हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 155 ☆ आलेख – एकता एवं अखंडता भारत की शक्ति ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय  आलेख  एकता एवं अखंडता भारत की शक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 155 ☆

? आलेख – एकता एवं अखंडता भारत की शक्ति ?

“एकता में अटूट शक्ति है” ग्रीक कथाकार एशॉप द्वारा प्राचीन युग के दौरान इस वाक्यांश को सर्वप्रथम उपयोग किया गया था। कथाकार ने इसका अपनी कथा “द ऑक्सन एंड द लायन” में प्रत्यक्ष रूप से और “द बंडल ऑफ स्टिक्स” में अप्रत्यक्ष रूप से इसका उल्लेख किया था।

ईसाई धार्मिक पुस्तक में भी ऐसे ही शब्द शामिल हैं जिनमें प्रमुख हैं “अगर एक घर को विभाजित कर दिया जाता है तो वह घर दोबारा खड़ा नहीं हो सकता” इसी पुस्तक के दूसरे वाक्यांश हैं ” यीशु अपने विचारों को जानते थे और कहते थे ” हर राज्य जिसमें फूट पड़ी है वह उजड़ गया है और हर एक नगर या घर जो विभाजित है वह खुद पर निर्भर नहीं रहता।

अमेरिकन  इतिहास में यह वाक्यांश पहले क्रांतिकारी युद्ध के अपने पूर्व गीत “द लिबर्टी सॉन्ग” में जॉन डिकिन्सन द्वारा इस्तेमाल किया गया था। यह जुलाई 1768 में बोस्टन गैजेट में प्रकाशित हुआ था।

दिसंबर 1792 में  केंटकी की जनरल असेंबली ने राष्ट्रमंडल की आधिकारिक मुहर को राज्य के आदर्श वाक्य के साथ अपनाया “एकता में अटूट शक्ति है”।

1942 से वाक्यांश केंटकी की आधिकारिक गैर-लैटिन राज्य का आदर्श वाक्य बन गया ।

यह वाक्यांश मिसौरी ध्वज पर सर्कल में केंद्र के चारों ओर लिखा गया है।

यह वाक्यांश ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता के संघर्ष के दौरान भारत में लोकप्रिय हुआ। इसका उपयोग लोगों को एक साथ लाने और स्वतंत्रता के लिए लड़ने के लिए प्रेरित करने के लिए किया गया था।

अल्टर वफादारों ने भी इस वाक्यांश का इस्तेमाल किया है। इसे कुछ वफादार उत्तरी आयरिश भित्ति चित्रों में देखा जा सकता है।

वाक्यांश “एकता में अटूट शक्ति है” का उपयोग विभिन्न कलाकारों द्वारा कई गानों में भी किया गया है।

एकता का मतलब संघ या एकजुटता से है।  एकजुट रहने वाले लोगों का समूह हमेशा एक व्यक्ति की तुलना में अधिक सफलता प्राप्त करता है। यही कारण है कि लगभग हर क्षेत्र जैसे कार्यालय, सैन्य बलों, खेल आदि में समूह बनाए जाते हैं। व्यक्तिगत जीवन में भी हम परिवार में एक साथ रहते हैं जिससे हमें अपने दुखों को सहन करने और हमारी खुशी मनाने के अवसर मिलते हैं। कार्यालय में  वांछित परिणाम प्राप्त करने के लिए टीम बनाई जाती हैं। इसी तरह खेल और सैन्य बलों में भी समूह बनाए जाते हैं और कुछ हासिल करने के लिए सामूहिक रणनीतियों का निर्माण होता है।

पुराने दिनों में मनुष्य अकेला रहता था। वह खुद लम्बा सफ़र तय करके शिकार करता था  फिर मनुष्य ने यह महसूस किया कि अगर वह अन्य शिकारियों के साथ हाथ मिला लेता है तो वह कई आम खतरों और चुनौतियों का सामना करने में सक्षम होगा। इस तरीके से गांवों का निर्माण हुआ जो बाद में कस्बों, शहरों और देशों में विकसित हुए। एकता हर जगह आवश्यक है क्योंकि यह एक अस्वीकार्य प्रणाली को बदलने के लिए इच्छा और शक्ति को मजबूत करती है।

एकता मानवता का सबसे बडा गुण है। जो एक टीम या लोगों के समूह द्वारा हासिल किया जा सकता है वह कोई भी व्यक्ति अकेला नहीं प्राप्त कर सकता है। असली ताकत एकजुट होने में निहित है। जिस देश का नागरिक एकजुट है तो वह देश मजबूत है। जिस परिवार के सदस्य एक साथ रहते हैं तो वह परिवार भी मजबूत है। कई उदाहरण हैं जो यह साबित करते हैं कि एकता में अटूट शक्ति है।

संगीत या नृत्य मंडली में भी यदि समूह एकजुट है, सद्भाव में काम करते हैं और सुर-ताल बनाए रखते हैं तो परिणाम आशावादी होंगे वहीं अगर हर व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत प्रतिभा दिखाने शुरू करता है तो परिणाम अराजक और विनाशकारी हो सकते हैं। एकता हमें अनुशासित होना सिखाती है। यह हमारे लिए विनम्र, विचारशील, सद्भाव और शांति में एक साथ रहने के लिए सबक है। एकता हमें चीजों की मांग और परिणाम प्राप्त करने के लिए आत्मविश्वास और शक्ति देती है। यहां तक ​​कि कारखानों आदि में भी मजदूरों को यदि उनके मालिकों द्वारा प्रताड़ित या दबाया जाता हैं तो वे समूह के रूप में यूनियन बनाकर काम करते हैं। जो लोग अकेले काम करते हैं उन्हें आसानी से हराया जा सकता है और वे अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए आत्मविश्वास से काम नहीं कर सकते लेकिन अगर वे समूहों में काम करते हैं तो नतीज़े चमत्कारी हो सकते हैं।

 इस प्रकार हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एकता बहुत महत्वपूर्ण है।सबसे बड़ा उदाहरण हमारे राष्ट्र की स्वतंत्रता है। महात्मा गांधी ने विभिन्न जाति और धर्म से संबंधित सभी नागरिकों को एकजुट किया और अहिंसा आंदोलन शुरू किया। दुनिया जानती है यह उनकी इच्छा और महान शहीद स्वतंत्रता सेनानियों तथा नागरिकों की एकता के कारण ही हो सका जो अंततः भारत की स्वतंत्रता के रूप में सबके सामने आया। आज इसी एकता की पुनः प्रतिस्थापना आवश्यक है , धर्म , जाति , क्षेत्र , निजी स्वार्थ की राजनीति को परे रखकर देश के व्यापक हित में एकता ही अखंडता को बनाए रख सकती है ।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पड़ोस और विवाह ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है आलेख – “पड़ोस और विवाह।)

☆ आलेख ☆ पड़ोस और विवाह ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे विचार से ये दोनों पर्यावाची हैं।विवाह जैसे पवित्र बंधन के लिए भी कहा जाता है,  जिसका हुआ वो भी पछताए और जिसका नहीं हुआ वो भी पछताए। वैसा ही हमारा पड़ोस जिनके पड़ोसी है, वो भी परेशान रहते हैं और जिनके पड़ोस में अभी प्लॉट खाली है, वो भी परेशान ही रहते हैं। सीमेंट और पेंट बनाने वाली कंपनियां भी अपने विज्ञापनों के माध्यम से पड़ोसी स्पर्धा का चित्रण करने में माहिर होते हैं। आखिर उनको भी तो अपनी रोज़ी रोटी चलानी हैं।                       

ये पड़ोसी, सभी देशों के साथ भी होते ही हैं। हमारे देश के भी बहुत सारे पड़ोसी देश हैं, जहां तक संबंध की बात है, अधिकतर देशों से कभी नरम और कभी गर्म ही रहते है। ठीक वैसे ही जैसे हमारे घर के पड़ोसियों से रहते हैं। हमारे देश के दो पड़ोसी तो शत्रु देश भी कहलाते हैं। स्वतंत्र होने के समय अलग हुए पाकिस्तान में विगत कुछ दिनों से राजनैतिक विवाद भी चल रहा हैं। हमारा मीडिया भी दुनिया और देश की सब बातें भूल कर पाकिस्तान पर ही लगातार रात दिन चर्चा करते हुए थक भी नहीं रहा।

