हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 68 ☆ सोच व व्यवहार ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख सोच व व्यवहार।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 68 ☆

☆ सोच व व्यवहार

सोच व व्यवहार आपके हस्ताक्षर होते हैं। जब तक आप अपनी सोच नहीं बदलते, अनुभवों की गिरफ़्त में रहते हैं। ‘सोच बदलिए, व्यवहार स्वयं बदल जाएगा, क्योंकि व्यवहार आपके जीवन का आईना होता है।’ सब्र व सहनशीलता मानवता के आभूषण है, जो आपको न तो किसी की नज़रों में गिरने देते हैं, न ही अपनी नज़रों में। इसलिए जीवन में सामंजस्य बनाए रखें, क्योंकि दुनिया की सबसे अच्छी किताब आप खुद हैं। खुद को समझ लीजिए, सभी समस्याओं का समाधान स्वत: हो जाएगा। इसलिए सबसे विनम्रतापूर्ण व्यवहार कीजिए। रिश्तों को निभाने के लिए इसकी दरक़ार होती है। नम्रता से हृदय की पावनता, सामीप्य ,समर्पण व छल-कपट से महाभारत रची जा सकती है। इसलिए सदैव सत्य की राह का अनुसरण कीजिए। भले ही इस राह में कांटे, बाधाएं व अवरोधक बहुत हैं और इसे उजागर होने में समय भी बहुत लगता है। परंतु झूठ के पांव नहीं होते। इसलिए वह लंबे समय तक कहीं भी ठहरता नहीं है।

सत्य की ख़्वाहिश होती है कि सब उसे जान लें, जबकि झूठ हमेशा भयभीत रहता है कि कोई उसे पहचान न ले। सत्य सामान्य होता है। जिस क्षण आप उसका बखान करना प्रारंभ करते हैं, वह कठिनाई के रूप में सामने आता है। सो! सत्य को हमेशा तीन चरणों से गुज़रना पड़ता है… उपहास, विरोध और अंतत: स्वीकृति। सत्य का प्रथम स्तर पर उपहास  होता है ओर लोग आपकी आलोचना करते हैं और नीचा दिखाने का हर संभव प्रयास करते हैं।  यदि आप उस स्थिति में भी विचलित नहीं होते, तो आपको विरोध को सामना करना पड़ता है। यदि आप फिर भी स्थिर रहते हैं, तो सत्य को अर्थात् जिस राह का आप अनुसरण कर रहे हैं, उसे स्वीकृति मिल जाती है। लोग आपके क़ायल हो जाते हैं और हर जगह आपकी सराहना की जाती है। परंतु आपके लिए हर स्थिति में सम रहना अपेक्षित है। सो! सुख में फूलना नहीं और दु:ख में उछलना अर्थात्  घबराना नहीं … सुख-दु:ख को साक्षी भाव से देखने का सही अंदाज़ व सुख, शांति व प्रसन्नता प्राप्त करने का रहस्य है।

सो! यदि आप सुख पर पर ध्यान दोगे, तो सुखी होगे, यदि दु:ख पर ध्यान दोगे, दु:खी हो जाओगे।

दरअसल, आप जिसका ध्यान करते हो, वही वस्तु व भाव सक्रिय हो जाता है। इसलिए ध्यान को सर्वोत्तम बताया गया है, क्योंकि यह अपनी वासनाओं अथवा इंद्रियों पर विजय पाने का माध्यम है। इसलिए ‘दूसरों की अपेक्षा खुद से उम्मीद रखने का संदेश दिया गया है, क्योंकि खुद से उम्मीद रखना हमें प्रेरित करता है; उत्साहित करता है और दूसरों से उम्मीद रखना चोट पहुंचाता है; हमारे हृदय को आहत करता है। इसलिए दूसरों से सहायता की अपेक्षा मत रखें। उम्मीद हमें आत्मनिर्भर नहीं होने देती। इसलिए परिस्थितियों को दोष देने की बजाय अपनी सोच को बदलो, हालात स्वयं बदल जाएंगे।

मुझे स्मरण हो रही हैं, ग़ालिब की यह पंक्तियां ‘उम्र भर ग़ालिब यही भूल करता रहा/ धूल चेहरे पर लगी थी/ आईना साफ करता रहा’…यही है जीवन की त्रासदी। हम अंतर्मन में झांकने की अपेक्षा, दूसरों पर दोषारोपण कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ सुक़ून पाते हैं। चेहरे को लगी धूल, आईना साफ करने से कैसे मिट सकती है?  सो! हमारे लिए जीवन के कटु यथार्थ को स्वीकारना अपेक्षित है। आप सत्य व यथार्थ से लंबे समय तक नज़रें नहीं चुरा सकते। अपनी ग़लती को स्वीकारना खुद में सुधार लाना है, जिससे आपका पथ प्रशस्त हो जाता है। आपके विचार पर दूसरे भी विचार करने को बाध्य हो जाते हैं। इसलिए जो भी कार्य करें, यह सोचकर तन्मयता से करें कि आपसे अच्छा अथवा उत्कृष्ट कार्य कोई कर ही नहीं सकता। काम कोई भी छोटा या बड़ा नहीं होता, इसलिए हृदय में कभी भी हीनता का भाव न पनपने दें।

अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है व विकास में अवरोधक है। इसे कभी जीवन में प्रवेश न पाने दें। यह मानव को पल-भर में अर्श से फ़र्श पर ला पटकने की सामर्थ्य रखता है। अहंनिष्ठ लोग खुशामद की अपेक्षा करते हैं और दूसरों को खुश रखने के लिए उन्हें चिंता, तनाव व अवसाद से गुज़रना पड़ता है। चिंता चिता समान है, जो हमारे मध्य तनाव की स्थिति उत्पन्न करती है और यह तनाव हमें अवसाद की स्थिति तक पहुंचाने में सहायक होता है… जहां से लौटने का हर मार्ग बंद दिखाई पड़ता है और आप लंबे समय तक इस ऊहापोह से स्वयं को मुक्त नहीं करा पाते। यदि किसी के चाहने वाले अधवा प्रशंसकों की संख्या अधिक होती है, तो यही कहा जाता है कि उस व्यक्ति ने जीवन में बहुत समझौते किए होंगे। सो! सम्मान उन शब्दों में नहीं, जो आपके सामने कहे गए हों,  बल्कि उन शब्दों में है, जो आपकी अनुपस्थिति में आपके लिए कहे गए हों। यही है खुशामद व सम्मान में अंतर। इसलिए कहा जाता है कि ‘खुश होना है तो तारीफ़ सुनिए, बेहतर होना है तो निंदा, क्योंकि लोग आपसे नहीं, आपकी स्थिति से हाथ मिलाते हैं’…  यही है आधुनिक जीवन का कटु सत्य। हर इंसान यहां निपट स्वार्थी है, आत्मकेंद्रित है। यह बिना प्रयोजन के किसी से ‘हेलो -हाय’ भी नहीं करता। इसलिए आजकल संबंधों को ‘हाउ स से हू’ तक पहुंचने में  देरी कहां लगती है।

