हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 278 ☆ कथा – पीढ़ियां ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम विचारणीय कथा – ‘पीढ़ियां‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 278 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ पीढ़ियां

शंभुनाथ की सारी योजना मांजी और बाबूजी के हठ की वजह से अधर में लटकी है। लड़की वाले पढ़े-लिखे समझदार हैं। समझाने से मान गये। उतनी दूर तक लाव-लश्कर लेकर जाना सिर्फ पैसे का धुआं करना था। लड़की का फूफा इसी शहर में रहता है। उसी की मार्फत बात हुई थी। शंभुनाथ वरपक्ष को समझाने में सफल हो गये कि लड़की वाले चार छः रिश्तेदारों के साथ यहीं आ जाएं और सादगी से शादी संपन्न हो जाए। ज़्यादा तामझाम की ज़रूरत नहीं। दो-चार दिन में रिसेप्शन हो जाए, जिसमें दोनों पक्ष के लोग शामिल हो जाएं। इस तरह जो पैसा बचे, उसे लड़का-लड़की के खाते में जमा कर दिया जाए।

शंभुनाथ का तर्क था कि आजकल बारातों में तीन दिन बर्बाद करने की किसी को फुर्सत नहीं। आज आदमी घंटे घंटे के हिसाब से जीता है। इतना टाइम बर्बाद करना और कष्टदायक  यात्रा में उन्हें ले जाना रिश्तेदारों की प्रति ज़ुल्म है।

लेकिन मां और बाबूजी सहमत नहीं होते। उनकी नज़र में शादी-ब्याह समाज को जोड़ने का बहाना है। रिश्ते नये होते हैं, उन पर बैठी धूल छंटती है, उन्हें नया जीवन मिलता है। जिन रिश्तेदारों से मिलना दुष्कर होता है, उनसे इसी बहाने भेंट हो जाती है। एक रिश्तेदार आता है तो उसके माध्यम से दस और रिश्तेदारों की कुशलता की खबर मिल जाती है। कई बार गलतफहमियां दूर करने का मौका भी मिल जाता है। पहले लोग लंबे पत्र लिखकर हाल-चाल दे देते थे। अब टेलीफोन की वजह से जानकारी का छोटा सा छोर ही हाथ में आता है। जितनी मिलती है उससे दस गुना ज़्यादा जानने की ललक रह जाती है। ज़्यादा बात करो तो खर्च की बात सामने आ जाती है।

शंभुनाथ का तर्क उल्टा है। उनके हिसाब से अब रिश्तों में कोई दम नहीं रहा। रिश्ते सिर्फ ढोये जाते हैं। अब किसी को किसी के पास दो मिनट बैठने की फुर्सत नहीं है। कोई दुनिया से उठ जाए तो रिश्तेदार रस्म-अदायगी के लिए दो-चार घंटे को आते हैं, फिर घूम कर अपनी दुनिया में गुम हो जाते हैं।

बाबूजी के गले के नीचे यह तर्क नहीं उतरता। उनका कहना है कि दुनिया के लोग अगर एक दूसरे से कटते जा रहे हैं तो ज़रूरी नहीं है कि हम उसी रंग में रंग जाएं। समझदार आदमियों का फर्ज़ है कि जितना  बन सके दुनिया को बिगड़ने से रोकें।

उधर मांजी का तर्क विचित्र है। उनके कानों में चौबीस घंटे ढोलक की थाप और बैंड की धुनें घूमती हैं। शादी-ब्याह के मौके चार लोगों को जोड़ने और दिल का गुबार निकालने के मौके होते हैं। उनके हिसाब से सब रिश्तेदारों को चार-छ: दिन पहले इकट्ठा हो जाना चाहिए और चार-छः दिन बाद तक रुकना चाहिए। फिर जो बहुत नज़दीक के लोग हैं वे एकाध महीने रहकर सुख-दुख की बातें करें। पन्द्रह-बीस दिन तक घर में गीत गूंजें। युवा लड़के लड़कियों के जवान चेहरे देखने का सुख मिले और चिड़ियों की तरह सारे वक्त बच्चों की किलकारियां गूंजती रहें। युवाओं की बढ़ती लंबाई और वृद्धों के चेहरे की बढ़ती झुर्रियों का हिसाब- किताब हो।

मांजी की लिस्ट में कुछ ऐसी महिलाएं हैं जिनका आना हर उत्सव में अनिवार्य है, यद्यपि  शंभुनाथ के हिसाब से वे गैरज़रूरी हैं। इनमें सबसे ऊपर कानपुर वाली बुआ हैं जिनसे रिश्ता निकट का नहीं है लेकिन जो नाचने और गाने में माहिर हैं। उनके आने से सारे वक्त उत्सव का माहौल बना रहता है। दूसरी सुल्तानपुर वाली चाची हैं जो भंडार संभालने में अपना सानी नहीं रखतीं। एक और मिर्जापुर वाली दीदी हैं जो पाक-कला में  निपुण हैं।वे आ गयीं तो समझो खाने पीने की फिक्र ख़त्म। मांजी  की नज़र में इन सबको बुलाये बिना काम नहीं चलेगा। शंभुनाथ का कहना है कि अब शहर में पैसा फेंकने पर मिनटों में हर काम होता है, इसलिए रिश्तेदारी ज़्यादा पसारने का कोई अर्थ नहीं है। रिश्तेदार दो दिन के काम के लिए आएगा तो बीस दिन टिका रहेगा।

बाबूजी की लिस्ट में भी कुछ नाम हैं। एक नाम चांद सिंह का है जो साफा बांधने में एक्सपर्ट है। अब बिलासपुर में नौकरी करता है लेकिन उसे नहीं बुलाएंगे तो बुरा मान जाएगा। अब तक परिवार की हर शादी में उसे ज़रूर बुलाया जाता रहा है। एक  रामजीलाल हैं जो मेहमाननवाज़ी की कला में दक्ष हैं। टेढ़े से टेढ़े मेहमान को संभालना उनके लिए चुटकियों का काम है। शंभुनाथ बाबूजी के सुझावों को सुनकर बाल नोंचने लगते हैं।

मांजी के लिए नृत्य-गीत, शोर-शराबे, हंसी-ठहाकोंऔर और गहमा-गहमी के बिना शादी में रस नहीं आता। मेला न जुड़े तो शादी का मज़ा क्या? उनकी नज़र में शादी सिर्फ वर-वधू का निजी मामला नहीं है, वह एक सामाजिक कार्यक्रम है। वर-वधू के बहाने बहुत से लोगों को जुड़ने का अवसर मिलता है।

बाबूजी और मांजी बैठकर उन दिनों की याद करते हैं जब बारातें तीन-तीन दिन तक रूकती थीं और बारातों के आने से पूरे कस्बे में उत्सव का वातावरण बन जाता था। तब टेंट हाउस नहीं होते थे। दूसरे घरों से खाटें और बर्तन मांग लिये जाते थे और कस्बे के लोगों के सहयोग से सब काम निपट जाता था। अब दूसरे घरों से सामान मंगाने में हेठी मानी जाती है। अब लोग इस बात पर गर्व करने लगे हैं कि उन्हें किसी चीज़ के लिए दूसरों के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ता। बाबूजी कहते हैं कि समाज पर निर्भरता को पर-निर्भरता मान लेना सामाजिक विकृति का प्रमाण है।

मांजी और बाबूजी को समझाने में अपने को असफल पाकर शंभुनाथ ने अपने दोनों भाइयों को बुला लिया है।

पहले उन दोनों को समझा बुझाकर  तैयार किया, फिर तीनों भाई तैयारी के साथ पिता- माता के सामने पेश हुए। नयी तालीम और नयी तहज़ीब के लोगों के सशक्त, चतुर तर्क हैं जिनके सामने मांजी, बाबूजी कमज़ोर पड़ते जाते हैं। वैसे भी मां-बाप सन्तान से पराजित होते ही हैं। अन्त में मांजी और बाबूजी चुप्पी साध गये। मौनं सम्मति लक्षणं।

यह तय हो गया कि शादी बिना ज़्यादा टीम-टाम के होगी। सूचना सबको दी जाएगी। जो आ सके, आ जाए। सारा कार्यक्रम एक-दो दिन का होगा। उससे ज़्यादा ठहरने की किसी को ज़रूरत नहीं होगी। शंभुनाथ का छोटा बेटा तरुण इस चर्चा से उत्साहित होकर सुझाव दे डालता है— ‘जिसको न बुलाना हो उसको देर से कार्ड भेजो। आजकल यह खूब चलता है।’ उसके पापा और दोनों चाचा उसकी इस दुनियादारी पर खुश और गर्वित हो जाते हैं।

बाबूजी और मांजी अब चुप हैं। निर्णय की डोर उनके हाथों से खिसक कर बेटों के हाथ में चली गयी है। इस नयी व्यवस्था में कानपुर वाली बुआ, सुल्तानपुर वाली चाची, मिर्जापुर वाली दीदी, चांद सिंह और रामजीलाल के लिए जगह नहीं है। इन सब की जगह यंत्र-मानवों ने  ले ली है जो आते हैं, काम करते हैं और भुगतान लेकर ग़ायब हो जाते हैं।

बाबूजी चुप बैठे खिड़की से बाहर देखते हैं। उन्हें लगता है दुनिया तेज़ी से छोटी हो रही है। लगता है बहुत से चेहरे अब कभी देखने को नहीं मिलेंगे। उन्हें अचानक बेहद अकेलापन महसूस होने लगता है। माथे पर आये पसीने को पोंछते वे घबरा कर खड़े हो जाते हैं।

छोटा बेटा उन्हें अस्थिर देखकर पूछता है, ‘क्या हुआ बाबूजी? तबीयत खराब है क्या?’ बाबूजी संक्षिप्त उत्तर देते हैं, ‘हमारी तबीयत ठीक है बेटा, तुम अपनी फिक्र करो।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – लघुकथा – अनजान प्रदेश – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।

आज प्रस्तुत है आपकी एक कहानी के पीछे की अप्रतिम विचारणीय लघुकथा “– अनजान प्रदेश –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी  ☆ — अनजान प्रदेश — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

एक जहाज समुद्र में कहीं खो गया था। उसमें दो सौ यात्री थे। व्यापक रूप से खोज की जा रही थी, लेकिन जहाज का कहीं पता चलता नहीं था। इतनी बड़ी घटना का कोई गवाह न होना दुख को और बढ़ाता था। गवाह का प्रसंग होने से लोगों का ध्यान एक पक्षी पर जाता था। लोग जब भी खोज के लिए समुद्र में जाते थे उन्हें वह पक्षी दिखाई देता था। पक्षी खोज में लगे हुए लोगों की बड़ी सी नाव के ऊपर उड़ने का इतना अभ्यस्त हो गया था कि नाव के मस्तूल पर आ बैठता था। दंत कथा के हिसाब से अर्थ बनाएँ तो वह अर्थ इस तरह से होता वह पक्षी लोगों के साथ खोज कार्य में सहयोगी था।

पक्षी के साथ संपर्क गाढ़ा होते जाने की प्रक्रिया में उन लोगों को लगता था वह कुछ बोलना चाहता है। पर उसकी भाषा तो उसकी अपनी थी जिसे समझ पाना किसी के वश में होता नहीं था। यदि पक्षी लुप्त जहाज से संबंधित किसी घटना का जिक्र करना चाहता हो तो लोगों को बड़ा कुतूहल होता था। वे आपस में तय करते थे उन्हें पक्षी की भाषा के मर्म तक पहुँचना होगा। दो – चार बार नाव से यहाँ आने पर कुछ लोगों ने कहा उन्होंने पक्षी की भाषा कुछ – कुछ सीख ली। अब वह दिन दूर नहीं जब पक्षी की पूरी भाषा अपनी समझ में आने लगेगी।

वे लोग दो – चार दिन से अधिक खोज के लिए जाने वाले नहीं थे। उस पक्षी का आकर्षण हुआ कि दो – तीन दिन की उनकी सीमा टूट गयी और वे समुद्र में इस तरह से बार – बार जाने लगे कि खोया हुआ जहाज मिलने पर ही उनके खोज – कार्य में विराम लगेगा। पर यह जोश हुआ तो उस पक्षी के बल पर। वे समूह में इतने लोग थे और पक्षी अकेला था। उन्हें किसी कोण से थोड़ा आतंक भी महसूस हुआ। समुद्र में दो सौ लोग एक जहाज में लापता हुए थे और एक पक्षी मानो उतने लोगों का प्रतिनिधित्व करता था।

आतंक से ही यह छन कर आया कि अपनी भाषा के रहते पक्षी की भाषा में समर्पित होना तो बहुत ही दूरंदेशी सोच का परिणाम है। उन्होंने आपस में तय किया खोज – कार्य में अब अंकुश लगाते हैं। उन्होंने तालियाँ बजा कर अंकुश का समर्थन किया। पक्षी की भाषा कुछ – कुछ सीख लेने का जो लोग दावा करते थे अब उस दावे को छोड़ा। वे तट पर लौटे। उन लोगों की भाषा कमोबेश एक ही तरह से हुई — वहाँ मानो पक्षी का ‘समुद्र’ था और यहाँ इन लोगों की अपनी ‘जमीन’ थी।

— समाप्त  —

© श्री रामदेव धुरंधर

28 — 02 — 2025

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – अनकहा सा कुछ ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ लघुकथा – अनकहा सा कुछ ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

-सुनो!

