हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 74 ☆ चेत जाओ ! ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 74 – चेत जाओ ! 

रेल में भीड़-भड़क्का है। हर कोई अपने में मशगूल। एक तीखा, अनवरत स्वर ध्यान बेधता है। देखता हूँ कि साठ से ऊपर की एक स्त्री है संभवतः जिसके स्वरयंत्र में कोई दोष है। बच्चा मचलकर किसी वस्तु के लिए हठ करता है, एक साँस में रोता है, कुछ उसी तरह के स्वर में भुनभुना रही है वह। अंतर बस इतना कि बच्चे के स्वर को बहुत देर तक बरदाश्त किया जा सकता है जबकि यह स्वर बिना थके इतना लगातार है कि खीज़ पैदा हो जाए। दूर से लगा कि यह भीख मांगने का एक और तरीका भर है। वह निरंतर आँख की ज़द से दूर जा रही थी और साथ ही कान भुनभुनाहट से राहत महसूस कर रहे थे।

किसी स्टेशन पर रेल रुकी। प्लेटफॉर्म की विरुद्ध दिशा से वही भुनभुनाहट सुनाई दी। वह स्त्री पटरियों पर उतरकर दूसरी तरफ के प्लेटफॉर्म पर चढ़ी। हाथ से इशारा करती, उसी तरह भुनभुनाती, बेंच पर बैठे एक यात्री से अकस्मात उसका बैग छीनने लगी। उस स्टेशन से रोज़ यात्रा करनेवाले एक यात्री ने हाथ के इशारे से महिला को आगे जाने के लिए कहा। बुढ़िया आगे बढ़ गई।

माज़रा समझ में आ गया। बुढ़िया का दिमाग चल गया है। पराया सामान, अपना समझती है, उसके लिए विलाप करती है।

चित्र दुखद था। कुछ ही समय में चित्र एन्लार्ज होने लगा। व्यष्टि का स्थान समष्टि ने ले लिया। क्या मर्त्यलोक में मनुष्य परायी वस्तुओं के प्रति इसी मोह से ग्रसित नहीं है? इन वस्तुओं को पाने के लिए भुनभुनाना, न पा सकने पर विलाप करना, बौराना और अंततः पूरी तरह दिमाग चल जाना।

अचेत अवस्था से बाहर आओ। समय रहते चेत जाओ अन्यथा समष्टि का चित्र रिड्युस होकर व्यष्टि पर रुकेगा। इस बार हममें से कोई उस बुढ़िया की जगह होगा।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – कजरी क्या है ? ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  काशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी का विशेष आलेख  “कजरी क्या है ?। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – कजरी क्या है ?

भारतीय गेय विधा में अनेकों  राग  में देश-काल समय के अनुसार गाते जाने वाले गीत है। इनकी प्रस्तुति अलग-अलग संगीत घरानों द्वारा दी जाती रही है, जिसमें होली, चैता, कजरी, दादरा, ठुमरी आदि शामिल हैं।

कजरी महिला समूहों द्वारा गाया जाने वाला बरखा ऋतु का लोक गीत है। इसका उद्गमस्थल गंगा की गोद में बसा मिर्जापुर का इलाका है, जहां पहले इसे महिला समूहों द्वारा ढ़ुनमुनियां कजरी के रूप में गाया जाने लगा था।  लेकिन समय के साथ इसका रंग रुप भाव अंदाज़ सभी कुछ बदलता चला गया। अब यह पूरे भोजपुरी समुदाय द्वारा गाई जाने वाली विधा बन गया है।  इसमें पहले विरह का भाव प्रमुख होता था। अब यह संयोग-वियोग, श्रृंगार, विरह प्रधान हो गया है। अब धीरे-धीरे इसमें पौराणिक कथाओं तथा व्याकरण का भी समावेश हो गया है तथा अब इसको  पूर्ण रूप से शास्त्रीय घरानों द्वारा अंगीकार कर लिया गया है। इसे उत्सव के रूप में भाद्र पद मास के कृ ष्ण पक्ष की तृतीया तिथि को कजरी तीज के रूप में महिलाएं मनाती हैं।

माना जाता है कि वर्षा ऋतु में पिउ जब परदेश  में ‌होता है उस समय किसी विरहनी की विरह वेदना को  अगर गहराई से एहसास करना हो तो व्यक्ति को कजरी अवश्य सुनना चाहिए। इसी क्रम में विरह वेदना से चित्रांकित कजरी गीत के भावों से रूबरू कराता मेरे द्वारा रचित उदाहरण देखें

कजरी गीत

हो घटा घेरि  घेरि,बरसै ये बदरिया ना । टेर। हो घटा घेरि घेरि।।

हरियर भइल बा सिवान, गोरिया मिल के रोपे धान। गोरिया मिल के रोपै धान।

झिर झिर बुन्नी परे ,भिजे थे चुनरिया ना।। हो घटाघेरि घेरि बरसै ये बदरिया ना।।1।

बहे पुरूआ झकझोर, टूटे देहिया पोर पोर।
घरवां कंता नाही, सूनी ये सेजरिया ना।। हो घटा घेरि घेरि।।2।।

दादुर पपिहा के बोली,,मारे जियरा में गोली,

सखियां खेलै लगली, तीज और कजरिया ना।।हो घटा घेरि घेरि।।3।।

एक त बरखा बा तूफानी,चूवै हमरी छप्पर छानी (झोपड़ी की छत)।

काटे मच्छर औ खटकीरा, बूझा हमरे जिव के पीरा।।हो घटा घेरि घेरि बरसै।।4।।

घरवां माई बा बिमार,आवै खांसी अउर बोखार।

दूजे देवरा बा शैतान,रोजवै करें परेशान।।हो घटाघेरि घेरि।।5।।

बतिया कवन हम बताइ ,केतनी बिपत हम गिनाई।

सदियां सून कइला तीज और कजरिया ना।।हो घटा घेरि घेरि बरसै रे ।।6।।

मन में बढ़ल बेकरारी,पाती गोरिया लिख लिख हारी।

अब तो कंता घरे आजा, आके हियवा में समाजा।। घटा घेर घेर बरसै रे।।7।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 72 ☆ संतान का सुख : संतान से सुख ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख संतान का सुख : संतान से सुखयह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 72 ☆

☆ संतान का सुख : संतान से सुख

‘संतान का सुख तो हज़ारों मां-बाप के पास है, परंतु वर्तमान परिवेश में संतान से सुख कितने मां-बाप के पास है, अत्यंत चिंता का विषय है…संस्कारों पर धब्बा है’… इस वाक्य ने अंतर्मन को झकझोर- झिंझोड़ कर रख दिया और सोचने पर विवश कर दिया…क्या आज की युवा-पीढ़ी समाज को आईना नहीं दिखा रही? क्या वह पाश्चात्य-सभ्यता का अंधानुकरण कर, उन की जूठन स्वीकार कर इतरा नहीं रही? क्या यह मानव-मूल्यों का पतन और संस्कारों का हनन नहीं है? आखिर माता-पिता बच्चों को संस्कारित करने में स्वयं को अक्षम क्यों अनुभव करते हैं…यह चंद प्रश्न मन को हरदम उद्वेलित करते हैं और एक लम्बे अंतराल के पश्चात् भी मानव इनका समाधान क्यों नहीं खोज पाया है?

संतान सुख अर्थात् संतान प्राप्त करने के पश्चात् माता-पिता कहलाना तो बहुत आसान है, परंतु उन्हें सुसंस्कारित कर, एक अच्छा इंसान बनाना अत्यंत कठिन कार्य है। घर में धमा-चौकड़ी मचाते, माता- पिता के कदमों से लिपट मान-मनुहार करते, अपनी बात मनवाने की ज़िद्द करते बच्चे; जहां मन-आंगन को महकाते हैं; वहीं जीवन को खुशियों से भी सराबोर कर देते हैं…इन सबसे बढ़कर औरत को बांझ होने के कलंक से बचाने में भी अहम् भूमिका अदा करते हैं। संतान-प्राप्ति के पश्चात् वह स्वयं को सौभाग्य-शालिनी मां, बच्चों की हर इच्छा को पूर्ण करने में प्रयासरत रहती है और उन्हें सुसंस्कारों से पल्लवित करने की भरपूर चेष्टा करती है। परंतु आधुनिक युग में टी•वी•, मोबाइल व मीडिया के प्रभाव-स्वरूप बच्चे इस क़दर उनकी ओर आकर्षित हो रहे हैं कि वे दिन-भर उनमें आंखें गढ़ाए बैठे रहते हैं। माता-पिता की अति-व्यस्तता व उपेक्षा के कारण, बच्चों से उनका बचपन छिन रहा है। ब्लू फिल्म्स् व अपराध जगत् की चकाचौंध देखने के पश्चात्, वे अनजाने में कब अपराध-जगत् में प्रवेश पा जाते हैं, इसकी खबर उनके माता-पिता को मिल ही नहीं पाती। इसका पर्दाफ़ाश तब होता है, जब वे नशे की आदत में इस क़दर लिप्त हो जाते हैं कि अपहरण, फ़िरौती, चोरी-डकैती, लूटपाट आदि उनके शौक़ बन जाते हैं। वास्तव में कम से कम में समय में, अधिकाधिक धन-संपदा व प्रतिष्ठा पा लेने का जुनून उन्हें ले डूबता है। विद्यार्थी जीवन में ही वे ऐसे घिनौने दुष्कृत्यों को अंजाम देकर, स्वयं को उस नरक में धकेल देते हैं, जिससे मुक्ति पाना असंभव हो जाता है। इसके प्रतिक्रिया-स्वरूप माता-पिता का एक-दूसरे पर दोषारोपण करने का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है। इन असामान्य परिस्थितियों में, वे जीवन में समझौता करने को तत्पर हो जाते हैं, परंतु बहुत देर हो चुकी होती है। प्रायश्चित-स्वरूप बच्चों को नशे की गिरफ़्त से मुक्त करवा कर लिवा लाने के लिए, मंदिर-मस्जिद में माथा रगड़ने का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है, जो लम्बे समय तक चलता रहता है। परंतु तब बहुत देर हो चुकी होती है …उनका सुखी संसार लुट चुका होता है और उनके पास आंसू बहाने के अतिरिक्त अन्य विकल्प शेष नहीं बचता ही नहीं।

