम में पर्व चलता है । पूरे देश से श्रद्धालु इस धाम के दर्शन के लिए आते है। यहाँ देश विदेश से पर्यटक भी खूब आते हैं पर कोरोना संक्रमण की वजह से अभी भीड़ कम थी  । जागेश्वर धाम में तीन मंदिरों ने हमें आकर्षित किया,  पहला “शिव” के ज्योतिर्लिंग स्वरुप का जागेश्वर मंदिर, जिसके  प्रवेशद्वार के दोनों तरफ द्वारपाल, नंदी व स्कंदी की आदमकद मूर्तियाँ  स्थापित है। मंदिर के भीतर, एक मंडप से होते हुए गर्भगृह पहुंचा जाता है। मंडप परिसर में ही शिव परिवार गणेश, पार्वती की कई मूर्तियाँ स्थापित हैं। गर्भगृह में  शिवलिंग के आकर्षक स्वरुप के दर्शन होते हैं। दूसरा  विशाल मंदिर परिसर के बीचोबीच स्थित शिव के “महामृत्युंजय रूप” का है ।  मंदिर परिसर के दाहिनी ओर अंतिम छोर पर, महामृत्युंजय महादेव मंदिर के पीछे की ओर,अपेक्षाकृत छोटे से मंदिर में  पुष्टि भगवती माँ की मूर्ति स्थापित है।

मंदिर परिसर के समीप ही एक छोटा परन्तु बेहतर रखरखावयुक्त संग्रहालय है। यहाँ संग्रहित शिल्प जागेश्वर अथवा आसपास के क्षेत्रों से प्राप्त हुए है। यहाँ शिलाओं पर तराशे अनेक  भित्तिचित्रों में  नृत्य करते गणेश, इंद्र या विष्णु के रक्षक देव अष्ट वसु, खड़ी मुद्रा में सूर्य, विभिन्न मुद्राओं में उमा महेश्वर और विष्णु , शक्ति के भित्तिचित्र चामुंडा, कनकदुर्गा, महिषासुरमर्दिनी, लक्ष्मी, दुर्गा इत्यादि के रूप दर्शनीय  हैं। इस संग्रहालय की सर्वोत्तम कलाकृति है पौन राजा की आदमकद प्रतिकृति जो अष्टधातु में बनायी गयी है। यह कुमांऊ क्षेत्र की एक दुर्लभ प्रतिमा है।

जागेश्वर भगवान सदाशिव के बारह ज्योतिर्लिगो में से एक है । यह ज्योर्तिलिंग “आठवा” ज्योर्तिलिंग माना जाता है | इसे “योगेश्वर” के नाम से भी जाना जाता है। ऋगवेद में ‘नागेशं दारुकावने” के नाम से इसका उल्लेख मिलता है। महाभारत में भी इसका वर्णन है ।  द्वादश ज्योर्तिलिंगों   की उपासना हेतु निम्न वैदिक मंत्र का जाप किया जाता है । इसके अनुसार  दारुका वन के नागेशं को आठवे क्रम में  ज्योर्तिलिंग माना गया है ।

सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।

उज्जयिन्यां महाकालमोंकारममलेश्वरम्॥1॥

परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशंकरम्।

सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥2॥

वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।

हिमालये तु केदारं घृष्णेशं च शिवालये॥3॥

एतानि ज्योतिर्लिंगानि सायं प्रात: पठेन्नर:।

सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥4॥

एक अन्य मान्यता के अनुसार द्वारका गुजरात से लगभग 20-25 किलोमीटर दूर, भगवान शिव को समर्पित नागेश्वर मंदिर, शिव जी के बारह ज्योर्तिलिंग में से एक है एवं इसे भी आठवां ज्योर्तिलिंग कहा गया है । धार्मिक मान्यताओं के अनुसार  नागेश्वर का अर्थ है नागों का ईश्वर । यह विष आदि से बचाव का सांकेतिक भी है। रूद्र संहिता  में यहाँ विराजे शिव को दारुकावने नागेशं कहा गया है। मैंने अपने इसी ज्ञान के आधार पर पुजारी से तर्क किया । पुजारी ने सहमति दर्शाते हुए अपना तर्क प्रस्तुत किया कि दारुका वन का अर्थ है देवदार का वन और देवदार के घने जंगल तो सामने जटागंगा नदी के उस पार स्थित हैं । फिर पुराणों में द्वारका का उल्लेख नहीं है अत: यही आठवां ज्योतिर्लिंग है । यह भी आश्चर्य की बात है कि अल्मोड़ा शहर से  इस स्थल तक  पहुंचने के पूर्व चीड़ के जंगल हैं पर मंदिर समूह के पास केवल देवदार के वृक्ष हैं और इसके कारण सम्पूर्ण घाटी गहरे हरे रंग से आच्छादित है ।  जागेश्वर को पुराणों में “हाटकेश्वर”  के नाम से भी जाना जाता है |

यद्दपि जनश्रुतियों के अनुसार जागेश्वर नाथ के मंदिर को पांडवों ने बनवाया था तथापि इतिहासकारों ने इस समूह को 8 वी से 10 वी शताब्दी  के दौरान कत्यूरी राजाओ और चंद शासकों  द्वारा निर्मित बताया है ।

जागेश्वर के इतिहास के अनुसार उत्तरभारत में गुप्त साम्राज्य के दौरान हिमालय की पहाडियों के कुमाउं क्षेत्र में कत्युरीराजा था | जागेश्वर मंदिर का निर्माण भी उसी काल में हुआ | इसी वजह से मंदिरों में गुप्त साम्राज्य की झलक दिखाई देती है | मंदिर के निर्माण की अवधि को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा तीन कालो में बाटा गया है “कत्युरीकाल , उत्तर कत्युरिकाल एवम् चंद्रकाल” | अपनी अनोखी कलाकृति से इन साहसी राजाओं ने देवदार के घने जंगल के मध्य बने जागेश्वर मंदिर का ही नहीं बल्कि अल्मोड़ा जिले में 400 सौ से अधिक मंदिरों का निर्माण किया था |जिसमे से जागेश्वर के आसपास  ही लगभग 150 छोटे-बड़े मंदिर है | मंदिरों के  निर्माण में  लकड़ी तथा चूने की जगह पर पत्थरो के स्लैब का प्रयोग किया गया है | दरवाज़े की चौखटे देवी-देवताओ की प्रतिमाओं से सुसज्जित हैं । इन प्रतिमाओं में शिव के द्वारपाल, नाग कन्याएं आदि प्रमुख हैं । कुछ मंदिरों में शिव के रूप भी उकेरे गए हैं । हमने शिव का तांडव नृत्य करते हुए एक प्रतिमा देखी । बीच में शिव नृत्य मुद्रा में एक हाथ में त्रिशूल तो दूसरे हाथ में सर्प लिए थिरक रहें हैं, उनके शेष दो हाथ नृत्य मुद्रा में हैं तो मुखमंडल में प्रसन्नता व्याप्त  है व नृत्य में लीं शिव के नेत्र बंद हैं । ऊपर की ओर शिव के दोनों पुत्र कार्तिकेय व गणेश विराजे हैं तो नीचे वाद्य यंत्रों के साथ गायन-वादन करती स्त्रियाँ हैं । एक अन्य प्रतिमा में शिव योग मुद्रा में बैठे हैं । उनके दो हाथों में से एक में दंड है तो दूसरा हाथ आशीर्वाद मुद्रा में है । ऊपर की ओर अप्सराएँ दृष्टिगोचर हो रहीं हैं तो नीचे पृथ्वी पर संतादी शिव का आराधना कर रहे  हैं । इन दोनों शिल्पों के ऊपर शिव की  त्रिमुखी प्रतिमाएं हैं ।