वक्त, दोस्ती व रिश्ते बदलते मौसम की तरह रंग बदलते हैं; इन पर विश्वास करना सबसे बड़ी मूर्खता है। वक्त निरंतर अबाध गति से चलता रहता है; सबको एक लाठी हांकता है अर्थात् समान व्यवहार करता है। वह राजा को रंक व रंक को राजा बनाने की क्षमता रखता है। वैसे दोस्ती के मायने भी आजकल बदल गए हैं। सच्चे दोस्त मिलते कहां है, क्योंकि दोस्ती तो आजकल पद-प्रतिष्ठा देखकर की जाती है। वैसे तो कोई हाथ तक भी नहीं मिलाता, हाथ थामने की बात तो बहुत दूर की है। जहां तक रिश्तों का संबंध है, कोई भी संबंध पावन नहीं रहा। रिश्तों को ग्रहण लग गया है और उन्हें उपयोगिता के आधार पर जाना-परखा जाता है। सो! इन तीनों पर विश्वास करना आत्म-प्रवंचना है। इसलिए कहा जाता है कि बाहरी आकर्षण देख कर किसी का मूल्यांकन मत कीजिए, ‘अंदाज़ से न नापिए, किसी इंसान की हस्ती/ बहते हुए दरिया अक्सर गहरे हुआ करते हैं’ अर्थात् चिंतनशील व्यक्ति न आत्म-प्रदर्शन में विश्वास रखता है, न ही आत्म-प्रशंसा सुन बहकता है। बुद्धिमान लोग अक्सर वीर, धीर व गंभीर होते हैं; इधर-उधर की नहीं हांकते और न ही प्रशंसा सुन फूले समाते हैं। इसलिए सही समय पर, सही दिशा निर्धारण कर, सही लोगों की संगति पाना मानव के लिए श्रेयस्कर है। सो! सूर्य के समान ओजस्वी बनें और अंधेरों की जंग में विजय प्राप्त कर अपना अस्तित्व कायम करें।

अंत में मैं कहना चाहूंगी कि जीवन व जगत् बहुत सुंदर है… आवश्यकता है उस दृष्टि की, क्योंकि सौंदर्य वस्तु में नहीं, नज़रिए में होता है।  इसलिए सोच अच्छी रखिए और दोष-दर्शन की प्रवृत्ति का त्याग कीजिए। आप स्वयं अपने भाग्य-निर्माता हैं और आपके अंतर्मन में असीमित दैवीय शक्तियां का संचित हैं। सो! संघर्ष कीजिए और उस समय तक एकाग्रता से कार्य करते रहिए, जब तक आप को मंज़िल की प्राप्ति न हो जाए। हां! इसके लिए आवश्यकता है सत्य की राह पर चलने की, क्योंकि सत्य ही शिव है। शिव ही सुंदर है। यह अकाट्य सत्य है कि ‘मुश्किलें चाहे कितनी बड़ी क्यों न हों, हौसलों से छोटी होती हैं। इसलिए खुदा के फैसलों के समक्ष नतमस्तक मत होइए। अपनी शक्तियों पर विश्वास कर, अंतिम सांस तक संघर्ष कीजिए, क्योंकि यह है विधाता की रज़ा को बदलने का सर्वश्रेष्ठ उपाय। मानव के साहस के सम्मुख उसे भी झुकना पड़ता है। इसलिए मुखौटा लगाकर दोहरा जीवन मत जिएं, क्योंकि झूठ का आवरण ओढ़ कर अर्थात् ग़लत राह पर चलने से प्राप्त खुशी सदैव क्षणिक होती है, जिसका अंत सदैव निराशाजनक होता है और यह जग-हंसाई का कारण भी बनती है। सो! जीवन में सकारात्मक सोच रखिए व उसी के अनुरूप कार्य को अंजाम दीजिए।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 20 ☆ वैश्वीकरण के साथ बढ़ता भाषाई घालमेल ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “वैश्वीकरण के साथ बढ़ता भाषाई घालमेल)

☆ किसलय की कलम से # 20  ☆

☆ वैश्वीकरण के साथ बढ़ता भाषाई घालमेल ☆

भारतीय समाज वैश्वीकरण के बढ़ते प्रभाव के साथ बिलकुल नई दिशा में बढ़ता दिखाई दे रहा है। आधुनिक तकनीकि पारम्परिक संसाधनों को पीछे छोड़ द्रुतगति से विकास में सहयोगी बन रही है। युवाओं की सोच सीमित दायरों से ऊपर उठकर व्यापक होती जा रही है। अब इन्हें अन्तरराष्ट्रीय सीमाएँ दो शहरी सीमाओं से ज्यादा नहीं लगतीं। यह बदलाव स्वयमेव और सहज होता जा रहा है और इसे आत्मसात भी किया जा रहा है, परन्तु यह भी सत्य है कि आधुनिक परिवेश में पली-बढ़ी पीढ़ी का यह बदलाव वयोवृद्ध एवं देसी विचारक सहजता से नहीं स्वीकारेंगे। आज का युवा किसी क्लिष्टता में नहीं, बल्कि सहज, सरल और त्वरित परिणाम में विश्वास रखता है। इन युवाओं के हिसाब से पहनावा, खानपान, मेलजोल या भाषा सभी सरल और सहज होना चाहिए। जाति-सम्प्रदाय की दीवारें ढहाकर, देशीय सीमाएँ लाँघकर भाषाई संकीर्णता से परे आज के महिला-पुरुष लैंगिक भेदभाव भूलते जा रहे हैं। आज जब हम अपने इर्द-गिर्द नजर दौड़ाते हैं तो सबसे ज्यादा बदलाव हमारी बोली और भाषा में परिलक्षित होता है। हमारी अभिव्यक्ति का तरीका अब किसी एक भाषाई सीमा में संकुचित न रहकर व्यापक और स्वच्छन्द हो चला है। क्षेत्रीय बोलियाँ या भाषाएँ हों अथवा हिन्दी या फिर वैश्विक भाषा अंग्रेजी ; आवश्यकतानुसार सभी के बहुसंख्य शब्द परस्पर मिलते जा रहे हैं। आज व्याकरण, भाषाई शुद्धता के बजाय आसानी से ग्राह्य मिश्रित भाषा को सहज स्वीकृति मिल चुकी है। अब हम हिन्दी-अंग्रेजी अथवा प्रादेशिक भाषाओं के प्रचार-प्रसार की बात करें तो यह कहना प्रासंगिक होगा कि जनमानस को हाथ पकड़कर सिखाने के दिन लद चुके हैं। खासतौर पर हमारे युवा जानते हैं कि उन्हें क्या सीखना है और क्या नहीं। जो ज्यादा उपयोगी, ज्यादा सरल और सर्वग्राही हो, वह उतना अधिक प्रचलन में होता है। आज हम अपने आसपास देखें तो विरले ही भाषानिष्ठ शिक्षक, साहित्यकार अथवा सचेतक मिल पाएँगे, जिन्हें ऐसी भाषा से परहेज होगा । सामाजिक समर्थन और प्रोत्साहन के फलितार्थ ऐसे मिश्रित भाषाई दिशा-निर्देश स्वयमेव निर्मित हो गए हैं, जिनका पालन करना मीडिया की बाध्यता कही जा सकती है। कल यदि यही समाज इसका विरोध करेगा, तो निश्चित रूप से मीडिया भी इनके साथ होगा । जनमानस के रुझान को ध्यान में रखकर ही ये संचार माध्यम अपनी जगह बनाने में सक्षम हो पाते हैं। अब ऐसी स्थिति में यहाँ एक ऐसा वर्ग भी है, जो इस भाषाई मिश्रण अथवा तथाकथित अशुद्ध भाषा के लिए मीडिया को दोषी ठहराता है। हमारी समझ से उनकी यह एकांगी सोच केवल मीडिया की उपयोगिता पर सवाल उठाना ही कही जाएगी। जनमानस पर कुछ भी मनमर्जी से नहीं थोपा जा सकता। मीडिया वही उपलब्ध करा रहा है, जो आप, हम और आज का युवा चाहता है। वैश्वीकरण के बढ़ते प्रभाव के बीच हम यह न भूलें कि मूलभूत विकास के मुद्दों को छोड़कर अपनी ढपली-अपना राग अलापना हमारे सर्वांगीण विकास में बाधक बन सकता है।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ईमेल@अनजान-2 ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार

डॉ प्रतिभा मुदलियार


(डॉ प्रतिभा मुदलियार जी का अध्यापन के क्षेत्र में 25 वर्षों का अनुभव है । वर्तमान में प्रो एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय। पूर्व में  हांकुक युनिर्वसिटी ऑफ फोरन स्टडिज, साउथ कोरिया में वर्ष 2005 से 2008 तक अतिथि हिंदी प्रोफेसर के रूप में कार्यरत। कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत।  इसके पूर्व कि मुझसे कुछ छूट जाए आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया डॉ प्रतिभा मुदलियार जी की साहित्यिक यात्रा की जानकारी के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें –

जीवन परिचय – डॉ प्रतिभा मुदलियार

आज प्रस्तुत है डॉ प्रतिभा जी का एक अभिनव प्रयोग  ईमेल@अनजान।  अभिनव प्रयोग इसलिए क्योंकि आज पत्र  भला कौन लिखता है? इस अंक में एक लेखनुमा यात्रावृत। कृपया आत्मसात करें । )

☆ ईमेल@अनजान -2 ☆

कमल कुमार के पासवर्ड उपन्यास को पढ़ रही थी। उसमें चित्रित एक प्रसंग ने  कोरिया के उन दिनों की याद ताज़ा करा दी जब मैं सिउल में बतौर हिंदी अतिथि आचार्य के रूप में युनिर्वसीटी में हिंदी पढ़ा रही थी। पासवर्ड में लेखिका अपने चीन जाने के अनुभव को याद करते हुए लिखती हैं कि चीन में किसी समारोह में उनकोवहां के किसी प्रसिद्ध खाद्य पद्धति के अनुसार एक शेफ ने एक सारा मेमना जिसके अंदर कुछ और मांस तथासब्ज़ियां डालकर पकाया था और उसे एक मेज पर सजाया था, का उद्घाटन करने के लिए बुलाया और हाथ में चाकू देकर कहा कि इसे काटकर सभा का उद्घाटन करें। तो उन्होंने इसे अपनी भारतीय परंपरा के विरुद्ध कहकर उस मेमने को काटने के बजाए उसे कुछ पत्ते खिलाकर सभा का उद्घाटन किया जो कि अगले दिन की ब्रेकिंग न्यूज़ बना। इस प्रसंग से मेरी साउथ कोरिया की कुछ यादें ताज़ा हो गयी।

जब मैं सिउल में थी तब हम कुछ भारतीयों को एक ऐसी ही पार्टी में निमंत्रित किया गया था। एंबेसी से जुडी होने के कारण कई बार प्रतिष्ठित व्यक्तियों की पार्टी में जाने का मौका मिलता था और दक्षिण कोरिया की संस्कृति को देखने, समझने का एक अवसर प्राप्त होता था। हम कुछ भारतीयों को खास निमंत्रण दिया गया था। बहुत ही सुंदर आयोजन था। सभी कोरियन स्त्री-पुरूष अपने हनबोक (Hanbok) पारंपरिक पोशाक में सजे धजे थे। उनके मुख से शालीनता ऊमड रही थी और हॉल के दरवाज़े पर खडे होकर बडे आदर से, झुककर वह हमारा अभिवादन करते, ‘अन्योंग हासियो केसोनिम’ अर्थात् नमस्ते प्रोफेसर। और हम भी अपने भारतीय टोन में ‘कमसामिदा’ (धन्यवाद) कहकर उनका स्नेहसिक्त आदर स्वीकार रहे थे। फिर उनमें से कोई एक हमें एक्सकॉर्ट करने आती और हमें हमारी सीट तक छोडकर मुस्कुराती हुई चली जाती। उनकी छोटी-छोटी आँखें कलात्मकता से सजी हुई थीं और वे काफी बड़ी और आकर्षक लग रही थीं। पुरुष भी अपने पारपंरिक पहनावे में रुबाबदार दीख रहे थे। हॉल भी अपनी संस्कृति का परिचय दे रहा था। पारंपरिक पद्धति से स्वागत और भाषण हुए। जहाँ तक याद है किसी ने कोरियाई नृत्य भी प्रस्तुत किया था। हमारी प्रत्येक टेबल पर खाने-पीने की काफी सारी चीज़े रखी गयी थीं। कुछ तो बहुत ही स्वादीष्ट थीं और कुछ तो एकदम से फीकी। खैर, कार्यक्रम खतम हुआ और डिनर की घोषणा हुई और हम डिनर हॉल में प्रविष्ट होने के लिए उठे।

जैसे ही मैंने हॉल में प्रवेश किया मेरी आँखें कुछ पल खुली रही और क्षणार्ध में बंद भी हो गयीं। पहली डिश जो बहुत ही सलीके से रखी गयी ती वह तो बारबेक्यु पोर्क…पूरा का पूरा सुअर छील कर उलटा लटकाया गया था और नीचे से लाल लाल अंगार शान से उस उल्टे टंगे सुअर को बारबेक्यु कर रहे थे। वह अक्खा सुअर देखकर ही हमको मतली सी आ गयी थी। किंतु वह तो कोरियन डेलिकसी थी। वह देखकर तो कइयों की बाछे खिल गयी थीं।

मेरे पीछे सावित्री, मोशा और कुछ भारतीय मित्र थे। उसने पीछे से हलके से मेरा हाथ दबाया और मेरे कान में हलके से फुसफुसायी, बाप रे ये क्या है?  हमारे लायक कुछ खाने को मिल भी पाएगा या नहीं? वह शुद्ध शाकाहारी! हम जैसे तैसे आगे बढे। टेबल पर कई सारे पदार्थ बहुत ही करीने से सजाकर रखे गए थे। कोरियन लोग चीजों को कलात्मक रूप से पेश करने में अधिक कॉनशस रहते हैं। उनका चाय पीने और पीलाने का ढंग भी उनके संस्कृति का अहम हिस्सा है।

हम चारों जैसे तैसे एक कोने की टेबल पकड़ कर बैठ गए। हमने वह टेबलपसंद की थी जहाँ से ‘वह’ डेलिकसी न दीख सकें। हमारे खाने लायक जो कुछ था हमने खा लिया। डिनर खतम कर जब हम बाहर आ रहे थे तब देखा उस डेलिकसी का इत्ता सा भी नामो निशान शेष नहीं था। वहां के स्थानीय लोगों ने उसे अपने पेट में जगह दी थी और वे तृप्त होकर खुशी से लौट रहे थे।

वह प्रसंग मैं भूल ही नहीं सकती। उस डेलिकसी समेत उस कार्यक्रम की हर बात कोरियाई पारंपरिक संस्कृति की परिचायक थी। ये लोग बहुत ही स्नेहिल होते हैं। खाने पीने का शौक रखते है। किसी से मिलना है तो वे किसी रेस्तराँ या कॉफी शॉप मिलते हैं। खाना और खिलाना उनकी तहजीब का अंग है।

सुनो, ऐसे किस्सों पर तुम कैसे रिएक्ट करोगे पता नहीं। किंतु यूँ तुमसे बात करना अच्छा भी लगता है। कोविड की वजह से भी मुझे बहुत सारा समय मिला है, जिसका इस्तेमाल मैं पढने लिखने और तुमसे बात करने में बिताती हूँ। जब मैं तुम से बात करती हूँ न तो भीतर से कहीं हलकी और संपन्न भी हो जाती हूँ।

