हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #185 ☆ चिन्ता बनाम पूजा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख चिन्ता बनाम पूजा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 185 ☆

☆ चिन्ता बनाम पूजा 

‘जब आप अपनी चिन्ता को पूजा, आराधना व उपासना में बदल देते हैं, तो संघर्ष दुआओं में परिवर्तित हो जाता है।’ चिन्ता तनाव की जनक व आत्मकेंद्रितता की प्रतीक है, जो हमारे हृदय में अलगाव की स्थिति उत्पन्न करती है। इसके कारण ज़माने भर की ख़ुशियाँ हमें अलविदा कह रुख़्सत हो जाती हैं और उसके परिणाम-स्वरूप हम घिर जाते हैं– चिन्ता, तनाव व अवसाद के घने अंधकार में–जहां हमें मंज़िल तक पहुंचाने वाली कोई भी राह नज़र नहीं आती।’

वैसे भी चिन्ता को चिता समान कहा गया है, जो हमें कहीं का नहीं छोड़ती और हम नितांत अकेले रह जाते हैं। कोई भी हमसे बात तक करना पसंद नहीं करता, क्योंकि सब सुख के साथी होते हैं और दु:ख में तो अपना साया तक भी साथ नहीं देता। सुख और दु:ख एक-दूसरे के विरोधी हैं; शत्रु हैं। एक की अनुपस्थिति में ही दूसरा दस्तक देने का साहस जुटा पाता है…तो क्यों न इन दोनों का स्वागत किया जाए? ‘अतिथि देवो भव:’ हमारी संस्कृति है, हमारी परंपरा है, आस्था है, विश्वास है, जो सुसंस्कारों से पल्लवित व पोषित होती है। आस्था व श्रद्धा से तो धन्ना भगत ने पत्थर से भी भगवान को प्रकट कर दिया था। हाँ! जब हम चिन्ता को पूजा में परिवर्तित कर लेते हैं अर्थात् सम्पूर्ण समर्पण कर देते हैं, तो वह प्रभु की चिन्ता बन जाती है, क्योंकि वे हमारे हित के बारे में हमसे बेहतर जानते हैं। सो आइए! अपनी चिन्ताओं को सृष्टि-नियंता को समर्पित कर सुक़ून से ज़िंदगी बसर करें।

‘बाल न बांका कर सके, जो जग बैरी होय’ इस उक्ति से तो आप सब परिचित होंगे कि जिस मनुष्य पर प्रभु का वरद्हस्त रहता है, उसे कोई लेशमात्र भी हानि नहीं पहुँचा सकता; उसका अहित नहीं कर सकता। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि आप हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाएं कि अब तो सब कुछ प्रभु ही करेगा। जो भाग्य में लिखा है; अवश्य होकर अर्थात् मिल कर रहेगा क्योंकि ‘कर्म गति टारै नहीं टरै।’ गीता मेंं भी भगवान श्रीकृष्ण ने निष्काम कर्म का संदेश दिया है तथा उसे ‘सार्थक कर्म’ की संज्ञा दी है। उसके साथ ही वे परोपकार का संदेश हुए मानव-मात्र के हितों का ख्याल रखने को कहते हैं। दूसरे शब्दों में वे हाशिये के उस पार के नि:सहाय लोगों के लिए मंगल-कामना करते हैं, ताकि समाज में सामंजस्यता व समरसता की स्थापना हो सके। वास्तव में यही है–सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम राह, जिस पर चल कर हम कैवल्य की स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं।

संघर्ष को दुआओं में बदलने की स्थिति जीवन में तभी आती है, जब आपके संघर्ष करने से दूसरों का हित होता है और असहाय व पराश्रित लोग अभिभूत हो आप पर दुआओं की वर्षा करनी प्रारंभ कर देते हैं। दुआ दवा से भी अधिक श्रेयस्कर व कारग़र होती है, जो मीलों का फ़ासला पल-भर में तय कर प्रार्थी तक पहुँच अपना करिश्मा दिखा देती है तथा उसका प्रभाव अक्षुण्ण होता है…रेकी इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। आजकल तो वैज्ञानिक भी गायत्री मंत्र के अलौकिक प्रभाव देख कर अचंभित हैं। वे इस तथ्य को स्वीकारने लगे हैं कि दुआओं व वैदिक मंत्रों में विलक्षण व अलौकिक शक्ति होती है। मुझे स्मरण हो रही हैं– स्वरचित मुक्तक-संग्रह ‘अहसास चंद लम्हों का’ की चंद पंक्तियां… जो जीवन मे एहसासों की महत्ता व प्रभुता को दर्शाती हैं– ‘एहसास से रोशन होती है ज़िंदगी की शमा/ एहसास कभी ग़म, कभी खुशी दे जाता है/ एहसास की धरोहर को सदा संजोए रखना/ एहसास ही इंसान को बुलंदियों पर पहुँचाता है।’ एहसास व मन के भावों में असीम शक्ति है, जो असंभव को संभव बनाने की क्षमता रखते हैं।

उक्त संग्रह की यह पंक्तियां सर्वस्व समर्पण के भाव को अभिव्यक्त करती है…’मैं मन को मंदिर कर लूं / देह को मैं चंदन कर लूं / तुम आन बसो मेरे मन में / मैं हर पल तेरा वंदन कर लूं’…जी हाँ! यह है समर्पण व मानसिक उपासना की स्थिति… जहां मैं और तुम का भाव समाप्त हो जाता है और मन मंदिर हो जाता है। भक्त को प्रभु को तलाशने के लिए मंदिर-मस्जिद व अन्य धार्मिक-स्थलों में माथा रगड़ने की आवश्यकता महसूस नहीं होती। उसकी देह चंदन-सम हो जाती है, जिसे घिस-घिस कर अर्थात् जीवन को साधना में लगा कर वह प्रभु के चरणों में स्थान प्राप्त करना चाहता है। उसकी एकमात्र उत्कट इच्छा यही होती है कि परमात्मा उसके मन में रच-बस जाएं और वह हर पल उनका वंदन करता रहे अर्थात् एक भी सांस बिना सिमरन के व्यर्थ न जाए। इसी संदर्भ में मुझे स्मरण हो रहा है–महाभारत का वह प्रसंग, जब भीष्म पितामह शर-शैय्या पर लेटे थे। दुर्योधन पहले आकर उनके शीश की ओर स्थान प्राप्त कर स्वयं को गर्वित व हर्षित महसूसता है और कृष्ण उनके चरणों में बैठ कर संतोष का अनुभव करते हैं। सो! वह कृष्ण से प्रसन्नता का कारण पूछता है और अपने प्रश्न का उत्तर पाकर हतप्रभ रह जाता है कि ‘मानव की दृष्टि सबसे पहले सामने वाले अर्थात् चरणों की ओर बैठे व्यक्ति पर पड़ती है, शीश की ओर बैठे व्यक्ति पर नहीं।’ भीष्म पितामह भी पहले कृष्ण से संवाद करते हैं और दुर्योधन से कहते हैं कि मेरी दृष्टि तो पहले वासुदेव कृष्ण पर पड़ी है। इससे संदेश मिलता है कि यदि तुम जीवन में ऊंचाई पाना चाहते हो, तो अहं को त्याग, विनम्र बन कर रहो, क्योंकि जो व्यक्ति ज़मीन से जुड़कर रहता है; फलदार वृक्ष की भांति झुक कर रहता है… सदैव उन्नति के शिखर पर पहुंच सूक़ून व प्रसिद्धि पाता है।’

