हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आत्मानंद साहित्य #146 ☆ आलेख – प्रायश्चित ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 146 ☆

☆ ‌आलेख – प्रायश्चित ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

आप ने आलेखों की श्रृंखला में पश्चाताप शीर्षक से आलेख पढ़ा था, जिसकी विषयवस्तु थी  कि किस प्रकार  मानव यथार्थ का ज्ञान होने पर अपनी गलतियों पर पश्चाताप करता है, और पश्चाताप की अग्नि में जल कर व्यक्ति के सारे अवगुण नष्ट हो जाते हैं। 

उसकी अंतरात्मा की गई गलतियों के लिए उसे हर पल कोसती रहती है आदमी का सुख चैन छिन जाता है, और वह अपनी आत्मा के धिक्कार को सह नहीं पाता । और इंसान प्रायश्चित करने के रास्ते पर चल पड़ता है अपने कर्मों का आत्म निरीक्षण करता है। इस प्रकार पश्चाताप जहां जहां गलतियों की स्वीकारोक्ति है, वहीं प्रायश्चित स्वीकार्यता का परिमार्जन अर्थात् सुधार है। इंसानी सोच बदल जाती है दशा और दिशा बदल जाती है। उसकी समझ बढ़ जाती है। उसके बाद इंसान फिर से गलतियां ना करने का दृढ़ संकल्प लेता है, तथा अपनी पूर्ववर्ती गलतियों का प्रायश्चित करने पर उतर आता है, और प्रायश्चित पूर्ण करने के लिए हर सजा भुगतने के लिए मानसिक रूप से खुद को तैयार कर लेता है।

या प्रकारांतर से ये कह लें कि प्रायश्चित  गलतियों को सुधारने के  अवसर का नाम है।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

दिनांक 23–10–22  समय-12-10-22

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #156 ☆ शिकायतें कम, शुक्रिया ज़्यादा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख शिकायतें कम, शुक्रिया ज़्यादा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 156 ☆

☆ शिकायतें कम, शुक्रिया ज़्यादा ☆

‘शिकायतें कम, शुक्रिया ज़्यादा कर देते हैं वह काम/ हो जाता है जिससे इंसान का जग में नाम/ और ज़िंदगी हो जाती आसान।’ जी हां! यही सत्य है जीवन का– शिकायत स्वयं से हो या दूसरों से; दोनों का परिणाम विनाशकारी होता है। यदि आप दूसरों से शिकायत करते हैं, तो उनका नाराज़ होना लाज़िमी है और यदि शिकायत आपको ख़ुद से है, तो उसके अनापेक्षित प्रतिक्रिया व परिणाम कल्पनातीत घातक हैं। अक्सर ऐसा व्यक्ति तुरंत प्रतिक्रिया देकर अपने मन की भड़ास निकाल लेता है, जिससे आपके हृदय को ठेस ही नहीं लगती; आत्मसम्मान भी आहत होता है। कई बार अकारण राई का पहाड़ बन जाता है। तलवारें तक खिंच जाती हैं और दोनों एक-दूसरे की जान तक लेने को उतारू हो जाते हैं। यदि हम विपरीत स्थिति पर दृष्टिपात करें, तो आपको शिकायत स्वयं रहती है और आप अकारण स्वयं को ही दोषी समझना प्रारंभ कर देते हैं उस कर्म या अपराध के लिए, जो आपने सायास या अनायास किया ही नहीं होता। परंतु आप वह सब सोचते रहते हैं और उसी उधेड़बुन में मग्न रहते हैं।

परंतु जिस व्यक्ति को शिक़ायतें कम होती हैं से तात्पर्य है कि वह आत्मकेंद्रित व आत्मसंतोषी प्राणी है तथा अपने इतर किसी के बारे में सोचता ही नहीं; आत्मलीन रहता है। ऐसा व्यक्ति हर बात का श्रेय दूसरों को देता है तथा विजय का सेहरा दूसरों के सिर पर बाँधता है। सो! उसके सब कार्य संपन्न हो जाते हैं और जग में उसके नाम का ही डंका बजता है। सब लोग उसके पीछे भी उसकी तारीफ़ करते हैं। वास्तव में प्रशंसा वही होती है, जो मानव की अनुपस्थिति में भी की जाए और वह सब आपके मित्र, स्नेही, सुहृद व दोस्त ही कर सकते हैं, क्योंकि वे आपके सबसे बड़े हितैषी होते हैं। ऐसे लोग बहुत कठिनाई से मिलते हैं और उन्हें तलाशना पड़ता है। इतना ही नहीं, उन्हें सहेजना पड़ता है तथा उन पर ख़ुद से बढ़कर विश्वास करना पड़ता है, क्योंकि दोस्ती में शक़, संदेह, संशय व शंका का स्थान नहीं होता।

‘हालात सिखाते हैं बातें सुनना और सहना/ वरना हर शख्स फ़ितरत से बादशाह ही होता है’ गुलज़ार का यह कथन संतुलित मानव की वैयक्तिक विशेषताओं पर प्रकाश डालता है कि परिस्थितियाँ ही मन:स्थितियों को निर्मित करती हैं। हालात ही मानव को सुनना व सहना सिखाते हैं, परंतु ऐसा विपरीत परिस्थितियों में होता है। यदि समय अनुकूल है, तो दुश्मन भी दोस्त बन जाते हैं, अन्यथा अपने भी अकारण पराए बनकर दुश्मनी निभाते हैं। अक्सर अपने ही अपनों की पीठ में छुरा घोंपते हैं, क्योंकि वे उनके हर रहस्य से अवगत होते हैं और उनके क्रियाकलापों से परिचित होते हैं।

इसलिए हमें दूसरों से नहीं, अपनों से भयभीत रहना चाहिए। अपने ही, अपनों को सबसे अधिक हानि पहुंचाते हैं, क्योंकि दूसरों से आपसे कुछ भी लेना-देना नहीं होता। सो! मानव को शिकायतें नहीं, शुक्रिया अदा करना चाहिए। ऐसे लोग विनम्र व संवेदनशील होते हैं। वे स्व-पर से ऊपर होते हैं; सबको समान दृष्टि से देखते हैं और उनके सब कार्य स्वत: संपन्न हो जाते हैं, क्योंकि सबकी डोर सृष्टि-नियंता के हाथ में होती है। हम सब तो उसके हाथों की कठपुतलियाँ हैं। ‘वही करता है, वही कराता है/ मूर्ख इंसान तो व्यर्थ ही स्वयं पर इतराता है।’ उस सृष्टि-नियंता की करुणा-कृपा के बिना तो पत्ता तक भी नहीं हिल सकता। सो! मानव को उसकी सत्ता के सम्मुख सदैव नतमस्तक होना पड़ता है, क्योंकि शिकायत करने व दूसरों पर दोषारोपण करने का कोई लाभ व औचित्य नहीं होता; वह निष्प्रयोजन होता है।

