हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 86 ☆ शारदीयता☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 86 ☆ शारदीयता ☆ 

कुछ चिंतक भारतीय दर्शन को नमन का दर्शन कहते हैं जबकि यूरोपीय दर्शन को मनन का दर्शन निरूपित किया गया है।

वस्तुतः मनुष्य में विद्यमान शारदीयता उसे सृष्टि की अद्भुत संरचना और चर या अचर हर घटक की अनन्य भूमिका के प्रति मनन हेतु प्रेरित करती है। यह मनन ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता है, कृति और कर्ता के प्रति रोम-रोम में कृतज्ञता और अपूर्वता का भाव जगता है। इस भाव का उत्कर्ष है गदगद मनुष्य का नतमस्तक हो जाना, लघुता का प्रभुता को नमन करना।

मनन से आगे का चरण है नमन। नमन में समाविष्ट है मनन।

दर्शन चक्र में मनन और नमन अद्वैत हैं। दोनों में मूल शब्द है-मन। ‘न’ प्रत्यय के रूप में आता है तो मन ‘मनन’ करने लगता है। ‘न’ उपसर्ग बन कर जुड़ता है तो नमन का भाव जगता है।

मनन और नमन का एकाकार पतझड़ को वसंत की संभावना बनाता है। देखने को दृष्टि में बदल कर आनंदपथ का पथिक हो जाता है मनुष्य।

एक प्रसंग साझा करता हूँ।  स्वामी विवेकानंद के प्रवचन और व्याख्यानों की धूम मची हुई थी। ऐसे ही एक प्रवचन को सुनने एक सुंदर युवा महिला आई। प्रवचन का प्रभाव अद्भुत रहा। तदुपरांत स्वामी जी को प्रणाम कर एक-एक श्रोता विदा लेने लगा। वह सुंदर महिला बैठी रही। स्वामी जी ने जानना चाहा कि वह क्यों ठहरी है? महिला ने उत्तर दिया,’ एक इच्छा है, जिसकी पूर्ति केवल आप ही कर सकते हैं।’ ..’बताइये, आपके लिए क्या कर सकता हूँ’, स्वामी जी ने पूछा। ..’मैं, आपसे शादी करना चाहती हूँ।’ …स्वामी जी मुस्करा दिये। फिर पूछा, ‘ आप मुझसे विवाह क्यों करना चाहती हैं?’…कुछ समय चुप रहकर महिला बोली,’ मेरी इच्छा है कि मेरा, आप जैसा एक पुत्र हो।’…स्वामी जी तुरंत महिला के चरणों में झुक गये और बोले, ‘आजसे आप मेरी माता, मैं आपका पुत्र। मुझे पुत्र के रूप में स्वीकार कीजिए।’

देखने को दृष्टि में बदलने वाली शारदीयता हम सबमें सदा जागृत रहे। वसंत ऋतु की मंगलकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 74 – प्रेम तेरे कितने रूप – कितने रंग ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी का विशेष शोधपूर्णआलेख  “प्रेम तेरे कितने रूप  -कितने रंग। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य#74 ☆ प्रेम तेरे कितने रूप – कितने रंग ☆

यदि प्रेम शब्द की व्याकरणीय संरचना पर ध्यान दें, तो यह ढाई आखर (अक्षरों) का मेल दीखता है। जो साधारण सा होते हुए भी असाधारण अर्थ तथा मानवीय गुणों का भंडार सहेजे हुए हैं। इसके इसी गुण के चलते कर्मयोगी आत्मज्ञानी कबीर साहब ने जन समुदाय को चुनौती देते हुए ढाई आखर में समाये विस्तार को पढ़ने तथा समझने की बात कही है।

उनका साफ साफ मानना है कि पोथी पढ़ने से कोई पंडित (ज्ञानी) नहीं होता, जिसने प्रेम का रूप रंग ढंग समझ लिया वही ज्ञानी हो गया।

पोथी पढि पढि जग मुआ, पंडित भया न कोय।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।

लेकिन अध्ययन के दौरान हमने प्रेम के अनेक रूप रंग तथा गुण अवगुण भी देखे। भक्ति कालीन अनेक संतों महात्माओं ने प्रेम विषयक अपनी-अपनी अनुभूतियों से लोगों को समय समय पर अवगत कराया है जैसे

किसी अज्ञात रचनाकार अपने शब्दों  में प्रेम कि उत्पति तथा पाने का रास्ता बताने हुए पूर्ण समर्पण की बात करते हुए कहते हैं कि –

प्रेम माटी उपजै प्रेम न हाट बिकाय।

जाको जाको चाहिए, शीष देय लइ जाय।।

कबीर साहब भी कहते हैं कि-

 कबिरा हरि घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं।

सीस उतारै हाथ लै, सो पइठै छिन माहि।।

तो वहीं पर कबीर साहब के समकालीन कवि कृष्ण भक्त रहीमदास जी प्रेम में दिखावे की मनाही करते हुए कहते हैं कि –

ऐसी प्रीति न कीजिए, जस खीरा ने कीन।

उपर से तो दिल मिला, भीतर फांकें तीन।।

लेकिन, कृष्ण भक्त मीरा के अनुभव में प्रेम की अनुभूति उलट दिखाई देती है तथा  कृष्ण से किये प्रेम की अंतिम परिणति अपने समाज द्वारा मिली घृणा नफरत तथा हिंसा के चलते दुखद स्मृतियों की कहानी बन कर रह जाती है। उनके अंतर्मन की वेदना उनकी रचनाओं में दिख ही जाती है और प्रेम करने से ही लोगों को मना करते हुए कह देती है।

जौ मैं इतना जानती, प्रीत किए दुख होय।

नगर ढिंढोरा पीटती, प्रीत न करियो कोय।।

प्रेम में मिलन जहां सुख की चरम अनुभूति कराता है वहीं बिछोह का दुखद अनुभव भी देता है। तभी कविवर सूरदास जी प्रेम के भावों की दुखद अनुभूति का वर्णन करते हुए ऊधव  गोपी संवाद मैं उलाहना भरे अंदाज में मधुवन को वियोगाग्नि में जलने की बात कहते हुए अपने मन की अंतर्व्यथा प्रकट करते हुए गोपियां कहती हैं कि –

मधुबन तुम क्यौं रहत हरे ।

बिरह बियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यौ न जरे ।

वहीं कबीर मिलन के पलों को यादगार बनाने के लिए अपनी रचना में पिउ के मिलन के अवसर पर पड़ोसी स्त्रियो से मंगलगान करने का अनुरोध करते हुए कहते हैं कि-

दुलहनी गावहु मंगलचार, हम घरि आए हो राजा राम भरतार।

तो वहीं पर बाबा फरीद (हजरत ख्वाजा फरीद्दुद्दीन) अंत समय में शारीरिक गति को देखते हुए कह उठते है कि हे काग तुम मृत्यु के पश्चात सारा शरीर नोच कर खा जाना लेकिन इन आंखों को छोड़ देना कि प्राण निकल जाने के बाद भी इन आंखों में मिलन की आस बाक़ी है।

कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खाइयो मांस।

दोइ नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस।

प्रेम में उम्मीद पालने का ऐसा उत्कृष्ट उदाहरण और कहां मिलेगा। आज भी प्रेम प्रसंगों के चलते हत्या, आत्महत्या, नफ़रत की विद्रूपताओं के रूप के  दीखता है वहीं प्रेम का दूसरा सकारात्मक पहलू भी दीखता है जिसमें दया करूणा प्रेम सहानुभूति जैसे भाव भी दृष्टि गोचर होते हैं तथा किसी कवि ने यहां तक कह दिया कि  ईश्वर भी प्रेम में विवस हो जाता है-

प्रबल प्रेम के पाले पडकर, हरि को नियम बदलते देखा।

खुद का मान भले टल जाये, पर भक्त का मान न टलते देखा।

वहीं प्रेम की गहन अनुभूति पशु पंछियों तथा अन्य सामाजिक प्राणियों को भी सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए विवश करती है। तभी तो इस आलेख के लेखक अपने प्रेम विषयक अनुभव को गौरैया के जीवन दर्शन में प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि—-

नहीं प्रेम की कीमत कोई, और नही कुछ पाना।

अपना सब कुछ लुटा लुटा कर, इस जग से है जाना।

प्रेम में जीना प्रेम में मरना, प्रेम में ही मिट जाना।

ढाई आखर प्रेम का मतलब, गौरैया से जाना।।

अर्थात्- प्रेम  अनमोल है इसे दाम देकर खरीदा नहीं जा सकता। इसमें कुछ पाने की चाहत  नहीं होती। अपना सबकुछ लुटा लुटा करके प्रसंन्नता पूर्वक जीवन बिताना ही प्रेम की  अंतिम परिणति है।

