हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 56 – मानवता… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मानवता।)

☆ लघुकथा # 56 – मानवता श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’        

“भैया अम्मा की तबियत ठीक नहीं है आप भाभी और बच्चों को लेकर आ जाइए।”

शांति ने अपने बड़े भाई को फोन किया।

बड़े भाई  अरुण की  आंखें भर आयीं थी और वह अपनी छोटी बहन से कह रहा था कि 4 साल से मां बिस्तर में हैं और तू अपना घर परिवार देखते हुए कैसे सेवा कर रही है?

अपनी माँ को अकेले में छोड़कर तुम्हारी भाभी से डर कर के घर में शांति बनी रहे अपने बच्चों को देख रहा था लेकिन तूने हर कर्तव्य का निर्वाह किया।

सुबह शाम मां को खाना बनाकर अपने हाथ से उनको खाना खिलाना। उनके बिस्तर को ठीक करना, गन्दे कपड़े धोना आदि  सभी काम वह स्वयं ही करती है इतनी हिम्मत कहां से आई जीजाजी और बच्चों को भी तो तू ही संभालती है।

शांति ने मुस्कुरा कर कहा भैया “अरे कुछ नहीं , आप तो बेकार ही परेशान हो जाते हैं,  आप ही आ जाते तो कम से कम अम्मा आपको ही देख लेतीं उनकी तबियत बहुत खराब है।”

बड़ी दीदी भी आई है मां दरवाजे की तरफ अपनी उदास नजरों से देखती है कुछ कह नहीं पाती। आप हम दोनों बहनों के बीच में अकेले भाई हो। आप ही का इंतजार कर रही है अब जल्दी से आ जाओ भैया।

इतने में अंदर से कुछ आवाज आती है और शांति – भैया अब मैं फोन रख रही हूं।

हाथ का पानी का गिलास छूटकर नीचे जा गिरा।

उसकी मां अब इस दुनिया से जा चुकी थी बड़ी बहन कमला ने आवाज दी। वह भी हड़बड़ा कर मां के कमरे में पहुंची।

क्या हुआ कहते हुए जब उसने मां को छुआ तो वह भी सन्न रह गई।

वे तो अनन्त यात्रा पर निकल चुकी थीं।

सभी को फोन कर के बुलाया गया। कुछ ने थोड़ा सच में तो कुछ ने नाटक में आंसू भी गिराये, दुख  प्रकट किया।

बड़े बेटे के साथ भाभी भी आई।

भाभी का ध्यान अम्मा के बक्से  पर ही टिका हुआ था।

अन्तिम संस्कार के बाद शाम को बड़ी बहन कमला से बोली  जीजी  सन्दूक मैं मां के गहने सब छोटी ने ही रख लिए क्या? हमें उन में कुछ नहीं मिलेगा?

बीच में सन्दूक रख कर छोटी बहन ने चाबी भाभी को दे दी।

भाभी भाई और बड़ी बहन कमला के बीच उनकी अम्मा से अधिक उनके जेवरों और पैसों पर चर्चा हो रही थी। 

भाई ने कहा – दोनों भी अम्मा की एक एक चीज यादगार के रूप में रख लो।

भैया आज ही सुनार बुला रहे हो जो भी लोग  सुनेंगे वे क्या कहेंगे?

अरे कोई कुछ भी क्यों कहेगा ? किसी के घर डाका डालने जा रहे हैं क्या ? बड़े भाई भाभी एक ही जबान में बोल पड़े।

अब  जेवर कौन रखता है? सोनार को बुलाकर इसे बेच देते हैं और रकम ले लेते हैं।

कोई प्रॉपर्टी खरीद लेंगे।

फिर बहस का विस्तार हुआ।

यही अधिकार तब दिखाते जब अम्मा बीमार थीं। तब तो उनकी सेवा में हिस्सेदारी करने कोई भी नहीं आया।

रहने दो दीदी बेकार की बात बढ़ाने में क्या फायदा?  भाई ने बहन को शान्त करते हुए

कहा।

सुनार बहुत देर तक गहनों को देखता रहा।

सुनार  की आंखों  से दो बूंद आंसू लुढ़क आए…। कमला मां की कमरे में जाकर उनकी तस्वीर देखने लगी। मां सारे संस्कार तूने हम बहनों को ही दिए भाई को क्या कुछ भी नहीं सिखाया?

