हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 31 – कच्छ उत्सव – भाग – 2 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – कच्छ उत्सव )

? मेरी डायरी के पन्ने से # 31 – कच्छ उत्सव – भाग – 2 ?

(दिसंबर  2017)

अभी हम कच्छ के टेंटों में ही रह रहे थे। तीसरे दिन प्रातः 5.30 बजे हमें अपने टेंट के बाहर

तैयार होकर उपस्थित रहने के लिए कहा गया।

सही समय पर बैटरी गाड़ी आई और हमें थोड़ी दूरी पर जहाँ कई ऊँट की गाड़ियाँ खड़ी थीं वहाँ ले जाया गया।हम सखियाँ ऊँट गाड़ी में बैठ गईं। यह  बैल गाड़ी जैसी ही होती है और इसमें मोटा गद्दा बिछाया हुआ होता है।यह गाड़ी बैल गाड़ी से थोड़ी ऊँची होती है कारण ऊँट की ऊँचाई के अनुसार गाड़ी रखी जाती है।गाड़ी में लकड़ी का एक चौपाया मेज़ भी हीती है ताकि ऊँट गाड़ी में चढ़ने में सुविधा हो।

अभी हवा सर्द थी।साथ ही आकाश स्वच्छ काला -सा दिख रहा था।असंख्य तारे जगमगा रहे थे। इतना स्वच्छ आसमान और चमकते सितारे देखकर हम मुग्ध हो उठा।बड़े शहरों में प्रदूषण इतना होता है कि न तो आकाश नीला दिखता है न सितारे ही दिखाई देते हैं। अभी अंधकार था।ऊँट भी बहुत धीरे -धीरे चल रहे थे मानो वे अभी भी सुस्ताए हुए से थे।हम उबड़- खाबड़ मार्ग पर से हिचकोले खाते रहे। पंद्रह बीस मिनिट बाद हम फिर नमक से भरी सतहवाली जगह पर पहुँच गए। खुले मैदान पर हवा और भी सूखी और सर्द थी।हमें जहाँ ठहराया गया था वह एक टीले के समान जगह थी।

हम इस स्थान पर सूर्योदय देखने के लिए उपस्थित हुए थे।आँखों के सामने श्वेत बरफ़ जैसी सतह थी तो अभी अँधकार के कारण  राख रंग सी दिख रही थी।पौ फटते ही वह सतह चाँदी की दरी जैसी दिखने लगी।समय तीव्र गति से चल रहा था और आँखों के सामने कलायडोस्कोप में जैसे चंद काँच की चूड़ियों के टुकड़े  अपना आकार बदल लेती है ठीक उसी  तरह इस खारे सतह पर रंगों की छटाएँ बदल रही थीं। आसमान में लाल सा विशाल गेंद उभर आया और नमक पर लाल छटाएँ चमक उठीं।अभी नयन भरकर उस सौंदर्य का आनंद ले ही रहे थे कि आकाश के सारे तारे गायब हो गए। आसमान नीला -सा दिखाई देने लगा ।आकाश सूरज की किरणों से सुनहरा सा हो गया और नमक वाली सतह सुनहरी हो गई। क्या ही जादुई दृश्य था! हम सब निःशब्द , अपलक इस अपूर्व सौंदर्य को बस निहारते ही जा रहे थे।आकाश चमकने लगा। हवा में जो सर्दपन था वह खत्म हुआ ।सुबह के सात बज चुके थे और हम सब सखियाँ सूर्यदेव को प्रणाम कर अपनी ऊँटगाड़ी में जाकर बैठ गईं।

हम लोग जब सूर्यदेव के आगमन की प्रतीक्षा में थे तब बड़े फ्लास्क में चाय लेकर कच्छी महिलाएँ घूम रही थीं। यहाँ की चाय थोड़ी नमकीन -सी होती है क्योंकि ऊँट के दूध का उपयोग भी यहाँ होता है। ये कच्छी महिलाएँ सुँदर काँच लगाए घाघरा पहनी हुई थीं।पैरों में मोजड़ियाँ थी।शरीर भर में अनेक प्रकार के चाँदी के मोटे -मोटे आभूषण भी थे।लंबा सा दुपट्टा इस तरह शरीर को लपेटे हुए था कि शरीर का कोई भी हिस्सा खुला नज़र न आया। इस तरह वे स्वयं को ठंड से बचाती हैं।उनके कपड़े थोड़े मोटे से होते हैं।अधिकतर महिलाएँ चॉकलेटी घाघरा और काले दुपट्टे में थीं।यहाँ महिलाएँ बेखौफ़ घूमती हैं।वे चाय और कुछ नाश्ता बेच रही थीं।

प्रकृति का सुंदर दृश्यों का आनंद लेकर हम सब लौट आए।ऊँट गाड़ी से उतरे  तो वहीं पर बैटरी गाड़ियाँ खड़ी थीं।डायनिंग रूम के पास बैटरीकार से हम पहुँचाए गए। कई प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन नाश्ते में खाकर हम अपने टेंट पर लौट आए।

अब सभी ने थोड़ा आराम किया और उसके बाद स्नान करके तैयार होकर दस बजे हम लोग पुनः भ्रमण के लिए निकले।

यहाँ बता दें कि हम जब कच्छ उत्सव के लिए पैसे भरते हैं तो जिन जगहों के भ्रमण की बातें इस संस्मरण में लिख रहे हैं उसकी व्यवस्था बस द्वारा की जाती है। यह पाँच या छह दिनों के लिए ही होता है।इसके लिए अलग से धनराशि देने की आवश्यकता नहीं होती।

हम लोग मांडवी के लिए निकले।सभी से कह दिया गया था कि अगर बस के पास दस बजे उपस्थित न हुए तो बस प्रतीक्षा नहीं करेगी।

हम मांडवी पहुँचे। यहाँ का सफर तय करने के लिए हमें डेढ़ घंटे लगे।सड़क संकरी थी पर बहुत ही साफ़ और अच्छी।

सबसे पहले विजय विलास पैलेस देखने के लिए निकले।

युवराज विजय राजी के लिए यह महल बनावाया गथा था।यह उनके ग्रीष्मकालीन अवधि में आराम से रहने के लिए बनवाया गया महल था। इसका निर्माण 1920 में प्रारंभ हुआ और 1929 में पूर्ण हुआ।

यह महल लाल रंग के पत्थर से बनाया गया था जिसे बलुआ पत्थर कहते हैं। इसकी वास्तुकला विशिष्ट राजपूत वास्तुकला से मिलती -जुलती कला है। यहाँ इमारत के सबसे ऊपर खंभों पर एक  ऊँचा छतरीनुमा  गुंबद बनाया हुआ है।, किनारों पर कुछ ऐसे झरोखे हैं जो झूलते से लगते हैं। रंगीन काँच की खिड़कियाँ बनी हुई है, नक्काशीदार पत्थर की जालियाँ भी बनी हुई है।

हर कोने में गुंबददार बुर्ज फैला सा दिखता है। हभ सभी सहेलियाँ महल के ऊपर तक पहुँचीं तो वहाँ से चारों ओर का दृश्य बहुत आकर्षक दिख रहा था।

यहाँ इस  महल को ठंडा रखने के लिए बगीचों में  संगमरमर के फव्वारे बने हुए हैं। विविध पानी के चैनलों द्वारा पानी बहता है और महल को ठंडा रखता है।ऐसी व्यवस्था जयपुर के महलों में भी देखने को मिला है।कितनी अद्भुत टेक्नोलॉजी है कि कई सौ वर्ष पूर्व भी हमारे देश में ऐसी व्यवस्थाएँ हुआ करती थीं। जालियों, झरखों , छत्रियों , छज्जों पर तथा दीवारों पर पत्थर की नक्काशी है जो आकर्षक हैं।यहाँ कई  हिंदी फिल्मों की शूटिंग की जाती है।

यहाँ से निकल कर हम लोगों को श्यामजी कृष्ण वर्मा समाधि स्थल इंडिया हाउस ले जाया गया।यह भी मांडवी में ही स्थित  है।

श्मयामजी कृष्ण वकील थे। उनकी पढ़ाई भी लंदन में ही हुई थी।वे आज़ादी से पूर्व लंदन में रहते थे। जिस घर में वे रहते थे उसे उन्होंने इंडिया हाउस नाम दिया था। भारत से लंदन जानेवाले सभी विद्यार्थी ख़ासकर जो स्वाधीनता संग्रामी थे इसी घर में रहा करते थे।उन सबकी मीटिंग भी यहीं हुआ करती थी। सन 1905 में

यह घर लिया गया था।यह एक दृष्टि से भारतीय छात्रों का छात्रावास था।यहाँ से भारतीय छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति भी दी जाती थी। यहीं पर वीर सावरकर,भीखाजी कामा तथा लाला हरदयाल और मदनलाल ढींगरा भी रह चुके थे।

ब्रिटेन पुलिस को जब इस बात की खबर हुई तो घर पर छापा मारा गया और वहाँ रहनेवाले छात्र अन्य देशों में चले गए। 1910 में यह संस्था बंद हो गई।

श्यामजी कृष्ण वर्मा अपनी धर्मपत्नी के साथ स्विटज़रलैंड चले गए। उन्होंने वहाँ की सरकार से निवेदन किया था कि अगर उन दोनों की मृत्यु हो जाए तो उनके अंतिम संस्कार के बाद उनकी अस्थियाँ कलश में रखी जाएँ और जब भारत से कोई लेने आए तो दे दिया जाए।इन सबके लिए बड़ी धन राशि भी सरकार के पास जमा रखी गई  थी।

सन 2010 में नरेंद्र मोदी जी जब गुजरात के मुख्य मंत्री रहे तो अत्यंत सम्मान के साथ दोनों कलश भारत ले आए। यहीं मांडवी में इंडिया हाऊस की प्रतिकृति बनाई गई। वही लाल,  दो मंज़िली इमारत। बड़े से बगीचे में श्यामजीकृष्ण वर्मा और उनकी पत्नी की बड़ी -सी मूर्ति भी बनाई गई। एक संग्रहालय है।दोनों की समाधि है तथा काँच की अलमारी में पीतल के कलश में फूल रखे गए  हैं।अत्यंत सुंदर आकर्षक इमारत है।सीढ़ियों से ऊपर जाते समय उस काल के विविध सावाधीनता संग्रामियों की तस्वीरें लगी हैं।तथा अन्य चित्रों के साथ इतिहास भी लिखा गया है।यह मेरा सौभागय रहा कि लंदन के उत्तरी भाग में क्रॉमवेल एवेन्यू हाईगेट में स्थित इस इमारत को बाहर से देखने का मौका मिला था।आज कोई और वहाँ अवश्य ही रहता है पर दीवार पर गोलाकार में एक संदेश है – विनायक दामोदर सावरकर – 1883-1966

भारतीय देशभक्त तथा फिलोसॉफर यहाँ रहते थे। लंदन में सजल नेत्र से बाहर से ही राष्ट्र के महान सपूत को नमन कर आए थे। पर मांडवी में फिर एक बार इंडिया हाउस के दर्शन से मैं पुनः भालविभोर हो उठी। लंदन, अंदामान और मांडवी सब जगह के इतिहास ने कुछ ऐसे तथ्यों को सामने लाकर खड़ा कर दिया था कि अपने भावों पर नियंत्रण रखना कठिन था।

मांडवी के इस इंडिया हाउस का दर्शन कर हम सब पुनः कच्छ उत्सव के टेंटों में लौट आए। सभी थके हुए थे। शीघ्र रात्रिभोजन कर टेंट में लौट आए।उस रात  हमलोग मनोरंजन के कार्यक्रम देखने नहीं गए बल्कि यायावर दल रात को देर तक देश की स्वाधीनता की लड़ाई की चर्चा करता रहा।

क्रमशः… 

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासी ☆ भूनंदनवन काश्मीर – भाग – २ ☆ प्रा. भरत खैरकर☆

प्रा. भरत खैरकर

🌸 मी प्रवासी 🌸

☆ भूनंदनवन काश्मीर – भाग – २ ☆ प्रा. भरत खैरकर 

(आमच्या नचिकेतची मात्र अजून बर्फाचा पर्वत न दिसल्याने काश्मिरात येऊन तीन दिवस झाले तरी “पप्पा काश्मीर कधी येणार?” म्हणून विचारणा होत होती.) – इथून पुढे 

मात्र तोही दिवस आला, त्या दिवशी आम्ही गुलमर्गला गेलो साधारण पन्नास ते साठ किलोमीटर अंतरावर श्रीनगर पासून गुलमर्ग आहे. गुलमर्गकडे जाताना मंत्रालय, सचिवालय, प्रावेट बस स्टॉप, हज हाऊस, इत्यादी गाईडने दाखविले. वाटेमध्ये सफरचंदाच्या बागा, अक्रोडच्या बागा भरपूर प्रमाणात होत्या. हळूहळू बस टंगमर्ग ह्या पायथ्याशी असलेल्या गावात पोहोचली. अन् तिथून सुरू झाला घाट रस्ता. दोन्ही बाजूला पाईन वृक्षाची गर्दी. पुढे गेल्यावर उंच उंच देवदार!! गाईडने सांगितलं की आठशे ते चौदाशे मीटर उंचीवर पाईन वृक्ष व त्या पुढील उंचीवर देवदार असतात म्हणून!! इतक्यात बसमधील कोणीतरी ओरडलं, “अरे, नचिकेत तो बघ बर्फ!!” आणि बघतो तर काय त्या पर्वताचा अर्धाअधिक भाग बर्फाच्छादित होता. चला पैसे वसूल झाले! हेच तर पाहायला आपण एवढ्या दूर आलो म्हणून सर्वांनी आनंद व्यक्त केला. “गणपती बाप्पा मोरया” जोरात झालं. गाईड म्हणाला आपल्याला तिथेच जायचं आहे. मग तर विचारूच नका. थंडीचे कपडे घ्यायसाठी बस एका दुकानावर थांबली. सर्वांना पहिलाच अनुभव असल्याने सगळे ड्रेस पटापट निवडल्या गेले. पुन्हा बस सुरू झाली.

वाटेत सगळीकडे सीआरपीएफचे जवान सशस्त्र तैनात होते. नचिकेत त्यांना बस मधून शालूट करायचा, मग तेही हात हलवून दाद द्यायचे. तो रम्य प्रवास बस एका हॉटेलसमोर थांबल्यावर संपला. आणि जोरात पाऊस सुरु झाला. आम्ही थोड्यावेळापूर्वी भाड्याने घेतलेले कपडे चमकवले! हळूहळू ते भिजून एवढे जड झाले की पेलवता पेलवेना!! तिथून काहीजण घोड्यावरुन तर काही चालत चालत ” गंडोला राइट “कडे निघाले. पावसामुळे तिकीट विक्री बंद होती आणि रोप कार सुद्धा बंद ठेवल्या होत्या. वाटलं आजसुद्धा बर्फावर खेळायला मिळणार नाही. पणक्षणभरच!.. तिकीटविक्री परत सुरू झाली आणि फर्स्ट स्टेजला रोप कारचा प्रवास सुरू झाला. वेगळा आनंद! वेगळा अनुभव!! दहा ते पंधरा मिनिटात आम्ही उंच पर्वतावर येऊन पोहोचलो. इथून पुढे दुसरी स्टेज होती ‘खिलनमर्ग’ करीता वर जाते. तिथे धबधबा, स्केटिंग, वगैरे ची सोय आहे. बरेच जण घोड्यांनी तिथे गेले.