प्रेम के साथ जीवन, प्रेम के साथ मृत्यु तथा प्रेम के साथ अपना अस्तित्व मिटाना ही तो ढाई आखर प्रेम का अर्थ है सही मायनों में सार्थक सृजन संदेश भी।

तभी तो किसी गीतकार ने लिखा- “मैं दुनियां भुला दूंगा तेरी चाहत में ” यह ईश्वरीय भी हो सकता है और सांसारिक भी।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 83 ☆ अहंकार व संस्कार ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  स्त्री विमर्श अहंकार व संस्कार।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 83 ☆

☆ अहंकार व संस्कार ☆

अहंकार दूसरों को झुका कर खुश होता है और संस्कार स्वयं झुक कर खुश होता है। वैसे यह दोनोंं विपरीत दिशाओं में चलने वाले हैं, विरोधाभासी हैं। प्रथम मानव को एकांगी व स्वार्थी बनाता है; मन में आत्मकेंद्रितता का भाव जाग्रत कर, अपने से अलग कुछ भी सोचने नहीं देता। उसकी दुनिया खुद से प्रारंभ होकर, खुद पर ही समाप्त हो जाती है। परंतु संस्कार सबको सुसंस्कृत करने में विश्वास रखता है और जितना अधिक उसका विस्तार होता है; उसकी प्रसन्नता का दायरा भी बढ़ता चला जाता है। संस्कार हमें पहचान प्रदान करते हैं; दूसरों से अलग करते हैं, परंतु अहंनिष्ठ प्राणी अपने दायरे में ही रहना पसंद करता है। वह दूसरों को हेय दृष्टि से देखता है और धीरे-धीरे वह भाव घृणा का रूप धारण कर लेता है। वह दूसरों को अपने सम्मुख झुकाने में विश्वास करता है, क्योंकि वह सब करने में उसे केवल सुक़ून ही प्राप्त नहीं होता; उसका दबदबा भी कायम होता है। दूसरी ओर संस्कार झुकने में विश्वास रखता है और विनम्रता उसका आभूषण होता है। इसलिए स्नेह, करुणा, सहानुभूति, सहनशीलता, त्याग व उसके अंतर्मन में निहित गुण…उसे दूसरों के निकट लाते है; सबका सहारा बनते हैं। वास्तव में संस्कार सबका साहचर्य पाकर फूला नहीं समाता। यह सत्य है कि संस्कार की आभा दूर तक फैली दिखाई पड़ती है और सुक़ून देती है। सो! संस्कार हृदय की वह प्रवृत्ति है; जो अपना परिचय स्वयं देती है, क्योंकि वह किसी परिचय की मोहताज नहीं होती।

भारतीय संस्कृति पूरे विश्व में सबसे महान् है; श्रद्धेय है, पूजनीय है, वंदनीय है और हमारी पहचान है। हम अपनी संस्कृति से जाने-पहचाने जाते हैं और सम्पूर्ण विश्व के लोग हमें श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं; हमारा गुणगान करते हैं। प्रेम, करुणा, त्याग व अहिंसा भारतीय संस्कृति का मूल हैं, जो समस्त मानव जाति के लोगों को एक-दूसरे के निकट लाते हैं। इसी का परिणाम हैं…हमारे होली व दीवाली जैसे पर्व व त्यौहार, जिन्हें हम मिल-जुल कर मनाते हैं और उस स्थिति में हमारे अंतर्मन की दुष्प्रवृत्तियों का शमन हो जाता है; शत्रुता का भाव तिरोहित व लुप्त-प्रायः हो जाता है। लोग इन्हें अपने मित्र व परिवारजनों के संग मना कर सुक़ून पाते हैं। धर्म, वेशभूषा, रीति-रिवाज़ आदि भारतीय संस्कृति के परिचायक हैं, परंतु इससे भी प्रधान है– जीवन के प्रति सकारात्मक सोच, आस्था,  आस्तिकता, जीओ और जीने का भाव…यदि हम दूसरों के सुख व खुशी के लिए निजी स्वार्थ को तिलांजलि दे देते हैं, तो उस स्थिति में हमारे अंतर्मन में परोपकार का भाव आमादा रहता है।

परंतु आधुनिक युग में पारस्परिक सौहार्द न रहने के कारण मानव आत्मकेंद्रित हो गया है। वह अपने व अपने परिवार के अतिरिक्त किसी अन्य के बारे में सोचता ही नहीं और प्रतिस्पर्द्धा के कारण कम से कम समय में अधिकाधिक धन-संपत्ति अर्जित करना चाहता है। इतना ही नहीं, वह अपनी राह में आने वाले हर व्यक्ति व बाधा को समूल नष्ट कर देता है; यहां तक कि वह अपने परिवारजनों की अस्मिता को भी दाँव पर लगा देता है और उनके हित के बारे में लेशमात्र भी सोचता नहीं। उसकी दृष्टि में संबंधों की अहमियत नहीं रहती और वह अपने परिवार की खुशियों को तिलांजलि देकर उनसे दूर… बहुत दूर चला जाता है। संबंध-सरोकारों से उसका नाता टूट जाता है, क्योंकि वह अपने अहं को सर्वोपरि स्वीकारता है। अहंनिष्ठता का यह भाव मानव को सबसे अलग-थलग कर देता है और वे सब नदी के द्वीप की भांति अपने-अपने दायरे में सिमट कर रह जाते हैं। पति-पत्नी में स्नेह-सौहार्द की कल्पना करना बेमानी हो जाता है और एक-दूसरे को नीचा दिखाना उनके जीवन का मूल लक्ष्य बन जाता है। मानव हर पल अपनी सर्वश्रेष्ठता सिद्ध करने में प्रयासरत रहता है। इन विषम परिस्थितियों में संयुक्त परिवार में सबके हितों को महत्व देना–उसे कपोल-कल्पना -सम भासता है, जिसका परिणाम एकल परिवार-व्यवस्था के रूप में परिलक्षित है। पहले एक कमाता था, दस खाते थे, परंतु आजकल सभी कमाते हैं; फिर भी वे अभाव-ग्रस्त रहते हैं और संतोष उनके जीवन से नदारद रहता है। वे एक-दूसरे को कोंचने, कचोटने व नीचा दिखाने में विश्वास रखते हैं। पति-पत्नी के मध्य बढ़ते अवसाद के परिणाम-स्वरूप तलाक़ की संख्या में निरंतर इज़ाफ़ा हो रहा है।

पाश्चात्य सभ्यता की क्षणवादी प्रवृत्ति ने ‘लिव- इन’ व ‘तू नहीं और सही’ के पनपने में अहम् भूमिका अदा की है…शेष रही-सही कसर ‘मी टू व विवाहेतर संबंधों’ की मान्यता ने पूरी कर दी है। मदिरापान, ड्रग्स व रेव पार्टियों के प्रचलन के कारण विवाह-संस्था पर प्रश्नचिन्ह लग गया है। परिवार टूट रहे हैं, जिसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ रहा है। वे एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हैं। ‘हेलो- हाय’ की संस्कृति ने उन्हें उस मुक़ाम पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां वे अपना खुद का जनाज़ा देख रहे हैं। बच्चों में बढ़ती अपराध- वृत्ति, यौन-संबंध, ड्रग्स व शराब का प्रचलन उन्हें उस दलदल में धकेल देता है; जहां से लौटना असंभव होता है। परिणामत: बड़े-बड़े परिवारों के बच्चों का चोरी-डकैती, लूटपाट, फ़िरौती, हत्या आदि में संलग्न होने के रूप में हमारे समक्ष है। वे समाज के लिए नासूर बन आजीवन सालते रहते हैं और उनके कारण परिवारजनों  को बहुत नीचा देखना पड़ता है

