डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख प्रकृति शिक्षिका के रूप में। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 112 ☆
☆ प्रकृति शिक्षिका के रूप में ☆
मानव व प्रकृति का संबंध अनादि व अखंड है। प्रकृति का सामान्य अर्थ है–समस्त चराचर में स्थित सभी वनस्पति,जीव व पदार्थ, जिनके निर्माण में मानव का हाथ नहीं लगा; अपने स्वाभाविक रूप में विद्यमान हैं। इसके अंतर्गत मनुष्य भी आ जाता है, जो प्रकृति का अंग है और शेष सृष्टि उसकी रंगभूमि है। सो! उसकी अन्त:प्रकृति उससे अलग कैसे रह सकती है? मनुष्य प्रकृति को देखता व अपनी गतिविधि से उसे प्रभावित करता है और स्वयं भी उससे प्रभावित हो बदलता-संवरता है; तत्संबंधी अनुभूति को अभिव्यक्त करता है। उसी के माध्यम से वह जीवन को परिभाषित करता है। मानव प्रकृति के अस्तित्व को हृदयंगम कर उसके सौंदर्य से अभिभूत होता है और उसे चिरसंगिनी के रूप में पाकर अपने भाग्य को सराहता है और उसे मां के रूप में पाकर अपने भाग्य को सराहता है।
मानव प्रकृति के पंचतत्वों पृथ्वी,जल,वायु,अग्नि, आकाश व सत्,रज,तम तीन गुणों से निर्मित है…फिर वह प्रकृति से अलग कैसे हो सकता है? जिन पांच तत्वों से प्रकृति का रूपात्मक व बोधगम्य रूप निर्मित हुआ है,वे सब इंद्रियों के विषय हैं। इन पांच तत्वों के गुण शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध ही असंख्य रूपों में मानव चेतना के कोश को कर्म, चिन्तन, कल्पना, भावना, भावुकता, संकल्प, जिज्ञासा, समाधान आदि से कितना समृद्ध किया है–इसका अनुमान मानव की उपलब्धियों से लगाया जा सकता है। प्रकृति का वैभव अपरिमित एवं अपार है। उसकी पूर्णता को न दृष्टि छू सकती है, न ही उसकी सीमाओं तक कान ही पहुंच सकते हैं और न ही क्षणों की गति को मापा जा सकता है। प्रकाश व शब्द की गति के साथ कौन दौड़ लगा सकता है? प्रकृति के अद्भुत् सामर्थ्य व निरंतर गतिशीलता के कारण उसमें देवत्व की स्थापना हो गयी तथा उसकी अतिन्द्रियता, अद्भुतता, उच्चता, गहनता आदि के कारण उसे विराट की संज्ञा प्रदान की गयी है। विराट में मानव,मानवेतर प्राणी व अचेतन जगत् का समावेश है। अचेतन जगत् ही प्रकृति है और जगत् का उपादान अथवा मूल तत्व है। वह स्वयंकृत, चिरंतन व सत्य है। उसका निर्माण व विनाश कोई नहीं कर सकता। प्रकृति के अद्भुत् क्रियाकलाप व अनुशासनबद्धता को देख कर मानव में भय, विस्मय, औत्सुक्य व प्रेम आदि भावनाओं का विकास हुआ, जिनसे क्रमश: दर्शन, विज्ञान व काव्य का विकास हुआ। सो! मानव मन में आस्था, विश्वास व आदर्शवाद जीवन-मूल्यों के रूप में सुरक्षित हैं और विश्व में हमारी अलग पहचान है। सम्पूर्ण विश्व के लोग भारतीय दर्शन से प्रभावित हैं। रामायण व महाभारत अद्वितीय ग्रंथ हैं और गीता को मैनेजमेंट गुरू स्वीकारा जाता है। उसे विश्व के विभिन्न देशों में पढ़ाया जाता है। यह एक जीवन-पद्यति है; जिसे धारण कर मानव अपना जीवन सफलतापूर्वक बसर कर सकता है।
