हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 23 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग -6 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – भूटान की अद्भुत यात्रा)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 23 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग – 6 ?

(30 मार्च 2024)

सुबह भर पेट नाश्ता कर हम फुन्टोशोलिंग के लिए रवाना हुए। मौसम बहुत अच्छा था। रास्ते में पेमा हमारे प्रश्नों का उत्तर देता रहा और भूटान की अन्य जानकारी भी। शिक्षकों की आदत होती है सवाल पूछने की और हमारे सवालों का उत्तर देने के लिए तत्पर था पेमा।

भूटान भारत के बीच का संबंध बहुत पुराना और अच्छा रहा है। हम जब थिम्फू होते हुए गुज़र रहे थे तो हमें एक विशाल अस्पताल दिखाया गया। हाल ही में जब मोदी जी भूटान आए थे तो बच्चों के लिए इस उत्तम अस्पताल का उद्घाटन अपने हाथों से करके गए थे।

इस अस्पताल का एक हिस्सा 2019 में बनाया गया और दूसरा हिस्सा 2023 में पूरा हुआ। यह सारी व्यवस्था भारत के एक्सटर्नल मिनिस्ट्री द्वारा की गई। यह भारत की ओर से सहायता थी।

पेमा ने बताया कि इससे पहले भी भारत ने बड़ी मात्रा में भूटान को औषधीय सहायता प्रदान की है और यह मोदी जी के कार्यकाल से ही अधिक बढ़ा है। मन प्रसन्न हुआ कि मेरा देश पड़ोसी देशों के लिए भी फिक्रमंद है।

भारत से कई वस्तुओं का भूटान में व्यापार होता है। खासकर रोज़ाना लगनेवाली वस्तुएँ जैसे नमक, हल्दी, चायपत्ती, शक्कर गुड़ तथा अन्य भोजन सामग्री। मछली भी बड़ी मात्रा में भेजी जाती है। दवाइयाँ सब यहीं से जाती हैं।

पेमा ने हमें अपना राष्ट्रगान सुनाया और कुछ फिल्मी गीत भी सुनाए। उसका स्वर भी बहुत मधुर है। सात दिन हम साथ घूमते- फिरते परिवार जैसे हो गए।

थिम्फू से उतरते समय पहाड़ी पर हमने मिट्टी से बनी छोटी -छोटी हाँडीनुमा आकृतियाँ देखीं जो ऊपर के हिस्से में पिरामिड जैसी बनी हुई थीं। बड़ी संख्या में पहाड़ों के निचले हिस्से में ये हँडियाँ रखी हुई दिखीं। पूछने पर पेमा ने बताया कि प्रत्येक हाँडी में मंत्र लिखे हुए हैं। किसी के घर में कोई बीमार हो या शैयाग्रस्त हो या मरणासन्न हो या मृत हो ऐसे समय पर घर से दूर वीरान स्थान पर ये हँडियाँ रखी जाती हैं। मृत आत्मा की शांति की प्रार्थना उसमें डाली जाती है। बीमार लोगों को रोगमुक्त करने की प्रार्थना लिखी रहती है। इन हाँडियों को थथा कहा जाता है।

लोगों का विश्वास है कि प्रकृति ही सबकी देखभाल करती है। प्रकृति की ही गोद में जब प्रार्थनाओं से पूरित हँडियाँ सील करके रखी जाती हैं तो प्रकृति सबका ध्यान रखती है। प्रणाम है ऐसी आस्था को जो प्रकृति के प्रति इतनी समर्पित है। महान हैं वे लोग जो सच में प्रकृति को जीवित मानते हैं। उसकी शक्ति को पहचानते हैं और उसमें विश्वास रखते हैं। प्रकृति भूटानियों के प्रतिदिन के जीवन में अत्यंत घनिष्ठता से जुड़ी हुई है और शायद इसीलिए यहाँ असंख्य वृक्ष स्वच्छंद से श्वास लेते हैं।

थिप्फू दस हज़ार फुट की ऊँचाई पर स्थित है। यह पहाड़ी इलाका है। यहाँ लाल रंग के खिले हुए खूब सारे वृक्ष दिखाई दिए। छोटे -बड़े वृक्ष लाल फूलों से लदे हुए हैं। इन्हें रोडोड्रॉनड्रॉन कहा जाता है। ये फूल दस हज़ार फीट की ऊँचाई पर ही खिलते हैं। अब हम धीरे -धीरे नीचे उतरने लगे। फिर लौटकर गा मे गा नामक होटल में लौटकर आए। एक रात यहाँ रुककर हम अगले दिन 31 तारीख को सुबह बागडोगरा के लिए रवाना हुए। 30 तारीख शाम को ही हमें भूटान के इमीग्रेशन ऑफिस जाकर अपने पेपर जमा करने पड़े। पेमा और साँगे का साथ यहीं तक था।

हम सुखद स्मृतियों के साथ, पड़ोसी देश की अद्भुत जानकारियों के साथ अपने घर लौट आए।

© सुश्री ऋता सिंह

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ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 22 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग -5 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – भूटान की अद्भुत यात्रा)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 22 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग – 5 ?

(29 मार्च 2024)

पारो शहर की यात्रा आनंददायी रही। मौसम भी साथ दे रहा था। आसमान में हल्के बादल तो थे पर वर्षा के होने की कोई संभावना न थी। आज हम विश्व विख्यात ताकत्संग या टाइगर नेस्ट देखने के लिए निकले। यह इस देश की सबसे पुरानी मोनैस्ट्री है। तथा पारो शहर का सबसे बड़ा आकर्षण केंद्र भी।

यह मोनेस्ट्री पारो घाटी से 3, 000 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। नीचे से ही यह अत्यंत आकर्षक और मोहक दिखाई देती है। यह विशाल इमारत लाल और सफ़ेद रंग से पुती हुई है। एक खड़ी चट्टान पर इतनी बड़ी मोनैस्ट्री कैसे बनाई गई यह एक आश्चर्य करनेवाली बात है।

यात्रियों ने तथा गाइड ने हमें बताया कि ऊपर जाने के लिए कोई पक्की सड़क नहीं है बल्कि पत्थर काटकर रास्ता बनाया गया है। आने -जाने में छह से सात घंटे लगते हैं। यात्री घोड़े पर सवार होकर भी वहाँ जा सकते हैं। हम कुछ दूर तक चलकर गए परंतु ऊपर तक जाने की हमने हिम्मत नहीं की। बताते चलें कि यहाँ जाने के लिए प्रतिव्यक्ति प्रवेश शुल्क ₹1500 /- है। मौसम सही हो और मार्च अप्रैल का महीना हो तो तकरीबन सौ से दोसौ लोग प्रतिदिन दर्शन करने जाते हैं। सबसे आनंद की बात है कि यह बौद्ध धर्मस्थल है और आनेवाले सभी पर्यटक बौद्धधर्म का सम्मान करते हैं।

हम वहीं एक चट्टान पर बैठ गए और पेमा ने हमें तकत्संग की स्थापना और महत्त्व की जानकारी दी।

यह एक मठ है जिसे मोनैस्ट्री ही मूल रूप से कहा जाता है। यहाँ आज भी बड़ी संख्या में बौद्ध भिक्षुक रहते हैं। पूजा की विधि का पालन नियमित होता है। शाम को पाँच बजे के बाद यात्रियों को ऊपर रुकने नहीं दिया जाता है।

इसे टाइगर नेस्ट या मठ भी कहा जाता है। इस बड़ी इमारत का निर्माण 17वीं शताब्दी के अंत में चट्टान में बनी एक गुफा के स्थान पर किया गया था। यद्यपि इसे अंग्रेज़ी में टाइगर नेस्ट कहते हैं, लेकिन तकत्संग का सटीक अनुवाद “बाघिन की माँद” है और इसका नाम इसके पीछे जो किंवदंती है उसके साथ मिलता जुलता भी है।

कहा जाता है कि 8वीं शताब्दी में किसी रानी ने बाघिन का रूप धरा था और तिब्बत से पद्मसंभव को पीठ पर बिठाकर यहाँ की गुफा में लेकर आई थी। पुरातन काल में काला जादू का प्रभाव इन सभी स्थानों में था। यही कारण है कि इसे बाघिन की माँद नाम दिया गया है। सत्यता का तो पता नहीं पर पुरानी गुफा तो है जहाँ आज भी मठाधीश ध्यान करते हैं। मुझे यह कथा सुनकर माता वैष्णों देवी के मंदिर का स्मरण हो आया। यह मंदिर भी पहाड़ी के ऊपर स्थित है और चौदह कि.मी ऊपर चढ़ने पर मंदिर में तीन छोटे -छोटे पिंड के रूप में माता विराजमान हैं। यहाँ भी एक किंवदंती है।

तकत्संग मठ की इमारतों में चार मुख्य मंदिर हैं। यहाँ आवासीय आश्रम भी है। पहले जो गुफा थी उसी के इर्द -गिर्द की चट्टानों पर अनुकूल इमारत बनाई गई है। आठ गुफाओं में से चार तक पहुँचना तुलनात्मक रूप से आसान है। वह गुफा जहाँ पद्मसंभव ने बाघ की सवारी करते हुए पहली बार प्रवेश किया था, उसे थोलू फुक के नाम से जाना जाता है और मूल गुफा जहाँ उन्होंने निवास किया था और ध्यान किया था उसे पेल फुक के नाम से जाना जाता है। उन्होंने आध्यात्मिक रूप से प्रबुद्ध भिक्षुओं को यहाँ मठ बनाने का निर्देश दिया।

मुख्य गुफा में एक संकीर्ण मार्ग से प्रवेश किया जाता है। अँधेरी गुफा में बोधिसत्वों की एक दर्जन छवियाँ हैं और इन मूर्तियों के सामने मक्खन के दीपक जलाए जाते हैं। यह भी कहा जाता है कि इस गुफा मठ में वज्रयान बौद्ध धर्म का पालन करने वाले भिक्षु तीन साल तक यहीं रहते हैं और कभी पारो घाटी में उतरकर नहीं जाते।

यहाँ की सभी इमारतें चट्टानों में बनी सीढ़ियों के ज़रिए आपस में जुड़ी हुई हैं। रास्तों और सीढ़ियों के साथ-साथ कुछ जर्जर लकड़ी के पुल भी हैं, जिन्हें पार किया जा सकता है। सबसे ऊँचे स्तर पर स्थित मंदिर में बुद्ध की एक प्रतिमा है। प्रत्येक इमारत में एक झूलती हुई बालकनी है, जहाँ से नीचे की ओर सुंदर पारो घाटी का दृश्य दिखाई देता है। यहाँ तक पहुँचने के लिए और लौटने के लिए 1800 सीढ़ियाँ चढ़ने और उतरने की आवश्यकता होती है।

पेमा से सारी विस्तृत जानकारी हासिल कर हम लोग लौटने की तैयारी करने लगे तो रास्ते में ढेर सारे घोड़े बँधे हुए दिखे। यहाँ के घोड़ों की पीठ पर थोड़े लंबे लंबे बाल होते हैं और ऊँचाई में भी वे कम होते हैं।

कुछ दूरी पर अनेक कुत्ते दिखे। आश्चर्य की बात यह थी कि सभी कुत्ते काले रंग के ही थे। भूटान में जहाँ – तहाँ ये काले कुत्ते दिखाई देते हैं जो ठंडी के कारण सुस्ताते रहते हैं। हमने पास की दुकान से ढेर सारे पार्लेजी बिस्कुट खरीदकर कुत्तों को खिलाया और उन्हें प्यार किया। ये सरल जीव पूँछ हिलाते हुए हमें अलविदा कहने गाड़ी तक आए। हृदय भीतर तक पसीज गया। थोड़े से बिस्कुटों और स्पर्श ने उनके भीतर की सरल आत्मा के स्वामीभक्ति वाला भाव अभिव्यक्त कर दिया।

आगे हम पारो किचू मंदिर के दर्शन के लिए गए। यह भूटान का सबसे पुराना मंदिर है। इस मंदिर को 7वीं सदी में तिब्बत के राजा साँग्तेसन गैम्पो ने बनवाया था। वह तिब्बत का 33वाँ राजा था जिसने लंबे समय तक राज्य भी किया था। इस राजा ने भू सीमा की रक्षा हेतु 108 मंदिर बनवाए थे। यह उनमें से एक है। कहा जाता है कि राक्षसों के निरंतर उत्पातों से बचने के लिए ये 108 मंदिरों की स्थापना की गई थी। मंदिर का परिसर स्वच्छ है तथा भक्त गण दर्शन करने आते रहते हैं। इस मंदिर के साथ एक छोटा सा संग्रहालय तथा पुस्तकालय भी है। बाहर सुंदर फूलों के पेड़ लगे हुए हैं।

यहाँ से निकलकर हम भूटान नैशनल म्यूज़ियम देखने गए। यह बाहर से तो दो मंजिली इमारत है परंतु भीतर प्रवेश करने पर भीतर यह पाँच मंज़िली इमारत है। एक – एक मंज़िल की दीवारों पर पुराने समय से उपयोग में लाए जानेवाले अस्त्र -शस्त्र सजे हुए हैं। भूटानी भाषा में वहाँ का इतिहास लिखा हुआ है। जो हम पढ़ न सके पर यह जानकारी मिली कि तिब्बत और भूटान के बीच नियमित युद्ध हुआ करते थे। भूटान के वर्तमान राजा पाँचवी पीढ़ी है जिनके पूर्वजों ने संपूर्ण भूटान को एक छ्त्र छाया में इकत्रित करने का काम किया था। भूटान स्वतंत्र राज्य था और अब भी है। आज वाँगचुक परिवार राज्य करता है।

इस संग्रहालय में आम पहने जाने वाले भूटानी वस्त्र, योद्धाओं के वस्त्र, मुद्राएँ, अलंकार, बर्तन आदि रखे गए हैं। यह एक संरक्षण के लिए बनाया गया किला था जो अब संग्रहालय में परिवर्तित है। हम मूल रूप से पाँचवीं मंजिल से उतरने लगे, प्रत्येक मंजिल में दर्शन करते हुए निचली मंजिल पर उतरे और उसी सड़क से गाड़ी की ओर बढ़े। पहाड़ी इलाकों में रास्ते के साथवाली ज़मीन पर बननेवाली मंज़िल सबसे ऊपर की मंज़िल होती है। उसके बाद पहाड़ काटकर नीचे की ओर इमारत बनाई जाती है।

आज शाम पाँच बजे ही हम होटल में लौट आए क्योंकि अगली सुबह हमें लंबी यात्रा करनी थी।

क्रमशः

© सुश्री ऋता सिंह

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 21 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग -4 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – भूटान की अद्भुत यात्रा)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 21 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग – 4 ?

(28 मार्च 2024)

आज हम पारो पहुँचे थे। पहाड़ी के ऊपर स्थित एक भव्य तथा सुंदर होटल में हमारे रहने की व्यवस्था थी। होटल के कमरे से बहुत सुंदर मनोरम दृश्य दिखाई देता था। नीचे नदी बहती दिखाई दे रही थी।

पारो पहुँचने से पूर्व हमने पारो एयर पोर्ट का दर्शन किया। ऊपर सड़क के किनारे खड़े होकर नीचे स्थित हवाई अड्डा स्पष्ट दिखाई देता है। यह बहुत छोटा हवाई अड्डा है। भूटान के पास दो हवाई जहाज़ हैं। यहाँ आनेवाले विदेशी पर्यटक दिल्ली होकर आते हैं क्योंकि भूटान एयर लाइन दिल्ली और मुम्बई से उड़ान भरती है। इस हवाई अड्डे पर दिन में एक या दो ही विमान आते हैं क्योंकि छोटी जगह होने के कारण रन वे भी अधिक नहीं हैं। साफ़ -सुथरा हवाई अड्डा। दूर से और ऊपर से देखने पर खिलौनों का घर जैसा दिखता है।

दोपहर का भोजन हमने एक भारतीय रेस्तराँ में लिया जहाँ केवल निरामिष भोजन ही परोसा जाता है। पेमा और साँगे के लिए अलग व्यवस्था दी गई और उन्हें लाल भात और मशरूम करी और दाल परोसी गई। पेमा ने बताया कि अपने साथ घूमने वाले पर्यटकों को जब वे ऐसे बड़े रेस्तराँ में लेकर आते हैं तो उन्हें कॉम्प्लीमेन्ट्री के रूप में (निःशुल्क) भोजन परोसा जाता है। पर यह भोजन फिक्स्ड होता है। अपनी पसंदीदा मेन्यू वे नहीं ले सकते। पर यह भी एक सेवा ही है। वरना आज के ज़माने में मुफ़्त में खाना कौन खिलाता है भला!