आइए! इस लाइलाज समस्या के समाधान पर दृष्टिपात करें। इसके कारणों से तो हम अवगत हो गए हैं कि हम बच्चों को सुसंस्कारित नहीं कर पा रहे, क्योंकि हम स्वयं अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं। हम हैलो-हाय व जीन्स कल्चर की संस्कृति से प्रेम करते हैं और अपने बच्चों को कॉन्वेंट स्कूलों में शिक्षित करना चाहते हैं। जन्म से उन्हें नैनी व आया के संरक्षण में छोड़, अपने दायित्वों की इतिश्री कर लेते हैं और एक अंतराल के पश्चात् बच्चे माता-पिता से घृणा करने लग जाते हैं। रिश्तों की गरिमा को वे समझते ही नहीं, क्योंकि पति-पत्नी के अतिरिक्त घर में केवल कामवाली बाईयों का आना-जाना होता है। बच्चों का टी•वी• व मीडिया से जुड़ाव, ड्रग्स व मदिरा-सेवन, बात-बात पर खीझना, अपनी बात मनवाने के लिए गलत हथकंडों का प्रयोग करना… उनकी दिनचर्या व आदत में शुमार हो जाता है। माता-पिता उन्हें खिलौने व सुख-सुविधाएं प्रदान कर बहुत प्रसन्न व संतुष्ट रहते हैं। परंतु वे भूल जाते हैं कि बच्चों को प्यार-दुलार व उनके स्नेह-सान्निध्य की दरक़ार होती है; खिलौनों व सुख-सुविधाओं की नहीं।

सो! इन असामान्य परिस्थितियों में बच्चों में अहंनिष्ठता का भाव इस क़दर पल्लवित-पोषित हो जाता है कि वे बड़े होकर उनसे केवल प्रतिशोध लेने पर आमादा ही नहीं हो जाते, बल्कि वे माता-पिता व दादा-दादी आदि की हत्या तक करने में भी गुरेज़ नहीं करते। उस समय उनके माता-पिता के पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य विकल्प शेष नहीं रह जाता। वे सोचते हैं– काश! हमने अपने आत्मजों को सुसंस्कृत किया होता; जीवन-मूल्यों का महत्व समझाया होता; रिश्तों की गरिमा का पाठ पढ़ाया होता और संबंध-सरोकारों की महत्ता से अवगत कराया होता, तो उनके जीवन का यह हश्र न होता। वे सहज जीवन जीते, उनके हृदय में करुणा भाव व्याप्त होता तथा वे त्याग करने में प्रसन्नता व हर्षोल्लास का अनुभव करते; एक-दूसरे की अहमियत को स्वीकार विश्वास जताते; विनम्रता का भाव उनकी नस-नस में व्याप्त होता और सहयोग, सेवा, समर्पण उनके जीवन का मक़सद होता।

सो! यह हमारा दायित्व हो जाता है कि हम आगामी पीढ़ी को समता व समरसता का पाठ पढ़ाएं; संस्कृति का अर्थ समझाएं; स्नेह, सिमरन, त्याग का महत्व बताएं ताकि हमारा जीवन दूसरों के लिए अनुकरणीय बन सके। यही होगी हमारे जीवन की मुख्य उपादेयता… जिससे न केवल हम अपने परिवार में खुशियां लाने में समर्थ हो सकेंगे; देश व समाज को समृद्ध करने में भी भरपूर योगदान दे पाएंगे। परिणामत: स्वर्णिम युग का सूत्रपात अवश्य होगा और जीवन उत्सव बन जायेगा।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 35 ☆ वक्त फिर करवट बदलेगा ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “वक्त फिर करवट बदलेगा ”.)

☆ किसलय की कलम से # 35 ☆

☆ वक्त फिर करवट बदलेगा ☆

वर्तमान में मानवीय मूल्यों के होते क्षरण से आम आदमी की चिंता एवम् खिन्नता स्वाभाविक है। हम पौराणिक कथाओं पर दृष्टिपात करें तो धरा-गगन का अन्तर देख अन्तर्द्वन्द्व चीत्कार में बदलने लगता है। हमने तो पढ़ा है कि पिता का वचन मान प्रभु राम चौदह वर्ष के लिए वनवास को चले गए थे। अनुज भरत ने राजपाट त्याग अपने भाई का इन्तजार महलों की जगह कुटिया में रह कर किया था। पिता की खुशी के लिए देवव्रत ने भीष्म प्रतिज्ञा ली थी। सीता, राधा, सुदामा, यशोदा, हरिश्चन्द्र से अब के महाराणा प्रताप, लक्ष्मी, दुर्गा और तो और विवेकानन्द से गांधी तक देखने के पश्चात लगता है कि हम कितने बदल गए हैं। हम वे रिश्ते, वे आदर्श, वह त्याग और प्रेम क्यों नहीं कर पाते? हम स्वार्थ को छोड़कर परोपकारोन्मुखी क्यों नहीं होते?

हम आज के भौतिक सुख को मानव जीवन का उद्देश्य मान बैठे हैं। आज सबसे ज्यादा बदलाव हमारे चरित्र एवं राजनीति में दिखाई देता है। महाभारत में हमने पढ़ा है- युद्ध समाप्ति के पश्चात लोग एक दूसरे के सैन्य शिविरों में जाकर कुशल – क्षेम भी पूछा करते थे। वार्तालाप भी किया करते थे।

जुबान की कीमत किसी गिरवी रखी जाने वाली वस्तु से कहीं अधिक होती थी, लेकिन आज पीछे से छुरा घोंपना, झूठ-फरेब करना, स्वार्थ की चाह में निकटस्थों को भी ताक में रखना आम बातें हो गई हैं। उन सब में एक बड़ा कारण हमारी सोच में बदलाव का भी है। हमने अपनी सोच के अनुरूप एक नई दुनिया गढ़ ली है। जैसे ए.सी., कार, कोठी, ओहदे और पैसे आज श्रेष्टता के मानक बन गए हैं। सच्चाई, ईमानदारी, परोपकार, भाईचारा और न्याय-धर्म गौण होते जा रहे हैं। इन्हें अपनाने वाला आज बेवकूफों की श्रेणी में गिना जाने लगा है।

यदि हम उपरोक्त बातों पर गौर करें तो ये क्रियाकलाप हमें अविवेकी प्राणियों के नजदीक ले जाते हैं, जिन्हें वर्तमान के अतिरिक्त अगला व पिछला कुछ भी नहीं दिखता। आज हम न भविष्य के लिए कुछ करना चाहते हैं और न ही हमने अब तक कुछ नि:स्वार्थ भाव से किया। क्या मरणोपरान्त समाज हमें स्मृत रखेगा, ऐसे भाव अब हमारे मस्तिष्क में कम ही आते हैं। आज आप ए.सी. और पंखों के बिना हरे-भरे वृक्षों और हवादार मकानों में क्यों नहीं रहते। आप प्राकृतिक प्रकाश और ताजे जल का उपयोग क्यों नहीं करते? आप साइकिल और पैदल चलने को महत्त्व क्यों नहीं देते? तो हम जानते हैं कि आप यही कहेंगे कि समय की बचत और व्यक्तिगत सुविधाओं हेतु यह सब करना पड़ता है। ये बातें हम साठ साल की उम्र के पहले करते हैं। साठ पार होते ही आपको सभी प्रकृति से जुड़ी बातें और अनुकरणीय उपदेश याद आने लगते हैं। आप फिर प्रातः भ्रमण शुरू करते हैं, तेल-घी-मीठा से परहेज करते हैं। धीरज, संतुष्टि और पछतावा करते हैं। जिनकी उपेक्षा की थी उन्हीं के लिए तरसते हैं। धन-दौलत, प्रतिष्ठा और अपनी शक्ति पर अकड़ने वाले यही लोग दो मीठी बातों और जरा-जरा से मान-सम्मान की आशा करते हैं। अथवा हम यूँ कह सकते हैं कि उन्हें तब जाकर आभास होता है कि जिसे श्रेष्ठ जीवन जीना समझना था वह तो सब उनकी झूठी शान थी। असली जीना तो प्रकृति के साथ जीना होता है, सादगी और ईमानदारी के साथ जीना होता है। भौतिक सुखों से ज्यादा महत्त्वपूर्ण स्वस्थ जीवन होता है, यह बात समझते-समझते देर हो चुकी होती है।

आखिर ये बदलाव आया कैसे? क्या गुरुकुल की जगह वर्तमान शिक्षा इसका कारण है? क्या भारतीय संस्कृति से परे होते जाना इसका कारण है? क्या पश्चिमीकरण ने हमारे भौगोलिक वातावरण में असंतुलन बढ़ाया है? क्या कुछ आवश्यक उपलब्धियों ने हमें पंगु बनाना शुरू कर दिया है?