-कहो !

-मैं तुम्हें कुछ कहना चाहता हूँ ।

-कहो न फिर !

-समझ नहीं आता कैसे कहूं, किन शब्दों में कहूं?

-अरे! तुम्हें भी सोचना पड़ेगा?

-हां ! कभी कभी हो जाता है ऐसा !

-कैसा ?

-दिल की बात कहना चाहता हूँ पर शब्द साथ नहीं देते !

-समझ गयी मैं !

-क्या.. क्या… समझ गयी तुम ?

-अरे रहने भी दो ! कब कहा जाता है सब कुछ !

-बताओ तो क्या समझी ?

-कुछ अनकहा ही रहने दो ।

-क्यों ?

-ऐसी बातें बिना कहे, दिल तक पहुंच जाती हैं !

-फिर तो क्या कहूं‌ ?

-अनकहा ही रहने दो !

-क्यों?

-तुमने कह दिया और दिल ने सुन लिया! अब जाओ !

-क्यों ?

-शर्म आ रही है बाबा! अब जाओ !

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क : 1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ कथा-कहानी –  आश्रय – गुजराती लेखिका – सुश्री रेणुका दवे ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री राजेन्द्र निगम ☆

श्री राजेन्द्र निगम

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेंद्र निगम जी ने बैंक ऑफ महाराष्ट्र में प्रबंधक के रूप में सेवाएँ देकर अगस्त 2002 में  स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ली। उसके बाद लेखन के अतिरिक्त गुजराती से हिंदी व अँग्रेजी से हिन्दी के अनुवाद कार्य में प्रवृत्त हैं। विभिन्न लेखकों व विषयों का आपके द्वारा अनूदित 14  पुस्तकें प्रकाशित हैं। गुजराती से हिंदी में आपके द्वारा कई कहानियाँ देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आपके लेखों का गुजराती व उड़िया में अनुवाद हुआ है। आज प्रस्तुत है आपके द्वारा सुश्री रेणुका दवे जी की कथा का हिन्दी भावानुवाद “आश्रय”।)

☆  कथा-कहानी –  आश्रय – गुजराती लेखिका – सुश्री रेणुका दवे ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री राजेन्द्र निगम ☆

“लो, यह चाय तुम्हारे पिताजी को दे दो !”

रमीला ने चाय का कप पास बैठे राजू की ओर बढ़ाते हुए कहा। राजू ने बहुत मुश्किल से स्वयं को नियंत्रित रखकर, हँसते-हँसते कहा, “क्यों आज सुबह- सुबह तुम्हारा मुँह उतरा हुआ है?”

 “हाँ, मेरे नसीब में कहाँ खुशी है, जब से आई हूँ, तब से हताशा में ही रहती हूँ न!”

“लेकिन हुआ क्या है, यह तो बताओ ?”

“तुम्हारी बहन जो आ रही है, उपदेश देने के लिए!”

रमीला चेहरा घुमा कर अनिच्छा व्यक्त करते हुए कुछ कड़वाहट से बोली।

“कौन सवि आएगी ? किसने कहा ?” राजू ने अपने इस उत्साह को किसी तरह दबाया।

“तुम्हारे पिताजी ने। हमें तो कौन पूछता है?” रसोईघर में जाते हुए रमीला बोली। राजू चाय का कप ले कर पिता के कमरे की ओर गया।

सवि- सविता राजू से करीब दस वर्ष बड़ी। उसका घर अहमदाबाद में, लेकिन उसके बड़े बेटे के ऑफिस की एक शाखा पास के ही गाँव में थी, इसलिए वह जब ऑफिस जाता, तब सविता भी पिता से मिलने के लिए कार में बैठ जाती। माँ तो नौ वर्ष पहले गुजर गई । फिर सविता लगभग हर पन्द्रह दिन में आकर मिल जाती। घर की बड़ी लड़की और स्वभाव से शांत, इसलिए माता पिता से उसका विशेष लगाव रहा। जब आती, तब पिता की पसंद का, स्वयं का बनाया हुआ कोई न कोई व्यंजन ले आती। सुबह से शाम तक रुक जाती और पिताजी को माँ की बहुत सी बातें याद दिलातीं। पुरानी घटनाओं और लोगों को, सबको याद करती और पिताजी की डूबती नसों में पुनः उत्साह भरने का प्रयास करती रहती।

लेकिन भाभी के स्वागत का उत्साह धीरे -धीरे ठंडा पड़ता गया। फिर कटाक्ष आते गए, हँसते-हँसते -‘नहीं रखते हैं, पिताजी को भूखा !!’

सविता को उसकी भावनाओं पर लगाम कसनी पड़ी। अब वह पूरा दिन रुकने के स्थान पर मात्र दो-तीन घंटे रुकने की योजना बनाकर आती। भोजन लेना भी वह टालती। साथ में डिब्बा लाना तो उसने बंद ही कर दिया। लेकिन फिर भी, उसका आना खटकने लगा।

आज तो वह छह महीने बाद यहाँ पर आई है।

                                            ***

“मैं क्या कहती हूँ भाई, मैं पिताजी को कुछ महीने के लिए, अपने घर ले जाऊँ। भाभी को भी कुछ आराम मिलेगा और पिताजी का हवा-पानी भी बदल जाएगा। सविता ने धीरे से अपनी बात रखी।

रमीला के दिनों-दिन बिगड़ रहे स्वभाव के कारण पिताजी के आसपास उदासीनता का माहौल लगातार छाया रहता होगा– ऐसा सविता ने पिताजी के साथ फोन पर हुई बातचीत से जान लिया था। उसने तुरंत तय कर लिया कि वह पिताजी को लेकर यहाँ आ जाएगी।  उसने बात-बात में पूछ लिया—

 राजू भाई कभी इंकार करे तो ?

“उस बेचारे को तो वह कुछ समझती ही नहीं है, बेटा ! कौन जाने मन में क्या भरा है कि पूरे दिन काटने को दौडती रहती है। परसों बच्चों की ऐसी पिटाई कर रही थी कि मुझे बीच में पड़ना पड़ा ! क्या करें बेटा, छोटा शादी कर के अहमदाबाद में सेट हुआ और उसकी मद्रासी बहू के साथ मेरा मन कैसे मिलेगा ? अतः उसे ऐसा लगने लगा है कि सब उसे ही करना है ?

“पिताजी, आपके खाने-पीने का तो सब ठीक ही न ?”

पिताजी की आवाज काँपने लगी –

“बेटा, वह सब ऐसा ही है ! मैं तुम्हें मेरी कथा कहाँ तक कहूँ ? तुम्हारी माँ ने मुझे ऐसे  शाही ठाठ से रखा— गर्मागर्म रोटियाँ आग्रह के साथ मुझे खिलाती !”

पिताजी के रुदन में उनके शब्द दब गए।

सविता की आँखें भर आईं। कुछ देर खामोशी छाई रही।

“बेटा जैसा भी होगा, सब दिन कोई एक जैसे नहीं होते हैं। लो अब हैंड फोन रखता हूँ !” ऐसा कहकर उन्होंने फोन रख दिया।

 

सविता की बात सुनकर रमीला का गुस्सा फ़ौरन फूटा—

“मुझे कोई आराम नहीं चाहिए। पिताजी को बेटी के घर क्यों रहना पड़ेगा ? दो-दो बेटे हैं, तब भी ?”

“अरे बेटा या बेटी ,भाभी, पिताजी तो मेरे हैं और तुम्हें तो मालूम है कि हेमंत के घर रहना पिताजी को पसंद नहीं है।”

“पसंद क्यों नहीं ? क्यों मद्रासियों के माता-पिता क्या बुजुर्ग नहीं होते हैं ? जब नीयत ही नहीं है, सेवा करने की, तब क्या ? और देखो वारिस का हक़ लेने के लिए सब कैसे दौड़ते हुए आएँगे ! और सेवा कर-कर मेरे खून का जो पानी हुआ, वह कौन कोई देखने वाला है ?!!

“भाभी, मैं क्या कहती हूँ। उस नागजी बापा की मणि को काम पर रख लो न ! आपको भी कुछ राहत होगी। लड़की होशियार है। रसोई का सब काम कर दे, ऐसी है। और वैसे भी पिताजी पेंशन के पैसे तो घर में देते ही हैं।”

रमीला तिरछी आँखों से देखती रही। उसे यह सुनना अच्छा नहीं लगा।

सविता ने बहुत कहा, लेकिन रमीला पिताजी को ले जाने के लिए इंकार ही करती रही। पिताजी से मिलने के लिए सविता गई, तब बोली–  “पिताजी आप तो चलो, जिसे जो कहना होगा, वह कहता रहेगा ! लाओ आपके कपड़े की बैग भर दूँ।”

“बेटा रहने दे और क्लेश बढ़ जाएगा। मैं जाऊँगा तो बेचारे राजू की फजीहत होगी और बच्चों की पिटाई होगी। रहने दो, बेटा, तुम चिंता मत करो !” तुम तुम्हारे चली जाओ, तुम्हारा वक्त हो गया है।”

                                  ***

“क्यों इंकार किया ? सविता बहन के साथ पिताजी को जाने देती, तुम्हें सुकून और उनका भी कुछ हवा-पानी बदल जाता !” राजू ने रात में रमीला से कहा।

“नहीं जी, गाँव में बात होगी कि ससुर को बेटी के घर भेज दिया।”

“तुम भी क्या, गाँव की बात सुनना या पिताजी का मन देखना ? तुम भी तो दिनभर दौडधूप करती रहती हो, इस बहाने तुम्हें भी कुछ दिन आराम मिल जाएगा ! उनका थैला तैयार करना, कल सवेरे मैं उनको अहमदाबाद छोड़कर आ जाऊँगा।

लेकिन रमीला इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं हुई। सविता ने उसी दिन रात में हेमंत से विस्तार से फोन पर बात की। लक्ष्मी भाभी के साथ भी बात की। दोनों को समझाया कि पिताजी को ले आओ। बेचारे परेशान रहते हैं।

माँ के जाने के बाद रमीला ने हेमंत और लक्ष्मी के साथ कोई संबंध नहीं रखा। शुरुआत में नए वर्ष पर सबके पैर छूने के लिए दोनों आ जाते। हैं लेकिन एक-दो वर्ष पहले किसी बात पर झगड़ा हुआ और वह भी बंद कर दिया। राजू कभी-कभी उनसे मिलने के लिए जाता और इस प्रकार संबंध बनाए, लेकिन इस तरह कि रमीला को मालूम न हो।

दोनों को उनके घर जाने की इच्छा तो नहीं थी, लेकिन तय किया कि सुबह जाकर और पिताजी को लेकर, शाम के पहले वापस लौट आने के लिए वहाँ से निकल जाएँगे।

दूसरे दिन छुट्टी होने से दोनों पिताजी के घर आए। पिताजी और राजू तो बहुत खुश हो गए। दोनों को देखकर, लड़के भी हेमंत काका और काकी के पास दौड़ते हुए आए, लेकिन रमीला के फूले चेहरे को देखकर, सब समझ गए कि किसी भी वक्त धड़ाका हो सकता है और वही हुआ| 

 जैसे ही हेमंत ने कहा कि वे पिताजी को लेने के लिए आए हैं, तो रमीला बिफर गई। उसके मन में जमा हुआ सारा रोष छलक-छलककर बाहर आने लगा। मुझे तो मालूम ही था कि सविता बहन आई, तो वे कुछ आग लगाने का काम तो करेंगी ही, लेकिन कह देती हूँ– पिताजी यहीं रहेंगे। कहीं नहीं जाएँगे !!”

राजू को आज बहुत गुस्सा आ गया।

“अब मैं कहता हूँ कि तुम यह तुम्हारी किटकिट बंद करो, नहीं तो अच्छा नहीं होगा ! हेमू, तुम पिताजी को ले जाओ !”

हेमंत और लक्ष्मी पिताजी के कमरे में जा रहे थे और तब ही रमीला गर्जी।

“हाँ, मुझे सब मालूम है पिताजी की वसीयत लिखवाने के लिए आए हो, नहीं तो कोई प्रेम नहीं उमड़ रहा है ? मैं सब जानती हूँ, लेकिन मैं यह नहीं होने दूँगी, मैं गाँव इकट्ठा कर लूँगी यदि पिताजी को ले गए तो, हाँ !”

 अंदर के कमरे में सुन रहे पिताजी लकड़ी के सहारे धीरे-धीरे बाहर आए। हेमंत और लक्ष्मी स्तब्ध बनकर देखते रहे। रमीला एकदम खड़ी हुई और घर के दरवाजे को खोलकर बाहर जा रही थी कि पिताजी ने जोर से आवाज लगाई।

“बेटा रमीला, अंदर आ जाओ। इस उम्र में मेरी इज्जत की नीलामी क्यों कर रहे हो ? मैं किसी के घर जाने वाला नहीं हूँ, बस ! बेटा, अब शांत हो जाओ ! क्या यह सब बच्चों के सामने अच्छा लगता है ? चलो, राजू बेटे, लो ये पैसे, सब के लिए कोई अच्छा खाने का बंदोबस्त करो। लो चलो रमीला, झगड़े को समाप्त करो !”

