हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ दृष्टिकोण ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ दृष्टिकोण ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

दिनभर की निरन्तर यात्रा पूर्ण कर सूर्यदेव का रथ अस्ताचल के शिखर से नीचे उतर गया था। पश्चिम दिशा रक्ताभ थी। पूर्व की ओर से कालिमा की अवनिका क्रमश: उतरती और पसरती जा रही थी।

किसी पुराने किले के खंडहर के विवर से एक उलूक ने बाहर झांका और अपने बच्चों से बोला- बच्चों! अंधेरा हो रहा है। अब चिंता की कोई बात नहीं, तुम्हारी क्षुधा शांति के लिये मैं अभी शिकार करके लाता हूं। कष्टों की समाप्ति निकट है। मेरे स्वेच्छ संचार और काम्य व्यापार के लिये इष्ट तथा सुखद समय आ गया। फलोद्यान के वृक्ष पर बैठे कीर ने कहा- ‘मित्रों चलो अब नीड़ पर लौटकर विश्राम का समय आ गया है। यह बाग अब अंधकार में भयावह दिखाई देने लगा है।’

नगर के घने बाजार के पास की बस्ती की अट्टालिका से रंगीन दीपों की निकलती रश्मियों के साथ घुंघरुओं की झनकार तथा सुरम्य वाद्यों की आकर्षक ध्वनियों को सुनकर किसी पथिक ने कहा- कैसी मधुर और मोहक स्वर लहरी है। कितना सुहाना समा है।

तपस्वी पुत्र ने वनान्चल में निशानिमज्जित वातावरण को निहारते हुये कहा- ‘सारा संसार नैश नीरवता में निस्पन्द है। मानसिक एकाग्रता की साधना, उपासना और ज्ञान संचेतना के लिये संध्यावन्दन का उचित समय हो गया।’

कवि चिन्तन कर रहा था- ‘सूर्य की अनुपस्थिति में अंधकार का साम्राज्य तो थोड़े ही समय का होता है। रात हो गई, अब विहान के आगमन के मार्ग में कोई व्यवधान कहां? नवप्रभात की स्वर्णरश्मियों को झलकना तो सुनिश्चित है। बस कुछ समय की ही देर है।’

तभी कोई दार्शनिक लिख रहा था- ‘जिसे रात्रि कहा जाता है वह दिन से भिन्न नहीं है। दिन का ही तो दूसरा पहलू है। सूर्य तो निरन्तर प्रकाशमान है। पृथ्वी के परिभ्रमण के कारण जो भाग सूर्य के सामने आता वहां प्रकाश हो जाता और जो भाग सूर्य की विपरीत दिशा में चला जाता वहां अंधेरा हो जाता है। यह तो प्रकृति का सहज नियम है। मनुष्य ने जाने क्यों इस प्रक्रिया को मनोभावों से रंगकर दो अलग नाम दे रखे हैं- ‘दिन और रात’

संसार में सब लोग जो देखते, सुनते और समझते हैं वह सच में उनके मनोभावों और दृष्टिकोणों का ही प्रतिरूप होता है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ अभिभावकों का दायित्व सन्तान को सदाचारी बनाने का यत्न कीजिये ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ अभिभावकों का दायित्व सन्तान को सदाचारी बनाने का यत्न कीजिये ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