इस स्थान में कर्मकांड, संबंधी  जप, पार्थिव पूजन, महामृत्युंजय जाप, नवगृह जाप, काल सर्पयोग पूजन, रुद्राभिषेक आदि होते रहते है । इन आयोजनों के लिए जागेश्वर मंदिर प्रबंधन समिति के कार्यालय में संपर्क कर निर्धारित शुल्क जमा करना होता है । कोरोना संक्रमण काल में ऐसे आयोजन कम हो रहे थे और एक दिन पूर्व इसकी बुकिंग हो रही थी । लेकिन इस डिजिटल युग में विज्ञान अब आध्यात्म से मिल गया है और काउंटर पर बैठे सज्जन ने मुझे आनलाइन रुद्राभिषेक कराने की सलाह दी । मैंने तत्काल तो नहीं पर कुछ समय पश्चात विचार कर शुल्क जमा कर दिया व रसीद प्राप्त करली । आचार्य ललित भट्ट ने अपने व्हाट्स एप मोबाइल नंबर का आदान प्रदान किया और फिर मेरे भोपाल वापस आने पर संपर्क स्थापित कर आनलाइन रुद्राभिषेक का विधिवत पूजन दिनांक 04.12.2020 को करवाया । भोपाल में हम दोनों भाई, अमेरिका से भतीजा व कनाडा से पुत्र सपरिवार इस धार्मिक आयोजन में शामिल हुए । गणेश पूजन, गौरी पूजन, नवगृह पूजन के बाद आचार्य जी ने शिव का विधिवत पूजन अर्चन किया फिर जल से अभिषेक कर शिव का सुन्दर श्रृंगार किया । साथ ही हमें आनलाइन जागेश्वर नाथ के सम्पूर्ण मंदिर समूह के दर्शन कराए ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -4 – पाताल भुवनेश्वर ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -4 – पाताल भुवनेश्वर ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -4 – पाताल भुवनेश्वर ☆

पाताल भुवनेश्वर चूना पत्थर की एक प्राकृतिक गुफा है, जो अल्मोड़ा जिले के बिनसर ग्राम, जहां क्लब महिंद्रा के वैली रिसार्ट में हम रुके हैं, से 115 किमी दूरी पर स्थित है। हमें आने जाने में लगभग आठ घंटे लगे और गुफा व आसपास दर्शन में दो घंटे। रास्ता कह सकते हैं कि मोटरेबिल है। लेकिन चीढ और देवदार से आच्छादित कुमांयु पर्वतमाला मन मोह लेती है और बीच बीच में हिमालय पर्वत की नंदादेवी चोटी के दर्शन भी होते हैं। हिमाच्छादित त्रिशूल चोटी को देखना तो बहुत नयनाभिराम दृश्य है। यह चोटी बिनसर वैली रिसार्ट से भी दिखती है। इस गुफा में धार्मिक तथा पौराणिक  दृष्टि से महत्वपूर्ण कई प्राकृतिक कलाकृतियां हैं, जो कैल्शियम के रिसाव से बनी हुई हैं। यह गुफा भूमि से काफी नीचे है, तथा सामान्य क्षेत्र में फ़ैली हुई है। पौराणिक कथाओं के अनुसार इस गुफा की खोज अयोध्या के सूर्यवंशी राजा ऋतुपर्णा ने त्रेता युग में की थी । एक अन्य पौराणिक कथा, जिसका वर्णन स्कंदपुराण में है, के अनुसार स्वयं महादेव शिव पाताल भुवनेश्वर में विराजमान रहते हैं और अन्य देवी देवता उनकी स्तुति करने यहां आते हैं। यह भी जनश्रुति  है कि राजा ऋतुपर्ण जब एक जंगली हिरण का पीछा करते हुए इस गुफा में प्रविष्ट हुए तो उन्होंने इस गुफा के भीतर महादेव शिव सहित 33 कोटि देवताओं के साक्षात दर्शन किये थे। द्वापर युग में पाण्डवों ने यहां चौपड़ खेला और कलयुग में जगदगुरु आदि शंकराचार्य का इस गुफा से साक्षात्कार हुआ तो उन्होंने यहां तांबे का एक शिवलिंग स्थापित किया नाम दिया नर्मदेश्वर शिवलिंग।

