हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #267 ☆ बढ़ती संवेदनशून्यता– कितनी घातक… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख बढ़ती संवेदनशून्यता– कितनी घातक। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 267 ☆

☆ बढ़ती संवेदनशून्यता– कितनी घातक… ☆

‘कुछ अदालतें वक्त की होती हैं, क्योंकि जब समय जवाब देता है, ग़वाहों की ज़रूरत नहीं होती और सीधा फैसला होता है’ कोटिशः सत्य हैं और आजकल इनकी दरक़ार है। आपाधापी व दहशत भरे माहौल में चहुँओर अविश्वास का वातावरण तेज़ी से फैल रहा है।  हर दिन समाज में घटित होने वाली फ़िरौती, दुष्कर्म व हत्या के हादसों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। संवेदनहीनता इस क़दर बढ़ रही है कि इंसान इनका विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाता बल्कि ग़वाही देने से भी भयभीत रहता है, क्योंकि वह हर पल दहशत में जीता है और सदैव आशंकित रहता है कि यदि उसने ऐसा कदम उठाया तो वह और उसका परिवार सुरक्षित नहीं रहेगा। सो! उसे ना चाहते हुए भी नेत्र मूँदकर जीना पड़ता है।

आजकल किडनैपिंग अर्थात् अपहरण का धंधा ज़ोरों पर है। अपहरण बच्चों का हो, युवकों-यवतियों का– अंजाम एक ही होता है। फ़िरौती ना मिलने पर उसे मौत के घाट उतार दिया जाता है या हाथ-पाँव तोड़कर बच्चों से भीख मंगवाने का धंधा कराया जाता है या ग़लत धंधे में झोंक दिया जाता है, जहाँ वे दलदल में फंस कर रह जाते हैं। जहाँ तक बालिकाओं के अपहरण का संबंध है, उनकी अस्मिता से खिलवाड़ होता है और उन्हें दहिक शोषण के धंधे में धकेल कोठों पर पहुंचा दिया जाता है। वहाँ उन्हें 30-40 लोगों की हवस का शिकार बनना पड़ता है। रात के अंधेरे में सफेदपोश लोग उन बंद गलियों में आते हैं, अपनी दैहिक क्षुधा शांत कर भोर होने से पहले लौट जाते हैं, ताकि वे समाज के समक्ष दूध के धुले बने रहें और सारा इल्ज़ाम उन  मासूम बालिकाओं व कोठों के संचालकों पर रहे।

जी हाँ! यही है दस्तूर-ए-दुनिया अर्थात् ‘शक्तिशाली विजयी भव’ अर्थात् दोषारोपण सदैव दुर्बल व्यक्ति पर ही किया जाता है, क्योंकि उसमें विरोध करने की शक्ति नहीं होती और यह सबसे बड़ा अपराध है। गीता में यह उपदेश दिया गया है कि ज़ुल्म करने वाले से बड़ा दोषी ज़ुल्म सहने वाला होता है। अमुक स्थिति में हमारी सहनशक्ति हमारे दुश्मन होती है, अर्थात् इंसान स्वयं अपना शत्रु बन जाता है, क्योकि वह ग़लत बातों का विरोध करने का सामर्थ्य नहीं रखता। मेरे विचार से जिस व्यक्ति में ग़लत को ग़लत कहने का साहस नहीं होता, उसे जीने का अधिकार नहीं होना चाहिए। सत्य की स्वीकार्यता व्यक्ति का सर्वोत्तम गुण है और इसे अहमियत ना देना जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है।

आजकल लिव-इन का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। इसमें दोष युवतियों का है, जो अपने माता-पिता के प्यार-दुलार को दरक़िनार कर, उनकी अस्मिता को दाँव पर लगाकर एक अनजान व्यक्ति पर अंधविश्वास कर चल देती है उसके साथ विवाह पूरव उसके साथ रहने ताकि वह उसे देख-परख व समझ सके। परंतु कुछ समय पश्चात् जब वह पुरुष साथी से विवाह करने को कहती है, तो वह उसकी आवश्यकता को नकारते हुए यही कहता है कि विवाह करके ज़िम्मेदारियों का बोझ ढोनेने का प्रयोजन क्या है– यह तो बेमानी है। परंतु उसके आग्रह करने पर प्रारंभ हो जाता है मारपीट का सिलसिला, जहाँ उसे शारीरिक व मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है। श्रद्धा व आफ़ताब, निक्की व साहिल जैसे जघन्य अपराधों में दिन-प्रतिदिन इज़ाफा होता जा रहा है। युवतियों के शरीर के टुकड़े करके फ्रिज में रखना, उन्हें निर्जन स्थान पर जाकर फेंकना इंसानियत की सभी हदों को पार कर जाता है। साहिल का निक्की की हत्या करने के पश्चात् दूसरा विवाह रचाना सोचने पर विवश कर देता है कि इंसान इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है? यह तो संवेदनशून्यता की पराकाष्ठा है। मैं इस अपराध के लिए उन लड़कियों को दोषी मानती हूँ, जो हमारी सनातन संस्कृति का अनुकरण न कर पाश्चात्य की जूठन स्वीकार करने में फख़्र महसूसती हैं। वैसे ही पित्तृसत्तात्मक युग में हम यह  अपेक्षा कैसे कर सकते हैं कि पुरुष की सोच बदल सकती है। वह तो पहले ही स्त्री को अपनी धरोहर / बपौती समझता था। आज भी वह उसे उसका मालिक समझता है तथा जब चाहे उसे घर से बाहर का रास्ता दिखा सकता है। उसकी स्थिति खाली बोतल के समान है, जिसे वह बीच राह फेंक सकता है; वह उस पर शक़ के दायरे में अवैध संबंधों का  इल्ज़ाम लगा पत्नी व बच्चों की निर्मम हत्या कर सकता है।  वास्तव में पुरुष स्वयं को सर्वश्रेष्ठ ही नहीं, ख़ुदा समझता है, क्योंकि उसे कन्या-भ्रूण को नष्ट करने का अधिकार प्राप्त है।

