(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “व्यवहार की भाषा…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 221 ☆ व्यवहार की भाषा… ☆
हमारा व्यवहार लोगों के साथ, खासकर जो हम पर आश्रित होते हैं उनके साथ कैसा है ?इससे निर्धारित होता है आपका व्यक्तित्व। विनम्रता के बिना सब कुछ व्यर्थ है। मीठी वाणी, आत्मविश्वास, धैर्य, साहस ये सब आपको निखारते हैं। समय- समय पर अपना मूल्यांकन स्वयं करते रहना चाहिए।
यदि कोई कुछ कहता है तो अवश्य ये सोचे कि अप्रिय वचन कहने कि आवश्यकता उसे क्यों पड़ी, जहाँ तक संभव हो उस गलती को सुधारने का प्रयास करें जो जाने अनजाने हो जाती है। जैसे- जैसे स्वयं को सुधारते जायेंगे वैसे- वैसे आपके करीबी लोगों की संख्या बढ़ेगी साथ ही वैचारिक समर्थक भी तैयार होने लगेंगे।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्वैच्छिक स्वीकारोक्ति…“।)
अभी अभी # 531 ⇒ स्वैच्छिक स्वीकारोक्ति श्री प्रदीप शर्मा
(Voluntary acceptance)
ऐसा लग रहा है, स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति की बात हो रही है। जी बिल्कुल सही, बिना सेवानिवृत्ति के वैसे भी कौन स्वीकारोक्ति की सोच भी पाता है। स्वीकारोक्ति स्वैच्छिक हो सकती है, लेकिन सेवानिवृत्ति इतनी आसान नहीं।
एक सेवानिवृत्ति तो स्वाभाविक होती है, ६०-६५ वर्ष तक खून पसीना एक करने के बाद जो हासिल होती है। चलो, गंगा नहा लिए ! होती है, सेवानिवृत्ति स्वैच्छिक भी होती है, हाय रे इंसान की मजबूरियां ! एक सेवानिवृत्ति अनिवार्य भी होती है, जिसे बर्खास्तगी (टर्मिनेशन) कहते हैं।
वे पहले सस्पेंड हुए, फिर टर्मिनेट। पहले सत्यानाश, फिर सवा सत्यानाश।।
जीवन के बही खाते का, नफे नुकसान का, लाभ हानि और पाप पुण्य का मूल्यांकन सेवानिवृत्ति के पश्चात् ही संभव होता है।
सफलताओं और उपलब्धियों को गिनाया और भुनाया जाता है। असफलताओं और कमजोरियों को छुपाया जाता है। जीवन का सुख भी सत्ता के सुख से कम नहीं होता।
क्या कभी किसी के मन में सेवानिवृत्ति के पश्चात् यह भाव आया है कि, इसके पहले कि चित्रगुप्त हमारे कर्म के बही खाते की जांच हमारे वहां ऊपर जाने पर करे, एक बार हम भी तो हमारे कर्मों का लेखा जोखा जांच परख लें। अगर कुछ डिक्लेयर करना है तो क्यों न यहीं इस दुनिया में ही कर दें। सोचो, छुपाकर क्या साथ ले जाया जाएगा, सच झूठ, सब यहीं धरा रह जाएगा।।
स्वैच्छिक का मतलब होता है जो अपनी इच्छा या पसंद पर निर्भर हो. वहीं, स्वीकारोक्ति का मतलब होता है वह कथन या बयान जिसमें अपना अपराध स्वीकार किया जाय। बड़ा दुख है स्वीकारोक्ति में ! लोग क्या कहेंगे। इस आदमी को तो हम ईमानदार समझते थे, यह तो इतना भ्रष्ट निकला, राम राम। बड़ा धर्मप्रेमी और सिद्धांतवादी बना फिरता था।
डालो सब पर मिट्टी, कुछ दिनों बाद ही जीवन के अस्सी वसंत पूरे हो जाएंगे, नेकी ही साथ जाएगी, क्यों मुफ्त में बदनामी का ठीकरा फोड़, अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मार ली जाए।
जरा यहां आपकी अदालत तो देखिए, सबूत के अभाव में गुनहगार छूट जाता है, और झूठी गवाही के आधार पर बेचारा ईमानदार फंस जाता है। जिसे यहां न्याय नहीं मिलता, उसे ईश्वर की अदालत का इंतजार रहता है।।
जो समझदार होते हैं, उनका तो अक्सर यही कहना होता है, यह हमारा और ईश्वर का मामला है। उससे कुछ भी छुपा नहीं है। समाज को तो जो हमने दिया है, वही उसने लौटाया है। ईश्वर तो बड़ा दयालु है, सूरदास तो कह भी गए हैं ;
प्रभु मोरे अवगुन चित ना धरो।
समदरसि है नाम तिहारो
चाहे तो पार करो।।
किसी ने कहा भी है, एक अदालत ऊपर भी है, जब उसको ही फैसला करना है तो कहां बार बार जगह जगह फाइल दिखाते फिरें। फिर अगर एक बार भगवान से सेटिंग कर ली तो इस नश्वर संसार से क्या डरना। कितनी अटूट आस्था होती होगी ऐसे लोगों की ईश्वर में।
और एक हम हैं, सच झूठ, पाप पुण्य, और अच्छे बुरे का ठीकरा सर पर लिए, अपराध बोध में जिए चले जा रहे हैं। तेरा क्या होगा कालिया! जिसका खुद पर ही भरोसा नहीं, वह क्या भगवान पर भरोसा करेगा। गोस्वामी जी ने कहा भी है ;
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – शून्य आदि…शून्य इति
शून्य उत्सव है। वस्तुतः महोत्सव है। शून्य में आशंका देखते हो, सो आतंकित होते हो। शून्य में संभावना देखोगे तो प्रफुल्लित होगे। शून्य एक पड़ाव है आत्मनिरीक्षण के लिए। शून्य अंतिम नहीं है। वैसे प्रकृति में कुछ भी अंतिम नहीं होता। जीवन, पृथ्वी सब चक्राकार हैं। प्रकृति भी वृत्ताकार है। हर बिंदु परिधि की इकाई है और हर बिंदु में नई परिधि के प्रसव की क्षमता है। प्रसव की यह क्षमता हर बिंदु के केंद्र बन सकने की संभावना है।
यों गणित में भी शून्य अंतिम नहीं होता। वह संख्याशास्त्र का संतुलन है। शून्य से पहले माइनस है। माइनस में भी उतना ही अनंत विद्यमान है, जितना प्लस में। शून्य पर जल हिम हो जाता है। हिम होने का अर्थ है, अपनी सारी ऊर्जा को संचित कर काल,पात्र,परिस्थिति अनुरूप दिशा की आवश्यकतानुसार प्रवहमान होना। शून्य से दाईं ओर चलने पर हिम का विगलन होकर जल हो जाता है। पारा बढ़ता जाता है। सौ डिग्री पारा होते- होते पानी खौलने लगता है। बाईं ओर की यात्रा में पारा जमने लगता है। एक हद तक के बाद हिमखंड या ग्लेशियर बनने लगते हैं। हमें दोनों चाहिएँ-खौलता पानी और ग्लेशियर भी। इसके लिए शून्य होना अनिवार्य है।
