हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ आत्मविश्वास॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ आत्मविश्वास ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

जहां न साधन साथ निभाते, फीकी पड़ जाती हर आश।

वहां अडिग चट्टान सरीखा, आता काम आत्मविश्वास॥

जिसमें आत्मविश्वास प्रबल है उसकी विजय प्राय: सुनिश्चित होती है। कोई भी कार्य छोटा हो या बड़ा, सरल हो या कठिन काम करने वाले के मन में सफलता पाने का आत्मविश्वास का होना बहुत जरूरी है। विश्व इतिहास के पन्ने, आत्मविश्वासी की विजयों से भरे पड़े हैं। क्षेत्र राजनीति का हो या विज्ञान का, व्यक्ति के आत्मविश्वास ने समस्याओं का सदा समाधान कराया है। चन्द्रगुप्त के आत्मविश्वास ने भारत में मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। यूरोप में नेपोलिय बोनापार्ट की हर जीत का रहस्य उस का आत्मविश्वास ही था। विज्ञान के क्षेत्र में किसी भी नये अविष्कार के लिये वैज्ञानिक की लगन, परिश्रम और सूझबूझ के साथ ही आत्मविश्वास और धैर्य के बल पर ही सफलता प्राप्त होती है। आत्मविश्वासी वीरों ने ही हिमालय की सर्वोच्च ऊंची चोटी गौरीशंकर जिसे एवरेस्ट भी कहा जाता है तक पहुंचकर अपने अदम्य साहस का परिचय दिया है। आत्मविश्वास व्यक्ति को निडर, उत्साही और धैर्यवान बनाता है।

सामान्य जीवन में भी जिनमें आत्मविश्वास होता है वे किसी भी कार्य को करने से न तो हिचकिचाते हैं और न पीछे हटते हैं। विद्यार्थी जीवन में देखें तो परीक्षा देना तो अनिवार्य है। बिना परीक्षा पास किये कोई आगे नहीं बढ़ सकता। उसे वांछित लक्ष्य नहीं मिल सकता पर कई छात्र परीक्षा के नाम से घबराते हैं। क्योंकि उन्हें अपने अध्ययन और अभ्यास पर पूरा पूरा विश्वास नहीं होता। डर लगता है कि कहीं परीक्षा में फेल न हो जाये। किन्तु जिस छात्र के मन में अपने पर पूरा विश्वास होता है उसे परीक्षा न केवल आसान लगती है बल्कि उसे परीक्षा देना और विशेष योग्यता प्रदर्शित कर पास होना एक खेल सा सरल काम लगता है। वह तो चाहता है कि परीक्षा का अवसर हो और वह उसमें सफल होकर यश अर्जित करे। आत्मविश्वास एक ऐसा गुण है जो जीवन को सहज और सुखद बनाता है। सफलता उसके लिये प्रसन्नता का कारण होती है। आत्मविश्वास हिम्मत बढ़ाता है। आत्मविश्वास का अभाव शंकाओं को जनम देता है और कार्यसिद्धि में व्यवधान बनता है। प्राय: समझा जाता है कि नारी जाति में समस्याओं से जूझने का आत्मविश्वास नहीं होता परन्तु यह बात पूर्णत: सही नहीं है भारत में ही गोंडवाना की रानी दुर्गावती ने सम्राट अकबर से टक्कर लेने का साहस दिखाया था। सन् 1856 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में वीरता से लड़ते हुये झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने एक वीर सैनिक के वेश में युद्ध कर अंग्रेज सेना के दांत खट्टे कर दिखाया। आज कल बोर्ड और यूनीवर्सिटी की परीक्षाओं में लड़कियां अच्छे अंक प्राप्त कर मेरिट लिस्ट में अपने समकक्ष लडक़ों से ज्यादा अच्छा प्रदर्शन कर पुरस्कार की हकदार बन रही हैं। यह उनके आत्मविश्वास से कार्य करने का प्रमाण है।

प्रकृति ने हर व्यक्ति को आत्मविश्वास का वरदान दिया है। व्यक्ति उसे समझकर हमेशा दृढ़ता से काम करे। उस गुण को बढ़ाने की आवश्यकता है। व्यक्ति खुद को कमजोर या हीन न समझे। अपनी पूरी सामथ्र्य से कार्य हेतु खुद को समर्पित कर लक्ष्य को पाने की भावना मन में जगा ले, तो आत्मविश्वास बढ़ता जाता है। मार्ग की कठिनाइयां अपने आप समाप्त होती दिखती हैं। रुचि व उत्साह से कार्य में जुट जाने की आदत बन जाती है। दूसरों से अनुमोदन या प्रशंसा पाकर भी आत्मविश्वास बढ़ता है। उत्साह जागता है। कार्य में रुचि उत्पन्न होती है इसीलिये शिक्षकों द्वारा कक्षा में योग्य छात्रों की प्रशंसा करना उचित है। यह नये-नये गुणों के विकास में सहायक होता है। समाज में अच्छे कार्यकर्ताओं को पुरस्कारों की व्यवस्था भी इसीलिये की जाती है कि पुरस्कार पाकर उनमें आत्मविश्वास बढ़े और वह पुरस्कार उन्हें ही नहीं दूसरों को भी प्रोत्साहित कर सके।

प्रोत्साहन से कार्यक्षमता बढ़ती है, रुचि और उत्साह जागृत होते हैं और सफलता पाना सरल हो जाता है। प्रोत्साहन बाहरी आवश्यकता है परन्तु अपने गुणों को प्रखर करने में आत्मविश्वास की बड़ी भूमिका है और जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका है। आत्मविश्वास से जीवन को हर क्षेत्र में बढऩा आसान हो जाता है। किसी भी काम को पूरे विश्वास के साथ करके सफलता पाने की मनोभावना को आत्मविश्वास कहा जाता है जो बुद्धिमान और परिश्रमी व्यक्ति के लिये अपने खुद में जगाना कठिन नहीं है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ हमारा नैतिक पतन॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ हमारा नैतिक पतन ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