सो! प्रभु का कृपा-प्रसाद पाने के लिए उनकी चरण-वंदना करनी चाहिए… जो इस कथन को सार्थकता प्रदान करता है कि ‘यदि तुम जीवन में ऊंचाई पाना चाहते हो अथवा उन्नति के शिखर को छूना चाहते हो, तो किसी काम को छोटा मत समझो। जीवन में खूब परिश्रम करके सदैव नंबर ‘वन’ पर बने रहो और उस कार्य को इतनी एकाग्रता व तल्लीनता से करो कि तुम से श्रेष्ठ कोई कर ही न सके। सदैव विनम्रता का दामन थामे रखो, क्योंकि फलदार वृक्ष व सुसंस्कृत मानव सदैव झुक कर रहता है।’ सो! अहं मिटाने के पश्चात् ही आपको करुणा-सागर के निज़ाम में प्रवेश पाने का सुअवसर प्राप्त होगा। अहंनिष्ठ  मानव का वर्तमान व भविष्य दोनों अंधकारमय होते हैं। वह कहीं का भी नहीं रहता और न वह इस लोक में सबका प्रिय बन पाता है; न ही उसका भविष्य संवर सकता है अर्थात् उसे कहीं भी सुख-चैन की प्राप्ति नहीं होती।

इसलिए भारतीय संस्कृति में नमन को महत्व दिया गया है अर्थात् अपने मन से नत अथवा झुक कर रहिए, क्योंकि अहं को विगलित करने के पश्चात् ही मानव के लिए प्रभु के चरणों में स्थान पाना संभव है। नमन व मनन दोनों का संबंध मन से होता है। नमन में मन से पहले न लगा देने से और मनन में मन के पश्चात् न लगा देने से मनन बन जाता है। दोनों स्थितियों का प्रभाव अद्भुत व विलक्षण होता है, जो मानव को कैवल्य की ओर ले जाती हैं। सो! नमन व मनन वही व्यक्ति कर पाता है, जिसमें अहं अथवा सर्वश्रेष्ठता का भाव विगलित हो जाता है और वह विनम्र प्राणी निरहंकार की  स्थिति में आकाश की बुलंदियों को छूने का सामर्थ्य रखता है।

‘यदि मानव में प्रेम, प्रार्थना व क्षमा भाव व्याप्त हैं, तो उसमें शक्ति, साहस व सामर्थ्य स्वत: प्रकट हो जाते हैं, जो जीवन को उज्ज्वल बनाने में सक्षम हैं।’ इसलिए मानव में सब से प्रेम करने से सहयोग व सौहार्द बना रहेगा और उसके हृदय में प्रार्थना भाव जाग्रत हो जायेगा … वह मानव-मात्र के हित व मंगल की कामना करना प्रारंभ कर देगा। इस स्थिति में अहं व क्रोध का भाव विलीन हो जाने पर करुणा भाव का जाग्रत हो जाना स्वाभाविक है। महात्मा बुद्ध ने भी प्रेम, करुणा व क्षमा को सर्वोत्तम भाव स्वीकारते हुए उसे क्रोध पर नियंत्रित पाने के अचूक साधन व उपाय के रूप में प्रतिष्ठापित किया है। इन परिस्थितियों में मानव शक्ति व साहस के होते हुए भी अपने क्रोध पर नियंत्रण कर निर्बल पर वीरता का प्रदर्शन नहीं करता, क्योंकि वह ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात्’ अर्थात् वह बड़ों में क्षमा भाव की उपयोगिता, आवश्यकता, सार्थकता व महत्ता को समझता-स्वीकारता है। महात्मा बुद्ध भी प्रेम व करुणा का संदेश देते हुए स्पष्ट करते हैं कि वास्तव में ‘जब आप शक्तिशाली होते हुए भी निर्बल पर प्रहार नहीं करते– श्लाघनीय है, प्रशंसनीय है।’ इसके विपरीत यदि आप में शत्रु का सामना करने की सामर्थ्य व शक्ति ही नहीं है, तो चुप रहना आप की विवशता है, मजबूरी है; करुणा नहीं। मुझे स्मरण हो रहा है, शिशुपाल प्रसंग …जब शिशुपाल ने क्रोधित होकर भगवान कृष्ण को 99 बार गालियां दीं और वे शांत भाव से मुस्कराते रहे। परंतु उसके 100वीं बार वही सब दोहराने पर, उन्होंने उसके दुष्कर्मों की सज़ा देकर उसके अस्तित्व को मिटा डाला।

सो! कृष्ण की भांति क्षमाशील बनिए। विषम व असामान्य परिस्थितियों में धैर्य का दामन थामे रखें, क्योंकि तुरंत प्रतिक्रिया देने से जीवन में केवल तनाव की स्थिति ही उत्पन्न नहीं होती, बल्कि ज्वालामुखी पर्वत की भांति विस्फोट होने की संभावना बनी रहती है। इतना ही नहीं, कभी-कभी जीवन में सुनामी जीवन की समस्त खुशियों को लील जाता है। इसलिए थोड़ी देर के लिए उस स्थान को त्यागना श्रेयस्कर है, क्योंकि क्रोध तो दूध के उफ़ान की भांति पूर्ण वेग से आता है और पल-भर में शांत हो जाता है। सो! जीवन में अहं का प्रवेश निषिद्घ कर दीजिए, क्रोध अपना ठिकाना स्वत: बदल लेगा।

वास्तव में दो वस्तुओं के द्वंद्व अर्थात् अहं के टकराने से संघर्ष का जन्म होता है। सो! पारिवारिक सौहार्द बनाए रखने के लिए अहं का त्याग अपेक्षित है, क्योंकि संघर्ष व पारस्परिक टकराव से पति-पत्नी के मध्य अलगाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिसका ख़ामियाज़ा बच्चों को एकांत की त्रासदी के दंश रूप में झेलना पड़ता है। सो! संयुक्त परिवार-व्यवस्था के पुन: प्रचलन से जीवन में खुशहाली छा जाएगी। सत्संग, सेवा व सिमरन का भाव पुन: जाग्रत हो जाएगा अर्थात् जहां सत्संगति है, सहयोग व सेवा भाव अवश्य होगा, जिसका उद्गम-स्थल समर्पण है। सो! जहां समर्पण है, वहां अहं नहीं और जहां अहं नहीं, वहां क्रोध व द्वंद्व नहीं– टकराव नहीं, संघर्ष नहीं, क्योंकि द्वंद्व ही संघर्ष का जनक है। यह स्नेह, प्रेम, सौहार्द, त्याग, विश्वास, सहनशीलता व सहानुभूति के दैवीय भावों को लील जाता है और मानव चिन्ता, तनाव व अवसाद के मकड़जाल में फंस कर रह जाता है… जो उसे जीते-जी नरक के द्वार तक ले जाते हैं। आइए! चिंता को त्याग व अहं भाव को मिटा कर संपूर्ण समर्पण करें, ताकि संघर्ष दुआओं में परिवर्तित हो जाए और जीते-जी मुक्ति प्राप्त करने की राह सहज व सुगम हो जाए।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 58 ⇒ अमृत वेला… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अमृत वेला”।)  

? अभी अभी # 58 ⇒ अमृत वेला? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

रात्रि के चौथे पहर को अमृत वेला कहते हैं। परीक्षा समय में कुछ बच्चे रात रात भर जागकर पढ़ते थे, तो कुछ केवल ब्रह्म मुहूर्त में जागकर ही अपना पाठ याद कर लेते थे। ब्रह्म मुहूर्त सुबह ४ से ५.३० का माना गया है, जब कि अमृत वेला का समय सुबह ३ से ६ का माना गया है।

ऐसी धारणा है कि अमृत वेला योगियों के जागने की वेला है। गुरु ग्रंथ साहब के अनुसार अमृत वेला नाम से जुड़ने की वेला है। सतनाम वाहे गुरु। ।

फिलहाल हम भरत वंशियों का वैसे भी अमृत काल ही चल रहा है। अमृत वचन, अमृत कुण्ड और अमृत धारा किसी संजीवनी से कम नहीं।