पाकिस्तान में रामलाल या श्यामलाल कोई भी प्रधानमंत्री बने, हम साधारण जीवन जीने वाले व्यक्ति का क्या वास्ता हैं? लेकिन नहीं मीडिया तो आप को इतिहास के गड़े मुर्दे और भविष्य के हसीन सपने परोसने में एड़ी चोटी एक कर देता हैं। इसी बहाने कुछ रिटायर्ड फौजी अधिकारी और विदेश सेवा में कार्य कर चुकी हस्तियों के विचारों से भी अवगत हो जाते हैं।

इसी को भेड़ चाल भी कहते हैं, सभी चैनल सब कुछ भूल कर सिर्फ और सिर्फ पाकिस्तान के भूतकाल और भविष्य की कहानियां बुन रहे हैं। ऐसा लग रहा है की पड़ोसी के यहां आग लगी हुई है और हम उस पर अपनी रोटियां सेंक रहे हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मई दिवस विशेष – मजदूर और किसान पर चार कविताएं ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मई दिवस पर मजदूर और किसान पर चार कविताएं

☆ मई दिवस विशेष – मजदूर और किसान पर चार कविताएं ☆ डॉ. मुक्ता ☆

[1]

मज़दूर

मज़दूर

देश के कर्णधार

बड़ी-बड़ी इमारतें बनाते

दिन भर लहू रूपी पसीना टपकाते

विस्फारित नेत्रों से ताकते रह जाते

कौन जानता, किसने उसे बनाया

परंतु घर के मालिक उस इमारत के

सौंदर्य पर वाह-वाही पाते

कौन जानता

कितने लोगों के टूटे सपने

जीवन की खुशियां

समिधा बन इमारत रूपी यज्ञ में जली

भूख से बिलबिलाते बच्चों की आहें

व क्रंदन हृदय को नासूर बन सालता

परंतु गुज़रे दिन कहां लौट पाते

विधाता ने लिखे हैं उनके भाग्य में आंसू

अंतहीन कष्ट, नाउम्मीदी, आंसुओं का सैलाब

भूख रूपी शत्रु से हर रोज़ जूझना

परंतु पापी पेट कब मानता

तीनों समय हाथ पसारे रहता

ज़िंदगी भर वे ज़िल्लत सहते

और अंत में नियति के सम्मुख

पराजय स्वीकार

भूख से रोते-बिलखते बच्चों को

बीच राह छोड़ देख आगे बढ़ जाते

इस आशा पर कोई अपना लेगा उन्हें

शायद हो जाएगा उनके दु:खों का अंत

परंतु विधाता भी कानून की भांति

सबको एक दृष्टि…

 

[2]

प्रवासी मज़दूर

चंद दिन बाद

इंसान विस्थापन का दर्द

महसूसने को विवश

कभी भूख-प्यास तो कभी लू के थपेड़े

व कभी हादसों के रूप में मंडराती मौत

पुलिस की लाठी भी नहीं तोड़ पाती

उनके मन का अटूट विश्वास

भविष्य की चिंता, आर्थिक तंगी

परिवार का भरण-पोषण

महामारी का डर और अशिक्षा

पलायन के मुख्य कारण

 

हम जा रहे हैं

दो-चार पोटलियों की सौग़ात लिए

जो हम बरसों पहले लाए थे साथ

देह पर खरोंचों के निशान

व लिए आंखों में आंसुओं का सैलाब

नहीं जानते…हम अभागे कहां पहुंचेंगे

न हम स्कूल पहुंच पाए

न ही प्राप्त कर सके किताबी ज्ञान

न बन सके आत्मनिर्भर

न न्याय पाने के लिए लगा सके ग़ुहार

न ही दर्ज करा पाए

सरकारी नुमाइंदों तक अपनी शिकायत

 

अपमान का घूंट पीते

अन्याय सहते-सहते

गुज़र गयी हमारी सारी उम्र

कोई नहीं समझता यहां हमारा दुख-दर्द

हमें तो झेलना है

विस्थापन का असहनीय दर्द

जानते हैं हम–यहा…

[3]

लॉक डाउन और मज़दूर

मज़दूर लौट रहे हैं अपने घरों से

जो लॉक डाउन के दौरान गए थे

बहुत इच्छा से अपने गांवों में

अब वहां रहेंगे, कभी लौटकर न आयेंगे

उसकी मिट्टी में रह कर्ज़ चुकाएंगे

परंतु चंद दिन बाद उन्हें आभास हुआ

यहां भी उनके लिए नहीं रोज़गार

न ही परिवारजनों को उनकी दरक़ार

 

वे अपने ही घर में

अजनबीपन का दंश झेलते

चल पड़े पुनः नौकरी की तलाश में

दूर…बहुत दूर,अकेले इसी उम्मीद से

परदेस में मेहनत कर

शायद वे जुटा पाएंगे दो जून की रोटी

और भेज कर पैसों की सौग़ात

कर पायेंगे अपना दायित्व-वहन

 

[4]

किसान और मज़दूर

किसान और मज़दूर

दोनों का भाग्य एक समान

दोनों रात-दिन मेहनत कर पसीना बहाते

बदले में दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाते

किसान प्राकृतिक आपदाओं के रूप में

कभी बाढ़, कभी सूखे का सामना करते

परंतु अपनी मेहनत का फल कहां पाते

फसल होने के इंतज़ार में वे स्वप्न सजाते

और बच्चों को आश्वस्त करते

वे इस वर्ष उन्हें अवश्य

स्कूल में दाखिला दिलायेंगे

किताबें व युनिफ़ॉर्म दिलायेंगे

पत्नी से नई साड़ी लाने का वादा कर

मां को शहर में इलाज कराने की आस बंधाते

पिता नया चश्मा पाने की प्रतीक्षा में दिन गिनते

 

परंतु अचानक आकाश में

बादलों की गर्जना होती, ओले बरसते

एक सैलाब-सा सब कुछ बहा कर ले जाता

और कुछ भी शेष नहीं रहता

वे मासूम बच्चों के साथ

खुले आकाश के नीचे या किसी प्लेटफार्म पर

अपनी ज़िंदगी के आखिरी दिन बिताते

और सोचते, न जाने क्या लिखा है

विधाता ने उनके भाग्य में

क्या कभी होगा उनके दु:खों का अंत

 

मज़दूर रात दिन पसीना बहाता

अक्सर महीने में बीस दिन मज़दूरी पाता

कभी तारकोल की सड़क बनाने में

तो कभी खेतों में बैल की जगह जोता जाता

कभी लोगों के लिए नए-नए घर बनाता

थका-हारा हाथ में शराब की बोतल थामे

घर जाता, खूब उत्पात मचाता

नशे में धुत्त कई-कई दिन तक

निढाल पड़ा रहता

घर में खाली डिब्बे मुंह चिढ़ाते

बच्चे भूख से बिलबिलाते

पत्नी अपने भाग्य को कोसती

खून के आंसू बहाती

आखिर विधाता क्यों जन्म दिया है उन्हें

‘तुम तो ब्रह्मा के रूप में जन्मदाता

विष्णु के रूप में पालनहार हो

फिर क्यों नहीं अपने नाम को सार्थक करते

उनकी रक्षा का दायित्व-वहन क्यों नहीं करते’

 

इस दशा में वह बच्चों को घर में बंद कर

पति को नशे की हालत में छोड़

चल पड़ती है दिहाड़ी की तलाश में

ताकि उसे कहीं काम मिल जाए

और वह अपने भूखे बच्चों का पेट भर सके

परंतु वहां भी वहशी नज़रें उसका पीछा करतीं

और अस्मत के बदले रोटी उसे प्राप्त होती

 

संसार में एक हाथ दे,दूसरे हाथ ले

यही लोक-व्यवहार चलता

जब औरत को काम नहीं मिलता

वह अपनी अस्मत बेचने को विवश हो जाती

क्योंकि भूख से बिलबिलाते

बच्चों का हृदय-विदारक करुण चीत्कार

उसके हृदय को उद्वेलित करता

अपाहिज ससुर और बीमार सास का दु:ख

उसे अपनी अस्मत का सौदा

करने को विवश कर देता

और बदले में चंद सिक्के

उसकी झोली में फेंक

एहसान किया जाता

वह अपने ज़ख्मों को सहलाती

उधेड़बुन में खोयी घर लौट आती

बच्चे मां के हाथ में भोजन देख खुश होते

‘मां जल्दी से खाना दे दो

भूख से हमारे प्राण निकले जा रहे’

उधर सास-ससुर के चेहरे पर चमक आ जाती

पति भी उसकी ओर मुख़ातिब हो कहता

चलो! भगवान का शुक्र है!