आज हमारा समाज जिस दौर से गुजर रहा है उसका चित्र प्रत्येक दिन अखबारों व टीवी के समाचारों द्वारा दिखाया जा रहा है। लोग ईमानदारी और सदाचार का मार्ग छोडक़र छोटे-छोटे लालचों में फंसे दिखते हैं। लालच प्रमुखत: धन प्राप्ति का है परन्तु साथ ही कामचोरी का भी दिखाई देता है। धन प्राप्ति के लिये लांच-घूंस, भ्रष्टाचार, लूट के मामले सामने आते हैं। छोटे व्यक्तियों की बात तो क्या ऊंचे पदों पर आसीन व्यक्ति भी नियम-कायदों की घोर उपेक्षा कर मन माफिक धन संचय के लिये कुछ भी गलत करने में नहीं हिचकिचाते। बड़ों में राजनेता और उच्च पदस्थ वे अधिकारी भी हैं जिन्हेें समाज को मार्गदर्शन देना चाहिये। चूंकि बड़ों का अनुकरण समाज प्राचीन काल से करता आया है इसलिये आज समाज का छोटा वर्ग भी इसी चारित्रिक गिरावट में दिखाई देता है। भ्रष्टाचरण हर जगह सामान्य हो चला है, जिसे जहां मौका मिलता है वहीं वह गबन कर बैठता है। घूंस स्वीकार कर नियम विरुद्ध कार्य करने को तैयार है। अपने कर्तव्यों और अपने उत्तरदायित्वों के प्रति लोगों की निष्ठा जैसे समाप्त हो चली है। आये दिन खबरें छपती हैं, शिक्षक अपने छात्रों को शिक्षित करने में रुचि न लेकर कार्यस्थल से ड्यूटी की अवधि में अनुपस्थित रहते हैं। डॉक्टर समय पर अस्पतालों में नहीं पहुंचते, मरीजों के दुख तकलीफों को दूर करने में रुचि नहीं लेते। अस्पताल से जल्दी घर चले जाते हैं। घरों में प्रायवेट प्रेक्टिस करते हैं। अस्पताल में आये हुये गरीब मरीजों की प्रार्थनाओं पर न तो ध्यान देते हैं न रहम करते हैं। अस्पताल में आये हुये गरीब मरीजों की प्रार्थनाओं पर न तो ध्यान देते और न दवा करते, केवल पैसों पर और अपनी कमाई पर ध्यान रखते हैं। गांव से बड़े शहरों तक के प्राय: सभी जन सेवक जनसेवा नहीं धन सेवा में मस्त हैं। अधिकारी वर्ग तक जो ऊंची तनख्वाह पाते हैं कर्तव्य के प्रति लापरवाह हैं। अपने परिवार की सुख सुविधाओं को प्राथम्य देते हैं। अपने आराम को दुखियों के दुखों से अधिक महत्व देकर सब कार्य कर रहे हैं। केवल स्वत: ही नहीं अपने पुत्र-पुत्रियों से रिश्तेदारों तक को नियमों के विपरीत सुविधायें उपलब्ध कराने में अपना बड़प्पन समझते हैं, जबकि ऐसे प्रसंगों में उन्हें और उनके संबंधियों को शर्म आनी चाहिये। क्योंकि वे जनसेवा में व्यवधान उत्पन्न कर गरीबों के हकों पर डाका डाल रहे हैं। प्रादेशिक असेम्बिलियों तथा लोकसभा तक के सदस्य राजनेता समय और धन का दुरुपयोग कर अपने निर्धारित कर्तव्यों की उपेक्षा कर शासकीय धन का अपव्यय कर रहे हैं।

धन के अपव्यय या गबन के प्रसंग उजागर होने पर जांच कमीशन नियुक्त कर दिया जाता है, जो स्वत: समय और धन के व्यय के बाद भी शायद वांछित परिणाम विभिन्न कारणों से नहीं दे पाता है। जिस देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के आंदोलन में स्वेच्छा से कर्तव्यनिष्ठ लोगों ने अपने प्राणों की आहुति हँसते-हँसते दी थी, उन्हें क्या मालूम था कि आजादी के बाद उन्हीं के देशवासी स्वार्थ के लिये देशवासियों के प्राणों की आहुति लेने में भी संकोच नहीं करेंगे। जगह-जगह आतंकवादी निरपराधियों को बिना किसी डर और संकोच के मार रहे हैं। बलात्कारी राक्षस तुल्य व्यवहार कर अबोध बालिकाओं का, निडर हो पशुवत शिकार कर रहे हैं। निरीह जन साधारण अपने अधिकारों से वंचित किये जा रहे हैं। बेरहमी देश में ताण्डव नृत्य कर रही है। वे लोग जो सुरक्षा के लिये तैनात है स्वत: भक्षक सा व्यवहार करते देखे जाते हैं। सामाजिक पूज्य संबंधों की मान्यताओं को मानने से अपने कर्तव्यों को भुला अनुचित शोषण किया जा रहा है। यह सब क्या हो रहा है?

इन सबका सबसे बड़ा कारण धार्मिक मान्यताओं की घोर उपेक्षा और शासन के कानूनों की निडरता से अव्हेलना है। धार्मिक मान्यतायें ही नैतिक चरित्र का निर्माण और परिपालन करती हैं जिनसे मनुष्य स्वानुशासित होता है। समाज में शांति, सुरक्षा और व्यवस्था स्वत: ही बनी रहती है। किन्तु आज सब प्राचीन ताना-बाना विभिन्न कारणों से छिन्न-भिन्न हो गया है। शासन भी व्यवस्था बनाये रखने में लगता है, अलग हो गया है। एक बहुत बड़ा कारण राजनीति का अमर्यादित हो धर्म मर्यादा से निर्भीक होकर कार्य करना है जिसने पूरे देश को अपने शिकंजे में जकड़ लिया है। लोगोंं ने धर्म और ईश्वर की उपेक्षा करके अपने को क्रांतिकारी वीर बताना सीख लिया है।

अव्यवस्थित, अमर्यादित और अनैतिक समाज या देश सही अर्थ में प्रगति और वास्तविक विकास नहीं कर सकता। सारा प्रदर्शन केवल एक आडम्बर मात्र रह जाता है। अत: हमें नैतिक और कर्तव्यनिष्ठ बनने की आज सबसे ज्यादा जरूरत है। नैतिकता से जीवन में शुचिता पवित्रता आती है और समाज में परिस्परिक विश्वास, व्यवहारों में पारदर्शिता और सुख समृद्धि तथा निर्भीकता प्राप्त होती है। सब कार्य सरलता से चलते हैं। नैतिक पतन समाज के नये नये दुखों और समस्याओं की जड़ है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #148 ☆ उम्मीद, कोशिश, प्रार्थना  ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख उम्मीद, कोशिश, प्रार्थना । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 148 ☆

☆ उम्मीद, कोशिश, प्रार्थना 

‘यदि आप इस प्रतीक्षा में रहे कि दूसरे लोग आकर आपको मदद देंगे, तो सदैव प्रतीक्षा करते रहोगे’ जॉर्ज बर्नार्ड शॉ का यह कथन स्वयं पर विश्वास करने की सीख देता है। यदि आप दूसरों से उम्मीद रखोगे, तो दु:खी होगे, क्योंकि ईश्वर भी उनकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं। इसलिए विपत्ति के समय अपना सहारा ख़ुद बनें, क्योंकि यदि आप आत्मविश्वास खो बैठेंगे, तो निराशा रूपी अंधकूप में विलीन हो जाएंगे और अपनी मंज़िल तक कभी नहीं पहुंच पाएंगे। ज़िंदगी तमाम दुश्वारियों से भरी हुई है, परंतु फिर भी इंसान ज़िंदगी और मौत में से ज़िंदगी को ही चुनता है। दु:ख में भी सुख के आगमन की उम्मीद कायम रहती है, जैसे घने काले बादलों में बिजली की कौंध मानव को सुक़ून प्रदान करती है और उसे अंधेरी सुरंग से बाहर निकालने की सामर्थ्य रखती है।

