हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 21 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 21 ??

आजकल विवाह सम्बंधी ऑनलाइन ‘मैरिज साइट्स’ हैं। इन साइट्स के माध्यम से विवाहयोग्य लड़के-लड़कियाँ एक-दूसरे के बारे में जानते हैं। आवश्यकता पड़ने पर साइट्स दोनों के बीच वरचुअल मीटिंग की व्यवस्था भी करती हैं। जब तक तकनीक नहीं आई थी,  लड़का- लड़की  के ‘एक्चुअल’ देखने दिखाने के काम मेले में ही हो जाते थे। मेला अधिकृत ‘ऑफलाइन’ वर-वधू परिचय सम्मेलन स्थल थे। छोटे गाँवों-कस्बों में आज भी यह चलन बना हुआ है।

प्रेम जीवन की धुरी है। इसके बिना जीवन की संभावनाएँ प्रसूत नहीं होतीं। रसखान लिखते हैं,

प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर सरिस बखान।

जो आवत एहि ढिग, बहुरि, जात नाहिं रसखान।।

इस अगम, अनुपम, अमित प्रेम में मिलने की उत्कट भावना होती है। इस भावना को व्यक्त होने और मिलने का अवसर प्रदान करता है मेला। बहुत अधिक बंदिशों वाले समय में भी मेला, बेरोकटोक मिल सकने का सुरक्षित स्थान रहा।

पशु व्यापार, कृषि उपज, कृषि के औजार, वनौषधि आदि की दृष्टि से भी मेले उपयोगी व लाभदायी होते हैं। केवल उपयोगी और अनुपयोगी में विभाजित करनेवाली सांप्रतिक संकुचित वृत्ति के समय में ‘मेला’ की उपयोगिता और जनमानस में गहरी पैठ इस बात से ही समझी जा सकती है कि अब तो कॉर्पोरेट जगत अपनी व्यापारिक प्रदर्शनियों के लिए इसका धड़ल्ले से उपयोग करने लगा है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 20 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 20 ??

मेलों का महत्त्व-

मेला भीड़ से लगता है, भीड़ से सजता है। जहाँ भी समूह होगा, वहाँ संभावनाएँ भी बहुगुणित होती जाती हैं। इन संभावनाओं के मूल में धर्म, अर्थ, समाज, संस्कृति, नीति, राजनीति, व्यापार-व्यवसाय, सहयोग, दर्शन, प्रदर्शन, लाभ आदि सभी विद्यमान होते हैं। सामान्यत: मेला एक क्षेत्र विशेष में एक लक्ष्य, एक उद्देश्य विशेष को लेकर आयोजित करने की परंपरा यही है। यह  राजा से रंक तक सभी के लिए उपयोगी होता है।

मेलों में बड़े स्तर पर आर्थिक व्यवहार होता है। बड़े व्यापारियों/व्यवसायियों के साथ छोटे-छोटे दुकानदार भी एक स्थान पर एकत्रित होते हैं। ग्राहक के लिए भाँति-भाँति प्रकार की वस्तुएँ एक स्थान पर लेने का यह अवसर होता है। यह अलग बात है कि मॉल और ऑनलाइन क्रय-विक्रय के इस समय में मेला बहुत पीछे छूटता जा रहा है। तथापि इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता कि मॉल की संकल्पना के मूल में मेला ही रहा है।

मेलों में मनोरंजन के साधन और करतब का विशेष आकर्षण होता है। बाल-गोपालों की इसमें विशेष रुचि होती है। हर माता-पिता अपनी संतान को आनंद के अधिकाधिक क्षण देना चाहता है। इसके चलते मनोरंजन के आयोजनों का अच्छा कारोबार होता है।

लोक-कलाकारों, हस्त शिल्पकारों, गायक/गायिकाओं, विभिन्न कलाकारों के लिए मेला बड़ा मंच होता है। यहाँ वे अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर सकते हैं। साथ ही यह आय का साधन भी बनता है।

धार्मिक कारणों से लगनेवाले मेलों में साधु-संत बड़ी संख्या में आते हैं। आम आदमी के लिए इन संतों के दर्शन का यह विशेष अवसर होता है। संत समाज के लिए भी यह जनता के बीच आने, उनकी समस्याएँ जानने की भवभूमि बनता है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ बहुसांस्कृतिक और बहुआयामी – कैनेडा का शहर टोरंटो ☆ डॉ. हंसा दीप ☆

डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय

यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।

☆ आलेख ☆ बहुसांस्कृतिक और बहुआयामी – कैनेडा का शहर टोरंटो ☆ डॉ. हंसा दीप 

हर शहर का अपना एक वजूद, अपना वैशिष्ट्य और अपना एक अंदाज़ होता है। दुनिया के हज़ारों शहरों की भीड़ में कैनेडा का प्रमुख शहर टोरंटो अपनी कई खूबियों के साथ एक ऐसी जगह के रूप में उभर कर सामने आता है जो अपने बहुसांस्कृतिक एवं बहुआयामी स्वभाव के साथ अपनी आत्मीयता और सौहार्द्र के लिये भी जाना जाता है। सन् उन्नीस सौ चौरानबे में अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में रहते हुए मैं और मेरा परिवार सिर्फ घूमने के लिये टोरंटो आये थे। टोरंटो शहर की उस तीन दिनों की यात्रा ने हमारा मन ऐसा मोह लिया कि दो वर्ष की अवधि में ही हम इस शहर के हो कर रह गए। इस शहर ने अपनी बाँहें फैलाकर हमारा स्वागत किया और एक नयी पहचान दी। तब से आज तक इस शहर के कई नये पहलुओं से हमारा परिचय होता रहा है। फिर चाहे वह सामाजिक पहलू हो, आर्थिक हो, सांस्कृतिक हो, कलात्मक हो, भाषायी हो, शैक्षणिक हो, खेलकूद हो या फिर धार्मिक ही क्यों न हो, हर जगह अपना श्रेष्ठ देने और अपना श्रेष्ठ लेने की परंपरा का अनुसरण करना सिखाता है यह शहर।   