वह सबकी सुनता है

उसके नेत्रों से अश्रुओं का सैलाब

आक्रोश के रूप में फूट निकलता

वह चाहते हुए भी हक़ीक़त बयान नहीं पाती

कि वे पैसे उसे अपनी अस्मत का सौदा

करने की एवज़ में प्राप्त हुए हैं

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 136 ☆ आँखवाला ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 136 ☆ आँखवाला ?

लगभग डेढ़ दशक पहले की घटना है। उन दिनों केबल पर नये आरम्भ हुए एक समाचार चैनल के लिए सलाहकार संपादक की भूमिका का निर्वहन कर रहा था। दिन भर में तीन या शायद चार बार समाचार दिखाये जाते थे। चैनल प्रायोगिक चरण में था। तकनीकी सुविधाएँ भी न के बराबर थीं। चैनल का कैमरामैन इस प्रभाग विशेष की कुछ घटनाओं के विजुअल्स ले आता। शेष समाचारों के लिए स्टिल्स का आधार लेते। समाचार-वाचिका से हिन्दी का सही उच्चारण करवा पाना भी चुनौती थी। अलबत्ता असुविधाओं पर विश्वास और परिश्रम भारी पड़ रहे थे और गाड़ी चल रही थी।

एक दोपहर चैनल की गाड़ी से कार्यालय जाने के लिए निकला। कार्यालय का अधिकांश रास्ता राष्ट्रीय महामार्ग से होकर गुज़रता था। उन दिनों महामार्ग का चौड़ीकरण चल रहा था। सैकड़ों वर्ष पुराने बरगदों का संहार हो चुका था। मल्टीलेन होने चली सड़क डामर की गर्मी से 120 फीट के चौड़े पाट में मानो पिघल रही थी। अलग-अलग एजेंसियाँ अलग-अलग काम कर रही थीं। सड़क के दोनों ओर निर्माण सामग्री के ढेर पड़े थे।

इन सबके बीच ट्रैफिक का आलम नौ दिन चले अढ़ाई कोस था‌। हमारी गाड़ी तो ऐसी फँसी थी कि नौ दिन में नौ मीटर आगे खिसकने की संभावनाओं पर भी पहरा लगा हुआ था।

गाड़ी के थमे पहियों के बीच आँखें द्रुत गति से दृश्य का अवलोकन करने में जुट गईं। जहाँ तक देख पाता था, थमी गाड़ियों की कतारें थीं। गाड़ियों का ठहराव याने कदमों का बहाव याने पैदल चलने वालों के लिए सड़क पार करने का यह स्वर्णिम अवसर होता है। अब सड़क पर बेतहाशा भीड़ थी और हर कोई ट्रैफिक के ठहराव में जल्दी से जल्दी सड़क पार कर लेना चाहता था। विचार उठा कि ऐसी व्याकुलता यदि मनुष्य भवसागर पार करने में रखे, तदनुसार कर्म करे तो संसार क्या से क्या हो जाय !

देखता हूँ कि जहाँ हमारे गाड़ी रुकी पड़ी थी, उससे लगभग सौ मीटर दूर सड़क के दाहिने ओर एक दृष्टि दिव्यांग युगल खड़ा है। संभवत: सड़क पार कर दूसरी ओर जाना चाहता है। सोचा कि इस अफरातफरी में जब आँख वालों के लिए सड़क पार करना कठिन हो, इस जोड़े के लिए टेढ़ी खीर नहीं बल्कि लगभग सभी असंभव ही है।

तथापि मनुष्य का सोचा कब होता है, विधाता जब चाहे, सब होता है। दाहिनी ओर गली से निकल कर एक स्कूल वैन सड़क किनारे आकर रुकी। छठी या सातवीं में पढ़ने वाला एक बच्चा अपना बस्ता हाथ में थामे वैन से उतरा। उसने उस युगल को निहारा, अपने बस्ते को दोनों कंधों पर टांका। सीधे युगल के बीच पहुँचा, दोनों का एक-एक हाथ थामा और निकल पड़ा भीड़ में सड़क पार कराने। वासुदेव ने टोकरी में लिटाकर ज्यों कन्हैया को सुरक्षित रूप से यमुना पार कराई थी, कुछ वैसे ही यह बालक इस युगल को सड़क पार करा दूसरी ओर ले आया। आश्चर्य का चरम अभी शेष था। युगल को सड़क पार करा बालक पीछे घूमा और सड़क पार कर फिर दूसरी और आ गया। चित्र एकदम स्पष्ट था, बच्चा दाहिनी ओर ही रहता था। केवल युगल को पार करने के लिए बाईं ओर गया था। विडंबना थी कि आँख के कैमरे ने जो कुछ कैप्चर कर किया था, उसे चैनल पर दिखाने के लिए कोई डिजी कैमरा उस समय हमारे पास नहीं था। थोड़ा सा ट्रैफिक खुला, हमारी गाड़ी धीरे-धीरे सरकने लगी। मेरे मस्तिष्क में सांझ बुलेटिन का मुख्य समाचार इलेस्ट्रेशन और शीर्षक के साथ तैयार था। शीर्षक था, ‘आँख वाला।’

इस संस्मरण को साझा करने का संदर्भ भी स्पष्ट कर दूँ। वस्तुत: समाज में जो दिखता है, जो घटता है उसे दिखाने का माध्यम भर है ‘संजय उवाच।’ दृश्य देखने के बाद व्यक्ति या समाज, उस बालक की तरह क्रिया कर सके तो अत्युत्तम। चिंतन से वाया चेतना, क्रियाशीलता ही उवाच का लक्ष्य है।

विशेष उल्लेखनीय यह कि साप्ताहिक ‘संजय उवाच’ का यह शतकीय आलेख है। इस स्तम्भ के सौ आलेख पूरे होना नतमस्तक उपलब्धि है। इस उपलब्धि को ‘ई-अभिव्यक्ति’, ‘दक्षिण भारत राष्ट्रमत’, ‘दैनिक चेतना” के आदरणीय संपादकगण, प्रकाशन से जुड़ी पूरी टीम और अपने पाठकों के साथ साझा करते हुए हृदय से प्रसन्नता का अनुभव करता हूँ। आप सबका साथ, आप सबकी प्रतिक्रियाएँ, उवाच के लेखन में उत्प्रेरक का काम करती हैं। विनम्रता से विश्वास दिलाता हूँ, जब तक प्रेरणा बनी रहेगी, लेखनी चलती रहेगी।…अस्तु!

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #130 ☆ वक्त और उलझनें ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य”  के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख वक्त और उलझनें। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 130 ☆

☆ वक्त और उलझनें

‘वक्त भी कैसी पहेली दे गया/ उलझनें सौ और ज़िंदगी अकेली दे गया।’ रास्ते तो हर ओर होते हैं, परंतु यह आप पर निर्भर करता है कि आपको रास्ता पार करना है या इंतज़ार करना है, क्योंकि यह आपकी सोच पर निर्भर करता है। वैसे आजकल लोग समझते कम, समझाते अधिक हैं; तभी तो मामले सुलझते कम और उलझते अधिक हैं। जी हां! यही सत्य है ज़िंदगी का… ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ अर्थात् जीवन में सीख देने वाले, मार्गदर्शन करने वाले बहुत मिल जाएंगे, भले ही वे ख़ुद उन रास्तों से अनजान हों और उनके परिणामों से बेखबर हों। वैसे बावरा मन ख़ुद को बुद्धिमान व दूसरों को मूर्ख समझता है और हताशा-निराशा की स्थिति में उन पर विश्वास कर लेता है; जो स्वयं अज्ञानी हैं और अधर में लटके हैं।

