हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 637 ⇒ अहसान और स्वाभिमान ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अहसान और स्वाभिमान।)

?अभी अभी # 637 ⇒ अहसान और स्वाभिमान ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हम जब से पैदा हुए हैं, हम पर कितनों के अहसान हैं, हम नहीं जानते ! अगर गिनना चाहें, तो गिनती भूल जाएं ! लेकिन बड़े होते होते, हम इन अहसानों को भूलते चले जाते हैं। हम इतने खुदगर्ज होते चले जाते हैं, कि अपने अभिमान और दर्प को ही स्वाभिमान मान बैठते हैं। मैंने कभी किसी का अहसान नहीं लिया। मैं अपने पाँव पर खड़ा हुआ, आज कहाँ से कहाँ पहुँच गया हूँ।

स्वाभिमानी खुदगर्ज नहीं होता ! वह किये हुए अहसानों के प्रति कृतज्ञ होता है, कृतघ्न नहीं ! हम पर किसके कितने अहसान हैं, उसका लेखा-जोखा रखना संभव नहीं। जब हमारा जन्म ही ईश्वर की सबसे बड़ी कृपा है, मेहरबानी है, तो मात-पिता, भाई बंधु, मित्र-परिवार समाज, देश और गुरुजन के अहसान की तो बात ही क्या है।।

प्रकृति हमारी सबसे बड़ी पालनकर्ता है। सर्दी, गर्मी, बरसात के मौसम हमें वर्ष भर स्वस्थ रहने में सहयोग करते हैं। मौसम अनुसार फल, सब्ज़ी, तरकारी हमारे शरीर को पुष्ट बनाये रखते हैं। खेतों में अनाज, नदियों में पानी, निरंतर बहती पवन और सूर्य देव की रोशनी अगर न हो, तो हमारा तो अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाए। किस किस के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन किया जाए। हमने कब प्रकृति की स्तुति की।

हम प्रतिदिन आपस में सुप्रभात, good morning और राम राम करते हैं, हमें जीवन देने वाले सूर्य को क्या हमें रोज नमस्कार नहीं करना चाहिए? अग्निदेव हमारा भोजन पकाते हैं, ठंड में नहाने के लिए गर्म पानी की व्यवस्था करते हैं। शाम होते ही, केवल स्विच दबाते ही घर में रोशनी हो जाती है। हम किस किसके अहसान मंद हैं, हम ही नहीं जानते। फिर भी हम अभिमानी नहीं, स्वाभिमानी हैं।।

बिना गैस के हमारी रसोई नहीं बनती। बिना पेट्रोल के हमारी गाड़ी नहीं चलती। बिना तनख्वाह के हमारा घर नहीं चलता। बिना चार्जर के हमारा मोबाइल नहीं चलता। कितने आत्म-निर्भर हैं हम। फिर भी कितने खुद्दार हैं।

मैं अपने पाँवों पर खड़ा हूँ ! मैंने जीवन में कितना संघर्ष किया है, मैं ही जानता हूँ। मैं न होता तो इतने बड़े परिवार को कौन सँभालता। आज समाज में मेरी इतनी प्रतिष्ठा है, मान है, सब मेरा ही पुरुषार्थ है। मान मेरा अहसान, अरे नादान। फिर भी कभी नहीं किया अभिमान। और न कभी खोया अपना स्वाभिमान।

जब हम बीमार पड़ते हैं, शरीर वृद्ध हो जाता है, इन्द्रियाँ काम नहीं करती, घुटने काम नहीं करते, आँखों से कम दिखाई देता है, कानों से कम सुनाई देता है, हमें किसी के सहारे की सतत आवश्यकता होती है। गर्म खून ठंडा हो जाता है। फिर भी क्रोध पर काबू नहीं रहता। जो आपकी सेवा करता है, उसके प्रति तक कृतज्ञता का भाव तक नहीं रहता। क्या कहें इसे खुदगर्ज़ी, अभिमान या स्वाभिमान।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 221 – भक्ति रस ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है अप्रतिम आलेख “भक्ति रस”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 221 ☆

🌻आलेख🌻 🪔भक्ति रस 🪔

क्षिति जल पावक गगन समीरा।

पंच रचित अति अधम शरीरा।।

यही हमारे शरीर की संरचना है। इसी शरीर को स्वस्थ निरोगी और विद्यमान रखने के लिए अनेकों प्रकार के संसाधन किए जाते हैं। सृष्टि विधाता ने अपने विधान से इस चार युगों में बाँटे हैं – सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलयुग।

सतयुग ऋषि मुनि संतों का युग जहाँ वचन से श्राप और उन्नति का माप हो जाता था। बड़े से बड़े कार्य सिर्फ वचन के आधार पर ही स्थापित और विध्वंस हो जाते थे। इसे देवों का काल भी कहा जाता है।

त्रेता युग प्रभु श्री राम का अवतार और जहाँ मर्यादा का पाठ सर्वोपरि माना गया। इस युग में नारायण श्री हरि स्वयं धरा पर आए। सत्य, निष्ठा, वचन, धर्म – कर्म, मर्यादा का पालन करना सीखा गए। ऐसी लीला प्रभु की  जो स्थान भगवान राम को मिला अन्यत्र किसी को दुर्लभ हुआ।

द्वापर युग में प्रभु नारायण अपने ही रूप को मानव के समूल चरित्र को अंगीकृत करते और लीला रचते श्री कृष्ण के रूप में जगत में आए। बाल लीला और छलिया अंतर केवल ब्रह्म ऋषि और वेद शास्त्र ने जाना। वरन सृष्टि में सांसारिक लीला रचते मानवीय मूल्यों का अपने और पराय धर्म और धर्म का ज्ञान सीख गए। युग परिवर्तन होता गया।

कलयुग का आरंभ हुआ जिसे हम वर्तमान में कलयुग चल रहा कहते हैं।

सभी युगों में भगवान की प्रति निष्ठा, श्रद्धा, सेवा, आस्था, साकार निराकार और भक्ति से हमारे पूर्वजों ने अपने-अपने मन को शांत किया। किसी ने तप, किसी ने जप, किसी ने यज्ञ हवन और किसी ने संगीत किसी ने मन के भावों को प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में प्रदर्शित कर प्रभु की आराधना करते चले गए।

वेदव्यास जी के द्वारा महान ग्रथों की स्थापना हुई। चार वेद असंख्य ग्रंथ और तुलसी रचित रामायण ने अखंड अमित श्री राम चरित्र रामायण की रचना की।

