हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 146 ☆ वारी – लघुता से प्रभुता की यात्रा – भाग – 3 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 146 ☆ वारी – लघुता से प्रभुता की यात्रा – भाग – 3 ?

वारकरी से अपेक्षित है कि वह गले में तुलसी की माला पहने। ये माला वह किसी भी वरिष्ठ वारकरी को प्रणाम कर धारण कर सकता है। वारकरी संप्रदाय के लोकाचारों में शामिल है- माथे पर गोपीचंदन,धार्मिक ग्रंथों का नियमित वाचन, शाकाहार, सदाचार, सत्य बोलना, हाथ में भगवा पताका, सिर पर तुलसी वृंदावन, और जिह्वा पर राम-कृष्ण-हरि का संकीर्तन।

राम याने रमनेवाला-हृदय में आदर्श स्थापित करनेवाला, कृष्ण याने सद्गुरु- अपनी ओर खींचनेवाला और हरि याने भौतिकता का हरण करनेवाला। राम-कृष्ण-हरि का अनुयायी वारकरी पालकी द्वारा विश्रांति की घोषणा से पहले कहीं रुकता नहीं, अपनी दिंडी छोड़ता नहीं, माउली को नैवेद्य अर्पित होने से पहले भोजन करता नहीं।

वारकरी कम से कम भौतिक आवश्यकताओं के साथ जीता है। वारी आधुनिक भौतिकता के सामने खड़ी सनातन आध्यात्मिकता है। आधुनिकता अपरिमित संसाधन जुटा-जुटाकर आदमी को बौना कर देती है। जबकि वारी लघुता से प्रभुता की यात्रा है।

प्रभुता की यह दृष्टि है कि इस यात्रा में आपको मराठी भाषियों के साथ-साथ बड़ी संख्या में अमराठी भाषी भी मिल जायेंगे। भारतीयों के साथ विदेशी भी दिखेंगे। इस अथाह जन सागर की समरसता ऐसी कि वयोवृद्ध माँ को अपने कंधे पर बिठाये आज के श्रवणकुमार इसमें हिंदुत्व देखते हैं  तो संत   जैनब-बी ताउम्र इसमें इस्लाम का दर्शन करती रही।

वारी, यात्री में सम्यकता का अद्भुत भाव जगाती है। भाव ऐसा कि हर यात्री अपने सहयात्री को धन्य मान उसके चरणों में शीश नवाता है। सहयात्री भी साथी के पैरों में माथा टेक देता है।

‘जे-जे पाहिले भूत, ते-ते मानिले भगवंत’..

हर प्राणी में, हर जीव में माउली दिखने लगे हैं। किंतु असली माउली तो विनम्रता का ऐसा शिखर है जो दिखता आगे है , चलता पीछे है। यात्रा के एक मोड़ पर संतों की पालकियां अवतार पांडुरंग के रथ के आगे निकल जाती हैं। आगे चलते भगवान कब पीछे आ गये, पता ही नहीं चलता। संत कबीर कहते हैं-

कबीरा मन ऐसा भया, जैसा गंगा नीर

पाछे-पाछे हरि फिरै, कहत कबीर-कबीर।

भक्तों की भीड़ हरिनाम का घोष करती हैं जबकि  स्वयं हरि भक्तों के नाम-संकीर्तन में डूबे होते हैं।

भक्त रूपी भगवान की सेवा में अनेक संस्थाएं और व्यक्ति भी जुटते हैं।  ये सेवाभावी लोग डॉक्टरों की टीम से लेकर कपड़े इस्तरी करने, दाढ़ी बनाने, जूते-चप्पल मरम्मत करने जैसी सेवायें निःशुल्क उपलब्ध कराते हैं।

वारी भारत के धर्मसापेक्ष समाज का सजीव उदाहरण है। वारी असंख्य ओसकणों के एक होकर सागर बनने का जीता-जागता चित्र है। वस्तुतः ‘वा’ और ‘री’ के डेढ़-डेढ़ शब्दों से मिलकर बना वारी यात्रा प्रबंधन का वृहद शब्दकोश है।

-आनंद का असीम सागर है वारी..

-समर्पण की अथाह चाह है वारी…

-वारी-वारी, जन्म-मरणा ते वारी..

-जन्म से मरण तक की वारी…

-मरण से जन्म तक की वारी..

-जन्म-मरण की वारी से मुक्त होने के लिए भी वारी…

वस्तुतः वारी देखने-पढ़ने या सुनने की नहीं अपितु अनुभव करने की यात्रा है। इस यात्रा में सम्मिलित होने के लिए महाराष्ट्र की पावन धरती आपको संकेत कर रही है।  विदुषी इरावती कर्वे के शब्दों में -महाराष्ट्र अर्थात वह भूमि जहाँ का निवासी पंढरपुर की यात्रा करता है। जीवन में कम से कम एक बार वारी करके महाराष्ट्रवासी होने का सुख अवश्य अनुभव करें। ….(इति)

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #132 ☆ जब मैं बूढ़ा हो जाऊँगा! ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 132 ☆

☆ ‌आलेख – जब मैं बूढ़ा हो जाऊँगा! ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

जब मैं बूढ़ा हो जाऊँगा, एकदम जर्जर बूढ़ा, तब तू क्या थोड़ा मेरे पास रहेगा? मुझ पर थोड़ा धीरज तो रखेगा न? मान ले, तेरे महँगे काँच के बर्तन मेरे हाथ से अचानक गिर जाए या फिर मैं सब्ज़ी की कटोरी उलट दूँ टेबल पर, मैं तब बहुत अच्छे से नहीं देख सकूँगा न! मुझे तू चिल्लाकर डाँटना मत प्लीज़! बूढ़े लोग सब समय ख़ुद को उपेक्षित महसूस करते रहते हैं, तुझे नहीं पता?

एक दिन मुझे कान से सुनाई देना बंद हो जाएगा, एक बार में मुझे समझ में नहीं आएगा कि तू क्या कह रहा है, लेकिन इसलिए तू मुझे बहरा मत कहना! ज़रूरत पड़े तो कष्ट उठाकर एक बार फिर से वह बात कह देना या फिर लिख ही देना काग़ज़ पर। मुझे माफ़ कर देना, मैं तो कुदरत के नियम से बुढ़ा गया हूँ, मैं क्या करूँ बता?

और जब मेरे घुटने काँपने लगेंगे, दोनों पैर इस शरीर का वज़न उठाने से इनकार कर देंगे, तू थोड़ा-सा धीरज रखकर मुझे उठ खड़ा होने में मदद नहीं करेगा, बोल? जिस तरह तूने मेरे पैरों के पंजों पर खड़ा होकर पहली बार चलना सीखा था, उसी तरह?

कभी-कभी टूटे रेकॉर्ड प्लेयर की तरह मैं बकबक करता रहूँगा, तू थोड़ा कष्ट करके सुनना। मेरी खिल्ली मत उड़ाना प्लीज़। मेरी बकबक से बेचैन मत हो जाना। तुझे याद है, बचपन में तू एक गुब्बारे के लिए मेरे कान के पास कितनी देर तक भुनभुन करता रहता था, जब तक मैं तुझे वह ख़रीद न देता था, याद आ रहा है तुझे?