समुद्र मंथन भी अमृत प्राप्ति के लिए ही हुआ था। जिसे बल से अगर असुर प्राप्त करना चाहते थे, तो छल से देवता। कभी मोहिनी अवतार तो कभी वामन अवतार, देवताओं को स्वर्ग भी चाहिए और अमृत भी। बस एक भोलेनाथ शिव शंकर ही तो नीलकंठ हैं। अमृत की एक बूंद के लिए तो कुंभ स्नान भी बुरा नहीं।

यह अभी अभी भी अमृत वेला की ही प्रेरणा है, कुछ अमृत बूंदें हैं विचार प्रवाह की। यह सिलसिला कब शुरू हुआ, रब ही जाने। कोई अलार्म नहीं, बस सुबह तीन बजे आंखें खुल जाना, और आदेश, अमृत वेला में सुबह पांच बजे तक जो विचार आए, वह अभी अभी का हिस्सा बन जाए। अमृत वेला, इस परीक्षार्थी के लिए मानो परीक्षा काल हो गई हो। ठीक पांच बजे, आपसे उत्तर पुस्तिका छीन ली जाएगी, जो आप लिख पाए, वही आपकी परीक्षा। अब आप दो शब्द लिखें अथवा सौ शब्द।।

धीरे धीरे यह अमृत वेला मेरी नियमित दिनचर्या में शामिल हो गई। कोई प्रश्न नहीं, कोई पाठ्य पुस्तक नहीं, कोई कोर्स नहीं, कोई पूर्व तैयारी नहीं। ध्यान कहें, धारणा कहें, ईश्वर प्राणिधान कहें, विचार कहें, सब कुछ अमृत वेला में घटित होता रहता है। जो बूंदें शब्द बन स्क्रीन पर प्रकट हो गईं, वे ही अभी अभी है, एक ऐसी उत्तर पुस्तिका है, जिसे रोज कौन जांचता है, उत्तीर्ण अथवा अनुत्तीर्ण का परीक्षा फल घोषित करता है, मुझे नहीं पता, क्योंकि अमृत वेला में मेरा कुछ नहीं, तेरा तुझको अर्पण। तू तो बस इस बहाने अमृत वेला में, नाम जप में, धारा सदगुरु में स्नान कर ले, डूब जा।

अभी अभी एक जागता हुआ सपना है, आधी हकीकत है, आधा फसाना है, तेरी मेरी बात है, तो कभी व्यर्थ का उत्पात है। बस जो भी है, जैसा भी है, अगर कुछ अच्छा है, तो अमृत वेला का प्रसाद है, अगर नापसंद है तो बस वही इस परीक्षार्थी का परिश्रम है, पुरुषार्थ है, गुस्ताखी है।।

ठीक पांच बजे आदेश हो जाएगा, आपका समय समाप्त हुआ, अपनी उत्तर पुस्तिका परीक्षक के हाथों सौंप परीक्षा हॉल के बाहर। और मेरी अभी अभी की उत्तर पुस्तिका, जो मैने अमृत वेला को समर्पित की थी, आप सुधी पाठक, उसके परीक्षक बन बैठते हैं। मुझे तो यह परीक्षा अमृत वेला में रोज देनी है, जब तक सांस है, शुभ संकल्प है, ईश्वर और सदगुरु की कृपा है, और अकर्ता का भाव है।

कौन सुबह मुझे मेरी मां की तरह नींद से, प्यार से रोज नियमित रूप से, अमृत वेला में जगाता है, कौन वेद व्यास मुझ गोबर गणेश से कुछ लिखवाते हैं। जब वेद व्यास लिखवाते हैं, तो मैं भी श्रीगणेश कर ही देता हूं, लेकिन जब मैं कुछ लिखता हूं, तो गुड़ गोबर तो होना ही है। लेकिन मुझे भरोसा है, पूरा यकीन है, अमृत वेला ब्रह्म मुहूर्त की वह वेला है, जब आकाश से, और चिदाकाश से अमृत ही बरसता है, फूल ही बरसते हैं, अमृत धारा ही बहती है। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 57 ⇒ गधा, घोड़ा और खच्चर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गधा, घोड़ा और खच्चर।)  

? अभी अभी # 58 ⇒ गधा, घोड़ा और खच्चर? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

एक गधा एक घोड़ा कहावत।घोड़ा एक उच्च नस्ल का प्राणी है, मनुष्य जब उसकी सवारी करता है तब वह घुड़सवार कहलाता है। शादी के वक्त जीवन में एक बार तो हर दूल्हा घोड़ी चढ़ता ही है। यह सुख गधे के नसीब में नहीं। कोई समझदार इंसान गधे की सवारी नहीं करता ! कोई दूल्हा भूल से भी कभी एक गधी पर चढ़ तोरण नहीं मारता।

आखिर घोड़े गधे में फ़र्क होता है ! लेकिन यह भी सनातन सत्य है कि अगर गधे के सींग नहीं होते, तो घोड़े के भी नहीं होते। अगर गधा घास खाता है, तो घोड़ा कोई बिरयानी नहीं खाता। दोनों के एक एक पूँछ होती है। हाँ गधा हिनहिना नहीं सकता और सावन के घोड़े को सब जगह हरा नहीं दिखता।।

घोड़े को अश्व भी कहते हैं और महालक्ष्मी में घोड़े की ही रेस होती है, गधों की नहीं। इतिहास गवाह है कि पुराने ज़माने के राजाओं की सेना में युद्ध के लिए घोड़े, हाथी, और अश्व-युक्त रथ होते थे, लेकिन किसी भी सेना में गधे को स्थान नहीं मिला। जब कि यह कछुए जितना स्लो भी नहीं।

अंग्रेज़ घोड़ों की सवारी ही नहीं करते थे, उस पर बैठ पोलो भी खेलते थे। अंग्रेज़ चले गए, पोलोग्राउण्ड छोड़ गए। सेना में आज भी अच्छी नस्ल के घोड़ों की उपयोगिता है। बीएसएफ की ही तरह एसएएफ की बटालियन भी होती है, जिसे अश्ववाहिनी भी कहते हैं।।

गधे और घोड़े के बीच की एक नस्ल होती है, जिसे खच्चर कहते हैं। आप इसे दलित अश्व भी कह सकते हैं। यूँ तो गधे और खच्चर दोनों पर समान रूप से सामान लादा जा सकता है, लेकिन खच्चर पहाड़ों पर आसानी से बोझा ढो सकता है। गधा इसीलिए गधा रह गया कि वह कभी पहाड़ नहीं चढ़ा।।

जो खच्चर पहाड़ों पर बोझा ढो सकता है, वह सैलानियों और तीर्थ यात्रियों को भी  सवारी के लिए अपनी  आपातकालीन सेवाएं प्रस्तुत कर सकता है। पहाड़ पर यह खच्चर कई लोगों को रोजगार उपलब्ध करवाता है। तराई से पहाड़ों पर आवश्यक सामग्री पहुँचाने का काम ये खच्चर ही करते हैं।

मनुष्य बड़ा मतलबी इंसान है ! घोड़े और खच्चर को तो उसने अपना लिया लेकिन गधे को नहीं अपनाया। यहाँ तक तो चलो ठीक है। लेकिन जो इंसान भी उसके काम का नहीं, उसे भी गधा कहने में उसे कोई संकोच नहीं।

लेकिन वह यह भूल जाता है कि मतलब पड़ने पर गधे को ही बाप बनाया जाता है, घोड़े को नहीं।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 56 ⇒ कंडक्टर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कंडक्टर”।)  

