हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 11- गुडी पडवा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 11 – गुडी पडवा ??

गुडी पडवा :

नववर्ष सदा नये संकल्पों को ऊर्जा प्रदान करने का दिन होता है। ग्रेगोरियन कैलेंडर की वैश्विक मान्यता के बाद भी हर सांस्कृतिक समुदाय में अपने नववर्ष का विशेष महत्व है। भारतीय नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को  मनाया जाता है। महाराष्ट्र और अनेक राज्यों में इसे गुड़ी पडवा के रूप में सम्बोधित सम्बोधित किया जाता है।

पडवा, प्रतिपदा का अपभ्रंश है जबकि गुडी ब्रह्मध्वज के लिए उपयोग किया जाता है। लंबे बाँस के एक छोर पर हरा या पीला जालीदार वस्त्र बांधा जाता है। इस पर नीम की पत्तियाँ, आम की डाली, चाशनी से बनी आकृतियाँ और लाल पुष्प बांधे जाते हैं। इन पर तांबे या चांदी का कलश रखा जाता है।  सूर्योदय की बेला में विधिवत पूजन कर इस ब्रह्मध्वज को घर के आगे स्थापित किया जाता है।

माना जाता है कि इस शुभ दिन वातावरण में विद्यमान प्रजापति तरंगें गुडी के माध्यम से घर में प्रवेश करती हैं। ये तरंगेें घर के वातावरण को पवित्र एवं सकारात्मक बनाती हैं।

आधुनिक समय में अलग-अलग सिग्नल्स प्राप्त करने के लिए एंटीना का इस्तेमाल करने वाला समाज इस संकल्पना को बेहतर समझ सकता है। सकारात्मक व नकारात्मक ऊर्जा तरंगों की वैज्ञानिकता इस परंपरा को सहज तार्किक स्वीकृति देती है।

बाँस में ब्रह्मध्वज सजाने की प्रथा का भी सीधा संबंध प्रकृति से ही आता है। बांस में गांठे होती हैं। अतः इसे मेरुदंड के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया गया है।

जरी के हरे पीले वस्त्र यानी साड़ी और चोली, नीम और आम की माला, चाशनी के पदार्थों के गहने, कलश याने मस्तक। निराकार अनंत प्रकृति का साकार रूप में पूजन है गुडी पडवा।

कर्नाटक तथा आंध्र प्रदेश में इसे उगादि कहा जाता है मान्यता वही कि ब्रह्मदेव ने इस दिन सृष्टि का निर्माण किया था। केरल का विशु उत्सव, असम का मुकोली बिहू , बंगाल का पोहिला बैसाख, तमिलनाडु का पुथांडू , नानकशाही पंचांग का होला मोहल्ला, पंजाब की बैसाखी, सिंधी समाज का चेटीचंड, कश्मीर का नवरेह इत्यादि न्यूनाधिक अंतर के साथ भारतीय नववर्ष के ही भिन्न-भिन्न नाम हैं। 

इसी दिन से चैत्र नवरात्र भी आरंभ होते हैं। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सूर्य अपनी  बारह राशियों में अपनी परिक्रमा आरंभ करने के लिए मेष राशि में प्रवेश करते हैं। प्रथम नवरात्रि को आदिशक्ति प्रकट हुई थी। उनके कहने से ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना आरंभ की थी। तीसरे दिन भगवान विष्णु ने मनुष्य अवतार लेकर पृथ्वी पर सजीवों को जन्म दिया। विज्ञान भी कहता है कि जलचर पहला सजीव था। नवमी तिथि को भगवान विष्णु के अवतार मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने जन्म लिया।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 120 ☆ बहुत तकलीफ़ होती है ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख बहुत तकलीफ़ होती है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 120 ☆

☆ बहुत तकलीफ़ होती है

‘लोग कहते हैं जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो तकलीफ़ होती है; परंतु जब कोई अपना पास होकर भी दूरियां बना लेता है, तब बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है।’ प्रश्न उठता है, आखिर संसार में अपना कौन…परिजन, आत्मज या दोस्त? वास्तव में सब संबंध स्वार्थ व अवसरानुकूल उपयोगिता के आधार पर स्थापित किए जाते हैं। कुछ संबंध जन्मजात होते हैं, जो परमात्मा बना कर भेजता है और मानव को उन्हें चाहे-अनचाहे निभाना ही पड़ता है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव अकेला नहीं रह सकता और वह कुछ संबंध बनाता है; जो बनते-बिगड़ते रहते हैं। परंतु बचपन के साथी लंबे समय तक याद आते रहते हैं, जो अपवाद हैं। कुछ संबंध व्यक्ति स्वार्थवश स्थापित करता है और स्वार्थ साधने के पश्चात् छोड़ देता है। यह संबंध रिवाल्विंग चेयर की भांति अस्थायी होते हैं, जो दृष्टि से ओझल होते ही समाप्त हो जाते हैं और लोगों के तेवर भी अक्सर बदल जाते हैं। परंतु माता-पिता व सच्चे दोस्त नि:स्वार्थ भाव से संबंधों को निभाते हैं। उन्हें किसी से कोई संबंध-सरोकार नहीं होता तथा विषम परिस्थितियों में भी वे आप की ढाल बनकर खड़े रहते हैं। इतना ही नहीं, आपकी अनुपस्थिति में भी वे आपके पक्षधर बने रहते हैं। सो! आप उन पर नेत्र मूंदकर विश्वास कर सकते हैं। आपने अंग्रेजी की कहावत सुनी होगी ‘आउट आफ साइट, आउट ऑफ मांइड’ अर्थात् दृष्टि से ओझल होते ही उससे नाता टूट जाता है। आधुनिक युग में लोग आपके सम्मुख अपनत्व भाव दर्शाते हैं; परंतु दूर होते ही वे आपकी जड़ें काटने से तनिक भी ग़ुरेज़ नहीं करते। ऐसे लोग बरसाती मेंढक की तरह होते हैं, जो केवल मौसम बदलने पर ही नज़र आते हैं। वे गिरगिट की भांति रंग बदलने में माहिर होते हैं। इंसान को जीवन में उनसे सदैव सावधान रहना चाहिए, क्योंकि वे अपने बनकर, अपनों को घात लगाते हैं। सो! उनके जाने का इंसान को शोक नहीं मनाना चाहिए, बल्कि प्रसन्न होना चाहिए।