प्रकृति हमारी गुरू है, शिक्षिका है, जो जीने की सर्वोत्तम राह दर्शाती है। प्रकृति हमारी जन्मदात्री मां के समान है और हमारी प्रथम गुरू कहलाती है और जो संस्कार व शिक्षा हमें मां से प्राप्त होती हैं, वह पाठ संसार का कोई गुरू नहीं पढ़ा सकता। प्रकृति हमें सुक़ून देती है; अनगिनत आपदाएं सहन करती है और हम पर लेशमात्र भी आँच नहीं आने देती। वह हमारी सहचरी है; सुख-दु:ख की संगिनी है। दु:ख की वेला में यह ओस की बूंदों के रूप में आंसू बहाती भासती है, जो सुख में मोतियों-सम प्रतीत होते हैं। इतना ही नहीं, दु:ख में प्रकृति मां के समान धैर्य बंधाती है।
प्रकृति हमें कर्मशीलता का संदेश देती है और उसके विभिन्न उपादान निरंतर सक्रिय रहते हैं।क्षरात्रि के पश्चात् स्वर्णिम भोर, अमावस के बाद पूनम व विभिन्न मौसमों का यथासमय आगमन समय की महत्ता व गतिशीलता को दर्शाता है। नदियाँ निरंतर परहिताय प्रवाहशील रहती हैं। इसलिए वे जीवन-दायिनी कहलाती हैं। वृक्ष भी कभी अपने फलों का रसास्वादन नहीं करते तथा पथिक को शीतल छाया प्रदान करते हैं। वे हमें आपदा के लिए संचय करने को प्रेरित करती है। जैसे जल के अभाव में वह बंद बोतलों में बिकने लगा है। बूंद-बूंद से सागर भर जाता है और जल को बचा कर हम अपने भविष्य को सुरक्षित कर सकते हैं। वायु भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। परंतु मानव की बढ़ती लालसाओं ने जंगलों के स्थान पर कंक्रीट के महल बनाकर पर्यावरण-प्रदूषण में बहुत वृद्धि की है, जिसका विकराल रूप हमने कोरोना काल में आक्सीजन की कमी के रूप में देखा है; जिसके लिए लोग लाखों रुपये देने को तत्पर थे। परंतु उसकी अनुपलब्धता के कारण लाखों लोगों को अपने प्राण गंवाने पड़े। काश! हम प्रकृति के असाध्य भंडारण व असाध्यता का अनुमान लगा पाते कि वह हमें कितना देती है? हम करोड़ों-अरबों की वायु का उपयोग करते हैं; अपरिमित जल का प्रयोग करते हैं; वृक्षों का भी हम पर कितना उपकार है, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। वे कार्बन-डॉयोक्साईड लेकर हमें आक्सीजन देते हैं। इतना ही नहीं, वे हमें अन्न व फल-फूल देते हैं, जिससे हमें जीवन मिलता है।
मानव व प्रकृति का संबंध अटूट, चिरंतन व शाश्वत् है। प्रकृति विभिन्न रूपों में हमारे सम्मुख बिखरी पड़ी है। प्रकृति के कोमल व कमनीय सौंदर्य से प्रभावित होकर कवि उसे कल्पना व अनुभूति का विषय बनाता है, जो विभिन्न काव्य- रूपों में प्रकट होती है। यदि हम हिन्दी साहित्य पर दृष्टिपात करें, तो प्रकृति हर युग में मानव की प्रेरणा-शक्ति ही नहीं रही, उसकी चिर-संगिनी भी रही है। वैदिक-कालीन सभ्यता का