मुझे स्मरण हो रही है ओ• हेनरी• की एक लघुकथा ‘दी लास्ट लीफ़’ जो पाठ्यक्रम में भी शामिल है। इसे मानव को मृत्यु के मुख से बचाने की प्रेरक कथा कह सकते हैं। भयंकर सर्दी में एक लड़की निमोनिया की चपेट में आ गई। इस लाइलाज बीमारी में दवा ने भी असर करना बंद कर दिया। लड़की अपनी खिड़की से बाहर झांकती रहती थी और उसके मन में यह विश्वास घर कर गया कि जब तक पेड़ पर एक भी पत्ता रहेगा; उसे कुछ नहीं होगा। परंतु जिस दिन आखिरी पत्ता झड़ जाएगा; वह नहीं बचेगी। परंतु आंधी, वर्षा, तूफ़ान आने पर भी आखिरी पत्ता सही-सलामत रहा…ना गिरा; ना ही मुरझाया। बाद में पता चला एक पत्ते को किसी पेंटर ने, दीवार पर रंगों व कूची से रंग दिया था। इससे सिद्ध होता है कि उम्मीद असंभव को भी संभव बनाने की शक्ति रखती है। सो! व्यक्ति की सफलता-असफलता उसके नज़रिए पर निर्भर करती है। नज़रिया हमारे व्यक्तित्व का अहं हिस्सा होता है। हम किसी वस्तु व घटना को किस अंदाज़ से देखते हैं; उसके प्रति हमारी सोच कैसी है–पर निर्भर करती है। हमारी असफलता, नकारात्मक सोच निराशा व दु:ख का सबब बनती है। सकारात्मक सोच हमारे जीवन को उल्लास व आनंद से आप्लावित करती है और हम उस स्थिति में भयंकर आपदाओं पर भी विजय प्राप्त कर लेते हैं। सो! जीवन हमें सहज व सरल लगने लगता है।

‘पहले अपने मन को जीतो, फिर तुम असलियत में जीत जाओगे।’ महात्मा बुद्ध का यह संदेश आत्मविश्वास व आत्म-नियंत्रण रखने की सीख देता है, क्योंकि ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।’ सो! हर आपदा का साहसपूर्वक सामना करें और मन पर अंकुश रखें। यदि आप मन से पराजय स्वीकार कर लेंगे, तो दुनिया की कोई शक्ति आपको आश्रय नहीं प्रदान कर सकती। आवश्यकता है इस तथ्य को स्वीकारने की…’हमारा कल आज से बेहतर होगा’–यह हमें जीने की प्रेरणा देता है। हम विकट से विकट परिस्थिति का सामना कर सकते हैं। परंतु यदि हम नाउम्मीद हो जाते हैं, तो हमारा मनोबल टूट जाता है और हम अवसाद की स्थिति में आ जाते हैं, जिससे उबरना अत्यंत कठिन होता है। उदाहरणत: पानी में वही डूबता है, जिसे तैरना नहीं आता। ऐसा इंसान जो सदैव उधेड़बुन में खोया रहता है, वह उन्मुक्त जीवन नहीं जी सकता। उसकी ज़िंदगी ऊन के गोलों के उलझे धागों में सिमट कर रह जाती है। परंतु व्यक्ति अपनी सोच को बदल कर, अपने जीवन को आलोकित-ऊर्जस्वित कर सकता है तथा विषम परिस्थितियों में भी सुक़ून से रह सकता है।

उम्मीद, कोशिश व प्रार्थना हमारी सोच अर्थात् नज़रिए को बदल सकते हैं। सबसे पहले हमारे मन में आशा अथवा उम्मीद जाग्रत होनी चाहिए। इसके उपरांत हमें प्रयास करना चाहिए और अंत में कार्य-सम्पन्नता के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। उम्मीद सकारात्मकता का परिणाम होती है, जो हमारे अंतर्मन में यह भाव जाग्रत करती है कि ‘तुम कर सकते हो।’ तुम में साहस,शक्ति व सामर्थ्य है। इससे आत्मविश्वास दृढ़ होता है और हम पूरे जोशो-ख़रोश से जुट जाते हैं, अपने लक्ष्य की प्राप्ति की ओर। यदि हमारी कोशिश में कमी रह जाएगी, तो हम बीच अधर लटक जाएंगे। इसलिए बीच राह से लौटने का मन भी कभी नहीं बनाना चाहिए, क्योंकि असफलता ही हमें सफलता की राह दिखाती है। यदि हम अपने हृदय में ख़ुद से जीतने की इच्छा-शक्ति रखेंगे, तो ही हमें अपनी मंज़िल अर्थात् निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति हो सकेगी। अटल बिहारी बाजपेयी जी की ये पंक्तियां ‘छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता/ टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता’ जीवन में निराशा को अपना साथी कभी नहीं बनाने का सार्थक संदेश देती हैं। हमें दु:ख से घबराना नहीं है, बल्कि उससे सीख लेकर आगे बढ़ना है। जीवन में सीखने की प्रक्रिया निरंतर चलती है। इसलिए हमें दत्तात्रेय की भांति उदार होना चाहिए। उन्होंने अपने जीवन में चौबीस गुरु धारण किए और छोटे से छोटे जीव से भी शिक्षा ग्रहण की। इसलिए प्रभु की रज़ा में सदैव खुश रहना चाहिए अर्थात् जो हमें परमात्मा से मिला है; उसमें संतोष रखना कारग़र है। अपने भाग्य को कोसें नहीं, बल्कि अधिक धन व मान-सम्मान पाने के लिए सत्कर्म करें। परमात्मा हमें वह देता है, जो हमारे लिए हितकर होता है। यदि वह दु:ख देता है, तो उससे उबारता भी वही है। सो! हर परिस्थिति में सुख का अनुभव करें। यदि आप घायल हो गए हैं या दुर्घटना में आपका वाहन का टूट गया, तो भी आप परेशान ना हों, बल्कि प्रभु के शुक्रगुज़ार हों कि उसने आपकी रक्षा की है। इस दुर्घटना में आपके प्राण भी तो जा सकते थे; आप अपाहिज भी हो सकते थे, परंतु आप सलामत हैं। कष्ट आता है और आकर चला जाता है। सो! प्रभु आप पर अपनी कृपा-दृष्टि बनाए रखें।

हमें विषम परिस्थितियों में अपना आपा नहीं खोना चाहिए, बल्कि शांत मन से चिंतन-मनन करना चाहिए, क्योंकि दो-तिहाई समस्याओं का समाधान स्वयं ही निकल आता है। वैसे समस्याएं हमारे मन की उपज होती हैं। मनोवैज्ञानिक भी हर आपदा में हमें अपनी सोच बदलने की सलाह देते हैं, क्योंकि जब तक हमारी सोच सकारात्मक नहीं होगी; समस्याएं बनी रहेंगी। सो! हमें समस्याओं का कारण समझना होगा और आशान्वित होना होगा कि यह समय सदा रहने वाला नहीं। समय हमें दर्द व पीड़ा के साथ जीना सिखाता है और समय के साथ सब घाव भर जाते हैं। इसलिए कहा जाता है,’टाइम इज़ ए ग्रेट हीलर।’ सो दु:खों से घबराना कैसा? जो आया है, अवश्य ही जाएगा।