हम कभी भी यह नहीं कहना चाहेंगे कि ज्ञान और विकास की आलोचना हो। नई तकनीकि का उपयोग न हो। हम तो बस यह कहना चाहते हैं कि सुख, शांति और स्वास्थ्य की कीमत पर कोई गलत कार्य, कोई विकास और कोई भी उच्च तकनीकि मानव जीवन के लिए घातक है। जब मानव ही नहीं रहेगा तो सारी कवायद के क्या मायने होंगे? हम फिर वहीं पहुँच जाते हैं, सोच के समीकरण पर। हमें फिर से सच्ची मानवता की ओर बढ़ना होगा।

हमारी शुरुआत ही दूसरों की प्रेरणा बनेगी। आज भागमभाग और उहापोह भरी जिन्दगी से लोग तंग आने लगे हैं। बदलते परिवेश और परिस्थितियों के कुप्रभाव आज देश-विदेश में पुनः जीवनशैली बदलने हेतु बाध्य करने लगे हैं। सामाजिक और मानसिक चेतना की रफ्तार धीमी होती है लेकिन आगे चलकर यह हमारे जीवन जगत में बदलाव अवश्य लाएगी। इसके लिए हमें सर्वप्रथम भौतिक सम्पन्नता से कुछ तो दूरी बनाना ही होगी। हमें सादगी, ईमानदारी, परोपकार, प्रेम-भाईचारा और सौजन्यता को अपनाना होगा। ये बातें आज जरूर सबको असामयिक और गैर जरूरी लग रही हैं, लेकिन यह भी सच है कि आने वाला वक्त पुनः करवट बदलेगा, क्योंकि बदलाव प्रकृति का नियम है।

इसलिए आईए, क्यों न इस बदलाव की शुरुआत हम किसी दूसरे का इन्तजार किए बगैर आज स्वयं से ही करें।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 95 ☆ आलेख – पब्लिक सेक्टर को बचाना जरूरी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  समसामयिक विषय पर आधारित एक विचारणीय आलेख  ‘पब्लिक सेक्टर को बचाना जरूरी  इस सार्थक सामयिक एवं विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 95 ☆

? पब्लिक सेक्टर को बचाना जरूरी ?

वर्तमान युग वैश्विक सोच व ग्लोबल बाजार का हो चला है. सारी दुनियां में विश्व बैंक तथा समानांतर वैश्विक वित्तीय संस्थायें अधिकांश देशों की सरकारों पर अपनी सोच का दबाव बना रही हैं. स्पष्टतः इन अंतर्राष्ट्रीय संस्थानो के निर्देशानुसार सरकारें नियम बनाती दिखती हैं. पाकिस्तान जैसे छोटे मोटे देशों की आर्थिक बदहाली के कारणों में उनकी स्वयं की कोई वित्तीय सुढ़ृड़ता न होना व पूरी तरह उधार की इकानामी होना है जिसके चलते वे इन वैश्विक संस्थानो के सम्मुख विवश हैं. किंतु भारत एक स्वनिर्मित सुढ़ृड़ आर्थिक व्यवस्था का मालिक रहा है. २००८ की वैश्विक मंदी या आज २०२० की कोविड मंदी के समय में भी यदि भारत की इकानामी नही टूटी तो इसका कारण यह है कि ” है अपना हिंदुस्तान कहां ?, वह बसा हमारे गांवों में “.

हमारे गांव अपनी खेती व ग्रामोद्योग के कारण आत्मनिर्भर बने रहे हैं. नकारात्मकता में सकारात्मकता ढ़ूंढ़ें तो शायद विकास की शहरी चकाचौंध न पहुंच पाने के चलते भी अप्रत्यक्षतः गांव अपनी गरीबी में भी आत्मनिर्भर रहे हैं. इस दृष्टि से किसानो को निजी हाथों में सौंपने से बचने की जरूरत है.

हमारे शहरों  की इकानामी की आत्मनिर्भरता में बहुत बड़ा हाथ पब्लिक सेक्टर नवरत्न सरकारी कंपनियों का है. इसी तरह यदि शहरी इकानामी में नकारात्मकता में सकारात्मकता ढ़ूंढ़ी जाये तो शायद समानांतर ब्लैक मनी की कैश इकानामी भी शहरी आर्थिक आत्मनिर्भरता के कारणो में एक हो सकती है.

हमारा संविधान देश को जन कल्याणकारी राज्य घोषित करता है. बिजली, रेल, हवाई यात्रा, पेट्रोलियम, गैस, कोयला, संचार, फर्टिलाइजर, सीमेंट, एल्युमिनियम, भंडारण, ट्रांस्पोरटेशन, इलेक्ट्रानिक्स, हैवी विद्युत उपकरण, हमारे जीवन के लगभग हर क्षेत्र में आजादी के बाद से  पब्लिक सेक्टर ने हमारे देश में ही नही पडोसी देशो में भी एक महत्वपूर्ण संरचना कर दिखाई है. बिजली यदि पब्लिक सेक्टर में न होती तो गांव गांव रोशनी पहुंचना नामुमकिन था. हर व्यक्ति के बैंक खाते की जो गर्वोक्ति देश दुनियां भर में करता है, यदि बैंक केवल निजी क्षेत्र में होते तो यह कार्य असंभव था.

विगत दशको में सरकारें किसी भी पार्टी की हों, वे शनैः शनैः इस बरसों की मेहनत से रची गई इमारत को किसी न किसी बहाने मिटा देना चाहती हैं. जिस पब्लिक सेक्टर ने स्वयं के लाभ से जन सरोकारों को हमेशा ज्यादा महत्व दिया है, उसे मिटने से बचाना, देश के व्यापक हित में आम भारतीय के लिये जरूरी है.  तकनीकी संस्थानो में आईएएस अधिकारियो के नेतृत्व पर प्रधानमंत्री जी ने तर्क संगत सवाल उठाया है. यह पब्लिक सेक्टर की कथित अवनति का एक कारण हो सकता है.

पब्लिक सेक्टर देश के नैसर्गिक संसाधनो पर जनता के अधिकार के संरक्षक रहे हैं. जबकि पब्लिक सेक्टर की जगह निजी क्षेत्र का प्रवेश देश के बने बनायें संसाधनो को, कौड़ियो में व्यक्तिगत संपत्ति में बदल देंगे. इससे संविधान की  ” जनता का, जनता के लिये, जनता के द्वारा ” आधारभूत भावना का हनन होगा. चुनी गई सरकारें पांच वर्षो के निश्चित कार्यकाल के लिये होती हैं, किन्तु निजीकरण के ये निर्णय पांच वर्षो से बहुत दूर तक देश के भविष्य को  प्रभावित करने वाले हैं. कोई भी बाद की सरकार इस कदम की वापसी नही कर पायेगी.  प्रिविपर्स बंद करना, बैंको का सार्वजिककरण, जैसे कदमो का यू टर्न स्पष्ट रूप से भारतीय संविधान की मूल लोकहितकारी भावना के विपरीत परिलक्षित होता है. हमें वैश्विक परिस्थितियों में अपनी अलग जनहितकारी साख बनाये रखनी चाहिये, तभी हम सचमुच आत्मनिर्भर होकर स्वयं को विश्वगुरू प्रमाणित कर सकेंगे.

क्या उपभोक्ता अधिकार निजी क्षेत्र में सुरक्षित रहेंगे ? पब्लिक सेक्टर की जगह लाया जा रहा निजी क्षेत्र महिला आरक्षण, विकलांग आरक्षण, अनुसूचित जन जातियो का वर्षो से बार बार बढ़ाया जाता आरक्षण तुरंत बंद कर देगा. निजी क्षेत्र में कर्मचारी हितों, पेंशन का संरक्षण कौन करेगा ?  ऐसे सवालों के उत्तर हर भारतीय को स्वयं ही सोचने हैं, क्योंकि सरकारें राजनैतिक हितों के चलते दूरदर्शिता से कुछ नही सोच रही हैं.

सरल भाषा में समझें कि यदि सरकार के तर्को के अनुसार व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा ही सारे आदर्श मानक हैं और मां, बहन या पत्नी के हाथों के स्वाद, त्वरित उपलब्धता, आत्मीयता, का कोई महत्व नहीं है, हर कुछ का व्यवसायीकरण ही करना है, तब तो सब के घरों की रसोई बंद कर दी जानी चाहिये और हम सबको होटलों से टेंडर बुलवाने चाहिये. स्पष्ट समझ आता है कि यह व्यापक हित में नही है.

अतः संविधान के पक्ष में, जनता और राष्ट्र के व्यापक हित में एवं विश्व में भारत की श्रेष्ठता प्रमाणित करने के लिये आवश्यक है कि किसानो को निजी हाथों में सौंपने से बचा जाये व पब्लिक सेक्टर को तोड़ने के आत्मघाती कदमो को तुरंत रोका जाये. बजट में जन हितकारी धन आबंटन हो न कि यह बताया जाये कि सार्वजनिक क्षेत्र को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिये उसका निजीकरण किया जावेगा. सार्वजनिक क्षेत्र के सुधार और सुढ़ृड़ीकरण की तरकीब ढ़ूंढ़ना जरूरी है न कि उसका निजीकरण कर उसे समाप्त करना.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 94 ☆ आलेख – वेलेंटाइन कहिये या बसन्त पंचमी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक  बसंत पंचमी पर्व पर एक विशेष आलेख   ‘वेलेंटाइन कहिये या बसन्त पंचमी इस सार्थक सामयिक एवं विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 94 ☆

? वेलेंटाइन कहिये या बसन्त पंचमी ?