स्वर्ग-नरक की सीमाएं निर्धारित नहीं है। परंतु हमारे विचार व कार्य-व्यवहार ही स्वर्ग-नरक का निर्माण करते हैं। यह कथन कोटिश: सत्य है कि   जैसी हमारी सोच होती है; वैसे हमारे विचार और कर्म होते हैं, जो हमारी सोच हमारे व्यवहार से परिलक्षित होते हैं; जिस पर निर्भर होती है हमारी ज़िंदगी; जिसका ताना-बाना भी हम स्वयं बुनते हैं। परंतु मनचाहा न होने पर दोषारोपण दूसरों पर करते हैं। यह मानव का स्वभाव है, क्योंकि वह सदैव यह सोचता है कि वह कभी ग़लती कर ही नहीं सकता; भले ही मानव को ग़लतियों का पुतला कहा गया है। इसलिए मानव को यह सीख दी जाती है कि यदि जीवन को समझना है, तो पहले मन को समझो, क्योंकि जीवन और कुछ नहीं, हमारी सोच का ही साकार रूप है। इसके साथ ही महात्मा बुद्ध की यह सीख भी विचारणीय है कि आवश्यकता से अधिक सोचना अप्रसन्नता व दु:ख का कारण है। इसलिए मानव को व्यर्थ चिंतन व अनर्गल प्रलाप से बचना चाहिए, क्योंकि दोनों स्थितियां हानिकारक हैं; जो मानव को पतन की ओर ले जाती हैं। इसलिए आवश्यकता है आत्मविश्वास की, क्योंकि असंभव इस दुनिया में कुछ है ही नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और जो हमने आज तक सोचा ही नहीं। इसलिए लक्ष्य निर्धारित कीजिए; अपनी सोच ऊंची रखिए और आप सब कुछ कर गुज़रेंगे, जो कल्पनातीत था। जीवन में कोई रास्ता इतना लम्बा नहीं होता, जब आपकी संगति अच्छी हो अर्थात् हम गलियों से होकर ही सही रास्ते पर आते हैं। सो! मानव को कभी निराश नहीं होना चाहिए। ‘नर हो, न निराश करो मन को’ का संबंध है निरंतर गतिशीलता से है; थक-हार कर बीच राह से लौटने व पराजय स्वीकारने से नहीं, क्योंकि लौटने में जितना समय लगता है; उससे कम समय में आप अपनी मंज़िल तक पहुंच सकते हैं। सही रास्ते पर पहुंचने के लिए हमें असंख्य बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जो केवल संघर्ष द्वारा संभव है।

संघर्ष प्रकृति का आमंत्रण है; जो स्वीकारता है, आगे बढ़ता है। संघर्ष जीवन-प्रदाता है अर्थात् द्वन्द्व अथवा दो वस्तुओं के संघर्ष से तीसरी वस्तु का जन्म होता है; यही डार्विन का विकासवाद है। संसार में ‘शक्तिशाली विजयी भव’ अर्थात्  जीवन में वही सफलता प्राप्त कर सकता है, जो अपने हृदय में शंका अथवा पराजय के भाव को नहीं आने देता। इसलिए मन में कभी पराजय भाव को मत आने दो… यही प्रकृति का नियम है। रात के पश्चात् भोर होने पर सूर्य अपने तेज को कम नहीं होने देता; पूर्ण ऊर्जा से सृष्टि को रोशन करता है। इसलिए मानव को भी निराशा के पलों में अपने साहस व उत्साह को कम नहीं होने देना चाहिए, बल्कि धैर्य का दामन थामे पुन: प्रयास करना चाहिए; जब तक आप निश्चित् लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते। मानव में असंख्य संभावनाएं निहित हैं। आवश्यकता है, अपने अंतर्मन में निहित शक्तियों को पहचानने व संचित करने की। सो! निष्काम कर्म करते रहिए, मंज़िल बढ़कर आपका स्वागत-अभिवादन अवश्य करेगी।

वक्त पर ही छोड़ देने चाहिए, कुछ उलझनों के हल/ बेशक जवाब देर से मिलेंगे/ मगर लाजवाब मिलेंगे। वक्त सबसे बड़ा वैद्य है। समय के साथ गहरे से गहरे घाव भी भर जाते हैं। इसलिए मानव को संकट की घड़ी में हैरान-परेशान न होकर, समाधान हेतु सब कुछ सृष्टि-नियंंता पर छोड़ देना चाहिए, क्योंकि परमात्मा के घर देर है, अंधेर नहीं। उसकी अदालत में निर्णय देरी से तो हो सकते हैं, परंतु उलझनों के हल लाजवाब मिलते हैं, परमात्मा वही करता है, जिसमें हमारा हित होता है। ‘ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय/ कभी यह हंसाए, कभी यह रुलाए।’ इसे न तो कोई समझा है, न ही जान पाया है। इसलिए यह समझना आवश्यक है कि इंसान खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ जाना है। आप इस प्रकार जिएं कि आपको मर जाना है और इस प्रकार की सीखें कि आपको सदा जीवित रहना है। यही मर्म है जीवन का…मानव जीवन पानी के बुलबुले की भांति क्षण-भंगुर है, जो ‘देखते ही छिप जाएगा, जैसे तारे प्रभात काल में अस्त हो जाते हैं। इसलिए आप ऐसे मरें कि लोग आपको मरने के पश्चात् भी याद रखें। वैसे ‘Actions speak louder than words.’कर्म शब्दों से ऊंची आवाज़ में अपना परिचय देते हैं। सो! आप श्रेष्ठ कर्म करें कि लोग आपके मुरीद हो जाएं तथा आपका अनुकरण-अनुसरण करें।

श्रेठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। आप अपने संस्कारों से जाने जाते हैं और व्यवहार से श्रेष्ठ माने जाते हैं। अपनी सोच अच्छी व सकारात्मक रखें, क्योंकि नज़र का इलाज तो संभव है; नज़रिए का नहीं। सो! मानव का दृष्टिकोण व नज़रिया बदलना संभव नहीं है। शायद! इसलिए कहा जाता है कि मानव की आदतें जीते जी नहीं बदलती, चिता की अग्नि में जलने के पश्चात् ही बदल सकती हैं। इसलिए उम्मीद सदैव अपने से कीजिए; दूसरों से नहीं, क्योंकि इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो दूसरों से की जाती हैं। इसलिए मुसीबत के समय इधर-उधर नहीं झांकें; आत्मविश्वास प्यार व धैर्य बनाए रखें; मंज़िल आपका बाहें फैलाकर अभिनंदन करेगी। जीवन में ऐसे लोगों की संगति कीजिए, जो बिना स्वार्थ व उम्मीद के आपके लिए मंगल-कामना करते हैं। वास्तव में उन्हें आपकी परवाह होती है और वे आपका हृदय से सम्मान करते हैं।

सो! जिसके साथ बात करने से खुशी दोगुनी व दु:ख आधा हो जाए, वही अपना है। ऐसे लोगों को जीवन में स्थान दीजिए, इससे आपका मान-सम्मान बढ़ेगा और दु:खों के भंवर से मुक्ति पाने में भी आप समर्थ होंगे। यदि सपने सच नहीं हो रहे हैं, तो रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं, क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं; जड़ें नहीं। सो! अपना निश्चय दृढ़ रखो और अन्य विकल्प की ओर ध्यान दो। यदि मित्र आपको पथ-विचलित कर रहे हैं, तो उन्हें त्याग दीजिए, अन्यथा वे दीमक की भांति आप की जड़ों को खोखला कर देंगे और आपका जीवन तहस-नहस हो जाएगा। सो! ऐसे लोगों से मित्रता बनाए रखें, जो दूसरों की खुशी में अपनी खुशी देखने का हुनर जानते हैं। वे न कभी दु:खी होते हैं; न ही दूसरे को संकट में डाल कर सुक़ून पाते हैं। निर्णय लेने से पहले शांत मन से चिंतन-मनन कीजिए, क्योंकि आपकी आत्मा जानती है कि आपके लिए क्या उचित व श्रेयस्कर है। सो! उसकी बात मानिए तथा स्वयं को ज़रूरत से ज़्यादा व्यस्त रखिए। इस स्थिति में आप मानसिक तनाव से मुक्त रहेंगे। व्यर्थ का कचरा अपने मनोमस्तिष्क में मत भरिए, क्योंकि वह अवसाद का कारण होता है।