उद्भव व विकास प्रकृति के उन्मुक्त प्रांगण में हुआ। मंत्रदृष्टा ऋषियों ने प्रकृति के प्रति जहां अनुराग व्यक्त किया, वहीं उसके उग्र,रम्य व मानवीकरण आदि रूपों को अपनाया। ऋग्वेद मानव सभ्यता का प्राचीनतम ग्रंथ है। प्रकृति के दिव्य सौंदर्य से अभिभूत होकर जहां मानव उसके उन्मुक्त सौंदर्य का बखान करता है; वहीं विराट के प्रति भय, विस्मय श्रद्धा आदि की अनुभूतियों में अनंत सौंदर्य का अनुभव करता है। वाल्मीकि का प्रकृति-जगत् के कौंच-वध की हृदय-विदारक घटना से उद्वेलित आक्रोश व करुणा से समन्वित शोक का प्रथम श्लोक रूप में प्रस्फुरण इस तथ्य की पुष्टि करता है कि भावातिरेक या अनुभूति की तीव्रता ही कविता की मूल संजीवनी शक्ति है। महाभारत में प्रकृति केवल पर्वत, वन, नदी आदि का सामान्य ज्ञान कराती है। नल दमयंती प्रसंग में वह प्रकृति से संवेदनात्मक संबंध स्थापित न कर, स्वयं को अकेला व नि:सहाय अनुभव करती है।
कालिदास को बाह्य-जगत् का सर्वश्रेष्ठ कवि स्वीकारा जाता है। उनका प्रकृति-चित्रण संस्कृत साहित्य में ही नहीं, विश्व साहित्य में दुर्लभ है। वे प्रकृति को मूक, चेतनहीन व निष्प्राण नहीं मानते, बल्कि वे उसमें मानव की भांति सुख- दु:ख व संवेदनशीलता अनुभव करते हैं। इस प्रकार अश्वघोष, भवभूति, भास, माघ, भारवि, बाणभट्ट आदि में प्रकृति का व्यापक रूप में वर्णन हुआ है।
हिन्दी साहित्य के आदिकाल अथवा पूर्व मध्य-कालीन काव्य में प्रकृति का उपयोग पृष्ठभूमि, उद्दीपन व उपमानों के रूप में हुआ। विद्यापति के काव्य में प्रकृति कहीं-कहीं उपदेश देती भासती है और आत्मा परमात्मा में इस क़दर लीन हो जाती है, जैसे समुद्र में लहर और भौंरों का गुंजन नायिका को मान त्यागने का संदेश देता भासता है। वियोग में उनका बारहमासा वर्णन द्रष्टव्य है।
पूर्व मध्यकालीन काव्य में प्रकृति उन्हें माया सम भासती है तथा उन्होंने भावाभिव्यक्ति के लिए प्रकृति के विभिन्न रूपों को अपनाया है। कबीरदास जी ‘माली आवत देखि के, कलियन करि पुकार/ फूलि-फलि चुनि लहि, कालहि हमारी बारि’ के माध्यम से मानव को नश्वरता का संदेश देते हैं। दूसरी ओर ‘तेरा सांई तुझ में, ज्यों पुहुपन में वास/ कस्तूरी का मृग ज्यों फिरि-फिरि ढूंढे घास’ के माध्यम से वे मानव को संदेश देते हैं कि ब्रह्म पुष्पों की सुगंध की भाति घट-घट में व्याप्त है, परंतु अज्ञान के कारण बावरा मानव उसे अनुभव नहीं कर पाता और मृग की भांति वन-वन में ढूंढता रहता है। प्रेममार्गी शाखा के प्रवर्त्तक जायसी के काव्य में प्रकृति के उपमान, उद्दीपन व रहस्यात्मक रूपों का चित्रण हुआ है। वे चराचर प्रकृति में ब्रह्म के दर्शन करते हैं। समस्त जड़-चेतन प्रकृति में प्रेमास्पद के प्रतिबिंब को निहारते व अनुभव करते हैं। ‘बूंद समुद्र जैसे होइ मेरा/ मा हिराइ जस मिले न हेरा।’ जिस प्रकार बूंद समुद्र में मिलकर नष्ट हो जाती है,उसी प्रकार आत्मा भी ब्रह्ममय हो जाती है।