इतना बोलकर पिताजी पास की कुर्सी पर बैठ गए। वे थक गए थे, हाँफ रहे थे। उनके चेहरे पर मानो पूरी जिंदगी की थकान छलक रही थी। अकेले-अकेले चलने की थकान !

दस वर्ष की नीली ने अपनी ओर से स्थिति को बदलने की कोशिश करते हुए कहा– मम्मी भूख लगी है, जल्दी कुछ दे दो न !

 राजू रसोई में गया और पीछे-पीछे लक्ष्मी भी कुछ मदद करने के लिए अंदर गई। यह देखकर रमीला तुरंत रसोई की ओर घूमी और बात थोड़े समय के लिए शांत हो गई।

                                 ***

नीली ने मेज पर थाली रखी, थाली में चूरमा के दो लड्डू देखकर पिताजी को आश्चर्य हुआ।

“लड्डू क्यों बनाए, नीली बेटा ?”

“दादा, वनराज दादा के घर से लड्डू आए हैं। हीराबा की तिथि हैं न इसलिए।” कहती  हुई वह दौडती-दौडती चली गई। हीरा भाभी की तिथि ? 25 अगस्त ! तो मेरा अज जन्मदिन है ? कितने पूरे हुए ? 80 या 81 ? क्या मालूम, जितने भी हुए हों, अब तो यह जिंदगी पूरी हो जाए बस ! कौन जाने अभी और क्या-क्या देखने को लिखा होगा !

पिताजी का मन के साथ संवाद चलता रहा। इसमें लड्डू कब खाने में आ गए, उसका ध्यान ही नहीं रहा। वास्तव में अपने मनपसंद भोजन के स्वाद का आज वे बिल्कुल भी मजा नहीं ले सके। एक सप्ताह पहले घटित घटना दिमाग से विलुप्त क्यों नहीं हो रही है ? उन्होंने स्वयं को इतना असहाय कभी भी महसूस नहीं किया था। राजू की माँ सही कहती थी— “मुझे तुम्हारी चिंता बहुत होती है कि यदि मैं नहीं रहूँ, तो आपका क्या होगा !” तब हँसी में टाल दी गई उस बात की गहराई को वह अनुभव करते रहे। उनका मन खिन्न हो गया। अपने ही घर में…  अपनी ही मौजूदगी में किस-किस तरह के खेल रचे जा रहे हैं, यह सोचते हुए वे स्वयं को नि:सहाय अनुभव करते रहे।

अचानक उन्हें याद आया कि उनके जन्मदिन के एक सप्ताह के बाद उनकी पत्नी की मृत्यु तिथि आती है !

पिताजी ने तकिए के नीचे रखा मोबाइल लिया और गाँव में रहनेवाले उनके मित्र वनराज से फोन मिलाया और बात की। फिर सविता को फोन लगाया है और आधा घंटे तक बात की। फिर वनराज ने जो एक नंबर दिया था, वह लगाया और उनसे लंबी बात की। उनका मन हल्कापन अनुभव कर रहा था।

दूसरे दिन राजू को बुलाकर बात की कि तुम्हारी माँ की तिथि आ रही है तो अहमदाबाद के वृद्धाश्रम में लड्डू वितरित करने की मेरी इच्छा है।

“तो, मैं चला जाऊँगा, पिताजी।” राजू ने कहा।

“तुम अकेले नहीं, बेटा मैं भी आऊँगा !” पिताजी बोले।

“पिताजी आप वहाँ कहाँ आएँगे ? थक जाएँगे। चार-पाँच घंटे तो आसानी से आने-जाने में हो जाएँगे” राजू ने बताया।

“कुछ परेशानी नहीं, मुझे अच्छा लगेगा। लेकिन मुझे स्वयं ही वहाँ जाना है।” पिताजी की यह दृढ़ आवाज सुनकर राजू को आश्चर्य तो हुआ, लेकिन सोचा कि माँ की बात है, इसलिए कुछ भावुक हो गए हैं। अतः अधिक दलील नहीं की। उस दिन का आयोजन सोच कर वह बोला—“सुबह साढ़े सात- आठ बजे निकलना पड़ेगा। आपको दिक्कत तो नहीं है न ?”

“हाँ, हाँ, मैं रोज चार बजे तो जग ही जाता हूँ।”

“ठीक है, तो दोनों चलेंगे। वनाकाका के पास से वृद्धाश्रम का पूरा पता ले लेना और हाँ, जहाँ से लड्डू लेना है, उस मिठाई की दुकान का पता भी ले लेना। कहते हुए राजू दुकान जाने के लिए निकल गया।

                             ***

माँ की तिथि के दिन पिताजी जल्दी तैयार होकर कुर्सी पर कुछ सोचते हुए बैठे थे। कुछ देर बाद वह धीमे-धीमे खड़े हुए और घर के मंदिर के पास जाकर भगवान की छवि के सामने दीप प्रज्वलित किया। दो मिनट तक गहन विचार करते हुए वे छवि के सामने देखते रहे। फिर माला लेकर मन को स्थिर करने की कोशिश करते रहे। राजू अभी जगा नहीं था। शांत सुबह के उजाले में घर में घूमती-फिरती पत्नी के कुछ पल उनकी बंद आँखों के नीचे जीवंत होते हुए वे अनुभव करते रहे।

लाइट होने की आवाज सुनकर उन्होंने आँखें खोलीं। राजू जग गया था। कुछ देर में वह चाय बनाकर लाया। साथ ही एक तश्तरी में वह नर्म तीखी पूरियाँ भी लाया और कहा—“लो यह कुछ नाश्ता कर लो, जिससे दवाई ले सको।”

पिताजी कुछ बोले नहीं। चुपचाप नाश्ता कर लिया। राजू चलने के लिए तैयार था, इसलिए पिताजी खड़े हुए और फिर कोने में तैयार रखे थैले को लेने के लिए जाने लगे, जिसे राजू ने ले लिया।

“इसमें क्या है, पिताजी ?”

“इसमें मेरे कुछ बचे हुए, पुराने कपड़े हैं। वहाँ किसी जरूरतमंदवाले को काम में आ जाएँगे।”

राजू ने थैला डिकी में रख दिया। पिताजी ने घर में नजर घुमाई। इस समय सब सो रहे थे। बच्चों से मिलने की इच्छा हुई, लेकिन फिर तुरंत बाहर निकल कर कार में बैठ गए।

वृद्धाश्रम जाने के पहले लड्डू खरीदे। तीन बॉक्स अलग रखकर राजू को देते हुए कहा-  “लो ये तुम तीनों भाई-बहन रख लेना।”

 वृद्धाश्रम पहुँचे तो सविता दरवाजे पर खड़ी मिली।

“लो, सविता बहन आई है ?” राजू को आश्चर्य हुआ और कुछ राहत भी अनुभव हुई।

“तुम और बहन लड्डू लेकर रसोई में जाओ, मैं ऑफिस में बात कर के आता हूँ।” ऐसा कहकर पिताजी ऑफिस की ओर गए।

ग्यारह बजे भोजन करने के लिए घंटी बजी और एक के बाद एक वृद्ध अपने-अपने कमरे से डाइनिंग टेबल पर आकर बैठने लगे। पिताजी और मैनेजर ऑफिस के बाहर आए। भोजन करना शुरू हो, उसके पहले राजू और सविता ने सबको लड्डू परोसे। पिताजी एक ओर कुर्सी पर इस प्रकार बैठे थे, मानो कहीं खोए हुए हों।

भोजन पूरा हुआ और सब पार्किंग में आए।

“यहाँ व्यवस्था अच्छी है, क्यों सविता बहन ?” राजू बोला। पिताजी ने सविता की ओर देखा और फिर मुँह घुमाकर चुपचाप खड़े रहे। फिर गला खँखारकर कहा –

“राजू, डिकी में वह जो थैला है, उसे ले आओ।”

“हाँ हाँ, वह तो भूल ही गया था !” कहकर उसने थैला निकाला और बोला, “आप यहीं रहो, मैं ऑफिस में देकर आता हूँ।”

“नहीं भाई, यह मुझे दे दे। ये मेरे कपड़े हैं।”

राजू कुछ समझा नहीं। वह असमंजस की स्थिति में पिताजी के सामने प्रश्नार्थ भरी नजरों से देखता रहा।

“तुम घर जाओ, भाई, अब मैं यहीं रहूँगा ! अब यह मेरा आश्रय-स्थल है।” पिताजी ने शब्दों को अलग-अलग करते हुए कहा।

“हैं…?? क्या…?? यह आप क्या बोल रहे हैं, पिताजी ? ऐसा होता है…??” राजू घबरा गया।

“हो सकता है… भाई… समय के हिसाब से सब करना पड़ता है। तुम क्यों मन में दुखी हो रहे हो ? मुझे तो यहाँ कोई तकलीफ नहीं पड़नेवाली। वहाँ अकेले-अकेले कमरे में पड़ा रहता था। यहाँ मुझे कोई दोस्त मिल जाएगा, तो अच्छा लगेगा।”

राजू की आँखों में आँसू भर आए। वह गलगल शब्दों में बोला,

 “पिताजी, आप रमीला की बात को मन पर मत लेना, उसका तो स्वभाव ही वैसा है। मैं उसे समझाऊँगा। आप चलो और गाड़ी में बैठ जाओ !!”

राजू आगे नहीं बोल सका। शायद उसे अपनी नजर के सामने ही उसे झूठा हो जाने का अनुभव हो रहा था। इस समय चुप खड़ी सविता उसके पास आई और उसके हाथ को हाथ में लेकर समझाने के स्वर में बोली—

 “राजू, मुझे लगता है कि पिताजी जो कर रहे हैं, वह ठीक है। मैंने सब जाँच की है। यहाँ बहुत अच्छी व्यवस्था है। और मैं तो यहीं हूँ। प्रत्येक सप्ताह आकर इनसे मिलती रहूँगी। हेमंत भी यहीं है और तुम भी यहाँ आ सकते हो।”

“अर्थात…? तुम्हें मालूम था…? राजू आश्चर्य से बोला।

“हाँ, राजू…!” सविता ने जितनी संभव हो उतनी नम्रता से कहा।

 तब ही चपरासी आया और बोला—“लाओ दादा का सामान ले जाना है ?”

पिताजी ने थैला उसके हाथ में दिया और उसके साथ धीमे-धीमे कदमों से ही इस नए निवास की तरफ कदम बढ़ाए…  और स्वयं नई जिंदगी की ओर प्रस्थान किया।

♦ ♦ ♦ ♦

मूल गुजराती कहानीकार – सुश्री रेणुका दवे

संपर्क –  जे-201,  कनककला-2, सीमा हाल के सामने,  माँ आनंदमयी मार्ग, सैटेलाइट, अहमदाबाद-15 मो. 9879245954

हिंदी भावानुवाद  – श्री राजेन्द्र निगम,

संपर्क – 10-11 श्री नारायण पैलेस, शेल पेट्रोल पंप के पास, झायडस हास्पिटल रोड, थलतेज, अहमदाबाद -380059 मो. 9374978556

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 10 ☆ लघुकथा – उसूल… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा – “उसूल“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 10 ☆

✍ लघुकथा – उसूल… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

माधव और रघु दोनों बचपन से मित्र हैं। दोनों अपने अपने काम में माहिर। दोनों साथ साथ पढे। माधव ने आईटीआई कर लिया और रघु ने प्लंबिंग का काम सीख लिया। दोनों की पारिवारिक परिस्थितियों ने उच्च शिक्षा ग्रहण न करने दी परंतु दोनों मेहनती थे और अपनी मेहनत की कमाई से खुश भी। दोनों का विवाह हो गया तो गांव से मुंबई आ गए।

माधव ने मेकेनिकल इंजीनियरिंग में आईटीआई किया था सो उसे काम मिलने में दिक्कत नहीं हुई। रघु को शुरू में काम तलाशने में थोड़ी परेशानी तो हुई लेकिन प्लम्बिंग में होशियार होने के कारण जहाँ काम करता वहाँ पसंद किया जाता और जिन-जिनके यहाँ काम करता वे लोग जरूरत पड़ने पर उसी को बुलाते और अपने मित्रो के यहाँ भी भेजते। इस प्रकार रघु की आमदनी भी ठीक ठाक थी। दोनों अपने अपने परिवार के साथ कल्याण में एक ही  बिल्डिंग में रहते थे ।

बच्चों की पढ़ाई और शादी ब्याह की जिम्मेदारी आने से आमदनी बढाने और आवास की अच्छी व्यवस्था पर विचार करने लगे। रघु को अपने एक मित्र के जरिए अंबरनाथ में कम दाम पर एक फ्लैट मिल गया और उसी के नीचे एक दूकान । दूकान किराए पर ले ली और हार्डवेयर की दूकान खोल ली। प्लंबिंग का काम तो चल ही रहा था। अब उसे बड़ी बिल्डिंग में प्लम्बिंग के ठेके भी मिलने लगे ।

माधव कल्याण में ही रह गए।  वे मुंबई में एक कंपनी में काम करते थे और कल्याण से मुंबई अप डाउन करते थे। उनकी तीन बेटी और एक बेटा था। एक बेटी का विवाह हो गया परन्तु छोटी बेटी और बेटा पढाई कर रहे थे। रघु के तीन बेटे थे और उनमें से दो हाईस्कूल करने के बाद उसके साथ ही काम करने लगे। इस तरह उसकी आमदनी अच्छी होने लगी। अंबरनाथ के बाहरी इलाके में खाली पड़ी जमीन पर प्लॉटिंग हो रही थी तो रघु को वहाँ एक प्लॉट मिल गया और फ्लैट बेचकर एक बंगला बना लिया।

रघु के बंगले के बाजू में एक प्लॉट था जो बिकाऊ था। उसने सोचा क्यों न माधव को दिलवा दिया जाए। माधव से बात की तो वह तैयार हो गया क्योंकि कल्याण वाला फ्लैट छोटा पड़ रहा था इसलिए उसने हाँ कर दिया। इधर रघु ने प्लॉटहोल्डर से बात की तो प्लॉटहोल्डर माधव को बेचने के लिए तैयार हो गया। रघु बहुत प्रसन्न हुआ और चेहरे पर अनोखे भाव लाते हुए प्लॉटहोल्डर से कहने लगा कि माधव उसके बचपन का दोस्त है और उससे वह कुछ कह नहीं सकता इसलिए मेरा भी ख्याल रखना। प्लॉटहोल्डर ने सहज भाव से उसका चेहरा देखते हुए कहा – दो पर्सेंट न! रघु ने धीरे से हाँ में सिर हिलाया।

प्लॉटहोल्डर ने हँसते हुए कहा कि अरे भाई वह तो आज का उसूल है, चिंता मत करो मिल जाएगा।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 61 – बंधन… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बंधन।)

☆ लघुकथा # 61 – बंधन श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

“तुम्हें पता है तुम्हारी मां ने क्या किया, मोहल्ले की सारी औरतें नीचे आई है अब चलो जवाब दो? बच्चों की तरह हरकतें करती हैं। मैं कुछ बोलती हूं तो तुम लोगों को लगता है कि मैं तुम्हारी मां की शिकायत करती रहती हूं।”

“क्या हुआ तुम माँ पर क्यों चिल्ला रही हो?”