वास्तव में इंसान को सबसे अधिक दु:ख तब होता है, जब अपने पास रहते हुए भी दूरियां बना लेते हैं। दूसरे शब्दों में वे अपने बनकर अपनों से विश्वासघात करते हैं तथा पीठ में छुरा घोंपते हैं। आजकल के संबंध कांच की भांति नाज़ुक होते हैं, जो ज़रा-सी ठोकर लगते ही दरक़ जाते हैं, क्योंकि यह संबंध स्थायी नहीं होते। आधुनिक युग में खून के रिश्तों पर भी विश्वास करना मूर्खता है। अपने आत्मज ही आपको घात लगाते हैं। वे आपको तब तक मान-सम्मान देते हैं, जब तक आपके पास धन-संपत्ति होती है। अक्सर लोग अपना सब कुछ उनके हाथों सौंपने के पश्चात् अपाहिज-सा जीवन जीते हैं या उन्हें वृद्धाश्रम में आश्रय लेना पड़ता है। वे दिन-रात प्रभु से यही प्रश्न करते हैं, आखिर उनका कसूर क्या था? वैसे भी आजकल परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं, क्योंकि संबंध-सरोकारों की अहमियत रही नहीं। वे सब एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होते हैं, जिसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ता है। प्राय: वे ग़लत संगति में पड़ कर अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं।

अक्सर ज़िदंगी के रिश्ते इसलिए नहीं सुलझ पाते, क्योंकि लोगों की बातों में आकर हम अपनों से उलझ जाते हैं। मुझे स्मरण हो रहे हैं कलाम जी के शब्द ‘आप जितना किसी के बारे में जानते हैं; उस पर विश्वास कीजिए और उससे अधिक किसी से सुनकर उसके प्रति धारणा मत बनाइए। कबीरदास भी आंखिन-देखी पर विश्वास करने का संदेश देते हैं; कानों-सुनी पर नहीं। ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।’ इसलिए उनकी बातों पर विश्वास करके किसी के प्रति ग़लतफ़हमी मत पालें। इससे रिश्तों की नमी समाप्त हो जाती है और वे सूखी रेत के कणों की भांति तत्क्षण मुट्ठी से फिसल जाते हैं। ऐसे लोगों को ज़िंदगी से निकाल फेंकना कारग़र है। ‘जीवन में यदि मतभेद हैं, तो सुलझ सकते हैं, परंतु मनभेद आपको एक-दूसरे के क़रीब नहीं आने देते। वास्तव में जो हम सुनते हैं, हमारा मत होता है; तथ्य नहीं। जो हम देखते हैं, सत्य होता है; कल्पना नहीं। ‘सो! जो जैसा है; उसी रूप में स्वीकार कीजिए। दूसरों को प्रसन्न करने के लिए मूल्यों से समझौता मत कीजिए; आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चले आइए।’ महात्मा बुद्ध की यह सीख अनुकरणीय है।

‘ठहर! ग़िले-शिक़वे ठीक नहीं/ कभी तो छोड़ दीजिए/ कश्ती को लहरों के सहारे।’ समय बहुत बलवान है, निरंतर बदलता रहता है। जीवन में आत्म-सम्मान बनाए रखें; उसे गिरवी रखकर समझौता ना करें, क्योंकि समय जब निर्णय करता है, तो ग़वाहों की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए किसी विनम्र व सज्जन व्यक्ति को देखते ही यही कहा जाता है, ‘शायद! उसने ज़िंदगी में बहुत अधिक समझौते किए होंगे, क्योंकि संसार में मान-सम्मान उसी को ही प्राप्त होता है।’ किसी को पाने के लिए सारी खूबियां कम पड़ जाती हैं और खोने के लिए एक  ग़लतफ़हमी ही काफी है।’ सो! जिसे आप भुला नहीं सकते, क्षमा कर दीजिए; जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते, भूल जाइए। हर क्षण, हर दिन शांत व प्रसन्न रहिए और जीवन से प्यार कीजिए; आप ख़ुद को मज़बूत पाएंगे, क्योंकि लोहा ठंडा होने पर मज़बूत होता है और उसे किसी भी आकार में ढाला नहीं जा सकता है।