शून्य में गहन तृष्णा है, साथ ही गहरी तृप्ति है। शून्य में विलाप सुननेवाले नादान हैं। शून्य परमानंद का आलाप है। इसे सुनने के लिए कानों को ट्यून करना होगा। अपने विराट शून्य को निहारने और उसकी विराटता में अंकुरित होती सृष्टि देख सकने की दृष्टि विकसित करनी होगी। शून्य के परमानंद को अनुभव करने के लिए शून्य में जाएँ।
…मैं अपने शून्य का रसपान कर रहा हूँ। शून्य में शून्य उँड़ेल रहा हूँ , शून्य से शून्य उलीच रहा हूँ,।….शून्य आदि है, शून्य इति है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मार्गशीर्ष साधना 16 नवम्बर से 15 दिसम्बर तक चलेगी। साथ ही आत्म-परिष्कार एवं ध्यान-साधना भी चलेंगी
इस माह के संदर्भ में गीता में स्वयं भगवान ने कहा है, मासानां मार्गशीर्षो अहम्! अर्थात मासों में मैं मार्गशीर्ष हूँ। इस साधना के लिए मंत्र होगा-
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
इस माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता जयंती मनाई जाती है। मार्गशीर्ष पूर्णिमा को दत्त जयंती मनाई जाती है।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ईमानदारी की पाठशाला…“।)
अभी अभी # 530 ⇒ ईमानदारी की पाठशाला श्री प्रदीप शर्मा
ईमानदार होने का मतलब सत्यनिष्ठ होना है। पाठशाला में हम शिक्षा ग्रहण करते हैं, शिक्षा ही सीख है, सबक है। अंग्रेजी में हमने पढ़ा था, honesty is the best policy. हमें तो जीवन में एलआईसी से बढ़िया कोई पॉलिसी नज़र नहीं आई। हम ईमानदारी से पढ़ लिख लिए, लेकिन फिर भी हमारे पास ईमानदारी की कोई डिग्री अथवा डिप्लोमा उपलब्ध नहीं है। लेकिन हां, नौकरी के वक्त हमें हमारी डिग्रियां ही काम आई थी, और उसके साथ एक चरित्र प्रमाण पत्र। He bears a good moral character.
हिंदी में इसे मेहनती और ईमानदार व्यक्ति कहा जाता है।
परसाई की भाषा में ईमानदारी का कोई तावीज नहीं होता। बालक को सभी तरह के अनिष्ट से सुरक्षा के लिए माएं उनके गले में गंडा और तावीज अवश्य बांधती थी। काश आधार कार्ड, पैनकार्ड अथवा बीपीएल कार्ड की तरह कोई ईमानदारी का कार्ड भी होता, तो हमारा देश कितना खुशहाल हो जाता।।
ईमानदारी को आप गरीबी और अमीरी अथवा धर्म और जाति की तरह अलग नहीं कर सकते। गरीब इसीलिए गरीब है, क्योंकि वह ईमानदार है, और अमीर इसलिए अमीर है, क्योंकि वह बेइमान है, इस राय से हम इत्तेफाक नहीं रखते। वैसे होने को तो इसका उल्टा भी हो सकता है। लेकिन यह सब कोरी बकवास है।
हम कितने ईमानदार हैं, यह केवल हम जानते हैं। जिसने आपको ठगा वह बेईमान, और आपने जिसको ठगा वह सिर्फ बेचारा। अमीर पर हमें भरोसा रहता है, क्योंकि वह इज्जतदार होता है, बेचारा गरीब क्या नहाए और निचोड़े, उस पर कौन भरोसा करता है।।
हमारे घरों में नौकर चाकर और काम वाली बाई होती है। कुछ घरों में भरोसेमंद बाइयां होती हैं, जिनके भरोसे लोग घर खुला भी छोड़ जाते हैं और कहीं कहीं इन पर निगरानी रखनी पड़ती है।
मेरी काम वाली बाई भी एक औसत काम वाली बाई है। पैसा अगर उधार लेती है, तो समय पर लौटा भी देती है। फिलहाल उस पर एक हजार रुपए उधार थे, जो वह लौटा नहीं पाई।।
एक दिन सुबह वह मेरी पत्नी को पांच सौ रुपए देकर चली गई, लेकिन कुछ बोली नहीं, क्योंकि पत्नी फोन पर व्यस्त थी। पत्नी ने मुझे कहा, देखो उसने पांच सौ आज लौटा दिए, अब केवल पांच सौ ही बाकी रहे। बात की धनी और सच्ची है अनिता।
अनिता उसका नाम है। वह दिन में दूसरी बार आई तब उसने बताया, ये पांच सौ रुपए आपके भगवान के कमरे में अलमारी के नीचे पड़े थे। झाड़ते वक्त मुझे नजर आए तो मैने उठा लिए। उस समय आप फोन पर व्यस्त थी, और मुझे जल्दी थी, इसलिए आपको बता नहीं पाई। जरा सावधानी रखा करो, पैसे कौड़ी का मामला है।।
मैं समझ गया, गलती मेरी थी। कमरे में पंखा चल रहा था, कुछ नोट नीचे गिरे थे, कब हवा में एक नोट अलमारी के नीचे चला गया। उसने घटना का उपसंहार यह कहकर किया कि, आपके हजार रुपए मुझे अभी आपको लौटाने हैं, जल्द ही लौटा दूंगी। ये पैसे तो आपके ही थे।
मैं शायद उसकी जगह उस परिस्थिति में होता, तो मेरा ईमान डौल जाता। मुझे इस परिस्थिति में वह मुझसे अधिक ईमानदार लगी।
मुझे अपने आपको बेईमान कहने में कोई शर्म नहीं, लेकिन सच्चा ईमानदारी का ताबीज तो मैने उस कम वाली अनिता के गले में लटका पाया।
फिर भी कुछ लोग यही कहेंगे, आपकी बात सही है, लेकिन इन लोगों पर आंख मूंदकर भरोसा नहीं किया जा सकता। अब मैं किस पर भरोसा करूं, मेरी अनिता पर अथवा लोगों की राय पर।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “वात और बात…“।)
अभी अभी # 529 ⇒ वात और बात श्री प्रदीप शर्मा