दार्शनिक चिंतन  वेलेंटाइन डे को प्रकृति के बासन्ती परिवर्तन से प्राणियो के मनोभावों पर प्रभाव  मानता है, बसंत पंचमी व वेलेंटाइन लगभग आस पास ही होते हैं, प्रतिवर्ष। स्पष्ट है सभ्यताओं के वैभिन्य में प्राकृतिक बदलाव को अभिव्यक्त करने की तिथियां किंचित भिन्न हो सकती हैं, प्रसन्नता व्यक्त करने का तरीका सभ्यता व संसाधनों के अनुसार कुछ अलग अलग हो सकता है, पर परिवेश के अनुकूल व्यवहार मनुष्य ही नही सभी प्राणियों में सामान्य है।

आज के युवा पश्चिम के प्रभाव में  सारे आवरण फाड़कर अपनी समस्त प्रतिभा के साथ दुनिया में  छा जाना चाहते है। इंटरनेट पर एक क्लिक पर अनावृत  होती सनी लिओने सी बसंतियां स्वेच्छा से ही तो यह सब कर रही हैं।बसंत प्रकृति पुरुष है।वह अपने इर्द गिर्द रगीनियां सजाना चाहता है, पर प्रगति की कांक्रीट से बनी गगनचुम्बी चुनौतियां, कारखानो के हूटर और धुंआ उगलती चिमनियां बसंत के इस प्रयास को रोकना चाहती है।

भारत ने प्रेम की नैसर्गिक भावना को हमेशा एक मर्यादा में सुसभ्य तरीके से आध्यात्मिक स्वरूप में पहचाना है। राधा कृष्ण इस एटर्नल लव के प्रतीक के रूप में वैश्विक रूप में स्थापित हैं।

बसंत पंचमी कहें या वेलेंटाइन डे  नारी सुलभ  सौंदर्य, परिधान, नृत्य, रोमांटिक गायन में प्रकृति के साथ मानवीय तादात्म्य ही है। आज स्त्री के कोमल हाथो में फूल नहीं कार की स्टियरिंग थमाकर, जीन्स और टाप पहनाकर उसे जो चैलेंज  वेलेंटाइन वाला जमाना दे रहा है, उसके जबाब में किसी नेचर्स एनक्लेव बिल्डिंग के आठवें माले के फ्लैट की बालकनी में लटके गमले में गेंदे के फूल के साथ सैल्फी लेती पीढ़ी ने दे दिया है, हमारी  नई पीढ़ी जानती है कि  उसे बसंत और वेलेंटाइन  के साथ सामंजस्य बनाते हुये कैसे बजरंग दलीय मानसिकता से जीतते हुये अपना पिंक झंडा लहराना है। पुरुष और नारी के सहयोग से ही प्रकृति बढ़ रही है, उसे वेलेंटाइन कहे या बसन्त पंचमी।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 85 ☆ ढाई आखर…☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 85 ☆ ढाई आखर… ☆ 
? वैलेंटाइन दिवस पर श्री संजय भारद्वाज जी का एक विचारणीय एवं सामायिक आलेख ?

प्रेम अबूझ, प्रेम अपरिभाषित…, प्रेम अनुभूत, प्रेम अनभिव्यक्त..। प्रेम ऐसा मोहपाश जो बंधनों से मुक्त कर दे, प्रेम क्षितिज का ऐसा आभास जो धरती और आकाश को पाश में आबद्ध कर दे। प्रेम द्वैत का ऐसा डाहिया भाव कि किसीकी दृष्टि अपनी सृष्टि में देख न सके, प्रेम अद्वैत का ऐसा अनन्य भाव कि अपनी दृष्टि में हरेक की सृष्टि देखने लगे।

ब्रजपर्व पूर्ण हुआ। कर्तव्य और जीवन के उद्देश्य ने पुकारा। गोविंद द्वारिका चले। ब्रज छोड़कर जाते कान्हा को पुकारती सुधबुध भूली राधारानी ऐसी कृष्णमय हुई कि ‘कान्हा, कान्हा’ पुकारने के बजाय ‘राधे, राधे’ की टेर लगाने लगी। अद्वैत जब अनन्य हो जाता है राधा और कृष्ण, राधेकृष्ण हो जाते हैं। योगेश्वर स्वयं कहते हैं, नंदलाल और वृषभानुजा एक ही हैं। उनमें अंतर नहीं है।

रासरचैया से रासेश्वरी राधिका ने पूछा, “कान्हा, बताओ, मैं कहाँ-कहाँ हूँ?” गोपाल ने कहा, “राधे, तुम मेरे हृदय में हो।” विराट रूपधारी के हृदय में होना अर्थात अखिल ब्रह्मांड में होना।..”तुम मेरे प्राण में हो, तुम मेरे श्वास में हो।”  जगदीश के प्राण और श्वास में होना अर्थात पंचतत्व में होना, क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर में होना।..”तुम मेरे सामर्थ्य में हो।” स्रष्टा के सामर्थ्य में होना अर्थात मुरलीधर को गिरिधर करने की प्रेरणा होना। कृष्ण ने नश्वर अवतार लिया हो या सनातन ईश्वर होकर विराजें हों, राधारानी साथ रहीं सो कृष्ण की बात रही।

“लघुत्तम से लेकर महत्तम चराचर में हो। राधे तुम यत्र, तत्र, सर्वत्र हो।”

श्रीराधे ने इठलाकर पूछा, “अच्छा अब बताओ, मैं कहाँ नहीं हूँ?” योगेश्वर ने गंभीर स्वर में कहा, “राधे, तुम मेरे भाग्य में नहीं हो।”

प्रेम का भाग्य मिलन है या प्रेम का सौभाग्य बिछोह है? प्रेम की परिधि देह है या देहातीत होना प्रेम का व्यास है?

परिभाषित हो न हो, बूझा जाय या न जाय, प्रेम ऐसी भावना है जिसमें अनंत संभावना है।कर्तव्य ने कृष्ण को द्वारिकाधीश के रूप में आसीन किया तो प्रेम ने राधारानी को वृंदावन की पटरानी घोषित किया। ब्रज की हर धारा, राधा है। ब्रज की रज राधा है, ब्रज का कण-कण राधा है, तभी तो मीरा ने गोस्वामी जी से पूछा  था, “ठाकुर जी के सिवा क्या ब्रज में कोई अन्य पुरुष भी है?”

प्रेमरस के बिना जीवनघट रीता है।  जिसके जीवन में प्रेम अंतर्भूत है, उसका जीवन अभिभूत है। विशेष बात यह कि अभिभूत करनेवाली यह अनुभूति न उपजाई न जा सकती है न खरीदी जा सकती है।

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय

राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।

इस ढाई आखर को मापने के लिए वामन अवतार  के तीन कदम भी कम पड़ जाएँ!

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 73 – हिंदूधर्माचरण एक संस्कारित भारतीय जीवनशैली ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी का विशेष आलेख  “हिंदूधर्माचरण एक संस्कारित भारतीय जीवनशैली। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य#73 ☆ हिंदूधर्माचरण एक संस्कारित भारतीय जीवनशैली ☆

हमारा देश भारतवर्ष पौराणिक कथाओं तथा मतों के अध्ययन के अनुसार आर्यावर्त के जंबूद्वीप के एक खंड का हिस्सा है जिसे अखंडभारत के नाम से पहचाना जाता है। राजा दुष्यंत के महाप्रतापी पुत्र भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। लेकिन हमारे अध्ययन के अनुसार देश में तीन भरत चरित्र हमारे सामने है जो सामूहिक रूप से हमारे देश हमारी संस्कृति तथा हमारे समाज  के आचार विचार व्यवहार तथा मानवीय गुणों की आदर्श तथा अद्भुतछवि विश्व फलक पर प्रस्तुत करता है।