यदि मन शांत होगा, तो हम आत्म-स्वरूप परमात्मा को जान सकेंगे। आत्मा-परमात्मा का संबंध शाश्वत् है। परंतु बावरा मन भूल गया है कि वह पृथ्वी पर निवासी नहीं, प्रवासी बनकर आया है। सो! ‘शब्द संभाल कर बोलिए/ शब्द के हाथ ना पांव/ एक शब्द करे औषधि/  एक शब्द करे घाव।’ कबीर जी सदैव मधुर वाणी बोलने का संदेश देते हैं। जब तक इंसान परमात्मा-सत्ता पर विश्वास व नाम-स्मरण करता है; आनंद-मग्न रहता है और एक दिन अपने जीवन के मूल लक्ष्य को अवश्य प्राप्त कर लेता है। सो! परमात्मा आपके अंतर्मन में निवास करता है, उसे खोजने का प्रयास करो। प्रतीक्षा मत करो, क्योंकि तुम्हारे जीवन को रोशन करने कोई नहीं आएगा। आग जलाने के लिए आपके पास दोस्त के रूप में माचिस की तीलियां हैं। दोस्त, जो हमारे दोषों को अस्त कर दे। दो हस्तियों का मिलन दोस्ती है। अब्दुल कलाम जी के शब्दों में ‘जो आपके पास चलकर आए सच्चा दोस्त होता है; जब सारी दुनिया आपको छोड़कर चली जाए।’ इसलिए दुनिया में सबको अपना समझें;  पराया कोई नहीं। न किसी से अपेक्षा ना रखें, न किसी की उपेक्षा करें। परमात्मा सबसे बड़ा हितैषी है, उस पर भरोसा रखें और उसकी शरण में रहें, क्योंकि उसके सिवाय यह संसार मिथ्या है। यदि हम दूसरों पर भरोसा रखते हैं, तो हमें पछताना पड़ता है, क्योंकि जब अपने, अपने बन कर हमें छलते हैं, तो हम ग़मों के सागर में डूब जाते हैं और निराशा रूपी सागर में अवगाहन करते हैं। इस स्थिति में हमें बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है। इसलिए भरोसा स्वयं पर रखें; किसी अन्य पर नहीं। आपदा के समय इधर-उधर मत झांकें। प्रभु का ध्यान करें और उसके प्रति समर्पित हो जाएं, क्योंकि वह पलक झपकते आपके सभी संशय दूर कर आपदाओं से मुक्त करने की सामर्थ्य रखता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 10 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

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महाशिवरात्रि :

पौराणिक मान्यता है कि अग्नि लिंग से जगत जन्मा है। भगवान शंकर द्वारा हलाहल प्राशन के उपरांत उन्हें जगाये रखने के लिए रात भर देवताओं द्वारा गीत-संगीत का आयोजन किया गया था। आधुनिक चिकित्साविज्ञान भी विष को फैलने से रोकने के लिए ‘जागते रहो’ का सूत्र देता है। ‘शिव’ भाव हो तो अमृत नहीं विष पचाकर भी कालजयी हुआ जा सकता है। इस संदर्भ में इन पंक्तियों के लेखक की यह कविता देखिए,

कालजयी होने की लिप्सा में

बूँद भर अमृत के लिए वे लड़ते-मरते रहे,

उधर हलाहल पीकर महादेव, त्रिकाल भए।

महाकाल का परिवार, एकात्मता का कालजयी उदाहरण है। यदि शिव परिवार के पशु सदस्यों के वाहन और शब्दों वजी के गले में लिपटा सर्प देखें तो एकात्म भाव होकर शांतिपूर्ण सह अस्तित्व से जीने का अद्भुत उदाहरण दिखेगा। गणेश जी का वाहन है, मूषक। सर्प का आहार है मूषक। सर्प को आहार बनाता है मयूर जो कार्तिकेय जी का वाहन है। महादेव की सवारी है नंदी। नंदी का शत्रु है गौरा जी का वाहन शेर। संदेश स्पष्ट है कि दृष्टि में एकात्म भाव हो तो एक-दूसरे का भक्ष्ण करने वाले पशु भी एकसाथ रह सकते हैं। एकात्मता, वैदिक दर्शन के प्रत्येक रजकण में दृष्टिगोचर होती है।

धूलिवंदन/ होली :

होली अर्थात विभिन्न रंगों का साथ आना। साथ आना अर्थात एकात्म होना। रंग लगाना अर्थात अपने रंग या अपनी सोच अथवा विचार में रँगना। विभिन्न रंगों से रँगा व्यक्ति जानता है कि उसका विचार ही अंतिम नहीं है। रंग लगानेवाला स्वयं भी सामासिकता और एकात्मता के रंग में रँगता चला जाता है। रंगोत्सव की यह प्रथा मानो मेहंदी लगाने जैसी है। कबीर लिखते हैं,

लाली मेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल ।

लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल ॥

रँगना भी ऐसा कि रँगा सियार भी हृदय परिवर्तन के लिए विवश हो जाए। यही कारण है कि होली क्षमापना का भी पर्व है।  क्षमापना अर्थात वर्षभर की ईर्ष्या मत्सर, शत्रुता को भूलकर सहयोग- समन्वय का नया आरंभ करना। होली या फाग हमारी  सामासिकता का इंद्रधनुषी प्रतीक है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 9 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

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वसंत पंचमी :

वसंतपंचमी माँ सरस्वती का अवतरण दिवस है। पौराणिक आख्यान है कि ब्रह्मा जी सृष्टि की रचना तो कर चुके थे पर सर्वव्यापी मौन का कोई हल ब्रह्मा जी के पास नहीं था। तब माँ शारदा प्रकट हुईं। निनाद,  वाणी एवं कलाओं का जन्म हुआ।  जल के प्रवाह और पवन के बहाव को में स्वर प्रस्फुटित हुआ। मौन की अनुगूँज भी सुनाई देने लगी। आहद एवं अनहद नाद गुंजायमान हुए। चराचर ’नादब्रह्म’ है।

अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतवायदक्षरम् ।

विवर्तते अर्थभावेन प्रक्रिया जगतोयतः॥

अर्थात् शब्द रूपी ब्रह्म अनादि, विनाश रहित और अक्षर है तथा उसकी विवर्त प्रक्रिया से ही यह जगत भासित होता है। शब्द और रस का अबाध संचार ही सरस्वती है। शब्द और रस के प्रभाव का एकात्म भाव से अनन्य संबंध है। इसका एक उदाहरण संगीत है। आत्म और परमात्म का एकात्म रूप संगीत है। संगीत को मोक्ष की सीढ़ियाँ माना गया है। महर्षि याज्ञवल्क्य इसकी पुष्टि करते हैं-