हो सके तो मेरे शरीर की गंध को भी माफ़ कर देना। मेरी देह में बुढ़ापे की गंध पैदा हो रही है। तब नहाने के लिए मुझसे ज़बर्दस्ती मत करना। मेरा शरीर उस समय बहुत कमज़ोर हो जाएगा, ज़रा-सा पानी लगते ही ठंड लग जाएगी। मुझे देखकर नाक मत सिकोड़ना प्लीज़! तुझे याद है, मैं तेरे पीछे दौड़ता रहता था क्योंकि तू नहाना नहीं चाहता था? तू विश्वास कर, बुड्ढों को ऐसा ही होता है। हो सकता है एक दिन तुझे यह समझ में आए, हो सकता है, एक दिन!

तेरे पास अगर समय रहे, हम लोग साथ में गप्पें लड़ाएँगे, ठीक है? भले ही कुछेक पल के लिए क्यों न हो। मैं तो दिन भर अकेला ही रहता हूँ, अकेले-अकेले मेरा समय नहीं कटता। मुझे पता है, तू अपने कामों में बहुत व्यस्त रहेगा, मेरी बुढ़ा गई बातें तुझे सुनने में अच्छी न भी लगें तो भी थोड़ा मेरे पास रहना। तुझे याद है, मैं कितनी ही बार तेरी छोटे गुड्डे की बातें सुना करता था, सुनता ही जाता था और तू बोलता ही रहता था, बोलता ही रहता था। मैं भी तुझे कितनी ही कहानियाँ सुनाया करता था, तुझे याद है?

एक दिन आएगा जब बिस्तर पर पड़ा रहूँगा, तब तू मेरी थोड़ी देखभाल करेगा? मुझे माफ़ कर देना यदि ग़लती से मैं बिस्तर गीला कर दूँ, अगर चादर गंदी कर दूँ, मेरे अंतिम समय में मुझे छोड़कर दूर मत रहना, प्लीज़!

जब समय हो जाएगा, मेरा हाथ तू अपनी मुट्ठी में भर लेना। मुझे थोड़ी हिम्मत देना ताकि मैं निर्भय होकर मृत्यु का आलिंगन कर सकूँ। चिंता मत करना, जब मुझे मेरे सृष्टा दिखाई दे जाएँगे, उनके कानों में फुसफुसाकर कहूँगा कि वे तेरा कल्याण करें। तुझे हर अमंगल से बचायें। कारण कि तू मुझसे प्यार करता था, मेरे बुढ़ापे के समय तूने मेरी देखभाल की थी।

मैं तुझसे बहुत-बहुत प्यार करता हूँ रे, तू ख़ूब अच्छे-से रहना। इसके अलावा और क्या कह सकता हूँ, क्या दे सकता हूँ भला।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ कर्मण्येवाधिकारस्ते’ ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ कर्मण्येवाधिकारस्ते’ ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

अर्थ है ”केवल कर्म पर ही तेरा अधिकार है यह मुहावरा विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ’‘ भगवत्ï-गीता के सुप्रसिद्ध श्लोक का एक चतुर्थांश है। भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन को समझाने के बहाने विश्व के मानव मात्र को कर्म करने का जो  अमर संदेश दिया है, वह अनुपम लोक कल्याणकारी सिद्धान्त है। इसमें कर्म की महत्ता प्रतिपादित की गई है क्योंकि कर्म के बिना न तो नव सृजन संभव है और न सृष्टि का संचालन। कर्म न केवल जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही आवश्यक है वरन्ï दैनिक जीवन में नवसृजन, प्रसन्नता तथा आनन्द की प्राप्ति और प्रगति व विकास के लिए भी अनिवार्य है। बिना कार्य के कोई उत्पादन संभव नहीं। खेत, हल और बीज के होते हुए भी यदि कि सान श्रम पूर्वक कर्म न करे तो फसल का उत्पादन असंभव हैं। ईंट, सीमेंट, रेत आदि के होते हुए भी यदि मजदूर परिश्रम न करे तो भवन नहीं बन सकता। इसी तरह केवल इच्छा करने मात्र से कोई उपलब्धि नहीं पा सकता। हर छोटी-बड़ी इच्छा को पूरी करने के लिए प्रकृति प्रदत्त समस्त साधनों के होते हुए भी बिना कर्म किए अर्थात्ï सोच-विचार श्रम किए बिना कुछ पाया नहीं जा सकता। कर्म के द्वारा इच्छानुसार अर्जन के लिए ही ईश्वर ने प्राणियों को कर्मेन्द्रियाँ दी हैं। कर्म के द्वारा कुछ भी असंभव नहीं है। आज की बड़ी-बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धियाँ  मनुष्य के कठिन श्रम से किए गए कर्म के परिणाम हैं। कर्म की सृजनशीलता के आधार पर ही मनुष्य ने आज अन्तरिक्ष में उड़ान भरी है और कर्म के विश्वास पर ही कल और भी नये-नये चमत्कारों की प्राप्ति के लिये प्रयासरत है। कर्म की महानता को ही प्रतिपादित करते हुए तुलसीदास जी ने मानस में कहा है-

‘कर्म प्रधान विश्व करि राखा’-‘जो जस करिय सो तस फल चाखा॥’

इस संसार में कर्म की प्रमुखता है जो जैसा करता है वैसा ही परिणाम पाता है कर्मठता के विपरीत अकर्मण्यता को अपनाने वाले आलसी, सदा निराश और और उदास बने रहते हैं। केवल कामनाओं के स्वप्न देखते रहते हैं पर पाते कुछ नहीं। ‘दैव दैव आलसी पुकारा’ केवल भाग्य पर पूर्ण भरोसा करना उचित नहीं है। भाग्य भी उसी का साथ देता है जो कर्म करने को उद्यत होते हैं तथा कुछ पाने के लिए महत्वाकांक्षाएँ सँजोते हैं तथा श्रम करते हैं। लोक मान्य तिलक ने भी अपने ग्रंथ ‘गीता-रहस्य’ या ‘कर्म योग शास्त्र’ में कर्म और कत्र्तव्य के लिए मनुष्य को उन्मुख होने की सलाह दी है और गीता की वृहत व्याख्या में जीवन के युद्ध क्षेत्र में एक कर्मठ योद्धा की भाँति डटकर हर समस्या का सामना करने को कहा है। यही पुरुषार्थ है। संत बावरा जी महाराज ने भी कहा गीता की व्याख्या करते हुए कर्म और कर्मठता की पुरजोर वकालत की है। उन्होंने ईश्वर की उपासना और अपने कर्माे व कत्र्तव्यों की पूर्ति में लगे रहकर पूरी करने को श्रेष्ठ माना है। संसार के कर्मक्षेत्र से भागकर सन्यास लेने को श्रेयस्कर नहीं माना है।