वर्तमान काल, भूतकाल, भविष्य काल, आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल, आधुनिक काल, वीरगाथा काल, पूर्व मध्यकाल, उत्तर मध्यकाल इन सभी में समय परिवर्तन धीरे-धीरे होता गया और इन सभी में समानता सामान्य यह रही की सभी ने अपने-अपने मन के भावों को उजागर किया।

आधुनिक काल में गद्य और पद्य दो विधाओं का विकास हुआ। काव्य धारा बहती गई। छाया युग, प्रगति युग, प्रयोग युग, यथार्थ युग।

गद्य में भारतेंदु युग, द्विवेदी युग, रामचंद्र शुक्ल युग, प्रेमचंद युग, अघतन युग।

डॉ रामचंद्र शुक्ल ने वीरगाथा काल भक्ति, काल रीतिकाल, और आधुनिक काल का विभाजन किया। जिसे आज भी सर्वोपरि माना जाता है। आधुनिक डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल का विभाजन किया।

डॉक्टर नाम वर सिंह ने आदिकाल, भक्ति काल, रीतिकाल, और उत्तर रीतिकाल, आधुनिक काल, को विभाजित किया।

भक्ति काल संपूर्ण सृष्टि में हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग रहा। इसकी सीमा कल 1375 से 1700 मानी जाती है। इसमें भक्ति के जरिए समाज का सुधार उध्दार और एक नई दिशा प्रदान करने का सामर्थ बढा।

जनमानस तक पहुंचाने का मार्ग माध्यम बना। इस कल में निर्गुण उपासना और सगुण उपासना दोनों तरह के भक्त और साहित्यकार हुए।

भक्ति काल में मुख्य रूप से तुलसीदास, कबीर दास, रहीम, मीरा, रसखान मलिक, मोहम्मद जायसी, सूरदास, आदि महान संत हुए।

भक्ति काल के मुख्य मार्ग सगुण भक्ति मार्ग राम भक्ति एवं कृष्ण भक्ति।

दूसरा निर्गुण भक्ति मार्ग ज्ञानमार्गी एवं प्रेम मार्गी।

भक्ति काल पूर्ण रूप से प्रभु के प्रति भक्ति की भावना से प्रेरित रहा। भक्ति काल में भक्त प्रेम और भक्ति की प्रधानता रही।

” एक राधा एक मीरा दोनों ने श्याम को चाहा”

“चाह मीरा थी गिरधर दीवानी बनी।

चाह राधा श्री मोहन की प्यारी बनी”।।

इस भाव से भी हम इसे ज्यादा समझ सकते हैं। संसार में राधा कृष्ण की जोड़ी सिर्फ निश्छल प्रेम को स्थापित करती है। वहीं पर राजघराने की मीरा केवल भक्ति रूप में कृष्ण को मानसिक पति के रूप में पूजती रही।

उन्हें पाने या आत्मसमर्पण की भावना कभी भी विद्यमान नहीं दिखती। संत समागम और गुरु की महत्ता भी कूट-कूट कर भक्ति काल में समाहित हुई।

कबीर और सूरदास की रचनाओं में आज भी मनुष्य डूब कर प्रभु के साकार रूप के दर्शन करता है। जहाँ सूरदास जी काव्य संरचना में भगवान के श्रृंगार सहित सभी अंग आभूषण का वर्णन करते हैं।

वही कबीर दास जी पत्थर की चक्की को पूजने की बात कहतेहैं।

जिससे जीवन जीने की कला और मानव के भूख पेट की शांति होती है।

पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजू पहार।

इससे तो चाकी भली पीस खाए संसार।।

 जहाँ कबीर दास जी की चक्की का वर्णन वही आज भी लोगों की धारणा है कि मीरा की भक्ति की वजह से प्रभु कृष्ण जी पत्थर की मूर्ति में स्वयं मीरा समा गई थी।

“जा की रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तीन तैसी”

 भक्ति काल में प्रभु नाम संस्मरण को  प्रथम उपाय माना गया। प्रभु भगवन प्राप्ति का महर्षि वाल्मीकि जी ने राम का नाम उल्टा जपा और स्वयं ब्रह्मा के समान हुए। पहले रत्नाकर दास नाम के डाकू थे जो केवल छीन झपट मार काट कर खाना जानते थे।

उल्टा नाम जपा जग जाना।

बाल्मीकि भए ब्रह्म समाना।।

 भक्ति काल में राधा और मीरा भगवान कृष्ण की अन्नय भक्त है। एक नारी जब नर नारायण को चाहती पूजा करती या प्रेम समर्पण की भावना रखती है। तो वह किसी न किसी रूप में उसे पाना चाहती है।

राधा ने प्रभु कृष्ण को प्रेम की परिभाषा में रंगी। वही मीरा ने प्रेम को ही कृष्ण के रूप में स्वीकार किया था।

जहाँ पर  किसी प्रकार का कोई भेद नहीं सिर्फ प्रेम और प्रेम भक्ति का ही एक रूप है होता है।

राधा जानती थी कि कृष्णा मेरा है परंतु वह भक्ति समाहित प्रेम नहीं था वह सिर्फ चाह रही थी भगवान को और समय-समय पर प्रतिपल उनके साथ भी रहना चाहती थी कि कृष्ण भी उन्हें चाहे, प्रेम करें, परंतु मीरा ने जो भक्त की वह सिर्फ प्रेम भक्ति थी उसे न तो पति के रूप में उन्हें जीवन की भौतिक सुख चाहिए था और ना ही उन्हें सांसारिक माया मोह।

पति प्रेम में ही वह डूबती चली थी। साम्राज्य और लोकनाज से कोसों दूर व सिर्फ पति प्रेम जिसे वह दे रही थी उसे मिले या ना मिले इसका भी उसे कोई सरोकार नहीं था।

परंतु भक्ति ऐसी की आज के समय में तो शायद सिर्फ ग्रंथ और किताबों में ही  है। साहित्यकार इसे अपने-अपने तरीके से आज भी सुंदर और अपने भावों की रचनाओं से सुशोभित करते हैं।

राधा रानी की चाहत को लिए महारास और राधा के अनगिनत प्रेम प्रसंग से सराबोर हमारे भक्ति काल में राधा को ही सर्वोपरि माना गया। भगवान ने एक बार परीक्षा ली कि शरीर में छाले पड़ गए हैं। यदि कोई सखी अपनी चरण धूलि दे दे तो ज्वर और छाले ठीक हो जाएंगे। कहते हैं श्री कृष्ण की भक्ति में लीन कोई भी सखी ऐसा नहीं मिली जो चरण धूलि दे। परंतु बात राधा के कानों तक पहुंची। राधा श्री ने तुरंत अपने पाँव से निकलकर चरण राज दे दिया। रानी पट रानी सभी ने हार मानी।