हमारी सोच अथवा नज़रिया हमारे जीवन व सफलता पर प्रभाव डालता है। सो! किसी व्यक्ति के प्रति धारणा बनाने से पूर्व भिन्न दृष्टिकोण से सोचें और निर्णय करें। कलाम जी भी यही कहते हैं कि ‘दोस्त के बारे में आप जितना जानते हैं, उससे अधिक सुनकर विश्वास मत कीजिए, क्योंकि वह दिलों में दरार उत्पन्न कर देता है और उसके प्रति आपका विश्वास डगमगाने लगता है।’ सो! हर परिस्थिति में खुश रहिए और सुख की तलाश कीजिए। मुसीबतों के सिर पर पांव रखकर चलिए; वे आपके रास्ते से स्वत: हट जाएंगी। संसार में दूसरों को बदलने की अपेक्षा उनके प्रति अपनी सोच बदल लीजिए। राह के काँटों को हटाना सुगम नहीं है, परंतु चप्पल पहनना अत्यंत सुगम व कारग़र है।

सफलता और सकारात्मकता एक सिक्के के दो पहलू हैं। आप अपनी सोच व नज़रिया कभी भी नकारात्मक न होने दें। जीवन में शाश्वत सत्य को स्वीकार करें। मानव सदैव स्वस्थ नहीं रह सकता। उम्र के साथ-साथ उसे वृद्ध भी होना है। सो! रोग तो आते-जाते रहेंगे। वे सब तुम्हारे साथ सदा नहीं रहेंगे और न ही तुम्हें सदैव ज़िंदा रहना है। समस्याएं भी सदा रहने वाली नहीं हैं। उनकी पहचान कीजिए और अपनी सोच को बदलिए। उनका विविध आयामों से अवलोकन कीजिए और तीसरे विकल्प की ओर ध्यान दीजिए। सदैव चिंतन-मनन व मंथन करें। सच्चे दोस्तों के अंग-संग रहें; वे आपको सही राह दिखाएंगे। ओशो भी जीवन को उत्सव बनाने की सीख देते हैं। सो! मानव को सदैव आशावादी व प्रभु का शुक्रगुज़ार होना चाहिए तथा प्रभु में आस्था व विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि वह हम से अधिक हमारे हितों के बारे में जानता है। समय बदलता रहता है; निराश मत हों। सकारात्मक सोच रखें तथा उम्मीद का दामन थामे रखें। आत्मविश्वास व दृढ़संकल्प से आप अपनी मंज़िल पर अवश्य पहुंच जाएंगे। एमर्सन के इस कथन का उल्लेख करते हुए मैं अपनी लेखनी को विराम देना चाहूंगी ‘अच्छे विचारों पर यदि आचरण न किया जाए, तो वे अच्छे सपनों से अधिक कुछ भी नहीं हैं। मन एक चुंबक की भांति है। यदि आप आशीर्वाद के बारे में सोचेंगे; तो आशीर्वाद खिंचा चला आएगा। यदि तक़लीफ़ों के बारे में सोचेंगे, तो तकलीफ़ें खिंची चली आएंगी। सो! हमेशा अच्छे विचार रखें; सकारात्मक व आशावादी बनें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ संयोग ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ संयोग ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

जो पूर्व निर्धारित नहीं होता, ऐसे अचानक संपन्न हुये कार्य को संयोग से हुआ कार्य कहा जाता है। संयोग का इस संसार में बहुत बड़ा महत्व है। हर एक के जीवन का बारीक विवेचन यदि किया जाये तो साफ समझ में आयेगा कि जीवन में संयोगवश घटनेवाली घटनाओं का पूर्व निर्धारित करके संपन्न की जाने वाली घटनाओं की अपेक्षा प्रतिशत अधिक है। विद्यार्थी जीवन में शिक्षा समाप्त कर भावी जीवन यात्रा का निर्धारण अधिकांश लोगों के संयोग से ही होता है। पहले मन में यद्यपि शिक्षा का क्षेत्र तय करके भी अध्ययन पूर्ण कोई कर ले परन्तु फिर भी उस निर्धारित क्षेत्र में कौन सी सेवा, पद तथा स्थान प्राप्त होगा यह अनिश्चित होता है। सेवा में प्रवेश या खुद के व्यवसाय अथवा व्यापार का निर्धारण प्राय: संयोग से ही हो पाता है।

जीवन की बड़ी विचित्रता यह है कि व्यक्ति अपने जीवन के भविष्य का निर्धारण खुद स्पष्टत: नहीं कर पाता। परिस्थितियां उससे कभी उसकी इच्छा के विपरीत भी कार्य संपन्न करा लेती हैं। जन्म से मृत्यु तक व्यक्ति आकस्मिक संयोगों के अधीन ही जीता है। इसका प्रमाण तो हर व्यक्ति अपने बचपन से आगे बढ़ते जीवन को भी स्वत: देख सकता है। आकस्मिक घटनायें, परिवर्तन, मौसम के प्रकोप और बदलाव, भूकम्प, सुनामी, तूफान सभी कभी भी व्यक्ति के जीवन में बड़े परिवर्तन कर जाते हैं। जीवन की दिशा ही बदल जाते हैं। असंभव व अनजानी परिस्थितियां पैदा कर जाते हैं। यह सब संयोग से होता है। भारत का विभाजन और नये देश पाकिस्तान का निर्माण इसका एक ऐसा बड़ा उदाहरण है जिसने करोड़ों जिंदगियों को नष्ट कर नयी दिशा दी। घर बदल गये, देश बदल गया, रोजगार बदल गया और इतना ही क्यों कई के जीवन में उनका धर्म और परिवार बदल गया। कौन जानता था कि देश का ऐसा विभाजन होगा आने वाली पीढिय़ों का पूरा भविष्य ही बदल जायेगा। लाखों जिंदगियां सामान की तरह एक स्थान से दूसरे सवर्था नये भूभाग में पार्सल की भांति स्थानांतरित हो जायेंगी और सर्वथा नये पौधों की तरह दूसरे खेतों में रोप दी जायेंगी।

इसी प्रकार के बड़े उदाहरण पिछले वर्षों आये हुये सुनामी संकट हैं, जिनने दक्षिण पूर्व एशिया, भारत और पास के द्वीपों- अंदमान इत्यादि में हजारों प्राणियों को एक क्षण में मृत्यु के मुख में भर दिया। जापान में अभी कुछ ही वर्षों पूर्व फूकूसीमा में भूकम्प और सुनामी हमलों में सबकुछ नष्ट कर जीवन को प्रभावित किया।

