हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विश्व पुस्तक दिवस विशेष – पुस्तक ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – विश्व पुस्तक दिवस – पुस्तक ? ? 

तैलाद्रक्षेत् जलाद्रक्षेत् रक्षेत् शिथिलबंधनात।

मूर्खहस्ते न दातव्यमेवं वदति पुस्तकम्।।

पुस्तक की गुहार है, ‘तेल से मेरी रक्षा करो, जल से मेरी रक्षा करो, मेरे बंधन (बाइंडिंग)  शिथिल मत होने दो। मुझे मूर्ख के हाथ मत पड़ने दो।

संदेश स्पष्ट है, पुस्तक संरक्षण के योग्य है।  पुस्तक को बाँचना, गुनना, चिंतन करना, चैतन्य उत्पन्न करता है। यही कारण है कि हमारे पूर्वज पुस्तकों को लेकर सदा जागरूक रहे। नालंदा विश्वविद्यालय का पुस्तकालय इसका अनुपम उदाहरण रहा। पुस्तकों को जाग्रत देवता में बदलने के लिए  पूर्वजों ने ग्रंथों के पारायण की परंपरा आरंभ की। कालांतर में पराधीनता के चलते समुदाय में हीनभावना घर करती गई। यही कारण है कि पठनीयता के संकट पर चर्चा करते हुए आधुनिक समाज धार्मिक पुस्तकों का पारायण करने वाले पाठक को गौण कर देता है। कहा जाता है, जब पग-पग पर  होटलें हों किंतु ढूँढ़े से भी पुस्तकालय न मिले तो पेट फैलने लगता है और मस्तिष्क सिकुड़ने लगता है। वस्तुस्थिति यह है कि  भारत के घर-घर में धार्मिक पुस्तकों का पारायण करने वाले जनसामान्य ने  इस कहावत को धरातल पर उतरने नहीं दिया।

पुस्तकों के महत्व पर भाष्य करते हुए अमेरिकी इतिहासकार बारबरा तुचमैन ने लिखा,’पुस्तकों के बिना इतिहास मौन है, साहित्य गूंगा है,  विज्ञान अपंग है,  विचार स्थिर है।’ बारबारा ने पुस्तक को  समय के समुद्र में खड़ा दीपस्तम्भ भी कहा। समय साक्षी है कि  पुस्तकरूपी  दीपस्तंभ ने जाने कितने सामान्य जनो को महापुरुषों में बदल दिया। सफ़दर हाशमी के शब्दों में,

किताबें कुछ कहना चाहती हैं,

किताबें तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।

पुस्तकों के संग्रह में रुचि जगाएँ, पुस्तकों के अध्ययन का स्वभाव बनाएँ।

 ?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी 💥  

🕉️ प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 663 ⇒ स्टेनो-टाइपिस्ट ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्टेनो-टाइपिस्ट ।)

?अभी अभी # 663 ⇒ स्टेनो-टाइपिस्ट  ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

ढाई आखर स्टेनो का, पढ़े सो स्टेनोग्राफर होय ! आप इसे शॉर्ट हैंड अथवा आशु लिपि भी कह सकते हैं। कुछ विद्याएं बड़ी तेजी से आती हैं, हलचल मचाती हैं, और सुपर फास्ट ट्रैन की तरह गुजर जाती हैं। वह लिपि, जो रुकती ही नहीं, सरपट निकल जाती है। कितना प्यारा शब्द है, stay no ! रुको मत, सबसे आगे निकल जाओ। उधर मुंह से

कुछ शब्द निकले, और इधर कलम ने कुछ संकेत बनाए, और काम हो गया।

आजादी के बाद देश का विकास नेहरू जी के कंधों पर था, क्योंकि तब नेहरू जी ही कांग्रेस को कंधा दे रहे थे। अंग्रेज चले गए थे, अंग्रेजियत छोड़ गए थे। देश की युवा पीढ़ी कॉलेज में पढ़ने जाती थी, डॉक्टर इंजीनियर और आय. ए .एस . के सपने देखती थी, और दफ्तरों में बाबुओं की फ़ौज खड़ी हो जाती थी। जिन्होंने आजादी के सात दशक देखे हैं, उनमें से अधिकतर लोग तब लोअर और मिडिल क्लास के लोग थे। मोदीजी का बचपन उसका गवाह है। चिमनी और लालटेन में किसने पढ़ाई नहीं की। तब टाट पट्टी पर पट्टी पेम से ही पढ़ाई होती थी। हम आप सब एक जैसे थे। जैसे भी थे, हम एक थे।।

स्टेनो शब्द सुनते ही, एक सुंदर लड़की का चेहरा सामने आ जाता है, जो किसी शानदार दफ्तर में अपने बॉस से पहले डिक्टेशन लेती थी, और फिर बाद में, अपनी नाजुक उंगलियों से उसे टाइप करती थी। एयर होस्टेस और स्टेनो का दर्जा हमारी निगाह में तब एक जैसा था। पूत के पांव मां बाप को पालने में ही दिख जाते हैं। पढ़ाई के साथ बच्चों को टाइपिंग क्लास भी ज्वाइन करवा देते हैं, और कुछ नहीं तो बाबू तो बन ही जायेगा। बाद में अगर मेहनती होगा तो बड़ा बाबू और अफसर भी बन ही जाएगा। तब पंद्रह से तीस रुपए महीने में, हिंदी अथवा अंग्रेजी टाइपिंग के लिए खर्च करना इतना आसान भी नहीं था। शॉर्ट हैंड सीखना सबके बस की बात नहीं थी।

आज जिसके हाथ में मोबाइल है उसने एक स्टेनो टाइपिस्ट खरीद रखा है। वह इधर बोलता है, उधर टाइप ही नहीं होता, प्रिंट हो जाता है। अब अखबारों में, वांटेड में, विज्ञापन प्रकाशित नहीं होते, टाइपिस्ट चाहिए अथवा एक व्यवसायिक प्रतिष्ठान के लिए महिला स्टेनो टाइपिस्ट की तत्काल आवश्यकता है। सभी दफ्तरों के टाइपराइटर कब के रिटायर हो गए। अब कौन शॉर्ट हैंड सीखता और सिखाता है। Say no to Steno. Say yes to Air Hostess.