“वह सुबह से गायब है बच्चों की तरह  नजर रखनी पड़ती है शांति जी ने कहा।”

रामप्रसाद जी ने गंभीरता से गहरी सांस ली और कहा “भाग्यवान नाम तो तुम्हारा शांति है पर क्यों अशांति मचा रखी हो? मां ने कहा है कि वह तुम्हारे और हमारे लिए कुछ सामान लेने जा रही हैं इसलिए आज मुझसे वह ₹10,000 लेकर गई हैं अभी आ रही होगी।”

“चलो ! देखो तुम्हारी मां ने क्या किया है?”

“क्या हुआ भाभी जी आप सब लोग आज यहां पर?”

“क्या बताएं भाई साहब, आपकी मां हमारी सभी की सास और बेटियों को लेकर कुंभ स्नान के लिए गई हैं। सब लोग बिना बताए ही घर से निकल गई है अब हमें बड़ी घबराहट हो रही है।”

“आप लोग घबराइए नहीं मैं ड्राइवर को फोन लगा कर पूछता हूं।”

उन्होंने फोन किया तब ड्राइवर ने कहा कि- “मां जी ने कहा कि आपने ही आदेश दिया है।”

माँ ने ड्राइवर से फोन ले लिया कहा –“चिंता मत करो हम लोग दो-तीन दिन में आराम से घर पहुंच जाएंगे। तुम सभी के लिए मैं प्रसाद भी ले आऊंगी और अब दोबारा फोन करके परेशान मत करना।”

“भाई साहब अगली बार से आप माताजी से कह दीजिएगा कि हम सभी की सास और बेटियों को लेकर न जाया करें अकेले उन्हें जहां जाना हो वहां जाये।”

सभी पड़ोस की औरतें चली गईं।

“श्रीमान जी कुछ कहती थी तो तुम्हें लगता था कि मैं उन पर शक करती हूं। बताओ अब किसी मुश्किल में खुद फंसेंगी और सबको फसाएंगे अब क्या होगा?”

“उनसे भी मेरा ममता का बंधन है वह भी तो मेरी मां है।”

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – बेबस कहानी – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।

आज प्रस्तुत है आपकी एक कहानी के पीछे की अप्रतिम विस्मयपूर्ण कहानी  “– बेबस कहानी –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी  ☆ — बेबस कहानी — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

कथाकार ग्राहम को सम्मानित करने के लिए राष्ट्रीय साहित्यिक संस्था की ओर से योजना बनने पर संबद्ध अधिकारी उसके आवास पर उससे मिलने पहुँचे। ग्राहम ने खुशी से उनका स्वागत किया। इस बीच ग्राहम की नानी शालीन ने यथा संभव उन लोगों का अच्छा आतिथ्य किया। वे नानी को इस बात के लिए शाबाशी दे रहे थे उनका नाती अपने लेखन से एक खास पहचान रखता है। औपचारिक बातें पूरी हो जाने के बाद वे लौट गये।

शालीन ने अपने नाती ग्राहम से कहा, “मुझे बहुत खुशी हो रही है मेरा नाती इतना बड़ा लेखक है। अब मेरी ढिठाई तो देखो मैं उसे डाँटती रहती हूँ। यह तो मेरी बहुत बड़ी भूल है। सच कहती हूँ नाती, अब से कभी नहीं डाँटूँगी।”

नानी यह तो अपने को छोटा बना कर नाती से बातें कर रही थी। उसका नाती बाहर के लोगों के लिए जैसा भी होता हो, अपनी नानी के लिए तो छोटा बालक था। छोटा सा बालक अपनी बड़ी नानी के कदमों पर अपना जीवन न्योछावर कर दे।

नानी ने कहा उसे डाँटती रहती है, लेकिन ग्राहम को याद नहीं था नानी ने उसे कभी किसी बात पर डाँटा हो। उसने बड़े प्यार और श्रद्धा से कहा, “ मेरी नानी, लोगों की बातों से मुझे तौल कर अपने से दूर तो न करो। बाहर की बातें बाहर के लिए ही ठीक हो सकती हैं। यह तो हम दोनों के अपने प्रेम और रिश्ते का घर है। मेरी नानी खूब बड़ी रहे और मैं छोटा रहूँ। मुझे अपनी नानी से बस यही चाहिए।”

शालीन ने देखा नाती तो रुआँसा हो गया। उसने नाती का दिल दुखाया हो तभी तो ऐसी हालत पैदा हो रही थी। जीवन की अनुभवी नानी ने समझ लिया जो न बोला जाना चाहिए वही बोले जा रही है। नानी के साथ तो रोज़ नाती का संवाद चलता था। न नाती बोलने में अटकता था और न ही नानी को लगता था बोलने में किसी प्रकार की अति कर रही है। आज हुआ कि विद्वानों के अपने घर आने से मानो नानी को ताव आ गया था। उसके ताव का मतलब था भी क्या, बस अपने नाती का कद बड़ा रहे। बल्कि उसका कद तो बड़ा ही है। नानी बस अपने नाती के बड़े कद को देख कर अपने आपको सौभाग्यशाली समझने का गौरव अनुभव करती रहे। 

नाती को सम्मानित किया जाने वाला था तो नानी उसी बात को आगे बढ़ाने के लिए बोली, “मेरे नाती, बड़े काम के लिए जाने वाले हो, नया कपड़ा जरूर सिलवा लेना।”

बातें कुछ हल्केपन पर उतर आने से ग्राहम को अच्छा लगा। नानी उसके कपड़े और खाने की बात करती रहती थी। वह ठीक से खा रहा हो, लेकिन नानी की शिकायत होती थी पूरा पेट तो खाया ही नहीं। वह नया कपड़ा पहने तो नानी के लिए तत्काल मानो वह कपड़ा पुराना हो जाता था। ग्राहम के लिए यही सच्चा सुख था। नाती को अभी बहुत कुछ करना है। उसकी नानी उसके हर काम की गवाह हो। नानी जब कहती थी तुमने अपना नाम यशस्वी बना लिया तो उसे लगता था इससे बड़ा अपने जीवन का और कोई पुण्य हो नहीं सकता। 

पढ़ी लिखी नानी ने अपने नाती को पाल पोस कर बड़ा करने के साथ अपने पास बिठा कर घंटों पढ़ाया था। ग्राहम के माँ – बाप न होने से तब तो ऐसा हुआ उसकी नानी ने अपने नाती को अपनी सामर्थ्य के अनुसार मानो अपना ज्ञान उस पर वार दिया था। उसी नानी के घर में उसका नाती ग्राहम लेखक के रूप में उभरता गया और नानी उसके उत्कर्ष से फूला न समाती थी।

नानी इस बात की प्रत्यक्ष गवाह हुई नाती की कहानियाँ छपती थीं और उसके पाठक उसे पत्र लिखते रहते थे। नाती घर पर न हो तो डाकिये के हाथों से नानी स्वयं पत्र लेती थी। उसने नाती का पत्र कभी पढ़ा नहीं, लेकिन पूछती अवश्य थी लोग क्या लिखते हैं? लड़कियों के पत्र होने से नानी हँसी से कहती थी अब शादी के लिए सोचा करो।

दोनों सम्मान वाली बातें करते रहे। सम्मान की राशि दस लाख थी। नानी बल दे रही था बहुत सारा पैसा ग्राहम की शादी के लिए सुरक्षित रख लेना होगा। सहसा दोनों के बीच बातें उस मोड़ पर आने लगीं संसार के हजारों लोग ग्राहम की कहानियाँ पढ़ते हैं, लेकिन उसकी नानी ही पढ़ने से वंचित रह जाती है।

ग्राहम ने कहा, “अपने हिसाब से पढ़ा करो। तुम पढ़ो तो मेरे लिए बहुत ठीक होगा। तुम मार ठोंक कर कह सकती हो अरे पगले तुमने यह क्या लिखा है।”

नानी ने उसे याद दिलाया शुरु में तो खूब पढ़ती थी। परंतु उसे लगता था नाती ने विद्वानों के लिए लिखा है और वह है कि पढ़ने की व्यर्थ चेष्टा करती है। वह इस प्रसंग में विराम लगाने के उद्देश्य से बोली, “अब छोड़ो इन बातों को नाती।”

परंतु नाती नहीं छोड़ता। आज पहली बार नानी के साथ उसकी कहानियों के बारे में इतनी गहनता से बातें हो रही थीं। उसे लग रहा था उसके कहानी – लेखन की एक बहुत बड़ी खाई को पाटा जा रहा है। हालाँकि वह खाई की निश्चित परिभाषा न जान पाता, लेकिन न जानने में भी उसे एक अजीब से आनन्द की अनुभूति तो हो ही रही थी। उसे जैसे दैवी प्रेरणा हुई और उसने नानी से कहा, “मैं केवल तुम्हारे लिए एक कहानी लिखूँगा नानी।”

नानी को भी शायद दैवी प्रेरणा ही हुई और उसने कह दिया, “लिखो कहानी मेरे लिए नाती। परंतु कहानी मेरे स्तर की हो। शब्द ऐसे हों जो मैं बोलती हूँ। अच्छा होगा मेरे अपने वातावरण पर लिखी हुई कहानी हो। मेरा गाँव हो, मेरे आस पास के लोगों का जीवन हो। मेरे नाती, ऐसी ही कहानी लिख कर मुझे थमाओ।”

यह एक बहुत बड़े रहस्य के उद्घाटन की पूर्व पीठिका थी। विचित्रता यह होती कि जो ग्राहम भाषा, विचार और प्रस्तुति में विद्वता का शिखर होता था वह ठेठ भाषा, गँवई चित्रण और मासूमियत से ओत प्रोत कहानी के लिए नानी के सामने स्वीकृति में सिर हिला रहा था। नानी ने जैसे यहाँ भी दैवी प्रेरणा से संचालित हो कर उसे आशीर्वाद दिया और मानो कहा मेरा अपना जो एक युग अतीत हो गया उसे वर्तमान बना कर मुझे धन्य कर दो मेरे नाती !