पुराने युग को याद करें तो दशरथ पुत्र राम या राज्याभिषेक होना निर्धारित किया गया था। सारी साज-सज्जा हो चुकी थी पर प्रात: सहसा आये पारिवारिक भूचाल ने उन्हें राजतिलक के बदले 14 वर्ष के लिये वनवास को जाना पड़ा। भारत के इतिहास के अनेकों प्रसंग हैं जो अजब संयोग घटित कर गये और सारा मानव जीवन ही तहस-नहस हो गया। इनमें महावीर के जीवन में विराग की उत्पत्ति सिद्धार्थ का राजसुख से दूर जीवन में दुखों के कारण के खोज की बलवती इच्छा, सम्राट अशोक की उत्कल पर भीषण मारकाट के बाद जीत और फिर हृदय परिवर्तन से करुणा के भाव का जागरण। युद्ध से विरक्ति और बौद्ध धर्म की अहिंसा तथा करुणा के प्रभाव से बौद्ध धर्म के प्रचार में रत हो जाना। ऐसे अनेकों प्रसंग हैं सारे विश्व इतिहास में जिनसे इतिहास का रुख ही बदल गया। इस प्रकार यह स्पष्ट देखा जाता है कि व्यक्ति का सोचा-विचारा निर्णय या कार्य संयोगवश पूरा नहीं हो पाता है। इसीलिये कहा जाता है कि सोच-विचार करने वाला तो मनुष्य होता है कार्य संपन्न किसी अज्ञात महाशक्ति के द्वारा होते हैं जिसे हम ईश्वर कहते हैं। वही संसार की घटनाओं का संचालक है और वही ऐसे संयोग तैयार करता है जो कभी-कभी अत्यन्त चमत्कारी होते हैं। इसीलिये कहा है-

कर्ता के मन और कुछ, सृष्टा के कुछ और।

दृष्टि है जिसकी हर समय इस जग में हर ठौर॥

इस प्रकार संसार में संयोग का बड़ा महत्व है। संयोगों ने ही इतिहास रचा है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ उत्साह ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ उत्साह ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

किसी भी कार्य को बिना आलस्य के संपादित कर डालने की तत्परता को उत्साह कहा जाता है। बहुत से लोगों में कार्य करने का बड़ा उत्साह होता है। काम चाहे जो और जैसा भी हो उसे सही ढंग से पूरा कर लेने की भावना कुछ लोगों में होती है। वे किसी काम के करने में न तो पीछे हटते हैं न आलस्य करते हैं। ऐसे लोगों को उत्साही कहा जाता है। मन का सदा उत्साह से कार्य करने की उत्सुकता एक बड़ा अच्छा गुण है। इसके विपरीत कुछ लोग स्वभाव से ढीले होते हैं। उनमें उत्साह की कमी होती है। काम को तुरंत न कर धीमी गति से या मन मौजी ढंग से करना उनका स्वभाव हो जाता है। यह उस व्यक्ति के लिये तथा समाज के लिये भी अहितकर है। उत्साही व्यक्ति के मन में कार्य को यथाशीघ्र सम्पन्न करने की आतुरता होती है जो व्यक्ति के लिये भी अच्छी बात है और जो उसके संपर्क में होते हैं उनके लिये भी। समय का सदा सदुपयोग करना अच्छा है क्योंकि समय बीत जाने पर फिर वह वापस मिलता नहीं और आगे अन्य कार्यों की व्यस्तता होने या परिस्थितियों में बदल होने से फिर कार्य को सही विधि से करने का अवसर नहीं मिल पाता है। इसीलिये नीतिकारों ने कहा है-

काल करन्ते आज कर, आज करन्ते अब।

पल में परलय होत है, बहुरि करोगे कब?

जीवन की अवधि भी छोटी है। समय पर व्यक्ति का अधिकार नहीं है इससे जो काम आ पड़ा उसे उत्साह से पूरा कर लेना अच्छी आदत है। जो शीघ्र कार्य संपन्न करने की आदत डाल लेते हैं उन्हें कोई काम कठिन नहीं लगता और हर काम को निपटा लेने का स्वभाव बन जाता है। उत्साह एक अच्छा गुण है इसका विकास बचपन से ही किया जाना चाहिये। छोटी-बड़ी उम्र, जानकारी या उसकी कमी और स्थान तथा समय, कार्यसंपादन के लिये उत्साही व्यक्ति की राह में कोई रोड़ा नहीं अटकाते। हम सब जानते हैं कि हनुमान जी में कार्य संपादन का कितना उत्साह था। हर छोटे-बड़े काम को शीघ्र उत्साह से पूर्ण कर डालने में उनकी बड़ी रुचि थी। पराक्रम, उत्साह से वे हर काम न करते होते तो एक रात्रि में ही लंका से हिमालय पर्वत तक जाकर संजीवनी बूटी जिससे लक्ष्मण जी की वैद्य की सलाह के अनुसार प्राण रक्षा हो सकी, नहीं लाई जा सकती थी। उत्साही व्यक्ति को कार्य करते देख दूसरों को भी कार्य शीघ्र संपन्न करने की प्रेरणा मिलती है। कठिनाइयों का हल पाने में सहायता होती है। जीवन के हर क्षेत्र में उत्साह की आवश्यकता है। छात्र जीवन में पुस्तकों को पढक़र आत्मसात करने, गृहकार्य पूर्ण करने, परीक्षा देने, क्रीड़ागन में खेल खेलने कोई नया गुण सीखने में उत्साह होना चाहिये। फैक्टरी में उत्पादन में लगे कार्यकर्ता को उत्साह हो तो उत्पादन की गुणवत्ता और उत्पादन के परिमाण में बढ़त होती है। इसी प्रकार क्षेत्र कोई भी हो उत्साह कार्य को सरल बना देता है और शीघ्र संपन्न करने की क्षमता बढ़ा देता है। जिसमें उत्साह नहीं वह आलसी होता है। आलसी व्यक्ति को स्वत: दुख होता है और सभी को कार्य में विलम्ब सहना पड़ता है। उत्साह में भरा हुआ व्यक्ति प्रसन्न हंसमुख और सुखी होता है। सभी लोग उत्साही व्यक्ति को पसंद करते हैं। उसकी प्रशंसा भी होती है और वह व्यक्ति अपने साथ काम करने वालों को प्रेरणा भी देता है व प्रसन्न करता है। उत्साह जीवन में आनन्द प्रदान करने वाला बड़ा आवश्यक गुण है। मन में जब उत्साह होता है तो समय और स्थान की दूरी भी व्यक्ति के लिये शायद छोटी हो जाती है और हर कार्य में सफलता आसान हो जाती है। उत्साह के विपरीत अवसाद का जन्म होता है जो प्रगति के पथ पर रुकावट होती है। 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ सदाचार की महिमा ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ सदाचार की महिमा ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

व्यक्ति समाज की एक इकाई है। व्यक्ति के विचार और कार्य उसके खुद के विकास के लिये तो महत्वपूर्ण होते ही हैं परन्तु उनका प्रभाव उस समाज पर भी पड़ता है, जिसकी वह इकाई होता है। व्यक्ति के सोच विचार और कार्य से ही नये वातावरण का निर्माण होता है। सात्विक विचार और व्यवहार तथा जनहितकारी कार्यों से ही समाज का उत्थान होता है। यदि विचार और कार्य अपावन होते हैं तो व्यक्ति और समाज का क्रमश: पतन होता है। इतिहास में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जहां किसी एक व्यक्ति के विचारों की पावनता और महानता ने समाज में भारी परिवर्तन लाकर नया जीवनदान दिया है।

