सफरनामा-नर्मदा नदी का प्राकृतिक विवरण-2 – श्री सुरेश पटवा

नर्मदा नदी का प्राकृतिक विवरण-2 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की खोजी कलम से

(इस श्रंखला में आप पाएंगे श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  हैं।)

उद्गम – मेकल पर्वत श्रेणी, अमरकंटक
समुद्र तल से ऊंचाई – 1051 मीटर
म.प्र में प्रवाह – 1079 किमी
कुल प्रवाह (लम्बाई) – 1312 किमी
नर्मदा बेसिन का कुल क्षेत्रफल – 98496 वर्ग किमी
राज्य – मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात
विलय – भरूच के आगे खंभात की खाड़ी

सनातन मान्यता।
नर्मदा जी वैराग्य की अधिष्ठात्री है
गंगा जी ज्ञान की,
यमुना जी भक्ति की,
ब्रह्मपुत्रा तेज की,
गोदावरी ऐश्वर्य की,
कृष्णा कामना की और
सरस्वती जी विवेक के प्रतिष्ठान की।

सनातन परम्परा में सारा संसार इनकी निर्मलता और ओजस्विता व मांगलिक भाव के कारण आदर करता है। श्रद्धा से पूजन करता है। मानव जीवन में जल का विशेष महत्व है। यही महत्व जीवन को स्वार्थ, परमार्थ से जोडता है। प्रकृति और मानव का गहरा संबंध है। नर्मदा तटवासी माँ नर्मदा के करुणामय व वात्सल्य स्वरूप को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। बडी श्रद्धा से पैदल चलते हुए इनकी परिक्रमा करते हैं। अनेक देवगणों ने नर्मदा तत्व का अवगाहन ध्यान किया है। ऐसी एक मान्यता है कि द्रोणपुत्र अश्वत्थामा अभी भी माँ नर्मदा की परिक्रमा कर रहे हैं। इन्हीं नर्मदा के किनारे न जाने कितने दिव्य तीर्थ, ज्योतिर्लिंग, उपलिग आदि स्थापित हैं। जिनकी महत्ता चहुँ ओर फैली है।

परिक्रमा वासी लगभग तेरह सौ बारह किलोमीटर के दोनों तटों पर निरंतर पैदल चलते हुए परिक्रमा करते हैं। श्री नर्मदा जी की जहाँ से परिक्रमावासी परिक्रमा का संकल्प लेते हैं वहाँ के योग्य व्यक्ति से अपनी स्पष्ट विश्वसनीयता का प्रमाण पत्र लेते हैं। परिक्रमा प्रारंभ् श्री नर्मदा पूजन व कढाई चढाने के बाद प्रारंभ् होती है।

नर्मदा की इसी ख्याति के कारण यह विश्व की अकेली ऐसी नदी है जिसकी विधिवत परिक्रमा की जाती है । प्रतिदिन नर्मदा का दर्शन करते हुए उसे सदैव अपनी दाहिनी ओर रखते हुए, उसे पार किए बिना दोनों तटों की पदयात्रा को नर्मदा प्रदक्षिणा या परिक्रमा कहा जाता है । यह परिक्रमा अमरकंटक या ओंकारेश्वर से प्रारंभ करके नदी के किनारे-किनारे चलते हुए दोनों तटों की पूरी यात्रा के बाद वहीं पर पूरी की जाती है जहाँ से प्रारंभ की गई थी ।

व्रत और निष्ठापूर्वक की जाने वाली नर्मदा परिक्रमा 3 वर्ष 3 माह और 13 दिन में पूरी करने का विधान है, परन्तु कुछ लोग इसे 108 दिनों में भी पूरी करते हैं । आजकल सडक मार्ग से वाहन द्वारा काफी कम समय में भी परिक्रमा करने का चलन हो गया है ।

पैदल परिक्रमा का आनंद सबसे अलग है। पैदल परिक्रमा अखंड और खंड दो प्रकार से ली जाती है। जो लोग 3 साल, 3 महीना और 13 दिन का समय एक साथ नहीं निकल सकते वे कई टुकड़ों में परिक्रमा कर सकते हैं।

मोह सुविधा की सगी बहन है। सुविधा मिली नहीं कि मोह का बंधन इस आशा से बँधने लगता है कि यह सुविधा छोड़कर न जाए। मोह के साथ एक असुरक्षा बोध भी आता है कि सुविधा छूट न जाए।

वैराग्य असुविधा और अनिश्चित्ता का अनुगामी है। सुविधा-असुविधा के विचार से परे होकर अपने आप को नर्मदा को सौंप देना धीरे-धीरे मोह को ढीला करना है।