कैनेडा में आप्रवासियों के लिए एक महत्वपूर्ण गंतव्य के रूप में अपनी वर्तमान और ऐतिहासिक भूमिका को दर्शाता है टोरंटो। कई देशों के लोग बेहतर जीवन की तलाश में जब अपने देश के बाहर बसेरा खोजते हैं तो कैनेडा और शहर टोरंटो उनकी पहली पसंद की सूची में होता है। विविध संस्कृतियों को अपने में समेटे यह शहर अपनी विराट पहचान ही इसी परिप्रेक्ष्य में निर्मित करता है। शहर की बसाहट में संस्कृतियों की बहुलता के साथ धार्मिक, आर्थिक, भाषायी, व बहुआयामी कलात्मक और पेशेवर घटक इसे कैनेडा के दूसरे शहरों से पृथक कर एक नयी पहचान देते हैं।  

( 1 & 3 टोरंटो शहर 2 टोरंटो सिटी हाल)

‘सीएन टावर’, ‘रॉयल ओंटेरियो म्यूज़ियम’, किला ‘कासालोमा’  मुख्यत: इस शहर के विशेष पहचान स्मारक हैं। जब शहर के बीचों-बीच डाउन टाउन की सड़कों पर घूमते हुए, हर गली-चौराहे पर सी एन टावर झाँकता हुआ दिखाई देता है, तब जुड़ता है उससे रिश्ता, शहर से रिश्ता। अपनेपन का अहसास, शहर की ऊँचाइयों का अहसास। ऐसा शहर जो सिर्फ सी एन टावर की ऊँचाइयों से नहीं पहचाना जाता बल्कि हर क्षेत्र में उस ऊँचाई को छूता नज़र आता है। किसी भी शहर में सिर्फ घूमना और रहना उस शहर को अपना नहीं बनाता, उसे अपना बनाने के लिए हमें उसे महसूस करना पड़ता है। हमने भी भारत, मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले से चलकर न्यूयॉर्क तक का सफर किया और फिर टोरंटो को अपना घर बनाया। इस धरती से एक रिश्ता जोड़ते हुए अपने जीवन के सुनहरे पलों को अपने अंदर कैद किया। ख्यालों और सपनों की यह दौड़ दूर तलक जाती है। इतनी दूर कि शायद इन सपनों की ऊँचाइयाँ टोरंटो के सी एन टावर की ऊँचाइयों को भी छू लें। टोरंटो की पहचान बन चुके सी एन टावर को देखते हुए शरीर में फुरफुरी-सी दौड़ने लगती है। किसी भी शहर का पहचान चिन्ह, चाहे वह कोई खास इमारत हो या स्मारक, अपने आप में एक खासियत लिए, उस शहर की पहचान बन जाता है। शहर का ऐसा खास स्थान, जिसे देखकर लगता है कि उसके बगैर शहर अधूरा है। शहर को महसूस करने के लिए, उस स्थान को अपने में समेटना होता है। तभी हो पाती है उस शहर से एक खास जान-पहचान, एक खास दोस्ती जो उस शहर को दिल के करीब लाती है। 

दो सौ से अधिक विभिन्न देशों के लोग यहाँ निवास करते हैं जिनके भिन्न-भिन्न समुदायों का प्रतिनिधित्व वहाँ के लोगों द्वारा किया जाता है। जहाँ टोरंटो के अधिकांश लोग अपनी प्राथमिक भाषा के रूप में अंग्रेजी बोलते हैं, वहीं शहर में लगभग एक सौ साठ से अधिक भाषाएँ बोली जाती हैं। फ्रेंच यहाँ की द्वितीय आधिकारिक भाषा है। भाषाओं से संपन्न शहर टोरंटो में अंग्रेजी और फ्रेंच के अलावा, इटालियन, स्पेनिश, चीनी, जर्मन, अरबी, हिब्रू, फारसी, तमिल, हिन्दी, पंजाबी, उर्दू के अलावा भी कई भाषाओं का बोलबाला है। इन भाषाओं के कई कोर्स यहाँ की यूनिवर्सिटी, कॉलेज, स्कूल में नियमित रूप से चलाए जाते हैं। भाषाओं की विविधता के साथ ही अंग्रेजी और फ्रेंच में हर आधिकारिक जानकारी उपलब्ध करायी जाती है।

बहुभाषायी विविधता के साथ स्वाभाविक ही बहुसंस्कृति को मान्यता देता यह शहर इन सारी भाषाओं से जुड़ी संस्कृतियों को बगैर किसी भेदभाव के समान अवसर देता है। बहुसांस्कृतिक परिवेश लिये यहाँ हर वर्ग के अपने बाज़ार हैं जहाँ वे सारी वस्तुएँ प्राप्त की जा सकती हैं जो संस्कृति विशेष के आयोजनों के लिये जरूरी होती हैं। यही विविधता टोरंटो के मन की विशालता के दर्शन करवाती है। इसी भावना के चलते टोरंटो शहर के भीतर, लिटिल इंडिया, लिटिल चाइना, चाइनाटाउन, लिटिल इटली, कोरसो इटालिया, ग्रीकटाउन, केंसिंग्टन मार्केट, कोएरटाउन, लिटिल जमैका, लिटिल पुर्तगाल और रोन्सेवेल्स (पोलिश समुदाय) जैसे और भी कई नाम अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं। ये नाम अपनी खास पहचान लिये होते हैं जो समुदाय विशेष की अपने देश को याद करने की इच्छा को पूरी करते हैं। यहाँ हर तरह के, हर देश और हर संस्कृति के त्योहारों का भरपूर आनंद लिया जाता है। उदाहरण के लिये दीवाली पर कई भारतीय बाज़ार ऐसे होते हैं जहाँ मिठाइयों के टैंट बाहर लगते हैं व आतिशबाजी की अनुमति भी ले ली जाती है। भारतीय समुदाय के लोग ऐसे कई भारतीय बाजारों का पूरा-पूरा आनंद उठाते हैं व भारत से दूर एक और भारत को आत्मसात करते हैं।  