राधा का प्रेम सिर्फ प्रेम ही नहीं वक्त पढ़ने पर भारी संकटों को अपने ऊपर लेकर अपने भगवान प्रेमी को मुक्त करना होता है। कहा गया था जो  चरण रज  देगी उसे अनंत कोटि वर्षों तक रैरव नरख  निवास मिलेगा।

परंतु राधा जी ने कृष्ण के लिए अनंत कोटि रैरव नरक स्वीकार किया। इस पल मेरे श्याम ठीक हो जाए यह भक्ति प्रेम की सर्वोपरि प्रकाष्ठा है।

तुलसीदास ने जी ने भी प्रेम से लिप्त जब पत्नी के पास पहुंचे पत्नी की कठोर कटाक्ष बातों से आत्मा को तार – तार होते देखा।

भगवान प्राप्ति के लिए अपने आप को दास मानते तप, संयम, श्रद्धा, विश्वास, प्रेम, प्रभु कृपा और शरणागति को ही अपना साधन बनाया। और आदि अनंत तक जीवंत हो गए।

दास के रूप में तुलसीदास जी ने प्रभु भक्ति का मार्ग निर्मल और साकार बताया।।

भक्त गंगा सी निर्मल पावन बनों।

प्रेम पूजे प्रभु गल की माला बनों।।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 636 ⇒ मेरी जान ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मेरी जान।)

?अभी अभी # 636 ⇒  मेरी जान… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जी हां, मैं मेरी जान की ही बात कर रहा हूं। कभी मैं और मेरी मां, एक जिस्म दो जान थे, फिर एक समय ऐसा आया, जब मेरा भी जिस्म इस जहान में आया। दो जिस्म, एक जान, यानी एक नन्हीं सी जान, जिसे मेरी मां हमेशा अपने सीने से लगाकर रखती थी।

धीरे धीरे मैं बड़ा होने लगा, अपने आपको, और इस दुनिया को जानने लगा। जब मैं छोटा था, तो लोग मुझे जान से ज्यादा चाहते थे, हमेशा अपने गले से लगाए रहते थे। कहते थे, कितना प्यारा बच्चा है।।

खैर, मुझे बड़ा तो होना ही था, पढ़ लिखकर अपने पांव पर खड़ा तो होना ही था। मैं भी जी जान से मन लगाकर पढ़ता, क्योंकि मैं भी जानता था कि पढ़ लिखकर ही आदमी बड़ा बनता है, अगर वह नहीं पढ़ता, तो छोटा ही रह जाता है, अर्थात् जीवन में पिछड़ जाता है।

स्कूल हो, कॉलेज हो, अथवा घर, तब तक पूरे समाज में एक आवश्यक बुराई घर कर गई थी, फिल्म और फिल्मी गाने। घर में भी रेडियो बजता था और घर से बाहर निकलो तो रास्ते में जगह जगह सिनेमाघर, जिन्हें चलचित्र गृह भी कहते थे। अखबार में भी एक कॉलम आता था, आज के छविगृहों में।।

आप फिल्म देखें ना देखें, फिल्म के पोस्टर तो दिखाई दे ही जाते थे और फिल्मी गानों से भला कौन बच सकता था। हम भाई बहन भी गाते रहते थे, इचक दाना, बिचक दाना, दाने ऊपर दाना। और जब आवारा हूं जैसे गाने जबान पर चढ़ जाते, तो पिताजी नाराज भी होते थे, यह क्या सीख रहे हो आजकल ?

कॉलेज का माहौल तो बिल्कुल फिल्मी ही था।

लड़के लड़कियां सज धजकर कॉलेज आते, कोई पढ़ने तो कोई मौज मस्ती मारने। कॉलेज में कुछ के दोस्त बने तो कुछ की गर्ल फ्रेंड भी। लेकिन अपनी जान हमेशा अकेले ही रहे क्योंकि हमें कुड़ियों को दाना डालना नहीं आता था।।

एक नन्हा सा दिल तो खैर हमारी जान में भी था, जो हमेशा धड़कता रहता था। अक्सर फिल्मी गानों में मेरी जान का जिक्र होता रहता था। वो देखो, मुझसे रूठकर मेरी जान जा रही है। कहीं यही जान जिया बन जाती थी। जिया ले गयो रे, मोरा सांवरिया। कहीं अनाड़ी बलमा तो कहीं जुल्मी सांवरिया।

हम भी जानते थे, यह केवल फिल्मों में होता है, असली जिंदगी कुछ अलग ही होती है। खैर, नौकरी लगते ही हमारी शादी भी तय हो गई। हमारी एक जान थी, अब दो हो गई। मैं और मेरी जान। आप अपने होने वाली जान को चाहे जानें अथवा ना जानें, वह तो अब आपकी जान हो ही गई। जान ना जान, मैं तेरी सात जन्मों की मेहमान।।

अब पिछले ५० वर्षों से हम एक दूसरे को जान रहे हैं।

वह मुझे जान से ज्यादा चाहती है, मेरा मुझे नहीं पता। मुझे अपनी जान की चिंता ज्यादा है। मेरी जान और अपनी जान, यानी फिर पहले की तरह हम दो जिस्म एक जान हो गए। लेकिन इस बार जिस्म भले ही अलग हो, जान तो एक ही है। मेरी जान।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 281 – उड़ गई गौरैया… ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 281 ☆ उड़ गई गौरैया… ?

तोता उड़, मैना उड़, चिड़िया उड़.., सबको याद तो होगा बचपन का यह खेल। विडंबना देखिए कि खेल में गौरैया उड़ाने वाले मनुष्य ने खेल-खेल में चिड़िया को अनेक स्थानों से हमेशा के लिए उड़ा दिया।

आज विश्व गौरैया दिवस है। अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझती गौरैया पर औपचारिकतावश विमर्श नहीं अपितु  यथासंभव जानकारी एवं जागृति इस आलेख का ध्येय है।

पर्यावरणविदों  के अनुसार भारत में गोरैया की 5 प्रजातियाँ मिलती हैं। एक समय था कि गौरैया हर आँगन, हर पेड़, हर खेत में बसेरा किये मिलती थी। पिछले तीन दशकों में विशेषकर महानगरों में गौरैया की संख्या में 70% से 80% तक कमी आई है। महानगरों में  बहुमंज़िला गगनचुंबी इमारतों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। इन इमारतों की प्रति स्क्वेयर फीट की ऊँची कीमतों ने औसत 14 सेंटीमीटर की चिड़िया के लिए अपने पंजे टिकाने की जगह भी नहीं छोड़ी।