गुलमर्ग गाव असं नाहीच! आजूबाजूच्या खेड्यातून येणारे घोडेवाले, फेरीवाले, असणारे पर्यटक, हॉटेल व्यवसायिक, यामुळे येथे गजबजाट झाला आहे. गोल्फ ग्राउंड खूप छान आहे. एखाद्या कॅलेंडरवर शोभेल असे नयनरम्य दृश्य या ठिकाणी दिसतं ! अप्रतिम शिवाय दुसरा शब्द या ठिकाणी योग्य बसणार नाही.

पुढच्या दिवशी जायचं होतं सोनमर्गला !ग्लेशियर पॉईंटवर! तिथे भरपूर बर्फावर खेळायला मिळेल व राईड करायला मिळेल असं आम्हांला सांगितलं गेलं.. साधारणतः 102 किलोमीटरचा प्रवास सुरू झाला.. बस श्रीनगर चा प्रसिद्ध लाल चौक, फारूक अब्दुल्लाच्या वडिलांची समाधी, हजरतबल मस्जिद मार्गे निघाली. मोहम्मद पैगंबर म्हणजेच हजरत! त्यांच्या दाढीचा पवित्र केस(बाल) ह्या ठिकाणी ठेवलेला आहे, असं म्हणतात. म्हणून “हजरतबाल दर्गा! ” एकदम कडक सिक्युरिटी तुन पुढे गेल्यावर दर्गा बघितला. माझा मित्र फिरोज व त्यांच्या कुटुंबीयांसाठी दुवा मागितली प्रवास पुढे सुरू झाला.

सिंधू नदीच्या काठावरून जाणाऱ्या रोडवर बस धावत होती. बस जशी पुढे जात होती तसतसा पाण्याचा खळाळ ऐकायला यायचा. एका ठिकाणी गाईडने बस थांबविली. ” चलायचं का पोहायला ?”म्हणून त्यानं आवाज दिला, तर सगळे “हो “म्हणाले. भराभर खाली उतरले. पाण्यात पाय टाकला तर काय ?एवढं थंड पाणी की विचारायलाच नको! अर्ध्या मिनिटाच्या वर पाण्यात पाय सोडून बसणं मुश्कील ! कारण ते पाणी नुकतंच बर्फ वितळून नदी प्रवाहात आलं होतं‌. हिमनदी म्हणतात ती हीच! सगळ्यांनी पाण्यात ‘वरवर’ खेळण्याचा आनंद घेतला… आणि प्रवास पुन्हा पुढे सुरू झाला.

वाटेत गाईडने “सफेदा ” म्हणून एक झाड दाखवील. त्याचा काय उपयोग म्हटल्यावर जुन्याकाळी हीच पाने लिखाणासाठी वापरत अशी त्याने माहिती पुरविली. हीच ती भूर्जापत्र! मेंढपाळाचे गाव म्हणून प्रसिद्ध असलेल्या या गावात मेंढ्यांचे भरपूर कळप आम्ही पाहिले. ” राम तेरी गंगा मैली” चे शूटिंग झालेला स्पॉट गाईडने दाखविला. पाणी व देखावा नक्की तो होता, फक्त मंदाकिनी नव्हती! 

थोडं पुढे गेल्यावर सीआरपीएफचा मोठा कॅम्प दिसला. मिलिटरीच्या गाड्यांचा ताफा.. वाटलं धन्य हे जवान… ह्या इथे एवढ्या वर पहारा देतात आपल्यासाठी !

“वेलकम टू सोनमर्ग” असा बोर्ड दिसला. आपण पोहचलो निसर्गाच्या कुशीत! ही जाणीव झाली. पाच दिवसात अमरनाथ यात्रा सुरू होणार होती. त्यामुळे सगळे घोडेवाले आपापले घोडे घेऊन ” बिल्ला” मिळवायला व परवानगी काढायला गेल्याचं कळलं. फक्त ग्लेशियर जवळच घोडे आहेत तिथवर “सुमो”ने जावं लागेल असं कळलं. गुलमर्गचा जड कपड्यांचा अनुभव असल्याने सर्वांनीच ऊनी कपडे नको म्हटलं.. जवळचेच जर्किन, स्वेटर वापरायचे ठरविले. दोन-तीन सिक्युरिटी चेक नंतर आम्ही पोहोचलो ग्लेशियरवर!! खरंच लोक का बरं वेडे होतात काश्मीरच्या सौंदर्यानं! हे इथे कळलं. ” जन्नत” म्हणतात ती हीच !! 

दोन्ही बाजूने बर्फाच्छादित हिमालय आणि आपण घोड्यावरून चालत -चालत वितळलेल्या बर्फाच्या नदीकाठाने चालणं म्हणजे स्वर्गीय आनंद! हा आनंद शब्दात वर्णन करता येत नाही तो अनुभव प्रत्यक्ष घ्यावाच लागतो… जगावा लागतो. आम्ही तो जगलो. जन्म धन्य झाला !असं वाटलं.

पांढरा शुभ्र बर्फ बघून नचिकेतचा जोश वाढला. एवढसं पोर पण निसर्गात आल्यावर तहानभूक विसरून आम्हा सर्वांच्या पुढे निघालं.. जाताना त्याला थकायला होईल म्हणून आम्ही एक काश्मिरी, ज्याला ते “पिट्टू” म्हणतात तो भाड्याने घेतला. तो नचिकेतला बर्फा पर्यंत उचलून परत आमच्या ठिकाणापर्यंत आणून देणार होता. बर्फावर मनसोक्त खेळलो, हुंदळलो.. टणक झालेला बर्फ काठीने खणून एकमेकांच्या शर्टात, कपड्यांमध्ये टाकला. खूपसा आमच्या टोप्या मध्ये जमा करून आणला. आज खऱ्या अर्थाने आम्हांला काश्मीर घडलं होतं ! ते क्षण.. त्या आठवणी.. डोळ्यात साठवत मग परतीचा श्रीनगरचा प्रवास सुरू झाला. इथून अमरनाथ फक्त चौदा ते पंधरा किलोमीटरवर आहे. अशी माहिती मिळाली. मागच्या आठवड्यातील अमरनाथ ट्रस्टने मागितलेली जागा येथे सोनमर्गला आहे. हाच बेस कॅम्प! असं कळलं. नऊ महिने येथे बर्फ असतो. मिल्ट्री सह सारे जण खाली म्हणजे श्रीनगरकडे जातात. अशी माहिती मिळाली. एवढ्या उन्हाळ्यात इतका बर्फ म्हटल्यावर हिवाळ्यात किती बर्फ असेल !ही कल्पनाच न केलेली बरी… !

आज सहलीचा शेवटचा व महत्त्वाचा टप्पा होता तो म्हणजे पहेलगाम ! बस जम्मू मार्गावर निघत असताना वाटेत केशर खरेदी, पंपोरचे केशर मळे, बॅटचा कारखाना व अवंतीपुरा हे उत्खननात मिळालेले विष्णू मंदिर बघितलं.

चिनार वृक्षाला कापण्यास किंवा फर्निचर साठी वापरण्यास काश्मिर सरकारने बंदी घातल्याच समजलं! तिथून बस काश्मिरी पंडितांनी जी गावे सोडली किंवा त्यांना सोडायला भाग पाडलं, अशा” मटणमार्तंड” या धार्मिक स्थळी आली.

भगवान शंकराच्या दर्शनानंतर प्रवास पुढे सुरू झाला. दरम्यान सीआरपीएफचे जवान लीडर नदीमध्ये राफ्टिंग करताना दिसले. झेलमच्या काठी बसलेले पहेलगाम आलंय एकदाच! 

दुपारची जेवण आटपून सुमो आणि सफारी गाड्यांनी आम्ही चंदनवाडी हा 18 किलोमीटरवर असलेला व अमरनाथ मार्गावरचा स्पॉट बघायला जायचं ठरवलं.. काय रस्ता आहे.. ! धबधबे,.. नद्या.. डोंगर… फेसाळणारे पाणी… नागमोडी वळण.. सगळ्या मधून जाणारी आमची सुमो‌. ! व्वा अप्रतिम!! 

मध्यंतरी ” बेताबवाडी” म्हणून एक गाव लागलं. “बेताब” सिनेमाचं शूटिंग येथे झाल्यापासून ह्या गावात सारंच बेताबमय आहे. हॉटेल बेताब.. गाडीवर बेताब.. घरावर बेताब.. सगळीकडे बेताब बेताब… चंदनवाडी पासून पुढे वाहनं जात नाही. तिथून पुढे अमरनाथला चालत जावं लागतं असं समजलं. तिथेही आम्ही नचिकेत साठी पिट्टू केला. बर्फावर शेवटच खेळून घ्या.. म्हणून खूप हुंदळलो.. सुंदर बर्फाचा पूल तयार झाला होता व खालून नदी वाहत होती.. भीती वाटली.. पण सगळेच लोक पूल ओलांडून खेळत होते. शिवाय आमचा पिट्टूही म्हटला “बहुत मजबूत है साब” पूल पार केला.. मनसोक्त खेळलो..

सायंकाळी चार पाचच्या दरम्यान आम्ही परतलो पहेलगामला. मार्केटमध्ये भटकलो.. थोडीबहुत खरेदी केली. बस स्टॉपच्या पुढे असलेल्या दोन नद्यांच्या संगमावर एक छोटं गार्डन आहे. तिथे आम्ही मनसोक्त खेळलो.. मी हिरवळीवर पहुडलो.. वर आकाशात बघितले.. भगवंताला तुझ्या या नंदनवनात येण्याचं भाग्य आमच्या नशिबी लिहिल्याबद्दल धन्यवाद दिले आणि तुझाही स्वर्ग कदाचित हाच असेल असा विचार करून पुनश्च डोळे मिटून घेतले….

– समाप्त –

© प्रा. भरत खैरकर

संपर्क – बी १/७, काकडे पार्क, तानाजी नगर, चिंचवड, पुणे ३३. मो.  ९८८१६१५३२९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासी ☆ भूनंदनवन काश्मीर – भाग – १ ☆ प्रा. भरत खैरकर☆

प्रा. भरत खैरकर

🌸 मी प्रवासी 🌸

☆ भूनंदनवन काश्मीर – भाग – १ ☆ प्रा. भरत खैरकर 

 फिरायची आवड असल्याने दरवर्षी दिवाळी उन्हाळा आला की फॅमिली टूर किंवा कॉलेज टूर काढल्या वाचून करमत नाही. स्वतःचा खर्च आणि स्वतःचा कंट्रोल त्यामुळे कमी पैशात भरपूर मज्जा म्हणजेच इकॉनोमिकल टूर करायची सवय सुरुवातीपासूनच आहे. ह्यावेळी मात्र ठरवूनही नक्की करता येईना कारण डेस्टिनेशन होतं भू नंदनवन काश्मीर!

उगाच रिस्क नको शिवाय तिथलं वातावरण वगैरे वगैरे विचार डोक्यात फिरत होते.. पण नाही असं भिऊन कसं चालेल? येवढे लोक जातातच की!! मग आपल्याला कोण खातंय? शिवाय आपला नचिकेत अजून सहा महिन्यानंतर पाच वर्षाचा होईल. त्यामुळे बच्चेकंपनी त्याचा समावेश होऊन तिकीटही काढावे लागणार! तेव्हा आत्ताच जो काय जोर लावायचा तो लावूया म्हणून टूर बुक केली.

बुक करताना आता फक्त चार पाच जागा शिल्लक आहेत वगैरेसारखे टिपिकल उत्तर मिळाली. तरीही आम्ही जून 7 ते 18 अशी बुकिंग केली. सूचनेनुसार पाच दिवस आधी सर्व सहप्रवाशांची ओळख ठरली मिटींगला फक्त तीनच कपल होते त्यात दोन कपल व्हीआरएस घेतलेले होते. वाटलं दूर वाले आपल्याला खोटं सांगत आहे तेवीस-चोवीस लोकांचा ग्रुप आहे असं त्यांचं म्हणणं होतं. आलिया भोगासी असावे सादर आता बोलून काय उपयोग? म्हणून आम्ही सात तारखेची वाट पाहत होतो.

दिनांक सात ला “झेलम” साठी पुणे स्टेशनला आम्ही पोहोचलो आणि सुरू झाला प्रवास. दौंड.. नगर मनमाड.. भोपाळ… इटारसी… आग्रा.. दिल्ली.. लुधियाना आणि जम्मू!

जम्मूचं तीन मजली स्टेशन !आमचा टूर मॅनेजर ज्या बोगीत होता, तिथे सगळे फलाटावर जमले. जमता जमता जमले की 24 जण!! आता मात्र हाय असं वाटायला लागलं !चार तरुण जोडपी होती. कुली मार्फत सामान उचलून सुमो गाडीमध्ये पोचवलं तिथून आम्ही प्रीमियर ह्या रघुनाथमंदिर परिसरात असलेल्या थ्री स्टार हॉटेल कडे गेलो. आमच्यासोबतच सामानही पोहोचलं. दोन दिवसाचा रेल्वे प्रवास… भूक लागलेली होती…

पटापट आंघोळीआधी आवरून किचनकडे पाऊल गेली तर तिथे स्वयंपाक तयार! गरमागरम जेवणानंतर दोन तास विश्रांती व दुपारी रघुनाथ मंदिर दर्शन असा कार्यक्रम ठरला. जमले तर मार्केटिंग सुद्धा! पण सूचनेप्रमाणे पहेलगाम सोडून कुठेही मार्केटिंग करायचे नाही त्यामुळे नुसतं फिरायचं ठरविले.

दुसऱ्या दिवशी जम्मू-श्रीनगर प्रवास होता पेट्रोल डिझेल भाव वाढीमुळे चार दिवस काश्मीर बंद असं कानावर आलं अन् गेले पैसे पाण्यात! म्हणून आतन् आवाज आला. पण क्षणभरच! उद्या आपली बस वेळेवर सकाळी साडेसातला येणार आहे तेव्हा सगळ्यांनी सात वाजता चेक आउट करा असा निरोप आला म्हटलं देव पावला वर निदान 300 किलोमीटर अंतर सरकू श्रीनगर पर्यंत!

दुसऱ्या दिवशीचा प्रवास म्हणजे जन्नतची सफर होती. चिनाब नदीच्या किनाऱ्यावर.. किनार्‍यावरुन जाणारा तो’ एन एच वन ए ‘हायवे ‘हाय हाय’ नेत होता.