यह तो सहज सभी के अनुभव की बात है कि कुछ न करने से बेहतर हमेशा कुछ कर्म करना ही हितकारी है क्योंकि कर्म से ही इच्छा की पूर्ति होती है। शायद इसी आशय को व्यक्त करती है यह सहज सी लोकोक्ति-”बैठे से बेगार भली।’‘ सक्रियता ही जीवन है। हाँ गीता का यह कथन और भी सार गर्भित है कि कर्म तो निरन्तर करते रहना चाहिए पर उसके फल के प्रति आशान्वित न रखकर हर कार्य करना चाहिए। व्यक्ति के हाथ में कर्म करने का अधिकार तो पूरा है और अच्छे कर्म का परिणाम भी अच्छा होता है किन्तु फिर भी फल ईश्वर के हाथ में है। इस भावना से मन लगाकर काम करने से मन में कभी निराशा नहीं होती और निरपेक्ष कत्र्तव्य बोध से, विपरीत परिणाम होने पर भी ईश्वरेच्छा का भाव होने के कारण किसी हितकारी विकास के लाभ की आशा न तो टूटती है और न हार का अनुभव ही होता है।

गीता के जिस परम उपदेश ने हताश और विषप्ण अर्जुन को युद्ध क्षेत्र कुरुक्षेत्र में अपने कत्र्तव्य की पूर्ति के लिए प्राणपण से जूझने को तैयार कर दिया वह हम सभी को कत्र्तव्य परायणता और कर्म के प्रति गहननिष्ठा की प्रेरणा देता है तथा यह शिक्षा नव जीवनदृष्टि देती हुई न तो कभी जीवनरण में हिम्मत हारने की और न ही कभी कर्म से विरत होने की, मूल्यवान सीख देती है। संकट के समय में भी मन को ताजगी और उत्साह से लबरेज रख कत्र्तव्य में जुटाये रखने वाली गीता यही कहती है कि-

आदमी है खुद अपना मित्र, स्वयं करना होता उद्धार,

समय को देता जो सम्मान, साथ देता उसका संसार।

बढ़ाचल, कभी न हिम्मत हार, कभी मत छोड़ कर्म का प्यार,

कर्म है जीवन का आनन्द, यही है जीवन का आधार॥

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ मृत्योर्मा अमृतमगमय ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ मृत्योर्मा अमृतमगमय ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

उपनिषद भारतीय मनीषा के अद्वितीय ग्रन्थ हैं। वे मनुष्य को सही जीवन जीने के लिये पोषक रस देते हैं। हर छोटे मंत्र की जब विद्वानों द्वारा व्याख्या की जाती है तो उसके भाव की भव्यता और वृहत उपयोगिता समझ में आती है और दिये गये सूत्र की महत्ता स्पष्ट हो जाती है। ‘मृत्योर्मा अमृतं गमय’ का अर्थ है- मृत्यु की ओर नहीं अमृता की ओर बढ़ो-अर्थात्ï विनाश नहीं अमरता का वरण करो। कोई काम जीवन में ऐसा मत करो जो विनाश की ओर ले जाने का कारण बने बल्कि ऐसा कुछ करो जो अमरता प्राप्त करने में सहायक हो।

प्रश्न उठता है कि मनुष्य फिर क्या करे जिससे उसे अमरता या ख्याति प्राप्त हो ? मानवता के अनेको गुण हैं जिनका पूर्ण विकास कर मनुष्य ने समाज हित किये हैं और और इतिहास में अमरता प्राप्त की है। सत्यवादिता, सूरवीरता, दानवीरता, जन-सेवा, देश प्रेम जैसे अनेकों गुण हैं जिनकी सदा प्रशंसा होती आई है। अनेकों महापुरुषों ने इन्हें अपनाकर प्रसिद्धि पाई है और इतिहास में अमर हो गये हैं। परन्तु  जन साधारण के लिए प्रकृति प्रदत्त एक सहज गुण है प्रेम जिसकी साधना के लिए न तो कोई धन की आवश्यकता है और न कोई कष्ट सहने की।

प्रेम मानव मन की एक सहज प्रवृत्ति है। हर व्यक्ति औरों से प्रेम पाना चाहता है। प्रेम ही व्यक्ति को अनायास खुशी देता है और मधुर मिठास घोल देता है। प्रेम से वन्य दुष्ट प्राणी तक वश में कर लिये जाते हैं। प्रेम ऐसा दिव्य अनमोल रत्न है कि जिस पर उसकी एक किरण पड़ जाती है वह चमक उठता है और आनन्दनुभूति से उसका हृदय भर जाता है। दुनियाँ में ऐसा कौन प्राणी है जो प्रेम की उपेक्षा कर सके। प्रेम पाकर हिंस्र पशु अपना क्रोध और हिंसा छोड़ देते हैं। विषैले प्राणी विष का परित्याग कर देते हैं। दुष्ट दुष्टता से विरत हो जाते हैं। शत्रु भी मित्र बन जाते हैं और पराये अपने हो जाते हैं। महात्मा बुद्ध के स्नेहिल व्यवहार से अंगुलिमाल सरीखे दुष्ट के हृदय परिवर्तन की कथा किसे नहीं ज्ञात हैं। हमारे दैनिक जीवन में प्रेम के व्यवहार की प्रतिक्रिया पशु-पक्षियों तक में तुरंत सहज रूप में दिखाई देती है। फिर यह प्रेम का व्यवहार मानव समाज में हर किसी को सहज आकृष्ट कर समीप लाने में सहायक क्यों न होगा? जिसे इसमें कोई शंका हो तो वह प्रत्यक्ष व्यवहार कर उसका प्रतिउत्तर पाकर अनुभव पा सकता है।

प्रेम तो वह पारस है जो दुष्ट और पापियों को भी उसी प्रकार सज्जन और पवित्र बना देता है जैसे लोहे को पारस सोना बना देता है। हृदय मन्दिर में प्रवेश पाने की कुंजी है प्रेम। प्रेम के आदान-प्रदान में एक पावनता है और अद्ïभुत आनन्द है। प्रेम संसार में ऐसा मंजुल मनोरम भाव है जो निर्मूल्य होते हुए भी अनमोल है। निश्छल प्रेम से द्वेष, कलह, विरक्ति और विषाद को धोकर मनोनुकूल, अनुपम, मोहक वातावरण निर्मित किया जा सकता है। प्रेम सभी मनोभावों का राजा है जो सबको सुरक्षा और सुख-संपदा प्रदान करता है। व्यक्तित्व में परिष्कार करता है और सब गुणों में निखार लाता तथा दुर्गुणों पर प्रहार करता है। प्रेम से स्वहित और समाजहित साधना संभव है। कोई भी समस्या कितनी भी जटिल क्यों न हो, प्रेम और सद्ïभाव उसे सुलझाने में सहायक सिद्ध होते हैं। इसी से प्रेम को परमात्मा का ही रूप कहा गया है। सच्चे प्रेम से केवल लौकिक सिद्धि ही नहीं परमात्मा को भी प्राप्त किया जा सकता है। ईश्वर की भक्ति प्रेम का ही ऊँचा परिष्कृत भाव है। गंगा की तरह पावन है। प्रेम गंगा में अवगाहन का आनन्द वे ही जानते हैं जिनने निश्छल मन से प्यार करना सीखा है। प्रेम में अद्वैत हैं अपनापन है।

ऐसे उच्च मानवीय गुण को जगाना और उसे पोषित करना विश्वहित के लिए बहुत जरूरी है।

जहाँ प्रेम तहाँ शान्ति है, जहाँ प्रेम तहाँ ज्ञान,

निर्मल प्रेमी हृदय में बसते हैं भगवान॥

विश्व में मनुष्य मात्र की सुख शांति और सद्ïभावना की अमरता के लिये प्रेम की ज्योति को जला कर संजोये रखना कल्याणकारी है। प्रेम ही प्राणियों को अमरता की ओर ले जाता है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #140 ☆ औरत की नियति ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख औरत की नियति। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 140 ☆

