हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 119 ☆ अधूरी ख़्वाहिशें ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ. मुक्ता

 

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख अधूरी ख़्वाहिशें। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 119 ☆

☆ अधूरी ख़्वाहिशें

‘कुछ ख़्वाहिशों का अधूरा रहना ही ठीक है/ ज़िंदगी जीने की चाहत बनी रहती है।’ गुलज़ार का यह संदेश हमें प्रेरित व ऊर्जस्वित करता है। ख़्वाहिशें उन स्वप्नों की भांति हैं, जिन्हें साकार करने में हम अपनी सारी ज़िंदगी लगा देते हैं। यह हमें जीने का अंदाज़ सिखाती हैं और जीवन-रेखा के समान हैं, जो हमें मंज़िल तक पहुंचाने की राह दर्शाती है। इच्छाओं व ख़्वाहिशों के समाप्त हो जाने पर ज़िंदगी थम-सी जाती है; उल्लास व आनंद समाप्त हो जाता है। इसलिए अब्दुल कलाम जी ने खुली आंखों से स्वप्न देखने का संदेश दिया है। ऐसे सपनों को साकार करने हित हम अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं और वे हमें तब तक चैन से नहीं बैठने देते; जब तक हमें अपनी मंज़िल प्राप्त नहीं हो जाती। भगवद्गीता में भी इच्छाओं पर अंकुश लगाने की बात कही गई है, क्योंकि वे दु:खों का मूल कारण हैं। अर्थशास्त्र  में भी सीमित साधनों द्वारा असीमित इच्छाओं  की पूर्ति को असंभव बताते हुए उन पर नियंत्रण रखने का सुझाव दिया गया है। वैसे भी आवश्यकताओं की पूर्ति तो संभव है; इच्छाओं की नहीं।

इस संदर्भ में मैं यह कहना चाहूंगी कि अपेक्षा व उपेक्षा दोनों मानव के लिए कष्टकारी व उसके विकास में बाधक हैं। उम्मीद मानव को स्वयं से रखनी चाहिए, दूसरों से नहीं। प्रथम मानव को उन्नति के पथ पर अग्रसर करता है; द्वितीय निराशा के गर्त में धकेल देता है। सो! गुलज़ार की यह सोच भी अत्यंत सार्थक है कि कुछ ख़्वाहिशों का अधूरा रहना ही कारग़र है, क्योंकि वे हमारे जीने का मक़सद बन जाती हैं और हमारा मार्गदर्शन करती हैं। जब तक ख़्वाहिशें ज़िंदा रहती हैं; मानव निरंतर सक्रिय व प्रयत्नशील रहता है और उनके पूरा होने के पश्चात् ही सक़ून प्राप्त करता है।

‘ख़ुद से जीतने की ज़िद्द है/ मुझे ख़ुद को ही हराना है/ मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ जी हां! मानव से जीवन में संघर्ष करने के पश्चात् मील के पत्थर स्थापित करना अपेक्षित है। यह सात्विक भाव है। यदि हम ईर्ष्या-द्वेष को हृदय में धारण कर दूसरों को पराजित करना चाहेंगे, तो हम राग-द्वेष में उलझ कर रह जाएंगे, जो हमारे पतन का कारण बनेगा। सो! हमें अपने अंतर्मन में स्पर्द्धा भाव को जाग्रत करना होगा और अपनी ख़ुदी को बुलंद करना होगा, ताकि ख़ुदा भी हमसे पूछे कि तेरी रज़ा क्या है? विषम परिस्थितियों में स्वयं को प्रभु-चरणों में समर्पित करना सर्वश्रेष्ठ उपाय है। सो! हमें वर्तमान के महत्व को स्वीकारना होगा, क्योंकि अतीत कभी लौटता नहीं और भविष्य अनिश्चित है। इसलिए हमें साहस व धैर्य का दामन थामे वर्तमान में जीना होगा। इन विषम परिस्थितियों में हमें आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे रखना है तथा पीछे मुड़कर कभी नहीं देखना है।

संसार में असंभव कुछ भी नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और हम वह सब सोच सकते हैं; जिसकी हमने आज तक कल्पना नहीं की। कोई भी रास्ता इतना लम्बा नहीं होता; जिसका अंत न हो। मानव की संगति अच्छी होनी चाहिए और उसे ‘रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं’ में विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं, जड़ें नहीं। जीवन संघर्ष है और प्रकृति का आमंत्रण है। जो स्वीकारता है, आगे बढ़ जाता है। इसलिए मानव को इस तरह जीना चाहिए, जैसे कल मर जाना है और सीखना इस प्रकार चाहिए, जैसे उसको सदा ज़िंदा रहना है। वैसे भी अच्छी किताबें व अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते; उन्हें पढ़ना पड़ता है। श्रेष्ठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। ऊंचाई पर पहुंचते हैं वे लोग जो प्रतिशोध नहीं, परिवर्तन की सोच रखते हैं। परिश्रम सबसे उत्तम गहना व आत्मविश्वास सच्चा साथी है। किसी से धोखा मत कीजिए; न ही प्रतिशोध की भावना को पनपने दीजिए। वैसे भी इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो हम किसी से करते हैं। जीवन में तुलना का खेल कभी मत खेलें, क्योंकि इस खेल का अंत नहीं है। जहां तुलना की शुरुआत होती है, वहां अपनत्व व आनंद भाव समाप्त हो जाता है।

ऐ मन! मत घबरा/ हौसलों को ज़िंदा रख/ आपदाएं सिर झुकाएंगी/ आकाश को छूने का जज़्बा रख। इसलिए ‘राह को मंज़िल बनाओ,तो कोई बात बने/ ज़िंदगी को ख़ुशी से बिताओ तो कोई बात बने/ राह में फूल भी, कांटे भी, कलियां भी/ सबको हंस के गले से लगाओ, तो कोई बात बने।’ उपरोक्त स्वरचित पंक्तियों द्वारा मानव को निरंतर कर्मशील रहने का संदेश प्रेषित है, क्योंकि हौसलों के जज़्बे के सामने पर्वत भी नत-मस्तक हो जाते हैं। ऐ मानव! अपनी संचित शक्तियों को पहचान, क्योंकि ‘थमती नहीं ज़िंदगी, कभी किसी के बिना/ यह गुज़रती भी नहीं, अपनों के बिना।’ सो! रिश्ते-नातों की अहमियत समझते हुए, विनम्रता से उनसे निबाह करते चलें, ताकि ज़िंदगी निर्बाध गति से चलती रहे और मानव यह कह उठे, ‘अगर देखना है मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो मेरी उड़ान को।’

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 4 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 4 ??