अपनी संस्कृतियों से जुड़े कई धार्मिक स्थान अपनी महत्ता लिये हैं। हिन्दू मंदिर, जैन मंदिर, गुरूद्वारे, सिनेगॉग, चर्च और मस्जिद जैसे कई प्रार्थना स्थल हैं जो अपने-अपने श्रद्धालुओं के लिये आस्था और विश्वास के प्रतीक के रूप में अपना स्थान बनाये हुए हैं। यूँ तो यहाँ अनेक धर्मों के अनुयायी हैं पर दो हजार ग्यारह की जनगणना के अनुसार टोरंटो में सबसे अधिक ईसाई धर्म के अनुयायी थे। शहर में अन्य धर्मों का महत्वपूर्ण रूप से पालन करने वालों की संख्या में प्रमुख स्थान रखते हैं, इस्लाम, हिंदू धर्म, यहूदी धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म।  

टोरंटो का “रॉयल ओंटेरियो म्यूजियम” अपनी भव्यता और संग्रह के लिये कलाप्रेमियों व शोधकर्ताओं को आकर्षित करता है। यहाँ पर साउथ एशिया से संबंधित एक वृहत अनुभाग है जिसमें भारतीय सभ्यता की प्राचीनता और उत्कृष्टता को खूबसूरती के साथ दर्शाया गया है। विश्वभर के चित्रकला प्रेमियों के लिये “आर्ट गैलेरी ऑफ ओंटेरियो” नामक एक विशाल कला सेंटर है जहाँ चित्रकला की कई प्रदर्शनियाँ साल भर लगती हैं। गर्मी की छुट्टियों के दौरान बच्चों में चित्रकला को विकसित करने के लिये तमाम शिविर, कक्षाओं और प्रदर्शनियों का आयोजन किया जाता है। यह समय इतना व्यस्ततम होता है कि साल भर पहले से टिकट बुक किए हों तो ही प्रवेश मिल पाता है अन्यथा अगले साल की प्रतीक्षा सूची का इंतज़ार करने के अलावा कोई चारा नहीं रहता। 

टोरंटो संगीत का भी एक प्रमुख केंद्र है जहाँ दूर-दूर से संगीत के मूर्धन्य कलाकार आते हैं और कई विशाल कान्सर्ट्स व आयोजनों में भाग लेते हैं। भारत से ही बॉलीवुड के कई जाने-माने गायक, अभिनेता हर वर्ष यहाँ आते हैं जिनके कॉन्सर्ट में लाखों लोग हिस्सा लेकर अपने मनोरंजन के साथ ही शहर के आतिथ्य भाव का परिचय देते हैं। साथ ही  कैनेडा के प्रमुख थिएटर, सिनेमा, और टेलीविजन के मुख्यालयों का घर भी यहीं पर है। साहित्य और कला के साथ ही खेलों की कई व्यावसायिक टीमें हैं जो पूरी दुनिया में अपने देश और शहर का प्रतिनिधित्व करती हैं।  

पर्यटकों के लिये एक खास पसंद है टोरंटो शहर जो दिल खोल कर अपनी मेजबानी का परिचय देता है। हर तरह की खान-पान की सुविधाएँ, हर देश का खाना, उम्दा रेस्टोरेंट और अपेक्षाकृत उचित दाम के कारण इस शहर में पर्यटक खिंचे चले आते हैं। हर साल लाखों पर्यटक यहाँ आते हैं जिनके लिये टोरंटो का डाउन टाउन इलाका, सी एन टॉवर और कई गगनचुंबी इमारतों के साथ एक विशेष आकर्षण का केंद्र होता है।

यही इलाका कई बैंकों के मुख्यालयों के साथ कई बहुराष्ट्रीय निगमों का मुख्यालय भी है। हर सुबह इसी क्षेत्र में सर्वाधिक आवाजाही होती है जब गगनचुम्बी इमारतों के तले, सूट-बूट से सजे हर उम्र के पेशेवर पुरुष और महिलाएँ फुटपाथ पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं। यह एक ऐसा विहंगम दृश्य होता है जो शहर की व्यावसायिकता के उच्च पैमानों को दर्शाता है। तब ऐसा महसूस होता है मानो काम और व्यक्तित्व के श्रेष्ठ नज़ारे से हमारा साक्षात्कार हो रहा हो।

उन्नीस सौ साठ के दशक के अंत तक टोरंटो दुनिया के सभी हिस्सों के आप्रवासियों के लिए एक गंतव्य बन गया था। उन्नीस सौ अस्सी के दशक तक, टोरंटो ने कैनेडा के सबसे अधिक आबादी वाले शहर और मुख्य आर्थिक केंद्र के रूप में मशहूर मॉन्ट्रियल शहर को पीछे छोड़ दिया था। इस समय के दौरान कई राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय निगमों ने अपने मुख्य कार्यालयों को मॉन्ट्रियल से टोरंटो में स्थानांतरित कर दिया था। आज टोरंटो की जनसंख्या का आँकड़ा लगभग चालीस लाख से ऊपर है।