शरीर का अपना गुण धर्म होता है। आरोग्य हेतु त्रिदोष अर्थात् कफ, पित्त और वात के निवारण हेतु औषधियों का सेवन भी किया जाता है। वात को एक प्रमुख विकार माना गया है। त्रिफला इसमें बड़ा गुणकारी सिद्ध हुआ है।
सुबह सुबह विकार की चर्चा करना और कुछ नहीं आपका हाजमा ठीक रहे, बस इतनी ही कामना करना है। हम जानते हैं कुछ लोगों का हाजमा इतना अच्छा है कि उन्हें कंकर पत्थर तो क्या, बड़े बड़े पुल और अस्पताल भी खिलाओ तो भी उनके पेट में दर्द नहीं होता। आसान शब्दावली में इसे रिश्वत खाना कहते हैं। ।
लेकिन हम आज भ्रष्टाचार नहीं, सामान्य शिष्टाचार की बात कर रहे हैं। जो लोग इतने शरीफ हैं कि एक मूली का परांठा तक खाते हैं तो लोग या तो नाक पर हाथ रख लेते हैं अथवा रूमाल तलाशने लग जाते हैं। एकाएक ओज़ोन की परत कांप जाती है और पर्यावरण अशुद्ध हो जाता है। बस यही, वात दोष अथवा वायु विकार है।
वात विकार की ही तरह कुछ लोगों के पेट में बात भी नहीं पचती। कल रात सहेली ने एक बात बताई और संतोषी माता की कसम दिलवाई कि यह बात किसी को बताना मत, बस, तब से ही पेट में गुड़गुड़ हो रही है। उधर रेडियो पर लता का यह गीत बज रहा है ;
तुझे दिल की बात बता दूं
नहीं नहीं,
किसी को बता देगी तू
कहानी बना देगी तू।।
पहले कसम खाना और उसके बाद किसी बात को पचाना क्या यह अपने आप पर दोहरा अत्याचार नहीं हुआ। वात और बात दोनों ही ऐसे विकार हैं, जिनका निदान होना अत्यंत आवश्यक है। यह शारीरिक और मानसिक रोगों की जड़ है। यह एक गंभीर सामाजिक समस्या है। इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता।
किसी आवश्यक बात को छुपाना, दर्द को छुपाने से कम नहीं होता। भगवान ने भी हमें कान तो दो दिए हैं और मुंह केवल एक। हमारे कान हमेशा चौकन्ने रहते हैं, सब कुछ सुन लेते हैं। ईश्वर ने पेट भोजन पचाने के लिए दिया है, बातों को पचाने के लिए नहीं। क्या यह हमारे पाचन तंत्र पर अत्याचार नहीं। वात और बात दोनों का बाहर निकलना तन और मन दोनों के लिए स्वास्थ्यवर्धक है। ।
ईश्वर बड़ा दयालु है। उसने अगर सुनने के लिए दो द्वार दिए हैं, दांया और बांया कान तो खाने और बात करने के लिए मुख भी बनाया है। जो खाया उसे पचाएं, जो ज्ञान की बातें सुनी, उन्हें भी गुनें, हजम करें। इंसान केवल खाना ही नहीं खाता। और भी बहुत कुछ खाता पीता है। कभी गम भी खाता है, कड़वी बातें भी पचा जाता है, अपमान के घूंट भी पानी समझकर पी लेता है। सावन के महीने में, जब आग सी सीने में, लगती है तो पी भी लेता है, दो चार घड़ी जी लेता है।
वही खाएं, जो हजम हो। वही बात मन में रखें, जिसमें सबका हित हो। पेट और मन को हल्का रखना बहुत जरूरी है। वात और बात के भी दो अलग अलग रास्ते हैं। लेकिन यह संसार मीठा ही पसंद करता है। इसे न तो कड़वे लोग पसंद हैं और न ही वात रोगी। आप मीठा बोल तो सकते हैं लेकिन वात तो वात है, सबकी वाट लगा देता है। आप कितने भी स्मार्ट हों, एक फार्ट सारा खेल बिगाड़ देता है। ।
कुछ तो लोग कहेंगे। लोगों का काम है कहना। हम तो कह के रहेंगे जो हमें कहना। कल रात ही त्रिफला खाया है। जरा दूर ही रहना। फिर मत कहना, बताया नहीं, जताया नहीं, आगाह नहीं किया। सुप्रभात..!!
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 108 ☆ देश-परदेश – भोजन की बर्बादी ☆ श्री राकेश कुमार ☆
भोजन की बर्बादी को तो हमारे धर्म में पाप तक माना जाता है। कृषक कितनी मेहनत से अपनी फसल की पैदावार कर अनाज की उपज लेकर हमारी भूख को मिटाता है।
आप सोच रहे होंगे, विवाह का मौसम अभी आरंभ हुआ नहीं और भोजन की बर्बादी का ज्ञान देना आरंभ हो गया है। आज चर्चा ऑनलाइन भोजन उपलब्ध करवाने वाली बड़ी कंपनियां एक नई सुविधा आरंभ कर रहे हैं, उस को लेकर है।
ऑर्डर कर देने के बाद भी ग्राहक ऑनलाइन ऑर्डर रद्द भी कर सकता हैं। ऐसे मौके पर इस भोजन सामग्री का क्या हश्र होता होगा? इन खाद्य दूत कंपनियों को आज इस विषय पर चिंता होने लगी है। घर पहुंच सेवा देकर देश के लोगों और विशेषकर युवा पीढ़ी को आलसी बनाने में इनका योगदान सर्वविदित है।
अब इन रद्द हुए भोजन को सस्ते दाम में ये कंपनियां जनता को उपलब्ध करवा कर अपना श्रेय लेना चाहती हैं। कुछ नियम बन चुके हैं। युवा वर्ग या बाहरी भोजन के चटोरे इस को अधिक समझते हैं।
कल हमारे युवा पड़ोसी ने हमारे फोन से ज़ोमत्तों से भोजन ऑर्डर कर कुछ देर में कैंसिल कर दिया। उसके पांच मिनट बाद उसी भोजन को पच्चीस प्रतिशत दाम में अपने मोबाईल से ऑर्डर कर दिया।
हमारे फोन के इस्तेमाल करने की एवज में पड़ोसी ने हमको भी बाजार का घटिया भोजन अपने साथ करवाया। उसने तो भोजन की खरीदी मात्र 25% में करी। बाज़ार का भोजन दिखने और खाने में अच्छा लगता है। हमें तो और भी स्वादिष्ट लगा, बिल्कुल घर बैठे मुफ्त में जो मिला था। पाठक भी अपने रिस्क पर इस का लाभ ले सकते हैं, इससे पूर्व ऑनलाइन वाले इस योजना की कोई काट निकाल देवें।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आओ एन्जॉय करें…“।)
अभी अभी # 528 ⇒ आओ एन्जॉय करें श्री प्रदीप शर्मा
(Joy & enjoy)
खेलना कूदना, मौज मस्ती करना, सब एन्जॉय करना ही तो है आज की पीढ़ी के लिए। क्या खुशी और आनंद भी कभी अलग हुए हैं। लगता है अंग्रेजी के शब्द एन्जॉय में जॉय शब्द भी इनबिल्ट ही है।