भाई के अंदर की सारी मानवता मर गई है क्या…?

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 328 ☆ लघुकथा – “एंकर…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 328 ☆

?  लघुकथा – एंकर…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

वह एंकर है। शो होस्ट करती है। उस पर कभी लाइव कंसर्ट, कभी टीवी  तो कभी रेडियो के एंकर की जिम्मेदारी होती है। लाइव शो के उन घंटों में बिना किसी फ्लाइट में बैठे ही उसका फोन फ्लाइट मोड में होता है, और वह दुनियां से बेखबर, दर्शकों को अपनी खनखनाती आवाज से एक स्वप्न लोक में ले जाती है। जब वह बोलती है , तो बस वह ही बोलती है, शो को एक सूत्र में बांधे हुए। जैसे एंकर तूफानी समुद्र में भी जहाज को स्थिर बनाए रखता है। उसके लाइव शो भी बस उसके इर्द गिर्द ही होते हैं।  हर शो के बाद लोग उसकी आवाज के उतार चढ़ाव और संयोजन की प्रशंसा में इंस्टा पर कमेंट्स करते हैं। उसे अपने स्टड होस्टिंग टेलेंट पर नाज होता है।

लेकिन आज स्थिति अजब थी, उसका टी वी शो शिड्यूल था, और उसी वक्त उसके बचपन की सखी नीरा का रो रो कर बुरा हाल था। नीरा की मम्मी मतलब उसकी रीमा मां जिन्होंने बचपन में उसके बेजान घुंघराले उलझे बालों में तेल डालकर उसकी खूब हेड मसाज की थी, उसी वक्त आपरेशन थियेटर में थीं। सच कहें तो उसके स्टड व्यक्तित्व को गढ़ने में रीमा मां का बड़ा हाथ था। वे ही थीं जो उसके बालों में हाथ फेरते हुए उसे दुनियादारी के पाठ पढ़ाया करती थी, और उसे उसके भीतर छिपे टेलेंट को हौसला दिया करती थीं। उनके ही कहने पर उसने पहली बार अपने स्कूल में एनुअल डे की होस्टिंग की थी। इसी सब से  पड़ोस में रहने वाली अपनी सहेली की मम्मी को वह  कब आंटी से रीमा मां कहने लगी थी, उसे याद नहीं।

इधर स्टूडियो में उसका लाइव शो टेलिकास्ट हो रहा था, उधर आपरेशन थियेटर में रीमा मां का क्रिटिकल आपरेशन चल रहा था। बाहर नीरा हाथों की अंगुलियां भींचे हुए कारीडोर में चक्कर लगा रही थी। उसका टेलिकास्ट पूरा हुआ और वह अस्पताल भागी, वह नीरा के पास पहुंची ही थी कि आपरेशन थियेटर के बाहर लगी लाल बत्ती बुझ गई। डाक्टर सिर लटकाए बाहर निकले, आई एम सॉरी, उन्होंने कहा। नीरा उसकी बांहों में अचेत ही हो गई। उसने नीरा को संभाला, और उसके उलझे बालों में उंगलियां फेरने लगी।

विषम स्थिति से उसे खुद को और नीरा को निकालना होगा, वह अपनी रीमा मां की एंकर है, स्टड और बोल्ड।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 42 – लघुकथा – कूड़ेदान ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  लघुकथा – कूड़ेदान )

? मेरी डायरी के पन्ने से # 42 – लघुकथा – कूड़ेदान ?

पिछली रात मेरे घर में कुछ मेहमान आए थे, रात को सोने में देरी हो गई थी तो सुबह न जल्दी नींद खुली और न घर का कूड़ा मुख्य दरवाज़े के बाहर रखा।

सुबह आठ बजे के करीब घंटी बजी। मुझे कुछ देर और सोने की इच्छा थी पर दरवाज़े पर कौन है यह तो देखना ही था। मैं झल्लाकर उठी, दरवाज़ा खोला तो सामने मोहल्ले का सफ़ाई कर्मी राजू खड़ा था। मुस्कराकर नमस्ते कहकर बोला, तबीयत ठीक नहीं माताजी?