टोरंटो की सैर करते समय ‘नायग्रा फॉल्स’ पर्यटकों के लिये एक बड़ा आकर्षण है जो शहर से लगभग एक घंटे की ड्राइव पर है। प्रकृति का ऐसा अजूबा है नायग्रा फॉल्स जो देखने वालों के रोंगटे खड़े कर देता है। ऊँचाइयों से गिरता पानी, एक ऐसा मनोरम दृश्य दिखाता है कि आँखें चकित होते हुए, जोशीले पानी पर ही टिकी रहती हैं। पानी का ऐसा आवेग, ऐसा जोश, ऐसा संगीतमयी राग, पर्यटकों के द्वारा ‘आह’ और ‘वाह’ के साथ देखा जाता है, महसूस किया जाता और कैमरों में कैद किया जाता है। इतनी ऊँचाई से बहता पानी मौसम के साथ अपना स्वभाव बदल लेता है। ये फॉल्स सर्दियों में बर्फ की चट्टान में तब्दील हो जाते हैं, असंख्य सैलानियों को अपनी ओर खींचते हुए। प्रकृति के अद्भुत नज़ारे का एक जीता-जागता उदाहरण पेश करता नायग्रा फॉल्स, कैनेडा का सबसे व्यस्त पर्यटन केन्द्र है जो टोरंटो के बेहद नजदीक है। यह रात की जगमगाती रौशनी के लिए भी विख्यात है, अलग-अलग दिशाओं से फेंकी जाने वाली रौशनी जब फॉल्स के पानी से प्रतिबिंबित होती है तो प्रकृति और मनुष्य के बीच की ‘पार्टनरशिप’ को विलक्षण व सुंदरतम स्वरूप दे देती है।  

यह शहर छोटी-छोटी पहाड़ियों से घिरा है और झील के किनारे बसा है। कभी हरियाली से घिरा रहता है, कभी रंग-बिरंगे खूबसूरत पत्तों और कभी बर्फ की सफेद चादर से। हर मौसम अपने मिजाज़ के साथ अलौकिक सौंदर्य बिखेरता है। एक ओर प्राकृतिक सुंदरता से रचा-बसा है शहर, तो दूसरी ओर प्राकृतिक विपदाओं से भी लगातार जूझता रहता है शहर टोरंटो। हर साल बर्फ के कहर को तो सहती ही है यहाँ की धरती, कभी-कभी बारिश के अंधड़नुमा प्रहार भी सहने पड़ते हैं इसे। आठ जुलाई दो हजार तेरह को धीमी गति से चलने वाली तेज आंधी के गुजरने के बाद टोरंटो में भयंकर बाढ़ आई। टोरंटो हाइड्रो यहाँ की इलेक्ट्रिक कंपनी है। इस कंपनी के समुचित प्रयासों के बाद भी तब तकरीबन साढ़े चार लाख लोगों को बिजली के बगैर रहना पड़ा था। इसके ठीक छह महीने के भीतर, बीस दिसंबर, दो हजार तेरह को, टोरंटो शहर ने अपने इतिहास के सबसे खराब बर्फीले तूफान का सामना किया, जो बर्फीले तूफानों की भयावहता का एक ऐसा रूप था जो शहर को पूरी तरह से झिंझोड़ गया था। तब भी तीन लाख से अधिक टोरंटो हाइड्रो के ग्राहकों के पास कोई बिजली या हीटिंग नहीं थी। यह टोरंटो वासियों के लिये एक बड़ी विपदा थी। इतनी भयंकर सर्दी में बगैर हीटिंग के रहना किसी बड़ी सजा से कम नहीं था।   

“टोरंटो अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेयर” के अलावा विश्व के कई बड़े कार्यक्रमों के आयोजन का श्रेय इस शहर के नाम है। इस दौरान दुनिया भर के फिल्मी सितारे टोरंटो की शान में चार चाँद लगाते हैं। इन चमकते सितारों के ग्लेमर की चकाचौंध के साथ ही, ऐसे अल्पसंख्यक समुदायों का दिल खोलकर स्वागत करता है जो अन्यत्र अपना अधिकार पाने में कठिनाइयाँ महसूस करते हैं। समलैंगिक जोड़ों के लिये यह शहर स्वर्ग के समान है। हर वर्ष प्राइड परेड के जलसे में दूर-दूर से लोग आते हैं। टोरंटो ने जून दो हजार चौदह में “वर्ल्डप्राइड” रैली की मेजबानी की जिसमें विश्वभर के समलैंगिक जोड़ों ने शिरकत की और शहर की उदारता और बड़प्पन को जी भर कर सराहा।

अपनी ऐसी ही कई विशेषताओं के कारण यह शहर लगातार बढ़ रहा है और आप्रवासियों को आकर्षित कर रहा है। रायर्सन यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन से पता चला है कि टोरंटो उत्तरी अमेरिका में सबसे तेजी से विकसित होने वाला शहर है। शहर ने जुलाई दो हजार सत्रह और जुलाई दो हजार अठारह के बीच अस्सी हजार लोगों को अपने रहवासियों में जोड़ कर एक रिकॉर्ड बनाया।

