(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “पर्यावरण से जुड़ाव…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 220 ☆पर्यावरण से जुड़ाव… ☆
कार्तिक मास जीवन को प्रकाशित करने का, देवउठनी का, जगमग दीपमाला का, अन्नकूट का प्रतीक है। केवल स्वयं तक सीमित न रहकर चारों खुशियों को बिखेरने का मार्ग। आँवला, तुलसी, गन्ना, सिंघाड़ा, सीताफल, चनाभाजी, फली, काचरिया साथ ही सभी सब्जियाँ। इनका पूजन सनातनी पूरे मास किसी न किसी रुप में करते हैं। खील- बताशे संग मिठाइयों को एक दूसरे के साथ बाँटकर कर खाना।
इस मास उपहार में मेवा मिष्ठान के साथ फलों की टोकरी भी उपहार में देने का प्रचलन लगातार बढ़ रहा है। देने का भाव जहाँ एक ओर आपमें उम्मीद जगाता हैं वहीं दूसरी ओर प्रकृति आपको इसे कई गुना करके लौटाती है। इससे सकारात्मकता व प्रसन्नता का भाव बढ़ता है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “शंख प्रक्षालन…“।)
अभी अभी # 524 ⇒ शंख प्रक्षालन श्री प्रदीप शर्मा
हम कभी हाथ धोया करते थे, आजकल की पीढ़ी हैण्ड वॉश किया करती है। कबीर के समय में भी साबुन उपलब्ध था और आज भी। लेकिन आजकल सभी साबुन कंपनियों ने अपने अपने हैण्ड वॉश निकाल लिए हैं, कोरोना काल में हमने तबीयत से हाथ धोये। आप यह भी कह सकते हैं कि हम हाथ धोकर कोरोना के पीछे पड़ गए और उसे भगाकर ही दम लिया। हमने भले ही माथे पर टीका लगाकर संकल्प नहीं लिया हो, लेकिन अपने बाजुओं में एक बार नहीं, दो दो बार टीका लगाकर उसे हमेशा के लिए भगाने के लिए कमर जरूर कस ली है।
हैण्ड शेक, अथवा हाथ धोने को ही संस्कृत में हस्त प्रक्षालन कहते हैं। पूजा और हवन में पुरोहित बार बार हमारे हाथ में जल देते हैं, और मंत्र पढ़ते हैं, हस्त प्रक्षालयामि। प्रक्षालन का अर्थ धोना अथवा साफ करना होता है। शंख प्रक्षालन हठयोग की एक क्रिया है।।
शंख हमें समुद्र से प्राप्त होता है, इसे पूजा में भी रखा जाता है, और इसे मुंह से बजाकर ध्वनि उत्पन्न की जाती है। शंख को फूंककर बजाने के पहले धोया जाता है लेकिन शंख प्रक्षालन में इस शंख का कोई काम नहीं। हमारे शरीर में बड़ी और छोटी दो आँतें हैं। शंख प्रक्षालन बड़ी आँत की सफाई की प्रक्रिया है।
आयुर्वेद के अनुसार हमारी बीमारियों की जड़ हमारा बिगड़ा हुआ पाचन तंत्र है। कफ, पित्त और वात का अनुपात जब बिगड़ जाता है तो पेट में गड़बड़ शुरू हो जाती है। अपच, खट्टी डकार और कब्ज़ का महाकाल। कब तक चूरन चाटते रहें और एनीमा लगवाते रहें। महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग का तो आरंभ ही यम नियम से होता है। यम की चर्चा फिर कभी लेकिन उनका पहला नियम ही शौच है। सबसे पहले शरीर की आंतरिक सफाई। शौच बिना कहां संतोष ! उसके लिए कुंजल, जल नेति, धौती और वस्ति जैसी क्रियाएं करवाई जाती हैं लेकिन जहां मामला ज्यादा गड़बड़ होता है वहां शंख प्रक्षालन अर्थात् बड़ी आँत की सफाई करवाई जाती है।।
बड़ी खतरनाक सफाई है यह शंख प्रक्षालन। नमक और नीबू का गुनगुना पानी पीना। एक दो ग्लास नहीं, भरपेट भी नहीं, गले तक, जब तक उल्टी जैसा महसूस न होने लगे। फिर कुछ योगासन करवाए जाते हैं, जिससे डायफ़्राम यानी आँतों पर दबाव पड़ता है और उल्टी अथवा दस्त की संभावना बढ़ जाती है। शौच की त्वरित व्यवस्था का बदोबस्त भी करना ही पड़ता है। हमारे समय में खुले में शौच ही उपयुक्त था इस प्रक्रिया के लिए।
आप जितनी बार गर्म सलाइन वॉटर पीयेंगे, उतनी ही बार शौच की क्रिया भी संपन्न होगी। हम कमोड को तो कई बार फ्लश कर लेते हैं, क्या कभी अपने पाचन तंत्र को फ्लश किया है। पानी की टंकी की तरह इस पेट की सफाई भी तो जरूरी है। शंख प्रक्षालन की यह प्रक्रिया तब तक दोहराई जाती है, जब तक मल की जगह डिस्टिल्ड वॉटर की गंगा न बह निकले। जी हां, शंख प्रक्षालन से यह चमत्कार होता है, हमारी बड़ी आँत की सफाई हो जाती है, जिसके साथ पेट संबंधित कई बीमारियों से छुटकारा मिल जाता है।।
दो ढाई घंटे की इस क्रिया के बाद आप किसी काम के नहीं रहते। दिन भर आपको आराम करना पड़ता है और केवल दोनों वक्त मूंग की दाल की खिचड़ी का सेवन करना पड़ता है और यह भी खयाल रखना पड़ता है कि आपकी खिचड़ी में जरूरत से ज्यादा घी हो। क्योंकि यही घी अंदर जाकर अभी अभी साफ हुई आंतों को लुब्रिकेट करता है, चिकनाई प्रदान करता है। जब भी भूख लगे, बस खिचड़ी का ही सेवन किया जाए।
शंख प्रक्षालन की यह क्रिया बार बार दोहराई नहीं जाती , क्योंकि इसके बाद शरीर में बहुत कमजोरी आ जाती है। आज के व्यस्त जीवन में समयाभाव के साथ साथ, इतना खुला स्थान, प्राइवेसी और योग्य प्रशिक्षक के अभाव में अन्य कारगर उपचार की शरण में जाना ही श्रेयस्कर है।।
आजकल योग, ध्यान और प्राकृतिक चिकित्सा के केंद्र हर जगह उपलब्ध हैं। अपनी रुचि, सुविधा और बटुए की सीमा को देखते हुए साल भर में , कम से कम पंद्रह दिन तो हम अपने आपको दे ही सकते हैं। कौन नहीं चाहता स्वस्थ और प्रसन्न रहना। आखिर कुछ दिन तो निकालिए अपने आप के लिए। गाड़ियों की तरह अपने खुद की सर्विसिंग पर ध्यान दें। शरीर अच्छा एवरेज देगा ..!!
