हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 114 ☆ किमाश्चर्यमतः परम् ! ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 114 ☆ किमाश्चर्यमतः परम् !

देख रहा हूँ कि एक चिड़िया दाना चुग रही है। एक दाना चोंच में लेने से पहले चारों तरफ चौकन्ना होकर देखती है, कहीं किसी शिकारी के वेश में काल तो घात लगाये नहीं बैठा। हर दाना चुगने से पहले, हर बार न्यूनाधिक यही प्रक्रिया अपनाती है।

माना जाता है कि पशु-पक्षी बुद्धि तत्व में विपन्न हैं पर जीवन के सत्य को सरलता से स्वीकार करने की दृष्टि से वे सम्पन्न हैं। मनुष्य में बुद्धितत्व विपुल है पर  सरल को  जटिल करना, भ्रम में रहना, मनुष्य के स्वभाव में प्रचुर है।

मनुष्य की इसी असंगति को लेकर यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न किया था,

दिने दिने हि भूतनि प्रविशन्ति यमालयम्।शेषास्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम्।।

अर्थात प्रतिदिन ही प्राणी यम के घर में प्रवेश करते हैं, तब भी शेष प्राणी अनन्त काल तक यहाँ बने रहने की इच्छा करते हैं। क्या इससे बड़ा कोई आश्चर्य है?

युधिष्ठिर ने प्रश्न में ही उत्तर ढूँढ़कर कहा था,

अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्।शेषाः स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम् ॥

अर्थात प्रतिदिन ही प्राणी यम के घर में प्रवेश करते हैं, तब भी शेष प्राणी अनन्त काल तक यहीं बने रहने की इच्छा करते हैं। क्या इससे बड़ा कोई आश्चर्य हो सकता है?

सचमुच इससे बड़ा आश्चर्य क्या हो सकता है कि लोग रोज़ मरते हैं पर ऐसे जीते हैं जैसे कभी मरेंगे ही नहीं। हास्यास्पद है कि पर मनुष्य चोर-डाकू से डरता है, खिड़की-दरवाज़े मज़बूत रखता है पर किसी अवरोध के बिना कहीं से किसी भी समय आ सकनेवाली मृत्यु को भूला रहता है।

संभवत: इसका कारण ज़ंग लगना है। जैसे लम्बे समय एक स्थान पर पड़े लोहे में वातावरण की नमी से ज़ंग लग जाती है, वैसे ही जगत में रहते हुए मनुष्य की बुद्धि पर अहंकार की परत चढ़ जाती है। सामान्य मनुष्य की तो छोड़िए, अपने उत्तर से यक्ष को निरुत्तर करनेवाले धर्मराज युधिष्ठिर भी इसी ज़ंग का शिकार बने।

हुआ यूँ कि महाराज युधिष्ठिर राज्य के विषयों पर मंत्री से गहन विचार- विमर्श कर रहे थे। तभी अपनी शिकायत लेकर एक निर्धन ब्राह्मण वहाँ पहुँचा। कुछ असामाजिक तत्वों ने उसकी गाय छीन ली थी। यह गाय उसके परिवार की उदरपूर्ति का मुख्य स्रोत थी।

महाराज ने उससे प्रतीक्षा करने के लिए कहा। अभी मंत्री से चर्चा पूरी हुई भी नहीं थी कि किसी देश का दूत आ पहुँचा। फिर नागरी समस्याओं को लेकर एक प्रतिनिधिमंडल आ गया। तत्पश्चात सेना से सम्बंधित किसी नीतिविषयक निर्णय के लिए राज्य के सेनापति, महाराज से मिलने आ गए। दरबार के काम पूरे कर महाराज विश्राम के लिए निकले तो निर्धन  को प्रतीक्षारत पाया।

उसे देखकर धर्मराज बोले, ” आपको न्याय मिलेगा पर आज मैं थक चुका हूँ। आप कल सुबह आइएगा।”

निराश ब्राह्मण लौट पड़ा। अभी वापसी के लिए चरण उठाये ही थे कि सामने से भीम आते दिखाई दिए। सारा प्रसंग जानने के बाद भीम ने ब्राह्मण से प्रतीक्षा करने के लिए कहा। तदुपरांत भीम ने सैनिकों से युद्ध में विजयी होने पर बजाये जानेवाले नगाड़े बजाने के लिए कहा।

उस समय राज्य की सेना कहीं किसी तरह का कोई युद्ध नहीं लड़ रही थी। अत: नगाड़ों की आवाज़ से आश्चर्यचकित महाराज युधिष्ठिर ने भीम से इसका कारण जानना चाहा। भीम ने उत्तर दिया, ” महाराज युधिष्ठिर ने एक नागरिक को उसकी समस्या के समाधान के लिए कल आने के लिए कहा है। इससे सिद्ध होता है कि महाराज ने जीवन की क्षणभंगुरता को परास्त कर दिया है तथा काल पर विजय प्राप्त कर ली है।”

महाराज युधिष्ठिर को अपनी भूल का ज्ञान हुआ। ब्राह्मण को तुरंत न्याय मिला।

हर क्षण मृत्यु का भान रखने का अर्थ जीवन से विमुखता नहीं अपितु हर क्षण में जीवन जीने की समग्रता है। अपनी कविता ‘चौकन्ना’ स्मरण हो आती है-

सीने की / ठक-ठक / के बीच

कभी-कभार / सुनता हूँ

मृत्यु की भी / खट-खट,

ठक-ठक.. / खट-खट..,

कान अब / चौकन्ना हुए हैं

अन्यथा / ठक-ठक और /

खट-खट तो / जन्म से ही /

चल रही हैं साथ / और अनवरत..,

आदमी यदि / निरंतर /सुनता रहे /

ठक-ठक / खट-खट / साथ-साथ,

बहुत संभव है / उसकी सोच / निखर जाए,

खट-खट तक / पहुँचने से पहले

ठक-ठक / सँवर जाए..!

मनुष्य यदि ठक-ठक और खट-खट में समुचित संतुलन बैठा ले तो संभव है कि भविष्य के किसी यक्ष को भविष्य के किसी युधिष्ठिर से यह पूछना ही न पड़े कि किमाश्चर्यमतः परम् !

© संजय भारद्वाज

रात्रि 1:10 बजे, 18 नवम्बर 2021

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 108 ☆ सपने वे होते हैं ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख सपने वे होते हैंयह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 108 ☆

☆ सपने वे होते हैं ☆

सपने वे नहीं होते, जो आपको रात में सोते  समय नींद में आते हैं। सपने तो वे होते हैं, जो आपको सोने नहीं देते– अब्दुल कलाम जी की यह सोच अत्यंत सार्थक है कि जीवन में उन सपनों का कोई महत्व नहीं होता, जो हम नींद में देखते हैं। वे तो माया का रूप होते हैं और वे आंख खुलते गायब हो जाते हैं; उनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है, क्योंकि सपनों को साकार करने के लिए मानव को कठिन परिश्रम करना पड़ता है; अपनी सुख-सुविधाओं को तिलांजलि देनी पड़ती है। उस परिस्थिति में मानव की रातों की नींद और दिन का सुक़ून समाप्त हो जाता है। मानव को केवल अर्जुन की भांति अपना लक्ष्य दिखाई पड़ता है, जो उन सपनों की मानिंद होता है, जो आपको सोने नहीं देते। सो! खुली आंखों से सपने देखना कारग़र होता है। इसलिए हमारा लक्ष्य सार्थक होना चाहिए और हमें उसकी पूर्ति हेतु स्वयं को झोंक देना चाहिए। वैसे काम तो दीमक भी दिन-रात करती है, परंतु वह निर्माण नहीं; विनाश करती है। इसलिए अपनी सोच को सकारात्मक रखिए, दृढ़-प्रतिज्ञ रहिए व कठिन परिस्थितियों में भी धैर्य बनाए रखिए… यही सफलता का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।

सो! हमें खास समय की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए, बल्कि अपने हर समय को खास बनाना चाहिए, क्योंकि आपको भी दिन में उतना ही समय मिलता है; जितना महान् लोगों को मिलता है। इसलिए समय की कद्र कीजिए। समय अनमोल है, परिवर्तनशील है, कभी किसी के लिए ठहरता नहीं है। यह आप पर निर्भर करता है कि आप समय को कितना महत्व देते हैं। इसके साथ ही मानव को यह बात अपने ज़हन में रखनी चाहिए कि कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता। हमें पूर्ण निष्ठा व तल्लीनता से उस कर्म को उस रूप में अंजाम देना चाहिए कि आप से अच्छा कार्य कोई कर ही ना पाए। सो! दक्षता अभ्यास से आती है। कबीर जी का यह दोहा ‘करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान’ इसी भाव को परिलक्षित करता है। यदि आप में जज़्बा है, तो आप हर स्थिति में स्वयं को सबसे सर्वश्रेष्ठ साबित कर सकते हैं। गुज़रा हुआ समय कभी लौट कर नहीं आता। इसलिए हर पल को अंतिम पल मान कर हमें निरंतर कर्मरत रहना चाहिए।

‘दुनिया का उसूल है/ जब तक काम है/ तेरा नाम है/ वरना दूर से ही सलाम है’–जी हां! यही दस्तूर-ए-दुनिया है। मोमबत्ती को भी इंसान अंधेरे में याद करता है। इसलिए इसका बुरा नहीं मानना चाहिए। इंसान भी अपने स्वार्थ हेतू दूसरे को स्मरण करता है; उसके पास जाता है और यदि उसकी समस्या का हल नहीं निकलता, तो  वह उससे किनारा कर लेता है। इसलिए किसी से अपेक्षा मत करें, क्योंकि उम्मीद स्वयं से करने में मानव का हित है और यह जीवन जीने की सर्वोत्तम कला है। इस तथ्य से तो आप परिचित ही होंगे– इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती है जो वह दूसरों से करता है।