गुफा के अंदर जाने के लिए बेहद चिकनी  सीढ़ियों व  लोहे की जंजीरों का सहारा लेना पड़ता है । संकरे रास्ते से होते हुए इस गुफा में प्रवेश किया जा सकता है। गुफा की दीवारों से पानी रिसता  रहता है जिसके कारण यहां के जाने का  हलके कीचड व फिसलन से भरा  है। गुफा में शेष नाग के आकर का पत्थर है उन्हें देखकर ऐसा  लगता है जैसे उन्होंने पृथ्वी को पकड़ रखा है। इस गुफा की सबसे खास बात तो यह है कि यहां एक शिवलिंग है जो जिस धरातल पर स्थापित है उसे पृथ्वी कहा गया है, इस शिवलिंग के विषय में मान्यता है कि यह लगातार बढ़ रहा है और जब यह शिवलिंग गुफा की छत, जिसे आकाश का स्वरुप माना गया है, को छू लेगा, तब दुनिया खत्म हो जाएगी।

कुछ मान्यताओं के अनुसार, भगवान शिव ने क्रोध के आवेश में गजानन का जो मस्तक शरीर से अलग किया था, वह उन्होंने इस गुफा में रखा था। दीवारों पर हंस बने हुए हैं जिसके बारे में ये माना जाता है कि यह ब्रह्मा जी का हंस है। इस स्थल के नजदीक ही पिंडदान का स्थान है जहां कुमायूं क्षेत्र के लोग पितृ तर्पण करते हैं। एवं इस हेतु जल भी इसी स्थान पर से रिसती हुई धारा से लेते हैं।गुफा के अंदर एक हवन कुंड भी है। इस कुंड के बारे में कहा जाता है कि इसमें जनमेजय ने नाग यज्ञ किया था जिसमें सभी सांप जलकर भस्म हो गए थे। एक अन्य स्थल पर पंच केदार की आकृति उभरी हुई है।‌कैलशियम के रिसाव ने ऐसा सुंदर रुप धरा है कि वह साक्षात शिव की जटाओं का आभास देता है।इस गुफा में एक हजार पैर वाला हाथी भी बना हुआ है। और भी अनेक देवताओं की तथा ऋषियों की साधना स्थली इस गुफा में है। अनेक गुफाओं में जाना संभव भी नही है । गुफा में मोबाइल आदि भी नहीं ले जा सकते थे, इसलिए छायाचित्र लेना भी सम्भव नहीं हो सका।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -3 – कौसानी ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -3 – कौसानी”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -3 – कौसानी ☆

कौसानी में हम भाग्यशाली थे कि सुबह सबेरे हिमालय की पर्वत श्रंखला नंदा देवी के दर्शन हुए, जो कि भारत में कंचन चंघा के बाद दूसरी सबसे ऊँची चोटी है, व कौसानी आने का मुख्य आकर्षण भी ।

कौसानी में उस स्थान पर जाने का अवसर मिला जहाँ जून 1929 में गांधीजी  ठहरे थे। यहाँ वे अपनी थकान मिटाने दो दिन के लिये आये थे पर हिमालय की सुन्दरता से मुग्ध हो वे चौदह दिन तक रुके और इस अवसर का लाभ उन्होने गीता का अनुवाद करने में किया । इस पुस्तिका को उन्होने नाम दिया “अनासक्तियोग”। गान्धीजी को कौसानी की प्राकृतिक सुन्दरता ने मोहित किया और उन्होने इसे भारत के स्विटजरलैन्ड की उपमा दी। गांधीजी जहाँ ठहरे थे वह भवन चायबागान के मालिक का था । कालान्तर में उत्तर प्रदेश गान्धी प्रतिष्ठान ने इसे क्रय कर गान्धीजी की स्मृति में आश्रम बना दिया व नाम दिया अनासक्ति आश्रम । यहाँ एक पुस्तकालय है, गान्धीजी के जीवन पर चित्र प्रदर्शनी है, सभागार है व गान्धी साहित्य व अन्य वस्तुओं का विक्रय केन्द्र । अनासक्ति आश्रम से ही लगा हुआ एक और संस्थान है सरला बहन का आश्रम । इसे गान्धीजी की विदेशी शिष्या मिस कैथरीन हिलमैन ने 1946 के आसपास स्थापित किया था। उनके द्वारा स्थापित कस्तुरबा महिला उत्थान मंडल इस पहाडी क्षेत्र के विकास व महिला सशक्तिकरण में बिना किसी शासकीय मदद के योगदान दे रहा है और पहाड़ी क्षेत्र में कृषि व कुटीर उद्योग के लिए  औजारों का निर्माण कर रहा है  । दोनो पवित्र  स्थानों के भ्रमण से मुझे आत्मिक शान्ति मिली।