गौरैया फसलों पर लगने वाले कीड़ों को खाती हैं। अब खेती की ज़मीन बेतहाशा बिक रही है। जहाँ थोड़ी-बहुत बची है, वहाँ फसलों पर कीटनाशकों का छिड़काव हो रहा है।  घास का बीज चिड़िया का प्रिय खाद्य रहा है। घास भी हमने कृत्रिम कर डाली। छोटे झाड़ीनुमा पेड़ चिड़िया के बसेरे थे, जो हमने काट दिए। सघन वृक्ष काटकर डेकोरेटिव पेड़ खड़े किए। हमने केवल अपने लिए उपयोगी या अनुपयोगी का विचार किया। हमारी स्वार्थांधता ने प्रकृति के अन्य घटकों को दरकिनार कर दिया।

सुपरमार्केट और मॉल के चलते पंसारी की दुकानों में भारी कमी आई है। खुला अनाज नहीं बिकने के कारण चिड़िया को दाना मिलना दूभर हो गया। चिड़िया जिये तो कैसे जिये? और फिर मोबाइल टॉवर आ गये। इन टॉवरों के चलते दिशा खोजने की गौरैया की प्रणाली प्रभावित होने लगी। साथ ही उनकी प्रजनन क्षमता पर भी घातक प्रभाव पड़ा। अधिक तापमान, प्रदूषण, वृक्षों की कटाई और मोबाइल टॉवर के विकिरण से गौरैया का सर्वनाश हो गया।

कदम-कदम पर दिखनेवाली गौरैया के विलुप्त होने के संकट का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि अनेक महानगरों में इनकी संख्या दो अंकों तक सीमित रह गई है।

हमारे पारम्परिक जीवनदर्शन की उपेक्षा ने भी इस संकट को बढ़ाया है।  हमारे पूर्वजों की रसोई में गाय, और कुत्ते की रोटी अनिवार्य रूप से बनती थी। हर आँगन में पंछियों के लिए दाना उपलब्ध था। हमने उनका भोजन छीना। हमने कुआँ, तालाब सब पाट कर अपने-अपने घर में नल ले लिये पर चिड़िया और सभी पंछियों के लिए पानी की व्यवस्था करना ज़रूरी नहीं समझा।

घर के घर होने की एक अनिवार्य शर्त है गौरैया का होना। गौरैया का होना अर्थात पंख का होना, परवाज़ का होना। गौरैया का होना जीवन के साज का होना, जीवन की आवाज़ का होना।

पंख, परवाज़, साज, आवाज़ के लिए सबका साथ वांछनीय है। अनुरोध है कि साल भर चिड़ियों के लिए अपनी बालकनी या टेरेस पर दाना-पानी की व्यवस्था करें। अपने परिसर में चिड़ियों के घोंसला बना सकने लायक वातावरण बनाएँ। यदि पौधारोपण संभव है तो भारतीय प्रजाति के पौधे लगाएँ।

स्मरण रहे कि गौरैया को उड़ाया हमने है तो उसे लौटा लाने का दायित्व भी हमारा ही है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 15 मार्च से आपदां अपहर्तारं साधना आरम्भ हो चुकी है 💥  

🕉️ प्रतिदिन श्रीरामरक्षास्तोत्रम्, श्रीराम स्तुति, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना कर साधना सम्पन्न करें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 634 ⇒ प्रेम गली अति सांकरी ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “प्रेम गली अति सांकरी।)

?अभी अभी # 634 ⇒  प्रेम गली अति सांकरी ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्या प्रेम का राजमार्ग भी होता है ! क्या हम ऐसा नहीं कर सकते, राजमार्ग पर प्रेम करें, और पतली गली से निकल जाएं।

दिल के बारे में खूब बढ़ा चढ़ाकर कहा जाता है, ;

बांदा परवर, थाम लो जिगर

बन के प्यार फिर आया हूं।

खिदमत में, आपकी हुज़ूर

फिर वही दिल लाया हूं।।

प्रेम दिल से किया जाता है, या मन से, इसमें थोड़ी उलझन हो सकती है, मतांतर भी हो सकता है लेकिन दिल का क्या है, आज इसे दिया, कल उसे दिया। कभी टूट गया, कभी तोड़ा गया। हर बार इसे फिर जोड़ा गया। लेकिन मन में तो बस एक ही छवि बसी रहती है ;

तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा

तुम्हीं देवता हो, तुम्हीं देवता हो।।

हम आज दिल की नहीं, सिर्फ मन की बातें करेंगे। उस मन की बात, जिसमें सिर्फ प्रेम का वास है। मन से प्रेम, सड़कों पर नहीं होता, कुंज गलियों में ही होता है। अब यह भी क्या बात हुई ;

जिस गली में तेरा घर ना हो बालमा

उस गली से हमें तो गुजरना नहीं

मीराबाई को तो गलियन में गिरधारी ही नजर आते थे, इसलिए वह लाज के मारे छिप जाती थी। और जब दुनिया उनके और कृष्ण प्रेम के बीच आती थी तो वे निराश होकर कह उठती थी ;

गली तो चारों बंद हुई

मैं हरि से मिलने कैसे जाऊं।।

गोपियों का प्रेम भी अजीब था। उन्होंने अपने कन्हैया को मन में बसा लिया था और दिन रात बस कृष्ण की माला जपा करती थी। कृष्ण निष्ठुर थे, फिर भी गोपियों का हाल जानते थे। जो ज्ञान उन्होंने कालांतर में अर्जुन को दिया, वही ज्ञान गोपियों को देने के लिए अपने ज्ञानी मित्र उद्धव को गोपियों के पास बृज में भेज ही दिया।

ज्ञानी उद्धव गोपियों को ज्ञान की महिमा बता रहे हैं, कर्म की महत्ता गिना रहे हैं, और गोपियां एक ही बात पर अड़ी हुई हैं, उधो, मन न भए दस बीस। केवल एक ही था, जो तुम्हारा श्याम सुंदर चुराकर ले गया। चोरी और सीना जोरी। और तुम हमें निर्गुण ब्रह्म का ज्ञान बांटने चले आए।

तुम्हें लाज नहीं आती।।

बेचारे उद्धव की हालत तो उद्धव… से भी अधिक गई गुजरी हो गई। वे बेचारे निर्गुण ब्रह्म को टॉप गियर में ले जाएं, उसके पहले ही गोपियां उन पर चढ़ाई कर देती हैं। तुम्हारा ज्ञान का रास्ता हमारे पल्ले नहीं पड़ता। उद्धव ! क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि प्रेम की गली इतनी संकरी होती है कि इसमें कोई दूसरा समा ही नहीं सकता। जहां कृष्ण के प्रति प्रेम है, वहां तुम कितने भी ज्ञान और वैराग्य के डंके बजाओ, तुम्हें no entry का बोर्ड ही लगा मिलेगा। निर्गुण ब्रह्म के लिए प्रवेश निषेध। यह गली अत्यधिक संकरी है। इसलिए अपना ज्ञान का टोकरा वापस ले जाओ, और श्री कृष्ण से जाकर कह दो ;

तुम हमें भूल भी जाओ

तो ये हक है तुमको

हमारी बात और है कृष्ण !