यदि सपने सच न हों, तो रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं। पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं; जड़ें नहीं। हर समस्या के केवल दो समाधान ही नहीं होते, इसलिए मानव को तीसरा विकल्प अपनाने की सलाह दी गई है, क्योंकि मंज़िल तक पहुंचने के लिए तीसरे मार्ग को अपनाना श्रेयस्कर है। ‘आजकल लोग समझते कम, समझाते अधिक हैं; तभी तो मामले सुलझते कम, उलझते ज़्यादा हैं।’ आजकल हर व्यक्ति स्वयं सर्वाधिक बुद्धिमान समझता है। वह संवाद में नहीं, विवाद में अधिक विश्वास रखता है। इसलिए वह आजीवन स्व-पर व राग-द्वेष के भंवर से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। सो! जिसने संसार को बदलने की कोशिश की, वह हार गया और जिसने ख़ुद को बदल लिया; वह जीत गया, क्योंकि आप स्वयं को तो बदल सकते हैं, दूसरों को नहीं। इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो मानव दूसरों से करता है।

‘जीवन में लंबे समय तक शांत रहने का उपाय है– जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकारिए।’ स्वामी विवेकानंद जी की यह सीख अत्यंत सार्थक है। दूसरों को प्रसन्न रखने के लिए मूल्यों से समझौता मत करिए, आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चले आइए।’ ख़ुद से जीतने की ज़िद्द है मुझे/ ख़ुद को ही हराना है/ मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है। जी हां! यही है सफलता पाने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग। ‘एकला चलो रे’ के द्वारा मानव हर आपदा का सामना कर सकता है। यदि मानव दृढ़-निश्चय कर लेता है कि मुझे स्वयं पर विजय प्राप्त करनी है, तो वह नये मील के पत्थर स्थापित कर, जग में नये कीर्तिमान स्थापित कर सकता है। ‘सो! कोशिश करो और नाकाम हो जाओ, तो भी नाकामी से घबराओ नहीं। कोशिश करो, क्योंकि नाकामी सबके हिस्से में नहीं आती’– सेम्युअल बेकेट की इस सोच अनुकरणीय है, जो मानव को किसी भी परिस्थिति में पराजय स्वीकारने का संदेश देती, क्योंकि अच्छी नाकामी चंद लोगों के हिस्से में आती है। इस तथ्य को स्वीकारते हुए स्वाममी रामानुजम संदेश देते हैं कि ‘अपने गुणों की मदद से अपना हुनर निखारते चलो। एक दिन हर कोई तुम्हारे गुणों व काबिलियत पर बात करेगा।’ दूसरे शब्दों में वे अपने भीतर दक्षता को बढ़ाने पर बल देते हैं। दुनिया में सफल होने का सबसे अच्छा तरीका है–उस सलाह पर काम करना, जो आप दूसरों को देते हैं। महात्मा बुद्ध भी यही कहते हैं कि इस संसार में जो आप करते हैं, वह सब लौट कर आपके पास आता है। इसलिए दूसरों से ऐसा व्यवहार करें, जिसकी अपेक्षा आप दूसरों से करते हैं। इसके साथ ही यह भी कहा जाता है कि ‘उतना विनम्र बनो, जितना ज़रूरी हो। बेवजह की विनम्रता दूसरों के अहम् को बढ़ावा देती है, क्योंकि आदमी साधन से नहीं, साधना से श्रेष्ठ बनता है। आदमी उच्चारण से नहीं, उच्च आचरण से श्रेष्ठ बनता है। सो! तप कीजिए, साधना कीजिए, क्योंकि मानव के अच्छे आचरण की हर जगह सराहना होती है। व्यक्ति का सौंदर्य महत्व नहीं रखता, उसके गुणों की समाज में सराहना होती है और वह अनुकरणीय बन जाता है। शायद इसलिए मानव को ऐसी सीख दी गई है कि सलाह हारे हुए की, तुज़ुर्बा जीते हुए का और दिमाग़ ख़ुद का– इंसान को ज़िंदगी में कभी हारने नहीं देता। मानव को अपने मस्तिष्क से काम लेना चाहिए, व्यर्थ दूसरों के पीछे नहीं भागना चाहिए। वैसे दूसरों के  अनुभव से लाभ उठाने वाले बुद्धिमान कहलाते तथा सफलता प्राप्त करते हैं।

‘पांव हौले से रख/ कश्ती में उतरने वाले/ ज़मीं अक्सर किनारों से/  खिसका करती है’ के माध्यम से मानव को जीवन में समन्वय व सामंजस्य रखने का संदेश दिया गया है। यदि मानव शांत भाव से अपना कार्य करता है, धैर्य बनाए रखता है, तो उसे असफलता का मुख कभी नहीं देखना पड़ता। यदि वह तल्लीनता से कार्य नहीं करता और तुरंत प्रतिक्रिया देता है, तो वह परेशानियों से घिर जाता है। इसलिए मानव को विषम परिस्थितियों में भी अपना आपा नहीं खोना चाहिए। इसके साथ ही आप जो भी स्वप्न देखें, उसकी पूर्ति में स्वयं को झोंक दें; अनवरत कर्मरत रहें और तब तक चैन से न बैठें, जब तक आप अपनी मंज़िल तक न पहुंच जाएं। वास्तव मेंं मानव को ऐसे सपने देखने चाहिएं, जो हमें सही दिशा-निर्देश दें, हमारा पथ-प्रशस्त करें और हमारे अंतर्मन में उन्हें साकार करने का जुनून पैदा कर दें। आप शांत होकर तभी बैठें, जब हम अपनी मंज़िल को प्राप्त करे लें। ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’ इस तथ्य से तो आप सब अवगत होंगे कि असावधानी ही दुर्घटना का कारण होती है। इसलिए हमें सदैव सचेत, सजग व सावधान रहना चाहिए, क्योंकि लोग हमारे पथ में असंख्य बाधाएं उत्पन्न करेंगे, विभिन्न प्रलोभन देंगे, अनेक मायावी स्वप्न दिखाएंगे, ताकि हम अपने लक्ष्य की प्राप्ति न कर सकें। परंतु हमें सपनों को साकार करने को दृढ़ निश्चय रखना है और दिन-रात स्वयं को परिश्रम रूपी भट्टी में झोंक देना है। सो! स्वप्न देखना मानव के लिए उपयोगी है, कारग़र है, सार्थक है और साधना का सोपान है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आलेख – साँस मत लेना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

सामयिकी के अंतर्गत –

? संजय दृष्टि – आलेख – साँस मत लेना ??

दिल्ली में प्रदूषण के स्तर पर हाहाकार मचा हुआ है। पिछले कुछ वर्षों से सामान्यत: अक्टूबर-नवम्बर माह में दिल्ली में प्रदूषण के स्तर पर बवाल उठना, न्यायालय द्वारा कड़े निर्देश देना और राजनीति व नौकरशाही द्वारा लीपापोती कर विषय को अगले साल के लिए ढकेल देना एक प्रथा बनता जा रहा है।

यह खतरनाक प्रथा, विषय के प्रति हमारी अनास्था और लापरवाही का द्योतक है। वर्ष 2018 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ) द्वारा दुनिया के 100 देशों के 4000 शहरों का वायु प्रदूषण की दृष्टि से अध्ययन किया गया था। इसके आधार पर दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित 15 शहरों की सूची जारी की गई। यह सूची हम भारतीयों को लज्जित करती है। इसमें एक से चौदह तक भारतीय शहर हैं। कानपुर विश्व का सर्वाधिक प्रदूषित शहर है। तत्पश्चात क्रमश: फरीदाबाद, वाराणसी, गया, पटना, दिल्ली, लखनऊ, आगरा, मुजफ्फरनगर, श्रीनगर, गुड़गाँव, जयपुर, पटियाला और जोधपुर का नाम है। अंतिम क्रमांक पर कुवैत का अल-सलेम शहर है।

देश के इन शहरों में (और लगभग इसी मुहाने पर बैठे अन्य शहरों में भी) साँस लेना भी साँसत में डाल रहा है। यह रपट आसन्न खतरे के प्रति सबसे बड़ी चेतावनी है। साथ ही यह भारतीय शासन व्यवस्था, राजनीति, नौकरशाही, पत्रकारिता और नागरिक की स्वार्थपरकता को भी रेखांकित करती है। स्वार्थपरकता भी ऐसी आत्मघाती कि अपनी ही साँसें उखड़ने लग जाएँ।

वस्तुत: श्वास लेना मनुष्य के दैहिक रूप से जीवित होने का मूलभूत लक्षण है। जन्म लेते ही जीव श्वास लेना आरंभ करता है। अंतिम श्वास के बाद उसे मृत या ‘साँसें पूरी हुई’ घोषित किया जाता है। श्वास का महत्व ऐसा कि आदमी ने येन केन प्रकारेण साँसे बनाये, टिकाये रखने के तमाम कृत्रिम वैज्ञानिक साधन बनाये, जुटाये। गंभीर रूप से बीमार को वेंटिलेटर पर लेना आजकल सामान्य प्रक्रिया है। विडंबना है कि वामन कृत्रिम साधन जुटानेवाला मनुष्य अनन्य विराट प्राकृतिक साधनों की शुचिता बनाये रखना भूल गया।

शुद्ध वायु में नाइट्रोजन 78% और ऑक्सीजन 21% होती है। शेष 1% में अन्य घटक गैसों का समावेश होता है। वायु के घटकों का नैसर्गिक संतुलन बिगड़ना (‘बिगाड़ना’ अधिक तार्किक होगा) ही वायु प्रदूषण है। कार्बन डाई-ऑक्साइड, कार्बन मोनो-ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, हाइड्रोकार्बन, धूल के कण प्रदूषण बढ़ाने के मुख्य कारक हैं।

वायु प्रदूषण की भयावहता का अनुमान से बात से लगाया जा सकता है कि अकेले दिल्ली में पीएम 10 का औसत 292 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर है जो राष्ट्रीय मानक से साढ़े चार गुना अधिक है। इसी तरह पीएम 2.5 का वार्षिक औसत 143 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर भी राष्ट्रीय मानक से तिगुना है।

बिरला ही होगा जो इस आपदा का कारण और निमित्त मनुष्य को न माने। अधिक और अधिक पैदावार की चाहत ने खेतों में रसायन छिड़कवाए। खाद में केमिकल्स के रूप में एक तरह का स्टेरॉइडल ज़हर घोलकर धरती की कोख में उतारा गया। समष्टि की कीमत पर अपने लाभ की संकीर्णता ने उद्योगों का अपशिष्ट सीधे नदी में बहाया। प्रोसेसिंग से निकलनेवाले धुएँ को कम ऊँचाई की चिमनियों से सीधे शहर की नाक में छोड़ दिया।
ओजोन परत को तार-तार कर मानो प्रकृति के संरक्षक आँचल को फाड़ा गया। सेंट्रल एसी में बैठकर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर चर्चा की गई। माटी की परत-दर-परत उघाड़कर खनन किया गया।