रेस्तराँ से निकलते -निकलते दो बज गए। हमारी सहेलियाँ वहाँ के लाल चावल और कुछ मसाले खरीदना चाहती थीं तो हम उनके लोकल मार्केट में गए। वहाँ कई प्रकार की स्थानीय सब्ज़ियाँ देखने को मिलीं जो हमारे यहाँ उत्पन्न नहीं होतीं। कई प्रकार की जड़ी बूटियाँ दिखीं जिसे वे सूप पकाते समय डालते हैं जिससे वह पौष्टिक बन जाता है।

कुछ मसाले और चावल खरीदकर अब हम एक ऐसी जगह गए जहाँ सड़क के किनारे कई दुकानें लगी हुई थीं। इन में पर्यटकों की भीड़ थी क्योंकि वे सोवेनियर की दुकानें हैं। वहाँ महिलाएँ ही दुकानें चलाती हैं। हर दुकान के भीतर सिलाई मशीन रखी हुई दिखी। महिलाएँ फुरसत मिलते ही बुनाई, कढ़ाई, सिलाई का काम जारी रखती हैं। कई प्रकार के छोटे पर्स, थैले, पेंसिल बॉक्स, शॉल आदि बनाती रहती हैं। कुछ महिलाओं के साथ स्कूल से लौटे बच्चे भी थे। शाम को सात बजे सभी दुकानें बंद कर दी जाती हैं। खास बात यह है कि सभी महिलाएँ व्यवहार कुशल हैं और हिंदी बोलती हैं। हमें उनके साथ बात करने में आनंद आया। कुछ उपहार की वस्तुँ खरीदकर गाड़ी में बैठने आए। इस बाज़ार की एक और विशेषता देखने को मिली कि यहाँ गाड़ियाँ नहीं चलती। सभी खरीददार बिना किसी तनाव या दुर्घटना के भय से आराम से हर दुकान के सामने खड़े होकर वस्तुएँ देख, परख, पसंद कर सकते हैं। दुकानों और मुख्य सड़क के बीच कमर तक दीवार बनाई गई है। ग्राहकों के चलने के लिए खुला फुटपाथ है। ऐसी व्यवस्था हमें गैंगटॉक और लेह में भी देखने को मिली थी। इससे पर्यटकों को भीड़ का सामना नहीं करना पड़ता है।

अब तक पाँच बज चुके थे। पेमा ने हमें पूरे शहर का एक चक्कर लगाया और हम होटल लौट आए।

पारो शहर स्वच्छ सुंदर है। खुली चौड़ी सड़कें, विद्यालय से लौटते बड़े बच्चे जगह -जगह पर खड़े होकर हँसते -बोलते दिखे। पहाड़ी इलका और प्रकृति के सान्निध्य में रहनेवाले ये खुशमिजाज़ बच्चे हमारे मन को भी आनंदित कर गए। हम होटल लौट आए। चाय पीकर हम तीनों फिर ताश खेलने बैठे।

© सुश्री ऋता सिंह

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 20 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग -3 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – भूटान की अद्भुत यात्रा)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 20 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग – 3 ?

27 मार्च 2024

हम लोग सुबह ही 9 बजे दोचूला पास देखने के लिए रवाना हुए। यहाँ एक पहाड़ी के ऊपर 108 स्तूप बने हुए हैं। यहाँ काफी सर्द हवा चल रही थी। यह एक खूबसूरत स्थान है। यहाँ 2003 में जो मिलीटरी ऑपरेशन हुए थे उन भूटानी शहीद सैनिकों की स्मृति में ये स्तूप बनाए गए हैं। इसे द्रुक वाँग्याल चोर्टेन्स कहा जाता है। ऊपर से दृश्य अद्भुत सुंदर है। मेघ ऐसे उतर आते हैं मानो वे स्तूपों के साथ उनका अनुभव साझा करना चाहते हैं। हमने यहाँ खूब सारी तस्वीरें खींची। स्वच्छ और नीले आकाश से बादलों के टुकड़े बीच- बीच से झाँकते रहे। चारों ओर पहाड़ों पर हरियाली थी। मेघ के टुकड़े रूप बदलते हुए सरक रहे थे। देखकर ऐसा लग रहा था कि हम उन्हें अपने हाथों में भर लें। हवा सर्द थी। घंटे भर बाद हम वहाँ से नीचे उतर आए और हमारे दूसरे दर्शनीय स्थान की ओर बढ़े।

यह था फर्टीलिटी टेम्पल। यह गोलाकार ऊँची बड़े भूखंड पर बना एक मंदिर है। इसे चिमी लाख्यांग टेम्पल कहते हैं। मंदिर में शिश्न की बड़ी आकृति रखी रहती है जिसे फुलाका कहा जाता है। भूटान के लोगों का विश्वास है कि इस मंदिर में पूजा करने पर संतान की प्राप्ति होती है। संतान की स्त्री अपने हाथ में फुलाका पकड़कर तीन बार प्रदक्षिणा करती है। संतान प्राप्ति के पश्चात नवजात के नामकरण के लिए सपरिवार इस मंदिर में दर्शन करने आता है। यह चौदहवीं शताब्दी में बनाया गया मंदिर है। वास्तव में देखा जाए तो भारत के कई राज्य में भी संतान प्राप्ति हेतु माता के मंदिर हैं। अंतर इतना ही है कि भूटान में फुलाका का महत्त्व है। हमारे यहाँ माता शक्तिरूपा है इसलिए माता की पूजा होती है। थाइलैंड में एक विशाल शिवलिंग बना हुआ है जिसकी पूजा वहाँ के निवासी संतान के जन्म की अभिलाषा से करते हैं। स्मरण करा दें कि थाईलैअंड भी बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं।

मंदिर में दर्शन लेकर हम अब पुनाखा द्ज़ॉंग देखने के लिए निकले। यह एक महल है। पत्थर और नक्काशीदार लकड़ियों से बनी इमारत है। सन 1637-38 में ज़ाब्दरंग नाग्वांग नामग्याल इसी राजा ने भूटान की स्थापना की थी। इससे पूर्व यह सारा देश छोटे -छोटे कबीलो में बँटा हुआ था।

भूटान में दो नदियाँ बहती हैं जिनका नाम है फो चू और मो चू ये दोनों नदियाँ पिता और माता के रूप में मानी जाती हैं। यह इमारत इन्हीं दो नदियों के संगम स्थान पर बनी हुई है।

राजा का विश्वास था कि पुरुष और स्त्री दोनों के सहयोग से परिवार, समाज और राज्य बनता है साथ ही दोनों मिलकर ही ऊर्जा देते हैं ठीक इन नदियों की तरह। ये दोनों नदियाँ लंबी यात्रा करती हैं और यथेष्ट पानी से नदियाँ भरी रहती हैं।

द्ज़ॉंग इमारत धार्मिक तथा शासकीय व्यवस्थाएँ चलाने के उद्देश्य से सन 1950 तक काफ़ी कार्यशील रही। यहाँ कई प्रकार के धार्मिक कार्यक्रम होते रहे। साथ ही भूटान के राजा उज्ञेन वाँगचुक का राजतिलक भी यहीं पर हुआ था। यहीं से वाँगचुक परिवार राजा बनते आ रहे हैं और आज यहाँ पाँचवे वर्तमान राजा जिग्मे खेसर नामग्याल वांगचुक हैं। उनकी पत्नी जेत्सुन पेमा वांगचुक रानी हैं। संसार के सबसे जवान और कम उम्र में बने राजा हैं जिग्मे।

इस विशाल इमारत में आज भी कई धार्मिक उत्सव मनाए जाते हैं। इसका विशाल परिसर, स्वच्छ और सुंदर आँगन, बड़ी सी इमारत न केवल स्थानीय लोगों को आकर्षित करती है बल्कि पर्यटकों को यह सब कुछ बहुत ही सुंदर और शांति प्रदान करने वाली जगह प्रतीत होती है।

इस इमारत से थोड़ी दूरी पर श्मशान भूमि है क्योंकि यहाँ नीचे नदी बहती है। फिर एक कच्ची और उबड़-खाबड़ रास्ते से हम ससपेन्शन ब्रिज देखने पहुँचे।

यह ब्रिज थाँगटॉन्ग ग्याल्पो ने बनया था। इस ससपेन्शन ब्रिज की कई बार मरम्मत भी की गई है। इसे पुनाखा डोज़ॉन्ग से उस पार के अन्य गाँवों से जोड़ने के लिए बनाया गया था। यह ब्रिज 180 मीटर लंबा है। यह फो चू नदी पर बनाया हुआ है। इस पर चलते समय थोड़ा डर अवश्य प्रतीत होता है क्योंकि यह लोहे से बना पुल केवल इस पार से उस पार तक झूल रहा है। बीच में कोई आधार नहीं है। हवा चलने पर पुल हमारे भार से लहराने लगता है। पुल के दोनों ओर असंख्य प्रार्थना पताकाएँ बाँधी हुई हैं। यह स्थानीय लोगों की आस्था का प्रतीक भी है। देर शाम तक घूमने के बाद हम अपने होटल में लौट आए। हमारा दिन आनंदमय और जानकारियों से परिपूर्ण रहा।

28/3/24

आज हम पारो पहुँचे। पहाड़ी के ऊपर स्थित एक भव्य तथा सुंदर होटल में हमारे रहने की व्यवस्था थी। होटल के कमरे से बहुत सुंदर मनोरम दृश्य दिखाई दे रहा था। नीचे नदी बहती दिखाई दे रही थी।

पारो पहुँचने से पूर्व हमने पारो एयर पोर्ट का दर्शन किया। ऊपर सड़क के किनारे खड़े होकर नीचे स्थित हवाई अड्डा स्पष्ट दिखाई देता है। यह बहुत छोटा हवाई अड्डा है। भूटान के पास दो हवाई जहाज़ हैं। यहाँ आनेवाले विदेशी पर्यटक दिल्ली होकर आते हैं क्योंकि भूटान एयर लाइन दिल्ली और मुम्बई से उड़ान भरती है। कई बार भारतीय विमान के साथ भी व्यवस्था रहती है। इस हवाई अड्डे पर दिन में एक या दो ही विमान आते हैं क्योंकि छोटी जगह होने के कारण रन वे भी अधिक नहीं हैं। साफ़ -सुथरा हवाई अड्डा। दूर से और ऊपर से देखने पर खिलौनों का घर जैसा दिखता है।

दोपहर का भोजन हमने एक भारतीय रेस्तराँ में लिया जहाँ केवल निरामिष भोजन ही परोसा जाता है। पेमा और साँगे के लिए अलग व्यवस्था की गई थी और उन्हें अलग टेबल पर बिठाया गया था। वहीं पर उन दोनों को अपने परिचित कुछ चालक और गाइड भी मिले। भोजन के पश्चात पेमा ने बताया कि उन्हें लाल भात, मशरूम करी और दाल परोसी गई। पेमा ने बताया कि अपने साथ घूमने वाले पर्यटकों को जब वे ऐसे बड़े रेस्तराँ में लेकर आते हैं तो उन्हें कॉम्प्लीमेन्ट्री के रूप में (निःशुल्क ) भोजन परोसा जाता है। पर यह भोजन फिक्स्ड होता है। अपनी पसंदीदा मेन्यू वे नहीं ले सकते। पर यह भी एक सेवा ही है। वरना आज के ज़माने में मुफ़्त में खाना कौन खिलाता है भला! वहाँ आनेवाले हर ड्राइवर और गाइड को भरपेट भोजन दिया जाता है। यहाँ बता दें कि भूटानी तेज़ मिर्चीदार भोजन पसंद करते हैं।

रेस्तराँ से निकलते -निकलते दो बज गए। हमारी सहेलियाँ वहाँ के लाल चावल और कुछ मसाले खरीदना चाहती थीं तो हम उनके लोकल मार्केट में गए। वहाँ कई प्रकार की स्थानीय सब्ज़ियाँ देखने को मिलीं जो हमारे यहाँ उत्पन्न नहीं होतीं। कई प्रकार की जड़ी बूटियाँ दिखीं जिसे वे सूप पकाते समय डालते हैं जिससे वह और अधिक पौष्टिक बन जाता है।

कुछ मसाले और चावल खरीदकर अब हम एक ऐसी जगह गए जहाँ सड़क के किनारे कई दुकानें लगी हुई थीं। इन में पर्यटकों की भीड़ थी क्योंकि वे सोवेनियर की दुकानें थीं।

यहाँ महिलाएँ ही दुकानें चलाती हैं। हर दुकान के भीतर सिलाई मशीन रखी हुई दिखी। महिलाएँ फुरसत मिलते ही बुनाई, कढ़ाई, सिलाई का काम जारी रखती हैं। कई प्रकार के छोटे पर्स, थैले, पेंसिल बॉक्स, शॉल आदि बनाती रहती हैं। कुछ महिलाओं के साथ स्कूल से लौटे छोटे बच्चे भी थे। शाम को सात बजे सभी दुकानें बंद कर दी जाती हैं। खास बात यह है कि सभी महिलाएँ व्यवहार कुशल हैं और हिंदी बोलती हैं। हमें उनके साथ बात करने में आनंद आया। कुछ उपहार की वस्तुएँ खरीदकर गाड़ी में बैठने आए तो गाड़ी काफी दूर लगी हुई थी।

इसबाज़ार की एक और विशेषता देखने को मिली कि दुकानी वाले अहाते में यहाँ गाड़ियाँ नहीं चलतीं। सभी खरीददार बिना किसी तनाव या दुर्घटना के भय से दूर रहकर आराम से हर दुकान के सामने खड़े होकर वस्तुएँ देख, परख, पसंद कर सकते हैं। दुकानों और मुख्य सड़क के बीच कमर तक दीवार बनाई गई है। ग्राहकों के चलने के लिए फुटपाथ है। ऐसी व्यवस्था हमें गैंगटॉक और लेह में भी देखने को मिली थी। इससे पर्यटकों को भीड़ का सामना नहीं करना पड़ता है। अब तक पाँच बज चुके थे। पेमा ने हमें पूरे शहर का एक चक्कर लगाया और हम होटल लौट आए।

पारो शहर स्वच्छ सुंदर है। खुली चौड़ी सड़कें, विद्यालय से लौटते बड़े बच्चे जगह -जगह पर खड़े होकर हँसते -बोलते दिखे। पहाड़ी इलका और प्रकृति के सान्निध्य में रहनेवाले ये खुशमिजाज़ बच्चे हमारे मन को भी आनंदित कर गए।

स्थान -स्थान पर चेरी के और आलूबुखारा के फूलों से लदे वृक्ष दिखे। ये गुलाबी रंग के सुंदर फूल होते हैं। दृश्य अत्यंत मनोरम रहा। कहीं कहीं छोटे बगीचे भी बने हुए दिखाई दिए।

हम होटल लौट आए। चाय पीकर हम तीनों फिर ताश खेलने बैठीं।

क्रमशः… 

© सुश्री ऋता सिंह

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ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 19 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग -2 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – भूटान की अद्भुत यात्रा)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 19 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग – 2 ?