कितना अंतर आ गया इन सात दशकों में ! हमारी पीढ़ी टाइपिंग क्लास जाती थी, आज की पीढ़ी कोचिंग क्लास जाती है। हम बी.ए., एम.ए. ही करते रह गए और वे एम.बी.ए. हो गए। अगर कहीं P.R.O., यानी पब्लिक रिलेशन ऑफिसर बन गए, तो सीना छप्पन हो जाता था, आजकल तो बाबा लोग भी C.E.O., चीफ एक्जीक्यूटिव ऑफिसर यानी मैनेजिंग डायरेक्टर रखने लग गए हैं। आशु लिपि छोड़ें, द्रुत गति अपनाएं। आज की कन्याएं, होटल मैनेजमेंट की ओर नजरें घुमाएं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 347 ☆ “22 अप्रैल – पृथ्वी दिवस विशेष – हरियाली और जल संरक्षण” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 347 ☆

? 22 अप्रैल – पृथ्वी दिवस विशेष – हरियाली और जल संरक्षण ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

प्रतिवर्ष 22 अप्रैल को मनाया जाने वाला अंतरराष्ट्रीय पृथ्वी दिवस हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर जीवन जीने की प्रेरणा देता है। इस वर्ष की थीम “पृथ्वी बचाओ” (Planet vs. Plastics) के साथ-साथ पर्यावरण के दो मूलभूत आधार हरियाली और जल संरक्षण पर विचार करना अत्यंत आवश्यक है। ये दोनों ही तत्व न केवल मानव जीवन, बल्कि समस्त जैव विविधता के अस्तित्व की कुंजी हैं।

हरियाली, प्रकृति का हरा सोना कही जा सकती है।

वृक्ष और वनस्पतियाँ पृथ्वी के फेफड़े हैं। समुद्र पृथ्वी के सारे अपशिष्ट नैसर्गिक रूप से साफ करने का सबसे बड़ा संयत्र कहा जा सकता है। वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित कर ऑक्सीजन प्रदान करने के साथ-साथ वृक्ष मिट्टी के कटाव को रोकते हैं, जलवायु को संतुलित करते हैं, और जीव-जंतुओं को आश्रय देते हैं।

भारत में वनों का क्षेत्रफल लगभग 21.71%, भारतीय वन सर्वेक्षण 2021के अनुसार है, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार आवश्यक 33% से कम है। शहरीकरण, अंधाधुंध निर्माण, और औद्योगिकीकरण के कारण हरियाली का ह्रास एक गंभीर समस्या बन चुका है।

– वनों की कटाई से मरुस्थलीकरण बढ़ रहा है।

– प्रदूषण के कारण पेड़ों का जीवनकाल घटा है।

– जैव विविधता पर संकट।

समाधान:

– सामुदायिक स्तर पर वृक्षारोपण अभियान चलाना।

– सरकारी योजनाओं जैसे ग्रीन इंडिया मिशन को सक्रियता से लागू करना।

– शहरी क्षेत्रों में छतों पर बगीचे (टेरेस गार्डनिंग) को बढ़ावा देना।

– – – जल संरक्षण:

जल ही जीवन है, यह वाक्य भारत जैसे देश में और भी प्रासंगिक है,NITI आयोग, 2018 के अनुसार 60 करोड़ लोग पानी की किल्लत से जूझ रहे हैं । नदियों का प्रदूषण, भूजल स्तर का गिरना, और वर्षा जल का अपव्यय जल संकट को गहरा कर रहे हैं।

चुनौतियाँ:

– कृषि और उद्योगों में जल की अत्यधिक खपत।

– वर्षा जल संचयन की पारंपरिक प्रणालियों (जैसे कुएँ, तालाब) का विलोपन।

– नदियों में प्लास्टिक और रासायनिक कचरे के निपटान को रोकना।

समाधान:

– वर्षा जल संचयन (रेनवाटर हार्वेस्टिंग) को अनिवार्य बनाना।

– नदियों की सफाई के लिए नमामि गंगे जैसे अभियानों को व्यापक स्तर पर लागू करना।

– किसानों को ड्रिप सिंचाई और फसल चक्र अपनाने के लिए प्रोत्साहित करना।

हरियाली और जल संरक्षण: दोनों का अटूट नाता है। ये दोनों पहलू एक-दूसरे के पूरक हैं। वृक्ष भूजल स्तर बढ़ाने में मदद करते हैं, जबकि जल के बिना हरियाली संभव नहीं। हरियाली के बिना शुद्ध वातावरण संभव नहीं होता। उदाहरण के लिए, राजस्थान के तरुण भारत संघ ने जल संरक्षण और वनीकरण के माध्यम से अलवर क्षेत्र को हरा-भरा बनाने का वृहद कार्य किया है। इसी प्रकार, केरल की “हरित क्रांति” ने वर्षा जल प्रबंधन को प्राथमिकता देकर कृषि उत्पादन बढ़ाया।

हम क्या कर सकते हैं?