मात्र खाली बघितल्यावर ड्रायव्हरची एक चूकही हाय हाय म्हणायला पुरेशी ठरेल ! असं वाटलं. पण नाही, दुपारी जवाहर टनेल जवळ आम्ही सुखरूप पोहोचलो.

तीन किलोमीटर लांब असलेली जवाहर टनेल जम्मू आणि काश्मीर ला जोडणारा दुवा आहे. बोगदा जाम झाल्यास श्रीनगर चा संपर्क तुटतो. बोगदा पार केल्यावर खर्‍या अर्थाने व्हॅलीमध्ये आल्याचा आनंद होता लिहिलं होतं “फर्स्ट व्ह्यू ऑफ काश्मीर व्ह्याली!”

… आणि खरच कॅमेरा सरसावला नाही तरच नवल इथून पुढे कॅमेरा कधीच बंद झाला नाही फक्त तो थांबायचा रोल घेण्यासाठी सायंकाळी पावणे आठ वाजता आजवर सिनेमात पाहिलेल्या.. ऐकलेल्या.. “दल झील” च्या किनाऱ्यावर आम्ही होतो. सर्वांत सामान अलग अलग शिका-यामध्ये लोड झालं व सर्वजण निघाले आपापल्या हाऊसबोट कडे! बोटींवर एवढं सुंदर इंटेरियर, नक्षीकाम वा मस्त आहे! आणि इथे राहायचं धमाल होणार! हाऊस बोटीवर तयार होऊन आम्ही जेवणासाठी निघालो रूम लॉक करायचे म्हणून थोडासा धडपडलो पण पण रूम बंद होईना.. शेवटी तसंच सोडून

किचन गाठलं तेव्हा कुणाच्या रूम बंद होत नव्हत्या असं समजलं. लाकडी दाराच्या खाचा झिजून झिजून मोठ्या झाल्याने लॉकिंग मेकॅनिझम बिघडलेलं दिसलं. असो.

सर्विस बॉय ला याबद्दल विचारलं तर तो म्हणतो कसा ” ये काश्मीर है साब यहा पे हिंदुस्तान जैसा कोई चोरी नही करता!” मी एकदम सरकलो ‘काश्मीर है म्हणजे काय ?’ भारतात नाही की काय काश्मीर? माझी देशभक्ती त्याला ऐकवणारच होती. पण म्हटलं त्याचं मत आहे.. जनसामान्यांचे मत जाणून घेऊया! चोरीला गेलं तर काय जाणार आहे. जेवायला गेलो तेव्हा सगळ्यांचा एकच सुर होता आमचं लॉक लागत नाही.

मी म्हटलं चला ” एक से भले 24″ मग समजलं की चोरी वगैरे प्रकार हाऊस बोटीवर नसतो.

दुसऱ्या दिवशी आम्हाला खरं तर गुलमर्गला जायचं होतं पण ‘पेट्रोल डिझेल बंद’ त्यामुळे त्यादिवशी ‘श्रीनगर दर्शन’ ठरलं ! सकाळी शिकारा राईड मध्ये छान शम्मी कपूर स्टाईलने शिका- यात गादीला रेलून गाणं ऐकायचं आणि वल्हवणारा गाईड सांगेल ते ऐकायचं त्याला बोलतं करायचं म्हणून मी गुलाब नबी आजाद, फारूक अब्दुल्ला वगैरे बाबत प्रश्न विचारले तर ‘वो सब मर गए ‘ म्हणून त्यानं उत्तर दिलं. मी पुन्हा गप्प! म्हटलं उगाच नको डिवचायला, पण नंतरच्या प्रवासात लक्षात आलं की काश्मिरी लोकांचं तिथल्या राजकारणी, पोलीस व सीआरपीएफ आदिबद्दल मत काहीसं निगेटिव आहे. आपल्याला काय? म्हणून पुढचे प्रश्न विचारत राईड सुरू ठेवली.

झील मध्ये तरंगणारी कमळं, फ्लोटिंग गार्डन, शेती सारं-सारं पाण्यावर होतं! एक बाई तर तिथून भोपळे तोडून आमच्या शिका-यावर ठेवत होती. आमचा शिकारा पुढे पुढे जाताना त्याला समांतर अगदी खेटून खेटून छोटे छोटे शिकारेही यायचे.. त्यामध्ये केशर विकणारे, बायकांच्या गळ्यातील, कानातील, दागिने विकणारे, आइस्क्रीम कुल्फी विकणारे होते..

हळूहळू आम्ही “चारचिनार “ला पोहोचलो. सरोवराच्या मध्यभागी असलेल्या छोट्या बेटावर ही चार चिनार वृक्षाची झाडं आहेत. ती शहाजहानने लावली असे सांगतात. इथून सारं दल सभोवताली न्याहाळता येत. फोटो तर मस्तच येतात. इथे काश्मिरी पेहराव शंभर ते दीडशे रुपयाला भाड्याने मिळतात. तो घालून छान छान फोटो काढले. हाऊसबोटकडे परततांना ‘कबुतरखाना’ मार्गे निघालो. वाटेत म्हणजे पाण्यातच त्यांचा शॉपिंग मॉल आहे. जाणून बुजून हे लोक विविध दुकानात आपणास थांबवितात, त्यांचं कमिशन असतं, तिथे जायला जवळ-जवळ आपणास ते भागच पडतात. त्यांच्या समाधानासाठी दुकानातून राऊंड मारून घ्यायचा ठरवलं. वस्तूची किंमत 70 टक्के कमी करून मागायची.

दुपारच्या जेवणानंतर चष्मेशाही, निशांत गार्डन, मुगल गार्डन, शालीमार गार्डन, वगैरेंची सैर झाली. एका कार्पेट फॅक्टरीमध्ये सुद्धा आम्हाला नेलं. पण ते शोरूम होतं. सायंकाळी 5 नंतर दल शेजारी मोठ-मोठ्या वाहनांना बंदी असल्याने आमची बस दलगेट मार्गे आली. तत्पूर्वी आम्ही शंकराचार्य टेकडी वर गेलो. 240 पायऱ्या असलेल्या त्या मंदिरावरून श्रीनगर चा देखावा अप्रतिम दिसतो नागमोडी वळण घेत वाहणारी झेलम नदी दिसते. वरून दिसणारा दल लेक तर काही विचारुच नका!! डोळ्याचं पारणं फेडणारा तो देखावा हृदयात फ्रेम करून ठेवावा असाच होता.

राजा हरिसिंग महल आता हॉटेलमध्ये बदलला आहे. बॉटनिकल गार्डन, तुलिप गार्डन, राज भवन, सेंटर हॉटेल, ओबेराय हॉटेल, वगैरे बसमधून गाईडने दाखविले.

आमच्या नचिकेतची मात्र अजून बर्फाचा पर्वत न दिसल्याने काश्मिरात येऊन तीन दिवस झाले तरी “पप्पा काश्मीर कधी येणार?” म्हणून विचारणा होत होती.

– क्रमशः भाग पहिला 

© प्रा. भरत खैरकर

संपर्क – बी १/७, काकडे पार्क, तानाजी नगर, चिंचवड, पुणे ३३. मो.  ९८८१६१५३२९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 30 – कच्छ उत्सव – भाग – 1☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – कच्छ उत्सव)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 30 – कच्छ उत्सव – भाग – 1 ?

(दिसंबर 2017)

रिटायर्ड शिक्षिकाओं का यायावर दल पिछले कई वर्षों से निरंतर अपने बकेट लिस्ट की पसंदीदा स्थानों का भ्रमण करता आ रहा है। हम दस शिक्षिकाएँ हैं और साथ -साथ घूमते हैं। सभी चाहते हैं कि दूर दराज के दर्शनीय स्थानों का भ्रमण शरीर के अधिक थकने और बूढ़े होने से पूर्व ही कर लिए जाए।

कच्छ नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा, कुछ समय तो बिताएँ गुजरात में। यह स्लोगन गुजरात के बारे में बहुप्रचलित है। कच्छ के इस उत्सव को रान ऑफ़ कच्छ भी कहा जाता है। इस उत्सव की व्यवस्था गुजरात पर्यटन विभाग द्वारा आयोजित की जाती है। इसे व्हाइट डेजर्ट फ़ेस्टिवल भी कहा जाता है।

यह उत्सव प्रति वर्ष 28 नवंबर से 23 फरवरी तक मनाया जाता है। समस्त संसार से लोग इस उत्सव का आनंद लेने आते हैं और अद्भुत अविस्मरणीय अनुभव लेकर लौटते हैं।

यह उत्सव नगरी अस्थायी नगरी है जो प्रति वर्ष महान थार रेगिस्तान के बीच आयोजित की जाती है। ज़मीन के नाम पर यहाँ की भूमि पर नमक की सफ़ेद परत दिखाई देती है। यह उत्सव शीतकालीन उत्सव है। कच्छ के इस प्रांत का नाम धोरडो है

2017 में कच्छ फेस्टीवल देखने जाने के लिए हमारे यायावर दल ने निश्चय किया और दिसंबर महीने में हम उसके लिए रवाना हुए। हम पुणे के निवासी हैं इसलिए हम पुणे से मुंबई गए।

कच्छ जाने के लिए हमें पहले रेलगाड़ी द्वारा भुज तक यात्रा करनी पड़ी। भुज स्टेशन पर उतरते ही साथ कच्छ उत्सव की गंध हमें स्टेशन के बाहर आते ही मिलने लगी।

स्टेशन के बाहर कच्छ उत्सव गुजरात पर्यटन विभाग का विशाल पोस्टर लगा था और विशाल टेंट में उत्सव के लिए आए हुए लोगों के लिए सुचारु व्यवस्था की गई थी।

पगड़ीधारी, कच्छी वस्त्र पहने हुए लोकल लोगों ने खंभाघणी आओ पधारो कहकर हमारा स्वागत किया। ठंडी के दिन थे, सुबह का समय था, हम थके हुए थे और हमारे सामने गरमागरम मसालेवाली चाय रखी गई। उसकी हमें आवश्यकता भी उस वक्त हो रही थी तो आनंद आया!

भुज से धोरडो कच्छ तक का अंतर 72 किलोमीटर है। स्टेशन से वहाँ तक जाने के लिए बस की व्यवस्था होती है। हम पाँच सखियाँ थीं तो हमने आठ दिनों के लिए एक इनोवा की व्यवस्था रख ली थी। यह गाड़ी हमेशा हमारे साथ रही और हमें घूमने में सुविधा भी रही।

धोरडो में एक विशाल मैदान पर स्वागत के लिए अत्यंत आकर्षक प्रवेश द्वार बना हुआ था। कहते हैं कि प्रतिवर्ष प्रवेश द्वार की डिज़ाइन बदली जाती है। भीतर प्रवेश करते ही आपको दाहिनी ओर कच्छ पद्धति से पगड़ी पहनकर तस्वीर खींचने का आमंत्रण मिलेगा। आप जो भी रकम देना चाहते हैं दे सकते हैं वे आपसे कोई धनराशि की माँग नहीं करते।

स्त्री- पुरुष सभी को पगड़ी पहनाकर पगड़ीवाले गर्व महसूस करते हैं। हम भला क्यों पीछे रहते? हमने भी बाँदनी पगड़ियाँ अलग -अलग स्टाइल में सिर पर बँधवा ली साथ ही कलाकृति वाले महलों के द्वार जैसे फाटक जो फोटो खिंचवाने के लिए ही लगे हुए थे तो हाथ में कभी काठ की तलवार तो कभी बड़ी काठी लेकर फोटो खिंचवाकर आनंद लिए। हम एक बार फिर बचपन के उस दौर में पहुँच गए जहाँ आनंद सर्वोपरि हुआ करता था।

उत्सव के भीतर की सजावट प्रतिवर्ष अलग – अलग होती है। हम जब गए तब एक तरफ टेंट में कच्छी वेश-भूषा में स्त्री -पुरुष की बड़ी मूर्तियाँ दिखाई दीं। सामने सजाया हुआ काठ का बड़ा घोड़ा था और साथ में ताँगा। थोड़ा और आगे बढ़े तो बड़ी- बड़ी कठपुतलियाँ झूलती हुई दिखीं। वे गोटेदार वस्त्रों से सजी थीं।

हमारा सामान लेकर वहाँ की बैटरीगाड़ी हमें निर्धारित टेंट की ओर ले गई।

इस उत्सव के स्थान पर निवास की व्यवस्था टेंटों में ही होती है। विशाल टेंट में कालीन बिछा था जो लोकल बुनकरों द्वारा बनाया होता है। बैठने के लिए रस्सी से बनी दो मचिया थी। निवार से बुने दो खाट जिस पर आरामदायक गद्दे, स्वच्छ चादरें बिछी हुई थीं। साथ में स्नानघर तथा शौचालय की व्यवस्था थी। स्नान करने तथा हाथ मुँह धोने के लिए गरम पानी की भरपूर व्यवस्था थी। एक ड्रेसिंग टेबल भी हर टेंट में रखा गया था ताकि पर्यटक अपने प्रसाधन की सभी वस्तुएँ वहाँ रख सकें। टेंट के भीतर गीले तौलिए रखने के लिए लकड़ी का स्टैंड और दो बड़े और दो छोटे टेबल भी रखे गए थे। हर टेंट में बिजली के बल्ब की व्यवस्था थी। मोबाइल, कैमरा आदि चार्ज करने के लिए काफी सारे चार्जिंग पॉइंट भी थे। यहाँ टेंट की सुख -सुविधाओं को देखकर यह विश्वास करना कठिन था कि वह सब कुछ तीन माह के लिए की गई अस्थायी व्यवस्था थी।

सभी टेंट एक विशाल मैदान के चारों तरफ गोलाकार में लगे हुए थे। कम से कम साठ से सत्तर टेंट तो अवश्य ही थे। आज संभवतः और अधिक हो गए होंगे। मैदान के मध्य भाग में मोटे रंगीन टाटों को जोड़कर विशाल कार्पेट जैसी आकृति देकर बिछा दी गई थी। सब तरफ नमक की मोटी परत होने के कारण यह व्यवस्था थी। मैदान के बीच में एक ऊँचा लैंप संध्या होते ही जल जाता था। ये सारी व्यवस्था आज सोलर सिस्टम पर हो रहा है।

प्रत्येक टेंट के अहाते के मुख्य द्वार पर चार द्वारपाल दिनभर तैनात रहते हैं। पर्यटकों की हर आवश्यकता को वे तुरंत पूरी करते हैं।

टेंट के बाहर निकल आएँ तो पक्की सड़कें बनी हुई हैं। वहाँ पर बैटरी कार भी दिन भर उपलब्ध होती हैं। पूर्णिमा की रात यह परिसर अत्यंत उज्ज्वल और चाँदनी की छटा के कारण और अधिक सुंदर और आकर्षक दिखाई देता है। हम उस सौंदर्य को देखने से वंचित रहे।

टेंट से थोड़ी दूरी पर विशाल डायनिंग हॉल की व्यवस्था थी। यहाँ कच्छ की कलाकृतियों का सुंदर प्रदर्शन था। पर्यटकों के लिए इस स्थान पर तस्वीरें खिंचवाने के लिए भी विशेष आयोजन रखा गया था।

यह डायनिंग हॉल इतना विशाल और फैला हुआ था कि कम से कम एक साथ पाँचसौ लोग भोजन कर सकते थे। आज शायद इस संख्या से अधिक लोगोउअं की व्यवस्था हो गई होगी। एक टेबल और छह कुर्सियों की हर जगह व्यवस्था थी।

भोजन की बात क्या लिखूँ और क्या न लिखूँ! इसके लिए तो आप पाठकों को एक बार इस अतुलनीय स्थान का भ्रमण करना ही चाहिए।

चाहे नाश्ता हो या दोपहर-रात का भोजन, व्यंजन इतने प्रकार के हुआ करते हैं कि एक बार में हर वस्तु का स्वाद लेना कठिन ही हो जाता है। नमकीन के साथ -साथ कई प्रकार के मीठे व्यंजनों की भी व्यवस्था भरपूर मात्रा में होती है। हमारे देश का हर राज्य तो भोजन के लिए सदा ही प्रसिद्ध है फिर भला कच्छ या यों कहें गुजरात कैसे पीछे रहता!