? अभी अभी # 56 ⇒ कंडक्टर? श्री प्रदीप शर्मा  ?
वैसे तो कंडक्टर का कंडक्ट से कोई लेना-देना नहीं होता, लेकिन इसमें भी दो मत नहीं कि कंडक्टर शब्द कंडक्ट से ही बना है। फिजिक्स में गुड कंडक्टर भी होते हैं और बेड-कंडक्टर भी। मैं अपने कड़वे अतीत को भूल जाना चाहता हूँ, इसलिए फिजिक्स का पन्ना यहीं बंद करता हूँ।

कंडक्टर को हिंदी में परिचालक कहते हैं। बिना चालक के परिचालक का कोई अस्तित्व नहीं। चालक सिर्फ़ बस चलाता है, परिचालक सवारियों को भी चलाता है। ।

न जाने क्यों, जहाज के पंछी की तरह बार बार कांग्रेस काल में प्रवेश करना पड़ता है। हमारे प्रदेश के राज्य परिवहन निगम का इंतकाल हुए अर्सा गुज़र गया ! वे लाल डिब्बे के दिन थे। 3 x 2 की बड़ी-बड़ी बसें, जिनकी सीटों का फोम अकसर निकाला जा चुका होता था, लकड़ी के बचे हुए पटियों पर बिना काँच की खिड़कियों में सफर करने का मज़ा कुछ और ही था। हॉर्न को छोड़ सब कुछ बजने के मुहावरे पर रोडवेज का ही अधिकार था।

जब किसी मंत्री का, चुनाव में अनियमितता के कारण हाईकोर्ट के निर्णय पर, मंत्री-पद से इस्तीफा ले लिया जाता था, तो उन्हें तुरंत पुरस्कार-स्वरूप किसी बोर्ड का अध्यक्ष बना दिया जाता था। परिवहन निगम भी ऐसे ही किसी काबिल अध्य्क्ष की भेंट चढ़ जाता था। ।

वह कम तनख्वाह और अधिक काम का ज़माना था। बसों में चालक और परिचालक को छोड़ अन्य के लिए धूम्रपान वर्जित था। ईश्वर आपकी यात्रा सुरक्षित सम्पन्न करे, जेबकतरों से सावधान, और यात्री अपने सामान की सुरक्षा स्वयं करे के अलावा बिना टिकट यात्रा करना अपराध है, जैसी चेतावनियां, यथासंभव शुद्ध हिंदी में, बसों में लिखी, देखीं जा सकती थी।

पुलिस की पसंद खाकी वर्दी, चालक-परिचालक को पोशाक के रूप में प्रदान की जाती थी, जिसे वे शॉल की तरह एक तरह से ओढ़े रहते थे। बस में थूकना मना रहता था, इसलिए लोग खिड़की वाली सीट अधिक पसंद करते थे। ।

कंडक्टर का खाकी लबादा किसी सांता-क्लाज़ के परिवेश से कम नहीं रहता था। सुविधा के लिए लोग इसे खाकी-कोट भी कहते थे। एक कोट की ही तरह इसमें एक जेब सीने से लगी होती थी, तो दो बड़ी जेब नीचे, जिन्हें बीच के खुले बटन कभी आपस में मिलने नहीं देते थे। वह मोबाइल का ज़माना नहीं था। इसलिए बस जहाँ भी खराब होती थी, बस वहीं अंगद के पाँव की तरह पड़ी रहती थी, और यात्री अपनी ग्यारह नम्बर की बस के भरोसे, अर्थात पैदल ही किसी दूसरे विकल्प की तलाश में निकल पड़ते थे।

कंडक्टर के बैग में यात्रियों के लिए टिकट घर की भी व्यवस्था रहती थी। जो यात्री किसी कारणवश टिकट खिड़की से टिकट नहीं खरीद पाते थे, उन्हें त्वरित सेवा के तहत वहीं टिकट प्रदान कर दिया जाता था। एक कार्बन बिछाकर कान में लगी पेंसिल से भीड़ में खड़े-खड़े कोई कंडक्टर ही टिकट काट सकता है। हमारे सरकारी बाबू तो कुर्सी मेज पर पंखे-कूलर में बैठकर भी कभी कलम खोलने की तकलीफ नहीं करते। कंडक्टर, तुम्हें सलाम। ।

ऐसा नहीं कि कंडक्टर को फुर्सत नहीं मिलती थी। फुर्सत के क्षणों में वह एक शीट भरा करता था, जिसमें सवारियों का ब्यौरा होता था। कोई भी फ्लाइंग स्क्वाड कहीं भी, कभी भी, किसी आतंकवादी की तरह, बस को रोक सकती थी। सवारियों को पहले गिना जाता था। फिर कंडक्टर को दूर झाड़ की आड़ में खड़ी जीप के पास ले जाया जाता था और कुछ ले-देकर बस की रवानगी डाल दी जाती थी।

पुलिस के थानों की तरह ही, बस के रूट भी कंडक्टरों के ऊपरी कमाई के साधन थे। जिन रूटों पर अधिक कमाई होती थी, वहाँ कर्मचारी छुट्टी भी कम ही लेते थे। बिना मेहनत-मजदूरी के भी कहीं पापी पेट, और परिवार का हिंदुस्तान में पालन-पोषण हुआ है। यात्रियों से दिन-रात की मगजमारी, यात्रा के सभी जोखिमों से जूझना कंडक्टर के लिए किसी यातना से कम नहीं होता। आप क्या समझोगे, केवल ऑनलाइन टिकट बुक कराकर, चार्टर्ड ए.सी. बसों में यात्रा करने वाले यात्रियों ..!। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 68 – किस्साये तालघाट… भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 68 – किस्साये तालघाट – भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

तालघाट शाखा सोमवार से शुक्रवार तक अलग मूड अलग गति से चलती थी पर शनिवार का दिन मूड और गति बदलकर रख देता था. DUD हों या WUD सब “चली गोरी पी से मिलन को चली”के मूड में उसी तरह आ जाते थे जैसे होली के ढोल बजते ही “रंग बरसे भीगे चुनरवाली” वाला रंग गुलाल मय खुमार चढ़ जाता है. जाने की खुशी पर, रविवार को नहीं आने की खुशी हावी हो जाती थी. परिवार भी अपने निजी मुख्य प्रबंधक के शनिवार को आने और रविवार को नहीं जाने के खयालों में रविवारीय प्लान बनाने में व्यस्त हो जाता था. पत्नीजी हों या संतानें, सबकी छै दिनों से सोयी अपनी अपनी डिमांड्स जागृत हो जाती थीं. पत्नियों की शपथ होती कि बंदे को “संडे याने रेस्ट डे ” नहीं मनाने देना है और ये तो मारकाट याने मार्केटिंग के लिये उपयोग में लाया जाना है. शाखा में परफॉर्मेंस कैसी भी हो पर आउटिंग में शतप्रतिशत परफारमेंस का आदेश घर पहुंचते ही हाथों के जरिए मन मष्तिष्क में जबरन घुसा दिया जाता था और तथाकथित घर के मालिकों की हालत “आसमान से गिरे तो खजूर में अटके” वाली हो जाती थी. ऐसे मौके पर उन्हें अपनी शाखा और नरम दिलवाले याने सहृदय शाखा प्रबंधक याद आते थे.