1. व्यक्तिगत स्तर पर:

– घर में पौधे लगाएँ और पानी की बर्बादी रोकें।

– प्लास्टिक का उपयोग कम करके मिट्टी और जल को प्रदूषण से बचाएँ।

– वर्षा जल संग्रह प्रारंभ करें।

2. सामुदायिक स्तर पर:

– गली-मोहल्ले में जागरूकता अभियान चलाएँ।

– स्कूलों और कॉलेजों में “इको-क्लब” बनाएँ।

3. राष्ट्रीय स्तर पर:

– सरकार को जल शक्ति अभियान और राष्ट्रीय हरित न्यायालय के निर्देशों को कड़ाई से लागू करना चाहिए।

पृथ्वी दिवस केवल एक दिन का आयोजन नहीं, बल्कि प्रकृति के प्रति हमारी सतत प्रतिबद्धता दोहराने का प्रतीक है। हरियाली और जल संरक्षण के बिना, मानवता का भविष्य अंधकारमय है। हम सब को”थिंक ग्लोबली, एक्ट लोकली” के सिद्धांत पर चलते हुए, अपनी धरती को सुरक्षित रखने की शपथ लेने का समय है।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 128 – देश-परदेश – चलती ट्रेन में सुविधाएं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 128 ☆ देश-परदेश – चलती ट्रेन में सुविधाएं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

विगत 16 अप्रैल के दिन ही वर्षों पूर्व, पहली भारतीय रेल यात्रा आरंभ हुई थी। उसी को यादगार बनाने के लिए मुम्बई और मनमाड़ के मध्य चलने वाली “पंचवटी एक्सप्रेस” के अंदर बैंक ने ATM सुविधा भी आरंभ कर दी हैं। यात्रियों के लिए एक बहुत बड़ी सुविधा और स्टेशन पर कार्यरत स्टाफ भी इस सुविधा का लाभ ले पाएगा।

ट्रेन में यात्रियों को खरीदारी करने या जुआ खेलने के लिए धन राशि की आवश्यकता की आपूर्ति के लिए ये सुविधा एक मील का पत्थर साबित होगी।

सबसे पहले चलती ट्रेन में आप क्या क्या खरीद सकते है, इस पर चर्चा कर लेनी चाहिए। चलती ट्रेन में खान पान की सुविधा का लाभ उठाने के लिए लोगों को अब धन की कमी आड़े नहीं आएगी। यात्रा में बीच के स्टेशन पर अनेक बार स्थानीय पदार्थ जिसमें फल और सब्जी मुख्य है, सस्ते भाव पर उपलब्ध होते हैं। स्थानीय कलाकार हस्त निर्मित वस्तुएं भी चलती ट्रेन में या बीच के स्टेशंस पर मिल जाती हैं।

मुम्बई की लोकल ट्रेन में इतनी अधिक भीड़ होती है, कि, कई बार चींटी भी नहीं घुस पाती है, फिर भी विक्रेता आप को स्टेशनरी, फल, किताबें आदि बेच कर चला जाता हैं। महिलाओं के कोच में भी सिलाई, बुनाई, मेकअप आदि से लेकर पूरी रेंज लोकल ट्रेन में मिल जाती हैं। महिलाओं से ठसाठस भरी हुई ट्रेन में पुरुष विक्रेता अपना रास्ता वैसे बना लेता है, जैसे पहाड़ों के मध्य से जल अपनी निकासी का मार्ग बना लेता हैं।

चलती ट्रेन में प्रतिबंधित मदिरा भी खाद्य पदार्थ विक्रेता प्रीमियम पर उपलब्ध करवाने की क्षमता रखते हैं। इसका भुगतान वो नगद राशि में ही स्वीकार करते हैं। ऐ टी एम सुविधा आरंभ हो जाने से इस व्यवसाय में भी वृद्धि होगी।

जेब कतरे भी अब ट्रेन के अंदर ही अपने कारोबार को अंजाम दे सकेंगे। वो लोग मंथली पास बनवाकर यात्रा करेंगे, ताकि व्यापार करने की लागत कम की जा सकें।

आने वाले समय में ट्रेन के अंदर “नाई का सैलून” भी खुल सकने की प्रबल संभावना हैं। आगे आगे देखिए रेलवे नई नई सौगातों की झड़ी लगा देगा, बस सिर्फ भीड़ होने के कारण, बैठने के लिए उचित स्थान नहीं उपलब्ध हो पायेगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 661 ⇒ मुझे तुम याद आए ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मुझे तुम याद आए।)

?अभी अभी # 661 ⇒ मुझे तुम याद आए ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कोई हमें याद कब आता है, जब वह हमसे दूर होता है, लेकिन दिल के करीब होता है। वैसे याद आने के लिए किसी का होना भी जरूरी नहीं, जो चला गया अतीत हो गया, उसकी भी हमें याद आ सकती है। याद किसी की दया पर निर्भर नहीं, याद आने की कोई शर्त नहीं, कोई तिथि, तारीख, मुहूर्त नहीं। वो जब याद आए, बहुत याद आए।

यादों के दायरे में केवल परिचित स्वजन, मित्र, स्नेही, स्त्री पुरुष, अथवा छोटे बड़े ही नहीं आते, याद तो याद होती है, अपनी पालतू बिल्ली की भी कभी आपको याद आ सकती है।।

आपकी याद, आती रही रात भर ! जी हां, आपकी ही तो बात हो रही है। आखिर आप भी तो अपने ही हैं। किसी की याद आना, केवल स्मरण मात्र नहीं होता। याद में तुम, आप अथवा तू का भेद नहीं होता। यह मन की तरंगों का खेल है, याद आ गई, तो बस आ गई।

यादों का मामला एकांगी नहीं होता। ताली दो हाथ से बजती है। जहां प्रेम है, लगाव है, आसक्ति है, वहां अपेक्षा भी है। प्यार उपेक्षा बर्दाश्त नहीं कर सकता। घबराकर आखिर वह चीख उठता है। बेदर्दी बालमा तुझको, मेरा मन याद करता है।।

कहीं कहीं तो याद सिर्फ आती ही नहीं, सताती भी है। सारी सारी रात, तेरी याद सताए। नींद ना आए, और जी भी घबराए। अच्छे भले बैठे हैं, और हिचकी आना शुरू हो जाती है।

हिचकी का अपना विज्ञान है, पानी पी लें, हिचकी बंद हो जाएगी। लेकिन हमारी मान्यता तो आज भी यही है, जरूर किसी अपने ने याद किया होगा, और कमाल देखिए, आपका नाम लिया और हिचकी बंद हो गई।