जिसमें समस्त मानवीय मूल्यों आदर्शों की छटा समाहित है जो हमें हमारे सांस्कृतिक संस्कारों की याद दिलाता रहता है, जो इंगित करता है कि बिना संस्कारों के संरक्षण के कोई समाज उन्नति नहीं कर सकता। संस्कार विहीन समाज टूटकर बिखर जाता है और अपने मानवीय मूल्य को खो देता है। वैसे तो हर धर्म और संस्कृति के लोग अपने देश काल परिस्थिति के अनुसार अपने अपने संस्कारों के अनुसार व्यवहार करते है, किन्तु, हमारा समाज  षोडश संस्कारों की आचार संहिता से आच्छादित है। इसमें मुख्य हैं 1-गर्भाधान संस्कार 2-पुंशवन संस्कार 3-सीमंतोन्नयन संस्कार 4-जातकर्म संस्कार 5-नामकरण संस्कार 6-निष्क्रमण संस्कार 7- अन्नप्राश्न संस्कार 8-मुण्डन संस्कार 9-कर्णवेधन संस्कार 10-विद्यारंभ संस्कार 11-उपनयन संस्कार 12-वेदारंभ संस्कार 13-केशांत संस्कार 14-संवर्तन संस्कार 15-पाणिग्रहण अथवा विवाह संस्कार 16-अंतेष्टि संस्कार।

इनमें से हर संस्कार का‌ मूलाधार आदर्श कर्मकांड पर टिका हुआ है। हमारे आदर्श ही हमारी संस्कृति की जमा-पूंजी है, यही तो हर भरत चरित्र हम भारतवंशियो की आचार-संहिता की चीख चीख कर दुहाई देता है जिसका आज पतन होता दीख रहा है। आज जहां भाई ही भाई के खून का प्यासा है। वहीं त्रेता युगीन भरत चरित भ्रातृप्रेम तथा स्नेह की अनूठी मिसाल प्रस्तुत करता है, तो द्वापरयुगीन भरत चरित शूर वीरता शौर्य तथा साहस की भारतीय परम्परा की गौरवगाथा की जीवंत झांकी दिखाता है।

वहीं जडभरत का चरित्र हमारी आध्यात्मिक ज्ञान की पराकाष्ठा को स्पर्श करता दीखता है ये नाम हर भारतीय से आदर्श आचार संहिता की अपेक्षा रखता है जो हमारे समाज की आन बान शान के मर्यादित आचरण की कसौटी है।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 82 ☆ साधन नहीं साधना ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  स्त्री विमर्श साधन नहीं साधना।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 82 ☆

☆ साधन नहीं साधना ☆

‘आदमी साधन नहीं, साधना से श्रेष्ठ बनता है। आदमी उच्चारण से नहीं, उच्च-आचरण से अपनी पहचान बनाता है’… जिससे तात्पर्य है, मानव धन-दौलत व पद-प्रतिष्ठा से श्रेष्ठ नहीं बनता, क्योंकि साधन तो सुख-सुविधाएं प्रदान कर सकते हैं, श्रेष्ठता नहीं। सुख, शांति व संतोष तो मानव को साधना से प्राप्त होती है और तपस्या व आत्म-नियंत्रण इसके प्रमुख साधन हैं। संसार में वही व्यक्ति श्रेष्ठ कहलाता है, अथवा अमर हो जाता है, जिसने अपने मन की इच्छाओं पर अंकुश लगा लिया है। वास्तव में इच्छाएं ही हमारे दु:खों का कारण हैं। इसके साथ ही हमारी वाणी भी हमें सबकी नज़रों में गिरा कर तमाशा देखती है। इसलिए केवल बोल नहीं, उनके कहने का अंदाज़ भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। वास्तव में उच्चारण अर्थात् हमारे कहने का ढंग ही, हमारे व्यक्तित्व का आईना होता है, जो हमारे आचरण को पल-भर में सबके सम्मुख उजागर कर देता है। सो! व्यक्ति अपने आचरण व व्यवहार से पहचाना जाता है। इसलिए ही उसे विनम्र बनने की सलाह दी गई है, क्योंकि फूलों-फलों से लदा वृक्ष सदैव झुक कर रहता है; सबके आकर्षण का केंद्र बनता है और लोग उसका हृदय से सम्मान करते हैं।

‘इसलिए सिर्फ़ उतना विनम्र बनो; जितना ज़रूरी हो, क्योंकि बेवजह की विनम्रता दूसरों के अहं को बढ़ावा देती है।’ दूसरे शब्दों में उस स्थिति में लोग आपको अयोग्य व कायर समझ, आपका उपयोग करना प्रारंभ कर देते हैं। आपको दूसरों को हीन दर्शाने हेतु निंदा करना, उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन जाता है अथवा आदत में शुमार हो जाता है। यह तो सर्वविदित है कि आवश्यकता से अधिक किसी वस्तु का सेवन मानव को सदैव हानि पहुंचाता है। इसलिए उतना झुको; जितना आवश्यक हो ताकि आपका अस्तित्व कायम रह सके। ‘हां! सलाह हारे हुए की, तज़ुर्बा जीते हुए का और दिमाग़ खुद का… इंसान को ज़िंदगी में कभी हारने नहीं देता।’ सो! दूसरों की सलाह तो मानिए,परंतु अपने मनोमस्तिष्क का प्रयोग अवश्य कीजिए और परिस्थितियों का बखूबी अवलोकन कीजिए। सो! ‘सुनिए सबकी, कीजिए मन की’ अर्थात् समय व अवसरानुकूलता का ध्यान रखते हुए निर्णय लीजिए। ग़लत समय पर लिया गया निर्णय, आपको कटघरे में खड़ा कर सकता है… अर्श से फ़र्श पर लाकर पटक सकता है। वास्तव में सुलझा हुआ व्यक्ति अपने निर्णय खुद लेता है तथा उसके परिणाम के लिए दूसरों को कभी भी दोषी नहीं ठहराता। इसलिए जो भी करें, आत्म- विश्वास से करें…पूरे जोशो-ख़रोश से करें। बीच राह से लौटें नहीं और अपनी मंज़िल पर पहुंचने के पश्चात् ही पीछे मुड़कर देखें, अन्यथा आप अपने लक्ष्य की प्राप्ति कभी भी नहीं कर पाएंगे।

‘इंतज़ार करने वालों को बस उतना ही मिलता है, जितना कोशिश करने वाले छोड़ देते हैं।’ अब्दुल कलाम जी का यह संदेश मानव को निरंतर कर्मशील बने रहने का संदेश देता है। परंतु जो मनुष्य हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाता है, परिश्रम करना छोड़ देता है और प्रतीक्षा करने लग जाता है कि जो भाग्य में लिखा है अवश्य मिल कर रहेगा। सो! उन लोगों के हिस्से में वही आता है, जो कोशिश करने वाले छोड़ देते हैं। दूसरे शब्दों में आप इसे जूठन की संज्ञा भी दे सकते हैं। ‘इसलिए जहां भी रहो, लोगों की ज़रूरत बन कर रहो, बोझ बन कर नहीं’ और ज़रूरत वही बन सकता है, जो सत्यवादी हो, शक्तिशाली हो, परोपकारी हो, क्योंकि स्वार्थी इंसान तो मात्र बोझ है, जो केवल अपने बारे में सोचता है। वह उचित- अनुचित को नकार, दूसरों की भावनाओं को रौंद, उनके प्राण तक लेने में भी संकोच नहीं करता और सबसे अलग-थलग रहना पसंद करता है।

‘शब्द और सोच दूरियां बढ़ा देते हैं, क्योंकि कभी हम समझ नहीं पाते और कभी हम समझा नहीं पाते।’ इसलिए सदैव उस सलाह पर काम कीजिए, जो आप दूसरों को देते हैं अर्थात् दूसरों से ऐसा व्यवहार कीजिए, जिसकी आप दूसरों से अपेक्षा करते हैं। सो! अपनी सोच सदैव सकारात्मक रखिए, क्योंकि जैसी आपकी सोच होगी, वैसा ही आपका व्यवहार होगा। अनुभूति और अभिव्यक्ति एक सिक्के के दो पहलू हैं। सो! जैसा आप सोचेंगे अथवा चिंतन-मनन करेंगे, वैसी आपकी अभिव्यक्ति होगी, क्योंकि शब्द व सोच मन में संदेह व शंका को जन्म देकर दूरियों को बढ़ा देते हैं। ग़लतफ़हमी मानव मन में एक-दूसरे के प्रति कटुता को बढ़ाती है और संदेह व भ्रम हमेशा रिश्तों को बिखेरते हैं। प्रेम से तो अजनबी भी अपने बन जाते हैं। इसलिए तुलना के खेल में न उलझने की सीख दी गई है, क्योंकि यह कदापि उपयोगी व लाभकारी नहीं होती। जहां तुलना की शुरुआत होती है, वहीं आनंद व अपनत्व अपना प्रभाव खो देते हैं। इसलिए स्पर्द्धा भाव रखना अधिक कारग़र है,क्योंकि छोटी लाइन को मिटाने से बेहतर है, लंबी लाइन को खींच देना… यह भाव मन में तनाव को नहीं पनपने देता; न ही यह फ़ासलों को बढ़ाता है।