‘औरत में जन्म दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया / जब जी चाहा मसला-कुचला, जब जी चाहा दुत्कार दिया।’ ये पंक्तियाँ औरत की नियति को उजागर करती हैं। वह अपनी जीवन-संगिनी को अपने दोस्तों के हम-बिस्तर बनाने का जघन्य अपराध कर सकता है। वह पत्नी पर अकारण इल्ज़ाम लगा कटघरे में खड़ा सकता है। वैसे भी उस मासूम को अपना पक्ष रखने का अधिकार प्रदान ही कहाँ किया जाता है? कचहरी में भी क़ातिल को भी अपना पक्ष रखने व स्पष्टीकरण देने का अधिकार होता है। इतना ही नहीं एक दुष्कर्मी पैसे व रुतबे के बल पर उस मासूम की जिंदगी के सौदे की पेशकश करने को स्वतंत्र है और उसके माता-पिता उसे दुष्कर्मी के हाथों सौंपने को तैयार हो जाते हैं।

वास्तव में दोषी तो उसके माता-पिता हैं जो अपनी नादान बच्ची पर भरोसा नहीं करते। वैसे भी वे अंतर्जातीय विवाह की एवज़ में कभी ऑनर किलिंग करते हैं, तो कभी दुष्कर्म का हादसा होने पर समाज में निंदा के भय से उसका तिरस्कार कर देते हैं। उस स्थिति में वे भूल जाते हैं कि वे उस निर्दोष बच्ची के जन्मदाजा हैं। वे उसकी मानसिक स्थिति को अनुभव न करते हुए उसे घर में कदम तक नहीं रखने देते। अच्छा था, तुम मर जाती और उसकी ज़िंदगी नरक बन जाती है। अक्सर ऐसी लड़कियाँ आत्महत्या कर लेती हैं या हर दिन ना जाने वे कितने सफेदपोश मनचलों की हमबिस्तर बनने को विवश होती हैं। काश! हम अपने बेटे- बेटियों को बचपन से यह एहसास दिला पाते कि वे अपने संस्कारों अथवा मिट्टी से जुड़े रहते व सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करते। वे उसे आश्वस्त कर पाते कि यह घर उसका भी है और वह जब चाहे, वहाँ आ सकती है।

यदि हम परमात्मा की सत्ता पर विश्वास रखते हैं, तो हमें इस तथ्य को स्वीकारना पड़ेगा कि परमात्मा की लाठी में आवाज़ नहीं होती और कुछ फैसले रब्ब के होते हैं और जब समय जवाब देता है तो ग़वाहों की ज़रूरत नहीं होती– सीधा फैसला होता है। कानून तो अंधा व बहरा है, जो गवाहों पर आश्रित होता है और उनके न मिलने पर जघन्य अपराधी भी छूट जाते हैं और निकल पड़ते हैं अगले शिकार की तलाश में और यह सिलसिला थमने का नाम नहीं लेता। हमारे यहाँ फ़ैसले बरसों बाद होते हैं, जब उनकी अहमियत ही नहीं रहती। इतना ही नहीं, मी टू ने भी अपना खाता खोल दिया है। पच्चीस वर्ष पहले घटित हादसे को भी उजागर कर, आरोपी पर इल्ज़ाम लगा हंसते-खेलते परिवार की खुशियों में सेंध लगा लील सकती हैं; उन्हें कटघरे में खड़ा कर सकती हैं। वैसे यह दोनों स्थितियाँ विस्फोटक हैं, लाइलाज हैं, जिसके कारण समाज में विसंगति व विद्रूपताएं निरंतर बढ़ गई हैं, जो स्वस्थ समाज के लिए घातक हैं।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस ? ?