उस डायनिंग हॉल से निकलने पर आपको छोटी – छोटी आर्ट ऍन्ड क्राफ्ट के टेंट दिखेंगे।

आप उनके साथ बैठकर वहाँ की कलाकृतियों को बनते देखने और सीखने का आनंद भी ले सकते हैं।

एक बड़े मैदान पर संध्या के समय मनोरंजन के कार्यक्रम होते हैं। हम सभी रात्रि भोजन के पश्चात उस मंच के पास जाकर बैठे। वहाँ सुंदर बड़े -बड़े झूले भी लगे हुए थे। हम उसी पर बैठे। स्थानीय संगीत, नृत्य, कठपुतली का खेल आदि का आनंद हम सभी पर्यटकों ने लिया। मनोरंजन के ये कार्यक्रम काफी रात तक चलते हैं। सर्दी काफी होती है अतः पर्यटक स्वेटर, शाल, गुलुबंद, ऊनी टोपी अवश्य साथ रखें। कई बार तेज़ हवा की शीत लहरें भी चलती हैं। सभी कार्यक्रम का आनंद लेकर रात के करीब ग्यारह बजे हम अपने टेंट पर लौट आए।

दूसरे दिन सुबह दिन भर हम परिसर का आनंद लेते रहे। परिसर में गुजरात हैंडीक्राफ्ट की प्रदर्शनी थी। बड़ी मात्रा में कच्छ में बननेवाली, बुनकर बनाई जानेवाली वस्तुएँ थीं। गुजरात तो सूती कपड़ों के लिए विख्यात है तो यहाँ बड़ी मात्रा में सभी कुछ देखने, खरीदने का आनंद लिया। काँच लगाई और कढ़ाई की गई चादरें, घाघरा, मेज़ कवर, पर्दे तथा अनेक प्रकार की वस्तुएँ जिससे घर सजाया जा सकता है उन सबका प्रदर्शन था। हम सबने इन वस्तुओं की खूब खरीदारी की क्योंकि हमें ट्रेन से लौटना था और वज़न की सीमा का प्रश्न न था।

शाम के समय हमें ऊँट की गाड़ी पर बिठाकर टेंट से काफी दूर एक ऐसी जगह पर ले गए जहाँ नमक का दलदल था। यह वास्तव में एक विशाल मैदान है। हमसे कहा गया था कि हम थोड़ी दूर तक उस पर चलकर आनंद ले सकते हैं। हम सखियों ने खूब आनंद लिया। हड़बड़ी में मेरा पैर दलदल में फँस गया। बड़ी मुश्किल से पैर निकाला तो नमक और कीचड़ से पैर भर गया। हँसी मज़ाक के क्षण के बीच ऊँट कोचवान मेरे पैर धोने के लिए पानी ले आया। पैर साफ किए बिना गाड़ी पर बैठना कठिन होता।

संध्या होने लगी। हम जब पहुँचे थे तब धूप थी, नमक चमक रहा था। अब हवा में ठंडक आ गई थी। नमक पर से धूप हट गई और वह श्वेत चाँदी की फ़र्श जैसी दिखने लगी। दूर से देखने पर ऐसा लगता मानो बर्फ की परतें पड़ी हों।

यहाँ यह बता दें कि यह नमकवाला हिस्सा बेकार पड़ा था। हमारे देश के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी जब गुजरात के मुख्य मंत्री थे तब उन्होंने कच्छियों को इस जगह का उपयोग कर उत्सव मनाने का कार्यक्रम बनाया था। अब तो यहाँ विदेश से भी लाखों लोग आते हैं।

टेंट में लौटते समय ऊँटवालों ने दौड़ की स्पर्धा लगा दी। यह स्थान रेत और नमकवाली है, ऊँट अपने गद्देदार पैरों के कारण आसानी से दौड़ सकते हैं। कुछ समय के लिए खूब शोर होता रहा। इस स्पर्धा के दौरान हम पर्यटकों से अधिक गाड़ीवान आनंद ले रहे थे क्योंकि यह स्पर्धा तो उनके लिए मनोरंजन का ज़रिया था। हम सब ऊँट गाड़ी पर हिचकोले खाते रहे। फिर शाम ढलते हम सब अपने टेंट पर लौट आए।

क्रमशः… 

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 29 – गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 6 – स्टैच्यू ऑफ युनिटी ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – गुजरात के दर्शनीय स्थल)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 29– गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 6 – स्टैच्यू ऑफ युनिटी ?

वडोदरा में एक दिन बिताने के बाद हम स्टैच्यू ऑफ यूनिटी देखने के लिए दूसरे दिन प्रातः रवाना हुए।

बरोदा या बड़ोदरा से कावेडिया 100 कि.मी से कम है। स्टैच्यू ऑफ युनिटी इसी कावेडिया में स्थित है। यह बड़ोदरा से एक दिन में जाकर लौट आने लायक यात्रा है।

 हम सुबह -सुबह ही निकल गए ताकि हमें भीड़ का सामना न करना पड़े। हम बड़ोदरा के एक बड़े बाज़ार से गुज़रे अभी यहाँ सब्ज़ी और फलवाले अपनी वस्तुएँ सजा ही रहे थे। हमने यात्रा के लिए कुछ फल ले लिए। हम अब गुजरात में रहते यह जान गए थे कि मार्ग पर भोजन की कोई व्यवस्था या ढाबे की सुविधएँ नहीं मिलेगी।

तो हमने मार्केट से गुज़रते हुए ही पर्याप्त फल और कुछ बेकरी पदार्थ साथ ले लिए।

बीच रास्ते में ही हमने एक छोटी सी टपरीनुमा जगह पर गाड़ी रोककर चाय खरीदी और उसके साथ बेकरी पदार्थ नाश्ते के रूप में खा लिए।

हम जब कावेडिया पहुँचे तब नौ बजे थे। यह स्थान नौ से शाम छह बजे तक पर्यटकों के लिए खुला रहता है। सोमवार के दिन यह बंद रहता है।

भीतर अद्भुत सुंदर व्यवस्था दिखाई दी। एक स्थान पर हमें अपनी गाड़ी पार्किंग में ही छोड़ देनी पड़ी और वहाँ खड़ी बसें हमें सुरक्षित भीतर ले गई। भीतर बड़ा -सा बस स्टॉप बना हुआ है। सभी बसें भीतर के विविध स्थान देखने के लिए पर्यटकों को ले जाती है।

यहाँ यह बता दें कि इस स्थान के दर्शन के लिए हमने प्रति सदस्य ₹1000 दिए थे। यह रकम ऑनलाइन पे करने की आवश्यकता होती है। यहाँ प्रतिदिन सीमित संख्या में ही पर्यटकों को भीतर प्रवेश दिया जाता है। यही कारण है कि टिकट न केवल महँगे हैं बल्कि ऑनलाइन भी है ताकि भीड़ पर काबू रख सकें।

भीतर कैक्टस गार्डन है। बटरफ्लाय पार्क है, न्यूट्रीशन पार्क तथा चिड़िया घर है। हमने भीतर प्रवेश करते ही साथ सबसे पहले सरदार सरोवर पर मोटर बोट द्वारा सैर करने का निर्णय लिया क्योंकि हम धूप बढ़ने से पूर्व ही इस सैर का आनंद लेना चाहते थे। हमें यहाँ कुछ मगरमच्छ भी नज़र आए। यह नर्मदा नदी का ही हिस्सा है। मोटर बोट अत्यंत आरामदायक थे। घंटे भर की सैर के बाद हम फिर से मुख्य सड़क पर बस की प्रतीक्षा में रहे।

मज़े की बात यह है कि हर जगह पर बसस्टॉप बने हुए हैं और पर्यटक कहीं से किसी भी बस में बैठ सकते हैं।

हम पुनः मुख्य बस स्टॉप पर लौट आए। यहाँ सब तरफ सुंदर चौड़ी सड़कें बनी हुई हैं। बसों पर गंतव्य का नाम लिखा हुआ होता है और पर्यटक उसी हिसाब से बसों में बैठकर सैर करते हैं।

हमने बटरफ्लाय गार्डन और कैक्टस गार्डन का आनंद लिया। भीड़ से बचने के लिए हम तुरंत ही मुख्य स्टैच्यू की ओर रवाना हुए। चिड़ियाघर अभी खुला न था।

मुख्य स्टैच्यू देखने का आकर्षण है सरदार वल्लभ भाई पटेल की मूर्ति। यह 182 मीटर (597 फीट) ऊँचा है। इसे स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी नाम दिया गया है। यह संसार की सबसे ऊँची मूर्ति है। इसका निर्माण 2013 में प्रारंभ हुआ था। इसे पूर्ण होने में तैंतीस माह लगे। यह नर्मदा नदी के कावेडिया गाँव गुजरात में विद्यमान है। यहाँ काम करनेवाले सभी इसी गाँव के और आसपास की जगहों के निवासी हैं। मूर्ति सरदार सरोवर बाँध की ओर मुख किए हुए है। चारों ओर पहाड़ी इलाका है। अत्यंत रमणीय दृश्य है।

मूर्ति तक पहुँचने से पूर्व एक लंबे तथा सुंदर सुसज्जित मार्ग से होकर गुज़रना पड़ता है। मूर्ति के नीचे बड़ा सा सभागृह है। सभागृह में जाने से पूर्व हमने स्वतंत्रता संग्रामी तथा प्रथम उप प्रधान मंत्री के चरणों को स्पर्श कर प्रणाम करना चाहा। यहाँ तक पहुँचने के लिए एसकेलेटर की व्यवस्था है। हमने सरदार पटेल जी के चरणों को प्रणाम किया। यह स्थान एक ऊँची दो मंज़िली इमारत की छत जैसी है। चारों ओर घूमकर दृश्यों का आनंद लिया जा सकता है। चारों ओर जल और पहाड़ी इलाका और बीच में भव्य मूर्ति किसी अलग प्रकार की दुनिया की सैर करा देती है।

हम पुनः एसकेलेटर से नीचे सभागृह में आए। यह एक विशाल सभागृह है। इसमें ऑडियो तथा विविध विडियो द्वारा स्वतंत्रता की लड़ाई का इतिहास दिखाया जाता है। अंग्रेज़ों ने जिस तरह हम पर अत्याचार किए तथा देश को लूटा उसका इतिहास भी प्रमाण के रूप में उपलब्ध है। भीतर बैठकर देखने व सुनने की पर्याप्त व्यवस्था है। अत्यंत आधुनिक ढंग से इस स्थान का निर्माण किया गया है। सरदार वल्लभभाई पटेल के जीवन पर रोशनी डालते कई तथ्य यहाँ पढ़ने को मिले। पर्यटकों से निवेदन है कि वे इस स्थान को महत्त्व दें तथा अधिकाधिक समय देकर उपलब्ध जानकारियों का लाभ उठाएँ।

31 अक्टोबर सन 2018 के दिन प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने इस स्थान का उद्घाटन किया था। श्री राम व्ही सुतार नामक सज्जन ने इस मूर्ति के डिज़ाइन को बनाकर दिया था। इसे भव्य रूप में खड़ा करने में कई विदेशी कंपनियों का भी बहुत बड़ा सहयोग रहा है। कहा जाता है कि देश भर से लोहे इस्पात जो अब किसी काम के न थे उन्हें मँगवाए गए थे। चीन के कुछ खास शिल्पकारों का भी योगदान रहा है। स्टैच्यू स्टील फ्रेम से बनाया गया है फिर उसमें कॉन्क्रीट भरा गया है। संपूर्ण स्टैच्यू पर काँसे की परत चढ़ाई गई है जिससे न चमक कम होगी न जंग लगने की ही संभावना है और लंबे समय तक यह मूर्ति गर्व से खड़ी रहेगी। देश का गौरव बढ़ाएगी।

इस मूर्ति का निर्माण किस तरह से किया गया है उसकी भी पूरी जानकारी सभागृह में स्लाइड शो द्वारा दी जाती है। कुछ अंश सभागृह में दिखाए गए हैं।

पटेल जी के चेहरे पर जो भाव है उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि बस अभी बोल ही पड़ेंगे।

हमने कुछ तीन घंटे सभागृह में बिताए। भरपूर वास्तविक इतिहास और तथ्यों को जानकर सच में मन ग्लानि से भर उठा कि अगर पटेल जी देश के प्रथम प्रधानमंत्री होते तो देश आज कहाँ से कहाँ पहुँच गया होता। उनकी सोच, सिद्धांत और देश के प्रति जो निःस्वार्थ समर्पण की भावना थी वे अत्यंत महान थे।

हम लिफ्ट से स्टैच्यू की छाती तक पहुँचे। पटेल जी धोती कुर्ता पहनते थे। कुर्ते के ऊपर वे एक बंडी (कोट जैसा) पहना करते थे। इस मूर्ति में हम भीतर से इसी जगह पहुँचे जहाँ बंडी के चौकोर छिद्र से सारा परिसर ऊपर से दिखाई देता है। यह इतना विशाल है कि एक साथ 200 लोग आराम से खड़े होकर दृश्य का आनंद ले सकते हैं। स्टैच्यू भीतर से खोखली है और वहीं से लिफ्ट चलती है।

स्टैच्यू आकर्षक, भव्य तथा अद्भुत सौंदर्य से परिपूर्ण है। धोती पहने जाने पर उसकी सिलवटों को, कुर्ते के आस्तीन और बंडी पर का डिज़ाइन सब कुछ अद्भुत और वास्तविक से हैं। बटन तक इतने खूबसूरत और असली लगते हैं कि हर दर्शक दाँतो तले उँगली दबाए बिना नहीं रह सकता। मुझे स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी और वर्ल्ड ट्रेड सेंटर (1993) देखने का सुअवसर मिला था। आज इस मूर्ति को देखने के बाद सब कुछ फीका लगने लगा। मन गर्व से भर उठा। मेरा देश सच में महान है।