कोरिया में रहते मुझे सांस्कृतिक शॉक काफी मिले। एक दो अनुभव साझा करती हूँ।

जब मैं कोरिया पहँची तब ऑटम लगभग खतम हो रहा था। वैसे बता दूँ कि कोरिया का ऑटम देखने लायक होता है। प्रकृति अपने सुंदरतम रूप में सजी होती है। पेड अपना रंग बदलने लगते हैं। सारा समा ही लुभावना होता है। वहाँ पर ऑटम फेस्ट भी मनाए जाते हैं।  योंग इन कैंपस का परिसर तो प्रकृति के रमणीय दृश्यों से लैस हैं। हां, तो जब मैं पहुँची थी तब  सर्दी आहिस्ता आहिस्ता अपने पंख फैला रही थी। वह वीक एंड था। वहाँ पहुंचकर बस चार एक दिन ही हुए थे। अपने कमरे बैठे बैठे ऊब गयी तो सोचा एक चक्कर लगा आऊँ। भारत की आदत से बस सलवार कमीज़ पहन कर मैं बाहर निकली। बस घर से कुछ दो एककिलो मीटर ही गयी थी। हमारे क्वॉर्टर से जानेवाली सडक ढलान की है, वह  पार कर मैं नुक्क्ड तक गयी, जहाँ से मुझे अपनी बिल्डिंग दिखाई दे सके ताकि रास्ता खोने की समस्या से बचा जा सके। लौटकर आयी और हमारी बिल्डिंग के आहाते में कुछ देर खडी हो गयी, यदि कोई अंग्रेजी बोलनेवाला मिल जाए तो बात कर लूँ। तभी अचानक सर्द हवा का झोंका आया और मेरे रोंगटे खडे हो गए। उस झोंके ने आनेवाले जाडे की सूचना दी थी। और ये जो कहते हैं ना Winter is approaching उसकी intensity क्या होनेवाली है,  इसका अहसास हुआ था। मैं दक्षिण की होने के कारण मुझे सर्दी का अंदाजा ही नहीं था जितना की उत्तरवालों को होता है। पर कोरिया में रहते मुझे ‘समर’ से अधिक ‘विंटर’ ही अच्छा लगता था।

हाँ तो, मेरे आने की खुशी में हमारे विभाग के संकाय सदस्यों ने एक वेलकम पार्टी रखी थी। सभी साथ मिलकर एक रेस्तारां में लंच करनेवाले थे। हम एक कोरियन रेस्तरां में गए। वहाँ सारा इंतजाम कोरियाई पद्धति से था। छोटे छोटे बैठे टेबल और नीचे मुलायम तकिए। हम सब बैठ गए। खाना परोसा जाने लगा। मेरी बगल में प्रो. सो बैठे थे। बहुत ही शालीन और हंसमुख व्यक्ति। खाना लगाया गया, सूप, उबली सब्जियाँ, किमची पता नहीं क्या क्या था। जैसे ही मेन कोर्स आया तो उन्होंने एक बाउल मेरे हाथ में दिया। उसमें कुछ था ..गरम गरम  बाफ निकल रही थी। मैंने सुंघ कर जानना चाहा कि क्या हो सकता है कि तभी उन्होंने हलके से मेरे कंधे छूकर शुद्ध हिंदी में कहा, ‘प्रतिभा जी यह गाय है’। क्या बताऊं तुमको यार, उनके ऐसा कहते ही मुझे उस बाउल में पूरी की पूरी गाय ही नज़र आने लगी। ऐसा नहीं कि हमारे देश में यह नहीं खाया जाता, पर इतना स्पष्ट उसका उच्चारण भी तो नहीं किया नहीं जाता। तुम तो जानते हो, मैं जितना हो सके नॉन वेज से परहेज ही करती हूँ। मेरा क्या हाल हुआ होगा इसका अंदाजा तुम लगा ही सकते हो।

एक बार हम छात्रों के साथ एक स्थानीय मेले में गए थे। मेला अमूमन रात को लगता है। अक्सर मेरे साथ मेरी तंजानियन दोस्त मोशा साथ रहती थी। हम दोनों अक्सर कोरियाई पर्व, उत्सव आदि का आनंद लेने साथ जाती थीं ताकि साथ भी बना रहे और सुरक्षा भी। हमारे मेलों की तरह यह मेला भी अच्छा ही था। सोशलाइज होने में मेरी सबसे बडी दिक्कत मेरे खाने पीने को लेकर होती थी। मैं चूजी नहीं हूँ पर साधा सिंपल खाना अच्छा लगता है मुझे। पता है तुम्हें। मेले जाओ और कुछ खाओ पीओ नहीं तो उसका क्या मज़ा! छात्र पूछ रहे थे, प्रोफेसर आप कुछ खाएंगी। बहुत बार पूछने पर मैंने सोचा चलो ठीक है, कुछ खा लेते हैं। और मैंने आसपास देखा कि कुछ लाने के लिए कहा जाए। देखा कि एक महिला टोकरी नुमा हांडी में मुंगफली जैसी कुछ ऊबलती हुई चीज बेच रही है। मैंने दूर से ही देखा था मुझे लगा यह खाया जा सकता है, जाडे की रात में कुछ गरम खाने से मज़ा भी आएगा। हमने बस ईशारा करके कहा कि वह लेकर आए। और वह बच्चा तुरंत खुशी से उठा और दौडकर हम दोनों के लिए छोटे छोटे बाउल में वह चीज ले आया। साथ में चम्मच भी था। चम्मच को देखकर मैं समझ गयी कि यह वह चीज नहीं है जिसकी मैंने कल्पना की थी। हम हाथ में बाउल लेकर उठे सोचा की खाते खाते घूमेंगे। मैंने उसमें से एक मात्र वह छोटा सा टुकडा उठा लिया और मूँह में डाला, मुझे वह बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा, मैंने लगभग वह थूक ही दिया। दूसरी बार मूँह में डालने का सवाल ही नहीं था। बाकी लोग बडे मज़े में खा रहे थे। फिर पता किया कि यह है क्या, नाम पता लगा ‘बंदगी’।‘ बंदगी’ … कितना सुंदर नाम है। यह तो भारतीय शब्द है। कितना सुंदर अर्थ है उसका। हाँ, यही नाम कहा था, ‘बंदगी’। मैंने दोबारा कनफर्म किया। लेकिन वह क्या है यह मुझे किसी ने नहीं कहा। हम मेले से लौटे। मैने अपना यह अनुभव अपने भारतीय कलिग से शेयर किया और बातों ही बातों में हमने हमारा यह अनुभव एक कोरियाई प्रोफसर से भी शेयर किया और उनको पूछा यह बंदगी क्या चीज है। तो उन्होंने हमें जो कहा वह सुनकर तो मैं दंग ही रह गयी। अरे, वह कैटर पीलर के अंडे है, जो कोरियाई बहुत शौक से खाते हैं। वैसे कोरियाई सुपर मार्केट में कई तरह के अंडे बहुत ही करीने से रखे देखकर मैं अचंभित होती थी। छोटे बडे,रंगीन, पता नहीं किस किस के होते हैं, किसीने मुझसे कहा था, पता नहीं कितना सच या झूठ, पर इसमें सांप के भी अंडे होते हैं। तब से अंडे खाना भी मेरे लिए दुशवार हो गया था। खान पान को लेकर तो कई सारे अनुभव हैं।

कोरिया में तीन साल कैसे बीत गए पता हीं चला। आज इतने सालों बाद वह एक सपना सा लगता है। मेरे घर मेरे छात्र आते थे, उनको भारतीय खाना खिलाने में आनंद आता था। हमने तो एक इंडियन फेस्टिवल में चाय भी सर्व की थी। हमारे इवेंट को अच्छा बनाने के लिए रंगोली डाली थी तो सारे मीडियाकर्मी दौडकर आए थे रंगोली की फोटो लेने के लिए। दिन बहुत अच्छे थे। अकेली थी मैं, पर लोगों से जुडी थी, अपनों से जुडी थी। याहू विडियों कॉल पर सबसे रुबरु होती थी। मेसेंजर पर चैट करती थी। इस प्रवास ने मुझे तकनीक से जुडकर संसार से जुडने का मंत्र सीखा दिया। और ई मेल.. उसका पहला चरण था।

©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी अध्ययन विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय, मानसगंगोत्री, मैसूर 570006

दूरभाषः कार्यालय 0821-419619 निवास- 0821- 2415498, मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 45 – बापू के संस्मरण-22 – आज़ाद हिन्द फौज के सेनानी और बापू ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “आज़ाद हिन्द फौज के सेनानी और बापू ”)

☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण – 22 ☆

☆ आज़ाद हिन्द फौज के सेनानी और बापू  ☆ 

गांधी जी के  अपनी ओर  से आज़ाद  हिन्द फौज के कैदियो के बचाव मे कोई कमी नहीं  रहने दी थी ,उनकी सलाह पर कॉंग्रेस  कार्य समिति  ने अपनी राय व्यक्त की थी कि ‘यह सही और उचित भी है कि कॉंग्रेस  आज़ाद  हिन्द फौज के सदस्यो  का मुकदमे मे बचाव  करे  और संकटग्रस्तो को सहयता दे। ‘भूलाभाई  देसाई, तेज़ बहादुर  सप्रू  और जवाहर लाल नेहरू   आज़ाद  हिन्द फौज के सैनिको के बचाव मे आगे  आए  थे।

आज़ाद हिन्द  फौज के केदियो को अतिशय गुप्तता से भारत लाया गया था।सरदार पटेल ने गांधी जी को यह  सूचना दी थी कि कुछ कैदियो  को   फौजी  अदालत  मे मुकदमा चला कर गोलो मार दी गई तब गांधीजी ऐसी कार्यवाही के कड़े विरोध मे वाइसराय लार्ड बेवेल को लिखा था  कि मैं  सुभाष बाबू द्वारा खड़ी  की गई सेना के सैनिकों पर चल  रहे मुकदमे की कार्यावही को बड़े ध्यान  से देख  रहा हूँ।  यद्पि शस्त्र बल से किए जानेवाले  किसी संरक्षण  से  मैं  सहमत नहीं  हो  सकता, फिर भी शस्त्रधारी व्यक्तिओ  द्वारा अकसर जिस वीरता  और देशभक्ति का परिचय दिया जाता हैं,उसके  प्रति मैं  अंधा नहीं हूँ।जिन लोगो  पर   मुकदमा चल  रहा है ,उनकी भारत  पूजा करता है।मैं  तो इतना ही कहूँगा कि जो कुछ किया जा  रहा है वह उचित नहीं हैं। गांधीजी  इन कैदियो के बचाव को लेकर भारत के प्रधान सेनापति जनरल आचिनलेक  से भी मिले  और उनसे  आश्वस्त करनेवाला उत्तर पाकर गांधी जी को प्रसन्नता हुई  थी।

गांधीजी सरदार पटेल के साथ इन कैदियो से  दो बार मिलने गए –एक बार काबुल लाइंस मे  और दूसरी बार लाल किले मे। बैरकों  मे चल कर  गांधी जी जनरल मोहन  सिंह से मिलने   गए। वे  आज़ाद हिन्द फौज के संस्थापक  थे  वहाँ  से गांधीजी   फौजी  अस्पताल  भी गए  और वे मेजर जेनरल चटर्जी ,मेजर जनरल लोकनाथन और कर्नल  हबिबुर्रहमान  से भी मिले

गांधीजी ने आज़ाद हिन्द फौज  के सैनिको  की बहादुरी  और भारत  की स्वतन्त्रता के खातिर मरने की उनकी  तैयारी  की खुल कर हृदय से प्रशंसा की  थी।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 67 ☆ देहरी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच – देहरी

पुनर्पाठ-

घर की देहरी पर खड़े होकर बात करना महिलाओं का प्रिय शगल है। कभी आपने ध्यान दिया कि इस दौरान अधिकांश मामलों में संबंधित महिला का एक पैर देहरी के भीतर होता है, दूसरा आधा देहरी पर, आधा बाहर। अपनी दुनिया के विस्तार की इच्छा को दर्शाता चौखट से बाहर का रुख करता पैर और घर पर अपने आधिपत्य की सतत पुष्टि करता चौखट के अंदर ठहरा पैर। मनोविज्ञान में रुचि रखनेवालों के लिए यह गहन अध्ययन का विषय हो सकता है।

अलबत्ता वे चौखट का सहारा लेकर या उस पर हाथ टिकाकर खड़ी होती हैं। फ्रायड कहता है कि जो मन में, उसीकी प्रतीति जीवन में। एक पक्ष हो सकता है कि घर की चौखट से बँधा होना उनकी रुचि या नियति है तो दूसरा पक्ष है कि चौखट का अस्तित्व उनसे ही है।

इस आँखों दिखती ऊहापोह को नश्वर और ईश्वर तक ले जाएँ। हम पार्थिव हैं पर अमरत्व की चाह भी रखते हैं। ‘पुनर्जन्म न भवेत्’ का उद्घोष कर मृत्यु के बाद भी मर्त्यलोक में दोबारा और प्रायः दोबारा कहते-कहते कम से कम चौरासी लाख बार लौटना चाहते हैं।

स्त्रियों ने तमाम विसंगत स्थितियों, विरोध और हिंसा के बीच अपनी जगह बनाते हुए मनुष्य जाति को नये मार्गों से परिचित कराया है। नश्वर और ईश्वर के द्वंद्व से मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें पहल करनी चाहिए। इस पहल पर उनका अधिकार इसलिए भी बनता है क्योंकि वे जननी अर्थात स्रष्टा हैं। स्रष्टा होने के कारण स्थूल में सूक्ष्म के प्रकटन की अनुभूति और प्रक्रिया से भली भाँति परिचित हैं। नये मार्ग की तलाश में खड़ी मनुष्यता का सारथ्य महिलाओं को मिलेगा तो यकीन मानिए, मार्ग भी सधेगा।

 

© संजय भारद्वाज

(लेखन-10.10.2018)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ विजयादशमी पर्व विशेष ☆ त्यौहार दशहरा ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार

(आज  विजयादशमी पर्व पर प्रस्तुत है श्री विजय कुमार जी, सह-संपादक शुभ तारिका  का आलेख  “बुराई पर अच्छाई का प्रतीक दशहरा महोत्सव ”)

☆ विजयादशमी पर्व विशेष –  बुराई पर अच्छाई का प्रतीक दशहरा महोत्सव ☆ 

हरियाणा में जलता है सबसे ऊंचा रावण

विश्व के सबसे ऊंचे रावण के पुतले के निर्माण के लिए पूरे विश्व में हरियाणा के अम्बाला जिला का बराड़ा कस्बा चर्चित रहा है। विश्व के सबसे ऊंचे रावण का पुतला दहन का प्रसारण वैसे तो राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय मीडिया द्वारा प्रत्येक वर्ष किया जाता है। इस अवसर पर कार्यक्रमों का सीधा प्रसारण करने हेतु कई टेलीविजन चैनल्स की ओ बी वैन भी आयोजन स्थल पर आती हैं।

श्री रामलीला क्लब, बराड़ा (जिला अम्बाला) के संस्थापक अध्यक्ष श्री राणा तेजिन्द्र सिंह चैहान द्वारा विश्व का सबसे ऊंचा रावण बनाने का निरंतर कीर्तिमान स्थापित किया जा रहा है। इस उपलब्धि का सम्मान करते हुए भारत की एकमात्र सर्वप्रतिष्ठित कीर्तिमान संकलन पुस्तक ‘लिम्का बुक ऑफ़ रिकार्ड’ के (2011 से 2017 तक) छह वार्षिक संकलनों में बराड़ा (हरियाणा) में निर्मित होने वाले विश्व के सबसे ऊंचे रावण के पुतले को सम्मानपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है। भारत के इतिहास में निर्मित होने वाला अब तक का यह सबसे पहला व अद्भुत रावण का पुतला है जिसने किसी प्रतिष्ठित राष्ट्रीय स्तर की कीर्तिमान पुस्तक में छह बार अपने नाम का उल्लेख कराया हो। बराड़ा के सबसे ऊंचे रावण के पुतले को छह बार लिम्का बुक आॅफ रिकार्ड में स्थान प्राप्त होना वास्तव हरियाणावासियों के लिए गर्व का विषय है। इस उपलब्धि का श्रेय क्लब के सभी सदस्यों को, खासतौर पर क्लब के संस्थापक अध्यक्ष श्री राणा तेजिंद्र सिंह चैहान एवं उनके निर्देशन में काम करने वाले लगभग सौ मेहनतकश सदस्यों को जाता है।