कौसानी प्रकृति गोद में बसा छोटा सा कस्बा अपने सूर्योदय-सूर्यास्त, हिमालय दर्शन व सुरम्य चाय बागानो के लिये तो प्रसिद्ध है ही साथ ही वह जन्म स्थली है प्रकृति के सुकुमार कवि , छायावादी काव्य संसार के प्रतिष्ठित ख्यातिलव्य  सृजक सुमित्रानंदन पंत की। पंतजी के निधन के बाद उनकी जन्मस्थली को संग्रहालय का स्वरुप दे दिया गया है। संग्रहालय के कार्यकर्ता ने हमें उनका जन्म स्थल कक्ष दिखाया, उनकी टेबिल कुर्सी दिखाई, पंत जी के वस्त्र और साथ ही वह तख्त और छोटा सा बक्सा भी दिखाया जिसका उपयोग पंतजी करते रहे। पंतजी के द्वारा उपयोग की सामग्री दर्शाती है कि उनका रहनसहन सादगी भरा एक आम मानव सा था। संग्रहालय में बच्चन, दिनकर, महादेवी वर्मा, नरेन्द्र शर्मा आदि कवियों के साथ पंत जी के अनेक छायाचित्र हैं। एक कक्ष में बच्चन जी के पंतजी को लिखे कुछ पत्र व बच्चन परिवार के साथ उनका चित्र प्रदर्शित है। सदी के महानायक का नाम अमिताभ रखने का श्रेय भी पंत जी को है। एक बडे हाल में पंतजी द्वारा लिखी गई पुस्तकें एक आलमारी में सुरक्षित हैं तो कम से कम बीस आलमारियों में उनके द्वारा पढी गई किताबें। दुख की बात यह है की संग्रहालय और  उसके रखरखाव पर  सरकार का ज्यादा ध्यान नहीं है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -2 – नौकुचियाताल – सत्तताल – भीमताल ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है “कुमायूं -2 – नौकुचियाताल – सत्तताल – भीमताल ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -2 – नौकुचियाताल – सत्तताल – भीमताल ☆

नैनीताल के पास ही एक छोटा कस्बा है नौकुचिया ताल जहाँ हमने दो रातें  बिताई और सुबह-सबेरे हरे भरे जंगल में ट्रेकिंग का आनंद लिया । यहाँ आसपास तीन तालाब हैं, नौ किनारों वाला नौकुचिया ताल जिसे एक सिरे से देखने में ऐसा प्रतीत होता है कि मानो भारत का नक्शा देख रहे हैं । गहरे नीले रंग केस्वच्छ जल से भरा  इस नौ कोने वाले ताल की अपनी विशिष्ट महत्ता है। इसके टेढ़े-मेढ़े नौ कोने हैं। इस अंचल के लोगों का विश्वास है कि यदि कोई व्यक्ति एक ही दृष्टि से इस ताल के नौ कोनों को देख ले तो उसे मोक्ष प्राप्ति हो जाती है। परन्तु हम दोनों बहुत कोशिश करके भी कि सात से अधिक कोने एक बार में नहीं देख सके लेकिन भाग्यशाली तो हम हैं जो ऐसे सुन्दर स्थलों को देख रहे हैं और जहांगीर ने तो सौदर्य से भरपूर कश्मीर को ही स्वर्ग माना था । इस ताल की एक और विशेषता यह है कि इसमें विदेशों से आये हुए नाना प्रकार के पक्षी रहते हैं। मछली के शिकार करने वाले और नौका विहार शौकीनों की यहाँ भीड़ लगी रहती है। इसी ताल के समीप है कमल ताल, लाल कमल के बीच  तैरती बतखे मन को प्रफुल्लित करती हैं । यह भी तो ताल देखने का एक आकर्षक कारण है।