अपने आंगन के देवदार की छाया में बैठे हुए ग्राहम को लग रहा था वह गलत जगह पर बैठा है। उसने गरमी से निजात पाने के लिए इस पेड़ को चुना था। परंतु अब जब यहाँ आ बैठा तो उसे शिकायत सी बन आयी इस पेड़ की छाया तो शायद उसे और तप्त कर रही है। परंतु वह समझ भी रहा था ऐसी शीतल छाया के प्रति उसकी शिकायत का कोई मतलब नहीं। वास्तव में परेशानी तो उसकी अपनी अंतरात्मा से थी। तब तो वह जहाँ – जहाँ भी जाता अपनी ही परेशानी का शिकार बना रहेगा।

ज्ञान का एक पाठ यह तो होता ही है आदमी अपनी परेशानी से भाग कर भी भागा नहीं होता, क्योंकि जो शरीर में है वह तो साथ ही सफ़र कर रहा होता है। भागने में अपने कष्टों से मुक्ति होती तो आदमी को अपना केंसर छोड़ कर भागते देखा जाता। वह खुशी के मारे कह रहा होता मैंने तो अपने केंसर को बहुत पीछे छोड़ दिया और स्वस्थ शरीर से कहीं अपना नया ठिकाना ढूँढने भागा चला जा रहा हूँ। अपने आप से भागना सहज ही होता तो आदमी अपनी गरीबी से भाग कर कहीं दूर धनवानी का आनन्द पा रहा होता। आदमी के जीवन में फाँसी की नौबत ही न आती। गले में रस्सी पड़ रही हो कि आदमी उस रस्सी को सरका कर प्यार से गा रहा होता मैंने फाँसी से दरका कर अपना जीवन सुन्दर बना लिया।

ग्राहम अब तक की अपनी लिखी हुई कहानियों के बूते अच्छा कहानीकार माना जाता था। कहानी- जगत में कहा जाता था वह अब से कोई कहानी न लिखे तो भी उसका नाम कहानी – लेखक के रूप में सदा के लिए रह जायेगा। किंतु कहानी – लेखन के मामले में ग्राहम अपनी पीड़ा जानता था। वह गणित बनाता था अभी मौत न आने से अपने जीवन के दिन शेष हैं तो उसे तो अभी बहुत सारी दमदार कहानियाँ लिखनी हैं। वह अगली कहानियों की इसी प्रबल उत्कंठा में अपनी पिछली कहानियों के साये को पार कर के बहुत आगे निकल जाना चाहता था।

परंतु कहानी – लेखन का इतना बुलंद हौसला रखने पर भी क्या बात थी उसे अपनी नानी के लिए कहानी का कथ्य सूझ नहीं पा रहा था। मान लें, शेष जीवन के गणित से बीस कहानियों का मानचित्र मन में गढ़ लिया, लेकिन कल्पना की गाड़ी तो एकदम यहीं अटक पड़ी है। यही ग्राहम की परेशानी थी और उसने समझ लिया इस का निदान देवदार की छाया नहीं है। बल्कि छाया को तो अब वह भूल जाये और खुली चड़चड़ाती धूप में आ कर देख तो ले कहानी का सूत्र यहाँ पकड़ में आ जाने वाला हो।

पिछले दिनों की तरह आज भी तमाम गरीब उसे दिखाई दे रहे थे। एक आदमी दोनों पैरों से पंगु था। वह भीख मांग रहा था, लेकिन उसे किसी से भीख मिल नहीं रही थी। जहाँ तक ग्राहम को याद था उसने ऐसे बेबस आदमी पर अब तक कहानी लिखी नहीं थी। उसमें उमंग पैदा तो हुई कहानी का कथ्य मिला, लेकिन वह नये सिरे से उदास हो गया। न जाने क्यों इस कथ्य ने जैसे उसका साथ छोड़ दिया और अब बल लगा कर वह लिखना भी चाहता तो कहानी में वह आत्मा न आ पाती जो उसे कहानी – लेखक में अद्भुत बनाता था।

नानी की उम्र की एक वृद्धा उसके सामने से गुजरी तो उसने सोचा इससे अपनी नानी का साम्य बैठने से यही मेरी कहानी की पात्र है। आगे इसका नाती इन्तज़ार कर रहा होगा। इनकी अपनी मोटर है। नाती प्यार से दरवाज़ा खोल कर कहेगा बैठो नानी। नाती ने मिठाई खरीदी हो। जाने से पहले कहेगा खा लो नानी। परंतु नानी को अपने खाने की चिंता कहाँ। वह तो बस नाती को खाने के लिए कहती रह जायेगी। ग्राहम की अपनी स्नेहिल नानी भी तो यही होती है। किंतु ग्राहम ने जैसा सोचा वैसा नहीं था। दो आदमी वृद्धा से बातें करने लगे। वृद्धा खिलखिला कर बाज़ारू हँसी हँस रही थी। पैसे की बात हो जाने पर वृद्धा ने हामी भरी और दोनों के साथ एक संकरी गली में चली गयी। ग्राहम को इस दृश्य से घीन आ रही थी। क्या सोच कर कहानी का ताना –  बाना बुन रहा था और वृद्धा ऐसी हुई मानो कह रही हो मेरे वेश्या जीवन पर लिख सको तो लिख लो। ग्राहम ने तो वृद्धा को स्नेहिल नारी बना कर अपनी कहानी में उकेरने का खयाल किया था। अब जैसे उसे पत्थर से वास्ता पड़ रहा था। उसने वृद्धा को मन से हटाया और इस तरह एक स्नेहिल कहानी आकार लेते – लेते न जाने गलीज वासना के किस गलियारे में वह खो गयी। 

ग्राहम सारा दिन कहानी के लिए भटकता रहा, लेकिन निराशा ने उसे निराशा पर ही पहुँचा कर जैसे उससे कहा नानी के सामने तुम्हें इसी तरह खाली हाथ जाना है। घर लौटने पर उसने नानी से बातें करने से अपने को बचाया। नानी ने खाने के लिए कहा तो मन मारे किसी तरह खाया और अपने कमरे में जा कर पलंग पर उठंग गया। एक टिस ने जैसे उसे रौंद डाला। कथ्य मिल गया होता तो इस वक्त वह नानी के लिए कहानी लिख रहा होता। वह सोचता रहा कहीं अपने लेखन का अंतिम पड़ाव तो न आ गया? यदि अंतिम पड़ाव का यह दंश सत्य हो तो क्या, वह अपनी नानी को उसकी कहानी देने के योग्य हो ही न पायेगा? तब तो उसे लग रहा था न वह जीवन से रहा और न ही मृत्यु से। तो फिर कहाँ से रहा? द्वंद्व जैसी स्थिति में वह स्वयं से संवाद कर रहा था।

“मुझे अपनी नानी के लिए कहानी लिखनी ही है।”

“लिखने का मेरा हौसला इस तरह खत्म नहीं हो सकता।”

“अपना हौसला बनाये रखने के लिए मुझे कुछ करना तो होगा।”

“कहीं से भी तो लाऊँ अपनी नानी की कहानी का जगमग करता आलोक।”

“मेरी बेचैनी अब तो बहुत ही बढ़ती चली जा रही है।”

“सारा दिन भटकते निकल गया।”

“दूर – दूर हो आया हूँ, लेकिन लगता है शिथिल हुए चुपचाप एक जगह पड़ा हुआ हूँ।”

“मेरी नानी ने मुझसे कह दिया उसके लिए कहानी लिखूँ, लेकिन वह मुझ पर बल डालने वाली न होगी। मतलब मैं लिखूँ तो अपने मन से और न लिखूँ तो भी अपने मन से।”

“किंतु कहानी के लिए मेरा मन तो बहुत विकल है। ऐसे में न लिखने का सवाल नहीं होता।”

वह पलंग पर गया तो इसी आत्म संवाद के बीच उसे नींद आ गयी। उसे एक स्वप्न आया। स्वप्न का संबंध कहानी के कथ्य से ही था। वह स्वप्न में अपनी नानी की कहानी के लिए साँप बिच्छू तक से अपना संमार्ग पूछता फिर रहा था। रात का अंधेरा अपना सीना चीर कर उसे अपनी नानी को थमाने के लिए एक कहानी देने की कृपा तो करे।

स्वप्न उसे एक गुफ़ा में ले गया जहाँ एक साधु तपस्या कर रहा था। उसके शरीर में घास उग आयी थी। यह इस बात का संकेत था साधु बहुत दिनों से तपस्या में लीन था। ग्राहम स्वप्न में भी प्रज्ञा से परिपूर्ण था। उसे लगा साधु ने अपना अनमोल जीवन नष्ट कर दिया। वह ऐसे ही बैठा रह जायेगा और एक दिन उसके शरीर में उगी हुई घास बढ़ कर उसे पूर्णत: ढक देगी। किसी को पता नहीं चलेगा इतनी विशाल गुफ़ा में एक साधु घास के नीचे दब कर मरा पड़ा हुआ था।

वह तपस्या से संसार को चमत्कृत करने आया था, लेकिन एक जुगनू भी न बन पाया और वक्त ने उसे सोख लिया। उसकी भावना होगी तपस्या के पुण्य से लोगों का हित करेगा, लेकिन अब लोग कहाँ जान पायेंगे उनके लिए जो मसीहा जन्म ले रहा था उसका जन्म ही उसके लिए मृत्यु का पर्याय हुआ। साधु भगवान का खोजी हो तो भगवान भी उससे पूछने न आया तुमने मेरी अनुभूति की थी कि नहीं?

ग्राहम के लिए यहाँ कहानी तो और भी न हो सकती थी। साधु के रूप में नाश का जो दृश्य उसके सामने झिल मिल कर रहा था ऐसे कथ्य से अपनी कहानी का संसार रचना उसके लिए तो जैसे नींद में भी संभव हो नहीं पाता। बात तो उसकी नानी की कहानी को ले कर थी। तब तो यहाँ का परिदृश्य एक जंजाल ही हुआ।

कहानी के लिए तड़प में पड़े हुए ग्राहम ने स्वयं में प्रतिज्ञा कर ली और थोड़ी माथा पच्ची करने पर नानी को देने योग्य कहानी न मिलेगी तो वह आत्म हत्या कर लेगा। वास्तव में अपनी नानी उसे बहुत प्रिय है, अपनी जान से भी ज्यादा। उसने देख लिया था नानी अपनी कहानी के लिए किस हद तक उत्सुक थी। फिर भी नानी कहेगी नहीं। नानी की चुप्पी में ही मानो यह आवाहन हो उसे अपनी कहानी तो मिले।

ग्राहम की ओर से जान देने की प्रतिज्ञा की देर थी कि उसके सामने ज़हर का दरिया उग आया। चुटकी भर ज़हर हो तो बच जाने का संदेह होता। विशाल दरिया होने से मौत का जैसे लिखित ताकतवर प्रमाण हुआ इससे बचा नहीं जा सकता। ग्राहम को खुशी हुई मौत के दरबार में उसकी इतनी प्यारी सुनवाई हो रही थी। उसने दस तक गिनने का एक हठ अपने ओठों पर रख लिया। दस पर आ जाता और कहानी अब भी न मिली होती तो मौत का दरिया सुनता वह छपाक से उसमें कूद ही तो पड़ा। परंतु ग्राहम के लिए अभी मौत आने वाली नहीं थी। बल्कि उसकी नानी अपनी कहानी के लिए उसे बचा लेती। दस की गिनती पूरी होने से पहले मौत का दरिया अंधेरे में न जाने कहाँ विलीन हो गया। ग्राहम को कहानी मिल गयी और अब उसका दायित्व होता कहानी लिखने में अबाध गति से सक्रिय हो जाये।

स्वप्न ज्यों ही पूरा हुआ उसकी नींद टूट गयी। रात अभी तो आधी भी न बीती थी। ग्राहम के लिए अच्छा ही हुआ, क्योंकि रात तो उसके लिखने के लिए ही होती थी। कहानी लिखने का ताब उसे कुछ सोचने पर मज़बूर कर रहा था। वह ऐसा तो न मानता भगवान से लड़ कर कहा होगा मुझे लेखक बना कर धरती पर भेजो। उसने तो इसी धरती पर लेखन के प्राण तत्व की अपनी उसाँसों में अनुभूति की थी। उसकी पहली कहानी सामाजिक ढाँचे के विरुद्ध थी। उसने गरीबों के हक में पहली कहानी लिख कर धनवानों से एक तरह से दुश्मनी मोल ली थी जिसकी चिनगारी आज भी तप्त चली आ रही थी। उसे जान से मारने की धमकी दी जाती थी, लेकिन वह लेखन के अपने आत्म सिद्धांत से तिल भर भी विमुख होता नहीं था।

निश्चित रूप से आज की उसकी कहानी अब तक की कहानियों से बहुत ही हट कर होती। नानी से उसका यही तो प्रण था। तब तो उसे लग रहा था यही कहानी उससे छूटी हुई थी और आज स्वप्न की ओर से जैसे एक वरदान हुआ जिसमें कहा गया, “ग्राहम यह कहानी लिख दो, तुम्हारी आत्मा में जाने – अनजाने कोई टिस चली आ रही हो तो उसका निदान हो जायेगा।”

परंतु इस कहानी के पीछे एक बहुत बड़ा रहस्य छिपा हुआ था। नानी को कहानी देने के लिए जब वह स्वयं में प्रतिज्ञा गढ़ रहा था तभी जैसे निश्चित हो गया था वह एक बहुत बड़े रहस्य के उद्घाटन की पूर्व पीठिका थी। यह जो कहानी उसे मिली यह उसके अपने ही जीवन का एक बहुत ही पीड़ादायी अध्याय था। किंतु इस कहानी को न जानने से वह इसे कल्पना से लिखता। 

स्वप्न से अर्जित कहानी का संबंध पर्वत के उस पार रात के गहन अंधेरे से था। यहाँ भी तो रात ही थी। बस कमरे का प्रकाश कुछ दूर तक उजास बिखेर रहा था। ग्राहम कमरे के उस प्रकाश वृत्त से हट कर बाहर अंधेरे में आ खड़ा हो जाये तो इसी अंधेरे में दूर वह पर्वत होगा जिसके उस पार उसे अपनी ही कहानी मिली थी। अपनी कहानी में उसकी माँ थी, उसकी नानी थी और वह स्वयं था। नानी ने भाषा सहज रखने के लिए कहा था। तब तो भाषा नानी की ही होती। बस लेखन का दायित्व ग्राहम का अपना होता।