‘मोहे तो एक भरोसो राम’ और ‘क्यों देर लगा दी कान्हा, कब से राह निहारूँ’ अर्थात् जो व्यक्ति उस परम सत्ता में विश्वास कर निष्काम कर्म करता है, उसके सब कार्य स्वत: संपन्न हो जाते हैं। आस्था, विश्वास व निष्ठा मानव का सर्वोत्कृष्ट गुण है। ‘तुलसी साथी विपद के, विद्या, विनय, विवेक’ अर्थात् जो व्यक्ति विपत्ति में विवेक से काम करता है; संतुलन बनाए रखता है; विनम्रता को धारण किए रखता है; निर्णय लेने से पहले उसके पक्ष-विपक्ष, उपयोगिता-अनुपयोगिता व लाभ-हानि के बारे में सोच-विचार करता है, उसे कभी भी पराजय का मुख नहीं देखना पड़ता। दूसरे शब्दों में जो व्यक्ति अपने अहम् का त्याग कर देता है, वही व्यक्ति संसार में श्रद्धेय व पूजनीय हो जाता है व संसार में उसका नाम हो जाता है। सो! मानव को अहम् अर्थात् मैं, मैं और सिर्फ़ मैं के व्यूह से बाहर निकलना अपेक्षित है, क्योंकि व्यक्ति का अहम् ही सभी दु:खों का मूल कारण है। सुख की स्थिति में वह उसे सबसे अलग-थलग और कर देता है और दु:ख में कोई भी उसके निकट नहीं आना चाहता। इसलिए यह दोनों स्थितियाँ बहुत भयावह व घातक हैं।

चाणक्य के मतानुसार ‘ईश्वर चित्र में नहीं, चरित्र में बसता है। इसलिए अपनी आत्मा को मंदिर बनाओ।’ युधिष्ठर जीवन में काम, क्रोध व लोभ छोड़ने पर बल देते हुए कहते हैं कि ‘अहंकार का त्याग कर देने से मनुष्य सबका प्रिय हो जाता है; क्रोध छोड़ देने से  शोक रहित हो जाता है; काम का त्याग कर देने पर धनवान और लोभ छोड़ देने पर सुखी हो जाता है।’ परंतु यदि हम आसन्न तूफ़ानों के प्रति सचेत रहते हैं, तो हम शांत, सुखी व सुरक्षित जीवन जी सकते हैं। सो! मानव को अपना व्यवहार सागर की भांति नहीं रखना चाहिए, क्योंकि सागर में भले ही अथाह जल का भंडार होता है, परंतु उसका खारा जल किसी के काम नहीं आता। उसका व्यक्तित्व व व्यवहार नदी के शीतल जल की भांति होना चाहिए, जो दूसरों के काम आता है तथा नदी में अहम् नहीं होता; वह निरंतर बहती रहती है और अंत में सागर में विलीन हो जाती है। मानव को अहंनिष्ठ नहीं होना चाहिए, ताकि वह विषम परिस्थितियों का सामना कर सके और सबके साथ मिलजुल कर रह सके।

‘आओ! मिल जाएं हम सुगंध और सुमन की तरह,’ मेरे गीत की पंक्तियाँ इस भाव को अभिव्यक्त करती हैं कि मानव का व्यवहार भी कोमल, विनम्र, मधुर व हर दिल अज़ीज़ होना चाहिए। वह जब तक वहाँ रहे, लोग उससे प्रेम करें और उसके जाने के पश्चात् उसका स्मरण करें। आप ऐसा क़िरदार प्रस्तुत करें कि आपके जाने के पश्चात् भी मंच पर तालियाँ बजती रहें अर्थात् आप जहाँ भी हैं–अपनी महक से सारे वातावरण को सुवासित करते रहें। सो! जीवन में विवाद नहीं; संवाद में विश्वास रखिए– सब आपके प्रिय बने रहेंगे। मानव को जीवन में सामंजस्यता की राह को अपनाना चाहिए; समन्वय रखना चाहिए। ज्ञान व क्रिया में समन्वय होने पर ही इच्छाओं की पूर्ति संभव है, अन्यथा जीवन कुरुक्षेत्र बन जाएगा। जहां स्नेह, त्याग व समर्पण ‘होता है, वहां समभाव अर्थात् रामायण होती है और जहां इच्छाओं की लंबी फेहरिस्त होती है, संघर्ष व महाभारत होता है।

मानव के लिए बढ़ती इच्छाओं पर अंकुश लगाना आवश्यक है, ताकि जीवन में आत्मसंतोष बना रहे, क्योंकि उससे जीवन में आत्म-नियंत्रण होगा। फलत: आत्म-संतोष स्वत: आ जाएगा और जीवन में न संघर्ष न होगा; न ही ऊहापोह की स्थिति होगी। मानव अपेक्षा और उपेक्षा के न रहने पर स्व-पर व राग-द्वेष से ऊपर उठ जाएगा। यही है जीने की सही राह व सर्वोत्तम कला। सो! मानव को चिंता नहीं चिंतन करना चाहिए; सुख-दु:ख में सम रहना चाहिए क्योंकि इनका चोली दामन का साथ है। मानव को हर परिस्थिति में सम रहना चाहिए। समय सदैव एक-सा नहीं रहता। प्रकृति भी पल-पल रंग बदलती है। जो इस संसार में आया है; उसका अंत अवश्यंभावी है। इंसान आया भी अकेला है और उसे अकेले ही जाना है। इसलिए ग़िले-शिक़वे व शिकायतों का अंबार लगाने से बेहतर है– जो मिला है मालिक का शुक्रिया अदा कीजिए तथा जीवन में सब के प्रति आभार व्यक्त कीजिए; ज़िंदगी खुशी से कटेगी, अन्यथा आप जीवन-भर दु:खी रहेंगे। कोई आपके सान्निध्य में रहना भी पसंद नहीं करेगा। इसलिए ‘जीओ और जीने दो’ के सिद्धांत का अनुसरण कीजिए, ज़िंदगी उत्सव बन जाएगी।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -8 – परदेश के भोजनालय ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 8 – परदेश के भोजनालय ☆ श्री राकेश कुमार ☆