(26 मार्च 2024)

सुबह 9 बजे आज से थिंप्फू की  हमारी यात्रा प्रारंभ हुई। हम जल्दी ही नाश्ता करके निकल पड़े। गाड़ी में बैठते ही हम लोगों ने गणपति जी की प्रार्थना की, माता का सबने स्मरण किया। तत्पश्चात साँगे ने अपनी प्रार्थना भूटानी भाषा में गाई।ये प्रार्थना नाभी से कंठ तक चढ़ती अत्यंत गंभीर स्वरवाले शब्द प्रतीत हुए।फिर उसने बौद्ध प्रार्थना गाड़ी में लगाई जो अत्यंत मधुर थी।

सर्व प्रथम हम बुद्ध की एक विशाल मूर्ति का दर्शन करने गए। इसे डोरडेन्मा बुद्ध मूर्ति कहा जाता है। यहाँ कोई प्रवेश शुल्क नहीं होता है। इस विशाल बुद्ध की मूर्ति की ऊँचाई 169 फीट है।

यह संसार की सबसे ऊँची और विशाल बुद्ध मूर्ति है। शांत सुंदर मुख,  आकर्षक मुखमुद्रा अर्ध मूदित नेत्र मन को भीतर तक शांत कर देनेवाली मूर्ति।

यह एक खुले परिसर में बना हुआ है।परिसर भी बहुत विशाल है। समस्त परिसर पहाड़ों से ढका हुआ  है।फिर कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर मंदिर के भीतर प्रवेश किया जाता है। भीतर बुद्ध की कई मूर्तियाँ हैं और एक विशाल मूर्ति मंदिर के गर्भ गृह में है।

पीतल के कई  बर्तनों में प्रतिदिन ताज़ा पानी बुद्ध की मूर्ति के सामने रखते हैं।फल आदि रखने की भी प्रथा है। भीतर प्रार्थना करने की व्यवस्था है। हर धर्म के अनुयायी यहाँ दर्शन करने आते हैं।परिसर के चारों ओर कई सुंदर सुनहरे रंग की मूर्तियाँ बनी हुई हैं। ये मूर्तियाँ स्त्रियों की हैं।संपूर्ण परिसर शांति का मानो प्रतीक है। हर दर्शक मंदिर की परिक्रमा अवश्य करता है।सीढ़ियों के बाईं ओर विशाल हाथी की मूर्ति बनी हुई है जिसका संबंध गौतम बुद्ध के जन्म से भी है। मंदिर के भीतर तस्वीर लेने की इजाज़त नहीं है।

यह मूर्ति शाक्यमुनि बुद्धा कहलाती है।

यह भूटान के चौथे राजा जिग्मे सिंग्ये वाँगचुक के साठवें जन्म दिवस के अवसर पर पहाड़ी के ऊपर बनाई गई  विशाल मूर्ति है। यह संसार का सबसे विशाल बुद्ध  मूर्ति है।इसके अलावा यहाँ एक लाख छोटे आकार की बुद्ध प्रतिमाएँ भी हैं। कुछ आठ इंच की हैं और कुछ बारह इंच की प्रतिमाएँ हैं।ये काँसे से बनाई मूर्तियाँ हैं, जिस पर सोने की पतली परत चढ़ाई गई  है। इस मंदिर का निर्माण 2006 में प्रारंभ हुआ था और सितंबर 2015 में जाकर कार्य पूर्ण हुआ।

इसके बाद हम भूटान की सांस्कृतिक जन जीवन की झलक पाने के लिए एक ऐसे स्थान पर गए जिसे सिंप्ली भूटान कहा जाता है। यहाँ प्रवेश शुल्क प्रति पर्यटक एक हज़ार रुपये है।

यहाँ यह बताना आवश्यक है कि भूटान का राष्ट्रीय रोज़गार का स्रोत पर्यटन है जिस कारण हर एक व्यक्ति पर्यटक को देवता के समान समझता है।पर्यटक का सम्मान करते हैं, खूब आवभगत भी करते हैं।

भूटान में हर स्थान पर प्रवेश शुल्क कम से कम पाँच सौ रुपये हैं या हज़ार रुपये हैं कहीं -कहीं पर पंद्रह सौ भी है।इस दृष्टि से यह राज्य बहुत महँगा है।

कोई पर्यटक जब भूटान जाने की तैयारी करता है तो उससे यह बात कोई नहीं बताता कि एन्ट्री फी कितनी होती है।इस आठ दिन की ट्रिप में हमने प्रति व्यक्ति साढ़े पाँच हज़ार रुपये केवल प्रवेश शुल्क के रूप में दिया है।सहुलियत यह है  कि यह मुद्राएँ भारतीय रुपये के रूप में स्वीकृत हैं। मेरी दृष्टि में यह बहुत महँगा है। पर जिस राज्य के पास खास कुछ उत्पादन का ज़रिया न हो तो यही एक मार्ग रह जाता है।

खैर जो घूमने जाता है वह खर्च भी करता है इसमें दो मत नहीं। यहाँ यह भी बता दूँ कि भारतीय रुपये तो बड़ी आसानी से स्वीकार करते हैं और बदले में छुट्टे पैसे अगर लौटाने हों तो वह भूटानी मुद्रा ही देते हैं।भूटानी मुद्रा को नोंग्त्रुम (न्गुलट्रम) कहा जाता है। भारतीय एक रुपया भूटानी एक नोंग्त्रुम के बराबर है।

यहाँ गूगल पे नहीं चलता।

जिस तरह हमारे देश में कच्छ उत्सव मनाया जाता है ठीक वैसे ही यहाँ कृत्रिम रूप में एक विशाल स्थान को भूटानी गाँव में परिवर्तित किया गया। इस स्थान का नाम है सिंप्ली भूटान।

यहाँ  हमारा स्वागत थोड़ी- सी वाइन देकर किया गया। वाइन पीने से पूर्व हमसे कहा गया कि हम अपनी अनामिका और अंगूठे को वाइन में डुबोएँ तथा हवा में उसकी बूँदों का छिड़काव करें। जिस प्रकार हम भोजन पकाते समय  अग्निदेव को अन्न समर्पित करते हैं या भोजन से पूर्व इष्टदेव को अन्न समर्पित करते हैं ठीक उसी प्रकार उनके देश में इस तरह देवता को अन्न -जल का समर्पण किया जाता है।

उसके बाद हमें वहाँ की लोकल बेंत की टोपी (हैट) पहनाई गई और खुले हिस्से में ले जाकर मिट्टी से घर बनाने की प्रथा दिखाई गई।इस प्रक्रिया में जब धरती को एक विशिष्ट प्रकार के भारी औज़ार से पीटते हैं ताकि घर की फर्श समतल हो जाए तो वे निरंतर धरती माता से क्षमा याचना करते हैं कि “हमारी आवश्यकता के लिए हम धरती को औज़ार से पीट रहे हैं। जो जीवाणु घायल हो रहे हैं या मर रहे हैं हम उन सबसे क्षमा माँगते हैं। ” यह एक सुमधुर गीत के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। कितनी सुंदर कल्पना है और ऐसे समर्पण के भाव मनुष्य को ज़मीन से जोड़े रखते हैं।

इसके पश्चात हमें भूटानी रसोई व्यवस्था से परिचय करवाया गया। आटा पीसने का पत्थर, नूडल बनाने की लकड़ी के बर्तन, चार मिट्टी के बनाए लिपे -पुते चूल्हे, भोजन पकाने के बर्तन, लोकल फलों से तथा भुट्टे से वाइन बनाने की प्रक्रिया आदि स्थान दिखाए गए।यद्यपि आज सभी के घर गैस के चूल्हे हैं पर यह उनके ग्रामीण जीवन से जुड़ी वस्तुएँ हैं।

इस देश में कई प्रकार के मुखौटे पहनकर नृत्य करने का एक त्योहार होता है। हमने विविध प्रकार के मुखौटे देखे। उनमें अधिकतर राक्षस के मुखौटे  ही थे। उनका यह विश्वास है कि ऐसे मुखौटे पहनकर जब वे नृत्य करते हैं तो नकारात्मक उर्जाएँ समाप्त हो जाती हैं। उनके कुछ तारवाले वाद्य रखे हुए थे। हमें उन्हें बजाने और मधुर ध्वनियों को सुनने का मौक़ा मिला। ये हमारे देश के संतूर जैसे वाद्य थे।

तत्पश्चात हमें एक खुले आंगन में ले जाया गया जहाँ उनकी कलाकृति से वस्तुएँ निर्माण की जाती हैं। पर्यटक उन वस्तुओं को खरीद सकते हैं।पाठकों को बता दें कि भूटानी पेंटिंग, मूर्तियाँ, लकड़ी छील कर बनाई वस्तुएँ सभी कुछ काफी महँगी होती है। अधिकतर पैंटिंग सिल्क के कपड़े पर विशिष्ट प्रकार के रंग से की जाती है। इन्हें बनने में बहुत समय लगता है और ये अत्यंत सूक्ष्म काम होते हैं। कुछ पैंटिंग तो लाख रुपये के भी दिखाई दिए। हम चक्षु सुख लेकर आगे बढ़ गए।

इसी स्थान पर एक विकलांग नवयुवक अपने पैरों से लकड़ी छीलकर गोलाकार में कुछ आकृतियाँ बना रहा था। उसी स्थान पर उसके द्वारा बनाई गई कई आकृतियाँ छोटी – छोटी कीलों पर लटकी हुई थीं। हम सहेलियों ने भी कई आकृतियाँ खरीदीं। हमारे मन में उस विकलाँग नवयुवक की प्रशंसा करने का यही उपाय था। वह न बोल सकता था न अपने  हाथों का उपयोग ही कर सकता था।उसने कलम भी अपने पैरों की उँगलियों में फँसाई और खरीदी गई हर आकृति पर हस्ताक्षर भी किए। कहते हैं राजमाता ने उसे पाला था और यह कला उसे  सिखाई थी।

हम आगे बढ़े। एक खुले आँगन में पुरुष के गुप्त अंग की कई विशाल आकृतियाँ बनी हुई थीं।भूटान में प्रजनन की भारी समस्या है। इसलिए वे मुक्त रूप से पुरुष के गुप्त अंग अर्थात शिश्न की पूजा करते हैं। कई  घरों के बाहर, दुकानों में, तथा एक विशिष्ट मंदिर में यह देखने को मिला। हमें जापान में भी इस तरह का अनुभव मिला था।नॉटी मंक नामक एक मंक का मंदिर भी बना हुआ है जो पारो में है।

अब हमें भूटानी नृत्य और संगीत का दर्शन कराने ले जाया गया। वहाँ के स्थानीय  स्त्री -पुरुष, स्थानीय पोशाक में एक साथ नृत्य प्रदर्शन करते हैं और पर्यटकों को भी सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित करते हैं।यहाँ हमें भुट्टे के ऊपर जो रेशे होते हैं उसे उबालकर काली चाय दी गई  और साथ में मीठा पुलाव ( दोनों की मात्रा बहुत थोड़ी होती है। यह केवल उनकी संस्कृति की झलक मात्र के लिए  है) यह सब कुछ एक घंटे के लिए ही होता है।

 सिंपली भूटान में भूटानी संस्कृति की झलक का आनंद लेकर हम जब बाहर निकले तो डेढ़ बज चुके थे।

हमने दोपहर के समय भूटानी व्यंजन लेने का निर्णय लिया। भूटान में मांसाहारी और शाकाहारी मोमो बड़े चाव से खाए जाते हैं। नूडल्स भी यहाँ का प्रिय भोजन है। इसके अलावा लोग लाल चावल खाना पसंद करते हैं। यह चावल न केवल भूटान की विशेषता है बल्कि अत्यंत पौष्टिक भी माना जाता है। स्थानीय लोग इस चावल के साथ अधिकतर चिकन या पोर्क करी खाते हैं। पाठकों को इस बात को जानकर आश्चर्य भी होगा कि कई स्थानीय लोग निरामिष भोजी भी हैं।

होटलों में भारतीय व्यंजन भी बड़ी मात्रा में उपलब्ध होते हैं। हमने लाल चावल, रोटी और शाकाहारी कुकुरमुत्ते की तरीवाली सब्ज़ी मँगवाई। साथ में स्थानीय सब्ज़ी की सूखी और तरीवाली सब्ज़ियाँ भी मँगवाई।हमने साँगे और पेमा से भी कहा कि वे भी हमारे साथ भोजन करें।

 भोजन के दौरान हमें साँगे ने बताया कि भूटान में पुरुष एक से अधिक पत्नियाँ रख सकते हैं। वर्तमान राजा के पिता जो अब राज्य के कार्यभार से मुक्त हो चुके थे,  उन्होंने चार शादियाँ की थीं।आज वे राजकार्य से मुक्त होकर एक घने जंगल जैसे इलाके में संन्यास जीवन यापन कर रहे हैं।

सभी रानियाँ अलग -अलग महलों में रहती हैं। राजमाता उनकी दूसरी पत्नी हैं। वे काफी समाज सेवा के कार्य हाथ में लेती हैं।भूटान के लोग नौकरी के लिए खास देश के बाहर नहीं जाते। उनकी जनसंख्या कम होने के कारण वे अपने देश में रहकर देश की सेवा करना अपना कर्तव्य समझते हैं। हर किसी को रोज़गार मिल ही जाता है। मूलरूप से वे राष्ट्रप्रेमी हैं।

सुस्वादिष्ट भोजन के बाद हम टेक्सटाइल संग्रहालय पहुँचे। इस स्थान पर भूटान के बुनकरों की जानकारी दी गई  है तथा विभिन्न वस्त्र के कपड़े की बुनाई तथा सिलाई कैसे होती है इसकी विस्तृत जानकारी स्लाइड द्वारा भी दी गई है। संग्रहालय दो मंज़िली इमारत है और काफी वस्त्रों का प्रदर्शन भी है। इस संग्रहालय को राजमाता ने ही बनवाया था। आज यहाँ प्रवेश शुल्क प्रति व्यक्ति ₹500 है।

संग्रहालय स्वच्छ सुंदर और आकर्षक है।

अब तक चार बज चुके थे। हमें चित्रकारी देखने के लिए आर्ट ऍन्ड कल्चर सेंटर जाना था। इस स्थान पर छात्र रेशम के कपड़ों पर तुलिका से रंग भरकर अपने चित्र को सुंदर बनाते हैं।अधिकतर चित्र बुद्ध के जीवन से संबंधित होते हैं।यहाँ कई छात्र तल्लीन होकर चित्रकारी भी कर रहे थे। यहाँ ऊपर एक कमरे में कई  नक्काशीदार बर्तन आदि प्रदर्शन के लिए रखे गए थे।छोटी -सी जगह पर हर छात्र अपने आवश्यक वस्तुओं को लेकर तन्मय होकर अपने चित्र को सजा रहा था। उन्हें हमारी उपस्थिति से कोई फ़र्क नहीं पड़ा। यह भूटान का आर्ट कॉलेज है।

अब दिन के छह बज गए।हम भी थक गए  थे।अब होटल लौटकर आए।कमरे में आकर हम सखियों ने चाय पी।पेमा और साँगे को भी चाय पीने के लिए आमंत्रित किया।चाय के साथ हमने उन्हें भारतीय नमकीन भी खिलाए जिसे खाकर वे अत्यंत प्रसन्न भी हुए।उनके जाने पर आठ बजे तक हम सखियाँ ताश खेलती रहीं।

क्रमशः… 

© सुश्री ऋता सिंह

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 15 – संस्मरण # 9 – भुलक्कड़ बाबू ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – भुलक्कड़ बाबू)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 15 – संस्मरण # 9 – भुलक्कड़ बाबू ?

कुछ लोग अत्यंत साधारण होते हैं और साधारण जीवन जीते हैं फिर भी वह अपनी कुछ अमिट छाप छोड़ जाते हैं। ऐसे ही एक अत्यंत साधारण व्यक्तित्व के साधारण एवं सरल स्वभाव के व्यक्ति थे बैनर्जी बाबू।

बनर्जी बाबू का पूरा नाम था आशुतोष बैनर्जी। हम लोग उन्हें बैनर्जी दा कहकर पुकारते थे। उनकी पत्नी शीला बनर्जी और मैं एक ही संस्था में कार्यरत थे। हम दोनों में वैसे तो कोई समानता ना थी और ना ही विषय हमारे एक जैसे थे लेकिन हम उम्र होने के कारण हमारी अच्छी दोस्ती हो गई थी। शीला विज्ञान विषय पढ़ाती थी और मैं हिंदी।

शीला कोलकाता की निवासी थी। यद्यपि हिंदी भाषा के साथ दूर तक उसका कोई संबंध नहीं था पर मेरी कहानियाँ वह बड़े चाव से पढ़ती थी। वह अंग्रेज़ी कहानियाँ पढ़ने में रुचि रखती थी फिर चाहे वह बच्चों वाली पुस्तक एनिड ब्लायटन ही क्यों न हो। अगाथाक्रिस्टी की कहानियाँ और शिडनी शेल्डन उसे प्रिय थे। अपने बच्चों के साथ हैरी पॉटर की सारी कहानियाँ भी वह पढ़ चुकी थीं। वह इन सभी लेखकों की कहानियाँ रात भर में पढ़ने का प्रयास करती थी। दूसरे दिन एक साथ जब हम विद्यालय की बस में बैठकर यात्रा करते तब उन कहानियों की मूल कथा वह मुझे सुनाती। कभी-कभी इन कहानियों से हटकर उसके पति बनर्जी साहब के कुछ रोचक किस्से भी सुनाया करती थी।

बनर्जी दा को न जाने हमेशा किस बात की हड़बड़ी मची रहती थी। जब भी वह मिलते कहीं जल्दी में जाते हुए सारस की – सी डगें भरते हुए या तीव्रता से अपनी पुरानी वेस्पा पर सवार दिखते थे। चलो चलो जल्दी करो उनका तकिया कलाम ही था। हर बात के लिए वे इस वाक्य का उपयोग अवश्य करते थे। हर बात में हड़बड़ी, हर बात में जल्दबाज़ी और अन्यमसस्क रहना ही उनकी खासियत थी। इसीलिए शीला के पास अक्सर हमें सुनाने के लिए बैनर्जी दा के रोज़ाना नए किस्से भी हुआ करते थे।

दस वर्ष शीला के साथ काम करते हुए तथा एक साथ काफी वक्त साथ बिताने के कारण दोनों परिवार में एक पारिवारिक संबंध – सा ही जुड़ गया था। कई किस्सों के हम गवाह भी रहे और खूब लुत्फ़ भी उठाए। पर उनके हजारों किस्सों में से कुछ चिर स्मरणीय और हास्यास्पद तथा रोचक किस्सों का मैं यहाँ जिक्र करूँगी।