रामभक्ति शाखा के कवि तुलसीदास की वृत्ति प्रकृति-चित्रण में अधिक नहीं रमी, तथापि उनका प्रकृति-चित्रण स्वाभाविक बन पड़ा है। प्रकृति उनके काव्य में उपमान व उद्दीपन रूप में नहीं आयी, बल्कि उपदेशिका के रूप में आयी है। संयोग में वर्षा व बादलों की गर्जना होने पर पशु-पक्षी व समस्त प्रकृति जगत् उल्लसित भासता है और वियोग में मन की अव्यवस्थित दशा में मेघ-गर्जन भय संचरित करते हैं। मानवीकरण में मनुष्य का शेष सृष्टि के साथ रागात्मक संबंध स्थापित हो जाता है और मानव उसमें अपनी मन:स्थिति के अनुसार उल्लास, उत्साह, आनंद व शोक की भावनाएं- क्रियाएं आरोपित करता है। राम वन के पशु-पक्षियों से सीता का पता पूछते हैं। तुलसी सदैव लोक- कल्याण की भावना में रमे रहे और प्रकृति से उपदेश-ग्रहण की भावना में उन पर श्रीमद्भागवत् का प्रभाव द्रष्टव्य है–’आन छोड़ो साथ जब, ता दिन हितु न होइ/ तुलसी अंबुज अंबु बिनु तरनि, तासु रिपु होइ।’ जब कुटुम्बी साथ छोड़ देते हैं, तो संसार में कोई भी हितकारी नहीं रह पाता। कमल का जनक जल जब सूख जाता है, तो उसका मित्र सूर्य भी उसे दु:ख पहुंचाता है।
कृष्ण भक्ति शाखा के अतर्गत सूर, नंददास, रसखान आदि को कृष्ण के कारण प्रकृति अति प्रिय थी। प्रकृति का आलंबन, उद्दीपन व आलंकारिक रूप में चित्रण हुआ है। वियोग में प्रकृति गोपियों को दु:ख पहुंचाती है और वे मधुवन को हरा-भरा देख झुंझला उठती हैं– ‘मधुबन! तुम कत रहत हरे/ विरह-वियोग स्याम सुंदर के ठाढ़ै,क्यों न जरे।’ कहीं-कहीं वे प्रकृति में उपदेशात्मकता का आभास पाते हैं और संसार के मोहजाल को भ्रमात्मक बताते हुए कहते हैं–’यह जग प्रीति सुआ, सेमर ज्यों चाखत ही उड़ि जाय।’ तोते को सेमर के फूल में रूई प्राप्त होती है और वह उड़ जाता है। सूर ने प्रकृति के व्यापारों का मानवीय व्यापारों से अतु्लनीय समन्वय किया है।
उत्तर मध्यकालीन को प्राकृतिक सौंदर्य आकर्षित नहीं कर पाता। बिहारी को गंवई गांव में गुलाब के इत्र का कोई प्रशंसक नहीं मिलता। केशव को प्राकृतिक दृश्यों के अंकन का अवसर मिला,परंतु वे अलंकारों में उलझे रहे। बिहारी सतसई में जहां मानवीकरण व आलंबनगत रूप चित्रण हुआ, वहीं पर नैतिक शिक्षा के रूप में अन्योक्तियों का आश्रय लिया गया है। इनके प्रकृति-चित्रण में हृदय-स्पर्शिता का अभाव है। सो! प्रकृति उद्दीपन व उपमान रूप में हमारे समक्ष है। ‘ नहीं पराग,नहीं मधुर मधु,नहीं विकास इहिं काल/ अलि कली ही सौं बंध्यौ,आगे कौन हवाल’ के माध्यम से राजा जयसिंह को सचेत किया गया है। ‘जिन-जिन देखे वे सुमन, गयी सो बीति बहार/ अब अलि रही गुलाब की, अपत कंटीली डार।’ यह उक्ति सम्पत्ति-विहीन व्यक्ति के लिए कही गयी है तथा भ्रमर को माध्यम बनाकर प्राचीन वैभव व वर्तमान की दरिद्रावस्था का बखूबी चित्रण किया गया है।