जरा John Keats की जॉय की परिभाषा तो देखिए ;
A thing of beauty is a joy forever…
एक सुंदर चीज अंतहीन खुशी का स्रोत है। इसमें शाश्वत सुंदरता है जो कभी फीकी नहीं पड़ती। खुशी को तो महसूस किया जा सकता है, लेकिन एन्जॉय का अर्थ तो मौज मस्ती होता है, जो बाहरी होती है।
एक बच्चा जॉय और एन्जॉय में फर्क नहीं समझता। उसके लिए तो उसका टॉय ही जॉय और एंजॉयमेंट का साधन है। उम्र के साथ साथ उसके खिलौने भी बदलते रहते हैं, क्योंकि वह तो खुद ही एक कच्ची मिट्टी का घड़ा होता है। जिसे हम teens कहते हैं, यानी तेरह से उन्नीस वर्ष के बीच की उम्र, उसमें वह जैसा ढल गया, सो ढल गया। बाद में तो सिर्फ उसे तराशा ही जा सकता है। ।
युवा पीढ़ी की उम्र खाने पीने और मौज करने की होती है, जैसे अंग्रेजी में Eat, drink and be merry कहा जाता है। वे जॉय और एन्जॉय में फर्क नहीं करते क्योंकि उनके जीवन में के एल सहगल नहीं बाबा सहगल, हनी सिंह और अरिजीत सिंह होते हैं। वे तबला हारमोनियम के नहीं, डीजे और zaaz के शौकीन होते हैं। हमारी उम्र में हमने भी अंग्रेजी धुनों पर डांस किया है, एन्जॉय किया है।
शायद यही फर्क है जॉय और एन्जॉय में। आज की शादियों में जब स्टेज पर डांस होता है, तब जरा अपने आसपास की युवा पीढ़ी पर नजर डालकर देखिए, उनके पांव संगीत की धुन पर ऐसे थिरकने लगते हैं, मानो वे अभी नाचने लगेंगे। उनकी खुशी कब की आनंद में ढल चुकी है, जॉय एन्जॉय का भेद कबका मिट चुका है। उनके लिए वही समाधि अवस्था है, परमानंद है। ।
वह सर्वेश्वर नटवर नागर, रासबिहारी कृष्ण कन्हैया भी तो सोलह कलाओं से परिपूर्ण है।
संगीत, साहित्य और नृत्य की साधना भी तो ईश्वर की आराधना ही है। उसकी कलाओं में आकंठ डूब जाना ही वास्तविक आनंद है। जॉय एन्जॉय से ऊपर भी एक अवस्था है, जिसे परमानंद सहोदर कहा गया है, एक अतीन्द्रिय अनुभूति जिसे अंग्रेजी में ecstasy कहते हैं।
अनुभूति की सभी अवस्थाओं से गुजरने के पश्चात् ही तो ईश्वर की अनुभूति संभव है। हर अवस्था एक पड़ाव है, बाहर अगर मौज मस्ती है तो अंदर आंतरिक आनंद। कब आपकी मौज मस्ती में बदल जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता, अतः…
हर पल को एंज्वॉय करें, मन की मौज और मस्ती आपका इंतजार कर रहे हैं। ।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 265 ☆ वासुदेव: सर्वम्…
अपौरूषेय आदिग्रंथ ऋग्वेद का उद्घोष है-
॥ सं. गच्छध्वम् सं वदध्वम्॥
(10.181.2)
अर्थात साथ चलें, साथ (समूह में) बोलें।
ऋग्वेद द्वारा प्रतिपादित सामूहिकता का मंत्र मानुषिकता एवं एकात्मता का प्रथम अधिकृत संस्करण है।
अथर्ववेद एकात्मता के इसी तत्व के मूलबिंदु तक जाता है-
॥ मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्, मा स्वसारमुत स्वसा।
सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया॥2॥
(3.30.3)
अर्थात भाई, भाई से द्वेष न करे, बहन, बहन से द्वेष न करे, समान गति से एक-दूसरे का आदर- सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एकमत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर संभाषण करें।
आधुनिक विज्ञान जब मनुष्य के क्रमिक विकास की बात करता है तो शनै:-शनै: एक से अनेक होने की प्रक्रिया और सिद्धांत प्रतिपादित करता है। उससे हजारों वर्ष पूर्व भारतीय दर्शन और ज्ञान के पुंज भारतीय महर्षि एकात्मता का विराट भारतीय दर्शन लेकर आ चुके थे। महोपनिषद का यह श्लोक सारे सिद्धांतों और सारी थिअरीज की तुलना में विराट की पराकाष्ठा है।
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
(अध्याय 4, श्लोक 71)
अर्थात यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों के लिए तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है।
मनुष्य की सामाजिकता और सामासिकता का विराट दर्शन है भारतीय संस्कृति। ’ॐ सह नाववतु’ गुरु- शिष्य द्वारा एक साथ की जाती प्रार्थना में एकात्मता का जो आविर्भाव है वह विश्व की अन्य किसी भी सभ्यता में देखने को नहीं मिलेगा। कठोपनिषद में तत्सम्बंधी श्लोक देखिये-
॥ ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥19॥
अर्थात परमेश्वर हम (शिष्य और आचार्य) दोनों की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए, हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें, हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें।
इस तरह की सदाशयी भावना रखने वाले का मन निर्मल रहता है। निर्मल मन से निर्मल भविष्य का उदय होता है। उदय और अस्त का परम अद्वैत दर्शन है श्रीमद्भागवत गीता। गीता में स्वयं योगेश्वर कहते हैं-
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्॥
(गीता 10।39)
अर्थात, हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियों का जो बीज है, वह मैं ही हूँ। मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है।
इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टमिच्छसि ॥
(11/ 7)