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – यात्रा
यात्रा पर हूँ। बृहद जीवनयात्रा में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की लघुकाय सहज यात्रा पर हूँ। ध्यान रहे कि जीवनयात्रा को बृहद कहा है क्योंकि जीवनयात्रा एक जन्म तक सीमित नहीं है। वह जन्म-जन्मांतर अबाध है। सृष्टि में आने, सृष्टि से जाने, चोला बदल-बदल कर फिर-फिर आने की यात्रा है जीवनयात्रा। अधिकांश समय यात्रा पर ही रहते हैं मेरे जैसे जीव। अपवादस्वरूप किंचित जन परिक्रमा से मुक्त होकर यात्रा के नियंता वर्ग में सम्मिलित हो जाते हैं। घोष से मुक्त मोक्ष को, परित्राण से परे निर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं।
जानता हूँ कि मोक्ष की योग्यता नहीं है मेरी। यदि कल्पना करूँ कि मोक्ष और यात्रा में से किसी एक को चुनने का विकल्प मिले तो मैं यात्रा चुनूँगा। कितना देती है हर यात्रा! लघुकाय यात्रा भी महाकाय जीवनयात्रा के दर्शन के किसी न किसी अंश को आत्मसात करने में सहायक होती है। कागज़ और कलम साथ हों तो हर यात्रा मुझे मोक्ष की प्रतीति कराती है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री लक्ष्मी-नारायण साधना सम्पन्न हुई । अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही दी जाएगी
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “किताब महल…“।)
अभी अभी # 523 ⇒ किताब महल श्री प्रदीप शर्मा
किताबों का स्थान घर में हो सकता है, लाइब्रेरी में हो सकता है, लेकिन महल में किताबों का क्या काम ! अक्सर महलों की किताबों में कीड़े और दीमक ही लगते देखे गए हैं। किताब किसी को मारती नहीं, पढ़ने वाले को अपनी गिरफ्त में ज़रूर ले लेती है।
बचपन में एक किताब के शीर्षक पर लिखा देखा, प्रकाशक किताब महल, दरियागंज, दिल्ली ! मैंने सुना था, आगरा में ताजमहल है, और जयपुर में हवामहल। दिल्ली के किताब महल ने मेरी बालमन की जिज्ञासा बढ़ा दी। कैसा होगा किताबों का महल ? किताबों की खिड़कियाँ, किताबों के ही दरवाज़े। पिताजी तक बात पहुँची। उन्होंने समझाया, यहाँ से किताबें छपती यानी प्रकाशित होती हैं। यह प्रकाशक का नाम है, जिस तरह कल्याण गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित होता है।।
मेरी दरियागंज और पहाड़गंज में रुचि तो कम हो गई, लेकिन किताबों में बढ़ गई। तब मुझे ज्ञात हुआ कि असली किताब महल तो प्रकाशक ही है। राजपाल एंड संस, राजकमल और राधाकृष्ण प्रकाशन और ज्ञानपीठ प्रकाशन से लेकर हिन्द पॉकेट बुक्स और डायमंड पॉकेट बुक्स तक यह किताब महल फैला हुआ है। ओरिएंट लॉंगमन्स और ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस की तो कुछ अंग्रेज़ी किताबें कोर्स में भी थी। तब मेरे छोटे से शहर में कई लाइब्रेरियां थीं, जिन्हें सार्वजनिक वाचनालय कहते थे। कॉलेज और यूनिवर्सिटी में केवल कोर्स से संबंधित किताबें ही रहती थीं। फिर भी हिंदी, अंग्रेज़ी साहित्य और दर्शन शास्त्र की किताबें तो उपलब्ध हो ही जाती थी।
(प्रसंगवश विगत विदेश यात्राओं में इस प्रकार के पुस्तकालय (Street Library) देखने को मिले। आपको ऐसे पुस्तकालय सड़क के किनारे देखेने मिल जाएंगे। उपरोक्त पुस्तकालय पर जर्मन भाषा में लिखा है “Offener Bucherschrank. Schaut rein, lasst was hier, nehmt was mit.” जिसका अंग्रेजी अर्थ है “Open bookcase. Take a look, leave something here, take something with you.” आप ऐसे पुस्तकालयों की मुफ्त सुविधा ले सकते हैं। बस आप कितनी भी पुस्तकें इनमें से ले सकते हैं। बस ईमानदारी से आपकी इसमें अपनी भी कुछ पुस्तकें रखनी होंगी। आप पास की बेंच पर बैठ कर पुस्तकें पढ़ कर वापिस इनमें रख सकते हैं। – संपादक )