और शाखा प्रबंधक के खामोश सुरों से यह गाना निकलता “तुम तो ठहरे परदेशी साथ क्या निभाओगे, जैसे ही मिलेगा मौका, घर को भाग जाओगे” यहाँ साथ का बैंकिंग भाषा में वीकली और पी फार्म बनाने से है. अंततः जो जाने वालों के तूफान के बाद शाखा में बच जाते, वो होते परिवार सहित रहने वाले शाखा प्रबंधक और अभय कुमार. अभय कुमार कौमार्य अवस्था में थे, सबसे जूनियर पर सबसे ज्यादा कर्तव्यनिष्ठ और प्रतिभा शाली स्टाफ थे. “कुमार ” न सिर्फ उनका अविवाहित होने का साइनबोर्ड था बल्कि उन्हें नितीश कुमार और आनंद कुमार और हमारे आंचलिक कार्यालय वाले “राजकुमार” वाले बिहार प्रांत का वासी होने की भी पहचान देता था. चूंकि एक बिहारी ही सबपर भारी माना जाता है तो पिता सदृश्य शाखाप्रबंधक के सानिध्य और मार्गदर्शन में अभय कुमार वीकली और पी फार्म बनाने में निपुण हो रहे थे और कम से कम इस क्षेत्र में नियंत्रक महोदय की अपेक्षाओं पर खरे उतर रहे थे. उनका याने अभय कुमार का दीर्घकालिक लक्ष्य तो द्रुतगति से कैरियर की पायदानों पर चढ़ना था पर अल्पकालिक लक्ष्य शाखाप्रबंधक का स्नेह प्राप्त करना और अपने गृहनगर के क्वार्टरली प्रवास पर कुछ दिनों की फ्रांसीसी याने फ्रेंच लीव का उपहार पाना भी होता था. चूंकि ऐसे लोग हर इस तरह की शाखा में नहीं होते थे तो शाखाप्रबंधक भी उन्हें अपने युवराज सदृश्य स्नेह और व्यवहारिक प्रशिक्षण दिया करते थे और प्यार से अभिभावक की तरह डांटने का भी अधिकार पा चुके थे. रविवार का लंच बिना स्टाफ की संगत के हो नहीं सकता तो रविवार के विशेष पक्के भोजन (पूड़ी, पुलाव और छोले) के साथ खीर की मृदुलता युवराज याने अभय कुमार की आंखों को तरल कर देती थीं और इस परिवार का साथ और संरक्षण और साप्ताहिक फीस्ट पाकर न केवल वे तृप्त थे बल्कि “होम सिकनेस” नामक सिंड्रोम से भी दूर हो जाते थे.

नोट : ये हमारी बैंक की दुनियां थी जहाँ रिश्तों के हिसाब किताब का कोई लेजर नहीं होता. हम बैंक में जिनके साथ होते हैं, वही हमारी दुनियां में रंग भरते हैं और रंग कैसे हों ये हम पर ही निर्भर करता. कुछ खोकर भी बहुत कुछ पा लेने वाले ही बैंकिंग के जादूगर कहलाते हैं और अगर आप चाहें तो बाजीगर भी कह सकते हैं. अगर आप चाहेंगे तो यह श्रंखला आगे भी जारी रह सकती है. खामोशी और निष्क्रियता में ज्यादा फासले नहीं होते.

यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 10 ☆ गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग ६ – स्वर्ण मंदिर ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का भाग छह – स्वर्ण मंदिर)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 10 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग छह – स्वर्ण मंदिर  ?

(वर्ष 1994 -2019)

मेरे हृदय में गुरु नानकदेव जी के प्रति अलख जगाने का काम मेरे बावजी ने किया था। बावजी अर्थात मेरे ससुर जी, जिन्हें हम सब इसी नाम से संबोधित करते थे।

बावजी गुरु नानक के परम भक्त थे। यह सच है कि घर के मंदिर में गुरु नानकदेव की  कोई तस्वीर नहीं थी। वहाँ तो हमारी माताजी (सासुमाँ ) के आराध्या शिव जी विराजमान थे। लेकिन बावजी लकड़ी की अलमारी के एक तरफ चिपकाए गए  नानक जी की एक पुरानी तस्वीर के सामने खड़े होकर अरदास किया करते थे।

मुझे बहुत आश्चर्य होता था कि एक सिख परिवार में यह दो अलग-अलग परंपराएँ कैसे चली हैं ? पर उम्र कम होने की वजह से मैंने उस ओर कभी विशेष ध्यान ही नहीं दिया और दोनों की आराधना करने लगी। मैं शिव मंदिर भी जाती रही और बावजी से समय-समय पर नानक जी से जुड़ी अलग-अलग कथाएँ भी सुनती रही।

 धीरे – धीरे मन में गुरुद्वारे जाने की इच्छा होने लगी इस इच्छा को पूर्ण होने में बहुत ज्यादा समय ना लगा क्योंकि पुणे शहर के रेंज्हिल विभाग में जहाँ एक ओर स्वयंभू शिव मंदिर स्थित है वहीं पर गुरुद्वारा भी है। जब भी माथा टेकने की इच्छा होती मैं चुपचाप वहाँ चली जाया करती थी। अब यही इच्छा थोड़ी और तीव्रता की ओर बढ़ती रही और मुझे अमृतसर जाने की इच्छा होने लगी। जीवन की आपाधापी में यह  इच्छा अन्य कई इच्छाओं की परतों के नीचे दब अवश्य गई लेकिन सुसुप्त रूप से वह कहीं बची ही रही।

अमृतसर की यात्रा का पहला अवसर मुझे 1994 मैं जाकर मिला। उन दिनों हम लोग चंडीगढ़ में रहते थे। संभवतः नानक जी मेरी भी श्रद्धा की परीक्षा ले रहे थे और उन्होंने मुझे इतने लंबे अंतराल के बाद दर्शन के लिए  अवसर दिया। फिर तो न जाने कहाँ – कहाँ नानक जी के दर्शन  का सौभाग्य  मुझे मिलता ही रहा,जिनका उल्लेख अपनी विविध यात्राओं में मैं कर चुकी हूँ। 1994 से  2019 के बीच न जाने कितनी ही बार अमृतसर दर्शन  करने का अवसर मिलता ही रहा है।ईश्वर की इसे मैं परम कृपा ही कहूँगी।मुझ जैसी बँगला संस्कारों में पली लड़की के हृदय में नानकजी घर कर गए। आस्था, भक्ति ने सिक्ख परंपराओं से जोड़ दिया।

1994 का अमृतसर अभी भी ’84 के घावों को भरने में लगा था। जगह – जगह पर पुरानी व टूटी फ़र्शियों को उखाड़ कर वहाँ नए संगमरमर की फ़र्शियाँ लगाई जा रही थीं। भीड़ वैसी ही बनी थी पर काम अपना चल रहा था। हम गए थे जनवरी महीने के संक्रांत वाले दिन यद्यपि यह त्यौहार घर पर ही लोग मनाते हैं फिर भी देव दर्शन के लिए मंदिरों में आना हिंदू धर्म,  सिख धर्म का एक परम आवश्यक हिस्सा है।

अमृतसर का विशाल परिसर देखकर आँखें खुली की खुली रह गई थीं। उसी परिसर के भीतर दुकानें लगी हुई थीं।पर आज सभी दुकानें बाहर गलियारों में कर दी गई  हैं और मंदिर के विशाल परिसर के चारों ओर ऊँची दीवार चढ़ा दी गई  है।

आज वहाँ भीतर नर्म घासवाला उद्यान आ गया है। 1919 जलियांवाला बाग कांड ,1947 देशविभाजन के समय के दर्दनाक दृश्य,  1984 के समय के विविध हत्याकांड तथा  अत्याचार आदि की तस्वीरों का एक संग्रहालय भी है। आज प्रवेश के लिए 12 प्रवेश द्वार हैं। वहीं चप्पल जूते रखने और नल के पानी से हाथ धोने की व्यवस्था भी है। स्त्री पुरुष सभी के लिए सिर ढाँकना अनिवार्य है।अगर किसी के पास सिर ढाँकने का कपड़ा न हो तो वहाँ के स्वयंसेवक नारंगी या सफेद कपड़ा देते हैं जिसे पटका कहते हैं। हर जाति, हर धर्म और हर वर्ण का व्यक्ति दर्शन के लिए आ सकता है। सर्व धर्म एक समान,एक ओंकार का नारा स्पष्ट दिखाई देता है।