इसका दूसरा पक्ष है, ‘वर्तमान परिवेश में संतान से सुख कितने माता-पिता को प्राप्त हो पाता है’…यह चिंतनीय व मननीय विषय है कि संतान के रहते कितने माता-पिता आत्म-संतुष्ट हैं तथा संतान से प्रसन्न हैं, सुखी हैं? आधुनिक युग में भले ही भौगोलिक दूरियां कम हो गई हैं, परंतु पारस्परिक- प्रतिस्पर्द्धा के कारण दिलों की दूरियां बढ़ती जा रही हैं और इन खाईयों को पाटना मानव के वश की बात नहीं रही। आज की युवा-पीढ़ी किसी भी कीमत पर; कम से कम समय में अधिकाधिक धनोपार्जन कर इच्छाओं व ख़्वाहिशों को पूरा कर; अपने सपनों को साकार कर लेना चाहती है– जिसके लिए उसे अपने घर-परिवार की खुशियों को भी दांव पर लगाना पड़ता है। इसका भीषण परिणाम हम संयुक्त-परिवार व्यवस्था के स्थान पर, एकल-परिवार व्यवस्था के काबिज़ होने के रूप में देख रहे हैं।

‘हम दो हमारे दो’ का नारा अब ‘हम दो हमारा एक’ तक सिमट कर रह गया है। आप को यह जानकर आश्चर्य होगा कि आज की युवा-पीढ़ी अपने भविष्य के प्रति कितनी सजग है…इसका अनुमान आप उन की सोच को देख कर लगा सकते हैं। आजकल वे संतान को जन्म देकर, किसी बंधन में बंधना नहीं चाहते..सभी दायित्वों से मुक्त रहना पसंद करते हैं। शायद! वे इस तथ्य से अवगत नहीं होते कि बच्चे माता-पिता के संबंधों को प्रगाढ़ बनाने की धुरी होते हैं..परिवारजनों में पारस्परिक स्नेह, सौहार्द व विश्वास में वृद्धि करने का माध्यम होते हैं। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि संतान सुख प्राप्त करने के पश्चात् भी, एक छत के नीचे रहते हुए भी पति-पत्नी के मध्य अजनबीपन का अहसास बना रहता है, जिसका दुष्प्रभाव बच्चों पर पड़ता है। वे आत्मकेंद्रित होकर रह जाते हैं तथा घर से बाहर सुक़ून की तलाश करते हैं, जिसका घातक परिणाम हमारे समक्ष है। वैसे भी आजकल मोबाइल, वॉट्सएप, फेसबुक व इंस्टाग्राम आदि पारस्परिक संवाद व भावों के आदान-प्रदान के माध्यम बनकर रह गये हैं।

इक्कीसवीं सदी में बच्चों से लेकर वृद्ध अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं…किसी के पास, किसी के लिए समय नहीं होता…फिर भावनाओं व संवेदनाओं की अहमियत का प्रश्न ही कहां उठता है? मानव आज कल संवेदनहीन होता जा रहा है…दूसरे शब्दों में आत्मकेंद्रितता के भाव ने उसे जकड़ रखा है, जिसके कारण वह निपट स्वार्थी होता जा रहा है। जहां तक सामाजिक सरोकारों का संबंध है, आजकल हर व्यक्ति एकांत की त्रासदी झेल रहा है। सबके अपने-अपने सुख-दु:ख हैं, जिनके व्यूह से मुक्ति पाने में वह स्वयं को असमर्थ पाता है। संबंधों की डोर टूट रही है और परिवार रूपी माला के मनके एक-एक कर बिखर रहे हैं, जिसका आभास माता-पिता को एक लंबे अंतराल के पश्चात् होता है; तब तक सब कुछ लुट चुका होता है। इस असमंजस की स्थिति में मानव कोई भी निर्णय नहीं ले पाता और एक दिन बच्चे अपने नए घरौंदों की तलाश में अक्सर विदेशों में शरण लेते हैं या मेट्रोपोलिटन शहरों की ओर रुख करते हैं, ताकि उनका भविष्य सुरक्षित रह पाए और वे आज की दुनिया के बाशिंदे कहलाने में फ़ख्र महसूस कर सकें। सो! वे सुख- सुविधाओं से सुसज्जित अपने अलग नीड़ का निर्माण कर, खुशी व सुख का अनुभव करते हैं। इसलिए परिवार की परिभाषा आजकल मम्मी-पापा व बच्चों के दायरे में सिमट कर रह गई है; जिस में किसी अन्य का स्थान नहीं होता। वैसे आजकल तो काम-वाली बाईयां भी आधुनिक परिवार की परिभाषा से बखूबी परिचित हैं और वे भी उन्हीं परिवारों में काम करना पसंद करती हैं, जहां तीन या चार प्राणियों का बसेरा हो।

चलिए! हम चर्चा करते हैं, बच्चों से सुख प्राप्त करने की…जो आजकल कल्पनातीत है। बच्चे स्वतंत्र जीवन जीना चाहते हैं, क्योंकि संबंधों व सरोकारों की अहमियत वे समझते ही नहीं। वास्तव में संस्कार व संबंध वह धरोहर है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती है… परंतु अब यह धारणा अस्तित्वहीन हो चुकी है। एकल परिवार-व्यवस्था में माता-पिता– दादा-दादी से अलग-थलग रहते हैं। सो! नाना-नानी और अन्य रिश्तों की अहमियत व गरिमा कहां सुरक्षित रह पाती है? प्रश्न उठता है…’ उनके लिए तो संबंधों व सरोकारों की महत्ता बेमानी होगी, क्योंकि वे आत्ममुग्ध व अहंनिष्ठ प्राणी एकांगी जीवन जीने के आदी हो चुके होते हैं। बचपन से दि -रात नैनी व आया के संरक्षण व उनके साये में रहना, उन बच्चों की नियति बन जाती है। सो! वे अपने माता-पिता से अधिक अहमियत, अपनी नैनी व स्कूल की शिक्षिका को देकर सब को धत्ता बता देते हैं। उस समय उनके माता-पिता की दशा ‘जल बिच मीन पियासी’ जैसी होती है, क्योंकि उनके जन्मदाता होने पर भी उन्हें अपेक्षित मान-सम्मान नहीं मिल पाता है… जिसके वे अधिकारी होते हैं, हक़दार होते हैं। धीरे-धीरे संबंध हैलो-हाय तक सीमित होकर, अंतिम सांसें लेते दिखाई पड़ते हैं। इस स्थिति में उन्हें अपनी ग़लतियों का अहसास होता है और वे अपने आत्मजों से लौट कर आने का अनुरोध करते हैं, परंतु सब निष्फल।

‘गुज़रा हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता’ यह शाश्वत सत्य है। वे अब प्रायश्चित-स्वरूप परिवार में लौट आना चाहते हैं, परंतु उनके हाथ खाली रह जाते हैं। किसी ने सत्य कहा है कि ‘आप जो करते हैं, वह इसी जीवन में, उसी रूप में लौटकर आपके समक्ष आता है। एकल परिवार व्यवस्था में बूढ़े माता-पिता को घर में तो स्थान मिलता नहीं और वे अपना अलग आशियां बना कर रहने को विवश होते हैं तथा असामान्य परिस्थितियों में वृद्धाश्रम की ओर रुख करते हैं। इसी संदर्भ में मुझे स्मरण हो रही है वह घटना, जब वृद्धाश्रम में रहते हुए एक महिला ने जीवन की अंतिम बेला में, अपने पुत्र को वृद्धाश्रम में आमंत्रित किया और अपनी अंतिम इच्छा से अवगत कराया…’बेटा! तुम यहां पंखे लगवा देना।’ बेटे ने तुरंत प्रश्न किया ‘मां! अब तो तुम संसार से विदा हो रही हो… यह सब तो तुम्हें पहले बताना चाहिए था।’ मां का उत्तर सुन बेटा अचंभित रह गया। ‘मुझे तेरी चिंता है…चंद वर्षों बाद जब तू यहां आकर रहेगा, तुझ से भयंकर गर्मी बर्दाश्त नहीं होगी।’ यह सुनकर बेटा बहुत शर्मिंदा हुआ और उसे अपनी भूल का अहसास हुआ।

परंतु समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। मां इस संसार को अलविदा कह जा चुकी थी। शेष बची थीं, उसकी स्मृतियां। वर्तमान परिवेश में तो परिस्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैं। आजकल बच्चों को किसी प्रकार के बंधन अर्थात् मर्यादा में रहना पसंद नहीं है। बच्चे क्या, पति-पत्नी के मध्य बढ़ती दूरियां अलगाव व तलाक़ के रूप में हमारे समक्ष हैं। हर तीसरी महिला इस विषम परिस्थिति से जूझ रही है। चारवॉक दर्शन युवा पीढ़ी की पसंद है..’खाओ पियो, मौज उड़ाओ’ की अवधारणा तो अब बहुत पीछे छूट चुकी है। अब तो ‘तू नहीं और सही’ का बोलबाला है। उनके अहं टकराते हैं; जो उन्हें उस कग़ार पर लाकर खड़ा कर देते हैं; जहां से लौटना असंभव अर्थात् नामुमक़िन होता है।

यदि हम इन असामान्य व विषम स्थितियों का चिंतन करें, तो हमें अपसंस्कृति अर्थात् समाज में बढ़ रही संस्कारहीनता पर दृष्टिपात करना पड़ेगा। सामाजिक अव्यवस्थाओं व व्यस्तताओं के कारण हमारे पास बच्चों को सुसंस्कारित करने का समय ही नहीं है। हम उन्हें सुख-सुविधाएं तो प्रदान कर सकते हैं, परंतु समय नहीं, क्योंकि कॉरपोरेट जगत् में दिन-रात का भेद नहीं होता। सो! बच्चों की खुशियों को नकार; उनके जीवन को दांव पर लगा देना; उनकी विवशता का रूप धारण कर लेती है।