☆ औरत की नियति

‘दिन की रोशनी ख्वाबों को बनाने में गुज़र गई/ रात की नींद बच्चों को सुलाने में गुज़र गई/ जिस घर में मेरे नाम की तख्ती भी नहीं/ मेरी सारी उम्र उस घर को सजाने में गुज़र गई।’ जी हां! यह पंक्तियां हैं अतुल ओबरॉय की, जिसने महिलाओं के दर्द को आत्मसात् किया; उनके दु:ख को समझा ही नहीं, अनुभव किया और उनके कोमल हृदय से यह पंक्तियां प्रस्फुटित हो गयीं; जो हर औरत के जीवन का सत्य व कटु यथार्थ हैं। वैसे तो यदि हम औरत शब्द को परिभाषित करें, तो उसका शाब्दिक अर्थ जो मैंने समझा है– औरत औ+रत अर्थात् जो औरों की सेवा में रत रहे; जो अपने अरमानों का खून कर दूसरों के लिए जिए और उनके लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर प्रसन्नता का अनुभव करे।

यदि हम नारी शब्द को परिभाषित करें, तो उसका अर्थ भी यही है– ना+अरि, जिसका कोई शत्रु न हो; जो केवल समझौता करने में विश्वास रखती हो; जिसमें अहं का भाव न हो और वह दूसरों के प्रति समर्पित हो। वैसे तो समाज में यही भावना बलवती होती है कि संसार में उसी व्यक्ति का मान-सम्मान होता है; जिसने जीवन में सर्वाधिक समझौते किए हों और औरत इसका अपवाद है। जीवन संघर्ष का पर्याय है। परंतु उसे तो जन्म लेने से पूर्व ही संघर्ष करना पड़ता है, क्योंकि लोग भ्रूण-हत्या कराते हुए डरते नहीं– भले ही हमारे शास्त्रों में यह कहा गया है कि ऐसे व्यक्ति को कुम्भीपाक नरक प्राप्त होता है। दुर्भाग्यवश यदि वह जन्म लेने में सफल हो जाती है; घर में उसे पग-पग पर असमानता-विषमता का सामना करना पड़ता है और उसे बचपन में ही समझा दिया जाता है कि वह घर उसका नहीं है; वह वहां चंद दिनों की मेहमान है। तत्पश्चात् उसे स्वेच्छा से उस घर को छोड़कर जाना है और विवाहोपरांत पति का घर ही उसका घर होगा। बचपन से ऐसे शब्द-दंश झेलते हुए वह उस चक्रव्यूह से मुक्त नहीं हो पाती। पति के घर में भी उसे कहाँ मिलता है स्नेह व सम्मान, जिसकी अपेक्षा वह करती है। तदोपरांत यदि वह संतान को जन्म देने में समर्थ है तो ठीक है, अन्यथा वह बाँझ कहलाती है और परिवारजन उसे घर से बाहर का रास्ता दिखाने में तनिक भी संकोच नहीं करते। उसका जीवन साथी कठपुतली की भांति मौन रहकर उस अप्रत्याशित हादसे को देखता रहता है, क्योंकि उसकी मंशा से ही उसे अंजाम दिया जाता है और वह मन ही मन नववधु के स्वप्न संजोने लगता है।

सृष्टि-संवर्द्धन में योगदान देने के पश्चात् उसे जननी व माता का दर्जा प्राप्त होता है और वह अपनी संतान की अच्छी परवरिश हित स्वयं को मिटा डालती है। उसके दिन-रात कैसे गुज़र जाते हैं; वह सोच भी नहीं पाती।  दिन की रोशनी तो ख़्वाबों को सजाने व रातों की नींद बच्चों को सुलाने में गुज़र जाती है। उसे आत्मावलोकन करने का तो समय ही नहीं मिलता। परंतु वह खुली आंखों से स्वप्न देखती है कि बच्चे बड़े होकर उसका सहारा बनेंगे। सो! उसका सारा जीवन इसी उधेड़बुन में गुज़र जाता है। दिन भर वह घर-गृहस्थी के कार्यों में व्यस्त रहती है और परिवारजनों के इतर कुछ भी सोच ही नहीं पाती। उसकी ज़िंदगी ता-उम्र घर की चारदीवारी तक सिमट कर रह जाती है। परंतु जिस घर को अपना समझ वह सजाने-संवारने में लिप्त होकर अपने सुखों को तिलांजलि दे देती है; उस घर में उसे लेशमात्र भी अहमियत नहीं मिलती, तो उसका हृदय चीत्कार कर उठता है और वह सोचने पर विवश हो जाती है कि ‘जिस घर में उसकी उसके नाम की तख्ती भी नहीं; उसकी सारी उम्र उस घर को सजाने-संवारने में गुज़र गयी।’

वास्तव में यही नियति है औरत की– ‘उसका कोई घर नहीं होता और वह सदैव परायी समझी जाती है। उन विषम परिस्थितियों में वह विधाता से प्रार्थना करती है कि ऐ मालिक! किसी को दो घर देकर उसका मज़ाक मत उड़ाना। पिता का घर उसका होता नहीं और पति के घर में वह अजनबी समझी जाती है। सो! न तो पति उसका हो पाता है; न ही पुत्र।’ अंतकाल में कफ़न भी उसके मायके से आता है और मृत्यु-भोज भी उनके द्वारा–यह देखकर हृदय उद्वेलित हो उठता है कि क्या पति व पुत्र उसके लिए दो गज़ कफ़न जुटाने में अक्षम हैं? जिस घर के लिए उसने अपने अरमानों का खून कर दिया; अपने सुखों को तिलांजलि दे दी; उसे सजाया-संवारा– उस घर में उसे अजनबी अर्थात् बाहर से आयी हुई कहा जाता है। 

मुझे स्मरण हो रही हैं मैथिलीशरण गुप्त की वे पंक्तियां ‘अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी/ आँचल में है दूध और आँखों में है पानी।’ इक्कीसवीं सदी में भी नब्बे प्रतिशत महिलाओं के जीवन का यही कटु यथार्थ है। वे मुखौटा लगा समाज में खुश रहने का स्वाँग करती हैं। परंतु उनके भीतर का सत्य यही होता है। अवमानना, तिरस्कार व प्रताड़ना उसके गले के हार बन जाते हैं। उसे तो आजीवन उस अपराध की सज़ा भुगतनी पड़ती है, जो उसने किया ही नहीं होता। इतना ही नहीं, उसे तो जिरह करने का अवसर भी प्रदान नहीं किया जाता, जो हर अपराधी को कोर्ट-कचहरी में प्राप्त होता है– अपना पक्ष रखने का अधिकार।