घर से बाहर जाकर भोजन ग्रहण करना हमारी संस्कृति की परंपरा कभी भी नहीं थी।

औद्योगिकीकरण के चलते जब लोग रोज़ी रोटी अर्जित करने के लिए दूर दराज के क्षेत्रों में जाने लगे तब से इनका चलन आरंभ हुआ था।

अस्सी के दशक में माध्यम श्रेणी के शहरों में भी ये साधारण बात हो चली थी। लोग माह में एक बार परिवार/ मित्रों के साथ भोजन के लिए बाहर जाने लगे थे। अब तो  बात सप्ताह में एक बार बाहर भोजन करने की हो गई है। इसके पीछे एक कारण पति पत्नी दोनों का रोज़गार में होना, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर हो जाती है और सप्ताह भर कार्यालय में रहने के पश्चात महिला भी कुछ आराम/ परिवर्तन चाहती हैं।

यहां विदेश आने के पश्चात सर्वप्रथम दक्षिण भारतीय भोजनालय “थलाइवा” जाने का अवसर प्राप्त हुआ, तो ऑर्डर लेने वाले ने छोटे से यंत्र (बैंक कार्ड स्वाइप करने जैसी) में लिख कर रसोई में सांझा कर दिया। समय रात्रि के साढ़े सात हुआ था, उसने स्पष्ट बता दिया की भोजनालय ठीक आठ बजे बंद हो जायेगा, इसलिए पूरा ऑर्डर दे देवें। यहां के अधिकतर भोजनालय शाम पांच बजे से रात्रि भोज (डिनर) आरंभ कर आठ बजे तक बढ़ा (बंद) देते हैं। शायद हमारे जैन समुदाय के सूर्यास्त पूर्व भोजन करने के लाभ की जानकारी इनको भी है। भुगतान के समय यहां पर टिप देना आवश्यक होता है। बिल के नीचे आप के द्वारा दी जाने वाली राशि अंकित कर हस्ताक्षर कर दिए जाते है, जिसका कार्ड के माध्यम से भुगतान हो जाता है। इस भोजनालय के परोसिए ने धीरे से कहा हो सके तो टिप नगद ही दे देवें और बिल में अंकित नहीं करें, ताकि पूरी राशि का लाभ उसे मिल सके। ऐसा विदेश के देसी भोजनालय में ही संभव हो सकता हैं। हमारे लोग छोटी मोटी हेरा फेरी से ही प्रसन्न हो जाते हैं। अमेरिका जैसा देश अपने हथियार और फार्मा उद्योग से पूरे विश्व को वर्षों से लूट कर सिरमौर बना हुआ हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 161 ☆ तमसो मा ज्योतिर्गमय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई 🌻

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 161 ☆ तमसो मा ज्योतिर्गमय ☆?

दीपावली, भारतीय लोकजीवन का सबसे बड़ा त्योहार है। कार्तिक मास की अमावस्या को सम्पन्न होने वाले इस पर्व में घर-घर दीप जलाये जाते हैं। अपने घर में प्रकाश करना मनुष्य की सहज और स्वाभाविक वृत्ति है किंतु घर के साथ परिसर को आलोकित करना उदात्तता है। शतपथ ब्राह्मण का उद्घोष है,

असतो मा सद्गमय,
तमसो मा ज्योतिर्गमय,
मृत्योर्मामृतं गमय…!

‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ से भौतिक संसार में प्रकाश का विस्तार भी अभिप्रेत है। हर दीप अपने स्तर पर प्रकाश देता है पर असंख्य दीपक सामूहिक रूप से जब साथ आते हैं तो अमावस्या दीपावली हो जाती है।

इन पंक्तियों के लेखक की दीपावली पर एक चर्चित कविता है, जिसे विनम्रता से साझा कर रहा हूँ,

अँधेरा मुझे डराता रहा,
हर अँधेरे के विरुद्ध
एक दीप मैं जलाता रहा,
उजास की मेरी मुहिम
शनै:-शनै: रंग लाई,
अनगिन दीयों से
रात झिलमिलाई,
सिर पर पैर रख
अँधेरा पलायन कर गया
और इस अमावस
मैंने दीपावली मनाई !

कथनी और करनी दो भिन्न शब्द हैं। इन दोनों का अर्थ जिसने जीवन में अभिन्न कर लिया, वह मानव से देवता हो गया। सामूहिक प्रयासों की बात करना सरल है पर वैदिक संस्कृति यथार्थ में व्यष्टि के साथ समष्टि को भी दीपों से प्रभासित करने का उदाहरण प्रस्तुत करती है। सामूहिकता का ऐसा क्रियावान उदाहरण दुनिया भर में मिलना कठिन है। यह संस्कृति ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ केवल कहती नहीं अपितु अंधकार को प्रकाश का दान देती भी है।

प्रभु श्रीराम द्वारा रावण का वध करके अयोध्या लौटने पर जनता ने राज्य में दीप प्रज्ज्वलित कर दीपावली मनाई थी। श्रीराम सद्गुण का साकार स्वरूप हैं। रावण, तमोगुण का प्रतीक है। श्रीराम ने समाज के हर वर्ग को साथ लेकर रावण को समाप्त किया था। तम से ज्योति की यात्रा का एक बिंब यह भी है। स्वाभाविक है कि सामूहिक दीपोत्सव का रेकॉर्ड भी भारतीयों के नाम ही है। यह सामूहिकता, सामासिकता और एकात्मता का प्रमाणित वैश्विक दस्तावेज़ भी है।

तथापि सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि वर्तमान में चंचल धन और पार्थिव अधिकार के मद ने आँखों पर ऐसी पट्टी बांध दी है कि हम त्योहार या उत्सव की मूल परम्परा ही भुला बैठे हैं। आद्य चिकित्सक धन्वंतरी की त्रयोदशी को हमने धन की तेरस तक सीमित कर लिया। रूप की चतुर्दशी, स्वरूप को समर्पित कर दी। दीपावली, प्रभु श्रीराम के अयोध्या लौटने, मूल्यों की विजय एवं अर्चना का प्रतीक न होकर केवल द्रव्यपूजन का साधन हो गई।

उत्सव और त्योहारों को उनमें अंतर्निहित उदात्तता के साथ मनाने का पुनर्स्मरण हमें करना ही होगा। अपने जीवन के अंधकार के विरुद्ध एक दीप हमें प्रज्ज्वलित करना ही होगा। जिस दिन एक भी दीपक इस सुविधानुसार विस्मरण के अंधेरे के आगे सीना ठोंक कर खड़ा हो गया, यकीन मानिए, अमावस्या को दीपावली होने में समय नहीं लगेगा।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आत्मानंद साहित्य #145 ☆ आलेख – पश्चाताप ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 145 ☆