फिल्मों के अलावा समय बिताने का तब और कोई साधन नहीं था। सैम पित्रोदा का लोगों ने तब तक नाम भी नहीं सुना था। लाइब्रेरी समय काटने के लिए एक मुफ़ीद और रचनात्मक जगह मानी जाती थी। यह वह समय था जब अधिकांश साप्ताहिक और मासिक पत्रिकाएँ एक अथवा सवा रुपए की आती थी। हिन्द पॉकेट बुक्स ने प्रेमचंद और शरदचंद्र को एक एक रुपए में लोगों के घर तक पहुँचाया। और लोगों में किताबें खरीदने के प्रति रुचि बढ़ी। अन्य प्रमुख साहित्यिक प्रकाशनों ने भी प्रसिद्ध कृतियों के पेपरबैक एडिशन निकालने शुरू कर दिए, जिनमें राजकमल प्रकाशन अग्रणी था।।
शहर में एक समानांतर साहित्य भी चलता था जिसके पाठक अनगिनत थे। ये लेखक ज्ञानपीठ और साहित्य अकादमी का पुरस्कार तो प्राप्त नहीं कर पाए, लेकिन लोगों में किताबों के प्रति रुझान बढ़ाने में सफल अवश्य हुए। गुलशन नंदा, ओमप्रकाश शर्मा, कर्नल रंजीत और सुरेन्द्र मोहन पाठक के पाठकों की तो आप गिनती ही नहीं कर सकते।
गुरुदत्त और आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने हिंदुत्व की बात की तो के एम मुंशी और नरेंद्र कोहली ने भारतीय संस्कृति की। टैगोर की गीतांजलि और तिलक की गीता कृष्ण के कर्मयोग को समर्पित थी।।
मेरे शहर में किताब महल न सही, एक अदद किताब घर था, खजूरी बाज़ार में दीनानाथ बुक डिपो और तुलसी साहित्य सदन था, जानकीप्रसाद पुरोहित की नवजीवन पुस्तकमाला थी। मराठी पुस्तकों के लिए आज भी घर पोच वाचनालय है। हिंदी साहित्य समिति भी है, और देवी अहिल्या पुस्तकालय भी।
धार्मिक किताबों के लिए आज भी सरदार सोहनसिंह बुक सेलर उपलब्ध है, तो ज्ञानवर्धक साहित्य के लिए सर्वोदय साहित्य भंडार। नई पीढ़ी के रुझान के लिए बुरहानी का रीडर्स पैराडाइस भी मौजूद है।।
एक समय वह भी था, जब फुटपाथ से पुराने ज्ञानोदय और सारिका के अंक पाठकों के घर पहुँचने लगे। कुछ पुरानी किताबों की दुकानों से कुबेरनाथ राय भी हाथ लग गए ! विषाद योग और निषाद बाँसुरी साथ साथ बजने लगी। बिमल मित्र, शंकर और शिवाजी सावंत, अज्ञेय और भारती के साथ बुक-शेल्फ में स्थान पाने लगे। मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव ने नई कहानियों को एक धरातल दिया, ऊँचाई दी। मन्नू भंडारी, रवींद्र-ममता कालिया, अमरकांत, ज्ञानरंजनशैलेष मटियानी जैसे अनगिनत नाम आज भी जिस महल को संजोए हुए हैं, क्या वह किताब महल नहीं।
सृजन का संसार ही किताब महल है। यहाँ रानियों का नहीं, कहानियों का वास होता है। यहाँ बड़े बड़े आदमकद आइनों के सामने केश-विन्यास नहीं होता, शेखर एक जीवनी, राग दरबारी और मैला आँचल जैसा
उपन्यास होता है। प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी के गीतों की निर्झरिणी यहाँ सदा प्रवाहित होती है। यहाँ हर पल सरस्वती का वीणा-वादन होता है। क्योंकि यह किताब-महल है।।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – “ड्राइंग रूम अप्रासंगिक होते जा रहे हैं… ” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 313 ☆
आलेख – ड्राइंग रूम अप्रासंगिक होते जा रहे हैं… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
त्यौहार पर संदेशे तो बहुत आ रहे हैं, लेकिन मेहमान कोई नहीं आया. ड्राइंग रूम का सोफा मेहमानों को तरस रहा है.
वाट्सएप और फेसबुक पर मैसेज खोलते, स्क्रॉल करते और फिर जवाब के लिए टाइप करते – करते हाथ की अंगुलियां दर्द दे रही है. संदेशें आते जा रहे हैं. बधाईयों का तांता है, लेकिन मेहमान नदारद हैं. काल बेल चुप है. मम्मी पापा अगर साथ रहते हैं तो भी कुछ ठीक है अन्यथा केवल घरवाली और बेटा या बेटी.
पहले की तरह यदि आपने आने वाले मेहमानों के लिये बहुत सारा नाश्ता बना रखा है तो वह रखा ही रह जाता है.
सगे संबंधियों, दोस्तों की तो छोड़ दें, आज के समय आसपास के खास सगे-संबंधी और पड़ोसी के यहां मिलने – जुलने का प्रचलन भी समाप्त हो गया है.
अमीर रिश्तेदार और अमीर दोस्त मिठाई या गिफ्ट तो भिजवाते हैं, लेकिन घर पर देने खुद नहीं आते बल्कि उनके यहां काम करने वाले कर्मचारी आते हैं.
दरअसल घर अब घर नहीं रहे हैं, ऑफिस की तरह हो गए हैं.