पुरातनकाल में सम्राट अशोक और अर्वाचीनकाल में भारत में महात्मा गांधी ऐसे महापुरुष हुये जिनने समाज में भारी परिवर्तन कर नई चेतना प्रदान की। सत्यवादिता, अहिंसा, दयालुता, सहयोग, करुणा व कर्तव्यनिष्ठा ऐसे गुण हैं, जिन्हें समाज सदा आदर देता आया है। इनके अपनाये जाने से समाज ने सदा लाभ पाया है। इन्हें केवल शालेय पाठ्य पुस्तकों से पढक़र नहीं सीखा जा सकता। इन्हें घर-परिवार के स्नेहिल पवित्र वातावरण में बचपन से रहकर और अनुकरण से अनुभव प्राप्त कर ही आत्मसात किया जा सकता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर हमारे देश की पारिवारिक और सामाजिक संरचना में आपसी स्नेह व आदरपूर्ण संबंधों को विकसित करने प्रेम तथा त्यागपूर्ण जीवन जीने की व्यवस्था है। धर्म भी ऐसे मधुर संबंधों का उपदेश देते हैं। आज के आपाधापी के युग में पारिवारिक स्नेह बंधन टूटते जाते हैं। स्वार्थ और आत्म-सुख की प्राप्ति की हवा बह रही है। लोग सहयोग और संवेदनशीलता को भुला चले हैं। आज सामान्य जन पढऩे की जगह देखने, सुनने की जगह सुनाने और कुछ नया गुण सीखने की जगह हलके मनोरंजन में अधिक रुचि लेने लगे हैं। इसी से हमारी संस्कृति के मान्य मूल्यों का अवमूल्यन हो चला है। तनाव बढ़ रहा है। चारित्रिक पतन हो रहा है। सादगी और सरल जीवन की जगह दिखावों और आडम्बरों का चलन बढ़ गया है। मनुष्य जीवन में शांति का अभाव हो चला है। उलझाव बढ़ रहे हैं। ऐसे वातावरण में सुधार के लिये सही सोच-विचार और कार्य व्यवहार की आवश्यकता है। पारस्परिक सहयोग और चारित्रिक दृढ़ता तथा धर्म कर्मनिष्ठा द्वारा बुराइयों को त्याग कर नई अच्छी आदतें निर्माण करने का कार्य किया जाना चाहिये। यह सद्बुद्धि और सद्शिक्षा से ही संभव है।

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। समय बदलता है, नवीनता लाता है, उसे रोका नहीं जा सकता। परन्तु हमें क्या करना, क्या नहीं करना? अच्छा क्या है? क्या बुरा है? इसका विवेक से निर्णय कर सही कार्य करना चाहिये। जीवन के हर क्षेत्र में संतुलन रखकर ही नवीनता को स्वीकारना चाहिये। नवीनता के प्रवाह में बिना विचार के बह नहीं जाना चाहिये। कोई भी अनुचित एकांगी व्यवहार, समाज को स्वीकार्य नहीं होता और बिना विचारे किये कार्य भविष्य में दुख के कारण बनते हैं। कहा है-

 ‘बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताय।

काम बिगारै आपुनो जग में होत हंसाय॥’

सदाचारी बनकर हम अपना और अपने समाज का हित कर सकते हैं। सदाचारी को लालची और आलसी नहीं होना चाहिये। सदाचार का आशय है ऐसा अच्छा व्यवहार जो सबको पसंद हो और हितकर हो। सरल परख यह है कि हमारा कार्य, किसी के लिये दुख देने वाला और अरुचिकर न हो। आज सदाचार के स्थान पर भ्रष्टाचार बढ़ रहा है जिससे दोनों पक्षों और समाज को कष्ट हो रहा है। सदाचार से न केवल सबका कल्याण होता है वरन सबको सुख और प्रसन्नता होती है। वातावरण पवित्र होता है अत: शांति भी सहजता से मिलती है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग -7 (अंतिम भाग)☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “सात समंदर पार” की अंतिम कड़ी।)

☆ आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग – 7 (अंतिम भाग) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

यात्रा के दूसरे और अंतिम चरण में दुबई से विमान ने पंख फैलाए और यूरोप के ऊपर से शिकागो (अमेरिका) के लिए रास्ते में पड़ने वाला समुद्र फांदने लग गया। विमान में सभी की सीट के सामने स्क्रीन की सुविधा उपलब्ध रहती है। आप चाहें तो फिल्म इत्यादि देख कर मनोरंजन कर सकते हैं। विमान के बाहर लगे कैमरे से खुले आकाश के दृश्य का भी आनंद लिया जा सकता हैं। एक अन्य स्क्रीन पर आपके विमान की स्थिति, गति,  गंतव्य स्थान से दूरी इत्यादि की जानकारी पल पल में संशोधित होती रहती हैं।

विमान में नब्बे प्रतिशत से अधिक हमारे देश के लोग ही थे। नाश्ते में दक्षिण भारत के व्यंजन परोसे गए थे, पास में बैठे उत्तर भारत के एक सज्जन कहने लगे इससे अच्छा तो आलू पूरी या पराठा देना चाहिए था।हम लोग खाने पीने के बारे में कितने नखरे करते हैं।आने वाले समय में हो सकता है,आपके मन पसंद भोजन की मांग की पूर्ति के लिए स्विगी इत्यादि कंपनियां ड्रोन द्वारा खाद्य प्रदार्थ विमान की खिड़की से उपलब्ध करवा सकती हैं। रेल यात्रा में तो कई भोजनालय चुनिंदा स्टेशन पर खाद्य सामग्री आपकी सीट पर  पहुंचा देते हैं।                              

पंद्रह घंटे की यात्रा में तीन बार  खान पान की सेवा का आनंद लेते हुए विमान शिकागो की धरती पर कब पहुंच गया पता ही नहीं चला।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ जियो और जीने दो ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ जियो और जीने दो ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

परमात्मा ने प्रकृति को सतत विकास और समृद्धि का वरदान दिया है। संसार में सबके लिये रहने, भोजन करने और विकसित होने की पूरी व्यवस्था की है। जल, भोजन, वायु, उष्णता और आकाश प्रदान कर सबको पनपने और निर्बाध बढऩे रहने का उपक्रम किया है। वनस्पति और प्राणि संवर्ग एक-दूसरे के पूरक तथा सहयोगी बनाये गये हैं। परन्तु स्वार्थी मनुष्य ने अन्य प्राणियों, वनस्पतियों, भूमि, जल, वायु और आकाश का अपनी इच्छानुसार स्वार्थपूर्ति हेतु उपयोग कर अनावश्यक दोहन कर सबको प्रदूषित कर डाला है। यह प्रदूषण स्वत: उसके विनाश का कारण हो चला है। स्वार्थ में मस्त होकर धनार्जन के लोभ में वह भूला हुआ है।