मंदिर में प्रवेश से पूर्व  निरंतर पानी का बहता स्रोत है जो एक नाले के रूप में है,  हर यात्री पैर धोकर  और फिर बड़े से पापोश या पाँवड़ा पर पैर पोंछकर  मंदिर में प्रवेश करता है। ठंड के दिनों में यही पानी गर्म स्रोत के रूप में बहता है ताकि थके यात्री आराम महसूस करें।

पूरे परिसर में फ़र्श  के रूप में संगमरमर बिछा है। मौसम के बदलने पर फ़र्श गरम या ठंडी हो जाती है इसलिए  कालीन बिछाकर रखा जाता है ताकि यात्री आराम से चलकर दर्शन कर सकें। कई स्थानों में कड़ा प्रसाद निरंतर बाँटा  जाता है।यात्री प्रसाद खरीदकर भी घर ले जा सकते हैं। घी की प्रचुरता के कारण वह खराब नहीं होता।

स्वर्ण मंदिर को हरिमंदर साहब कहा जाता है। यहाँ एक छोटा सा तालाब है और उसके पास एक विशाल वृक्ष भी है। कहा जाता है कि कभी नानकदेव जी ने भी इसी स्थान के प्राकृतिक सौंन्दर्य से आकर्षित होकर यहाँ कुछ समय के लिए वृक्ष के नीचे विश्राम किया था तथा ध्यान भी  किया था।  सिक्ख धर्म के तीसरे गुरु श्री गुरु अमरदास जी ने श्री गुरु नानक देव जी का इस स्थान से संबंध होने के कारण यहीं पर एक मंदिर बनवाने का निर्णय लिया। यहाँ पर गुरुद्वारे की पहली नींव रखी गई थी। कहा जाता है कि श्रीराम के दोनों पुत्र शिकार करने के लिए भी कभी इस तालाब के पास आए थे पर इसका कोई प्रमाण  नहीं है।

इस तालाब के पानी में कई  मछलियाँ हैं पर न मच्छर हैं न कोई दुर्गंध।लोगों का विश्वास है कि इस जल से स्नान करने पर असाध्य रोग दूर हो जाते हैं।स्थान स्थान पर स्त्री -पुरुष के स्नान करने और वस्त्र बदलने की व्यवस्था भी है।

इतिहासकारों का मानना है कि 550 वर्ष पूर्व अमृतसर शहर अस्तित्व में आया।। सिक्ख धर्म के चौथे गुरु श्री गुरु रामदास जी ने इस गुरुद्वारे की स्थापना श्री हरिमंदर साहिब की नींव रखकर की थी।

1564 ई. में चौथे गुरु श्री गुरु रामदास जी ने वर्तमान अमृतसर नगर की नींव रखने के बाद  स्वयं भी यहीं रहने लगे थे। उस समय इस नगर को रामदासपुर या चक-रामदास कहा जाता था।

 यह गुरुद्वारा सरोवर के बीचोबीच  बना हुआ है। इस के सौंदर्य को कई बार नष्ट किया गया आखिर राजा रणजीत सिंह ने  स्वर्ण-पतरों से इसकी दीवारों, गुम्बदों को मढ़ दिया। इस कारण इस गुरुद्वारा साहिब का नाम  स्वर्ण मंदिर भी रखा गया।

आज यह पूरे विश्व में सिक्खों का प्रसिद्ध धर्मस्थल है। बिना किसी शोर-शराबा के,  बिना किसी घंटा -घड़ियाल के यहाँ पाठी शबद गाते रहते हैं।सारा परिसर पवित्रता और शांति का द्योतक बन उठता है।

यहाँ लंगर की बहुत अच्छी व्यवस्था है और दिन भर में एक लाख से अधिक लोग भोजन करते हैं।दर्शनार्थी कार सेवा भी करते रहते हैं।आज यहाँ आटा मलने, रोटी बनाने, सब्जियाँ काटने ,दाल ,कढ़ी राजमा, छोले, चावल पकाने  आदि के लिए  बिजली की मशीनें लगा दी गई  हैं। विदेश में रहनेवाले सिक्ख श्रद्धालु  प्रतिवर्ष भारी आर्थिक सहायता देते रहते हैं जिस कारण मंदिर की देखरेख भली प्रकार से होती रहती है।

अमृतसर पंजाब राज्य का अत्यंत महत्वपूर्ण शहर है। यह पाकिस्तानी सीमा पर है।जिसका नाम अटारी बॉर्डर है पर लोग आज भी इस स्थान को बाघा बॉर्डर कहते हैं। बाघा गाँव विभाजन के बाद पाकिस्तान में चला गया ।हमारे हिस्से की सीमा अटारी गाँव है। न जाने  हम भारतीयों में चलता है वृत्ति क्यों कूट-कूटकर भरी है कि हम आज भी अपनी सीमा का नाम न लेकर पाकिस्तान की सीमा का नाम लेते रहते हैं।

यह अटारी बॉर्डर स्वर्ण मंदिर से 35 कि.मी.की दूरी पर है। किसी ऑटो वाले से आप अटारी बॉर्डर  जाने के लिए कहेंगे तो वह पूछेगा ओ कित्थे साब? जबकि हमारे बॉर्डर के कमान पर अटारी लिखा हुआ है पर हमारी लापरवाही ही तो अब तक की तबाही का कारण रह चुकी है न!

अमृतसर के गुरुद्वारा श्री हरमंदिर साहिब या गोल्डन टैम्पल के पास  ही जलियांवाला बाग है। पर्यटक इस ऐतिहासिक स्थल का अवश्य ही दर्शन करते हैं। जलियांवाला बाग अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के पास का एक छोटा सा बगीचा है। 1919 में जनरल डायर के नेतृत्व में अंग्रेजी फौज ने गोलियाँ चला कर सभा में उपस्थित निहत्थे पुरुषों, महिलाओं और बच्चों सहित सैंकड़ों लोगों को मार डाला था। इस घटना ने भारत के इतिहास की धारा को बदल कर रख दिया। इस हत्याकांड का बदला लेने के लिए शहीद उधम सिंह बाईस वर्ष तक प्रतीक्षा करते रहे और आखिर इंगलैंड जाकर उस समय रह चुके भारतीय गवर्नर डायर को गोलियों  से भून दिया और स्वयं हँसते हुए शहीद ढींगरा की तरह फाँसी के फंदे में झूल गए।पर हमारे इतिहास में शायद ही कहीं उनका नाम आता है।

अमृतसर शहर घूमने आनेवाले गोबिंदगढ़ किले को देखने के लिए जरूर जाते हैं। यहाँ जाने के लिए शाम चार बजे का समय सबसे उत्तम होता है। किले का नज़ारा लेने के बाद यहाँ  होने वाले सांस्‍कृतिक कार्यक्रम का भी आनदं लिया जा सकता है। इस शो में भँगड़ा और मार्शल आर्ट्स का आयोजन होता है। इस किले में लाइट एंड साउंड शो भी एक मुख्य आकर्षण होता है।

ईश्वर की असीम कृपा है मुझ पर कि आज तक ऐसे अनेक विशेष स्थानों पर दर्शन के कई  अवसर प्रदान किए।

आज गुरुपूरब के अवसर पर ईश्वर से प्रार्थना भी यही है कि मेरी यायावर यात्राएँ मृत्यु तक जारी रहे, प्रभु के दर्शन मिलते रहे। नानकसाहब की कृपा बनी रहे।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 55 ⇒ डबल-बेड… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “डबल-बेड”।)  

? अभी अभी # 55 ⇒ डबल-बेड? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

आदमी शादीशुदा है या कुंवारा, यह उसके बेड से पता चल जाता है। अगर सिंगल है, तो सिंगल बेड, अगर डबल हो तो डबल- बेड! क्या डबल से अधिक का भी कोई प्रावधान है हमारे यहाँ!

