(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “शाही बनाम राजसी…“।)
अभी अभी # 475 ⇒ शाही बनाम राजसी… श्री प्रदीप शर्मा
कोई शेख पीर, शेक्सपीयर बनकर कह गया है, नाम में क्या रखा है, गुलाब जल कहें अथवा देशी शराब की दुकान पर मिलने वाली मौसम्मी, और संतरा परिवार की महारानी, राजस्थान की महनसर शाही गुलाब। सोमरस और कंट्री लिकर के रहते फॉरेन लिकर का गुणगान हमें कतई पसंद नहीं।
हम नहीं मानते, नाम में क्या रखा है। मुगल राज, ब्रिटिश राज और स्वराज में जमीन आसमान का अंतर है। जो कभी जम्बूद्वीप, भारतखण्ड, हिमवर्ष, अजनाभवर्ष, भारतवर्ष, आर्यावर्त, हिन्द, और हिन्दुस्तान रहा हो, उसे हम इंडिया कैसे मान लें। अंग्रेजों ने इंडिया का बंटवारा किया, भारत का नहीं, सनातन भारत तब भी एक ही था, आज भी एक है, और सदा सर्वदा के लिए अखंड भारत ही रहेगा।।
होते होंगे कभी एक सिक्के के दो पहलू, जिसकी एक और इंडिया और दूसरी ओर भारत लिखा रहता था, अब सिक्के में हेड और टेल नहीं रहेगा, दोनों ओर भारत ही अंकित रहेगा। चित भी हमारी और पट भी हमारी।
जिस तरह कुछ शब्दों से अंग्रेजियत की बू आती है, उसी तरह कुछ शब्द ऐसे हैं, जो हमें मुगलों की याद दिलाते हैं। हम ऐसी सराय, शहर, सड़क और मोहल्लों के नाम तक बदल चुके हैं, जो हमें हमारे काले अतीत की याद दिलाता है। हमें सिर्फ अपने स्वर्णिम अतीत से ही प्रेरणा लेना है, और बीती ताहि बिसार के, आगे की सुध लेना है।।
कई बरसों से एक शब्द हमारी आंखों में खटक रहा था, लेकिन मरदूद, जबान पर भी चढ़ा था। इंसान हो अथवा भोजन, दोनों में तीन गुण होते हैं, सत, रज और तम, जिसे हम सात्विक, राजसी और तामसिक कहते हैं। ईश्वर सर्वगुण संपन्न होते हुए भी राजसी गुण प्रधान है, क्योंकि वह सभी ऐश्वर्यों का स्वामी और प्रदाता है।
राजसी सुख, और राजसी भोजन की चाह किसे नहीं होती।
लेकिन हमारी गुलाम जबान देखिए, आज भी शाही पर ही अटकी हुई है। महाकाल की भी शाही सवारी और कुंभ का भी शाही स्नान। शाही ठाठबाट और शाही भोजन। चाइनीज फूड की तरह जिधर देखो उधर शाही का ही बोलबाला, शाही कोरमा और शाही टिक्का।।
शाही व्यंजनों की बात करें तो, ऐसे व्यंजन हैं जो पहले राजघरानों में पकाए गए थे, लेकिन आज हर कोई उन्हें खा सकता है।
शाही टुकड़ा अब राजसी टुकड़ा कहलाएगा, और शाही कबाब राजसी कबाब। क्या होता है यह शाही पहनावा, क्या यह राजसी नहीं हो सकता।
सरकार हो या अफसर मंत्री और अदानी अंबानी जैसे उद्योगपति, संत, महात्मा, मंडलेश्वर हों अथवा शंकराचार्य क्या किसी के राजसी ठाठ में आपको कोई कमी नज़र आती है, अगर नहीं, तो शाही को मारिए गोली और राजसी से ही काम चलाइए। हमने एक तीर से दो शिकार कर लिए, पहले सिक्के और संविधान से इंडिया को हटाया और भारत को प्रतिष्ठित किया और फिर हमारे अपने अंदाज़ को भी शाही से राजसी किया। आज ही घर में राजसी पालक पनीर बनेगा, राजसी अंदाज़ में। आज की राजसी दावत में आपका स्वागत है।।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 101 ☆ देश-परदेश – ऊपर उठो, ऊपर उठो ☆ श्री राकेश कुमार ☆
इन दकियानूसी आदतों से अब ऊपर उठ जाओ, समय के साथ चलो। दिन भर पतंग, गिल्ली डंडा खेलते रहते हो, इन को छोड़ ऊपर उठो पढ़ाई/ लिखाई कर लो, जिंदगी में कुछ बन कर दिखाओ। पूरा बचपन ये ही सब सुनते सुनते बीत गया।
पांच दशक से हमने देखा कि हम सब बहुत ऊपर उठ गए है। चटाई पर भोजन ग्रहण करने वाले अब प्रसादी भी ऊंचे टेबल कुर्सी पर ग्रहण करते हैं।
जब भोजन ऊंचाई पर करना है, तो वो भी ऊंचाई वाले प्लेटफार्म पर ही ना, बनेगा। पूर्वकाल में रात्रि जमीन पर सब चैन की नींद सोते थे, अब ऊंचे पलंग पर मोटी ऊंचाई वाले गद्दों पर नींद की गोली खा कर ही नींद प्राप्त होती हैं।
कार्यालय, दफ्तर सब में टेबल/कुर्सी सामान्य बात होती हैं। अब तो किराना, कपड़े आदि वाले दुकानदार भी तख्त छोड़ काउंटर पर व्यापार कर ऊंचे व्यक्तियों की श्रेणी में शामिल हो चुके हैं। “ऊंचे लोग ऊंची पसंद” खाने वाले ऊपर भी जल्दी ही चले जाते हैं।
विवाह के समय में अग्नि देवता के समक्ष सब कुर्सियों पर विराजमान मिलेंगे। नीचे बैठने से पतलून की क्रीज़ खराब हो जाती हैं। कोट के कपड़े का फॉल भी नहीं पता चलता हैं।
श्रद्धांजलि सभा में भी कमर की तकलीफ का हवाला देख कर कुर्सी पर बहुत सारे युवा बैठे हुए दिख जाते हैं। दिन का आरंभ डेढ़ फुट ऊंचे शौचालय पर बैठ कर करने वालों के घुटनों की रिप्लेसमेंट भी गारंटी से पूर्व समाप्त हो जाता हैं।
घुटने संबंधित रोग इसी ऊंचाई के कारण फल फूल रहें हैं। आने वाले समय में शल्य चिकत्सा में “घुटना विशेषज्ञ” एक अलग विषय बन जायेगा।
हमारे जैसे लोग इस “घुटना रोग ” से बहुत डरते है, क्योंकि हमारा दिमाग जो इन घुटनों में रहता हैं। इसलिए जमीं से जुड़े रहें, अंत में इसी जमीं का सहारा हैं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सोचकर लिखना…“।)
अभी अभी # 474 ⇒ सोचकर लिखना… श्री प्रदीप शर्मा
बिना विचारे बोलना जितना आसान है उतना ही मुश्किल है बिना सोचे कुछ लिखना। सोचने के लिए हमें क्या चाहिए, कुछ नहीं, लेकिन लिखने के लिए सिर्फ सोचना ही जरूरी नहीं, कागज कलम या कुछ तो चाहिए, जिस पर हम कुछ लिख सकें, अथवा अंकित कर सकें।
जितनी हमारी सोचने की गति है उससे कम हमारी लिखने की गति है। विचारों का क्या है चले आते हैं बादलों की तरह उमड़ घुमड़ कर, लेकिन जब लिखने का वक्त आता है, तो सिर्फ कुछ बूंदाबांदी, या कुछ अभिव्यक्त होता है कुछ नहीं होता है सब जाने कहां खो जाता है।।