वीणावादनतत्वज्ञः श्रुतिजातिविशारदः।

तालश्रह्नाप्रयासेन मोक्षमार्ग च गच्छति॥

वैदिक संस्कृति के नेत्रों में समग्रता का भाव है। कोई पक्ष उपेक्षित नहीं है। यही कारण है कि  वसंत पंचमी रति और कामदेव का उत्सव भी है। इस ऋतु में सर्वत्र विशेषकर खिली सरसों का पीला रंग दृष्टिगोचर होता है। प्रकृति का चटक पीला रंग आकर्षित करता है पुरुष को। प्रकृति और पुरुष का एकात्म होना मदनोत्सव है।

समग्रता की अपरिमेय परिधि में स्वदेश, संस्कृति व धर्मनिष्ठा की पतंग गगन की ऊँचाइयों पर होती है। इस ऊँचाई का अनन्य प्रतीक है वीर हकीकत राय। धर्म परिवर्तन न करने के कारण केवल 15 वर्ष की आयु में इस बालक को 1734 में वसंतपंचमी के दिन फाँसी पर लटका दिया गया था। हकीकत राय का स्वाभिमानी शीश सदा ऊँचा रखने के लिए अनेक भागों में इस दिन पतंग ऊँची उड़ाने का चलन भी है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ शब्दांजलि – सरस्वती की सुर साधिका सरस्वती में विलीन ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

 (जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)। 

☆ शब्दांजलि – सरस्वती की सुर साधिका सरस्वती में विलीन ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

भारत कोकिला, सुर साम्राज्ञी, सरस्वती पुत्री लता मंगेशकर आखिर उसी में विलीन हो गयीं। गीत- संगीत में एक पूरे युग का अंत हो गया। पिछले कुछ दिनों से लता मंगेशकर बीमार थीं और अस्पताल में जीवन व मृत्यु के साथ संघर्ष कर रही थीं लेकिन हार गयीं जिंदगी की जंग और जा मिलीं सरस्वती से। एक दिन पहले ही सरस्वती पूजन था, बसंत पंचमी थी और दूसरे दिन सरस्वती अपनी सबसे प्रिय पुत्री को अपने साथ ले गयीं।

लता मंगेशकर का जीवन संघर्षपूर्ण रहा। बचपन से ही पिता दीनानाथ मंगेशकर के निधन के बाद पांच भाई बहनों की जिम्मेदारी इनके कोमल कंधों पर आ गयी और कितने संघर्षों के बीच अपने परिवार का सहारा बनीं तो इसी सुर संगीत से। कुछ अभिनय भी किया शुरू में । इनकी बहन आशा को भी इसी क्षेत्र में सम्मान मिला । परिवार व भाई बहनों का पालन पोषण करते करते आजीवन अविवाहित ही रह गयीं। सचिन तेंदुलकर को अपने बेटे समान मानती थीं। इनके शौक थे क्रिकेट देखना, संगीत सुनना और कुछ कुछ राजनीति में भी रूचि रखती थीं। क्रिकेट के लिए तो इतनी दीवानगी थी कि आधी आधी रात तक जागतीं थीं, मैच का लुत्फ उठाने के लिए। संगीत की इतनी दीवानगी कि आखिरी पलों और दिनों में भी अपने पिता के संगीत को सुन रही थीं और खुद गुनगुनाने की कोशिश कर रही थीं। राजनीति में वे कभी जवाहर लाल नेहरू की तो आजकल नरेंद्र मोदी की प्रशंसक थीं।

जवाहर लाल नेहरू से पहली मुलाकात उसी मशहूर गीत से हुई जो उनकी मौजूदगी में गाया –

ऐ मेरे वतन के लोगो,

जरा आंख में भर लो पानी

जो शहीद हुए हैं उनकी

जरा याद करो कुर्बानी ,,,

इस गीत को सुन कर जवाहर लाल नेहरू की आंखों से झर झर आंसू बहने लगने थे और उन्होंने कहा भी कि बिटिया, तुमने तो हमें रुला ही दिया और इतना सम्मान दिया कि प्रधानमंत्री आवास पर चाय के लिए आमंत्रित किया। यह बात इस गीत के रचयिता प्रदीप ने बताई थी। प्रदीप के इस गीत को लता ने अपनी आवाज से अमर कर दिया। कितने गाने गाये लेकिन यह गाना सबसे हिट रहा और सदैव गाया जायेगा और याद दिलाता रहेगा कि लता की आवाज ही उनकी पहचान थी और रहेगी। प्रधानमंत्री मोदी पहले भी आशीर्वाद लेने गये थे और अंतिम यात्रा में भी शामिल हुए। इससे बड़ा सम्मान क्या होगा ?

यह भी एक कमाल की पंक्ति है कि मेरी आवाज ही पहचान है , ,, आज यह नये गायकों के लिए एक मंत्र है कि अपनी आवाज इतनी बढ़िया बनाओ कि यही आपकी पहचान बन जाये यानी इतना डूब जाओ अपने काम में कि आपकी पहचान खुद ब खुद बन जाये। पंजाबी, गुजराती, मराठी न जाने कितनी भाषाओं में गीत गाये और कीर्तिमान बनाये। सारे पुरस्कार/सम्मान इनके आगे छोटे पड़ते गये और लता दीदी इन सम्मानों से कहीं ऊपर पहुंच गयीं। यह भी एक मंत्र है कि सम्मान के पीछे न भागो, इतना काम करो अपने फील्ड में कि सम्मान आपके पीछे पीछे आएं। दिलीप कुमार को अपना राखी बंद भाई मानती थीं और उनके ही एक तंज से उर्दू सीख ली। बड़ी उम्र की होने के बावजूद नयी नायिकाओं के लिए गाना कोई खेल नहीं था पर वे इतना मधुर गाती कि लगता ही नहीं था कि कोई उम्रदराज गायिका गा रही है। फिर इतना करुणामय गाया कि सारा देश रो दिया और रो देता है आज भी जब आवाज आती है -ऐ मेरे वतन के लोगो,,,,

सच , ऐ मेरे वतन के लोगो अब लता दीदी हमारे बीच नहीं रहीं, यह विश्वास करना बहुत मुश्किल है पर विश्वास करना पड़ेगा और उनकी आवाज सदैव उनकी पहचान बनी रहेगी।

विनम्र श्रद्धांजलि ??