शाम के पाँच बज रहे थे। हम सब नीचे उतर आए। यहाँ एक बड़ा सा कैफेटेरिया बनाया हुआ है। यहाँ पर्याप्त लोगों के बैठने की व्यवस्था है। हमने चाय और कुछ भोजन का आनंद लिया।

सूरज ढलने लगा और मूर्ति अधिक चमकने लगी। छह बजे के बाद स्टैच्यू के भीतर प्रवेश नहीं मिलता और जो भी भीतर होते हैं उन्हें भी बाहर प्रस्थान करना पड़ता है।

संध्या सात बजे लाइट ऍन्ड साउंड शो था। लोगों के बैठने के लिए बेंच लगाए जाते हैं। सभी पर्यटक धीरे धीरे बेंचों पर बैठ गए। शो प्रारंभ हुआ। संपूर्ण श्रद्धा और सम्मान के साथ पर्यटकों ने इसका आनंद लिया यह भी अद्भुत और आकर्षक रहा।

कार्यक्रम की समाप्ति पर हमें बस में बिठाकर मुख्य गेट पर छोड़ा गया। सब कुछ इतना सुव्यवस्थित था कि हमने बहुत आनंद लिया।

यहाँ पास -पड़ोस में रहने के लिए भी जगहें बनाई जा रही हैं ताकि पर्यटक एक दो दिन रहकर इस पूरे परिसर का भरपूर आनंद ले सकें। एक दिन में सब कुछ देख पाना संभव नहीं होता है।

हम बडोदरा लौट आए। दूसरे दिन हमें पुणे लौटना था। हम अभी ट्रेन में ही थे कि चीन में कोविड नामक बीमारी के फैलने तथा दुनिया भर में फैलने की खबर मोबाइल पर समाचार के रूप में पढ़ने को मिला। हम चिंतित हुए और आनंद मिश्रित भय के साथ घर लौट आए।

ऋता सिंह

मार्च 2020

2022 में मुझे पुनः कावेडिया जाने का सुअवसर मिला। इस वर्ष हम नर्मदा परिक्रमा के लिए निकले थे। अबकी बार इस स्थान पर अनेक परिवर्तन दिखाई दिए। आस पास आवास की अच्छी व्यवस्था हैं। अनेक रेस्तराँ तथा ढाबे हैं। परिसर के भीतर बैटरीवाली टमटम चलती है जो गुलाबी रंग की हैं और विशेष बात इन्हें केवल महिलाएँ ही चलाती हैं। उन्हें गुलाबी रंग के गणवेश धारण करने की बाध्यता है। ये सभी महिलाएँ कावेडिया तथा उसके आस पास की निवासी हैं।

भीतर और अधिक सुविधाएँ उपलब्ध कराई गई हैं। 2023 अक्टोबर तक 400करोड़ की आय इस स्थान से सरकार को प्राप्त हुई है।

हमारे देश में अनेक पर्यटन के तथा ऐतिहासिक स्थान हैं अगर सभी जगहें दर्शनीय तथा सुविधा युक्त हो जाएँ तो विदेशी भी बड़ी संख्या में भ्रमण करने आएँगे।

संपूर्ण परिसर में सुव्यवस्था देखकर मन बाग बाग हो उठा।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 28 – गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 5 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – गुजरात के दर्शनीय स्थल)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 28 – गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 5 ?

(17 फरवरी 2020)

द्वारकाधीश का उत्तम दर्शन करके तथा आस पास की विशेष जगहें देखकर हम दूसरे दिन बड़ौदा के लिए निकले। आज इसे वडोदरा कहा जाता है।

हम द्वारका से वडोदरा तक की यात्रा ट्रेन से करने जा रहे थे। यह दूरी 516 किमी की है।

इस दूरी को पार करने के लिए साढ़े दस घंटे लगते हैं। हमारी ट्रेन सुबह 11.30 के आसपास थी। हम प्रातः उठकर एक बार फिर द्वारकाधीश का दर्शन कर आए। इस बार किसी पंडित को हमने साथ नहीं लिया। पिछली सुबह ही दर्शन कर आए थे तो मार्ग ज्ञात था।

हम जिस होटल में ठहरे थे वहीं साधारण नाश्ता करके स्टेशन के लिए निकले। यहाँ यह बता दें कि गुजरात के ट्रेनों में केटरिंग की कोई व्यवस्था नहीं होती है। चाय तक नहीं मिलती। तो हमने होटल वाले से आलू की सूखी सब्ज़ी और पूड़ियाँ पैक करवा लिए। जाते समय हम अपने घर से भोजन लेकर गए थे तो हमारे पास डिसपोज़ीबल प्लेट और स्टील के डिब्बे थे। ये न होते तो वे डिसपोज़िबल बर्तनों में भोजन लपेट देते।

हम ट्रेन में बैठे तो हम चारों (भाई भावज और बहनों में) अब तक की यात्रा की चर्चा चली। समय गुज़र रहा था। हम राजकोट पहुँचे। मेरे एक अत्यंत पुराने मित्र सपत्नीक हमसे मिलने आए। साथ में रात के लिए भोजन भी लेकर आए। उन्हें पता था कि हम ग्यारह बजे के करीब वडोदरा पहुँचेंगे। मित्र की दूरदृष्टि काम आई। हम रात के ग्यारह बजे होटल पहुँचे। गुजराती मुख्य भोजन के साथ कई प्रकार के शेव, फाफड़ा, भजिया आदि खाते हैं। मित्र भी थेपले के साथ अचार और ढोकला तथा अन्य कई वस्तुएँ पैक करके लाए थे। भूख भी लगी थी तो कमरे में चाय बनाई गई और मित्र दम्पति को आशीर्वाद देते हुए हमने भरपेट भोजन का स्वाद लिया।

दूसरे दिन हम देर से उठे और वडोदरा शहर दर्शन करने निकले।

गुजरात के वडोदरा शहर में कई दर्शनीय स्थल हैं। पर चूँकि हमारे पास केवल एक ही दिन हाथ में था तो हम कुछ विशेष स्थानों पर ही दर्शन करने जा सके।

हमने पूरे दिन के लिए एक टैक्सी किराए पर ले ली और सबसे पहले लक्ष्मी विलास पैलेस देखने गए।

यह महल बड़ौदा राज्य पर शासन करने वाले मराठा राजवंश के गायकवाड़ का निवास था।

इसके एक हिस्से में अब भी शाही परिवार के सदस्य रहते हैं।

यह एक विशाल परिसर पर पत्थर से बनाया विशाल महल है। महल के सामने सुंदर हरी घास बिछी है और कुछ सीढ़ियाँ उतरने पर बड़ा सा छायादार वृक्षों का बगीचा है।

इसके भीतर एक ही मंजिल जनता के लिए है जहाँ खूबसूरत वस्तुओं का संग्रह दिखाई देता है। अलग -अलग कमरे में अलग -अलग वस्तुएँ हैं। कहीं सुंदर पॉलिश किए हुए चमकदार फूलदान और अन्य पीतल तथा ताँबे की सजावट की वस्तुएँ रखी हैं। दूसरे कमरे में कई प्रकार के फर्नीचर रखे गए हैं। इस स्थान को देखने के लिए डेढ़ घंटे लगे और वहाँ से निकलकर हम बड़ौदा संग्रहालय की ओर गए।

यह स्थान भी एक बड़ी सी इमारत है। 1894 में बने इस संग्रहालय में विविध कला, मूर्तिकला, , मुग़ल काल में बनाए गए लघुचित्र, भारतीय हस्तशिल्प, और भारतीय विविध काल के सिक्के रखे गए हैं।

दोपहर का समय हो रहा था तो हम भी एक भोजनालय की तलाश में थे। रास्ते में सुरसागर झील पड़ा जो 18वीं शताब्दी में गायकवाड़ शासकों ने बनवाई थी। यह झील 75 एकड़ में फैली है। उस दिन वहाँ कुछ मरम्मत के काम चल रहे थे तो हम बाहर से ही कुछ हिस्से देख पाए।

भोजन के बाद हम अपने निवास स्थान पर लौट आए थोड़ी देर आराम करके हम शाम पाँच बजे पुनः निकले।

इस शहर में एक भारतीय सेना द्वारा निर्मित शिव मंदिर है। हम इस मंदिर का दर्शन करने निकले।

इस मंदिर को ई.एम.ई मंदिर कहा जाता है। इसके परिसर में बाहर की गाड़ियों को प्रवेश नहीं दिया जाता। गाड़ी बाहर खड़ी करके चलकर ही हम अंदर जा सकते हैं। यह भारतीय सैन्य दल की आरक्षित स्थल है।

इस दक्षिणीमूर्ति ई एम ई मंदिर का निर्माण सन 1966 में ब्रिगेडियर ए.एफ यूजीन के कार्यकालमें उनके ही द्वारा किया गया था। वे उन दिनों ई एम ई स्कूल के कमान्डेंट थे। वे स्वयं ईस्ई धर्म के अनुयायी थे। परंतु सभी धर्मों में आस्था रखते थे।

मंदिर का परिसर बहुत बड़ा है और मुख्य मंदिर के अलावा कई छोटे -छोटे मंदिर भी बने हुए हैं। मुख्य मंदिर में शिव जी हैं।

मंदिर के प्रवेश द्वार से ही मंदिर तक जाने के लिए जो पथ बनाया गया है उसके दोनों ओर कई पुरातन उत्खनन से प्राप्त मूर्तियाँ रखी हुई हैं। मंदिर की सजावट और आकार किसी टेंट के समान है।

दर्शन के बाद संध्या हो गई और हम सूती कपड़े खरीदने के लिए मुख्य मार्केट में घूमते रहे। कुछ खरीदारी कर हम होटल लौट आए और मुँह -हाथ धोकर भोजन के लिए निकले।

हम किसी ऐसे भोजनालत की तलाश में थे जहाँ सूप और अन्य सभी प्रकार के व्यंजन उपलब्ध हो। हम जब से गुजरात आए थे हम हर प्रकार के गुजराती भोजन का ही आनंद ले रहे थे। गुजराती भोजन में मीठापन होता है। कई प्कार की सब्ज़ियाँ बाजरे की छोटी छोटी गरम रोटी उस पर खूब सारा घी और कई प्रकार की सब्ज़ियों का हम आनंद ले चुके थे। आज हम ऐसे रेस्तराँ में पहुँचे जहाँ रोशनी मध्यम थी, हल्की और कर्णप्रिय संगीत बज रहा था। ज्यादावभीड़ न थी और न ही शोर था। हम चारों ने उत्कृष्ट तथा सुस्वादिष्ट भोजन का आनंद लेकर होटल लौटकर आए।

अगले दिन हम स्टैच्यू ऑफ यूनिटी देखने जाने वाले थे।

क्रमशः… 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 27 – गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 4 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – गुजरात की सुखद यात्रा)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 27 – गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 4 ?

(17 फरवरी 2020)

हमारी यात्रा का आज चौथा दिन था। हम बाए रोड सोमनाथ से द्वारका पहुँचे थे।

द्वारका कल तक महाभारत और पुराणों का विषय था पर आज द्वारका इतिहास है, एक सच्चाई जो हमारी संस्कृति की विशेषता और अवतार लेकर इस धरा पर आए ईश्वर की सच्ची गाथा है। आज द्वारका नगरी का अवशेष समुद्र के नीचे पाया गया है। कृष्ण के होने की बात काल्पनिक नहीं, सत्य है और यही हमारी जिज्ञासा, उत्साह का कारण भी रहा है।

द्वारका आज छोटा – सा शहर है। कभी यहाँ विशाल नगरी बसती थी जो समृद्ध और वैभवशाली थी। कहते हैं सोने चाँदी और जवाहरातों से जड़े सात सौ महल बने हुए थे। मान्यता है कि श्रीकृष्ण को गांधारी ने संपूर्ण कुल के विनाश का श्राप दिया था। श्रीकृष्ण के पड़पोतों ने ही आपसी लड़ाई लड़कर इस नगरी को क्षति पहुँचाई और पैंतीस वर्ष के स्वर्णिम सौंदर्य को देखने के बाद इस नगर ने समुद्र में समाधि ले ली। कहते हैं कि यादव वंश समाप्त हो गया। श्रीकृष्ण ने यहाँ पैंतीस वर्ष राज्य किया था।

आज यहाँ का सारा वातावरण द्वारिकाधीश के मंदिर के इर्द-गिर्द की ज़रूरतों से घिरा है। हमारे रहने की व्यवस्था मंदिर के पास ही स्थित एक नए बने होटल में की गई थी जिस कारण मंदिर तक पहुँचने के लिए ज्यादा चलना भी नहीं पड़ा।

सुबह-सुबह हम सब जब मंदिर जाने के लिए निकले तो सड़क पर पानी की छींटे मारकर सड़कें साफ़ की गई थीं। दिन भर की थकी धूल रात भर के शांत वातावरण में हल्की नमी के साथ सड़क पर बिछ गई थीं, जैसे थका हुआ बच्चा माँ की गोद में आकर सो जाता है। सारा वातावरण और परिसर स्वच्छ और शीतल था। सड़क पर धूप की किरणें पड़ रही थीं तब उस रश्मि में धूल के कण दिखाई देने लगे थे वरना वैसे तो सब स्वच्छ ही प्रतीत हो रहा था।

श्रीकृष्ण की इस नगरी में गायों का बड़ा महत्त्व रहा है। गायें और साँड सड़क पर खुले घूमते नज़र आते हैं। इनका आकार भी आम गाय और साँड की तुलना में बहुत बड़े है। उन्हें देखकर हमें तो इतिहास के पन्नों में छपी हड़प्पा सभ्यता के साँड की तस्वीर याद आ गई। उनकी कुछ मूर्तियाँ धोलावेरा ( हड़प्पा साइट) के संग्रहालय में भी देखने को मिली थी। भयंकर तगड़े, ऊँचे, विशालकाय, मोटे मोटे, बड़े सींग, और पीठ पर विशाल कूबड़! यहाँ के बेफिक्र हो घूमनेवाले साँड भी कुछ वैसे ही थे।

सुबह- सुबह कोई उन्हें सुबह की बनी ताज़ी रोटियाँ अपने हाथ से खिलाता दिखा तो कोई चने की फलियाँ खिलाता दिखा। अपनी श्रद्धा के अनुसार पशुओं की सेवा होते देख मन को एक अद्भुत खुशी मिली। भोजन खिलानेवाला रास्ते पर बैठकर अपने हाथ से गाय को रोटी खिला रहा था और दूसरे हाथ से उसके गले के नीचे लटकते हिस्से को सहला भी रहा था। अहा ! पशुओं के प्रति यह स्नेह देख मन गदगद हो उठा। ऐसे दृश्य बड़े नगरों में कहाँ!