अर्थात, हे अर्जुन! तू मेरे इस शरीर में एक स्थान में चर-अचर सृष्टि सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को देख और अन्य कुछ भी तू देखना चाहता है उन्हे भी देख।
एकात्म भाव का विस्तृत विवेचन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
(6।30)
अर्थात् जो सबमें मुझको देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।’
इस अदृश्य का यह सारगर्भित दृश्य समझिये इस उवाच से-
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम॥
अर्थात जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) संसार के छोटे-बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही मैं भी विश्व में व्यापक होने पर भी उससे संपृक्त हूँ।
संपृक्त श्रीमद्भागवत के इस अनहद नाद को सुनिए-
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद यत् सदसत परम।
पश्चादहं यदेतच्च योडवशिष्येत सोडस्म्यहम
(2।9।32)
अर्थात सृष्टि के पूर्व भी मैं ही था, मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं था और सृष्टि के उत्पन्न होने के बाद जो कुछ भी यह दिखायी दे रहा है, वह मैं ही हूँ। जो सत्, असत् और उससे परे है, वह सब मैं ही हूँ तथा सृष्टि के बाद भी मैं ही हूँ एवं इन सबका नाश हो जाने पर जो कुछ बाकी रहता है, वह भी मैं ही हूँ।
सांगोपांग सार है, ‘वासुदेव: सर्वम्।’ चर हो या अचर, वासुदेव के सिवा जगत में दूसरा कोई नहीं है। अत: कहा गया, चराचर में एक ही आत्मा देख, एकात्म हो।…इति।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मार्गशीर्ष साधना 16 नवम्बर से 15 दिसम्बर तक चलेगी। साथ ही आत्म-परिष्कार एवं ध्यान-साधना भी चलेंगी
इस माह के संदर्भ में गीता में स्वयं भगवान ने कहा है, मासानां मार्गशीर्षो अहम्! अर्थात मासों में मैं मार्गशीर्ष हूँ। इस साधना के लिए मंत्र होगा-
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
इस माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता जयंती मनाई जाती है। मार्गशीर्ष पूर्णिमा को दत्त जयंती मनाई जाती है।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपके उपन्यास “पथरीला सोना” पर आधारित श्री राजेश सिंह “श्रेयस का आलेख “– प्रवासी साहित्य, साहित्यकार और “पथरीला सोना”–” । ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए हम श्री राजेश सिंह “श्रेयस” जी का आलेख जस का तस साभार प्रस्तुत कर रहे हैं।)
~ मॉरिशस से ~
☆ आलेख ☆ श्री राजेश सिंह श्रेयस की कलम से – प्रवासी साहित्य, साहित्यकार और “पथरीला सोना” ☆ साभार – श्री रामदेव धुरंधर ☆
(मेरे मित्र कलमकार राजेश सिंह जी ने ‘पथरीला सोना’ उपन्यास के जिक्र से मुझे वहाँ पहुँचा दिया जब मैं इसका लेखन कर रहा था। मैंने कभी पढ़ा था आचार्य चतुरसेन जी ने लिखा था वैशाली की नगर वधू जैसी दुरुह कृति लिखते वक्त उनकी आँखें खराब हो गई थीं। पथरीला सोना सात खंड लिखने से मेरी आँखें खराब नहीं हुईं। अस्सी के आस पास की उम्र में मेरी आँखें ठीक चल रही हैं। पर पथरीला सोना उपन्यास ने मेरी सेहत पर बहुत प्रहार किया। वह मुझे भुगतना पड़ा और मैंने स्वीकार किया। एक वृहत रचना के लिए वह एक तपस्या थी। अब श्री केशव मोहन पांडेय जी के सर्वभाषा प्रकाशन गृह दिल्ली की ओर से मेरी रचनावली छपने वाली है। इसमें मेरी तमाम विधाओं की रचनाएँ शामिल रहेंगी। विशेष कर पथरीला सोना उपन्यास के सात खंडों पर मुझे फिर से काम करना पड़ रहा है जो मैं कर रहा हूँ। बाकी आप लोंगों का प्रेम मेरे साथ है। विशेष कर राजेश सिंह तो मेरे बहुत ही अपने हो गए हैं। मैं डाक्टर दीपक पांडेय और उनकी श्रीमती नूतन पांडेय के प्रति बराबर रूप से कृतज्ञ हूँ जिन्होंने हिन्दी जगत में मेरे नाम को बहुत विस्तार दिया है। … आप लोगों का अपना ही रामदेव धुरंधर)
प्रवासी साहित्य और विशेष रूप से मॉरीशस के प्रवासी साहित्यकारों के विषय में मेरी रुचि क्यों बढ़ी… – राजेश सिंह “श्रेयस”
यह प्रश्न मेरे अपने और कुछ अन्य साहित्यकारों के मन में उठते थे और वे बार-बार मुझसे पूछते थे कि आपकी रुचि प्रवासी साहित्य और विशेष रूप से मॉरीशस के साहित्य पर और साहित्यकारों पर क्यों है तो मेरा इस प्रश्न का जवाब यह है कि इसका मूल कारण मेरा जनपद बलिया ही है। मुझको बलिया से बलिया के रग -रग से, बलिया की भाषा- बोली अपनी भोजपुरी से अत्यधिक लगाव है, जिसे मैं बयां नहीं कर सकता।
बलिया के एक गांव में पैदा हुआ उसकी धूल मिट्टी में खेल कर बडा हुआ। गाँव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ाई की, जहां पटरी, झोरा और टाट की बात होती थी। थोड़ा और आगे बढ़ा तो मैंने अपनी पढ़ाई रसड़ा के अमर शहीद भगत सिंह इंटर कॉलेज तत्कालीन किंग जार्ज सिल्वर जुबली इंटर कॉलेज में शुरू की। जब और ऊंची शिक्षा लेने का सौभाग्य मिला। तो मुझे मुरली मनोहर टाउन डिग्री कॉलेज और उसका खुला मैदान मिला।
जीवन के 40 वर्ष जब बलिया गुजरे हों तो क्या 18 – 20 वर्षों में लखनऊ में रहने से मेरे स्वभाव में परिवर्तन हो जाता क्या। मुझे मेरा बलिया छूट जाता क्या, कभी भी नहीं.