आज इस आलेख को लिखते हुए उन पलों का जिक्र करना भी जरूरी लग रहा है मुझे जब पूरा विश्व कोरोना महामारी के प्रकोप से आतंकित होकर घरों से बाहर कदम नहीं रख पा रहा। समस्त ओंटेरियो प्रांत में आपातकाल घोषित किया गया। शहर टोरंटो में भी कोविड19 के दुष्प्रभावों से जूझते हुए, तेईस मार्च, दो हजार बीस को मेयर जॉन टोरी द्वारा आपातकाल की स्थिति घोषित की गई। सभी सार्वजनिक कार्यक्रमों में पाँच से अधिक लोगों की उपस्थिति को निषेध किया। तब से लेकर आज तक दो-तीन बार इसी स्थिति को दोहराया गया। रेस्तरां में टेकआउट और डिलीवरी सेवाएँ प्रदान करना जारी रखी गयीं। सभी स्कूलें, कॉलेज और यूनिवर्सिटी अनिश्चित काल के लिये बंद कर दिए गए। हालांकि यूनिवर्सिटी और कॉलेज स्तर तक की कक्षाएँ व परीक्षाएँ ऑनलाइन सफलतापूर्वक संपन्न हुईं, वहीं स्कूली शिक्षा की ऑनलाइन कक्षाएँ जिनमें प्राथमिक शालाएँ भी शामिल हैं, गर्मी की छुट्टियों तक जारी रहने के आदेश दिए गए। अब प्राथमिक शालाएँ सुचारू रूप से चल रही हैं परंतु पालकों को यह विकल्प दिया गया है कि वे चाहें तो अपने बच्चों को स्कूल भेजें, न चाहें तो ऑनलाइन कक्षाओं में पंजीकृत करें। इस भयंकर आपदा के समय भी शहर के स्वास्थ्य केंद्र हर रोगी को अपनी सेवाएँ निरंतर प्रदान करते रहे।

इन विविधताओं-विशेषताओं के अलावा टोरंटो का शुमार दुनिया के साफ-सुथरे शहरों में भी है। सचमुच किसी शहर को केवल शब्दों में पढ़ा नहीं जा सकता। उसे महसूस करना पड़ता है, आप सभी का स्वागत है हमारे शहर में। यह तो सिर्फ संक्षिप्त जानकारी है अभी तो बहुत कुछ शेष है जिससे आपका परिचय करवाना है। जी हाँ, सिर्फ ट्रेलर है यह, पिक्चर तो अभी बाकी है। आप एक बार आइए तो सही।

(चित्र साभार – इंटरनेट के फ्री इमेज से) 

© डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

दूरभाष – 001 647 213 1817

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 19 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

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मेला और मनुष्य-

‘मेल’ शब्द से बना है ‘मेला।’ मिलाप का साकार, चैतन्य साकार रूप है मेला। दर्शन जगत को मेला कहता है क्योंकि मेले में व्यक्ति थोड़े समय के लिए साथ आता है, मिलाप का आनंद ग्रहण करता है,  फिर लौट जाता है अपने निवास। सच देखा जाय तो लौटना ही पड़ता है।  मेला किसीका निवास  नहीं हो सकता। गंतव्य के अलावा कोई विकल्प नहीं। संत कबीर लिखते हैं,

उड़ जायेगा हंस अकेला,

जग दर्शन का मेला..!

अकारण जमाव या जमावड़ा भर नहीं होता मेला। किसी निश्चित कारण से, सोद्देश्य मिलाप होता है मेला। ये कारण धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, व्यापारिक आदि हो सकते हैं।

मेला आयोजित करने की परंपरा लगभग उतनी ही पुरानी है जितना मनुष्य का नागरी सभ्यता में प्रवेश। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समूह या समाज के बिना जी नहीं सकता। आदिवासी टोलों में संध्या समय सामूहिक नृत्य की परंपरा रही। यह एक तरह से मेले का ही दैनिक लघु रूप है। साथ ही मानसिक विरेचन का साधन भी। एक अन्य दृष्टि से देखें तो सूर्योदय से मिले दिन का सूर्यास्त के समय उत्सव मना लेना बहुत बड़ा दर्शन है। ज़िंदगी के क्षणभंगुर मेले का यह कितना गहरा दर्शन है।  1948 में ‘मेला’ फिल्म के लिए गीतकार शकील बदायूंनी ने लिखा,

ये ज़िंदगी के मेले

दुनिया में कम न होंगे

अफसोस हम न होंगे।

नागरी सभ्यता में प्रवेश करने के बाद मनुष्य के रहन-सहन में संकीर्णता प्रवेश करने लगी पर मन के भीतर एक मेला लगा रहा। मन के मेले ने सदेह अवतार लिया और लगने-सजने लगे सचमुच के मेले। लोग इनकी प्रतीक्षा करने लगे। काल कोई भी रहा हो, मेले का अकाल कभी नहीं पड़ा। सुदूर गाँवों से लेकर महानगरों तक मेला ने अपने पैर फैलाए। इतिहास में विभिन्न राजा-रजवाड़ों के शासन में प्रसिद्ध मेलों का उल्लेख मिलता है।

वस्तुत:  उत्सव का विस्तार है मेला। उत्सव या त्योहार एक से लेकर अधिकतम कुछ दिनों तक  चलता है। मेला की अवधि सप्ताह भर से लेकर  कुछ महीनों तक  हो सकती है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆☆”संदूक” – अंतिम भाग ☆☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से संस्मरणों की कड़ी में अगला संस्मरण – “संदूक – अंतिम भाग”.)

☆ संस्मरण ☆ “संदूक” – अंतिम भाग ☆ श्री राकेश कुमार ☆

(यादों के झरोखे से)

सत्तरवें दशक के अंतिम वर्षों में संदूक सजावट और उपयोग की परिभाषा से मात्र उपयोग की ही वस्तु बन कर रह गया था।रेल यात्रा में जब तक थर्ड क्लास थी, लंबी दूरी की पारिवारिक यात्रा पर इसके बड़े लाभ थे, छोटा बच्चा आराम से सो कर निद्रा प्राप्त कर लेता था, वैसे इस पर बैठने की क्षमता दो लोगो को सुविधा पूर्वक यात्रा के लिए पर्याप्त हुआ करती थी।सह यात्री के पास भी संदूक होता था तो फिर साधारण लम्बाई के व्यक्ति की नींद में खलल नहीं पड़ता था। रेल का मैनेजर (गार्ड) अभी भी छोटे काले रंग  के संदूक को साथ लेकर गाड़ी की व्यवस्था बनाता हैं।

