हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 116 ☆ प्रेम, प्रार्थना और क्षमा ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख प्रेम, प्रार्थना और क्षमा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 116 ☆

☆ प्रेम, प्रार्थना और क्षमा

प्रेम, प्रार्थना और क्षमा अनमोल रतन हैं। शक्ति, साहस, सामर्थ्य व सात्विकता जीवन को सार्थक व उज्ज्वल बनाने के उपादान हैं। मानव परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है और प्राणी-मात्र के प्रति करुणा भाव उससे अपेक्षित है…यही समस्त जीव-जगत् की मांग है। प्रेम व करुणा पर्यायवाची हैं…एक के अभाव में दूसरा अस्तित्वहीन है। सो! प्रेम में अहिंसा व्याप्त है, जो करुणा की जनक है। जब इंसान को किसी से प्रेम होता है, तो वह उसका हित चाहता है; मंगल की कामना करता है। उस स्थिति में सबके प्रति हृदय में करुणा भाव व्याप्त रहता है और उसके पदार्पण करते ही स्नेह, सौहार्द, त्याग, सहनशीलता व सहानुभूति के भाव स्वतः प्रकट हो जाते हैं और अहं भाव विलीन हो जाता है। अहं मानव में निहित दैवीय गुणों का सबसे बड़ा शत्रु है। अहं में सर्वश्रेष्ठता का भाव सर्वोपरि है तथा करुणा में स्नेह, त्याग, समानता, दया व मंगल का भाव व्याप्त रहता है। सो! किसी के प्रति प्रेम भाव होने से हम उसकी अनुपस्थिति में भी उसके पक्षधर व उसकी ढाल बनकर खड़े रहते हैं। प्रेम दूसरों के गुणों को देख कर हृदय में उपजता है। इसलिए स्व-पर व राग-द्वेष आदि उसके सम्मुख टिक नहीं पाते और हृदय से मनोमालिन्य के भाव स्वत: विलीन हो जाते हैं। प्रेम नि:स्वार्थता का प्रतीक है तथा प्रतिदान की अपेक्षा नहीं रखता।

ईश्वर के प्रति श्रद्धा व प्रेम का भाव प्रार्थना कहलाता है, जिसमें अनुनय-विनय का भाव प्रमुख रहता है। श्रद्धा में गुणों के प्रति स्वीकार्यता का भाव विद्यमान रहता है। शुक्ल जी ने ‘श्रद्धा व प्रेम के योग को भक्ति की संज्ञा से अभिहित किया है।’ प्रभु की असीम सत्ता के प्रति श्रद्धा भाव रखते हुए मानव को सदैव उसके सम्मुख नत रहना अपेक्षित है; उसकी करुणा- कृपा को अनुभव कर उसका गुणगान करना तथा सहायता के लिए ग़ुहार लगाना– प्रार्थना कहलाता है। दूसरे शब्दों में यही भक्ति है। श्रद्धा किसी व्यक्ति के प्रति भी हो सकती है…यह शाश्वत सत्य है। जब हम किसी व्यक्ति में दैवीय गुणों का अंबार पाते हैं, तो मस्तक उसके समक्ष अनायास झुक जाता है।

प्रार्थना हृदय के वे उद्गार हैं, जो उस मन:स्थिति में प्रकट होते हैं; जब मानव हैरान-परेशान, थका-मांदा, दुनिया वालों के व्यवहार से आहत, आपदाओं से अस्त-व्यस्त व त्रस्त होकर प्रभु से मुक्ति पाने की ग़ुहार लगाता है। प्रार्थना के क्षणों में वह अपने अहं को मिटाकर उसकी रज़ा में अपनी रज़ा मिला देता है। उन क्षणों में अहं अर्थात् मैं और तुम का भाव विलीन हो जाता है और रह जाता है केवल सृष्टि-नियंता, जो सृष्टि अथवा प्रकृति के कण-कण में व्याप्त होता है। उस स्थिति में आत्मा व परमात्मा का तादात्म्य हो जाता है और उन अलौकिक क्षणों में स्व-पर व राग-द्वेष के भाव नदारद हो जाते हैं… सर्व- मांगल्य व सर्व-हिताय की भावना बलवती व प्रबल हो जाती है।

जहां प्रेम होता है, वहां क्षमा तो बिन बुलाए मेहमान की भांति स्वयं ही दस्तक दे देती है और अहं का प्रवेश वर्जित हो जाता है। सो! स्व-पर व अपने-पराये का प्रश्न ही कहाँ उठता है? किसी के हृदय को दु:ख पहुंचाने, बुरा सोचने व नीचा दिखाने की कल्पना बेमानी है। प्रेम के वश में मानव क्रोध व दखलांदाज़ी करने की सामर्थ्य ही कहां जुटा पाता है? वैसे संसार में सभी ग़लत कार्य क्रोध में होते हैं और क्रोध तो दूध के उबाल की भांति सहसा दबे-पांव दस्तक देता है तथा पल-भर में सब नष्ट-भ्रष्ट कर रफूचक्कर हो जाता है। वर्षों पहले के गहन संबंध उसी क्षण कपूर की मानिंद विलुप्त हो जाते हैं और अविश्वास की भावना हृदय में स्थायी रूप से घर कर लेती है। क्रोध अव्यवस्था फैलाता है तथा शांति भंग करना उसके बायें हाथ का खेल होता है। क्रोध की स्थिति में जन्म-जन्मांतर के संबंध टूट जाते हैं और इंसान एक-दूसरे का चेहरा तक देखना पसंद नहीं करता। सो! इससे निज़ात पाने का उपाय है…क्षमा अर्थात् दूसरों को मुआफ़ कर उदार हृदय से उन्हें स्वीकार लेना। इससे हृदय की दुष्प्रवृत्तियों व निम्न भावनाओं का शमन हो जाता है। इसलिए जैन संप्रदाय में ‘क्षमापर्व’ मनाया जाता है। यदि हमारे हृदय में किसी के प्रति दुष्भावना व शत्रुता है, तो उस से क्षमा याचना कर दोस्ताना स्थापित कर लिया जाना अत्यंत आवश्यक है, जो श्लाघनीय है और  मानव स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है, हितकारी है।

वैसे भी यह ज़िंदगी चार दिन की मेहमान है। इंसान इस संसार में खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ लौट कर जाना है…फिर किसी से ईर्ष्या व शत्रुता भाव क्यों? जो भी हमारे पास है… हमने यहीं से लिया है और उसे यहीं छोड़ उस अनंत-असीम सत्ता में समा जाना है… फिर अभिमान कैसा? परमात्मा ने तो सबको समान बनाया है…यह जात-पात, ऊंच-नीच व अमीर-गरीब का भेदभाव तो मानव-मस्तिष्क की उपज है। सब उस प्रभु के बंदे हैं और सारे संसार में उसका नूर समाया है। कोई छोटा-बड़ा नहीं है, इसलिए सबसे प्रेम करें; दया भाव प्रदर्शित करें; संग्रह की प्रवृत्ति का त्याग कर किसी को पीड़ा मत पहुंचाएं तथा जो मिला है, उसमें संतोष करें। सो! दूसरों के अधिकारों का हनन मत करें–यही जीवन की उपादेयता है, सार्थकता है।