मैंने अलसाते हुए कहा – नहीं, ठीक है बस नींद नहीं खुली।

– आपको डायाबेटिज़ है माताजी ?

– हाँ राजू, बहुत साल हो गए। तुम्हें कैसे पता?

– आपके सूखे कूड़े दान में इंजेक्शन का ढक्कन रहता है न तो मालूम पड़ा। रोज़ सोचता हूँ पूछूँ पर आप सुबह ही कूड़ा रख देती हैं तो मुझे मौका नहीं मिलता पूछने का। अपना ध्यान रखो माताजी।

– अरे राजू कूड़ा तो सुबह अंकल ही रखते हैं। आज वे मंदिर चले गए और मेरी नींद न खुली। बेल बजाकर कूड़ा उठाने के लिए थैंक यू राजू।

सफ़ाईवाला राजू कूड़ा लेकर चला गया।

मुझे मेरे प्रति उसकी चिंता और सद्भावना अच्छी लगी। यही तो इन्सानियत होती है।

कुछ दिन बाद मुझे कुछ सामान लेने के लिए पास की दुकान जाना था। मैं सामान लेकर लौटी तो थोड़ी थकावट के कारण मोहल्ले के एक बेंच पर बैठ गई।

बेंच के पीछे से कुछ परिचित -सी आवाज़ आई तो मैंने बेंच के पीछे झाँककर देखा। सफ़ाईवाला राजू और उसका साथी बानी दोनों बेंच के पीछे तंबाकू खाने बैठे थे।

हमारे मोहल्ले के बेंच सिमेंट से बने ऊँचे बेंच हैं। कोई पीछे बैठा हो तो पता नहीं चलता।

मैं चुपचाप बैठी रही। वे आपस में बातें करने लगे।

– “606 वाले अंकल लगता है बहुत दारू पीते हैं। रोज़ बोतलें निकलती हैं उनके घर से। ” राजू बोला।

– “उनको छोड़ ई बिल्डिंग 201 की मैडम हैं न जो अकेली ही रहती हैं, अरे वह मोटी सी, बहुत ज़ोर से हँसती है वह तो 606 की भी गुरु है। ” बानी बोला।

– क्यों उनकी बोतलें ज़्यादा होती है क्या?

– बोतलें तो होती ही हैं साथ में खूब सिगरेट भी फूँकती हैं। वह तो मुझे हर महीने 100 रुपये एकश्ट्रा देती है बोतलें उठाने के लिए। फिर बोतलें बेचकर मैं भी कुछ और रुपया कमा लेता हूँ। आपुनको तो फायदा है रे पर उनका क्या?

– सही है। बोतलें बेचकर कमाता तो मैं भी हूँ।

थोड़ी देर दोनों चुप रहे। दोनों शायद मुँह में ठूँसे हुए तंबाकू का मज़ा ले रहे थे।

थोड़ी देर बाद राजू बोला- लाश्टवाली ऊपर के घर में जो साहब और मैडम रहते हैं न वे बहुत बाहर से खाना मँगवाकर खाते हैं।

– तेरेको कैसे मालूम?

– अरे बाज़ार के वे गोल काले डिब्बे नहीं क्या आते सफेद ढक्कनवाले। अक्सर सूखे कचरे में वे पड़े रहते हैं और खाना बरबाद भी करते हैं।

– ये अमीरों के चोंचले ही कुछ अलग होते हैं।

– सही कहा इनको अन्न के लिए कोई सम्मान नहीं रे। खाना बरबाद करना तो अमीरी के लक्षण हैं। एक हमी को देख लो दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए सुबह से शाम तक लोगों के घर- घर जाकर कूड़ा उठाते रहते हैं। शाम तक तो आपुन के बदन से भी कूड़े का बास आता है। साला नशीबच खोटा है अपुन का।

– सब भाग्य का खेल है रे ! आपुन लोगों के नसीब में गरीबी लिखी है। पता नहीं इन बड़े अमीरों को खाना फेंकने की सज़ा कभी मिलेगी भी कि नहीं।

– मिलती है रे सज़ा, झरूर मीलती है। वो 303 की ऊँची माताजी है न, बड़ी सी बिंदी लगाती है, उसको डायाबिटीज़ है। यार ! कभी तो कुछ बुरा किया होगा न जो आज रोज़ खुद कोइच सुई टोचती रहती है। बुरा लगता है रे बुड्ढी दयालु है। हम गरीबों को अच्छा देखती भी है पर देख भुगत तो रही है न?