श्री चैहान ने बताया कि उनके सहयोगी और वे हर वर्ष अपै्रल-मई माह से ही रावण बनाने का कार्य आरंभ कर देते हैं। अथक परिश्रम के बाद इसे दशहरे से दो-तीन दिन पूर्व दशहरा ग्राउंड में दर्शकों के देखने के लिये खड़ा कर दिया जाता है।

राणा तेजिन्द्र सिंह चैहान के अनुसार विश्व कीर्तिमान स्थापित करने वाले इस रावण के निर्माण का मकसद समाज में फैली सभी बुराइयों को अहंकारी रावण रूपी पुतले में समाहित करना है। पुतले की 210 फुट की ऊंचाई सामाजिक बुराइयों एवं कुरीतियों जैसे अहंकार, आतंकवाद, कन्या भू्रण हत्या, साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार, बढ़ती जनसंख्या, दहेजप्रथा तथा जातिवाद आदि का प्रतीक है। रावण दहन के समय आतिशबाजी का भी एक उच्चस्तरीय आयोजन किया जाता है।

विजयदशमी के दिन दशहरा ग्राउंड में प्रत्येक वर्ष लाखों लोगों की उपस्थिति में रिमोट कंट्रोल का बटन दबाकर विश्व कीर्तिमान स्थापित करने वाले इस विश्व के सबसे ऊंचे रावण के पुतले को अग्नि को समर्पित किया जाता रहा है।

श्रीरामलीला क्लब, बराड़ा विश्वस्तरीय ख्याति अर्जित कर चुका है। सामाजिक बुराइयों के प्रतीक विश्व के सबसे ऊंचे रावण के पुतले का निर्माण किए जाने का कीर्तिमान इस क्लब ने स्थापित किया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सहयोगियों व शुभचिंतकों के समर्थन व सहयोग के बिना किसी भी संस्था का शोहरत की बुलंदी पर पहुंचना संभव नहीं होता।

रावण को प्रकांड पंडित वरदानी राक्षस कहा जाता था। लेकिन कैसे वो, जिसके बल से त्रिलोक थर-थर कांपते थे, एक स्त्री के कारण समूल मारा गया? वो भी वानरों की सेना लिये एक मनुष्य से। इन बातों पर गौर करें तो ये मानना तर्क से परे होगा। लेकिन रावण के जीवन के कुछ ऐसे रहस्य हैं, जिनसे कम ही लोग परिचित होंगे। पुराणों के अनुसार  –

कैसे हुआ रावण का जन्म?

रावण एक ऐसा योग है जिसके बल से सारा ब्रह्माण्ड कांपता था। लेकिन क्या आप जानते हैं कि वो रावण जिसे राक्षसों का राजा कहा जाता था वो किस कुल की संतान था। रावण के जन्म के पीछे के क्या रहस्य हैं? इस तथ्य को शायद बहुत कम लोग जानते होंगे। रावण के पिता विश्वेश्रवा महान ज्ञानी ऋषि पुलस्त्य के पुत्र थे। विश्वेश्रवा भी महान ज्ञानी सन्त थे। ये उस समय की बात है जब देवासुर संग्राम में पराजित होने के बाद सुमाली माल्यवान जैसे राक्षस भगवान विष्णु के भय से रसातल में जा छुपे थे। वर्षों बीत गये लेकिन राक्षसों को देवताओं से जीतने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। एक दिन सुमाली अपनी पुत्री कैकसी के साथ रसातल से बाहर आया, तभी उसने विश्वेश्रवा के पुत्र कुबेर को अपने पिता के पास जाते देखा। सुमाली कुबेर के भय से वापस रसातल में चला आया, लेकिन अब उसे रसातल से बाहर आने का मार्ग मिल चुका था। सुमाली ने अपनी पुत्री कैकसी से कहा कि पुत्री वह उसके लिए सुयोग्य वर की तलाश नहीं कर सकता इसलिये उसे स्वयं ऋषि विश्वेश्रवा के पास जाना होगा और उनसे विवाह का प्रस्ताव रखना होगा। पिता की आज्ञा के अनुसार कैकसी ऋषि विश्वेश्रवा के आश्रम में पहुंच गई। ऋषि उस समय अपनी संध्या वंदन में लीन थे। आंखें खोलते ही दृष्टि ने अपने सामने उस सुंदर युवती को देखकर कहा कि वे जानते हैं कि उसके आने का क्या प्रयोजन है? लेकिन वो जिस समय उनके पास आई है वो बेहद दारुण वेला है जिसके कारण ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होने के बाद भी उनका पुत्र राक्षसी प्रवृत्ति का होगा। इसके अलावा वे कुछ नहीं कर सकते। कुछ समय पश्चात् कैकसी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसके दस सिर थे। ऋषि ने दस शीश होने के कारण इस पुत्र का नाम दसग्रीव रखा। इसके बाद कुंभकर्ण का जन्म हुआ जिसका शरीर इतना विशाल था कि संसार में कोई भी उसके समकक्ष नहीं था। कुंभकर्ण के बाद पुत्री सूर्पणखा और फिर विभीषण का जन्म हुआ। इस तरह दसग्रीव और उसके दोनों भाई और बहन का जन्म हुआ।

रावण ने क्यों की ब्रह्मा की तपस्या?

ऋषि विश्वेश्रवा ने रावण को धर्म और पांडित्य की शिक्षा दी। दसग्रीव इतना ज्ञानी बना कि उसके ज्ञान का पूरे ब्रह्माण्ड में कोई सानी नहीं था। लेकिन दसग्रीव और कुंभकर्ण जैसे जैसे बड़े हुए उनके अत्याचार बढ़ने लगे। एक दिन कुबेर अपने पिता ऋषि विश्वेश्रवा से मिलने आश्रम पहुंचे तब कैकसी ने कुबेर के वैभव को देखकर अपने पुत्रों से कहा कि तुम्हें भी अपने भाई के समान वैभवशाली बनना चाहिए। इसके लिए तुम भगवान ब्रह्मा की तपस्या करो। माता की आज्ञा मान तीनों पुत्र भगवान ब्रह्मा के तप के लिए निकल गए। विभीषण पहले से ही धर्मात्मा थे। उन्होंने पांच हजार वर्ष एक पैर पर खड़े होकर कठोर तप करके देवताओं से आशीर्वाद प्राप्त किया। इसके बाद पांच हजार वर्ष अपना मस्तक और हाथ ऊपर रखकर तप किया जिससे भगवान ब्रह्मा प्रसन्न हुए और विभीषण ने भगवान से असीम भक्ति का वर मांगा।

क्यों सोता रहा कुंभकर्ण?

कुंभकर्ण ने अपनी इंद्रियों को वश में रखकर दस हजार वर्षों तक कठोर तप किया। उसके कठोर तप से भयभीत होकर देवताओं ने देवी सरस्वती से प्रार्थना की। तब भगवान से वर मांगते समय देवी सरस्वती कुंभकर्ण की जिह्ना पर विराजमान हो गईं और कुंभकर्ण ने इंद्रासन की जगह निंद्रासन मांग लिया।

रावण ने किससे छीनी लंका?