आज का युग पहले से बहुत बदल गया है। युगान्तरकारी परिवर्तन हो चुके हैं। पहले जहां छ: वर्ष के पहले स्कूल में प्रवेश नहीं दिया जाता था, वहां अब बच्चा को तीन साल का होने के पहले ही किसी नर्सरी, मोंटेसरी या किंडर गार्टन स्कूल में प्रवेश दिला दिया जाता है। माता-पिता बच्चे का स्कूल में मोटी रकम देकर नाम लिखा कर प्रसन्न तथा निश्चिंत हो जाते हैं। स्कूल यूनीफार्म पुस्तकें आदि खरीदकर आने जाने की वाहन व्यवस्था में भारी खर्चा करते हैं और बस अपने कर्तव्य की इतिश्री समझते हैं। माँ-बाप दोनों ही चूंकी कहीं सर्विस करते हैं अत: दिनभर थककर शाम को जब घर लौटते हैं तो निरंतर व्यस्तता के बीच बच्चे के सही पूर्ण विकास की ओर ध्यान देने, पूछताछ करने और मार्गदर्शन देने का अवसर ही उनके पास नहीं होता। बच्चा अगली कक्षाओं में पढ़ता बढ़ता जाता है। माता-पिता बच्चों के भविष्य के विषय में बड़ी-बड़ी कल्पनाओं सजाकर ट्यूशन आदि की व्यवस्था भी कर देते हैं, परन्तु बच्चे के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और भावनात्मक विकास की ओर पूरा ध्यान और समय नहीं दे पाते हैं। पढ़े-लिखे माता-पिता भी व्यक्तिगत रूप से बच्चे के शिक्षण कार्यक्रम में सहयोग नहीं दे पाते। बच्चे स्कूल और नौकरों के भरोसे पलते और बड़े होते हैं। माता-पिता के सर्विस में बाहर होने के कारण स्कूल से आकर बच्चे घर में अकेले या अन्य साथियों के साथ मनमौजी तरीके से या तो सडक़ पर खेलते होते हैं या घर में टीव्ही देखने में मस्त होते हैं। पढ़ाई में होमवर्क करते हैं तो पुस्तक की नकल कर उत्तर लिख जाते हैं। कई बार तो अधिकांश शिक्षक-शिक्षिकायें भी उत्तर लिखने को बालक की मौलिक योग्यता और भाषा को हतोत्साहित करते हैं और पुस्तक की भाषा में रटे हुये उत्तर को अधिक महत्व देते हैं, जो शिक्षा के मूल उद्देश्य के विरुद्ध है। पुस्तकीय ज्ञान और भाषा से अधिक महत्वपूर्ण छात्र के अपने अनुभव पर आधारित अपने शब्दों में लिखे गये उत्तर होते हैं। परन्तु उसकी मौलिकता को स्कूलों में भी आज कम सराहा जाता है। सदाचार की शिक्षा तो दूर की बात है, सदाचार के सही व्यवहार भी उन्हें स्कूल और समाज में देखने और समझने को कम मिलते हैं। अत: बच्चों का सही विकास नहीं हो पाता। शिक्षा से न तो सदाचार का पालन करना आता है न ही उनके संस्कार बनते हैं। एकल परिवार के कारण घर में बड़े-बूढ़े भी नहीं होते। अत: स्वास्थ्य, सदाचार, संस्कार की नींव मजबूत करना वास्तव में माता-पिता की ही जिम्मेदारी रह गई है, जो आज के जाने-अज्ञाने पूरी नहीं कर पा रहे हैं। सदाचारी न होने पर आदतें बुरी पड़ती हैं, दुराचार की प्रवृत्ति बढ़ती है। यही कारण है कि आज अनाचार और अपराध बढ़ते जा रहे हैं। माता-पिता को इससे यह दायित्व और भी अधिक समझने जिम्मेदारी से जरूरत है कि वे बच्चों को बचपन से ही सदाचारी बनाने के यत्न करें। दुराचारी व्यक्ति न केवल परिवार के लिए वरन पूरे समाज और राष्ट्र के लिये घातक और समस्यामूलक होते हैं।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #146 ☆ मौन भी ख़लता है ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मौन भी ख़लता है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 146 ☆

☆ मौन भी ख़लता है

‘ज़रूरी नहीं कि कोई बात ही चुभे/ बात न होना भी बहुत चुभता है।’ यह हक़ीकत है आज के ज़माने की… आजकल हर इंसान एकांत की त्रासदी से जूझ रहा है। पति-पत्नी भले ही एक छत के नीचे रहते हैं, परंतु उनमें अजनबीपन का एहसास चरम सीमा पर व्याप्त है। सिंगल पेरेंट का प्रचलन बढ़ने के कारण बच्चे नैनी व घर की बाईयों की छत्रछाया में रहते हैं और वे मां की ममता और पिता की छत्रछाया से महरूम रहते हैं। आजकल घर में मातम-सा सन्नाटा पसरा रहता है। इसलिए अक्सर बात होती ही नहीं, फिर उसके चुभने का प्रश्न ही कहाँ पैदा होता है? 

संवादहीनता की स्थिति वास्तव में अत्यंत घातक होती है, जो संवेदनहीनता का प्रतिफलन है। आजकल पति-पत्नी लोगों की नज़रों में तो पति-पत्नी दिखाई पड़ते हैं,परंतु उनमें दांपत्य संबंध नदारद रहता है। अक्सर बच्चों के कारण वे एक घर की चारदीवारी में रहने को विवश होते हैं। इस प्रकार समाज में बढ़ती विसंगतियों को देख कर हृदय आहत हो उठता है। बच्चों से उनका बचपन छिन रहा है। वे नशे के शिकार हो रहे हैं और उनके कदम ग़लत दिशा की ओर अग्रसर हो रहे हैं। लूटपाट,अपहरण, फ़िरौती, हत्या आदि उनके मुख्य शौक हो गए हैं। इस कारण दुष्कर्म जैसे हादसे भी सामान्य हो गए हैं और इन जघन्य अपराधों में उनके आत्मजों की लिप्तता का पता उन्हें एक लंबे अंतराल के पश्चात् लगता है। ‘अब पछताए होत क्या,जब चिड़िया चुग गई खेत’ इस प्रकार उनके तथाकथित माता-पिता हाथ मलते रह जाते हैं।

‘रिश्ते कमज़ोर नहीं होने चाहिएं। यदि एक ख़ामोश हो तो दूसरे को आवाज़ देनी चाहिए।’ परंतु कहाँ हो पाता है वह सब? आजकल ‘तू नहीं और सही’ का प्रचलन बेतहाशा जारी है। अक्सर अपने ही,अपने बनकर,अपनों को छलते हैं। सो! कुंठा व तनाव का होना स्वाभाविक है। वैसे भी ‘आजकल पहाड़ियों से ख़ामोश हो गये हैं रिश्ते/ जब तक न पुकारो, आवाज़ ही नहीं आती।’ सो! आत्मकेंद्रितता के कारण पारस्परिक दूरियाँ बढ़ती जा रही हैं। सब अपने-अपने अहं में लीन हैं, परंतु कोई भी पहल नहीं करना चाहता और उनके मध्य बढ़ती खाइयों को पाटना असंभव हो जाता है।