ऐसा हरगिज नहीं होता। मेरे बलिया के माटी से जुड़े होने की पहचान मेरे दोनों उपन्यास भी कराते हैं, चाहे वह “चाक सी नाचती जिंदगी” हो या “तुमसे क्या छुपाना हो बलिया” मेरी मातृभूमि और भोजपुरी मेरे साथ साथ यात्रा करती है।
बात कर रहा था मैं प्रवासी साहित्य का तो अधिकांश गिरमिटिया मजदूर या तो उत्तरप्रदेश के पूर्वांचल से मारिशस या अन्य कैरेबियन देश गए या तो बिहार से गए। वे अपनी जड़ से दूर बेशक गए लेकिन अपने साथ ले गए भारतीय संस्कृति, भारतीय संस्कार, अपनी बोली, अपनी भाषा और अपनी भोजपुरी। इधर मैं बलिया में आयोजित होने वाले राष्ट्रीय साहित्य समारोह के सिलसिले में साहित्य के साहित्यकारों के कुछ अनछुए अंश को छूने की कोशिश कर रहा था, तभी अचानक मेरे हाथ में एक ग्रंथ छू गया जिसका नाम था पथरीला सोना।
पथरीला सोना एक ऐसा ग्रंथ है जो कि पोने दो सौ साल पहले भारत से सुदूर देश मारिशस गए गिरमिटिया मजदूर की यात्रा की कहानी लिखता है। जब कुछ और गहराई में गया तो पता चला कि रामदेव धुरंधर के इन उपन्यासों जिनके प्रत्येक खंड 500 पेज का है और इसके छ : खंड प्रकाशित हो चुके हैं। यदि सातवें खंड को छोड़ दिया जाए तो शेष है छः खंड लगभग साढ़े तीन सौ पेज के हुए।
मॉरीशस में हिंदी के कई एक साहित्यकार बहुत ही प्रसिद्ध हुए और उनकी कृतियों ने बहुत ज्यादा ख्याति बटोरी।
श्री अभिमन्यु अनत उन्हीं साहित्यकारों में से एक है, और उनकी कृति होती है लाल पसीना। जैसा कि उस कृति का शीर्षक लाल पसीना है यह गिरमिटिया मजदूरों के शुरुवाती दिनों के संघर्ष को बयां करती है,।
वहीं यदि श्री रामदेव धुरंधर के पथरीला सोना (समग्र ) की बात करूं तो साहित्य सोने की यह चट्टान भारत से मॉरीशस गए मजदूरों के हर दर्द और ख़ुशी को बतलाने के लिए पर्याप्त है।
हम बलियावासी या पूर्वांचलवासी लोग या बिहार के लोग सीधे-साधे होते रहे, मेहनतकश होते हैं और मेहनत करके हम सब कुछ पाने की कला जानते रहे हैं, ऐसा सब लोग कहते हैं। यही एक कारण था कि ब्रिटिश और फ्रेंच शासको के एजेंट इन्हे एग्रीमेंट के तहत अपने देश ले गए और उन्होंने कहा कि आप वहां चलोगे तो पत्थर हटाओगे तो उसके नीचे से सोना निकलेगा। इस सोने की तलाश में भारत से ढेर सारे गरीब मजदूर अपने घर – द्वार को छोड़कर पानी की जहाज से मॉरीशस के लिए चल दिए। उन्हें क्या पता था कि यह एग्रीमेंट उसको गिरमिटिया बना देगा। सोना पाने की इच्छा से यात्रा आगे तो अवश्य बढ़ रही थी, लेकिन उन्हें नरक सा जीवन मिलने वाला है, ऐसा उन्हें बिल्कुल भी पता नही था।
पथरीला सोना को पढ़ते पढ़ते, मुझे ऐसा लगने लगा कि हम अपनी माटी से जुड़ते चले जा रहे हैं। भारत से मॉरीशस गए एक मजदूर की तीसरी पीढ़ी की कलम इतने दिनों बाद कुछ ऐसा लिखेंगी, जिसमे मेरी माटी की सुगंध आ रही हो।
उपन्यास अपनी यात्रा पर था। उसके कथानक में जहाज समुद्र के बीचो-बीच पहुंच जाता है। अचानक जहाज के शीर्ष पर एक पक्षी आता है, जहाज में बैठे मजदूरो को लगता है इन कि शायद वह देश आ गया जहां के लिए हम निकले थे लेकिन यह उसकी सोच झूठी थी क्योंकि वह जगह हुआ। यह पंछी तो फिर से वापस लौट के और जाकर दोबारा जहाज के शीर्ष पर नहीं बैठे। जहाज तो किसी अन्य दीप के बगल से गुजर रहा था और वह पंछी वहां का था, जो वापस लौटकर अपने दीप चला गया। लेकिन मझधार में फंसा कौन था। फंसा था वह गरीब मजदूर – एक बेबस इंसान, जो किसी भरोसे की यात्रा पर निकाला था। पर वह भरोसा सच में धोखा था।
लेकिन अब वह करता ही क्या। प्रवासी घाट पर उतरने के बाद एक दृष्टांत आता है कि मजदूरों को ले जाने के लिए अलग-अलग ठेकेदार अपने लिए आवंटित संख्या के साथ खड़े थे। जितने मजदूर उतरते थे, उन्हें उस अनुपात में बांट दिया जाता। जिन्दे सामान की छिना झपटाई में कब पति से पत्नी, बाप से बेटा अलग हो गए कुछ पता नहीं चला। किसी का चिल्लाना कहीं काम नही आया।
पूरे दिन पत्थरों को उलटते पुलटते, वे सोना नही ढूढ़ रहे थे, वे तो एक मिट्टी की तलाश कर रहे थे, जिनमे गोरो के लिए गन्ना पैदा हो। इन मजदूरों के गिरते पसीने की बूंदें, लहू सी लाल दिखती। यही धुरंधर जी का पथरीला सोना और अभिमन्यु अनत का लाल पसीना आपस में सन रहा था। दोनों लेखक एक ही विद्यालय के शिक्षक थे और दोनों गहरे मित्र भी थे।
शायद कलम मूल चर्चा से भटक गई, और फिर वापस लौट कर वहां आना चाहती थी जहाँ पूरे दिन पसीना बहाकर मजदूर वापस लौटे थे।
जाना कहां कहां जा पहुंचे, छूटा अपना देश। इस पीड़ा से सभी निकलना चाह रहे, लेकिन सभी रास्ते बंद थे।
भला हो रामचरितमानस, रामायण और हनुमान चालीसा का कि वे उसको भी अपने साथ ले गए। कुछ पढ़ना जानते थे कुछ पढ़ तो नहीं सकते थे लेकिन सुनते थे और कुछ ऐसे थे कि जो लाल कपड़े में बने उसे रामायण को देखकर अपने अंदर के आत्मविश्वास जागाते थे कि एक दिन ऐसा आएगा, जब हमें अपना अस्तित्व और अपना देश मिल जाएगा।
यह उनका आदमी विश्वास और भरोसा था कि उनका संघर्ष रंग लाया और अब उनके सामने आया, रामायण के मारीच का आपका मॉरीशस, मुड़िया पहाड़, गंगा तलाव, दिखने लगा। उनके संस्कृति और संस्कार आज तक फूलते फलते रहे जिसको ये लाल कपडे में रामायण के रूप में बाँध कर ले गए थे। मेरी नजर में रामदेव धुरंधर जी का उपन्यास पथरीला सोना इस यात्रा में सब कुछ एक साथ लेकर चलने वाला दस्तावेज समझ में आ रहा था।