भारतेन्दु युग आधुनिक युग का प्रवेश-द्वार है और इसमें नवीन व प्राचीन काव्य-प्रवृत्तियों का समन्वय हुआ है। प्रकृति मानवीय भावनाओं के अनुरूप हर्ष-विषाद को अतिशयता प्रदान करती, वियोगियों को रुलाती तथा संयोगियों को उल्लसित करती है। इनका बारहमासा वर्णन विरहिणी की पीड़ा को और बढ़ा देता है तथा कहीं-कहीं प्रकृति उपदेश देती भासती है। ‘ताहि सो जहाज को पंछी सब गयो,अहो मन होई’ (भारतेन्दु ग्रंथावली)। अत:जीव जहाज़ के पक्षी की भांति पुन: ब्रह्म में मिलने का प्रयास करता है। बालमुकुंद जी के हृदय में प्रकृति के प्रति सच्चा अनुराग है, जो आलंबन, उद्दीपन व उपमान रूप में उपलब्ध है।
द्विवेदी युगीन कवियों ने प्रकृति को काव्य का वर्ण्य-विषय बनाया है तथा प्रकृति का स्वतंत्र चित्रण किया है। श्रीधर पाठक, रूपनारायण पाण्डेय, रामनरेश त्रिपाठी आदि ने आलंबनगत चित्र प्रस्तुत किए हैं तथा स्वतंत्रतावादी कवियों ने रूढ़ रूपों को नहीं अपनाया, बल्कि जीवन के विस्तृत क्षेत्र में उसके साधारण चित्रमय, सजीव व मार्मिक रूप प्रदान किए हैं। पाठक ने कश्मीर सुषमा, देहरादून आदि कविताओं में प्रकृति के मनोरम चित्र उपलब्ध हैं। शुक्ल जी ने प्रकृति के आलंबन व त्रिपाठी ने पथिक व स्वप्न खंड काव्यों में प्रकृति का मार्मिक चित्रण किया है। हरिऔध ने जहां ऐंद्रिय सुख की अनुभूति की, वहीं प्रकृति से उपादान ग्रहण कर नायिका के सौंदर्य का वर्णन किया है। मैथिलीशरण गुप्त जी के साकेत, पंचवटी, यशोधरा आदि काव्यों में मनोरम प्राकृतिक चित्रण उपलब्ध है। पंचवटी में प्रकृति की अपूर्व झांकी दिखाई देती है और प्रकृति मानव के साथ क्रिया-प्रतिक्रिया रूप में संबंध स्थापित करती है। साकेत में प्रकृति का मानव व मानवेतर जगत् से तादात्म्य स्थापित हो जाता है। वे प्रकृति को सद्गुणों से परिपूर्ण मानते हैं– ‘सर्वश्रद्धा, क्षमा व सेवा की, ममता की वह धर्म में भी प्रतिमा/ खुली गोद में जो उसकी, समता की वह प्रतिमा।’ प्रकृति ममतामयी मां है, जो समभाव से सब पर अपना प्रेम व ममत्व लुटाती है।उपदेशिका की भांति मानव में उच्च विचार व सदाशयता के भाव संचरित करती है। वे भारतीयों में राष्ट्रीय-चेतना के भाव जाग्रत करते हुए ओजपूर्ण शब्दों में कहते हैं—‘पृथ्वी, पवन, नभ, जल, अनल सब लग रहे काम में/ फिर क्यों तुम्ही खोते हो, व्यर्थ के विश्राम में।’ कवि ने सर्वभूतों को सर्वदा व्यस्त दिखाते हुए देशवासियों को आलस्य त्यागने व जाग्रत रहने का संदेश दिया है। रामनरेश त्रिपाठी के काव्य में प्रकृति के सुंदर, मधुर, मंजुल रूप प्रकट होते हैं, उग्र नहीं। वे प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करते हुए मानव-व्यापारों व मानव- संवेदना का आभास पाते हैं।