इंसान दुनिया की सारी दौलत देकर, समय की एक घड़ी भी नहीं खरीद सकता, जिसका आभास मानव को सर्वस्व लुट जाने के पश्चात् होता है। यह तो हुई न ‘घर फूंक कर तमाशा देखने वाली बात’ अर्थात् उस मन:स्थिति में वह आंसू बहाने और प्रायश्चित करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कर पाता… क्योंकि उनकी संतान समय के साथ बहुत दूर निकल चुकी होती है तथा उनके माता-पिता हाथ मलते रह जाते हैं। फलत: वे दूसरों को यही सीख देते हैं कि ‘बच्चों से उनका बचपन मत छीनो। एक छत के नीचे रहते हुए, दिलों में दरारें मत पनपने दो, बल्कि एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हुए, बच्चों के साथ अधिक से अधिक समय व्यतीत करो; उन्हें भरपूर खुशियां प्रदान करो; उनका पूरा ख्याल रखो तथा उनके सुख-दु:ख के साथी बनो।’ सो! आप से अपेक्षा है कि आप अपने हृदय में दैवीय गुणों को विकसित कर, उनके सम्मुख आदर्श स्थापित करें, ताकि वे आपका अनुसरण करें और उनका सर्वांगीण विकास हो सके। यही मानव जीवन का सार है, मक़सद है, लक्ष्य है। मानव को सृष्टि के विकास में योगदान देकर, अपना दायित्व-वहन करना चाहिए, ताकि संतान के सुख-दु:ख का दायरा, उनके इर्द-गिर्द सिमट कर रह जाए तथा माता-पिता को यह कहने की आवश्यकता ही अनुभव न हो कि यह हमारी संतान है, बल्कि माता-पिता संतान के नाम से जाने जाएं अर्थात् उनकी संतान ही उनकी पहचान बने…यही मानव-जीवन की सार्थकता है, अलौकिक आनंद है, जीते जी मुक्ति है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 24 ☆ योग : कला, विज्ञान, साधना का समन्वय☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “योग : कला, विज्ञान, साधना का समन्वय )

☆ किसलय की कलम से # 24 ☆

☆ योग : कला, विज्ञान, साधना का समन्वय

महायोगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से समूचा विश्व परिचित है । श्रीमद्भगवद्गीता ज्ञान, उपदेश एवं कर्म-मीमांसा के साथ ध्यानयोग, भक्तियोग तथा ज्ञानयोग जैसे व्यापक विषयों का अद्वितीय ग्रंथ है। गीता में कृष्ण द्वारा योग पर जो उपदेश दिए गए हैं , वे समस्त प्राणियों की जीवन-धारा बदलने में सक्षम हैं। विश्व स्तर पर बहुसंख्य विद्वानों द्वारा गीता में वर्णित योग पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। योग क्रियाओं के माध्यम से जीवन जीने की कला में पारंगत मानव स्वयं को आदर्श के शिखर तक पहुँचाने में सफल होता है, इसीलिए योग को कला माना जाता है। योग में वे सभी वैज्ञानिक तथ्य भी समाहित हैं जिनको हम साक्ष्य, दर्शन, परिणाम एवं प्रयोगों द्वारा जाँच कर सत्यापित कर सकते हैं। योग से अनिद्रा, अवसाद, स्वास्थ्य आदि में धनात्मक परिणाम मिलते ही हैं। अतः योग विज्ञान भी है। सामान्य लोगों का योग की जड़ तक न पहुँचने तथा भगवान के द्वारा उपलब्ध कराये जाने के कारण यह दुर्लभ योग रहस्य से कम नहीं है। योग प्रेम-भाईचारा एवं वसुधैव कुटुंबकम् की अवस्था लाने वाली मानसिक एवं शारीरिक प्रक्रियाओं की आत्म नियंत्रित विधि है, जो मानव समाज के लिए बेहद लाभकारी है। आज की भागमभाग एवं व्यस्त जीवनशैली के चलते कहा जा सकता है कि योग निश्चित रूप से कला, विज्ञान, समाज को नई दिशा प्रदान करने में सक्षम है।

भगवान् कृष्ण द्वारा अर्जुन को दी गई योग शिक्षा का उद्देश्य भी यही था है कि मानव तो मात्र निमित्त होता है, बचाने वाले या मारने वाले तो स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण हैं। श्रेय हेतु अर्जुन को युद्ध कर्म के लिए प्रेरित करने का आशय यह था कि वह इतिहास के पृष्ठों में कायर न कहलाए। महाभारत के दौरान अपने ही लोगों से युद्ध करने एवं अधार्मिक गतिविधियों के चलते धर्म-संस्थापना हेतु युद्ध की अनिवार्यता को प्रतिपादित करती योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण की यह दीक्षा ही अंतत: अर्जुन को युद्ध हेतु तैयार कर सकी, जिसका ही परिणाम धर्म सम्मत समाज की स्थापना के रूप में हमारे समक्ष आया।

उपरोक्त बातें बहुसंख्य साधकों तथा विद्वतजनों के चिंतन से भी स्पष्ट हुई हैं। यही  विषय मानव जीवन उपयोगी होने के साथ ही हमें आदिपुरुषों के इतिहास और तात्कालिक सामाजिक व्यवस्थाओं से भी अवगत कराता है। श्रीमद्भगवद्गीता में योग-दीक्षा का जो विस्तृत वर्णन है, उसकी विभिन्न ग्रंथों व पुस्तकों में उपलब्ध उद्धरणों एवं आख्यानों से भी सार्थकता सिद्ध हो चुकी है। योग को समझने के लिए गीता के छठे अध्याय का चिंतन-मनन एवं अनुकरण की महती आवश्यकता है।

साधना को योग से जोड़ने के संदर्भ में योगी का मतलब केवल गेरुआ वस्त्र धारण करना अथवा संन्यासी होना ही नहीं है, मन का रंगना एवं नियमित अभ्यासी होना भी है। स्वयं से सीखना, अहंकार मुक्त होना, सब कुछ ईश्वर का है और हम मात्र उपभोक्ता हैं, यह भी ध्यान में रखना जरूरी है। “मैं” का मिटना ही अपने आप को जीतना है। योग का मूल उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति मानकर आगे बढ़ने से मानव को बहुत कुछ पहले से ही मिलना प्रारंभ हो जाता है। इंद्रिय साधना से सब कुछ नियंत्रित हो सकता है। हठयोग के बजाए ‘शरीर को अनावश्यक कष्ट न देते हुए’ साधना से भी ज्ञान प्राप्त होता है, जैसे भगवान बुद्ध ने प्राप्त किया था । इसी तरह अभ्यास एवं वैराग्य द्वारा मानसिक नियंत्रण संभव है । महायोगेश्वर कृष्ण ने सभी साधकों को गीता के माध्यम से योग दीक्षा दी है, जिसका वर्तमान मानव जीवन में उपयोग किया जाए तो हमारा समाज वास्तव में नैतिक, मानसिक व शारीरिक रूप से उन्नत हो सकेगा।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #84 ☆ आलेख – ऊर्जा संरक्षण के नये विकल्प ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक विचारणीय एवं सार्थकआलेख   ‘ऊर्जा संरक्षण के नये विकल्प.  इस सार्थक एवं अतिसुन्दर लघुकथा के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 84 ☆

☆ लघुकथा ऊर्जा संरक्षण के नये विकल्प ☆

अंग्रेजी में बी का अर्थ होता है मधुमख्खी.  सभी जानते हैं कि मधुमख्खी किस तरह फूल फूल से पराग कणो को चुनकर शहद बनाती हैं,  जो मीठा तो होता ही है, स्वास्थ्यकर भी होता है.  मधुमख्खखियो का छतना पराग के कण कण से संरक्षण का श्रेष्ठ उदाहरण है. मधुमख्खी अर्थात बी की स्पेलिंग बी ई ई होती है. भारत सरकार के संस्थान ब्यूरो आफ इनर्जी इफिशियेंसी का एब्रिवियेशन भी बी ई ई ही है.  उर्जा संरक्षण के नये वैश्विक विकल्पों पर ब्यूरो आफ इनर्जी इफिशियेंसी अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है. ऊर्जा दक्षता ब्यूरो अर्थात ब्यूरो आफ इनर्जी इफिशियेंसी का लक्ष्य ऊर्जा दक्षता की सेवाओं को संस्थागत रूप देना है ताकि देश के सभी क्षेत्रों में ऊर्जा दक्षता के प्रति जागरूकता उत्पन्न हो.  इसका गठन ऊर्जा संरक्षण अधिनियम,  २००१ के अन्तर्गत मार्च २००२ में किया गया था.  यह भारत सरकार के विद्युत मन्त्रालय के अन्तर्गत कार्य करता है.   इसका कार्य ऐसे कार्यक्रम बनाना है जिनसे भारत में ऊर्जा के संरक्षण और ऊर्जा के उपयोग में दक्षता  बढ़ाने में मदद मिले.  यह संस्थान ऊर्जा संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत सौंपे गए कार्यों को करने के लिए उपभोक्ताओं,  संबंधित संस्थानो व संगठनों के साथ समन्वय करके संसाधनों और विद्युत संरचना को मान्यता देने,  इनकी पहचान करने तथा इस्तेमाल का आप्टिमम उपयोग हो सके ऐसे कार्य करता है.

हमारे मन में यह भाव होता है कि बचत का अर्थ उपयोग की अंतिम संभावना तक प्रयोग है,  इसके चलते हम बारम्बार पुराने विद्युत उपकरणो जैसे पम्प,  मोटर आदि की रिवाइंडिंग करवा कर इन्हें सुधरवाते रहते हैं,  हमें जानकारी ही नही है कि हर रिवाइंडिंग से उपकरण की ऊर्जा दक्षता और कम हो जाती है तथा  चलने के लिये वह उपकरण अधिक ऊर्जा की खपत करता है.  इस तरह केवल आर्थिक रूप से सोचें तो भी नयी मशीन से रिप्लेसमेंट की लागत से ज्यादा बिजली का बिल हम किश्तों में दे देते हैं. इतना ही नहीं बृहद रूप से राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में सोचें तो इस तरह हम ऊर्जा दक्षता के विरुद्ध अपराध करते हैं.  देश में सेकेंड हैंड उपकरणो का बड़ा बाजार सक्रिय है.  यदि सक्षम व्यक्ति अपने उपकरण ऊर्जा दक्ष उपकरणो से बदलता भी है तो उसके पुराने ज्यादा खपत वाले उपकरण इस सेकेंड हैंड बाजार के माध्यम से पुनः किसी न किसी उपयोगकर्ता तक पहुंच जाते हैं और वह उपकरण ग्रिड में यथावत बना रह जाता है.  आवश्यकता है कि ऐसे ऊर्जा दक्षता में खराब चिन्हित उपकरणो को नष्ट कर दिया जावे तभी देश का समग्र ऊर्जा दक्षता सूचकांक बेहतर हो सकता है.