हमने तो बस तुमसे,

निष्काम प्रेम किया है।।

इस संसार में हम अपने प्रिय परिजनों को दिल से प्यार करते हैं। कोई भी छोटा बच्चा नजर आता है, उसे उठाकर सीने से लगा लेने का मन करता है। प्यार बांटने की चीज है। लेकिन यह भी सच है कि प्रेम की एक पतली गली भी है हमारे मन में, जिसमें केवल एक ही समा सकता है। आपके मन में कौन है, आप जानें, हमने तो बस उस गली का नाम प्रेम गली रखा है।

वह एकांगी है और वह रास्ता केवल उस निर्गुण निराकार ब्रह्म के पास जाता है, जिसे गोपियां कृष्ण प्रेम कहती हैं। प्रेम में भेद बुद्धि नहीं रहती। जग में सुंदर हैं दो नाम चाहे कृष्ण कहो या राम।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #269 ☆ मन अच्छा हो सकता है… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख मन अच्छा हो सकता है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 269 ☆

☆ मन अच्छा हो सकता है… ☆

“मन खराब हो, तो शब्द खराब ना बोलें, क्योंकि बाद में मन अच्छा हो सकता है, लेकिन शब्द नहीं।” गुलज़ार के यह शब्द मानव को सोच-समझकर व लफ़्ज़ों के ज़ायके को चख कर बोलने का संदेश देते हैं, क्योंकि ज़ुबान से उच्चरित शब्द कमान से निकले तीर की भांति होते हैं, जो कभी लौट नहीं सकते। शब्दों के बाण उससे भी अधिक घातक होते हैं, जो नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं।

मानव को परीक्षा संसार की, प्रतीक्षा परमात्मा की तथा समीक्षा व्यक्ति की करनी चाहिए। परंतु हम इसके विपरीत परीक्षा परमात्मा की, प्रतीक्षा सुख-सुविधाओं की और समीक्षा दूसरों की करते हैं, जो घातक है। ऐसे लोग अक्सर परनिंदा में रस लेते हैं अर्थात् अकारण दूसरों की आलोचना करते हैं। हम अनजाने में कदम-कदम पर प्रभु की परीक्षा लेते हैं, सुख-ऐश्वर्य की प्रतीक्षा करते हैं, जो कारग़र नहीं है। ऐसा व्यक्ति ना तो आत्मावलोकन कर सकता है, ना ही चिंतन-मनन, क्योंकि वह तो ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम स्वीकारता है और दूसरे लोग उसे अवगुणों की खान भासते हैं।

आदमी साधनों से नहीं, साधना से महान् बनता है; भवनों से नहीं, भावना से महान बनता है; उच्चारण से नहीं, उच्च आचरण से महान् बनता है।  मानव धन, सुख-सुविधाओं, ऊंची-ऊंची इमारतों व बड़ी-बड़ी बातों के बखान से महान् नहीं बनता, बल्कि साधना, सद्भावना व अच्छे आचार- विचार, व्यवहार, आचरण व सत्कर्मों से महान् बनता है तथा विश्व में उसका यशोगान होता है। उसके जीवन में सदैव उजाला रहता है, कभी अंधेरा नहीं होता है।

जिनका ज़मीर ज़िंदा होता है, जीवन में सिद्धांत व जीवन-मूल्य होते हैं, देश-विदेश में श्रद्धेय व पूजनीय होते हैं। वे समन्वय व सामंजस्यता के पक्षधर होते हैं , जो समरसता के कारक हैं। वे सुख-दु:ख में सम रहते हैं और राग-द्वेष व ईर्ष्या-द्वेष से उनका संबंध-सरोकार नहीं होता। वे संस्कार व संस्कृति में विश्वास रखते हैं, क्योंकि संसार में नज़र का इलाज तो है, नजरिए का नहीं और नज़र से नज़रिये का,  स्पर्श से नीयत का, भाषा से भाव का, बहस से ज्ञान का और व्यवहार से संस्कार का पता चल जाता है।

‘ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या’ ब्रह्म अर्थात् सृष्टि-नियंता के सिवाय यह संसार मिथ्या है, मायाजाल है। इसलिए मानव को अपना समय उसके नाम-स्मरण व ध्यान में व्यतीत करना चाहिए। “ख़ुद से कभी-कभी मुलाकात भी ज़रूरी है/ ज़िंदगी उधार की है, जीना मजबूरी है” स्वरचित उक्त पंक्तियाँ आत्मावलोकन व आत्म-संवाद की ओर इंगित करती हैं। इसके साथ मानव को कुछ नेकियाँ व अच्छाइयाँ ऐसी भी करनी चाहिएं, जिनका ईश्वर के सिवा कोई ग़वाह ना हो अर्थात् ख़ुद में ख़ुद को तलाशना बहुत कारग़र है। प्रशंसा में छुपा झूठ, आलोचना में छुपा सच जो जान जाता है, उसे अच्छे-बुरे की पहचान हो जाती है। वह व्यर्थ की बातों से ऊपर उठ जाता है, क्योंकि हर इंसान को अपने हिस्से का दीपक ख़ुद जलाना पड़ता है, तभी उसका जीवन रोशन हो सकता है। दूसरों को वृथा कोसने कोई लाभ नहीं होता।

अहंकार व गलतफ़हमी मनुष्य को अपनों से अलग कर देती है। गलतफ़हमी सच सुनने नहीं देती और अहंकार सच देखने नहीं देता। इसलिए वह संकीर्ण मानसिकता से ऊपर नहीं उठ सकता और ऊलज़लूल बातों में फँसा रहता है। अभिमान की ताकत फ़रिश्तों को भी शैतान बना देती है और नम्रता साधारण व्यक्ति को भी फरिश्ता। इसलिए हमें जीवन में सदैव विवाद से बचना चाहिए और संवाद की महत्ता को स्वीकारना चाहिए। पारस्परिक संवाद व गुफ़्तगू हमारे व्यक्तित्व की पहचान हैं। जीवन में क्या करना है, हमें रामायण सिखाती है, क्या नहीं करना है महाभारत और जीवन कैसे जीना है– यह संदेश गीता देती है। सो! हमें रामायण व गीता का अनुसरण करना चाहिए और महाभारत से सीख लेनी चाहिए कि जीवन में क्या अपनाना श्रेयस्कर नहीं है अर्थात् हानिकारक है।