आज अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस है। विभाजन के बाद पाकिस्तान ने उर्दू को अपनी राजभाषा घोषित किया था। पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) बांग्लाभाषी था। वहाँ छात्रों ने बांग्ला को द्वितीय राजभाषा का स्थान देने के लिए मोर्चा निकाला। बदले में उन्हें गोलियाँ मिली। इस घटना ने तूल पकड़ा। बाद में 1971 में भारत की सहायता से बांग्लादेश स्वतंत्र राष्ट्र बन गया।

1952 की इस घटना के परिप्रेक्ष्य में 1999 में यूनेस्को ने 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस घोषित किया।

आज का दिन हर भाषा के सम्मान, बहुभाषावाद एवं बहुसांस्कृतिक समन्वय के संकल्प के प्रति स्वयं को समर्पित करने का है।

मातृभाषा मनुष्य के सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मातृभाषा की जड़ों में उस भूभाग की लोकसंस्कृति होती है। इस तरह भाषा के माध्यम से संस्कृति का जतन और प्रसार भी होता है। भारतेंदु जी के शब्दों में,

‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल/ बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।’

हृदय के शूल को मिटाने के लिए हम मातृभाषा में आरंभिक शिक्षा की मांग और समर्थन सदैव करते रहे। आनंद की बात है कि करोड़ों भारतीयों की इस मांग और प्राकृतिक अधिकार को पहली बार भारत सरकार ने शिक्षानीति में सम्मिलित किया। नयी शिक्षानीति आम भारतीयों और भाषाविदों-भाषाप्रेमियों की इच्छा का दस्तावेज़ीकरण है। हम सबको इस नीति के क्रियान्वयन से अपरिमित आशाएँ हैं।

विश्वास है कि यह संकल्प दिवस, आनेवाले समय में सिद्धि दिवस के रूप में मनाया जाएगा। अपेक्षा है कि भारतीय भाषाओं के संवर्धन एवं प्रसार के लिए हम सब अखंड कार्य करते करें। सभी मित्रों को शुभकामनाएँ।

संजय भारद्वाज
अध्यक्ष, हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे
?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

 🕉️ इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 610 ⇒ उस्तरा (R A Z O R) ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “उस्तरा।)

?अभी अभी # 610 ⇒ उस्तरा (R A Z O R) ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हम जिस तरह के उस्तरे की बात कर रहे हैं, उस तरह का उस्तरा केवल बाल काटने और हजामत बनाने वाले हज्जाम के पास ही होता है। प्रचलित भाषा में हम उसे नाई कहते हैं और पढ़े लिखे लोग उसे बार्बर (barber) कहते हैं। इनके संस्थान को कभी केश कर्तनालय अथवा हेयर कटिंग सैलून कहा जाता था।

याद कीजिए दाढ़ी बनाने वाले रेजर और रेजर ब्लेड को। अशोका, टोपाज, इरेस्मिक, विल्टेज, विल्किंसन और जिलेट ब्लेड को। कितने काम की होती थी एक रेजर ब्लेड! भले ही उंगली कट जाए, लेकिन पेंसिल ब्लेड से ही छीलते थे। तब के रबर और चक्कू ही तो आज के इरेज़र (eraser) और शार्पनर (sharpner) हैं। लेकिन जो बात उस्तरे में है, वह आज के इलेक्ट्रिक शेवर में कहां।।

उस्तरा एक जमाने में नाई का प्रमुख औजार होता था। आपकी दाढ़ी यानी हजामत बनाने के पहले एक शेविंग ब्रश से आपके खुरदुरे गालों वाली दाढ़ी पर ख़ूब सारा खुशबूदार शविंग क्रीम लगा दिया जाता था। एक अच्छे भले नौजवान को, शेविंग क्रीम पोत पोतकर, सफेद झाग वाला बाबा बना दिया जाता था। उसके बाद निकलता था ब्रह्मास्त्र यानी उस्तरा। उसे पहले एक काली रबड़ की पट्टी पर फेर फेरकर तेज किया जाता था और उसके बाद तबीयत से गर्दन घुमा घुमाकर हजामत बनाई जाती थी।

अक्सर यह टू इन वन पैकेज ही होता था, यानी दाढ़ी और कटिंग एक साथ। मेरे जैसे कंजूस लोग उसी दिन घर से ही शेव करके जाते थे। फिर भी वह अपनी आदत से बाज नहीं आता था। एक बार पूछता जरूर था, शेविंग कर दूं। अच्छी नहीं बनी है।।

एक समय था जब विशेष अवसरों पर हजामत और बाल काटने की घर पहुंच सुविधा भी उपलब्ध हो जाती थी। तब यह पारिवारिक रस्म खुले आंगन में ही संपन्न की जाती थी। बार्बर महोदय अपना टूल बॉक्स लेकर घर ही पधार जाते थे। जो पेशेवर बाराती होते हैं, वे हर बारात में इसका भरपूर लाभ उठाने से नहीं चूकते।

बाल बढ़ने पर कटिंग कराना भले ही मेरी मजबूरी हो, मैं वहां कभी हजामत नहीं बनवाता। नाई का उस्तरा और अपना सर। वह बड़े प्रेम से बातों में उलझाता, पूरी फसल कब काट लेता है, कुछ पता ही नहीं चलता। पुताई जैसे दाढ़ी पर भी दो दो हाथ चलते हैं। कभी कभी बातों बातों में थोड़ा कट भी जाता है। बड़ी कड़क दाढ़ी है आपकी, एकदम खुरदुरी, सफाई पेश की जाती है। उसका कागज में आफ्टर शेव का झाग वाला साबुन समेटना मुझे पसंद नहीं।।