भारतीय संविधान और सामासिकता :

एकात्मता भारत का प्राण है। यही कारण है कि भारतीय संविधान ने भी सामासिक संस्कृति या ‘कंपोजिट कल्चर’ का उल्लेख किया है। कंपोजिट शब्द का उपयोग भारत के संविधान में यूँ ही नहीं किया गया। डॉ राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में बनी इस सभा में भारतीय दर्शन का गहन अध्ययन किये हुए अनेक लोग थे। इनमें सरदार वल्लभभाई पटेल, पं. जवाहरलाल नेहरू, डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर, पुरुषोत्तमदास टंडन, गोविंदवल्लभ पंत, सच्चिदानंद सिन्हा, वी.टी.कृष्णमाचारी,  हरेन्द्रकुमार मुखर्जी, आचार्य कृपलानी, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, सरदार बलदेवसिंह, आबिद हुसैन, सेठ गोविंद दास, पंजाबराव देशमुख, गोपीनाथ बारदोलोई, कन्हैयालाल मुंशी, नरहर विष्णु गाडगील, मोटूरि सत्यनारायण, नीलम संजीव रेड्डी, रामनाथ गोयनका, ठक्कर बापा, गणेश वासुदेव मालवणकर जैसे कुछ सदस्यों के नाम उल्लेेखनीय हैं। 389 सदस्यों की इस सभा के सदस्य ही स्वतंत्र भारत की पहली संसद के सदस्य भी बने।

इस सभा द्वारा उपयोग किये सामासिक शब्द को समझने का प्रयास किया जाय।

समास का अर्थ है योग, दो या दो से अधिक का योग। अंग्रेजी का शब्दकोश उठाकर देखें तो स्पष्ट होता है कि दो या अधिक भिन्न संस्कृति वाले लोग जब साथ आते हैं तो कंपोजिट बनता है।  लेखक की दृष्टि में सामासिक शब्द अपने अर्थ में कंपोजिट की तुलना में विराट है। मिलना, जुलना, जुड़ना, एक साथ आना, एकात्म होना अर्थात सामासिक होना। सामासिक होना अर्थात भारतीय होना अर्थात एक अर्थ में भारत होना।

सामासिकता और उत्सव :

सामासिकता के दर्शन दो स्तर पर होते हैं।  अंतर्भूत सामासिकता सूक्ष्म शरीर की भाँति होती है जिसके दर्शन के लिए देखने को दृष्टि में बदलना होता है। दूरबीन या बाइनोक्यूलर के स्थान पर सूक्ष्मदर्शी या माइक्रोस्कोप को काम में लाना पड़ता है। उदाहरण के लिए मनुष्य की देह पंचतत्वों से बनी है। कहा भी गया है-

क्षिति जल पावक गगन समीरा, पंचतत्व से बना सरीरा।

इन पंचतत्वों में पानी है जिससे देह का तीन चौथाई भाग बना है।  देह की घट-घट में बसा है पानी पर निरी आँख से नहीं दिखता अंतर्भूत जल। उसे देखने, अनुभूत करने के लिये पहले कहे अनुसार देखने को दृष्टि में बदलना पड़ता है।

दूसरा स्तर खुली आँखों से देखा, निहारा जा सकता है। मनुष्य का भीतर जैसा होता है, बाहर का व्यवहार भी वैसा ही होता है। पानी पीता हुआ मनुष्य सहज ही दिखता है। इसी भाँति उत्सव, मेले और तीर्थटन जनमानस की नस- नस में बसी सामासिकता का दर्शन कराते हैं।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 70 ☆ नारी शक्ति ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “नारी शक्ति।)

☆ किसलय की कलम से # 70 ☆

☆ नारी शक्ति ☆ 

प्राचीन भारत का लिखित-अलिखित इतिहास साक्षी है कि भारतीय समाज ने कभी मातृशक्ति के महत्त्व का आकलन कम नहीं किया, न ही मैत्रेयी, गार्गी, विद्योत्त्मा, लक्ष्मीबाई, दुर्गावती के भारत में इनका महत्त्व कम था। हमारे वेद और ग्रंथ शक्ति के योगदान से भरे पड़े हैं। इतिहास वीरांगनाओं के बलिदानों का साक्षी है। जब आदिकाल से ही मातृशक्ति को सोचने, समझने, कहने और कुछ कर गुजरने के अवसर मिलते रहे हैं तब वर्तमान में क्यों नहीं? आज जब परिवार, समाज और राष्ट्र नारी की सहभागिता के बिना अपूर्ण है तब हमारा दायित्व बनता है कि हम बेटियों में दूना-चौगुना उत्साह भरें। उन्हें घर, गाँव, शहर, देश और अंतरिक्ष से भी आगे सोचने का अवसर दें। उनकी योग्यता और क्षमता का उपयोग समाज और राष्ट्र विकास में होनें दें।

आज भले हम विकास के अभिलेखों में नारी सहभागिता को उल्लेखनीय कहें परंतु पर्याप्त नहीं कह सकते। अब समय आ गया है कि हम बेटियों के सुनहरे भविष्य के लिए गहन चिंतन करें. सरोजिनी नायडू, मदर टेरेसा, अमृता प्रीतम, डॉ. सुब्बु लक्ष्मी, पी. टी. उषा जैसी नारियाँ वे हस्ताक्षर हैं जो विकास पथ में “मील के पत्थर” सिद्ध हुई हैं, फिर भी नयी नयी दिशाओं में, नये आयामों में, सुनहरे कल की ओर विकास यात्रा निरंतर आगे बढ़ती रहेगी। पहले नारी चहार दीवारी तक ही सीमित थी, परंतु आज हम गर्वित हैं कि नारी की सीमा समाज सेवा, राजनीति, विज्ञान, चिकित्सा खेलकूद, साहित्य और संगीत को लाँघकर दूर अंतरिक्ष तक जा पहुँची है। भारतीय मूल की नारी ने ही अंतरिक्ष में जाकर अपनी उपस्थिति से नारी जगत को गौरवान्वित किया है। महिला वर्ग में शिक्षा के प्रति जागरूकता, पुरुषों की नारी के प्रति बदलती हुई सकारात्मक सोच, नारी प्रतिभा और महत्त्व का एहसास आज सभी को हो चला है। उद्योग-धंधे या फिर तकनीकि, चिकित्सा आदि का क्षेत्र ही क्यों न हो, नारी प्रतिनिधित्व स्वाभाविक सा लगने लगा है। अनेक क्षेत्रों में नारी पुरुषों से कहीं आगे निकल गई है।