शक्ति, सामर्थ्य, साहस व सात्विकता वे गुण हैं, जो मानव जीवन को श्रद्धेय बनाते हैं। सो! इनके सदुपयोग की आवश्यकता है। इसलिए यदि आप में शक्ति है, तो आप तन, मन, धन से निर्बल की रक्षा करें तथा अपने कार्य स्वयं करें, क्योंकि शक्ति सामर्थ्य का प्रतीक है और जीवन का सार व प्राणी-मात्र के प्रति करुणा भाव दर्शाने का उपादान है। सो! यदि आप में शक्ति व सामर्थ्य है, तो साहसपूर्वक निरंतर कर्मशील रह कर सबका मंगल करें तथा विपरीत व विषम परिस्थितियों में आत्म-विश्वास से आगामी आपदाओं-बाधाओं का सामना करें। साहसी व्यक्ति को धैर्य रूपी धरोहर सदैव संजोकर रखनी चाहिए और निर्बल, दीनहीन व अक्षम पर कभी भी प्रहार नहीं करना चाहिए। हां! इसके लिए दरक़ार है…भावों की सात्विकता, पावनता व पवित्रता की, जिसका पदार्पण जीवन में सकारात्मक सोच, आस्था व विश्वास पर आधारित होता है। यदि मानव में स्नेह, प्रेम, करुणा व श्रद्धा के साथ क्षमा-भाव भी व्याप्त है, तो सोने पर सुहागा क्योंकि इससे सभी गलतफ़हमियां व झगड़े तत्क्षण तत्क्षण समाप्त हो जाते हैं। इसका दूसरा रूप है प्रायश्चित… जिसके हृदय में प्रवेश करते ही मानव को अपनी ग़लती का आभास हो जाता है कि वह दोषी ही नहीं; अपराधी है। सो! वह उसे न दोहराने का निश्चय करता है तथा उससे क्षमा मांग कर अपने हृदय को शांत करता है। उस स्थिति में दूसरे भी सुक़ून पाकर धन्य हो जाते हैं। शायद! इसीलिए कहा गया है कि ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात’ अर्थात् क्षमा भाव सबसे श्रेष्ठ गुण है। क्षमा याचना करना अथवा दूसरों को क्षमा करना… इन दोनों स्थितियों में मानव हृदय की कलुषता व मनोमालिन्य समाप्त हो जाता है अर्थात् जब छोटे ग़लतियां करते हैं, तो बड़ों का दायित्व है… वे उन्हें क्षमा कर उदारता व उदात्तता का परिचय दें। इसलिए यदि आप क्रोध अथवा अज्ञानवश किसी जीव के प्रति निर्दयता भाव रखते हैं और उसे शारीरिक व मानसिक कष्ट पहुंचाते हैं, तो आपको उससे क्षमा याचना कर अपना बड़प्पन दिखाना चाहिए। परंतु अहंनिष्ठ व्यक्ति से ऐसी अपेक्षा रखने की कल्पना करना भी बेमानी है।

‘सो! रिश्ते जब मज़बूत होते हैं, बिन बोले महसूस होते हैं तथा ऐसे संबंध अटूट होते हैं; ऐसी सोच के लोग महान् कहलाते हैं।’ उनका सानिध्य पाकर सब गौरवान्वित अनुभव करते हैं। वास्तव में ऐसी सोच के धनी…’व्यक्ति नहीं, व्यक्तित्व होते हैं।’ परंतु वे अत्यंत कठिनाई से मिलते हैं। इसलिए उन्हें भी अमूल्य धन-सम्पदा व धरोहर की भांति सहेज-संभाल कर रखना चाहिए तथा उनके गुणों का अनुसरण करना चाहिए, ताकि वे उन्मुक्त भाव से अपना जीवन बसर कर सकें। वास्तव में वे आपको कभी भी चिंता के सागर में अवगाहन नहीं करने देते।

प्रेम, प्रार्थना व क्षमा अनमोल रत्न हैं। उन्हें शक्ति, सामर्थ्य, साहस, धैर्य व सात्विक भाव से तराशना अपेक्षित है, क्योंकि हीरे का मूल्य जौहरी ही जानता है और वही उसे तराश कर अनमोल बना सकता है। इसके लिए आवश्यकता है कि हम उन परिस्थितियों को बदलने की अपेक्षा स्वयं को बदलने का प्रयास करें …उस स्थिति में जीवन के शब्दकोश से कठिन व असंभव शब्द नदारद हो जायेंगे। इसलिए आत्मसंतोष व सब्र को जीवन में धारण करें, क्योंकि ये दोनो अनमोल रत्न हैं; जो आपको न तो किसी की नज़रों में झुकने देते हैं और न ही किसी के कदमों में। इसका मुख्य उपादान है– आपका मधुर व्यवहार, जीवन में समझौतावादी दृष्टिकोण व सुख दु:ख में सम रहने का भाव समरसता का द्योतक है। सो! अपने दैवीय गुणों व सकारात्मक दृष्टिकोण द्वारा सबके जीवन को उमंग, उल्लास व असीम प्रसन्नता से आप्लावित कर; उनकी खुशी के लिए स्वार्थों को तिलांजलि दे ‘सुक़ून से जीएँ व जीने दें’ तथा ‘सबका मंगल होय’ की राह का अनुसरण कर जीवन को सुंदर, सार्थक व अनुकरणीय बनाएं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 67 ☆ धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाना अपराध से कम नहीं ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाना अपराध से कम नहीं ।)

☆ किसलय की कलम से # 67 ☆

☆ धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाना अपराध से कम नहीं ☆ 

ईश्वर ब्रह्मांड की सर्वोच्च-शक्ति का पर्याय है। यही शक्ति जगत नियंता के नाम से भी जानी जाती है। आदि मानव से वर्तमान मानव के विकास में अनेक पड़ाव आए। मानव का प्राकृतिक गोद में जन्म लेने के कारण मानव और प्रकृति का अभिन्न नाता बना हुआ। है शनैः शनैः मानव द्वारा कृतज्ञता, भय, उपलब्धियों एवं अलौकिक चमत्कारों को देख-देखकर कुछ अदृश्य शक्तियों, प्रतीकों, जीवों आदि को पूजा-आराधना की श्रेणी में रखने का क्रम शुरू किया गया। सामाजिक व्यवस्थाओं की शुरुआत होते-होते कुछ शक्तिशाली, विशेष लोगों, महापुरुषों, राजा-महाराजाओं व ऋषि-मुनियों द्वारा उल्लिखित सिद्धांतों का अनुगमन करना तथा उनकी स्तुतियाँ करना आदि प्रारंभ हो गया। समय के साथ-साथ कुछ प्रतीकों व दिव्य प्रतिभावानों को देवी-देवताओं के रूप में मान्यता प्राप्त हो गई।

दुनिया में समाज व संस्कृति विकसित होती गई। अनेक धर्म व संप्रदाय बनते चले गए। एक समय ऐसा भी आया कि लोगों द्वारा अपने-अपने धर्मों की श्रेष्ठता और वर्चस्व स्थापित करने हेतु तरह-तरह के नैतिक-अनैतिक कार्य किए जाने लगे। समय बदला और बदलता भी जा रहा है, लेकिन आज भी कहीं न कहीं, किसी न किसी के ऊपर अपने धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करने का भूत सवार हो ही जाता है, जबकि यह प्रामाणिक बात है कि सभी धर्म मानवीय हितों के संवाहक होते हैं।

आज संपूर्ण विश्व में लोग अपने अपने धर्मों की मान्यतानुसार अपना जीवन जी रहे हैं। यह एक सत्यता है कि विसंगतियों एवं सहमति-असहमतियों का क्रम आदि काल से ही शुरू हो गया था और अनादि काल तक चलता रहेगा। हमारा देश विभिन्न धर्मावलंबियों का देश है। सभी को धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त है और उसी के अनुरूप सभी जीवन जी भी रहे हैं। पूर्व के शासकों की गलतियों, दुष्प्रचारों एवं तानाशाही रवैये से हमारी सामाजिक सद्भावना को पूर्व में ही बहुत क्षति पहुँच चुकी है। समय व परिवेश बदलने के बावजूद आज भी लोग पूर्व की कड़वाहट, गलतियों एवं कट्टरपंथियों के अनैतिक विचारों का अनुकरण करने से नहीं चूकते। आज भी हमें कहीं कहीं अवांछित कृत्य व व्यवहार नजर आ ही जाते हैं, जो समाज की फिजा बिगाड़ने में अहम भूमिका का निर्वहन करते हैं। अनजाने में किए गए अधार्मिक कृत्यों को क्षमा करना माननीय गुण है, लेकिन जानबूझकर अनैतिक व अधार्मिक कृत्य कभी उचित नहीं हो सकते।