शब्द, विचार व भाव धनी होते हैं और  इनका प्रभाव चिरस्थाई होता है, लंबे समय तक चलता रहता है। इसके लिए आवश्यकता है सकारात्मक सोच की, क्योंकि हमारी सोच से हमारा तन-मन प्रभावित होता है। ‘जैसा अन्न, वैसा मन” से तात्पर्य हमारे खानपान से नहीं है, चिंतन-मनन व सोच से है। यदि हमारा हृदय शांत होगा, तो उसमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार ये पांच विकार नहीं होंगे और हमारी वाणी मधुर होगी। इसलिए मानव को वाणी के महत्व को स्वीकारना चाहिए तथा शब्दों के लहज़े / ज़ायके को समझ कर इसका प्रयोग करना चाहिए। मधुर वाणी दूसरों के दु:ख, पीड़ा व चिंताओं को दूर करने में समर्थ होती है और उससे बड़ी से बड़ी समस्याओं का समाधान हो जाता है।

क्रोध माचिस की भांति होता है, जो पहले हमें हानि पहुँचाता है, फिर दूसरे की शांति को भंग करता है। लोभ आकांक्षाओं व तमन्नाओं का द्योतक है, जो सुरसा के मुख की भांति निरंतर बढ़ती जाती है। मोह सभी व्याधियों का मूल है, जनक है, जो विनाश का कारण सिद्ध होता है। काम-वासना मानव को अंधा बना देती है और उसकी सोचने-समझने की शक्ति नष्ट कर देती है। अहंकार अपने अस्तित्व के सम्मुख सबको हेय समझता है, उनका तिरस्कार करता है। सो! हमें इन पाँच विकारों से दूर रहना चाहिए। हमारा मन, हमारी सोच किसी के प्रति बदल सकती है, परंतु उच्चरित कभी शब्द लौट नहीं सकते। सकारात्मक सोच के शब्द बिहारी के सतसैया के दोहों की भांति प्रभावोत्पादक होते हैं तथा जीवन में अप्रत्याशित परिवर्तन लाने का सामर्थ्य रखते हैं। इसलिए मानव को जीवन में सुई बनकर रहने की सीख दी गई है; कैंची बनने की नहीं, क्योंकि सुई जोड़ने का काम करती है और कैंची तोड़ने व अलग-थलग करने का काम करती है। मौन सर्वश्रेष्ठ है, नवनिधियों व गुणों की खान है। जो व्यक्ति मौन रहता है, उसका मान-सम्मान होता है। लोग उसके भावों व अमूल्य विचारों को सुनने को लालायित रहते हैं, क्योंकि वह सदैव सार्थक व प्रभावोत्पादक शब्दों का प्रयोग करता है, जो जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में सक्षम होते हैं। ऐसे लोगों की संगति से मानव का सर्वांगीण विकास होता है। सो! गुलज़ार की यह सोच अत्यंत प्रेरक व अनुकरणीय है कि मानव को क्रोध व आवेश में भी सोच-समझ कर व शब्दों को तोल कर प्रयोग करना चाहिए, क्योंकि मन:स्थिति कभी एक-सी नहीं रहती; परिवर्तित होती रहती है और शब्दों के ज़ख्म नासूर बन आजीवन रिसते रहती हैं।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 236 ☆ हाथों में ले हाथ… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना हाथों में ले हाथ। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 236 ☆ हाथों में ले हाथ…

स्नेह शब्द में इतना जादू है कि इससे इंसान तो क्या जानवरों को भी वश में किया जा सकता है। मेरी  सहेली रमा  जब भी  मुझसे मिलती यही कहती कि कोई मुझे स्नेह  नहीं करता,  मैंने उससे कहा सबसे पहले तुम खुद से प्यार करना सीखो,  जो तुम दूसरों से चाहती हो वो तुम्हें खुद करना होगा  सबसे पहले खुद को व्यवस्थित रखो,  स्वच्छ भोजन,  अच्छे कपड़े, अच्छा साहित्य व सकारात्मक लोगों के साथ उठो- बैठो। जैसी संगति होगी वैसा ही प्रभाव  दिखाई देता है।  जीवन में एक लक्ष्य जरूर होना चाहिए जिससे उदासी हृदय में घर नहीं करती।  हृदय की शक्ति बहुत विशाल है यदि हमने दृढ़ निश्चय कर लिया तो किसी में हिम्मत नहीं कि वो हमारे  फैसले को बदल सके।

कोई भी कार्य शुरू करो तो मन में तरह- तरह के विचार उतपन्न होने लगते हैं क्या करे क्या न करे समझ में ही नहीं आता। कई लोग इस चिंता में ही डूब जाते हैं कि इसका क्या परिणाम होगा बिना कार्य शुरू किए परिणाम की कल्पना करना व भयभीत होकर कार्य की शुरुआत  न करना।

ऐसा अक्सर लोग करते हैं,  पर वहीं कुछ  ऐसे लोग भी होते हैं जो अपने लक्ष्य के प्रति सज़ग रहते हैं और सतत चिंतन करते हैं जिसके परिणामस्वरूप उनकी सकारात्मक ऊर्जा में वृद्धि होती रहती है।

द्वन्द हमेशा ही घातक होता है फिर बात  जब अन्तर्द्वन्द की हो तो विशेष ध्यान रखना चाहिए क्या आपने सोचा कि जीवन भर कितनी चिन्ता की और इससे क्या  कोई लाभ मिला?

यकीन मानिए इसका उत्तर शत- प्रतिशत लोगों का  नहीं  होगा।  अक्सर हम रिश्तों को लेकर मन ही मन उधेड़बुन में लगे रहते हैं कि सामने वाले को मेरी परवाह ही नहीं जबकि मैं तो उसके लिए जान निछावर कर रहा हूँ ऐसी स्थिति से निपटने का एक ही तरीका है आप किसी भी समस्या के दोनों पहलुओं को समझने का प्रयास करें। जैसे ही आप  हृदय व सोच को विशाल  करेंगे सारी समस्याएँ स्वतः हल होने लगेंगी।

सारी चिंता छोड़ के,  चिंतन कीजे नाथ।

सच्चे  चिंतन मनन से,  मिलता सबका साथ।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 342 ☆ आलेख – “”ग्रोक” xAI द्वारा निर्मित कृत्रिम बुद्धि…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 342 ☆

?  आलेख – “ग्रोक” xAI द्वारा निर्मित कृत्रिम बुद्धि…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