इस उपन्यास के कुछ एक शब्द एवं कथांश मिले, जिसकी व्याख्या भी मैंने वर्ष 2020 में करने की कोशिश की जो हमारे बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश और अवधी की लोक संस्कृति और लोग बोली के शब्द थे, जो मुझे मेरी माटी और मेरे बलिया से मुझे जोड़ रहे थे।
अब मै अपने पिछले दो आलेखों को जस का तस प्रस्तुत करता हूँ…
1. जहाज के पंक्षी
[ श्री रामदेव धुरंधर जी के उपन्यास पथरीला सोना के प्रथम खंड के पंद्रहवे पृष्ठ से ]
जहाजिया भाईयों को लेकर मारीच देश जाने के लिए जहाज कलकत्ता के बंदरगाह से आगे निकला तो इसी के साथ ही आदरणीय धुरंधर जी के पथरीला सोना की भी यात्रा शुरू हो गई। ऐसे मे मैंने भी इस सोने मे से कुछ सोना बटोरने की कोशिश कर दी। पथरीला सोना के प्रथम खंड के पंद्रहवे पेज के एक भाग मे आस पास के दीपो से पँख फैलाये पंक्षी जहाज के मस्तूल पर आकर बैठ गए। ना जाने ये पंक्षी क्या सोच कर और क्या देखने के लिए इस जहाज पर आये होंगे, लेकिन पुस्तक के इस भाग मे लेखक की नजरे जहाज पर उड़ कर आये इन पंक्षियों और जहाज मे सफर कर रहे भारतीय मजदूरों दोनों की की मनोस्थिति को बड़े ही ध्यान से देखने की कोशिश कर रहीं थी।
जहजिया भाई लोगों की आपस की यह चर्चा कि….देखो अब यह पंक्षी जो उड़ कर इस जहाज के मस्तूल पर आकर बैठ गये, यह इस बात का संकेत है, कि जिस देश को हम जा रहे हैं, वह देश अब आने वाला है। लेकिन यह सब बस उनके मन को ढाधस बढ़ाने वाला ही था क्योंकि समुन्दर के आस पास के दीप से आये ये पंक्षी अपने देश को छोड़ने वाले तो बिल्कुल ही नही थे। शायद वे सिर्फ अपनी जमीन छोड़ कर नई जमीन पर अपने पाँव की नई थाप जमाने जा रहे, लोगो के मन के गम और ख़ुशी थाहने आते थे। कुछ ऐसे भी पंक्षी थे, जो यात्रा की शुरुवात मे ही आकर जहाज के मस्तूल पर बैठ गए। यह उनकी भूल हुई, या बदकिस्मती हुई, पता नही क्या पर वे भी इन्हीं भाइयों के साथ यात्रा पर निकल पडे थे तो निकल पडे। लेकिन वे बीच मे उड़ कर कही इसलिए नही जा भी नही सकते थे, क्योंकि वे जिस दीप मे उड़ कर जायेगे, वह तो उनका देश हआ नही और उनको पहचान वाला कोई होगा भी नही। कम से कम वे अपने इन लोगो को पहचानते तो थे।, उनके साथ यात्रा कर रहे थे। लेकिन लेखक को इतना पता जरूर था कि जहाज के साथ मारीशस पहुचने पर इन पंक्षियों के पास अपने पँख है, और अपने चोंच भी हैं। मारिशस के पेड़ो पर अपनी मर्जी उड़ कर बैठ जायेगे, घोसला बना लेगे और चारा भी चुंग लेगे। यदि मन नही लगा तो लौटती जहाज के मस्तूल पर बैठ कर फिर कलकत्ता भी लौट आएंगे। लेकिन जहाज से मारीशस पहुचे इन लोगो के पास न तो उडने के लिए न पँख थे, न बैठने के लिए पेड़ मिलेंगे। इन्हे तो बस एक नई जमीन मिलेगी जिसपर पर उतरना ही होगा। अब “यह जमीन इन्हे जीवन देती है, या मृत्यु।”
लेखक की लेखनी, आगे के भाग या खंडो से जरूर कुछ लिखेगी.. जिसे आगे देखते हैं।
2. सुरेखा का भात
कहानी मर्म को स्पर्श करें तो मार्मिक बन जाती है, और आँखों के सामने नाच जाय, तो जीवंत हो उठती है, जीवंत का अर्थ यह हुआ कि पुरी घटना पढ़ी नही जा रही हो बल्कि लगे की आँखों के आगे भी हो रही हो।
मै बात कर रहा हुँ हिंदी के महान कहानीकार श्री रामदेव धुरंधर जी के कालजयी उपन्यास “पथरीला सोना ” की..
आज सुबह सुबह पथरीला सोना के चतुर्थ खंड को पढ़ने का मन हुआ, सुरेखा का भात थोड़ी लापरवाही से गीला हो सकता था, और उसको इसके लिए सजग रहना भी होगा। चैतन्यता भंग होने की आशंका तो बनी ही रहती है पर उसे चैतन्य रहना होगा क्यों कि भात पसाने में देरी ना हो जाय, तो भात गीला हो सकता है इसका भी खास ख्याल वह रख रही थी। बीच बीच में डेकची से चावल के दाने को उठा कर मीस कर देख लेती कि भात पसाने का वक्त हो गया ..
अब “भात पसाने” और “चावल के दाने को मीस” कर ये दोनों शब्द जब कहानी में जब समाते है, तो मेरे जैसे व्यक्ति को जिसके बचपन की परवरिस गांव के मिट्टी के चूल्हे से शुरू होती हो, उसे तो वे पुराने दिन के भात पसाने की तस्वीर आँखों के सामने नाच जायेगा ही जायेगा। बसर्ते आज हमारे बच्चे जिन्होंने वह माटी वाला चूल्हा और भात पसाना देखा ही ना हो
.. शायद वह भात पसाना भी ना जानते हो। खैर यदि वे आधुनिक युग में लेखन कर रहे होगे या हिंदी के शोधार्थी होंगे तो आदरणीय धुरंधर जी कहानियों से अतीत की जीवन शैली के दृश्य उठा कर अपनी लेखनी को जरूर अमर कर रहे होंगे।
मेरे साथ तो एक घटना घटती है, जब लेखनी को लिखने की धुन समायी हो और पत्नी को मुझे ड्यूटी जाने की तैयारी में जल्दी से भोजन बनाने की धुन समायी हो तो वह प्लेट में लहसुन के जवे लाकर रखते हुए कह देंगी ही कि ये लीजिये इसे जरा जल्दी से छिल दीजिये, देर हो गई है।.. मुझे पता है, यह घटना तो कोई कहे ना कहे गाहे बेगाहे सबके साथ हो ही जाती होगी।
खैर मुझे चंद समय का व्यवधान तो हुआ लेकिन मेरे आज के इस लेख के लिए प्रहसन के लिए कथा वस्तु अवश्य मिल गई..