यादों का सहारा ना होता, हम छोड़ के दुनिया चल देते। खट्टी मीठी यादें ही तो हमारे जीवन की पूंजी है, धरोहर है। जो हमसे बिछड़े उन्हें केवल हम ही याद कर सकते हैं, लेकिन हम जिनसे जनम जनम से बिछड़े हैं, क्या कभी हमें उनकी भी याद आती है।।

हम कभी परमेश्वर के अंश थे और उसी परमेश्वर का कुछ अंश आज हममें भी विद्यमान है, लेकिन हम उसे पूरी तरह से भुला चुके हैं।

सुबह शाम गमलों में पानी देने के समान उसे भी याद कर लिया करते हैं। जब ज्यादा याद आई तो साधन, भजन, कीर्तन। इतने व्रत, त्योहार हैं याद करने के लिए।

हर प्राणी में उसी ईश्वर का अंश है। अपने कल्याण के साथ सबके कल्याण की कामना करना भी एक तरह से उन्हें याद करना ही है। एक प्रेम की डोर ही हम सबको आपस में जोड़े रखती है। यह कड़ी ही हम सबको ईश्वर से भी जोड़ती है। हम सबका ईश्वर भी तो एक है :

जब जब बहार आई

और फूल मुस्कुराए

मुझे तुम याद आए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 285 – शेष.. विशेष…अशेष! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 285 शेष.. विशेष…अशेष! ?

दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,

तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।

संत कबीर का यह दोहा अपने अर्थ में सरल और भावार्थ में असीम विस्तार लिए हुए है। जैसे वृक्ष से झड़ा पत्ता दोबारा डाल पर नहीं लगता, वैसे ही मनुष्य देह बार-बार नहीं मिलती। मनुष्य देह बार-बार नहीं मिलती अर्थात दुर्लभ है। जिसे पाना कठिन हो, स्वाभाविक है कि उसका जतन किया जाए। देह नश्वर है, अत: जतन का तात्पर्य सदुपयोग से है।

ऐसा भी नहीं कि मनुष्य इस सच को जानता नहीं पर जानते-बूझते भी अधिकांश का जीवन पल-पल रीत रहा है, निरर्थक-सा क्षण-क्षण  बीत रहा है।

कोई हमारे निर्रथक समय का बोध करा दे या आत्मबोध उत्पन्न हो जाए तो प्राय: हम अतीत का पश्चाताप करने लगते हैं। जीवन में जो समय व्यतीत हो चुका, उसके लिए दुख मनाने लगते हैं। पत्थर की लकीर तो यह है कि जब हम अतीत का पश्चाताप कर रहे होते हैं, उसी समय   तात्कालिक वर्तमान अतीत हो रहा होता है।

अतीतजीवी भूतकाल से बाहर नहीं आ पाता, वर्तमान तक आ नहीं पाता, भविष्य में पहुँचने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अपनी एक कविता स्मरण हो आ रही है,

हमेशा वर्तमान में जिया,

इसलिए अतीत से लड़ पाया,

तुम जीते रहे अतीत में,

खोया वर्तमान,

हारा अतीत

और भविष्य तो

तुमसे नितांत अपरिचित है,

क्योंकि भविष्य के खाते में

केवल वर्तमान तक पहुँचे

लोगों की नाम दर्ज़ होते हैं..!

अपने आप से दुखी एक अतीतजीवी के मन में बार-बार आत्महत्या का विचार आने लगा था। अपनी समस्या लेकर वह महर्षि रमण के पास पहुँचा। आश्रम में आनेवाले अतिथियों के लिए पत्तल बनाने में महर्षि और उनके शिष्य व्यस्त थे। पत्तल बनाते-बनाते  महर्षि रमण ने उस व्यक्ति की समस्या सुनी और चुपचाप पत्तल बनाते रहे। उत्तर की प्रतीक्षा करते-करते व्यक्ति खीझ गया। मनुष्य की विशेषता है  जिन प्रश्नों का उत्तर स्वयं वर्षों नहीं खोज पाता, किसी अन्य से उनका उत्तर क्षण भर में पाने की अपेक्षा करता है।

वह  चिढ़कर महर्षि से बोला, ‘आप पत्तल बनाने में मग्न हैं।  एक बार इन पर भोजन परोस दिया गया, उसके बाद तो इन्हें फेंक ही दिया जाएगा न। फिर क्यों इन्हें इतनी बारीकी से बना रहे हैं, क्यों इसके लिए इतना समय दे रहे हैं?’

महर्षि मुस्कराकर शांत भाव से बोले, ‘यह सत्य है कि पत्तल उपयोग के बाद नष्ट हो जाएगी। मर्त्यलोक में नश्वरता अवश्यंभावी है तथापि मृत्यु से पहले जन्म का सदुपयोग करना ही जीवात्मा का लक्ष्य होना चाहिए। सदुपयोग क्षण-क्षण का। अतीत बीत चुका, भविष्य आया नहीं। वर्तमान को जीने से ही जीवन को जिया जा सकता है, जन्म को सार्थक किया जा सकता है, दुर्लभ मनुज जन्म को भवसागर पार करने का माध्यम बनाया जा सकता है। इसका एक ही तरीका है, हर पल जियो, हर पल वर्तमान जियो।’

स्मरण रहे, व्यतीत हो गया, सो अतीत हो गया। अब जो शेष है, वही विशेष है। विशेष पर ध्यान दिया जाए, जीवन को सार्थक जिया जाए तो देह के जाने के बाद भी मनुष्य रहता अशेष है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी 💥  

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अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 660 ⇒ ब्रांडेड उत्पाद ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ब्रांडेड उत्पाद।)

?अभी अभी # 660 ब्रांडेड उत्पाद ? श्री प्रदीप शर्मा  ? °°°

ऊंचे लोग, ऊंची पसंद। जो शौकीन किस्म के रईस होते हैं, उनकी दुनिया एक आम आदमी से अलग ही होती है। इनका हर चीज का अपना विशेष ब्रांड होता है। ब्रांडेड शूज, ब्रांडेड परिधान, ब्रांडेड कार और ब्रांडेड ज्वैलरी।