समाज महिला और पुरुष दोनों वर्गों का मिला-जुला स्वरूप है। चहुँमुखी विकास में दोनों की सक्रियता अनिवार्य है। महिलाओं में प्रगति का अर्थ है आधी सामाजिक चेतना और जन-कल्याण। महिलाएँ घर और बाहर दोनों जगह महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती हैं, बशर्ते वे शिक्षित हों। जागरूक हों। उन्हें उत्साहित किया जाए। उन्हें आभास कराया जाए कि नारी तुम्हारे बिना विकास सदैव अपूर्ण रहेगा। अब स्वयं ही तुम्हें अपने बल, बुद्धि और विवेक से आगे बढ़ने का वक्त आ गया है। कब तक पुरुषों का सहारा लोगी? बैसाखी पकड़कर चलने की आदत कभी स्वावलंबन नहीं बनने दे सकती। कर्मठता का दीप प्रज्ज्वलित करो। श्रम की सरिता बहाओ। बुद्धि का प्रकाश फैलाओ और अपनी ” नारी शक्ति ” का वैभव दिखला दो। नारी विकास के पथ में आने वाले सारे अवरोधों को हटा दो। घर की चहारदीवारी से बाहर निकालकर कूद पड़ो विकास के महासमर में। छलाँग लगा दो विज्ञान और तकनीकि के अंतरिक्ष में। परिस्थितियाँ और परिवेश बदले हैं। आत्मनिर्भरता बढ़ी है। दृढ़ आत्मविश्वास की और आवश्यकता है। मात्र नारी मुक्ति आंदोलनों से कुछ नहीं होगा! पहले तुम्हें स्वयं अपना ठोस आधार निर्मित करना होगा। इसके लिए शिक्षा, कर्मठता का संकल्प, भविष्य के सुनहरे सपने और आत्मविश्वास की आधार शिलाओं की आवश्यकता है। इन्हें प्राप्त कर इन्हें ही विकास की सीढ़ी बनाओ और पहुँचने की कोशिश करो, प्रगति के सर्वोच्च शिखर पर। कोशिशें ही तो कर्म हैं। कर्म करती चलो। परिणाम की चिंता मत करो। नारी तुम्हारा श्रम, तुम्हारी निष्ठा, तुम्हारी सहभागिता, तुम्हारे श्रम सीकर व्यर्थ नहीं जाएँगे। कल तुम्हारा होगा। तुम्हारी तपस्या का परिणाम निःसंदेह सुखद ही होगा, जिसमें तुम्हारी, हमारी और सारे समाज की भलाई निहित है।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 3 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 3 ??

आधुनिक विज्ञान जब मनुष्य के क्रमिक विकास की बात करता है तो शनै:-शनै: एक से अनेक होने की प्रक्रिया और सिद्धांत प्रतिपादित करता है। दुनिया की अन्यान्य सभ्यताएँ जब समुदाय या पड़ोसी से प्रेम करने की सीख दे रहे थे, उससे हजारों वर्ष पूर्व भारतीय दर्शन और ज्ञान के पुंज भारतीय महर्षि एकात्मता का विराट भारतीय दर्शन लेकर आ चुके थे। महोपनिषद का यह श्लोक सारे सिद्धांतों और सारी थिअरीज की तुलना में विराट की पराकाष्ठा है।

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥

(महोपनिषद्, अध्याय 4, श्लोक 71)

अर्थात यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों के लिए तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है।

मनुष्य की सामाजिकता और सामासिकता का विराट दर्शन है भारतीय संस्कृति।  ’ॐ सह नाववतु’ गुरु- शिष्य द्वारा एक साथ की जाती प्रार्थना में एकात्मता का जो आविर्भाव है वह विश्व की अन्य किसी भी सभ्यता में देखने को नहीं मिलेगा। कठोपनिषद में तत्सम्बंधी श्लोक देखिये-

॥ ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥19॥

(कठोपनिषद -कृष्ण यजुर्वेद)

अर्थात परमेश्वर हम (शिष्य और आचार्य) दोनों की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए, हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें, हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें।

इस तरह की सदाशयी भावना रखने वाले का मन निर्मल रहता है। निर्मल मन से निर्मल भविष्य का उदय होता है। उदय और अस्त का परम अद्वैत दर्शन है श्रीमद्भागवत गीता। गीता में स्वयं योगेश्वर कहते हैं-

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्॥ (गीता 10।39)

अर्थात, हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियों का जो बीज है, वह मैं ही हूँ। मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है।

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।

मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टमिच्छसि ॥ (11/ 7)

अर्थात, हे अर्जुन! तू मेरे इस शरीर में एक स्थान में चर-अचर सृष्टि सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को देख और अन्य कुछ भी तू देखना चाहता है उन्हे भी देख।

एकात्म भाव का विस्तृत विवेचन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥ (6।30)

अर्थात् जो सबमें मुझको देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।’

इस अदृश्य का यह सारगर्भित दृश्य समझिये इस उवाच से-

यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।

प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम॥

अर्थात जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) संसार के छोटे-बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही मैं भी विश्व में व्यापक होने पर भी उससे संपृक्त हूँ।

संपृक्त श्रीमद्भागवत का यह अनहद नाद सुनिए-

अहमेवासमेवाग्रे नान्यद यत् सदसत परम।

पश्चादहं यदेतच्च योडवशिष्येत सोडस्म्यहम

श्रीमद्भागवत (2।9।32)

अर्थात सृष्टि के पूर्व भी मैं ही था, मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं था और सृष्टि के उत्पन्न होने के बाद जो कुछ भी यह दिखायी दे रहा है, वह मैं ही हूँ। जो सत्, असत् और उससे परे है, वह सब मैं ही हूँ तथा सृष्टि के बाद भी मैं ही हूँ एवं इन सबका नाश हो जाने पर जो कुछ बाकी रहता है, वह भी मैं ही हूँ। 

सांगोपांग सार है, ‘वासुदेव: सर्वम्।’ चर हो या अचर, वासुदेव के सिवा जगत में दूसरा कोई नहीं है। अत: कहा गया, चराचर में एक ही आत्मा देख, एकात्म हो।

शांतिपाठ का पूर्णता की सम्पूर्णता बखानता यह श्लोक भी इसी अद्भुत सत्य की तार्किक पुष्टि करता है-

ओम पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण मुदच्यते।

पूर्णस्यपूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते!

सचमुच सामासिकता का परम है यह। मनुष्य मात्र नहीं सारे सजीव और निर्जीव में भी परम शक्ति देखने से बढ़कर सुदर्शन और क्या होगा! सब में एक ही आत्मा देखना अर्थात एक आत्मा होना भारतीयता के कण-कण में है। इसी संदर्भ में लेख के आरंभ में संत नामदेव महाराज के जीवन से जुड़ा प्रसंग प्रयोजनीय हो जाता है। गोस्वामी जी का ‘सकल राममय जानि’ इसी दर्शन का पुनरुच्चार है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ गभस्तिनी… ☆ सौ कुंदा कुलकर्णी ग्रामोपाध्ये

सौ कुंदा कुलकर्णी

? मनमंजुषेतून ?