धैर्य एक ऐसा पौधा होता है, जो होता तो कड़वा है, परंतु फल मीठे देता है। बचपन से उसे हर पल यह सीख जाती है कि उसे सहना है, कहना नहीं और न ही किसी बात पर प्रतिक्रिया देनी है, क्योंकि मौन सर्वोत्तम साधना है और सहनशीलता मानव का अनमोल गुण। परंतु जब निर्दोष होने पर भी उस पर इल्ज़ाम लगा कटघरे में खड़ा किया जाता है, तो वह अपने दिल पर धैर्य रूपी पत्थर रख चिन्तन करती है कि मौन रहना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि उसके परिणाम भी मनोहारी होते है। शायद! इसलिए ही लड़कियों को प्रतिक्रिया न देने की सीख दी जाती है और वे मासूम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से आजीवन कोसों दूर रहती हैं। बचपन में वे पिता व भाई के सुरक्षा-दायरे तथा विवाहोपरांत पति व पुत्र के अंकुश में रहती हैं और अपनी व्यथा-कथा को अपने हृदय में दफ़न किए इस बेदर्द जहान से रुख़्सत हो जाती हैं। नारी से सदैव यह अपेक्षा की जाती है कि वह निष्काम कर्म करे और किसी से अपेक्षा न करें।

परंतु अब ज़माना बदल रहा है। शिक्षित महिलाएं सशक्त व समर्थ हो रही हैं; परंतु उनकी संख्या नगण्य है। हां! उनके दायित्व अवश्य दुगुन्ने हो गए हैं। नौकरी के साथ उन्हें पारिवारिक दायित्वों का भी वहन पूर्ववत् करना पड़ रहा है और घर में भी उनके साथ वैसा ही अमानवीय व्यवहार किया जाता है और उन्हें मानसिक प्रताड़ना सहन करनी पड़ती है।

परंतु संविधान ने महिलाओं के पक्ष में कुछ ऐसे कानून बनाए गए हैं, जिनके द्वारा वर पक्ष का उत्पीड़न हो रहा है। विवाहिता की दहेज व घरेलू-हिंसा की शिकायत पर उसके पति व परिवारजनों को जेल की सीखचों के पीछे डाल दिया जाता है; जहाँ उन्हें अकारण ज़लालत व मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती है। इसलिए लड़के आजकल विवाह संस्था को भी नकारने लगे हैं और आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प कर लेते हैं। इसे हवा देने में ‘लिव इन व मी टू’ का भी भरपूर योगदान है। लोग महिलाओं की कारस्तानियों से आजकल त्रस्त हैं और अकेले रहना उनकी प्राथमिकता व नियति बन गई है। सो! वे अपना व अपने परिजनों का भविष्य दाँव पर लगाने का खतरा मोल नहीं लेना चाहते।

‘अपने लिए जिए तो क्या जिए/ तू जी ऐ दिल! ज़माने के लिए।’ यह पंक्तियां औरत को हरपल ऊर्जस्वित करती हैं और साधना, सेवा व समर्पण भाव को अपने जीवन में संबल बना जीने को प्रेरित करती हैं।’ यही है औरत की नियति, जो वैदिक काल से आज तक न बदली है, न बदलेगी। सहसा मुझे स्मरण हो रही हैं वे पंक्तियां ‘चुपचाप सहते रहो, तो आप अच्छे हो; अगर बोल पड़ो, तो आप से बुरा कोई नहीं।’ यही है औरत के जीवन के भीतर का कटु सत्य कि जब तक वह मौन रहकर ज़ुल्म सहती रहती है; तब तक सब उसे अच्छा कहते हैं और जिस दिन वह अपने अधिकारों की मांग करती है या अपने आक्रोश को व्यक्त करती है, तो सब उस पर कटाक्ष करते हैं; उसे बुरा-भला कहते हैं। परंतु ध्यातव्य है कि रिश्तों की अलग-अलग सीमाएं होती हैं, लेकिन जब बात आत्म-सम्मान की हो; वहाँ रिश्ता समाप्त कर देना ही उचित है, क्योंकि आत्मसम्मान से समझौता करना मानव के लिए अत्यंत कष्टकारी होता है। परंतु नारी को आजीवन संघर्ष ही नहीं; समझौता करना पड़ता है; यही उसकी नियति है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 39 – पारिवारिक रिश्ते ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख  पारिवारिक रिश्ते।)   

☆ कथा कहानी # 39 – पारिवारिक रिश्ते ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

मां की ममता की हकदार तो सभी संताने होती हैं और उन्हें मिलती भी है पर निर्भरता बेटों की मां पर बहुत ज्यादा होती है. मां के लिये बेटों से जुड़े भविष्य के सपनों, आकांक्षाओं के पूरे होने की उम्मीद रहती है जबकि बेटियों का वैवाहिक जीवन सफल,समृद्ध,सुखी हो, पति का प्यार और पति के पेरेंट्स का स्नेह मिलता रहे, यही कामनायें मां करती हैं.बेटियां उच्च और महंगी शिक्षा प्राप्त कर स्वर्णिम कैरियर बनाते हुये आत्मनिर्भर बनें और अपने जीवन के हर महत्वपूर्ण फैसले खुद लें, यह बेटियों की इच्छा तो होती है पर ये उपलब्धि पाने का लक्ष्य मां के मन के अंदर की असुरक्षा रूपी भय को दूर नहीं कर सकता. शायद यही सदियों से भारतीय संस्कृति के साइड इफेक्ट हैं जिन्हें हर मां और वो बेटी भी जब मां बनती है तो अपने बेटी के लिये महसूस करती है. हम लोग कितनी भी प्रगति कर लें और बेटियाँ कितनी भी शिक्षित होकर आत्मनिर्भर बन जायें पर पेरेंट्स के दिलों से ये असुरक्षा का भय कभी जाता नहीं है.बेटों का अकेले कहीं भी और कभी भी आना जाना अनुशासन की दृष्टि से भले ही नियंत्रित किया जाय पर असुरक्षा के लिहाज से पेरेंट्स के दिलों में कभी भी चिंता उत्पन्न नहीं करता.

फिल्मों में भी मां और बेटे का प्यार और एक दूसरे के लिये हद से गुजर जाना हिट फार्मूला है. इन भावनाओं का दोहन, फिल्म के हिट होने की गारंटी होती है. सारे सिंगिग और डांसिंग रियल्टी शोज़ के एक एक एपीसोड मां के नाम रिजर्व होते हैं और viewership के मामले में ये देशभक्ति के एपीसोड के साथ साथ ही हमेशा पहली पायदान पर होते हैं.