आजकल संयुक्त परिवार व्यवस्था के स्थान पर एकल परिवार व्यवस्था काबिज़ है। इसलिए रिश्ते एक निश्चित दायरे में सिमट कर रह गये हैं और कोई भी संबंध पावन नहीं रहा। नारी अस्मिता हर पल दाँव पर लगी रहती है। खून के रिश्तों पर विश्वास रहा नहीं। पिता-पुत्री व गुरु-शिष्य के संबंधों पर भी क़ालिख पुत गयी है। हर दिन औरत की अस्मत शतरंज की बिसात पर बिछाई जाती है तथा चंद सिक्कों के लिए चौराहे पर नीलाम की जाती है। माता-पिता भी उसका सौदा करने में कहां संकोच करते हैं? इन विषम परिस्थितियों में मानव-मूल्यों का पतन होना स्वाभाविक है।

शब्द-बाण अत्यंत घातक होते हैं। संस्कार व जीवन-मूल्य हमारी संस्कृति के परिचायक हैं। यदि आप मौन रहकर मात्र सहन करते हैं तो रामायण लिखी जाती है, वरना महाभारत का सृजन होता है।’अंधे का पुत्र अंधा’ महाभारत के युद्ध का कारण बना, जिसका अंत सर्वनाश में हुआ। कैकेयी के दशरथ से वचन मांगने पर राम, सीता व लक्ष्मण के वनवास- गमन के पश्चात् दशरथ को प्राण त्यागने पड़े… ऐसे असंख्य उदाहरण इतिहास में हैं। सो! मानव को सोच-समझ कर बोलना व वचन देना चाहिए। मानव को बोलने से पहले स्वयं को उस सांचे में रखकर देखना चाहिए, क्योंकि शब्दों के भी ज़ायके होते हैं। इसलिए सदैव चखकर बोलना कारग़र होता है, अन्यथा वे नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं और प्राण-घातक भी हो सकते हैं। अक्सर दिलों में पड़ी दरारें इतनी गहरी हो जाती हैं; जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। सो! मानव का मौन रहना भी उतना ही कचोटता है; जितना बिना सोचे-समझे अनर्गल वार्तालाप करना। आइए! विवाद को तज संवाद के माध्यम से जीवन में समन्वय,सामंजस्यता व समरसता लाएं ताकि जीवन में अलौकिक आनंद संचरित हो सके।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

16.7.22.

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – जन्माष्टमी विशेष – कृष्णनीति ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना – माधव साधना (11 दिवसीय यह साधना कल गुरुवार दि. 18 अगस्त से रविवार 28 अगस्त तक)

इस साधना के लिए मंत्र है – 

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

(आप जितनी माला जप अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं, यह आप पर निर्भर करता है)

 – संजय भारद्वाज

☆☆☆☆

 ? संजय दृष्टि – जन्माष्टमी विशेष –  कृष्णनीति ??

(पुनर्पाठ में आज संजय उवाच का एक आलेख)

जरासंध ने कृष्ण के वध के लिए कालयवन को भेजा। विशिष्ट वरदान के चलते कालयवन को परास्त करना सहज संभव न था। शूर द्वारकाधीश युद्ध के क्षेत्र से कुछ यों निकले कि कालयवन को लगा, वे पलायन कर रहे हैं। उसने भगवान का पीछा करना शुरू किया।

कालयवन को दौड़ाते-छकाते कृष्ण उसे उस गुफा तक ले गए जिसमें ऋषि मुचुकुंद तपस्या कर रहे थे। अपनी पीताम्बरी ऋषि पर डाल दी। उन्माद में कालयवन ने ऋषिवर को ही लात मार दी। ऋषि को विवश हो चक्षु खोलने पड़े और कालयवन भस्म हो गया। ज्ञान के सम्मुख योगेश्वर की साक्षी में अहंकार को भस्म तो होना ही था।

कृष्ण स्वार्थ के लिए नहीं सर्वार्थ के लिए लड़ रहे थे। यह ‘सर्व’ समष्टि से तात्पर्य रखता है। यही कारण था कि रणकर्कश ने समष्टि के हित में रणछोड़ होना स्वीकार किया।

भगवान भलीभाँति जानते थे कि आज तो येन केन प्रकारेण वे असुरी शक्ति से लोहा ले लेंगे पर कालांतर में जब वे नहीं होंगे और प्रजा पर इस तरह के आक्रमण होंगे तब क्या होगा? ऋषि मुचुकुंद को जगाकर कृष्ण आमजन में अंतर्निहित सद्प्रवृत्तियों को जगा रहे थे, किसी कृष्ण की प्रतीक्षा की अपेक्षा सद्प्रवृत्तियों की असीम शक्ति का दर्शन उसे करवा रहे थे।

स्मरण रहे, दुर्जनों की सक्रियता नहीं अपितु सज्जनों की निष्क्रियता समाज के लिए अधिक घातक सिद्ध होती है। कृष्ण ने सद्शक्ति की लौ समाज में जागृत की।

प्रश्न है कि कृष्णनीति की इस लौ को अखंड रखनेवाले के लिए हम क्या कर रहे हैं? हमारी आहुति स्वार्थ के लिए है या सर्वार्थ के लिए? विवेचन अपना-अपना है, निष्कर्ष भी अपना-अपना ही होगा।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ आध्यात्म और विज्ञान के समन्वय की आवश्यकता ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ आध्यात्म और विज्ञान के समन्वय की आवश्यकता ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