☆ ‌आलेख – पश्चाताप ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

ताप शब्द गर्मी का प्रतीक है,यह जब उग्र अवस्था में होता है तो सब कुछ जला कर खाक कर देता है, यह अपने पराए का भेद भाव नहीं करता, इसका स्वभाव ही ज्वलनशील है, इसके चपेटे में आने वाली हर वस्तु का जल कर नष्ट होना तय है, वहीं पश्चाताप की अग्नि आप के हृदय को शुद्ध कर देती है , यह मानव पश्चाताप की अग्नि में तब जलता है,जब मानव को अपने कर्मों का यथार्थ बोध हो जाता है, और उसे अपने गलत कर्मो का आभास होता है, पश्चाताप की अग्नि व्यक्ति के हृदय को निर्मल बना देती है, तथा आत्मचिंतन का मार्ग प्रशस्त कर देती है, पश्चाताप की अग्नि में जलता हुआ हृदय, व्यक्ति को सन्मार्ग पर ले जाता है,वह आत्मनिरीक्षण कर के गलत मार्ग
छोड़ सही रास्ता अपना लेता है।

यही तो हुआ डाकू रत्नाकर के साथ जब उसे अपने कर्मों के यथार्थ का ज्ञान हुआ तो उनका हृदय पश्चाताप की अग्नि में जल उठा ,उन्हें बड़ा दुख और क्षोभ हुआ अपने दुष्कर्मों तथा अपने दुर्भाग्य पर और पश्चाताप की अग्नि में खुद को तिल तिल जला कर तपश्चर्या के मार्ग को अपनाया, सारे दुष्कर्म पश्चाताप की अग्नि में होम कर दिया, तब कहीं उनके अज्ञान का अंधकार दूर हुआ,ज्यों ही ज्ञान की प्राप्ति हुई ,बन बैठे महर्षि वाल्मीकि और माता सीता के आश्रय दाता की भूमिका ही नहीं निभाई, बल्कि भगवान राम के अंशजों के गुरु की भूमिका का भी निर्वहन किया। और गुरुपद धारण किया, आप खोजेंगे तो और भी बहुत सारे पौराणिक उदाहरण मिल जाएंगे।

पश्चाताप की आग में जलते हुए इंसान को अपने कर्मों पर खेद होता है, अपने भीतर के सवेदन हीन पाषाण हृदय का परित्याग कर , संवेदनशील हृदय का स्वामी बन जाता है तभी तो महर्षि वाल्मीकि संस्कृत साहित्य के प्रथम कवि बन जाते हैं,और क्रौच पक्षी के कामातुर जोड़े के बिछोह की पीड़ा की अनुभूति की अभिव्यक्ति कर पाते हैं, और काव्य रचना कर देते हैं, लिखते है-

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम् ।।

इस प्रकार बाल्मिकी जी उस बहेलिये को शाप दे देते हैं। क्यों कि कवि हृदय संवेदनशील होता है ,और उसी में यह क्षमता विद्यमान होती है

जो परिस्थितिजन्य पीड़ा दुख दर्द, सुख के क्षणों का एहसास आक्रोश आदि के भावों का हृदय से अनुभूति करने में सक्षम होता है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पश्चाताप की अग्नि नये व्यक्तित्व का निर्माण करने में सहायक होती है। और समाज के लिए उपयोगी व्यक्तित्व पैदा करती है,ऐसा तब होता है जब व्यक्ति पश्ताचाप की आंच में तपता है।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

दिनांक-21-10-22 समय–4-40बजे

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #155 ☆ मैं भी सही : तू भी सही ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मैं भी सही : तू भी सही। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 155 ☆

☆ मैं भी सही : तू भी सही ☆

बहुत सारी उलझनों का जवाब यही है कि ‘मैं अपनी जगह सही हूं और वह अपनी जगह सही है। ‘ऐ ज़िंदगी! चल नयी शुरुआत करते हैं…कल जो उम्मीद दूसरों से थी, आज ख़ुद से करते हैं’…में छिपा है सफल ज़िंदगी जीने का राज़…जीने का अंदाज़ और यही है– संबंधों को प्रगाढ़ व सौहार्दपूर्ण बनाए रखने का सर्वोत्तम व सर्वश्रेष्ठ उपादान अर्थात् जब आप स्वीकार लेते हैं कि मैं अपनी जगह सही हूं और दूसरा भी अपनी जगह ग़लत नहीं है अर्थात् वह भी सही है… तो सारे विवाद, संवाद में बदल जाते हैं और सभी समस्याओं का समाधान स्वयंमेव निकल आता है। परंतु मैं आपका ध्यान इस ओर केंद्रित करना चाहती हूं कि समस्या का मूल तो ‘मैं’ अथवा ‘अहं’ में है। जब ‘मानव की मैं’ ही नहीं रहेगी, तो समस्या का उद्गम स्थल ही नष्ट हो जाएगा… फिर समाधान की दरक़ार ही कहां रहेगी?

मानव का सबसे बड़ा शत्रु है अहं, जो उसे ग़लत तर्क पर टिके रहने को विवश करता है। इसका कारण होता है ‘आई एम ऑलवेज़ राइट’ का भ्रम।’ दूसरे शब्दों में ‘बॉस इज़ ऑल्वेज़ राइट’ अर्थात् मैं सदैव ठीक कहता हूं, ठीक सोचता हूं और ठीक करता हूं। मैं श्रेष्ठ हूं, घर का मालिक हूं, समाज में मेरा रुतबा है, सब मुझे दुआ-सलाम करते हैं। सो! ‘प्राण जाएं, पर वचन ना जाइ’ अर्थात् मेरे वचन पत्थर की लकीर हैं। मेरे वचनों की अनुपालना करना तुम्हारा प्राथमिक कर्त्तव्य व दायित्व है। सो! वहाँ यह नियम कैसे लागू हो सकता है कि मैं अपनी जगह सही हूं और वह अपनी जगह सही है। काश! हम जीवन में इस धारणा को अपना पाते, तो हम दूसरों के लिए जीने की वजह बन जाते। हमारे कारण किसी को कष्ट नहीं पहुंचता और महात्मा बुद्ध का यह संदेश कि ‘दूसरों से वैसा व्यवहार करें, जिसकी अपेक्षा आप दूसरों से करते हैं’ सार्थक सिद्ध हो जाता और सभी समस्याएं स्वत: समूल नष्ट हो जातीं।