छायावाद में प्रकृति को स्वछंद रूप प्राप्त हुआ है और उसका उपयोग आध्यात्मिक भावों के प्रकाशन के लिए हुआ है। प्रकृति कवि की चेतना, प्रेरणा व स्पंदन है। इसलिए छायावाद को प्रकृति काव्य के नाम से अभिहित किया गया है।यदि प्रकृति को छायावाद से निकाल दिया जाए, तो वह पंगु हो जाएगा। प्रसाद ने प्रकृति में चेतना का अनुभव किया और वह मधुर, कोमल व सुकुमार भावनाओं की अभिव्यक्ति का साधन बन गयी, परंतु कवि ने कामायनी में प्रकृति के भयावह, विकराल व विराट आदि रूपों का दर्शन किया है। वे प्रकृति को सचेतन व सजीव मानकर उसमें अलौकिक सत्ता का दर्शन करते हैं तथा समस्त सृष्टि के कार्य-व्यापारों को सर्वोत्तम शक्ति द्वारा अनुप्राणित स्वीकारते हैं। प्रसाद ने संसार को रंगभूमि मानते हुए कहा है कि मानव यहां अपनी शक्ति के अनुसार संसार रूपी घोंसले में अपनी शक्ति के अनुसार ठहर सकता है, ‘शक्तिशाली विजयी भव’ का संदेश देता है। पंत प्रकृति के उपासक ही नहीं, अनन्य मित्र थे। उनके काव्य में मानव और प्रकृति का एकात्म्य हो जाता है। मधुकरि का मधुर राग उन्हें मुग्ध करता है और वे ‘सिखा दो न हे मधुप कुमारि/ मुझे भी अपने मीठे गान'(पल्लविनी)। वे प्रकृति के सहचरी, देवी, सखी, जननी आदि रूपों को काव्य में चित्रित करके उनमें अलौकिक सत्ता का आभास पाते हैं और प्रकृति उन्हें प्रेरणा प्रदान करती है।
निराला के काव्य में प्रकृति के चित्र दिव्य, समृद्ध व रहस्यात्मक रूप में आए हैं। उनके काव्य में दो तत्वों की प्रधानता है-रहस्यवाद व मानवीकरण। उनके काव्य विराटता व उदात्तता की दृष्टि से सराहनीय हैं। प्रकृति उसे सजीव प्राणी की भांति अपना रूप दिखाती, हाव-भावों से मुग्ध करती, संवेदना प्रकट करती उत्साहित करती है। इस प्रकार प्रकृति व मनुष्य का तादात्म्य हो जाता है। बादल प्रकृति को हरा-भरा कर देते हैं, जिससे प्रेरित होकर प्रकृति कर्त्तव्य- पथ पर अग्रसर होने का संदेश देती है।
महादेवी वर्मा सृष्टि में सर्वत्र दु:ख देखती हैं। प्रकृति उनके लिए सप्राण है तथा वे मानव व प्रकृति के लिए एक प्रकार की अनुभूति, सजीवता, विश्रंखलता, आत्मीयता व व्यापकता का अनुभव करती हैं। वे संसार में प्रियतम को ढूंढती हैं । वे कभी प्रेम भाव में बिछ जाती हैं और जब प्रियतम अंतर्ध्यान हो जाते हैं, वे निराश होकर दु:ख-दैन्य भाव को इस प्रकार व्यक्त करती हैं—‘मैं फूलों में रोती, वे बालारुण में मुस्काते/ मैं पथ में बिछ जाती,वे सौरभ सम उड़ जाते।’ वे प्रकृति के चतुर्दिक प्रियतम के संदेश का आभास पाती हैं और प्रश्न कर उठती हैं — ‘मुस्काता प्रेम भरा नभ,अलि! क्या प्रिय आने वाले हैं?’ वे जीवन को संध्या से उपमित करती हैं ‘प्रिय सांध्य गगन मेरा जीवन’ ‘मैं नीर भरी दु:ख की बदली’ के माध्यम से वे प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करती हैं। वेएक ओर प्रकृति में विराट की छाया देखती हैं और दूसरी ओर अपना प्रतिबिंब पाती हैं। वै छायावाद का आधार स्तंभ-मात्र नहीं हैं, रहस्य व अरूप की साधिका रही हैं।