मैं और अधिक समय वहाँ न बैठ सकी। कुछ तीव्र तंबाकू की गंध ने परेशान किया और कुछ उनकी आपसी बातों ने।

मैं मन ही मन सोचने लगी कि अपना घर साफ़ करके कूड़ा जब हम बाहर रखते हैं तब प्रतिदिन कूड़ा साफ़ करनेवाला घर के भीतर के इतिहास -भूगोल की जानकारी पा जाता है। हमारे खान -पान और चरित्र का परिचय शायद हमारे कूड़ेदान ही बेहतर दे जाते हैं।

© सुश्री ऋता सिंह

23/10/24, 3.30pm

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 214 – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “जल संरक्षण”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 213 ☆

🌻लघु कथा 🌻 कुंभ स्नान 🌻

सारा विश्व, भारतवर्ष प्रयागराज में आस्था के प्रतीक कुंभ महोत्सव में मांँ गंगा स्नान महत्व को अपना धर्म – कर्म की राह में एक कदम आगे बढ़ा रहा है। जय- जयकार करते सभी सोशल मीडिया, चैनल भक्ति से सराबोर दैनिक समाचार पत्र, और जगह जगह कुंभ जाने की इच्छा।

श्री राम और रामायण पर आस्था और पूर्ण विश्वास रखने वाली श्रेया का विधिवत चौपाई का पठन करना प्रतिदिन का उसका नियम था।

वह कर्म का लेख और भाग्य विधाता को सर्वोपरि मान कर अपने जीवन में आने वाली सभी कठिनाईयाँ सब सहती जा रही थी। ।

घर के आसपास रिश्ते- नाते, अडोसी – पड़ोसी, कुटुंब परिवार सभी कुंभ जाने की बात कर रहे थे। ठिठुरती ठंड में पतिदेव पेपर पढ़ने में तल्लीन।

चाय लेकर सोची वह भी याचना करके देखे की कुंभ ले चले। धीरे से दबी जुबान में श्रेया ने कहा – – सुनिए सभी कुंभ स्नान को प्रयागराज जा रहे हैं क्या? हम लोग भी जाएंगे।

कुटिलता भरी मुस्कान लिए अत्यधिक कड़वाहट भरे शब्दों का इस्तेमाल करते सौरभ उठा बाथरूम से भरी बाल्टी का पानी श्रेया के ऊपर डालते बोला – – हो गया पतिदेव के हाथ से कुंभ स्नान। इस जन्म तुम आराम से स्वर्ग पहुँच जाओगी। ठंड की सिहरन से श्रेया कांपने लगी।

पास के मंदिर में घंटी की आवाज और जोर-जोर से रामायण की चौपाई सुनाई दे रही थी—-

बरु भल बास नरक कर ताता।

दुष्ट संग जनि देई बिधाता।।

🙏हर हर गंगे 🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 273 ☆ लघु कथा – लंबी उम्र का सुख ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय लघु कथा – ‘लंबी उम्र का सुख‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 273 ☆

☆ लघुकथा ☆ लंबी उम्र का सुख

भाई हिम्मत लाल 83 के हुए। हिम्मत लाल जी अपने ढंग से ज़िन्दगी जीने के आदी हैं। जो उन्हें पसन्द आता है वही करते हैं। अपने स्वास्थ्य के बारे में बहुत जागरूक रहते हैं। उन्हें गर्व है कि उन्होंने लंबी उम्र पायी।

हिम्मत भाई अपने स्वास्थ्य का बहुत ख़याल रखते हैं। सवेरे उठकर पुल पर टहलने के लिए निकल जाते हैं। वहां लंगड़ा लंगड़ा कर टहलते हुए बूढ़ों को दया की दृष्टि से देखते हैं। अक्सर रुककर उनसे उनकी उम्र पूछते हैं, फिर कहते हैं, ‘मैं 83 का। एकदम फिट हूं।’ फिर  उनके चेहरे पर आये ईर्ष्या और बेचारगी के भाव को पढ़कर खुश हो लेते हैं।