निम्न माध्यम वर्गीय परिवार अपनी पुरानी विरासत को जल्द विदा नहीं करता हैं। संदूक का उपयोग घरों में बैठने के लिए होने लगा। संदूक पर गद्दा बिछा कर उसको चादर से पूरा ढक कर इज्जत से स्थान दिया जाता था। एक जोड़ी संदूक को ईंट के ऊपर करीने से बैठक खाने में उपयोग आम बात हुआ करती थी। वो बात अलग है,मेहमान को कुर्सी आदि पर आसन प्रदान किया जाता था, मेज़बान इसका उपयोग स्वयं के लिए ही करता था।

ट्रंक या बॉक्स के नाम से जानने वाले घर में “बड़े ट्रंक” से भी भली भांति परिचित  होंगे। सर्दी की रजाई, कंबल या अनुपयोगी वस्तुओं के संग्रह में इसकी क्षमता का कोई सानी नहीं हैं। अब स्टील कि आलमारियों ने इनकी कमी पूरी करने के प्रयास किए हैं। बैंक में इसका उपयोग अनचाहा मेहमान (आडिटर) अपने गोपनीय कागज़ात को रखने के लिए करते थे। अब तो उनके पास भी  चलायमान कंप्यूटर ( लेप टॉप) है, जिसमें सब कुछ निजी रह सकता हैं।

टीवी सीरियल  सीआईडी में भी इसका उपयोग लाश या बड़ी धन राशि को ठिकाने लगाने में किया जाता हैं। पुराने समय में घर की बुजर्ग महिलाएं अपने संदूक को ताला लगाकर संचय की गई प्रिय, निजी वस्तुएं और थोड़ी सी जमा पूंजी को उनके विवाह में मिले संदूक में ही सुरक्षित रख पाती थी। उनके जाने के बाद उस संदूक को “दादी का खजाना” की विरासत की संज्ञा दी जाती थी। अब तो ये सब कहानियों और किस्से की बातें होकर रह गई हैं।

 

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 126 ☆ शून्योत्सव ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 126 ☆ शून्योत्सव ?

शून्य उत्सव है। वस्तुतः महोत्सव है। शून्य में आशंका देखते हो, सो आतंकित होते हो। शून्य में संभावना देखोगे तो  प्रफुल्लित होगे। शून्य एक पड़ाव है आत्मनिरीक्षण के लिए। शून्य अंतिम नहीं है। वैसे प्रकृति में कुछ भी अंतिम नहीं होता। जीवन, पृथ्वी सब चक्राकार हैं। प्रकृति भी वृत्ताकार है। हर बिंदु परिधि की इकाई है और हर बिंदु में नई परिधि के प्रसव की क्षमता है। प्रसव की यह क्षमता हर बिंदु के केंद्र बन सकने की संभावना है।

यों गणित में भी शून्य अंतिम नहीं होता। वह संख्याशास्त्र का संतुलन है। शून्य से पहले माइनस है। शून्य के बाद प्लस है। माइनस में भी उतना ही अनंत विद्यमान है, जितना प्लस में। शून्य पर जल हिम हो जाता है। हिम होने का अर्थ है, अपनी सारी ऊर्जा को संचित कर काल, पात्र, परिस्थिति के अनुरूप दिशा की आवश्यकतानुसार प्रवहमान होना। शून्य से दाईं ओर चलने पर हिम का विगलन होकर जल हो जाता है। पारा बढ़ता जाता है। सौ डिग्री पारा होते- होते पानी खौलने लगता है। बाईं ओर की यात्रा में पारा जमने लगता है। एक हद तक के बाद हिमखंड या ग्लेशियर बनने लगते हैं। हमें दोनों चाहिएँ-खौलता पानी और ग्लेशियर भी। इसके लिए शून्य होना अनिवार्य है।

शून्य में गहन तृष्णा है, साथ ही गहरी तृप्ति है। शून्य में विलाप सुननेवाले नादान हैं। शून्य परमानंद का आलाप है। इसे सुनने के लिए कानों को ट्यून करना होगा। अपने विराट शून्य को निहारने और उसकी विराटता में अंकुरित होती सृष्टि देख सकने की दृष्टि विकसित करनी होगी।

स्मृति में अपनी एक रचना कौंध रही है-

शून्य अवगाहित / करती सृष्टि,

शून्य उकेरने की / टिटिहरी कृति,

शून्य के सम्मुख / हाँफती सीमाएँ,

अगाध शून्य की / अशेष गाथाएँ,

साधो…!

अथाह की / कुछ थाह मिली

या फिर शून्य ही / हाथ लगा?

शून्य के परमानंद को अनुभव करने के लिए शून्य में जाएँ। अपने अपने शून्य का रसपान करें। शून्य में शून्य उँड़ेलें, शून्य से शून्य उलीचें।…इति।

 

© संजय भारद्वाज

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 17 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 17 ??

ईसा मसीह को तत्कालीन व्यवस्था ने सूली पर चढ़ा दिया था। ईसाई धर्म की मान्यताओं के अनुसार 40 दिन बाद ईस्टर को  ईसा मसीह पुनर्जीवित हो गए। समय साक्षी है कि समाज दुर्जनों की सक्रियता नहीं अपितु सज्जनों की निष्क्रियता से अधिक प्रभावित होता है। समाज सक्रिय होकर सामने आए तो पुनर्जागरण में समय नहीं लगता। ईसा का पुनर्जीवित होना सज्जनों की एकता और एकात्मता का प्रतीक है। कहा गया है, ‘ यू आर नेवर अलोन। यू आर इटरनली कनेक्टेड विथ एवरीवन।’ 