यह सभी जानते हैं कि हमारे सनातन धर्म में मूर्ति पूजा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। गाय को माता का दर्जा दिया गया है और उसकी पूजा की जाती है। ईश्वर का नाम श्रद्धा, आदर और पवित्रता के साथ लिया जाता है, बावजूद इसके यदि हमारे देवी-देवताओं राम, कृष्ण, शिव, दुर्गा, लक्ष्मी आदि के नाम पर मटन शॉप खोले जाएँ, भगवान राम के नाम पर जूते चप्पलों की दुकान खोली जाए। जूते-चप्पलों पर गणेश जी अथवा अन्य देवी-देवताओं के चित्रों को छापा जाए, तब यह हिंदू धर्मावलंबियों के लिए निश्चित रूप से आपत्तिजनक बात है। लक्ष्मी के चित्र वाले पटाखे, जिनके फूटने पर उनके चिथड़े बिखरें और उनके पवित्र चित्रों को हमारे पैर रौंदें, वाकई कष्टप्रद है। अन्य देशों में भले ही गौ-मांस खाया जाता है, लेकिन आपके सामने ही माँ का दर्जा प्राप्त गाय का कत्ल किया जाए तो आत्मा आहत होगी ही।

आजकल ऐसा देखा गया है कि दुर्भावना अथवा स्वार्थवश हिंदु देवालयों के निकट मटन, शराब, बीयर बार खोल दिए जाते हैं। इसी प्रकार सद्भावना का वातवरण बिगाड़ने तथा अशांति फैलाने के उद्देश्य से देवालयों के नज़दीक अन्य धर्मावलंबियों द्वारा अपने प्रार्थना स्थलों का निर्माण करा दिया जाता है। पूजाघरों में जहाँ शांति, साधना, एकाग्रता आदि की महती आवश्यकता होती है, यह जानते हुए भी कुछ असामाजिक प्रवृत्ति के लोग इन स्थलों के पास ध्वनि विस्तारकों, विभिन्न व्यक्तिगत, सामाजिक, सांस्कृतिक, सांगीतिक तथा अन्य तरह के कार्यक्रमों द्वारा अशांति, अव्यवस्था एवं शोरगुल किया जाता है, ऐसी बातें भी अक्सर प्रकाश में आती रहती हैं। शरारती तत्त्वों द्वारा मूर्तियों व देवालयों को खंडित करने, तोड़फोड़ करने, अपवित्र करने आदि की घटनाएँ अक्सर देखने और सुनने में आती रहती हैं। विघ्नसंतोषियों द्वारा पूजाघरों में मांस, वर्जित सामग्री, अपवित्र सामग्री आदि फेंकने तथा धर्म स्थलों में मारपीट, दंगे-फसाद की वारदातें भी यदा-कदा दिखाई दे जाती हैं। चोर, झूठ बोलने वाले, दारूखोरों द्वारा भी मूर्तियों, दानपेटियों व देवी-देवताओं के आभूषणों की चोरी के मामले भी देखे जाते हैं। ये कृत्य किसी भी धर्मावलम्बी द्वारा किए जाएँ शर्मनाक व अधार्मिक ही कहलाएँगे।

आजकल देखा गया है कि कुछ लोग सार्वजनिक मंचों से देवी-देवताओं का, उनके स्वरूप, उनके कार्यों आदि का उल्लेख करते हुए उनका माखौल उड़ाते हैं। उन पर अशोभनीय टिप्पणियाँ करते हैं। उन पर केंद्रित अमर्यादित चुटकुले सुनाते हैं। प्रहसन, मंचन, चलचित्रों तक में धार्मिक आख्यानों को तोड़-मरोड़ कर हमारी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाले निंदनीय दृश्य प्रस्तुत किए जाते हैं, जो किसी भी तरह से उचित नहीं हैं। हमें कष्ट तो तब होता है जब श्रोतागण, पाठक अथवा दर्शक बजाय विरोध करने के उन बातों पर मजा लेते हैं, जबकि होना यह चाहिए कि उनका विरोध किया जाए और उन गतिविधियों को तत्काल प्रभाव से बंद किया जाए जो हमारी धार्मिक भावनाओं को आहत करते हैं। यहाँ यह बात भी उल्लेखनीय है कि ये चतुर-चालाक लोग कानून एवं तर्कों का हवाला देते हुए इन सभी बातों को सही सिद्ध करने की भरपूर कोशिश करते हैं। वहीं कानूनविद कानून के वशीभूत होते हैं और कानून की मंशा का ध्यान में न रखने हेतु विवश रहते हैं। कानून के शब्द हमारे संविधान में पत्थर की लकीर जैसे हैं। ऐसे कानूनों की आड़ में ही अनगिनत अपराध और अनैतिक कार्य खुलेआम किए जाते हैं और आम आदमी मुँह ताकता रह जाता है। स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति के नाम पर कानूनों की भावना के विपरीत लोगों का अनर्गल प्रलाप मानवता के लिए कदापि उचित नहीं है हो सकता।

हम सभी जानते हैं कि आज से सौ दो सौ साल पूर्व जो बातें समाज में मान्य थीं, वर्तमान के समाज ने उन्हीं बातों को अमान्य कर दिया है, इसलिए युग, समय और बदलते परिवेश के चलते तत्कालीन धर्मग्रंथों में लिखी गईं उन बातों का विरोध भी तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि हम आज के रचयिता से तो रूबरू हो सकते हैं, लेकिन प्राचीन ग्रंथों के रचयिताओं ने तो उन्हीं बातों का उल्लेख किया है, जो उस समय प्रचलन में रहीं और समाज में जिन्हें मान्यता प्राप्त थी। इसी तरह संयुक्त परिवार, वर्णप्रथा, जातिगत कर्म, छूत-अछूत भी है, जिन्हें आज नकारा जा चुका है। अब तो लिंगभेद, खून के रिश्ते, त्याग, समर्पण, पड़ोसी-धर्म, सच्चाई, न्याय, शिष्टाचार सभी कुछ अवसरवादिता पर आधारित हो गए हैं।

आज के जमाने में पिछड़े क्षेत्रों व ख़ासतौर पर अशिक्षित लोगों को धन, नौकरी, छोकरी व विभिन्न तरह से मदद के नाम पर बरगलाया जाकर धर्मांतरण कराया जाने लगा है। ये बातें अक्सर समाचारों में आती रहती हैं और इनकी सत्यता भी उजागर हो चुकी है। कुछ अन्य धर्मों के युवक छद्म हिंदु नाम रख लेते हैं और हिंदु लड़कियों को सतरंगी सपने दिखाकर उनसे विवाह ही इसलिए करते हैं कि उनके धर्मावलंबियों का दायरा बढ़े। बाकायदा इसके लिए उन्हें उनके संगठनों से पैसा भी प्राप्त होता है, ऐसा सुना गया है। यह भी देखा गया है कि दूसरे धर्मावलंबी तरह-तरह से धार्मिक परचे निकालते हैं,जो उनके धर्म को श्रेष्ठ बताते हुए उस धर्म को अपनाने की बात की जाती है। अपने सामुदायिक भवनों, शिक्षालयों व धार्मिक स्थानों पर ऐसे कार्यों हेतु प्रशिक्षण भी दिया जाता है। कानून को ठेंगा दिखाकर हमारी आँखों के सामने सब कुछ होता रहता है। अपने धर्म की आड़ में दूसरे धर्म की आलोचना से आज की पीढ़ी को दिग्भ्रमित किया जाना चिंताजनक विषय बन गया है।