घर सिर्फ रात्रि में एक सोने के स्थान रह गए हैं, रिटायरिंग रूम ! आराम करिए, फ्रेश होईये और सुबह कोल्हू के बैल बनकर कम पर निकल जाईये. ड्राइंग रूम अब सिर्फ दिखावे के लिये बनाए जाते हैं, मेहमानों के अपनेपन के लिए नहीं. घर का समाज से कोई संबंध नहीं बचा है. मेट्रो युग में समाज और घर के बीच तार शायद टूट चुके हैं.
घर अब सिर्फ और सिर्फ बंगला हो गया है. शुभ मांगलिक कार्य और शादी-व्याह अब मेरिज हाल में होते हैं. बर्थ-डे मैकडोनाल्ड या पिज़्ज़ा हट में मनाया जाता है. बीमारी में सिर्फ हास्पिटल या नर्सिंग होम में ही खैरियत पूछी जाती है. और अंतिम यात्रा के लिए भी लोग सीधे श्मशान घाट पहुँच जाते हैं.
सच तो ये है कि जब से डेबिट-क्रेडिट कार्ड और एटीएम आ गये हैं, तब से मेहमान क्या. . चोर भी घर नहीं आते हैं. चोर भी आज सोचतें हैं कि, मैं ले भी क्या जाऊंगा. . फ्रिज, सोफा, पलंग, लैपटॉप, टीवी. कितने में बेचूंगा इन्हें ? री सेल तो OLX ने चौपट कर दी है.
वैसे भी अब नगद तो एटीएम में है इसीलिए घर पर होम डिलेवरी देनेवाला भी पिज़ा-बर्गर के साथ कार्ड स्वाइप मशीन भी लाता है.
क्या अब घर के नक़्शे से ड्राइंग रूम का कंसेप्ट ही खत्म कर देना चाहिये ?
विचार करियेगा. पुराने के समय की तरह ही अपने रिश्तेदारों, दोस्तों को घर पर बुलाईए और उनके यहां जाइयेगा. आईये भारत की इस महती संस्कृति को पुनः जीवित करे.
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सुबह सवेरे…“।)
अभी अभी # 522 ⇒ सुबह सवेरे श्री प्रदीप शर्मा
सुबह सवेरे को हम प्रातः काल भी कहते हैं। कुछ लोगों के लिए तो जब जागे तभी सवेरा होता है लेकिन जो नहीं जागा क्या उसकी सुबह नहीं होती। कुछ लोग जाग उठते हैं तो कुछ को जगाना पड़ता है ;
उठ जाग मुसाफिर भोर भई,
अब रैन कहाँ जो तू सोवत है
जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है वो खोवत है..
पक्षियों को कौन जगाता है, मुर्गा क्यों दिन उगने के पहले ही बांग देकर सूर्यवंशियों की नींद में खलल डालता है। उधर एक मलूकदास ने अजगर के साथ पंछियों को भी लपेट लिया, पंछी करे ना काम। अगर सबके दाता राम ही हैं तो पंछी क्यों हमारे उठने के पहले ही आकाश मार्ग में मैराथन फ्लाई किया करते हैं।
यही प्रार्थना काल उषाकाल भी कहलाता है।
मैं किसी मुहूर्त को नहीं मानता सिर्फ ब्रह्म मुहूर्त को मानता हूं। इसे अमृत वेला भी कहते हैं। यह योगियों के जागने का समय होता है। वैसे तो योगी जागा जगाया होता है, फिर भी रात्रि का समय विश्राम का होता है। पूरी प्रकृति भी रात में थम सी जाती है।
लेकिन प्रकृति के विश्राम में भी सृजन चलता रहता है। कोई कली, कहीं खिल रही होती है, तो उधर रात रानी महारानी तो रात में ही खिलने, महकने लगती है। ।
योगियों का ध्यान साधना कहलाता है और संगीत में साधना को रियाज भी कहा जाता है। आखिर सुर की साधना भी तो परमेश्वर की ही साधना होती है।
जिसे प्रार्थना, इबादत अथवा अरदास कहते हैं, उसका समय भी सुबह का ही होता है। सभी आराधना स्थलों में सुबह की आरती कीर्तन और प्रार्थना होती है। कहीं राम का गुणगान होता है, तो कहीं कृष्ण का कीर्तन।
रियाज तो पहलवान भी करते हैं, जिसे वर्जिश कहते हैं, आखिर उस्ताद, गुरु, और पहलवान कहां नहीं होते। सुबह का समय ही तो अभ्यास का होता है। सुबह का याद किया दिन भर ही नहीं, जीवन भर याद रहता हैं। वैसे ईश्वर को तो हर पल स्मरण किया जा सकता है ;
कलियुग केवल
नाम आधारा।
सिमर सिमर
नर उतरे पारा।।
संगीत में प्रात:कालीन राग भी होते हैं। सुबह सवेरे हम जितने भी भजन अथवा फिल्मी गीत सुनते हैं, वे सब किसी न किसी राग पर ही आधारित होते हैं। राग भैरव अगर जागो मोहन प्यारे है, तो मेरी वीणा तुम बिन सूनी, राग अहीर भैरव पर आधारित है। जब हम पूछो न कैसे मैने रैन बिताई गुनगुनाते हैं तो वह भी राग अहीर भैरव ही होता है।
इधर सुबह हमारा ध्यान चल रहा है और उधर कहीं रेडियो पर गीत बज रहा है, इक शहंशाह ने बनवा के हंसी ताजमहल, हमारा ध्यान भटकता है, लेकिन हम नहीं जानते, यह फिल्मी गीत भी राग ललित पर ही आधारित है। हो सकता है, धुन और ध्यान का आपस में कुछ संबंध हो। ।