आत्मनिर्भर भारत के कार्यक्रम से देश में उर्जा की खपत बढ़ रही है.  ऐसे समय में ऊर्जा दक्षता बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है.  ऐसे परिदृश्य में ऊर्जा संसाधनों और उनके संरक्षण का कुशल उपयोग स्वयं ही अपना महत्व प्रतिपादित करता है.  ऊर्जा का कुशल उपयोग और इसका संरक्षण ऊर्जा की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए सबसे कम लागत वाला विकल्प है.  देश में ऊर्जा दक्षता सेवाओं के लिए वितरण तंत्र को संस्थागत बनाने और मजबूत करने के लिए और विभिन्न संस्थाओं के बीच आवश्यक समन्वय प्रदान करने का काम ब्यूरो आफ इनर्जी एफिशियेंशी कर रहा है.  आज का युग वैश्विक प्रतिस्पर्धा का है,   ऊर्जा की बचत से भारत को एक ऊर्जा कुशल अर्थव्यवस्था बनाने में लगातार समवेत प्रयास करने होंगे ताकि न केवल हम अपने स्वयं के बाजार के भीतर प्रतिस्पर्धी बने रहें बल्कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भी प्रतिस्पर्धा कर सकें.

अक्षय ऊर्जा स्रोत वैकल्पिक ऊर्जा के नवीनतम विकल्प के रूप में लोकप्रिय हो रहे हैं.  हर छत बिजली बना सकती है.  सौर ऊर्जा उत्पादन पैनल अब बहुत काम्पेक्ट तथा दक्ष हो गये हैं.  इस तरह उत्पादित बिजली न केवल स्वयं के उपयोग में लाई जा सकती है,  वरन अतिरिक्त विद्युत,  वितरण ग्रिड में बैंक की जा सकती है,  एवं रात्रि में जब सौर्य विद्युत उत्पादन नही होता तब  ग्रिड से ली जा सकती है.  इसके लिये बाईलेटरल मीटर लगाये जाते हैं.  ऊर्जा दक्ष एल ई डी प्रकाश स्त्रोतो का उपयोग,  दीवारो पर ऐसे  हल्के रंगो का उपयोग जिनसे प्रकाश परावर्तन ज्यादा हो,  घर का तापमान नियंत्रित करने के लिये छत की आकाश की तरफ की सतह पर सफेद रंग से पुताई,   ए सी की आउटर यूनिट को शेड में रखना,  फ्रिज को घर की बाहरी नही भीतरी दीवार के किनारे रखना,

वाटर पम्प में टाईमर का उपयोग,  टीवी,  कम्प्यूटर आदि उपकरणो को हमेशा  स्टेंड बाई मोड पर रखने की अपेक्षा स्विच से ही बंद रखना आदि कुछ सहज उपाय प्रचलन में हैं.  एक जो तथ्य अभी तक लोकप्रिय नही है,  वह है भू गर्भीय तापमान का उपयोग,  धरती की सतह से लगभग तीन मीटर नीचे का तापमान ठण्ड में गरम व गर्मी में ठण्डा होता है,  यदि डक्ट के  द्वारा इतने नीचे तक वायु प्रवाह का चैम्बर बनाकर उसे कमरे से जोड़ा जा सके तो कमरे के तापमान को आश्चर्यकारी तरीके से नियंत्रित किया जा सकता है.

ऊर्जा दक्षता और संरक्षण पर जन सामान्य में जागरूकता उत्पन्न करना एवं इसका प्रसार करना समय की आवश्यकता है.  इसके लिये बी ई ई लगातार काम कर रही है.  ऊर्जा के दक्ष उपयोग और इसके संरक्षण के लिए तकनीक से जुड़े कार्मिक और विशेषज्ञों के प्रशिक्षण की व्यवस्था और उसका आयोजन करना,  ऊर्जा संरक्षण के क्षेत्र में परामर्शी सेवाओं का सुदृढ़ीकरण,  ऊर्जा संरक्षण के क्षेत्र में अनुसन्धान और विकास कार्यो का संवर्द्धन,  विद्युत उपकरणो के परीक्षण और प्रमाणन की पद्धतियों का विकास और परीक्षण सुविधाओं का संवर्द्धन करना,  प्रायोगिक परियोजनाओं के कार्यान्वयन का सरलीकरण करना,  ऊर्जा दक्ष प्रक्रियाओं,  युक्तियों और प्रणालियों के इस्तेमाल को बढ़ावा देना,  ऊर्जा दक्ष उपकरण अथवा उपस्करों के इस्तेमाल के लिए लोगों के व्यवहार को प्रोत्साहन देने के लिए कदम उठाना,  ऊर्जा दक्ष परियोजनाओं की फंडिंग को बढ़ावा देना,  ऊर्जा के दक्ष उपयोग को बढ़ावा देने और इसका संरक्षण करने के लिए संस्थाओं को वित्तीय सहायता देना, ऊर्जा के दक्ष उपयोग और इसके संरक्षण पर शैक्षणिक पाठ्यक्रम तैयार करना,  ऊर्जा के दक्ष उपयोग और इसके संरक्षण से सम्बन्धित अंतरराष्ट्रीय सहयोग के कार्यक्रमों को क्रियान्वित करना आदि कार्य ब्यूरो आफ इनर्जी एफिशियेंसी लगातार अत्यंत दक्षता से कर रहा है.

आज जब भी हम कोई विद्युत उपकरण खरीदने बाजार जाते हैं जैसे एयर कंडीशनर,  फ्रिज,  पंखा,  माइक्रोवेव ओवन,  बल्ब,  ट्यूब लाइट या अन्य कोई बिजली से चलने वाले छोटे बड़े उपकरण तो उस पर स्टार रेटिंग का चिन्ह दिखता है.  अर्ध चंद्राकार चित्र में एक से लेकर पांच सितारे तक बने होते हैं.  यह रेटिंग दरअसल सितारों की बढ़ती संख्या के अनुरूप अधिक विद्युत कुशलता का बीईई प्रमाणी करण है.  विभिन्न उपकरणों की स्टार रेटिंग आकलन के लिए मानकों और लेबल सेटिंग के कार्य में बी ई ई परीक्षण और प्रमाणीकरण प्रक्रियाओं के विकास और परीक्षण सुविधाओं को बढ़ावा देने के लिए निरन्तर कार्यशील रहती है.  विद्युत उपकरणों के सभी प्रकार के परीक्षण और प्रमाणन प्रक्रियाओं को परिभाषित करने का कार्य बी ई ई ही  करती है.   यंत्र उत्पादन संस्थान जब भी किसी विद्युत उपकरण के नये मॉडल का निर्माण करता हैं वह यह जरूर चाहता है की उसका उत्पाद प्रमाणित हो जाए,  जिससे उपभोक्ता के मन में उत्पाद के प्रति विश्वसनीयता की भावना उत्पन्न हो सके.  इसके लिये निर्माता बीईई द्वारा डिजाइन प्रक्रियाओं के अनुसार अपने उपकरणों का परीक्षण करने के उपरान्त,  प्राप्त आंकड़ों के साथ स्टार प्रमाण पत्र के लिए आवेदन करते हैं,  परीक्षण के आंकड़ों के आधार पर बीईई इन उपकरणों के लिए एक स्टार रेटिंग प्रदान करता है.  बीईई समय-समय पर मानकों और प्रमाणीकरण प्रक्रियाओं को परिष्कृत भी करता रहता है. आज जब ई कामर्स लगातार बढ़ता जा रहा है इस तरह की स्टार रेटिंग खरीददार के मन में बिना भौतिक रूप से उपकरण को देखे भी,  केवल उत्पाद का चित्र देखकर, उसके उपयोग तथा ऊर्जा दक्षता के प्रति आश्वस्ति का भाव पैदा करने में सहायक होता है.

देश में उर्जा दक्षता को बढ़ावा देने के लिये व जलवायु परिवर्तन से संबंधित वैश्विक प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए ऊर्जा दक्षता ब्यूरो तथा ऊर्जा दक्ष अर्थव्यवस्था हेतु गठबंधन द्वारा मिलकर,  भारत का पहला ‘राज्य ऊर्जा दक्षता तैयारी सूचकांक’ जारी किया है.  यह सूचकांक देश के सभी राज्यों में ऊर्जा उत्सर्जन के प्रबंधन में होने वाली प्रगति की निगरानी करने,  इस दिशा में राज्यों के बीच प्रतिस्पर्द्धा को प्रोत्साहित करने और कार्यक्रम कार्यान्वयन में सहायता प्रदान करता है.  ऊर्जा दक्षता सूचकांक इमारतों,  उद्योगों,  नगरपालिकाओं,  परिवहन,  कृषि और बिजली वितरण कंपनियों जैसे क्षेत्रों के 63 संकेतकों पर आधारित है.  ये संकेतक नीति,  वित्त पोषण तंत्र,  संस्थागत क्षमता,  ऊर्जा दक्षता उपायों को अपनाने और ऊर्जा बचत प्राप्त करने जैसे मानकों पर आधारित हैं.  बीईई के अनुसार,  ऊर्जा दक्षता प्राप्त करके भारत 500 बिलियन यूनिट ऊर्जा की बचत कर सकता है.  वर्ष 2030 तक 100 गीगावाट बिजली क्षमता की आवश्यकता को कम किया जा सकता है.  इससे कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में लगभग 557 मिलियन टन की कमी की जा सकती है.  इसके अन्य मापकों में विद्युत वाहनों के माध्यम से भारत के विकास की गतिशीलता को फिर से परिभाषित करना तथा विद्युत उपकरणों,  मोटरों,  कृषि पम्पों तथा ट्रैक्टरों और यहां तक कि भवनों की ऊर्जा दक्षता में सुधार लाना शामिल है.  राज्यों को उनके प्रदर्शन के आधार पर अग्रगामी (फ्रंट रनर),  लब्धकर्ता (एचीवर),  प्रतिस्पर्धी (कंटेंडर) व आकांक्षी (ऐस्पिरैंट) चार श्रेणियों में बांटा गया है.  सूचकांक में 60 से अधिक अंक पाने वाले राज्यों को ‘अग्रगामी’,  50-60 तक अंक पाने वाले राज्यों को ‘लब्धकर्ता’,  30-49 तक अंक पाने वाले राज्यों को ‘प्रतिस्पर्धी’ और 30 से कम अंक पाने वाले राज्यों को ‘आकांक्षी’ श्रेणी में चिन्हित किया गया है.