इस तरह हम देखते हैं कि जब आज के प्रगतिशील युग में नवयुवक देश-विदेश में अपने बुद्धि-कौशल से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर रहे हैं। उन्हें अपनी, अपने परिवार व अपने देश की प्रगति का जुनून सवार है। आज के परिवेश में कहा जाए कि जब से युवा पीढ़ी देश और धर्म से ऊपर उठकर अपना अस्तित्व बनाने में लगी है, तब उसी पीढ़ी को कुछ धूर्त, आतताई, कट्टरपंथी और अवसरवादी लोग दिग्भ्रमित करें यह कदापि बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। सर्वधर्म-समभाव की भावना को जन-जन में जगाना चाहिए। सभी धर्मों के लोगों को अन्य धर्मों का सम्मान करना चाहिए। दूसरी ओर अराजक तत्त्वों को भी इतना भान होना चाहिए कि आज के बदलते समय में उनके कृत्य अब ज्यादा प्रभावकारी सिद्ध नहीं हो पाएँगे। हमें अपने, अपने परिवार, अपने समाज व अपने देश के लिए ईमानदार इंसान बनना होगा। हम किसी भी धर्म के हों, हमारे आदर्श संस्कार, हमारी आदर्श शिक्षा तथा प्रेम भाईचारे का भाव ही समाज व देश में शांति का वातावरण निर्मित कर सकेगा। धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाना किसी भी धर्म के लिए उचित नहीं है। यह अपराध से कम नहीं है, इसका बंद होना ही हम सभी के हित में है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

दिनांक: 6 जनवरी 2022

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गुड़ – भाग-1 ☆ श्री राकेश कुमार

श्री राकेश कुमार

(ई- अभिव्यक्ति में श्री राकेश कुमार जी का स्वागत है। भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से अतीत और वर्तमान को जोड़ता हुए रोचक आलेख “गुड़” की श्रृंखला  का पहला भाग।)   

☆ आलेख ☆ गुड़ – भाग -1 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज स्थानीय समाचार पत्र में एक ब्रांडेड गुड़ का विज्ञापन छपा था “डॉ. गुड़” तो अचंभा लगा कि गुड़ जैसे खाद्य पदार्थ को विज्ञापन की क्या आवश्यकता आ गई ? ब्रांड का नाम ही रखना था तो “वैद्य गुड़” कर सकते थे। ये तो वही बात हो गई गुरु (वैद्य) गुड़ रह गया चेला (डॉ.) शक्कर हो गया। माहत्मा गांधी ने सही कहा था “अंग्रेज देश में ही रह जाए परंतु अंग्रेज़ी वापिस जानी चाहिए”, लेकिन हुआ इसका विपरीत अंग्रेज़ तो चले गए और अंग्रेज़ी छोड़ गए।

देश में हापुड़ को गुड़ की मंडी का नाम दिया गया है। दक्षिण भारत में तो अंका पली का डंका बजता हैं। उत्तर भारत को सबसे बड़ा आई टी केंद्र गुरुग्राम भी तो गुड़ का गांव (गुड़गांव) ही था। कुछ वर्ष पूर्व दैनिक पेपर में अनाज और अन्य जिंसों की भाव तालिका प्रतिदिन छपा करती थी, आज की युवा पीढ़ी क्रय करने से पूर्व मूल्य पर कम ही ध्यान देती हैं।

हर चमकने वाली वस्तु सोना नहीं होती है, यही बात शक्कर (चीनी) पर भी लागू होती है। गुड़ सोना है,और चीनी चांदी है। हालांकि ये बात शुगर लॉबी वालों को हज़म नहीं होगी, उनके निज़ी स्वार्थ जो  जुड़े हैं। खांडसारी कुटीर उद्योग को तो शुगर इंडस्ट्री कब का चट कर गई।

अब लेखनी को विराम देता हूँ, गुड़ की चाय पीने के बाद दूसरा भाग लिखूंगा।

अगले सप्ताह पढ़िए गुड़ की चाय पीने के बाद का अगला भाग ….. 

© श्री राकेश कुमार 

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 121 ☆ अहम् और अहंकार ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 121 ☆ अहम् और अहंकार ?

प्रबोधन और व्याख्यान के लिए विभिन्न समुदायों के बीच जाना होता रहता है। प्रायः हर मंच से कहा जाता है कि फलां समुदाय या वर्ग की एकता देखो, पर हम ऐसी केकड़ा प्रवृत्ति के हैं कि हमारा वर्ग कभी एक नहीं हो सकता। जबकि सत्य यह है कि कोई भी समुदाय इसका अपवाद नहीं है। अलबत्ता अहंकार की अधिकता व्यक्ति विशेष को सर्वग्राही, सर्वमान्य बनने से रोकती है।

सिक्के का दूसरा पहलू है कि अहम्‌ के भाव के बिना कोई प्रगति कर भी नहीं सकता। यहाँ ‘अहम्‌’ का संदर्भ अपने अस्तित्व के प्रति सचेत रहने, अपने पर विश्वास रखने से है। तथापि ‘अति सर्वत्र वर्ज्येत’, यहाँ भी लागू होता है। इस अहम् को विस्तार न दें, आकार न दें। यह ऐसा ही है जैसे थोड़ी सी आग से हाथ सेंककर ठंड दूर कर ली जाए या भोजन बना लिया जाए, पर आग यदि बढ़ जाए, अलाव दावानल में बदल जाए तो उसमें व्यक्ति स्वयं ही भस्मीभूत हो जाएगा। अहम्‌ को आकार देना ही अहंकार है, इससे बचें।

फिर अहंकार भी किसलिए ! नीति कहती है कि हर मूल का मूल पहले से ही मौजूद है। सृष्टि में मौलिक कुछ भी नहीं है। जो बात हमने आज जानी, वह हम से पहले लाखों जानते थे, हमारे बाद करोड़ों जानेंगे। अपने ज्ञान की तुलना यदि हम अपने अज्ञान से करें तो कथित ज्ञान स्वयं ही लज्जित हो जाएगा, उसका आकार बहुत छोटा हो जाएगा, अतः आवश्यक है-अहंकार का निर्मूलन।

कबीर लिखते हैं-

जब मैं था तब हरि नाहिं, अब हरि हैं मैं नाहिं,
प्रेम गली अति सांकरी, जामें दो न समाहिं।

अहंकार होगा तो हरि कैसे मिलेंगे, यदि हरि नहीं मिलेंगे तो अज्ञान का तम कौन हरेगा? मनुष्य के हाथ में कर्म तो है पर फल की निष्पत्ति उसके बस में नहीं।

समय के कुप्रबंधन के शिकार प्रायः कहते हैं, ‘आज इतना व्यस्त रहा कि भोजन के लिए समय ही नहीं रहा।’ अर्थात्‌ सारी भाग-दौड़ के बाद भी उस दिन भोजन पाना या ना पाना उसके हाथ में नहीं है। ‘मैं’ की अति व्यक्ति को दृष्टिहीन-सा कर देती है। वह कर्म का नियंता और उपभोक्ता भी खुद को ही समझने लगता है।

किसी नगर में एक साधु आए। नगरसेठ ने मुनीम के हाथ उस दिन के भोजन का निमंत्रण भेजा। नगरसेठ के यहाँ काम करते-करते मुनीम की ज़बान पर अहंकार चढ़ गया था। जाकर साधु से कहा,”आपको आजका भोजन हमारे सेठ खिलायेंगेे।” साधु फक्कड़ था, कहा,”अपने सेठ से कहना आज तो तू खिला रहा है, कल कौन खिलायेगा?” मुनीम ने सारा किस्सा जाकर सेठ को सुनाया। सेठ बुद्धिमान और विनम्र था। सारी बात समझ गया। स्वयं साधु के पास पहुँचा और हाथ जोड़कर बोला,” महाराज कल जिसने खिलाया था, आज भी वही खिला रहा है और आनेवाले कल भी वही खिलायेगा। मुझे तो उसने आज के लिए निमित्त भर बनाया है।”

मनुष्य के लिए अपनी इस नैमित्तिक स्थिति को समझना ज़रूरी है। पथिक यदि यह मान ले कि वह नहीं चलेगा तो पगडंडी कहीं जाएगी ही नहीं, वहीं पड़ी रहेगी, तो इससे बड़ी नादानी कोई नहीं।

धन, प्रसिद्धि, रूप आदि का संचय व्यक्ति को बौरा देता है। लोग बटोरकर बड़ा होना चाहते हैं। विनम्रता से कहना चाहता हूँ, “बाँटकर देखो, जितना बाँटोगे, अहंकार घटेगा। जितना अहंकार घटेगा, उतना तुम्हारा कद बढ़ेगा।”… विश्वास न हो तो प्रयोग करके देख लो।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ज़िंदगी का एलबम ☆ डॉ निशा अग्रवाल

डॉ निशा अग्रवाल

☆ आलेख – ज़िंदगी का एलबम ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

आज की इस रफ्तार दुनिया मे हम सभी इतने खो से गए है कि हमे खुद का ख्याल तक नही। बस भाग ही भाग रहे है उस दिशा में जिसे हम ठीक से जानते तक नही। आखिर क्यों?