आइए! हम इसके दूसरे पक्ष पर दृष्टिपात करें कि ‘हमें दूसरों से उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, बल्कि स्वयं पर विश्वास करना चाहिए, क्योंकि उम्मीद हमेशा टूटती है’ में जीवन जीने की कला का दिग्दर्शन होता है। जीवन में चिंता, परेशानी व तनाव की स्थिति तब जन्म लेती है; जब हम दूसरों से अपेक्षा करते हैं, क्योंकि उम्मीद ही दु:खों की जनक है, संतोष की हन्ता है तथा शांति का विनाश करती है। उस स्थिति में हमारे मन में दूसरों के प्रति शिकायतों का अंबार लगा रहता है और हम हर समय उनकी निंदा करने में मशग़ूल रहते हैं, क्योंकि वे हमारी अपेक्षाओं व मापदण्डों पर खरे नहीं उतरते। जहां तक तनाव का संबंध है, उसके लिए उत्तरदायी अथवा अपराधी हम स्वयं होते हैं और अपनी सोच बदल कर ही हम उस रोग से निज़ात पा सकते हैं। कितनी सामान्य-सी बात है कि आप दूसरों के स्थान पर ख़ुद को उस कार्य में लगा दीजिए अर्थात् अंजाम प्रदान करने तक निरंतर परिश्रम करते रहिए; सफलता एक दिन आपके कदम अवश्य चूमेगी और आप आकाश की बुलंदियों को छू पाएंगे।

अर्थशास्त्र का नियम है, अपनी इच्छाओं को कम से कम रखिए…उन पर नियंत्रण लगाइए, क्योंकि सीमित साधनों द्वारा असीमित इच्छाओं की पूर्ति असंभव है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी अमुक संदेश देते हैं कि यदि आप शांत भाव से तनाव-रहित जीवन जीना चाहते हैं, तो सुरसा के मुख की भांति जीवन में पाँव पसारती बलवती इच्छाओं-आकांक्षाओं पर अंकुश लगाइए। इस सिक्के के दो पहलू हैं..प्रथम है– इच्छाओं पर अंकुश लगाना और द्वितीय है–दूसरों से अपेक्षा न रखना। यदि हम प्रथम अर्थात् इच्छाओं व आकांक्षाओं पर नियंत्रण स्थापित कर लेते हैं, तो द्वितीय का शमन स्वयंमेव हो जायेगा, क्योंकि इच्छाएं ही अपेक्षाओं की जनक हैं। दूसरे शब्दों में ‘न होगा बांस, न बजेगी बांसुरी।’

विपत्ति के समय मानव को अपना सहारा ख़ुद बनना चाहिए और इधर-उधर नहीं झांकना चाहिए…न ही किसी की ओर क़ातर निगाहों से देखना चाहिए अर्थात् किसी से अपेक्षा व उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। ‘अपने हाथ जगन्नाथ’ अर्थात् हमें अपनी अंतर्निहित शक्तियों पर विश्वास करते हुए अपनी समस्त ऊर्जा समस्या के समाधान व लक्ष्य-पूर्ति के निमित्त लगा देनी चाहिए। हमारा आत्मविश्वास, साहस, दृढ़-संकल्प व कठिन परिश्रम हमें विषम परिस्थितियों मेंं भी किसी के सम्मुख नतमस्तक नहीं होने देता, परंतु इसके लिए सदैव धैर्य की दरक़ार रहती है।

‘सहज पके सो मीठा होय’ अर्थात् समय आने पर ही वृक्ष, फूल व फल देते हैं और समय से पहले व भाग्य से अधिक मानव को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। सो! सफलता प्राप्त करने के लिए लगन व परिश्रम के साथ-साथ धैर्य भी अपेक्षित है। इस संदर्भ में, मैं यह कहना चाहूंगी कि मानव को आधे रास्ते से कभी लौट कर नहीं आना चाहिए, क्योंकि उससे कम समय में वह अपने निर्धारित लक्ष्य तक पहुंच सकता है। अधिकांश विज्ञानवेता इस सिद्धांत को अपने जीवन में धारण कर बड़े-बड़े आविष्कार करने में सफल हुए हैं और महान् वैज्ञानिक एडिसन, अल्बर्ट आइंस्टीन आदि के उदाहरण आपके समक्ष हैं। ‘करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान’ अर्थात् निरंतर प्रयास व अभ्यास करने से यदि मूर्ख व्यक्ति भी बुद्धिमान हो सकता है, तो एक बुद्धिजीवी आत्मविश्वास व निरंतर परिश्रम करने से सफलता क्यों नहीं प्राप्त कर सकता …यह चिंतनीय है, मननीय है, विचारणीय है।

जिस दिन हम अपनी दिव्य शक्तियों से अवगत हो जाएंगे… हम जी-जान से स्वयं को उस कार्य में झोंक देंगे और निरंतर संघर्षरत रहेंगे। उस स्थिति में तो बड़ी से बड़ी आपदा भी हमारे पथ की बाधा नहीं बन पायेगी। वास्तव में चिंता, परेशानी, आशंका, संभावना आदि हमारे अंतर्मन में सहसा प्रकट होने वाले वे भाव हैं; जो लंबे समय तक हमारे आशियाँ में डेरा डालकर बैठ जाते हैं और जल्दी से विदा होने का नाम भी नहीं लेते। परंतु हमें उन आपदाओं को स्थायी स्वीकार उनसे भयभीत होकर पराजय नहीं स्वीकारनी चाहिए, बल्कि यह सोचना चाहिए कि ‘जो आया है, अवश्य जायेगा। सुख-दु:ख दोनों मेहमान हैं। थोड़ा समय जीवन में प्रवेश करने के पश्चात्, मुसाफिर की भांति संसार- रूपी सराय में विश्राम करेंगे; चंद दिन ठहरेंगे और चल देंगे।’ सृष्टि का क्रम भी इसी नियम पर आधारित है, जो निरंतर चलता रहता है। इसका प्रमाण है…रात्रि के पश्चात् दिन, अमावस के पश्चात् पूनम व विभिन्न ऋतुओं का समयानुसार आगमन, परिवर्तन व प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करने पर; उसके विकराल व भीषण रूप का दिग्दर्शन…हमें सृष्टि- नियंता की कुशल व्यवस्था से अवगत कराता है तथा सोचने पर विवश करता है कि उसकी महिमा अपरंपार है। समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता व परिस्थितियां निरंतर परिवर्तनशील रहती हैं। इसलिए मानव को कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए। हमारा दृष्टिकोण सदैव सकारात्मक होना चाहिए, क्योंकि जीवन में नकारात्मकता हमें तन्हाई के आलम में अकेला छोड़ कर चल देती है और हम लाख चाहने पर भी तनाव व अवसाद के व्यूह से बाहर नहीं निकल सकते।