ग्राहम ने ज्योंही कहानी लिखना शुरु किया उसकी आँखों से आँसू बह पड़े। ऐसा नहीं कि लिखते वक्त उसे रोना न आता हो। रोना तो बहुत आता था, लेकिन इस तरह आँसू बह कर कागज़ पर टप – टप करते चूते नहीं थे। उसने अपने को संभालने का प्रयास किया तो यह संभव न हो पाया। तब तो उसे बहुत सोचना पड़ा यह क्या हो रहा है, हर शब्द लिखने की प्रक्रिया में मन बहुत रो लेना चाहता है। हर वाक्य – संरचना के बीच अपनी पूरी काया और अपनी संपूर्ण अंतश्चेतना बिलख कर कहने में लगी हुई हो ग्राहम ठहर कर आँसू बहा लो इसके बाद लिखने में तल्लीन होना। ग्राहम अपनी इस कहानी के बारे में अभी कोई निर्णय तो न ले सकता यह कैसी कहानी होगी। परंतु वह अपने को सफलता और असफलता जैसी दो धारों में न ले जा कर अपने लिए इतना ही पर्याप्त मान रहा था उसके हाथों वह कहानी जन्म लेने वाली थी जो उसकी नानी के लिए उसकी अपनी आत्मा से उद्भूत हुई थी। 

ग्राहम ने अपनी नानी से जाना था उसकी माँ का नाम ‘शेली’ था। यह नाम ग्राहम के लिए अपार अतीव बड़ा प्यारा नाम था। उसने अब तक अपनी किसी कहानी में इस नाम का उपयोग नहीं किया। भद्र महिलाओं को अपनी रचनाओं में पात्र बनाते वक्त उसे बहुत बार लगा इनमें से किसी एक को शेली नाम तो दे ही दे। जैसी उच्च नारी, वैसा महान नाम। पर उसने शेली नाम को बचाये रख लिया। एक तो उसके खयाल में होता था शेली नाम तो बस उसकी माँ का नाम हो सकता है। दूसरी जो बात थी वह ग्राहम को पीड़ा दे जाने वाली बात थी। शेली नाम चाहे मरियम जैसी देवी को समर्पित कर रहा होता, रचना – प्रक्रिया के बीच माँ की याद बनी रहती और मन में रोता सा प्रश्न बना होता आज अपनी माँ क्यों नहीं है? उसने इस बार किसी प्रकार की सोच में पड़ कर आकलन करना ज़रूरी नहीं माना कि एक  बार देख तो ले जो कहानी लिखने जा रहा है क्या इसमें शेली नाम का उपयोग कर सकता है? बल्कि नानी के लिए कहानी होने से शेली तो जैसे उसकी बेटी हो जाती। उसने शेली नाम लिया तो आँसू के लिए लिया। यह कहानी जितना चाहे उसे रुला दे, इसके लिए वह तैयार था। माँ को शायद बहुत दिनों से याद नहीं किया। यही वक्त है, माँ को खूब याद कर ले, पूज ले अपनी माँ को !

 +++ 

ग्राहम की माँ शेली, नानी, उसके नाना लेबोने और पिता जेरोम की कहानी बड़ी विस्मयकारी थी। लेबोने नाम के आदमी से शादी होने पर नानी ससुराल आयी। उनके घर बेटी का जन्म हुआ जिसका नाम शेली रखा गया। बेटी के जन्म के कुछ ही दिनों बाद लेबोने को सेना में भर्ती होना पड़ा। नियम ही ऐसा था देश के हर पुरुष को दो साल के लिए आर्मी में जाना पड़ता था। परंतु वह छावनी से युद्ध के लिए जाने पर वापस लौटा नहीं था। उसे मृत मान लिया गया। कभी दो साल बीत जाते और वह घर आता। परंतु मारा गया हो तो दो साल यहाँ बीत गये और वह वाकई नहीं आया।

शेली की माँ को पेंशन मिलना चाहिए था, लेकिन कागज़ में गड़बड़ी हो जाने से उसका परिवार पेंशन से वंचित रह गया था। इस तरह परिवार में विपतियाँ आने से शेली की माँ बहुत ही टूट गयी थी। किंतु उसने हौसला नहीं छोड़ा। उसकी बेटी शेली स्कूल में पढ़ती थी। माँ की बहुत चाह थी अपनी बेटी पढ़ कर कहीं अच्छी नौकरी पर पहुँचे।

शेली ने बड़ी होने पर अपनी माँ की इच्छा पूरी की। वह नर्स बनी। अस्पताल में काम करने के दिनों ज़ेरोम से उसकी शादी हो गयी। ज़ेरोम की अपनी एक दुकान थी जो खूब चलती थी। परंतु उसके दो सौतेले भाई थे जो उससे लड़ते रहते थे। ज़ेरोम तरक्की कर रहा था जो दोनों भाइयों से देखा न जाता था। अपने परिवार से इस तरह वैमनस्य चलने से ज़ेरोम शेली की माँ के यहाँ आ कर बस गया।

दूकान ज्यादा दूर न होने से वह यहीं से अपनी दुकान आता – जाता था। एक दिन वह दुकान पहुँचा तो देखा दुकान जल रही थी और लोग आग बुझा रहे थे। वह आग बुझाने के लिए आगे बढ़ा कि लपटें उस पर छा गईं और वहीं उसकी मृत्यु हो गयी। लोगों ने देखा था ज़ेरोम का छोटा सौतेला भाई इधर साइकिल पर आया था। उसने दुकान के एक किनारे में जा कर छत पर हथगोला फेंका था और भाग गया था। लोगों को पुलिस से यह कहना पड़ा तो वे कहने से पीछे नहीं हटे। वह गिरफ़्तार हो गया और उसे लंबी सज़ा हो गई। उसके दो बेटे थे। उन्होंने यह न देखा उनके पिता ने कैसी करतूत की थी। उनकी सोच एकपक्षीय होने से वे अकसर शेली के घर आ कर गाली – गलौज कर जाते थे। उनसे परेशान माँ – बेटी ने वह जगह छोड़ दी और दूर विशाल आबादी वाले एक गाँव के पर्वत की तराई में घर ले कर रहने चली गईं। शेली गर्भवती थी। उसने नये घर में पुत्र को जन्म दिया। नानी अपने नाती की देखभाल करती थी और शेली अस्पताल की अपनी नौकरी से जुड़ी रही।

एक दिन शेली की माँ अपनी एक बीमार चचेरी बहन को देखने गयी कि पर्वतीय इलाके में बहुत बरसात होने के कारण वह दो चार दिन बाद ही लौट पाती। यहाँ शेली को अस्पताल की अपनी नौकरी पर नियमित जाना तो पड़ता। जब तक माँ न लौटती वह थोड़ी दूर पर्वत की उसी तराई में रहने वाली एक महिला के यहाँ अपने बेटे को छोड़ कर नौकरी पर जाती थी। महिला बहुत ठीक से उसके बेटे की देखभाल करती थी। शेली की माँ की चचेरी बहन का कोई न होने से वह सोचती थी अपनी माँ से कहेगी उसे यहाँ ले आये। वह नर्स होने से उसके रोग का बहुत हद कर अपने हाथों उपचार कर सकती थी। किंतु शेली का सोचा पूरा न हो पाया। उसे सूचना पहुँची उसकी मौसी की मृत्यु हो गयी। उसकी माँ वहीं थी। शेली ने वहाँ जाने के लिए नौकरी में एक दिन के लिए छुट्टी मांगी जो उसे मिल गयी। अरथी सुबह दस बजे उठने वाली थी इसलिए शेली को यथा शीघ्र घर से निकलना था।

सुबह कुछ – कुछ अंधेरा था। शेली अपने बेटे को उस महिला के पास छोड़ने जा रही थी कि देखा एक आदमी भागा चला जा रहा था। उसने कुछ रुक कर शेली को अपने भागने का कारण बताया और उसे सलाह भी जितनी जल्दी हो सके अपने घर चली जाये।  चिड़ियाघर का एकाकी शेर भाग गया था लेकिन वहाँ के कर्मचारियों ने यह सूचना आस पास के इलाकों में प्रसारित करने में देर कर दी थी। इधर शेर होता नहीं था। उस शेर को कहीं से ला कर यहाँ चिड़ियाझर में रखा गया था। जंगल उस शेर का राज होने से फरार होने पर उसने अब जंगल पाने के साथ आस – पास के गाँवों को भी जैसे अपने कब्जे में कर लिया था।

शेली अपने बेटे को गोद में ले कर झपटते चली जा रही थी कि उसे लगा कुछ अनहोनी सी घटित हो जाने वाली है। दूर से शेर की दहाड़ कानों में पड़ने से उसने समझ लिया था यही अनहोनी का संकेत है।

चिड़ियाघर का वह एकाकी शेर शेली का देखा हुआ था। शेर से खाली अपने गाँव का भूगोल जानने से उसके मन में एक ही झटके से आ गया था वही शेर इधर काल बन कर घूम रहा है। एक आदमी ने उससे कहा भी तो यही था। इस बीच शेली का बेटा रोने लगा था। उसे चुप कराने का शेली के पास एक ही नुस्खा था, उसने अपना स्तन अपने बेटे के मुँह से लगा दिया था। दूध मुँह में आने से बेटा शांत हो गया था। जानलेवा कष्ट का अनुभव करने वाली शेली सोच में पड़ी क्या माँ – बेटे के लिए विपदा ने इस तरह बाहें फैला लीं कि वह अपने बेटे को ले कर न आगे बढ़ सकती है और न पीछे लौटने के लिए कोई विकल्प शेष रह पाया है?

कुछ – कुछ अंधेरा था तो अब छँट ही जाता। तकदीर कुछ देर साथ दे तो सूरज का प्रकाश फैलने ही वाला है। पर्वत के चप्पे – चप्पे में प्रकाश तिर रहा होगा और उसी अनुपात से अपने भीतर साहस भी बढ़ता जायेगा। यह पर्वतीय रास्ता चनलसार होने से लोग आने – जाने लगेंगे और माँ – बेटे का संकट अपने आप तिरोधान हो जाएगा।

शेली रास्ते से हट कर झाड़ी में छिप गयी थी। उसके थरथराते ओठों पर भगवान के लिए प्रार्थना थी और उसके दोनों हाथ अपने बेटे की सुरक्षा के लिए जैसे स्वयं में एक चट्टान हो जाना चाहते थे। परंतु उतनी सारी सोच, इतना कंपन, अंधेरे का छँटना, सूरज की प्रतीक्षा, लोगों के लिए राह तकना, बचाव के लिए इतनी प्रार्थना सब पर तो जैसे तुषार के झोंके टूट रहे थे और इसी अनुपात से शेली का मबोबल भी खंडित होता चला जा रहा था। परंतु वह अपने मनोबल से किसी भी कोण से पस्त न पड़ना चाहती। इस मनोबल में जर्जरता के सिवा कुछ भी न होने के बावजूद यह एक माँ की शक्ति का अमोघ मंत्र था।

माँ को कुछ हो जाये तो हो जाये, उसके बेटे पर किसी प्रकार का संकट न टूटे। शेर की आवाज़ करीब आ रही थी और शेली को लगता था अब शेर और उसके बीच का फासला खत्म होने ही वाला है। अपने बेटे की सुरक्षा चाहने वाली माँ को अब अपनी ओर से कुछ तो करना ही पड़ता। शेर माँ – बेटे के पास आता तो दोनों पर एक साथ झपटता। शेली ने किसी तरह दिमाग से काम लिया। उसने बेटे को बचाने के उद्देश्य से उसे वहीं झाड़ी में छोड़ा और स्वयं रास्ते के किनारे आ कर खड़ी हो गयी। शेर उसके पास पहुँच ही गया। उसने पहचान लिया इसी शेर को चिड़ियाघर में देखा था। शेली खड़ी थी तो खड़ी ही रही। उसकी एक आँख शेर पर थी और एक आँख सुरक्षा का कवच बन कर अपने बेटे पर टिकी हुई थी। शेर नाक उठाये जिस तरह सूँघ रहा था शेली को लगा उसके बेटे की गंध उसे मिल गयी है। शेली शेर से लड़ पड़ी। शेर उसे अपने जबड़ों में उलझाये पीछे लौट गया।

ग्राहम ने सुबह अपनी लिखी हुई कहानी नानी के हाथों में रखी जो सहज भाषा में होने से उसके लिए पढ़ना वाकई बहुत आसान हुआ। वह शुरु की कुछ पँक्तियाँ पढ़ने के बीच तत्काल पन्ने पलट कर कहानी के अंत में पहुँच गयी। कहानी तो उसके अपने ही सत्य पर आधारित थी। तब तो यह कितना बड़ा संयोग हुआ रात के वक्त ग्राहम को यही कहानी मिली थी और उसने सारी रात जाग यह कहानी लिखी थी।  

ग्राहम की स्वयं से प्रतिज्ञा थी कहानी न मिले तो वह आत्म हत्या कर लेगा। आत्म हत्या की उसकी उसी प्रतिज्ञा को खंडित करने के लिए यह कहानी उसकी आत्मा में उतर गयी थी।

सूर्योदय होने पर लोग रास्ते पर जा रहे थे कि देखा था एक बालक ज़मीन पर पड़े रो रहा था। एक स्त्री ने पहचान लिया था यह तो शेली का बेटा था। वहाँ खून के चकते होने से लोग समझ गये थे शेर माँ को ले गया और उसका बेटा बच गया था! परंतु यह तो ग्राहम के बचपन की कहानी थी। उसकी नानी ने इस सोच से उसे सुनाया नहीं था वैसी विदारक घटना को जानने से उसे बहुत आघात पहुँचता। एक साल की उम्र से अपनी नानी की छत्रछाया में पलने वाले ग्राहम ने अपनी कल्पना से यह कहानी लिखी थी। 

— समाप्त 

© श्री रामदेव धुरंधर

28 – 09 – 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 46 – लघुकथा – परिवर्तन, सोच और प्रयास ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  लघुकथा – परिवर्तन, सोच और प्रयास)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 46 – लघुकथा – परिवर्तन, सोच और प्रयास ?