क्योंकि सभी भाग रहे है तो हम भी भाग रहे है कि कहीं हम पीछे ना रह जाएं,कहीं हमसे कुछ पीछे ना छूट जाए।

अरे!उसका क्या जो वास्तव में हमसे बहुत पीछे छूट गया जैसे हमारी यादें, जीवन के कीमत पल, संघर्ष, सुख-दुख के भाव और ना जाने ऐसे कितने लोग, जो कभी इस दुनिया मे लौट कर नही आएंगे।

उदासी सी छा जाती है, मन भावुक सा हो उठता है जब भी उन यादों ,उन पलों,उन व्यक्तियों के बारे में सोचती हूँ।कभी मन फूट -फूट कर रोने को करता है तो कभी मुस्कराने लग जाती हूँ।जब भी उन पलों को याद करती हूँ ,तो अहसास करती हूँ जैसे ज़िंदगी मे बहुत कुछ खो दिया है।

एक दिन अलमारी साफ करते वक्त मुझे पुरानी तस्वीरें, एक नोटबुक के अंदर चिपकी हुई मिली।क्योंकि उस वक्त ना मोबाइल और ना ही सेल्फी ।

लेकिन आज के समय मे हम प्रतिदिन स्वयं को बदलने की चेष्टा में रहते हैं।रोज़ स्टेटस बदलते है तो रोज़ सेल्फी के पात्र बदलते है।

मेरे मन मे बार बार यही ख्याल आता है कि क्या हमारी यादें समय के साथ बदल सकती है? नही ना,

नई यादें तो पुरानी यादों के साथ जुड़ जाती है लेकिन पुरानी यादें कभी समय मे घुलकर कभी खत्म नही होती।

ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरों का ये अदभुत एलबम रिश्तों को संजोकर रखता है।जब भी उन एलबम को खोलती हूँ तो यादों की ढेर सारी तितलियां मेरे आस- पास उड़ने लगती है।

आज का युग डिजिटल और रंगीन हो गया है।जब मर्ज़ी आयी एलबम से किसी को भी उड़ा दिया जाता है और किसी को भी जोड़ दिया जाता है।रिश्ते एवं अहसासों में  यूँ मानो कि कृत्रिमता आ गयी है।

ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरों में नेचुरल / प्राकृतिक मुस्कराहट दिखाई देती थी ,लेकिन आज ज़माना रंगीन जरूर हो गया है,लेकिन चेहरे पर सिर्फ खोखली मुस्कराहट की छवि ही नज़र आती है।

 

©  डॉ निशा अग्रवाल

एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री

जयपुर, राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 115 ☆ वक्त और उलझनें ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख वक्त और उलझनें। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 115 ☆

☆ वक्त और उलझनें

‘वक्त भी कैसी पहेली दे गया/ उलझनें सौ और ज़िंदगी अकेली दे गया।’ रास्ते तो हर ओर होते हैं, परंतु यह आप पर निर्भर करता है कि आपको रास्ता पार करना है या इंतज़ार करना है, क्योंकि यह आपकी सोच पर निर्भर करता है। वैसे आजकल लोग समझते कम, समझाते अधिक हैं, तभी तो मामले सुलझते कम और उलझते अधिक हैं। जी हां! यही सत्य है ज़िंदगी का… ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ अर्थात् जीवन में सीख देने वाले, मार्गदर्शन करने वाले बहुत मिल जाएंगे, भले ही वे ख़ुद उन रास्तों से अनजान हों और उनके परिणामों से बेखबर हों। वैसे बावरा मन ख़ुद को बुद्धिमान व दूसरों को मूर्ख समझता है और हताशा-निराशा की स्थिति में उन पर विश्वास कर लेता है; जो स्वयं अज्ञानी हैं और अधर में लटके हैं।

स्वर्ग-नरक की सीमाएं निर्धारित नहीं है। परंतु हमारे विचार व कार्य-व्यवहार ही स्वर्ग-नरक का निर्माण करते हैं। यह कथन कोटिश: सत्य है कि   जैसी हमारी सोच होती है; वैसे हमारे विचार और कर्म होते हैं, जो हमारी सोच हमारे व्यवहार से परिलक्षित होते हैं; जिस पर निर्भर होती है हमारी ज़िंदगी; जिसका ताना-बाना भी हम स्वयं बुनते हैं। परंतु मनचाहा न होने पर दोषारोपण दूसरों पर करते हैं। यह मानव का स्वभाव है, क्योंकि वह सदैव यह सोचता है कि वह कभी ग़लती कर ही नहीं सकता, भले ही मानव को ग़लतियों का पुतला कहा गया है। इसलिए मानव को यह सीख दी जाती है कि यदि जीवन को समझना है, तो पहले मन को समझो, क्योंकि जीवन और कुछ नहीं, हमारी सोच का ही साकार रूप है। इसके साथ ही महात्मा बुद्ध की यह सीख भी विचारणीय है कि आवश्यकता से अधिक सोचना अप्रसन्नता व दु:ख का कारण है। इसलिए मानव को व्यर्थ चिंतन व अनर्गल प्रलाप से बचना चाहिए, क्योंकि दोनों स्थितियां हानिकारक हैं; जो मानव को पतन की ओर ले जाती हैं। इसलिए आवश्यकता है आत्मविश्वास की, क्योंकि असंभव इस दुनिया में कुछ है ही नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और जो हमने आज तक सोचा ही नहीं। इसलिए लक्ष्य निर्धारित कीजिए; अपनी सोच ऊंची रखिए और आप सब कुछ कर गुज़रेंगे, जो कल्पनातीत था। जीवन में कोई रास्ता इतना लम्बा नहीं होता, जब आपकी संगति अच्छी हो अर्थात् हम गलियों से होकर ही सही रास्ते पर आते हैं। सो! मानव को कभी निराश नहीं होना चाहिए। ‘नर हो, न निराश करो मन को’ का संबंध है निरंतर गतिशीलता से है; थक-हार कर बीच राह से लौटने व पराजय स्वीकारने से नहीं, क्योंकि लौटने में जितना समय लगता है, उससे कम समय में आप अपनी मंज़िल तक पहुंच सकते हैं। सही रास्ते पर पहुंचने के लिए हमें असंख्य बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जो संघर्ष द्वारा संभव है।

संघर्ष प्रकृति का आमंत्रण है; जो स्वीकारता है, आगे बढ़ता है। संघर्ष जीवन-प्रदाता है अर्थात् द्वन्द्व अथवा दो वस्तुओं के संघर्ष से तीसरी वस्तु का जन्म होता है; यही डार्विन का विकासवाद है। संसार में ‘शक्तिशाली विजयी भव’ अर्थात्  जीवन में वही सफलता प्राप्त कर सकता है, जो अपने हृदय में शंका अथवा पराजय के भाव को नहीं आने देता। इसलिए मन में कभी पराजय भाव को मत आने दो… यही प्रकृति का नियम है। रात के पश्चात् भोर होने पर सूर्य अपने तेज को कम नहीं होने देता; पूर्ण ऊर्जा से सृष्टि को रोशन करता है। इसलिए मानव को भी निराशा के पलों में अपने साहस व उत्साह को कम नहीं होने देना चाहिए, बल्कि धैर्य का दामन थामे पुन: प्रयास करना चाहिए, जब तक आप निश्चित् लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते। मानव में असंख्य संभावनाएं निहित हैं। आवश्यकता है, अपने अंतर्मन में निहित शक्तियों को पहचानने व संचित करने की। सो! निष्काम कर्म करते रहिए, मंज़िल बढ़कर आपका स्वागत-अभिवादन अवश्य करेगी।