प्रगतिवाद भौतिकवादी दर्शन है, जिस पर मार्क्सवाद का प्रभाव था। समस्त सृष्टि का विकास दो वस्तुओं के संघर्ष से होता है, जो द्वंद्व का परिणाम है। यह वैज्ञानिक दर्शन है, जिसमें भावुकता के स्थान पर बुद्धि को स्वीकारा गया है।यह यथार्थवाद पर आधारित है। इन कवियों को जीवन से अनुरक्ति है और प्रकृति से प्रेम है।उन्होंने प्रकृति के उपेक्षित तत्वों व पात्रों को महत्व दिया है और प्रकृति उनके लिए शक्ति- प्रणेता है। वे दिन-रात व ऋतु-परिवर्तन को देख जीवन के विकास के लिए परिवर्तन-शीलता को अनिवार्य मानते हैं। इनके गीतों पर लोकगीतों कि प्रभाव द्रष्टव्य है।
प्रयोगवादी कविता में प्रकृति के भावात्मक स्वरूप का ग्रहण हुआ अबोध बालक की तरह ईश्वर, प्रकृति, जीवन-सौंदर्य के विभिन्न स्तरों पर प्रश्न करता है। इन कवियों ने जहां प्रकृति के उपेक्षित व वैज्ञानिक स्वरूपों को ग्रहण किया है,
वहीं प्रकृति में दैवीय सत्ता का आभास न पाकर , भौतिकता के संदर्भ में एक शक्ति के रूप में स्वीकारा गया है। इनका दृष्टिकोण भावात्मक न होकर, बौद्धिक है और प्रकृति के उपेक्षित स्वरूप(कुत्ता, गधा,चाय की प्याली, चूड़ी का टुकड़ा, प्लेटफार्म, धूल, साइरन) को काव्य का विषय बनाया।इन्होंने असुंदर, भौंडे, भदेस आदि में सौंदर्य के दर्शन किए तथि युगबोध के अनुकूल प्रकृति का चित्रण किया। इन्होंने जहां प्रकृति को अपनी मानसिक कुंठाओं की अभिव्यक्ति का साधन बनाया, वहां नवीन उपमानों, बिम्बों को अपने काव्य में प्रतिष्ठित किया तथा मानवीकरण कर मनोरम चित्रण किया है।
नयी कविता प्रयोगवाद का विकसित चरण है तथा इसमें उपलब्ध प्रकृति चित्रण की विशेषता है–ग्राम्य चित्रपटी की अवधारणा। नयी कविता वाद मुक्त है तथा वे जो भी मन में आता है, कहते हैं। वे क्षणवादी हैं और हर पल को जी लेना चाहते हैं,क्योंकि वे भविष्य के प्रति आश्वस्त नहीं हैं। उनमें एक दर्शन का अभाव है। कई बार उन्हें प्रकृति के विभिन्न रूप स्पंदनहीन भासते हैं और उन्हें अपने अस्तित्व के बारे में शंका होने लगती है। नये कवियों की विषय-व्यापकता, नया भाव-बोध तथा नवीन दृष्टिकोण सराहनीय है। सो! प्रकृति व मानव का संबंध अनादि काल से शाश्वत् व अटूट रहा है। वह हर रूप में आराध्या रही है। परंतु जब-जब मानव ने प्रकृति का अतिक्रमण किया है, उसने अपना प्रकोप व विकराल रूप दिखाया है, जो प्राकृतिक प्रदूषण व कोरोना के रूप में हमारे समक्ष है। इन असामान्य परिस्थितियों में मानव नियति के सम्मुख विवश व असहाय भासता है।
© डा. मुक्ता
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