शीला की दो बेटियाँ थीं। काजोल और करुणा। काजोल बड़ी थी और अभी हमारे ही स्कूल में दसवीं कक्षा की बोर्ड की परीक्षा देकर छुट्टियों के दौरान बास्केटबॉल की ट्रेनिंग ले रही थी। वह शीला के साथ ही आना-जाना करती थी। अप्रैल का महीना था नया सेशन शुरू हुआ था पर 10वीं की बोर्ड परीक्षा समाप्त होने के बाद भी छात्रों को स्कूल में आकर खेलने की इजाज़त थी। करुणा दूसरे विद्यालय में पढ़ती थी।

खेलते – खेलते एक दिन काजोल छलाँग मारती हुई बास्केट में बॉल डालने का प्रयास कर रही थी कि वह गिर पड़ी और उसका दाहिना पैर टखने के पास से टूट गया। शीला ने बनर्जी दा को फोन पर इस बात की जानकारी दी। काजोल का पैर टूट जाने की खबर सुनाकर उसने उन्हें यह भी बताया कि वह पास के अस्पताल में पहुँचे। शीला ने अस्पताल का नाम भी बताया।

हम पहले ही बता चुके हैं कि बनर्जी दा हमेशा ही अन्यमनस्क रहते थे। न जाने हड़बड़ी में उन्होंने क्या सुना वे जल्दबाजी में अस्पताल तो पहुँचे पर वहाँ पूछताछ की खिड़की पर वे करुणा बनर्जी के बारे में ही पूछते रहे। जब उन्हें पता चला कि उस नाम का कोई पेशेंट वहाँ नहीं है तो वह उस इलाके के हर अस्पताल में चक्कर काटते रहे। पर काजोल नाम उनके ध्यान में आया ही नहीं।

उधर शीला घायल बेटी को लेकर एक्सरे रूम में बैठी रही। जब दो-तीन घंटे तक बनर्जी दा का कुछ पता ना चला तो उसने फिर घर पर फोन किया तो किसी ने फोन नहीं उठाया। उन दिनों मोबाइल का कोई प्रचलन हमारे देश में नहीं था। केवल लैंडलाइन की सुविधा ही उपलब्ध थी। शीला समझ गई कि उसके पति निश्चित ही हमेशा की तरह हड़बड़ी में कहीं और पहुँच गए होंगे। उस दिन शीला को बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा। घर जाने पर जब असलियत का पता चला तो शीला बनर्जी दा पर बस बरस ही पड़ी।

एक बार शीला बहुत बीमार पड़ी। शाम के समय स्कूल छूटने के बाद कुछ सहकर्मी महिलाएँ विद्यालय की बस पकड़ कर शीला से मिलने उसके घर पहुँची।

घंटी बजी। शीला को तेज बुखार था वह बिस्तर से उठ न सकी। बनर्जी दा अभी-अभी शीला के लिए दवाइयाँ लेकर घर लौटे थे। वे बाहर पहने गए कपड़े बदल रहे थे। घंटी बजते ही वे जल्दबाज़ी में कपड़े पहने और दरवाज़ा खोलकर सबका स्वागत किया। महिलाओं को शीला के कमरे में ले गए।

उन्हें देखते ही साथ सभी महिलाएँ अपनी आवाज़ दबाए हँसने लगीं। बनर्जी दा उन्हें शीला के पास बेडरूम में बिठाकर सब के लिए उत्साहपूर्वक चाय बनाने चले गए। फिर ट्रे में चार प्याली चाय लेकर वे आए। महिलाएँ

तब भी हँसती हुई नज़र आईं। शीला को हमेशा ही अपने पति की अन्यमनस्कता और हड़बड़ी की आदत की चिंता रहती थी। उसने जब बनर्जी दा की ओर देखा तो पता चला कि अपने पजामे की जगह पर उन्होंने अलगनी से शीला का पेटीकोट उठाकर पहन लिया था और शर्ट के नीचे से उसका नाड़ा लटक रहा था। वह बेचारी शर्म के मारे गड़ी जा रही थी। तीन-चार दिनों के बाद जब वह स्कूल आई तो किसी से वह आँख न मिला पाई।

चूँकि शीला भी नौकरीपेशा थी इसलिए बनर्जी दा घर से टिफन लेकर दफ्तर जाते थे। दोपहर की छुट्टी में वे घर नहीं जाते थे। उस दिन शाम को जब दफ्तर से छूटे तो टिफिन की अपनी थैली उठाए घर चले आए। शीला ने जब टिफन धोने के लिए थैला खोला तो उसमें से दो ईनो सॉल्ट की काँच की बोतलें निकलीं। एक में पीले रंग का तरल पदार्थ था और दूसरे में मल। जब उसने बनर्जी दा से पूछा तो वे झेंप से गए, ” बोले शायद मैं शर्मा साहब की थैली गलती से उठा लाया हूँ। शाम को दफ्तर छूटने से थोड़ी देर पहले ही उनका बड़ा बेटा यह थैला रख कर गया था। सुना है उनके छोटे बेटे को जॉन्डिस हुआ है।

शीला को समझने में देरी न लगी कि अपनी थैली टिफन बॉक्स समेत पति महोदय वहीं दफ्तर में छोड़ आए थे और शर्मा जी के बेटे के स्टूल टेस्ट के लिए दी जाने वाली बोतलों वाली थैली उठा लाए थे। दूसरे दिन दफ्तर में बनर्जीदा की खूब खिंचाई हुई और टिफन बॉक्स ना रहने के कारण बाहर जाकर भोजन खाना पड़ा।

एक बार बनर्जी दा और शीला स्कूटर पर बैठ कर किसी मित्र के घर के लिए निकले थे। उस मित्र के घर जाने से पहले एक रेलवे लाइन पड़ती थी। उस वक्त जब वे वहाँ पहुँचे तो रेलवे लाइन का फाटक बंद हो गया था। पाँच – सात मिनट के बाद रेलगाड़ी वहाँ से गुज़रने वाली थी। भीड़ – भाड़ वाली जगह पर स्कूटर पर बैठे रहने से बेहतर शीला ने स्कूटर से उतरकर थोड़ी देर खड़ी रहना पसंद किया। उसने बनर्जी दा की कमर से अपना हाथ हटा लिया और वहाँ स्कूटर के पास खड़ी हो गई। थोड़ी देर बाद जब फाटक खुला बनर्जी दा हड़बड़ी में बिना शीला को लिए फाटक पार कर आगे निकल गए। जब तक शीला उन्हें पुकारती वह काफी दूर पहुँच चुके थे। पीछे से कुछ लोगों ने जाकर हॉर्न बजाया और बनर्जी दा को बताया कि आपकी पत्नी फाटक के उस पार छूट गई हैं। तब वे फिर फाटक के पास लौट कर आए। उस दिन शीला इतनी नाराज़ हुई कि उसने बनर्जी दा से कहा कि तुम हमारे मित्र के घर चले जाओ मैं एक रिक्शा पकड़ कर घर जा रही हूँ। उनसे कह देना मेरी तबीयत ठीक नहीं।

हमारे विद्यालय में एक बार प्रधानाचार्य ने हस्बैंड ईव कार्यक्रम का आयोजन रखा। इस कार्यक्रम का उद्देश्य था कि सभी विवाहिता शिक्षिकाओं के पतियों का आपस में मेलजोल हो। यह एक छोटा – सा कार्यक्रम था और उन दिनों के लिए यह एक नई कल्पना थी। सभी बहुत उत्साह और कुतूहल से इस ईव की प्रतीक्षा कर रहे थे। हमारे विद्यालय में शिक्षिकाओं की संख्या ही अधिक थी। संस्था की खासियत भी यही थी कि विद्यालय को विशिष्ट ढंग से हर कार्यक्रम के लिए सजाया जाता था। उस दिन भी उस हस्बैंड ईव के लिए विद्यालय के प्रांगण को पार्टी लुक दिया गया और इसके लिए शिक्षिकाओं को जल्दी बुलाया गया।

शीला बनर्जी दा की कमीज़ मैचिंग टाई, सूट व पतलून बिस्तर पर रख आई थी। साथ में दो जोड़े जूते भी बिस्तर के पास फर्श पर रखकर आई थी। साफ हिदायतें भी दी थी कि वे जो उचित लगे वह जोड़े पहन लें।

सभी हस्बैंड खास तैयार होकर आए। महफिल जमी, कई पार्टी गेम्स का आयोजन किया गया था। टग ऑफ वॉर, म्यूजिकल चेयर, हाउज़ी, आदि खेलों द्वारा सबका मनोरंजन भी किया गया। विभिन्न खेलों में जीते गए लोगों को पुरस्कृत भी किया गया। एक खास पुरस्कार ऐसे व्यक्ति के लिए था जो पार्टी में सबसे अलग हो और उठकर दिखे। और यह पुरस्कार बनर्जी दा को ही मिला कारण था वे दो अलग रंग व डिजाइन के शूज़ पहनकर विद्यालय आए थे। शीला ने जब उन्हें गेट से भीतर आते देखा तो उसे खुशी हुई कि उसके पति महोदय ठीक-ठाक तैयार होकर ही आए थे पर जब पुरस्कार की घोषणा हुई वह बेचारी मारे शर्म के पानी – पानी हो गई।

हमारे विद्यालय की प्रधानाचार्य बहुत बुद्धि मती तथा व्यवहारकुशल थीं। उन्होंने बड़े करीने से परिस्थिति को संभाल लिया और माइक पर बैनर्जी दा का नाम घोषित करती हुई बोली, “दूसरों पर हँसना बड़ा आसान होता है पर जो व्यक्ति अपने आप पर दूसरों को हँसने का मौका देता है वह इस संसार का सबसे बड़ा विनोदी व्यक्ति होता है और आज इस पुरस्कार के हकदार श्रीमान बनर्जी हैं। “

बनर्जी दा के सिर में बहुत कम बाल थे। यह कहना अतिशयोक्ति ना होगी कि वे गंजे ही थे। लेकिन घंटों आईने के सामने खड़े होकर बड़े करीने से अपने सात आठ बाल जो अब भी सिर पर बचे हुए थे उन्हें बाईं तरफ से दाईं तरफ कंघी फेरकर सेट किया करते थे।

जाड़े के दिन थे। नारियल का तेल जम गया था। रविवार का दिन था तो कोई जल्दी भी नहीं थी। शीला बाज़ार गई थी। बनर्जी दा ने नारियल तेल की बोतल धूप में रखी ताकि तेल गल जाए। उसी बोतल के साथ उनकी बड़ी बेटी काजोल ने अपने एन.सी.सी के जूते चमकाने के लिए काली पॉलिश भी धूप में रख छोड़ी थी। बनर्जी दा नहा- धोकर आए और अन्यमनस्कता से हड़बड़ी में बिना आईने में देखे सिर पर तेल लगाने के बजाय जूते की पॉलिश लगा ली। उस पॉलिश में किसी प्रकार की कोई गंध न थी जिस कारण उन्हें तेल और पॉलिश के बीच का अंतर समझ में नहीं आया। वैसे भी वह अन्यमनस्क प्राणी थे।

शीला के साथ उस दिन मैं भी बाजार गई थी। सामान लेकर कॉफी पीने के लिए हम उसके घर पहुँचे तो बनर्जी दा ने ही दरवाजा खोला। उनका गंजा सिर जूते के काले पॉलिश से तर हो रहा था और वे वीभत्स- से दिख रहे थे। मेरी तो ऐसी हँसी छूटी कि मैं खुद को रोक न सकी पर शीला उनके इस अन्यमनस्कता से बहुत परेशान थी। पर चूँकि मैं ही उसके साथ थी तो गुस्सा थूककर वह भी ज़ोर – ज़ोर से हँस पड़ी। बनर्जी दा फिर से नहाने चले गए।

काजोल उन दिनों चंडीगढ़ में पी.जी.आई में मेडिकल की पढ़ाई कर रही थी। शीला और बनर्जी दा उससे मिलने जा रहे थे। वे दोनों दिल्ली स्टेशन पहुँचे। दिल्ली से शताब्दी नामक रेलगाड़ी चलती थी। सुबह शताब्दी नाम से कई ट्रेनें चलती थीं। पाँच -दस मिनट के अंतर में शताब्दी नामक ट्रेन अलग-अलग प्लेटफार्म से भी छूटती थीं। प्रातः 6:30 बनर्जी दा और शीला चंडीगढ़ जाने के लिए रवाना हुए। स्टेशन पर पहुँचे हड़बड़ी में वे दोनों एक शताब्दी नामक ट्रेन में बैठ गए। सीट नंबर देखा तो वे भी खाली ही मिले। लंबी यात्रा के कारण दोनों थके हुए थे। उस दिन शीला ने भी ज्यादा ध्यान ना दिया। गाड़ी चल पड़ी। घंटे भर बाद जब टीसी आया तो पता चला कि वे अमृतसर जाने वाली गाड़ी में सवार थे। अब क्या था शताब्दी जहाँ अगले स्टेशन पर रुकने वाली थी उस स्टेशन तक का किराया तो उनको देना ही पड़ा साथ ही निर्धारित दिन और समय पर वे दोनों चंडीगढ़ न पहुँच सके।

एक और मजेदार किस्सा पाठकों के साथ साझा करती हूँ। दफ्तर के किसी कॉन्फ्रेंस के लिए बनर्जी दा को कोलकाता जाना था। फ्लाइट का टिकट था दफ्तर के कुछ और भी दूसरे लोग साथ जाने वाले थे। तीन दिन का काम था। उनके दोस्त ने टिकट अपने पास ही रखा क्योंकि बनर्जी दा भुलक्कड़ स्वभाव के आदमी थे। शीला ने पति महोदय को दफ्तर के लोगों के साथ बातचीत करते हुए सुना था वह निश्चिंत थी कि वे समय पर एयरपोर्ट पहुँच जाएँगे। शाम को 6:00 बजे की फ्लाइट थी बनर्जी दा 3:30 बजे घर से निकले 5:30 बजे वे घर भी लौट आए। बाद में पता चला कि उनकी फ्लाइट सुबह 6:00 बजे की थी ना कि शाम के 6:00 बजे की।

पतिदेव से विस्तार मालूम होने पर शीला ने तो अपना सिर ही पीट लिया।

बैनर्जी दा को गुज़रे आज कई वर्ष बीत चुके। शीला ने भी संस्था छोड़ दी और वह कोलकाता लौट गई पर मेरे पास बैनर्जी दा की हड़बड़ी और अन्यमनस्कता के इतने किस्से हैं कि मैं जब याद करती हूँ तो मुझे ऐसा लगता है कि कल की बातें हैं। हँसी के वे पल थे तो बड़े ही सुखद ! बनर्जी दा तो आज हमारे बीच नहीं हैं पर उनकी याद आज भी ताजा है।

© सुश्री ऋता सिंह

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 14 – संस्मरण # 8 – जब पराए ही हो जाएँ अपने ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – जब पराए ही हो जाएँ अपने)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 14 – संस्मरण # 8 – जब पराए ही हो जाएँ अपने?