मेरी सुबह आज भी ध्यान धारणा के पश्चात् रेडियो से ही शुरू होती है। आज भी देखिए, विविध भारती की प्रातःकालीन सभा भजनों से ही शुरू होती है, जिसके बाद भूले बिसरे गीत और संगीत सरिता प्रोग्राम। और तो और देखादेखी में रेडियो मिर्ची भी सुबह का रिचार्ज आराधना से ही करने लगा है। रेडियो सीलोन पर भी यही क्रम था, पहले भजन और उसके बाद पुरानी फिल्मों का संगीत। आप ही के गीत आते आते तो सुबह की आठ बज जाती थी।
हम जानें या ना जानें, हमारे पास संगीत सदा विराजमान रहता है, ईश्वर तत्व की तरह, हम उससे भले ही अनजान रहते हों, लेकिन हमारे कान कभी धोखा नहीं खाते। जो भी पुराना फिल्मी गीत अथवा भजन हम अवचेतन में गुनगुनाने लगते हैं, उसकी धुन किसी शास्त्रीय राग पर ही आधारित होती है। ।
संगीत और ईश्वरीय अनुभूति गूंगे का गुड़ है।
यह ज्ञान और विद्वत्ता का विषय नहीं, अनुभूति का विषय है। जो इसे जानता है, उसे जानने का अहंकार भी हो सकता है, लेकिन संगीत का रस और ईश्वरीय अनुभूति तो केवल डूबने से ही प्राप्त हो जाती है। करते रहें करने वाले शास्त्रार्थ और तत्व मीमांसा। जरा उधर देखिए ;
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 107 ☆ देश-परदेश – मंहगाई डायन खाय जात है ☆ श्री राकेश कुमार ☆
दीवाली चली गई, हेल्थी सीजन का समय हो चुका है, परंतु देश का औसत तापमान है, कि कम हो ही नहीं रहा है। इसके चलते महंगाई अपने चरम पर है। पुराना समय याद आ गया जब छत के पंखों को दशहरे के दिन वस्त्र पहनकर ब्लॉक कर दिया जाता था। पंखों की पंखुड़ियों पर कपड़े का कवर चढ़ाने से उनका उपयोग रुक जाता था। इससे पंखे साफ रहते थे, और बिजली के बिल भी कम हो जाते थे।
आधा नवंबर माह बीतने को है, और गर्मी है, कि कम होने का नाम ही नहीं ले रही हैं। बाजार से कुछ भी खरीदे, महंगाई का ठीकरा यूक्रेन के साथ इजराइल को भी जोड़ दिया जाता हैं।
शहर के होटलों ने भोजन की थाली के भाव में बीस प्रतिशत महंगी कर दी है। ऊपर के पेपर में छपी खबर भाव कम करने की जानकारी दे रही हैं। कुछ आश्चर्य भी हुआ।
एयरपोर्ट तो क्या हमने तो कभी रेलवे स्टेशन पर दो रुपए में छह पूरी सब्जी सहित नहीं खाई थी। स्टेशन के खाने को लेकर पिताश्री बहुत सख्त थे। हमेशा से यात्रा में घर की रोटी के साथ आम का आचार ही खाते हैं। अभी भी हवाई यात्रा में भी ये ही सब करते हैं।
कुछ माह पूर्व देहरादून हवाई जहाज से जाना हुआ था। वहां के हवाई अड्डे पर वापसी के समय कट चाय पीने की तलब लगी, लेकिन दो सौ रुपए कप चाय का भाव सुनकर तो तोते ही उड़ गए थे। वो तो बाद में वहां लाउंज पर दृष्टि पड़ गई। एस बी आई के कार्ड धारक होने से मात्र दो रुपए लगे, और असीमित बुफे खाने पीने की सुविधाओं ने हवाई यात्रा की खुशी को दोगुना कर दिया। हमने तो तय कर लिया है, अब उसी हवाई अड्डे की यात्रा करेंगे जहां लाउंज की सुविधा उपलब्ध रहेगी।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पंछी, काहे होत उदास…“।)
अभी अभी # 521 ⇒ पंछी, काहे होत उदास श्री प्रदीप शर्मा
जिनके पंख होते हैं, उनका घर खुला आकाश होता है ! जब पंछी थक जाता है, तो किसी डाल पर, किसी मुंडेर पर बैठ जाता है, प्रकृति उसके दाना-पानी की व्यवस्था करती है, और रात्रि विश्राम के लिए वह अपने नीड़ का निर्माण करता है।
क्या बचपन में कभी आप भीड़ में, अथवा मेले में खोए हो ? एक मुसाफ़िर वीरान जंगल में जब राह भटक जाता है, रास्ता भूल जाता है, दिशाहीन हो जाता है, तब खुले आकाश के नीचे होते हुए भी वह अपने आपको जकड़ा और असहाय सा महसूस करता है। वापस अपनी मंज़िल पाने के लिए, सही रास्ते पर आने के लिए, उसे किसी मार्गदर्शक की, रहबर की जरूरत होती है। जब तक भटके हुए राही को उसकी मंज़िल नहीं मिल जाती, वह अपने आपको एक बंधक सा महसूस करता है। और जब उसे उसकी मंज़िल मिल जाती है, उसे लगता है, उसे दुनिया की हर चीज मिल गई।।
खोना और खुद को खोने में यही फर्क है। जब हम खो जाते हैं, तो हमें मंज़िल की तलाश होती है और जब हम खुद को खो देते हैं, तो मंज़िल आसान हो जाती है।
हम पंछी की बात कर रहे हैं !