आजकल के उस्तरों का वह स्तर कहां ! आज के आधुनिक उस्तरो में भी रेजर ब्लेड ही लगाई जाने लगी है। अब पहले जैसी उस्तरे की धार तेज नहीं करनी पड़ती। हम जैसे पुराने लोग ही उनके ग्राहक होते हैं। नई पीढ़ी के लिए तो सर्व सुविधायुक्त मैन्स ‘ पार्लर हैं ना।

वह नाई ही क्या, जिसके हाथ में उस्तरा ना हो। एक जमाना वह भी था, जब समाज और कुटुंब के बुलावे के लिए नाई घर घर आता था, बोलकर संदेश दे जाता था। यानी बेचारा नाई मैसेंजर का काम भी करता था। मोबाइल में व्हाट्सअप संदेश तो अब आने लगे हैं। कितना छोटा शहर था तब, लेकिन कितना परिचित, घर घर संदेश पहुंचाता नाई। अब तो शादी के आमंत्रण भी pdf में आने लग गए हैं। बिना उस्तरे की पांच सौ की घर बैठे हजामत तय है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 233 ☆ सर्वे भवन्तु सुखिनः… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना सर्वे भवन्तु सुखिनः। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 233 ☆ सर्वे भवन्तु सुखिनः

लोगों के मेलजोल का पर्व महाकुम्भ है, अथक परिश्रम, लंबा जाम, कई किलोमीटर की पैदल यात्रा के वावजूद लोग सपरिवार आस्था की डुबकी लगाने प्रयागराज आ रहे हैं। धैर्य के साथ जब कोई कार्य किया जाएगा तो उसके परिणाम सुखद होंगे। भारत के कोने- कोने से आते हुए लोग एकदूसरे को समझने का भाव रखते हैं। वास्तव में भारत की यही सच्ची तस्वीर है। यही कल्पना हमारे ऋषिमुनियों ने की थी जिसे योगी सरकार ने साकार कर दिया है।

माना कि कुछ असुविधा हो रही है किंतु जब नियत अच्छी हो तो ये सब स्वीकार्य है।

हमारे आचरण का निर्धारण कर्मों के द्वारा होता है। यदि उपयोगी कार्यशैली है तो हमेशा ही सबके चहेते बनकर लोकप्रिय बनें रहेंगे। रिश्तों में जब लाभ -हानि की घुसपैठ हो जाती है तो कटुता घर कर लेती है। अपने आप को सहज बना कर रखें जिससे लोगों को असुविधा न हो और जीवन मूल्य सुरक्षित रह सकें।

कोई भी कार्य करो सामने दो विकल्प रहते हैं जो सही है वो किया जाय या जिस पर सर्व सहमति हो वो किया जाए। अधिकांश लोग सबके साथ जाने में ही भलाई समझते हैं क्योंकि इससे हार का खतरा नहीं रहता साथ ही कम परिश्रम में अधिक उपलब्धि भी मिल जाती है।

सब कुछ मिल जायेगा पर कुछ नया सीखने व करने को नहीं मिलेगा यदि पूरी हिम्मत के साथ सच को स्वीकार करने की क्षमता आप में नहीं है तो आपकी जीत सुनिश्चित नहीं हो सकती।

शिखर तक पहुँचने का रास्ता आसान नहीं होता किन्तु इतना कठिन भी नहीं होता कि आप के दृढ़संकल्प से जीत सके। तो बस जो सही है वही करें उचित मार्गदर्शन लेकर, पूर्ण योजना के साथ।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 609 ⇒ परीक्षा की घड़ी ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “परीक्षा की घड़ी।)

?अभी अभी # 609 ⇒ परीक्षा की घड़ी ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आपने कलाई घड़ी देखी होगी, दीवार घड़ी देखी होगी, टेबल क्लॉक भी देखी होगी, जिसे अलार्म क्लॉक भी कहते थे। जिन्होंने कोई घड़ी नहीं देखी, उन्होंने नूरजहां और सुरैया – सुरेन्द्र की अनमोल घड़ी तो अवश्य ही देखी होगी। आवाज़ दे कहां है, दुनिया मेरी जवां है।

समय गतिमान है, चलायमान है। घड़ी कहीं जाती नहीं, फिर भी चलती रहती है। टिक, टिक, टिक चलती जाए घड़ी। घड़ी समय बताती है। घड़ी के कांटे सेकंड, मिनिट व घंटा दर्शाते हैं जब कि एक कैलेंडर दिन, महीने और साल दर्शाता है। जब सब कुछ नहीं था, तब भी समय था। जब सब कुछ नहीं रहेगा, तब भी समय मौजूद रहेगा।।

हमें परीक्षा के समय, घड़ी की बहुत याद आती थी। परीक्षा की तैयारी के लिए प्रिपरेशन लीव लग जाती। समय के पांव लग जाते। जैसे जैसे परीक्षा की घड़ी नजदीक आती, हम लोग टाइम टेबल बनाने बैठ जाते। टेबल पर एक टाइम पीस की भी ज़रूरत पड़ती, रात को जल्दी सोने और सवेरे जल्दी उठकर पढ़ने के लिए। जागने के अलार्म से हमारे अलावा सब जाग जाते थे। जितनी नींद परीक्षा के दिनों में आती थी, उतनी बाद में जीवन में कभी नहीं आई।