सड़क पर आते -जाते लोग गाय को छूते और अपने हाथ को अपने माथे और छाती को छूकर प्रणाम करते। गौमाता के प्रति कितनी श्रद्धा है यह देखकर मन संतुष्ट हुआ कि हमारी संस्कृति तो इन नगरों के, मंदिरों के इर्द-गिर्द आज भी जीवित है। हम यों ही भयभीत होते हैं।

हम मंदिर के बड़े से प्रांगण में पहुँचे। स्वच्छ धोती -कुर्ता उसपर काली बंडी पहने, गले में लाल गमछा और तुलसी की माला लटकाए, माथे पर लाल चंदन से वैष्णवी तिलकधारी कई पंडित झुंड में खड़े थे। ऐसा लग रहा था जैसे वहाँ के पंडितों का वह गणवेश ही हो!

हमें देख चार पंडित झुंड से निकलकर हमारी ओर आए। हमसे पहले पूछा गया कि हम कहाँ से आए थे। उत्तर मिलने पर दूसरे ने पूछा हमारा गोत्र क्या है? हमें आश्चर्य हुआ, मैंने पूछा कि क्या गोत्र के बिना भीतर मंदिर में प्रवेश नहीं ? तो तीसरे ने कहा, ” ऐसा नहीं माताजी, भीतर का परिसर बहुत बड़ा है आपको सब कुछ आराम से और समझाते हुए दर्शन करवाएँगे तो आपको मंदिर दर्शन का आनंद मिलेगा। “

मेरी जिज्ञासा बढ़ गई और मेरा कुछ स्वभाव भी है कि जब तक बात स्पष्ट न हो मैं सहमत नहीं होती। साथ ही जिज्ञासा ही तो ज्ञान बढ़ाने का सहज मार्ग है। मैंने कहा, “तो चलिए साथ में, अपना रेट बताइए और ले चलिए, गोत्र से क्या मतलब?”

हम शहर वासी कुछ ज्यादा ही व्यवहारवादी होते हैं।

हमारी आवाज़ और प्रश्न सुनकर दो पंडित और जुड़ गए। एक ज़रा अधिक स्मार्ट से थे, बुज़ुर्ग भी। बोले, “माताजी यहाँ कोई रेट नहीं है। आप लोग दूर से आते हैं, हम लोग आपको जितनी देर चाहें मंदिर में घुमाते हैं। सारी जानकारी देते हैं। आपको जो उचित लगे दक्षिणा दे दीजिएगा। रही बात गोत्र की तो सो ऐसा है कि इस नगर में हम जितने ब्राह्मण हैं हम मंदिर के हर क्षेत्र, और हर काम से जुड़े हैं। हमारे लिए और कोई दूसरा आजीविका का साधन नहीं है। मंदिर से हमें तनख्वाह भी नहीं मिलती। इसलिए आपस में विवाद से बचने के लिए हम गोत्र पूछ लेते हैं ताकि जिस पंडित के हिस्से में जो गोत्र है वही गाइड के रूप में दर्शनार्थी के साथ जाए। इससे हम में से हर किसी को जीवित रहने के लिए पर्याप्त धन मिल जाता है। “

वाह! बहुत बढ़िया व्यवस्था है। कोई लड़ाई नहीं। मैं तो मन ही मन प्रसन्न हुई इस व्यवस्था के बारे में जानकर। समस्या है तो उसका हल भी तो है! देयर इज़ नो प्रॉब्लेम विदाउट अ सॉल्यूशनवाली बात यहाँ चरितार्थ होती है।

हमने अपना गोत्र बताया, वैसे हम चारों के गोत्र अलग -अलग हैं पर हमने सोचा अलग तो घूमना नहीं और शादी करने तो आए नहीं तो हम भाई-बहनों का गोत्र कश्यप है तो हमने उन्हें बता दिया। उनमें से कोई भी हमारे साथ नहीं चला बल्कि एक सातवें व्यक्ति को हमारे साथ कर दिया और बोले, ” ये गुरुजी आपके साथ जाएँगे”। गुरुजी ने तुरंत पूछा, ” बंगाली हैं क्या? ” हमारे आश्चर्य की सीमा न रही कि इन ब्राह्मणों को गोत्रों की गहन जानकारी है! गुरुजी ने हमारे माथे पर लाल तिलक छाप दी और हम गुरुजी के साथ चल पड़े।

मंदिर का भीतरी परिसर बृहद है। मंदिर की भव्य इमारत देखते ही हमने दाँतों तले उँगली दबा ली। क्या ही सुंदर भवन है, न केवल विशाल, भव्य बल्कि कलाकारी का उत्तम नमूना भी है। नक्काशीदार दीवारें, झूलते बरामदें और छह मंज़िली इमारत पर विशाल कलश!कलश के ऊपर ध्वजा!आहा मन तृप्त हुआ।

मंदिर के आँगन में बड़ी भीड़ थी। लोग आँगन में बैठे थे, मानो प्रतीक्षा रत थे। पूछने पर गुरुजी ने कहा आप भी प्रतीक्षा कीजिए, कलश पर अभी पताका लगाया जाएगा। करीब 38 मीटर ऊँचे मंदिर के शिखर पर सबसे पहले भगवान के प्रपोत्र के द्वारा ही पहली बार ध्वजारोहण किया गया था।

मंदिर में प्रति दिन पाँच बार ध्वजा बदली जाती है। यह ध्वजा बावन गज़ की होती है। कम से कम पाँच वर्षों की अवधि तक ध्वजा फहराने वालों की बुकिंग हो जाती है। असंख्य भक्त विभिन्न राज्यों, शहरों से यह ध्वज चढ़ाने आते हैं और उसे नियत समय पर आरोहण किया जाता है।

स्थानीय एक परिवार के दो सदस्य हैं जो इतनी ऊँचाई पर चढ़कर ध्वजारोहण करते हैं। यह परंपरागत है। वे मंदिर के भीतर माता का दर्शन कर इस काम के लिए ऊपर चढ़ते हैं। जोखिम का काम है, किसी प्रकार की सुरक्षा की व्यवस्था के बिना दिन में पाँच बार ऊपर चढ़ते हैं और ध्वज बदलकर, ध्वजारोहण करते हैं। अब तक उनकी आस्था ही सुरक्षा कवच बनी रही। परंपरागत एक परिवार इन ध्वजाओं को सिलने का काम करता है। पहले इस परिवार के पिता, दादा मुफ्त में यह काम करते थे पर आज इस परिवार का यही पेशा है।

अचानक आँगन में बैठी भीड़ खड़ी हो गई और दोनों हाथ ऊपर करके, गर्दन पीछे की ओर झुकाकर ऊपर देखती हुई जय श्रीकृष्ण कहकर जयकारा लगाने लगी। हमारे हाथ अपने आप ऊपर उठ गए, जयकारा में हम भी शामिल हो गए। वह दृश्य, वह आस्था, वह भक्ति सब कल्पनातीत है। सभी लोग भावविभोर हो उठे। हमारे लिए यह सब कुछ नया था और अद्भुत भी। कलश पर नया, विशाल, रंगीन, पताका हवा में लहरा उठा। हमने हाथ जोड़कर वंदना की और गुरुजी के साथ आगे बढ़े।

गुरुजी हमें गर्भ गृह में ले गए, सुंदर नक्काशीदार दीवारें, पत्थर तराशकर अद्भुत कलाकृति वर्णनातीत है। यह मंदिर ग्रेनाइट और बालूपत्थर से बना हुआ है। जिसे सैंड स्टोन कहा जाता है। मंदिर नागर वास्तुकला शैली का बेजोड़ उदाहरण है। मंदिर की दीवारों पर देवी – देवताओं और पशु पक्षियों की कलाकृतियाँ बनी हुई हैं। 72 स्तंभों पर खड़े इस मंदिर को त्रिलोक्य जगत मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। यह चार धामों में से एक है।

मूल रूप से यह मंदिर 3500 वर्ष पुराना है तब यह मंदिर जवाहरातों से मढ़ा था। गुजरात हज़ारों वर्ष से व्यापार और व्यापारियों का गढ़ रहा है अतः मंदिरों की साज – सज्जा के लिए धन खर्च करना यहाँ के लोगों के स्वभाव में है। जैसे कि हम जानते हैं कि कुछ आक्रांता हमेशा भारत को लूटने ही आए हैं और मंदिरों को ध्वस्त कर सब कुछ लूटकर ले गए हैं वैसे ही यह मंदिर कई बार तोड़ा और लूटा भी गया है।

आज जिस मंदिर को हम देख रहे हैं उसे सोलहवीं शताब्दी में बनाया गया था। गुरुजी जानकारी देते हुए बोले कि इस मंदिर की स्थापना सबसे पहले श्रीकृष्ण के पड़पोते ने की थी।

मंदिर में स्थित श्रीकृष्ण की मूर्ति बाल गोपाल या रासलीला करते कान्हा या प्रेममय श्याम नहीं हैं। यह है सक्षम, गंभीर, कर्त्तव्यपरायण, सबके संरक्षक द्वारकाधीश। कहा जाता है कि यह स्थान श्रीकृष्ण का निवास स्थान था। इसलिए इसे हरि गृह भी कहा जाता है।

थोड़ी ही देर में मूर्ति के सामने पर्दा लगा दिया गया। गुरुजी बोले, ” अभी द्वारिकाधीश को भोग लगाया जाएगा, दस मिनट बाद हम आपको मूर्ति के बिल्कुल पास से दर्शन करवाएँगे। “

थोड़ी देर बाद पर्दा हटाया गया और द्वारकाधीश केदर्शन हुए। हमारे पास शब्द नहीं कि हम उस प्रसन्नता के मुहूर्त को शब्दोबद्ध कर सकें।

द्वारकाधीश को दिन में ग्यारह बार भोग लगाया जाता है। चार बार आरती होती है और हर आरती से पूर्व वस्त्र बदलकर आभूषण पहनाकर उन्हें सजाया जाता है। यह शृंगार भी दर्शनीय है। जन्माष्टमी के दिन द्वारकाधीश को छप्पन प्रकार के भोग लगाए जाते हैं। उस दिन भक्तों को थोड़ी दूर से ही दर्शन लेना पड़ता है। गुरुजी मंदिर के हर स्थान की जानकारी देते हुए चल रहे थे। हमने अपने हिसाब से समय लेकर मंदिर के सौंदर्य का पूरा आनंद लिया। चारों ओर दीवारों की नक्काशी ने हमें मंत्र मुग्ध कर दिया।

गुरुजी ने अब हमें वह जगह दिखाई जहाँ श्रीकृष्ण सुदामा से मिले थे। आज यह एक सभागृह जैसा है पर निश्चित ही अपने समय में यह अद्भुत सुंदर और पवित्रता से परिपूर्ण स्थान रहा होगा।

हम काफी सारी सीढ़ियाँ उतरकर मंदिर के पिछले द्वार से बाहर आए। इस स्थान पर अन्न दान के लिए आप अपनी इच्छानुसार धनराशि दान कर सकते हैं। हम भी यथासंभव और अपने सामर्थ्य के अनुसार कुछ रकम दान में दे आए। इसके लिए हमें रसीद भी दी गई। सीढ़ियों के दोनों तरफ छोटी- छोटी दुकानें बनी हुई हैं। सभी दुकानें सुसज्जित और आकर्षक हैं।

अब हम गुरुजी को प्रणाम कर दक्षिणा देकर मुख्य सड़क के पास आ गए। अब यहाँ काफी भीड़ थी। पूरे परिसर में दर्शन करते हुए चार -पाँच घंटे लग गए। हम लोग होटल से निर्जला निकले थे तो अब भूख भी लगी थी तो जल्दी से होटल लौट आए।

द्वारका के मंदिर के दूसरी छोर पर एक छोटी सी खाड़ी पारकर हम शाम को चार बजे द्वारका बेट देखने निकले। इस पार से उस पार तक जाने के लिए बड़ी -बड़ी नावें हैं। एक बार में साठ सत्तर लोगों को पार उतारने की व्यवस्था है। हम द्वारका बेट पहुँचे।

शायद श्रीकृष्ण के काल में यहाँ से समुद्र निश्चित ही दूर रहा होगा पर आज द्वारकाधीश के मंदिर से यह स्थान काफी दूरी पर है। यहाँ श्रीकृष्ण की पट रानी व अन्य पत्नियों की मूर्ति रखी गई है और उनके नाम का मंदिर है। कहा जाता है कि श्रीकृष्ण की पत्नियाँ इसी स्थान में बने महल में रहती थीं। यह स्थान न तो भव्य है और ही इसकी ठीक से देखरेख होती है। द्वारकाबेट पर एक मस्जिद भी है। अधिकतर नाविक इस्लाम धर्म के अनुयायी हैं। इस जगह पर बड़ी संख्या में इस्लाम ही रहते हैं गाड़ी चालक जो हमारे साथ गया था उसने बताया कि अब नाव चलानेवाले नाविक और वहाँ के अधिकांश निवासी बाँगलादेशी और रोहिंग्या हैं। यह हमारे देश के लिए बहुत बड़ा चिंता का विषय है। हम मंदिर का दर्शन कर फिर नाव पकड़कर द्वारका की मुख्य भूमि पर लौट आए।

हमारी यह यात्रा सुखद रही। शाम के समय मुख्य मंदिर में खूब रोशनी की जाती है इससे मंदिर की भव्यता और उभरकर आती है।

एक अद्भुत सुंदर कलाकृति और जीता जागता इतिहास देखकर हम आगे की यात्रा के लिए तैयार हुए।

क्रमशः

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 26 – गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 3 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – गुजरात की सुखद यात्रा)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 26 – गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 3 ?