जिद् दा सऊदी अरब का एक सुंदर शहर है। चौड़ी छह लेनोंवाली सड़कें, साफ – सुथरा शहर, बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल, यूरोप के किसी शहर का आभास देने वाला सुंदर सजा हुआ शहर। यह शहर समुद्र तट पर बसा हुआ है। कई यात्रियों की यह चहेती शहर है। हर एक किलोमीटर की दूरी पर सड़क के बीच गोल चक्र सा बना हुआ है जिस पर कई सुंदर पौधे और घास लगे हुए दिखाई देते हैं। रात के समय सड़कें अत्यंत प्रकाशमय है। सब कुछ झिलमिलाता सा दिखता है। जगह-जगह पर विभिन्न प्रकार के आकारों की लकड़ी और पत्थर आदि से बनाई हुई आकृतियां दिखाई देती हैं। यह आकृतियाँ शहर को सजाने के लिए खड़ी की जाती हैं। यहाँ तक कि सड़कों पर बड़े-बड़े झाड़ फानूस भी  लगे हुए दिखाई देते हैं।

जिद् दा  ऐतिहासिक दृष्टिकोण तथा धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण शहर है।  इस शहर से 40 -50 किलोमीटर की दूरी पर मक्का नामक धर्म स्थान है। मुसलमान धर्म को मानने वाले निश्चित रूप से जीवन में एक बार अपने इस दर्शनीय तीर्थस्थल पर अवश्य आते हैं। इसे वे हज करना कहते हैं और हज करनेवाला व्यक्ति हाजी कहलाता है।

भारत से भी प्रतिवर्ष 25 से 30 लाख लोग मक्का जाते हैं। जब तीर्थ करने का महीना आता है, जिसे रमादान कहते हैं तो हर एक एयरलाइन हर हाजी की यात्रा को आसान बनाने के लिए टिकटों की दरें घटा देता है। यह सुविधा केवल हाजियों के लिए ही होती है। जिद् दा शहर में उतरने के बाद हाजियों के लिए बड़ी अच्छी सुविधा उपलब्ध कराई जाती है। मुफ़्त खाने- पीने की व्यवस्था हवाई अड्डे से कुछ दूरी पर ही की जाती है। अलग प्रकार के कुछ टेंट से बने होते हैं जहाँ इनके इमीग्रेशन के बाद इन हाजियों को बिठाया जाता है। यहीं से बड़ी संख्या में बड़ी-बड़ी बसें छूटती  हैं। चाहे यात्री किसी भी देश का निवासी हो,  जो हाजी होता है उसके लिए अनुपम व्यवस्था होती ही है और इन्हीं बसों के द्वारा उन्हें मक्का तक पहुँचाया जाता है हर देश की ओर से जिद्दा में एजेंट्स मौजूद होते हैं और वही हर देश से आने वाले हाजियों की सुख – सुविधाओं की व्यवस्था व्यक्तिगत रूप से करते हैं। कुछ लोग बिना एजेंट के भी यात्रा करते हैं।क्योंकि वहाँ की भाषा अरबी भाषा है जिसे बाहर से आने वाले नहीं बोल पाते हैं तो एजेंट के साथ होने पर आसानी हो जाती है।

उन दिनों मेरे पति बलबीर सऊदी अरब के इसी जिद् दा शहर में काम किया करते थे। मुझे अक्सर वहाँ आना – जाना पड़ता था। मैं भारत में ही अपनी बेटियों के साथ रहा करती थी। प्रतिवर्ष मुझे तीन -चार बार  वहाँ जाने  का अवसर मिलता था इसलिए वहाँ  की नीति और नियमों से भी मैं परिचित हो गई थी। वहाँ के नियमानुसार मैं भी हवाई अड्डे पर उतरने से पूर्व काले रंग का बुर्खा पहन लिया करती थी जिसे वहाँ के लोग अबाया कहते हैं। माथे पर लगी बड़ी बिंदी को हटा देती थी क्योंकि वहाँ के निवासी बिंदी को हराम समझते हैं। मैंने उन सब नियमों का हमेशा पालन किया ताकि कभी किसी प्रकार की मुश्किलों का सामना ना करना पड़े।

जो लोग स्थानीय न थे उन्हें चेहरे पर चिलमन या पर्दा डालने की बाध्यता न थी। अतः केवल काले कपड़े से सिर ढाँककर घूमने की छूट थी। पहले पहल वहाँ के नियम – कानून देखकर मैं भी घबरा गई थी पर धीरे-धीरे आते – जाते मुझे भी उन सबकी आदत – सी पड़ गई फिर अंग्रेजी में कहावत है ना बी अ  रोमन व्हेन यू आर ऐट रोम

इससे किसी भी प्रकार की मुसीबतों से हम बचते हैं।

इस देश में स्त्रियों को वह आजादी नहीं दी जाती है जो हमें अपने देश में देखने को मिलती है। यदि हम उनके नियमों का सही रूप से पालन करते हैं तो सब ठीक ही रहता है अब सालभर  में कई बार आते जाते मैं काले पहनावे में स्त्रियों को देखने और स्वयं भी उसी में लिपटे रहने की आदी हो चुकी थी।

2003 के दिसंबर का महीना था मैं अपनी छुट् टी जिद् दा में बिताकर अब घर लौट रही थी। हवाई अड् डे में इमीग्रेशन के बाद मैं अन्य यात्रियों के साथ कुर्सी पर जा बैठी इमीग्रेशन के लिए जब मैं कतार में खड़ी थी तब एक वृद्ध व्यक्ति को विदा करने के लिए कई भारतीय आए हुए थे। वे सबसे गले मिलते और आशीर्वाद देते। उनके  मुँह से शब्द अस्पष्ट  फूट रहे थे। आँखों पर मोटे काँच का  चश्मा था। आँखों से बहते आँसू और काँपते हाथ निरंतर उपस्थित लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे।

इमीग्रेशन  के बाद वे भी  एक कुर्सी पर जाकर बैठ गए। उनके कंधे पर एक छोटा -सा अंगोछा था जिससे वे अपनी आँखें बार-बार पोंछ रहे थे। मेरा हृदय अनायास ही उनकी ओर आकर्षित हुआ। मैंने देखा वे अकेले ही थे इसलिए मैंने उनकी बगल वाली कुर्सी के सामने अपना केबिन बैग रखा और पानी की एक बोतल खरीदने चली गई। जाते समय उस बुजुर्ग से मैंने अपने बैग की निगरानी रखने के लिए प्रार्थना की। (वैसे एयरपोर्ट पर अनएटेंडड बैग्स की तलाशी ली जाती है। मेरे बैग पर मेरा नाम और घर का लैंडलाइन नंबर लिखा हुआ था। उन दिनों यही नियम प्रचलन में था।)

लौट कर देखा बुजुर्ग की आँखों से निरंतर आँसू बह रहे थे। उनके पोपले मुँह वाले पिचके गाल आँसुओं से तर थे। उनकी ठुड् ढी पर सफेद दाढ़ी थी जो हजामत ना करने के कारण यूं ही बढ़ गई थी। उन्हें रोते देख मैं उनके बगल में बैठ गई। बोतल खोलकर गिलास में पानी डालकर उनके सामने थामा फिर बुजुर्ग के हाथ पर हाथ रखा तो सांत्वना के स्पर्श ने उन्हें जगाया और उन्होंने काँपते हाथों से गिलास ले लिया।  दो घूँट पानी पीकर शुक्रिया कहा। बुजुर्ग के काँपते ओंठ और कंपित स्वर ने न जाने क्यों मुझे भीतर तक झखझोर दिया। न जाने मुझे ऐसा क्यों लगा कि वह इस शहर में अपनी कुछ प्रिय वस्तु छोड़े जा रहे थे। उनका इस ढलती उम्र में इस तरह मौन क्रंदन करना मेरे लिए जिज्ञासा का कारण बन गया। मैंने फिर एक बार बाबा को स्पर्श किया और उनसे पूछा, “बाबा क्या किसी प्रिय व्यक्ति को इस शहर में छोड़कर जा रहे हैं ?” उन्होंने मेरे सवाल का कोई उत्तर नहीं दिया बस रोते रहे।

 विमान के छूटने का तथा यात्रियों को द्वार क्रमांक 12 पर कतार बनाकर खड़े होने के लिए निवेदन किया गया। सभी से कहा गया कि वे अपने पासपोर्ट तथा बोर्डिंग पास तैयार रखें। लोगों ने तुरंत द्वार क्रमांक 12 पर एक लंबी कतार खड़ी कर ली। हम मुंबई लौट रहे थे। एयर इंडिया का विमान था। जिद् दा से मुंबई का सफर तय करने के लिए 5:30 घंटे लगते हैं। अभी सुबह के 10:00 बजे थे 11:00 बजे हमारा विमान उड़ान भरने वाला था। हम 4:30 बजे मुंबई पहुँचने वाले थे। अनाउंसमेंट के बाद भी जब बाबा ना उठे तो मैंने भी उनके साथ हो लेने का निश्चय किया।  हवाई अड्डे के मुख्य द्वार से काफी दूर विमान खड़े किए जाते थे। वहाँ तक पहुँचाने के लिए हवाई अड्डे द्वारा नियोजित सुंदर बसों की व्यवस्था थी। जब आखरी बार यात्रियों को बस में बैठने के लिए अनाउंसमेंट किया गया तब मैंने उनसे कहा बाबा चलिए हमारे विमान के उड़ान भरने का समय हो गया। वे  कुछ ना बोले। कंधे पर एक थैला था, हाथ में एक  लाठी। वे लाठी  टेकते हुए आगे बढ़ने लगे। मैं भी उनके पीछे-पीछे चलने लगी। पासपोर्ट और बोर्डिंग पास दिखाने के लिए कहा गया। मैंने उनके कुरते की जेब से झाँकते पासपोर्ट और टिकट निकाल कर उपस्थित अफसर को दिखाया और हम आखरी बस की ओर अग्रसर हुए।

न जाने क्यों बुज़ुर्ग के प्रति मेरे हृदय में  एक दया की भावना सी उत्पन्न हो रही थी। वे असहाय और किसी दर्द से गुज़र रहे थे। साथ ही उनके बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त करने की मेरे मन में लालसा सी जागृत हो गई थी। बुज़ुर्ग भी मेरे द्वारा दी गई सहायता को चुपचाप स्वीकारते चले गए। अब दोनों के बीच एक अपनत्व की भावना ने जन्म ले लिया था।*

बस में बैठते ही मैंने फैसला कर लिया था  कि मैं भी उस बुजुर्ग के साथ वाली सीट पर बैठने के लिए एयरहोस्टेस से निवेदन करूँगी ताकि यात्रा के साढ़े पाँच घंटों में और कुछ जानकारी उनसे हासिल कर सकूँ। ईश्वर ने मेरी सुन ली कहते हैं ना जहाँ चाह वहीं राह। एयरहोस्टेस ने तुरंत मेरी सीट  बदल दी और बुजुर्ग की बगल वाली सीट मिल गई। मुझे देखकर बुजुर्ग ने एक छोटी – सी मुस्कान दी।  मानो वे अपनी प्रसन्नता जाहिर कर रहे थे। मैंने अपनी सीट पर  बैठने से पहले उनकी  लाठी ऊपर वाले खाने में रख दी साथ ही अपना केबिन बैग भी। बैठने के बाद  पहले बेल्ट बाँधने में उनकी सहायता की, उनके हाथ काँप रहे थे।संभवतः कुछ अकेले यात्रा करने का भय था, कुछ आत्मविश्वास का अभाव भी। फिर अपनी बेल्ट लगा ली। इतने में एयर होस्टेस ने हमें फ्रूटी का पैकेट पकड़ाया। मैंने दो पैकेट लिए और बुजुर्ग की ओर एक पैकेट बढ़ाया।

मेरी छोटी – छोटी सेवाओं ने बुजुर्ग के दिल में मेरे लिए खास जगह बना दी। अब उनका रोना भी बंद हो चुका था। मैं भी आश्वस्त थी और अब जिज्ञासा ने प्रश्नावलियों का रूप ले लिया था। मन में असंख्य सवाल थे जिनके उत्तर यात्रा के दौरान इन साढ़े पाँच  घंटों में ही मुझे हासिल करना था।

मैंने ही पहला सवाल पूछा, फिर दूसरा, फिर तीसरा और फिर चौथा …..

थोड़ी देर बाद मैं चुप हो गई,  बिल्कुल चुप और बुज़ुर्ग बस बोलते रहे, बस बोलते ही चले गए। उन्होंने जो कुछ मुझसे कहा आज मैं उन सच्चाइयों को आप पाठकों के सामने रख रही हूँ। उन्हें सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे शायद इन घटनाओं  के सिलसिले को पढ़कर आपका हृदय भी  द्रवित हो उठे। मैं इस कहानी में बुजुर्गों का नाम तथा पहचान गुप्त रखना चाहूँगी क्योंकि किसी की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचाना उचित नहीं है।

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बुजुर्ग का बेटा मुंबई शहर में टैक्सी चालक था।काम ढूँढ़ने के लिए  सत्रह वर्ष की उम्र में वह इस शहर में आया था। वह जब सफल रूप से पर्याप्त धन कमाने लगा तो वह अपने माता – पिता को भी गाँव से मुंबई ले आया था। माता-पिता गाँव में दूसरों के खेत में मज़दूरी करके अपना गुज़ारा करते थे। बेटा बड़ा हुआ तो  उसका विवाह किया गया। अब तो उसके बच्चे भी कॉलेज में पढ़ रहे थे। बुजुर्ग की पत्नी और  बहू के बीच अब धीरे-धीरे  अनबन होने लगी थी। संभवतः कम जगह, बढ़ती महंगाई ने रिश्तों में दरारें पैदा कर दीं। अनबन  की मात्रा इतनी बढ़ गई कि बुज़ुर्ग के बेटे ने उन्हें अलग रखने का फैसला किया।

2000 के फरवरी माह की एक सुहानी शाम के समय बुजुर्गों का बेटा अपने माता-पिता के लिए हज करने के लिए मक्का मदीना भेजने की व्यवस्था कर आया।वे अत्यंत प्रसन्न हुए अपने बेटे – बहू को आशीर्वाद देते  नहीं थकते थे। उनकी खुशी का कोई ठिकाना न था। बुजुर्ग और उनकी पत्नी ने अपने सपने  में भी कभी नहीं सोचा था कि उन्हें हज पर जाने का मौका मिलेगा। बेटे से पूछा कि इतने पैसों का प्रबंध कैसे हो पाया तो उसने कहा कि उसने अपना घर गिरवी रखा है। वह अपने माता पिता को लेकर हज कर आना चाहता है।उनके पड़ोसी  उनसे मिलने आते और उनके सौभाग्य की सराहना करते।  बूढ़ा अपने बेटे बहू की प्रशंसा करते ना थकते।

फिर वह सुहाना दिन भी आ गया। बुजुर्ग और उनकी पत्नी अपने बेटे के साथ छत्रपति शिवाजी अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे पर पहुँचे। कोई फूलों का गुच्छा देता तो कोई फूलों की माला पहनाता। अनेक पड़ोसी और  रिश्तेदार उन्हें  विदा करने एयरपोर्ट आए थे।

 बुजुर्ग ने अपनी जिंदगी बड़े कष्टों में गुजारी थी तभी तो उनका बेटा 17 वर्ष की उम्र में उत्तर प्रदेश के एक गाँव से उठकर रोज़गार की तलाश में मुंबई आया था। उन्होंने कभी भी नहीं सोचा था कि वह कभी हज करने जा सकेंगे। दो वक्त की रोटी जहाँ ठीक से नसीब ना हो वहाँ इतना बड़ा खर्च कैसे किया जा सकता है भला?  पर बेटे ने तो वह सपना पूरा करना चाहा जो कभी आँखों ने देखे भी न थे।

हवाई यान ने उड़ान भरी। मां-बाप और सुपुत्र चले मक्का। 10 मार्च 2001 व्यवस्थित योजना के मुताबिक सुचारू रूप से सब कुछ होता रहा। जिद् दा हवाई अड् डे  से बस में बैठकर अन्य यात्रियों के साथ उसी दिन रात को तीनों मक्का पहुँचे।

बुजुर्ग और उनकी पत्नी की खुशी की सीमा न थी वह तो मानो स्वर्ग पहुँच गए थे। अल्लाह के उस दरवाजे पर आकर उस दिन खड़े हुए जहाँ नसीब वाले ही पहुँच सकते थे। मक्का में यात्रियों और हाजियों की भीड़ थी बेटे ने हिदायत दी थी कि वे एक दूसरे के साथ ही रहे साथ ना छोड़े।

बुजुर्ग और उनकी पत्नी अनपढ़ थे। मजदूरी करके जीवन काटने वाला व्यक्ति दुनिया की रीत भला क्या समझे उसके लिए तो दो वक्त की रोटी पर्याप्त होती है मक्का का दर्शन हो गया काबा के सामने खड़े अल्लाह  से दुआएँ माँग रहे थे। अपने बेटे की लंबी उम्र और सफल जीवन के लिए दुआएँ कर रहे थे। उन्हें क्या पता था कि वह उसी स्थान पर कई दिनों तक खड़े-खड़े बेटे की प्रतीक्षा ही करते रहेंगे।

 मक्का में दो दिन बीत गए। बेटा उसी भीड़ में कहीं खो गया। भाषा नहीं आती थी। किसी तरह अन्य भारतीयों हाजियों की सहायता लेकर  पुलिस से गुमशुदा बेटे की शिकायत दर्ज़ कराई।  बुजुर्ग की पत्नी का रो-रोकर हालत खराब हो रही थी।

गायब होने से पहले बेटे ने अपने वालिद के हाथ में पाँच सौ रियाल रखे थे और कहा था थोड़ा पैसा अपने पास भी रखो अब्बा।

पुलिस ने छानबीन शुरू की। बुजुर्ग के पास न पासपोर्ट  था, न वीज़ा,न हज पर आने की परमिट पत्र।भाषा आती न थी। घर से बाहर ही कभी मुंबई  शहर में अकेले कहीं नहीं गए थे यह तो परदेस था। पति-पत्नी भयभीत होकर काँपने लगे, पत्नी रोने लगी।पर पुलिस को तो नियमानुसार अपनी ड्यूटी करनी थी।