‘एको सदविप्रा: बहुधा वदन्ति’- सत्य एक है पण्डित (विद्वान) उसे कई प्रकार से बताते या कहते हैं। यह हमारे सनातन धर्म का ब्रह्मवावन्य है। मनुष्य को जीवन में उसी एक सत्य को जनना और समझना चाहिये इसके लिये सतत प्रयास करना चाहिये यही धार्मिकता है। इसी सत्य की खोज जब से इस सृष्टि का निर्माण हुआ है विद्वानों का खोजी मन कर रहा है और जिसने जो समझा उसी का प्रचार करता आया है। इसी चिन्तन धारा ने अनेकों नये-नये युग में नये-नये धर्मों को जन्म दिया है। हर धर्म ने अपनी परिस्थितियों और विचारों के अनुसार कर्मकाण्डों की स्थापना की है। इसी कर्मकाण्डों की भिन्नताओं ने विभिन्न धर्मों के कम समझने वालों को रूढि़वादी बनाया है और इसी बखेड़े के कारण विभिन्न धर्माविलियों में भेदभाव व लड़ाई आौर द्वेष है। इसी नासमझी के कारण युद्ध हुये हैं और आज आतंकवाद भी इसी का दुष्परिणाम है। इन्हीं भेदों और वर्तमान आतंकवाद ने सारे विश्व को अनावश्यक रूप से हलाकान कर रखा है। सामान्य जनजीवन कठिन हो गया है। विभिन्न देशों की सरकारों के सामने नित नई समस्यायें खड़ी कर दी हैं, जो मानव जाति के विकास में अड़ंगे हैं। जरा सोचिये इस समस्या से चाहे जब, जहां कहीं ये घटनायें घटती हैं, कितनी जन-धन की हानि हो जाती है। कितना श्रम व समय बर्बाद हो जाता है और जीवन की भावी योजनाओं को निर्मल कर आगे बढऩे का रास्ता भर नहीं रोक देता वरन जीवन की राह और दिशा ही बदल देता है। जिस सत्य की खोज मनुष्य करना चाहता है उस लक्ष्य से ही दूर हो दूसरी दिशा में बढऩे को मजबूर हो जाता है। परन्तु सब आकस्मिताओं और कठिनाइयों के बावजूद भी अध्यात्म के लक्ष्य उसी सत्य, परमात्मा की खोज जारी है।

जो खोज सदियों पहले से आत्मा या आध्यात्म के स्तर पर विद्वानों ने या धार्मिक व्यक्तियों ने शुरु की थी वही आज से करीब 400 वर्षों पहले विज्ञान ने जन्म ले शुरु की। विज्ञान का भी लक्ष्य सत्य की ही खोज है परन्तु रास्ता अलग है। आध्यात्म चेतना के स्तर पर चलकर खोज में लीन हैं और विज्ञान पदार्थ (वस्तु) के स्तर पर चलकर खोज करता है। दोनों का लक्ष्य एक होते हुये भी विधियां भिन्न है। अध्यात्म चेतना की अनुभूति और चिन्तन के द्वारा जो पाना चाहता है, विज्ञान उसे प्रत्यक्ष वास्तविक प्रयोग के द्वारा। या यों कहें कि दोनों की विधियों में अदृश्य और दृश्य का भेद है। दृश्य जगत सीमित है अदृश्य असीमित। मानव इन्द्रियों की क्षमतायें सीमित हैं किन्तु चेतना की व्याप्ति असीमित। इसलिये भी सामान्य मनुष्य दोनों क्रियाविधि, सरणी, परिणाम और उपलब्धियों को समझ नहीं पाता है और व्यवहारिक दृष्टि से आपस में विरोध करने लगता है। यही विरोध बड़ी-बड़ी लड़ाइयों और भारी क्षति का कारण बन जाता है। यदि विश्व में सभी लोग संकुचित कटुता को त्याग कर उदार भाव से प्रत्येक की अनुशासन में रहते हुये स्वतंत्रता को स्वीकार करने की वृत्ति को अपना लें तो न तो धर्मों के बीच में कट्टरता रहे और न भ्रम रहे। छोटे-बड़े, अच्छे-बुरे, ऊँच-नीच के, सही-गलत होने के भाव तो केवल अज्ञान और असहिष्णुता के कारण ही उपजते हैं। सभी धर्म उसी एक परमशक्ति, जगन्नियता को पाने के ही रास्ते हैं फिर उनमें झगड़ा कैसे? एक ही स्थान पर पहुंचने के कई रास्ते हो सकते हैं, साधन भी भिन्न हो सकते हैं। मतलब तो उस स्थान तक पहुंचने से है। यह बात ऐसे भी सहजता से समझनी चाहिये जैसे यदि किसी को राजधानी दिल्ली पहुंचना है तो वहां तक जाने को सडक़ मार्ग, रेलमार्ग या वायु मार्ग कुछ भी अपनाया जा सकता है। जिसे जो सुविधाजनक हो उसका उपयोग कर ले। इसी प्रकार अध्यात्म और विज्ञान के बीच के भी भेद निरर्थक हैं। विज्ञान की खोजों का प्रत्यक्ष लाभ तो हम सब अनुभव कर रहे हैं। अनेकों नई खोजों ने विगत लगभग ढाई शताब्दियों के बीच मानवजाति को बेहिसाब सुख-सुविधायें हमें दी हैं। जिस अज्ञात अलख शक्तियों की खोज में दोनों (अध्यात्म और विज्ञान) लगे हैं उसकी खोज से दोनों को सहभागी होना अधिक उचित व उपयोगी होगा। अध्यात्म और विज्ञान दोनों ही एक दूसरे के पूरक होकर यदि किसी कठिन विचार को सामान्य आदमी को समझायें तो उसे अधिक मान्य व स्वीकार्य होंगे। आज के बहुरंगी विश्व में सभी धर्मों के तथा आध्यात्म के समन्वय की आवश्यकता है।