आज के प्रचार प्रसार और विज्ञापन की दुनिया में एक आम आदमी पर भी इसका प्रभाव पड़ता है और उसका भी झुकाव ब्रांडेड चीजों की ओर होने लगता है। वैसे भी सस्ता रोये बार बार और महंगा रोये एक बार। तो जो बार बार सस्ता खरीदकर रोता है, क्या वह एक बार महंगा खरीदकर नहीं रो सकता।

हमारी औसत मानसिकता सस्ता, सुंदर और टिकाऊ माल खरीदने की होती है।

इसीलिए कभी कभी जब ब्रांडेड सामान की सेल लगती है, तो दौड़ पड़ते हैं, २०% से ५० % तक के डिस्काउंट, यानी विशेष छूट की ओर। स्वदेशी का गर्व अपनी जगह है, लेकिन ब्रांडेड सामान की चाहत अपनी जगह।।

हम तब अपने आपको गर्व से मध्यम श्रेणी यानी मिडिल क्लास नागरिक मानते थे। फिलिप्स का रेडियो, उषा का पंखा, बाटा का जूता, कोलगेट पेेस्ट, एटलस साइकिल और कलाई घड़ी जैसी उपयोगी वस्तुएं

हमारी पहुंच के अंदर ही तो थी। सरकारी स्कूल में पढ़ लिखकर, सन् इकहत्तर में पहली तनख्वाह ₹ ३०० मिली थी, अभी तक याद है। वे दिन भले ही अच्छे दिन नहीं हों, फिर भी, न जाने क्यूं, बार बार यही गीत गाने का मन करता है, कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन।

हमने बंगला देश का युद्ध भी देखा और आपातकाल भी। आदमी महीने में तीन सौ कमाए अथवा तीन हजार, वह मिडिल क्लास ही कहलाता था। इंपोर्टेड यानी आयातित सामान का क्रेज़ हमें भी था। विदेश पढ़ने भी इक्के दुक्के लोग ही जाते थे। विदेश यात्रा पर जाने पर अखबार में फोटो सहित विज्ञापन भी दिया जाता था।।

लेकिन सन् १९९० के आसपास ऐसी आर्थिक उदारीकरण की हवा बही, कि पूरब पश्चिम एक हो गया। सभी मल्टीनेशनल कंपनियां अपने उत्पाद भारत ले आई। हैदराबाद, बैंगलुरु, पुणे और मुंबई जैसे महानगर आय. टी. सेक्टर के मुख्य केंद्र बन गए। घर घर बच्चे कंप्यूटर इंजीनियर, चार्टर्ड अकाउंटेंट और डॉक्टर बनने लगे। एक ही शहर में दर्जनों प्राइवेट इंजीनियरिंग और मेडीकल कॉलेज।

कोटा जैसा शहर विद्यार्थियों के लिए कोचिंग का तीर्थ स्थान बन गया।

और इस तरह जो नई पीढ़ी तैयार हुई, वह पढ़ने के बाद सीधी विदेश जा बसी। आज जिसका बच्चा, बच्ची, बहू, दामाद देखो, विदेश में ही नजर आता है। घरों में ब्रांडेड सामान का अंबार लगा है। बच्चे मानते ही नहीं, कभी जींस ले आते हैं तो कभी महंगे जूते और चप्पल।।

विदेश में आज की पीढ़ी खूब मेहनत कर रही है, पसीना बहा रही है और इन्कम टैक्स चुकाकर पैसा यहां भारत में रियल एस्टेट में इन्वेस्ट कर रही है। देश समृद्ध हो रहा है, परिवार फल फूल रहे हैं।

एक ओर धर्म की गंगा बह रही है और दूसरी ओर विदेशी गाड़ियां और ब्रांडेड सामानों से घर भरा जा रहा है। हमारा चश्मा तो आज यही देख पा रहा है। जिस सनातन हिन्दू राष्ट्र की हमने कभी कल्पना की थी, वह यही तो है। अगर आपको यह सब दिखाई नहीं पड़ रहा, तो अपनी आंखों और दिमाग का इलाज करें।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 659 ⇒ नेकी कर, यूट्यूब पर डाल ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नेकी कर, यूट्यूब पर डाल।)

?अभी अभी # 659 ⇒ नेकी कर, यूट्यूब पर डाल… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

होते हैं इस संसार में चंद ऐसे नेकचंद, जो नेकी तो करते हैं, लेकिन नेकी की कद्र ना करते हुए उसे दरिया में बहा देते हैं। दरिया के भाग तो देखें, नेकी की गंगा तो दरिया में बह रही है और राम, तेरी गंगा मैली हो रही है, पापियों के पाप धोते धोते। फिर भी देखिए, एक संत का चित्त कितना शुद्ध है, चलो मन, गंगा जमना तीर। हम कब नेकी की कद्र करना जानेंगे।

जिस तरह जल ही जीवन है, उसी तरह अच्छाई, जिसे हम नेकी कहते हैं, वह भी एक लुप्तप्राय सद्गुण हो चला है, इसे सुरक्षित और संरक्षित रखना ही समय की मांग है, इसे यूं ही दरिया में बहाना समझदारी नहीं।।

अच्छाई का जितना प्रचार प्रसार हो, उतना बेहतर। किताबों के ज्ञान की तुलना में व्यवहारिक ज्ञान अधिक श्रेष्ठ है। कहां हैं आजकल ऐसे लोग ;

भला करने वाले,

भलाई किए जा।

बुराई के बदले,

दुआएं दिए जा।।

हमारा आज का सिद्धांत, जैसे को तैसा हो गया है। कोई अगर आपके एक गाल पर चांटा मारे, तो बदले में उसका मुंह तोड़ दो। नेकी गई भाड़ में। देख तेरे नेकी के दरिये की, क्या हालत हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसान।