नौकुचियाताल से कोई सात आठ किलोमीटर की दूरी पर है सत्तताल, जो अपने आप में सात तालाबों को समाहित किये हुए है ।  इसमें से तीन तालाबों के नाम राम, लक्ष्मण व सीता को समर्पित है और शेष ताल के नाम  नल- दमयंती, गरुड़ पर हैं तो एक पूर्ण ताल तो दूसरा केवल बरसात में कुछ समय के लिए भरने वाला सूखा ताल ।  इसी रास्ते में पड़ता है  भीम ताल, जिसे कहते हैं कि बलशाली पांडव भीम ने अपने वनवास के समय निर्मित किया था । भीम को तो लगता है जल स्त्रोत खोजने में महारत हासिल थी, भारत भर में अनेक दुर्गम जल क्षेत्र भीम को ही समर्पित हैं । इन सभी तालों में नौकायन करते हुए विभिन्न जलचरों  और देवदार के लम्बे पेड़ों को देखने का अपना अलग ही आनंद है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -1 – नैनीताल ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है “कुमायूं -1 – नैनीताल ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -1 – नैनीताल ☆

पहली मर्तबा, मैं कुमायूं अचानक ही, बिना किसी पूर्व योजना के चला गया था।हुआ यों कि  सितम्बर 2018 में चारधाम यात्रा  का विचार मन में उपजा और यात्रा की सारी तैयारियां हो गई थी, टिकिट खरीड लिए गए, क्लब महिन्द्रा-मसूरी में ठहरने हेतु आरक्षण करवा लिया गया था और यात्रा  की अन्य व्यवस्थाओं के लिए एजेंट से भी बातचीत पक्की हो गई थी कि अचानक उसने  फ़ोन पर बताया  कि चारधाम से चट्टाने खिसकने व भू स्खलन की खबरें आ रही है आप अपना टूर कैंसिल कर दें। लेकिन यात्रा का मन बन चुका था सो हम चल दिए। थोड़ा परिवर्तन हुआ और हमने अगले दस दिन तक मसूरी, करनताल, नौकुचियाताल, नैनीताल, कौसानी और हरिद्वार की यात्रा की।