लेकिन बोलते वक्त ऐसा नहीं होता, धारा प्रवाह बोला जाता है, भले ही उसका कोई अर्थ हो अथवा ना हो। घुमा फिराकर अर्थ निकाला जाता है, शब्दों को तोड़ा मरोड़ा जाता है, लेकिन अंत में बात बन ही जाती है। विशेषकर बच्चे और महिलाएं कितनी जल्दी-जल्दी बोलते हैं, कितनी जल्दी-जल्दी उनके ज़ेहन में विचार आते हैं और प्रकट भी हो जाते हैं। धारा प्रवाह बोलना कोई या तो बच्चों से सीखे अथवा महिलाओं से।
जितना आसान आजकल टेलीप्रॉम्पटर के जरिए लिखा हुआ बोलना हो गया है, उतना ही आसान, मोबाइल पर बोलकर लिखना भी हो गया है। एक जमाना था जब साहब स्टेनो को अंग्रेजी/हिंदी में डिक्टेशन देते थे और स्टेनो उसे शॉर्टहैंड में लिखकर बाद में टाइपराइटर पर टाइप करती थी /करता था।
आज की तकनीक के सहारे अगर आप सिर्फ बोल सकते हैं तो केवल बोलकर भी एक अच्छे लेखक बन सकते हैं। उसके लिए आपका लिखना पढ़ना बिल्कुल जरूरी नहीं। अगर आप एक अच्छे वक्ता हैं तो अच्छे लेखक तो हो ही गए। जिन्हें पहले बोलने में संकोच होता था वे अब बोलकर लिख सकते हैं और अपने विचारों के प्रवाह को आसानी से प्रकट कर सकते हैं।।
विचार भी बारिश की तरह होते हैं अगर आ गए तो आ गए, वरना आसमान साफ। बिस्तर में अथवा एकांत में जो विचारों की बारिश होती है वह झमाझम होती है बस उस समय अगर उनको कैद कर लिया जाए, तो कभी विचारों का अकाल ना पड़े।
आईये विचारों के जंगल में अच्छे विचारों का शिकार करें। उन्हें अपनी फेसबुक की वॉल पर सजाएं, और बुरे विचारों को सूली पर टांग दें, लिखकर अथवा बोलकर। देखें, कानून हम पर कौन सी धारा लगाता है।।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया अभियंताओ के सतत प्रेरणास्रोत।
भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया अभियंताओ के सतत प्रेरणास्रोतश्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
बदलते समय के साथ अब भारत सेमी कंडक्टर हब बनने जा रहा है. ए आई ने क्रांति की है. पर आज भी अमेरिका में सिलिकान वैली में तब तक कोई कंपनी सफल नही मानी जाती जब तक उसमें कोई भारतीय इंजीनियर कार्यरत न हो. भारत के आई आई एस सी, आई आई टी जैसे संस्थानो के इंजीनियर्स ने विश्व में अपनी बुद्धि से भारतीय श्रेष्ठता का समीकरण अपने पक्ष में कर दिखाया है.
इस तकनीकी क्रांति की नीव भारत में सर मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरैया ने एक सदी पहले डाली थी. उनका जन्मदिवस इंजीनियर्स डे के रूप में हर साल मनाया जाता है. हमारे पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने कल कारखानो को नये भारत के तीर्थ कहा था, इन्ही तीर्थौ के पुजारी, निर्माता इंजीनियर्स को आज अभियंता दिवस पर बधाई.
विगत कुछ दशको में इंजीनियर्स की छबि में गिरावट हुई, भ्रष्टाचार के घोलमाल में बढ़ोत्री हुई है, अनेक इंजीनियर्स प्रशासनिक अधिकारी या मैनेजमेंट की उच्च शिक्षा लेकर बड़े मैनेजर बन गये हैं, आइये आज इंजीनियर्स डे पर कुछ पल चिंतन करे समाज में इंजीनियर्स की इस दशा पर, हो रहे इन परिवर्तनो पर चिंतन जरूरी है.
इंजीनियर्स अब राजनेताओ के इशारो पर चलने वाली कठपुतली नही हो गये हैं क्या?
देश में आज इंजीनियरिंग शिक्षा के हजारो कालेज खुल गये हैं, लाखो इंजीनियर्स प्रति वर्ष निकल रहे हैं, पर उनमें से कितनो में वह जज्बा है जो भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया में था.
मनन चिंतन का विषय है कि क्यों इंजीनियरिंग डिग्री धारी क्लर्क की नौकरी के आवेदन करने को मजबूर हो गए हैं.
भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया का जीवन अभियंताओ के लिये सतत प्रेरणा. . .
भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया का जन्म मैसूर (कर्नाटक) के कोलार जिले के चिक्काबल्लापुर तालुक में 15 सितंबर 1860 को हुआ था. उनके पिता का नाम श्रीनिवास शास्त्री तथा माता का नाम वेंकाचम्मा था. पिता संस्कृत के विद्वान थे. विश्वेश्वरैया ने प्रारंभिक शिक्षा जन्म स्थान से ही पूरी की. आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने बंगलूर के सेंट्रल कॉलेज में दाखिला लिया. लेकिन यहां उनके पास धन का अभाव था. अत: उन्हें टयूशन करना पड़ा. विश्वेश्वरैया ने 1881 में बीए की परीक्षा में अव्वल स्थान प्राप्त किया. इसके बाद मैसूर सरकार की मदद से इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पूना के साइंस कॉलेज में दाखिला लिया. 1883 की एलसीई व एफसीई (वर्तमान समय की बीई उपाधि) की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करके अपनी योग्यता का परिचय दिया. इसी उपलब्धि के चलते महाराष्ट्र सरकार ने इन्हें नासिक में सहायक इंजीनियर के पद पर नियुक्त किया.
दक्षिण भारत के मैसूर, कर्र्नाटक को एक विकसित एवं समृद्धशाली क्षेत्र बनाने में भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया का अभूतपूर्व योगदान है. तकरीबन 55 वर्ष पहले जब देश स्वंतत्र नहीं था, तब कृष्णराजसागर बांध, भद्रावती आयरन एंड स्टील वर्क्स, मैसूर संदल ऑयल एंड सोप फैक्टरी, मैसूर विश्वविद्यालय, बैंक ऑफ मैसूर समेत अन्य कई महान उपलब्धियां एमवी ने कड़े प्रयास से ही संभव हो पाई. इसीलिए इन्हें कर्नाटक का भगीरथ भी कहते हैं. जब वह केवल 32 वर्ष के थे, उन्होंने सिंधु नदी से सुक्कुर कस्बे को पानी की पूर्ति भेजने का प्लान तैयार किया जो सभी इंजीनियरों को पसंद आया. सरकार ने सिंचाई व्यवस्था को दुरुस्त करने के उपायों को ढूंढने के लिए समिति बनाई. इसके लिए भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया ने एक नए ब्लॉक सिस्टम को ईजाद किया. उन्होंने स्टील के दरवाजे बनाए जो कि बांध से पानी के बहाव को रोकने में मदद करता था. उनके इस सिस्टम की प्रशंसा ब्रिटिश अधिकारियों ने मुक्तकंठ से की. आज यह प्रणाली पूरे विश्व में प्रयोग में लाई जा रही है.