© श्री कमलेश भारतीय, पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 8 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 8 ??

मकर संक्रांति :

पौष मास में सूर्यदेव धनु से मकर राशि में प्रवेश करते हैं। यह मकर संक्रांति कहलाता है। खगोलशास्त्र, भूगोल, अध्यात्म, दर्शन  सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण घटना है। यह वार्षिक संक्रमण पूरे देश में उत्सव/त्योहार के रूप में आयोजित किया जाता है। तमिलनाडु में पोंगल, गुजरात, उत्तराखंड में उत्तरायण, असम में भोगाली बिहू,  हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश में माघी, उत्तर प्रदेश, बिहार में खिचड़ी, पंजाब में लोहड़ी, मकर संक्रांति के ही भिन्न-भिन्न नाम और रूप हैं।

भारत उत्तरी गोलार्द्ध में है। संक्रांति के पूर्व सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में होते हैं। दिव्य प्रकाश पुंज सूर्य का उत्तरी गोलार्द्ध के निकट आना उत्तरायण है। उत्तरायण को सकारात्मकता का प्रतीक माना गया है। यही कारण है की भीष्म पितामह ने देह त्यागने के लिए उत्तरायण की प्रतीक्षा की थी। उत्तरायण अंधकार के आकुंचन और प्रकाश के प्रसरण का कालखंड है। स्वाभाविक है कि इस कालखंड में दिन बड़े और रातें छोटी होंगी। दिन बड़े होने का अर्थ है प्रकाश के अधिक अवसर, अधिक चैतन्य, अधिक कर्मशीलता। हमारा सांस्कृतिक उद्घोष भी है,

तमसो मा ज्योतिर्गमय।

अंधकार से प्रकाश की यात्रा का अर्थ है एकात्मता। मकर संक्रांति में समुदाय साथ आता है। जो वंचित हैं, उन्हें अपने संचित में से यथाशक्ति कुछ प्रदान करना, दान करना। कालांतर में अपनी जड़ों से कटते और परंपराओं के सही अर्थ से कटते मनुष्य के छोटे होते उनके साथ इसे धार्मिक आचरण के  साथ जोड़ दिया गया। शीतलहर के समय आती आता मकर संक्रमण निर्धन को कंबल और घी देने का अद्भुत मार्ग दिखाकर उनका संरक्षण और जाड़े के दिनों में निर्वहन का मार्ग भी दिखाता है। दान द्वारा मोक्ष प्राप्ति का यह सूत्र दृष्टव्य है-

माघे मासे महादेव: यो दास्यति घृतकम्बलम्।

स भुक्त्वा सकलान भोगान अन्ते मोक्षं प्राप्यति।

मकर संक्रांति पर बहन-बेटियों को वस्त्र, मिठाई, तिल-गुड़ के व्यंजन भेजने की लोक-परंपरा भी है। ऋतुचक्र से जुड़ी इस परंपरा का निहितार्थ है कि तिल की ऊर्जा और गुड़ की मिठास हमारे मनन, वचन और आचरण तीनों में देदीप्यमान रहे।  अपने साथ बहन, बेटी का घर भी भरा रहे।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 7 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 7 ??

भारत के प्रमुख उत्सव भारत के प्रमुख पर्व त्योहार और उत्सव :

जैसा कि इस लेख में कहा जा चुका है कि भारतीय समाज उत्सवधर्मिता का पर्यायवाची है। यहाँ कण-कण में उत्सव है, कैलेंडर के 365 दिन उत्सव है। सारे उत्सवों की सूची देना तो संभव नहीं है। यूँ भी छोटे-छोटे आदिवासी समुदायों के उत्सव, देश के सुदूर अंचलों विशेषकर गाँव में स्थानीय स्तर पर मनाए जाते उत्सवों की पूरी जानकारी हमें कहाँ है? सामान्यतः सर्वसामान्य द्वारा बड़े पैमाने पर मनाया जाते कुछ उत्सवों की सूची यहाँ साझा कर रहे हैं। ये प्रतिनिधि उत्सव हैं।

भारत के प्रमुख पर्व-त्योहार-उत्सवों में मकर संक्रांति, वसंत पंचमी, महाशिवरात्रि, होली, गुड़ी पड़वा, रामनवमी, भगवान महावीर जयंती, हनुमान जयंती, गुड फ्राइडे, ईस्टर संडे, भगवान परशुराम जयंती, अक्षय तृतीया, नृसिंह जयंती, बुद्ध पूर्णिमा, रमजान ईद वट पूर्णिमा, देवशयनी एकादशी, गुरुपूर्णिमा, नागपंचमी, रक्षाबंधन, जन्माष्टमी, पतेती, बैल-पोला, हरतालिका, तीज, गणगौर, गणेश चतुर्थी, ॠषिपंचमी, नवरात्र, दुर्गापूजा, दशहरा, शरद पूर्णिमा, दीपावली, अन्नकूट, तुलसीविवाह, गुरुनानक जयंती, क्रिसमस, दत्त जयंती, शीतलाष्टमी आदि का समावेश है। इसी प्रकार सामाजिक, राष्ट्रीय उत्सवों में गुरु गोविंद सिंह जयंती, स्वामी विवेकानंद जयंती, स्वामी दयानंद जयंती, लोकमान्य तिलक जयंती,  नेताजी सुभाषचंद्र बोस जयंती, विश्वकर्मा जयंती, विभिन्न संतों की जयंती, विभिन्न महापुरुषों की जयंती, छत्रपति शिवाजी महाराज जयंती, सावित्रीबाई फुले जयंती, संत बसवेश्वर जयंती,  रामकृष्ण परमहंस जयंती, स्वातंत्र्यवीर सावरकर, डॉ भीमराव आंबेडकर जयंती, आदि शंकराचार्य जयंती,  एकादशी, अमावस्या, पूर्णिमा, झूलेलाल जयंती, विभिन्न साहित्यकारों की जयंती, राणा प्रताप जयंती,  महात्मा फुले जयंती, कबीर जयंती, कालिदास जयंती, वाल्मीकि जयंती, गोस्वामी तुलसीदास जयंती, सिख गुरुओं का शहीदी दिवस, महिला दिवस, चैतन्य महाप्रभु जयंती, वल्लभाचार्य जयंती, रामानुजाचार्य जयंती, संत ज्ञानेश्वर महाराज जयंती, संत तुकाराम महाराज जयंती, आदि अनेक उत्सव मनाए जाते हैं। पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के लिए श्राद्ध पक्ष को भी एक दृष्टि से इसमें सम्मिलित किया जा सकता है। शिक्षक दिवस, एकता दिवस, तीनों सेना के स्थापना दिवस, ध्वज दिवस, राज्यों के स्थापना दिवस भी हमारे महत्वपूर्ण उत्सव हैं।  राष्ट्रीय पर्व के रूप में स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस तो सर्वोच्च हैं ही।