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ सामाजिक अव्यवस्था और अपराधों का प्रमुख कारण॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ सामाजिक अव्यवस्था और अपराधों का प्रमुख कारण ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

आजकल दैनिक समाचार पत्रों, रेडियो और टी.व्ही. चैनलों से जो खबरें प्रकाशित और प्रसारित होती हैं उनमें अनैतिक आचरणों की घटनाओं की प्रमुखता होती है। इन घटनाओं को घटित करने वाले विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं, उच्च पदस्थ शासकीय सेवकों से लेकर जनसाधारण में निम्न तबकों तक के लोग होते हैं। क्या पढ़े-लिखे-क्या अनपढ़, क्या धनी-क्या निर्धन, क्या विद्धान-क्या धार्मिक, क्या शहरी-क्या देहाती। समाज के सभी वर्गों की इनमें आसक्ति और लिप्तता उजागर होती है। सारे देश में ऐसी कुछ हवा बह चली है कि उसने सारे वातावरण को दूषित और विषाक्त सा कर दिया है। अनैतिकता का असंगत विस्तार होता जा रहा है। धार्मिक भावनायें, सरकारी कानून-कायदे और समस्त प्रशासनिक अंकुश दिखता है, बेअसर हो चले हैं। अपराधी आजाद हैं, निर्भय हैं और समझदार ईमानदार बंधन में हैं और भयभीत हैं। शासन-प्रशासन बात अपनी चुस्ती-दुरुस्ती की चाहे जितनी करें पर जो कुछ होता दिख रहा है वह इस तथ्य के कुछ विपरीत ही दिखाई दे रहा है। अनियमिता की बाढ़ सी आ गई है।

आश्चर्य की बात है कि धर्मप्राण भारत में जो अपने आध्यात्मिक चिंतन के कारण विश्व गुरु माना जाता रहा है, ऐसा अधोपतन क्यों बढ़ता जा रहा है? आज से पचास साल पहले तक लोगों में धार्मिकता थी, मानवीयता थी, सहानुभूति थी, संवेदनायें थी फिर वे सब कहां चली गई? एकाएक कमी क्यों हो गई? यह सच है कि अभी भी पूर्ण रूप से मानवीयता और नैतिकता समूल नष्ट नहीं हुई है। परन्तु मुद्दे की बात यह है कि यदि नैतिकता की भावना 20′ है तो अनैतिकता, स्वार्थ और दुराचरण की भावना 80′ हो गई है। इसका प्रमुख कारण क्या है समझा जाना चाहिये और उसी के अनुरूप सुधार के प्रयास शीघ्र किये जाने चाहिये।

सामाजिक राजनैतिक आर्थिक और वैचारिक आधार पर तो कारण अनेक गिनाये जा सकते हैं परन्तु सीधी-सच्ची बात तो एक ही है- संस्कारहीनता। समाज ने अपने संस्कार खो दिये हैं और दिनों-दिन खोता जा रहा है। संस्कारहीनता ने ही कुठाराघात किया है। अगर सुधार करना है तो नई पीढ़ी को संस्कारवान बनाना पहली आवश्यकता है। वे कार्य जो हमारे आदर्शों और संस्कारों की जड़ें काट रहे हैं उनको रोकना होगा। सुसंस्कारित नागरिक आत्मसंयमी और अनुशासन प्रिय होते हैं। हमें अपने अतीत की ओर देखना होगा और सुसंस्कारों को पल्लवित करने के तात्कालिक प्रयत्न करने होंगे। केवल ऊपरी बातों से या कुछ नियम कायदों में सुधार करने से लाभ नहीं होगा।

व्यक्ति के सुसंस्कार बचपन में माता-पिता और बड़ों की देखरेख में आदर्शों की मान्यताओं के अनुसार दैनिक व्यवहारों में अभ्यास से उपजते हैं। बड़ों का समयोचित मार्गदर्शन दिया जाना आवश्यक होता है। स्कूल में निर्धारित पाठ्यक्रम के आत्मसात करने से और पढ़ाने वाले शिक्षकों की चारित्रिक उज्जवलता के अनुसरण से जागते हैं। पवित्र चेतना और सामाजिक सदाचरण के वातावरण में बढ़ते हैं तथा विभिन्न संस्थाओं के आयोजनों-अनुष्ठानों के अनुकरणीय तत्वों को समझने और अनुकरणीय व्यवहारों की बारम्बारता से पुष्ट होते हैं।