हमारे कमरे-नुमा घर में बेड की कोई व्यवस्था नहीं होती थी। परिवार बड़ा था, घर छोटा! लाइन से बिस्तर लगते थे। बड़ों-बुजुर्गों के लिए एक खाट की व्यवस्था होती थी, जो गर्मी और ठण्ड में घर से बाहर पड़ी रहती थी। घर में प्रवेश केवल निवार के पलंग का होता था। परिवार में पहला लकड़ी का पलंग बहन की शादी के वक्त बना था, जो बहन के ही साथ दहेज में ससुराल चला गया। ।

कक्षा पाँच तक हमारे स्कूल में अंग्रेज़ी ज्ञान निषिद्ध था! Bad बेड और boy बॉय के अलावा अंग्रेज़ी के सब अक्षर काले ही नज़र आते थे। अक्षर ज्ञान में जब bed बेड पढ़ा तो उसका अर्थ भी बिस्तर ही बताया गया, पलंग नहीं।

घर में जब पहला जर्मन स्टील का बड़ा बेड आया, तब भी वह पलंग ही कहलाया, क्योंकि उस बेचारे के लिए कोई बेड-रूम उपलब्ध नहीं था। एक लकड़ी के फ्रेम-नुमा स्थान को टिन के पतरों से ढँककर बनाये स्थान में वह पलंग शोभायमान हुआ और वही हमारे परिवार का ड्राइंग रूम, लिविंग रूम और बेड-रूम कहलाया। पलंग पिताजी के लिए विशेष रूप से बड़े भाई साहब ने बनवाया था, जिस पर रात में मच्छरदानी तन जाती थी। एक पालतू बिल्ली के अलावा हमें भी बारी बारी से उस पलंग पर सोने का सुख प्राप्त होता था। आज न वह घर है, न पलंग, और न ही पूज्य पिताजी! लेकिन आज, 40 वर्ष बाद भी सपने में वही घर, वही पलंग, और पिताजी नज़र आ ही जाते हैं। ।

आज जिसे हम बेड-रूम कहते हैं, उसे पहले शयन-कक्ष की संज्ञा दी जाती थी। कितना सात्विक और शालीन शब्द है, शयन-कक्ष, मानो पूजा-घर हो! और बेड-रूम ? नाम से ही खयालों में खलबली मच जाती है। आप किसी के घर में ताक-झाँक कर लें, चलेगा। लेकिन किसी के बेडरूम में अनधिकृत प्रवेश वर्जित है। बेड रूम वह स्थान है, जहाँ व्यक्ति जो काम आज़ादी से कर सकता है, वही काम अगर वह खुले में करे, तो अशोभनीय हो जाता है।

आदमी जब नया मकान बनाता है, तब सबको शान से किचन के साथ अपना बेडरूम और अटैच बाथ बताना भी नहीं भूलता। ज़मीन से फ़्लैट में पहुँचते इंसान को आजकल सिंगल और डबल BHK यानी बेड-हॉल-किचन से ही संतोष करना पड़ता है। ।

आजकल के संपन्न परिवारों में व्यक्तिगत बेडरूम के अलावा एक मास्टर बैडरूम भी होता है जिस पर परिवार के सभी सदस्य बेड-टी के साथ ब्रेकफास्ट टीवी का भी आनंद लेते है, महिलाएँ दोपहर में सास, बहू और साजिश में व्यस्त हो जाती हैं, और रात का डिनर भी सनसनी के साथ ही होता है। बाद में यह मास्टर बैडरूम बच्चों के हवाले कर दिया जाता है और लोग अपने अपने बेडरूम में गुड नाईट के साथ समा जाते हैं।

नींद किसी सिंगल अथवा डबल-बेड की मोहताज़ नहीं! गद्दा कुर्ल-ऑन का हो, या स्लीप-वेल का, कमरे में भले ही ए सी लगा हो, लोग रात-भर करवटें बदलते रहते हैं, ढेरों स्लीपिंग पिल्स भी खा लेते हैं, लेकिन तनाव है कि रात को भी चैन की नींद सोने नहीं देता। वहीं कुछ लोग इतने निश्चिंत और बेफ़िक्र होते हैं कि जब गहरी नींद आती है तो उन्हें यह भी होश नहीं रहता, वे कुंआरे हैं या शादीशुदा। उनका बेड सिंगल है या डबल। ऐसे घोड़े बेचकर सोने वालों की धर्मपत्नियों को भी मज़बूरी में ही सही, धार्मिक होना ही पड़ता है। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 36 – देश-परदेश – बूट पॉलिश ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 36 ☆ देश-परदेश – बूट पॉलिश ☆ श्री राकेश कुमार ☆

उपरोक्त फोटो अमेरिका के बोस्टन शहर के हवाई अड्डे पर खींचा था। दो महराजा स्टाइल की कुर्सियां जैसे विवाह में नवविवाहितों के लिए ऊंचे मंच पर रखी होती हैं, उसी प्रकार से यहां हवाई अड्डे के अंदर रखी हुई थी, उसी के ऊपर ये बोर्ड लगा हुआ हैं। दो सज्जन अच्छी कद काठी वाले यात्रियों की तरफ लालियत निगाहों से जूते पोलिश करने का इंतजार करते रहते हैं। हमने रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड पर जूते साफ करने वाले ब्रश से थक थक करने की आवाज़ से ग्राहकों को रिझाते हुए तो अनेकों वर्षों से देखा और महसूस भी किया हैं। लेकिन विमानतल पर पहली बार ये सुविधा देखने को मिली।

हमारी जल्दी पहुंचने की अदातानुसार यहां भी हम निर्धारित समय से बहुत पूर्व ही अपना आसन जमा चुके थे। ये पॉलिश सुविधा की दुकान हमारे बोर्डिंग के अंत्यंत ही करीब थी।

भाव तालिका पर नजर डाली तो जूते के दस अमरीकी रूपे और बूट के पंद्रह राशि अंकित थी। जूते और बूट में अंतर समझने के लिए गूगल बाबा का सहरा लिया, तब कुछ अंतर समझ सके। बचपन से हम तो दिल्ली बूट हाउस या बॉम्बे बूट नामक  से ही  चप्पल,  जूता आदि खरीदते थे।

बूट पॉलिश करने वाले ने जब हमारे पैरों की तरफ नज़र डाली तो थोड़ा सा मुस्करा दिया, क्योंकि हम तो खिलाड़ी (स्पोर्ट्स) जूते पहने हुए थे। बातचीत का सिलसिला आरंभ हुआ तो उसने दुःखी मन से बताया की अब अधिकतर स्पोर्ट्स जूते ही उपयोग करने लगे हैं। उनकी रोज़ी रोटी मुश्किल हो गई हैं। उसी समय वर्दीधारी सज्जन ऊंची कुर्सी पर विराजमान हो गए और एक पॉलिश करने वाला नीचे बैठ कर जूते को चमकाने लगा। कुछ समय में वो बिना पैसे, धन्यवाद बोल कर विदा हो गया। हमने इसका कारण पूछा तो वो बोला ये पायलट है, इसलिए इनको मुफ्त सुविधा, प्रशासन द्वारा उपलब्ध हैं।

हमारे देश में भी स्टेशन/ बस स्टैंड का स्टाफ ऐसे कार्य फ्री में ही करवाता हैं। वैसे पुलिस वाले तो सभी सुविधाएं फ्री में लेने को अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानते हैं।

हम लोग तो अधिकतर घर पर ही जूते पोलिश करते हैं,  लेकिन जब किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिए जाते है, तो अवश्य बूट पालिश वालों की सेवाएं लेते हैं। जैसे की विवाह के लिए लड़की देखने जाना या नौकरी में साक्षात्कार पर जाना हो आदि। इस प्रकार हाथ से कार्य करते बहुत कम लोग ही विदेशों में देखने को मिलते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 54 ⇒ रिश्ता और प्यार… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “रिश्ता और प्यार।)  