पिछले दो दशकों में देश में दुपहिया और चौपहिया वाहनों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। इस वृद्धि और वायु प्रदूषण में प्रत्यक्ष अनुपात का संबंध है। जितनी वाहनों की संख्या अधिक, उतनी प्रदूषण की मात्रा अधिक। ग्लोबलाइजेशन के अंधे मोह ने देश को विकसित देशों के ऑब्सेलेट याने अप्रचलित हो चुके उत्पादों और तकनीक की हाट बना दिया। सारा कुछ ग्लोबल न हो सकता था, न हुआ उल्टे लोकल भी निगला जाने लगा। कुल जमा परिस्थिति घातक हो चली। नागासाकी और हिरोशिमा का परिणाम पीढ़ी-दर-पीढ़ी देखने और भोपाल का यूनियन कारबाइड भोगने के बाद भी सुरक्षा की तुलना में व्यापार और विस्तार के लिए दुनिया को परमाणु बम और सक्रिय रेडियोेधर्मिता की पूतना-सी गोद में बिठा दिया गया।

कहा जाता है कि प्रकृति में जो नि:शुल्क है, वही अमूल्य है। वायु की इसी सहज उपलब्धता ने मनुष्य को बौरा दिया। प्रकृति की व्यवस्था में कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर उसके बदले ऑक्सीजन देने का संजीवनी साधन हैं वृक्ष। यह एक तरह से मृत्यु के अभिशाप को हर कर जीवन का वरदान देने का मृत्युंजयी रूप हैं वृक्ष। ऑक्सीजन को यूँ ही प्राणवायु नहीं कहा गया है। पंचवट का महत्व भी यूँ ही प्रतिपादित नहीं किया गया। बरगद से वट-सावित्री की पूजा को जोड़ना, पीपल को देववृक्ष मानना विचारपूर्वक लिये गये निर्णय थे। वृक्ष को मन्नत के धागे बाँधने का मखौल उड़ानेवाले उन धागों के बल पर वृक्ष के अक्षय रहनेे की मन्नत पूरी होती देख नहीं पाये।

फलत: जंगल को काँक्रीट के जंगल में बदलने की प्रक्रिया में वृक्षों पर ऑटोमेटेड हथियारों से हमला कर दिया गया। औद्योगीकरण हो, सौंदर्यीकरण या सड़क का चौड़ीकरण, वृक्षों की बलि को सर्वमान्य विधान बना दिया गया। वृक्ष इको-सिस्टिम का एक स्तंभ होता है। अनगिनत कीट उसकी शाखाओं पर, कुछ कीड़े-मकोड़े-सरीसृप-पाखी कोटर में और कुछ जीव जड़ों में निवास करते हैं। सह-अस्तित्व का पर्यायवाची हैं छाया, आश्रय, फल देनेवाले वृक्ष। इन वृक्षों के विनाश ने प्रकृतिचक्र को तो बाधित किया ही, दिन में बीस हजार श्वास लेनेवाला मनुष्य भी श्वास के लिए संघर्ष करने लगा।

बचपन में हम सबने शेखचिल्ली की कहानी सुनी थी। वह उसी डाल को काट रहा था, जिस पर बैठा था। अब तो आलम यह है कि पूरी आबादी के हाथ में कुल्हाड़ी है। मरना कोई नहीं चाहता पर जीवन के स्रोतों पर हर कोई कुल्हाड़ी चला रहा है। डालें कट रही हैं, डालें कट चुकी। मनुष्य औंधे मुँह गिर रहे हैं, मनुष्य गिर चुका।

इस कुल्हाड़ी के फलस्वरूप विशेषकर शहरों में सीपीओडी या श्वसन विकार बड़ी समस्या बन गया है। सिरदर्द एक बड़ा कारण प्रदूषण भी है। इसके चलते शहर की आबादी का एक हिस्सा आँखों में जलन की शिकायत करने लगा है। स्वस्थ व्यक्ति भी अनेक बार दम घुटता-सा अनुभव करता है।

यह कहना झूठ होगा कि देर नहीं हुई है। देर हो चुकी है। मशीनों से विनाश का चक्र तो गति से घुमाया जा सकता है पर सृजन के समय में परिवर्तन नहीं लाया जा सकता। बीस मिनट में पेड़ को धराशायी करनेवाला आधुनिक तंत्रज्ञान, एक स्वस्थ विशाल पेड़ के धरा पर खड़े होने की बीस वर्ष की कालावधि में कोई परिवर्तन नहीं कर पाता। यह अंतर एक पीढ़ी के बराबर हो चुका है। इसे पाटने के त्वरित उपायों से हानि की मात्रा बढ़ने से रोकी जा सकती है।

हर नागरिक को तुरंत सार्थक वृक्षारोपण आज और अभी करना होगा। यही नहीं उसका संवर्धन भी उतना ही महत्वपूर्ण है। सार्थक इसलिए कि भारतीय धरती के अनुकूल, दीर्घजीवी, विशाल वृक्षों के पौधे लगाने होंगे। इससे ऑक्सीजन की मात्रा तो बढ़ेगी ही, पर्यावरण चक्र को संतुलित रखने में भी सहायता मिलेगी।

सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को तत्काल प्रभाव से दुरुस्त करना होगा। सरकारी महकमे की बसों के एकाधिकार वाले क्षेत्रों में निजी कंपनियों को प्रवेश देना होगा। सरकारी बसों में सुधार की आशा अधिकांश शहरों में ‘न नौ मन तेल होगा, ना राधा नाचेगी’ सिद्ध हो चुकी है।

उद्योगों को अनिवार्य रूप से आवासीय क्षेत्रों से बाहर ले जाना होगा। वहाँ भी चिमनियों को 250 फीट से ऊपर रखना होगा। इसके लिए निश्चित नीति बना कर ही कुछ किया जा सकता है। सबसे पहले तो लाभ की राजनीति का ऐसे मसलों पर प्रवेश निषिद्ध रखना होगा। उत्खनन भी पर्यावरण-स्नेही नीति की प्रतीक्षा में है।

हर बार, हर विषय पर सरकार को कोसने से कुछ नहीं होगा। लोकतंत्र में नागरिक शासन की इकाई है। नागरिकता का अर्थ केवल अधिकारों का उपभोग नहीं हो सकता। अधिकार के सिक्के का दूसरा पहलू है कर्तव्य। साधनों के प्रदूषण में जनसंख्या विस्फोट की बड़ी भूमिका है। जनसंख्या नियंत्रण तोे नागरिक को ही करना होगा।

आजकल घर-घर में आर.ओ. से शुद्ध जल पीया जा रहा है। घर से बाहर खेलने जाते बच्चे से माँ कहती है, ‘बाहर का पानी बहुत गंदा है, मत पीना।’ समय आ सकता है कि घर-घर में ऑक्सीजन किट लगा हो और और अपने बच्चे को शुद्ध ऑक्सीजन की खुराक देकर खेलने बाहर भेजती माँ आगाह करे, ‘साँस मत लेना।’

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 59 ☆ मोहल्ले, पड़ोस से दूरियाँ बनाते लोग ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “मोहल्ले, पड़ोस से दूरियाँ बनाते लोग।)

☆ किसलय की कलम से # 59 ☆

☆ मोहल्ले, पड़ोस से दूरियाँ बनाते लोग ☆

एक समय था जब गाँव या मोहल्ले के एक छोर की गतिविधियाँ अथवा सुख-दुख की बातें दो चार-पलों में ही सबको पता चल जाती थीं। लोग बिना किसी आग्रह के मानवीय दायित्वों का निर्वहन किया करते थे। तीज-त्यौहारों, भले-बुरे समय, पारिवारिक, सामाजिक और धार्मिक आयोजनों में एक परिवार की तरह एक साथ खड़े हो जाते थे।

आज हम पड़ोसियों के नाम व जाति-पाँति तक जानने का प्रयास नहीं करते। मुस्कुराहट के साथ अभिवादन करना तथा हाल-चाल पूछने के बजाय हम नज़रें फेरकर या सिर झुकाये निकल जाते हैं, फिर मोहल्ले वालों की बात तो बहुत दूर की है। उपयोगी व आवश्यक कार्यवश ही लोगों से बातें होती हैं। हम पैसे कमाते हैं और उन्हें पति-पत्नी व बच्चों पर खर्च करते हैं, अर्थात पैसे कमाना और अपने एकल परिवार पर खर्च करना आज की नियति बन गई है। रास्ते में किसका एक्सीडेंट हो गया है। पड़ोसी खुशियाँ मना रहा है अथवा उसके घर पर दुख का माहौल है, आज लोग उनके पास जाने की छोड़िए संबंधित जानकारी लेने तक की आवश्यकता नहीं समझते। आज मात्र यह मानसिकता सबके जेहन में बैठ गई है कि जब पैसे से सब कुछ संभव है तो किसी के सहयोग की उम्मीद से संबंध क्यों बनाये जाएँ। पैसों से हर तरह के कार्यक्रमों की समग्र व्यवस्थाएँ हो जाती हैं। बस आप कार्यक्रम स्थल पर पहुँच जाईये और कार्यक्रम संपन्न कर वापस घर आ जाईये। जिसने हमें बुलाया था, जिनसे हमें काम लेना है, बस उन्हें प्राथमिकता देना है। इन सब में परिवार, पड़ोस और मोहल्ले सबसे पिछले क्रम में होते हैं। जितना हो सके, इन सब से दूरी बनाये रखने का सिद्धांत अपनाया जाता है।