अंतत: मैं यही कहना चाहूंगी कि आप अपने अहं का त्याग कर दूसरों की सोच व अहमियत को महत्व दें तथा उसे स्वीकार करें… संघर्ष की वजह ही समाप्त हो जाएगी तथा दूसरों से अपेक्षा करने के भाव का त्याग करने से तनाव व अवसाद की स्थिति आपके जीवन में दखल नहीं दे पाएगी। इसलिए मानव को आगामी पीढ़ी को भी इस तथ्य से अवगत करा देना चाहिए कि उन्हें अपना सहारा स्वयं बनना है। वैसे तो सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव अकेला सब कार्यों को संपन्न नहीं कर सकता। उसे सुख-दु:ख के साथी की आवश्यकता होती है। दूसरी ओर यह भी द्रष्टव्य है कि ‘जिस पर आप सबसे अधिक विश्वास करते हैं, एक दिन वही आप द्वारा स्थापित इमारत की मज़बूत चूलें हिलाने का काम करता है।’इसलिए हमें स्वयं पर विश्वास कर जीवन की डगर पर अकेले ही अग्रसर हो जाना चाहिए, क्योंकि भगवान भी उनकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता खुद करते हैं। आइए! दूसरों के अस्तित्व को स्वीकार अपने अहं का विसर्जन करें और दूसरों से अपेक्षा न रख अपना सहारा ख़ुद बनें। आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे निरंतर संघर्षशील रहें। रास्ते में थककर न बैठें और न ही लौटने का मन बनाएं, क्योंकि नकारात्मक सोच व विचारधारा लक्ष्य-प्राप्ति के मार्ग में अवरोधक सिद्ध होती है और आप अपने मनोवांछित मुक़ाम पर नहीं पहुंच पाते। परिवर्तन सृष्टि का नियम है…क्यों न हम भी शुरुआत करें–नवीन राह की ओर कदम बढ़ाने की– यही ज़िंदगी का मर्म है, सत्य है, यथार्थ है और सत्य हमेशा शिव व सुंदर होता है। उस राह का अनुसरण करने पर हमें यह बात समझ में आ जाएगी कि ‘मैं भी सही और तू भी सही है’ और यही है– ज़िंदगी जीने का सही सलीका व सही अंदाज़… जिसके उपरांत जीवन से संशय, संदेह, कटुता, तनाव, अलगाव व अवसाद का शमन हो जायेगा और चहुं ओर अलौकिक आनंद की वर्षा होने लगेगी।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #123 – “ई-पत्रिका उपयोगी है पर मनपसंद नहीं” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “ई पत्रिका उपयोगी है पर मनपसंद नहीं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 123 ☆

☆ आलेख – ई-पत्रिका उपयोगी है पर मनपसंद नहीं ☆ 

ललित ने मोबाइल निकाला। चंपक देखी। उसमें कहानी थी। मोटरसाइकिल ली। बाजार निकल गया। चंपक खरीदी। वही पढ़ने लगा। उसका कहना है, “पत्रिका का छपा रुप भाता और सुहाता है। इसे हाथ में लेकर पढ़ने में जो मजा है वह ई पत्रिका में नहीं है।”

पवित्रा को ले। वह कहती है, ” ई-पत्रिका पढ़ना मजबूरी है। पत्रिका बाजार में ना मिले तो क्या करें? मगर ई-पत्रिका में एक कहानी से ज्यादा नहीं पढ़ पाती हूं। आंखें दुखने लगती है।”

यह बात सच है। छपे हुए अक्षरों में मनमोहक जादू होता है। रचनाकार उसे लेकर निहारता है। आगे पीछे देखता है। छपा हुआ नाम व रचनाएं उसे अच्छी लगती है। उसे वह सहेज कर रखता है।”

छपी रचना को कहीं भी पढ़ सकते हैं। इसके लिए किसी साधन की आवश्यकता नहीं होती है। बिजली हो या ना हो कोई फर्क नहीं पड़ता है। कम प्रकाश में भी इसे पढ़ा जा सकता है।

मोबाइल में यह सुविधा नहीं होती है। रचना को पढ़ने के लिए कई साधनों की आवश्यकता होती है। रचना ऑनलाइन हो तो नेट, मोबाइल और सही ऑनलाइन एड्रेस की जरूरत पड़ती है। यदि चश्मा लगता है तो पढ़ते-पढ़ते आंखें दुखने लगती है।

जहां नेटवर्क की समस्या हो वहां, आप ई-पत्रिका नहीं पढ़ सकते हैं। कारण स्पष्ट है। बिना नेटवर्क के आप ई-पत्रिका मोबाइल पर प्राप्त नहीं कर सकते हैं। उसे डाउनलोड कर के ही पढ़ा जा सकता है।

दूसरा, ऑनलाइन पत्रिका सदा महंगी पड़ती है। हर बार ऑनलाइन से उसे खोलना पड़ता है। इसमें डाटा खर्च होता है। यदि मोबाइल में डाउनलोड कर लिया जाए तो मोबाइल की मेमोरी भर जाती है। वह हैंग होने लगता है।

तीसरा, मोबाइल में अक्षर बहुत छोटे दिखाई देते हैं। इसे पढ़ने के लिए झूम करना पड़ता है। साथ ही अंगुलियों को स्क्रीन के पेज से इधर-उधर खिसकाना पड़ता है। इससे अंगुलियों के साथ-साथ आंखों को ज्यादा मशक्कत करनी पड़ती है।

ऑफलाइन यानी छपी पत्रिका में सुविधा ही सुविधा है। इसे जहां चाहे वहां ले जा सकते हैं। जब चाहे तब पढ़ सकते हैं। किसी दूसरे को दे सकते हैं। वह जैसा चाहे लेकर पढ़ सकता है। बस, एक बार खर्च करना पड़ता है। उसे सदा के लिए सहेज कर रख सकते हैं।