पुलिस ने कुछ दिनों तक उन्हें जेल में रखा क्योंकि उन पर बिना पासपोर्ट के पहुँचने का आरोप था। पर छानबीन करने पर कंप्यूटर पर उनका पासपोर्ट नंबर और नाम मिला तो मान लिया गया कि उनका पासपोर्ट कहीं खो गया। उन्होंने अपने बेटे का नाम और मुंबई का पता बताया तो पता चला कि उस नाम के व्यक्ति की जिद् दा  से एग्जिट हो चुकी थी।

एक और एक जोड़ने पर बात स्पष्ट हो गई। बुजुर्ग और उनकी पत्नी से पिंड छुड़ाने के लिए उन्हें मक्का तक ले आया और उन्हें धोखा देकर उनका पासपोर्ट तथा टिकट लेकर स्वयं भारत लौट गया।

बात यही॔ खत्म नहीं हुई। घर का जो पता दिया गया था उस पते अब उस नाम का कोई व्यक्ति नहीं रहता था। बूढ़े को याद आया कि उसके रहते ही उस घर को देखने कुछ लोग आए थे। तब बेटे ने बताया था कि वह घर गिरवी रख रहा था बुजुर्ग को क्या पता था कि बेटे और बहू के दिमाग में कुछ और शातिर योजनाएँ चल रही थीं।

उधर भारतीय एंबेसी लगातार बुजुर्ग के परिवार को खोजने की कोशिश कर रही थी। इधर बुजुर्ग और उनकी पत्नी  की हालत खराब हो रही थी। एक तो बेटे  द्वारा दिए गए धोखे का गम था, दूसरा बुढ़ापे में विदेश में जेल की हवा खानी पड़ी। अपमान और ग्लानि के कारण बुजुर्ग की पत्नी की तबीयत दिन-ब-दिन खराब होने लगी थी। पुलिस की निगरानी में आश्रम जैसी जगह में उन्हें रखा गया था। यहाँ उन हाजियों को रखा जाता था जो हज करने के लिए मक्का तो पहुँच जाते थे पर उनके पास पर्याप्त डॉक्यूमेंट ना होने के कारण वे लौटकर अपने देश नहीं जा पाते। यह लोग अधिकतर इथियोपिया,चेचनिया इजिप्ट या अन्य करीबी देशों से आने वाले निवासी हुआ करते थे। फिर कुछ समय बाद वे  इसी देश में रह जाते थे।

बुजुर्ग और उनकी पत्नी गरीब जरूर थे पर उनकी अपनी इज्जत थी उनके गाँव के निवासी, मुंबई के पड़ोसी सब मान करते थे वरना मुंबई के हवाईअड् डे पर फूल लेकर  उनसे मिलने क्यों आते? यह तो हर हज पर जाने वाले व्यक्ति का अनुभव होता है उसे विदा करने और लौट आने पर स्वागत करने के लिए असंख्य लोग आते हैं।

तीन  महीने बीत गए।  बुजुर्ग और उनकी पत्नी अब मक्का से जिद् दा लाए गए। उसी शहर में कुछ ऐसे भारतीय थे जो जिद् दा शहर में नौकरी के सिलसिले में कई सालों से रह रहे थे वे साधारण नौकरी करते थे तथा बड़े-बड़े फ्लैट किराए पर लेकर कई लोग एक साथ रहा करते थे। उन लोगों में कुछ टैक्सी चालक थे कुछ टेलीफोन के लाइनमैन तो कुछ फिटर्स तथा कुछ बड़ी दुकान में सेल्समैन। सभी अपने-अपने परिवारों को भारत में छोड़ आए थे और वहीं सारे पुरुष एक साथ भाई – बंधुओं की तरह रहा करते थे।

इन तीन  महीनों में इन्हीं लोगों ने दौड़ भाग कर इंडियन एंबेसी से पत्र व्यवहार किया पैसे इकट्ठे किए कागजात बनवाए और बुजुर्गों को जिद् दा  ले आए। बुजुर्ग की उम्र सत्तर से ऊपर थी और उनकी पत्नी अभी सत्तर से कम। वे दिन रात प्रतीक्षा में रहते। जिन लोगों ने उन्हें अपने साथ रखा था वे जानते थे बुज़ुर्ग का बेटा उन्हें ले जाने के लिए यहाँ छोड़ कर नहीं गया था। उसकी तो साज़िश थी उन से पीछा छुड़ाने का। बुजुर्ग इस सच्चाई को कुछ हद तक मान भी लेते लेकिन उनकी पत्नी इस बात को मानने को तैयार नहीं थी।  वे दोनों इसी गलतफ़हमी में थे कि उनका बेटा कहीं खो गया था।

पत्नी का रो – रो कर बुरा हाल हो रहा था। जिस तरह पानी बरसने के बाद कुछ समय बीतने पर जमीन ऊपर से सूख तो जाती है पर भीतर तक लंबे समय तक उसमें  गीलापन बना रहता है।ठीक उसी तरह बूढ़ी की हर साँस से दर्द का अहसास होता था। अब रोना बंद हो गया पर साँसें भारी हो उठीं।

उनके इर्द-गिर्द रहनेवाले वे सारे लोग उनके आज अपने थे। एक बाप अपने कलेजे के टुकड़े को न छोड़ पाएगा पर माँ-  बाप को बोझ समझनेवाला शायद उन्हें छोड़ सकता है।यह किसी धर्मविशेष की बात नहीं है, वरना स्वदेश में इतने वृद्धाश्रम न होते।

बुजुर्गों की पत्नी की तबीयत बिगड़ती गई और माह भर सरकारी अस्पताल में रहने के बाद अपने नालायक बेटे को याद करते – करते उसने दम तोड़ दिया। धर्मपत्नी की मय्यत को वहीं मिट्टी दी गई क्योंकि भारत में अब बेटे का भी पता न था और हाथ में किस प्रकार के कोई डॉक्यूमेंट लौटने के लिए नहीं थे। घर बेचकर किस शहर को वह चला गया था यह तो खुदा ही जानता था।  बुजुर्ग अब अकेले रह गए पत्नी की मौत ने मानो उनकी कमर ही तोड़ दी। वे भी  उसी के साथ जाना चाहते थे मगर मौत अपनी मर्जी से थोड़ी आती है। उनका कलेजा हरदम मुँह को आ जाता था पर शायद उन्हें अभी और दुख झेलने थे।

सारे अन्य भारतीय लोगों के बीच रहते और इंडियन एंबेसी के निर्णय का वे रास्ता देखते रहे।

आज वही दिन था जब जिद् दा शहर से हमेशा के लिए वे विदा हो  रहे थे।  अपनी औलाद ने पिंड छुड़ाने के लिए इतनी दूर लाकर छोड़ा था और जिनके साथ उनका रिश्ता भी नहीं वे  अपनों से बढ़कर निकले। पराए देश में एक असहाय दंपति का साथ दिया,  उनकी सेवा की,  सहायता की, आश्रय दिया।  यहां तक कि बुजुर्ग की पत्नी का अंतिम संस्कार भी नियमानुसार किया। बुजुर्ग के लिए एंबेसी जाते रहते और अंत में विभिन्न एजेंटों की सहायता से पासपोर्ट बनाकर वीजा की व्यवस्था करके एग्जिट का वीजा लेकर आए। वह आज उनके कितने अपने थे उनके साथ पिछले छह महीने रहते-रहते ऐसा अहसास हुआ कि संसार का सबसे बड़ा रिश्ता प्रेम का रिश्ता है।  जिद् दा शहर में रहने वाले लोग चाहे भारत के किसी भी राज्य के हों,  चाहे जिस किसी धर्म के हों उनमें प्रेम है, एकता है। वे सब मिलजुलकर सभी त्यौहार मनाते हैं। खुशी और ग़म में एक दूसरे का साथ देते हैं।

बुजुर्ग की आँखें चमक उठी और बोले यह सब जो मुझे छोड़ने आए थे वह सब हिंदू, मुसलमान और ईसाई लोग थे। पर उन सब की एक ही जाति और धर्म है और वह है मानवता। फिर बुजुर्ग ने अल्लाह का शुक्रिया करते हुए कहा कि मैं तो जिद् दा की पुलिस, सरकार, राजा सबको धन्यवाद देता हूं क्योंकि सब ने हमारी बहुत देखभाल की।

विमान को उड़ान भरे पाँच घंटे हो गए हमें पता ही न चला। एक बार फिर से सीट बेल्ट बाँधने का अनाउंसमेंट हुआ और मुझे अहसास हुआ कि हम छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर उतरने जा रहे थे। मेरा दिल एक बार इस चिंता से धड़क उठा और समझ में नहीं आ रहा था कि मैं बुजुर्ग से कैसे पूछूँ फिर भी साहस जुटाकर मैंने उनसे पूछ लिया कि मुंबई उतर कर वे  कहाँ जाएँगे। तब उन्होंने अपनी जेब से काँपते हाथों से एक लिफाफा निकाला जिसमें एक महिला की तस्वीर थी और उसका पता लिखा हुआ था।

विमान उतरा,  हम इमीग्रेशन की ओर निकले। औपचारिकता पूरी  करने के बाद अपना सामान बेल्ट पर से उतारकर ट्रॉली पर रखा और बाहर आए। एक मध्यवयस्का महिला एक व्हीलचेयर  लेकर खड़ी थी। हम जब थोड़ा और आगे बढ़े तो  उस महिला ने बुजुर्ग को आवाज लगाई, “अब्बाजान मैं रुखसाना!” और वह एक सिक्योरिटी के अफसर के साथ बुजुर्ग के पास आई। बड़े प्यार से उन्हें गले लगाई मीठी आवाज में बोली, “अब्बाजान  घर चलिए। सब आपका इंतजार कर रहे हैं।

 मैंने उनसे पूछा,”रुखसाना जी बाबा को कहाँ ले जा रही हैं ? “

उन्होंने मेरी ओर ऊपर से नीचे  एक बार देखा फिर पूछा, ” आपका परिचय?”  मैंने भी झेंपते  हुए कहा, ” बस कुछ घंटों का साथ था बाबा के साथ। मैं भी यात्री हूँ।

बाबा बोले,”  रुखसाना बेटा साढ़े पाँच  घंटों में यह सफ़र कैसे कटा पता ही न चला।अगर ये ख़ार्तून ना मिलतीं तो यह सफ़र मेरे लिए तय करना बड़ा मुश्किल होता। आपने पूछा था ना कि मैं क्या पीछे छोड़े जा रहा हूँ ? मैं  अपनों को छोड़ आया हूँ जिन्होंने मुझे आज अपने देश लौटने का मौका दिया।  इसलिए मैं अपने आँसू रोक न पा  रहा था। अगर आप ना मिलतीं तो शायद  इसी तरह रोता रहता। आपका बहुत-बहुत शुक्रिया,आपने बोझ हल्का करने में मदद की।

रुखसाना ने अपने पर्स से अपना पहचान पत्र निकाला ‘सोशल वर्कर मुंबई’।  बाबा का नया घर था वृद्धाश्रम! जिद् दा के  बच्चों ने ही यह व्यवस्था  की थी जिनके साथ उनका कोई खून का रिश्ता नहीं था।

बाबा ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर पूछा आपने अपना नाम क्या बताया बेटा ?

 मैं जोर से हँस पड़ी, मैंने कहा “बाबा मैंने तो आपको मेरा परिचय दिया ही ना था। “

 तब तक हम तीनों बाहर  पहुंच गए थे जहाँ टैक्सी मिलती है। मैंने बाहर आने पर झुककर बाबा को प्रणाम किया और कहा “मैं भी आपकी हिंदू बेटी हूँ। फिर मिलूँगी आपसे।”

© सुश्री ऋता सिंह

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ “चला बालीला…” – भाग – ७ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

☆ “चला बालीला…” – भाग – ७ ☆ सौ राधिका भांडारकर 

आज सकाळीच सतीश ने टी टेबलवर एक मस्त एक्सायटिंग घोषणा केली. “आजचा कार्यक्रम आहे बाली हाय क्रुझ. आपण सनसेट डिनर क्रुझ बुक केली आहे.”

वाॅव! बाली आणि समुद्र सफारी शिवाय परतायचे हे केवळ अशक्य!

बाली बेनोवा बंदर (जिथून  आमची क्रुझ सुरू होणार होती) आमच्या वास्तव्यापासून एक-दीड तासाच्या अंतरावर होते. आम्हाला बाली हाय क्रुझतर्फे  पिक अप आणि ड्रॉप होता.  दुपारी साडेतीन वाजता आम्ही निर्गमन करणार होतो त्यामुळे सकाळी आम्ही बरोबर आणलेले थेपले, दशम्या, बेसन वड्या, चिवडा, घारगे असे विविध पदार्थ खाऊन लाईट (?) लंच घेतले. बऱ्याच दिवसांनी पत्ते खेळलो, डॉब्लर्स नावाचा एक लहान मुलांचा पण अतिशय गमतीदार असा मानसिक तत्परता वाढविणारा  खेळही खेळलो. OLDAGE IS DOUBLE CHILDHOOD चाच जणू काही  अनुभव घेतला म्हणा ना!

बरोबर साडेतीन वाजता आमची सहा जणांची रंगीन टीम मस्त नटून थटून बेनोवा बंदरकडे जायला तयार झाली. आमची पिकअप कार आलेलीच होती. नेहमीप्रमाणेच गणवेशातला रुबाबदार हसतमुख पण नम्र ड्रायव्हर स्वागतास तयार होताच.

रस्त्यावरून जाताना प्रमोदच्या आणि ड्रायव्हरच्या नेहमीप्रमाणेच मस्त गप्पा चालू होत्या. भाषेचा अडसर कसाबसा पार करत गप्पा रंगल्या होत्या. तो सांगत होत, “इंडोनेशियामध्ये ८७% मुस्लिम आहेत पण बाली हे एकमेव असे बेट आहे की इथे ९०% हिंदू धर्मीय आहेत. हिंदू देवदेवतांची पूजा करणारे आहेत आणि हिंदू धर्माचा अभिमान बाळगणारे आहेत. घरोघरी हिंदू रिती परंपरा येथे पाळल्या जातात.”

अशा रितीने गप्पागोष्टी करत, फळाफुलांनी नटलेली वनश्री पहात, चौका-चौकातली शिल्पे आणि वास्तुकलेचे भव्य दर्शन घेत आम्ही बेनोवा बंदर वर पोहोचलो.  तिथले वातावरणच पर्यटन पूरक होते. सागर किनाऱ्यावर अनेक लहान-मोठी जहाजे नांगर टाकून उभी होती. आमच्यासारखेच अनेक उत्सुक  पर्यटक देशोदेशाहून  तिथे आलेले होते.अर्थात सारेच अत्यंत उत्साही आणि आनंदी मूडमध्ये  होते. आमची सनसेट डिनर क्रुझ संध्याकाळी  साडेपाचला सुटणार होती. जवळजवळ साडेतीन तासाची समुद्रसफर होती आणि डिनरसह संगीत, नृत्य असा भरगच्च कार्यक्रम बोटीवर असणार होता. तत्पूर्वी आम्हाला तिथे एक मधुर, शीतल स्वागत पेय देण्यात आलं. काउंटर वर आम्ही आमची तिकिटे घेतली प्रत्येकी ११ लाख इंडोनेशियन रुपये! जवळजवळ प्रत्येकी साडेसहा हजार भारतीय रुपये.  सर्व कारभार अतिशय शिस्तपूर्ण आणि नीटनेटका होता. सगळ्यांना सांभाळून बोटीपर्यंत नेले जात होते.  रुबाबदार वातावरण, सुसज्ज रेस्टॉरंट,सागराचं आणि आकाशाचं खुलं  दर्शन देणारा मस्त सुरक्षित डेक आणि सोबतीला हलकेच बालीनीज पारंपारिक वाद्य संगीत. एका वेगळ्याच वातावरणात गेल्याचा अनुभव आम्हाला मिळत होता.

ठीक साडेपाच वाजता बोटीने किनारा सोडला आणि त्या हिंदी महासागरातली ती अविस्मरणीय सफर सुरू झाली. निळे व्योम आणि आप या निसर्गतत्त्वांचा किती अनाकलनीय परिणाम मनावर होतो हे प्रत्यक्ष अनुभवत होतो. काही वर्षांपूर्वी आसाम मध्ये ब्रह्मपुत्रा नदीच्या दर्शनाने जी समाधीस्थ अवस्था काही क्षणापुरती का होईना पण जाणवली होती अगदी तशीच या सागर दर्शनाने पुनश्च जाणवत होती.” सागरा प्राण तळमळला.. सागरा…” अगदी नेमके हेच वाटत होते. खरं सांगू ?निसर्ग इतका अथांग, अफाट असतो की आपलं अस्तित्व त्याच्यासमोर फक्त कणभराचंच असल्यासारखं वाटतं! निसर्गासमोर सारं “मी पण” अहंकार, गर्व स्वतःविषयीच्या कल्पना, (गैर) सारं सारं काही क्षणात गळून पडतं.  मनाच्या खोल गाभाऱ्यात “कोहम” नाद घुमत राहतो.

