डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय एवं सार्थक आलेख “बच्चों के विकास में बाल कविताओं की भूमिका”।)
☆ किसलय की कलम से # 71 ☆
☆ बच्चों के विकास में बाल कविताओं की भूमिका ☆
बच्चों के बौद्धिक स्तर, उनकी आयु व अभिरुचि का ध्यान रखते हुए उनके सर्वांगीण विकास में देश, समाज एवं परिवार के प्रत्येक सदस्य का उत्तरदायित्व होता है। हमारे समवेत प्रयास ही बच्चों के यथोचित विकास में चार चाँद लगा सकते हैं। बाल विकास में साहित्य का जितना योगदान है उतना किसी अन्य विकल्प का नहीं है। खासतौर पर आठ सौ वर्ष से अब तक लिखी गईं बाल कविताओं एवं प्रचलित विविध पद्यात्मक अंशों के योगदान को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि आज भी इनका बच्चों के जीवन में विशेष स्थान है। जब बाल कविताओं का इतना महत्त्व है तब इनके उपयोग, स्तर, विषय के अतिरिक्त इनके प्रयोग एवं सृजन में सावधानी तथा संवेदनशीलता पर ध्यान देना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। वहीं इस अहम विषय की जानकारी भी आमजन को होना बहुत जरूरी है।
इसलिए यहाँ सर्वप्रथम यह जान लेना चाहिए कि बाल कविताओं का सीधा अभिप्राय बालकों से संबंधित रचनाओं से होता है। वैश्विक स्तर पर कविताओं को मानव जीवन का अभिन्न अंग माना गया है। वार्ता, मनोरंजन, हर्ष-विषाद, स्नेह-स्मृति सहित बच्चे-बूढ़ों का कविताओं से सनातन नाता रहा है। बच्चों के जन्म लेते ही माँ अपने बच्चों को सुलाने के लिए लोरियाँ सुनाती है। बहलाने हेतु लोकगीत अथवा पारंपरिक गीतों का सहारा लेती है। उम्र और समझ के अनुसार छोटी-छोटी पंक्तियों और सरल शब्दों वाले गीत सुना कर उन्हें बहलाती है और स्वयं भी आनंदित होती है। प्रायः देखा गया है कि 3 से 4 वर्ष तक की आयु के बच्चे छोटे-छोटे गीत और कविताओं पर ध्यान देने लगते हैं। 5 से 6 वर्ष के बच्चे तो कविताओं से संबंधित प्रश्नों की झड़ी लगा देते हैं। लेकिन आज दुर्भाग्य यह है कि कविताएँ, गीत, पद्यात्मक लोकोक्तियाँ, पहेलियाँ आदि सुनाने के लिए न तो दादा-दादी और न ही नाना-नानी मिलते, वहीं माँ-बाप को इतनी फुर्सत नहीं मिलती कि वे बच्चों को बाल कविताएँ सुना सकें और उनकी जिज्ञासाओं को शांत कर सकें। उन्हें समझाने की बात तो दूर, उन्हें पारंपरिक, आधुनिक और बौद्धिक खुराक भी नहीं दे पाते।
हम सभी को ज्ञात होना चाहिए कि बच्चों को एकांत और नीरसता कतई पसंद नहीं होती। बच्चों को खेल-खेल में जीवनोपयोगी बातों, पद्यात्मक लोकोक्तियों, मुहावरों, मुक्तकों और पहेलियों के माध्यम से कुछ न कुछ सिखाते रहना चाहिए। शिक्षा और संस्कृति विषयक कवितायें छोटी होने के साथ-साथ बच्चों को याद होने लायक हों।शब्द व भाव उनके द्वारा भोगे गए बचपने के हों तो उन्हें रुचिकर भी लगेगा और वे उन्हें याद भी कर सकेंगे। बच्चे अक्सर उन्हें गुनगुनाते भी रहते हैं। कवितायें आनंदप्रद तो होती ही हैं वे बच्चों के विकसित हो रहे मस्तिष्क को और भी सक्रिय करती हैं, क्योंकि बच्चे बाल कविताओं को पढ़ते समय कवि की भावनाओं से जुड़कर अपने व्यक्तिगत जीवन की बातों को भूल-से जाते हैं। आशय यह है कि इस महत्त्वपूर्ण बात को ध्यान में रखकर कवि द्वारा बच्चों की उम्र व समझ के अनुरूप ही काव्य रचना करना चाहिए। बाल कविताओं की सृजन प्रक्रिया में बच्चों के परिवेश, उनकी रुचि, भाषा की सरलता, छोटी पंक्तियाँ आदि पर विशेष ध्यान देना श्रेयस्कर होता है अन्यथा बहुविषयक बोझिलता बच्चों के लिए अप्रियता का कारण बन सकती है।
कविताओं में लल्ला लल्ला लोरी, ईचक दाना बीचक दाना या फिर अक्कड़ बक्कड़ बंबे बो जैसे निरर्थक शब्दों का प्रयोग भी अधिकतर बालकों की रुचि को और बढ़ा देते हैं। उम्र के पड़ाव पर पड़ाव पार होने के बावज़ूद ऐसी अनेक काव्य पंक्तियाँ या काव्यांश होंगे जो आज भी हम सबको मुखाग्र हैं। भले ही ये शब्द लय की पूर्णता हेतु प्रयोग किए जाते हैं लेकिन गीत या कविता की लोकप्रियता में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। कवि द्वारा यह ध्यान देना भी जरूरी है कि सृजन में राजनीति, वैमनस्य, फरेब, हिंसा जैसे विषय समाहित न हों, क्योंकि हमारे इर्द-गिर्द के पशु-पक्षी, फल-फूल, सब्जियाँ, आकाश, सूरज-चाँद-सितारे और अपने खिलौनों के साथ हमउम्र बच्चे ही इनकी छोटी-सी दुनिया होते हैं। धर्म, राजनीति, लिंगभेद, जाति का इनकी दिनचर्या में कोई स्थान नहीं होता।