छपी पत्रिका का सबसे बड़ा फायदा यह है कि आप चाहे जितने पृष्ठ एक बार में पढ़ सकते हैं। आपकी आंख पर ज्यादा असर नहीं पड़ता है। आप एक ही बैठक में बीसियोँ पृष्ठों को पढ़ सकते हैं। आंखों में पानी आना, आंखें दर्द, होना सिर भारी होना आदि अनेक समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता है।

इसका आशय यह नहीं है कि ई-पत्रिका उपयोगी नहीं होती है। संसार की कोई भी चीज ऐसी नहीं है जो उपयोगी ना हो। हर एक चीज की उपयोगिता होती है। यह हमारा नजरिया है कि हमें हम उस चीज को किस नजर से देखते हैं।

ऑनलाइन पत्रिका से हम काम की चीजें ढूंढ सकते हैं। ई-संस्करण देखकर आप आफ संस्करण मंगवा सकते हैं। इससे आपको उपयोगी चीजें आसानी से मिल सकती है। ई-पत्रिका में एकाध रचनाएं काम की हो सकती है तो आप उसे आसानी से पढ़ सकते हैं। घर पर सहेजने वाली चीजों को मंगवा सकते हैं।

यदि आप रचनाकार हैं तो ऑनलाइन पत्रिका आपके लिए बहुत उपयोगी हो सकती है। आप इन में रचनाएं प्रकाशित करवा कर निरंतर प्रोत्साहन पा सकते हैं। अपनी रचनाओं को डिजिटल रूप में सुरक्षित रख सकते हैं। तब जहां चाहे वहां से कॉपी पेस्ट करके इसका उपयोग कर सकते हैं।

अधिकांश रचनाकार यही करते हैं। वे अपनी रचनाएं मेल, व्हाट्सएप, टेलीग्राम,फेसबुक आईडी पर सुरक्षित रखते हैं। जब जहां जैसी जरूरत होती है तब वहां वैसी और उसी रूप में कॉपी करके पेस्ट कर देते हैं। यह उनके लिए सबसे ज्यादा उपयोगी सौदा होता है। मगर हर एक रचनाकार छपी सामग्री को ज्यादा तवज्जो देता है। उस में छपे हुए अक्षर उसे ज्यादा भातें हैं और लुभाते हैं।

इस लेखक का भी यही हाल है। वह ई-पत्रिका को बहुत उपयोगी मानता है, मगर यह उसकी मनपसंद नहीं है। उसके लिए आज भी छपी सामग्री सबसे ज्यादा मनपसंद व चहेती चीज है। यह लेखक छपी सामग्री को एक बैठक में ज्यादा से ज्यादा पढ़ लेता है। मगर वह मोबाइल में एक-दो पृष्ठ पढ़कर आंखों की वजह से उसे पढ़ना छोड़ देता है।

समय कभी, कैसा भी रहे, समय के साथ साधन बदल जाए, मगर छपी सामग्री का महत्व सदा रहा है और रहेगा। यह इस लेखक का मानना है। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता है। यही वजह है कि इस रचनाकार के लिए ई-पत्रिका उपयोगी तो है मगर मनपसंद नहीं हैं।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

21-10-2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -7 – परदेश की ट्रेल (Trail) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 5 – परदेश की ट्रेल (Trail) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

अमेरिका में  प्राकृतिक और विकसित किए गए वन में विचरण करने के लिए रास्ते बनाए गए है, और कुछ स्वयं बन गए है, उनको ही ट्रेल की संज्ञा दी गई हैं। हमारे देश की भाषा में खेतों की मेड़ या पगडंडी जो सघन वन क्षेत्र में आने जाने के रास्ते के रूप में उपयोग किया जाता हैं, को भी ट्रेल कह सकते हैं।                     

शिकागो शहर में भी ढेर सारी ट्रेल हैं। वर्तमान निवास से आधा मील की दूरी पर विशाल वन भूमि जिसमें छोटी नदी भी बहती है, क्षेत्र में ट्रेल बनाई गई हैं। मुख्य सड़क से कुछ अंदर जाकर गाड़ियों की मुफ्त पार्किंग व्यवस्था हैं। बैठने के लिए बहुत सारे बेंच/टेबल इत्यादि वन विभाग ने मुहैया करवाए गए हैं। कचरा डालने के लिए बड़ी संख्या में पात्र रखवा कर सफाई व्यवस्था को भी पुख्ता किया गया हैं।

मई माह से जब यहां पर भी ग्रीष्म ऋतु आरंभ होती है, तब  निवासी बड़ी संख्या में यहां आकर भोजन पकाते (Grill) हैं। लकड़ी के कोयले को छोटे छोटे चुहले नुमा यंत्र में जला कर  बहुतायत में नॉन वेज तैयार किया जाता हैं। सुरा और संगीत मोहाल को और खुशनुमा बनाने में कैटलिस्ट का कार्य करते हैं।

ट्रेल में थोड़े से पक्षी दृष्टिगोचर होते हैं।मृग अवश्य बहुत अधिक मात्रा में विचरण करते हुए पाए जाते हैं।

ट्रेल को लाल, पीले, हरे इत्यादि रंग से विभाजित किया गया हैं। भ्रमण प्रेमी रास्ता ना भटक जाएं इसलिए कुछ दूरी पर लगे हुए पिलर पर रंग के निशान देखकर हमको अपने दिल्ली मेट्रो की याद आ गई। वहां भी इसी प्रकार से अलग अलग रूट्स को रंगों से विभाजित किया गया हैं। कुछ स्टेशन पर एक लाइन से दूसरी लाइन पर भी यात्रा की जा सकती हैं। यहां ट्रेल में भी प्रातः भ्रमण करने वाले भी तिगड़ों /तिराहों पर अपना मार्ग रंगानुसार बदल सकते हैं।

ट्रेल सूर्योदय से सूर्यास्त तक खुला रहता हैं। श्वान पालक भी यहां विचरण करते हुए पाए जाते हैं, लेकिन चैन से बांधना सख्ती से अनिवार्य होता है, वर्ना श्वान हिरण जैसे जीवों के लिए घातक हो सकता हैं। साइकिल सवार भी यहां दिन भर पसीना बहा कर स्वास्थ्य रहते हैं। बहुत से लोग तो धूप सेक कर शरीर के विटामिन डी के स्तर को बनाए रखते हैं। शीतकाल में तो सूर्यदर्शन भी दुर्लभ होते हैं।

वर्तमान समय में तो गर्मी, वर्षा और तीव्र वेग से हवाएं चलने का मौसम है। मौसम गिरगिट जैसे रंग बदलता है, ऐसा कहना भारतीय राजनीति के उन नेताओं का अपमान होगा, जो अपनी विचार धारा को अनेक बार बदल कर दलगत राजनीति में अपने झंडे गाड़ चुके हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 160 ☆ को जागर्ति? ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रीमहालक्ष्मी साधना 🌻

दीपावली निमित्त श्रीमहालक्ष्मी साधना, कल शनिवार 15 अक्टूबर को आरम्भ होकर धन त्रयोदशी तदनुसार शनिवार 22 अक्टूबर तक चलेगी।इस साधना का मंत्र होगा-

ॐ श्री महालक्ष्म्यै नमः।

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 160 ☆ को जागर्ति? ☆?