प्रकृतिदत्त जीवन दायिनी वायु धुयें से प्रदूषित है। जल अर्थात् नदियां और जलाशय मलिन प्रवाहों से भर गये हैं। जल प्रदूषित हो गया। बीमारियां फैला रहा है। भूमि पर्याप्त उत्पन्न करने की क्षमता खोती जा रही है क्योंकि रासायनिक खादों से उर्वरा शक्ति खो रही है। कृषि भूमि पर भवन और कारखाने लगा दिये गये हैं। खदानों से जरूरत से अधिक खुदाई कर कोयला लोह अयस्क तथा अन्य मूल्यवान धातुयें और उत्पाद निकाले जा रहे हैं। शुद्ध भोज्य पदार्थ दुर्लभ हो रहे हैं। आकाश में ओजोन परत जो जीवन रक्षक कवच का काम करती है फट गई है। वायुमण्डल का तापमान असंतुलित हो गया है। प्राकृतिक बर्फ की चादर पिघल कर फट रही है। अत: उष्णता बढ़ रही है। मौसमों में असंतुलन आ गया है। वनस्पति-वृक्षों को काटा जा रहा है, अत: वनों का क्षेत्रफल कम हो रहा है। जिससे असंतुलन बढ़ रहा है। वन्य प्राणियों के आवास नष्ट हो रहे हैं जिससे उनकी प्रजातियां ही नष्ट हो रही हैं। वन्य पशुओं का मांस और धन के लिये शिकार किया जा रहा है। मनुष्य ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये नदी, पहाड़, खेत, वन, वन्य प्राणियों किसी को नहीं छोड़ा है और उनसे निर्दयता पूर्वक बर्ताव कर रहा है। यही तो पाप है जो आज मनुष्य निर्भय होकर कर रहा है।

सभी धर्मों ने मनुष्य को उपदेश दिया है कि संसार में जितने भी जीव जन्तु प्राणी हैं सभी मानव जीवन में सहायक हैं। उनकी तथा प्राकृतिक सर्जना की रक्षा भर ही नहीं उनकी संवृद्धि में सहयोग करके पुण्य लाभ प्राप्त करना चाहिये। किसी का विनाश न किया जाय, इसी सिद्धांत को सामने रख भगवान महावीर ने कहा था- ‘अहिंसा परमो धर्म:’। अहिंसा ही सबसे बड़ा धर्म है। जो धर्म का पालन करते हैं उन्हें पुण्य लाभ होता है और उन्हें सद्गति प्राप्त होती है। यदि मनुष्य दया भाव रखकर सबके साथ बर्ताव करे तो वह स्वत: भी सुखी हो। उसे जीवन के लिये प्रकृति सबकुछ प्रदान करे और वनस्पति तथा सभी प्राणियों को सुखी रख सके। इसी जनकल्याणकारी सिद्धांत को प्रतिपादित कर महावीर जी ने कहा था- ‘जियो और जीने दो’ अर्थात् खुद भी जियो और सुखी रहो तथा अन्य सभी को भी जीने और सुखी रहने दो। सूत्र रूप में सुख प्राप्ति के लिये अहिंसा के इस सिद्धांत से बड़ा मार्गदर्शक सिद्धांत क्या हो सकता है। मनुष्य को इसका मनन चिंतन और अपने जीवन में परिपालन करना आवश्यक है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ अहंकार का त्याग करें ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ अहंकार का त्याग करें ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

भूतल पर हमें अनुपम प्राकृतिक संरचना दिखाई देती है। इसमें तरह-तरह की वनस्पतियां और आश्चर्य में डाल देने वाला प्राणि जगत है। प्राणियों में जलचर, नभचर, थलचर सभी हैं। छोटे-छोटे कीट पतंगों से लेकर हाथी तक विशालकाय भयानक प्राणी हैं। बिना पैर के जीव जन्तुओं से लेकर बहुपद वाले थलचर और छोटी पंखियों से लेकर विशाल पंखधारी नभचर भी हैं। प्रकृति की यह अद्भुत व्यवस्था है। सब अपनी-अपनी मर्यादाओं में रहकर व्यवहार करते हैं। सबमें एक समन्वय है। अनेकताओं के बीच में एक रूपता है। समस्त सृष्टि हर घटक का उद्भव, विकास और अवसान निरन्तर अबाध गति से चलता रहता है। सबके जीवन क्रम में पारस्परिक सहयोग और समन्वय के आयाम भी दिखाई देते हैं। यदि ऐसा न होता तो जीवन दूभर हो जाता। सब अपने में अकेले होते हुये भी एक परिवार के सदस्य हैं और प्रत्येक के कुछ निर्धारित कार्य हैं, जो दूसरों को किसी न किसी प्रकार हितकारी हैं। इसी सृष्टि का बारीक अध्ययन कर भारतीय मनीषियों ने कहा- ‘वसुधैव कुटुम्बकम’।

परन्तु  बुद्धिवादी मनुष्य ने अपने विकास क्रम में नई-नई खोजें करके प्राकृतिक संतुलन को बदल दिया है। मेरे-तेरे की विभाजन रेखायें खींचकर संपूर्ण प्राकृतिक संपदाओं को टुकड़ों में बांट डाला है और उनपर अपना स्वत्व जमा रखा है। भूमि, नदी, पहाड़ ही नहीं अविभाज्य सागरों और आकाश पर भी अपना अधिकार दिखाता है। अब तो स्थिति यह हो गई है कि एक परिवार की सम्मिलित भूमि और संपत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार व बंटवारे के लिये झगड़े हो रहे हैं। विश्व को विखंडित कर नई-नई सीमायें बनाई जा रही हैं और इसी के लिये स्वार्थवश बड़ी-बड़ी लड़ाईयां हो चुकी हैं। समस्त विश्व में अधिकार और धन संपत्ति के विभाजन से वैरभाव व मनोमालिन्य बढ़ रहे हैं। सब जानते हैं कि एकदिन यह सब यहीं छोडक़र मृत्यु की गोद में सोना होगा परन्तु मोह माया और अहंकार के भाव के कारण मन की चाह बढ़ती जाती है। आध्यात्मिक चिंतक इसीलिये कहते हैं कि यही मेरी-तेरी की भावना माया है, जो मनुष्य को सच्चिदानंद की प्राप्ति में बाधक है। पढ़लिखकर समझदार होने के बाद भी हमारे व्यवहार अज्ञानों या अनपढ़ मूर्खों सरीखे होते हैं।