आज हम सभी देखते हैं कि जब कार्ड हमारे घर पर पहुँचते हैं, तब जाकर पता चलता है कि उनके घर पर कोई कार्यक्रम है। यहाँ तक कि जब भीड़ एकत्र होना शुरू होती है तब पता चलता है कि आस-पड़ोस के अमुक घर में किसी सदस्य का देहावसान हो गया है। आज लोग शादी में दूल्हे-दुल्हन को, बर्थडे में बर्थडे-बेबी को महत्त्व न देकर डिनर को ही प्राथमिकता देते हैं।  मृत्यु वाले घर से मुक्तिधाम तक शवयात्रा में शामिल लोग व्यक्तिगत, राजनीतिक वार्तालाप, यहाँ तक कि हँसी-मजाक में भी मशगूल देखे जा सकते हैं, उन्हें ऐसे दुखभरे माहौल से भी कोई फर्क नहीं पड़ता। आजकल अधिकांशतः लोग त्योहारों में घरों से बाहर निकलना पसंद नहीं करते। होली, दीपावली जैसे खुशी-भाईचारा बढ़ाने वाले पर्वों तक से लोग दूरियाँ बनाने लगे हैं।

आज बुजुर्ग पीढ़ी यह सब देखकर हैरान और परेशान हो जाती है। उन्हें अपने पुराने दिन सहज ही याद आ जाते हैं। उन दिनों लोग कितनी आत्मीयता, त्याग और समर्पण के भाव रखते थे। बड़ों के प्रति श्रद्धा और छोटों के प्रति स्नेह देखते ही बनता था। बच्चों को तो अपनों और परायों के बीच बड़े होने पर ही अंतर समझ में आता था। पड़ोसी और मोहल्ले वाले हर सुख-दुख में सहभागी बनते थे। यह बात एकदम प्रत्यक्ष दिखाई देती थी पड़ोसी कि पहले पहुँचते थे और रिश्तेदार बाद में। कहने का तात्पर्य यह है कि आपका पड़ोसी आपके हर सुख-दुख में सबसे पहले आपके पास मदद हेतु खड़ा होता था।

वाकई ये बहुत गंभीर मसले हैं। ये सब अचानक ही नहीं हुआ। इस वातावरण तक पहुँचने का भी एक लंबा इतिहास है। बदलते समय और बदलती जीवन शैली के साथ शनैः शनैः  हम अपने बच्चों और पति-पत्नी के हितार्थ ही सब करने के अभ्यस्त होते जा रहे हैं। संयुक्त परिवार और खून के रिश्तों की अहमियत धीरे-धीरे कम होती जा रही है। लोग संयुक्त परिवार के स्थान पर एकल परिवार में अपने हिसाब से रहना चाहते हैं। ज्यादा कमाने वाला सदस्य अपनी पूरी कमाई संयुक्त परिवार में न लगाकर अपने एकल परिवार की प्रगति व सुख सुविधाओं में लगाता है। अपनी संतान का सर्वश्रेष्ठ भविष्य बनाना चाहता है। संयुक्त परिवार के सुख-दुख में भी हिसाब लगाकर बराबर हिस्सा ही खर्च करता है। इन सब के पीछे हमारे भोग-विलास और उत्कृष्ट जीवनशैली की बलवती अभिलाषा ही होती है। हम इसे ही अपना उद्देश्य मान बैठे हैं, जबकि मानव जीवन और दुनिया में इससे भी बड़ी चीज है दूसरों के लिए जीना। दूसरों की खुशी में अपनी खुशी ढूँढ़ना।

यह भी अहम बात है कि हमने जब किसी की सहायता नहीं की, हमने जब अपने खाने में से किसी भूखे को खाना नहीं खिलाया। हमने जब किसी गरीब की मदद ही नहीं की। और तो और जब इन कार्यो से प्राप्त खुशी को अनुभूत ही नहीं किया तब हम कैसे जानेंगे कि परोपकार से हमें कैसी खुशी और कैसी संतुष्टि प्राप्त होती है। यह भी सच है कि आज जब हम अपने परिजनों के लिए कुछ नहीं करते तब परोपकार से प्राप्त खुशी कैसे जानेंगे। एक बार यह बात बिना मन में लाए कि अगला आदमी सुपात्र है अथवा नहीं, आप  नेक इंसान की तरह अपना कर्त्तव्य निभाते हुए किसी भूखे को खाना खिलाएँ। किसी गरीब की लड़की के विवाह में सहभागी बनें। किसी पैदल चलने वाले को अपने वाहन पर बैठाकर उसके गंतव्य तक छोड़ें। किसी विपत्ति में फँसे व्यक्ति को उसकी परेशानी से उबारिये। बिना आग्रह के किसी जरूरतमंद की सहायता करके देखिए। किसी बीमार को अस्पताल पहुँचाईये। सच में आपको जो खुशी, संतोष और शांति मिलेगी वह आपको पैसे खर्च करने से भी प्राप्त नहीं होगी।

आज विश्व में भौतिकवाद की जड़ें इतनी मजबूत होती जा रही हैं कि हमें उनके पीछे बेतहाशा भागने की लत लग गई है। हम अपने शरीर को थोड़ा भी कष्ट नहीं देना चाहते और यह भूल जाते हैं कि हमारा यही ऐशो-आराम बीमारियों का सबसे बड़ा कारक है। ये बीमारियाँ जब इंसान को घेर लेती हैं तब आपका पैसा पानी की तरह बहता रहता है और बहकर बेकार ही चला जाता है। आप पुनः नीरोग जिंदगी नहीं जी पाते। आप स्वयं ही देखें कि समाज में दो-चार प्रतिशत लोग ही ऐसे होंगे जो पैसों के बल पर नीरोग और चिंता मुक्त होंगे।

हमारी वृद्धावस्था का यही वह समय होता है जब हमारे ही बच्चे, हमारा ही परिवार हमारी उपेक्षा करता है। हमने जिनके लिए अपना सर्वस्व अर्थात ईमान, धर्म और श्रम खपाया वही हमसे दूरी बनाने लगते हैं। यहाँ तक कि हमें जब इनकी सबसे अधिक आवश्यकता होती है वे हमें वृद्धाश्रम में छोड़ आते हैं।

अब आप ही चिंतन-मनन करें कि यदि आपने अपने विगत जीवन में अपनों से नेह किया होता। पड़ोसियों से मित्रता की होती। कुछ परोपकार किया होता तो इन्हीं में से अधिकांश लोग आपके दुख-दर्द में निश्चित रूप से सहभागी बनते। आपकी कुशल-क्षेम पूछने आते। आपकी परेशानियों में आपका संबल बढ़ाते रहते, जिससे आपका ये शेष जीवन संतुष्टि और शांति के साथ गुजरता।

समय बदलता है। जरूरतें बदलती हैं। बदलाव प्रकृति का नियम है।आपकी नेकी, आपकी भलाई, आपकी निश्छलता की सुखद अनुभूति लोग नहीं भूलते। लोग यथायोग्य आपकी कृतज्ञता ज्ञापित अवश्य करते। आपके पास आकर आपका हौसला और संबल जरूर बढ़ाते।

हम मानते हैं कि आज का युग भागमभाग, अर्थ और स्वार्थ के वशीभूत है। ऐसे में किसी से सकारात्मक रवैया की अपेक्षा करना व्यर्थ ही है। इसलिए क्यों न हम ही आगे बढ़कर भाईचारे और सहृदयता की पहल करें। फिर आप ही देखेंगे कि उनमें  भी कुछ हद तक बदलाव अवश्य आएगा और यदि इस पहल की निरन्तरता बनी रही तो निश्चित रूप से मोहल्ले, पड़ोस से दूरियाँ बनाते लोग दिखाई नही देंगे साथ ही हम पड़ोसियों और मोहल्ले वालों से जुड़कर प्रेम और सद्भावना का वातावरण निर्मित करने में निश्चित रूप से सफल होंगे।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 126 ☆ समझ लेते हैं गुफ्तगू,रिंग टोन से ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीयआलेख  ‘समझ लेते हैं गुफ्तगू, रिंग टोन से। इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 126☆

?  समझ लेते हैं गुफ्तगू, रिंग टोन से ?

व्हाट इज योर मोबाईल नम्बर?  जमाना मोबाईल का है.   खत का मजमूं जान लेते हैं लिफाफा देखकर वाले शेर का नया अपडेटेड वर्शन कुछ इस तरह हो सकता है कि ” समझ लेते हैं गुफ्तगू,  रिंग टोन से “. 

लैंड लाइन टेलीफोन, मोबाईल के ग्रांड पा टाइप के रिलेशन में “था ” हो गया है.  

वो टेलीफोन के जमाने की बात थी  जब हमारे जैसे अधिकारियो को भी, लोगो को छोटी मोटी नौकरी पर रख लेने के अधिकार थे. आज तो नौकरियां विज्ञापन, लिखित परीक्षा, साक्षात्कार, परिणाम, फिर फ़ाइनली कोर्ट केस के रास्ते मिला करती हैं, पर उन दिनो नौकरी के इंटरव्यू से पहले अकसर सिफारिशी टेलीफोन  कामन था. सेलेक्शन का एक क्राइटेरिया यह भी होता था कि सिफारिश किसकी है. मंत्री जी की सिफारिश और बड़े साहब की सिफारिश के साथ ही रिश्तेदारो की सिफारिश के बीच संतुलन बनाना पड़ता था.  ससुराल पक्ष की एक सिफारिश बड़ी दमदार मानी जाती थी । फोन की एक घंटी केंडीडेट का भाग्य बदलने की ताकत रखती थी.  

नेता जी से संबंध टेलीफोन की सिफारिशी घंटी बजवाने के काम आते थे. सिफारिशी खत से लिखित साक्ष्य के खतरे को देखते हुये सिफारिश करने वाला अक्सर फोन का ही सहारा लेता था. तब काल रिकार्डिंग जैसे खतरे कम थे.हमारे जैसे ईमानदार बनने वाले लोग रिंग टोन से अंदाज लगा लेते कि गुफ्तगू का प्रयोजन क्या होगा और “साहब नहा रहे हैं ” टाइप के बहाने बनाने के लिये पत्नी को फोन टिका दिया करते थे. तब नौकरियां आज की तरह कौशल पर नही डिग्रियों से मिल जाया करती थीं.   घर दफ्तर में फोन होना तब स्टेटस सिंबल था. आज भी विजिटिंग कार्ड का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा मोबाईल और टेलीफोन नम्बर बने हुये हैं.  दफ्तर की टेबिल का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण  टेलीफोन होता है. और टेलीफोन का एक सबसे महत्वपूर्ण कार्य होता है सिफारिश.न सही नौकरी पर किसी न किसी काम के लिये देख लेने, या फिर सीधे धमकी के रूप में देख लेने के काम टेलीफोन से बखूबी लिये जाते हैं.  टेलीफोन की घंटी से, टेबल के सामने साथ बैठा व्यक्ति गौण हो जाता है,और दूर टेलीफोन के दूसरे छोर का आदमी महत्वपूर्ण हो जाता है.