☆ गभस्तिनी… ☆ सौ कुंदा कुलकर्णी ☆ 

गभस्तिनी ही महर्षि दधीचि  यांची पत्नी, महर्षी अगस्ती यांची मेहुणी व लोपामुद्राची बहीण होती. उत्तर प्रदेशात नैमिषारण्याजवळ सीतापुर येथे दधीची ऋषींचा आश्रम होता. पतीसमवेत ती आनंदाने रहात होती. आश्रमाजवळ अनेक वृक्ष पक्षी व प्राणी होते. त्यांच्यावर हे पती-पत्नी खूप प्रेम करत. आश्रमात कोणीही आले तरी गभस्तिनी  आनंदाने त्यांचे स्वागत करत असे. दाधीचि ऋषींच्या हाडांमध्ये वज्र तेज होते. वृत्रासुर राक्षसाचा वध करण्यासाठी इंद्रादी देवांनी त्यांना अस्थि दान करण्यास सांगितले. ऋषींनी आनंदाने अस्थिदान केले. कामधेनूने त्यांचे सर्व मांस चाटून टाकले. तिथे फक्त त्यांचे केस आणि त्वचा उरली. त्यावेळी गभस्तिनी गंगा नदीचे पाणी आणण्यासाठी गेली होती. ती परत आल्यावर तिला आपले पती दिसेनात. तिने अग्नीला विचारले माझे पती कुठे आहेत? अग्नीने सर्व प्रसंग सांगितला. तिला खूप वाईट वाटले. ती पतिव्रता होती. मी आता सती जाणार असे तिने सर्वांना सांगितले. परलोकात मला माझे पती भेटतील असे ती म्हणू लागली. इंद्राने खूप समजावण्याचा प्रयत्न केला. तू गरोदर आहेस. तुला सती जाण्याचा अधिकार नाही. पण ती अत्यंत हुशार होती. आपल्या ज्ञानाच्या सहायाने तिने कुणाचीही मदत न घेता स्वतःचा गर्भ स्वतःच बाहेर काढला. व पिंपळाच्या झाडाकडे गेली. खरं तर तिथे खूप वृक्ष होते. पण पिंपळ हा सर्वश्रेष्ठ वृक्ष आहे तो 24 तास प्राणवायू बाहेर टाकत असतो. त्याची पाने फुले फळे खाण्यायोग्य असतात याचे पूर्ण ज्ञान तिला होते. तिने आपला गर्भ पिंपळाला अर्पण केला व सांगितले या माझ्या होणाऱ्या बाळाला भाऊ बहीण नाहीत. तूच त्याचे पालन पोषण आणि रक्षण कर. व तिने अग्नीला वंदन केले. स्वतःच चिता रचली. व पतीचे केस आणि त्वचा यासह तिने अग्निप्रवेश केला. तिची आज्ञा शिरसावंद्य मानून पिंपळ वृक्षाने त्या गर्भाची देखभाल पालन पोषण केले. नऊ महिने होताच त्यातून एक बालक जन्माला आले. पिंपळ वृक्षाची पाने फुले फळे खाऊन ते वाढू लागले. तेच पिप्पलाद ऋषी.

गभस्तिनीला आपले बाळ पाहता आले नाही. पण बाळाच्या जन्माची पालनपोषणाची पूर्ण जबाबदारी पिंपळ वृक्षाकडे सोपवून पतीबरोबर सती जाणे हा पत्नीधर्म तिने  निभावला. आजचे टेस्ट ट्यूब बेबी, सरोगेट मदर, सिझेरियन हे तंत्रज्ञान तिच्या अगाध ज्ञानापुढे फिके आहे. अशी ही न भूतो न भविष्यती आदर्श पत्नी आदर्श माता. कोटी कोटी नमन

 

© सौ. कुंदा कुलकर्णी ग्रामोपाध्ये

क्यू 17,  मौर्य विहार, सहजानंद सोसायटी जवळ कोथरूड पुणे

मो. 9527460290

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 2 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 2 ??

राष्ट्र का संगठन :

राष्ट्र का गठन राज्य या प्रदेश से होता है। प्रदेश, जनपद से मिलकर बनते हैं। जनपद की इकाई तहसील होती है। तहसील नगर और गाँवों से बनती है। नगर या गाँव वॉर्ड अथवा प्रभाग से, प्रभाग मोहल्लोेंं से, मोहल्लेे परिवारों से और परिवार, व्यक्ति से बनता है। इस प्रकार व्यक्ति या नागरिक, राष्ट्र की कोशिका है। व्यक्तियों के संग से संघ के रूप में उभरता है राष्ट्र।

व्यक्ति, समष्टि, सृष्टि  एवं एकात्मता :

संगी-साथी हो चाहे जीवनसंगी, किसीका साथ न हो तो मनुष्य पगला जाता है। मनुष्य को साथ चाहिए, मनुष्य को समाज चाहिए। दूसरे शब्दों में ’मैन इज़ अ सोशल एनिमल।’

सामाजिक होने का अर्थ है कि मनुष्य अकेला नहीं रह सकता। अकेला नहीं रह सकता, अत: स्त्री-पुरुष साथ आए। यूँ भी सृष्टि युग्मराग है। प्रकृति और पुरुष साथ न हों तो सृष्टि चलेगी कैसे?

पाषाणयुग में स्त्री, पुरुष दोनों शिकार करने में सक्षम थे, आत्मनिर्भर थे। आरंभ में लैंगिक आकर्षण के कारण वे साथ आए। यौन सम्बंध हुए, स्त्री ने गर्भ धारण किया। गर्भ में जीव क्या आया मानो मनुष्य की मनुष्यता अवतरित हुई।

वस्तुत: मनुष्य में विराटता अंतर्भूत है। विराट एकाकी नहीं होता और सज्जन में, शठ में सब में होती है। इसी विराटता ने सूक्ष्म से स्थूल की ओर पैर पसारना आरंभ किया। मनुष्य में समूह जागा।

गर्भवती के लिये शिकार करना कठिन था। सुरक्षित प्रसव का भी प्रश्न रहा होगा। भूख, सुरक्षा, शिशु का जन्म आदि अनेक भाव एवं विचार होंगे जिन्होंने सहअस्तित्व तथा दायित्वबोध को जन्म दिया।

मनुष्य का परिवार पनपा। परिवार के लिये बेहतर संसाधन जुटाने की इच्छा ने मनुष्य को विकास के लिये प्रेरित किया। अब पास-पड़ोस भी आया। मनुष्य सुख दुख बाँटना चाहता था। वह समूह में रहने लगा। इसे विकास की मानसिक प्रक्रिया या प्रोसेस ऑफ साइकोलॉजिकल इवोल्यूशन कह सकते हैं।

वैसे इन तमाम सिद्धांतों से पहले अपौरूषेय आदिग्रंथ ऋग्वेद,  ईश्वर का ज्ञानोपदेश सीधे लेकर आ चुका था। स्पष्ट उद्घोष है-

॥ सं. गच्छध्वम् सं वदध्वम्॥

 ( ऋग्वेद 10.181.2)

अर्थात साथ चलें, साथ (समूह में) बोलें। ऋग्वेद द्वारा प्रतिपादित सामूहिकता का मंत्र मानुषिकता एवं एकात्मता का प्रथम अधिकृत संस्करण है।

अथर्ववेद एकात्मता के इसी तत्व के मूलबिंदु तक जाता है-

॥ मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्, मा स्वसारमुत स्वसा।

सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया॥2॥

(अथर्ववेद 3.30.3)

अर्थात भाई, भाई से द्वेष न करें, बहन, बहन से द्वेष न करें, समान गति से एक-दूसरे का आदर- सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एकमत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर संभाषण करें।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 1 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

आज से प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा – भाग – 1 ??