कहते हैं, आज की इस दुनिया में बुराई और पाप बहुत बढ़ गया है। पाप का घड़ा तो कब का भर जाता। कुछ नेकी और कुछ नेकचंद, यानी कुछ अच्छाई और कुछ अच्छे लोग आज भी हमारे बीच हैं, जिनके पुण्य प्रताप से हम अभी तक रसातल में नहीं समाए। लोग भी थोड़े समझदार और जिम्मेदार हो चले हैं। नेकी की कद्र करने लगे हैं। कुछ लोग नेकी को आजकल दरिया में नहीं व्हाट्सएप पर अथवा फेसबुक पर भी डालने लगे हैं।।

व्हाट्सएप पर तो मानो फिर से नेकी का ही दरिया बह निकला है। व्हाट्सएप भी हैरान, परेशान, बार बार संकेत भी देने लगता है, forwarded many times, लेकिन नेकी है, जो बहती चली आ रही है। किसी ने नेकी को व्हाट्सपप से उठाकर फेसबुक पर डाल दिया। खूब लाइक, कमेंट और शेयर करने वाले मिल रहे हैं नेकी को। नेकी की इतनी पूछ परख पहले कभी नहीं हुई, जितनी आज सोशल मीडिया में हो रही है। हाल ही में एक मित्र ने व्हाट्सएप पर एक ग्रुप बनाया, एक बनेंगे, नेक बनेंगे और मुझे बिना मेरी जानकारी के उसमें शामिल भी कर लिया। जब मैंने पूछा, तो यही जवाब मिला, नेकी और पूछ पूछ।

टीवी पर दर्जनों धार्मिक चैनल इस नेक काम में लगे हुए हैं, कितने सामाजिक, धार्मिक और पारमार्थिक संगठन और एन.जी. ओ. नेकी की मशाल से जन जागृति फैला रहे हैं। लोग तो आजकल अपनी प्रकाशित पुस्तकें भी अमेजान पर डालने लगे हैं। हमारे मुकेश भाई अंबानी ने भी जिओ नेटवर्क की ऐसी नेकी की मिसाल पेश की है कि हमारा भी मन करता है, हम भी कुछ नेकी यू ट्यूब पर डाल ही दें। आपसे उम्मीद है आप हमारे चैनल को लाइक, शेयर और सब्सक्राइब अवश्य करेंगे।

आप भी आगे से ध्यान रखें, व्यर्थ दरिया में डालने के बजाए, नेकी करें और यूट्यूब पर बहाएं और दो पैसे भी कमाएं।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #272 ☆ चुनौतियाँ व प्रतिकूल परिस्थितियाँ… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख चुनौतियाँ व प्रतिकूल परिस्थितियाँ। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 272 ☆

चुनौतियाँ व प्रतिकूल परिस्थितियाँ… ☆

‘चुनौतियाँ व प्रतिकूल परिस्थितियाँ हमें आत्म-साक्षात्कार कराने आती हैं कि हम कहाँ हैं? तूफ़ान हमारी कमज़ोरियों पर प्रहार करते हैं। फलत: हमें अपनी असल शक्ति का आभास होता है’ उपरोक्त पंक्तियाँ रोय टी बेनेट की प्रेरक पुस्तक ‘दी लाइट इन दी हार्ट’ से उद्धृत है। जीवन में चुनौतियाँ हमें अपनी सुप्त शक्तियों से अवगत कराती हैं कि हम में कितना साहस व उत्साह संचित है? हम उस स्थिति में प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने में कितने सक्षम हैं? जब हमारी कश्ती तूफ़ान में फंस जाती व हिचकोले खाती है; वह हमें भंवर से मुक्ति पाने की राह भी दर्शाती है। वास्तव में भीषण आपदाओं के समय हम वे सब कर गुज़रते हैं, जिसकी हमने कल्पना भी नहीं की होती।

सो! चुनौतियाँ, प्रतिकूल परिस्थितियाँ, तूफ़ान व सुनामी की विपरीत व गगनचुंबी लहरें हमें अपनी अंतर्निहित शक्तियों प्रबल इच्छा-शक्ति, दृढ़-संकल्प व आत्मविश्वास का एहसास दिलाती हैं; जो सहसा प्रकट होकर हमें उस परिस्थिति व मन:स्थिति से मुक्त कराने में रामबाण सिद्ध होती हैं। परिणामतः हमारी डूबती नैया साहिल तक पहुंच जाती है। इस प्रकार चिंता नहीं, सतर्कता इसका समाधान है। नकारात्मक सोच हमारे मन में भय व शंका का भाव उत्पन्न करती है, जो तनाव व अवसाद की जनक है। यह हमें हतोत्साहित कर नाउम्मीद करती है, जिससे हमारी सकारात्मक ऊर्जा नष्ट हो जाती है और हम अपनी मंज़िल पर नहीं पहुंच सकते।

दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला के अनुसार ‘हिम्मतवाला वह नहीं होता, जिसे डर नहीं लगता, बल्कि वह है; जिसने डर को जीत लिया है। सो! भय, डर व शंकाओं से मुक्त प्राणी ही वास्तव में वीर है; साहसी है, क्योंकि वह भय पर विजय प्राप्त कर लेता है।’ इस संदर्भ में सोहनलाल द्विवेदी जी की यह पंक्तियां सटीक भासती हैं ‘लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती/ कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।’ यदि मानव अपनी नौका को सागर के गहरे जल में नहीं उतारेगा तो वह साहिल तक कैसे पहुंच पायेगा? मुझे स्मरण हो रही हैं वैज्ञानिक मेरी क्यूरी की वे पंक्तियां ‘जीवन देखने के लिए नहीं; समझने के लिए है। सकारात्मक संकल्प से ही हम मुश्किलों से बाहर निकल सकते हैं’– अद्भुत् व प्रेरक है कि हमें प्रतिकूल परिस्थितियों व चुनौतियों से डरने की आवश्यकता नहीं है; उन्हें समझने की दरक़ार है। यदि हम उन्हें समझ लेंगे तथा उनका विश्लेषण करेंगे तो हम उन आपदाओं पर विजय अवश्य प्राप्त कर लेंगे। सकारात्मक सोच व दृढ़-संकल्प से हम पथ-विचलित नहीं हो सकते और मुश्किलों से आसानी से बाहर निकल सकते हैं। यदि हम उन्हें समझ कर, सूझबूझ से उनका सांगोपांग विश्लेशण करेंगे; हम उन भीषण आपदाओं पर विजय प्राप्त कर सकेंगे।