जिस तरह पानी ऊंचाई से नीचे की ओर प्रवाहित होता है उसी तरह टेलीफोन या मोबाईल में हुई वार्तालाप का सरल रैखिक सिद्धांत है कि इसमें हमेशा ज्यादा महत्वपूर्ण आदमी, कम महत्वपूर्ण आदमी को आदेशित करता है. उदाहरण के तौर पर मेरी पत्नी मुझे घर से आफिस के टेलीफोन पर इंस्ट्रक्शन्स देती है. मंत्री जी, बड़े साहब को और बड़े साहब अपने मातहतो को महत्वपूर्ण या गैर महत्वपूर्ण कार्यो हेतु भी महत्वपूर्ण तरीके से मोबाईल पर ही आदेशित करते हैं. टेलीफोन के संदर्भ में एक व्यवस्था यह भी है कि  बड़े लोग अपना टेलीफोन स्वयं नहीं उठाते. इसके लिये उनके पास पी ए टाइप की कोई सुंदरी होती है जो बाजू के कमरे में बैठ कर उनके लिये यह महत्वपूर्ण कार्य करती है और महत्वपूर्ण काल ही उन तक फारवर्ड करती है. नेता जी के मोबाईल उनके विश्वस्त के हाथों में होते हैं, जो बड़े विशेष अंदाज में जरूरी काल्स पर ही नेता जी को मोबाईल देते हैं, वरना संदेशन खेती करनी पड़ती है. और राजगीर के लड्डुओ के संदेश जितने टोकनों से गुजरते हैं, हर टोकने में इतना तो झर ही जाते हैं कि एक नया लड्डू बन जाता है, इस तरह सभी को बिना गिनती कम हुये लड्डुओ का भोग चढ़ जाता है, लोगों के काम हो जाते हैं.

टेलीफोन एटीकेट्स के अनुसार मातहत को अफसर की बात सुनाई दे या न दे, समझ आये या न आये, किन्तु सर ! सर ! कहते हुये आदेश स्वीकार्यता का संदेश अपने बड़े साहब को देना होता है. जो बहुत ओबीडियेंट टाइप के कुछ पिलपिले से अफसर होते हैं वे बड़े साहब का टेलीफोन आने पर अपनी सीट पर खड़े होकर बात करते हैं. ऐसे लोगो को नये इलेक्ट्रानिक टेलीफोन में कालर आई डी लग जाने से लाभ हुआ है और अब उन्हें एक्सटेंपोर अफसरी फोन काल से मुक्ति मिल गई है, वे साहब की काल पहचान कर पहले ही अपनी मानसिक तैयारी कर सकते हैं.  यदि संभावित  गुफ्तगू के मकसद का अंदाज इनकमिंग काल के नम्बर से लगा लिया जाता  है,  तो यह पहचान बड़े काम की होती है. सावधानी में सुरक्षा निहित होती ही है. बड़े साहब का मोबाईल आने पर ऐसे लोग तुरंत सीट से उठकर चलायमान हो जाते हैं. यह बाडी लेंगुएज,उनकी मानसिक स्थिति की परिचायक होती है. एसएमएस से तो बचा जा सकता है कि मैसेज पढ़ा ही नही, पर मुये व्हाट्सअप ने कबाड़ा कर रखा है, इधर दो टिक नीले क्या हुये सामने वाला कम्पलाइंस की अपेक्षा करने लगता है. इससे बचाव के लिये अब व्हाट्सअप सैटिंग्स में परिवर्तन किया जाना  पसंद किया जाने लगा है.

हमारी पीढ़ी ने चाबी भरकर इंस्ट्रूमेंट चार्ज करके बात करने वाले  टेलीफोन के समय से आज के टच स्क्रीन मोबाईल तक का सफर अब तक तय कर लिया है. इस बीच डायलिंग करने वाले मेकेनिकल फोन आये जिनकी एक ही रिटी पिटी ट्रिन ट्रिन वाली घंटी होती थी. इन दिनो आधे कटे एप्पल वाले मंहगे  मोबाईल हों या एनड्राइड डिवाईस कालर ट्यून से लेकर मैसेज या व्हाट्सअप काल, यहां तक की व्यक्ति विशेष के लिये भी अलग,भांति भांति के सुरों की घंटी तय करने की सुविधा हमारे अपने हाथ होती है. समय के साथ की पैड वाले इलेक्ट्रानिक फोन  और अब हर हाथ में मोबाईल का नारा सच हो रहा है, लगभग हर व्यक्ति के पास दो मोबाइल या कमोबेश डबल सिम मोबाईल में दो सिम तो हैं ही. आगे आगे देखिये होता है क्या? क्योकि टेक्नालाजी गतिशील है. क्या पता कल को बच्चे को वैक्सिनेशन की तरह ही सिम प्रतिरोपण की प्रक्रिया से गुजरना पड़े. फिर न मोबाईल गुमने का झंझट होगा, न बंद होने का. आंखो के इशारे से गदेली में अधिरोपित इनबिल्ट मोबाईल से ही हमारा स्वास्थ्य, हमारा बैंक, हमारी लोकेशन, सब कुछ नियंत्रित किया जा सकेगा. पता नही इस तरह की प्रगतिशीलता से हम मोबाईल को नियंत्रित करेंगे या मोबाईल हमें नियंत्रित करेगा.

एक समय था जब टेलीफोन आपरेटर की शहर में बड़ी पहचान और इज्जत होती थी, क्योकि वह ट्रंक काल पर मिनटो में किसी से भी बात करवा सकता था. शहर के सारे सटोरिये रात ठीक आठ बजे क्लोज और ओपन के नम्बर जानने, मटका किंग से हुये इशारो के लिये इन्हीं आपरेटरो पर निर्भर होते थे.समय बदल गया है  आज तो पत्नी भी पसंद नही करती कि पति के लिये कोई काल उसके मोबाईल पर आ जाये. अब जिससे बात करनी हो सीधे उसके मोबाईल पर काल करने के एटीकेट्स हैं.पर मुझे स्मरण है उन टेलीफोन के पुराने दिनो में हमारे घर पर पड़ोसियो के फोन साधिकार आ जाते थे.बुलाकर उन्हें बात करवाना पड़ोसी धर्म होता था. तब निजता की आज जैसी स्थितियां नहीं थी, आज तो बच्चो और पत्नी का मोबाईल खंगालना भी आउट आफ एटीकेट्स माना जाता है. उन दिनो लाइटनिंग काल के चार्ज आठ गुने लगते थे अतः लाइटनिंग काल आते ही लोग किसी अज्ञात आशंका से सशंकित हो जाते थे. विद्युत विभाग में बिजली की हाई टेंशन लाइन पर पावर लाइन कम्युनिकेशन कैरियर की अतिरिक्त सुविधा होती है, जिस पर हाट लाइन की तरह बातें की जा सकती है,  ठीक इसी तरह रेलवे की भी फोन की अपनी समानांतर व्यवस्था है. पुराने दिनो में कभी जभी अच्छे बुरे महत्वपूर्ण समाचारो के लिये  लोग अनधिकृत रूप से  इन सरकारी महकमो की व्यवस्था का लाभ मित्र मण्डली के जरिये उठा लिया करते थे.

मोबाईल सिखाता है कि बातो के भी पैसे लगते हैं और बातो से भी पैसे बनाये जा सकते हैं. यह बात मेरी पत्नी सहित महिलाओ की समझ आ जाये तो दोपहर में क्या बना है से लेकर पति और बच्चो की लम्बी लम्बी बातें करने वाली हमारे देश की महिलायें बैठे बिठाये ही अमीर हो सकती हैं.अब मोबाईल में रिश्ते सिमट आये  हैं. मंहगे मोबाईल्स, उसके फीचर्स, मोबाईल  कैमरे के पिक्सेल वगैरह अब महिलाओ के स्टेटस वार्तालाप के हिस्से हैं.अंबानीज ने बातो से रुपये बनाने का यह गुर सीख लिया है, और अब सब कुछ जियो हो रहा है. मोबाईल को इंटरनेट की शक्ति क्या मिली है, दुनियां सब की जेब में है.अब  कोई ज्ञान को दिमाग में नही बिठाना चाहता इसलिये ज्ञान गूगल जनित जानकारी मात्र बनकर जेब में रखा रह गया है. मोबाईल काल रिकॉर्ड हो कर वायरल हो जाये तो लेने के देने पड़ सकते हैं. काल टेपिंग से सरकारें हिल जाती हैं. मोबाईल पर बातें ही नही,फोटो, जूम मीट,  मेल,ट्वीट्स, फेसबुक, इंस्टा, खेल, न्यूज, न्यूड सब कुछ तो हो रहा है, ऐसे में मोबाइल विकी लीक्स, स्पाइंग का साधन बन रहा है तो आश्चर्य नही होना चाहिये. मोबाईल लोकेशन से नामी गिरामी अपराधी भी धर लिये जाते हैं.  बाजार में सुलभ कीमत के अनुरूप गुणवत्ता का मोबाईल चुनना और मोबाईल प्लान के ढ़ेरो आफर्स में से अपनी जरूरत के अनुरूप सही विकल्प चुनना आसान नही है. कही कुछ है तो कहीं कुछ और, आज मोबाइल का माडल अभिजात्य वर्ग में स्टेटस सिंबल है.   इतनी अधिक विविधताओं के बीच चयन करके हर हाथ मोबाईल के शस्त्र से सुसज्जित है यह सबके लिये गर्व का विषय है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ राष्ट्रीय प्रेस दिवस विशेष – मीडिया: एक पांव जमीन पर, दूजा हवा में ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