हर त्योहार आचार और व्यवहार में एकात्मता का उदात्त दर्शन लेकर आता है। गुरुनानक जयंती को प्रकाशपर्व के रूप में मनाया जाता है। ‘एक ओंकार’ का आदर्श, ज्योति से दूसरी ज्योति प्रज्ज्वलित करना। ‘राम दी चिड़ियाँ, राम दा खेत। चुग लो चिड़ियों, भर-भर पेट,’ का गुरु नानक उवाच एकात्मता का ही एक आयाम है।

भगवान महावीर का जन्म कल्याणक उत्सव सम्यकता के दर्शन का उत्सव है।  दीपावली को उनका  निर्वाण दिवस माना जाता है। स्वामी दयानंद सरस्वती का निर्वाण भी दीपावली को ही हुआ था। अलौकिक आत्माओं का निर्वाण भी जगत को प्रकाशवान कर जाता है।

तथागत गौतम बुद्ध का तो पूरा जीवन एक अद्भुत परिक्रमा  है। उनका जन्म, ज्ञान की प्राप्ति तथा महापरिनिर्वाण एक ही दिन वैशाख पूर्णिमा को हुआ था।

एक माह के रोज़ा के बाद ईद उल फित्र  मनाई जाती है। इस अवसर पर निर्धन वर्ग को दान देने की परंपरा है ताकि वे भी ईद मना सकें। यही एकात्मता है। पारसी नववर्ष पतेती पर भी गरीबों को दान दिया जाता है। यह भी आनंद का विस्तार या एकात्मता ही है।

जन्माष्टमी भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के समय यमुना नदी उफान पर थी। वसुदेव द्वारा टोकरी में कान्हा को रखकर नदी पार करते समय  शेषनाग का अपने फन से भगवान को भीगने से बचाने की पौराणिक गाथा भी पंचमहाभूतों की एकात्मता है। वैदिक दर्शन केवल बौद्धिक चर्वण तक नहीं रुकता। यहाँ क्रियान्वयन ही कर्म है। क्रियावान ही विद्वान है। ‘य क्रियावान स: पंडित।’ यही कारण है कि कृषिकार्य में उपयोगी बैल के लिए महाराष्ट्र में बैल पोला मनाया जाता है। साक्षात कालरूप माने गये नाग के लिए जैसे नागपंचमी पूरी श्रद्धाभाव के साथ मनाई जाती है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 121 ☆ दर्द की इंतहा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख दर्द की इंतहा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 121 ☆

☆ दर्द की इंतहा

‘दर्द को भी आधार कार्ड से जोड़ दो/ जिन्हें मिल गया है दोबारा ना मिले’ बहुत मार्मिक उद्गार क्योंकि दर्द हम-सफ़र है; सच्चा जीवन-साथी है, जिसका आदि अंत नहीं। ‘दु:ख तो अपना साथी है’ गीत की ये पंक्तियां मानव में आस्था व विश्वास जगाती हैं; मानव मन को ऊर्जस्वित व संचेतन करती है। वैसे तो रात्रि के पश्चात् भोर, अमावस्या के पश्चात् पूर्णिमा व दु:ख के पश्चात् सुख का आना निश्चित है; अवश्यंभावी है। सुख-दु:ख दोनों मेहमान हैं और एक के जाने के पश्चात् दूसरा दस्तक देता है।

समय निरंतर अबाध गति से चलता रहता है; कभी रुकता नहीं। सो! जो आया है अवश्य जाएगा। इसलिए ऐ मानव! तू किसी के आने पर ख़ुशी व जाने का मलाल मत कर। ‘कर्म गति अति न्यारी’ इसके मर्म को आज तक कोई नहीं जान पाया। परंतु यह तो निश्चित् है कि ‘जो जैसा करता, वैसा ही फल पाता’ के माध्यम से मानव को सदैव सत्कर्म करने की सीख दी गयी है।

अतीत कभी लौटता नहीं; भविष्य अनिश्चित् है।  परंतु वह सदैव वर्तमान के रूप में दस्तक देता है। वर्तमान ही शाश्वत् सत्य है, शिव है और सुंदर है। मानव को सदैव आज के महत्व को स्वीकारते हुए हर पल को ख़ुशी से जीना चाहिए। चारवॉक दर्शन में भी ‘खाओ, पीओ, मौज उड़ाओ’ का संदेश निहित है। आज की युवा पीढ़ी भी इसी का अनुसरण कर रही है। शायद! इसलिए ‘वे यूज़ एंड थ्रो’, ‘लिव इन’ व ‘मी टू’ की अवधारणा के पक्षधर हैं। वे पुरातन जीवन मूल्यों को नकार चुके हैं, क्योंकि उनका दृष्टिकोण उपयोगितावादी है। वे सदैव वर्तमान में जीते हैं। संबंध-सरोकारों का उनके जीवन में कोई मूल्य नहीं तथा रिश्तों की अहमियत को भी वे नकारने लगे हैं, जिसका प्रतिफलन विकराल सामाजिक विसंगतियों के रूप में हमारे समक्ष है।