नैनीताल की सुंदरता का केंद्र बिंदु यहॉ पर स्थित सुंदर नैनी झील है और झील के किनारे स्थित नैनादेवी का पौराणिक मंदिर। नैनी झील के स्‍थान पर देवी सती की बायीं आँख गिरी थी और  मंदिर में दो नेत्र हैं जो नैना देवी को दर्शाते हैं। कोरोना काल में मंदिर खाली था तो पंडितजी ने जजमान को सपरिवार देख, पूर्ण मनोयोग से पूजन अर्चन कराया। ऐसी ही पूजा हमने एक दिन पहले हिम सुता नंदा देवी, की अल्मोड़ा स्थित मंदिर में भी की और लगभग पन्द्रह मिनट तक पूजन और दर्शन का आनन्द लिया। कभी संयुक्त प्रांत (आज का उत्तर प्रदेश) की ग्रीष्म कालीन राजधानी रहा नैनीताल चारों ओर से सात पहाडियों से घिरा है और इस शहर के तीन हिस्से तालों के नाम पर हैं ऊपर की ओर मल्ली ताल, बीच में नैनीताल और आख़री छोर तल्ली ताल। अब मल्लीताल और तल्ली ताल, सपाट मैदान हैं और यहाँ बाज़ार सजता है और नैनीताल का स्वच्छ जल शहरवासियों की प्यास बुझाता है। शायद यही कारण है कि इसमें शहर का गंदा पानी नालों से बहकर नहीं आता। सुना था कि रात होते होते जब  पहाडों के ऊपर ढलानों पर जलते बल्बों तथा झील के किनारे लगे हुए अनेक बल्बों की रोशनी नैनीताल  के पानी पर पड़ती है तो माल रोड के किनारे घूमते हुए खरीददारी करने, चाट पकोड़ी खाने  और इस बड़ी झील को निहारने का मजा कुछ और ही होता  है। लेकिन हमें तो शाम ढले नौकुचियाताल, जहाँ हम ठहरे थे, वापस जाना था इसलिए हम इस आनंद को तब न ले सके और फिर जब नवम्बर 2020  के अखीर में हम पुन: कुमायूं की यात्रा पर गए तो इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक रात कडकडाती ठण्ड में नैनीताल में रुके और पहले मल्ली ताल का तिब्बती बाज़ार घूमा और फिर  देर शाम तक  माल रोड पर चहलकदमी करते हुए, खरीददारी और बीच बीच में  नैनी ताल की जगमगाहट से भरी सुन्दरता  को देखते रहे और फिर देर रात तक होटल से इस नयनाभिराम दृश्य को देखने का सुख रात्रिभोज के साथ लेते रहे।  हमने दोनों बार शाम ढले हल्की ठण्ड  के बीच चप्पू वाली नाव से नौकायान का मजा भी लिया, नौका चालक और घोड़े वाले मुसलमान हैं लेकिन बातें वे साफगोई से करते हैं और अपने ग्राहक का दिल जीतने का भरपूर प्रयास करते हैं।