विश्वेश्वरैया ने मूसा व इसा नामक दो नदियों के पानी को बांधने के लिए भी प्लान तैयार किए. इसके बाद उन्हें मैसूर का चीफ इंजीनियर नियुक्त किया गया.
उस वक्तराज्य की हालत काफी बदतर थी. विश्वेश्वरैया लोगों की आधारभूत समस्याओं जैसे अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी आदि को लेकर भी चिंतित थे. फैक्टरियों का अभाव, सिंचाई के लिए वर्षा जल पर निर्भरता तथा खेती के पारंपरिक साधनों के प्रयोग के कारण समस्याएं जस की तस थीं. इन समस्याओं के समाधान के लिए विश्वेश्वरैया ने इकॉनोमिक कॉन्फ्रेंस के गठन का सुझाव दिया. मैसूर के कृष्ण राजसागर बांध का निर्माण कराया.
कृष्णराजसागर बांध के निर्माण के दौरान देश में सीमेंट नहीं बनता था, इसके लिए इंजीनियरों ने मोर्टार तैयार किया जो सीमेंट से ज्यादा मजबूत था. 1912 में विश्वेश्वरैया को मैसूर के महाराजा ने दीवान यानी मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया.
विश्वेश्वरैया शिक्षा की महत्ता को भलीभांति समझते थे. लोगों की गरीबी व कठिनाइयों का मुख्य कारण वह अशिक्षा को मानते थे. उन्होंने अपने कार्यकाल में मैसूर राज्य में स्कूलों की संख्या को 4, 500 से बढ़ाकर 10, 500 कर दिया. इसके साथ ही विद्यार्थियों की संख्या भी 1, 40, 000 से 3, 66, 000 तक पहुंच गई. मैसूर में लड़कियों के लिए अलग हॉस्टल तथा पहला फर्स्ट ग्रेड कॉलेज (महारानी कॉलेज) खुलवाने का श्रेय भी विश्वेश्वरैया को ही जाता है.
उन दिनों मैसूर के सभी कॉलेज मद्रास विश्वविद्यालय से संबद्ध थे. उनके ही अथक प्रयासों के चलते मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना हुई जो देश के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक है. इसके अलावा उन्होंने श्रेष्ठ छात्रों को अध्ययन करने के लिए विदेश जाने हेतु छात्रवृत्ति की भी व्यवस्था की. उन्होंने कई कृषि, इंजीनियरिंग व औद्योगिक कालेजों को भी खुलवाया.
वह उद्योग को देश की जान मानते थे, इसीलिए उन्होंने पहले से मौजूद उद्योगों जैसे सिल्क, संदल, मेटल, स्टील आदि को जापान व इटली केविशेषज्ञों की मदद से और अधिक विकसित किया. धन की जरूरत को पूरा करने के लिए उन्होंने बैंक ऑफ मैसूर खुलवाया. इस धन का उपयोग उद्योग-धंधों को विकसित करने में किया जाने लगा. 1918 में विश्वेश्वरैया दीवान पद से सेवानिवृत्त हो गए. औरों से अलग विश्वेश्वरैया ने 44 वर्ष तक और सक्रिय रहकर देश की सेवा की. सेवानिवृत्ति के दस वर्ष बाद भद्रा नदी में बाढ़ आ जाने से भद्रावती स्टील फैक्ट्री बंद हो गई. फैक्ट्री के जनरल मैनेजर जो एक अमेरिकन थे, ने स्थिति बहाल होने में छह महीने का वक्त मांगा. जोकि विश्वेश्वरैया को बहुत अधिक लगा. उन्होंने उस व्यक्ति को तुरंत हटाकर भारतीय इंजीनियरों को प्रशिक्षित कर तमाम विदेशी इंजीनियरों की जगह नियुक्त कर दिया. मैसूर में ऑटोमोबाइल तथा एयरक्राफ्ट फैक्टरी की शुरूआत करने का सपना मन में संजोए विश्वेश्वरैया ने 1935 में इस दिशा में कार्य शुरू किया. बंगलूर स्थित हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स तथा मुंबई की प्रीमियर ऑटोमोबाइल फैक्टरी उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है. 1947 में वह आल इंडिया मैन्युफैक्चरिंग एसोसिएशन के अध्यक्ष बने. उड़ीसा की नदियों की बाढ़ की समस्या से निजात पाने के लिए उन्होंने एक रिपोर्ट पेश की. इसी रिपोर्ट के आधार पर हीराकुंड तथा अन्य कई बांधों का निर्माण हुआ.
वह किसी भी कार्य को योजनाबद्ध तरीके से पूरा करने में विश्वास करते थे. 1928 में पहली बार रूस ने इस बात की महत्ता को समझते हुए प्रथम पंचवर्षीय योजना तैयार की थी. लेकिन विश्वेश्वरैया ने आठ वर्ष पहले ही 1920 में अपनी किताब रिकंस्ट्रक्टिंग इंडिया में इस तथ्य पर जोर दिया था.
इसके अलावा 1935 में प्लान्ड इकॉनामी फॉर इंडिया भी लिखी. मजे की बात यह है कि 98 वर्ष की उम्र में भी वह प्लानिंग पर एक किताब लिख रहे थे. देशकी सेवा ही विश्वेश्वरैया की तपस्या थी. 1955 में उनकी अभूतपूर्व तथा जनहितकारी उपलब्धियों के लिए उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया. जब वह 100 वर्ष के हुए तो भारत सरकार ने डाक टिकट जारी कर उनके सम्मान को और बढ़ाया. 101 वर्ष की दीर्घायु में 14 अप्रैल 1962 को उनका स्वर्गवास हो गया. 1952 में वह पटना गंगा नदी पर पुल निर्माण की योजना के संबंध में गए. उस समय उनकी आयु 92 थी. तपती धूप थी और साइट पर कार से जाना संभव नहीं था. इसके बावजूद वह साइट पर पैदल ही गए और लोगों को हैरत में डाल दिया. विश्वेश्वरैया ईमानदारी, त्याग, मेहनत इत्यादि जैसे सद्गुणों से संपन्न थे. उनका कहना था, कार्य जो भी हो लेकिन वह इस ढंग से किया गया हो कि वह दूसरों के कार्य से श्रेष्ठ हो.
उनकी जीवनी हमारे लिये सतत प्रेरणा है.
इंजीनियर्स डे वह दिन है जब स्वयं इंजीनियर्स और समाज, राजनेता और सरकार इंजीनियर्स के हित में बड़े फैसले ले, क्योंकि देश के विकास की तकदीर लिखने वाले अभियंता ही हैं.