और आखिर वह दिन आ ही जाता, जिसका साल भर से इंतज़ार था। परीक्षा की घड़ी। समय इतना कीमती कभी नहीं हुआ। एक घड़ी कलाई पर भी सुशोभित हो जाती थी। समय से पहले परीक्षा हॉल में पहुंचना, असली जियरा धक धक तो वहीं होता था, लेकिन तब आंखों के सामने धक धक गर्ल नहीं, परीक्षा पत्र घूम रहा होता था।।

समय २.३० घंटे। सभी प्रश्न अनिवार्य हैं। सरसरी निगाह से प्रश्न पत्र को पढ़ा जाता फिर श्री गणेशाय नमः लिखकर प्रश्न पत्र हल किया जाता। बार बार घड़ी पर निगाह जाती। लगता, घड़ी बहुत तेज चल रही है। समय कम पड़ रहा है। इतने में एक सज्जन उठते, विजयी मुद्रा में सबको देखते हुए उत्तर पुस्तिका निरीक्षक महोदय को सौंप बाहर निकल जाते। सभी जानते थे, उन्हें सफाई के पूरे नंबर अवश्य मिलेंगे और अगले वर्ष भी वे इसी कक्षा में मिलेंगे।

प्रश्न हल हों, न हों, परीक्षा की घड़ी को तो समाप्त होना ही है। आखिर आगे जीवन का इम्तहान भी तो देना है। कभी सुख के पल, तो कभी दुख की घड़ी। सुख के पलों के तो पंख लगे होते हैं, लेकिन दुख के दिन, बीतत नाहिं।।

नेपथ्य में सचिन देव बर्मन की आवाज गूंज रही है ;

यहां कौन है तेरा, मुसाफिर जाएगा कहां !

दम ले ले घड़ी भर, ये छैंया पाएगा कहां।

परीक्षा की घड़ी में केवल धैर्य ही काम आता है। समय कब किसी के लिए रुका है। किसी ने सही कहा है ;

समय का पंछी उड़ता जाए।

एक काला, एक उजला, पर फैलाए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – रहस्य ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – रहस्य ? ?

– कितना गूढ़ रहस्य हो तुम? बार-बार बार पढ़ता हूँ और हर बार बदला हुआ अर्थ पाता हूँ।

– मैं तो खुली किताब हूँ। कहीं से भी पढ़ सकते हो। …हाँ, पर याद रहे, जब भी पढ़ोगे, एक नए अर्थ के साथ मिलूँगा।…और इसका कारण मैं नहीं, स्वयं तुम हो। जानते हो क्यों? …क्योंकि हर बार तुम्हारा अनुभव अधिक समृद्ध हो जाता है। हर बार तुम नई दृष्टि से मुझे पढ़ते हो और अर्थ नया हो जाता है।

?

© संजय भारद्वाज  

11:07 बजे , 3.2.2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 608 ⇒ पवन-मुक्तासन ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पवन-मुक्तासन।)

?अभी अभी # 608 ⇒ पवन-मुक्तासन ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

पवन तो वैसे ही मुक्त है, हम उसे और मुक्त क्या करेंगे। पंच तत्वों में वायु भी एक प्रमुख तत्व है। हमारी सृष्टि और देह दोनों ही इन पंच-तत्वों से निर्मित हुई है। वायु जिसे आप हवा भी कह सकते हैं, मुक्त तो है ही, कलयुग होते हुए भी आज तक मुफ़्त भी है। हमने पानी तक तो बेच दिया, अब हवा की बारी है। मैंने एक पेट्रोल पंप पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखा देखा, मुफ़्त हवा ! मुझे बड़ी खुशी हुई, सोचा चलो हवा तो मुफ्त है। ज़माने की हवा, और बढ़ते प्रदूषण में अगर कहीं ताज़ी हवा मिल जाए, तो मुँह से वाह नहीं, वाह वाह निकलता है।

ओ बसंती पवन पागल ! ना जा रे ना जा, रोको कोई। लेकिन कौन रोक पाया इस पागल पवन को ! इसे मुक्त ही रहने दो। योग के आठ अंगों में से एक अंग आसन है, वैसे तो इंसान की जितनी योनियाँ, उतने आसन, लेकिन एक आसन पवन-मुक्तासन भी है, जो शरीर की अपान वायु को मुक्त कर, पान-अपान का संतुलन बनाए रखता है।।

हमारे शरीर में पान अपान वायु का ही नहीं, व्यान, उदान और समान का भी अस्तित्व है। अपान वायु को बोलचाल की भाषा में वायु विकार कहते हैं। जो नियमित प्राणायाम नहीं कर पाते, वे पवन मुक्तासन से ही काम चला सकते हैं।

रात में जो अधिक देरी से भोजन करते हैं, देर रात की पार्टियों में गरिष्ठ, स्वादिष्ट और स्पाइसी खाना सूत लेते हैं, वे वायु-विकार को भी न्यौता दे चुके होते हैं। केवल एक पान खा लेने से अपान का तो बाल भी बाँका नहीं हो पाता।।