नये भवनो के निर्माण में प्रथम चरण में  100 किलोवॉट और उससे अधिक या 120 केवीए और इससे अधिक  संबद्ध विद्युत लोड वाले बड़े व्यावसायिक भवनों पर ऊर्जा संरक्षण भवन संहिता लागू की गई  है.  ईसीबीसी अर्थात इनर्जी कंजरवेशन बिल्डिंग कोड बनाया गया है.  यह कोड भवन आवरण,  यांत्रिक प्रणालियों और उपकरणों पर केंद्रित है.  जिसमें हीटिंग,  वेंटिलेटिंग और एयर कंडीशनिंग प्रणाली,  आंतरिक और बाहरी प्रकाश व्यवस्था,  विद्युत प्रणाली और नवीकरणीय ऊर्जा शामिल हैं. इसमें भारत के मौसम के अनुरूप पांच जलवायु क्षेत्रों गर्म सूखे,  गर्म गीले,  शीतोष्ण,  समग्र और शीत,   को भी ध्यान में रखा गया है.  मौजूदा आवासीय और व्यावसायिक भवनों में ऊर्जा दक्षता लाने की भी महत्वपूर्ण आवश्यकता है.   विभिन्न अध्ययनों में यह देखा गया है कि मौजूदा वाणिज्यिक भवनों की उर्जा दक्षता क्षमता मात्र 30से40% ही है.  ब्यूरो,  ऊर्जा सघन इमारतों की अधिसूचना जारी करता है.   राज्य के अधिकारियों द्वारा अनिवार्य ऊर्जा ऑडिट के लिए अधिसूचना और मौजूदा बहुमंजिला इमारतों में ऊर्जा दक्षता उन्नयन के कार्यान्वयन हेतु वाणिज्यिक भवनों के लिए स्टार लेबलिंग कार्यक्रम का दायरा व्यापक बनाने के विभिन्न कार्य भी ब्यूरो कर रहा है.   कम लागत वाले आवास के ऊर्जा दक्ष डिजाइन के लिए भी ब्यूरो द्वारा दिशानिर्देश तैयार किये जाते हैं.

सरकार ने मार्च 2007 में  नौ बड़ें औद्योगिक क्षेत्रों को चिन्हित किया था जिनमें ऊर्जा की सर्वाधिक खपत दर्ज होती है.  ये क्षेत्र हैं एल्यूमीनियम,  सीमेंट,  क्षार,  उर्वरक,  लोहा और इस्पात,  पल्प एंड पेपर,  रेलवे,  कपड़ा और ताप विद्युत संयंत्र.   इन इकाइयों  में ऊर्जा दक्षता में सुधार के लिए लक्ष्य निर्धारित कर समयबद्ध योजना बनाकर ऊर्जा संरक्षण के प्रयास किये जा रहे हैं.  इसी तरह लघु व मध्यम उद्योगों में भी उर्जा दक्षता हेतु व्यापक प्रयास किये जा रहे हैं.

विद्युत मांग पक्ष प्रबंधन अर्थात डिमांड साइड मैनेजमेंट को सुनिश्चित करते हुए ऊर्जा की मांग में कमी के लक्ष्य प्राप्त करने के व्यापक प्रयास भी किये जा रहे हैं. डीएसएम के हस्तक्षेप से न केवल बिजली की पीक मांग को कम करने में मदद मिली है, बल्कि यह उत्‍पादन, पारेषण और वितरण नेटवर्क में उच्च निवेश को कम करने में भी सहायक होता है.

कृषि हेतु विद्युत मांग के प्रबंधन से  सब्सिडी के बोझ को कम करने में मदद मिलती है.  हमारे प्रदेश में कृषि हेतु बिजली की मांग बहुत अधिक है.  कृषि पंपों की औसत क्षमता लगभग 5 एचपी है पर इनकी ऊर्जा दक्षता का स्तर 25-30% ही है.  यदि समुचित दक्षता के पंप लगा लिये जावें तो इतनी ही बिजली की मांग में ज्यादा पंप चलाये जा सकते हैं.  जिस पर काम किया जा रहा है. किसानों की आय दोगुनी करने के समय बद्ध लक्ष्य को पाने के लिये ऊर्जा दक्षता का योगदान महत्वपूर्ण है.  कृषि पंपसेट,  ट्रैक्टर और अन्य मशीनों का उपयोग न्यूनतम ईंधन से करने और सिंचाई का प्रयोग प्रति बूंद अधिक फसल की कार्यनीति के अंतर्गत करने की योजना को प्रभावी बनाया जा रहा है.  नगरपालिका मांग पक्ष प्रबंधन के द्वारा स्ट्रीट लाइट प्रकाश व्यवस्था,  जल प्रदाय संयत्रो में विद्युत उपयोग में ऊर्जा संरक्षण को बढ़ावा दिया जा रहा है.

बिजली के क्षेत्र में अनुसंधान की व्यापक संभावनायें हैं.  हम आज भी लगभग उसी आधारभूत तरीके से व्यवसायिक बिजली उत्पादन,  व वितरण कर रहे हैं जिस तरीके से सौ बरस पहले कर रहे थे.  दुनिया की सरकारो को चाहिये कि बिजली के क्षेत्र में अन्वेषण का बजट बढ़ायें.  वैकल्पिक स्रोतो से बिजली का उत्पादन,  बिना तार के बिजली का तरंगो के माध्यम से  वितरण संभावना भरे हैं.  हर घर में शौचालय होता है,  जो बायो गैस का उत्पादक संयत्र बनाया जा सकता है,  जिससे घर की उर्जा व प्रकाश की जरूरत  पूरी की जा सकती है.   रसोई के अपशिष्ट से भी बायोगैस के जरिये चूल्हा जलाने के प्रयोग किये जा सकते हैं.   बिजली को व्यवसायिक तौर पर एकत्रित करने के संसाधनो का विकास,  कम बिजली के उपयोग से अधिक क्षमता की मशीनो का संचालन,  अनुपयोग की स्थिति में विद्युत उपकरणो का स्व संचालन से बंद हो जाना,  दिन में बल्ब इत्यादि प्रकाश श्रोतो का स्वतः बंद हो जाना आदि बहुत से अनछुऐ बिन्दु हैं जिन पर हमारे युवा अनुसंधानकर्ता ध्यान दें,  विश्वविद्यालयों व रिसर्च संस्थानो में काम हो तो बहुत कुछ नया किया जा सकता है.   वर्तमान संसाधनो में सरकार बहुत कुछ कर रही है जरूरत है कि विद्युत व्यवस्था को अधिक सस्ता व अधिक उपयोगी बनाने के लिये जन चेतना जागृत हो.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 73 ☆ फादर ऑफ मेन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 73 – फादर ऑफ मेन 

‘द चाइल्ड इज द फादर ऑफ मेन।’ दो शताब्दी पहले विल्यम वर्ड्सवर्थ की कविता में सहजता से आया था यह उद्गार। यह सहज उद्गार कालांतर में मनोविज्ञान का सिद्धांत बन जाएगा, यह विल्यम वर्ड्सवर्थ ने भी कहाँ सोचा होगा।

‘चाइल्ड’ के ‘फादर’ होने की शुरुआत होती है, अभिभावकों द्वारा दिये जाते निर्देशों से। विवाह या अन्य समारोहों में माँ-बाप द्वारा अपने बच्चों को दिये जाते ये निर्देश सार्वजनिक रूप से सुनने को मिलते हैं। कुछ बानगियाँ देखिए, ‘दौड़कर लाइन में लगो अन्यथा जलपान समाप्त हो जायेगा।’…  ‘पहले भोजन करो, बाद में शायद न बचे।’.. ‘गिफ्ट देते समय फोटो ज़रूर खिंचवाना।’… ‘बरात में बैंड-बाजेवालों को पैसे तभी देना जब वीडियो शूटिंग चल रही हो।’ बचपन से येन केन प्रकारेण हासिल करना सिखाते हैं, तजना सिखाते ही नहीं। बटोरने का अभ्यास करवाते हैं, बाँटने की विधि बताते ही नहीं। बच्चे में आशंका, भय, आत्मकेंद्रित रहने का भाव बोते हैं। पहले स्वार्थ देखो बाकी सब बाद में।

‘मैं’ के अभ्यास से तैयार हुआ बच्चा बड़ा होकर रेल स्टेशन या बस अड्डे पर टिकट के लिए लगी लाइन में बीच में घुसने का प्रयास करता है। झुग्गी-झोपड़ियों में सार्वजनिक नल से पानी भरना हो, सरकारी अस्पताल में दवाइयाँ लेनी हों, भंडारे में प्रसाद पाना हो या लक्ज़री गाड़ी  में बैठकर सबसे पहले सिग्नल का उल्लंघन करना हो, ‘मैं’ का हुंकार व्यक्ति को संकीर्णता के पथ पर ढकेलता है। इस पथ के व्यक्ति की मति हरेक से लेने के तरीके ढूँढ़ती है। चरम तब आता है जब जिनसे यह वृत्ति सीखी, उन बूढ़े माँ-बाप से भी लेने की प्रवृत्ति जगती  है। माँ-बाप को अब भान होता है कि बबूल बोकर, आम खाने की आशा रखना व्यर्थ है। कैसे संभव है कि सिखाएँ स्वार्थ और पाएँ परमार्थ!

अपनी कविता ‘प्रतिरूप’ स्मरण हो आई।

मेरा बेटा

सारा कुछ खींच कर ले गया,

लोग उसे कोस रहे हैं,

मैं आत्मविश्लेषण में मग्न हूंँ, बचपन में घोड़ा बनकर,

मैं ही उसे ऊपर बिठाता था, दूसरे को सीढ़ी बनाकर ऊँचाई हासिल करने के

गुर सिखलाता था,

परायों के हिस्से पर

अपना हक जताने की

बाल-सुलभता पर

मुस्कराता था,

सारा कुछ बटोर कर

अपनी जेब में रखने की उसकी अदा पर इठलाता था, जो बोया मेरी राह में अड़ा है, मेरा बीज

अब वृक्ष बनकर खड़ा है, बीज पर नियंत्रण कर लेता, वृक्ष का बल प्रचंड है,

अपने विशाल प्रतिरूप से,

नित लज्जित होना,

मेरा समुचित दंड है!