दसग्रीव अपने भाइयों से भी अधिक कठोर तप में लीन था। वो प्रत्येक हजारवें वर्ष में अपना एक शीश भगवान के चरणों में समर्पित कर देता। इस तरह उसने भी दस हजार साल में अपने दसों शीश भगवान को समर्पित कर दिये। उसके तप से प्रसन्न हो भगवान ने उसे वर मांगने को कहा तब दसग्रीव ने कहा कि देव दानव गंधर्व किन्नर कोई भी उसका वध न कर सकें। वो मनुष्यों और जानवरों को कीड़ों की भांति तुच्छ समझता था। इसलिये वरदान में उसने इनको छोड़ दिया। यही कारण था कि भगवान विष्णु को उसके वध के लिए मनुष्य अवतार में आना पड़ा। दसग्रीव स्वयं को सर्वशक्तिमान समझने लगा था। रसातल में छिपे राक्षस भी बाहर आ गये। राक्षसों का आतंक बढ़ गया। राक्षसों के कहने पर लंका के राजा कुबेर से लंका और पुष्पक विमान छीनकर स्वयं बन गया लंका का राजा।

कैसे हुआ रावण का वध?

मां दुर्गा के प्रथम रूप शैलपुत्री की पूजा के साथ नवरात्र के नौ दिनों में मां दुर्गा के साथ ही साथ भगवान राम का भी ध्यान पूजन किया जाता है। क्योंकि इन्हीं नौ दिनों में भगवान राम ने रावण के साथ युद्ध करके दशहरे के दिन रावण का वध किया था जिसे ‘अधर्म पर धर्म की विजय’ के रूप में जाना जाता है।

भगवान राम का जन्म लेना और रावण का वध करना यह कोई सामान्य घटना नहीं है। इसके पीछे कई कारण थे जिसकी वजह से विष्णु को राम अवतार लेना पड़ा।

अपनी मौत का कारण सीता को जानता हुआ भी रावण सीता का हरण कर लंका ले गया। असल में यह सब एक अभिशाप के कारण हुआ था।

यह अभिशाप रावण को भगवान राम के एक पूर्वज ने दिया था। इस संदर्भ में एक कथा है कि बल के अहंकार में रावण अनेक राजा-महाराजाओं को पराजित करता हुआ इक्ष्वाकु वंश के राजा अनरण्य के पास पहुंचा। राजा अनरण्य और रावण के बीच भीषण युद्ध हुआ। ब्रह्मा जी के वरदान के कारण अनरण्य रावण के हाथों पराजित हुआ। रावण राजा अनरण्य का अपमान करने लगा।

अपने अपमान से क्रोधित होकर राजा अनरण्य ने रावण को अभिशाप दिया कि तूने महात्मा इक्ष्वाकु के वंशजों का अपमान किया है इसलिए मेरा शाप है कि इक्ष्वाकु वंश के राजा दशरथ के पुत्र राम के हाथों तुम्हारा वध होगा।

ईश्वर विधान के अनुसार भगवान विष्णु ने राम रूप में अवतार लेकर इस अभिशाप को फलीभूत किया और रावण राम के हाथों मारा गया।

 

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – 103-सी, अशोक नगर, अम्बाला छावनी-133001, मो.: 9813130512

ई मेल- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 67 ☆ रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं।  यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 67 ☆

☆ रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं 

यदि सपने सच न हों, तो रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं। पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं, जड़ें नहीं। मानव स्वतंत्र है, यह सपने देखता है और उन्हें साकार करने में अपनी संपूर्ण ऊर्जा-शक्ति को झोंक देता है। परंतु कई बार वह सफल हो जाता है और कई बार उसे असफलता का मुख देखना पड़ता है। सफल होने पर फूला नहीं सकता और असफल होने पर अकारण अवसाद में घिर जाता है। उसे यह संसार व रिश्ते- नाते मिथ्या भासने लगते हैं और निराशा रूपी गहन अंधकार में फंसा व्यक्ति, लाख चाहने पर भी उनके जंजाल से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। अक्सर धैर्य खो देने की स्थिति में वह थक-हार कर बैठ जाता है और अपने लक्ष्य को भी भूल जाता है। अकर्मण्यता उसे घेर लेती है और निराशा की स्थिति में वह अपने लक्ष्य से किनारा कर लेता है, जो कि ग़लत है।

सफलता प्राप्ति के केवल दो मार्ग नहीं होते; तीसरा विकल्प भी होता है। सो! मानव को उस विकल्प की ओर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि ऋतु-परिवर्तन के समय वृक्ष अपनी पत्तियां बदलते, हैं जड़ें नहीं। पतझड़ के पश्चात् वसंत का आगमन अवश्यंभावी है। उसी प्रकार दु:ख के पश्चात् सुख, रात के पश्चात् दिन व अमावस के पश्चात् पूनम का आना निश्चित है। जो आया है, अवश्य जाएगा; फिर निराशा क्यों? यह संसार एक मुसाफ़िरखाना है। हर इंसान यहाँ अपना क़िरदार अदा कर चल देता है और यह सिलसिला कभी थमने का नाम नहीं लेता। संघर्ष प्रकृति का आमंत्रण है, जो उसे स्वीकारता है, आगे बढ़ जाता है। ईश्वर ऑक्सीजन की तरह होता है, उसे आप देख भी नहीं सकते और उसके बिना रह भी नहीं सकते। इसलिए कहा जाता है कि यदि ज़िंदगी को समझना है, तो पहले मन को समझो, क्योंकि जीवन हमारी सोच का साकार रूप है। जैसी सोच, वैसा ही जीवन। असंभव इस दुनिया में कुछ भी नहीं। हम वह सब कुछ कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और जो हमने आज तक सोचा हैं नहीं, उसे साकार रूप प्रदान करने का सामर्थ्य भी हम में है। सो! मानव सपने देखने को स्वतंत्र है। इसलिए कलाम जी ने खुली आंखों से स्वप्न देखने की सीख दी है अर्थात् जो सपना आप संजोते हो, उसे पूरा करने के लिए सभी पहलुओं सोच-विचार करें और स्वयं को उसमें खपा दें, जब तक आप उसे पूरा नहीं कर पाते…तब तक निरंतर लगे रहे। अक्सर गलियों से होकर हम सही रास्ते पर आते हैं और कोई रास्ता इतना लंबा नहीं होता। यदि आपकी संगति अच्छी है, तो आप निष्कंटक मार्ग पर अबाध गति से बढ़ते चले जाते हैं। ‘ क़िरदार की अज़मत को न गिरने दिया हमने/ धोखे तो बहुत खाए, परंतु धोखा न दिया हमने।’ इसलिए सदैव सत्कर्म करें और अहं को अपने निकट न आने दें। ‘घमंड मत कर ऐ! दोस्त/ सुना ही होगा, अंगारे राख ही होते हैं ‘ के माध्यम से मानव को सचेत किया गया है। जो जन्मा है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है…यही जीवन का कटु सत्य है। धधकते अंगार अर्थात् अहंनिष्ठ व्यक्ति का अंत भी वही है। अच्छी किताबें, अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते, उन्हें पढ़ना पड़ता है। इसी प्रकार जीवन के यथार्थ को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि मानव शरीर पांच तत्वों से बना है और अंत में उसे उनमें ही मिल जाना है। एक बूंद से जन्मा शरीर, अंत में एक मुट्ठी राख में परिवर्तित हो जाता है। जो इस रहस्य को जान जाता है, उसे न कोई खौफ़ रहता है, न ही कोई अहंकार/ न ही कोई ठौर ठिकाना/ मिट्टी था मैं, मिट्टी ही हूं और फिर मिट्टी में मिल जाना है। इसलिए मानव को यह सीख दी गई है कि आप इस तरह जिएं कि आपको कल मर जाना है और इस तरह सीखें कि आपको सदा जीवित रहना है। यह जीवन एक पाठशाला है। मानव हर दिन कुछ न कुछ नया सीखता है, क्योंकि ज्ञान अनंत है, अथाह है। जितना इंसान इसे सीखने का प्रयास करता है, डूबता चला जाता है। वास्तव में सीखने के लिए तो कई जन्म भी कम हैं।