देश में प्रेस और मीडिया की है बहुत बड़ी जिम्मेदारी

☆ आलेख ☆ राष्ट्रीय प्रेस दिवस विशेष – मीडिया: एक पांव जमीन पर, दूजा हवा में ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(16 नवंबर राष्ट्रीय प्रेस दिवस पर विशेष आलेख)

मैं शहीद भगत सिंह के पैतृक गांव खटकड कलां के गवर्नमेंट आदर्श सीनियर सेकेंडरी स्कूल में प्रिंसिपल होने के साथ साथ पार्टटाइम रिपोर्टर था दैनिक ट्रिब्यून का। विधिवत जनसंचार की कोई क्लास नहीं लगाई लेकिन समाचार संपादक व शायर सत्यानंद शाकिर के शागिर्द की तरह पूरे ग्यारह साल हुक्का जरूर भरा और आज भी सीखने की कोशिश जारी है। जुनून इतना बढा कि प्रिंसिपल का पद छोड कर चंडीगढ उपसंपादक बन कर आ गया और फिर डेस्क से बोर होकर स्टाफ रिपोर्टर बन हिसार पहुंचा।  खैर। स्कूल के साथ ही सटे घर के मालिक  व विदेशों की धूल फांक कर आये एक साधारण किसान जीत सिंह ने जब पत्रकारिता की व्याख्या की तो थोडी हैरानी हुई। उसने कहा कि न्यूज का मतलब? नॉर्थ, ईस्ट वेस्ट, साउथ। यानी चारों दिशाओं में सही नजर रखकर खबर देना। खबरदार करना। अरे… इतनी उम्मीद है पत्रकार से? सब सही, सब सच दिखाना या देना? इसीलिए लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ माना और कहा जाता है। शब्द में जो ब्रह्म की शक्ति है वह शायद मीडिया के लिए ज्यादा है। रोज हम पत्रकार शब्दबेधी बाण चलाते हैं और पिछले चार दशक से मैं भी कलम के उन वीरों में शामिल हूं। क्या से क्या हो गया मीडिया? कहां से कहां तक का सफर तय किया मीडिया ने? जो चहूंओर के समाचार देता था वह चार अतिरिक्त पन्नों यानी लोकल न्यूज में ही सिमट कर रह गया? कांगडा की खबर हिसार में नहीं मिलती तो हिसार की कांगडा में नहीं मिलती। यानी सिमट गयी पत्रकारिता। फिर काहे की सामाजिक शर्म? प्रभाष जोशी ने यह बात लिखी थी अपनी विदाई पर कि हम पत्रकार और कुछ शायद न बिगाड सकें लेकिन नेताओं में सामाजिक शर्म तो ला ही देते हैं।  

मैंने पत्रकारिता पर सोशल मीडिया में दो वाक्य पढे-पहले छप कर अखबार बिकते थे। अब बिक कर अखबार छपते हैं। ओह। इतना बिकाऊ हो गया क्या मीडिया? वह आजाद कलम पूंजीपतियों के इशारों पर नाचने लगी? आज हर आदमी यह कहता है कि मीडिया बिकाऊ है। यह नौबत कैसे और क्यों आई? हम यहां तक कैसे पहुंचे? क्या हमारे गिरने की कोई सीमा है? हमारी जिम्मेवारी कौन तय करेगा? हम धूल फांक कर, गली,  शहर, कूचे फलांग कर सच्ची रिपोर्ट लिखते हैं। फिर वह रद्दी की टोकरी में कैसे फेंक दी जाती है? पेज थ्री फिल्म एक सच्चाई के करीब फिल्म थी। माफिया के बारे में लिखने वालों की जान ले ली जाती है। सच कहने पर आग मच जाती है। इसीलिए तो सुरजीत पातर ने कहा – ऐना सच न बोल के कल्ला यानी अकेला रह जावें। क्या पत्रकार अकेला चलने या रह जाने से डरता है? शहीद भगत सिंह के पुरखों के गांव पर जब धर्मयुग में मेरा लम्बा आलेख आया तब मेरी नौकरी पर बन आई थी लेकिन मेरी मदद के लिए जंगबहादुर गोयल आगे आए जो नवांशहर में उपमंडल अधिकारी थे। आज भी खटकड कलां का शहीदी स्मारक और घर जैसे संभाला है उसमें मेरी छोटी सी कलम का योगदान है। इस आलेख के बाद ही स्मारक और घर की ओर सरकार का ध्यान गया।

इसी तरह एक टीवी स्टोरी में सच बोलने वाले पत्रकार की छुट्टी और झूठ लिखने वाले को भव्य सम्मेलन में पुरस्कार। इसी बात की ओर संकेत कि हम झूठ का मायावी संसार रच रहे हैं और सच से कोसों दूर जा रहे हैं। ये चुनाव सर्वेक्षण भी किसी के इशारे पर जनता को गुमराह करने वाले साबित हो रहे हैं। आखिर हम अपनी असली सूरत कब पहचानेंगे?

आइना मुझसे मेरी पहली सी सूरत मांगे।

मेरे अपने मेरे होने की निशानी मांगें।

बहुत कुछ कहने को है। कलम की ताकत बेकार न जाने दें। पहचानिए अपनी शब्दबेधी शक्ति। मारक शक्ति। बदल देने की शक्ति। इधर हरियाणा के चुनाव में जब एक टिक टॉक गर्ल के रूप में चर्चित प्रत्याशी के पक्ष में वरिष्ठ नेता निकले मैदान में तब मैंने सवाल किया कि आखिर ऐसी प्रत्याशी के लिए वोट मांगने निकलोगे तो फिर आपके बारे में जनता क्या सोचेगी? कुछ तो लिहाज कीजिए। और सचमुच मेरे संपादकीय के बाद वे वट्स अप पर सॉरी लिख गये तो मुझे संतोष हुआ कि अभी सच कहने की आग मुझमें बची है और बस यही आग जरूरी है। दुष्यंत कुमार के शब्दों में :

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही

हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

हमें नकारात्मक शक्तियों के खिलाफ कलम उठानी है और नये नायक देने हैं जो समाज के लिए काम कर रहे हैं और करते रहेंगे।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ मन्नू भंडारी – अंतिम प्रणाम !! श्रद्धांजलि !! ☆ श्री सुधीर सिंह सुधाकर

श्री सुधीर सिंह सुधाकर

ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री सुधीर सिंह सुधाकर जी का हार्दिक स्वागत है। आपका परिचय आपके ही शब्दों में –

“45 वर्ष से लेखन के पश्चात लगता है अभी कुछ नहीं जाना, कुछ नहीं सीख पाया; लेकिन विद्यार्थी बनकर सीखने का जो आनंद है वह आनंद शब्द से परे है।

कोलकाता में जन्म कोलकाता से लेकर अलीगढ़ तक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात दिल्ली में नौकरी जीवन बीमा में 30 वर्ष गुजारने के पश्चात सेवानिवृत्ति के उपरांत 16 घंटे साहित्य सेवा यही बस काम शेष है और इसी में विद्यार्थी की तरह लगा रहता हूं।”  – सुधीर सिंह सुधाकर, दिल्ली

? मन्नू भंडारी –  अंतिम प्रणाम ?

?  श्र द्धां ज लि ?

मन्नू भंडारी जी का जन्म मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले में 3 अप्रैल 1931 को हुआ था। बचपन में उनको प्यार से सभी मन्नू कहते थे। उनका नाम महेंद्र कुमारी थालेखन के लिए उन्होंने अपने तखल्लुस नाम की जगह मन्नू नाम का चुनाव किया और शादी के बाद भी मन्नू भंडारी के नाम से जानी जाने लगी।

उनके पिता हिंदी के जाने-माने लेखक सुख संपत राय के द्वारा मन्नू का व्यक्तिगत व्यक्तित्व निर्माण होता रहाशिक्षा प्रथम रसोई द्वितीय को वे प्रमुखता देते थेएक आदर्शवादी पिता एक क्रोधी स्वभाव के पिता से उन्हें बहुत कुछ सीखने को मिलाउनका अपना प्रथम कहानी संग्रह मैं हार गई अपने पिताजी को समर्पित करते उन्होंने लिखा था ,”जिन्होंने मेरी किसी भी इच्छा पर कभी अंकुश नहीं लगाया” पिताजी को मनु की अपने पिता की नितांत श्रद्धा इसे स्पष्ट होती है मनु भंडारी चार भाई बहन थेमनु भंडारी जी का कहना था  कोई व्यक्ति जन्म से बड़ा नहीं होताबड़ा बनने के लिए सबसे बड़ा योगदान संस्कारों का होता है उसके बाद परिवेश का 

अजमेर में रहकर उन्होंने हाई स्कूल तथा इंटरमीडिएट की परीक्षा पास की कॉलेज की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल ने अंग्रेज सरकार के विरोध में जब उन्हें उकसाया तो वह स्वतंत्र स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़ी।देश की स्वतंत्रता मिलने के बाद उन्होंने बीए की डिग्री ली कोलकाता के विद्यालय बैलीगंज शिक्षा सदन में उन्होंने 9 साल बच्चों को पढ़ायाकॉलेज में अध्यापन का भी कार्य किया। उनके पांच कहानी संग्रह दो उपन्यास दो नाटक तथा तीन बार रचनाएं प्रमुख है

मन्नू भंडारी कहती थीं लेखन ने मुझे अपने निहायत निजी समस्याओं के प्रति ऑब्जेक्टिव हो ना हो वह वरना सिखाया है उनके पति राजेंद्र यादव उनके संबंध में लिखते हैं व्यस्त के भाव छाछ में नारी के आंचल में दूध और आंखों में पानी दिखा कर उसने (मन्नू भंडारी) पाठकों की दया नहीं वसूली, वह यथार्थ के धरातल पर नारी का नारी की दृष्टि से अंकन करती है।