वक्त पर ही छोड़ देने चाहिए, कुछ उलझनों के हल/ बेशक जवाब देर से मिलेंगे/ मगर लाजवाब मिलेंगे। वक्त सबसे बड़ा वैद्य है। समय के साथ गहरे से गहरे घाव भी भर जाते हैं। इसलिए मानव को संकट की घड़ी में हैरान-परेशान न होकर, समाधान हेतु सब कुछ सृष्टि-नियंंता पर छोड़ देना चाहिए, क्योंकि परमात्मा के घर देर है, अंधेर नहीं। उसकी अदालत में निर्णय देरी से तो हो सकते हैं, परंतु उलझनों के हल लाजवाब मिलते हैं, परमात्मा वही करता है, जिसमें हमारा हित होता है। ‘ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय/ कभी यह हंसाए, कभी यह रुलाए।’ इसे न तो कोई समझा है, न ही जान पाया है। इसलिए यह समझना आवश्यक हैरान कि इंसान खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ जाना है। आप इस प्रकार जिएं कि आपको मर जाना है और इस प्रकार की सीखें कि आपको सदा जीवित रहना है। यही मर्म है जीवन का…मानव जीवन पानी के बुलबुले की भांति क्षण-भंगुर है।जो ‘देखत ही छिप जाएगा, ज्यों तारा प्रभात।’ सो! आप ऐसे मरें कि लोग आपको मरने के पश्चात् भी याद रखें। वैसे ‘Actions speak louder than words.’कर्म शब्दों से ऊंची आवाज़ में अपना परिचय देते हैं। सो!आप श्रेष्ठ कर्म करें कि लोग आपके मुरीद हो जाएं तथा आपका अनुकरण- अनुसरण करें।

श्रेठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। आप अपने संस्कारों से जाने जाते हैं और व्यवहार से श्रेष्ठ माने जाते हैं। अपनी सोच अच्छी व सकारात्मक रखें, क्योंकि नज़र का इलाज तो संभव है; नज़रिए का नहीं। सो! मानव का दृष्टिकोण व नज़रिया बदलना संभव नहीं है। शायद! इसलिए कहा जाता है कि मानव की आदतें जीते जी नहीं बदलती, चिता की अग्नि में जलने के पश्चात् ही बदल सकती हैं। इसलिए उम्मीद सदैव अपने से कीजिए; दूसरों से नहीं, क्योंकि इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो दूसरों से की जाती हैं। इसलिए मुसीबत के समय इधर-उधर नहीं झांकें; आत्मविश्वास प्यार व धैर्य बनाए रखें; मंज़िल आपका बाहें फैलाकर अभिनंदन करेगी। जीवन में लोगों की संगति कीजिए, जो बिना स्वार्थ व उम्मीद के आपके लिए मंगल कामना करते हैं। वास्तव में उन्हें क्षआपकी परवाह होती है और वे आपका हृदय से सम्मान करते हैं।

सो! जिसके साथ बात करने से खुशी दोगुनी व दु:ख आधा हो जाए, वही अपना है। ऐसे लोगों को जीवन में स्थान दीजिए, इससे आपका मान-सम्मान बढ़ेगा और दु:खों के भंवर से मुक्ति पाने में भी आप समर्थ होंगे। यदि सपने सच नहीं हो रहे हैं, तो रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं, क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं; जड़ें नहीं। सो! अपना निश्चय दृढ़ रखो और अन्य विकल्प की ओर ध्यान दो। यदि मित्र आपको पथ-विचलित कर रहे हैं, तो  उन्हें त्याग दीजिए, अन्यथा वे दीमक की भांति आप की जड़ों को खोखला कर देंगे और आपका जीवन तहस-नहस हो जाएगा। सो! ऐसे लोगों से मित्रता बनाए रखें, जो दूसरों की खुशी में अपनी खुशी देखने का हुनर जानते हैं। वे न कभी दु:खी होते हैं; न ही दूसरे को संकट में डाल कर सुक़ून पाते हैं। निर्णय लेने से पहले शांत मन से चिंतन-मनन कीजिए, क्योंकि आपकी आत्मा जानती है कि आपके लिए क्या उचित व श्रेयस्कर है। सो! उसकी बात मानिए तथा स्वयं को ज़रूरत से ज़्यादा व्यस्त रखिए। आप मानसिक तनाव से मुक्त रहेंगे। व्यर्थ का कचरा अपने मनोमस्तिष्क में मत भरिए, क्योंकि वह अवसाद का कारण होता है।

दुनिया का सबसे कठिन कार्य होता है–स्वयं को पढ़ना, परंतु प्रयास कीजिए। अच्छी किताबें व अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते; उन्हें समझना सुगम नहीं, अत्यंत दुष्कर होता है। इसके लिए आपको एक लम्बी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है। इसलिए कहा जाता है ‘बुरी संगति से अकेला भला।’ दूसरी ओर यह भी द्रष्टव्य है कि पुस्तकें इंसान की सबसे अच्छे मित्र होती हैं; कभी ग़लत राह नहीं दर्शाती। ख्याल रखने वालों को ढूंढना पड़ता है; इस्तेमाल करने वाले तो ख़ुद ही आपको ढूंढ लेते हैं।

दुनिया एक रंगमंच है, जहां सभी अपना-अपना क़िरदार अदा कर चले जाते हैं। शेक्सपीयर की यह उक्ति ध्यातव्य है कि इस संसार में हर व्यक्ति विश्वास योग्य नहीं होता। इसलिए उन्हें ढूंढिए, जो मुखौटाधारी नहीं हैं, क्योंकि समयानुसार दूसरों का शोषण करने वाले, लाभ उठाने वाले अथवा इस्तेमाल करने वाले तो आपको तलाश ही लेंगे… उनसे दूरी बनाए रखें; उनसे सावधान रहें तथा ऐसे दोस्त तलाशें…धोखा देना जिनकी फ़ितरत न हो।

अकेलापन संसार में सबसे बड़ी सज़ा है और एकांत सबसे बड़ा वरदान। एकांत की प्राप्ति तो मानव को सौभाग्य से प्राप्त होती है, क्योंकि लोग अकेलेपन को जीवन का श्राप समझते हैं, जबकि यह तो एक वरदान है। अकेलेपन में मानव की स्थिति विकृत होती है। वह तो चिन्ता व मानसिक तनाव में रहता है। परंतु एकांत में मानव अलौकिक आनंद में विचरण करता रहता है। इस स्थिति को प्राप्त करने के निमित्त वर्षों की साधना अपेक्षित है। अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, जो मानव को सबसे अलग-अलग कर देता है और वह तनाव की स्थिति में पहुंच जाता है। इसके लिए दोषी वह स्वयं होता है, क्योंकि वह ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ ही नहीं, सर्वोत्तम  समझता है और दूसरों के अस्तित्व को नकारना उसका स्वभाव बन जाता है। ‘ घमंड मत कर दोस्त/  सुना ही होगा/ अंगारे भी राख बढ़ाते हैं।’ मानव मिट्टी से जन्मा है और मिट्टी में ही उसे मिल जाना है। अहं दहकते अंगारों की भांति है, जो मानव को उसके व्यवहार के कारण अर्श से फ़र्श पर ले आता है, क्योंकि अंत में उसे भी राख ही हो जाना है। सृष्टि के हर जीव व उपादान का मूल मिट्टी है और अंत भी वही है अर्थात् जो मिला है, उसे यहीं पर छोड़ जाना है। इसलिए ज़िंदगी को सुहाना सफ़र जान कर हरपल को जीएं; उत्सव-सम मनाएं। इसे दु:खों का सागर मत स्वीकारें, क्योंकि वक्त निरंतर परिवर्तनशील है अर्थात् कल क्या हो, किसने जाना। सो कल की चिन्ता में आज को खराब मत करें। कल कभी आयेगा नहीं और आज कभी जायेगा नहीं अर्थात् भविष्य की ख़ातिर वर्तमान को नष्ट मत करें। सो! आज का सम्मान करें; उसे सुखद बनाएं…शांत भाव से समस्याओं का समाधान करें। समय, विश्वास व सम्मान वे पक्षी हैं, जो उड़ जाएं, तो लौट कर नहीं आते। सो! वर्तमान का अभिनंदन-अभिवादन कीजिए, ताकि ज़िंदगी भरपूर खुशी व आनंद से गुज़र सके।