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 257 ☆ देहरी…
घर की देहरी पर खड़े होकर बात करना महिलाओं का प्रिय शगल है। कभी आपने ध्यान दिया कि इस दौरान अधिकांश मामलों में संबंधित महिला का एक पैर देहरी के भीतर होता है, दूसरा आधा देहरी पर, आधा बाहर। अपनी दुनिया के विस्तार की इच्छा को दर्शाता चौखट से बाहर का रुख करता पैर और घर पर अपने आधिपत्य की सतत पुष्टि करता चौखट के अंदर ठहरा पैर। मनोविज्ञान में रुचि रखनेवालों के लिए यह गहन अध्ययन का विषय हो सकता है।
अलबत्ता वे चौखट का सहारा लेकर या उस पर हाथ टिकाकर खड़ी होती हैं। फ्रायड कहता है कि जो मन में, उसीकी प्रतीति जीवन में। एक पक्ष हो सकता है कि घर की चौखट से बँधा होना उनकी रुचि या नियति है तो दूसरा पक्ष है कि चौखट का अस्तित्व उनसे ही है।
इस आँखों दिखती ऊहापोह को नश्वर और ईश्वर तक ले जाएँ। हम पार्थिव हैं पर अमरत्व की चाह भी रखते हैं। ‘पुनर्जन्म न भवेत्’ का उद्घोष कर मृत्यु के बाद भी मर्त्यलोक में दोबारा और प्रायः दोबारा कहते-कहते कम से कम चौरासी लाख बार लौटना चाहते हैं।
स्त्रियों ने तमाम विसंगत स्थितियों, विरोध और हिंसा के बीच अपनी जगह बनाते हुए मनुष्य जाति को नये मार्गों से परिचित कराया है। नश्वर और ईश्वर के द्वंद्व से मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें पहल करनी चाहिए। इस पहल पर उनका अधिकार इसलिए भी बनता है क्योंकि वे जननी अर्थात स्रष्टा हैं। स्रष्टा होने के कारण स्थूल में सूक्ष्म के प्रकटन की अनुभूति और प्रक्रिया से भली भाँति परिचित हैं। नये मार्ग की तलाश में खड़ी मनुष्यता का सारथ्य महिलाओं को मिलेगा तो यकीन मानिए, मार्ग भी सधेगा।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
गणेश चतुर्थी तदनुसार आज शनिवार 7 सितम्बर को आरम्भ होकर अनंत चतुर्दशी तदनुसार मंगलवार 17 सितम्बर 2024 तक चलेगी।
इस साधना का मंत्र है- ॐ गं गणपतये नमः।
साधक इस मंत्र के मालाजप के साथ ही कम से कम एक पाठ अथर्वशीर्ष का भी करने का प्रयास करें। जिन साधकों को अथर्वशीर्ष का पाठ कठिन लगे, वे कम से कम श्रवण अवश्य करें।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पञ्च तन्त्र…“।)
अभी अभी # 473 ⇒ पञ्च तन्त्र… श्री प्रदीप शर्मा
PUNCH TANTRA
हम यहां पंच तत्व की नहीं पंचतंत्र की बात कर रहे हैं । बोलचाल की भाषा में पंच का मतलब पांच ही होता है,और तंत्र के कई मतलब हो सकते हैं:
तंत्र एक व्यवस्थित पाठ, सिद्धांत, प्रणाली, विधि, उपकरण, तकनीक, या अभ्यास हो सकता है.
तंत्र एक प्रक्रिया है जिससे मन और आत्मा को बंधन मुक्त किया जा सकता है. ऐसा माना जाता है कि इस प्रक्रिया से शरीर और मन शुद्ध होते हैं और ईश्वर का अनुभव करने में मदद मिलती है ।
जहां तक पंचतंत्र का प्रश्न है,पंचतंत्र [सं॰ पञ्चतन्त्र] संस्कृत की एक प्रसिद्ध पुस्तक ,जिसमें विष्णुगुप्त द्वारा नीतिविषयक कथाओं का संग्रह है । इसमें पाँच तंत्र हैं जिनके नाम क्रमशः मित्रलाभ, सुहृदभेद, काकोलूकीय, लब्धप्रणाश ओर अपरीक्षित कारक हैं ।।
तंत्र आप व्यवस्था को भी कह सकते हैं । आखिर लोकतंत्र का मतलब “लोगों की, लोगों द्वारा और लोगों के लिए” सरकार ही तो है। हमारी दृष्टि लोकतंत्र में पंचतंत्र को ढूंढ रही है । हमारा पंच तंत्र भी इन पांच तत्वों से ही मिलकर बना है ;
हास्य (humour), व्यंग्य (satire), व्यंग्योक्ति (irony), हंसी (laughter) और विनोद (pun). यहां pun का हिन्दी में मतलब है किसी शब्द या वाक्यांश का विनोदपूर्ण तरीके से इस्तेमाल करना । श्लेष, यमक, श्लेषालंकार, अनेकार्थी शब्द भाषा में रोचकता बनाए रखते हैं ।
पंच इन पांच तंत्रों का ऐसा गुलदस्ता है,जो हास्य और व्यंग्य को और अधिक रोचक और मारक बनाता है । पंच प्रहार को भी कहते हैं । शब्दों के प्रहार से कौन बच पाया है ।।
हास्य और व्यंग्य दोनों की जान है पंच,यानी शब्दों का ऐसा प्रहार शब्दों की ऐसी बौछार की तन मन भीग भी जाए और पाठक की मस्ती भी कायम रहे ।
विसंगति पर प्रहार ही तो पंच है । परसाई शरद जोशी और श्रीलाल शुक्ल के व्यंग्य में पंच ही तो उनकी रोचकता और प्रहार की क्षमता की जान है । लोकतंत्र आज अगर चैन की सांस ले पा रहा है तो उसका श्रेय हास्य और व्यंग्य की दुनिया में पंचतंत्र को ही दिया जा सकता है । प्रहार ही पंच है ।।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – हिन्दी वैधानिक स्थितियां।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 302 ☆
राजभाषा दिवस विशेष – हिन्दी वैधानिक स्थितियांश्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
हिन्दी दिवस १४ सितम्बर को क्यों ?
1947 में जब भारत को आजादी मिली तो देश के सामने राजभाषा के चुनाव को लेकर गहन चर्चायें हुई. भारत में अनेकों भाषाएं और बोलियां बोली जाती हैं, ऐसे में राष्ट्रभाषा के रूप में किसे चुना जाए ये संवेदनशील सवाल था. व्यापक मंथन के बाद संविधान सभा ने देवनागरी लिपी में लिखी हिन्दी को राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के तौर पर स्वीकार किया. भारत के संविधान में भाग 17 के अनुच्छेद 343 (1) में कहा गया है कि राष्ट्र की राज भाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी. 14 सितम्बर, 1949 को हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया था. इसीलिये राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की अनुशंसा के बाद से 1953 से हर साल 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाने लगा. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस दिन के महत्व देखते हुए प्रति वर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाए जाने की घोषणा की थी.
विश्व हिन्दी दिवस १० जनवरी को क्यों ?
हिन्दी आज विश्व में तीसरे नम्बर पर बोले जाने वाली भाषा बन चुकी है. भारतीय विश्व के कोने कोने में बिखरे हुये हैं. वैश्विक स्तर पर हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिये विश्व हिन्दी सम्मेलनों की शुरुआत की गई और प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन 10 जनवरी 1975 को नागपुर में आयोजित हुआ था. इसीलिए इस दिन को विश्व हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है.
हिन्दी की वैधानिक स्थितियां
चुंकि जब अंग्रेज गये तब सरकारी काम काज प्रायः अंग्रेजी में ही होते थे, रातों रात सारा हिन्दीकरण संभव नहीं था अतः अंग्रेजी में कामकाज यथावत जारी रहे. इसके चलते हिन्दी और अंग्रेजी के बारे में यह भ्रम व्याप्त है कि ये दोनों भारत संघ की सह-राजभाषाएँ हैं. वास्तविक सांविधानिक स्थिति बिल्कुल भिन्न है. संविधान में कहीं भी अंग्रेजी को राजभाषा नहीं कहा गया है. संविधान में अंग्रेजी के लिए प्रयुक्त शब्द हैं ” the language for the time being authorised for use in the Union for official purposes. ” संविधान ने कहा कि अंग्रेजी अगले पन्द्रह वर्ष तक राजकीय प्रयोजन के लिए साथ साथ प्रयुक्त होगी, तब तक संपूर्ण रूप से हिन्दी अपना ली जायेगी किन्तु दलगत तथा क्षेत्रीय राजनीति के चलते ये पंद्रह बरस अब तक खिंचते ही जा रहे हैं.