नैनीताल की सबसे ऊँची और आकर्षक चोटी है नैना पीक। इसे चीना पीक भी कहते हैं और यहाँ से डोरथी सीट से शहर व हिमालय के दर्शन होते हैं, पहली बार जब हम वहाँ गए तो  धुंध व बादलों के कारण हमारे भाग्य में यह विहंगम दृश्य नहीं था। पर दूसरी बार हमें  अंग्रेज कर्नल की पत्नी  के नाम से प्रसिद्द डोरोथी सीट से आसपास की पहाड़िया और पूरे क्षेत्र का विहंगम दृश्य हमने देखा। देवदार और चीड के घने जंगल वाली  ऊँची चड़ाई का मजा हमने घुड़सवारी कर लिया। पहली बार भले हम हिमालय को न निहार सके हों पर जब दूसरी बार गए तो पहले हिमालय दर्शन व्यू प्वाइंट से और फिर डोरोथी सीट से नंदा देवी पर्वत माला के दृश्य को अपनी दोनों आँखों में समेटा। दूध जैसी बर्फ से ढका हिमालय मन को लुभा लेनेवाला दृश्य आँखों के सामने  आजीवन तैरता रहता रहेगा । समुद्र तल से 2270 मीटर ऊँचा यह बिंदु यात्रियों के बीच बेहद लोकप्रिय स्थान है। नैनीताल से मैंने 100 किलोमीटर दूर स्थित हिमालय पर्वत की नंदा देवी पर्वतमाला के दर्शन किए। त्रिशूल पर्वत से शुरू यह लंबी पर्वत श्रृंखला मनमोहक है और लगभग 300 किलोमीटर लम्बी है । त्रिशूल पर्वत के बायीं ओर गंगोत्री, बद्रीनाथ, केदार नाथ आदि पवित्र तीर्थ स्थल हैं तो दाई ओर नंदा कोट- जिसे माँ पार्वती का तकिया भी कहा जाता है, नंदा देवी  तथा इसके बाद पंचचुली की खूबसूरत चोटियाँ है जो नेपाल की सीमा तक फ़ैली हुई हैं। नंदादेवी पर्वत शिखर की उंचाई 25689 फीट है और कंचनचंघा के बाद यह भारत की सबसे ऊँची चोटी है। मैंने कश्मीर की पहलगाम वादियों से लेकर हिमाचल, उत्तराखंड और कलिम्पोंग व दार्जलिंग से हिमालय को अनेक बार निहारा है। साल 2018 के सितंबर माह में तो मसूरी और फिर कौसानी से भी हिम दर्शन का अवसर मिला। भाग्यवश कौसानी से मैंने नंदा देवी हिम शिखर व कलिमपोंग से कंचनचंघा को सूर्योदय के समय रक्तिम सौंदर्य में नहाते हुए भी देखा है। पर दुधिया रंग के चांदी से चमकते  हिमशिखर के जो  दर्शन मैंने नवंबर 2020 की कड़कड़ाती ठंड नैनीताल से किए वैसे कहीं और से देखने न मिले। यह विहंगम दृश्य मन को लुभाने वाला था। मैं भावविभोर होकर देखता ही रह गया। और जब चोटियों के बारे में समझ में न आया तो मजबूरन टेलीस्कोप वाले का सहारा लिया तथा सारे शिखरों के बारे में पूंछा, बिना टेलीस्कोप की सेवाएं लिए वह कहां बताने वाला था। उसने भी अपनी रोजी-रोटी वसूली और हमने भी न केवल हिमदर्शन किए वरन उससे फोटो भी खिंचवाई। मैं इस घड़ी को सौभाग्य का क्षण इसलिए मानता हूं कि 23नवंबर से लगातार बिनसर, अल्मोड़ा में मैं हिमालय को निहार रहा था पर पर्वत राज तो 27नवंबर को ही दिखाई दिए, मेरे पुत्र को वधु मिलने की वर्षगांठ के ठीक एक दिन पहले। डोरथी सीट के अलावा धोडी निचाई पर एक और स्थल है जहाँ से खुर्पाताल और हरे भरे दीखते हैं इन  खेतों में उम्दा किस्म का आलू पैदा होता है।पहाड़ पर एक जीरो पॉइंट भी हैं जहाँ सर्दियों में बर्फ जम जाती है तब डेढ़ महीने तक नौजवान जोड़े इस स्थान तक आते हैं क्योंकि डोरथी सीट तक जाने का रास्ता बंद हो जाता है। नीचे जहा घोड़े खड़े होते हैं वहाँ सड़क के उस पार एक और मनमोहक स्थल है लवर्स प्वाइंट जहाँ से  नैनीताल शहर की सुन्दरता देखी जा सकती है। इन पहाड़ियों से नैनी झील के अद्भुत नज़ारे दीखते हैं।

नैनीताल की खोज की भी अद्भुत कहानी है। पहाड़ी वाशिंदे, नए अंग्रेज हुकुमरानों को, अपनी इस पवित्र झील, जिसे तीन पौराणिक ऋषियों, अत्रेय,पुलस्त्य व पुलह ने अपनी प्यास बुझाने के लिए जमीन में एक छेद कर निर्मित किया था, का पता बताने के इच्छुक नहीं थे। तब अंग्रेज अफसर ने, एक पहाड़ी के सर पर भारी पत्थर रखकर, उसे नैनादेवी के मंदिर तक ले जाने का दंड दिया। कई दिनों तक अंग्रेज अफसर व उसकी टीम के अन्य सदस्यों को वह व्यक्ति, सर पर भारी पत्थर का बोझ ढोते हुए इधर उधर भटकाता रहा। अंततः हारकर अंग्रेजों की टोली को नैनीझील की ओर ले गया और इस प्रकार नैनीताल का पता उन्हें चला। अंग्रेजों को यह स्थल इतना पसंद आया कि उन्होंने इसे अपनी ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाया और उनके गवर्नर का निवास, आज भी उस वैभव की याद दिलाता है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print