“भारत जमीन का टुकड़ा नहीं, जीता जागता राष्ट्रपुरुष है। हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है, पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं। पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें हैं। कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है। यह चन्दन/वन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है, यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है। इसका कंकड़-कंकड़ शंकर है, इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है। हम जियेंगे तो इसके लिये मरेंगे तो इसके लिये।”

-भारतरत्न अटलबिहारी वाजपेयी

राष्ट्र की भारतीय अवधारणा :

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री भारतरत्न अटलबिहारी वाजपेयी का अक्षर-अक्षर ऊर्जावान उपर्युक्त कथन राष्ट्र की भारतीय अवधारणा का मूर्त रूप है। भारतीय दर्शन में राष्ट्र की अवधारणा अन्य किसी भी दर्शन की तुलना में अत्यंत उदार, विस्तृत, प्रगल्भ, सदाशय एवं प्राणवान है। ‘कंट्री’ या ‘स्टेट’ किसी भूभाग के टुकड़े तक सीमित रह जाते हैं किंतु राष्ट्र उस भूभाग के निवासियों के जीवनमूल्यों के आधार पर बनता है। यहाँ राष्ट्र के लिए जीना अर्थात सांस्कृतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, भाषाई, मनोवैज्ञानिक संबंधों के लिए जीना। जैसे स्थूल शरीर में सूक्ष्म निवास करता है उसी प्रकार बृहत्तर राष्ट्र की आत्मा है नागरिक। 

अटल जी का उपर्युक्त कथन न केवल इस अवधारणा को संपुष्ट करता है अपितु राष्ट्र और नागरिक में अद्वैत स्थापित कर राष्ट्र को समाज का मुखिया भी घोषित कर देता है। फलस्वरूप नागरिक राष्ट्र के साथ विलयित होकर एकात्म हो जाता है।

एकात्मता और एकता :

ये दोनों शब्द सामान्यत: समान अर्थ में प्रयोग होते हैं। चलन में एक जैसा अर्थ होने पर भी  दोनों शब्दों के भावात्मक संसार में धरती-आकाश का अंतर है। एकता, यूनिटी या इंटिग्रिटी तक ठहर जाती है जबकि एकात्मता चराचर को एक भाव से निहारती है।

इस अंतर को एक दृष्टांत के माध्यम से समझा जा सकता है। संत नामदेव महाराज, ठाकुर जी को  दैनिक भोग लगाने के लिए रोटियाँ बना रहे थे। अभी पहली रोटी बनी थी। घीलड़ी से चम्मच में घी लिया, रोटी को चुपड़ते कि एकाएक कहीं से एक कुत्ता प्रकट हुआ और रोटी लेकर भाग खड़ा हुआ। महाराज जी ने आव देखा न ताव, कुत्ते का पीछा करने लगे।  अद्भुत दृश्य  है। कुत्ता आगे-आगे भाग रहा है, नामदेव जी महाराज पीछे-पीछे चम्मच में घी लिये दौड़ रहे हैं। दृश्य को देखकर जगत हँसता है। किसी भलेमानस ने कहा,  “महाराज जी, जाने दीजिए। अब यह कुत्ता आपके हाथ थोड़े ही आयेगा। यह रोटी उसके भाग्य की ही है। क्यों रोटी छीनने उसके पीछे व्यर्थ दौड़ लगा रहे हैं?” नामदेव जी महाराज के नेत्रों से टपटप अश्रु गिरने लगे। कहा, “मैं तो रोटी को घी चुपड़ने चम्मच में घी लिये दौड़ रहा हूँ। मेरा हरि सूखी रोटी कैसे खायेगा?”

गोस्वामी तुलसीदास श्रीरामचरितमानस में लिखते हैं,

जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।

बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥7(ग)॥

अर्थात जगत में जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरणकमलों की सदा दोनों हाथ जोड़कर वन्दना करता हूँ।

यही कारण है कि भारतीय दर्शन में अंतर्निहित एकात्म भाव को नमन करते हुए लेखक ने एकात्मता शब्द का प्रयोग किया है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 124 ☆ स्वर्गादपि गरीयसी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 124 ☆ स्वर्गादपि गरीयसी ?

लोकतन्त्र को जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन के रूप में परिभाषित किया जाता है। गणतंत्र को एक अर्थ में लोकतंत्र का अधिकृत  क्रियान्वयन कहा जा सकता है। गणतंत्र की अपनी स्थूल देह नहीं होती पर अपने हर नागरिक की हर साँस में दम भरता है गणतंत्र। गणतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता प्रत्येक  नागरिक में समाहित होती है।

मतितार्थ स्पष्ट है। सत्ता यदि हरेक में समाहित है तो दायित्व भी हरेक का है। एक प्रेरक घटना याद आ रही है। जापान के एक विद्यालय में विदेशी प्रतिनिधिमंडल पहुँचा। दस-बारह वर्षीय एक छात्र से प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य ने प्रश्न किया, ‘यदि कोई शत्रु तुम्हारे देश पर आक्रमण कर दे तो तुम क्या करोगे?’ छात्र ने कहा, ‘मैं शत्रु का डटकर मुकाबला करूँगा। शत्रु का शीश काटकर अपनी मातृभूमि पर अर्पित कर दूँगा।’ प्रतिनिधिमंडल इतनी-सी आयु के बालक के इस उत्तर से अवाक रह गया। सदस्यों ने इस भावना का गहरे तक जाकर विश्लेषण करने की ठानी। बालक से उसके धर्म, पंथ, संप्रदाय की जानकारी ली। बालक स्थानीय मान्यता के एक पंथ से सम्बंधित था। यह पंथ एक देवता विशेष की पूजा करता है। प्रतिनिधिमंडल ने विचारपूर्वक अगला प्रश्न किया, ‘यदि तुम्हारे पंथ का देवता तुम्हारे देश पर आक्रमण कर दे तो तुम क्या करोगे?’  छात्र ने बिना किसी हिचकिचाहट के उत्तर दिया,’ मैं देवता से युद्ध करूँगा। आवश्यकता पड़ी तो देवता का शीश काटकर अपनी मातृभूमि पर अर्पित कर दूँगा।’