सुबह उठते ही अगर थोड़ा कुनकुना पानी पीकर पवन मुक्तासन कर लिया जाए, तो दिन भर के वायु विकार से कुछ हद तक मुक्ति तो मिल ही जाए। पुराने घरों में सुबह सुबह बुजुर्गों के मुँह से मंत्रों के बीच, वातावरण में एक आवाज़ और गूँजती थी, जिसका, घर का हर सदस्य आदी हो चुका होता था। हाँ, छोटे छोटे बच्चे कुछ समझ नहीं पाते थे।

आयुर्वेद के हिसाब से हमारे शरीर की हर बीमारी की जड़ पेट की खराबी है। पेट में रात का खाना जो पच नहीं पाता, वह अपच, खट्टी डकार, एसिडिटी और वायु विकार को जन्म देता है। वैद्यराज मरीज की नाड़ी देखते ही कोष्ठबद्धता घोषित कर देते हैं, और इसबगोल और एनीमा पर उतर आते हैं।।

पहला सुख निरोगी काया, दूसरा सुख, जेब में हो माया ! जेब में तो बहुत माल भरा है, और पेट में कचरा, तो ऊपर से तो सब अच्छा अच्छा, यानी गुड गुड, और अंदर पेट में गुड़-गुड़। और ऐसे में अगर पवन मुक्त हो गई, तो शरमासन और मुक्त-हँसासन। इससे बेहतर सुबह कुछ समय हल्के व्यायाम, योगासन एवं प्राणायाम को दिया जाए, खुद भी खुली हवा में साँस लें और औरों को भी लेने दें।

कल शाम ही एक शोक-सभा में किसी ने गुप्त-पवन मुक्तासन कर दिया, कुछ ने आँखों के आँसू पोंछने के बहाने रूमाल निकाले, तो कुछ शोक सभा अधूरी छोड़कर ताज़ी बासंती हवा खाने हॉल के बाहर चले गए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

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मो 8319180002≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ढाई आखर ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – ढाई आखर ? ?

प्रेम अबूझ, प्रेम अपरिभाषित…, प्रेम अनुभूत, प्रेम अनभिव्यक्त..। प्रेम ऐसा मोहपाश जो बंधनों से मुक्त कर दे, प्रेम क्षितिज का ऐसा आभास जो धरती और आकाश को पाश में आबद्ध कर दे। प्रेम द्वैत का ऐसा डाहिया भाव कि किसीकी दृष्टि अपनी सृष्टि में देख न सके, प्रेम अद्वैत का ऐसा अनन्य भाव कि अपनी दृष्टि में हरेक की सृष्टि देखने लगे।

ब्रजपर्व पूर्ण हुआ। कर्तव्य और जीवन के उद्देश्य ने पुकारा। गोविंद द्वारिका चले। ब्रज छोड़कर जाते कान्हा को पुकारती सुधबुध भूली राधारानी ऐसी कृष्णमय हुई कि ‘कान्हा, कान्हा’ पुकारने के बजाय ‘राधे, राधे’ की टेर लगाने लगी। अद्वैत जब अनन्य हो जाता है राधा और कृष्ण, राधेकृष्ण हो जाते हैं। योगेश्वर स्वयं कहते हैं, नंदलाल और वृषभानुजा एक ही हैं। उनमें अंतर नहीं है।

रासरचैया से रासेश्वरी राधिका ने पूछा, “कान्हा, बताओ, मैं कहाँ-कहाँ हूँ?” गोपाल ने कहा, “राधे, तुम मेरे हृदय में हो।” विराट रूपधारी के हृदय में होना अर्थात अखिल ब्रह्मांड में होना।..”तुम मेरे प्राण में हो, तुम मेरे श्वास में हो।” जगदीश के प्राण और श्वास में होना अर्थात पंचतत्व में होना, क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर में होना।..”तुम मेरे सामर्थ्य में हो।” स्रष्टा के सामर्थ्य में होना अर्थात मुरलीधर को गिरिधर करने की प्रेरणा होना। कृष्ण ने नश्वर अवतार लिया हो या सनातन ईश्वर होकर विराजें हों, राधारानी साथ रहीं सो कृष्ण की बात रही।

“लघुत्तम से लेकर महत्तम चराचर में हो। राधे तुम यत्र, तत्र, सर्वत्र हो।”

श्रीराधे ने इठलाकर पूछा, “अच्छा अब बताओ, मैं कहाँ नहीं हूँ?” योगेश्वर ने गंभीर स्वर में कहा, “राधे, तुम मेरे भाग्य में नहीं हो।”

प्रेम का भाग्य मिलन है या प्रेम का सौभाग्य बिछोह है? प्रेम की परिधि देह है या देहातीत होना प्रेम का व्यास है?