बक्षदा एक सा नहीं रहता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 66 ☆ योग-विज्ञान की जीवन में उपादेयता ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “योग-विज्ञान की जीवन में उपादेयता।)

☆ किसलय की कलम से # 66 ☆

☆ योग-विज्ञान की जीवन में उपादेयता ☆ 

ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव जी सर्वप्रथम योग का ज्ञान देकर आदि गुरु बने थे। इसी योग को धारण कर भगवान श्री कृष्ण महायोगेश्वर कहलाए। हमारे ऋषि-मुनियों व पूर्वजों ने निश्चित रूप से योग को व्यापक बनाया है। महर्षि पतंजलि के अनुसार योग मन के नकारात्मक अतिरेक को कम करने का विशिष्ट विज्ञान है। योग के व्यापक गुणों की मीमांसा तथा व्याख्या से इन्होंने ही हमें अवगत कराया। कालांतर में योग-विज्ञान पर विविध ग्रंथ भी लिखे गए। वैदिक काल में योग-विज्ञान की एक प्रमुख क्रिया को सूर्य-उपासक आर्यों ने सूर्य नमस्कार का नाम दिया। शनैः-शनैः योग-विज्ञान का प्रचार-प्रसार आर्यावर्त की सीमाओं को पार कर गया। जब योग विज्ञान अपने जनक-देश भारत से पूरे विश्व का भ्रमण करते हुए पुनः भारत में ‘योगा’ बनकर लौटा, तब हमें आभास हुआ कि योग का क्या महत्त्व है।

वर्तमान में भारत के विख्यात योगगुरु बाबा रामदेव ने इस अद्भुत एवं चमत्कारिक योग-विज्ञान को देश के जन-जन तक पहुँचाया। आज विश्वव्यापी होने के कारण ही ‘अंतरराष्ट्रीय योग दिवस’ प्रतिवर्ष दिनांक 21 जून को संपूर्ण विश्व में मनाया जाने लगा है। मुख्यतः हमारे द्वारा शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक क्रियाओं व अभ्यासों को योग के रूप में मान्यता प्राप्त है। ‘युज’ शब्द जिसका अर्थ ‘योग’ अथवा जोड़ होता है। शरीर और अंतस के जुड़ाव की व्यापक धारणा को ध्यान में रखकर ही इस योग को महत्ता प्राप्त हुई है। योग धर्म, संप्रदाय, लिंग, आयु आदि से ऊपर उठकर ‘सर्वजन हिताय’ है। मानव को पथच्युत होने से बचाने वाला योग, जीवन को श्रेष्ठता प्रदान करने की एक विधि है। जीवन में आए तनाव तथा मनोविकारों को दूर करने में योग क्रियाएँ आश्चर्यजनक तथा चमत्कारिक परिणाम देती हैं।

योग कोई धर्म नहीं है। अनेक प्रबुद्ध जन इसे योग कला भी कहते हैं। योग एक ऐसा विज्ञान है जो हमें सदैव स्वस्थ जीवन प्रदान करता है। मानसिक शांति दिलाने तथा विभिन्न बीमारियों को दूर करता है। योग में श्वास का विशेष महत्त्व होता है, जिसे हर उम्र का व्यक्ति कर सकता है। योग प्रमुखतः चार अंगों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम ‘कर्म-योग’ है, जो वस्तुतः अच्छे और बुरे कर्म पर आधारित है, क्योंकि अच्छे विचार हमें मानवोचित संस्कारों की ओर ले जाते हैं तथा बुरे विचार सदैव दुख पहुँचाते हैं। यही दुख मानव जीवन को कठिनाई में डालते हैं। कर्म-योग अच्छे कर्म के माध्यम से अंतस में अच्छे विचारों का बीजारोपण करते हैं। द्वितीय क्रम में ‘ज्ञान-योग’ आता है जो हमारे मन एवं हमारी भावनाओं को सकारात्मक दिशा में ले जाने हेतु सक्षम होता है। ज्ञान-योग हमें जीवन की वास्तविकता के निकट ले जाता है। मानवता का पाठ पढ़ाता है। सद्भावना, त्याग एवं समर्पण के भाव में बढ़ोतरी करता है। तीसरे क्रम में ‘भक्ति-योग’ है, जिसमें मानव अपने इष्ट की स्तुति, प्रार्थना, जप आदि के माध्यम से हृदय की वैचारिक विकृतियों को दूर करता है। चतुर्थ क्रम में ‘क्रिया-योग’ है, जिसमें आसनों व श्वासोच्छ्वास से शरीर के आंतरिक अंगों को स्वस्थ बनाए जाने के साथ-साथ ऑक्सीजन की ग्राह्यता भी बढ़ाई जाती है।

आज आधुनिक विज्ञान द्वारा भी योग विज्ञान को मान्यता प्राप्त है। देखा गया है कि नियमित योग-विज्ञान की क्रियाओं व मुद्राओं से चिंता, शारीरिक सूजन, हृदय की अस्वस्थता, लचीलापन, पाचन शक्ति, शारीरिक ऊर्जा, निद्रा, शारीरिक दर्द आदि से मुक्ति तो मिलती ही है, साथ ही खुशहाल जीवन भी जिया जा सकता है। योग मन को एकाग्र करने की एक विधि भी कही जा सकती है। साँसों के व्यायाम व ध्यान से तन और मन की शुद्धि तो होती है, इसे नियमित करते रहने से मानव दवाईयाँ सेवन करने से भी बचता है, क्योंकि दवाईयाँ तो किसी न किसी रूप में स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती ही हैं। योग हमारे मन में सकारात्मकता लाता है। शरीर में पाए जाने वाले हानिकारक अपशिष्टों को बाहर करता है। अवांछित वजन भी योग से कम किया जा सकता है। शरीर की नसों तथा सभी अंगों तक रक्त संचार बढ़ता है, जिससे त्वचा की कांति में वृद्धि होती है। वायु-विकार एवं मधुमेह भी नियंत्रित रहता है। अवसाद से उबरने में भी योग-विज्ञान सहायक होता है। सिर दर्द, गर्दन दर्द, पीठ दर्द व अनेक बीमारियों की चिकित्सा के रूप में भी योग प्रभावी प्रभावी है।

आज के भागमभाग जीवन में योग-विज्ञान की उपादेयता अत्यंत बढ़ गई है। प्रतिदिन लगभग आधा घंटे के योग से आपका जीवन हमेशा स्वस्थ बना रह सकता है। यही कारण है कि योग के चमत्कारिक परिणामों को देखते हुए व्यक्तिगत, सामाजिक एवं शासकीय स्तर पर भी योग विज्ञान के प्रचार-प्रसार के साथ ही योग-मुद्राओं, आसनों व योग क्रियाओं को भी बढ़ावा दिया जा रहा है। आइए, हम आज से ही योग-विज्ञान को नियमित रूप से प्रयोग करने का संकल्प लें और ‘सर्वे संतु निरामया’ सूत्र को चरितार्थ करें।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

दिनांक: 6 जनवरी 2022

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 137 ☆ आलेख – पानी व सम्प्रेषण की नाट्य कला ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीय आलेख पानी व सम्प्रेषण की नाट्य कला । इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

प्रसंगवश, ई- अभिव्यक्ति में प्रकाशित महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी, मुंबई के आयोजन नुक्कड़ नाटक “जल है तो कल है” का उल्लेख करना चाहूंगा।  इस नाटक के लेखक श्री संजय भारद्वाज, अध्यक्ष, हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे हैं। आप इसे निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं >>

☆महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी, मुंबई  का आयोजन नुक्कड़ नाटक “जल है तो कल है” – लेखक श्री संजय भारद्वाज ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 137 ☆

? आलेख – पानी व सम्प्रेषण की नाट्य कला ?