अनन्य मार्गदर्शक संदेश है। निजी आस्था अनेक हो सकती हैं पर सामूहिक और सर्वोच्च आस्था है देश। तभी तो भारतीय संस्कृति का उद्घोष है, ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’ इस उद्घोष का वर्तन ही गणतंत्र का रक्षण करता है। हम भारतीय इसी भाव से भारत के गणतंत्र की सदा रक्षा करें। हमारा गणतंत्र स्वस्थ रहे, चिरंजीव हो।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 118 ☆ प्रेम, प्रार्थना और क्षमा ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख प्रेम, प्रार्थना और क्षमा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 118 ☆

☆ प्रेम, प्रार्थना और क्षमा

प्रेम, प्रार्थना और क्षमा अनमोल रतन हैं। शक्ति, साहस, सामर्थ्य व सात्विकता जीवन को सार्थक व उज्ज्वल बनाने के उपादान हैं। मानव परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है और प्राणी-मात्र के प्रति करुणा भाव उससे अपेक्षित है…यही समस्त जीव-जगत् की मांग है। प्रेम व करुणा पर्यायवाची हैं…एक के अभाव में दूसरा अस्तित्वहीन है। सो! प्रेम में अहिंसा व्याप्त है;  जो करुणा की जनक है। जब इंसान को किसी से प्रेम होता है, तो वह उसका हित चाहता है; मंगल की कामना करता है। उस स्थिति में सबके प्रति हृदय में करुणा भाव व्याप्त रहता है और उसके पदार्पण करते ही स्नेह, सौहार्द, त्याग, सहनशीलता व सहानुभूति के भाव स्वतः प्रकट हो जाते हैं और अहं भाव विलीन हो जाता है। अहं मानव में निहित दैवीय गुणों का सबसे बड़ा शत्रु है। अहं में सर्वश्रेष्ठता का भाव सर्वोपरि है तथा करुणा में स्नेह, त्याग, समानता, दया व सर्वमांगल्य का भाव व्याप्त रहता है। सो! किसी के प्रति प्रेम भाव होने से हम उसकी अनुपस्थिति में भी उसके पक्षधर व उसकी ढाल बनकर खड़े रहते हैं। प्रेम दूसरों के गुणों को देखकर हृदय में उपजता है। इसलिए स्व-पर व राग-द्वेष आदि उसके सम्मुख टिक नहीं पाते और हृदय से मनोमालिन्य के भाव स्वत: विलीन हो जाते हैं। प्रेम नि:स्वार्थता का प्रतीक है तथा प्रतिदान की अपेक्षा नहीं रखता।

ईश्वर के प्रति श्रद्धा व प्रेम का भाव प्रार्थना कहलाता है, जिसमें अनुनय-विनय का भाव प्रमुख रहता है। श्रद्धा में गुणों के प्रति स्वीकार्यता का भाव विद्यमान रहता है। शुक्ल जी ने ‘श्रद्धा व प्रेम के योग को भक्ति की संज्ञा से अभिहित किया है।’ प्रभु की असीम सत्ता के प्रति श्रद्धा भाव रखते हुए मानव को सदैव उसके सम्मुख नत रहना अपेक्षित है; उसकी करुणा- कृपा को अनुभव कर उसका गुणगान करना तथा सहायता के लिए ग़ुहार लगाना, प्रार्थना कहलाता है। दूसरे शब्दों में यही भक्ति है। श्रद्धा किसी व्यक्ति के प्रति भी हो सकती है…यह शाश्वत् सत्य है। जब हम किसी व्यक्ति में दैवीय गुणों का अंबार पाते हैं, तो मस्तक उसके समक्ष अनायास झुक जाता है।

प्रार्थना हृदय के वे उद्गार हैं, जो उस मन:स्थिति में प्रकट होते हैं; जब मानव हैरान-परेशान, थका-मांदा, दुनिया वालों के व्यवहार से आहत, आपदाओं से अस्त-व्यस्त व त्रस्त होकर प्रभु से मुक्ति पाने की ग़ुहार लगाता है। प्रार्थना के क्षणों में वह अपने अहं को मिटाकर उसकी रज़ा में अपनी रज़ा मिला देता है। उन क्षणों में अहं अर्थात् मैं और तुम का भाव विलीन हो जाता है और रह जाता है केवल सृष्टि-नियंता, जो सृष्टि अथवा प्रकृति के कण-कण में व्याप्त होता है। उस स्थिति में आत्मा व परमात्मा का तादात्म्य हो जाता है और उन अलौकिक क्षणों में स्व-पर व राग-द्वेष के भाव नदारद हो जाते हैं… सर्व- मांगल्य व सर्व-हिताय की भावना बलवती व प्रबल हो जाती है।

जहां प्रेम होता है, वहां क्षमा तो बिन बुलाए मेहमान की भांति स्वयं ही दस्तक दे देती है और अहं का प्रवेश वर्जित हो जाता है। सो! स्व-पर व अपने-पराये का प्रश्न ही कहाँ उठता है? किसी के हृदय को दु:ख पहुंचाने, बुरा सोचने व नीचा दिखाने की कल्पना बेमानी है। प्रेम के वश में मानव क्रोध व दखलांदाज़ी करने की सामर्थ्य ही कहां जुटा पाता है? वैसे संसार में सभी ग़लत कार्य क्रोध में होते हैं और क्रोध तो दूध के उबाल की भांति सहसा दबे-पांव दस्तक देता है तथा पल-भर में सब नष्ट-भ्रष्ट कर रफूचक्कर हो जाता है। वर्षों पहले के गहन संबंध उसी क्षण कपूर की मानिंद विलुप्त हो जाते हैं और अविश्वास की भावना हृदय में स्थायी रूप से घर कर लेती है। क्रोध अव्यवस्था फैलाता है तथा शांति भंग करना उसके बायें हाथ का खेल होता है। क्रोध की स्थिति में जन्म-जन्मांतर के संबंध टूट जाते हैं और इंसान एक-दूसरे का चेहरा तक देखना पसंद नहीं करता। सो! उससे निज़ात पाने का उपाय है…क्षमा अर्थात् दूसरों को मुआफ़ कर उदार हृदय से उन्हें स्वीकार लेना। इससे हृदय की दुष्प्रवृत्तियों व निम्न भावनाओं का शमन हो जाता है। इसलिए जैन संप्रदाय में ‘क्षमापर्व’ मनाया जाता है। यदि हमारे हृदय में किसी के प्रति दुष्भावना व शत्रुता है, तो उससे क्षमा याचना कर दोस्ताना स्थापित कर लिया जाना अत्यंत आवश्यक है, जो श्लाघनीय है और  मानव स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है, हितकारी है।