अमीर-गरीब की खाई सुरसा के मुख की भांति बढ़ती जा रही है और हमारा देश इंडिया व भारत दो रूपों में परिलक्षित हो रहा है। एक ओर मज़दूर, किसान व मध्यमवर्गीय लोग दिन-भर परिश्रम करने के पश्चात् दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाते और आकाश की खुली छत के नीचे अपना जीवन बसर करने को विवश हैं। बाल श्रमिक शोषण व बाल यौन उत्पीड़न का घिनौना रूप हमारे समक्ष है। एक घंटे में पांच बच्चे दुष्कर्म का शिकार होते हैं; बहुत भयावह स्थिति  है। दूसरी ओर धनी लोग और अधिक धनी होते जा रहे हैं, जिनके पास असंख्य सुख-सुविधाएं हैं और वे निष्ठुर, संवेदनहीन, आत्मकेंद्रित व निपट स्वार्थी हैं। शायद! इसी कारण गरीब लोग दर्द को आधार-कार्ड से जोड़ने की ग़ुहार लगाते हैं, क्योंकि व्यक्ति छल-कपट से पुन: वे सुविधाएं प्राप्त नहीं कर सकता। उनके ज़हन में यह भाव दस्तक देता है कि यदि ऐसा हो जायेगा, तो उन्हें जीवन में पुन: दर्द प्राप्त नहीं होगा, क्योंकि वे अपने हिस्से का दर्द झेल चुके हैं। परंतु इस संसार में यह नियम लागू नहीं होता। भाग्य का लिखा कभी बदलता नहीं; वह अटूट होता है। सो! उन्हें इस तथ्य को सहर्ष क़ुबूल कर लेना चाहिए कि कृत-कर्मों का फल जन्म-जन्मांतर तक मानव के साथ-साथ चलता है और उसे अवश्य भोगना पड़ता है। इसलिए सुंदर भविष्य की प्राप्ति हेतू सदैव अच्छे कर्म करें, ताकि हमारा भविष्य उज्ज्वल हो सके।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग -16 – छठ पूजा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 16 – छठ पूजा ??

छठ पूजा-

छठ या षष्ठी पूजा विशेषकर बिहार और झारखंड का सबसे बड़ा पर्व है। षष्ष्ठी माता को समर्पित  चार दिवसीय छठ पूजन  कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से कार्तिक शुक्ल सप्तमी तक चलता है।  नहाय-खाय पहला दिवस है। द्वितीय दिवस को खरना अथवा लोहंडा नाम से जाना जाता है। तीसरे दिन सूर्यास्त के समय सूर्यनारायण को अर्घ्य दिया जाता है। अंतिम दिन प्रात:काल सूर्योदय के समय सूर्यदेव को उषा अर्घ्य  देकर व्रत खोला जाता है। छठ जाग्रत देवता सूर्य की उपासना वाला पर्यावरण स्नेही त्योहार है।

केवल उगते को सलाम करने की संकुचित मनोवृत्ति के समय में यह उदात्त भारतीय दर्शन ही है जो उदय एवं अस्त दोनों समय सूर्यदेव को अर्घ्य देकर प्रणाम करता है।

विभिन्न पर्वों में एकात्मता-

भारत विविध धर्मों एवं विविध मतों से सज्जित भूभाग है। दुनिया में कहीं से कोई भी आया हो, वैदिक एकात्मता के रंग में रंँगता गया। वस्तुत: आदर्श सदा समान रहते हैं, काल, पात्र, परिस्थितिनुसार नैतिकता बदलती रहती है। स्वाभाविक है कि सबके पर्व, त्योहारों में भी विविधता हो। तब भी विविधता में वैदिक दर्शन सबको एक सूत्र में बाँधता है। यही कारण है कि अथर्ववेद कहता है,

।।मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्‌, मा स्वसारमुत स्वसा।

सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया।।2।।

(अथर्ववेद 3.30.3)

अर्थात : भाई, भाई से द्वेष न करें, बहन, बहन से द्वेष न करें, समान गति से एक-दूसरे का आदर- सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एकमत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर संभाषण करें।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 15 – दीपावली ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 15 – दीपावली ??

दीपावली भारत का सबसे बड़ा त्योहार है। अपने घर में प्रकाश करना मनुष्य की सहज और स्वाभाविक वृत्ति है किंतु घर के साथ परिसर को आलोकित करना उदात्तता है। शतपथ ब्राह्मण का उद्घोष है,

असतो मा सद्गमय

तमसो मा ज्योतिर्गमय

मृत्योर्मामृतं गमय।

तमसो मा ज्योतिर्गमय का वास्तविक अर्थ यही है।  हर दीप अपने स्तर पर प्रकाश देता है पर असंख्य दीपक सामूहिक रूप से जब साथ आते हैं तो अमावस्या दीपावली हो जाती है।

इन पंक्तियों के लेखक की दीपावली पर एक चर्चित कविता है,

अँधेरा मुझे डराता रहा,

हर अँधेरे के विरुद्ध

एक दीप मैं जलाता रहा,

उजास की मेरी मुहिम

शनै:-शनै: रंग लाई,

अनगिन दीयों से

रात झिलमिलाई,

सिर पर पैर रख

अँधेरा पलायन कर गया

और इस अमावस

मैंने दीपावली मनाई !

कथनी और करनी दो भिन्न शब्द हैं। इन दोनों का अर्थ जिसने जीवन में अभिन्न कर लिया, वह मानव से देवता हो गया। अनेक मत, संप्रदाय सामूहिक प्रयासों की बात तो कर सकते हैं पर वैदिकता ही है जो व्यष्टि के साथ समष्टि को भी दीपों से प्रभासित करती है। यह ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ केवल कहती नहीं अपितु अंधकार को प्रकाश का दान देती भी है। सामूहिकता का ऐसा क्रियावान उदाहरण दुनिया भर में मिलना कठिन है।

माना जाता है कि प्रभु श्रीराम द्वारा रावण का वध करके अयोध्या लौटने पर जनता ने राज्य में दीप प्रज्ज्वलित कर  दीपावली मनाई थे। श्रीराम सद्गुण का साकार स्वरूप हैं। रावण, तमोगुण का प्रतीक है। श्रीराम ने समाज के  हर वर्ग को साथ लेकर रावण को समाप्त किया था। तम से ज्योति की यात्रा का एक बिंब यह भी है। 

सामूहिक दीपोत्सव के रेकॉर्ड भी भारतीयों के नाम ही हैं। यह सामूहिकता, सामासिकता और एकात्मता का प्रमाणित वैश्विक दस्तावेज़ भी है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

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मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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