परमात्मा ने सब को पूर्ण बनाया है तथा उसकी हर कृति अर्थात् जीव दूसरे से अलग है। सो! समानता व तुलना का प्रश्न ही कहां उठता है? तुलना भाव प्राणी-मात्र में ईर्ष्या जाग्रत कर, द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न करता है, जो स्नेह, सौहार्द व अपनत्व को लील जाता है। प्रेम से तो अजनबी भी परस्पर बंधन में बंध जाते हैं। सो! जहां त्याग, समर्पण व एक- दूसरे के लिए मर-मिटने का भाव होता है, वहां आनंद का साम्राज्य होता है। संदेह व भ्रम अलगाव की स्थिति का जनक है। इसलिए शक़ को दोस्ती का दुश्मन स्वीकारा गया है। भ्रम की स्थिति में रिश्तों में बिखराव आ जाता है और उनकी असामयिक मृत्यु हो जाती है। इसलिए समय रहते चेत जाना मानव के लिए उपयोगी है, हितकारी है, क्योंकि अवसर व सूर्य में एक ही समानता है। देर करने वाले इन्हें हमेशा के लिए खो देते हैं। इसलिए गलतफ़हमियों को शीघ्रता से संवाद द्वारा मिटा देना चाहिए ताकि ‘अभी नहीं, तो कभी नहीं’ वाली भयावह स्थिति उत्पन्न न हो जाए।

‘ज़िंदगी में कुछ लोग दुआओं के रूप में आते हैं और कुछ आपको सीख देकर अथवा पाठ पढ़ा कर चले जाते हैं।’ मदर टेरेसा की यह उक्ति अत्यंत सार्थक व अनुकरणीय है। इसलिए अच्छे लोगों की संगति प्राप्त कर, स्वयं को सौभाग्यशाली समझो व उन्हें जीवन में दुआ के रूप में स्वीकार करो। दुष्ट लोगों से घृणा मत करो, क्योंकि वे अपना अमूल्य समय नष्ट कर, आपको सचेत कर अपने दायित्व का निर्वहन करते हैं, ताकि आपका जीवन सुचारु रुप से चल सके। यदि कोई आप से उम्मीद करता है, तो यह उसकी मजबूरी नहीं…आप के साथ लगाव व विश्वास है। अच्छे लोग स्नेह-वश आप से संबंध बनाने में विश्वास रखते हैं … इसमें उनका स्वार्थ व विवशता नहीं होती। इसलिए अहं रूपी चश्मे को उतार कर जहान को देखिए…सब अच्छा ही अच्छा नज़र आएगा, जो आपके लिए शुभ व मंगलमय होगा, क्योंकि दुआओं में दवाओं से अधिक प्रभाव- क्षमता होती है। सो! ‘किसी पर विश्वास इतना करो, कि वह तुमसे छल करते हुए भी खुद को दोषी समझे और प्रेम इतना करो कि उसके मन में तुम्हें खोने का डर हमेशा बना रहे।’ यह है, प्रेम की पराकाष्ठा व समर्पण का सर्वोत्तम रूप, जिसमें विश्वास की महत्ता को दर्शाते हुए, उसे मुख्य उपादान स्वीकारा गया है।

अच्छे लोगों की पहचान बुरे वक्त में होती है, क्योंकि वक्त हमें आईना दिखलाता है और हक़ीक़त बयान करता हैं। हम सदैव अपनों पर विश्वास करते हैं तथा उनके साथ रहना पसंद करते हैं। परंतु जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो बड़ी तकलीफ़ होती है। परंतु उससे भी अधिक पीड़ा तब होती है, जब कोई अपना पास रहकर भी दूरियां बना लेता है… यही है आधुनिक मानव की त्रासदी। इस स्थिति में वह भीड़ में भी स्वयं को अकेला अनुभव करता है और एक छत के नीचे रहते हुए भी उसे अजनबीपन का अहसास होता है। पति-पत्नी और बच्चे एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होते हैं और नितांत अकेलापन अनुभव करते-करते टूट जाते हैं। परंतु आजकल हर इंसान इस असामान्य स्थिति में रहने को विवश है, जिसका परिणाम हम वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या के रूप में स्पष्ट देख रहे हैं। पति-पत्नी में अलगाव की परिणति तलाक़ के रूप में पनप रही है, जो बच्चों के जीवन को नरक बना देती है। हर इंसान अपने-अपने द्वीप में क़ैद है। परंतु फिर भी वह धन-संपदा व पद-प्रतिष्ठा के उन्माद में पागल अथवा अत्यंत प्रसन्न है, क्योंकि वह उसके अहं की पुष्टि करता है।

अतिव्यस्तता के कारण वह सोच भी नहीं पाता कि उसके कदम गलत दिशा की ओर अग्रसर हैं। उसे भौतिक सुख-सुविधाओं से असीम आनंद की प्राप्ति होती है। इन परिस्थितियों ने उसे जीवन क्षणभंगुर नहीं लगता, बल्कि माया के कारण सत्य भासता है और वह मृगतृष्णा में उलझा रहता है। और… और …और अर्थात् अधिक पाने के लोभ में वह अपना हीरे-सा अनमोल जीवन नष्ट कर देता है, परंतु वह सृष्टि-नियंता को आजीवन स्मरण नहीं करता, जिसने उसे जन्म दिया है। वह जप-तप व साधना में विश्वास नहीं करता… दूसरे शब्दों में वह ईश्वर की सत्ता को नकार, स्वयं को भाग्य-विधाता समझने लग जाता है।

वास्तव में जो मस्त है, उसके पास सर्वस्व है अर्थात् जो व्यक्ति अपने ‘अहं’ अथवा ‘मैं ‘ को मार लेता है और स्वयं को परम-सत्ता के सम्मुख समर्पित कर देता है…वह जीते-जी मुक्ति प्राप्त कर लेता है। दूसरे शब्दों में ‘सबके प्रति सम भाव रखना व सर्वस्व समर्पण कर देना साधना है; सच्ची तपस्या है…यही मानव जीवन का लक्ष्य है।’ इस स्थिति में उसे केवल ‘तू ही तू’ नज़र आता है और मैं का अस्तित्व शेष नहीं रहता। यही है तादात्मय व निरहंकार की मन:स्थिति …जिसमें स्व-पर व राग- द्वेष की भावना का लोप हो जाता है। इसके साथ ही धन को हाथ का मैल कहा गया है, जिसका त्याग कर देना ही श्रेयस्कर है।

जहां साधन के प्रति आकर्षण रहता है, वहां साधना  दस्तक देने का साहस नहीं जुटा पाती। वास्तव में धन-संपदा हमें गलत दिशा की ओर ले जाती है…जो सभी बुराइयों की जड़ है और साधना हमें कैवल्य की स्थिति तक पहुंचाने का सहज मार्ग है, जहां मैं और तुम का भाव शेष नहीं रहता। अलौकिक आनंद की मनोदशा में, कानों में अनहद-नाद के स्वर सुनाई पड़ते हैं, जिसे सुन कर मानव अपनी सुध-बुध खो बैठता है और इस क़दर तल्लीन हो जाता है कि उसे सृष्टि के कण-कण में परमात्मा की सूरत नज़र आने लगती है। ऐसी स्थिति में लोग आप को अहंनिष्ठ समझ, आपसे खफ़ा रहने लगते हैं और व्यर्थ के इल्ज़ाम लगाने लगते हैं। परंतु इससे आपको हताश-निराश नहीं, बल्कि आश्वस्त होना चाहिए कि आप ठीक दिशा की ओर अग्रसर हैं; सही कार्यों को अंजाम दे रहे हैं। इसलिए साधना को जीवन में उत्कृष्ट स्थान देना चाहिए, क्योंकि यही वह सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम मार्ग है, जो आपको मोक्ष के द्वार तक ले जाता है।