वैसे भी यह ज़िंदगी चार दिन की मेहमान है। इंसान इस संसार में खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ लौट कर जाना है…फिर किसी से ईर्ष्या व शत्रुता भाव क्यों? जो भी हमारे पास है… हमने यहीं से लिया है और उसे यहीं छोड़ उस अनंत-असीम सत्ता में समा जाना है… फिर अभिमान कैसा? परमात्मा ने तो सबको समान बनाया है…यह जात-पात, ऊंच-नीच व अमीर-गरीब का भेदभाव तो मानव-मस्तिष्क की उपज है। सब उस प्रभु के बंदे हैं और सारे संसार में उसका नूर समाया है। कोई छोटा-बड़ा नहीं है, इसलिए सबसे प्रेम करें; दया भाव प्रदर्शित करें; संग्रह की प्रवृत्ति का त्याग कर किसी को पीड़ा मत पहुंचाएं तथा जो मिला है, उसमें संतोष करें। सो! दूसरों के अधिकारों का हनन मत करें–यही जीवन की उपादेयता है, सार्थकता है।

शक्ति, सामर्थ्य, साहस व सात्विकता वे गुण हैं, जो मानव जीवन को श्रद्धेय बनाते हैं। सो! इनके सदुपयोग की आवश्यकता है। इसलिए यदि आप में शक्ति है, तो आप तन, मन, धन से निर्बल की रक्षा करें तथा अपने कार्य स्वयं करें, क्योंकि शक्ति सामर्थ्य का प्रतीक है और जीवन का सार व प्राणी-मात्र के प्रति करुणा भाव दर्शाने का उपादान है। सो! यदि आप में शक्ति व सामर्थ्य है, तो साहसपूर्वक निरंतर कर्मशील रह कर सबका मंगल करें तथा विपरीत व विषम परिस्थितियों में आत्म-विश्वास से आगामी आपदाओं-बाधाओं का सामना करें। साहसी व्यक्ति को धैर्य रूपी धरोहर सदैव संजोकर रखनी चाहिए और निर्बल, दीनहीन व अक्षम पर कभी भी प्रहार नहीं करना चाहिए। हां! इसके लिए दरक़ार है…भावों की सात्विकता, पावनता व पवित्रता की; जिसका पदार्पण जीवन में सकारात्मक सोच, आस्था व विश्वास पर आधारित होता है। यदि मानव में स्नेह, प्रेम, करुणा व श्रद्धा के साथ क्षमा-भाव भी व्याप्त है, तो सोने पर सुहागा क्योंकि इससे सभी ग़लतफ़हमियां, वाद-विवाद व झगड़े तत्क्षण समाप्त हो जाते हैं। इसका दूसरा रूप है प्रायश्चित… जिसके हृदय में प्रवेश करते ही मानव को अपनी ग़लती का आभास हो जाता है कि वह दोषी ही नहीं; अपराधी है। सो! वह उसे न दोहराने का निश्चय करता है तथा उससे क्षमा मांग कर अपने हृदय को शांत करता है। उस स्थिति में दूसरे भी सुक़ून पाकर धन्य हो जाते हैं। शायद! इसीलिए कहा गया है कि ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात्’ अर्थात् क्षमा भाव ही सबसे श्रेष्ठ गुण है। क्षमा याचना करना अथवा दूसरों को क्षमा करना… इन दोनों स्थितियों में मानव हृदय की कलुषता व मनोमालिन्य समाप्त हो जाता है अर्थात् जब छोटे ग़लतियां करते हैं, तो बड़ों का दायित्व है… वे उन्हें क्षमा कर उदारता व उदात्तता का परिचय दें। इसलिए यदि आप क्रोध अथवा अज्ञानवश किसी जीव के प्रति हिंसक व निर्दयता का भाव रखते हैं और उसे शारीरिक व मानसिक कष्ट पहुंचाते हैं; तो आपको उससे क्षमा याचना कर अपना बड़प्पन दिखाना चाहिए। परंतु अहंनिष्ठ व्यक्ति से ऐसी अपेक्षा रखने की कल्पना करना भी बेमानी है।

‘सो! रिश्ते जब मज़बूत होते हैं, बिन बोले महसूस होते हैं तथा ऐसे संबंध अटूट होते हैं; ऐसी सोच के लोग महान् कहलाते हैं।’ उनका सानिध्य पाकर सब गौरवान्वित अनुभव करते हैं। वास्तव में ऐसी सोच के धनी…’व्यक्ति नहीं;  व्यक्तित्व होते हैं।’ परंतु वे अत्यंत कठिनाई से मिलते हैं। इसलिए उन्हें भी अमूल्य धन-सम्पदा व धरोहर की भांति सहेज-संभाल कर रखना चाहिए तथा उनके गुणों का अनुसरण करना चाहिए ताकि वे उन्मुक्त भाव से अपना जीवन बसर कर सकें। वास्तव में वे आपको कभी भी चिंता के सागर में अवगाहन नहीं करने देते।

प्रेम, प्रार्थना व क्षमा अनमोल रत्न हैं। उन्हें शक्ति, सामर्थ्य, साहस, धैर्य व सात्विक भाव से तराशना अपेक्षित है, क्योंकि हीरे का मूल्य जौहरी ही जानता है और वही उसे तराश कर अनमोल बना सकता है। इसके लिए आवश्यकता है कि हम उन परिस्थितियों को बदलने की अपेक्षा स्वयं को बदलने का प्रयास करें …उस स्थिति में जीवन के शब्दकोश से कठिन व असंभव शब्द नदारद हो जायेंगे। इसलिए आत्मसंतोष व सब्र को जीवन में धारण करें, क्योंकि ये दोनो अनमोल रत्न हैं; जो आपको न तो किसी की नज़रों में झुकने देते हैं और न ही किसी के कदमों में। इसका मुख्य उपादान है– आपका मधुर व्यवहार, जीवन में समझौतावादी दृष्टिकोण व सुख दु:ख में सम रहने का भाव, जो समरसता का द्योतक है। सो! आप दैवीय गुणों व सकारात्मक दृष्टिकोण द्वारा सबके जीवन को उमंग, उल्लास व असीम प्रसन्नता से आप्लावित कर; उनकी खुशी के लिए स्वार्थों को तिलांजलि दे ‘सुक़ून से जीएँ व जीने दें’ तथा ‘सबका मंगल होय’ की राह का अनुसरण कर जीवन को सुंदर, सार्थक व अनुकरणीय बनाएं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 69 ☆ भारतीय संविधान के निहितार्थों का दुरुपयोग ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख भारतीय संविधान के निहितार्थों का दुरुपयोग।)