अनुच्छेद 344 में मुख्यत: छ: संदर्भों को रेखांकित किया गया है-
राष्ट्रपति द्वारा पाँच वर्ष की समाप्ति पर भारत की विभिन्न भाषाओं के सदस्यों के आधार पर एक आयोग गठित किया जाएगा और आयोग राजभाषा के संबंध में कार्य-दिशा निर्धरित करेगा.
हिंदी के उत्तरोत्तर प्रयोग पर बल दिया जाएगा. देवनागरी के अंकों के प्रयोग होंगे. संघ से राज्यों के बीच पत्राचार की भाषा और एक राज्य से दूसरे राज्य से पत्राचार की भाषा पर सिफारिश होगी. आयोग के द्वारा औद्योगिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक उन्नति के साथ लोक-सेवाओं में हिंदीतर भाषी क्षेत्रों के न्यायपूर्ण औचित्य पर ध्यान रखा जायेगा.
राजभाषा पर विचारार्थ तीस सदस्यों की एक समिति का गठन किया जाएगा जिसमें 20 लोक सभा और 10 राज्य सभा के आनुपातिक सदस्य एकल मत द्वारा निर्वाचित होंगे.
समिति राजभाषा हिंदी और नागरी अंक के प्रयोग का परीक्षण कर राष्ट्रपति को प्रतिवेदन प्रस्तुत करेगी. राष्ट्रपति के द्वारा आयोग के प्रतिवेदन पर विचार कर निर्देश जारी किया जाएगा.
अनुच्छेद 345, 346 और 347 में विभिन्न राज्यों की प्रादेशिक भाषाओं के विषय में भी साथ-साथ विचार किया गया है.
अनुच्छेद 345 में प्रावधान है कि राज्य के विधान मण्डल द्वारा विधि के अनुसार राजकीय प्रयोजन के लिए उस राज्य में प्रयुक्त होने वाली भाषा या हिंदी भाषा के प्रयोग पर विचार किया जा सकता है. इस संदर्भ में यह भी स्पष्ट किया गया है कि जब तक किसी राज्य का विधन मंडल ऐसा प्रावधान नहीं करेगा, तब तक कार्य पूर्ववत अंग्रेजी में चलता रहेगा.
अनुच्छेद 346 के अनुसार संघ में राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त भाषा यदि दो राज्यों की सहमति पर आपस में पत्राचार के लिए उपयोगी समझते हैं, तो उचित होगा. यदि दो या दो से अधिक राज्य आपस में निर्णय लेकर राजभाषा हिंदी को संचार भाषा के रूप में अपनाते हैं, तो उचित होगा.
अनुच्छेद 347 कहता है कि यदि किसी राज्य में जनसमुदाय द्वारा किसी भाषा को विस्तृत स्वीकृति प्राप्त हो और राज्य उसे राजकीय कार्यों में प्रयोग के लिए मान्यता दे, और राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल जाए, तो उक्त भाषा का प्रयोग मान्य होगा.
अनुच्छेद 348 में उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों की भाषा पर विचार किया गया है. यहाँ यह प्रावधान है कि जब तक संसद विधि द्वारा उपबंध न करे, तब तक कार्य अंग्रेजी में ही होता रहेगा. इसके अंतर्गत उच्चतम न्यायालय, प्रत्येक उच्च न्यायालय के कार्य क्षेत्र रखे गए.
हिन्दी प्रयोग के लिए संसद के दोनों सदनों से प्रस्ताव पारित होना चाहिए. अधिनियम संसद या राज्य विधान मंडल से पारित किए जाएं और राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा स्वीकृति मिले. यह प्रस्ताव विधि के अधीन और अंग्रेजी में होंगे. नियमानुसार स्वीकृति के बाद हिंदी का प्रयोग संभव होगा, किंतु उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय या आदेश पर लागू नहीं होगा.
अनुच्छेद 349 में प्रावधान है कि संविधान के प्रारंभिक 15 वर्षों की कालावधि तक संसद के किसी सदन से पारित राजभाषा संबंधित विधेयक या संशोधन बिना राष्ट्रपति की मंजूरी के स्वीकृत नहीं होगा. ऐसे विधेयक पर राजभाषा संबंधित तीस सदस्यीय आयोग की स्वीकृति के पश्चात्, राष्ट्रपति विचार कर स्वीकृति प्रदान करेंगे.
अनुच्छेद 350 के प्रावधानो के अनुसार विशेष निर्देशों को व्यवस्थित किया गया है. इसके अनुसार कोई भी व्यक्ति अपनी समस्या को संघ और राज्य के पदाधिकारियों को संबंधित मान्य भाषा में आवेदन कर सकेगा. इस तरह प्रत्येक व्यक्ति को अधिकृत भाषा में संघ या राज्य के अधिकारियों से पत्र-व्यवहार का अवसर दिया गया है.
अनुच्छेद 351 में भारतीय संविधान की अष्टम सूची में स्थान प्राप्त भाषाओं को महत्व दिया गया है. हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार से भारत की सामाजिक संस्कृति को अभिव्यक्ति मिलने का संकेत है. हिंदी भाषा को मुख्यत: संस्कृत शब्दावली के साथ अन्य भाषाओं के शब्दों से समृद्ध करने का संकेत भी इस अनुच्छेद में किया गया है.
हिन्दी के साथ साथ उपयोग हेतु राष्ट्रपति के आदेश
भारत संघ में राजभाषा हिंदी के कार्यान्वयन के लिए राष्ट्रपति के द्वारा समय-समय पर आदेश जारी किए गए हैं. 1952 का आदेश उल्लेखनीय है जिसमें राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 343(2) के अधीन 27 मई, 1952 को एक आदेश जारी किया जिसमें संकेत था कि राज्य के राज्यपाल, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति पत्रों में अंग्रेजी के साथ साथ हिंदी और अंक नागरी लिपि में हों.
राजभाषा आयोग की स्थापना सन् 1955 में हुई. आयोग के तीस सदस्यों द्वारा राजभाषा संदर्भ में निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किए गए-
त्वरित गति से हिन्दी के पारिभाषिक शब्द-निर्माण हों.
14 वर्ष की आयु तक प्रत्येक विद्यार्थी को हिंदी भाषा की शिक्षा दी जाए.
माध्यमिक स्तर तक भारतीय विद्यार्थियों को हिंदी शिक्षण अनिवार्य हो.
इसमें से प्रथम सिफारिश मान ली गई. अखिल भारतीय और उच्चस्तरीय सेवाओं में अंग्रेजी जारी रखी गई. सन् 1965 तक अंग्रेजी को प्रमुख और हिंदी को गौण रूप में स्वीकृति मिली. 45 वर्ष से अधिक उम्र के कर्मचारियों को हिंदी- प्रशिक्षण की छूट दी गई.