यदि हमारे अंतर्मन में सकारात्मकता व दृढ़-संकल्प निहित है तो हम विषम परिस्थितियों में भी विचलित नहीं हो सकते। इसके लिए आवश्यकता है सुसंस्कारों की, घर-परिवार की, स्वस्थ रिश्तों की, स्नेह-सौहार्द की, समन्वय व सामंजस्य की और यही जीवन का मूलाधार है। समाजसेवी नवीन गुलिया के मतानुसार ‘सागर की हवाएं एवं संसार का कालचक्र हमारी इच्छानुसार नहीं चलते, किंतु अपने समुद्री जहाज रूपी जीवन के पलों का बहती हवा के अनुसार उचित उपयोग करके हम जीवन में सदैव अपनी इच्छित दिशा की ओर बढ़ सकते हैं।’ नियति का लिखा अटल होता है; उसे कोई नहीं टाल सकता और हवाओं के रुख को बदलना भी असंभव है। परंतु हम बहती हवा के झोंकों के अनुसार कार्य करके अपना मनचाहा प्राप्त कर सकते हैं। सो! हमें पारस्परिक फ़ासलों व मन-मुटाव को बढ़ने नहीं देना चाहिए। परिवार व दोस्त हमारे मार्गदर्शक ही नहीं; सहायक व प्रेरक के दायित्व का वहन करते हैं। परिवार वटवृक्ष है। यदि परिवार साथ है तो हम विषम परिस्थितियों का सामना कर सकते हैं। इसलिए उसका मज़बूत होना आवश्यक है। समाजशास्त्री कुमार सुरेश के अनुसार ‘परिवार हमारे मनोबल को बढ़ाता है; हर संकट का सामना करने की शक्ति प्रदान करता है; हमारे विश्वास व सामर्थ्य को कभी डिगने नहीं देता।’ जीवन शैली विशेषज्ञ रचना खन्ना सिंह कहती हैं कि ‘परिवार को मज़बूत बनाने के लिए हमें पारस्परिक मतभेदों को भूलना होगा; सकारात्मक चीज़ों पर फोक़स करना होगा तथा नकारात्मक बातों से दूर रहने का प्रयास करना होगा। यदि हम संबंधों को महत्व देंगे तो हमारा हर पल ख़ुशनुमा होगा। यदि बाहर युद्ध का वातावरण है, तनाव है और उन परिस्थितियों में नाव डूब रही है, तो सभी को परिवार की जीवन-रक्षक जैकेट पहनकर एक साथ बाहर निकालना होगा।’ पद्मश्री निवेदिता सिंह के विचार इस तथ्य पर प्रकाश डालते हैं कि संकल्प के साथ प्रार्थना करें ताकि वातावरण में सकारात्मक तरंगें आती रहें, क्योंकि इससे माहौल में नकारात्मकता के स्थान पर सकारात्मक ऊर्जा प्रवेश पाती है और सभी दु:खों का स्वत: निवारण हो जाता है।

जीवन में यदि हम आसन्न तूफ़ानों के लिए पहले से सचेत रहते हैं; तो हम शांत, सुखी व सुरक्षित जीवन जी पाते हैं। स्वामी विवेकानंद जी के शब्दों में ‘यदि तुम ख़ुद को कमज़ोर समझते हो तो कमज़ोर हो जाओगे। यदि ख़ुद को ताकतवर सोचते हो, ताकतवर हो जाओगे।’ सो हमारी सोच ही हमारे भाग्य को निधारित करती है। परंतु इसके लिए हमें वक्त की कीमत को पहचानना आवश्यक है। योगवशिष्ठ के अनुसार ‘संसार की कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे सत्कर्म एवं शुद्ध पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता।’

हमारा मस्तिष्क बचपन से ही चुनौतियों को समस्याएं मानना प्रारंभ करने लग जाता है और बड़े होने तक वे अवचेतन मन में इस प्रकार घर कर जाती हैं कि हम यह विचार ही नहीं कर पाते कि ‘यदि समस्याओं का अस्तित्व न होगा तो हमारी प्रगति कैसे संभव होगी? उस स्थिति में आय के स्रोत भी नहीं बढ़ेंगे।’ परंतु समस्या के साथ उसके समाधान भी जन्म ले चुके होते हैं। यदि सतही तौर पर सूझबूझ से समस्याओं से उलझा जाए; उन्हें सुलझाने से न केवल आनंद प्राप्त होगा, बल्कि गहन अनुभव भी प्राप्त होगा। नैपोलियन बोनापार्ट के शब्दों में ‘समस्याएं भय व डर से उत्पन्न होती हैं। यदि डर का स्थान विश्वास ले ले; तो वही समस्याएं अवसर बन जाती हैं। वे स्वयं समस्याओं का सामना विश्वास के साथ करते थे और उन्हें अवसर में बदल डालते थे। यदि कोई उनके सम्मुख समस्या का ज़िक्र करता था तो वे उसे बधाई देते हुए कहते थे कि आपके पास समस्या है; तो बड़ा अवसर आ पहुंचा है। अब इस अवसर को हाथों-हाथ लो और समस्या की कालिमा में सुनहरी लीक खींच दो।’ समस्या का हल हो जाने के पश्चात् व्यक्ति को मानसिक शांति, अर्थ व उपहार की प्राप्ति होती है और समस्या से भय समाप्त हो जाता है। वास्तव में ऐसा उपहार अर्थ व अवसर हैं, जो मानव की उन्नति में सहायक सिद्ध होते हैं।