☆ किसलय की कलम से # 69 ☆

☆ भारतीय संविधान के निहितार्थों का दुरुपयोग ☆ 

देशभक्तों और आजादी हेतु प्राणोत्सर्ग करने वाले रणबांकुरों के स्वतंत्रता आंदोलन के परिणाम स्वरूप भारतीय संविधान को भारतीयों द्वारा ही बनाए जाने की मांग अंतत: अंग्रेजों को मानना ही पड़ी थी। राष्ट्र समर्पितों के राष्ट्रप्रेम, देश के सर्वांगीण विकास की भावना एवं राष्ट्रीय एकता का प्रतिमान रूपी हमारा संविधान हम सबके सामने है। यह हमारी सोच, संस्कृति एवं हमारे गणतंत्र राष्ट्र की ढाल है, जिसके मजबूत सहारे से आज हम 21 वीं सदी की शिखरीय यात्रा पर अग्रसर हैं। आधे करोड़ से भी अधिक रुपयों के खर्च पर हमारे संविधान का निर्माण 2 वर्ष 11 माह 18 दिन में हुआ । 395 अनुच्छेद एवं 8 अनुसूचियों वाले इस संविधान को पूर्ण रूपेण 26 जनवरी सन 1950 को लागू किया गया। विश्व के वृहद्तम संविधान के अनुच्छेद 368 के अंतर्गत इसमें संशोधनों की भी व्यवस्था की गई है, जो कि हमारे संविधान के लचीलेपन का द्योतक है । सन 1950 से हम प्रतिवर्ष संविधान स्थापना स्मृति को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाते हुए 72 वर्ष का सफर तय कर चुके हैं परंतु क्या आज भी हम, अपने संविधान में निहित भावनाओं को समझ सके हैं? क्या हमारा संविधान जन-जन तक पहुँच सका है? आज भी हमारे देश में अधिकांश ऐसे लोग हैं जिन्होंने संविधान की प्रति भी नहीं देखी। आज उच्च पदों पर स्वार्थ, ईर्ष्या, दुर्भाव एवं व्यक्तिवाद की छाप स्पष्ट नजर आती है। संविधान की सीमाएँ अब उच्च पदस्थ हस्तियों के इशारों पर बदल जाती हैं। संविधान एवं न्याय ज्ञाता स्वार्थों के अनुरूप उनके मायने ही बदलने की कोशिशों में लगे रहते हैं। कुछेक तथाकथित कानूनविदों ने इसी संविधान का माखौल उड़ाते हुए इसकी जनसेवी भावना को हाशिए पर लाकर खड़ा कर दिया है। क्या आज हम गणतंत्र दिवस इतनी सहजता से मना पाते हैं, जितना एक स्वतंत्र, समृद्ध एवं खुशहाल राष्ट्र के लोगों को मनाना चाहिए । हमारे देश के नेता और नागरिक दोनों ही इस महापर्व को मनाते वक्त आनंदित होने के स्थान पर आशंका-कुशंकाओं से भयभीत नजर आते हैं। देश की सीमा, आंतरिक व्यवस्था अथवा राजनीतिक क्षेत्र कहीं भी अमन-चैन नहीं है। आज भी देश के सुदूर ग्रामीण और वनांचलों में ऊँच-नीच, जाति-पाँति एवं अमीरी-गरीबी की दीवारें विद्यमान हैं। गणतंत्र का दंभ भरने वालों की नजरें इन तक पहुँचने में शायद सदी भी कम पड़े। कागजी योजनाओं एवं स्वार्थपरक नीतियों के क्रियान्वयन में ही इनका कार्यकाल समाप्त हो जाता है। उन्हें अपनी सर आँखों पर बैठाने वाला मतदाता स्वयं मूलभूत सुविधाओं से वंचित रहता है। मौलिक संविधान की जानकारी के अभाव में आम नागरिक अपनी आवश्यकताओं हेतु आवाज उठाने से डरता है, जिसका लाभ चालाक तंत्र बखूबी उठाता रहता है। तात्पर्य यह है कि परोक्ष रूप से अपने ही देश में अपने ही लोगों द्वारा हमारा शोषण होता रहता है। हम संविधान को पढ़कर संविधान में दिए हकों का उपयोग नहीं कर पाते। बदलते समय और परिवेश में हमारा विशाल संविधान भी अपना बखूबी दायित्व निर्वहन करने में असमर्थ सा प्रतीत होता है। तभी तो आज संविधान की उपादेयता एवं उसमें समयोचित संशोधनों की सुगबुगाहट होने लगी है।

आज संविधान की आड़ में अनेक प्रभावी एवं राष्ट्रीय एकता को एक सूत्र में पिरोने वाली नीति लागू नहीं कर सकते। आज उचित एवं अनिवार्य होते हुए भी देश के कर्णधार नीतिगत निर्णय नहीं ले पाते। राजनीतिक विपक्ष नीतिगत निर्णयों की अनदेखी कर “विरोध हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है” का नारा चरितार्थ करने में लगा रहता है। आज हमारे संविधान में ऐसे संशोधनों की महती आवश्यकता है, जिससे सुदूर भारतवासी भी गणतंत्र का शत प्रतिशत लाभ प्राप्त कर सके। वह अपने ही देश में शोषण का शिकार न हो । संविधान में ऐसी व्यवस्था होना चाहिए जिससे हम राष्ट्रीय एकता को और मजबूत बनाते हुए राष्ट्र के विकास को नए आयाम दे सकें। हम उन समस्त देशभक्तों, स्वतंत्रता के पुजारियों एवं ज्ञात-अज्ञात शहीदों की आकांक्षाओं को पूरा कर सकें। हमारे इतिहास पुरुषों ने अपने बुद्धि-विवेक से हमारे लिए ऐसे संविधान का निर्माण किया है जिसकी बरगदी छाँव में हमारा गणतंत्र गुणोत्तर पुष्पित-पल्लवित हो रहा है। हमें गर्व होता है कि हम विश्व के महानतम् एवं विशाल गणतंत्र देश के नागरिक हैं। समय और प्रगति का पहिया निरंतर गतिशील है। हम भारतीयों में वर्तमान ऊँचाई से भी आगे दृष्टि दौड़ाने का हौसला है। हम शिखर पर पहुँचने का जज़्बा रखते हैं परंतु 72 वर्ष पूर्व के संविधान से यह अब संभव नहीं है। हमारी धारणा, बदलते जा रहे परिवेश में संविधान के नीतिगत पहलू के बदलाव से है।

प्रत्येक जागरूक भारतवासी अपने संविधान के विशाल वृक्ष में और भी नए एवं मीठे फलों की इच्छा रखता है तथा यह निश्चित ही है कि जब तक हम इन मीठे फलों अर्थात संविधान के अनिवार्य से लगने वाले संशोधनों को मूर्तरूप देने हेतु निजी स्वार्थ एवं पक्ष-विपक्ष की भावना से ऊपर नहीं उठेंगे तब तक हमारा विकास और राष्ट्र की खुशहाली का सपना अधूरा ही रहेगा। आज के गिरते राजनीतिक स्तर को देखकर प्रत्येक भारतीय चिंतित दिखाई देने लगा है। इस चिंता का विषय निश्चित रूप से यही है कि आज की दलगत राजनीति में क्या सकारात्मक परिवर्तन हो पाएगा ? क्या हमारे संविधान में ऐसा परिवर्तन संभव है कि हमारे देश के कर्णधार संकीर्ण राजनीति से ऊपर उठकर तथा मिल-जुलकर राष्ट्रीय विकास की धारा में शामिल हो पाएँ। शायद हाँ शायद न। यही प्रश्न हमारे भविष्यपथ का दिशा सूचक है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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