उसकी रोटियाँ थाली में पड़ी ठंडी हो गई थीं।

घर परिवार को भोजन परोसते -परोसते जब वह भोजन करने बैठी तो दाल-सब्ज़ियाँ भी ठंडी हो गई। घर के लोग भोजन करके टेबल से उठ गए। बस साथ कोई बैठा रहा तो वह थी छोटी ननद। उसका भी भोजन करना हो चुका था। वह अपनी डेलीवरी के लिए मायके आई हुई थी।

उसने पूछा – दाल सब्ज़ी गरम करके ला दूँ भाभी? आपका खाना ठंडा हो गया।

– नहीं रे ! थैंक्स, मुझे तो रोज़ ही ठंडा खाने की आदत है।

– और अकेले भी न भाभी? ननद ने पूछा।

उसने एक म्लान -सी मुस्कान दी और भोजन करने लगी।

-हमारी हालत एक – सी है भाभी। मैं समझ सकती हूँ आप अकेले भोजन करती हुई कैसा महसूस करती होंगी!

– है कोई उपाय इसका तो बोलो?

– है न भाभी! मेरी सास ने ही यह उपाय निकाला है।

– अच्छा! मुझे भी बताओ?

– टेबल पर अचार, पापड़, सलाद, चटनी, नमक, पानी का जग पहले से लाकर रख देती हैं मेरी सास। फिर दाल भात सब्ज़ियों के बर्तन और गरम रोटियों का कैसरोल भी रख देती हैं। थाली, कटोरियाँ, गिलास, चम्मच भी सुबह ही टेबल पर रखे जाते हैं। सासुमाँ ने तो घर पर ऐलान ही कर दिया है कि पाश्चात्य संस्कृति को मानकर चलना है तो सब कुछ टेबल पर रखा रहेगा। स्वयं परोसो और खाओ। बहुएँ भी तो नौकरी करती हैं। फिर वे क्यों ये ज़िम्मेदारी उठाएँ और ठंडा खाना खाएँ?

बस फिर क्या था हम दोनों देवरानी -जेठानी का काम अब हल्का हो गया। भोजन के बाद सब अपने जूठे बर्तन बेसिन में पानी डालकर रखते हैं। बाकी काम हम तीनों महिलाएँ कर लेतीं हैं।

-यह तो बहुत अच्छा है। तुम्हारी सास बहुत अच्छी हैं। पर अम्मा नहीं मानेगी।

– वह आप मुझ पर छोड़ दीजिए भाभी।

दूसरे दिन सुबह रविवार की छुट्टी थी। सभी देर से उठे। कोई नहाने – शेव करने में जुटा था तो कोई दो कप चाय गुटक कर समाचार पत्र के अक्षर -अक्षर पढ़ने में मग्न था।

ननद -भाभी मिलकर आलू के पराठे बना रही थीं।

सारे पराठे बनाकर, चाय/ कॉफी बनाकर मक्खन, अचार और दही लेकर टेबल पर रख आईं।

सभी नाश्ते की प्रतीक्षा में थे। एक आवाज़ देते ही साथ सभी टेबल पर हाज़िर हुए।

माँ ने कहा- यह क्या चाय -कॉफी भी केतली में लेकर आई बहू? ठंडी हो जाएगी न?

बेटी ने तुरंत उत्तर देते हुए कहा – माँ पाश्चात्य देशों की संस्कृति अपना कर अगर मेज़ कुर्सी पर भोजन करना है तो सब साथ मिलकर एक टेबल पर भोजन करें न! भाभी भी साथ बैठ सकेगी। कैसरोल क्रॉकरी शेल्फ की शोभा बनी हुई है। उसका उपयोग भी तो हो! है न भाभी? अब सब कुछ टेबल पर है जिसे जो चाहिए ले लो और नाश्ते का आनंद लो।

बहुत दिनों के बाद घर के सभी सदस्यों ने मोबाइल, समाचार पत्र सब अलग रखकर मिलकर एक साथ नाश्ता किया। खूब देर तक हँसी -मज़ाक की बातें हुईं।

दोपहर के भोजन के समय पर भी सब कुछ मेज़ पर रख दिया गया। रात को भी यही उपाय अपनाया गया।

अब क्या था ननद की योजना काम आई। घर का अब यही नियम बन गया। कल तक ठंडी रोटी खानेवाली बहू ने भी सबके साथ गरम भोजन खाने का आनंद लेना प्रारंभ किया।

परिवर्तन तो एक अनिर्मित दृश्य मात्र है उसके पूर्व उसमें केवल एक सोच और एक प्रयास ही तो चाहिए होता है।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 218 – पुष्पांजलि ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री  विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “पुष्पांजलि ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 218 ☆

🌻लघु कथा🌻 🪷पुष्पांजलि 🪷

मंदिर में अल पहरी भोर से ही पूजा की तैयारी  होने लगी। पूजा में लगने वाले सारे सामानों का एक-एक कर एकत्रित करके, जाने कब वह मंदिर में रख आती, किसी को पता नहीं चलता। सभी मोहल्ले वालों को लगता कि सार्वजनिक रूप से तैयारी की गई है ।नामी गिनामी लोग यह सोचकर भी खुश होते कि चलो काम कोई भी करें, नाम तो अपना हो रहा है।

विधि विधान से गौरीशंकर का विवाह। महिलाओं का श्रृंगार देखते ही बनता है,  पुरुष वर्ग भी भक्ति भाव से भगवा वस्त्र में अपने को धर्म साधक बना देख प्रसन्न हो रहे हैं।

बढ़-चढ़कर आरती वंदन और पुष्पांजलि। सभी के हाथ आगे ही आगे। कोई चूक न हो जाए।

पीछे साधारण साड़ी, सिर पर पल्लू और मुखड़े पर तेज, हाथों में पुष्प लिए, साधना- भाव में लीन– बस कुछ कहती। इसके पहले पुष्पांजलि एकत्रित करते पंडित जी पर उसकी नजर पड़ी।

साधना का पूरा  शरीर  सफेद हो चला। सिर पर पल्ला खींचकर अपनी पुष्पांजलि उनके चरणों में समर्पित करते पीछे मुड़कर जाने लगी।

सभी कहने लगी हद कर दी इसने  पुष्पांजलि भगवान की जगह पं जी महाराज के चरणों पर चढ़ा दी। यह भगवान का अपमान कर रही।

पं बने साधु कहने लगे—

जाकी रही भावना जैसी।

प्रसाद का दोना लिए पंडित जी आवाज देते रहे। अब कौन समझ पा सकता था। पति परमेश्वर के बरसों का इंतजार और साधना की – – – पुष्पांजलि इस रूप में समाप्त होगी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ नंगे पैर – गुजराती लेखिका – गिरिमा घारेखान ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री राजेन्द्र निगम ☆

श्री राजेन्द्र निगम

(ई-अभिव्यक्ति में श्री राजेंद्र निगम जी का स्वागत। आपने बैंक ऑफ महाराष्ट्र में प्रबंधक के रूप में सेवाएँ देकर अगस्त 2002 में  स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ली। उसके बाद लेखन के अतिरिक्त गुजराती से हिंदी व अँग्रेजी से हिन्दी के अनुवाद कार्य में प्रवृत्त हैं। विभिन्न लेखकों व विषयों का आपके द्वारा अनूदित 14  पुस्तकें प्रकाशित हैं। गुजराती से हिंदी में आपके द्वारा कई कहानियाँ देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आपके लेखों का गुजराती व उड़िया में अनुवाद हुआ है। आज प्रस्तुत है आपके द्वारा गिरिमा घारेखान जी की कथा का हिन्दी भावानुवाद “नंगे पैर”।)

☆  कथा-कहानी – नंगे पैर – गुजराती लेखिका – गिरिमा घारेखान ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री राजेन्द्र निगम ☆

‘पापा, शांतु काका, गुजर गए।’ चाय का खाली कप लेने के लिए आए, विरल ने बहुत धीमे शरद भाई को कहा।

‘अरे ! कब ? यह तुम्हें किसने कहा ?’ शरद भाई के कांपते हाथों से चाय की प्याली गिर गई। उसके टुकड़े खन खन…  की आवाज के साथ चारों ओर बिखर गए।

‘रात्रि नींद में ही हार्ट अटैक हुआ। आप बाथरूम में थे, तब ही उनके घर से फोन आया था।’ विरल ने शरदभाई के पास बैठकर उनकी पीठ पर हाथ घुमाते हुए कहा।

जयश्री तुरंत दौड़ कर झाडू व सूपडी ले कर आ गई। ‘पापा, पैर ऊपर उठा लें, काँच चुभ जाएँगे, अभी आप नीचे मत उतरना।’

‘लेकिन मुझे तो शांतु के घर जाना है।’ शरदभाई की आवाज एकदम किसी बालक जैसी हो गई थी।

‘पापा, लेकिन अभी वक्त है। काका को तो आठ बजे तब निकालेंगे, जब सब आ जाएंगे, उसके बाद ही।’

‘निकालेंगे ?’ शरदभाई ने कहा तो विरल को था, लेकिन उनकी नजर हवा में थी, मानो दूर वे कुछ देख रहे हों।

जयश्री ने विरल की ओर तेज नजरों से देखा।

‘सॉरी पापा, निकालना नहीं, विदा करना है।’ विरल ने पापा की पीठ पर हाथ घुमाते हुए कहा। आधी सदी से भी अधिक पुराना जिगरी दोस्त जब विदा हो जाए, तब पापा की हालत क्या हो रही होगी, यह विरल समझ सकता था। लेकिन इस समय तो उसे पापा के बी.पी. की चिंता हो रही थी|

‘पापा, प्लीज आप पैर ऊपर ले लो न।’ जयश्री ने दूसरी बार कहा। पलंग पर कुछ अंदर खिसक कर शरदभाई ने पैर हवा में लटकाए। उन्हें लग रहा था, मानो इस समय वे बिना किसी आधार के ही हवा में लटक रहे हों। जयश्री काँच के टुकड़ों को इकठ्ठा करती रही। विरल अन्य दो-तीन परिचितों को यह दुखद समाचार देने के लिए फोन करने हेतु अंदर गया।

शरदभाई देर तक अपने लटके हुए पैरों की ओर देखते रहे। वे पैर धीरे-धीरे छोटे होते गए और फिर किसी दस वर्ष के बालक के पैर बन गए। मन ने एक नाव बन कर भूतकाल के किसी बड़े महासागर की ओर प्रयाण किया।

उस दिन शाला से लौटते समय उसकी चप्पल अचानक टूट गई थी। दोपहर का एक बजा था और उस समय रास्ते बहुत तप रहे थे। नंगे पैर चलने की आदत उसे बिल्कुल नहीं थी| कंधे पर बस्ता व हाथ में टूटी चप्पल लेकर वह शाला के नजदीक एक छाँहवाली जगह देख कर खड़ा रह गया था। उसे फ़िक्र थी, कि वह घर अब इस हालत में कैसे जाएगा। तब उसकी ही कक्षा का, लेकिन अन्य विभाग में पढनेवाला शांतु वहाँ से निकला। दोनों के घर पास-पास ही थे. लेकिन शांतु कभी घर के बाहर दिखाई नहीं देता था, इसलिए विशेष पहचान नहीं थी।

शांतु उसे देख कर एकदम खड़ा रह गया था।

‘क्या हुआ ? यहाँ क्यों खड़े हो ? घर नहीं आना है क्या ?’

‘चप्पल टूट गई है। पैर बहुत जलते हैं। क्या करूँ ? घर कैसे जाऊँ ?’ शरद की आवाज रोने जैसी हो गई थी।

‘अरे, इसमें क्या परेशानी है ? मैं तो चप्पल कभी पहनता ही नहीं। देखो, कुछ नहीं होता है।’

शरद की नजर शांतु के पैरों पर गई। वास्तव में उसके पैरों में चप्पल नहीं थीं। उसे समझ नहीं आया कि बगैर चप्पल पहने घर के बाहर पैर कैसे रख सकते हैं ! मोहल्ले में थप्पा या ऐसा ही कोई खेल हो, तब बात अलग है।

‘तुम्हारे पैर जलते नहीं हैं, रास्ते कितने गर्म हैं !’

‘शरद, देखो मेरी तरह करो। जब धूप हो, तब दौड़ो और फिर जब पेड़ या मकान की छाँह आए, तब खड़े रह कर थकान को कम करो। दौड़ना लेकिन सड़क के बीच नहीं, पास की धूल पर दौड़ो, तब पैर कम जलेंगे। दौड़ने की रेस करते चलोगे, तो जल्दी पहुँच जाओगे। चलो, आना है ?’ शांतु इस तरह बोल रहा था, मानो बगैर चप्पल के चलना ही स्वाभाविक है।

शरद कुछ झिझका। लेकिन शांतु के बगैर जाना संभव भी नहीं था। उसने शांतु के साथ दौड़ना शुरू किया। पैर बहुत जलते, उसके पहले ही छाँह मिल जाती थी। अधिक परेशानी नहीं हुई। घर पहुँच गए।

दूसरे दिन चप्पल थी, लेकिन फिर भी वह पिछले दिन की जगह पर ही खड़ा रहा। शांतु ने उसे देखा और वह भी खड़ा रह गया।

‘क्यों ? आज तो चप्पल पहनी है !’