(15 फरवरी 2020)

गुजरात के वेरावल शहर में यह हमारा तीसरा दिन था। उस दिन सुबह फिर एक बार सोमनाथ दर्शन कर हम पोरबंदर होते हुए द्वारका के लिए रवाना हुए।

इस समय यहाँ चौड़ी – सी सड़क बनाई जा रही थी और कहीं – कहीं सड़क तैयार भी थी। सोमनाथ से द्वारका 236 किलोमीटर की दूरी है। इसे तय करने में वैसे तो साढ़े तीन घंटे ही लगते हैं पर हम बीच में अन्य कई स्थान होते हुए द्वारका पहुँचे जिस कारण हमें द्वारका पहुँचते हुए दोपहर के तीन बज गए।

सड़क समुद्र से खास दूर न होने की वजह से हवा में एक अलग- सी गंध थी और हवा भी शीतल थी। जब गाड़ी समुद्र से थोड़ी दूरी से गुज़रती तो समुद्र की लहरों के उठने और गिरने की आवाज स्पष्ट सुनाई देती जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया और पानी उतरता गया वैसे -वैसे आवाज कम होती गई।

हमने ए.सी चलाने की बजाए खिड़कियाँ खुली रखना अधिक पसंद किया। सड़क के दोनों किनारे पर खेत नज़र आए। हरियाली मनभावन थी। हवा के कारण खड़ी फसलें इस तरह झूमती मानो आते – जाते लोगों का नतमस्तक होकर वे सबका स्वागत कर रही हों।

हम पोरबंदर पहुँचे। यहाँ का आकर्षण था उस घर को देखना जहाँ गाँधी जी का जन्म हुआ था। यहीं पोरबंदर में श्रीकृष्ण के घनिष्ठ मित्र सुदामा का भी निवास स्थान था। हमारे लिए दोनों ही स्थान उत्साह का कारण थे।

हम टैक्सी स्टैंड पर उतरे और भीड़ को धकेलते हुए एक ऑटोरिक्शा में बैठे। एक सुंदर पीले रंग से रंगी बड़ी – सी इमारत के सामने रिक्शा रुक गई। इस इमारत का नाम है कीर्ति मंदिर जिसके भीतर प्रवेश करने पर बड़ा- सा आँगन पड़ता है। सीढ़ी से ऊपर दूसरी मंज़िल पर कस्तूरबा पुस्तकालय है। इमारत की दाहिनी ओर मंदिर- सा बना हुआ है। सभी धर्म की निशानियाँ यहाँ देखने को मिलती है। कहीं कलश तो कहीं गुंबद सा बना हुआ है पर हाँ कहीं कोई मूर्ति नहीं है। यह एक दोमंजिला भव्य इमारत है जो वास्तव में एक संग्रहालय ही है।

यहाँ गाँधी जी के जीवन से जुड़ी कई अहम घटनाओं की तस्वीरें लगी हुई हैं। यों कह सकते हैं कि यह फोटोगैलरी ही है। बा और बापू दोनों की युवावस्था की बड़ी तस्वीर देखने को मिलती हैं। जिसके तीन तरफ़ काँच लगा हुआ है।

इस विशाल आँगन में प्रति वर्ष 2 अक्टूबर को भव्य उत्सव और कार्यक्रम का आयोजन होता है। बड़ी संख्या में यहाँ लोग उपस्थित होते हैं।

आँगन की बाईं ओर गाँधी जी का जन्मस्थल है। यह इमारत आज दोमंजिली है जिसमें बाईस कमरे हैं पर ये सभी कमरे बहुत छोटे -छोटे ही हैं। कुछ – कुछ कमरों में मेज़नाइन फ्लोर भी बने हुए हैं।

2 अक्टोबर 1869 को जब गाँधी जी का यहाँ जन्म हुआ था तब यह एक पतली गलीनुमा जगह थी। आज जिस विशाल कीर्ति मंदिर को पर्यटक देखने जाते हैं वह बाद में बनाया गया है।

गाँधी जी के जन्मस्थल वाली इमारत उनके दादाजी के पिता (पड़पिता) ने 1777 में बनवाई थी। उस समय यह एक मंज़िली इमारत थी बाद में परिवार बड़ा होने पर कमरे भी बढ़ते गए। यह अपने समय में तीन मंज़िली इमारत तक बनाई गई थी। बाद में इसमें कुछ परिवर्तन किए गए। आज यह दोमंज़िली इमारत है।

इस इमारत में पर्यटकों की जानकारी के लिए उस स्थान पर जहाँ गाँधी जी जन्मे थे, वहाँ गाँधीजी की एक बड़ी – सी तस्वीर लगी हुई है। जहाँ वे चरखा चलाते हुए दिखाई देते हैं। इस तस्वीर के नीचे एक स्वास्तिक बना हुआ है यही मूल उनका जन्म स्थल है। सभी लोग इस जगह पर एकत्रित होते रहते हैं।

हमारी संस्कृति में स्वास्तिक का बहुत महत्त्व है। यह हर सनातनी धर्म को माननेवाला अच्छी तरह से जानता है पर आश्चर्य की बात यह देखने को मिली कि पर्यटकों को गाँधी जी की तस्वीर के नीचे खड़े होकर तस्वीर खिंचवाने का इतना तीव्र शौक था कि वे स्वास्तिक की अवहेलना करते हुए उस पर जूते -चप्पल पहनकर खड़े हो गए। हमारा मन भीतर तक न केवल क्रोध से भर उठा बल्कि लोगों की इस मूर्खता और अज्ञानता पर मन उदास भी हो उठा। मुझे काफी समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ी और तब जाकर उस स्वास्तिक वाली जगह खाली मिली तो गाँधीजी की तस्वीर स्वास्तिक के साथ कैमरे में कैद कर पाई।

स्पष्ट दिखाई देता है कि हम अपनी संस्कृति से कितनी दूर चले गए हैं। यह विडंबना ही है और दुर्भाग्य भी कि आज की पीढ़ी इन बातों को अहमियत नहीं देती।

हम हर कमरे को घूम-घूमकर देखने लगे। हर एक कमरा स्वच्छ है और छोटी – छोटी खिड़कियाँ हरे रंग से रंगी हैं। दरवाज़े भी खास ऊँचे नहीं हैं। दरवाजे और दीवारों पर आकृतियाँ बनाई हुई हैं। कुछ दरवाज़े तो महलों की तरह एक सीध में हैं। एक के पास खड़े रहकर सीधे में चार -पाँच दरवाज़े और भी दिखाई देते हैं। सभी खिड़कियाँ और मचान नुमा कमरे ये सभी लकड़ी की बनी हुई हैं। इस घर में गाँधी जी बचपन में कुछ वर्ष तक रहे थे। बाद में उनका अधिकांश समय राजकोट में बीता।

कीर्ति मंदिर वाली जगह बाद में बनाई गई। गाँधी जी के एक प्रिय अनुयायी थे श्री दरबार गोपालदास देसाई के नाम से जाने जाते थे वे। नानजी भाई कालिदास मेहता ने 1947 में इस मंदिर को बनाने के लिए बड़ी रकम दी तब गाँधीजी जीवित थे। पर इस भवन कोञ पूरा करने में 1950 तक का समय लग गया था। इस सुंदर स्थान को बा और बापू अपनी आँखों से न देख पाए।

हम ऑटोरिक्शा में बैठकर टैक्सीस्टैंड पर लौट आए। उसी भीड़ भाड़ के बीच एक मंदिर बना हुआ है जिसे श्रीकृष्ण के मित्र सुदामा का घर माना जाता है। आज यह घर नहीं बल्कि एक मंदिर जैसी संरचना है। आस पास न केवल भीड़ है बल्कि कूड़ा करकट और गाय बैलों के झुंड भी नज़र आते हैं।

कहा जाता है कि यहीं से चलकर सुदामा द्वारका पहुँचे थे।

हमें यह देखकर अत्यंत दुख भी हुआ कि हम एक ऐतिहासिक स्थल को स्वच्छ रखने से भी चूकते हैं। यह जागरुकता का अभाव ही है।

पोरबंदर महाभारत काल से इतिहास के पन्नों में अपनी जगह बनाए हुए है। अंग्रेजों के शासन काल में यह एक रियासती गढ़ था। यह व्यापार का क्षेत्र भी रह चुका है। कृष्ण सुदामा मंदिर एक और दर्शनीय स्थल है।

फिर हम अपने गंतव्य की ओर बढ़े। मंज़िल थी द्वारका। पोरबंदर से निकलकर जैसे – जैसे द्वारका के करीब पहुँचने लगे तो हरे भरे खेत न जाने क्यों अचानक विलीन से हो गए और दूर तक बंजर भूमि दिखाई देने लगी जो कंटीली झाड़ियों से पटी थी। इस इलाके में अब केवल बकरियों के झुंड दिखाई देने लगे जो पिछली टाँगों पर खड़ी होकर कंटीले झाड़ियों की ही फलियों का स्वाद ले रही थीं।

हम आपस में चर्चा करने लगे कि अचानक सारी ज़मीन बंजर क्यों हो गई? और यह अंतर आँखों को जैसे चुभ रही थी। चालक ने खुशखबरी देते हुए बताया कि गुजरात सरकार अब संज्ञान लेने लगी है और इन बंजर भूमि के टुकड़ों को लीज़ पर लेकर उस पर औषधीय पौधे लगाने का आयोजन किया जा रहा है।

बातों ही बातों में हम द्वारका नगरी आ पहुँचे। अभी सूर्यास्त को काफी समय था तो हम वहाँ के प्रसिद्ध शिव मंदिर का दर्शन कर आए। एक मंदिर समुद्र तट से जल में भीतरी ओर है जिसे भदकेश्वर मंदिर कहा जाता है। यह खास बड़ा मंदिर नहीं है। जब समुद्र का पानी भाटे के समय उतर जाता है तो दर्शन करना आसान हो जाता है। शाम के समय वहाँ बना मार्ग पानी में डूब सा जाता है केवल मंदिर का हिस्सा बचा रहता है।

दूसरा है नागेश्वर मंदिर। यहाँ मंदिर के परिसर में शिव जी की विशाल मूर्ति बनी हुई है। भक्तों की लंबी कतार भी लगी थी। भक्त मंदिर में कई प्रकार के फल, फूल, अनाज आदि ले जाते हैं चढ़ावे के रूप में। इन्हें खाने के लिए बैलों की बड़ी संख्या मंदिर के परिसर में घूमते दिखाई दिए। साथ ही कबूतरों को ज्वारी खिलाने की भी व्यवस्था है तो कबूतरों का भी झुंड उड़ता फिरता है। भीड़, पशु, पक्षी, जूते चप्पल, फेरीवाले, फोटोग्राफर सब कुछ मिलाकर वहाँ एक अजीब- सी भीड़ महसूस हुई और साथ में गंदगी भी। हम बाहर से ही दर्शन कर उल्टे पाँव लौटे।

हम आज भी न जाने क्यों भक्ति के साथ -साथ स्वच्छता को जोड़ने में असमर्थ हैं। अक्सर मंदिरों में भोजन आदि चढ़ावे के कारण जब साफ़ सफ़ाई दिन में कई बार न किए जाएँ तो चारों ओर फल फूल अनाज फैले हुए दिखाई देते हैं। मन में सवाल उठता है कि क्या भगवान इस अस्वच्छ वातावरण में रहना कभी पसंद करेंगे? न जाने हम कब इस दिशा और विषय की ओर सतर्क होंगे!

मंदिर के बाहर बड़ी संख्या में गरीब बच्चे नज़र आए। कोई बीस -बाईस होंगे जो चार साल से बारह -तेरह वर्ष के होंगे। उन सबने हमें घेर लिया। क्या चाहिए पूछने पर कुछ बच्चों ने दुकान में शीशे की अलमारी में रखी अमूल दूध की ओर इशारा किया। उन सभी बच्चों के हाथों में एक -एक अमूल दूध की बोतल थमाकर हम अपने होटल की ओर बढ़े।

हम भी दिन भर की यात्रा के बाद थक चुके थे तो अब आराम भी आवश्यक था और मन में एक संतोष की भावना भी।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 25 – गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 2 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – गुजरात के दर्शनीय स्थल)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 25 – गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 2 ?

(14 फरवरी 2020)

वेरावल शहर छोटा सा बंदरगाह है। समुद्र तट की सुंदरता के अलावा खास दर्शनीय कुछ  और नहीं है। हमारे हाथ में एक दिन बचा था तो सोमनाथ देखने के बाद दूसरे दिन हम दिव (Diu ) के लिए रवाना हुए।

सोमनाथ से दिव 113 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह समुद्री तट पर बसा शहर है। हम से टैक्सी चालक ने कहा कि हम एक दिन में ही दिव देखकर लौट सकते हैं। हमें दिव पहुँचने में 2.50 मिनिट लगे। रास्ता बहुत ही मखमली होने के कारण यह एक आरामदायक सफ़र रहा। हम हभी साधारणतया दमन और दिव कहते हैं पर ये दोनों अलग -अलग शहर हैं।

यहाँ यह बताना आवश्यक है कि गुजरात में सड़कों पर हमारे देश के अन्य शहरों की तरह ढाबे या रेस्तराँ की भरमार नहीं है। यहाँ के निवासी घर से ही थेपला, फाफड़ा, ढोकला, फरसाण आदि भोजन पदार्थ अपने साथ लेकर चलते हैं जिस कारण ढाबे या रेस्तराँ का खास प्रचलन नहीं है। हम लोग प्रातः सात बजे निकले थे तो अपने साथ कुछ भोजन सामग्री लेकर ही चले थे।

कुछ 30 कि.मी. जाने के बाद चाय पीने की इच्छा हुई और सड़क से हटकर ज़रा दूर एक ढाबा सा दिखा। हमने वहाँ अपनी गाड़ी मोड़ ली। ढाबे के बाहर रेतीली भूमि थी जिस पर कुछ  चारपाइयाँ रखी हुई थीं। साथ में एक प्लास्टिक की मेज़ थी जिसके पायों को  रेत में धँसा दिया गया था। अभी सुबह का ही समय था तो हमें गरमागरम चाय और पकौड़े मिले। हम अपने साथ ब्रेड और मक्खन लेकर गए थे तो सब कुछ मिलाकर बढ़िया नाश्ता हो गया।

कुछ दो घंटे बाद हम दिव पहुँचे।

दिव सुंदर स्वच्छ शहर है। पर आज भी वहाँ पुर्तगाली संस्कृति की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। लोगों में लेट बैक एटिट्यूड दिखाई देता है। पुर्तगाली तो चले गए पर अपना असर छोड़ गए। देर सबेरे तक शहर भर में कहीं कोई नज़र नहीं आता। यहाँ लोगों के दिन की शुरुआत भी देर से ही होती है। तब तक सभी दुकानें बंद ही होती हैं।

यह शहर समुद्र तट पर बसा हुआ है। शहर में ख़ास हलचल नहीं है, न ही भीड़भाड़ है। इस तरह का वातावरण और समानता हमने गोवा और पोर्त्युगल में भी अनुभव किया है। यहाँ की आबादी खास नहीं है।

रास्ते से जब टैक्सी गुज़रने लगी तो अधिकतर घर बंद नज़र आए जिन पर ताले जड़े दिखे। पूछने पर चालक ने बताया कि पुर्तगाल से उन स्थानों के निवासियों को स्थायी नागरिकता के लिए वीज़ा दिया जा रहा है जहाँ पुर्तगाली राज्य किया करते थे। हमने सिर पीट लिया। 450 वर्ष की गुलामी के बाद 1961 के करीब देश को उनसे मुक्ति मिली थी और अब यह क्या हो रहा है?

जिन लोगों के दादा – परदादा ने पुर्तगालियों की गुलामी की थी, अत्याचार सहे थे, जबरन ईसाई बनने के लिए मजबूर किए गए थे या प्राण बचाने के डर से अन्यत्र भाग गए थे या मार दिए गए थे उसी  दामन और दिव की आज की यह पीढ़ी  पचास साल बाद पुर्तगाल जाकर बस रही है!

पुर्तगाली स्वभाव से आलसी हैं, उन्हें सब प्रकार के काम करने के लिए लोग चाहिए इसलिए तो वीज़ा दे रहे हैं। न जाने कितने ही लोग विदेश में रहने के लालच में यहाँ से वहाँ चले गए। हमारे देशवासियों को सफेद चमड़े के प्रति इतना आकर्षण है कि फिर एक बार गुलाम बनने को तैयार हो गए। सुना है अवैध रूप से कई कागज़ात बनाकर लोग जाने की ताक में बैठे हैं। पता नहीं हम अपनी भूमि से प्रेम करना कब सीखेंगे!