बेटियां पिता के लिये बहुत मूल्यवान और शायद दिल के ज्यादा नज़दीक होती हैं,यह एक बायोलाजिकल फेक्ट है पर पिता और बेटी के खूबसूरत रिश्तों और संवेदनाओं को उकेरती इक्का दुक्का फिल्में ही बनी हैं. एक फिल्म याद आती है “परिचय” जिसमें पिता और बेटी का किरदार संजीव कुमार और जया भादुड़ी ने निभाया था. हालांकि संजीव कुमार बहुत कम समय ही फिल्म में रहे. ये दोनों ही कलाकार अभिव्यक्ति के मामले में संवाद पर निर्भर नहीं हैं. इनकी आंखें वो सब दर्शकों के मन तक पहुँचा जाती हैं जो भावनात्मक भारी भरकम डॉयलाग भी नहीं कर पाते.एक और फिल्म है”पीकू” जिसमें अमिताभ बच्चन और दीपिका पादुकोन के बीच पिता और पुत्री के रिश्ते को बहुत ही खूबसूरती से फिल्माया गया था.अपनी आंखों से बहुत कुछ कहने वाले अभिनेता हैं “अमिताभ बच्चन जिनकी फिल्में ” काला पत्थर और शक्ति ” में उनकी खामोश आवाज पर बोलती आँखों से दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाते हैं.शक्ति में तो अपनी मौजूदगी पर एक दूसरे पर भारी पड़ते अभिनेता थे दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन.. कमाल के सीन थे फिल्म शक्ति के जिसके बारे में अमिताभ बच्चन ने स्वंय कहा था कि जब मैं सीन के दौरान दिलीप साहब की आंखों में देखता था तो उनके चुंबकीय व्यक्तित्व से मोहित होकर खुद एक्टिंग करना भूल जाता था. दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन ही ऐसे दो अभिनेता हैं कि जब ये चुप रहते हैं तो इनकी आंखे बोलती हैं और वह सब संप्रेषित हो जाता है जिसके लिये डॉयलाग भी कम पड़े ,पर जब ये बोलते हैं तो इनकी बेमिसाल आवाजें सुनकर लगता है कि बस सुनते जाइये सुनते जाइये. लीजिए इनका जिक्र करते करते हम भी भटक गये. इन अभिनेताओं के चक्कर में भटकना स्वाभाविक भी था.

पिता और बेटी के अनूठापन लिये हुये स्नेह का रिश्ता, एक दूसरे पर निर्भरता, बेटी के विवाह के बाद खालीपन महसूस करते पिता और ससुराल में अपने पिता की छवि को तलाशती बेटी पर कोई फिल्म बनी हो याद नहीं आता. अगर बनती भी तो इन भूमिकाओं को न्याय बलराज साहनी, संजीव कुमार और जया भादुड़ी ,दीपिका पादुकोन जैसे ही अपनी भावप्रवणता से दे पाते और निर्देशक भी फिर उसी स्तर के ही ये सब संभव कर पाते.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ Father’s Day ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “Father’s Day।)

☆ आलेख ☆ Father’s Day ☆ श्री राकेश कुमार ☆

विगत कुछ वर्षों से ये विदेशी मान्यताएं/ परम्पराएँ  हमारी संस्कृति में कब घुस गई, पता ही नहीं चला। मदर्स डे, वेलेंटाइन डे इत्यादि जोकि पश्चिमी संस्कृति के अनुरूप और प्रासंगिक हैं। ये ऐसा धीमा जहर है, जो हमारी विरासत को धीरे धीरे खोखला कर रहा हैं।

बाज़ार में बिक्रीवाद को प्रोहत्सहित करने वाली शक्तियां पूरी ताक़त से हमारी सहनशीनता/ सहिष्णुता  का फ़ायदा उठा कर हमारी संस्कृति को नष्ट करने पर उतारू हैं।

मुझे आश्चर्य होता है, हमारी उम्र के उन वरिष्ठजन से जो प्रतिदिन लंबे लंबे धार्मिक संदेश भेजने वाले भी फेस बुक, व्हाट्स ऐप पर फादर्स डे के संदेश भेजने में अग्रणी रहते हैं। परिवार की तीन पीढियां दादा, पिता और पुत्र के इस विदेशी त्यौहार को मानते हुए फोटो लगा कर गौरवान्वित महसूस करते हैं।  

हमें ये सब करने की क्या आवश्यकता आन पड़ी? हमारे यहां तो प्रतिदिन पिता के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेने की परंपरा हैं। ये पिता प्रेम के ढकोसले सिर्फ दूसरों को दिखाने के लिए हैं।

हमें किसी भी विदेशी सभ्यता / संस्कृति का विरोधी  होने की ज़रूरत नहीं हैं। प्रत्येक व्यक्ति को अपने समाज/ धर्म के अनुसार त्यौहार मानने चाहिए ।

हमारे अपने त्यौहार मौसम और वैज्ञानिक दृष्टि से कहीं बेहतर हैं  । भेड़ चाल से बच कर अपने सिद्धान्त पर अडिग रहना चाहिए।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 144 ☆ सड़क सम्मोहन से बचें ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी प्रस्तुति  “सड़क सम्मोहन से बचें”।)  

☆ आलेख # 144☆ सड़क सम्मोहन से बचें ☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

किसी भी वाहन की ड्राइविंग करते समय की एक शारिरिक स्थिति है। सामान्यतः लगातार ढाई-तीन घंटे की ड्राइविंग के बाद रोड हिप्नोसिस प्रारम्भ होता है।

ऐंसी सम्मोहन की स्थिति में आँखें खुली होती हैं लेकिन दिमाग अक्रियाशील हो जाता है अतः जो दिख रहा है उसका सही विश्लेषण नहीं हो पाता और नतीजतन सीधी टक्कर वाली दुर्घटना हो जाती है।

इस सम्मोहन की स्थिति में दुर्घटना के 15 मिनिट तक ड्राइवर को न तो सामने के वाहनों का आभास होता है और न ही अपनी स्पीड का। और जब 120-140 स्पीड से टक्कर होती है तो भयानक दुष्परिणाम सामने आते हैं।

उपरोक्त सम्मोहन की स्थिति से बचने के लिए हर ढाई-तीन घंटे ड्राइविंग के पश्चात रुकना चाहिए। चाय-कॉफी पियें, 5-10 मिनिट आराम करें और मन को शांत करें।

ड्राइविंग के दौरान स्थान विशेष और आते कुछ वाहनों को याद करते चलें। अगर आप महसूस करें कि पिछले 15 मिनिट का आपको कुछ याद नहीं है तो इसका मतलब है कि आप खुदको और सहप्रवासियों को मौत के मुँह में ले जा रहे हो।

रोड सम्मोहन ये अचानक रात के समय होता है जब अन्य यात्री सो या ऊँघ रहे होते हैं अतः बेहद गंभीर दुर्घटना हो सकती है।

ड्राइवर को झपकी आ जाए या नींद आ जाए तो दुर्घटना को कोई नहीं रोक सकता लेकिन आँखें खुली हों तो दिमाग का क्रियाशील होना अतिआवश्यक है। ध्यान रखें, सुरक्षित रहें, सुरक्षित ड्राइविंग करें।

संकलन – जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 145 ☆ वारी – लघुता से प्रभुता की यात्रा – भाग – 2 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 145 ☆ वारी – लघुता से प्रभुता की यात्रा – भाग – 2 ?