परिभाषित हो न हो, बूझा जाय या न जाय, प्रेम ऐसी भावना है जिसमें अनंत संभावना है।कर्तव्य ने कृष्ण को द्वारिकाधीश के रूप में आसीन किया तो प्रेम ने राधारानी को वृंदावन की पटरानी घोषित किया। ब्रज की हर धारा, राधा है। ब्रज की रज राधा है, ब्रज का कण-कण राधा है, तभी तो मीरा ने गुसाईं जी से पूछा था, “ठाकुर जी के सिवा क्या ब्रज में कोई अन्य पुरुष भी है?”

प्रेमरस के बिना जीवनघट रीता है। जिसके जीवन में प्रेम अंतर्भूत है, उसका जीवन अभिभूत है। विशेष बात यह कि अभिभूत करनेवाली यह अनुभूति न उपजाई न जा सकती है न खरीदी जा सकती है।

प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय

राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।

इस ढाई आखर को मापने के लिए वामन अवतार के तीन कदम भी कम पड़ जाएँ!

?

© संजय भारद्वाज  

11:07 बजे , 3.2.2021

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 607 ⇒ निःशुल्क ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “निःशुल्क।)

?अभी अभी # 607 ⇒ निःशुल्क ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

निःशुल्क कहें या मुफ़्त ! क्या कोई फर्क पड़ता है। मुफ़्तखोर पहले तो मुफ्त का माल ढूँढते हैं और बाद में निःशुल्क शौचालय तलाश करते हैं। 25 %डिस्काउंट और बिग बाजार के महा सेल में एक के साथ एक फ्री को आप क्या कहेंगे। वहाँ छूट भी है, मुफ्त भी है और शुल्क भी। लेकिन निःशुल्क कुछ भी नहीं है।

हमारे घर अखबार आता है, उस पर शुल्क लिखा होता है। वही अखबार अगर आप पड़ोसी के यहाँ अथवा वाचनालय में पढ़ते हैं, तो निःशुल्क हो जाता है।।

गर्मी में दानदाता और पारमार्थिक संस्थाएँ जगह जगह ठंडे पानी की प्याऊ खोलते थे,  वे निःशुल्क होती थी लेकिन उन पर ऐसा लिखा नहीं होता था, क्योंकि तब पीने के पानी के पैसे नहीं लिए जाते थे। जब से पीने का पानी बोतलों में बंद होने लगा है, वह बिकाऊ हो गया है।

घोर गर्मी और पानी के अभाव में नगर पालिका पानी के टैंकरों से निःशुल्क जल-प्रदाय करती थी। लोग पानी के टैंकर के आगे बर्तनों की लाइन लगा दिया करते थे। सार्वजनिक स्थानों के नल और ट्यूब वेल की भी यही स्थिति होती थी। लेकिन पानी बेचा नहीं जाता था।।

समय के साथ पानी के भाव बढ़ने लगे। नई विकसित होती कालोनियों के बोरिंग सूखने लगे। पानी बेचना व्यवसाय हो गया। प्राइवेट पानी के टैंकर सड़कों पर दौड़ने लगे। अब पानी निःशुल्क नहीं मिलता।

शहरों में चिकित्सा बहुत महँगी है ! एलोपैथी के डॉक्टर कंसल्टेशन फीस लेते हैं, वे मुफ्त में इलाज नहीं करते। आयुर्वेदिक चिकित्सा में निःशुल्क परामर्श उपलब्ध होता है। पातंजल औषधालय हो अथवा कोई आयुर्वेदिक दुकान, निःशुल्क चिकित्सा के बोर्ड लगे देखे जा सकते हैं। बस दवाइयों की कीमत मत पूछिए।।

कुछ नागरिक, समाजसेवी संस्थाओं को अपनी स्वैच्छिक सेवाएँ प्रदान करते हैं। मुफ़्त सलाह और निःशुल्क सेवाएं देने वाले को मानद भी कहते हैं। उनकी निःशुल्क सेवाओं को सम्मान प्रदान करने के लिए अंग्रेज़ी में एक शब्द गढ़ा गया है,  ऑनरेरी।

समाज की विभिन्न विधाओं में निःस्वार्थ सेवाएं प्रदान करने वाले विशिष्ट व्यक्तियों को ऑनरेरी डॉक्टर ऑफ लॉज़ की डिग्री से विभूषित किया जाता है। इनमें ललित कलाओं में पारंगत विद्वानों और कलाकारों को बिना डिग्री के डॉक्टर बना दिया जाता है। किसी भी सेलिब्रिटी को ऐसा डॉक्टर बनने में ज़्यादा वक्त नहीं लगता।।

क्या मनुष्य जीवन हमें माँगने से मिला है,  या फिर हमने इसकी कोई कीमत चुकाई है ? मुफ़्त में कहें,  या निःशुल्क मिली यह ज़िन्दगी कितनी अनमोल है। ‌अक्सर लोग बड़े शिकायत भरे लहजे में कहते हैं, हमने पूरी ज़िंदगी निःस्वार्थ सेवा और त्याग में बिता दी और बदले में हमें क्या मिला।

‌वे भूल जाते हैं, इतना बहुमूल्य मानव जीवन उन्हें बिना कौड़ी खर्च किये मिला है। जिसने आपको यह जीवन दिया है, यह उसकी अमानत है। इसमें खयानत न करते हुए, कबीर की तरह इस चदरिया को ज्यों की त्यों रख देंगे तो यही एक बड़ा अहसान होगा। जो ज़िन्दगी आपको मुफ्त में मिली, आप उसकी क़ीमत लगा रहे हैं। मुझको क्या मिला।।