1957 में उनकी प्रथम कहानी संग्रह मैं हार गई के कहानी मैं हार गई कहानी पत्रिका में प्रकाशित हुई मैं हार गई कहानी संग्रह में उनकी कुल बारह कहानियां संकलित हुई। जबकि 3 निगाहों की एक तस्वीर जो कि 1959 में आई। उसमें 8 कहानियां संग्रह थी तीन निगाहों की एक तस्वीर कहानी संग्रह में नारी की गाथा हैजो दीर्घ अवधि तक बीमार पति की सेवा करती है। नायिका के व्यक्तित्व का सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक अंकन उसके अंदर कहीं किया गया है यही सच है 1966 में उनकी तीसरी कहानी संग्रह प्रकाशित हुईइसमें 8 कहानी संग्रहित हैं। चौथा कहानी संग्रह एक प्लेट सैलाब 1968 में उनका प्रकाशित हुआ नारी जीवन की समस्याओं पर आधारित 9 कहानियों का संग्रह भी उनका प्रकाशित हुआपांचवा कहानी संग्रह 1978 में प्रकाशित हुआ। जिसमें 10 कहानियां थी। मन्नू भंडारी की श्रेष्ठ कहानियां 1969 में प्रकाशित हुई। जिसे राजेंद्र यादव जी ने संपादित कियानायक /खलनायक /विदूषक मन्नू भंडारी की 50 कहानियों का संग्रह मनु भंडारी द्वारा लिखित धारावाहिक___ रजनी की पटकथा इसमें संग्रहित हैजो दूरदर्शन पर एक समय धूम मचा कर रखी थी

एक इंच मुस्कान 1969 में प्रकाशित हुई जिसमें राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी दोनों ने एक साथ काम किया दोनों के द्वारा एक साथ लिखी गई एक मात्र रचना  ज्ञानोदय पत्रिका में धारावाहिक में प्रकाशित किया गया। जिसमें अमर (राजेंद्र यादव) महिला पात्र के रूप में रंजना और अमला को  (मनु भंडारी ) ने चित्रित किया है।

आपका बंटी 1971 में उपन्यास आया महाभोज उपन्यास 1979 में आया जो सामाजिक उपन्यास था। स्वामी नाम का एक उपन्यास रूपांतरित उपन्यास की कहानी के आधार पर वह भी प्रकाशित हुआ।  1966 में मनु भंडारी ने बिना दीवारों का घर एकांकी लिखा

उन्होंने अपने लेखन से महिला स्त्री पात्र के जरिए स्त्री को समझने का प्रयास कियास्त्री विमर्श की जगह स्त्री जगत की समस्या  को ही रख कर उन्हें उस पर चर्चा करना अच्छा लगता था।

2008 में उन्हें व्यास सम्मान प्राप्त हुआ।

कल  15/11/2021 को उनका निधन हो गया।

? स्व मन्नू भंडारी जी को  ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि ?

©  श्री सुधीर सिंह सुधाकर  

दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 125 ☆ जल जंगल जमीन के अधिकार के आदि प्रवक्ता बिरसा मुण्डा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक ऐतिहासिकआलेख  ‘जल जंगल जमीन के अधिकार के आदि प्रवक्ता बिरसा मुण्डा। इस विचारणीय  एवं ऐतिहासिक आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 125☆

?  जल जंगल जमीन के अधिकार के आदि प्रवक्ता बिरसा मुण्डा  ?

आज रांची झारखंड की राजधानी है. बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को रांची जिले के उलिहातु गांव में हुआ था .  यह तब की बात है जब  ईसाई मिशनरियां अंग्रेजी फौज के पहुंचने से पहले ही ईसाइयत के प्रचार के लिये गहन तम भीतरी क्षेत्रो में पहुंच जाया करती थीं . वे गरीबों, वनवासियों की चिकित्सकीय व शिक्षा में मदद करके उनका भरोसा जीत लेती थीं. और फिर धर्मान्तरण का दौर शुरू करती थीं. बिरसा मुंडा भी शिक्षा में तेज थे. उनके पिता सुगना मुंडा से लोगों ने कहा कि इसको जर्मन मिशनरी के स्कूल में पढ़ाओ, लेकिन मिशनरीज के स्कूल में पढ़ने की शर्त हुआ करती थी, पहले आपको ईसाई धर्म अपनाना पड़ेगा. बिरसा का भी नाम बदलकर बिरसा डेविड कर दिया गया.

1894 में छोटा नागपुर क्षेत्र में जहां बिरसा रहते थे ,अकाल पड़ा , लोग हताश और परेशान थे. बिरसा को अंग्रेजों के धर्म परिवर्तन के अनैतिक स्वार्थी व्यवहार से चिढ़ हो चली थी. अकाल के दौरान बिरसा ने पूरे जी जान से अकाल ग्रस्त लोगों की अपने तौर पर मदद की. जो लोग बीमार थे, उनका अंधविश्वास दूर करते हुये उनका इलाज करवाया. बिरसा का ये स्नेह और समर्पण देखकर लोग उनके अनुयायी बनते गए . सभी वनवासियों के लिए वो धरती आबा हो गए, यानी धरती के पिता.
अंग्रेजों ने 1882 में फॉरेस्ट एक्ट लागू किया था जिस से सारे जंगलवासी परेशान हो गए थे, उनकी सामूहिक खेती की जमीनों को दलालों, जमींदारों को बांट दिया गया था. बिरसा ने इसके खिलाफ ‘उलगूलान’ का नारा दिया . उलगूलान यानी जल, जंगल, जमीन के अपने अधिकारों के लिए लड़ाई. बिरसा ने अंग्रेजों के खिलाफ एक और नारा दिया, ‘अबुआ दिशुम अबुआ राज’, यानी अपना देश अपना राज. करीब 4 साल तक बिरसा मुंडा की अगुआई में जंगलवासियों ने कई बार अंग्रेजों को धूल चटाई. अंग्रेजी हुक्मराम परेशान हो गए, उस दुर्गम इलाके में बिरसा के गुरिल्ला युद्ध का वो तोड़ नहीं ढूंढ पा रहे थे. लेकिन भारत जब जब हारा है , भितरघात और अपने ही किसी की लालच से , बिरसा के सर पर अंग्रेजो ने बड़ा इनाम रख दिया . किसी गांव वाले ने बिरसा का सही पता अंग्रेजों तक पहुंचा दिया. जनवरी १८९० में गांव के पास ही डोमबाड़ी पहाड़ी पर बिरसा को घेर लिया गया, फिर भी 1 महीने तक जंग चलती रही, सैकड़ों लाशें बिरसा के सामने उनको बचाते हुए बिछ गईं, आखिरकार 3 मार्च वो भी गिरफ्तार कर लिए गए. ट्रायल के दौरान ही रांची जेल में उनकी मौत हो गई.

लेकिन बिरसा की मौत ने न जाने कितनों के अंदर क्रांति की ज्वाला जगा दी. और अनेक नये क्रांतिकारी बन गये . राष्ट्र ने उनके योगदान को पहचाना है . आज भी वनांचल में बिरसा मुंडा को लोग भगवान की तरह पूजते हैं. उनके नाम पर न जाने कितने संस्थानों और योजनाओं के नाम हैं, और न जाने कितनी ही भाषाओं में उनके ऊपर फिल्में बन चुकी हैं. पक्ष विपक्ष की कई सरकारों ने जल जंगल और जमीन के उनके मूल विचार पर कितनी ही योजनायें चला रखी हैं .उनकी जयंती पर इस आदिवासी गुदड़ी के लाल को शत शत नमन . 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 113 ☆ आत्मबोध ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 113 ☆ आत्मबोध ☆

आत्म, शुचिता का सूचक है। आत्म आलोकित और पवित्र है। गंगोत्री के उद्गम की तरह, जहाँ किसी तरह का कोई मैल नहीं होता। मैल तो उद्गम से आगे की यात्रा में जमना शुरू होता है। ज्यों-ज्यों यात्रा आगे बढ़ती है, यात्रा के छोटे-बड़े पड़ाव मनुष्य में आत्म-मोह उत्पन्न करते हैं। फिर आत्म-मोह, अज्ञान के साथ मिलकर अहंकार का रूप देने लगता है। जैसे पेट बढ़ने पर घुटने नहीं दिखते, वैसे ही आत्म-मोही की भौंहे फैलकर अपनी ही आँखों में प्रवेश कर जाती हैं। इससे दृष्टि धुंधला जाती है। आगे दृष्टि शनै: शनै: क्षीण होने लगती है और अहंकार के चरम पर आँखें दृष्टि से हीन हो जाती हैं।

दृष्टिहीनता का आलम यह कि अहंकारी को अपने आगे दुनिया बौनी लगती है। वह नाममात्र जानता है पर इसी नाममात्र को सर्वश्रेष्ठ मानता है। ज्ञानी की अवस्था पूर्ण भरे घड़े की तरह होती है। वह शांत होता है, किसी तरह का प्रदर्शन नहीं करता। अज्ञानी की स्थिति इसके ठीक विरुद्ध होती है। वह आधी भरी मटकी के जल की तरह उछल-उछल कर अपना अस्तित्व दर्शाने के हास्यास्पद प्रयास निरंतर करता है। इसीलिए तो कहा गया है, ‘अधजल गगरी छलकत जाए।’

लगभग चार दशक पूर्व  एक अंग्रेजी फिल्म देखी थी। नायक दुर्घटनावश एक ऐसे कस्बे में पहुँच जाता है जहाँ जीवन जीने के तौर-तरीके अभी भी अविकसित और बर्बर हैं। नायक को घेर लिया जाता है। कस्बे का एक योद्धा, नायक के सामने तलवार लेकर खड़ा होता है। तय है कि वह तलवार से नायक को समाप्त कर देगा। अपने अहंकार का मारा कथित योद्धा, नायक का सिर, धड़ से अलग करने से पहले तलवार से अनेक करतब दिखाता है। भारी भीड़ जुटी है। एक ओर नायक स्थिर खड़ा है। दूसरी ओर से तलवारबाजी करता कथित योद्धा नायक की ओर बढ़ रहा है। योद्धा के हर बढ़ते कदम के  साथ शोर भी बढ़ता जाता है। अंततः दृश्य की पराकाष्ठा पर योद्धा ज्यों ही तलवार निकालकर नायक की गर्दन पर वार करने जाता है, अब तक चुप खड़ा नायक, जेब से पिस्तौल निकालकर उसे ढेर कर देता है। भीड़ हवा हो जाती है। ज्ञान के आगे अज्ञान की यही परिणति होती है।