चुनौतियाँ व प्रतिकूल परिस्थितियाँ हमें कमज़ोर बनाने नहीं; हमारा मनोबल बढ़ाने व सुप्त शक्तियों को जाग्रत करने को आती हैं। सो! उनका सहर्ष स्वागत-सत्कार करो; उनसे डर कर घबराओ नहीं, बल्कि उन्हें अवसर में बदल डालो और  डटकर सामना करो। इस संदर्भ में मदन मोहन मालवीय जी का यह कथन द्रष्टव्य है–’जब तक असफलता बिल्कुल छाती पर सवार न हो बैठे; दम न घोंट डाले; असफलता को स्वीकार मत करो।’ अरस्तु के शब्दों में ‘श्रेष्ठ व्यक्ति वही बन सकता है, जो दु:ख और चुनौतियों को ईश्वर की आज्ञा स्वीकार कर आगे बढ़ता है।’ जॉर्ज बर्नार्ड शॉ का मत भी कुछ इसी प्रकार का है कि ‘यदि आप इस प्रतीक्षा में रहे कि लोग आकर आपकी मदद करेंगे, तो सदैव प्रतीक्षा करते रह जाओगे।’ भगवद्गीता में ‘कोई भी दु:ख संसार में इतना बड़ा नहीं है, जिसका कोई उपाय नहीं है।’  यदि मनुष्य जल्दी से पराजय स्वीकार न करके अपनी ओर से प्रयत्न करे, तो वह दु:खों पर आसानी से विजय प्राप्त कर सकता है। जब मन कमज़ोर होता है, परिस्थितियाँ समस्याएं बन जाती हैं; जब मन स्थिर होता है, चुनौती बन जाती हैं और जब मन मज़बूत होता है; वे अवसर बन जाती हैं। ‘हालात सिखाते हैं बातें सुनना/ वरना हर शख़्स फ़ितरत से/ बादशाह होता है।’ इन्हीं शब्दों के साथ अपनी लेखनी को विराम देती हूं।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 658 ⇒ लिखने की दुकान ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लिखने की दुकान।)

?अभी अभी # 658 ⇒ लिखने की दुकान ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

वैसे तो ईश्वर ने हर इंसान को जन्म से ही तीन-तीन दुकानों का मालिक बनाकर भेजा है, मनसा, वाचा और कर्मणा ! यानी मन, वचन और कर्म की दुकान से ही उसका और उसके परिवार का कामकाज चल जाता है, रोजी रोटी का सुगमता से बंदोबस्त हो जाता है लेकिन संसार का प्रपंच उसे और कई अन्य दुकानों से भी जोड़ देता है।

दुकान वह स्थान है जहाँ कुछ लेने के बदले कुछ दिया जाता है। लेन-देन ही व्यवहार है, दुकानदारी है। दाल रोटी और नून तेल खरीदने के लिए भी किसी दुकानदार का मुँह देखना पड़ता है। कई दुकानें प्रकृति ने भी खोल रखी हैं, जहाँ कोई ताला नहीं, कोई मालिक नहीं, बस भंडार ही भंडार है। कोई चौकीदार नहीं, कोई रोकटोक नहीं, राम की चिड़िया, राम का खेत ! सुबह प्रकृति की दुकान खुलती है, भरपूर ताज़गी, धूप ही धूप, हरियाली ही हरियाली। प्राकृतिक जल स्रोतों का भंडार, हर पल आपके द्वार।।

अक्षर ब्रह्म है ! श्रुति, स्मृति से चलकर आए पुराण को गीताप्रेस ने आज धरोहर बना दिया है। गीता प्रेस की दुकान ने बहुत कुछ लिखा हुआ प्रकाशित कर जन-मानस की सेवा ही की है। आज कितने ही लेखक, प्रकाशक, समाचार पत्र-पत्रिकाएं लेखनी के महत्व को चरितार्थ कर रहे हैं। आज मैं भी फेसबुक के ज़रिए इसी लेखनी की दुकान का एक हिस्सा हूँ।।

माँग और आपूर्ति के इस युग में भोजन के अलावा भी कई क़िस्म की भूख जिजीविषा को जाग्रत करती रहती है। उपभोक्ता संस्कृति की यह विशेषता है कि आज आपके पसंद की वस्तु आसानी से हर दुकान पर उपलब्ध है। ऐमज़ॉन ने तो इंटरनेट पर ही अपनी दुकान खोल ली है। जो चाहो सो पाओ। एक भूख पढ़ने की भी है जिसने लिखने की कई दुकानों को स्थापित कर दिया है। एक पाठक के लिए लेखक को दुकान सजानी ही पड़ती है। उसकी पसंद का सामान प्रदाय करना ही पड़ता है।

लिखने की दुकान में सिर्फ़ लेखक, एक कलम और कोरा कागज़ होता है और बाहर भीड़ लगी रहती है विचारों की, कल्पना, किस्से, कथा और संस्मरणों की। विचार एक कतार में नहीं आते। उन्हें बड़ी ज़ल्दी होती है लेखनी में समा जाने की। कुछ विचार तो भीड़ देखकर ही लौट जाते हैं। फिर कभी नहीं आते। कुछ को लेखक समझा-बुझाकर वापस ले आता है और एक रचना का सृजन होता है।।

लेखक और लेखनी का तालमेल ही लेखन है। लेखनी लेखक से क्या लिखवा ले, कुछ नहीं कह सकते। वेदव्यास और श्रीगणेश के संयुक्त प्रयास से ही एक महाकाव्य की रचना सम्भव हुई। लेखनी की दुकान में किस्से, कहानियाँ, निबंध, उपन्यास, कविता, शोध-ग्रंथ, आत्म कथा, संस्मरण सभी उपलब्ध होते हैं।

लेखनी कालांतर में गौण हो जाती है और लेखक स्थापित हो जाता है। नाम, पैसा, प्रसिद्धि, पुरस्कार, सब लेखक के हवाले। एक दो पैसे की लेखनी की क्या औकात ! लेखक बता देते अपनी जात/औकात। सरस्वती के सच्चे पुजारी ही जानते हैं एक लेखनी का कमाल, लेखक का कमाल, और शास्वत, सार्थक लेखन का कमाल।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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