‘हाँ, लेकिन तुम्हारे साथ दौड़ना है। मजा आता है। आज तो मैं तुमसे भी तेज दौडूंगा।’

चप्पल पहन कर दौड़ना उसे सुविधाजनक नहीं लगा। इसलिए शरद ने चप्पल हाथ में ले लीं और फिर प्रतियोगिता में दौड़ने लगा। शांतु शायद जानबूझकर धीमे दौड़ रहा था। शरद को जीतने में मजा आया, मात्र उस दिन ही नहीं, बल्कि रोज।

शाला में परीक्षा पूर्ण हुई। परिणाम के दिन शरद शाला से बाहर आया, उसका चेहरा लटका हुआ था। उसने शांतु को देखते ही कहा, ‘आज दौड़ना नहीं है, चाहे घर देर से ही पहुँचे।’

‘क्यों, क्या हुआ ?’

‘गणित में पास नहीं हुआ।’ आँखों में आएँ आँसू गाल पर टपकें, उसके पहले ही शरद ने कमीज की बाँह से उन्हें पोंछ लिया।

शांतु गंभीर हो गया। ‘अब तुम्हारी माँ नाराज होंगी ?’

‘नहीं, पिताजी। अब वे मेरी ट्यूशन कराएँगे, जो मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है।’

फिर उसे शांतु के परिणाम पूछने का याद आया। ‘तुम्हारा क्या परिणाम आया ?’

‘मेरा तो हर वक्त पहला नंबर आता है।’ शांतु के इस उत्तर से मानो अचरज हुआ हो|

‘तुम्हें कौन पढ़ाते हैं- पिताजी या माँ ?’

‘मैं तो स्वयं ही पढता हूँ। मेरी माँ तो…।’ शांतु ने अधिक बात करने के स्थान पर दौड़ना शुरू कर दिया था।

दूसरे दिन शरद पहली बार शांतु के घर आया था। उसे आश्चर्य हुआ – कितना छोटा घर था ! और वह भी खाली-खाली। शांतु से उम्र में कुछ बड़ी बहन रसोईघर में कुछ पका रही थी। शांतु उसके छोटे भाई को पढ़ा रहा था। शरद को देख कर वह तुरंत खड़ा हो गया था।

शरद घर में चारों ओर देख रहा था। खूँटियों पर गरीबी लटकी हुई दिखाई दे रही थी। ‘गरीब इंसान का घर ऐसा होता है ?’ शरद सोचने लगा। पिताजी इसके साथ पढ़ाई करने के लिए अनुमति देंगे ? लेकिन उसे शांतु बहुत पसंद था। कल प्रार्थना-कक्ष में सामान्य सभा में आचार्यजी ने उसकी कितनी तारीफ़ की थी ! ‘शांतनु मेहता ऐसा, शांतनु मेहता वैसा…|’  शांतनु मेहता को खड़ा कर उन्होंने जब आगे बुलाया, तब मालूम हुआ कि शांतनु मेहता तो उसका मित्र शांतु था।

शरद ने शांतु से पूछ ही लिया, ‘तुम मेरे घर पढ़ाने के लिए आओगे ? मुझे ट्यूशन के सर से नहीं पढ़ना। पिछले वर्ष आते थे, तो मुझे फुट-पट्टी से मारते थे।’ शांतु ने कुछ विचार कर जवाब दिया था, ‘मेरे पिताजी अभी मील गए हैं, उनसे पूछ कर बताउँगा।’

दूसरे दिन से रोज शाम को वह शरद को पढ़ाने के लिए आने लागा। धीरे-धीरे शरद को मालूम हुआ कि उसके मित्र की माँ तो उसके छोटे भाई को जन्म दे कर ही भगवान के पास चली गई थी। घर का काम करने के लिए उसकी बहन ने पढ़ाई छोड़ दी थी और पिताजी भी बीमार रहते थे। वे कभी मील जाते थे और कभी नहीं भी जाते थे। कुछ दिनों के बाद शरद को यह भी मालूम हुआ कि शांतु के पास यूनिफार्म के लिए भी सिर्फ एक ही कमीज थी, जिसे वह रोज शाला से आकर धो कर सुखा देता था।

शुरू- शुरू में शरद की माँ रोज शांतु को नाश्ता देती थी, लेकिन शांतु उस नाश्ते की ओर देखता भी नहीं था। उसका जवाब रोज लगभग एक ही रहता था, ‘मैं घर से खा कर ही निकलता हूँ, मौसी मुझे बिल्कुल भी भूख नहीं है।’ उसके जाने के बाद माँ फिर पिताजी को कहती थीं, ‘देखा कितना स्वाभिमानी लड़का है ! गरीब है, लेकिन खानदानी कहाँ जाएगी ?’

दीवार पर लगी घड़ी में एक बजने की टकोर लगी और शरदभाई की नजर घड़ी पर गई। घंटे का काँटा सात व आठ के बीच था और मिनट का काँटा छह के आँकड़े पर स्थिर हो गया था। सेकंड का काँटा तेजी से घूम रहा था और वह तीव्र गति से दोनों से आगे बढ़ रहा था। शरदभाई की नजर उसके साथ-साथ गोल-गोल घूमने लगी। दिमाग में चल रही टक-टक दीवार पर लगी घड़ी की टक-टक के साथ ताल मिला रही थी। मन की यह घड़ी कैसी कर्कश आवाज में टकोर बजा रही थी ?

वह अनुभव भी कर्कश ही था न ! उस दिन शांतु की खानदानी कसौटी पर आ गई थी। शरद के पिताजी की महँगी घड़ी कहीं गुम हो गई थी। घर में बहुत खोज करने के बाद वे गुस्से में बोले थे, ‘मैंने तुम्हारी माँ को इंकार किया था, ऐसे लड़कों को घर नहीं बुलाएँ। जरूरत इंसान से सब कुछ करा लेती है, चोरी भी करा लेती है।’ फिर माँ पर गुस्सा हुए थे। ‘तुम बहुत तारीफ़ करती थी न ? अब देख ली उसकी खानदानी ?’ फिर शरद व उसकी माँ ने बहुत इंकार किया, लेकिन तब भी शांतु जब शाम को आया, तब उन्होंने उससे पूछ ही लिया, ‘ए लड़के, कल से मेरी घड़ी घर में दिखाई नहीं दे रही है, तुमने…’ फिर उनकी नजर शरद की गिडगिडाती हुई आँखों पर पड़ी इसलिए आखिर में उन्होंने ‘ली है ?’ शब्दों के स्थान पर ‘देखा है ?’ में तब्दील कर दिया।

शब्द बदल दिए थे, लेकिन लहजा नहीं बदला था। जो काम घर में पहने जा रहे पैबंद लगी कमीज या बाजरी की सूखी रोटियाँ न कर सकीं, वह काम पिताजी द्वारा न कहे गए शब्दों ने कर दिया। वे अदृश्य शब्द तलवार की तरह हवा में तैरते रहे। शांतु का चेहरा क्षण भर जमे हुए आँसुओं की तरह हो गया। फिर वे आँसू पिघल कर उसकी आँखों में चमकने लगे। शरद ने पहली बार शांतु की आँखों में आँसू देखे थे। वह दौड़ता हुआ अपने घर चला गया। उसके बाद पिताजी की घड़ी तो उनकी गादी के कोने से नीचे मिल गई। सोते समय घड़ी निकाल कर वे उसकी जगह रखना भूल गए, अतः गादी का कोना ऊँचा कर वहाँ रख दी और फिर उसे भूल गए|

उसके बाद शरद ने बहुत कहा, लेकिन शांतु ने फिर कभी अपने पैर उसके घर में नहीं रखे। शरद की पढ़ाई की अच्छी प्रगति देख, उसके पिताजी ने उसे शांतु के घर पढ़ाई के लिए जाने की इजाजत दी थी। दोनों ग्यारहवीं कक्षा तक साथ ही पढ़े। शांतु ने बहुत मेहनत की थी| सेकेंड्री का उसका परिणाम बहुत अच्छा आया था। लेकिन उस परिणाम को देखे बगैर ही उसके पिताजी गुजर गए। यह तो अच्छा था कि इसके पहले ही उन्होंने अपनी बेटी का विवाह कर दिया था। शांतु ने लंबी छुट्टियों में राशन की दुकान में अनाज भरने की नौकरी की और  कॉलेज का शुल्क इकठ्ठा कर लिया था। हालाँकि बाद में जब तक वह पढ़ा, तब तक उसे छात्रवृत्ति मिलती रही। शरद को और अधिक अच्छे कॉलेज में पढ़ाने के लिए उसके पिताजी ने उनके भाई के पास मुंबई भेज दिया था। पिताजी के साथ जो वैचारिक संघर्ष हो जाते थे, उन्हें टालने के लिए वह छुट्टियों में बहुत कम वक्त के लिए आता। इसलिए शांतु से मिलना मुश्किल से ही संभव हो पाता था। शांतु सुबह कॉलेज चला जाता था, दोपहर नौकरी करता था और शाम को छोटे भाई को पढ़ाता और घर के काम करता था। शरद भी अपने बड़े कुटुंब में सब से मिलने-जुलने में व्यस्त रहता था।

बी.ए. करने के बाद शरद मुंबई में ही बस गया और शांतु को अच्छी सरकारी नौकरी मिल गई। हर दो-तीन वर्ष में उसका तबादला होता रहता था। ऐसा हो ही न पाता कि दोनों मित्र उनके पुराने गाँव में कभी मिलें। शरद को उसके समाचार मिलते रहते थे। शांतु को अच्छी पत्नी मिली थी और यह भी सुना था कि उसके बच्चे अच्छी पढ़ाई कर रहे थे। यह सब जानकार शरद खुश रहता था।

फिर निवृत्ति के बाद दोनों मित्र अपने गाँव में स्थाई हो गए। उन्हीं पुराने घरों में रहने के लिए। हालाँकि शांतु का घर अब पुराना नहीं रहा था। उसने उसे नया रूप-रंग दे दिया था। दोनों मित्र रोज शाम को मिलते और फिर टहलने के लिए जाते। किसी ठेला-गाड़ी पर चाय पीते और कभी किसी होटल पर जा कर नाश्ता आदि करते और बगीचे में जा कर गपशप करते। शरद के बहुत कहने के बावजूद शांतु ने कभी उसके घर में कदम नहीं रखा था। वह कहता, ‘दोस्त, मुझे उसके लिए आग्रह न कर। उस घाव को वैसा ही रहने दो, उस रिस रहे घाव ने ही मुझे सतत पढ़ाई के लिए प्रेरित किया। इसी ने मुझे बहुत मेहनत कर नौकरी में आगे बढ़ने, अच्छा कमाने, मेरे बच्चों को उज्जवल भविष्य प्रदान करने की उमंग को सदैव जीवंत रखा। अन्यथा मैंने ग्यारहवीं के बाद कहीं क्लर्क की नौकरी पर काम करना शुरू कर दिया होता।’

शरद हाथ जोड़ कर कहता, ‘लेकिन यार… इतने वर्षों के बाद अब भी ! मेरे पिताजी की भूल के लिए, तुम कहो उतनी बार मैं माफी मांगने के लिए तैयार हूँ।’

‘नहीं यार, दोस्ती में यह सब नहीं होता है।’ शांतु फिर शरद का हाथ पकड़ लेता। ‘बस तुम्हारे जैसे मित्र के साथ वक्त बिताने के लिए ही तो मैं इतने वर्षों के बाद अपने वतन आया हूँ। जैसा चल रहा है, वैसा ही चलने दो।’

शरदभाई ने शांतु का हाथ पकड़ने के लिए अपना हाथ लंबा किया और विरल ने वह हाथ थाम लिया।

‘पापा, आठ बजने वाले हैं, चलो चलते हैं। आप कुर्ता पहन लें।’

शरदभाई ने कुर्ता पहना और बाहर जाने के लिए निकले। विरल की नजर उनके पैरों पर पड़ी। ‘पापा, चप्पल तो पहनो !’

‘आज नहीं पहनना है। अंतिम बार अपने मित्र के साथ अब नंगे पैर चलना है।’ शरदभाई ने लंबे कदम बढाते हुए कहा। विरल कुछ भी नहीं समझा, वह तो बस उनके क़दमों के पीछे चलता रहा।

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मूल गुजराती कहानीकार – गिरिमा घारेखान

संपर्क – 10, ईशान बंगलोज, सुरधारा- सत्ताधार मार्ग, थलतेज, अहमदाबाद- 380054 मो. 8980205909.

हिंदी भावानुवाद  – श्री राजेन्द्र निगम,

संपर्क – 10-11 श्री नारायण पैलेस, शेल पेट्रोल पंप के पास, झायडस हास्पिटल रोड, थलतेज, अहमदाबाद -380059 मो. 9374978556

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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