वारी में सहभागी होने के लिए दूर-दराज के गाँवों से लाखों भक्त बिना किसी निमंत्रण के आलंदी और देहू पहुँचते हैं। चरपादुकाएँ लेकर चलने वाले रथ का घोड़ा आलंदी मंदिर के गर्भगृह में जाकर सर्वप्रथम ज्ञानेश्वर महाराज के दर्शन करता है। ज्ञानेश्वर महाराज को माउली याने चराचर की माँ भी कहा गया है। माउली को अवतार पांडुरंग अर्थात भगवान का अवतार माना जाता है। पंढरपुर की यात्रा आरंभ करने के लिए चरणपादुकाएँ दोनों मंदिरों से बाहर लाई जाती हैं। उक्ति है-‘ जब चराचर भी नहीं था, पंढरपुर यहीं था।’

चरण पादुकाएँ लिए पालकी का छत्र-चंवर डुलाते एवं निरंतर पताका लहराते हुए चलते रहना कोई मामूली काम नहीं है। लगभग 260 कि.मी. की 800 घंटे की पदयात्रा में लाखों वारकरियों की भीड़ में पालकी का संतुलन बनाये रखना, छत्र-चंवर-ध्वज को टिकाये रखना अकल्पनीय है।

वारी स्वप्रेरित अनुशासन और श्रेष्ठ व्यवस्थापन का अनुष्ठान है। कुछ आंकड़े इसकी पुष्टि करने के लिए कुछ आंकड़े जानना पर्याप्त है-

1) विभिन्न आरतियों में लगनेवाले नैवेद्य से लेकर रोजमर्रा के प्रयोग की लगभग 15 हजार वस्तुओं (यहाँ तक की सुई धागा भी) का रजिस्टर तैयार किया जाता है। जिस दिन जो वस्तुएं इस्तेमाल की जानी हैं, नियत समय पर वे बोरों में बांधकर रख दी जाती हैं।

2) 15-20 हजार की जनसंख्या वाले गाँवों में लाखों वारकरियों का समूह रात्रि का विश्राम करता है। ग्रामीण भारत में मूलभूत सुविधाओं की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में अद्वैत भाव के बिना गागर में सागर समाना संभव नहीं।

3) सुबह और शाम का भोजन मिलाकर वारी में प्रतिदिन लगभग 20 लाख लोगों के लिए भोजन तैयार होता है।

4) रोजाना लगभग 10 लाख लोग स्नान करते हैं, कम से कम 30 लाख कपड़े रोज धोये और सुखाये जाते हैं।

5) रोजाना 50 लाख कप चाय बनती है।

6) हर दिन लगभग 3 करोड़ लीटर पानी प्रयोग होता है।

7) एक वारकरी दिन भर में यदि केवल एक हजार बार भी हरिनाम का जाप करता है तो 10 लाख लोगों द्वारा प्रतिदिन किये जानेवाले कुल जाप की संख्या 100 करोड़ हो जाती है। शतकोटि यज्ञ भला और क्या होगा?

8) वारकरी दिनभर में लगभग 20 किलोमीटर पैदल चलता है। विज्ञान की दृष्टि से यह औसतन 26 हजार कैलोरी का व्यायाम है।

9) जाने एवं लौटने की 33 दिनों की यात्रा में पालकी के दर्शन 24 घंटे खुले रहते हैं। इस दौरान लगभग 25 लाख भक्त चरण पादुकाओं के दर्शन करते हैं।

10) इस यात्रा में औसतन 200 करोड़ का आर्थिक व्यवहार होता है।

11) हर दिंडी के साथ दो ट्रक, पानी का एक टेंकर, एक जीप, याने कम से कम चार वाहन अनिवार्य रूप से होते हैं। इस प्रकार 500 अधिकृत समूहों के साथ कम से कम 2 हजार वाहन होते हैं।

12) एकत्रित होने वाली राशि प्रतिदिन बैंक में जमा कर दी जाती है।

13) रथ की सजावट के लिए पुणे से रोजाना ताजा फूल आते हैं।

14( हर रात 7 से 8 घंटे के कठोर परिश्रम से रथ को विविध रूपों में सज्जित किया जाता है।

15) एक पंक्ति में दिखनेवाली भक्तों की लगभग 15 किलोमीटर लम्बी ‘मूविंग ट्रेन’ 24 घंटे में चार बार विश्रांति के लिए बिखरती है और नियत समय पर स्वयंमेव जुड़कर फिर गंतव्य की यात्रा आरंभ कर देती है।

16) गोल रिंगण अर्थात अश्व द्वारा की जानेवाली वृत्ताकार परिक्रमा हो, या समाज आरती, रात्रि के विश्राम की व्यवस्था हो या प्रातः समय पर प्रस्थान की तैयारी, लाखों का समुदाय अनुशासित सैनिकों-सा व्यवहार करता है।

17) नाचते-गाते-झूमते अपने में मग्न वारकरी…पर चोपदार का ‘हो’ का एक स्वर और संपूर्ण नीरव …… इस नीरव में मुखर होता है-वारकरियों का अनुशासन।

क्रमश:…

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #131 ☆ एक आत्म कथा – मैं गंगा माँ हूँ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 131 ☆

☆ ‌आलेख – एक आत्म कथा – मैं गंगा माँ हूँ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

हाँ हाँ पहचाना मुझे! मैं गंगा माँ  हूँ।

मैं गंगा मां ही बोल रही हूँ, क्या सुनाई दे रही है तुम्हें मेरी आवाज़?

मैं गंगा के किनारे पूर्णिमा के दिन रात्रि बेला में धवल चांदनी से युक्त निस्तब्ध वातावरण में गंगघाट पर अपनी ही धुन में खोया हुआ बैठा था, गंगा में चलने वाली नावों के चप्पुओं की गंगा जल में छपछप करती लहरों से अठखेलियां करती आवाजों तथा गंगा की धाराओं से निकलने वाली कल-कल ध्वनियों में खोया हुआ था कि सहसा किसी नाव पर रखे रेडियो पर आकाशवाणी विविध भारती से बजने वाले गीत ने मेरा ध्यान आकर्षित किया————

*मानो तो मैं गंगा मां हूँ, ना मानो तो बहता पानी*

यह गीत मेरे मन की अतल गहराइयों में उतरता चला गया और उस चांदनी रात की धवल  जल धारा से एक आकृति प्रकट होती हुई जान पड़ी जो शायद उस मां गंगा की आत्मा थी। और अपने पुत्र भीष्म पितामह की तरह मुझसे भी संवाद करने के लिए व्यग्र दिखाई दे रही थी। उनके चेहरे पर चिंता और विषाद की अनगिनत रेखाएं झलक रही थी। उनके दिल में जमाने भर का दर्द समाया हुआ था। जो बातों बातों में दिखा भी।

फर्क सिर्फ इतना था कि महाभारत कालीन भीष्म अपने हृदय की पीड़ा मां गंगा से कहता था, लेकिन आज मां गंगा स्वयं अपने धर्मपुत्र यानि मुझ लेखक से अपने हृदय की पीड़ा व्यक्त करने को आतुर दिखी थी। वे मुझे ही संबोधित करते हुए बोल पड़ी थी।

लो सुन लो तुम भी मेरी व्यथा कथा, ताकि मेरे हृदय का बोझ थोडा़ सा हल्का हो जाए।

हां अगर तुम मानो तो मैं गंगा मां हूँ, ना मानो तो बहता हुआ पानी हूँ। लेकिन मेरा दोनों ही रूप जनकल्याणकारी है। यदि मैं एक मां के रूप में आस्थावान लोगों से पूजित हो लोगों को अपनी ममता  प्यार और दुलार देकर तारती हूँ, और उनके द्वारा पूजित हूँ तो, नास्तिक लोगों के अनुसार बहते हुए जलधारा के रूप में इस मानव समुदाय को पीने के लिए शुद्ध जल, अन्न, फूल, फल भी उपलब्ध कराती रही हूँ। इस तरह मेरा दोनों रूप लोक-मंगल कारी था।