घर लौटकर हिम्मत भाई योग करते हैं, उसके बाद च्यवनप्राश के साथ दूध पीते हैं। थोड़ी देर बाद फलों का जूस लेते हैं। कुछ स्वास्थ्य वर्धक दवाएं भी लेते रहते हैं। कपड़ों-लत्तों के मामले में वे अपने को चुस्त रखते हैं। अन्य बूढ़ों की तरह कोई भी कपड़े पहन लेना उन्हें पसन्द नहीं। घर में अक्सर बरमूडा पहन कर रहते हैं। घरवालों को हिदायत है कि उनकी ज़रूरतों का भी उतना ही ख़याल रखा जाए जितना दूसरे सदस्यों की ज़रूरतों का।

शाम को रोज़ वे अपने हमउम्र दोस्तों के साथ किसी के घर या दूकान में बैठक जमाते हैं। दुनिया भर की बातें, हंसी-मज़ाक होता है। टाइम अच्छा कट जाता है।

लेकिन धीरे-धीरे हिम्मत भाई की इस बैठक में गड़बड़ हो रही है। बैठक के सदस्य एक एक कर ग़ायब हो रहे हैं। पता चलता है कि किसी को स्कूटर चलाने की मनाही हो गयी तो कोई घुटने की तकलीफ़ से लाचार हो गया। एक को स्मृति- लोप की शिकायत हो गयी। डर पैदा हो गया कि ऐसा न हो कि घर से निकलें और लौट कर ही न आएं।

रिश्तेदारियों में भी अब दिक्कत होने लगी है। उनके समवयस्क ज़्यादातर रिश्तेदार दुनिया से विदा हो गये हैं और उन घरों में अब बहुओं का राज हो गया है। जिन घरों में बिना रोक-टोक के चले जाते थे वहां अब खांस-खूंस कर जाना पड़ता है। अगली पीढ़ी के लड़के मिलने पर सिर्फ औपचारिकता निभा कर खिसक लेते हैं।

हिम्मत भाई अब शिद्दत से महसूस करते हैं कि उनकी दुनिया छोटी हो रही है। जो चेहरे सामने आते हैं उनमें परिचित कम और अजनबी चेहरे ज़्यादा दिखायी पड़ते हैं।

हिम्मत भाई का लंबी उम्र पाने का गर्व धीरे धीरे छीज रहा है। समझ में आ रहा है कि अपनी बनायी हुई आत्मीय लोगों की दुनिया के बग़ैर जीवन का कोई अर्थ नहीं है। अपने जीने का अर्थ तभी है जब हमें प्रेम करने वाले भी जीवित और स्वस्थ रहें।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – सच का आईना – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “– सच का आईना –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — सच का आईना — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

शादी के दो दिन हुए। दोनों अब अपने वर्तमान को ध्यान में रखते हुए बात करने की भावना में ओत – प्रोत थे। सहसा पति ने कहा, “मैं एक लड़की को चाहता था, लेकिन शादी न हो सकी। अब तुम अपनी बोलो, ताकि हमारी गृहस्थी में कुछ छिपा न रहे।” पत्नी एक लड़के को चाहती थी, लेकिन शादी न हो सकी। पर वह बोली नहीं। वह स्त्री थी। अपना सच बोला अपने जीवन में उसे महंगा पड़ सकता था।

***

© श्री रामदेव धुरंधर
23 – 10 — 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 5 ☆ लघुकथा – जल है तो कल है… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – “जल है तो कल है“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 5 ☆

✍ लघुकथा – जल है तो कल है… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह 

जल की उपयोगिता और आवश्यकता बताने के लिए तरह तरह के नारे लगाए जा रहे हैं। रणजीत जब भी घर में देखता है कि नल चल रहा है और उसकी मम्मी बर्तन घिस रही है। यानी पानी बेकार बह रहा है। वह चीख पड़ता है, “मम्मी, प्लीज़, नल तो बंद कर दो, पानी बेकार बह रहा है। अगर ऐसे ही पानी बहाना है तो यह स्लोगन क्यों टाँग रखा है, “जल है तो कल है।”