आता माथ्यावरील निळ्या आकाशातले रंग बदलू लागले होते. बोट समुद्राच्या मध्यभागी आलेली होती. किनाऱ्यावरची घरे आणि हळूहळू पेटत चाललेले दूरचे दिवे हे सुद्धा खूप आकर्षक भासत होते.पश्चिम दिशेला ढळणार्‍या सूर्याने आकाशात केशरी, जांभळे रंग, उधळले होते मावळणाऱ्या सूर्यकिरणांतून पाण्यावर हलकेच तरंगणारे ते सोनेरी रंग पाहतांना कुसुमाग्रजांच्या कवितांच्या ओळी आठवल्या.

आवडतो मजला अफाट सागर

अथांग पाणी निळे

निळ्या जांभळ्या जळात केशर

सायंकाळी मिळे..

हवेतला  तो गुलाबी गारवा! स्तब्ध होत होतं सारं.. मन, डोळे जणूं अमृत प्राशन केल्यासारखे तृप्त होत होते. हलके हलके काळोखात बुडत चाललेला दिवस जणू काही उद्याचा नवा प्रकाश घेऊन येण्याचं आश्वासन देऊनच परतत होता. थोड्यावेळापूर्वीचा प्रकाशातला तो रोमँटिक निसर्ग कसा नि:शब्दपणे गूढ होत चालला होता.

ठीक साडेसात वाजता क्रुझ वर डिनर सुरू झाले. सोबत मस्त संगीत. आमच्याबरोबरचे युवक— युवतींचे मेळावे  अगदी धुंद, उत्तेजित झाले होते. आणि त्यांच्या समवेत त्यांना पाहताना नकळत आम्ही आमच्या गतकाळात जात होतो. कुठेतरी आजच्या आणि कालच्या काळाशी तुलनाही करत होतो. पण त्या क्षणी मात्र त्यांचं हे तारुण्य, जगणं, जीवन साजरं करणं पाहून निश्चितच हरखूनही गेलो होतो. त्यांचा प्रवास आमचा प्रवास निराळा होता. त्यांचं बाली पर्यटन आणि आमचं बाली पर्यटन यात खूप फरक होता. फरक ऊर्जेचा होता, मस्ती, भोगणं इतकच नव्हे तर खाण्यापिण्यातलाही होता. भरभरून जगणं आणि खूप काही जगून झाल्यानंतरच जगणं यातला फरक होता. समान फक्त एकच होतं. अनुभव. आनंदाचा, रिफ्रेश होण्याचा, रिक्रिएशनचा.

भरभरून खायला होतं. गरमागरम, आकर्षक आणि चविष्ट पदार्थांची रेलचेल होती.शौकीनांसाठी जलपानही होते. एकंदरच इंडोनेशियन जेवणाचा थाट औरच होता. उत्सुकतेपोटी आम्ही निरनिराळे पदार्थ चाखून पाहिले. काही आवडले, काही बेचव  वाटले. पण एकंदर अन्नसेवनाचा यज्ञ कर्म मजेत पार पडला.

त्यानंतर खास क्रुझ वरील सर्व पाहुण्यांसाठी  मनोरंजनाचा कार्यक्रम होता. अर्थातच संगीत आणि नृत्य. मुळातच बालीयन हे कलासक्तच आहेत. संगीत, नृत्य, नाट्य, अभिनय हे त्यांच्या धमन्यातूनच वाहत असावं.

बालीनीज नृत्य पाहण्याची आम्हालाही फार उत्सुकता होती.

बालीनीज  नृत्य हे लोक परंपरेचं प्रतीक आहे. शास्त्रोक्त पद्धतीची ती एक अतिशय मनोरम अशी नृत्यकला आहे. बालीनीज नृत्याच्या माध्यमातून नाट्यमयरीत्या हिंदू परंपरा, तसेच रामायण— महाभारतातील कथांची अतिशय मनोहारी मांडणी केली जाते. अनेक वाईट गोष्टींचे, विकारी वृत्तींचे (एव्हिल स्पिरिट्स) दमन हा विषय या नृत्याच्या माध्यमातून अतिशय प्रभावीपणे सादर केला जातो. या संपूर्ण नृत्यात हस्त,पाद, मान, बोटे, डोळे यांच्या कलापूर्ण हालचालीतून प्रेक्षकांसमोर पौराणिक कथा उलगडत जाते.  चांगल्या गोष्टींचा वाईट गोष्टींवर, सत्याचा असत्यावर,  देववृत्तीचा असुर वृत्ती वर विजय कसा होतो याचं अत्यंत आकर्षक देहबोली आणि मुद्राभिनयातून केलेलं प्रकटीकरण पाहताना प्रेक्षक थक्क होतात.

या बालीनीज नृत्या मागे अनेक वर्षांचा इतिहासही आहे. पंधराव्या शतकापासून बालीनीजची सांस्कृतिक परंपरा काहीशी बदलू लागली आणि हिंदू धर्मीय एक प्रकारच्या या नृत्य कलेतून एकत्र यायला लागले, अधिक जोडले जाऊ लागले.

तसे या शास्त्रोक्त पारंपारिक नृत्याचे अनेक प्रकार आहेत बारोंग, फ्रॉग, जॉग, जेगॉग,लेंगोंग काकॅक वगैरे. आणि प्रत्येक नृत्य प्रकारची वैशिष्ट्ये निराळी आहेत. विषय निराळे आहेत, पोशाख वेगळे आहेत. आमच्यासमोर बोटीवर जे नृत्य सादर होत होते ते बारोंग प्रकारातले होते.यात राधाकृष्णाची प्रेमलीला होती.

पुरुष आणि स्त्रियांचा नृत्य करताना परिधान केलेला पोशाख ही आकर्षक होता. या पोशाखाचे दोन भाग असतात. वरचा व खालचा कमरेपासून पायापर्यंतचा. वरच्या भागाला सॅश म्हणतात व खालच्या भागाला केन म्हणतात. संपूर्ण पोशाखाला साबुक असे म्हणतात. आणि प्रामुख्याने कपड्याचा रंग सोनेरी असतो. डोक्यावर टोपेग नावाचा लाकडी कला कुसरीचा मोठा गोल मुकुट असतो. बाकी गळ्यात, हातात केसात, फुलांच्या,खड्यांच्या  माळा घातलेल्या असतातच. नाचताना त्यांच्या हातात कधी पंखे, कधी फुलांच्या कुंड्याही असतात. एकंदर हा डान्स अतिशय नयनरम्य असतो. हे नृत्य बघत असताना मला केरळमधील कथकली, मोहिनीअट्टम किंवा ओडिसी नृत्याची प्रामुख्याने आठवण झाली.  देशोदेशीच्या कला कुठेतरी समानतेच्या धाग्याने जोडलेल्या असतात हे नक्कीच.

तर मित्रांनो!अशा रितीने  चौफेर आनंदाचा अनुभव घेत आम्ही रात्री अकरा वाजता घरी परत आलो.आमच्या बाली सफरीचा हा समारोपाचा टप्पा होता.  दुसऱ्या दिवशी दुपारी एक वाजता आमची परतीची फ्लाईट होती.डेनसपार ते सिंगापूर ते मुंबई.

बाली बेटावरचा अविस्मरणीय आनंदाचा अनुभव घेऊन आता भारतात परतायचे होते. या आठ दिवसात इंडोनेशियातील बाली या निसर्गरम्य बेटाशी आमचं एक आनंददायी आणि भावनिक नातच जुळून आलं होतं.  इथला निसर्ग, हिंदी महासागराचे विहंगम नजारे, इथली संस्कृती,  परंपरा, कला आणि माणसं यांच्याशी एक रेशीम धागा नकळत जुळला गेला होता.

बाली हे जसं देवांचं बेट तसं बाली हे स्वप्नांचंही बेट आहे.  इथे प्रत्येकासाठी काहीतरी आहे. शांतता आणि विश्रांतीच्या शोधात आलेल्या पर्यटकांसाठी समुद्राच्या लाटा पाहणे, सूर्योदय, सूर्यास्त पाहणे, पोहण्याचा मनसोक्त आनंद लुटणे हे सारं काही आहे. तरुणांसाठी इथे आनंददायी नाईट लाईफ आहे, आकर्षक मार्केट्स आहेत! हिरवीगार जंगले आहेत, कायाकिंग,सर्फरायडींग ,स्कुबा डायव्ह पॅरासेलिंग सारख्या साहसी सागरी क्रीडा आहेत. भौतिकता आणि आध्यात्मिकता यांची झालेली एक विलक्षण सरमिसळही इथे पाहायला मिळते.

आयुष्याच्या शेवटच्या टप्प्यावरची आमची ही बाली सहल आमच्यासाठी नक्कीच आनंदाची ओंजळ ठरली. वयाची आठवण ठेवूनही आम्ही या बेटावरचा प्रत्येक क्षण बेभानपणे जगलो मात्र. आणि जगणं हे किती आनंददायी आहे हा मंत्र घेऊन आणि आता पुढची सहल कुठे असे ठरवतच  भारतात परतलो. आमच्या विमानाने बालीची भूमी सोडली आणि उंच आकाशात झेप घेतली. पुन्हा एकदा वरून दिसणाऱ्या अथांग महासागराचे आणि गगनचुंबी गरुड विष्णूच्या शिल्पाचे निरोपाचे दर्शन घेतले आणि भारताच्या दिशेने .,”चला आता आपल्या घरी, आपल्या देशी” या भावनिक ओढीने आणि इतक्या दिवसांच्या मित्र—मैत्रीणीच्या,सहवासाच्या  विरहाची हुरहुर बाळगत परतीच्या प्रवासासाठीही आनंदाने  तयार झालो.

इथेच बाली सहलीची सफल संपूर्ण कहाणी समाप्त!

— समाप्त — 

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ “चला बालीला…” – भाग – ६ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

☆ “चला बालीला…” – भाग – ६ ☆ सौ राधिका भांडारकर 

— Fire Dance 

फायर डान्स —अग्नि नृत्य म्हणजे बाली बेटावरचे एक प्रमुख आकर्षण.

समुद्रकिनाऱ्यावर उतरत्या संध्याकाळी या नृत्याचे भव्य सादरीकरण असतं. बीचवर जाण्याच्या सुरुवात स्थानापर्यंत आम्हाला हॉटेलच्या शट्ल सर्विस ने सोडले.  उंच टेकडीवरून आम्हाला समुद्राचे भव्य दर्शन होत होते. ज्या किनाऱ्यावर हे अग्नी नृत्य होणार होते तिथपर्यंत पोहोचाण्याचा रस्ता बराच लांबचा, डोंगरावरून चढउताराचा, पायऱ्या पायऱ्यांचा होता.  सुरुवातीला कल्पना आली नाही पण जसजसे पुढे जात राहिलो तसतसे जाणवले की हे फारच अवघड काम आहे.  त्यापेक्षा आपण खालून किनाऱ्यावरून चालत का नाही गेलो? तो रस्ता जवळचा असतानाही— असा प्रश्न पडला. अर्थात त्याचे उत्तर यथावकाश आम्हाला मिळालेच. ती कहाणी मी तुम्हाला नंतर सांगेनच.  तूर्तास आम्ही धापा टाकत जिथे नृत्य होणार होते तिथे पोहोचलो.

बरोबर संध्याकाळी सहा वाजता हे अग्नी नृत्य सुरू झाले. चित्र विचित्र ,रंगी बेरंगी,चमचमणारी वस्त्रं ल्यायलेले, अर्धे अधिक उघडेच असलेले नर्तक आणि नर्तिकांनी हातात पेटते पलीते असलेली चक्रे फिरवून नृत्याला सुरुवात केली. समोर सादर होत असलेल्या त्या नृत्य क्रीडा, पदन्यास आणि ज्वालांशी लीलया चाललेले खेळ खरोखरच सुंदर तितकेच चित्तथरारक होते.  आपल्याकडच्या गोंधळ, जागर यासारखाच लोकनृत्याचा तो एक प्रकार होता. संगीताला ठेका होता. अनेक आदिवासी नृत्यंपैकी  हे एक नृत्य.साहस आणि कला यांचं अद्भुत मिश्रण होतं.

लख लख चंदेरी तेजाची न्यारी दुनिया

झळाळती कोटी ज्योती या….

या जुन्या गाण्याचीही आठवण झाली. 

काळोखात चाललेलं आभाळ, लाटांची गाज, मऊ शुभ्र वाळू यांच्या सानिध्यात चाललेलं ते अग्नी प्रकाशाचे नृत्य फारच प्रेक्षणीय होतं. उगाच  काहीसं भीषण आणि गूढही वाटत होतं.एक तास कसा उलटला ते कळलंही नाही.

परतताना मात्र आम्ही आल्यावाटेने गड चढत जाण्यापेक्षा सरळ वाळूतून चालत जायचे ठरवले. तिथल्या स्थानिक माणसाने आम्हाला एवढेच सांगितले,” अर्ध्या तासात समुद्राला भरती येईल. मात्र दहा ते पंधरा मिनिटात तुम्ही शटल पॉईंट ला पोहोचालच.  जा पण सांभाळून..” 

मग असे आम्ही सहा वृद्ध वाळूतून चालत निघालो.  वाळूतून चालणारे फक्त आम्हीच असू.बाकी सारे मात्र ज्या वाटेने आले त्याच वाटेने जाऊ लागले.

हळूहळू लक्षात आले वाळूच्या अनंत थरातून चालणे  सोपे नव्हते.  पाय वाळूत रुतत होते.  रुतणारे पाय काढून पुढची  पावले टाकण्यात भरपूर शक्ती खर्च होत होती. अंधार वाढत होता.समुद्र पुढे पुढे सरकत होता. आमच्या सहा पैकी सारेच मागे पुढे झाले होते. समुद्राच्या भरतीची वेळ येऊन ठेपत होती.

विलासला फूट ड्रॉप असल्यामुळे तो अजिबात चालूच शकत नव्हता.  आम्ही दोघं खूपच मागे राहिलो.  मी विलासला हिम्मत देत होते. थोड्या वरच्या भागात येण्याचा प्रयत्न करत होतो पण विलास एकही पाऊल उचलूच शकत नव्हता आणि तो वाळूत चक्क कोसळला. त्या विस्तीर्ण समुद्राच्या वाळूत, दाटलेल्या अंधारात आम्ही फक्त दोघेजण! आसपास कुणीही नाही. दोघांनाही आता जलसमाधी घ्यावी लागणार हेच भविष्य दिसत होतं. मी हाका मारत होते…” साधना, सतीश प्रमोद हेल्प हेल्प”

मी वाळूत उभी आणि विलास त्या थंडगार वाळूत त्राण हरवल्यासारखा निपचीत पडून. एक भावना चाटून गेली.

We have failed” आपण उंट नव्हतो ना…

कुठून तरी  साधना धडपडत कशीबशी आमच्याजवळ आली मात्र. सतीश ने माझी हाक ऐकली होती. समोरच बीच हाऊस मधून त्यांनी काही माणसांना आमच्यापर्यंत जाण्यास विनंती  केली.. दहा-बारा माणसं धावत आमच्या जवळ आली.  सतीशच्या प्रसंगावधानाचे कौतुक वाटले. कारण त्याने त्याच क्षणी जाणले होते की हे एक दोघांचं काम नव्हे. मदत लागणार.मग त्या माणसांनी कसेबसे विलासला उभे केले आणि ओढत उंचावरच्या पायऱ्या पर्यंत आणले. तिथून एका स्विमिंग बेड असलेल्या खुर्चीवर विलासला झोपवून पालखीत घालून आणल्यासारखे शटल पॉईंट पर्यंत नेले. हुश्श!!आता मात्र आम्ही सुरक्षित होतो. चढत जाणाऱ्या समुद्राला वंदन केले. त्याने त्याचा प्रवाह धरुन ठेवला होता का? त्या क्षणी ईश्वर नावाची शक्ती अस्तित्वात आहे याची जाणीव झाली.  आमच्या मदतीसाठी आलेली माणसं मला देवदूता सारखीच भासली. जगाच्या या अनोळखी टोकावर झालेल्या मानवता दर्शनाने आम्ही सारेच हरखून गेलो. श्रद्धा, भक्ती आणि प्रेम या संमिश्र भावनांच्या प्रवाहात मात्र वाहून गेलो. या प्रसंगाची जेव्हा आठवण येते तेव्हा एकच जाणवते, देअर इज नो शॉर्टकट इन  लाईफ

बिकट वाट वहिवाट नसावी धोपट मार्ग सोडू  नको..हेच खरे.