बच्चों की दिनचर्या और इनकी बारीक से बारीक गतिविधियों पर असंख्य कविताएँ लिखी गई हैं। बाल काव्य लेखन में निश्चित रूप से महाकवि ‘सूर’ को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। ‘तुलसी’ बाबा को बाल काव्य सृजन में दूसरा स्थान प्राप्त है। इन श्रेष्ठतम महाकवियों के बाल विषयक काव्य का विश्व में कोई सानी नहीं। बावज़ूद इसके बालोपयोगी और बच्चों की समझ में आने वाली कविताओं का आज भी टोटा है। इसका आशय यह कदापि नहीं है कि बाल कविताएँ लिखी ही नहीं जा रही हैं। बड़े से बड़ा कवि बाल कविताओं को अपने सृजन में अवकाश देता है।
बालोपयोगी एवं बाल मनोरंजन हेतु लिखी गई कविताओं का बहुत प्राचीन इतिहास है। 14वीं शताब्दी के प्रारंभ को ही देखें तो अमीर खुसरो लिख चुके थे-
‘एक थाल मोती से भरा
सबके ऊपर औंधा धरा’
भारतेंदु हरिश्चन्द्र, मैथिलीशरण गुप्त, कामता प्रसाद गुरु, सुभद्रा कुमारी चौहान, रामवृक्ष बेनीपुरी, शिवपूजन सहाय, देवी दयाल चतुर्वेदी, आचार्य भगवत दुबे, अश्विनी पाठक, सुरेश कुशवाहा तन्मय आदि ऐसे कवि-कवयित्री हैं जिन्होंने बाल कविताओं के माध्यम से बच्चों के ज्ञानवर्धन के साथ मनोरंजन भी किया है।
आज बदलती शिक्षा प्रणाली, बदलते परिवेश व व्यस्त दिनचर्या के चलते जीवनमूल्य, मनुष्यता एवं चारित्रिक बातें समयानुकूल नहीं मानी जातीं। आज अधिकांश लोगों का मात्र एक ही उद्देश्य रहता है कि हमारी संतान विद्यालय में पैर रखते ही कक्षा में अव्वल आए और मेरिट में आते हुए पूर्ण शिक्षित हो, तदुपरांत श्रेष्ठ से श्रेष्ठ नौकरी या व्यवसाय प्राप्त कर ले।
आज की परिस्थितियों में धर्म, राजनीति, रिश्ते और परहित के पाठ जीवन जीने के लिए उतने जरूरी नहीं माने जाते जितना कि निजी वर्चस्व और समृद्धि की सुनिश्चितता होती है। यही वर्तमान जीवनशैली आज का मूल मंत्र है जो हमें अपने ही परिवार और इस समाज से मिला है। हम गहनता से चिंतन-मनन करें तो कारण स्वतः स्पष्ट हो जाएगा कि आज के बच्चे भारतीय संस्कृति, धर्म, परंपराओं, रिश्तों एवं व्यवहारिकता से दूर क्यों होते जा रहे हैं।
बच्चों में सद्कर्मों के अंकुरण में बाल कविताओं का स्थान कमतर नहीं है। आज बालकों को पाठ्यक्रम से इतर पढ़ने, समझने, सामाजिक जीवन जीने तथा साहित्य सृजन हेतु समय और अवसर दोनों ही नहीं मिलते। एक जमाना था जब बच्चों को साहित्य लेखन हेतु प्रोत्साहित किया जाता था उनके लेखन की गलतियों को नजरअंदाज करते हुए उनकी बौद्धिक एवं सामाजिक क्षमता को बढ़ाया जाता था। यह सृजन क्षमता उनकी बहुआयामी मौलिकता की पहचान एवं उनके यथोचित विकास में सहायक होती थी। बच्चों द्वारा किया गया सृजन एवं बचपन में कंठस्थ कविताएँ उन्हें जीवन भर याद रहती हैं, जो उन्हें समय-समय पर सद्कर्मों हेतु प्रेरित करती हैं।
साहित्य सृजन में रुचि रखने वाले बालकों को स्थानीय और देश-विदेश की नई-पुरानी, अच्छी-बुरी और धर्म-कर्म की विस्तृत जानकारी सहजरूप से ज्ञात हो जाती है जो उन्हें आम आदमी से अलग करती है। इस तरह हम देखते हैं कि बाल कविताएँ बचपन में ही नहीं उनके वयस्क और बुजुर्ग होने तक कहीं न कहीं उनकी सहायक बनती ही हैं।
हमें यह ख़ुशी है कि उन परिस्थितियों में जब मानवीय मूल्यों का क्षरण हो रहा हो और जब लोगों का ध्यान केवल बच्चों को आत्मनिर्भर और आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनाने में लगा हो, ऐसे समय में बच्चों के नैतिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक विकास हेतु कुछ लोग व संस्थायें निरंतर सक्रिय हैं।
© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
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