कबूतर शांति का प्रतीक माना जाता है। मैं जिस जगह निवास करता हूं, वहां न ज़मीन मेरी है, न आसमान। एक अदद 2 BHK फ्लैट मेरा आशियाना है। मेरे घर में खिड़कियां हैं, जिनसे मच्छर न आएं, इसलिए जालियां लगी हैं, हवा आने के लिए घर में पंखे जो हैं।।
घर का दरवाज़ा खुला देख, न जाने कहां से सुबह सुबह, एक कबूतर अचानक घर में प्रवेश कर गया। किसी अनचाहे व्यक्ति को तो आप बाहर का रास्ता दिखा सकते हैं, लेकिन आकाश में उड़ने वाले आज़ाद परिंदे को, भटकने पर, रास्ता नहीं दिखा सकते। अभिमन्यु की तरह वह मेरे घर में प्रवेश कर तो गया था, लेकिन वहाँ से वापस निकलना, उसके बस में नहीं था।
मैं कोई बहेलिया नहीं था, मैंने कोई जाल नहीं बिछाया था। मैं चाहता था, कि वह वापस सुरक्षित खुले आकाश में विचरण करे। मैं उसकी मदद करना चाहता था, लेकिन हम दोनों न तो एक दूसरे की भाषा जानते थे, और न ही अपने भावों को प्रकट कर सकते थे। मुझे देख उसकी छटपटाहट और बढ़ जाती, मैं चाहता, उसे पकड़कर बाहर छोड़ दूँ, लेकिन वह घबराकर और कहीं उड़कर बैठ जाता। मुझे लगा, मैंने उसे बंधक बना लिया है। थक हारकर मैंने उसकी मुक्ति के सारे प्रयास छोड़ दिये और घर के सभी खिड़की दरवाज़े खोल दिए, और एक मूक दृष्टा बनकर, अपने आपको उसकी नज़र से छुपा लिया।।
वह करीब दो घंटे एक ही जगह बैठा रहा ! जब उसे पूरी तसल्ली हो गई, कि वह एकदम अकेला है, उसका डर कुछ कम हुआ और उसने बाहर जाने की कोशिशें शुरू कर दीं। मैं केवल प्रार्थना करता रहा और वह प्रयत्न। कभी खिड़की के पास तक जाता, फिर वापस आ जाता। मुझे आश्चर्य हुआ, जो
पक्षी दिन भर खुले आसमान में उड़कर शाम को अपने घर आसानी से पहुँच जाता है, वह एक नई जगह, बंद होने पर कितना असहाय हो जाता है।
उसे राह सूझ नहीं रही थी, और अपने आपको बुद्धिमान समझने वाला मैं मूर्ख प्राणी उसकी कोई मदद नहीं कर पा रहा था।
धैर्य का फल मीठा होता है। उसकी मेहनत रंग लाई, और पाँच घंटे की कशमकश के बाद उसे बाहर जाने का दरवाजा नज़र आया और पंछी ने मुक्त आकाश में उड़ान भर ही ली। ईश्वर ने मेरी प्राथना सुन ली। आखिर एक अभिमन्यु नियति के चक्रव्यूह से बाहर आने में सफल हुआ।।
मैं कितना, एक पंछी की व्यथा, बेबसी और मेरी लाचारगी को, आप तक पहुंचाने में सफल हुआ, नहीं जानता, लेकिन के एल सहगल कितनी आसानी से उस पंछी की बात कह गए देखिये ;
पंछी रे, काहे होत उदास !
तू छोड़ न मन की आस।
देख घटाएँ आई हैं
एक संदेसा लाई हैं
पिंजरा लेकर उड़ जा पंछी
जा साजन के पास
पंछी, काहे होत उदास।।
कवि प्रदीप भी कह गए हैं,
पिंजरे के पंछी रे, तेरा दर्द न जाने कोय !
हम अपने शौक और मनोरंजन के लिए इन मूक पशु-पक्षियों को बंधक बनाकर इनके पालक बन बैठते हैं। जो प्राणी अपनी इच्छा से हमारे पास आए, अथवा मज़बूरी में आपके पास आए, तो आप उसे पालकर उस पर अहसान कर सकते हैं। और अहसान तो तब ही होगा, जब उसे आप उसकी ही दुनिया में रहने दें। अगर आपने उसे शरण दी भी है, तो वापस उसे उसके परिवार में, उसकी दुनिया में छोड़ दें।
आपकी सहनशक्ति और सहिष्णुता के वैसे भी बहुत चर्चे हैं आजकल ! सुना है जब आप किसी इंसान से असहमत होते हैं, तो उसे अपने दुश्मन के पास भेज देते हैं। मुझे खुशी है, वह नन्हा सा प्राणी हमारी नफ़रत की दुनिया से वापस अपनी दुनिया में सुरक्षित चला गया।।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 264 ☆ नर में नारायण…
कई वर्ष पुरानी घटना है। शहर में खाद्यपदार्थों की प्रसिद्ध दुकान से कुछ पदार्थ बड़ी मात्रा में खरीदने थे। संभवत: कोई आयोजन रहा होगा। सुबह जल्दी वहाँ पहुँचा। दुकान खुलने में अभी कुछ समय बाकी था। समय बिताने की दृष्टि से टहलते हुए मैं दुकान के पिछवाड़े की ओर निकल गया। देखता हूँ कि वहाँ फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों की लंबी कतार लगी हुई है। लगभग 30-40 बच्चे होंगे। कुछ समय बाद दुकान का पिछला दरवाज़ा खुला। खुद सेठ जी दरवाज़े पर खड़े थे। हर बच्चे को उन्होंने खाद्य पदार्थ का एक पैकेट देना आरंभ किया। मुश्किल से 10 मिनट में सारी प्रक्रिया हो गई। पीछे का दरवाज़ा बंद हुआ और आगे का शटर ग्राहकों के लिए खुल गया।
मालूम हुआ कि वर्षों से इस दुकान की यही परंपरा है। दुकान खोलने से पहले सुबह बने ताज़ा पदार्थों के छोटे-छोटे पैक बनाकर निर्धन बच्चों के बीच वितरित किए जाते हैं।
सेठ जी की यह साक्षात पूजा भीतर तक प्रभावित कर गई।
अथर्ववेद कहता है,
।।ॐ।। यो भूतं च भव्य च सर्व यश्चाधितिष्ठति।।
स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम:।।
– (अथर्ववेद 10-8-1)
अर्थात जो भूत, भविष्य और सब में व्याप्त है, जो दिव्यलोक का भी अधिष्ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है।
योगेश्वर का स्पष्ट उद्घोष है-
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।
– (श्रीमद्भगवद्गीता-6.30)
अर्थात जो सबमें मुझे देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।
वस्तुत: हरेक की श्वास में ठाकुर जी का वास है। इस वास को जिसने जान और समझ लिया, वह दुकान का सेठजी हो गया।
… नर में नारायण देखने, जानने-समझ सकने का सामर्थ्य ईश्वर हरेक को दें।…तथास्तु!