दुनिया का सबसे कठिन कार्य होता है–स्वयं को पढ़ना, परंतु प्रयास कीजिए। अच्छी किताबें व अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते; उन्हें समझना सुगम नहीं, अत्यंत दुष्कर होता है। इसके लिए आपको एक लम्बी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है। इसलिए कहा जाता है ‘बुरी संगति से अकेला भला।’ दूसरी ओर यह भी द्रष्टव्य है कि पुस्तकें इंसान की सबसे अच्छे मित्र होती हैं; कभी ग़लत राह नहीं दर्शाती। ख्याल रखने वालों को ढूंढना पड़ता है; इस्तेमाल करने वाले तो ख़ुद ही आपको ढूंढ लेते हैं। दुनिया एक रंगमंच है, जहां सभी अपना-अपना क़िरदार अदा कर चले जाते हैं। शेक्सपीयर की यह उक्ति ध्यातव्य है कि इस संसार में हर व्यक्ति विश्वास योग्य नहीं होता। इसलिए उन्हें ढूंढिए, जो मुखौटाधारी नहीं हैं, क्योंकि समयानुसार दूसरों का शोषण करने वाले, लाभ उठाने वाले अथवा इस्तेमाल करने वाले तो आपको तलाश ही लेंगे… उनसे दूरी बनाए रखें; उनसे सावधान रहें तथा ऐसे दोस्त तलाशें…धोखा देना जिनकी फ़ितरत न हो।

अकेलापन संसार में सबसे बड़ी सज़ा है और एकांत सबसे बड़ा वरदान। एकांत की प्राप्ति तो मानव को सौभाग्य से प्राप्त होती है, क्योंकि लोग अकेलेपन को जीवन का श्राप समझते हैं, जबकि वह तो एक वरदान है। अकेलेपन में मानव की स्थिति विकृत होती है। वह तो चिन्ता व मानसिक तनाव में रहता है। परंतु एकांत में मानव अलौकिक आनंद में विचरण करता रहता है। उस स्थिति को प्राप्त करने के निमित्त वर्षों की साधना अपेक्षित है। अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, जो मानव को सबसे अलग-अलग कर देता है और वह तनाव की स्थिति में पहुंच जाता है। इसके लिए दोषी वह स्वयं होता है, क्योंकि वह ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ ही नहीं, सर्वोत्तम  समझता है और दूसरों के अस्तित्व को नकारना उसका स्वभाव बन जाता है। ‘ घमंड मत कर दोस्त/  सुना ही होगा/ अंगारे भी राख बढ़ाते हैं।’ मानव मिट्टी से जन्मा है और मिट्टी में ही उसे मिल जाना है। अहं दहकते अंगारों की भांति है, जो मानव को उसके व्यवहार के कारण अर्श से फ़र्श पर ले आता है, क्योंकि अंत में उसे भी राख ही हो जाना है। सृष्टि के हर जीव व उपादान का मूल मिट्टी है और अंत भी वही है अर्थात् जो मिला है, उसे यहीं पर छोड़ जाना है। इसलिए ज़िंदगी को सुहाना सफ़र जान कर हरपल को जीएं; उत्सव-सम मनाएं। इसे दु:खों का सागर मत स्वीकारें, क्योंकि वक्त निरंतर परिवर्तनशील है अर्थात् कल क्या हो, किसने जाना। सो कल की चिन्ता में आज को खराब मत करें। कल कभी आयेगा नहीं और आज कभी जायेगा नहीं अर्थात् भविष्य की ख़ातिर वर्तमान को नष्ट मत करें। सो! आज का सम्मान करें; उसे सुखद बनाएं…शांत भाव से समस्याओं का समाधान करें। समय, विश्वास व सम्मान वे पक्षी हैं, जो उड़ जाएं, तो लौट कर नहीं आते। सो! वर्तमान का अभिनंदन-अभिवादन कीजिए, ताकि ज़िंदगी भरपूर खुशी व आनंद से गुज़र सके।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 154 ☆ व्यंग्य – सेवा का मेवा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय  व्यंग्य सेवा का मेवा

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 154 ☆

? व्यंग्य – सेवा का मेवा ?

प्रभु मेरा अच्छा मित्र था. पढ़ने लिखने में ज्यादा होशियार न था पर था प्रतिभाशाली. कालेज के हर आयोजन में वह हिस्सेदारी करता था. भाषण प्रतियोगिता हो. या कालेज का कोई सेवा प्रकल्प हो. बाढ़ पीड़ितो की लिये मदद के लिये कालेज के युवाओ की  टोली बनाकर चंदा जुटाना हो. ठंड में वृद्धाश्रम के लिये ऊनी वस्त्र, कम्बल इत्यादि खरीदने से लेकर बांटने तक वह  मित्रो की टोली के साथ सदैव आगे रहता था. उसकी इस नेतृत्व क्षमता के चलते मोहल्ले के चौराहे पर  गणेशोत्सव. दुर्गोत्सव. होली के सार्वजनिक आयोजनो में धीरे धीरे स्वतः ही उसका वर्चस्व बनता गया. प्रभु जहां भी. जिस किसी आयोजन के लिये अपने दल बल के साथ. छपी हुई रसीद बुक के साथ चंदा लेने निकलता. वह आशा से अधिक ही धन एकत्रित कर लाता. चंदा देने वालो को कार्यक्रम में पधारने का निमंत्रण. आयोजन के बाद उन तक प्रसाद पहुंचाना. कार्यक्रम में चंदा देने वालो के परिवार से किसी सदस्य के आने पर उन्हें विशिष्ट महत्व देने की कला के चलते लोग उससे प्रसन्न रहते. अखबारो में कार्यक्रम की रिपोर्टिंग में भी दान दाताओ का नाम प्रमुखता से छपवा कर वह दान दाताओ का किंचित आभार व्यक्त करना न भूलता था. उसकी लोगों से संबंध बनाने की योग्यता असाधारण थी.कार्यक्रम के बाद बचे हुये चंदे से पार्टी करने से उसे जरा भी गुरेज न था. ऐसी पार्टियो में वह  मित्रों को भी बुलाया ही करता था. वह कहता यह सेवा की मेवा है. पढ़ने में वह एवरेज ही रहा होगा पर परीक्षा में येन केन प्रकारेण उसे ठीक ठाक नम्बर मिल ही जाते थे.

समय पंख लगाकर उड़ता गया. कालेज की शिक्षा पूरी कर सब अपनी अपनी जिंदगी की दौड़ में भाग लिये. किसी को कहीं नौकरी मिल गई तो किसी को कहीं. मित्रों के विवाह हो गये. जब तब दीपावली आदि त्यौहारो की छुट्टियों में मित्र कभी शहर लौटते तो जो पुराने साथी मिलते उनसे बाकी सबके हाल चाल पता होते. ऐसे ही कभी पता चला कि प्रभु की कहीं भी नौकरी नही लग सकी थी पर वह  शहर  छोड़कर जो गया तो कभी वापस ही नही लौटा. न ही किसी को कभी उसके विषय में कोई जानकारी मिल सकी कि वह कहां है क्या कर रहा है ?

समय की द्रुत गति हमें पछाड़ती रही. पुराने साथियो के मिलने पर किसकी कहां नौकरी लगी. कब कहां शादी हुई से  बदलती हुई बातो की विषय वस्तु किसके बच्चे कहां क्या कर रहे हैं ?  कौन, कब रिटायर होकर कहां बस रहा है तक आ पहुंची. फेसबुक से कई बिछुड़े साथियो को ढ़ूंढ़ निकाला गया. कालेज मेट्स के व्हाट्स अप ग्रुप बन गये.

सेवानिवृति के बाद टी वी देखने के चैनल्स बदल गये थे. फिल्मो की जगह अधिक समय आस्था और संस्कार चैनल्स के प्रवचनो में गुजरने लगा था. सेवा निवृति से एक साथ बड़ी राशि मिली. बच्चो की जबाबदारियां पूरी हो चुकी थीं. तो पत्नी ने सुझाया क्यो न कुछ पूंजी किसी सेवाश्रम को दान दी जाये. बात अच्छी लगी. टीवी पर दिखाये जा रहे प्रभुसेवा धाम का नाम. पता. बैंक खाता नम्बर नोट किया. दान राशि बैंक में जमा कर संतोष अनुभव किया. तीसरे ही दिन डाक से रसीद आ गई. साथ ही संस्थान की पत्रिका प्रभु कृपा और मिश्री के प्रसादम का पेकेट और कभी संस्थान का सेवाश्रम भ्रमण करने का प्रस्ताव भी था. मैं प्रभावित हुआ. फिर तो आये दिन किसी मधुर कण्ठी युवती का फोन आने लगा जो किसी न किसी प्रयोजन से और चंदा भेजने का आग्रह करती.