अज्ञान से मुक्ति के लिए आत्म-परीक्षण करना चाहिए। आत्म-परीक्षण होगा, तब ही आत्म-परिष्कार होगा। आत्म-परिष्कार होगा तो मनुष्य आत्म-बोध के दिव्य पथ पर अग्रसर होगा।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 107 ☆ उपलब्धि बनाम आलोचना ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख उपलब्धि बनाम आलोचना।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 107 ☆

☆ उपलब्धि बनाम आलोचना ☆

उपलब्धि व आलोचना एक दूसरे के मित्र हैं। उपलब्धियां बढ़ेंगी, तो आलोचनाएं भी बढ़ेंगी। वास्तव मेंं ये दोनों पर्यायवाची हैं और इनका चोली-दामन का साथ है। इन्हें एक-दूसरे से अलग करने की कल्पना भी बेमानी है। उपलब्धियां प्राप्त करने के लिए मानव को अप्रत्याशित आपदाओं व कठिनाइयों से जूझना पड़ता है। जीवन में कठिनाइयाँ हमें बर्बाद करने के लिए नहीं आतीं, बल्कि ये हमारी छिपी हुई सामर्थ्य व शक्तियों को बाहर निकालने में हमारी मदद करती हैं। सो! कठिनाइयों को जान लेने दो कि आप उससे भी अधिक मज़बूत व बलवान हैं। इसलिए मानव को विषम परिस्थितियों में धैर्य नहीं खोना चाहिए तथा आपदाओं को अवसर में बदलने का प्रयास करना चाहिए। कठिनाइयां हमें संचित आंतरिक शक्तियों व सामर्थ्य का एहसास दिलाती हैं और उनका डट कर सामना करने को प्रेरित करती हैं। इस स्थिति में मानव स्वर्ण की भांति अग्नि में तप कर कुंदन बनकर निकलता है और अपने भाग्य को सराहने लगता है। उसके हृदय में ‘शक्तिशाली विजयी भव’ का भाव घर कर जाता है, जिसके लिए वह भगवान का शुक्र अदा करता है कि उसने आपदाओं के रूप में उस पर करुणा-कृपा बरसायी है। इसके परिणाम-स्वरूप ही वह जीवन में उस मुक़ाम तक पहुंच सका है। दूसरे शब्दों में वह उपलब्धियां प्राप्त कर सका है, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी।

‘उम्र ज़ाया कर दी लोगों ने/ औरों के वजूद में नुक्स निकालते-निकालते/ इतना ख़ुद को तराशा होता/ तो फरिश्ता बन जाते’ गुलज़ार की यह सीख अत्यंत कारग़र है। परंतु मानव तो दूसरों की आलोचना कर सुक़ून पाता है। इसके विपरीत यदि वह दूसरों में कमियां तलाशने की अपेक्षा आत्मावलोकन करना प्रारंभ कर दे, तो जीवन से कटुता का सदा के लिए अंत हो जाए। परंतु आदतें कभी नहीं बदलतीं; जिसे एक बार यह लत पड़ जाती है, उसे निंदा करने में अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है। वैसे आलोचना भी उसी व्यक्ति की होती है, जो उच्च शिखर पर पहुंच जाता है। उसकी पद-प्रतिष्ठा को देख लोगों के हृदय में ईर्ष्या भाव जाग्रत होता है और वह सबकी आंखों में खटकने लग जाता है। शायद इसलिए कहा जाता है कि जो सबका प्रिय होता है– आलोचना का केंद्र नहीं बनता, क्योंकि उसने जीवन में सबसे अधिक समझौते किए होते हैं। सो! उपलब्धि व आलोचना एक सिक्के के दो पहलू हैं और इनका चोली-दामन का साथ है।

समस्याएं हमारे जीवन में बेवजह नहीं आतीं।  उनका आना एक इशारा है कि हमें अपने जीवन में कुछ बदलाव लाना है। वास्तव में यह मानव के लिए शुभ संकेत होती हैं कि अब जीवन में बदलाव अपेक्षित है। यदि जीवन सामान्य गति से चलता रहता है, तो निष्क्रियता इस क़दर अपना जाल फैला लेती है कि मानव उसमें फंसकर रह जाता है। ऐसी स्थिति में उसमें अहम् का पदार्पण हो जाता है कि अब उसका जीवन सुचारू रूप से  चल रहा है और उसे डरने की आवश्यकता नहीं है। परंतु कठिनाइयां व समस्याएं मानव को शुभ संकेत देती हैं कि उसे ठहरना नहीं है, क्योंकि संघर्ष व निरंतर कर्मशीलता ही जीवन है। इसलिए उसे चलते जाना है और आपदाओं से नहीं घबराना है, बल्कि उनका सामना करना है। परिवर्तनशीलता ही जीवन है और सृष्टि में भी नियमितता परिलक्षित है। जिस प्रकार प्रात्रि के पश्चात् दिन, अमावस के पश्चात् पूनम व यथासमय ऋतु परिवर्तन होता है तथा प्रकृति के समस्त उपादान निरंतर क्रियाशील हैं। सो! मानव को उनसे सीख लेकर निरंतर कर्मरत रहना है। जीवन में सुख दु:ख तो मेहमान हैं…आते-जाते रहते हैं। परंतु एक के जाने के पश्चात् ही दूसरा दस्तक देता है। मुझे स्मरण हो रही हैं यह पंक्तियां ‘नर हो ना निराश करो मन को/  कुछ काम करो, कुछ काम करो’, क्योंकि गतिशीलता ही जीवन है और निष्क्रियता मृत्यु है।

सम्मान हमेशा समय व स्थिति का होता है। परंतु इंसान उसे अपना समझ लेता है। खुशियां धन-संपदा पर नहीं, परिस्थितियों पर निर्भर करती हैं। एक बच्चा गुब्बारा खरीद कर खुश होता है, तो दूसरा बच्चा उसे बेचकर फूला नहीं समाता। व्यक्ति को सम्मान, पद-प्रतिष्ठा अथवा उपलब्धि संघर्ष के बाद प्राप्त होती है, परंतु वह सम्मान उसकी स्थिति का होता है। परंतु बावरा मन उसे अपनी उपलब्धि समझ हर्षित होता है। प्रतिष्ठा व सम्मान तो रिवाल्विंग चेयर की भांति होता है, जब तक आप पद पर हैं और सामने हैं, सब आप को सलाम करते हैं। परंतु आपकी नज़रें घूमते ही लोगों के व्यवहार में अप्रत्याशित परिवर्तन हो जाता है। सो! खुशियां परिस्थितियों पर निर्भर होती हैं, जो आप की अपेक्षा होती हैं, इच्छा होती है। यदि उनकी पूर्ति हो जाए, तो आपके कदम धरती पर नहीं पड़ते। यदि आपको मनचाहा प्राप्त नहीं होता, तो आप हैरान-परेशान हो जाते हैं और कई बार वह निराशा अवसाद का रूप धारण कर लेती है, जिससे मानव आजीवन मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता।

मानव जीवन क्षण-भंगुर है, नश्वर है, क्योंकि इस संसार में स्थायी कुछ भी नहीं। हमें अगली सांस लेने के लिए पहली सांस को छोड़ना पड़ता है। इसलिए जो आज हमें मिला है, सदा कहने वाला नहीं; फिर उससे मोह क्यों? उसके न रहने पर दु:ख क्यों? संसार में सब रिश्ते-नाते, संबंध- सरोकार सदा रहने वाले नहीं हैं। इसलिए उन में लिप्त नहीं होना चाहिए, क्योंकि जो आज हमारा है, कल मैं छूटने वाला है, फिर चिन्ता व परेशानी क्यों? ‘दुनिया का उसूल है/ जब तक काम है/  तेरा नाम है/ वरना दूर से ही सलाम है।’ हर व्यक्ति किसी को सलाम तभी करता है, जब तक वह उसके स्वार्थ साधने में समर्थ है तथा मतलब निकल जाने के पश्चात् मानव किसी को पहचानता भी नहीं। यह दुनिया का दस्तूर है इसका बुरा नहीं मानना चाहिए।

समस्याएं भय और डर से उत्पन्न होती हैं। यदि भय, डर,आशंका की जगह विश्वास ले ले, तो समस्याएं अवसर बन जाती हैं। नेपोलियन विश्वास के साथ समस्याओं का सामना करते थे और उसे अवसर में बदल डालते थे। यदि कोई समस्या का ज़िक्र करता था, तो वे उसे बधाई देते हुए कहते थे कि ‘यदि आपके पास समस्या है, तो नि:संदेह एक बड़ा अवसर आपके पास आ पहुंचा है। अब उस अवसर को हाथों-हाथ लो और समस्या की कालिमा में सुनहरी लकीर खींच दो।’ नेपोलियन का यह कथन अत्यंत सार्थक है। ‘यदि तुम ख़ुद को कमज़ोर सोचते हो, तो कमज़ोर हो जाओगे। अगर ख़ुद को ताकतवर सोचते हो, तो ताकतवर’ स्वामी विवेकानंद जी का यह कथन मानव की सोच को सर्वोपरि दर्शाता है कि हम जो सोचते हैं, वैसे बन जाते हैं। इसलिए सदैव अच्छा सोचो; स्वयं को ऊर्जस्वितत अनुभव करो, तुम सब समस्याओं से ऊपर उठ जाओगे और उनसे उबर जाओगे। सो! आपदाओं को अवसर बना लो और उससे मुक्ति पाने का हर संभव प्रयास करो। आलोचनाओं से भयभीत मत हो, क्योंकि आलोचना उनकी होती है, जो काम करते हैं। इसलिए निष्काम भाव से कर्म करो। सत्य शिव व सुंदर है, भले ही वह देर से उजागर होता है। इसलिए घबराओ मत। बच्चन जी की यह पंक्तियां ‘है अंधेरी रात/ पर दीपक जलाना कब मना है’ मानव में आशा का भाव संचरित करती हैं। रात्रि के पश्चात् सूर्योदय होना निश्चित है। इसलिए धैर्य बनाए रखो और सुबह की प्रतीक्षा करो। थक कर बीच राह मत बैठो और लौटो भी मत। निरंतर चलते रहो, क्योंकि चलना ही जीवन है, सार्थक है, मंज़िल पाने का मात्र विकल्प है। आलोचनाओं को सफलता प्राति का सोपान स्वीकार अपने पथ पर निरंतर अग्रसर हो।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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