सो! साधनों का त्याग कर, साधना को अपनाइए। जीवन में लंबे समय तक शांत रहने का उपाय है… ‘जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकारिए और दूसरों को संतुष्ट करने के लिए जीवन में समझौता मत कीजिए; आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चलते रहिए’ विवेकानंद जी की यह उक्ति बहुत कारग़र है। समय, सत्ता, धन व शरीर  जीवन में हर समय काम नहीं आते, सहयोग नहीं देते… परंतु अच्छा स्वभाव, समझ, अध्यात्म व सच्ची भावना जीवन में सदा सहयोग देते हैं। सो! जीवन में तीन सूत्रों को जीवन में धारण कीजिए… शुक़्राना, मुस्कुराना व किसी का दिल न दु:खाना। हर वक्त ग़िले-शिक़वे करना ठीक नहीं… ‘कभी तो छोड़ दीजिए/ कश्तियों को लहरों के सहारे/’ अर्थात् सहज भाव से जीवन जिएं, क्योंकि इज़्ज़त व तारीफ़ खरीदी नहीं जाती, कमाई जाती है। इसलिए प्रशंसा व निंदा में सम-भाव से रहने का संदेश दिया गया है। सो! प्रशंसा में गर्व मत करें व आलोचना में तनाव-ग्रस्त मत रहें… सदैव अच्छे कर्म करते रहें, क्योंकि ईश्वर की लाठी कभी आवाज़ नहीं करती। समय जब निर्णय करता है; ग़वाहों की दरक़ार नहीं होती। तुम्हारे कर्म ही तुम्हारा आईना होते हैं; जो तुम्हें हक़ीक़त से रू-ब-रू कराते हैं। इसलिए कभी भी किसी के प्रति ग़लत सोच मत रखिए, क्योंकि सकारात्मक सोच का परिणाम सदैव अच्छा ही होगा और प्राणी-मात्र के लिए मंगलमय होगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 34 ☆ महिला-पुरुष समानता का आलोक ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “महिला-पुरुष समानता का आलोक”.)

☆ किसलय की कलम से # 34 ☆

☆ महिला-पुरुष समानता का आलोक ☆

भारतीय जनमानस में परपराएँ एवं रीति-रिवाज अव्यवस्थाओं के नियंत्रण हेतु ही बनाई गई हैं। समाज में इनकी अनदेखी करना असामाजिक कृत्य समझा जाता है। प्राचीन काल से वर्तमान तक देखने में आया है कि तात्कालिक सामाजिक व्यवस्थाओं को ध्यान में रखकर ही परम्पराएँ बनाई गई हैं और समय-समय पर उनमें बदलाव भी होते आए हैं। इसका कारण बदलता सामाजिक ढाँचा तथा बदलती परिस्थितियाँ ही रही हैं।

आवश्यकतानुसार जिस तरह महिलाएँ घर और घूँघट से बाहर आई हैं । जातिबंधन शिथिल हुए हैं, बढ़ती शैक्षिक योग्यता से छोटे और बड़े की खाई पटती जा रही है। धर्म-कर्म की मान्यताएँ बदल रही हैं। लोक-परलोक का भय कम होता जा रहा है । इन सब को देखते हुए एवं पौराणिक खोजबीन के पश्चात ऐसे अनेक कारणों एवं प्रतिबंधों के मूल तक पहुँचने में हमने सफलता पाई है।

यही कारण है कि अब वर्तमान में अनेक अवांछित बंदिशें कमजोर पड़ती जा रही हैं। हम रिश्ते-नातों की बात करें, पति-पत्नी की बात करें, परिवार और समाज की बात करें। अब वह पुराना माहौल कम ही दिखता है। अब कमजोर पक्ष सुदृढ़ हो चुका है। समाज में स्त्री पुरुष के समान अधिकारों से वाकई क्रान्तिकारी परिवर्तन आया है। आज ढोंग, दकियानूसी एवं अंधविश्वास जैसी बातों पर विराम लगता जा रहा है। आज केवल उन्हीं परम्पराओं का निर्वहन किया जा रहा है, जो यथार्थ में समाज के लिए उपयोगी हैं।

आज हम देखते हैं कि महिलाएँ वे सारे कार्य सम्पन्न कर रही हैं जिन्हें पहले पुरुष वर्ग किया करता था। यह बताने की कोई आवश्यकता नहीं है कि चूल्हा-चौका से लेकर अंतरिक्ष तक महिलाएँ कहीं पीछे नहीं हैं। तकनीकि, विज्ञान, राजनीति, उद्योग, समाजसेवा एवं खेलकूद में भी महिला वर्ग का प्रतिनिधित्व देखा जा सकता है।

अब यह स्थिति है कि प्राचीन अनुपयुक्त परपराओं एवं रीति रिवाजों के अनुगामी स्वयं पिछड़ों की श्रेणी में गिने जाने लगे हैं। यह बात इंसानों को काफी देर से समझ में आई कि जब भगवान ने स्त्री-पुरुष में अंतर नहीं किया तो हम अंतर क्यों करें? जब हमने इस अंतर को पाटना प्रारंभ कर ही दिया है तो कुछेक विरोधी स्वर उठेंगे ही। यह भी एक सामाजिक प्रवृत्ति है कि प्रत्येक अच्छे कार्य का विरोध लोग अपनी अपनी तरह से शुरू कर ही देते हैं, लेकिन समय का बहाव विरोध को आखिर बहाकर ले ही जाता है, यह बात भी सच है।

समाज में तानाशाही भला कैसे चल सकती है। यहाँ एक अकेला नहीं पूरा का पूरा इन्सानी समूह है जिसमें सर्वसम्मति या बहुमत की मान्यता है। झुके हुए पलड़े का वजन भारी होता है और भारी का वर्चस्व ही होता है। इसलिए आज नहीं तो कल हमें इस बहाव के साथ बहना ही होता है। पहले महिलाओं पर प्रतिबंध कुछ ज्यादा ही हुआ करते थे और वे इन प्रतिबंधों के चलते घर तक ही सीमित रहती थीं, लेकिन आज आप हम बदलते परिवेश के स्वयं साक्षी हैं। आज जब एक लड़की अपने पिता की अर्थी को कंधा दे सकती है। अंतिम संस्कार कर सकती है। सैनिक, पायलट, ड्राइवर, उद्योग-धंधे एवं व्यवसाय कर सकती है। राजनीति के शिखर पर पहुँच सकती है, तब ऐसा कौन सा कार्य है जिसकी जिम्मेदारी से महिला कताराये या संकोच करे।

जब हमारे इसी समाज ने उसे उपरोक्त अनुमति दी है तब कुछ कुतार्किक परपराओं, रीति-रिवाजों से दूर रखकर क्या हम उन्हें इन सारी सहूलियतों और लाभों से वंचित तो नहीं कर रहे हैं, जो पुरुष वर्ग को प्राप्त हैं। पुरुष वर्ग को जिन कर्मों से पुण्य मिलता है, उसी कर्म से महिला वर्ग पाप की भागीदार कैसे हो सकता है? आप हम स्वयं सोचें एवं अपनी आत्मा से पूछें तब आपकी आत्मा स्वमेव महिलाओं का पक्ष लेगी।

वैसे तो भारतीय समाज में महिलाओं को लेकर अनेक मतभेद एवं विवाद होते रहे हैं। वर्षों पूर्व शनि शिंगणापुर में एक महिला द्वारा शनिदेव की पूजा करने और मूर्ति पर तेल चढ़ाने के मामले पर भी विवाद खड़ा हो गया था। तब वहाँ एक साथ दोनों पक्ष अपनी अपनी बात को उचित बतला रहे थे । एक ओर पुजारी, स्थानीय लोग एवं परम्परावादी प्राचीन प्रथा को आगे बढ़ाना चाहते थे, वहीं अंध श्रद्धा निर्मूलन समिति सहित दूसरे पक्ष ने शनिदेव की पूजा में महिलाओं को शामिल करना गलत नहीं माना था। तब उस विवाद का क्या परिणाम हुआ? भारतीय मानस पटल पर इसका क्या प्रभाव पड़ा या जीत किसकी हुई ? परपराओं की या बदलती परिस्थितियों की, इन बातों पर प्रबुद्धों द्वारा विशेष चिंतन किया जाना चाहिए।

मेरी मान्यता है कि आस्थावादी मानव चाहे वह स्त्री हो अथवा पुरुष दोनों ही अपनी पूजा-भक्ति एवं किए गए कर्मों से पुण्य कमाकर तथाकथित बैकुंठ या स्वर्ग जाना चाहता है, फिर पूजन-अर्चन में प्रतिबंध या बंदिशें क्यों?

हमारे वेदों में कहा गया है कि जहाँ नारियों की पूजा होती है वहाँ देवताओं का वास होता है। अतः वर्तमान में भी जब महिलाएँ अंतरिक्ष तक जा रही हैं, तब इनको प्रात्साहित करना एक तरह से पुरुषवर्ग का दायित्व ही है। समाज बदल रहा है, यह सबको समझना होगा। आईये, हम महिला-पुरुष समानता का आलोक फैलाएँ और ईश्वर की प्रत्येक सन्तान हेतु पवित्र वातावरण बनाएँ।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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