संयोगवश एक बार एक विवाह आयोजन के सिलसिले में उस महानगर जाना हुआ जहां प्रभुसेवा धाम था. सोचा चलो देख ही आयें. कि हमारे दान का किस तरह सदुपयोग हो रहा है. हमने मात्र एक फोन किया और  संस्थान की गाड़ी  बताये हुये समय पर हमें लेने हमारे होटल आ गई. एक सेवा दात्री युवा लड़की ने कार का दरवाजा खोल हमें बैठाया और सेवा गतिविधियो की जानकारी देती हुई हमें संस्थान तक ले आई. फिर एक अन्य सेविका हमें सेवाधाम में भर्ती मरीजो से मिलवाती हुई गुरु जी के केंद्रीय आश्रम ले आई. हम सपत्नीक प्रभावित थे और गुरूजी से मिलने के इंतजार में पंक्ति बद्ध थे.हमारानम्बर आया तो प्रभु श्री से हमारा साक्षात्कार हुआ. अरे तुम ! प्रभु श्री ने कहा. प्रभुश्री मेरे गले लग गये. उनके आस पास के सेवादार चौंके. मैं हतप्रभ हुआ. यह तो  वही कालेज वाला प्रभु है !

प्रभु मुझे अपने आवास पर ले गया जिसे वह कुटिया कह रहा था. उसने बताया कि जब कालेज से निकलने पर उसे नौकरी नही मिल सकी तो वह यहां राजधानी चला आया. और यह सेवा प्रकल्प प्रारंभ किया.सरकारी अनुदान योजनाओ का लाभ मिला और एक नेता जी व एक सेठ जी के सहयोग से इस जमीन पर यह आश्रम खड़ा किया. टैक्स की छूट के लिये बड़े लोग व कार्पोरेट जगत खूब दान देते हैं.  उस राशि को सुनियोजित तरीके सदुपयोग करके सेवा भी करता हूं और उसी में मेवा भी खाता हूं. एक ही बेटी है जिसकी शादी कर दी है और उसके लिये भी केटरेक्ट के हर आपरेशन पर शासकीय अनुदान  की योजना का लाभ उठाते हुये नैना सेवा चिकित्सालय खोल दिया है. ये संस्थान अनेको युवाओ को रोजगार दे रहे हैं. जन सेवा कर रहे हैं और लोगो की परमार्थ के लिये दान देने की भावना का उपयोग करते हुये शासकीय स्वास्थ्य योजनाओ में भी सहयोग कर रहे हैं. प्रभु से बिदा लेते हुये मेरे मुंह में उसकी सेवा की मेवा की मिश्री का प्रसादम था और मैं कुछ बोलने की स्थिति में नही था.   

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ताकि स्मरण रहे- ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि –  ताकि स्मरण रहे-  ??

सृजन तुम्हारा नहीं होता। दूसरे का सृजन परोसते हो। किसीका रचा फॉरवर्ड करते हो और फिर अपने लिए ‘लाइक्स’ की प्रतीक्षा करते हो। सुबह, दोपहर, शाम अनवरत प्रतीक्षा ‘लाइक्स’ की।

सुबह, दोपहर, शाम अनवरत, आजीवन तुम्हारे लिए विविध प्रकार का भोजन, कई तरह के व्यंजन बनाती हैं माँ, बहन या पत्नी। सृजन भी उनका, परिश्रम भी उनका। कभी ‘लाइक’ देते हो उन्हें, कहते हो कभी धन्यवाद?

जैसे तुम्हें ‘लाइक’ अच्छा लगता है, उन्हें भी अच्छा लगता है।

….याद रहेगा न?

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 153 ☆ आलेख – सुख क्या है? ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय  आलेख  सुख क्या है?

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 153 ☆

? आलेख  – सुख क्या है? ?

हम सब सदैव सुख प्राप्ति का प्रयत्न करते रहते हैं। सभी चाहते हैं कि उन्हें सदा सुख ही मिले, कभी दु:खों का सामना न करना पड़े,हमारी समस्त अभिलाषायें पूर्ण होती रहें, परन्तु ऐसा होता नहीं। अपने आप को पूर्णत: सुखी कदाचित् ही कोई अनुभव करता हो।

जिनके पास पर्याप्त धन-साधन, श्रेय-सम्मान सब कुछ है, वे भी अपने दु:खों का रोना रोते देखे जाते हैं। आखिर ऐसा क्यों है ? क्या कारण है कि मनुष्य चाहता तो सुख है; किन्तु मिलता उसे दु:ख है। सुख-संतोष के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहते हुए हमें अनेकानेक दु:खो एवं अभावों का सामना करना पड़ता है। आज की वैज्ञानिक समुन्नति से, पहले की अपेक्षा कई गुना सुख के साधनों में बढ़ोत्तरी होने के उपरान्त भी स्थायी सुख क्यों नहीं मिल सका ? जहाँ साधन विकसित हुए वहीं उनसे ज्यादा जटिल समस्याओं का प्रादुर्भाव भी हुआ। मनुष्य शान्ति-संतोष की कमी अनुभव करते हुए चिन्ताग्रस्त एवं दु:खी ही बना रहा। यही कारण है कि मानव जीवन में प्रसन्नता का सतत अभाव होता जा रहा है।

इन समस्त दु:खों एवं अभावों से मनुष्य किस प्रकार मुक्ति पा सकता है, प्राचीन ऋषियों-मनीषियों एवं भारतीय तत्त्वदर्शी महापुरुषों ने इसके लिए कई प्रकार के मार्गों का कथन किया है, जो प्रत्यक्ष रूप से भले ही प्रतिकूल व पृथक् प्रतीत होते हों; परन्तु सबका- अपना-अपना सच्चा दृष्टिकोण है। एक मार्ग वह है जो आत्मस्वरूप के ज्ञान के साथ-साथ भौतिक जगत् के समस्त पदार्थों के प्रति आत्मबुद्धि का भाव रखते हुए पारलौकिक साधनों का उपदेश देता है। दूसरा मार्ग वह है जो जीवमात्र को ईश्वर का अंश बतलाकर, जीवन में सेवा व भक्तिभाव के समावेश से लाभान्वित होकर आत्मलाभ की बात बतलाता है। तीसरा मार्ग वह है जो सांसारिक पदार्थों एवं लौकिक घटनाक्रमों के प्रति सात्विकता पूर्ण दृष्टि रखते हुए, उनके प्रति असक्ति न होने को श्रेयस्कर बताता है। अनेक तरह के मतानुयायियों ने अपने अपने विचार से ईश्वर का स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार का बतलाया है, जिसके कारण मनुष्य भ्रम में पड़ जाता है।

जीवन जीना एक कला है। जी हां, जीवन का सही अर्थ समझना, उसको सही अर्थों में जीना, जीवन में सार्थक काम करना ही जीवन जीने की कला है। जीने के लिए तो कीट पतंगे, पशु-पक्षी भी जीवन जीते हैं, किंतु क्या उनका जीवन सार्थक होता है ? मनुष्य के जीवन में और अन्य प्राणियों के जीवन में यही अंतर हैं। इसलिए कहा गया है कि जीवन जीना एक कला है। हम अपने जीवन को कैसे सजाते-संवारते हैं, कैसे अपने उद्देश्य और लक्ष्य निर्धारित करते हैं, हमारे काम करने का तरीका क्या है, हमारी सोच कैसी है, समय के प्रति हम कितने सचेत हैं, ये सभी बातें जीवन जीने की कला के अंग हैं। ये सभी बातें हमारे जीवन को कलात्मक रूप देकर उसे संवार सकती हैं और उन पर ध्यान न देने से वे उसे बिगाड़ भी सकती हैं।

जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण यदि स्पष्ट नहीं है तो हमने जीवन को जिया ही नहीं। आम व्यक्ति जीवन को सुख से जीना ही ‘जीवन जीना’ मानता है। अच्छी पढ़ाई के अवसर मिले, अच्छी नौकरी मिले, सुंदर पत्नी हो, रहने को अच्छा मकान हो, सुख-सुविधाएं हों, बस और क्या चाहिए जीवन में ? पर होता यह है कि सबको सब कुछ नहीं मिलता। चाहने से कभी कुछ नहीं मिलता। कुछ पाने के लिए मेहनत और संघर्ष करना जरूरी होता हैं और लोग वही नहीं करना चाहते। बस पाना चाहते है-किसी शॉर्टकट से और जब नहीं मिलता तो जीवन को कोसते हैं-अरे क्या जिंदगीं हैं ? बस किसी तरह जी रहे हैं-जो पल गुजर जाए वही अच्छी हैं। ‘सच मानिये आम आदमी आपसे यही कहेगा, क्योंकि उसने जीवन का अर्थ समझा ही नहीं। बड़ी मुश्किल से ही कोई मिलेगा, जो यह कहे कि ‘मैं बड़े मजे से हूँ। ईश्वर की कृपा है। जीवन में जो चाहता हूं-अपनी मेहनत से पा लेता हूँ। संघर्षों से तो मैं घबराता ही नहीं हूँ।’ और ऐसे ही व्यक्ति जीवन में सफल होते हैं। किसी ने ठीक कहा है, ‘संघर्षशील व्यक्ति के लिए जीवन एक कभी न समाप्त होने वाले समारोह या उत्सव के समान है।’

मनुष्य जीवन कर्म करने और मोक्ष की तरफ कदम बढ़ाने के लिए है। कदम उत्साहवर्धक होने चाहिए, अपने जीवन के प्रति रुचि होनी चाहिए। जीवन में कष्ट किसे नहीं भोगना पड़ता। आनंद तो इन कष्टों पर विजय पाने में हैं। कोई कष्ट स्थायी नहीं होता। वह केवल डराता है। हमारी सहनशीलता और धैर्य की परीक्षा लेता है। अच्छा जीवन, ज्ञान और भावनाओं तथा बुद्धि और सुख दोनों का सम्मिश्रण होता है। इसका अर्थ है कि जहां हमें अच्छा ज्ञान अर्जित करना चाहिए, वहीं हमारे विचार और भावनाएं भी शुद्ध और निर्मल हों। तब हमारी बुद्धि भी हमारा साथ देगी और हमें सच्चा सुख मिलेगा।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 135 ☆ जाग्रत देवता ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 135 ☆ जाग्रत देवता ?

सनातन संस्कृति में किसी भी मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के बाद ही मूर्ति जाग्रत मानी जाती है। इसी अनुक्रम में मुद्रित शब्दों को विशेष महत्व देते हुए सनातन दर्शन ने पुस्तकों को जाग्रत देवता की उपमा दी है।

पुस्तक पढ़ी ना जाए, केवल सजी रहे तो निर्रथक हो जाती है। पुस्तकों में बंद विद्या और दूसरों के हाथ गये धन को समान रूप से निरुपयोगी माना गया है। पुस्तक जाग्रत तभी होगी जब उसे पढ़ा जाएगा। पुस्तक के संरक्षण को लेकर हमारी संस्कृति का उद्घोष है-

तैलाद्रक्षेत् जलाद्रक्षेत् रक्षेत् शिथिलबंधनात।
मूर्खहस्ते न दातव्यमेवं वदति पुस्तकम्।।

पुस्तक की गुहार है, ‘तेल से मेरी रक्षा करो, जल से मेरी रक्षा करो, मेरे बंधन (बाइंडिंग) शिथिल मत होने दो। मुझे मूर्ख के हाथ मत पड़ने दो।’

संदेश स्पष्ट है, पुस्तक संरक्षण के योग्य है। पुस्तक को बाँचना, गुनना, चिंतन करना, चैतन्य उत्पन्न करता है। यही कारण है कि हमारे पूर्वज पुस्तकों को लेकर सदा जागरूक रहे। नालंदा विश्वविद्यालय का पुस्तकालय इसका अनुपम उदाहरण रहा। पुस्तकों को जाग्रत देवता में बदलने के लिए पूर्वजों ने ग्रंथों के पारायण की परंपरा आरंभ की। कालांतर में पराधीनता के चलते समुदाय में हीनभावना घर करती गई। यही कारण है कि पठनीयता के संकट पर चर्चा करते हुए आधुनिक समाज धार्मिक पुस्तकों का पारायण करने वाले पाठक को गौण कर देता है। कहा जाता है, जब पग-पग पर होटलें हों किंतु ढूँढ़े से भी पुस्तकालय न मिले तो पेट फैलने लगता है और मस्तिष्क सिकुड़ने लगता है। वस्तुस्थिति यह है कि भारत के घर-घर में धार्मिक पुस्तकों का पारायण करने वाले जनसामान्य ने इस कहावत को धरातल पर उतरने नहीं दिया।

पुस्तकों के महत्व पर भाष्य करते हुए अमेरिकी इतिहासकार बारबरा तुचमैन ने लिखा,’पुस्तकों के बिना इतिहास मौन है, साहित्य गूंगा है, विज्ञान अपंग है, विचार स्थिर है।’ बारबारा ने पुस्तक को समय के समुद्र में खड़ा दीपस्तम्भ भी कहा। समय साक्षी है कि पुस्तकरूपी दीपस्तंभ ने जाने कितने सामान्य जनो को महापुरुषों में बदल दिया। सफ़दर हाशमी के शब्दों में,

किताबें कुछ कहना चाहती हैं,

किताबें तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।

पुस्तकों के संग्रह में रुचि जगाएँ, पुस्तकों के अध्ययन का स्वभाव बनाएँ। अभिनेत्री एमिला क्लार्क के शब्दों में, ‘नेवर ऑरग्यू विथ समवन हूज़ टीवी इज़ बिगर देन देअर बुकशेल्फ।’ छोटे-से बुकशेल्फ और बड़े-से स्क्रिन वाले विशेषज्ञों की टीवी पर दैनिक बहस के इस दौर में अपनी एक कविता स्मरण हो आती है,

केवल देह नहीं होता मनुष्य,

केवल शब्द नहीं होती कविता,

असार में निहित होता है सार,

शब्दों के पार होता है एक संसार,

सार को जानने का

साधन मात्र होती है देह,

उस संसार तक पहुँचने का

संसाधन भर होते हैं शब्द,

सार को, सहेजे रखना मित्रो!

अपार तक पहुँचते रहना मित्रो!

मुद्रित शब्दों का ब्रह्मांड होती हैं पुस्तकें। असार से सार और शब्दों के पार का संसार समझने का गवाक्ष होती हैं पुस्तकें। शब्दों से जुड़े रहने एवं पुस्तकें पढ़ते रहने का संकल्प लेना, कल सम्पन्न हुए विश्व पुस्तक दिवस की प्रयोजनीयता को सार्थक करेगा।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी  ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #129 ☆ दोस्ती और क़ामयाबी ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य”  के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख दोस्ती और क़ामयाबी। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 129 ☆

☆ दोस्ती और क़ामयाबी

‘क़ामयाब होने के लिए अच्छे मित्रों की आवश्यकता होती है और अधिक क़ामयाब होने के लिए शत्रुओं की’ चाणक्य की इस उक्ति में विरोधाभास निहित है। अच्छे दोस्तों पर आप स्वयं से अधिक विश्वास कर सकते हैं। वे विषम परिस्थितियों में आपकी अनुपस्थिति में भी आपके पक्षधर बन कर खड़े रहते हैं और आपके सबसे बड़े हितैषी होते हैं। सो! क़ामयाब होने के लिए उनकी दरक़ार है। परंतु यदि आप अधिक क़ामयाब होना चाहते हैं, तो आपको शत्रुओं की आवश्यकता होगी, क्योंकि वे आपके शुभचिंतक होते हैं और आपकी ग़लतियों व दोषों से आपको अवगत कराते हैं; दोष-दर्शन कराने में वे अपना बहुमूल्य समय नष्ट करते हैं। इसलिए आप उनके योगदान को कैसे नकार सकते हैं। कबीरदास जी ने भी ‘निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छुआए/ बिन साबुन, पानी बिनु, निर्मल करै सुभाय’ के माध्यम से निंदक को अपने आंगन अथवा निकट रखने का संदेश दिया है, क्योंकि वह नि:स्वार्थ भाव से आपका स्वयं से साक्षात्कार कराता है; आत्मावलोकन करने को विवश करता है। वास्तव में अधिक शत्रुओं का होना क़ामयाबी की सीढ़ी है। दूसरी ओर यह तथ्य भी ध्यातव्य है कि जिसने जीवन में सबसे अधिक समझौते किए होते हैं; उसके जीवन में कम से कम शत्रु होंगे। अक्सर झगड़े तो तुरंत प्रतिक्रिया देने के कारण होते हैं। इसलिए कहा जाता है कि जीवन में मतभेद भले ही हों; मनभेद नहीं, क्योंकि मनभेद होने से समझौते के अवसर समाप्त हो जाते हैं। इसलिए संवाद करें; विवाद नहीं, क्योंकि विवाद बेसिर-पैर का होता है। उसका संबंध मस्तिष्क से होता है और उसका कोई अंत नहीं होता। संवाद से सबसे बड़ी समस्या का समाधान भी निकल आता है और उसे संबंधों की जीवन-रेखा कहा जाता है।

सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव अपनी भावनाएं दूसरों से सांझा करना चाहता है, क्योंकि वह विचार-विनिमय में विश्वास रखता है। परंतु आधुनिक युग में परिस्थितियां पूर्णत: विपरीत हैं। संयुक्त परिवार व्यवस्था के स्थान पर एकल परिवार व्यवस्था काबिज़ है और पति- पत्नी व बच्चे सब अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं। संबंध-सरोकार समाप्त होने के कारण वे एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हैं। सिंगल- पेरेन्ट का प्रचलन भी बढ़ता जा रहा है। दोनों के अहं टकराते हैं और झुकने को कोई भी तैयार नहीं होता। सो! ज़िंदगी ठहर जाती है और नरक से भी बदतर हो जाती है। सभी सुंदर वस्तुएं हृदय से आती है और बुरी वस्तुएं मस्तिष्क से आती हैं और आप पर आधिपत्य स्थापित करती हैं। इसलिए मस्तिष्क को हृदय पर हावी न होने की सीख दी गई है। इसी संदर्भ में मानव को विनम्रता की सीख दी गयी है। ‘अदब सीखना है, तो कलम से सीखो; जब भी चलती है, झुक कर चलती है।’ इसलिए महापुरुष सदैव विनम्र होते हैं और स्नेह व सौहार्द के पक्षधर होते हैं।

भरोसा हो तो चुप्पी भी समझ में आती है अन्यथा शब्दों के ग़लत व अनेक अर्थ भी निकलते हैं। इसलिए मौन को संजीवनी व नवनिधि कहा गया है। इससे सभी समस्याओं का समाधान स्वतः निकल आता है। मानव को रिश्तों की अहमियत स्वीकारते हुए सबको अपना हितैषी मानना चाहिए, क्योंकि वे रिश्ते बहुत प्यारे होते हैं, जिनमें ‘न हक़, न शक़, न अपना-पराया/ दूर-पास, जात-जज़बात हो/ सिर्फ़ अपनेपन का एहसास ही एहसास हो।’ वैसे जब तक मानव को अपनी कमज़ोरी का पता नहीं लग जाता; तब तक उसे अपनी सबसे बड़ी ताकत के बारे में भी पता नहीं चलता। यहां चाणक्य की युक्ति अत्यंत कारग़र सिद्ध होती है कि अधिक क़ामयाब होने के लिए शत्रुओं की आवश्यकता होती है। वास्तव में वे आपके अंतर्मन में संचित शक्तियों का आभास से दिलाते हैं और आप दृढ़-प्रतिज्ञ होकर पूरे साहस से मैदान-ए-जंग में कूद पड़ते हैं।

मानव को कभी भी अपने हुनर पर अहंकार नहीं करना चाहिए, क्योंकि पत्थर भी जब पानी में गिरता है, तो अपने ही बोझ से डूब जाता है। ‘शब्दों में भी तापमान होता है; जहां वे सुक़ून देते हैं; जला भी डालते हैं।’ सो! यदि संबंध थोड़े समय के लिए रखने हैं, तो मीठे बन कर रहिए; लंबे समय तक निभाने हैं, तो स्पष्टवादी बनिए। वैसे संबंध तोड़ने तो नहीं चाहिए, लेकिन जहां सम्मान न हो; वहां जोड़ने भी नहीं चाहिए। इसलिए ज़िंदगी की तपिश को सहन कीजिए, क्योंकि अक्सर वे पौधे मुरझा जाते हैं, जिनकी परवरिश छाया में होती है। दर्द कितना खुशनसीब है, जिसे पाकर लोग अपनों को याद करते हैं और दौलत कितनी बदनसीब है, जिसे पाकर लोग अपनों को भूल जाते हैं। वास्तव में ‘ओस की बूंद-सा है/ ज़िंदगी का सफ़र/ कभी फूल में, कभी धूल में।’ परंतु ‘उम्र थका नहीं सकती/ ठोकरें उसे गिरा नहीं सकतीं/ अगर जीतने की ज़िद्द हो/ तो परिस्थितियां उसे हरा नहीं सकती’, क्योंकि शत्रु बाहर नहीं; हमारे भीतर हैं। हमें काम, क्रोध, लोभ, मोह व घृणा को बाहर निकाल फेंकना चाहिए और शांत भाव से जीना चाहिए। यह प्रामाणिक सत्य है कि जो व्यक्ति इनके अंकुश से बच निकलता है; अहं उसके निकट भी नहीं आ सकता। ‘अहंकार में तीनों गए/ धन, वैभव, वंश। यकीन न आए तो देख लो/ रावण, कौरव, कंस।’ जो दूसरों की सहायता करते हैं; उनकी गति जटायु और जो ज़ुल्म होते देखकर आंखें मूंद लेते हैं; उनकी गति भीष्म जैसी होती है।

‘उदाहरण देना बहुत आसान है और उसका अनुकरण करना बहुत कठिन है’ मदर टेरेसा की यह उक्ति बहुत सार्थक है। ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ अर्थात् दूसरों को उपदेश देना बहुत सरल है, परंतु उसे धारण करना अत्यंत दुष्कर। मुश्किलें जब भी जवाब देती हैं, हमारा धैर्य भी जवाब दे जाता है। ईश्वर सिर्फ़ मिलाने का काम करता है; संबंधों में दूरियां-नज़दीकियां बढ़ाने का काम तो मनुष्य करता है। जीवन में समस्याएं दो कारणों से आती हैं। प्रथम हम बिना सोचे-समझे कार्य करते हैं, दूसरे जब हम केवल सोचते हैं और कर्म नहीं करते। यह दोनों स्थितियां मानव के लिए घातक हैं। इसलिए ‘कभी फ़ुरसत में अपनी कमियों पर ग़ौर कीजिए/ दूसरों को आईना दिखाने की आदत छूट जाएगी।’ जीवन बहती नदी है। अत: हर परिस्थिति में आगे बढ़ें, क्योंकि जहां कोशिशों का अंत होता है; वहां नसीबोंं को भी झुकना पड़ता है। क़ामयाब होने के लिए रिश्तों का निर्वहन ज़रूरी है, क्योंकि रिश्ते अंदरूनी एहसास व आत्मीय अनुभूति के दम पर टिकते हैं। जहां गहरी आत्मीयता नहीं, वह रिश्ता रिश्ता नहीं; मात्र दिखावा हो सकता है। इसलिए कहा जाता है कि रिश्ते खून से नहीं; परिवार से नहीं; मित्रता व व्यवहार से नहीं; सिर्फ़ आत्मीय एहसास से वहन किए जा सकते हैं। यदि परिवार में विश्वास है, तो चिंताओं का अंत हो जाता है; अपने-पराए का भेद समाप्त हो जाता है। सो! ज़िंदगी में अच्छे लोगों की तलाश मत करो; ख़ुद अच्छे हो जाओ। शायद! किसी दूसरे की तलाश पूरी हो जाए। इंसान की पहचान तो चेहरे से होती है, परंतु संपूर्ण पहचान विचार व कर्मों से होती है। अतः में मैं यह कहना चाहूंगी कि दुनिया वह किताब है, जो कभी पढ़ी नहीं जा सकती, लेकिन ज़माना वह अध्याय है, जो सब कुछ सिखा देता है। ज़िंदगी जहां इम्तिहान लेती है, वहीं जीने की कला भी सिखा देती है। वेद पढ़ना आसान हो सकता है, परंतु जिस दिन आपको किसी की वेदना को पढ़ना आ गया; आप प्रभु को पा जाते हैं। वैसे भौतिक सुख- सम्पदा पाना बेमानी है। मानव की असली कामयाबी प्रभु का सान्निध्य प्राप्त करने में है, जिसके द्वारा मानव को कैवल्य अर्थात् अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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