आध्यात्मिक दृष्टि से सारा संसार एक परिवार है पर फिर भी वैसा व्यवहार लोग नहीं कर पाते हैं। यही कारण है कि मनुष्य निरंतर किसी न किसी वस्तु के अभाव में दुखी होता रहता है। हमारे अहंकार ने ही सारे भूमंडल को राजनैतिक खण्डों में बांटकर नये-नये राज्य व देश  बना लिये हैं और पारस्परिक स्वार्थ में फंसकर अप्राकृतिक सीमाओं में कटीले तारों के घेरे लगा लिये हैं। थोड़े से स्वार्थ के लिये क्रोध कर लड़ते हैं और एक दूसरे को मार डालने में भी पीछे नहीं रहते। हमने अपने खुद को खुश करने के लिये कटीली बाड़ों में अपने को कैद कर रखा है। अपने को कैदकर खुद को अहंकार में रख दूसरे से लड़ते और दोनों पक्षों को दुखी करते हैं। यदि हमें सच्चे सुख की वास्तविक अभिलाषा है तो हमें सबसे मिलकर रहना होगा। अपने लगाये कटीले घेरों को तोडऩा होगा। वास्तविक सुख आपस में, प्रेम में, सहयोग में व समरसता में है। एकीकरण में है विभाजन में नहीं। ईश्वर ने सृष्टि को समग्रता में रचा है। हमें उसकी रचना के रहस्य और उद्देश्य को समझकर संवेदनशील बनना होगा और सबके साथ भावनात्मक एकता से रहना होगा। अहंकार को छोडऩा होगा और वसुधैव कुटुम्बकम के भाव को विकसित कर रहना होगा तभी सुखी हो सकेंगे।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 153 ☆ सं गच्छध्वम्, सं वदध्वम्! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना – माधव साधना (11 दिवसीय यह साधना गुरुवार दि. 18 अगस्त से रविवार 28 अगस्त तक)

इस साधना के लिए मंत्र है – 

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

(आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं )

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 153 ☆ सं गच्छध्वम्, सं वदध्वम्! ?

स्मरण हो आता है वह समय जब रेल का आरक्षण लेना लगभग आधे दिन की प्रक्रिया थी। कामकाजी समय से आधा दिन निकालना संभव न होता। इसके चलते 250-300 किलोमीटर की यात्रा प्राय: अनारक्षित डिब्बे में होती। रेल हो या बस, सीट पाया व्यक्ति अपने स्थान से टस से मस नहीं होना चाहता था। नये यात्री है को स्थान देने के बजाय अपने लिए आवश्यकता से अधिक स्थान सुरक्षित कर लेने की वृत्ति प्रायः देखने को मिलती थी। न्यूनाधिक यही स्थिति अब भी होगी। इस वृत्ति पर मनुष्य के क्रमिक विकास का सिद्धांत लागू नहीं हुआ। केवल प्रदर्शन का क्रमिक विकास हुआ।

आँखो दिखता सच यह है कि स्थूल रूप से मनुष्य दूसरे को स्थान नहीं देना चाहता। अंतश्चेतना के स्तर पर देखें तो अनेक बार मनुष्य न केवल भौतिक रूप से किसी के लिए स्पेस देने को इंकार करता है बल्कि मानसिक रूप से भी दूसरों के विचार के लिए कोई जगह छोड़ना नहीं चाहता।

स्मरण आती है, विद्यालय के दिनों की एक घटना। साथ ही स्मरण आते हैं हमारे प्रधानाध्यापक श्रद्धेय सत्यप्रकाश जी गुप्ता सर। मैं जब नौवीं में पढ़ा करता था, सर प्रधानाध्यापक बनकर पाठशाला में आए थे। मैं जो निबंध लिखता या ललित रूप से जो कुछ भी लिखता, उसे वे बेहद पसंद करते। विशेषकर राजनीतिक-सामाजिक  विषयों पर मेरा लेखन उन्हें बहुत भाता। उदाहरण के लिए ‘यदि मैं प्रधानमंत्री होता’ जैसे विषयों पर अपनी आयु के अनुरूप अपने विचारों को मैं प्रखरता से प्रकट करता। आज लगता है कि संभवत: यह विचार एकांगी अथवा एकतरफा होते होंगे। सर इन विचारों को पढ़-सुनकर प्रसन्न होते, पीठ थपथपाया करते।

मैं दसवीं में पहुँचा। बोर्ड की परीक्षा थी। दसवीं के बच्चों का विदाई समारोह होता था। विदाई समारोह के दो-चार दिन पहले सर ने मुझे अपने ऑफिस में बुलाया। वे बालक कहकर संबोधित किया करते थे। अत्यंत स्नेह से बोले, “बालक बोर्ड की परीक्षा में किसी राजनीतिक विषय  जैसे ‘यदि मैं प्रधानमंत्री होता’ पर निबंध मत लिखना। सामाजिक विषय पर लिखना।” पंद्रह वर्ष की अवस्था, जोश अधिक और होश कम। मैंने कहा, “मैं इसी पर लिखूँगा। यह मेरी पसंद का विषय है।”…” तुम्हारे अंक कम हो सकते हैं बालक, क्योंकि आवश्यक नहीं कि परीक्षक तुम्हारे विचारों से सहमत हो। मैं तुम्हें मेरिट लिस्ट में देखना चाहता हूँ, इसलिए प्रयास करना कि राजनीतिक विषय से बच सको।” उन्हें जीवन का विशद अनुभव था। मेरी आँखों में मेरी प्रतिक्रिया को उन्होंने पढ़ लिया। कुछ देर पहले प्रत्यक्ष सुन भी चुके थे। क्षण भर चुप रहकर बोले, “ठीक है, यदि ऐसे किसी विषय पर लिखो भी तो दूसरे के विचारों के लिए जगह छोड़ देना।”

घटना 42 वर्ष पूर्व की है। सर स्वर्गवासी हो चुके पर उनका अ-क्षर वाक्य चिरंजीव होकर आज भी मेरा मार्गदर्शन कर रहा है।

कालांतर में अनुभव ने सिखाया कि दूसरे के विचार के लिए विचार करना कितना आवश्यक है। संतान, जीवनसाथी, मित्र, परिवार, परिचित सब पर लागू होती है यह आवश्यकता।  कार्यालय, व्यापार, सामाजिक जीवन में यदि  आप नेतृत्व कर रहे हैं तो अनेक बार दो-टूक निर्णय लेने की स्थिति बनती है। ऐसे में प्रशंसा-आलोचना से परे निर्णय लेकर उसे समयबद्ध क्रियान्वयन तक भी ले जाना होता है। तथापि इस प्रक्रिया में भी जो लोग असहमत हैं या भिन्न मत रखते हैं, उनके विचारों के लिए जगह छोड़ना आवश्यक है। सामासिकता कहती है कि दूसरों के विचार के लिए जितनी जगह छोड़ते जाओगे, उतना ही तुम्हारा स्पेस अपने आप बढ़ता जाएगा। है न ग़ज़ब का समीकरण! दूसरों को स्पेस दो तो घटने के बजाय बढ़ता है अपना स्पेस!

ऋग्वेद यूँ ही नहीं कहता, ‘सं गच्छध्वम्, सं वदध्वम्!’ अर्थात मिलकर चलें, मिलकर बोलें। सांप्रतिक जीवन शैली में मिलकर चलना-बोलना न हो सके तब भी दूसरे के विचार के लिए स्थान छोड़कर अपौरूषेय के मार्ग का अवलंबन किया जा सकता है।..इति।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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