॥ मार्गदर्शक चिंतन॥
☆ ॥ अहिंसा परमो धर्म: ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
अहिंसा परमो धर्म: अर्थात् अहिंसा से बड़ा कोई धर्म नहीं है। भारत में उद्भूत सभी धर्मों ने चाहे वह सनातन धर्म हो, जैन धर्म हो या बौद्ध धर्म हो या उन के अनुयायी कोई भी मत सभी ने अहिंसा के पालन का प्रतिपालन किया है। सत्य, अहिंसा तप और त्याग भारतीय संस्कृति के मूलमंत्र है। सामाजिक शांति सुख और समृद्धि के विकास के लिये आवश्यक है जिस समाज में निश्चिंतता का वातावरण होता है वही समाज सही चिंतन, मनन, शोध और सत्नियोजन की दिशाओं में अग्रसर हो उन्नति कर सकता है। इतिहास साक्षी है कि जब समाज अनावश्यक चिंताओं से मुक्त रहा है तभी उसने आर्थिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और कलात्मक उन्नति की है और विपरीत परिस्थितियों में समस्याओं का सामना करने पर उसकी उन्नति में रुकावटें आई हैं।
परिवार किसी भी समाज की महत्वपूर्ण इकाई है और व्यक्ति उसका प्रमुख घटक। व्यक्ति के समुच्चय से ही समाज का निर्माण होता है और व्यक्ति तथा समाज के पारस्परिक समन्वय और सहयोग से विकास और समृद्धि संभव है। सुख तथा आनन्द प्रत्येक जीवन की कामना होती है जो सब प्रकार की निश्चिंतता, सम्पन्नता और शांतिप्रद वातावरण में ही प्राप्त कर सकना संभव है। परन्तु आज जब वैज्ञानिक खोजों ने अनेकों सुख साधन जुटा लिये हैं और समाज को अनेकों सुखद अवसर प्रदान किये हैं तब भी आपसी सद्भाव प्रेम और सत्य-अहिंसा, तप-त्याग के अनुकरणीय उपदेशों के विपरीत हिंसा और अनाचार का वातावरण पनप रहा है।
हर दिन प्रात: समाचार पत्रों, टीवी, रेडियो से मिलने वाले समाचारों में हिंसा अनैतिक आचरणों के ही समाचार अधिक पढऩे, देखने और सुनने में आते हैं। प्राय: प्रमुख समाचार यही होता है- अमुक घटना में इतने, मरे इतने घायल। कहीं कत्ल हुये, कहीं मारपीट। कहीं अनाचार, दुराचार अपहरण। कहीं धमकी भरे संदेशों के द्वारा फिरौती की मांग तो कहीं लूट और आगजनी।
इतने बढ़ते अनैतिक कृत्यों ने समाज में भारी भय, अनिश्चितता बढ़ा के अस्थिरता का माहौल बना रखा है और शासन के सामने इन से बलपूर्वक निपटने के लिये त्वरित कार्यवाही कर सुचारू व्यवस्था करने का चुनौतीपूर्ण सिरदर्द पैदा कर दिया है। ऐसा क्यों हो रहा है- इस पर गहन सोच विचार कर सही उपचार किये जाने की जरूरत है। विगत लगभग तीन दशकों से हमारे देश में आतंकवाद ने सिर उठाया है और अनेकों जघन्य हत्यायें कर निर्दोषों का खून बहाया है। इस आतंकवाद का विस्तार अब तो सम्पूर्ण विश्व में होता दिख रहा है। अभी हाल की विभिन्न देशों में हुई घटनायें में इसका प्रमाण है। आतंकवादी अनेकों तत्व स्वत: मरकर भी औरों को मार रहे हैं। इसका सही और वास्तविक कारण बताना तो कठिन है, क्योंकि मनोविज्ञान के अनुसार व्यक्ति को अपना जीवन सब से प्यारा होता है। पर इस सिद्धांत के विपरीत खेल चल रहा है। उसके कारण का अनुमान लगाना वास्तव में कठिन है। फिर भी मेरी दृष्टि से कुछ संभावित कारण ये हो सकते हैं- दूसरों के प्रति अंधश्रद्धा, बचपन से मानवीय संस्कारों के सही विकास में कमी, सही नैतिक धार्मिक व आध्यात्मिक दृष्टिकोण के विकास का अभाव, अशिक्षा। किन्हीं दिवा स्वप्नों के प्रभाव में बहाव अथवा किसी लालच में फंसने से अदूरदर्शिता।
कुछ अन्य कारण जो इनके अंतर्गत ही परिगणित हो सकते हैं- बेरोजगारी, मन पर नियंत्रण की कमी, असंतोष, बढ़ा हुआ विद्वेष या बैरभाव, तत्कालिक उद्देश्य की पूर्ति के लक्ष्य के प्रति समर्पण इत्यादि हैं। मनुष्य के विचारों का उद्गम मन से होता है। विचारों से ही कर्म की प्रवृत्ति होती है और कर्मों से भले या बुरे परिणाम प्राप्त होते हैं। जो न केवल व्यक्ति को वरन् परिवार और समाज ही क्या व्यापक अर्थ में पूरे विश्व समाज को भी प्रभावित करते हैं। इसलिये हमारे धर्मग्रंथों ने मन को सुशिक्षित और संयमित करने के उपदेश दिये हैं। बचपन से ही व्यक्ति को अपने मन पर नियंत्रण रखने की सलाह और प्रशिक्षण दिया जाना जरूरी है, तभी व्यक्ति वयस्कता प्राप्ति पर अपना और समाज का हित साधन करने में सहायक हो सकता है।
सही व्यक्ति तभी बनेगा जब उसे इसी दिशा में सही शिक्षा बचपन से माता-पिता, घर-परिवार, समाज-धार्मिक संस्थाओं से या स्कूल-कॉलेजों से प्राप्त हो। इसी दिशा में सबका और शासन का सामूहिक प्रयास होना आवश्यक है। जिस की आज विभिन्न कारणों से कमी होती जा रही है। मूलत: इसी सही शिक्षा के अभाव के कारण हिंसा और अपराध की प्रवृत्ति का विकास हुआ समझ में आता है। सभी संबंधितों का इसे कुलचने का हर संभव सहयोग आवश्यक है। हर छोटे का सहयोग भी सराहनीय होता है- ‘जिनको कहते छोटे लोग-बहुत बड़ा उनका सहयोग।’
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
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