चूँकि उत्सव सामासिक, सामुदायिक, सामाजिक और सामूहिक होते हैं, फलत: एकात्मता उन का अनिवार्य अंग है। हम कुछ प्रतिनिधि उत्सवों की चर्चा यहाँ करेंगे।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆☆ लता मंगेशकर : श्रद्धांजलि ☆☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।

आज से प्रस्तुत है सुरकोकिला स्व लता जी को श्रद्धांजलि अर्पित करता आलेख  “लता मंगेशकर : श्रद्धांजलि”)

? आलेख ☆ लता मंगेशकर : श्रद्धांजलि ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

पथिक ने स्टेट बैंक सेंट्रल आफिस में पोस्टिंग के दौरान दो-तीन साल मुंबई में गुज़ारे हैं। वह कभी-कभी लता जी के दर्शन हेतु गिरगांव चौपटी से होता हुआ पेद्दर रोड़ पर जाकर खड़ा हो जाता था। एक दिन शनिवार को लता जी ने भीड़ को उनके अपार्टमेंट से हाथ हिलाकर अभिवादन किया। पथिक भीड़ में मौजूद था। उसने उनकी ज़िंदगी के सफ़े खोलना शुरू किए।

भारत में ऐसा कोई आदमी नहीं होगा जिसने लता मंगेशकर के गीतों में डूबकर अपने प्रेम, आनंद, दुःख, हताशा, विदाई को न जिया हो। आज़ाद भारत का एक अजूबा थीं लता। आदमी तो आदमी पशु भी उनके गायन के दीवाने हैं।

मुंबई और पूना के बीच गायों का एक उच्च तकनीक से सज्जित वातानुकूलित फार्म हाउस है जिसमें गायों को काजू किसमिस बादाम पिस्ता खिलाया जाता है। उन्हें लता जी के गाने सुनाए जाते हैं। वहाँ एक प्रयोग किया गया। जिस दिन उन्हें लता गाने नहीं सुनाए उन्होंने दूध रोक लिया।

लता की जादुई आवाज़ के भारतीय उपमहाद्वीप के साथ-साथ पूरी दुनिया में दीवाने हैं। टाईम पत्रिका ने उन्हें भारतीय पार्श्वगायन की अपरिहार्य और एकछत्र साम्राज्ञी स्वीकार किया है।

लता मंगेशकर भारत की सबसे लोकप्रिय और सम्मानित गायिका हैं, जिनका छ: दशकों का पार्श्व गायन उपलब्धियों से भरा पड़ा है। लता जी ने लगभग तीस से ज्यादा भाषाओं में फ़िल्मी और गैर-फ़िल्मी गाने गाये हैं लेकिन उनकी पहचान भारतीय सिनेमा में एक पार्श्वगायक के रूप में रही है। अपनी बहन आशा भोंसले के साथ लता जी का फ़िल्मी गायन में सबसे बड़ा योगदान रहा है।

लता का जन्म मराठा परिवार में, मध्य प्रदेश के इंदौर शहर के नज़दीक महू में पंडित दीनानाथ मंगेशकर के मध्यवर्गीय परिवार की सबसे बड़ी बेटी के रूप में 28 सितंबर, 1929 को हुआ। उनके पिता रंगमंच के कलाकार और गायक थे। इनके परिवार से भाई हृदयनाथ मंगेशकर और बहनों उषा मंगेशकर, मीना मंगेशकर और आशा भोंसले सभी ने संगीत को ही अपनी आजीविका के लिये चुना।

हालाँकि लता का जन्म महू में हुआ था लेकिन उनकी परवरिश महाराष्ट्र में हुई। लता ने पाँच साल की उम्र से पिता के साथ एक रंगमंच कलाकार के रूप में अभिनय करना शुरु कर दिया था।

जब उनके पिता की 1942 में हृदय रोग से मृत्यु हो गई। उस समय इनकी आयु मात्र तेरह वर्ष थी. भाई बहिनों में बड़ी होने के कारण परिवार की जिम्मेदारी का बोझ उनके कंधों पर आ गया था. दूसरी ओर उन्हें अपने करियर की तलाश भी थी। उन्हें बहुत आर्थिक किल्लत झेलनी पड़ी और काफी संघर्ष करना पड़ा। उन्हें अभिनय बहुत पसंद नहीं था लेकिन पिता की असामयिक मृत्यु की वज़ह से पैसों के लिये उन्हें कुछ हिन्दी और मराठी फ़िल्मों में काम करना पड़ा।

नवयुग चित्रपट फिल्म कंपनी के मालिक और मंगेशकर परिवार के करीबी दोस्त मास्टर विनायक (विनायक दामोदर कर्नाटकी) ने उनके परिवार के देखभाल की ज़िम्मेदारी को निभाया। उन्होंने लता को एक गायक और अभिनेत्री के रूप में अपना काम शुरू करने में मददगार की भूमिका निभाई।