पत्नी को क्या पता था, कि मै श्री धुरंधर जी की पुस्तक पथरीला सोना से कुछ सोना निकाल कर साहित्य रच रहा हूँ।
अब इस आलेख को विराम देते हुए इतना कहुँगा की, इस कालजयी उपन्यास को जितनी भी बार पढ़ो, नई नई बात निकल कर आती ही आती है।
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख घाव और लगाव। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 255 ☆
☆ साथ और हालात… ☆
साथ देने वाले कभी हालात नहीं देखते और हालात देखने वाले कभी साथ नहीं देते। दोनों विपरीत स्थितियाँ हैं, जो मानव को सोचने पर विवश कर देती हैं। साथ देने वाले अर्थात् सच्चे मित्र व हितैषी कभी हालात नहीं देखते बल्कि विषम परिस्थितियों में भी सदैव अंग-संग खड़े रहते हैं। वे निंदा-स्तुति की तनिक भी परवाह नहीं करते तथा आपकी अनुपस्थिति में भी आपके पक्षधर बन कर खड़े रहते हैं। वे आपकी बुराई करने वालों को मुँहतोड़ जवाब देते हैं। वे समय की धारा के साथ रुख नहीं बदलते बल्कि पर्वत की भांति अडिग व अटल रहते हैं। उनकी सोच व दृष्टिकोण कभी परिवर्तित नहीं होता। वे केवल सुखद क्षणों में ही आपका साथ नहीं निभाते बल्कि विपरीत परिस्थितियों में भी आपके साथ ढाल बनकर खड़े रहते हैं। वे मौसम के साथ नहीं बदलते और ना ही गिरगिट की भांति पलभर में रंग बदलते हैं। उनकी सोच आपके प्रति सदैव समान होती है।
‘दिन रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ-साथ/ फूल और पात बदलते हैं’ शाश्वत् सत्य है तथा स्वरचित पंक्तियाँ उक्त संदेश प्रेषित करती हैं कि प्रकृति के नियम अटल हैं। रात के पश्चात् दिन, अमावस के पश्चात् पूनम व मौसम के साथ फूल-पत्तियाँ बदलती रहती हैं। सुख व दु:ख में परिस्थितियाँ भी समयानुसार परिवर्तित होती रहती हैं। इसलिए मानव को कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए। ‘जो आया है, अवश्य जाएगा’ पंक्तियाँ मानव की नश्वरता पर प्रकाश डालती हैं। मानव इस संसार में खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ ही यहाँ से लौट कर जाना है। ‘मत ग़ुरूर कर बंदे!/ माटी से उपजा प्राणी, माटी में ही मिल जाएगा।’ सो! मानव को स्व-पर, राग-द्वेष, निंदा-स्तुति व हानि-लाभ से ऊपर उठ जाना चाहिए अर्थात् हर परिस्थिति में सम रहना कारग़र है। मानव को इस कटु सत्य को स्वीकार लेना चाहिए कि हालात देखने वाले कभी साथ नहीं देते। वे आपकी पद-प्रतिष्ठा, मान-सम्मान व धन-वैभव से आकर्षित होकर आपका साथ निभाते हैं और तत्पश्चात् रिवाल्विंग चेयर की भांति अपना रुख बदल लेते हैं। जब तक आपके पास पैसा है तथा आपसे उनका व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्ध होता है; वे आपका गुणगान करते हैं। जब आपका समय व दिन बदल जाते हैं; आपदाओं के बादल मँडराते हैं तो वे आपका साथ छोड़ देते हैं और आपके आसपास भी नहीं फटकते।
यह दस्तूर-ए-दुनिया है। जैसे भंवर में फँसी नौका हवाओं के रुख को पहचानती है; उसी दिशा में आगे बढ़ती है, वैसे ही दुनिया के लोग भी अपना व्यवहार परिवर्तित कर लेते हैं। सो! दुनिया के लोगों पर भरोसा करने का कोई औचित्य नहीं है। ‘मत भरोसा कर किसी पर/ सब मिथ्या जग के बंधन हैं/ सांचा नाम प्रभु का/ झूठे सब संबंध हैं/… तू अहंनिष्ठ/ ख़ुद में मग्न रहता/ भुला बैठा अपनी हस्ती को।’ यह दुनिया का चलन है और प्रचलित सत्य है। उपरोक्त पंक्तियाँ साँसारिक बंधनों व मिथ्या रिश्ते-नातों के सत्य को उजागर करती हैं तथा मानव को किसी पर भरोसा न करने का संदेश प्रेषित करते हुए आत्म-चिंतन करने को विवश करती हैं।
मुझे स्मरण हो रहा है जेम्स ऐलन का निम्न कथन कि ‘जिसकी नीयत अच्छी नहीं होती, उससे कोई महत्वपूर्ण कार्य सिद्ध नहीं होता।’
वैसे नीयत व नियति का गहन संबंध है तथा वे अन्योन्याश्रित हैं। यदि नीयत अच्छी व सोच सकारात्मक होगी, तो नियति हमारा साथ अवश्य देगी। इसलिए प्रभु की सत्ता में सदैव विश्वास रखिए, सब अच्छा, शुभ व मंगलकारी होगा। वैसे भी मानव को हंस की भांति निश्चिंत व विवेकशील होना चाहिए। जो मनभावन है, उसे संजो लीजिए और जो अच्छा ना लगे, उसकी आलोचना मत कीजिए, क्योंकि विवाह के सभी गीत सत्य नहीं होते। सो! मानव को आत्मकेंद्रित होना चाहिए और विपरीत परिस्थितियों में धैर्य, साहस व अपना आपा नहीं खोना चाहिए, क्योंकि हर इंसान सुखापेक्षी है। वह अपने दु:खों से अधिक दूसरों के सुखों से अधिक दु:खी रहता है। इसलिए दु:ख में वह आगामी आशंकाओं को देखते हुए अपने साथी तक को भी त्याग देता है, क्योंकि वह किसी प्रकार का खतरा मोल लेना नहीं चाहता।
‘अगर आप सही अनुभव नहीं लेते, तो निश्चित् है आप ग़लत निर्णय लेंगे।’ हेज़लिट का यह कथन अनुभव व निर्णय के अन्योन्याश्रित संबंध पर प्रकाश डालते हैं। हमारे अनुभव हमारे निर्णय को प्रभावित करते हैं, क्योंकि जैसी सोच वैसा अनुभव व निर्णय। मानव का स्वभाव है कि वह आँखिन देखी पर विश्वास करता है, क्योंकि वह सत्यान्वेषी होता है।
‘मानव मस्तिष्क पैराशूट की तरह है, जब तक खुला रहता है; तभी तक का सक्रिय व कर्मशील रहता है।’ लार्ड डेवन की उपर्युक्त उक्ति मस्तिष्क की क्रियाशीलता पर प्रकाश डालती है, जो स्वतंत्र चिंतन की द्योतक है। यदि इंसान संकीर्ण मानसिकता में उलझा रहता है, तो उसका दृष्टिकोण उदार व उत्तम कैसे हो सकता है? ऐसा व्यक्ति दूसरों के हित के बारे में कभी चिंतित नहीं रहता बल्कि स्वार्थ साधने के निमित्त कार्यरत रहता है। उसे विश्वास पात्र समझने की भूल करना सदैव हानिकारक होता है। ऐसे लोग कभी आपके हितैषी नहीं हो सकते। जैसे साँप को जितना भी दूध पिलाया जाए, वह डंक मारने की आदत का त्याग नहीं करता। वैसे ही हालात को देखकर निर्णय लेने वाले लोग कभी सच्चे साथी नहीं हो सकते, उन पर विश्वास करना जीवन की सबसे बड़ी अक्षम्य भूल है।