विगत सप्ताह शरद पूर्णिमा सम्पन्न हुई। इसे कौमुदी पूर्णिमा अथवा कोजागरी के नाम से भी जाना जाता है।

अश्विन मास की पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा कहलाती है। शरद पूर्णिमा अर्थात द्वापर में रासरचैया द्वारा राधारानी एवं गोपिकाओं सहित महारास की रात्रि, जिसे देखकर आनंद विभोर चांद ने धरती पर अमृतवर्षा की थी।

चंद्रमा की कला की तरह घटता-बढ़ता-बदलता रहता है मनुष्य का मन भी। यही कारण है कि कहा गया, ‘चंद्रमा मनसो जात:।’

यह समुद्र मंथन से लक्ष्मी जी के प्रकट होने की रात्रि भी है। समुद्र को मथना कोई साधारण कार्य नहीं था। मदरांचल पर्वत की मथानी और नागराज वासुकि की रस्सी या नेती, कल्पनातीत है। सार यह कि लक्ष्मी के अर्जन के लिए कठोर परिश्रम के अलावा कोई विकल्प नहीं।

लोकमान्यता है कि कोजागरी की रात्रि लक्ष्मी जी धरती का विचरण करती हैं और पूछती हैं, ‘को जागर्ति?’.. कौन जग रहा है?..जगना याने ध्येयनिष्ठ और विवेकजनित कर्म।

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान का उवाच है,

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥

(2.69)

सब प्राणियोंके लिए जो रात्रि के समान है, उसमें स्थितप्रज्ञ संयमी जागता है और जिन विषयोंमें सब प्राणी जाग्रत होते हैं, वह मुनिके लिए रात्रि के समान है ।

सब प्राणियों के लिए रात क्या है? मद में चूर होकर अपने उद्गम को बिसराना,अपनी यात्रा के उद्देश्य को भूलना ही रात है। इस अंधेरी भूल-भुलैया में बिरले ही सजग होते हैं, जाग्रत होते हैं। वे निरंतर स्मरण रखते हैं कि जीवन क्षणभंगुर है, हर क्षण परमात्म तत्व को समर्पित करना ही लक्ष्य है। इन्हें ही स्थितप्रज्ञ कहा गया है।

साधारण प्राणियों का जागना क्या है? उनका जागना भोग और लोभ में लिप्त रहना है।  मुनियों के लिए दैहिकता कर्तव्य है। वह पर कर्तव्यपरायण तो होता है पर अति से अर्थात भोग और लोभ से दूर रहता है। साधारण प्राणियों का दिन, मुनियों की रात है।

अब प्रश्न उठता है कि सर्वसाधारण मनुष्य क्या सब त्यागकर मुनि हो जाए? इसके लिए मुनि शब्द का अर्थ समझना आवश्यक है। मुनि अर्थात मनन करनेवाला, मननशील। मननशील कोई भी हो सकता है। साधु-संत से लेकर साधारण गृहस्थ तक।

मनन से ही विवेक उत्पन्न होता है। दिवस एवं रात्रि की अवस्था में भेद देख पाने का नाम है विवेक। विवेक से जीवन में चेतना का प्रादुर्भाव होता है। फिर चेतना तो साक्षात ईश्वर है। ..और यह किसी संजय का नहीं स्वयं योगेश्वर का उवाच है।

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।

इंद्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना॥

(10.22)

श्रीमद्भगवद्गीता में ही भगवान कहते हैं कि मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में इंद्र हूँ, इंद्रियों में मन हूँ और प्राणियों की चेतना हूँ।

जिसने भीतर की चेतना को जगा लिया, वह शाश्वत जागृति के पथ पर चल पड़ा। ‘को जागर्ति’ के सर्वेक्षण में ऐसे साधक सदैव दिव्य स्थितप्रज्ञों की सूची में रखे गए।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आत्मानंद साहित्य #144 ☆ आलेख – आशंका ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 144 ☆

☆ ‌आलेख – आशंका ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

आशंका शब्द मन की नकारात्मकता की कोख से जन्म लेता है। यह बहुधा संशय, दुविधा, हताशा, निराशाजन्य परिस्थिति की देन है। यह वर्तमान में जन्म लेकर भविष्य में पृष्ठ पोषित होती है। आशंकाएं ज्यादातर निर्मूल होती है, लेकिन कभी कभी लाक्षणिक आधार पर सच भी साबित होती है। आशंकित मानव अनेक प्रकार के मानसिक तनाव झेलता है और यही तनाव एक समय  के बाद अवसाद का रूप ले लेता है तथा मानव अवसाद की बीमारी के चलते आत्महत्या भी कर लेता है। आशंका मानव का स्वभाव बन जाता है वह व्यक्ति के आत्म विश्वास की जड़ें हिला देता है। आशंकित व्यक्ति का खुद पर भी भरोसा उठ जाता है।  वह सकारात्मक सोच नहीं सकता नकारात्मकता मानव के मन पर बहुत बुरी तरह हावी हो जाती है। आशंकित इंसान प्राय: अकेला रहना चाहता है व अपने आप में घुटता रहता है,वह किसी पर भरोसा नहीं करता। उसकी आंखों की नींद उड़ जाती है और वह प्राय: नकारात्मक विचारों के चलते भयाक्रांत रहता है। सही निर्णय नहीं ले पाता अपना निर्णय बार बार बदलता रहता जिससे हानि उठानी पड़ती है

ऐसे व्यक्ति कुंठा का शिकार होते हैं, लोगों के लिए ऐसे व्यक्ति उपहास का पात्र बन जाते हैं। जबकि उन्हें दया नहीं सहानुभूति चाहिए उनका मानसिक इलाज होना चाहिए, और उन्हें समाज की मुख्य धारा में शामिल किया जाना चाहिए। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आशंकित स्वभाव मनोरोग है समय से हम रोगी के आचार विचार व्यवहार को समझ कर उसे नया जीवन शुरू करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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