भारी मन से हम आगे बढ़े। यहाँ कुछ पुराने चर्च हैं, जहाँ रविवार के दिन प्रार्थना सभा होती है। कुछ चर्च तीन सौ वर्ष पुराने भी हैं। इन सभी जगहों पर पर्यटक घूमते दिखाई देते हैं। हम एक विशाल चर्च में घुसे। हम सनातनी धर्म के अनुयायी मंदिर हो या चर्च अपने जूते उतारकर ही भीतर प्रवेश करते हैं। हमारे लिए  देवालय चाहे किसी का भी हो पूजनीय स्थान होता है।

वहाँ बैठा प्रहरी बोला जूते पहनकर जाओ माताजी, यहाँ जूते नहीं निकालते। हम आश्चर्य चकित हुए पर फिर भी जूते उतारकर ही भीतर गए। हमारी संस्कृति किसी दूसरे धर्म के ईश्वर का अपमान करने का अधिकार नहीं देती। चर्च के भीतर कुछ पुरानी मूर्तियाँ देखने को मिलीं बाकी कुछ खास नहीं। सूली पर चढ़ी उदास ईशु की मूर्ति चुपचाप सी नज़र आई। कुछ धूलयुक्त प्लास्टिक की माला गले में पड़ी थी। वैसे फूल-माला चढ़ाने की कोई प्रथा ईसाई समुदाय में नहीं है। संभवतः यह भारत भूमि पर खड़ा गिरजाघर है तो कभी किसी न चढ़ाया होगा। किसी धर्म के पैगंबर को इस तरह देखकर मन भीतर तक उदास हो उठा पर हमारे लिए झुककर प्रणाम करने के अलावा करणीय कुछ भी न था।

आज शहर में निवासी ही नहीं तो चर्च की सटीक देखभाल भी नहीं। पर अपने समय में यह एक जीता जागता प्रार्थनागृह रहा होगा क्योंकि इसकी इमारत बहुत विशाल और भव्य है।

हम घूमते हुए समुद्र तट के पास आ पहुँचे।

इस शहर में समुद्र के किनारे एक बहुत पुराना मंदिर है। कहा जाता है यह मंदिर पांडवों के समय का बना हुआ है। उस समय यहाँ तक समुद्र का जल नहीं आता था। मंदिर गुफानुमा बना हुआ है। गुफा की दीवार पर बड़ा – सा पंचमुखी नाग बनाया हुआ है और नीचे पाँच शिवलिंग हैं। कहा जाता है कि कभी वनवास के दौरान पांडव वहाँ आए थे और पूजा किया करते थे। इसे गंगेश्वर मंदिर कहते हैं। आज समुद्र का जल न जाने कितनी ही बार उन पाँच शिवलिंगों को नहला जाता है। दोपहर को पानी जब भाटे के कारण दूर सरक जाता है तब आराम से दर्शन करना संभव होता है। हम दोपहर को पानी उतरने के बाद ही मंदिर में दर्शन करने पहुँचे। मंदिर स्वच्छ था। कई सीढ़ियाँ उतरकर हम मंदिर के पास पहुँचे जहाँ शिवलिंग बने हुए हैं। एक स्थान पर बड़े से छोटे पाँच शिवलिंगों का दर्शन आश्चर्य की ही बात थी। मूलतः हर शिव मंदिर में एक ही शिवलिंग का दर्शन होता है। यह महाभारत की कथा के अनुसार एक गवाह के रूप में दिखाई देने वाला स्थान है। हमसे पूर्व लोगों ने शिवलिंगों की पूजा की थी। वहाँ खूब सारे नारियल चढ़ावे में रखे हुए थे।

हम और आगे अब समुद्र तट की ओर निकले। पास ही एक पुराना किला बना था जो समुद्र  से होनेवाले आक्रमणों से बचने के लिए बनाया गया था। यह किला भी कुछ तीन सौ वर्ष पुराना ही था। भाटा पूरे ज़ोर पर था जिस  कारण पानी उतर चुका था और बड़े -बड़े पत्थर तथा  चट्टानें अब समुद्र के जल से ऊपर बाहर की ओर निकल आई  थीं। ऐसा लग रहा था मानो विशाल मत्स्य जल से निकलकर हवा को सूँघ रहा हो।

दोपहर का समय था पर समुद्री तट पर शीतल हवा थी। हमें ज़रा भी गर्मी का अहसास नहीं हुआ। तट से दूर समुद्र की लहरें कदमताल करती आतीं और दूर से ही लौट जातीं। उन लहरों पर जब सूरज की किरणें पड़तीं तो असंख्य लहरों के ऊपरी हिस्से यों चमकते मानो कई बड़े से नाग अपने फन पर मणि लेकर द्रुतगति से आगे बढ़ रहे हों। आँखों को एक अद्भुत सुकून का अहसास हो रहा था। हम सभी निःशब्द इस सौंदर्य को सम्मोहित – सा  होकर निहार रहे थे।

समुद्र पर सफ़ेद महीन, मुलायम कपास के समान सुकोमल  रेत फैली थी। पैर मानो उसमें धँसे जा रहे थे और उस मुलायम रेत के भीतर ठंडी रेत जब पैरों को छू रही थी तो पैरों को एक अद्भुत गुदगुदी के साथ आराम का भी अहसास हो रहा था। दोपहर का सूरज सिर पर था। रेत में बहुत ही छोटी -छोटी  सींपियाँ और शंख थे जिन्हें बड़ी संख्या में हम चुनने में व्यस्त हो गए।

एक लड़के ने पास आकर कहा, “ताल ले लो माई” हमारी तंद्रा टूटी। काले से ताल के भीतर मुलायम मीठे नारियल की गरी के समान ताल की मलाई उसने निकालकर हमें दी। मीठा, रसीला स्वादिष्ट! हमने पूछा, “कहाँ से लाया ?”

तो उसने उँगली ऊपर करके तट की ओर इशारा किया। समुद्र के तट पर दूर तक जहाँ नज़र दौड़ाते ताल के ही वृक्ष सजे हुए दिखाई दिए। इतनी देर तक हम सब लहरों को देखकर मुग्ध हो रहे थे उस बालक के कहने पर हमने सुदूर  तट की ओर रुख किया। हवा की वेग से उसके झालरदार पत्ते झूम रहे थे मानो कोई मतवाला हाथी सिर हिलाता हुआ झूम रहा हो।

देर दोपहर तक हम तट पर ही बैठे रहे। शांत वातावरण में लहरों की ध्वनि किसी गीत के धुन के समान कर्ण प्रिय लग रही थी। हम सबने वहीं बैठकर न जाने पृथ्वी के कितने ही विभिन्न समुद्र तट और अपने अनुभवों की चर्चा करते रहे। एक महिला अंगीठी पर भुट्टे भूनकर दे रही थी। हम लोगों ने दोपहर का भोजन तो किया ही न था। जो कुछ साथ लाए थे वही चबाते रहे। भुट्टे के भुनने की तीव्र गंध ने नथुनों को फुला दिया और हमारे पेट में भूख जाग उठी। बड़े -बड़े भुट्टे कोयले की आग पर  सेंके गए और उस पर नींबू और मसाला लगाकर दिया गया। हमने मानो बचपन को फिर एक बार जी लिया।

शाम होने लगी। पानी अब तट की ओर बढ़ने लगा। हमने भी प्रस्थान करना उचित समझा।

रास्ते में एक ढाबे पर गरम थेपले और इलायची अदरकवाली चाय का हमने आनंद लिया। प्रशंसनीय तो यह बात थी कि उस ढाबे को चलानेवाली और काम करनेवाली सभी महिलाएँ ही थीं। साथ में यह संदेश भी मिला कि वहाँ महिलाओं के लिए कोई डरवाली बात नहीं होती है। वे स्वाधीनता से अपना जीवन जीती हैं। वे सब बहुत सुरक्षित महसूस करती हैं। वाह! रे मेरे गुजरात !

क्रमशः… 

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 24 – गुजरात की सुखद यात्रा – भाग – 1☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – गुजरात की सुखद यात्रा)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 24 – गुजरात की सुखद यात्रा – भाग – 1 ?

(13 फरवरी 2020)

भ्रमण मेरा शौक़ है। इस बार हमने सोचा कि अपने देश के उन क्षेत्रों का दौरा किया जाए जो हमारे इतिहास और पुराणों में वर्णित हैं।

इस वर्ष हमने चुना गुजरात।

हम पुणे से सोमनाथ के लिए रवाना हुए। पुणे से सोमनाथ जाने के लिए सोमनाथ नामक कोई स्टेशन नहीं है। इसके लिए आपको वेरावल नामक स्टेशन पर उतरना होगा। पुणे से वेरावल तक रेलगाड़ी की सुविधाजनक व्यवस्था उपलब्ध है। विरावल से सोमनाथ का मंदिर सात किलोमीटर की दूरी पर है। हम पुणे से शाम को रवाना हुए और दूसरे दिन देर दोपहर को हम वेरावल पहुँचे।

गुजरात जानेवाली रेलगाड़ियों में केटरिंग की कोई व्यवस्था नहीं होती है। यह मेरा अनुभव रहा इसलिए हम पर्याप्त भोजन सामग्री साथ लेकर ही चले थे।

होटल पहुँचकर नहा धोकर हम मंदिर का दर्शन करना चाहते थे।

हमने शाम को ही सोमनाथ मंदिर का दर्शन किया। इसे प्रथम ज्योर्तिलिंग मंदिर माना जाता है। सुंदर, साफ़ – सुथरा विशाल परिसर जो समुद्र के तट पर ही स्थापित है। हमें संध्या के समय आरती में शामिल होने का अवसर मिला। मंदिर में स्त्री पुरुषों की कतारें अलग कर दी जाती है। मंदिर के गर्भ गृह का सौंदर्य देखते ही बनता है। आज अधिकांश हिस्सा चाँदी का बनाया हुआ है, पहले यही सब सोने से मढ़ा रहता था। आरती में उपस्थित रहकर मन प्रसन्न हुआ।

यह फरवरी का महीना था। डूबते सूरज की किरणों से मंदिर का कलश स्वर्णिम सा चमक रहा था। धीरे धीरे अस्ताचल भानु के साथ कलश का रंग मानो बदलने लगा। कुछ समय बाद केवल कलश पर ही सूर्य की किरणें पड़ने लगीं। उस दृश्य को देखकर ऐसा प्रतीत हुआ जैसे कोई भक्त प्रभु की वंदना करके बिना पीछे मुड़े धीरे -धीरे प्रभु की ओर ताकते हुए मंदिर से विदा ले रहा हो। समुद्र जल में सूर्य विलीन हो गया। आसमान अचानक लाल-सुनहरी छटाओं से पट गया मानो शिवजी के सुंदर विस्तृत तन पर पारदर्शी सुनहरी ओढ़नी डाल दी गई हो। आकाश को देख मन मुग्ध हो उठा।

समुद्र की लहरें दौड़ -दौड़ कर मंदिर की दीवारों को ऐसे छूने आतीं मानो छोटा बच्चा माँ की गोद में चढ़ने के लिए मचल रहा हो और जब माँ उसे पकड़ना चाह रही हो तो नटखट फिर भाग रहा हो। साथ ही ठंडी हवा तन -मन को शीतल कर रही थी। समस्त परिसर में सुगंध प्रसरित थी।

शाम को सूर्यास्त के बाद लाइट एंड साउंड कार्यक्रम का हमने आनंद लिया। उसके विशाल इतिहास की जानकारी फिर एक बार ताज़ी हो गई। इस विशाल और आकर्षक मंदिर की रचना सबसे पहले किसने की थी इसके बारे में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है परंतु ऋग्वेद में इसके तब भी होने का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है आज से कुछ 3500 वर्ष पूर्व चंद्रदेव सोमराज ने इस मंदिर की संरचना की थी।

जिस मंदिर की संपदा को एक ही विदेशी ताक़त ने सत्रह बार लूटा, वहाँ कितनी संपदा रही होगी जिसे वे लूटने बार -बार आए होंगे?

मेरे मन में सवाल उठता है कि इतना वैभवशाली राज्य ने एक-दो आक्रमण के बाद भी सुरक्षा बल तैनात रखने की आवश्यकता महसूस न की ? हमने क्या तब भी अपनी सुरक्षा की बात न सोची? क्या हम भारतीयों में सच में एकता का अभाव था जो विदेशी आ – आकर हमें लूटते रहे? हम देश के नागरिक इतने बेपरवाह से बर्ताव क्यों करते रहे !!

मंदिर कई बार ध्वस्त किया गया, हिंदुओं की मूर्त्ति पूजा का विरोध यहाँ राज करनेवाले हर मुगल ने किया। आखरी बार औरंगजेब ने इसे बुरी तरह से ध्वस्त किया। हिंदू राजाओं ने बार – बार मंदिर का निर्माण भी किया। आज मंदिर पहले की तरह स्वर्ण से भले ही मढ़ा न हो पर उसकी भव्यता और सौंदर्य को बनाए रखने का भरसक प्रयास किया गया है।

आज हम जिस मंदिर का दर्शन करते हैं उसे सन 1950 में भारत के गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने दोबारा बनवाया था। पहली दिसंबर 1995 को भारत के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने इसे राष्ट्र को समर्पित कर दिया।

आज यहाँ भारी सुरक्षा की व्यवस्था है जो गुजरात सरकार के मातहत है। फोटो खींचने तक की सख्त मनाही है। मोबाइल, कैमरा आदि जमा कर देने पड़ते हैं। काफी दूर तक चलने के बाद मंदिर का परिसर प्रारंभ होता है। मंदिर के बाहर मेन रोड है आज, शायद कभी वहाँ बाज़ार हुआ करता था।

यह वेरावल शहर समुद्रतट पर बसा होने के कारण शहर में घुसते ही हवा में मछली की तीव्र बू आती है। यहाँ भारी मात्रा में मछली पकड़ने का व्यापार किया जाता है। पचास प्रतिशत लोग मुसलमान हैं जो मछली पकड़ने का ही व्यापार करते हैं। यहाँ नाव बनाने और उनकी मरम्मत करने के कई कारखाने हैं। मूल रूप से लोग समुद्र से जुड़े हुए हैं।

यहाँ के लोग मृदुभाषी हैं। सभी गुजराती और हिंदी बोलते हैं। सभी एक दूसरे की मदद के लिए तत्पर रहते हैं। दो धर्मों के बीच मतभेद कहीं न दिखाई दिया जो आमतौर पर टीवी पर टीआरपी बढ़ाने के लिए दिखाए जाते हैं। लोग मिलनसार हैं और सहायता के लिए तत्पर भी। आनंद आया सोमनाथ का दर्शन कर और वेरावल के निवासियों का स्नेहपूर्ण व्यवहार पाकर।

क्रमशः…

© सुश्री ऋता सिंह

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