रणजीत घर से बाहर निकल जाता है। उसका मन उदास हो जाता है। अभी वह दस वर्ष का है और सोचता है ” जब मैं जवान होऊंगा तो पानी की हालत क्या होगी।  क्या हम प्यासे ही मर जाएंगे?”  वह अपनी गर्दन झटकता है, “नहीं नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। अपने भविष्य के लिए कुछ करना होगा।” सोहन की आवाज़ सुनकर वह होश में आता है। सोहन पूछता है,”कहाँ खोए हुए थे।” विचारमग्न अवस्था में रणजीत ने सोहन से पूछा, ” तुम्हारे घर में ऐसा होता है कि नल चलता रहे और पानी बहता रहे।” सोहन बोला, “हाँ होता है, माँ बर्तन माँजती है तो नल चलता रहता है। ऐसे ही नहाते समय भी होता है कि हम साबुन लगा रहे होते हैं पर नल चलता रहता है। लेकिन हुआ क्या?”

रणजीत ने धीरे से कहा, ” यार ऐसे ही चलता रहा तो हम बड़े होकर प्यासे ही मर जाएंगे। हमारे लिए तो पानी बचेगा ही नहीं।  सब कहते हैं, जल है तो कल है, पर कल की चिंता तो किसी को है ही नहीं।”  सोहन बोला, ” हाँ रणजीत मैंने जगह जगह लिखा देखा है, जल है तो कल है, पर पानी बरबाद करते रहते हैं।  मैंने बड़े लोगों के मुँह से सुना है कि जमीन में पानी का लेवल नीचे चला गया है, पीने के पानी का संकट बढता जा रहा है।” रणजीत बोला, ” यही तो मेरी चिंता है पर हम छोटे बच्चे हैं, करें क्या?” सोहन बोला, “कहते तो तुम ठीक हो। क्या स्कूल में अपनी मिस से बात करें। वो बहुत अच्छी हैं और बड़ी भी हैं, हमारी बात सुनेंगी और कुछ करेंगी भी। घर में तो किसी से कहना बेकार है। ऐसी बातों को फालतू समझते हैं।” “तो मिला हाथ, कल मिस से बात करेंगे।” सोहन गर्व से बोला। लेकिन दोनों बच्चों ने और प्रयास किए और अपनी क्लास के बच्चों को भी बताया। पूरी क्लास के बच्चे मिस से बात करने को तैयार हो गए।

जब मिस से बात की तो वह बहुत प्रभावित हुई और उसने कहा कि शुरूआत घर से ही होनी चाहिए। उसने कहा ” घर जाकर एक तख्ती पर लिखना “हमारी रक्षा करो, जल है तो कल है, और हम ही कल हैं।”  और दो दो या चार बच्चे वह तख्ती लेकर अपनी सोसायटी में मेन गेट के पास ऐसे खड़े होना कि आने जाने वाले सभी लोग तख्ती देख पढ सकें।”… “और हाँ अगले दिन तख्ती लेकर स्कूल में आ जाना।” बच्चों ने ऐसा ही किया। लोग रुकते और तख्ती पढकर अपने घर चले जाते।  रणजीत जब अपने घर पहुँचा तो उसकी मम्मी ने बड़े लाड़ से अपने पास बिठाया और दोनों कानों पर हाथ रखकर कहने लगी ” सॉरी रणजीत, ऐसी गलती अब नहीं होगी।” ऐसा ही कुछ सोहन के यहाँ भी हुआ। रणजीत अपनी सफलता पर बहुत खुश हुआ। अगले दिन रणजीत की क्लास के बच्चे स्कूल पहुँचे तो अपने अपने घर के अनुभव मिस को सुनाए। अब मिस ने स्कूल छूटने के समय उन बच्चों को एक कतार में खड़ा कर दिया जहाँ बच्चों को लेने पेरेंट्स आते हैं। सभी बच्चों के पेरेंट्स ने पढा। दूसरे दिन स्कूल के सभी बच्चे तख्ती बनाकर ले आए। और तख्ती हाथ में लेकर स्कूल से निकलने लगे।

 मिस ने बच्चों को समझाया कि जब किसी चौराहे पर लाल बत्ती देखकर तुम्हारी गाड़ी रुक जाए तो गाड़ी से उतर कर सबको तख्ती दिखलाओ। धीरे धीरे तख्ती की खबर मीडिया तक पहुँची। और अखबारों तथा चैनलों पर इसकी चर्चा होने लगी। रणजीत और सोहन बहुत खुश थे कि उन्होंने अपने कल के लिए कुछ तो किया। अपना कल बचाने की दिशा में एक छोटा सा कदम।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 55 – मिस मैचिंग…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मिस मैचिंग।)