? अभी अभी # 54 ⇒ रिश्ता और प्यार? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

क्या प्यार रिश्ता देखकर किया जाता है, क्या जहां रिश्ता नहीं होता, वहां प्यार नहीं होता! क्या प्यार को कोई नाम देना जरूरी है, क्या प्यार को केवल प्यार ही नहीं रहने दिया जा सकता। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं रिश्ते और प्यार। लेकिन यार के सिक्के में दोनों तरफ बेशुमार प्यार ही प्यार भरा रहता है।

इंसान अकेला पैदा जरूर होता है, लेकिन कभी अकेला रह नहीं पाता। वह जन्म से ही रिश्तों की कमाई करता चला जाता है। रिश्ते बढ़ते चले जाते हैं, प्यार परवान चढ़ा करता है। कितना प्यारा बच्चा है, किसका है। ।

रिश्ते हमें जोड़ते हैं, प्यार भी हमें जोड़ता है। जब तक रिश्तों में स्वार्थ और खुदगर्जी नहीं आती, प्यार भी कायम रहता है। चोली दामन का साथ नजर आता है दोनों में। लेकिन जब रिश्ते टूटते हैं, प्यार को भी चोट लगती है।

लोग प्यार में भी धोखा खाते हैं और रिश्ते भी बनते बिगड़ते रहते हैं। अचानक ऐसा क्या हो जाता है जो मलंग को यह कहना पड़ता है ;

कसमें वादे प्यार वफा

सब बातें हैं, बातों का क्या।

कोई किसी का नहीं

ये झूठे, वादे हैं, वादों का क्या। ।

क्यों ऐसे वक्त हमें जगजीत यह कहते हुए नजर आ जाते हैं ;

रिश्ता क्या है तेरा मेरा

मैं हूं शब और तू है सवेरा

रिश्तों में दरार आई

बेटा ना रहा बेटा

भाई ना रहा भाई। ।

कुछ रिश्ते हमारे बीच ऐसे होते हैं, जिन्हें हम कोई नाम नही दे सकते, लेकिन उनका अहसास हमें निरंतर होता रहता है। हम एक फूल को खिलते देखते हैं, किसी पक्षी को दाना चुगते देखते हैं, किसी अबोध बालक को किलकारी मारते देखते हैं, आसमान में बादलों की छटा देखते हैं, झरनों की कलकल और पक्षियों के कलरव हमें एक ऐसे अनासक्त जगत में ले जाते हैं, जहां सभी सांसारिक नाते रिश्ते गौण हो जाते हैं और मन में केवल यही विचार आता है ;

तेरे मेरे बीच में

कैसा है ये बंधन अनजाना

मैने नहीं जाना, तूने नहीं जाना …

अब आप इसे प्रकृति प्रेम कहें अथवा ईश्वरीय प्रेम, रिश्ता कहें या बंधन, लेकिन सिर्फ हम ही नहीं पूरी कायनात हमारे साथ यह पंक्ति दोहराती नजर आती है ;

क्या धरती और क्या आकाश

सबको प्यार की प्यास

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© श्री प्रदीप शर्मा

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 192 – पाणी केरा बुदबुदा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 192 ☆ पाणी केरा बुदबुदा ?

क्षणभंगुरता मनुष्य के जीवन का अनन्य आयाम है। अनेकदा क्षणभंगुरता को जीवन की सबसे बड़ी आशंका समझा जाता है। तथापि,  विचार करोगे, विमर्श करोगे तो क्षणभंगुरता को जीवन की सबसे बड़ी संभावना पाओगे।

आशंका-संभावना को तौलने के लिए कभी कल्पना करना कि जैसे खाद्य पदार्थों पर या दवाई की पट्टी पर एक्सपायरी डेट लिखी होती है, उसी तरह मनुष्य के जन्म के साथ उसकी मृत्यु की तारीख़ भी यदि तय हो जाए तो मनुष्य आनंद से जी पाएगा या भय और चिंता से मर जाएगा? इसलिए क्षणभंगुरता को जीवन का सबसे बड़ा वरदान मानना चाहिए।

एक परिचित वन्य अधिकारी थे। उन्होंने एक बार एक किस्सा सुनाया। अपने वरिष्ठ के साथ वे दौरे पर थे। वन्य आरक्षित क्षेत्र के आसपास  स्वाभाविक है कि गाँव भी बसे होते हैं। किसी गाँव से गुज़रते हुए उन्होंने देखा कि  पीपल के एक विशाल पेड़ के नीचे औघड़ बाबा बैठे हैं। गाँव के कुछ निवासी अपनी समस्याओं के निवारण के लिए उनके पास बैठे थे। वरिष्ठ अधिकारी ने औघड़ को उपेक्षा से देखा। मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है कि पद के मद में वह अपने अस्तित्व की क्षणभंगुरता को भूल जाता है। जीप में बैठे-बैठे अपनी हथेली औघड़ की ओर करके कहा, ‘सचमुच कुछ जानता है तो मेरा भविष्य बता।’ औघड़ बाबा ने जो़रदार अट्टहास किया और कहा, ‘तेरा भविष्य क्या बताऊँ? तेरे पास तो केवल तीन दिन का ही समय बचा है।’ अधिकारी आग बबूला हो उठा। औघड़ को कुछ अपशब्द कहे, निर्देश दिया कि ऐसे धृष्ट को दोबारा उनके क्षेत्र में प्रवेश न करने दिया जाए।

पीछे वन्य अधिकारी को तीसरे दिन किसी काम से वरिष्ठ अधिकारी के कार्यालय में जाना पड़ा। वरिष्ठ अधिकारी ने चाय मंगवाई। दोनों ने चाय का कप उठाया। वरिष्ठ अधिकारी का चाय का कप हाथ से लुढ़क गया। हृदयाघात से जगह पर ही उनका देहांत हो गया। वन्य अधिकारी को औघड़ बाबा याद आए। लौटकर घर पर पत्नी से सारी बात कही। पत्नी ने औघड़ बाबा के दर्शन करने चाहे। वन अधिकारी ने कहा, “दर्शन तो दूर, मैं उस ओर जाना भी नहीं चाहूँगा। जीवन में जो घटना है, वह पहले से पता चल जाए तो जीवन जिया कैसे जाएगा?” वन अधिकारी ने उस क्षेत्र से अपना तबादला करवा लिया।

औघड़ बाबा द्वारा भविष्य देख लेने पर  मतभिन्नता हो सकती है। तीसरे दिन मृत्यु होना संयोग भी हो सकता है। तथापि मत-मतांतर से परे यहाँ अधिक महत्वपूर्ण है घटनाक्रम से उपजा निष्कर्ष।

भविष्य ज्ञात हो जाए तो मनुष्य का वर्तमान जड़ हो जाएगा। विसर्जन है, अतः सृजन है। चूँकि यह विसर्जन किसी भी क्षण हो सकता है, अत: हर क्षण सृजन होना चाहिए।

अखंड सृजन और अविराम विसर्जन का मूल है क्षणभंगुरता। क्षणभंगुरता का अपना दर्शन है, क्षणभंगुरता है तो जीवन है। श्वास की अनिश्चितता, विश्वास को निश्चय प्रदान करती है। बाबा कबीर ने लिखा है,

पाणी केरा बुदबुदा, इसी हमारी जाति

मानव जाति पानी के बुलबुले के समान है। क्षण में बनना और अकस्मात मिटना बुलबुले की नियति है।

बुलबुले की क्षणभंगुरता स्मरण रहे तो जीवन की निरंतरता का विश्वास भी बना रहेगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

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अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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