साहित्य मौन क्रांति करता है। बेहतर व्यक्ति और बेहतर समाज के निर्माण के लिए बच्चे में बचपन से बड़प्पन भरना होगा। आखिर जो भरेगा वही तो झरेगा।

इसीलिए तो कहा गया था, ‘द चाइल्ड इज द फादर ऑफ मेन।’

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – नेत्रदान ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  काशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी का विशेष आलेख  “नेत्रदान। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – नेत्रदान ☆

अंधापन एक अभिशाप – अंधापन मानव जीवन को जटिल बना देता है, तथा‌ जीवन  को अंधेरे से भर देता है।

अंधापन दो तरह का होता है

१ – जन्मांधता –  जो व्यक्ति जन्म से ही अंधे होते हैं।

२- अस्थाई अंधापन – बीमारी अथवा चोट का कारण से।

१ – जंन्मांधता

जन्मांध व्यक्ति सारी जिंदगी अंधेरे का अभिशाप भोगने के लिए विवश होता है। उसकी आंखें देखने योग्य नहीं होती, लेकिन उनकी स्मरण शक्ति विलक्षण ‌होती है। ‌वह मजबूर नहीं, वह अपने सारे दैनिक कार्य कर लेता है।  दृढ़ इच्छाशक्ति, लगन तथा अंदाज के सहारे, ऐसे अनेक व्यक्तियों को देखा गया है,  जो अपनी मेहनत तथा लगन से शीर्ष पर स्थापित ‌हुये है।  उनकी कल्पना शक्ति उच्च स्तर की होती है।  यदि हम इतिहास में झांकें तो पायेंगे  इस कड़ी में सफलतम् व्यक्तित्वों की एक लंबी श्रृंखला है, जिन्होंने अपनी क्षमताओं का सर्वोत्कृष्ट प्रर्दशन कर लोगों को दांतों तले उंगली दबाने पर मजबूर कर दिया। इस कड़ी में स्मरण करें  तो भक्ति कालीन महाकवि सूरदास रचित सूरसागर में कृष्ण ‌की‌ बाल लीलाओं का  तथा गोपियों का विरह वर्णन, भला कौन संवदेनशील प्राणी‌ होगा जो उन रचनाओं के संम्मोहन में ‌न फंसा‌ हो।

दूसरा उदाहरण ले रविन्द्र जैन की आवाज का। कौन सा व्यक्ति है जो उनकी हृदयस्पर्शी आवाज का दीवाना नहीं है?

तीसरा उदाहरण है मथुरा के सूर बाबा का, जिनकी कथा शैली  अमृत वर्षा करती है। अगर खोजें तो ऐसे तमाम लोगों की लंबी शृंखला दिखाई देगी, लेकिन उनका इलाज अभी तक संभव नहीं है। भविष्य में चिकित्सा विज्ञान कोई भी चमत्कार  कभी भी कर सकता है।

२ – अस्थाई अंधत्व

जब कि दूसरे तरह के अंधत्व का इलाज समाज के सहयोग ‌से संभव है । चिकित्सा बिज्ञान में इस विधि को रेटिना प्रत्यारोपण कहते हैं जिससे व्यक्ति के आंखों की ज्योति वापस लाई जा सकती है, जो किसी मृतक व्यक्ति के  परिजनों द्वारा नेत्रदान  प्रक्रिया में योगदान से ही संभव है । चिकित्सा विज्ञानियों का मानना है कि मृत्यु के आठ घंटे बाद तक नेत्रदान कराया जा सकता है तथा किसी की‌ जिंदगी  को रोशनी का उपहार दिया जा सकता है। यह एक साधारण से छोटे आपरेशन के द्वारा कुछ ही मिनटों में सफलता पूर्वक संपन्न किया जाता है।  मृत्यृ के पश्चात   मृतक को कोई अनुभूति नहीं होती, लेकिन  जागरूकता के अभाव में नेत्रदान   प्राय:  कभी कभी ही  संभव हो पाता है। जिसके पीछे जागरूकता के अभाव तथा अज्ञान को ही कारण  माना जा सकता है।

सामान्यतया हम लोग दान का मतलब धार्मिक कर्मकाण्डो के संपादन, पूजा पाठ तीर्थक्षेत्र की यात्राओं,  थोड़े धन के दान तथा कथा प्रवचन तक ही सीमित समझ लेते है, उसे कभी आचरण में उतार नहीं सके। उसका निहितार्थ नहीं ‌समझ सके। मानव जीवन की रक्षा में अंगदान का बहुत बड़ा महत्व है।  जीवन मे हम अधिकारों के पाने  की बातें करते हैं, लेकिन जहां कर्तव्य निभाने बात आती है‌, तो बगलें झांकने लगते हैं। इस संबंध में तमाम प्रकार की भ्रामक धारणायें  बाधक बन‌ती  है जैसे नेत्रदान आपरेशन के समय पूरी पुतली निकाल ली जाती है और चेहरा विकृत हो जाता है, लेकिन ऐसा नहीं है। आपरेशन से मात्र नेत्रगोलकों के रेटिना की पतली झिल्ली ही निकाली जाती है । जिससे चेहरे पर कोई विकृति नहीं होती।

हिंदू धर्म में चौरासी लाख योनियों की कल्पना की गयी  है, जो यथार्थ में दिखती भी है, लेकिन यह‌ मान्यता पूरी तरह भ्रामक  निराधार  और असत्य है कि नेत्रदान के पश्चात अगली योनि में नेत्रदाता अंधा पैदा होगा। यह मात्र कुछ अज्ञानी जनों की मिथ्याचारिता है। इसी लिए भय से‌  लोग नेत्रदान से  बचना चाहते‌ है।  जब कि  सच तो यह है कि इस योनि का शरीर मृत्यु के पश्चात जलाने या गाड़ने से नष्ट हो जाता है, अगली योनि के शरीर पर इसका कोई प्रभाव ही नहीं होता। क्यो कि अगली योनि का शरीर योनि गत  अनुवांशिक संरचना पर आधारित होता है। यह एक मिथ्याभ्रामक मान्यताओं पर आधारित गलत अवधारणा है।

नेत्रदान के मार्ग की बाधाएं

नेत्रदान की सबसे बड़ी बाधा जनजागरण का अभाव तथा मानसिक रूप से तैयार न होना है। नेत्रदान के संबंध में जिस ढंग के प्रचार प्रसार की जरूरत महसूस की जा रही है वैसा हो नहीं पा रहा है, इसके लिए तथ्यो की सही जानकारी आम जन तक पहुंचाना, भ्रम का निवारण करने के मिशन को युद्ध स्तर पर चलाना। मृत्यु के पश्चात परिजन नेत्रदान के लिए  इस लिए सहमत नहीं होते, क्यो कि दुखी परिजन मानसिक विक्षिप्तता की स्थिति में लोक कल्याण के बारे में सोच ही नहीं पाते। सामंजस्य स्थापित नही कर पाते। इसके लिए अभियान चला कर लोगों को मानसिक रूप से अपनी विचारधारा से सहमत कर नेत्रदान हेतु मृतक के परिजनों को मृत्यु पूर्व ही प्रेरित करना तथा दान के महत्व को समझाना चाहिए, ताकि मृत्यु के बाद अंगदान की अवधारणा पर  उनकी सहमति बन सके। इसके लिए जनजागरण अभियान, समाज सेवकों की टीम गठित करना, लोगों को मीडिया प्रचार, स्थिर चित्र, तथा चलचित्र एवं टेलीविजन से प्रचार प्रसार कर जन जागरण करना तथा अंगदान रक्तदान के महत्व को लोगों को समझाना कि किस प्रकार मृत्यु शैय्या पर पडे़ व्यक्ति की रक्त देकर जीवन रक्षा की जा सकती है, तथा नेत्र दान से जीवन में छाया अंधेरा दूर कर व्यक्ति को देखने में सक्षम बनाया जा सकता है इसका मुकाबला कोई भी धार्मिक कर्मकांड नहीं कर सकता। लोगों को अपने मिशन के साथ जोड़कर वैचारिक ‌क्रांति पैदा करनी‌ होगी, बल्कि यूं कह लें कि हमें ‌खुद अगुआई करते हुए अपना उदाहरण प्रस्तुत करना होगा।

इस बारे में पौराणिक उदाहरण भरे पड़े हैं, जैसे शिबि, दधिचि, हरिश्चंद, कर्ण, कामदेव, रतिदेव, आदि ना जाने अनेकों कितने नाम।

इस संदर्भ में अपनी कविता ” दान  की  महिमा” की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत हैं –

जीते  जी रक्तदान मरने पर अंगदान,
सबसे बड़ा धर्म है पुराण ये बताता है।
शीबि दधिची हरिश्चंद्र हमें ‌ये बता गये,
सत्कर्मो का धर्म से बड़ा गहरा नाता है।

पर हित सरिस धर्म नहिं,
पर पीडा सम अधर्म नहीं।
रामचरितमानस हमें ये सिखाता है।
जीवों की रक्षा में जिसने विषपान किया,
देवों का देव महादेव ‌वो बन जाता है।।

(दान की महिमा रचना के अंश से) 

इस प्रकार हमारी ‌भारतीय संस्कृति में ‌दान का महत्व ‌लोक‌कल्याण हेतु एक  परंपरा का रूप ले चुका था, लेकिन आज का मानव  समाज अपनी परंपरा भूल चुका है। उसे एक बार फिर याद दिलाना होगा। इस क्रम में देश के उन जांबाज सेना के जवानों का संकल्प ‌याद आता है जिन्होंने अपना‌ जीवन‌ देश सीमा को तो सौंपा ही है अपने मृत शरीर  का हर अंग समाज सेवा में लोक कल्याण हेतु दान कर अमरत्व की महागाथा लिख दिया ऐसे लोगो का संकल्प, पूजनीय, वंदनीय तथा अभिनंदनीय है हमारे नवयुवाओं को उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 72 ☆ मोहे चिन्ता न होय ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख मोहे चिन्ता न होययह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 71 ☆