जे विधि राखे ते विधि रहिए।

 

 

 

 

नर्मदा परिक्रमा:लम्हेंटा घाट।

नर्मदा का उद्गम मध्य प्रदेश के अनूपपुर जिले (पुराने शहडोल जिले का दक्षिण-पश्चिमी भाग) में स्थित अमरकण्टक के पठार पर लगभग 22*40 अंश उत्तरी अक्षांश तथा 81*46 अंश पूर्वी देशान्तर पर एक कुण्ड में है । यह स्थान सतपुडा तथा विंध्य पर्वतमालाओं को मिलने वाली उत्तर से दक्षिण की ओर फैली मैकल पर्वत श्रेणी में समुद्र तल से 1051 मी0 ऊंचाई पर स्थित है । अपने उद्गम स्थल से उत्तर-पश्चिम दिशा में लगभग 8 कि0मी0 की दूरी पर नर्मदा 25 मी0 ऊंचाई से अचानक नीचे कूद पडती है जिससे ऐश्वर्यशाली कपिलधारा प्रपात का निर्माण होता है।

इसके बाद लगभग 75 कि0मी0 तक नर्मदा पश्चिम और उत्तर-पश्चिम दिशा में ही बहती है । अपनी इस यात्रा में आसपास के अनेक छोटे नदी-नालों से पानी बटोरते-सहेजते नर्मदा सशक्त होती चलती है ।

डिंडोरी तक पहुंचते-पहुंचते नर्मदा से तुरर, सिवनी, मचरार तथा चकरार आदि नदियाँ मिल जाती हैं । डिंडोरी के बाद पश्चिमी दिशा में बहने का रूझान बनाए हुए भी नर्मदा सर्पाकार बहती है । अपने उद्गम स्थल से 140 कि0मी0 तक बह चुकने के बाद मानों नर्मदा का मूड बदलता है और वह पश्चिम दिशा का प्रवाह छोडकर दक्षिण की ओर मुड जाती है ।

इसी दौरान एक प्रमुख सहायक नदी बुढनेर का नर्मदा से संगम हो जाता है । दक्षिण दिशा में चलते-चलते नर्मदा को मानों फिर याद आ जाता है कि वह तो पश्चिम दिशा में जाने के लिए घर से निकली थी अतः वह वापस उत्तर दिशा में मुडकर मण्डला नगर को घेरते हुए एक कुण्डली बनाती है ।

मण्डला में दक्षिण की ओर से आने वाली बंजर नदी इससे मिल जाती है जिससे चिमटे जैसी आकृति का निर्माण होता है । यहाँ ऐसा लगता है कि नर्मदा बंजर से मिलने के लिए खुद उसकी ओर बढ गई हो और मिलाप के तुरंत बाद वापस अपने पुराने रास्ते पर चल पडी हो । इसके बाद नर्मदा मोटे तौर पर उत्तर की ओर बहती है । जबलपुर के पहले नर्मदा पर बरगी बांध बन जाने के बाद यहां विशाल जलाशय का निर्माण हो गया है ।

यह लम्हेंटा घाट है जहाँ भू विज्ञानियों को प्रस्तर युग के जीवों डायनोसार के फ़ॉसिल्ज़ मिले हैं आदि मानव यहाँ रहते आए थे।

(कल आपसे साझा करेंगे नर्मदा नदी के ऐतिहासिक महत्व से जुड़ी जानकारियाँ । )

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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सफरनामा-नर्मदा परिक्रमा:ग्वारीघाट से सर्रा घाट-1 – श्री सुरेश पटवा

नर्मदा परिक्रमा:ग्वारीघाट से सर्रा घाट – 1

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की खोजी कलम से

(इस श्रंखला में आप पाएंगे श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  हैं।)

नर्मदा अमरकण्टक से निकलकर डिंडोरी-मंडला से आगे बढ़कर पहाड़ों को छोड़कर दो पर्वत श्रंखलाओं, दक्षिण में सतपुड़ा और उत्तर में कैमोर से आते हुए विंध्य के पहाड़ों से समानांतर दस से पंद्रह किलोमीटर की दूरी बनाकर अरब सागर की तरफ़ कहीं उछलती-कूदती, कहीं गांभीर्यता लिए हुए, कहीं पसर के और कहीं-कहीं सिकुड़ कर बहती है। उसके अलौकिक सौंदर्य और उसके किनारे स्निग्ध जीवन के स्पंदन की अनुभूति के लिए पैदल यात्रा पर निकल रहे हैं।