आज समाज और शासन को यह देखना सोचना और उचित कदम उठाने हैं। क्या घर-परिवार, समाज, स्कूल, धार्मिक संस्थायें और राजनेतागण अपने दायित्वों का निर्वाह ईमानदारी से कर रहे हैं? मुझे तो दिखता है कि पहले की तुलना में हर क्षेत्र में सदाशयता, कर्मनिष्ठा और ईमानदारी दायित्व के निर्वहण में कमी आई है, इसीलिये अव्यवस्था और अनैतिकता का बढ़ाव हो चला है। सभी को आत्मनिरीक्षण करने और आत्म सुधार कर अनुकरणीय व्यवहार करने की जरूरत है। छोटे हमेशा बड़ों से सीखते हैं। ‘यथा राजा तथा प्रजा’ तथा ‘महाजनो येन गत: स पन्था:’  इन कहावतों की भावना को समझकर, समाज में और प्रशासनतंत्र में ऊंचे पद पर आसीनजनों को कार्य करना होगा तब सुधार संभव है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ हिंसा का मूल कारण स्वार्थ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ हिंसा का मूल कारण स्वार्थ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

सृष्टि द्वंदात्मक है। अच्छाई के साथ बुराई, सत्य के साथ असत्य, स्नेह के साथ ईष्र्या, मित्रता के साथ शत्रुता और परोपकार के साथ स्वार्थ का जन्म भी सृजन के साथ हुआ है। पुण्यभूमि भारत में समय-समय पर महापुरुषों ने जन्म लेकर मनुष्य को सद्पथ दिखाकर दुखी मानवता को सुखी बनाने के उपदेश दिये हैं। सभी धर्मों ने मनुष्य जीवन को आनन्दमय बनाने का प्रयत्न किया है। आनन्द ही हर प्राणी के जीवन का प्राप्य है। इसी आनन्द की प्राप्ति के लिये मनुष्य सद्पथ से हटकर अनुचित आचरण करता है। स्वत: के सुख के लिये अनेकों को दुख देता है। किसी भी हिंसा का मूलकारण केवल स्वार्थ ही है। पुण्यभूमि भारत में महात्मा महावीर, महात्मा बुद्ध, महात्मा गांधी ने स्वत: कष्ट सहकर भी अहिंसा का मार्ग प्रतिपादित किया है, क्योंकि सबके सुख के लिये वही एक सही रास्ता है। विस्तृत दृष्टि से देखने पर यह सहज ही समझ में आता है कि इस सृष्टि में जो कुछ भी दृष्टिगोचर होता है वह सब परमात्मा ने सबके सामूहिक हित के लिये बनाया है।

प्रत्येक पदार्थ का और प्रत्येक प्राणी का हर दूसरे जीवनधारी से प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से गहन संबंध है। हर एक का हित एक दूसरे के हित से गुंथा हुआ है। अत: यदि एक का अहित या हनन होता है तो वह सबको थोड़ा या अधिक प्रभावित करता है। एक का आचरण समस्त प्राणिजगत के जीवन की गतिविधि को प्रभावित करता है। इसीलिये सभी महात्माओं ने जीवन में परोपकार की भावना को विकसित करने और हिंसा की वृत्ति को त्यागने का उपदेश दिया है। रामचरितमानस में महात्मा तुलसीदास ने जीवन में सुख का एक सरल मंत्र दिया है- ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई’। यही धर्मग्रंथों में कहा है- ‘परोपकारम् पुण्याय, पापाय परपीडऩम्’। किसी भी प्राणी को पीड़ा देना, कष्ट देना ही हिंसा कही गई है और हिंसा पाप है, इसीलिये स्वत: के लाभ के लिये दूसरे का अहित या पीड़ा न की जाय। हिंसा धर्म विरुद्ध है क्योंकि वह अनेकों के दुख का कारण बनती है और किसी न किसी रूप में हिंसाकर्ता के मन को भी दुख ही देती है। हिंसा से कभी तात्कालिक लाभ भले दिखे परन्तु समय के बीतने पर उसका दुष्परिणाम हिंसा करने वाले को दुखदायी ही होता है। धार्मिक कर्म विपाक में यही बताया गया है। यह बारीकी से चिन्तन करने पर जगत में देखने को भी मिलता है और समझ में भी आता है। मनुष्य ने प्रकृति के साथ जो अनुचित छेड़छाड़ और दुव्र्यवहार अपनी प्रगति के लिये किया, वर्षों तक किये गये उस व्यवहार का परिणाम ही आज जलप्रदूषण, वायुप्रदूषण, व्योम प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण और प्राकृतिक कोप के रूप में भूकम्प, सुनामी, आंधी, तूफान, सारे विश्व में देखे और अनुभव किये जा रहे हैं। अहिंसा के सिद्धांत को गहराई से सोचने-समझने और आचरण में उतारने की बड़ी जरूरत है। जिससे आध्यात्मिक संबंधों के ताने-बाने को ध्यान में लाकर अपने आचरण से मनुष्य, मनुष्य जाति ही नहीं समस्त प्राणि जगत और प्रकृति को सुरक्षित और सुखी रख स्वत: भी शांति से जीवन यापन कर सकता है तथा समस्त सुख का लाभ पा सकता है। इसी सिद्धांत को मंत्र रूप में महात्मा महावीर ने कहा है- ‘जियो और जीने दो’। निश्चित ही हर व्यक्ति को समझना चाहिये- ‘अहिंसा परमो धर्म:।’ अहिंसा ही सबसे बड़ा धर्म है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग -5 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “सात समंदर पार” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग – 5 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