यूं तो मेरा जन्म पौराणिक कथाओं की मान्यता के अनुसार भगवान श्री हरी के चरणोदक से हुआ है। लेकिन रही मैं युगों-युगों तक ब्रह्मा जी के कमंडल में ही। उन्हीं दिनों परमपिता ब्रह्मा ने राजा भगीरथ के भगीरथ-प्रयत्न से प्रसन्न होकर मुझे उनके पूर्वजों के तारने का लक्ष्य लेकर ब्रह्म लोक से अपने कमंडल से मुक्त कर दिया। जब प्रबल वेग से हर-हर करती पृथ्वी की तरफ चली तो सारी सृष्टि में त्राहि-त्राहि मच गई। प्रलय का दृश्य उपस्थित हो गया था। मेरा वेग रोकने की क्षमता सृष्टि के किसी प्राणी में नहीं थी। इसी लिए घबरा कर राजा भगीरथ एक बार भगवान शिव की शरण में चले गए। उस समय भगवान शिव ने उनकी तपस्या से प्रसन्न हो मुझे अपनी जटाओं में उलझा लिया था। तथा राजा भगीरथ के आग्रह पर कुछ अंशों में मुझे मुक्त कर दिया था। मैं गोमुख से प्रकट हो गंगोत्री से होती हुई उनके पुरखों (राजा सगर की) संततियों को तारने हेतु भगीरथ के पीछे पीछे चल पड़ी थी। और उनका तारन हार बनी ऐसा पुराणों का मत है तथा इतिहास की गवाही।

उसके बाद से अब तक मैंने  अच्छे-बुरे बहुत समय देखें। मैंने लोगों का श्रद्धा, विश्वास और भरोसे से भरा हृदय देखा। मैंने देखा कि किस प्रकार लोग अपना इहलोक और परलोक संवारने हेतु मुझमें गोते लगाते और मेरा पावन जल पात्रों में भर कर देवताओं का अभिषेक तथा आचमन करने हेतु ले जाते थे। एक विश्वास ही उनके भीतर था, जो उन्हें अपने परिजनों के चिता की राख  को उनके तारण हेतु मुझमें प्रवाहित करने हेतु विवश करता था। लेकिन आज़ मैं विवश हूँ। मुझे अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। जीवन और मृत्यु की जद्दोजहद में इस आशा विश्वास और भरोसे के साथ जी रही हूँ कि भविष्य में शायद इस मानव कुल में कोई महामानव भगीरथ बन पैदा हो और मेरा पूर्वकालिक स्वरूप वापस देकर मुझे नवजीवन दे दे। आज मैं मानवीय अत्याचारों से दुखी अपने जीवन की अंतिम सांसें गिन रही हूँ।

मुझे खुद के भीतर की गंदगी और खुद का घिनौना रूप देख खुद से घृणा तथा उबकाई आने लगी है।

और इस सबका जिम्मेदार सामूहिक रूप से तुम्हारा मानव समाज ही है।

कोई समय था जब मैं गोमुख से अपनी धवलधार संग राजा भगीरथ के पीछे पीछे जड़ी बूटियों का सत  लेकर मंथर गति से चलती हुई मैदानी इलाकों से गुजर कर सागर से जा मिली थी और गंगासागर तीर्थ बन गई थी। उस समय हमारा मिलन देख देवता अति प्रसन्न हुए थे। तथा सागर ने अपनी बाहें पसार कर अपनी उत्ताल तरंगों से मेरा स्वागत किया था। अपनी उत्ताल तरंगों तथा मेरी कल कर की ध्वनि सुनकर सागर भी सम्मोहित हो गया था तथा मेरे साथ छाई छप्पा खेलते हुए एक दूसरे में समाहित हो मैंने अपना अस्तित्व गंवा दिया था और सागर बन बैठी थी।

उस यात्रा के दौरान अनेक ऐसे संयोग बने जब अनेकों नद नाले आकर मुझमें समा गए। तब मुझे ऐसा लगता जैसे वे अपने पावन जल से मेरा अभिषेक करना चाह रहे हों। लेकिन अब मैं क्या करूं, किसके पास जांऊ अपनी फरियाद लेकर? कौन है जो सुनेगा मेरी पीड़ा, क्यौकि अब तो मेरे पुत्रों की आने वाली पीढ़ियाँ गूंगी बहरी तथा पाषाण हृदय पैदा हो रही है। उनका हृदय भी भावशून्य है। अब उन सबको मेरा यह बिगड़ा स्वरूप भी आंदोलित नहीं करता। लोगों ने जगह जगह बांध बना मेरी जीवन रेखा की जलधारा को छीन लिया। मुझमें गन्दे नाले का मल जल तथा औद्योगिक अपशिष्ट बहाकर जिम्मेदार लोगों ने अवैध धन उगाही की मुझे कहीं का नहीं छोड़ा। और मेरी सफाई के नाम पर भ्रष्टाचार की एक नई अंतर्धारा बहा दी। मेरे सफाई के नाम पर अरबों खरबों लुटाए गए फिर भी मैं साफ नहीं हुई। क्योंकि मेरी सफाई के लिए जिस दृढ़ इक्षाशक्ति और इमानदार प्रयास की जरूरत थी वो नहीं हुआ उसके साथ ही अपनी मुक्ति का सपना संजोए मेरे पास आने वाली तुम्हारी पीढ़ियों के लोगों ने भी आस्था के नाम पर मुझे गंदा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। मुझे लगता है कि लगभग सवा अरब की आबादी वाली सारी औलादें नाकारा हो गई है।

मैं तो सदियों सदियों से चिताओं की राख  लेकर लोगों को मोक्ष देती रही तथा श्रद्धा से समर्पित फूल मालाओं की डलियां लेती रही लेकिन कभी भी इतनी गन्दी नहीं थी।

आखिर इस देश के नीति-नियंताओं के समझ में यह साधारण सी बात कब आएगी?, मेरी गंदगी का कारण बने नालों कचरे कब रोके जाएंगे?

मेरी जीवन जल-धारा को अनवरत जलप्रवाह कब प्राप्त होगा?

यदि मेरी जल धारा को मुक्त कर दिया जाए तथा नालों की गंदगी रोक दी जाए तो मेरी सफाई की जरूरत ही न पड़े।

तुम सब याद रखना यदि मेरी जलधारा मुक्त नहीं हुई तुम सबका राजनैतिक शह मात का खेल चलता रहा तो मैं तो एक दिन अकाल मृत्यु मरूंगी ही मेरी अंतरात्मा के अभिषाप से तुम्हारी पीढ़ियां भी जल के अभाव में छटपटाते बिलबिलाते हुए मरेंगी।

और मैं अतीत के इतिहास में दफन हो कर कालखंड के इतिहास का पन्ना बन कर रह जाउंगी। फिर तुम्हारी पीढ़ियाँ मेरी मौत पर मातम मनाने का तमाशा करती दिखेंगी।

अब भी चेत जाओ, हो सके तो मुझे जीवन देकर मौत से अपनी सुरक्षा कर लो। इस प्रकार संवाद करते हुए मां गंगा के चेहरे पर आक्रोश छलकने  लगा कि सहसा गंगा घाट पर चलने वाले प्रवचन पंडाल से यह ध्वनि सुनाई पड़ी——

जिया बिनु देह नदी बिनु बारी।

तैसई नाथ पुरुष बिनु नारी।।

जो जीवन के यथार्थ समझा गई थी।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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