लता ने “नाचू या गाड़े, खेलो सारी मणि हौस भारी” गीत गाया था, जिसे सदाशिवराव नेवरेकर ने वसंत जोगलेकर की मराठी फिल्म किटी हसाल (1942) के लिए संगीतबद्ध किया था, लेकिन उस गीत को अंतिम कट से हटा दिया गया था। विनायक ने उन्हें नवयुग चित्रपट की मराठी फिल्म पहिली ‘मंगला-गौर’ (1942) में एक छोटी भूमिका दी, जिसमें उन्होंने “नताली चैत्रची नवलई” गाया, जिसे दादा चंदेकर ने संगीतबद्ध किया था। उन्होंने मराठी फिल्म गजभाऊ (1943) के लिए उनका पहला हिंदी गीत “माता एक सपूत की दुनिया बदल दे तू” गाया था।

जब मास्टर विनायक की कंपनी ने अपना मुख्यालय 1945 में मुंबई स्थानांतरित कर दिया तब लता भी मुंबई पहुँच गईं। उन्होंने भिंडीबाजार घराने के उस्ताद अमन अली खान से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा लेनी शुरू की। उन्होंने वसंत जोगलेकर की हिंदी भाषा की फिल्म ‘आप की सेवा में’ (1946) के लिए “पा लगून कर जोरी” गाया, जिसे दत्ता दावजेकर ने संगीतबद्ध किया था। फिल्म में नृत्य रोहिणी भाटे ने किया था जो बाद में एक प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्यांगना बनीं। लता और उनकी बहन आशा ने विनायक की पहली हिंदी भाषा की फिल्म ‘बड़ी माँ’ (1945) में छोटी भूमिकाएँ निभाईं। उस फिल्म में, लता ने एक भजन “माता तेरे चरणों में” भी गाया था। विनायक की दूसरी हिंदी भाषा की फिल्म ‘सुभद्रा’ (1946) की रिकॉर्डिंग के दौरान उनका संगीत निर्देशक वसंत देसाई से परिचय हुआ।

अभिनेत्री के रूप में उनकी पहली फ़िल्म ‘पाहिली मंगलागौर’ (1942) रही, जिसमें उन्होंने स्नेहप्रभा प्रधान की छोटी बहन की भूमिका निभाई। बाद में उन्होंने कई फ़िल्मों में अभिनय किया जिनमें, माझे बाल, चिमुकला संसार (1943), गजभाऊ (1944), बड़ी माँ (1945), जीवन यात्रा (1946), माँद (1948), छत्रपति शिवाजी (1952) शामिल थी। बड़ी माँ, में लता ने नूरजहाँ के साथ अभिनय किया और उसके छोटी बहन की भूमिका आशा भोंसले ने निभाई। उन्होंने खुद की भूमिका के लिये गाने भी गाये और आशा के लिये पार्श्वगायन किया।

1945 में उस्ताद ग़ुलाम हैदर (जिन्होंने पहले नूरजहाँ की खोज की थी) अपनी आनेवाली फ़िल्म के लिये लता को एक निर्माता के स्टूडियो ले गये। फ़िल्म में कामिनी कौशल मुख्य भूमिका निभा रही थी। वे चाहते थे कि लता उस फ़िल्म के लिये पार्श्वगायन करे। लेकिन गुलाम हैदर को निराशा हाथ लगी। 1947 में वसंत जोगलेकर ने अपनी फ़िल्म आपकी सेवा में लता को गाने का मौका दिया। इस फ़िल्म के गानों से लता की खूब चर्चा हुई। इसके बाद लता ने मज़बूर फ़िल्म के गानों “अंग्रेजी छोरा चला गया” और “दिल मेरा तोड़ा हाय मुझे कहीं का न छोड़ा तेरे प्यार ने” जैसे गानों से अपनी स्थिती सुदृढ की। हालाँकि इसके बावज़ूद लता को उस खास हिट की अभी भी तलाश थी।

1949 में लता को ऐसा मौका फ़िल्म “महल” के “आयेगा आनेवाला” गीत से मिला। इस गीत को उस समय की सबसे खूबसूरत और चर्चित अभिनेत्री मधुबाला पर फ़िल्माया गया था। यह फ़िल्म अत्यंत सफल रही थी और लता तथा मधुबाला दोनों के लिये मील का पत्थर सिद्ध हुई। इसके बाद लता ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज वो चली गईं।

हाड़ जले लकड़ी जले, जले जलावन हार ।
कौतिकहारा भी जले, कासों करूं पुकार ॥

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #108 ☆ ‌जन्म, जीवन और मृत्यु ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 108 ☆

☆ ‌आलेख – जन्म, जीवन और  मृत्यु ☆

‌जन्म, जीवन और मृत्यु,श्रीमदभगवद्गगीता के भाष्य के अनुसार आत्मा अजर-अमर है।

तथा श्री रामचरितमानस के अनुसार

ईश्वर अंश जीव अविनाशी।

चेतन अमल सहज सुख राशि ।।

अर्थात्

आत्मा का स्वरूप ईश्वरीय अंश से निर्मित चेतना युक्त मल रहित सहज सुख राशि है। यह‌  जन्म के पहले  भी अस्तित्व में  थी और मृत्यु के पश्चात भी रहेगी, इसका अस्तित्व कभी विलीन नहीं होता।  जन्म और मृत्यु की दुखद परिस्थितियों से गुजरने के बाद इस योनि गत शरीर  का ही प्रकटीकरण और विनाश होता है । जन्म और मृत्यु के बीच का बिताया गया समय ही  जीवन कहा जाता है। हमारे हिन्दू धर्मदर्शन के संस्कारों के अनुसार जन्म से पहले गर्भाधान संस्कार से जीव की उत्पत्ति प्रक्रिया आरंभ होती है। पंच तत्व के मिलने पर  मां के गर्भ में पिंड बनता है और उस पिंड में ईश्वर अंश आत्मा के संयोग से जीव स्थूल रूप में प्रकट होता है तथा वह गर्भाधान संस्कार से अनभिज्ञ होता है। स्थूल शरीर से आत्मा का बिछोह, प्राण चेतना का समापन ही मृत्यु है।