☆ लघुकथा # 55 – मिस मैचिंग  श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

एक रिसोर्ट में पार्टी हैं ऑफिस के सभी लोग अपने परिवार के साथ आ रहे हैं। मेरे बॉस सुशांत सर ने कहा है कि तुम्हें जरूर आना है। तुम ठीक 1:00 बजे पहुंच जाना अरुण ने फोन पर कहा। घर के काम और सभी की सेवा में रोज लगी रहती हो देखना देर नहीं होनी चाहिए?

प्राची ने अपनी सास से कहा कि मां मुझे ऑफिस की पार्टी में जाना है घर का सारा काम हो चुका है मैं 11:00 बजे निकलती हूं तभी समय पर वहां पहुंच पाऊंगी।

सास ने हां कर दी बोली तुम जाओ तुम्हारे पति को बहुत जल्दी गुस्सा आ जाता है। उसने जीवन में कोई काम अच्छा नहीं किया। लेकिन, तुम्हें चुनकर हमारे लिए यह काम सबसे अच्छा किया है।

वह तैयार होकर पीले परिधान में जाती है पर उसका उसे शूट के साथ का दुपट्टा नहीं मिल रहा था इसलिए उसने लाल रंग का दुपट्टा डाला और एक पीला शॉल लेकर घर से बाहर निकली।

उसे विचार आया कि क्यों ना मैं सिटी बस में बैठकर आराम से जाती हूं, एंजॉय करते हुए जैसे कॉलेज में अपनी सखियों के साथ जाती थी। बस में बैठकर उसने कंडक्टर से कहा जब सिटी पार्क आएगा तो मुझे बता देना ।

बस पूरी खचाखच भरी थी उसमें कुछ बेचने वाले भी चढ़ गए थे। कई लोग खरीद भी रहे थे।  उसने भी दो कान के झुमके और चूड़ियां खरीद लिया।

फिर सोचने लगी की कॉलेज के दिन कितने अच्छे थे तब अरुण मेरा कितना ख्याल भी रखते थे लेकिन यह नहीं पता था कि वह अकाउंटेंट और गणित में इतना खो जाएंगे। एक-एक चीज का हिसाब किताब रखेंगे। अब तो पल-पल और सांसों का भी हिसाब किताब रखते हैं।

काश! मैं भी कुछ काम करती लेकिन घर में सब लोगों के चेहरे पर खुशी देखकर मुझे एक  शांति मिलती है।

तभी फोन की घंटी बाजी। उसने उठाया और कहा हेलो इतनी देर से मैं तुम्हें फोन कर रहा हूं तुम फोन उठा क्यों नहीं रही हो, घर से निकली या नहीं?

हां मैं घर से निकल चुकी हूं आप चिंता मत करो  सिटी पार्क में आपको मिल जाऊंगी। आधे घंटे में मैं वहां पहुंच जाऊंगी। अरे तुम तो जल्दी आ गई। ठीक है मैं भी ऑफिस से वहां पर पहुंच जाता हूं। वह जैसे ही बस से उतरती है तो देखती है कि अरुण वहीं पर खड़ा है। तुमने झूठ क्यों कहा कि तुम देर से पहुंचोगे।

यह तुमने क्या पहन रखा है?

आज के दिन पीला कलर का कपड़ा पहनना चाहिए और मुझे दुपट्टा नहीं मिल रहा था ? आजकल फैशन भी यही है?