☆ मोहे चिन्ता न होय

‘उम्र भर ग़ालिब, यही भूल करता रहा/ धूल चेहरे पर थी, आईना साफ करता रहा’– ‘इंसान घर बदलता है, लिबास बदलता है, रिश्ते बदलता है, दोस्त बदलता है– फिर भी परेशान रहता है, क्योंकि वह खुद को नहीं बदलता।’ यही है ज़िंदगी का सत्य व हमारे दु:खों का मूल कारण, जहां तक पहुंचने का इंसान प्रयास ही नहीं करता। वह सदैव इसी भ्रम में रहता है कि वह जो भी सोचता व करता है, केवल वही ठीक है और उसके अतिरिक्त सब ग़लत है और वे लोग दोषी हैं, अपराधी हैं, जो आत्मकेंद्रितता के कारण अपने से इतर कुछ देख ही नहीं पाते। वह चेहरे पर लगी धूल को तो साफ करना चाहता है, परंतु आईने पर दिखाई पड़ती धूल को साफ करने में व्यस्त रहता है… ग़ालिब का यह शेयर हमें हक़ीक़त से रूबरू कराता है। जब तक हम आत्मावलोकन कर, अपनी गलती को स्वीकार नहीं करते; हमारी भटकन पर विराम नहीं लगता। वास्तव में हम ऐसा करना ही नहीं चाहते। हमारा अहम् हम पर अंकुश लगाता है, जिसके कारण हमारी सोच पर ज़ंग लग जाता है और हम कूपमंडूक बनकर रह जाते हैं। हम जीवन में अपनी इच्छाओं की पूर्ति तो करना चाहते हैं, परंतु उचित राह का ज्ञान न होने के कारण अपनी मंज़िल पर नहीं पहुंच पाते। हम चेहरे की धूल को आईना साफ करके मिटाना चाहते हैं। सो! हम आजीवन आशंकाओं से घिरे रहते हैं और उसी चक्रव्यूह में फंसे, सदैव चीखते -चिल्लाते रहते हैं, क्योंकि हममें आत्मविश्वास का अभाव होता है। यह सत्य ही है कि जिन्हें खुद पर भरोसा होता है, वे शांत रहते हैं तथा उनके हृदय में संदेह, संशय, शक़ व दुविधा का स्थान नहीं होता। वे अंतर्मन की शक्तियों को संचित कर निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं; कभी पीछे मुड़कर नहीं देखते। वास्तव में उनका व्यवहार युद्धक्षेत्र में तैनात सैनिक के समान होता है, जो सीने पर गोली खाकर शहीद होने में विश्वास रखता है और आधे रास्ते से लौट आने में भी उसकी आस्था नहीं होती।

परंतु संदेहग्रस्त इंसान सदैव उधेड़बुन में खोया रहता है; सपनों के महल तोड़ता व बनाता रहता है। वह अंधेरे में गलत दिशा में तीर चलाता रहता है। इसके निमित्त वह घर को वास्तु की दृष्टि से शुभ न मानकर उस घर को बदलता है; नये-नये लोगों से संपर्क साधता है; रिश्तों व परिवारजनों तक को नकार देता है; मित्रों से दूरी बना लेता है… परंतु उसकी समस्याओं का अंत नहीं होता। वास्तव में हमारी समस्याओं का समाधान दूसरों के पास नहीं; हमारे ही पास होता है। दूसरा व्यक्ति आपकी परेशानियों को समझ तो सकता है; आपकी मन:स्थिति को अनुभव कर सकता है, परंतु उस द्वारा उचित व सही मार्गदर्शन करना कैसे करना व समस्याओं का समाधान करना कैसे संभव होगा?

रिश्ते, दोस्त, घर आदि बदलने से आपके व्यवहार व दृष्टिकोण में परिवर्तन नहीं आता; न ही लिबास बदलने से आपकी चाल-ढाल व व्यक्तित्व में परिवर्तन होता है। सो! आवश्यकता है,– सोच बदलने की; नकारात्मकता को त्याग सकारात्मकता अपनाने की; हक़ीक़त से रू-ब-रू होने की; सत्य को स्वीकारने की। जब तक हम इन्हें दिल से स्वीकार नहीं करते; हमारे कार्य-व्यवहार व जीवन-शैली में लेशमात्र भी परिवर्तन नहीं आता।

‘कुछ हंसकर बोल दो/ कुछ हंस कर टाल दो/ परेशानियां बहुत हैं/ कुछ वक्त पर डाल दो’ में सुंदर व उपयोगी संदेश निहित है। जीवन में सुख-दु:ख, खशी-ग़म आते-जाते रहते हैं। सो! निराशा का दामन थाम कर बैठने से उनका समाधान नहीं हो सकता। इस प्रकार वे समय के अनुसार विलुप्त तो हो सकते हैं, परंतु समाप्त नहीं हो सकते। इस संदर्भ में महात्मा बुद्ध के विचार बहुत सार्थक प्रतीत होते हैं। जीवन में सामंजस्य स्थापित करने के लिए आवश्यक है कि हम सबसे हंस कर बात करें और अपनी परेशानियों को हंस कर टाल दें, क्योंकि समय परिवर्तनशील है और यथासमय दिन-रात व ऋतु-परिवर्तन अवश्यंभावी है। कबीरदास जी के अनुसार ‘ऋतु आय फल होय’ अर्थात् समय आने पर ही फल की प्राप्ति होती है। लगातार भूमि में सौ घड़े जल उंडेलने का कोई लाभ नहीं होता, क्योंकि समय से पहले व भाग्य से अधिक किसी को संसार में कुछ भी प्राप्त नहीं होता। इसी संदर्भ में मुझे याद आ रही हैं स्वरचित मुक्तक संग्रह ‘अहसास चंद लम्हों का’ की पंक्तियां ‘दिन रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ-साथ/ फूल और पात बदलते हैं।’ इसी के साथ मैं कहना चाहूंगी, ‘ग़र साथ हो सुरों का/ नग़मात बदलते हैं’ अर्थात् समय व स्थान परिवर्तन से मन:स्थिति व मनोभाव भी बदल जाते हैं; जीवन में नई उमंग-तरंग का पदार्पण हो जाता है और ज़िंदगी उसी रफ़्तार से पुन: दौड़ने लगती है।

चेहरा मन का आईना है, दर्पण है। जब हमारा मन प्रसन्न होता है, तो ओस की बूंदे भी हमें मोतियों सम भासती हैं और मन रूपी अश्व तीव्र गति से भागने लगते हैं। वैसे भी चंचल मन तो पल भर में तीन लोगों की यात्रा कर लौट आता है। परंतु इससे विपरीत स्थिति में हमें प्रकृति आंसू बहाती प्रतीत होती है; समुद्र की लहरें चीत्कार करने भासती हैं और मंदिर की घंटियों के अनहद स्वर के स्थान पर चिंघाड़ें सुनाई पड़ती हैं। इतना ही नहीं, गुलाब की महक के स्थान पर कांटो का ख्याल मन में आता है और अंतर्मन में सदैव यही प्रश्न उठता है, ‘यह सब कुछ मेरे हिस्से में क्यों? क्या है मेरा कसूर और मैंने तो कभी बुरे कर्म किए ही नहीं।’ परंतु बावरा मन भूल जाता है कि इंसान को पूर्व-जन्मों के कर्मों का फल भी भुगतना पड़ता है। आखिर कौन बच पाया है…कालचक्र की गति से? भगवान राम व कृष्ण को आजीवन आपदाओं का सामना करना पड़ा। कृष्ण का जन्म जेल में हुआ, पालन ब्रज में हुआ और वे बचपन से ही जीवन-भर मुसीबतों का सामना करते रहे। राम को देखिए, विवाह के पश्चात् चौदह वर्ष का वनवास; सीता-हरण; रावण को मारने के पश्चात् अयोध्या में राम का राजतिलक; धोबी के आक्षेप करने पर सीता का त्याग; विश्वामित्र के आश्रम में आश्रय ग्रहण; सीता का अपने बेटों को अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा पकड़ने पर सत्य से अवगत कराना; राम की सीता से मुलाकात; अग्नि-परीक्षा और अयोध्या की ओर गमन। पुनः अग्नि परीक्षा हेतु अनुरोध करने पर सीता का धरती में समा जाना’ क्या उन्होंने कभी अपने भाग्य को कोसा? क्या वे आजीवन आंसू बहाते रहे? नहीं, वे तो आपदाओं को खुशी से गले से लगाते रहे। यदि आप भी खुशी से कठिनाइयों का सामना करते हैं, तो ज़िंदगी कैसे गुज़र जाती है– पता ही नहीं चलता, अन्यथा हर पल जानलेवा हो जाता है।

इन विषम परिस्थितियों में दूसरों के दु:ख को सदैव महसूसना चाहिए, क्योंकि यह इंसान होने का प्रमाण है। अपने दर्द का अनुभव तो हर इंसान करता है और वह जीवित कहलाता है। आइए! समस्त ऊर्जा को दु:ख निवारण में लगाएं। खुद भी हंसें और संसार के प्राणी-मात्र के प्रति संवेदनशील बनें; आत्मावलोकन कर अपने दोषों को स्वीकारें।

समस्याओं में उलझें नहीं, समाधान निकालें। अहम् का त्याग कर अपनी दुष्प्रवृत्तियों को सद्प्रवृत्तियों में परिवर्तित करने की चेष्टा करें। गलत लोगों की संगति से बचें। केवल दु:ख में ही सिमरन न करें, सुख में भी उस सृष्टि-नियंता को भूलें नहीं… यही है दु:खों से मुक्ति पाने का मार्ग, जहां मानव अनहद-नाद में अपनी सुधबुध खोकर, अलौकिक आनंद में अवगाहन कर राग-द्वेष से ऊपर उठ जाता है। इस स्थिति में वह प्राणी-मात्र में परमात्मा-सत्ता की झलक पाता है और बड़ी से बड़ी मुसीबत में परेशानियां उसका बाल भी बांका नहीं कर पातीं। अंत में कबीरदास जी की पंक्तियों को उद्धृत कर अपनी लेखनी को विराम देना चाहूंगी, ‘कबिरा चिंता क्या करे, चिंता से क्या होय/ मेरी चिंता हरि करे, मोहे चिंता ना होय।’ चिंता किसी रोग का निदान नहीं है। इसलिए चिंता करना व्यर्थ है। परमात्मा हमारे हित के बारे में हम से बेहतर जानते हैं, तो हम चिंता क्यों करें? सो! हमें उस पर अटूट विश्वास करना चाहिए, क्योंकि वह हमारे हित में हमसे बेहतर निर्णय लेगा।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 23 ☆ इच्छाशक्ति, संतोष और सफलता ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “इच्छाशक्ति, संतोष और सफलता)

☆ किसलय की कलम से # 23 ☆

☆ इच्छाशक्ति, संतोष और सफलता ☆

सुख की चाह समग्र जीव जगत में पाई जाती है। इंसान में सुख केवल चाह न रहकर आवश्यकता बनता जा रहा है। सुख की खातिर आदमी आज कुछ भी करने को तैयार है। वह भविष्य को सुखमय बनाने के लिये नैतिक-अनैतिक हर कार्य करने से नहीं हिचकता। आज ईमानदारी, सत्यता और न्याय की बातें किताबी लगने लगी हैं। नीति, आदर्श और परोपकार की कथायें और संस्मरण अब लोग सुनने से भी कतराने लगे हैं। आज के बदलते परिवेश और सुख-स्वार्थ की अन्धी दौड़ में हम अपनी संस्कृति और धर्म को भूलते जा रहे हैं।