मृत्यु के पश्चात अंत्येष्टि संस्कार पर सोडष संस्कारों का अंत होता है। समापन होता है जन्म लेने की क्रिया के पूर्ण होने में नौ माह से अधिक समय लगता है इस समय  मां के पेट में  जीव की सुरक्षा का दायित्व ईश्वर निभाता है

प्राकृतिक रूप से  पालन पोषण करता है जब यह प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है तब यह जीव स्थूल स्वरूप धारण कर सशरीर जन्म लेता है  इस क्रिया को जन्म लेना कहते हैं  ।

जन्मना जायते शूद्र:

इस परिभाषा के अनुसार जन्म से  सभी शूद्र हैं लेकिन समाज के विकसित होने पर जो प्रक्रिया  समाज को सुव्यवस्थित ढंग चलाने के लिए अपनाई गई उसे ही वर्ण व्यवस्था का नाम दिया जिसकी परिकल्पना हमारे मनीषियों ने सृष्टि कर्ता ब्रह्मा के शरीर से माना है,  जिसके चार वर्ण हैं ‌ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र। किन्तु, वर्ण क्रम के प्रतिनिधित्व के लिए गुण और कर्म के सिद्धान्त को अपनाया गया। मानव योनि में जन्म लेने वाले मनुष्य ने जैसा कर्म किया वैसे ही क्रम के अनुसार जीवन शैली अपनाकर कर उसी वर्ण का प्रतिनिधित्व किया, लेकिन बदलते समय के अनुसार  यही व्यस्था कालांतर में जातिवाद में परिवर्तित हो गई।  जिसके चलते ऊंच, नीच, छोटा-बड़ा, छुआ छूत की खाई पैदा हुई जिसने हिंदू धर्म को बहुत बड़ा नुकसान पहुंचाया और सामाजिक समरसता में बाधक बनी, जब कि वर्ण व्यवस्था में एक वर्ण से दूसरे वर्ण में कर्म के अनुसार सदस्यता ग्रहण करने की इजाजत थी ।

जीवन – जन्म और मृत्यु के बीच के बिताए गये पलों (समय) को जीवन चक्र कहा जाता है। जीवन काल में इस स्थूल शरीर की संरचना उम्र के अनुसार, बचपन, किशोरावस्था, युवावस्था तथा बुढ़ापे में बदलती  रहती है जब कि शरीर में व्याप्त आत्मा का स्वरूप  सदैव एक सा रहता है। गर्भाधान संस्कार से अंतेष्टि संस्कारों के बीच सोडष संस्कार  सामाजिक जीवन  के आदर्श आचार संहिता के अनुसार कर्मकांड आधारित है, जिन्हें मानव  अपने आचरण में धारण कर जीवन जीता है।

संस्कारों से ओत-प्रोत जीवन शैली मानव समाज को गरिमा प्रदान करती है संस्कारविहीन समाज का विकास नहीं होता तथा तमाम विद्रूपता दिखाई देती है, तथा मानव जीवन त्रासद हो जाता है।

व्यक्ति सोडष संस्कारों को जीवन में आत्मसात कर के ही आदर्श समाज की संरचना करता है, संस्कार विहीन समाज पथभ्रष्ट होकर छिन्न भिन्न हो जाता है।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 5 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 5 ??

उत्सव का महत्व :

मनुष्य मूल रूप से उत्सवधर्मी है। संदर्भ भारतीय परंपरा और दर्शन का हो तो यह उत्सव जन्म से मृत्यु तक चलता है। हमारे षोडश संस्कार तो जन्म से पूर्व ही आरंभ हो जाते हैं और मृत्यु के लगभग दो पक्ष बाद तक चलते हैं। यह तब है जब छमाही और वार्षिक श्राद्ध/गया श्राद्ध इत्यादि को इस इस संदर्भ में शामिल नहीं किया गया है।  जन्म की आहट सुनाई देने पर बजने वाला बैंड भरपूर आयु लेकर गुजरे व्यक्ति की अंत्येष्टि में भी बजता है। कर्मठ भारतीय जनमानस निष्काम भाव से पाने और खोने को विधि हाथ छोड़कर अपनी सीमाओं में आनंद मनाना जानता है। गोस्वामी जी ने प्रभु श्रीराम के मुख से कहलवाया  है,

हानि लाभ जीवन मरन जस अपजस  विधि हाथ।

उत्सव जीवन को नीरसता से बाहर लाते हैं। मानसिक विरेचन का साधन बनते हैं उत्सव। किसी भी समुदाय को अपने अतीत से जोड़कर परंपरा के निर्वहन का वाहक, कारक, साधन और साधक होते हैं उत्सव।

समरसता और सामाजिक जुड़ाव मनुष्य जीवन के महत्वपूर्ण बिंदु हैं। नीरसता या एकरसता से समरसता की यात्रा शब्दों में एक ही वाक्य में पूरी हो जाती है पर जीवन में पर्व, त्योहार और उत्सव के माध्यम से प्रकट होती है। इनके साथ ॠतुचक्र और खगोलीय परिवर्तन भी जुड़े हैं। उदाहरण के लिए मांडने, रंगोली, गेरू-चूना, गोबर इन सब में एक दूसरे के साथ समूह में काम किया जाता था।  मांडने में जो प्रतीक हैं वे सारे सामासिकता के हैं। प्रतीक प्रकृति से लिए गए हैं। लोक का हर त्यौहार सामासिक है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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