1955 के राष्ट्रपति के आदेश के अनुसार संघ के सरकारी कार्यों में अंग्रेजी के साथ हिंदी प्रयोग करने का निर्देश किया गया. जनता से पत्र-व्यवहार, सरकारी रिपोर्ट का पत्रिकाओं और संसद में प्रस्तुत, जिन राज्यों ने हिंदी को अपनाया है, उनसे पत्र-व्यवहार, संधि और करार, अन्य देशों उनके दूतों अंतर्राष्ट्रीय संगठनों से पत्र-व्यवहार, राजनयिक अधिकारियों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में भारत के प्रतिनिधियों द्वारा जारी औपचारिक विवरण सभी कार्य अंग्रेजी और हिन्दी दोनो भाषाओ में किये जाने के निर्देश दिये गये.
1960 में राष्ट्रपति द्वारा राजभाषा आयोग के प्रतिवेदन पर विचार कर निम्न निर्देश जारी किए गए थे-
वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली के निर्माणार्थ शिक्षा मंत्रालय के अधीन एक आयोग स्थापित किया जाए. शिक्षा मंत्रालय, सांविधिक नियमों आदि के मैनुअलों की एकरूपता निर्धरित कर अनुवाद कराया जाए. मानक विधि शब्दकोश, हिंदी में विधि के अधिनियम और विधि-शब्दावली निर्माण, हेतु कानून विशेषज्ञों का एक आयोग बनाएँ. तृतीय श्रेणी के कर्मचारियों को छोड़, 45 वर्ष तक की उम्र वाले कर्मचारियों को हिंदी प्रशिक्षण अनिवार्य किया जावे. गृह मंत्रालय हिंदी आशुलिपिक, हिंदी टंकण प्रशिक्षण योजना बनाए.
1963 का राजभाषा अधिनियम : 26 जनवरी, 1965 को पुन: आगामी 15 वर्षों तक अंग्रेजी को पूर्ववत् रखने का प्रावधान कर दिया गया. हिंदी-अनुवाद की व्यवस्था पर जोर दिया गया. उच्च न्यायालयों के निर्णयों आदि में अंग्रेजी के साथ हिंदी या अन्य राजभाषा के वैकल्पिक प्रयोग की छूट दी गई. इससे अंग्रेजी का वर्चस्व बना रहा. देश को एकता के सूत्र में बाँधने वाली हिंदी को वह स्थान नहीं मिल सका जो राजभाषा से अपेक्षा थी.
वर्ष 1968 में संविधान के राजभाषा अधिनियम को ध्यान में रखकर संसद के दोनों सदनों द्वारा विशेष संकल्प पारित किया. इसमें विचार रखे गए-
हिंदी प्रचार-प्रसार का प्रयत्न किया जाएगा और प्रतिवर्ष लेखा-जोखा संसद के पटल पर रखा जाएगा.
आठवीं सूची की भाषाओं के सामूहिक विकास पर राज्य सरकारों से परामर्श और योजना-निर्धारण.
त्रिभाषा-सूत्र पालन करना.
संघ लोक-सेवा आयोग की परीक्षाओं में अंग्रेजी के साथ हिंदी और आठवीं सूची की भाषाओं को अपनाना.
कार्यालयों से जारी होने वाले सभी दस्तावेज हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में हों. संसद के दोनों सदनों में प्रस्तुत किए जाने वाले सरकारी पत्र आदि अनिवार्य रूप से हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में हों.
राजभाषा हिंदी कार्यान्वयन के लिए देश को भाषिक धरातल पर तीन भागों में बाँटा गया-
‘क’ क्षेत्र- बिहार, हरियाणा, हिमाचल, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और दिल्ली.
‘ग’ क्षेत्र- भारत के अन्य क्षेत्र-बंगाल, उड़ीसा, आसाम, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडू, कर्नाटक, केरल आदि.
इस अधिनियम के अनुसार केद्र सरकार द्वारा ‘क’ क्षेत्र अर्थात हिन्दी बैल्ट से पत्र-व्यवहार हिंदी से ही होगा. यदि अंग्रेजी में पत्र भेजा गया, तो उसके साथ हिंदी अनुवाद अवश्य होगा. ‘ख’ क्षेत्र से पत्र-व्यवहार हिंदी के साथ अंग्रेजी में भी होगा. ‘ग’ क्षेत्र से पत्र-व्यवहार अंग्रेजी में हो सकता है.
इन स्थितियों में आजादी के अमृत महोत्सव के बाद भी हम हिन्दी के अधूरे राजभाषा स्वरूप में हिन्दी दिवस मना रहे हैं. प्रधानमंत्री ने दासता के सारे चिन्हों से मुक्त होने का आव्हान किया है, राजपथ का नाम करण कर्त्व्य पथ हो चुका है, अब हम भारत वासियों और हिन्दी प्रेमियों का कर्तव्य है कि हम अंग्रेजी की दासता से मुक्त होकर हिन्दी को उसकी संपूर्णता में कब तक और कैसे अपनाते हैं.
भोपाल से हिंदी को लेकर प्रयास
दसवां विश्व हिंदी सम्मेलन भोपाल में आयोजित हुआ था.
हिंदी साहित्य के अनेकानेक पुरस्कार और सम्मान भोपाल से हिंदी भवन, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, म प्र साहित्य अकादमी, लेखक संघ, दुष्यंत संग्रहालय, माधव राव सप्रे संग्रहालय सहित कई निजी संस्थाएं भी प्रति वर्ष दे रही हैं. रवींद्र नाथ टैगोर विश्व विद्यालय भोपाल वैश्विक स्तर पर विश्व रंग का आयोजन कर रहा है. श्री संतोष चौबे जी ने अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार स्थापित करने, तथा जिस तरह अंग्रेजी की जी आर ई, टाफेल परीक्षा होती है, उसी तरह हिंदी की योग्यता परीक्षा की योजना बनाई है.
हिंदी को लेकर सतत काम हो रहे हैं. हिंदी को राष्ट्र व्यापी रूप से जनता और सरकारी समर्थन की दरकार है.
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मित्र को पत्र…“।)
अभी अभी # 473 ⇒ मित्र को पत्र… श्री प्रदीप शर्मा
याद नहीं आता पिछले 30 वर्षों में मैने किसी मित्र को पत्र लिखा हो। स्कूल के दिनों में हिंदी के आचार्य व्याकरण के अलावा दीपावली और गाय पर निबंध और मित्र को पत्र अवश्य लिखवाते थे। कॉलेज आते-आते कुछ साथी प्रेम पत्र लिखना भी सीख गए और हमारे जैसे लोग संपादक के नाम पत्र ही लिखते रह गए।
इस दिल के टुकड़े हजार हुए कोई यहां गिरा कोई वहां गिरा। यार दोस्त भी दिल के टुकड़े ही तो होते हैं। कबीर साहब ने शायद दोस्तों के बारे में ही यह कहा होगा ;
पत्ता टूटा डार से
ले गई पवन उड़ाय।
अब के बिछड़े कब मिलेंगे
दूर पड़ेंगे जाय।।
जिन दोस्तों का पता था उनसे कुछ अर्से तक तो पत्र व्यवहार होता रहा, टेलीफोन का जमाना तो वह था नहीं, बस खतों के जरिए ही दिल की प्यास बुझा ली जाती थी।
खतों का सिलसिला हमेशा दो तरफा होता है एकांगी नहीं, अगर एक भी मित्र ख़त का जवाब नहीं देता तो वह कड़ी आगे जाकर टूट जाती है। मेरे बैंक के एक अंतरंग मित्र और सहयोगी जब ट्रांसफर होकर अपने होम टाउन चले गए तो उनसे पत्र व्यवहार का सिलसिला शुरू हुआ। पहल उन्होंने ही की पोस्टकार्ड के जरिए। बड़े भावुक मित्र थे और निहायत शरीफ इंसान। पंकज मलिक और के सी डे के गीत इतनी तन्मयता से गाते थे कि उनके लिए जगमोहन के ये शब्द सार्थक सिद्ध होते प्रतीत होते हैं ;
दिल को है तुमसे प्यार क्यों
ये न बता सकूँगा मैं
ये न बता सकूंगा मैं ….