कुछ लोग निःशुल्क खुशियाँ बाँटते हैं। कितनी भी परेशानियां हों,  हमेशा मुस्कुराहट उनके चेहरे पर नज़र आती है। दो शब्द मीठा बोलने में पैसे नहीं लगते।

व्यक्तित्व की महक, तड़क-भड़क और महँगे प्रसाधनों से नहीं होती। प्रसन्नता travel करती है। बस में यात्रा करते समय,  किसी माँ की गोद में खिलखिलाता बच्चा,  बरबस सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। वह जिसकी ओर मुस्कान फेंकता है, वह मुग्ध हो जाता है। यह सब बस किराये में शामिल नहीं होता। निःशुल्क होता है।

गर्मियों में जब सुबह ठंडी हवा चलती है, और आप सैर के लिए निकलते हैं, तो वातावरण में रातरानी की खुशबू शामिल होती है। प्रकृति ने यह सब व्यवस्था आपके लिए निःशुल्क की है। आप इसकी कीमत केवल खुश रहकर, प्रसन्न रहकर,  और औरों को प्रसन्न रखकर ही चुका सकते हैं। जो निःशुल्क मिला है, उसे अपने पास नहीं रखें,  निःशुल्क ही आपस में बांट लें।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

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मो 8319180002≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 335 ☆ कविता – “मृत्यु का भय…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 335 ☆

?  आलेख – मृत्यु का भय…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

भगवान गरुड़ उड़ान भरते हुये पाटिलपुत्र में एक विष्णु मंदिर की परिक्रमा कर रहे थे उन्होने देखा कि  मंदिर की मुंडेर पर बैठा एक कबूतर कांप रहा था। गरुड़ जी को दया भाव जागृत हुआ, उन्होंने कबूतर से इसका कारण पूछ लिया। कबूतर ने बताया कि एक ज्योतिषाचार्य ने उसे बताया है कि कल प्रातःकाल उसकी मौत हो जाएगी। इसलिये अपनी आसन्न मृत्यु को सोचकर डर रहा हूं।

गरुड़ जी को कबूतर पर दया आ गई और उन्होंने कबूतर को यमदूतों से छिपा देने का निर्णय लिया। गरुड़ जी ने कबूतर को मलयगंध पर्वत की एक सुरक्षित गुफा में जाकर छिपा दिया, और उसे कहा कि अब तुम निश्चिंत रहो यहां यम दूत पहुंच ही नहीं सकते।

फिर गरुड़राज उड़कर यमलोक जा पहुंचे और हंसकर यमराज को बताया कि वे किस प्रकार कबूतर को सुरक्षित स्थान पर पहुंचा चुके हैं। यमराज ने मुस्कराते हुये कबूतर का लेखा-जोखा मंगवाया। व्यवस्था थी कि पाटिलपुत्र के विष्णु मंदिर में रहने वाले कबूतर की मृत्यु अमुक तिथि को मलयगंध पर्वत की गुफा में सर्प द्वारा भक्षण किये जाने से होगी। गरुड़ जी विस्मित रह गए और तुरंत लौट कर पर्वत पर जा पहुंचे, उन्होने देखा कि एक सांप कबूतर को निगल रहा है। गरुड़ जी यह सोचकर बहुत दुखी हुये कि मैं रक्षा करने के उद्देश्य से इसे यहां लाया था, लेकिन अब मेरे ही कारण इसकी जान चली गई।

कलियुग में उस कबूतर ने अतीक अहमद नामक माफिया बनकर धरती पर जन्म लिया, वह अपने कुकर्मो की सजा भोगता साबरमती जेल में बन्द था। उसे नैनी जेल ले जाया जा रहा था। अतीक को जेल से जेल शिफ्ट करने वाली, माफिया विकास यादव के एनकाउंटर की कथा याद आ रही थी। वह डर से सारी राह कांप रहा था। जब वह सकुशल नैनी जेल की बैरक में पहुंच गया तो उसने भयग्रस्त होते हुये भी किंचित मुस्कराते हुये अपने आकाओ की  ताकत पर भरोसा कर चैन की सांस ली।

तभी पास ही कहीं लाउड स्पीकर पर भागवत की कथा चल रही थी। कथा वाचक बता रहे थे कि जब गरुड़ जी द्वारा कबूतर को मलय पर्वत पर छिपा देने और वहां उसकी मृत्यु की घटना की जानकारी भगवान विष्णु को हुई तो भगवान ने गरुड़ जी को समझाया कि जन्म की तरह सबका मरण भी सुनिश्चित है। नियत समय, स्थान और नियत कारक से मरने से कोई बचता नहीं।

पता नहीं कि माफिया डान यह सुन सका या नहीं कि कथा सार में यह भी बताया गया कि मृत्यु तो टाली नहीं जा सकती इसलिये समय रहते जीवन का सदुपयोग कर लेना चाहिये।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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