वायुयान में प्रवेश के समय अंतर्मन में विचार चल रहे थे, कि कैसी और कौनसी सीट मिलेगी। खिड़की वाली होगी तो ऊपर से अपनी प्यारी दुनिया देख सकेंगे। आज की पीढ़ी तो ऑनलाइन ही अपनी पसंदीदा सीट का चयन करने में सक्षम है।  वैसे इस बेसब्री का अपना ही मज़ा हैं।

युवावस्था में बस / रेल यात्रा के समय खिड़की से रूमाल  सीट पर फेंक कर कब्जा करने में भी महारत थी। ऐसी सीट को लेकर हमेशा विवाद ही हुआ करते थे।

विमान में अपनी सीट पर विराजमान होने के पश्चात व्योम बालाएं यात्रा के नियम इत्यादि की जानकारी देने का कार्य किया करती थी। अब समय के साथ उद्घोषणा और सीट के सामने लगें पट पर जानकारी उपलब्ध कराई जाती हैं।

कुछ यात्री जिनको आपने साथी के साथ सीट नहीं मिली थी, वो अब सीट बदलने / एडजस्ट करने में लग गए थे।उधर विमान गति पकड़ कर जमीं छोड़ने की तैयारी में था।एक झटका सा लगा और विमान ने जमीं छोड़ दी। हमे अपने बजाज स्कूटर की याद आ गई, जब उसमें स्टार्टिंग समस्या थी, तब उसको दौड़ा कर गाड़ी को गियर में डाल देते थे और उछल कर बैठ जाते थे, तो वैसा ही झटका लगता था। “हमारा बजाज” का कोई जवाब नहीं था। रजत जयंती मना कर ही उसको भरे मन से विदा किया था।

विमान परिचारिकाएं नाश्ता परोस गई हैं, खाने के बाद मिलते हैं।

क्रमशः… 

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ परिवेश का प्रभाव॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ परिवेश का प्रभाव ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

बौद्ध धर्म में जीवदया प्रमुख सिद्धांत है। हिंसा वर्जित है। इसीलिये मांसाहार निषिद्ध है। महात्मा बुद्ध ने भिक्षुओं को मौन भिक्षा प्राप्त करने का उपदेश दिया था। आशय था कि किसी द्वार पर आवाज दे भिक्षा देने का आग्रह न किया जाय। पात्र में दानी की स्वेच्छा से जो कुछ आ जाये उसी में भिक्षु निर्वाह करे। प्रथम दाता से जो प्राप्त हो उसमें ही संतोष करे। मानसिक हिंसा तक से बचने और संतोष करने का बड़ा सीधा और सरल कार्य है यह। एक दिन हाथ में भिक्षा पत्र धरे एक भिक्षु भिक्षा लेने को निकला। मार्ग में ऊपर उड़ता हुआ एक बाज पक्षी अपने पंजों में मांस का टुकड़ा लिये जा रहा था। संयोगवश वह मांस का टुकड़ा अचानक ही भिक्षु के भिक्षापात्र में आ टपका। प्रथमदाता से भिक्षु को प्राप्त वह आकस्मिक भिक्षा थी। भिक्षु के लिये बड़े असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो गई। वह क्या करे कुछ निश्चय न कर सक रहा था। नियमानुसार प्रथमदाता से प्राप्त भिक्षा स्वीकार की जानी उचित थी। अहिंसा की वृत्ति के कारण मांसाहार निषिद्ध था।

स्वत: कोई निर्णय कर सकने में असमर्थ होने के कारण उसने अपने अन्य साथियों से उनकी राय जानने के लिये दैवयोग से घटित वह सारी घटना सुना दी। घटना विचित्र थी। दोनों तरह से उसकी व्याख्या की जा सकती थी। एक यह कि भिक्षा पात्र में बिना याचना के दाता द्वारा जो कुछ मिला था वही उस दिन का भिक्षु का आहार होना चाहिये और दूसरा यह भी कि चूंकि मांसाहार वर्जित या त्याज्य है अत: उसे स्वीकार न किया जाय। भिक्षु निराहार रहे। कोई भी निर्णय न हो सकने पर सब भिक्षु महात्मा बुद्ध के पास गये। उनका निर्णय जानने उनसे निवेदन किया। सुनकर महात्मा बुद्ध मौन रहे। सोचकर उन्होंने कहा- समस्या की दोनों व्याख्यायें सही हैं। भिक्षु को स्वीकार न कर निराहार रहने को कहना भी तो हिंसा होगी, अत: उन्होंने स्वविवेक का उपयोग करने का आदेश दिया। ऐसे अटपटे उलझनपूर्ण प्रसंग जीवन में कभी-कभी उत्पन्न होते हैं। जहां नियम निर्णायक की भूमिका नहीं निभा पाते। स्वविवेक ही सबसे बड़ा निर्णायक होता है। कहते हैं भिक्षु ने महात्मा बुद्ध की भावना को स्पष्ट न समझ स्वविवेक से अन्य साथियों की भावना का सम्मान करते हुये पहले विकल्प को स्वीकार कर लिया। कहा जाता है कि उसी भावना और निर्णय को आधार मान चीन, जापान, मंगोलिया, लंका अािद देशों के बुद्ध धर्मावलंबी मांसाहार को वर्जित नहीं मानते। सच्चाई चाहे जो भी हो पर कभी एक छोटी सी स्वविवेक की धटना ऐसे महत्व की बन जाती है कि देश और विश्व के इतिहास की दिशा बदल देती है, जो लाखों-लाख के जीवन को बुरी तरह प्रभावित करती है। सन् 1947 में भारत के विभाजन और फिर काश्मीर में एल.ओ.सी. अर्थात् लाइन ऑफ कंटोल की रेखा का निर्माण की स्वीकृति परिस्थितिवश स्वविवेक के उपयोग की ऐसी ही घटनायें हैं- जिनसे कौन कब तक प्रभावित होंगे, कहना कठिन है।