कुछ लोगों ने इस यात्रा पर चलने की इच्छा जताई थी। यह यात्रा वानप्रस्थ के द्वारा सभ्रांत मोह से मुक्ति का अभ्यास भी है। जिस नश्वर संसार को एक दिन अचानक छोड़ना है क्यों न उस मोह को धीरे-धीरे प्रकृति के बीच छोड़ना सीख लें और नर्मदा के तटों पर बिखरे अद्भुत जीवन सौंदर्य का अवलोकन भी करें।

इच्छुक मित्र ग्वारीघाट पहुँचें। दो से तीन बजे पैदल यात्रा गुरुद्वारा की ओर से आरम्भ होगी। प्रतिदिन अनुमानित 10 किलोमीटर पैदल चलना होगा। एक जींस या पैंट के साथ फ़ुल बाहों की शर्ट पहन कर चलें। एक पेंट और तीन-चार शर्ट, एक जोड़ी पजामा कुर्ता, एक शाल, एक चादर, तौलिया, अन्तर्वस्त्र और साबुन तेल के अलावा कोई अन्य सामान न रखें। बैग पीछे टाँगने वाला हल्का हो।

वैसे तो आश्रम और धर्मशालाओं में भोजन की व्यवस्था हो जाती है फिर भी रास्ते में ज़रूरत के लिए समुचित मात्रा में खजूर, भुनी मूँगफली, भुना चना और ड्राई फ़्रूट रखें। पानी की बोतल और एक स्टील लोटा के साथ एक छोटा चाक़ू भी रखें। कहीं कुछ न मिले तो परिक्रमा वासियों का मूलमंत्र  “करतल भिक्षु-तरुतल वास” भी आज़माना जीवन का एक विलक्षण अनुभव होगा।

जो लोग पूरी यात्रा नहीं चल सकते वे अगले दिन भेड़ाघाट से वापस लौट सकते हैं। तिथिवार भ्रमण निम्न अनुसार है। रात्रि विश्राम की जगह ऐसी चुनी गई हैं जहाँ धर्मशाला और भंडारा भोजन उपलब्ध होगा।

13 अक्टूबर ग्वारीघाट -रामनगर 11 किलोमीटर
14 अक्टूबर रामनगर-भेड़ाघाट 10 किलोमीटर
15 अक्टूबर भेड़ाघाट-रामघाट 09 किलोमीटर
16 अक्टूबर रामघाट-जलहरी 08 किलोमीटर
17 अक्टूबर जलहरी-झाँसीघाट 09 किलोमीटर
18 अक्टूबर झाँसीघाट-सर्राघाट 13 किलोमीटर

कुल 60 किलोमीटर की छः दिन में यात्रा याने प्रतिदिन 10 किलोमीटर चलना होगा। यह कोई कठिन काम नहीं है। हर छः माह में आगे की यात्रा सम्पन्न करने का ध्येय है।

पृथ्वी अग्नि जल वायु आकाश का पूरा खुलापन, पेट भर भोजन और तन पर कपड़े के अलावा कोई अन्य कामना नहीं। मानव क़दम दर क़दम नंगे पाँव सदियों से नर्मदा को दाहिनी ओर से लेकर 1312 किलोमीटर उत्तरी तट से और उतना ही दक्षिणी तट से चले जा रहे हैं। चले जा रहे हैं। अनवरत काल से अनवरत खोज में अनवरत यात्रा के अनगिनत पड़ाव।

पगडंडी, गड़वाट, खेत-रेत, घास-झाड़ी, पहाड़-पानी, जीव-जंतु, पशु-मवेशी और इन सबसे बनी बाँसुरी के सप्त सुरों से निकलती कर्णप्रिय लहरियाँ। कहाँ ऐसे निश्छल लोग और कहाँ ऐसी बहुरियाँ। हिरणियों की कुलाँचे, बंदरों की अंडाडावरी, कोयल की कूक और कौए की कांव।  ढोलक की थाप और टिमकी की टिकटिकी के साथ नृत्य की पदचाप और रंगबिरंगी साड़ियों में लहराते साये।

शहरों के आलीशान घरों की बैठक में पहलू और चैनल बदलते थुलथुल देह, मन और धन के बीमार लोग जो न जी पा रहे हैं और न डॉक्टर उन्हें मरने दे रहे हैं। सब एक दूसरे के धन पर घात लगाए चीते की तरह झुके हुए बैठे हैं।

चलो निकल चलो इनसे दूर जहाँ न कारों की रेलमपेल है न रिश्तेदारों की खोजती निगाहें। कुछ दिन तो जी लो जी भरकर निसर्ग के साये में। जिस प्रकृति से तुम आए हो जिसमें तुम्हें अंततः जाना है क्या उसे तुम्हें नहीं पहचानना है।

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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