पानी भविष्य की एक बड़ी वैश्विक चुनौती है. पिछली शताब्दि में विश्व की जनसंख्या तीन गुनी हो गई है, जबकि पानी की खपत सात गुणित बढ़ चुकी है. जलवायु परिवर्तन और जनसांख्यकीय वृद्धि के कारण जलस्त्रोतो पर जल दोहन का असाधारण दबाव बना है.

बारम्बार बादलो के फटने और अति वर्षा से जल निकासी के मार्ग तटबंध तोड़कर बहते हैं, बाढ़ के हालात बनते हैं.  समुद्र के जल स्तर में वृद्धि से आवासीय भूमि कम होती जा रही है और इसके विपरीत पेय जल की कमी से वैश्विक रुप से लोगो के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है.विश्व की बड़ी आबादी के लिये पीने के स्वच्छ पानी तक की  कमी है.

वैज्ञानिक तकनीकी समाधानो के लिये  अनुसंधान कर रहे हैं. विशेषज्ञ बताते हैं कि जल आपदा से बचने हेतु हमें अपने आचरण बदलने चाहिये, जल उपयोग में मितव्ययता बरतनी चाहिये.

किन्तु वास्तव में हम किस दिशा की ओर अग्रसर हैं?

थियेटर ही वह समुचित मीडिया है जो दर्शको को भावनात्मक और मानसिक रूप से एक समग्र अनुभव देते हुये, मानव जाति और उसके पूर्वजो की  अनुष्ठानिक पृष्ठभूमि और सांकेतिकता के साथ उनकी विविधता किन्तु पानी के साथ एक सार्वभौमिक सम्बंध का सही परिचय करवा सकता है. इस तरह हमारी विविध सांस्कृतिक समानताओ को ध्यान में रखते हुये दुनिया को देखने और बेहतर समझने का बड़ा दायरा इस प्रदर्शन का  सांस्कृतिक तत्व होगा.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ बूट पालिश ☆ श्री राकेश कुमार

श्री राकेश कुमार

(ई- अभिव्यक्ति में श्री राकेश कुमार जी का स्वागत है। भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से अतीत और वर्तमान को जोड़ता हुआ एक आलेख – “बूट पालिश”.)   

☆ आलेख ☆ बूट पालिश ☆ श्री राकेश कुमार ☆

पच्चास के दशक में फिल्मी दुनिया के सबसे बड़े शोमैन राजकपूर साहब ने इसी नाम से फिल्म का निर्माण किया था। गरीब परिवार के लड़के इस सेवा से धनोपार्जन कर जीवनयापन करते हैं, ऐसा हमारी फिल्मों में  दिखाया जाता है। आज कल तो गायन या नृत्य के अनेक टीवी प्रतियोगी भी बूट पालिश के बैक ग्राउंड से आते हैं। ऐसा बताने से जनता की सहानभूति भी वोटों में परिवर्तित हो जाती है। सदी के महानायक ने भी एक फिल्म यही कार्य करते हुए जमीन पर फेंके हुए पैसे उठाने से मना कर दिया था, वो डायलॉग आज भी लोगों की जुबां पर रहता है।

ऐसा कहा जाता है कि किसी भी व्यक्ति का सबसे पहला प्रभाव उसके जूतों से ही पड़ता है। साठ के दशक में “बिल्ली” नाम की शू पालिश चला करती थी। ब्लैक और ब्राउन दो रंग होते थे। हमारे देश में अंग्रेज अपने साथ इसे लाए थे। बाद में क्रीम पालिश भी आ गई थी। हमारे जैसे जिन्होंने शीत ऋतु में भी चेहरे पर सरसों के तेल लगा कर जीवन काट लिया हो, वो क्या जाने जूते वाली क्रीम के बारे में ?

रेलवे स्टेशन और प्रमुख बाजारों में पालिश करने वाले क्रमबद्ध बैठ कर पालिश पालिश पुकार कर ग्राहकों को आकर्षित करते थे। शादी के कार्यक्रम में भी इनकी सेवाएं ली जाती थी। दक्षिण मुम्बई के चर्चगेट लोकल स्टेशन पर आज भी पालिश वाले अपने बक्से पर ब्रश स ठक-ठक कि आवाज़ से जनमानस को अपनी और आकर्षित करने में सक्षम हैं। विगत कुछ वर्षों से बूट पालिश में चेरी ब्लॉसम नामक  ब्रांड ही चल रहा है।

परिवर्तन के दौर से बूट पालिश भी अछूता नहीं है। विगत तीन दशकों से कपड़े (स्पोर्ट्स) और रबर के जूते प्रचलन में आ जाने से इसके उपयोग में भी कमी आ गई है। लेकिन वर्दीधारी सेवा में इसका उपयोग यथावत जारी है। कुछ समय पूर्व तरल पालिश को भी अजमाया गया था, जिसका उपयोग सरल है। लेकिन ये भी उपभोक्ता पर पकड़ नहीं बना सकी। कुछ बड़े होटलों, अतिथि ग्रहों में बूट पालिश की मशीन लग जाने से इस रोज़गार में कार्यरत लोगों के लिए कठिनाइयां हो गई है।

शायद मैन और मशीन में मशीन हमेशा आगे निकल जाती है।

© श्री राकेश कुमार 

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 120 ☆ भोर भई ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 120 ☆ भोर भई ?

मैं फुटपाथ पर चल रहा हूँ। बायीं ओर फुटपाथ के साथ-साथ महाविद्यालय की दीवार चल रही है तो दाहिनी ओर सड़क सरपट दौड़ रही है।  महाविद्यालय की सीमा में लम्बे-बड़े वृक्ष हैं। कुछ वृक्षों का एक हिस्सा दीवार फांदकर फुटपाथ के ऊपर भी आ रहा है। परहित का विचार करनेवाले यों भी सीमाओं में बंधकर कब अपना काम करते हैं!

अपने विचारों में खोया चला जा रहा हूँ। अकस्मात देखता हूँ कि आँख से लगभग दस फीट आगे, सिर पर छाया करते किसी वृक्ष का एक पत्ता झर रहा है। सड़क पर धूप है जबकि फुटपाथ पर छाया। झरता हुआ पत्ता किसी दक्ष नृत्यांगना के पदलालित्य-सा थिरकता हुआ  नीचे आ रहा है। आश्चर्य! वह अकेला नहीं है। उसकी छाया भी उसके साथ निरंतर नृत्य करती उतर रही है। एक लय, एक  ताल, एक यति के साथ दो की गति। जीवन में पहली बार प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों सामने हैं। गंतव्य तो निश्चित है पर पल-पल बदलता मार्ग अनिश्चितता उत्पन्न रहा है। संत कबीर ने लिखा है, ‘जैसे पात गिरे तरुवर के, मिलना बहुत दुहेला। न जानूँ किधर गिरेगा,लग्या पवन का रेला।’

इहलोक के रेले में आत्मा और देह का सम्बंध भी प्रत्यक्ष और परोक्ष जैसा ही है। विज्ञान कहता है, जो दिख रहा है, वही घट रहा है। ज्ञान कहता है, दृष्टि सम्यक हो तो जो घटता है, वही दिखता है। देखता हूँ कि पत्ते से पहले उसकी छाया ओझल हो गई है। पत्ता अब धूल में पड़ा, धूल हो रहा है।

अगले 365 दिन यदि इहलोक में निवास बना रहा एवं देह और आत्मा के परस्पर संबंध पर मंथन हो सका तो ग्रेगोरियन कैलेंडर का कल से आरम्भ हुआ यह वर्ष शायद कुछ उपयोगी सिद्ध हो सके।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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