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री लक्ष्मी-नारायण साधना सम्पन्न हुई । अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही दी जाएगी
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धक आलेख आलेख – रिपोर्ताज –क्या है रिपोर्ताज?)
रिपोर्ताज अंग्रेजी भाषा का शब्द है। रिपोर्ट किसी घटना के यथातथ्य वर्णन को कहते हैं। रिपोर्ट सामान्य रूप से समाचारपत्र के लिये लिखी जाती है और उसमें साहित्यिकता नहीं होती है। रिपोर्ट के कलात्मक तथा साहित्यिक रूप को रिपोर्ताज कहते हैं। रिपोर्ट का अर्थ सिर्फ़ सूचना देने तक ही सीमित भी किया जा सकता हैं, जबकि रिपोर्ताज हिंदी गद्य की एक प्रकीर्ण विधा हैं। इसके लेखन का भी एक विशिष्ट तरीका है। वास्तव में रेखाचित्र की शैली में प्रभावोत्पादक ढंग से लिखे जाने में ही रिपोर्ताज की सार्थकता है। आँखों देखी और कानों सुनी घटनाओं पर भी रिपोर्ताज लिखा जा सकता है। कल्पना के आधार पर रिपोर्ताज नहीं लिखा जा सकता है। घटना प्रधान होने के साथ ही रिपोर्ताज को कथातत्त्व से भी युक्त होना चाहिये।
रिपोर्ताज लेखक पत्रकार तथा कलाकार दोनों होता है। रिपोर्ताज लेखक के लिये आवश्यक है कि वह जनसाधारण के जीवन की सच्ची और सही जानकारी रखे। तभी रिपोर्ताज लेखक प्रभावोत्पादक ढंग से जनजीवन का इतिहास लिख सकता है।य ह किसी घटना को अपनी मानसिक छवि में ढालकर प्रस्तुत करने का तरीका है। रिपोर्ताज में घटना को कलात्मक और साहित्यिक रूप दिया जाता है। द्वितीय महायुद्ध में रिपोर्ताज की विधा पाश्चात्य साहित्य में बहुत लोकप्रिय हुई। विशेषकर रूसी तथा अंग्रेजी साहित्य में इसका प्रचलन रहा। हिन्दी साहित्य में विदेशी साहित्य के प्रभाव से रिपोर्ताज लिखने की शैली अधिक परिपक्व नहीं हो पाई है। शनैः-शनैः इस विधा में परिष्कार हो रहा है। सर्वश्री प्रकाशचन्द्र गुप्त, रांगेय राघव, प्रभाकर माचवे तथा अमृतराय आदि ने रोचक रिपोर्ताज लिखे हैं। हिन्दी में साहित्यिक, श्रेष्ठ रिपोर्ताज लिखे जाने की पूरी संभावनाएँ हैं।
रिपोर्ताज लिखते समय, इन बातों का ध्यान रखना चाहिए-
रिपोर्ताज में घटना प्रधान होना चाहिए, व्यक्ति नहीं।
रिपोर्ताज केवल वर्णनात्मक नहीं, कथात्मकता से भी युक्त होना चाहिए।
रिपोर्ताज में बहुमुखी कथ्य, चरित्र, संवाद, और प्रामाणिकता आवश्यक है।
रिपोर्ताज में भाषा और शैली प्रसंगानुकूल हो।
रिपोर्ताज के कुछ उदाहरण:
‘लक्ष्मीपुरा’ हिन्दी का पहला रिपोर्ताज माना गया है। इसका प्रकाशन सुमित्रानंदन पंत के संपादन में निकलने वाली ‘रूपाभ’ पत्रिका के दिसंबर, १९३८ ई. के अंक में हुआ था।
‘भूमिदर्शन की भूमिका’ शीर्षक रिपोर्ताज सन् १९६६ ई. में दक्षिण बिहार में पड़े सूखे से संबंधित है। यह रिपोर्ताज ६ टुकड़ों में ९ दिसम्बर १९६६ से लेकर १३ जनवरी १९६७ तक ‘दिनमान’ पत्र में छपा है। हिंदी के प्रमुख रिपोर्ताज मे ‘तूफानों के बीच’ (रांगेय राघव), प्लाट का मोर्चा (शमशेर बहादुर सिंह), युद्ध यात्रा (धर्मवीर भारती) आदि हैं। कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, विष्णु प्रभाकर, प्रभाकर माचवे, श्याम परमार, अमृतराय, रांगेय राघव तथा प्रकाश चन्द्र गुप्त आदि प्रसिद्ध रिपोर्ताजकार हैं
रिपोर्ट, किसी भी घटना का आंखों देखा वर्णन होता हैं। यह लिखित या मौखिक किसी भी रूप मे एवं भिन्न प्रारूप मे हो सकती हैं किंतु साहित्य के एक विशिष्ट प्रारूप मे लिखी गई रिपोर्ट को रिपोर्ताज कहा जाता हैं। रिपोर्ताज हिंदी पत्रकारिता से संबंधित विधा है।
रिपोर्ट किसी भी घटना का सिर्फ तथ्यात्मक वर्णन होता हैं, जबकि रिपोर्ताज घटना का कलात्मक वर्णन हैं।
रिपोर्ताज साहित्य के निश्चित प्रारूप मे लिखे जाते हैं ताकि इसको पढ़ते समय पाठकों की रुचि बनी रहे।
रिपोर्ट नीरस भी हो सकती हैं, जबकि रिपोर्ताज मे लेखन की कलात्मकता इसे सरस बना देती हैं।