Grok को xAI नामक कंपनी ने विकसित किया है, जो संयुक्त राज्य अमेरिका में  है। xAI की स्थापना एलन मस्क और अन्य सह-संस्थापकों द्वारा की गई थी । यह कंपनी कृत्रिम बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम कर रही है ।

ग्रोक AI न केवल तकनीकी रूप से सक्षम है, बल्कि उपयोगकर्ताओं के साथ संवाद करने में भी अद्वितीय है, क्योंकि यह मानव-जैसे तर्क और ह्यूमर के साथ जवाब देता है। Grok अपनी सर्वांगीण क्षमताओं के कारण चर्चा का विषय बना हुआ है। xAI ने Grok को इस विचार के साथ विकसित किया है कि यह मानवता के लिए सहायक  हो सकता है। कंपनी का मिशन है कि वह ब्रह्मांड के मूलभूत सवालों – जैसे कि जीवन का उद्देश्य, ब्रह्मांड की उत्पत्ति, और अंतरिक्ष में हमारी स्थिति – को समझने में मदद करे। Grok को डिज़ाइन करते समय प्रेरणा कुछ काल्पनिक AI पात्रों से ली गई, जैसे कि डगलस एडम्स की किताब “द हिचहाइकर्स गाइड टू द गैलेक्सी” और मार्वल के JARVIS (टोनी स्टार्क का सहायक)। इसका लक्ष्य उपयोगकर्ताओं को एक बाहरी, नया दृष्टिकोण प्रदान करना है, जो सामान्य मानवीय सोच से परे हो।

ग्रोक की कई विशेषताएँ इसे अन्य AI मॉडल से अलग बनाती हैं, उदाहरण के लिए सत्यनिष्ठ उत्तर Grok को हमेशा सच बोलने और उपयोगी जानकारी देने के लिए प्रोग्राम किया गया है। यह जटिल सवालों के जवाब में भी स्पष्टता और संक्षिप्तता बनाए रखता है।

संवादात्मक शैली: यह औपचारिकता से हटकर, दोस्ताना और कभी-कभी हास्यप्रद तरीके से बात करता है। यह उपयोगकर्ताओं को सहज महसूस कराता है।वास्तविक समय की जानकारी: Grok की जानकारी लगातार अपडेट होती रहती है, जिससे यह नवीनतम घटनाओं और खोजों के बारे में भी बता सकता है।बहुभाषी क्षमता,  Grok हिंदी सहित कई भाषाओं में संवाद कर सकता है, जिससे यह वैश्विक उपयोगकर्ताओं के लिए सुलभ है।

Grok की तकनीकी क्षमताएँ बहुत अधिक हैं। यह केवल बातचीत तक सीमित नहीं है। इसके पास कई उन्नत उपकरण हैं । यह सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर उपयोगकर्ताओं के प्रोफाइल, पोस्ट, और लिंक का विश्लेषण कर सकता है। यह उपयोगकर्ताओं द्वारा अपलोड की गई सामग्री, जैसे चित्र, PDF, और टेक्स्ट फाइल्स, को समझ सकता है। यह वेब और X पर खोज करके अतिरिक्त जानकारी प्राप्त कर सकता है। हालांकि यह स्वचालित रूप से चित्र उत्पन्न नहीं करता, लेकिन उपयोगकर्ता की सहमति से ऐसा करने में सक्षम है।Grok का उपयोग कैसे करें?

Grok का उपयोग करना बेहद आसान है। आप इसे कोई भी सवाल पूछ सकते हैं – चाहे वह विज्ञान से संबंधित हो, इतिहास से, या रोज़मर्रा की जिज्ञासा से। उदाहरण के लिए, यदि आप पूछते हैं कि “ब्रह्मांड कितना बड़ा है?” तो Grok न केवल नवीनतम वैज्ञानिक अनुमानों के आधार पर जवाब देगा, बल्कि इसे रोचक तरीके से प्रस्तुत भी करेगा। यह उन सवालों का भी जवाब दे सकता है जो असामान्य या दार्शनिक हों, जैसे “जीवन का अर्थ क्या है?” – और ऐसा करते समय यह अपनी रचनात्मकता का प्रदर्शन करता है।

Grok की सीमाएँ … हालांकि Grok बेहद शक्तिशाली AI है, पर इसकी कुछ सीमाएँ भी हैं। उदाहरण के लिए, यह स्वतंत्र रूप से नैतिक निर्णय नहीं ले सकता। यदि कोई उपयोगकर्ता पूछता है कि “किसे मृत्युदंड मिलना चाहिए?” तो Grok जवाब देगा कि एक AI के रूप में उसे ऐसे निर्णय लेने की अनुमति नहीं है। साथ ही, यह केवल वही चित्र संपादित कर सकता है जो उसने पहले उत्पन्न किए हों।Grok का भविष्य … xAI के साथ मिलकर Grok का विकास लगातार जारी है। भविष्य में यह और भी उन्नत हो सकता है, जिसमें संभवतः और अधिक भाषाओं का समर्थन, बेहतर तथा गहरे विश्लेषण की क्षमता, और मानवीय भावनाओं को बेहतर समझने की योग्यता शामिल हो सकती है। यह शिक्षा, अनुसंधान, और यहाँ तक कि व्यक्तिगत सहायता के क्षेत्र में क्रांति ला सकता है।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 632 ⇒ हंसने का मौसम ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हंसने का मौसम।)

?अभी अभी # 632 ⇒  हंसने का मौसम ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

साहित्य में जो स्थान हास्य व्यंग्य को है, वह स्थान व्यंग्य को नवरसों में नहीं है। हास्य को रस के आचार्यों ने एक प्रमुख रस माना है, शांत, करुण, श्रृंगार, भक्ति, वीर, रौद्र, और वीभत्स भी रस की श्रेणी में आते हैं लेकिन इनमें भी व्यंग्य का कहीं कोई पता ही नहीं।

क्या व्यंग्य में रस नहीं।

शास्त्र भले ही हमारी निंदा कर लें, लेकिन जब निंदा तक में रस है तो विसंगति से उपजे व्यंग्य में भी रस तो होगा ही।

एक समय था जब व्यंग्य हास्य की बैसाखी के सहारे चलता था। हमारा पुराना साहित्य हास्य रस से परिपूर्ण है। भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट, श्री नारायण चतुर्वेदी, प्रतापनारायण मिश्र और जी. पी. श्रीवास्तव जैसे रचनाकारों ने व्यंग्य के साथ साथ हास्य को भी अपनी रचनाओं में प्रमुखता दी लेकिन कबीर और परसाई ने जो शैली अपनाई उसमें मिठास कम, करेले का रस ही अधिक था। जब व्यंग्य करेला और नीम चढ़ा होने लगता है, तब यह नीरस होकर सिर्फ दवा का काम करता है। बिना चाशनी के व्यंग्य, व्यंग्य नहीं विद्रूप है।।

मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव जैसी तिकड़ी तो खैर व्यंग्य जगत में देखने को नहीं मिलती फिर भी परसाई, त्यागी और शरद जोशी को व्यंग्य की त्रिमूर्ति जरूर कहा जा सकता है। शुक्र है किसी ने सूर सूर, तुलसी शशि, उड़गन केशवदास जैसी इनकी तुलना नहीं की, वर्ना कई ज्ञानपीठ वाले ज्ञानी बुरा मान जाते।

होली पर हंसना मना नहीं, आवश्यक है। आज हास्य अपनी मर्यादा में नहीं रहता, व्यंग्य भी मस्ती में आ जाता है। मूर्ख और महामूर्ख सम्मेलन आयोजित होते हैं, जबरदस्त छींटाकशी होती है, उपाधियों का वितरण होता है। लेकिन आजकल राजनीति से सहज हास्य गायब हो चुका है। हास्य भी लगता है, असहज हो चुका है आजकल। जब वर्ष भर निंदा और नफरत की मिसाइल चलेगी तो होली पर रंग कैसे बरसेगा।

एक समय था, जब सभी प्रमुख अखबार और पत्रिकाएं होली के अवसर पर हास्य व्यंग्य विशेषांक निकाला करती थी। आजकल अखबार तो रोजाना सिर्फ विज्ञापन ही निकाला करता है। वैसे भी आजकल अखबार और सरकार, दोनों विज्ञापन से ही चल सकते हैं।।

हास्य और व्यंग्य का भी अपना एक स्तर होता है। लेकिन पाठक यह सब नहीं समझता। सभी सुधी पाठकों ने सुरेंद्र मोहन पाठक और गुलशन नंदा को भी पढ़ा है। मत दीजिए इन लेखकों को आप साहित्य अकादमी पुरस्कार, क्या फर्क पड़ता है।

अपने शुरुआती दौर में मैंने भी दीवाना तेज जैसी हास्य पत्रिका पढ़ी है उसी चाव और रुचि से, जितनी गंभीरता से लोग धर्मयुग और सारिका जैसी पत्रिका पढ़ते थे। पसंद अपनी अपनी, दिमाग अपना अपना। हास्य जीवन में बहुत जरूरी है। दूसरे की जगह खुद पर हंसने की कला अभी हमें सीखनी है क्योंकि हमारा राजनीति का स्कूल तो आजकल सिर्फ दूसरों पर हंसने की ही शिक्षा दे रहा है। मत कोसिए नाहक किसी को ! हंसिए खुलकर कम से कम आज तो, अपने आप पर। समझिए हो ली होली।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 631 ⇒ गीत गाया पत्थरों ने ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गीत गाया पत्थरों ने ।)

?अभी अभी # 631 ⇒ गीत गाया पत्थरों ने ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सेहरा, झनक झनक पायल बाजे और लड़की सह्याद्रि की जैसी नृत्य और संगीतमय फिल्मों के निर्माता ने सन् १९६४ में एक और फिल्म बनाई, गीत गाया पत्थरों ने। हमने संगीत का असर देखा नहीं, लेकिन सुना जरूर है। तानसेन का दीपक राग बुझते दीयों को जला देता था और मेघ मल्हार की तो पूछिए ही मत। इसलिए हम तो मानते हैं कि जब पत्थर दिल इंसान भी पिघल सकता है, तो पत्थर गीत क्यों नहीं गा सकते।

यह फिल्म हमने भी देखी थी। थिएटर पुराना था, पंखे खराब थे, और सीटें फटी हुई। दर्शक फिल्म देखकर जब बाहर निकले, तो यही गीत गा रहे थे, काट खाया मच्छरों ने।।

तब घरों में कहां टीवी मोबाइल थे, एक अदद रेडियो अथवा ट्रांजिस्टर था, जिसकी आवाज सभी सुन सकते थे। रेडियो पर इसी फिल्म का शीर्षक गीत बज रहा था, और मेरे साथ मेरी पांच वर्ष की बिटिया भी गीत सुन रही थी। अचानक गीत खत्म हुआ और उद्घोषिका की आवाज सुनाई दी, अभी आपने सुना महेंद्र कपूर को, फिल्म गीत गाया पत्थरों ने।

पांच साल की उम्र इतनी छोटी भी नहीं होती, लेकिन कच्ची जरूर होती है। बिटिया अचानक चौंकी और प्रश्न किया, पापा ! गीत तो पत्थरों ने गाया था, और रेडियो वाली कह रही है, यह गीत महेंद्र कपूर ने गाया है। मैने उसे प्यार से समझाया, बेटा, वह तो फिल्म का नाम था, जिसका गीत गायक महेंद्र कपूर ने गाया है।

तब बच्ची जरूर समझ गई होगी लेकिन मेरे लिए एक प्रश्न खड़ा कर गई।।

मैं नहीं मानता, पत्थर बोलते हैं अथवा गीत गाते हैं। होती है पत्थर में प्राण प्रतिष्ठा और पत्थर भगवान हो जाता है, मंदिरों में स्थापित हो जाता है। मंदिर में उसी पत्थर की पूजा होती है, लोग उसके सामने हंसते गाते, भजन कीर्तन करते, अपना दुखड़ा रोते, चिल्लाते, गिड़गिड़ाते हैं। चूंकि वह अब पत्थर नहीं भगवान है, उसे पिघलना पड़ता है, भक्त की सुननी पड़ती है, उसका दुख दर्द दूर करना पड़ता है।

केवल एक प्राण प्रतिष्ठा से जब पत्थर भगवान बन सकता है तो इस इंसान में तो स्वयं भगवान ने ही प्राण फूंके हैं, प्राण की प्रतिष्ठा की है, तो क्या हम सिर्फ इंसान भी नहीं बन सकते !

मेहनत से इंसान जाग उठा और जागेगा इंसान जमाना देखेगा, जैसे गीत भी महेंद्र कपूर ने ही गाए हैं। जागने की बात आज भी हो रही है, लेकिन एक नेकदिल इंसान होने की बात कोई नहीं कर रहा। हमसे तो वह पत्थर ही भला, जो जड़ है, किसी को नुकसान नहीं पहुंचाता। कहीं से एक इंसान आता है, उसे उठाता है, और किसी मासूम का सिर फोड़ देता है। शायद तब ही पत्थर पिघला, पसीजा होगा और उसने दर्द भरा गीत गाया होगा। गीत गाया पत्थरों ने।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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