शरीराने आणि मनाने खूप थकलो होतो गादीत पडताक्षणीच झोप लागली.

दुसऱ्या दिवशीची सकाळ छान प्रसन्न होती. विलास जरा नाराज होता कारण कालच्या थरारक एपीसोडमध्ये त्याचा मोबाईल मात्र हरवला.पण आदल्या दिवशी ज्या दुर्धर प्रसंगातून आम्ही दैव कृपेने सही सलामत सुटलो होतो,  त्या आठवणीतच राहून निराश, भयभीत न होता दुसऱ्या दिवशी आमची टीम पुन्हा ताजीतवानी  झाली. सारेच पुढच्या कार्यक्रमाचे बेत  आखू लागले.

आज सकाळी कर्मा कंदारा— विला नंबर ६७ च्या खाजगी तरण तलावावर जलतरण करण्याचा आनंद मनसोक्त लुटायचा हेच ठरवले.

अवतीभवती हिरव्या गच्चपर्णभाराचे वृक्ष आणि मधून मधून डोकावणारी  पिवळ्या चाफ्याची गोजीरवाणी झाडे यांच्या समवेत तरण तलावात पोहतानाचा आनंद अपरंपारच होता.

अनेक वर्षांनी इथे, बालीच्या या नयनरम्य पार्श्वभूमीवर, सुरुवातीला काहीशा खोल पाण्यात झेप घेताना भयही वाटलं.  पण नंतर वयातली ३०/४० वर्षं जणू काही आपोआपच वजा झाली आणि पोहण्याचा मनमुराद आनंद लुटू शकलो. झाडं, पाणी आणि सोबतीला आठवणीतल्या कविता. 

थोडं हसतो थोडं रुसतो 

प्रत्येक आठवण 

पुन्हा जागून बघतो ।।

 

अशीच मनोवस्था झाली होती. 

सिंधुसम हृदयात ज्यांच्या

रस सगळे आवळले हो

आपत्काली अन् दीनांवर

घन होउनी जे वळले हो

जीवन त्यांना कळले हो..

बा.भ. बोरकरांच्या या कवितेतले ‘जीवन कळणारे’ ते म्हणजे जणू काही आम्हीच होतो हीच भावना उराशी घेऊन आम्ही तरण तलावातून बाहेर आलो.

असे हे  बालीच्या सहलीत वेचलेले संध्यापर्वातले खूप आनंदाचे क्षण!!

तसा आजचा दिवस कष्टमय, भटकण्याचा नव्हता. जरा मुक्त,सैल होता. 

इथल्या स्थानिक लोकांशी गप्पा करण्यातली एक आगळी वेगळी मौज अनुभवली. 

ही गव्हाळ वर्णीय,, नकट्या नाकाची, गोबर्‍या गालांची, मध्यम उंचीची, गुगुटीत ईंडोनेशीयन  माणसं खूप सौजन्यशील, उबदार हसतमुख आणि आतिथ्यशीलही  आहेत.

भाषेचा प्रमुख अडसर होता.कुठलीही  भारतीय भाषा त्यांना अवगत असण्याचा प्रश्नच नव्हता. पण इंग्रजीही त्यांना फारसं कळत नव्हतं. ते त्यांच्याच भाषेत संवाद साधण्याचा प्रयत्न करत होते. पण गंमत सांगते,भाषेपेक्षाही मुद्राभिनयाने, हातवारे, ओठांच्या हालचालीवरूनही प्रभावी संवाद घडू शकतो याचा एक गमतीदार अनुभवच आम्ही घेतला.

सहज आठवलं ,पु.ल.  जेव्हा फ्रान्सला गेले होते तेव्हा दुधाच्या मागणीसाठी त्यांनी शेवटचा पर्याय म्हणून कागदावर चक्क एका गाईचे चित्रच काढून दाखवलं होतं. तसाच काहीसा प्रकार आम्ही येथे अनुभवला. 

बाली भाषेतले काही शब्द शिकण्याचा खूप प्रयत्न केला पण लक्षात राहिला तो एकच शब्द सुसु.

बाली भाषेत दुधाला सुसू म्हणतात. 

पण त्यांनीही आपले ,’नमस्कार, शुभ प्रभात, कसके पकडो वगैरे आत्मसात केलेले शब्द, वाक्यं, त्यांच्या पद्धतीच्या उच्चारात बोलून दाखवले. माणसाने माणसाशी जोडण्याचा खरोखरच तो एक भावनिक क्षण होता!

या भाषांच्या देवघेवीत आमचा वेळ अत्यंत मजेत मात्र गेला आणि त्यांच्या प्रयत्नपूर्वक मोडक्या तोडक्या  इंग्लिश भाषेद्वारे बाली विषयी काही अधिक माहितीही मिळाली.

राजा केसरीवर्माने या बेटाचे नाव बाली असे ठेवले.

बाली या शब्दाचा अर्थ त्याग.

बाली या शब्दाचे मूळ, संस्कृत भाषेत आहे आणि या शब्दाचा सामर्थ्य, शक्ती हाही एक अर्थ आहे.आणि तो अधिक बरोबर वाटतो.

आणखी एक गमतीदार अर्थ त्यांनी असा सांगितला की बाली म्हणजे बाळ.  बालकाच्या सहवासात जसा स्वर्गीय आनंद मिळतो तसेच स्वर्गसुख या बाली बेटावर लाभते.

बाली बेटावरच्या स्वर्ग सुखाची कल्पना मात्र अजिबात अवास्तव नव्हतीा हे मात्र खरं!!

संध्याकाळी कर्मा ग्रुप तर्फे झिंबरान बीच रिसॉर्टवर आम्हाला कॉम्प्लिमेंटरी डिनर होते.जाण्या येण्यासाठी त्यांच्या गाड्या होत्या.

संगीत ,जलपान आणि गरमागरम पदार्थांची रेलचेल होती.वातावरणात प्रचंड मुक्तता होती. खाणे पिणे आणि संगीत ,सोबत तालबद्ध संगीतावर जमेल तसे केवळ नाचणे.  थोडक्यात वातावरणात फक्त आनंद आणि आनंदच होता आणि या आनंदाचे डोही आम्हीही अगदी आनंदे डुंबत  होतो.LIVE AND LET LIVE.

बाॅबी मॅक फेरीनच्या गाण्यातली ओळ ओठी आली..

 DONT WORRY BE HAPPY

OOH OH OH

– क्रमश: भाग सहावा 

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ “चला बालीला…” – भाग – ५ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

☆ “चला बालीला…” – भाग – ५ ☆ सौ राधिका भांडारकर 

चांडी सार पासून सानुर एक दीड तासावरच आहे.(by road)  बॅगा पॅक करून, भरपेट नाश्ता करून आम्ही निघालो. दोन निळ्या रंगाच्या स्वच्छ आणि आरामदायी टॅक्सीज आमच्यासाठी हजरच होत्या ऐटदार गणवेशातले हसतमुख ड्रायव्हर्स  आमच्यासाठी स्वागताला उभे  होते. दीड दोन तासातच आम्ही आमच्या कर्मा रॉयल सानुर रिसॉर्टला पोहोचलो.  पुन्हा एक सुंदर अद्ययावत सुविधांचा बंगला.  सभोवताली आल्हाददायी रोपवाटिका आणि जलतरण तलाव. इथे एक आवर्जून सांगावसं वाटतं की प्रत्येक शयनगृहात शयनमंचावर चाफ्याची फुले पसरलेली होती आणि हिरव्या पानांच्या कलात्मक रचनेत वेलकम असे लिहिले होते. मन छान गुलाबी होउन गेले हो!

वातावरणात काहीशी उष्णता आणि दमटपणा असला तरी थकवा मात्र जाणवत नव्हता. मन ताजे प्रफुल्लित होते. एका वेगळ्याच सुगंधी, मधुर आणि थंड पेयाने आमचे शीतल स्वागतही झाले. प्रत्येक टप्प्याटप्प्यावर आम्ही ८० च्या उंबरठ्यावरचे सहा जण नकळतच वय विसरत होतो हे मात्र खरे.

इथे आम्ही फक्त एकच दिवस थांबणार होतो.

संध्याकाळी जवळच असलेल्या सिंधू बीचवर जायचे आम्ही ठरवले. इथल्या अनेक दुकानांची नावे, समुद्रकिनार्‍यांची नावे, अगदी माणसांची विशेषनामेही  संस्कृत भाषेतील आहेत.  पुराणातल्या व्यक्तींची नावे आहेत.  जरी बालीनीज लिपीतल्या पाट्या वाचता येत नसल्या तरी इंग्लिश भाषांतरातील भगवान, कृष्णा, महादेव सिंधू अशी नावे कळत होती.नावात काय आहे आपण म्हणतो पण परदेशी गेल्यावर आपल्या भाषेतलं नाव आपुलकीचं नातं लगेच जोडतं.

संध्याकाळी बीचवर फिरायचे व तिथेच रेस्टॉरंट मध्ये स्थानिक खाद्यपदार्थांचा आस्वाद घ्यायचा आम्ही ठरवले. हा समुद्रकिनारा काहीसा चौपाटी सदृश होता. पर्यटकांची गर्दी होती. फारशी स्वच्छता ही नव्हती. फेरीवाले, किनाऱ्यावरची दुकाने ,हॉटेल्स यामुळे या परिसरात गजबज आणि काहीसा व्यापारी स्पर्श होता.  पण बाली बेट हे खास सहल प्रेमींसाठीच असल्यामुळे वातावरणात मात्र मौज मजा आनंद होता.  तिथे चालताना मला पालघरच्या केळवा बीचची आठवण झाली. रोजच्या कमाईवर उदरनिर्वाह करणारी गरीब विक्रेती माणसं, यात अधिक तर स्त्रियाच होत्या.  इथे भाजलेली कणसे आणि शहाळी पिण्याचा काहीसा ग्रामीण आनंद आम्ही लुटला. पदार्थ ओळखीचे जरी असले तरी चावीमध्ये बदल का जाणवतो? इथले मीठ तिखट, आपले मीठ तिखट हे वेगळे असते का? की जमीन, पाणी, अक्षांश रेखांश या भौगोलिक घटकांचा परिणाम असतो? देशाटन करताना या अनुभवांची खरोखरच मजा येते.

इथल्या फेरीवाल्यांकडे आम्ही अगदी निराळीच कधी न पाहिलेली न खाल्लेली अशी स्थानिक फळे ही  चाखली. मॅंगो स्टीन नावाचे वरून लाल टरफल असलेले टणक फळ फारच रसाळ आणि मधुर होतं .फोडल्यावर आत मध्ये लसणाच्या पाकळ्यासारखे छोटे गर होते. काहीसं किचकट असलं तरी हे स्थानिक फळ आम्हाला खूपच आवडलं. 

बालीमध्ये भरपूर फळे मिळतात.  अननस, पपनस, पपया, फणस, आंबे पेरू या व्यतिरिक्त इथली दुरियन (काटेरी फणसासारखं पण लहान ), लाल रंगाचं केसाळ मधुर चवीचं राम्बुबुटन,टणक  टरफल फोडून आत काहीसा करकरीत सफरचंदासारखा गर असलेले सालक.. असा बालीचा  रानमेवा खाऊन आम्ही तृप्त झालो. 

 पाणी प्यावं बारा गावचं, चाखावा रानमेवा देशोदेशीचा—— असंच म्हणेन मी.

सी फुड साठी प्रसिद्ध असलेलं हे बाली बेट.  शाकाहारी लोकांसाठी भरपूर पर्याय असले तरी मासे प्रेमी लोकांसाठी मात्र येथे खासच मेजवानी असते असे म्हटले तर ते चुकीचे नाही.

समुद्रकिनाऱ्यावर आम्ही असे खात पीत भरपूर भटकलो. सहा म्हातारे तरुण तुर्क!  

आता आम्हाला  स्थानिक मासे खाण्याचा आनंद लुटायचा होता. मेरीनो नावाचे एक बालीयन रेस्टॉरंट आम्हाला आवडले.  किनाऱ्यावरचे सहा जणांचे टेबल आम्ही सुरक्षित केले. कसलीच घाई नव्हती. आरामशीर मासळी भोजनाचा आनंद लुटायचा हेच आमचे ध्येय होते. सारेच स्वप्नवत होते. समुद्राची गाज ,डोक्यावर ढगाळलेलं आकाश आणि टेबलावर मस्त तळलेले खमंग चमचमीत ग्रेव्हीतले मोठे झिंगे( प्राॅन्स) , टुना मासा आणि इथला प्रसिद्ध बारा मुंडी मासा. सोबतीला सुगंधी गरम आणि नरम वाफाळलेला भात आणि हो.. सोनेरी जलपानही. रसनेला आणखी काय हवे हो? गोड गोजीर्‍या बालीयन लेकी आम्हाला अगदी प्रेमाने वाढत होत्या! बाळपणीच्या, तरुणपणीच्या आठवणीत रमत आम्ही सारे तृप्तीचा ढेकर देत फस्त केले.  वृद्धत्वातही शैशवाला जपण्याचा अनुभव अविस्मरणीय होता. नंतर पावसाच्या सरी बरसु लागल्या. भिजतच आम्ही मुख्य रस्त्यावर आलो आणि टॅक्सी करून रिसॉर्टवर परतलो. जेवणाचे बिल अडीच लाख आयडिआर, आणि टॅक्सीचे बिल तीस हजार आयडिआर. धडाधड नोटा मोजताना आम्हाला खूपच मजा वाटायची.

आता आमच्या सहलीचे तीनच दिवस उरलेले होते आणि या पुढच्या तीन दिवसाचा आमचा मुक्काम कर्मा कंदारा येथे होता. कंदारा मधली  कर्मा ग्रुपची ही प्रॉपर्टी केवळ रमणीय होती. निसर्ग, भूभागाची नैसर्गिक उंच सखलता, चढ-उतार जसेच्या तसे जपून इथे जवळजवळ ७० बंगले बांधलेले आहेत. आमचा ६७ नंबरचा बंगला फारच सुंदर होता.आरामदायी, सुरेख डेकाॅर, सुविधायुक्त, खाजगी जलतरण तलाव, खुल्या आकाशाखाली ध्यानाची केलेली व्यवस्था वगैरे सगळं मनाला प्रफुल्लित करणार होतं. रिसेप्शन काउंटर पासून आमचा बंगला काहीसा दूर होता. पण इकडून तिकडे जायला बग्या होत्या.  एकंदरीत इथली सेवेतली तत्परता अनुभवताना समाधान वाटत होते. बारीक डोळ्यांची गोबर्‍या गालांची, चपट्या नाकांची, ठेंगणी गुटगुटीत बाली माणसं आणि त्यांची कार्यक्षमता प्रशंसनीय होती. त्यांच्या बोलण्या वागण्यात एक प्रकारचा उबदारपणा होता.  वास्तविक फारसे उद्योगधंदे नसलेला हा प्रदेश. शेती, मच्छीमारी या व्यतिरिक्त पर्यटन हाच त्यांचा मुख्य व्यवसाय.  त्यांचे सारे जीवन हे देशोदेशाहून येणाऱ्या पर्यटकांवरच अवलंबून. त्यामुळे पर्यटकांना जास्तीत जास्त कसे खूश ठेवता येईल  यावरच त्यांचा भर असावा.

यानिमित्ताने दक्षिण पूर्व आशिया खंडातल्या इंडोनेशियाबद्दलही माहिती मिळत होती. इथल्या बाली  बेटावर आमचं सध्याचं वास्तव्य होतं. मात्र जकार्ता राजधानी असलेला  इंडोनेशिया म्हणजे जवळजवळ १७००० बेटांचा समूह हिंदी आणि पॅसिफिक महासागरात पसरलेला आहे. हिंदू आणि बुद्ध धर्माचे वर्चस्व असले तरी ८७ टक्के लोक मुस्लिम आहेत. जवळजवळ तीन शतके इथे डच्यांचे राज्य होते. १७ ऑगस्ट १९४५ साली नेदरलँड पासून ते स्वतंत्र झाले आणि प्रेसिडेन्शिअल युनिटरी स्टेट ऑफ द रिपब्लिक ऑफ इंडोनेशिया म्हणून ओळखले जाऊ लागले जगातली तिसरी मोठी लोकशाही येथे आहे २००४  पासून जोकोविडो हे इंडोनेशियाचे अध्यक्ष आहेत. अनेक नैसर्गिक आपत्ती, भौगोलिक विषमता, जात, धर्म भाषेतील अनेकता सांभाळत इंडोनेशियाची इकॉनॉमी ही जगात सतराव्या नंबर वर आहे. 

इथल्या वास्तव्यातलं आमचं आजचं प्रमुख आकर्षण होतं ते म्हणजे बाली फायर डान्स . अग्नी नृत्य.  याविषयी आपण पुढच्या भागात वाचूया.

 – क्रमशः भाग पाचवा  

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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