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ भारतीय संस्कृति॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ भारतीय संस्कृति॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

हमारी भारतीय संस्कृति प्राकृतिक गोद में पली बढ़ी अनोखी प्रेमल संस्कृति है। वनस्थलियों में ऋषिमुनियों-मनीषियों के आश्रम थे। वे शिक्षा के केन्द्र थे। वहीं आरण्यकों का सृजन हुआ। वनों ने ही आध्यात्मिक चेतना जगाई और हमें प्रकृति पूजा सिखाई। किन्तु आज की नागरी सभ्यता नये कल्पना लोक में पनपती हुई वनो से दूर होती गई है। आज तो शहरों में अनेकों निवासी ऐसे हैं जिन्होंने वनों को देखा भी नहीं, केवल चित्रों में ही देखा होगा। वे शायद वनों को हिंस्र वन्यजीवों का आवास स्थल मात्र मानते हैं और उनसे भयभीत रहते हैं। किन्तु ऐसा है नहीं। वन तो देश की भौतिक समृद्धि के स्रोत और आध्यात्मिक उन्नति के उद्गम स्थल हैं। उन्हें सही दृष्टि से देखने, पढऩे और समझने की आवश्यकता है। वे मनोरंजन, ज्ञान और आध्यात्म चेतना के संदेशवाहक हैं। वहां आल्हादकारी पवित्र वातावरण, प्राणदायिनी शीतल शुद्ध वायु, मनमोहक प्राकृतिक सौंदर्य, प्रभावोत्पादक परिवेश तथा मन को असीम आनंद के साथ ही सद्शिक्षा प्रदान करने वाले अनेकों उपादान उपलब्ध हैं। अनेकों प्रजातियों के पौधे, वृक्ष, लतायें, झाडिय़ां औषधियां तथा विभिन्न प्रकार की घास एक दूसरे के पास हिल-मिलकर ऊगते, विकसते और फलते-फूलते दिखाई देते  हैं। हरे भरे ऊंचे वृक्ष अभिमान त्याग लताओं और कटीली झाडिय़ों को भी गले लगाते स्नेह बांटते दिखते हैं। वृक्ष अपनी शाखाओं में रंग-बिरंगे विभिन्न चहचहाते पक्षियों को आश्रय देते नजर आते हैं तो विभिन्न रंगरूप की नीची और ऊंची घनी घास एक साथ अपने स्नेह की थपकियां देती छोटे-बड़े निर्दोष प्राणियों और हिंस्र पशुओं को भी अपनी गोद में अंचल से ढांक कर रखती दिखती है। पक्षियों की टोलियां आकाश में निर्बाध गीत गातीं, किलोल करती उड़ती दिखाई देती हैं, तो विभिन्न प्रकार के हिरणों के समूह, उछलते कूदते घास के मैदानों में चरते दिखते हैं। छोटे हिंस्र पशु सियार, कुत्ते, भेडिय़े शिकार को लोलुप दृष्टि से ताकते, भागते झुरमुटों में घुसते निकलते दिखते हैं तो कहीं सुन्दर सजीले मयूर, वनमुर्ग जैसे पक्षी फुदकते देखे जाते हैं। पोखरों में जंगली सुअर झुण्डों में जलक्रीड़ा करते हैं तो वन भैंसे अपने समुदाय में निर्भीक विचरण करते रहते हैं। कहीं दूर शेर, तेंदुओं की दहाड़ें सुन पड़ती हैं जो क्षणभर को सबका दिल दहला देती हैं पर पेट भर भोजन करने के बाद वही जानवर कहीं घनी झाड़ी में पसरकर सोते भी दिखाई देते हैं। उनमें मनुष्य की संग्रह की प्रवृत्ति के विपरीत निश्चिंत संतोष का भाव झलकता है। पशु-पक्षियों-वनस्पतियों के बीच निर्मल जलधारायें मार्ग में पाषाणों और चट्टानों पर कूदती उछलती अपने अज्ञात किन्तु सुनिश्चित लक्ष्य की ओर निरन्तर एक लालसा लिये बहती दिखती हैं जो दर्शकों को शांति के साथ ही अपने निर्णय के अनुसार सतत् आगे बढऩे की प्रेरणा देती हैं। इस प्रकार वन प्रदेश नई प्रेरणायें, कल्पनायें, स्नेह और सहयोग व संतोष की भावनायें तथा इस बहुरंगी प्रकृति के सर्जक के प्रति आभार व श्रद्धा की भावनायें उत्पन्न करती हैं। क्या ऐसा बहुमुखी लाभ व्यक्ति को अन्यत्र संभव है जहां समन्वय, सहयोग, श्रद्धा के भाव भी हों और मनोरंजन भी। आज की आडम्बरपूर्ण तथा कथित सभ्यता की भड़भड़ से पटे नगरों की तुलना तो प्राकृतिक सुषमा के पावन मंदिर वनों से बिल्कुल ही नहीं की जा सकती।

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