कहने का आशय यही कि उन्हें मुझसे आत्मीय प्रेम था। मैं कभी उनके खतों का जवाब देता कभी नहीं देता, कारण एकमात्र आलस्य। उन्होंने जवाबी पोस्ट कार्ड भेजना शुरू कर दिया लेकिन फिर भी मैं आदत से मजबूर उस पत्र व्यवहार के सिलसिले को जारी नहीं रख पाया।।
आज फोन है मोबाइल है इंटरनेट है। पुराने दोस्तों से संपर्क बहुत आसान है फिर भी वह बात नहीं जो पहले थी। उम्र का तकाजा कहें अथवा मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। ऐसी स्थिति में एक आशा की किरण केवल फेसबुक के आभासी मित्रों में ही नजर आती है। मित्रों की सूची लंबी है शुभचिंतकों की भी कमी नहीं। दिल बहलाने के लिए ग़ालिब ख्याल अच्छा है।
आत्मीय प्रेम और स्वस्थ संवाद ही आज की जरूरत है। जितने दूर उतने पास, और जो जितना करीब है वह उतना ही दूर नजर आता है। लोग कहते हैं ताली दो हाथ से बजती है, काश ताली बजाते ही, अलादीन के चिराग की तरह, दोस्त हाजिर हो जाते। जो जहां जितना है, पर्याप्त है। फिल्मी ही सही, लेकिन अभिव्यक्ति कितनी सही है ;
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख प्रतिभा, ख्याति, मनोवृत्ति और घमंड। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 249 ☆
☆ प्रतिभा, ख्याति, मनोवृत्ति और घमंड ☆
‘प्रतिभा प्रभु-प्रदत्त व जन्मजात मनोवृत्ति होती है। ख्याति समाज से मिलती है, आभारी रहें, लेकिन मनोवृत्ति व घमंड स्वयं से मिलता हैं, सावधान रहें’ में सुंदर, सार्थक व अनुकरणीय संदेश निहित है। प्रभु सृष्टि-नियंता है, सृष्टि का जनक, पालक व संहारक है। जो भी हमें दिखाई पड़ता है, वह ईश्वर द्वारा मिलता है और जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पृथ्वी, जल, वायु, वनस्पतियाँ आदि सब सर्व-सुलभ हैं। इनके लिए हमें कोई मूल्य चुकाना नहीं पड़ता। इसी प्रकार प्रतिभा भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी मानव में संचरित होती है। सो! हमें उसकी सत्ता के सम्मुख सदैव नत-मस्तक रहना चाहिए।
ख्याति मानव को समाज द्वारा प्राप्त होती है। चंद लोगों को यह उनके श्रेष्ठ व शुभ कार्यों के एवज़ में प्राप्त होती है, जिन्हें युग-युगांतर तक तक स्मरण रखा जाता है। परंतु आजकल विपरीत चलन प्रचलित है। आप पैसा खर्च करके दुनिया की हर वस्तु प्राप्त कर सकते हैं, ऊंचे से ऊंचे मुक़ाम पर पहुंच सकते हैं। इसके लिए न आप में देवीय गुणों की आवश्यकता है, ना परिश्रम की दरक़ार है। आप पैसे के बल पर शौहरत पा सकते हैं, ऊँचे से ऊँचे पद पर आसीन हो सकते हैं तथा सारी दुनिया पर राज्य कर सकते हैं।
पैसा अहं पूर्ति का सर्वोत्तम साधन है। यदि आपको अपने गुणों के कारण समाज में ख्याति प्राप्त हुई है, तो आपको उनका आभारी रहना चाहिए। परंतु आजकल लोग रातों-रात स्टार बनना चाहते हैं; प्रसिद्धि प्राप्त कर दूसरों को नीचा दिखा संतोष पाना चाहते हैं। वास्तव में इसमें स्थायित्व नहीं होता। यह पलक झपकते समाप्त हो जाती है और मानव अर्श से फर्श पर आन गिरता है। एक अंतराल के पश्चात् जब लोग उसके निहित स्वार्थ व माध्यमों से अवगत होते हैं तो वे स्वत: अपनी नज़रों से गिर जाते हैं और लोगों की घृणा का पात्र बनते हैं। वैसे भी जो वस्तु हमें बिना परिश्रम के सुलभ हो जाती है, उसका मूल्य नहीं होता और हम उसके महत्व को नहीं स्वीकारते। सो! जीवन में जो कुछ हमें अथक परिश्रम से प्राप्त होता है, वह अक्षुण्ण होता है और हमें उसके एवज़ में समाज में अहम् स्थान प्राप्त होता है। वैसे भी समय से पहले व भाग्य से अधिक हमें कुछ भी उपलब्ध नहीं होता व समय से पूर्व अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। माली सींचत सौ घड़ा, ऋतु आय फल होय अर्थात् अधिक सिंचन करने से भी हमें यथासमय फल की प्राप्ति होती है।
सो! निष्काम कर्म करते रहिए, क्योंकि फल की इच्छा करना कारग़र नहीं होता।आत्म-संतोष सर्वश्रेष्ठ है और जिस व्यक्ति के पास यह अमूल्य संपदा है, वह कभी दुष्कर्म अर्थात् कुकृत्य की ओर प्रवृत्त नहीं हो सकता। वह सत्य की राह पर चलता रहता है। सत्य का प्रभाव लंबे समय तक जलता रहता है, भले ही परिणाम देरी से प्राप्त हो। यह शुभ व कल्याणकारी होता है। जो सत्य व शिव है, दिव्य सौंदर्य से आप्लावित होता है और सुंदर होता है। उसमें केवल भौतिक व क्षणिक सौंदर्य नहीं होता, अलौकिक सौंदर्य से भरपूर होता है। वह केवल हमारे नेत्रों को ही नहीं, मन व आत्मा को भी परितृप्त करता है। इसलिए हमें सदैव ईश्वर के सम्मुख नतमस्तक रहना चाहिए, सर्वगुण-संपन्न है और किसी भी पल कोई भी करिश्मा दिखा सकता है। वैसे इंसान को ख्याति प्रभु कृपा से प्राप्त होती है, परंतु इसमें समाज का योगदान भी होता है। सो! हमें उनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए।