रिपोर्ट के लेखन की शैली सामान्य होती हैं, जबकि रिपोर्ताज लेखन की विशिष्ट शैली उसकी विषयवस्तु मे चित्रात्मकता का गुण उत्पन्न कर देती हैं। लेखन मे चित्रात्मकता, वह गुण होता हैं जिसके कारण रिपोर्ताज पढ़ते समय पाठकों के मस्तिष्क पटल पर घटना के चित्र उभरने लगते हैं। चित्रात्मकता पाठकों के कौतूहल को बढ़ा देती हैं, जिससे पाठक एक बार पढ़ना प्रारम्भ करने के बाद पूरा वृत्तांत पढ़कर ही चैन लेता हैं।
रिपोर्ताज, किसी घटना का रोचक एवं सजीव वर्णन होता हैं। लेखन में सजीवता एवं रोचकता उत्पन्न करने के लिए ही लेखक चित्रात्मक शैली का प्रयोग करते हैं। सहसा घटित होने वाली अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना ही इस विधा को जन्म देने का मुख्य कारण बन जाती है। रिपोर्ताज विधा पर सर्वप्रथम शास्त्रीय विवेचन श्री शिवदान सिंह चौहान ने मार्च 1941 मे प्रस्तुत किया था। हिन्दी मे रिपोर्ताज की विधा प्रारंभ करने का श्रेय हंस पत्रिका को है। जिसमें समाचार और विचार शीर्षक एक स्तम्भ की सृष्टि की गई। इस स्तम्भ मे प्रस्तुत सामग्री रिपोर्ताज ही होती हैं।
रिपोर्ताज का जन्म हिंदी में बहुत बाद में हुआ लेकिन भारतेंदुयुगीन साहित्य में इसकी कुछ विशेषताओं को देखा जा सकता है। उदाहरणस्वरूप, भारतेंदु ने स्वयं जनवरी, 1877 की ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ में दिल्ली दरबार का वर्णन किया है, जिसमें रिपोर्ताज की झलक देखी जा सकती है। रिपोर्ताज लेखन का प्रथम सायास प्रयास शिवदान सिंह चौहान द्वारा लिखित ‘लक्ष्मीपुरा’ को मान जा सकता है। यह सन् 1938 में ‘रूपाभ’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ। इसके कुछ समय बाद ही ‘हंस’ पत्रिका में उनका दूसरा रिपोर्ताज ‘मौत के खिलाफ ज़िन्दगी की लड़ाई’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। हिंदी साहित्य में यह प्रगतिशील साहित्य के आरंभ का काल भी था। कई प्रगतिशील लेखकों ने इस विधा को समृद्ध किया। शिवदान सिंह चौहान के अतिरिक्त अमृतराय और प्रकाशचंद गुप्त ने बड़े जीवंत रिपोर्ताजों की रचना की।
रांगेय राघव रिपोर्ताज की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ लेखक कहे जा सकते हैं। सन् 1946 में प्रकाशित ‘तूफानों के बीच में’ नामक रिपोर्ताज में इन्होंने बंगाल के अकाल का बड़ा मार्मिक चित्रण किया है। रांगेय राघव अपने रिपोर्ताजों में वास्तविक घटनाओं के बीच में से सजीव पात्रों की सृष्टि करते हैं। वे गरीबों और शोषितों के लिए प्रतिबद्ध लेखक हैं। इस पुस्तक के निर्धन और अकाल पीड़ित निरीह पात्रों में उनकी लेखकीय प्रतिबद्धता को देखा जा सकता है। लेखक विपदाग्रस्त मानवीयता के बीच संबल की तरह खड़ा दिखाई देता है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के रिपोर्ताज लेखन का हिंदी में चलन बढ़ा। इस समय के लेखकों ने अभिव्यक्ति की विविध शैलियों को आधार बनाकर नए प्रयोग करने आरंभ कर दिए थे। रामनारायण उपाध्याय कृत ‘अमीर और गरीब’ रिपोर्ताज संग्रह में व्यंग्यात्मक शैली को आधार बनाकर समाज के शाश्वत विभाजन को चित्रित किया गया है। फणीश्वरनाथ रेणु के रिपोर्ताजों ने इस विधा को नई ताजगी दी। ‘)ण जल धन जल’ रिपोर्ताज संग्रह में बिहार के अकाल को अभिव्यक्ति मिली है और ‘नेपाली क्रांतिकथा’ में नेपाल के लोकतांत्रिक आंदोलन को कथ्य बनाया गया है।
अन्य महत्वपूर्ण रिपोर्ताजों में भंदत आनंद कौसल्यायन कृत ‘देश की मिट्टी बुलाती है’, धर्मवीर भारती कृत ‘युद्धयात्रा’ और शमशेर बहादुर सिंह कृत ‘प्लाट का मोर्चा’ का नाम लिया जा सकता है।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अपने समय की समस्याओं से जूझती जनता को हमारे लेखकों ने अपने रिपोर्ताजों में हमारे सामने प्रस्तुत किया है। लेकिन हिंदी रिपोर्ताज के बारे में यह भी सच है कि इस विधा को वह ऊँचाई नहीं मिल सकी जो कि इसे मिलनी चाहिए थी।