अरुण धीरे से मुस्कुराया। तुम अच्छी लग रही हो।

मैं या मेरे कपड़े प्राची ने कहा।

तुम्हारे कपड़े भी हमारी तरह है हम लोग भी अलग होकर एक है मिस मैचिंग।

प्राची ने कहा – जिस तरह खिचड़ी संक्रांति में सब कुछ डालकर बनती है हम लोग भी ऐसे हैं।

दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़ कर रिसोर्ट में जल्दी जल्दी जाने लगते हैं।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – अवरुद्ध रास्ता – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– अवरुद्ध रास्ता –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — अवरुद्ध रास्ता — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

महात्मा अपने पीछे आने वालों का मार्ग दर्शन कर रहा था। पर एक जगह आने पर महात्मा स्वयं अटक गया। आगे रास्ता तो था, लेकिन एक पारदर्शी दीवार ने उसे रोक लिया था। उसके पुण्य का यही परीक्षण था। महात्मा के रूप में उसका जितना अर्जन था वह इतने के लिए ही था। इसके अतिरिक्त अमानवीय कर्मों के कारण आगे का उसका रास्ता अवरुद्ध होता।

***

© श्री रामदेव धुरंधर
27 – 10 — 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – युक्ति… ☆ सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा ☆

सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा जी पिछले 40 वर्षों से अधिक समय से लेखन में सक्रिय। 5 कहानी संग्रह, 1 लेख संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 पंजाबी कथा संग्रह तथा 1 तमिल में अनुवादित कथा संग्रह। कुल 9 पुस्तकें प्रकाशित।  पहली पुस्तक मेरी प्रतिनिधि कहानियाँ को केंद्रीय निदेशालय का हिंदीतर भाषी पुरस्कार। एक और गांधारी तथा प्रतिबिंब कहानी संग्रह को महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार 2008 तथा २०१७। प्रासंगिक प्रसंग पुस्तक को महाराष्ट्र अकादमी का काका कलेलकर पुरुसकर 2013 लेखन में अनेकानेक पुरस्कार। आकाशवाणी से पिछले 35 वर्षों से रचनाओं का प्रसारण। लेखन के साथ चित्रकारी, समाजसेवा में भी सक्रिय । महाराष्ट्र बोर्ड की 10वीं कक्षा की हिन्दी लोकभरती पुस्तक में 2 लघुकथाएं शामिल 2018)

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा युक्ति

? लघुकथा – युक्ति ? सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा ?

प्यारी मां,

 मैं जानती हूं अब वह वक्त आ गया है जब तुम पापा के साथ अस्पताल जाकर गर्भस्थ शिशु का लिंग परीक्षण कराने के लिए डॉक्टर को मोटी फीस देने के लिए तैयार हो जाओगी क्योंकि यह एक अपराध है। इसलिए अपराध को साकार रूप में उतारने के लिए मोटी रकम तो देनी ही पड़ती है ना! जब तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारी कोख में फिर से लड़की आ गई है तुम किसी भी स्थिति में मुझे संसार में नहीं आने दोगी क्योंकि एक लड़की के होते दूसरी बार फिर लड़की तुम बर्दाश्त नहीं कर सकती। मुझे मरवा कर तुम “चलो बला टली “ के भाव लिए फिर से लड़का प्राप्त करने की कोशिश में लग जाओगी। मां, मैं मरना नहीं चाहती।  मैं भी इस नई दुनिया में आना चाहती हूं। प्रकृति के अनुपम सौंदर्य को देखना चाहती हूं। मां बाप बहन का प्यार पाना चाहती हूं। कितना कुछ है इस सुंदर दुनिया में ! क्या मुझे यह सब देखने, महसूस करने का अधिकार नहीं? मैं जानती हूं एक लड़की के होते तुम दूसरी लड़की क्यों नहीं चाहती ! अपना वंश खत्म होने का भय सताता है ना! पर बदलते जमाने के साथ ही परंपराएं और सोच भी बदल रही है। अब तो वंश औलाद के गुणों से चलता है उसके लिंग के कारण नहीं। अगर फिर भी तुम्हें मेरे जन्म पर आपत्ति है तो एक और समाधान सुझाती हूं। मुझे मरवा कर एक अपराध बोध तुम्हें हमेशा रहेगा इसलिए मुझे जन्म देकर किसी अनाथ आश्रम में दे देना। कोई जरूरतमंद, निःसंतान दंपत्ति मुझे बेटी बना लेंगे। मुझे भी मां-बाप मिल जाएंगे और तुम्हें भी लड़की पाने से निजात मिल जाएगी। बस मुझे जन्म देकर इस संसार में लाने का उपकार मुझ पर कर दो ना प्लीज…

तुम्हारी अजन्मी बेटी

© नरेन्द्र कौर छाबड़ा

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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