हमारा वेदोक्त वाक्य “संतोषम् परम् सुखम्” अब हमारी सुख-सुविधाओं के रास्ते का रोड़ा जैसा प्रतीत होने लगा है। संतोष शब्द अब अभाव और अक्षमता का प्रतीक माना जाने लगा है। आज चादर को ही ऐन-केन-प्रकारेण पैरों के बराबर बड़ा करने का प्रचलन है, भले ही इसके लिये हमें कितना भी ऋण क्यों न लेना पड़े या अनैतिकता को अपनाना पड़े। आज किसी को ईश्वर या समाज का डर नहीं रह गया है। सामाजिक निन्दा को प्रसिद्धि जैसा माना जाता है। आयकर के छापे को करचोरी नहीं स्टेटस सिम्बॉल के रूप में देखा जाता है। सारा विश्व संतोष नामक मृग-मरीचिका के पीछे भागता नजर आ रहा है। इंसान जितनी सुख-सुविधायें और संपन्नता पाता है, संतोष का लक्ष्य उससे उतना ही दूर होता जाता है। पैदल चलने वाला सायकल, सायकल वाला कार और कार वाला हवाई साधन चाहता है। शहरों, महानगरों, विदेश के बाद आज ऐशोआराम हेतु धनाढ्य स्वयं के छोटे-छोटे द्वीप तलाशने लगे हैं।

एक गरीब और अमीर के शरीर की भौतिक एवं आंतरिक संरचना समान होने के बाद भी दोनों के बीच जमीन-आसमान जैसा अंतर बढ़ गया है। गरीब सूखी रोटी और झोंपड़ी में रहकर उतना आत्मसंतोष प्राप्त करता है जितना कि एक अमीर छप्पन भोग और आलीशान कोठी में रहते हुए प्राप्त करता है। इस आत्म संतुष्टि और खुशी में कोई अन्तर नहीं होता क्योंकि खुशी खुशी होती है। वह अमीर और गरीब में भेद नहीं करती। स्वरूप भले ही बदल सकता है, परिमाण समान रहता है। यहाँ पर सबसे अहम् बात इच्छाशक्ति की आती है। संतोष और इच्छाशक्ति का सम्बन्ध बिलकुल चोली-दामन जैसा है। इच्छाशक्ति पर संतोष और संतोष पर इच्छाशक्ति का नियंत्रण निर्धारित होता है । हम सब एक जैसे पैदा होते हैं, एक जैसे मरते हैं। हर आदमी की प्रसिद्धि, यश-कीर्ति और सामर्थ्य होती है, बस अंतर होता है तो उसके स्वरूप का। हर इंसान अपने छोटे या बड़े वृत्त के अंदर रहने वाले मानव समाज में एक जैसी सम्वेदनायें और एक जैसी स्मृतियाँ छोड़कर जाता है।

आज हम संतोष की चाह में इतने सम्वेदनशून्य हो गये हैं कि हमें अपने माँ-बाप, भाई-बहन, पत्नी और बच्चों के प्रति अपनत्व की भी सुध नहीं रह पाती, लेकिन जब होश आता है या पीछे मुड़कर देखते हैं तब तक देर हो चुकी होती है। अपनों द्वारा प्राप्त होने वाली इस दुनिया की सबसे अमूल्य निधि “अपनत्व” से हम बहुत बड़ी दूरी बना बैठते हैं। संतोष की चाह में हम उसी संतोष से इतने दूर निकल जाते हैं कि फिर से इस जन्म में वह दुबारा नहीं मिल पाता, न ही वे बचपन, जवानी और गृहस्थी के क्षण दोहराये जाते, जिनके लिये हम किसी समय सर्वस्व तक लुटाने के लिये तैयार रहा करते थे।

हम कह सकते हैं कि निःशुल्क उपलब्ध इच्छाशक्ति के रथ पर सवार होकर हम संतोष रूपी लक्ष्य को आसानी से प्राप्त कर सकते हैं, बशर्ते हम उन आदर्शों को समझ लें जो मानव जीवन के लिये श्रेष्ठतम् उपहार हैं। मैं अंत में पुनः कहना चाहूँगा कि यदि हम अपने ज्ञानवान ऋषियों की वाणी और वेद-ऋचाओं का अध्ययन करें, उनमें मानवीय संवेदनाओं, परोपकारी भाव तथा आत्मशान्ति को ढूँढें तो हमें “संतोष” ही सुगम पथ नजर आयेगा, जो केवल हमारी इच्छाशक्ति के नियंत्रण से संभव हो सकता है। इसी इच्छाशक्ति से प्राप्त संतोष की भावना और लगनपूर्वक किये गये प्रयास सदैव सफलता ही दिलाते हैं इसमें संशय की किंचित गुंजाइश नहीं है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ नई रोशनी ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है। आज से हम एक नई  संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला आरम्भ कर रहे हैं।  इस श्रृंखला में श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। हम  आपके इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला को अपने पाठकों से साझा करने हेतु श्री डनायक जी के ह्रदय  से आभारी  हैं।  इस कड़ी में प्रस्तुत है  – “अमरकंटक का भिक्षुक – भाग 5”। )

☆ संस्मरण ☆ नई रोशनी ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆ 

भारत सरकार का अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय, अल्पसंख्यक महिलाओं में नेतृत्व क्षमता विकसित करने के उद्देश्य से छह दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन गैर सरकारी संगठन अथवा समितियों के माध्यम से करता है।  ऐसे कार्यक्रमों को 25 महिलाओं के समूह के लिए आयोजित किया जाता है और गैर अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाएं भी इसमें शामिल हो सकती हैं, लेकिन उनकी संख्या 25% तक सीमित है

महिला सर्वधर्म कालोनी समिति ने, ऐसे ही एक कार्यक्रम में , जिसे मकबरे वाली मस्जिद के पीछे बाग़ फरहत अफजा, भोपाल  में आयोजित किया था, बाल कल्याण एवं बाल साहित्य शोध केंद्र के श्री महेश सक्सेना तथा दीपांजलि आर्ट एंड क्राफ्ट वेलफेयर सोसायटी की श्रीमती नीता दीप बाजपेयी जी के साथ मुझे भी, आमंत्रित किया था।  यद्दपि कार्यक्रम स्थल काफी अन्दर था और पुरानी बस्ती में ऐसी जगह अवस्थित था, जहां अनेक लघु उद्योग इकाइयां संचालित थी, आवागमन दुष्कर था, तथापि किसी तरह पूंछते-पांछ्ते मैं पहुँच ही गया।  कार्यक्रम में 18 से 50 वर्ष के आयु वर्ग की 25 मुस्लिम महिलाएं थी, जिनकी शैक्षणिक योग्यता दसवीं कक्षा से ज्यादा न थी।  कुछ सिलाई, कढाई, जरदोजी आदि का काम अपने घर से करती हैं शेष घर सम्हालने में व्यस्त रहती हैं।  भोपाल के बटुए बना सकने वाली उनमे से कोई न थी।  सबसे बड़ी बात तो यह थी कि महिलाएं पर्दानशीन नहीं थी।  मैंने इस तथ्य की प्रसंशा की तो जवाब आया कि अब पर्दा काफी कम रह गया है।  लेकिन यह स्टेटमेंट कितना सही है यह तो कहा नहीं जा सकता क्योंकि एक स्कूल में मुझे जाने का मौक़ा मिला वहाँ तो सभी शिक्षिकाएं पर्दानशीन थी।  कुछ अपने छोटे बच्चों के साथ भी थी पर उनकी चिल्ल पों सुनने कम ही मिली।  कुल मिलाकर मैं वहाँ कोई दो घंटे रहा और कार्यक्रम को उन सभी ने गहरी रूचि और ध्यान से सुना।

इस कार्यक्रम के तहत महिलाओं को 15 विभिन्न विषयों पर संस्थाएं प्रशिक्षण देती हैंऔर सरकार से इस एवज में मोटी धन राशि वसूलती हैं। प्रशिक्षण के कुछ महत्वपूर्ण बिंदु जैसे महिलाओं के कानूनी अधिकार, स्वास्थ्य और  स्वच्छता, शैक्षिक सशक्तिकरण, महिलाओं और बालिकाओं के विरुद्ध हिंसा, डिजीटल भारत, जीवन कौशल, महिलाओं का आर्थिक सशक्तिकरण आदि मेरी जानकारी में आये।

श्रीमती बाजपेयी ने उन्हें ऐसे छोटे-छोटे उद्योग लगाने की सलाह दी, जिसे महिलाओं के द्वारा आसानी से किया जा सकता है, जैसे बड़ी पापड, मुरब्बे-अचार बनाना, सिलाई, कढाई आदि।  श्रीमती बाजपेयी स्वयं उद्यमी हैं और महिला सशक्तिकरण के कार्य में संलग्न हैं।  आजकल वे दीपावली के दिए गोबर से बनाना सिखा रही हैं।   श्री सक्सेना ने शिक्षा के महत्व पर प्रकाश डाला और बच्चों व महिलाओं दोनों को इस हेतु योग्यता बढाने की छोटी-छोटी पर मह्त्वपूर्ण टिप्स दी।  जब मेरी बारी आई तो आयोजकों की अपेक्षा थी कि मैं बैंक के विषय में उन्हें जानकारी दूं।  अब आयोजकों को क्या पता था कि मैंने कोई पच्चीस बरस पहले ग्रामीण व अर्ध शहरी शाखाओं में अपनी पदस्थापना के दौरान ऐसी इकाइयों को वित्त पोषण किया करता था और अब मैं सब कुछ भूल गया हूँ।  खैर, मेरी वाकशैली ने मेरा साथ दिया और मैंने महिलाओं को स्वयं सहायता समूह या सहकारिता समिति का गठन कर अपनी आर्थिक गतिविधियों को चलाने की सलाह दी और भारतीय स्टेट बैंक की मुद्रा ऋण योजना के विषय में विस्तार से बताया कि कैसे नए अथवा पुराने बचत खाताधारी भी शिशु अथवा किशोर श्रेणी में रुपये 5 लाख तक के ऋण ले सकते हैं।  मैंने उन्हें प्रशिक्षण हेतु मध्य प्रदेश सरकार की “मुख्य-मंत्री कौशल्या योज़ना” की भी जानकारी दी।  साथ ही मुफ्त की सलाह भी दे डाली की ऋण लेने भारतीय स्टेट बैंक ही जाना और थोड़े से अनुदान की लालच में प्रधानमंत्री रोजगार योजना अथवा मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना के चक्कर में मत पडनाI

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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