जहाँ तक मनोवृति व घमंड का संबंध है, उसके लिए हम स्वयं उत्तरदायी होते हैं। हमारी सोच हमारे भविष्य को निर्धारित करती है, क्योंकि हम अपनी सोच के अनुकूल कार्य करते हैं, लोगों के बारे में निर्णय लेते हैं, जो राग-द्वेष के अनुकूल कार्य करते हैं; लोगों के बारे मेएं निर्णय लेते हैं, जो सदैव स्व-पर की निकृष्ट भावनाओं में लिप्त रहते हैं। संसार में हर चीज़ की अति बुरी होती है। आवश्यकता से अधिक प्रेम व ईर्ष्या-द्वेष भी हमें पतन की ओर ले जाते हैं और अधिक धन व प्रतिष्ठा हमें पथ-विचलित कर देते हैं। अहं हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। इसका त्याग करने पर ही हम सामान्य जीवन जी सकते हैं। इसके लिए सकारात्मक अपेक्षित है। ‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि’ अर्थात् सौंदर्य देखने वाले की नज़रों में होता है। वह व्यक्ति या वस्तु में नहीं होता। अहं हमारे मन के उपज है। इससे हमारे अंतर्मन में दूसरों के प्रति उपेक्षा व घृणा भाव उपजता है तथा यह हमें निपट अकेला कर देता है। इस स्थिति में कोई भी हमारे साथ रहना पसंद नहीं करता। पहले हम अहंनिष्ठ दूसरों के प्रति उपेक्षा भाव दर्शाते हैं; एक अंतराल के पश्चात् उनके पास हमारे लिए समय नहीं होता, जो हमें आजीवन एकांत की त्रासदी झेलने को विवश कर देता है।
आधुनिक युग में एकल परिवार व्यवस्था में पति-पत्नी में अति-व्यस्तता के कारण उपजता अजनबीपन का एहसास बच्चों को माता-पिता के प्यार प्यार-दुलार से महरूम कर देता है। वे नैनी के आश्रय में पलते-बढ़ते हैं और युवावस्था में उनके कदम ग़लत राहों की ओर अग्रसर हो जाते हैं। वे अपने-अपने द्वीप में कैद होकर रह जाते हैं तथा संबंध-सरोकारों की परिभाषा से अनजान रहते हैं। इन विषम स्थितियों में माता-पिता के पास प्रायश्चित् के अतिरिक्त अन्य विकल्प नहीं होता। अंत में मैं यही कहना चाहूंगी कि जो प्रभुकृपा से प्राप्त है, सत्यम् शिवम् सुंदरम् से आप्लावित है, मंगलकारी होता है, अनुकरणीय होता है और जो हमारे बपौती नहीं होता है। वह हमें उस दोराहे व अंधी गली पर लाकर खड़ा कर देता है, जहां से लौटने का कोई मार्ग दिखाई नहीं पड़ता। सो! परमात्मा की स्जित प्रकृति में आक्षेप व व्यवधान उत्पन्न करना सदैव विनाशकारी होता है, जो हमारे समक्ष है। जंगलों को काटकर कंक्रीट के भवन बनाना, कुएँ, बावरियों, तालाबों व नदियों को प्लास्टिक आदि से प्रदूषण करना, मानव को स्वयं को सुप्रीम सत्ता समझ दूसरों के अधिकारों का हनन करना तथा आधिपत्य जमाना– उनका परिणाम हर दिन आने वाले तूफ़ान, सुनामी की दुर्घटनाएं ग्लोबल वार्मिंग आदि के रूप में हमारे समक्ष हैं, जिसका समाधान प्रकृति की ओर लौट जाने में निहित है। आत्मावलोकन करना, सुरसा के मुख की भांति बढ़ती इच्छाओं पर अंकुश लगाना, सबको समान दृष्टि से देखना, हम को विलीन करने आदि से हम समाज व विश्व में समन्वय व संमजस्यता ला सकते हैं। अंत में सिसरो के इस कथन द्वारा ‘मानव की भलाई के सिवाय और किसी अन्य कर्म द्वारा मनुष्य ईश्वर के इतने निकट नहीं पहुँच सकते ।’परहित सरिस धर्म नहीं कोई’ को हमें जीवन के मूलमंत्र के रूप में अपनाना चाहिए।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हुस्न और इश्क…“।)
अभी अभी # 472 ⇒ हुस्न और इश्क… श्री प्रदीप शर्मा
ऐ हुस्न ज़रा जाग, तुझे इश्क जगाए !और अगर हुस्न नहीं जागे, तो इश्क क्या करे। बस, ठंडी आहें भरे। हुस्न जब सोता है, बड़ा मासूम होता है। जागता है, सीधा आईने के पास जाता है। आइना नहीं, हुस्न नहीं। आईने की कोई सूरत नहीं होती, हुस्न को अपनी ही सूरत पर गुमान होता है, गुरूर होता है। हुस्न को यकीन है, आइना झूठ नहीं बोलता।
अगर हुस्न जाग जाए, और इश्क सो जाए, तो इश्क को कौन जगाए। हुस्न एक आग है, जिसमें वह खुद नहीं जलता। सुबह का सूरज उसी हुस्न की एक आग है। वह एक ऐसा आफताब है, जिसे देख कुदरत अंगड़ाई लेती है। इश्क जाग उठता है। इश्क सुबह के सूरज की इबादत करता है। फूल खिलते हैं, कलियां मुस्कुराती हैं, भंवरे गुनगुनाते हैं। हुस्न का जलवा ही सूर्योदय है।।
जैसे जैसे सूरज आसमान पर चढ़ता है, उसका हुस्न परवान चढ़ता है। वह तपकर आग का गोला हो जाता है। हमने जलवा दिखाया तो जल जाओगे। आप उस जलवे से आंख नहीं मिला सकते। हुस्न की आग से नज़रें मिलाई नहीं जाती, नजर झुकाकर भी इश्क किया जाता है।
हुस्ने जाना इधर आ, आइना हूं मैं तेरा। इश्क हुस्न को परदे में रखना चाहता है, उसे पूजना चाहता है। उसके हुस्न को किसी की नजर ना लगे, उसे ताले में बंद करना चाहता है। घूंघट के पट खोल रे, तुझे पिया मिलेंगे। जो हुस्न आग है, आफताब है, पाक साफ है, क्या उससे नज़रें मिलाना इतना आसान है।।
बाल कृष्ण ने मिट्टी क्या खाई, माता यशोदा ने गुस्से में जो नंदलाला का मुंह खोला, तो होश खो बैठी। वहां कृष्ण की लीला थी या जलवा था। माया अपना काम कर गई। यशोदा जान तो गई, लेकिन किसी को बताने की स्थिति में भी नहीं रही।
अर्जुन ने भी देखा था सारथी नटवर श्रीकृष्ण के हुस्न का जलवा कुरुक्षेत्र में, जब वह शस्त्र छोड़, शरणागत हो गया था।
कृष्ण का विराट स्वरूप जब सामने आया तो होश उड़ गए।।
हुस्न से चांद भी शरमाया है।
सूरज अगर आग है तो चंद्रमा शीतलता का प्रतीक ! चंद्रमा की अपनी कोई रोशनी नहीं। सूरज की ही परछाई है वह। ये जमीं चांद से बेहतर नजर आती है हमें। चांद से बेहतर ही है यह जमीं, क्योंकि यहां सूरज की रोशनी है, जीवन है, प्राण है, प्रेम है, शांति है। जहां भी तेज है, ओज है, रोशनी है, प्रकाश है, सब सूरज का ही जलवा है। हुस्न के कई रूप हैं, कई रंग हैं। कोई सच्चा आशिक ही उसको पहचान पाता है।
सुंदरता में प्रेम है, भक्ति है, समर्पण है। सब में रब तो बाद में होगा, क्यों न सब रब में ही समा जाए। पहले किसी से दिल तो लगे, फिर शुरू हो दिल्लगी। हुस्न का जलवा हो, तो हम भी कर लें बंदगी ;