जिस प्रकार सुगंध के बिना पुष्प, तृप्ति  के बिना प्राप्ति, ध्येय के बिना कर्म एवं प्रसन्नता के बिना जीवन व्यर्थ है, उसी प्रकार ज्ञान के अभाव में मानव जीवन भी पशु-तुल्य है। वह केवल पेट भरने के लिए उपक्रम करता है तथा अपने परिवार से इतर  कुछ भी नहीं सोचता। स्वर्ग व नरक की सीमाएं निश्चित नहीं हैं, परंतु हमारे विचार व कार्य-व्यवहार ही स्वर्ग- नरक का निर्माण करते हैं। इसलिए कहा जाता है कि ख़्याल करने वाले सही मार्गदर्शक को ढूंढिए, क्योंकि इस्तेमाल करने वाले तो खुद ही आपको ढूंढ लेंगे। वैसे खुद को पढ़ना संसार में सबसे कठिन कार्य है, परंतु प्रयास अवश्य करना चाहिए। सो! मन को शांत रखने का हुनर सीखिए और दूसरों के दिल में जगह बनाइए। इसलिए ज़रूरत से अधिक सोचने से बेहतर है कि ज़रूरत से अधिक व्यस्त रहें। यही मानसिक तनाव से मुक्ति का मार्ग है। सो! प्रभु की इबादत कीजिए, जहां ज़रूरतों का ज़िक्र न हो अर्थात् जो मिला है, उसके प्रति आभार प्रकट करें।

इसे संदर्भ में कलाम जी का यह कथन अत्यंत सार्थक है। यदि आप किसी से संबंध बनाए रखना चाहते हैं, तो उसके बारे में जो आप जानते हैं, उस पर विश्वास कीजिए; न कि आपने जो उसके बारे में सुना है। ‘दोस्ती के मायने, कभी ख़ुदा से कम नहीं होते/ अगर ख़ुदा करिश्मा है, तो दोस्त जन्नत से कम नहीं होते।|’ वास्तव में इंसान, इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि उम्मीदें ही धोखा देती हैं, जो वह दूसरों से करता है। इसलिए ऊंचाई पर हैं जो, वे प्रतिशोध की अपेक्षा परिवर्तन की सोच रखते हैं।

सो! खुशी प्राप्त करने का पहला उपाय है कि अतीत की बातों के बारे में न सोचा जाए, क्योंकि वे हमें आज की खुशियों से महरूम कर देती हैं। इसके साथ ही मानव को खुद को बदलने की सीख दी गई है। यदि आप संसार में दूसरों से बदलने की अपेक्षा करोगे, तो आप विजयी नहीं हो सकोगे, पराजित हो जाओगे तथा जीवन में कुछ भी नहीं कर पाओगे। आजकल लोग समझते कम, समझाते अधिक हैं। तभी तो मामले सुलझते कम, उलझते अधिक हैं। यहां मैं सरदार पटेल की उक्ति का ज़िक्र करना चाहूंगी कि |कठिन समय में कायर बहाना ढूंढते हैं और बहादुर व्यक्ति रास्ता खोजते हैं।’ इसलिए बनी-बनाई लीक पर न चलकर, अपने रास्ते का निर्माण स्वयं करो। संसार में वही व्यक्ति सफल होता है, जो अपनी नवीन राहों का निर्माण स्वयं करता है और दाना मांझी की भांति |एकला चलो रे’ में विश्वास रख, निरंतर आगे बढ़ता चला जाता है, जब तक वह अपनी मंज़िल को प्राप्त नहीं कर लेता। इसके लिए आवश्यकता है, आत्मविश्वास, कठिन परिश्रम व उस जज़्बे की, जो आपको बीच राह में थक-हार कर बैठने नहीं देता। आप अपने हृदय में यह निश्चय कर लो कि आप में यह करने की क्षमता व सामर्थ्य है, तो आप तब तक चैन से नहीं बैठेंगे, जब तक आपको अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो जाती। असंभव शब्द तो मूर्खों के शब्दकोश में होता है और वीर पुरुष ‘जो ठान लेते हैं, वही कर गुज़रते हैं।’ आप में साहस है; आप जो चाहें कर सकते हैं। इसलिए जीवन में निराशा का दामन मत थामिए, अन्य विकल्प की तलाश करें, मंज़िल आपकी प्रतीक्षा में पलकें बिछाए बैठी होगी।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 19 ☆ आज की पत्रकारिता ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “आज की पत्रकारिता)

☆ किसलय की कलम से # 19 ☆

☆ आज की पत्रकारिता ☆

निज कबित्त केहि लाग न नीका

सरस होउ अथवा अति फीका

अपना काम, अपना नाम, अपना व्यवसाय किसे अच्छा नहीं लगता। वकील अपने व्यवसाय और अपनी जीत के लिए कितनी झूठी-सच्ची दलीलें देते हैं, हम सभी जानते हैं। डॉक्टर और दूकानदार अपने लाभ के लिए क्या झूठ नहीं बोलते?

तब पत्रकार बंधु कोई अलग दुनिया के तो हैं नहीं। इन्हें भी लाभ की आकांक्षा है, सारी दुनिया में लोग रोजी-रोटी से आगे भी कुछ चाहते हैं।

बस यही वह चाह है जो हमें ईमानदारी के मार्ग पर चलने से रोकती है। आज मैं कुछ ऐसी बातों का उल्लेख करना चाहता हूँ, जो कुछ पत्रकार बंधुओं  को अच्छी नहीं लगेंगी। दूसरी ओर ये वो बातें हैं जो समाज में  पत्रकारों के लिए आये दिन कही भी जाती हैं।

मेरा सभी बंधुओं से निवेदन है कि वे इन बातों एवं तथ्यों को व्यक्तिगत नहीं लेंगे।

आज के बदलते वक्त और परिवेश में पत्रकारिता के उद्देश्य एवं स्वरूप में जमीन-आसमान का अंतर हो गया है। अकल्पनीय परिवर्तन हो गए हैं।आईये, हम कुछ कड़वे सच और उनकी हक़ीक़त पर चिंतन करने की कोशिश करें।

सर्वप्रथम, यदि हम ब्रह्मर्षि नारद जी को पत्रकारिता का जनक कहें तो उनके बारे में कहा जाता है कि वे एक स्थान पर रुकते ही नहीं थे. आशय ये हुआ कि नारद जी भेंटकर्ता एवं घुमंतू प्रवृत्ति के थे.

आज की पत्रकारिता से ये गुण लुप्तप्राय हो गये हैं. इनकी जगह दूरभाष, विज्ञप्तियाँ और एजेंसियाँ ले रहीं हैं. सारी की सारी चीज़ें प्रायोजित और व्यावसायिक धरातल पर अपने पैर जमा चुकी हैं.

आज की पत्रकारिता के गुण-धर्म और उद्देश्य पूर्णतः बदले हुए प्रतीत होने लगे हैं. आजकल पत्रकारिता, प्रचार-प्रसार और अपनी प्रतिष्ठा पर लगातार ध्यान केंद्रित रखती है.

पहले यह कहा जाता था कि सच्चे पत्रकार किसी से प्रभावित नहीं होते, चाहे सामने वाला कितना ही श्रेष्ठ या उच्च पदस्थ क्यों न हो, लेकिन अब केवल इन्हीं के इर्दगिर्द आज की पत्रकारिता फलफूल रही है.

आज हम सारे अख़बार उठाकर देख लें, सारे टी. वी. चेनल्स देख लें. हम पत्र-पत्रिकाएँ या इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री देख लें, आपको हर जगह व्यावसायिकता तथा टी. आर. पी. बढाने के फार्मूले नज़र आएँगे. हर सीधी बात को नमक-मिर्च लगाकर या तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने का चलन बढ़ गया है. बोला कुछ जाता है, समाचार कुछ बनता है. घटना कुछ होती है, उसका रूप कुछ और होता है.

कुछ समाचार एवं चेनल्स तो मन माफिक समाचारों के लिए एजेंसियों की तरह काम करने लगे हैं. इससे भी बढ़कर कुछ धनाढ्य व्यक्तियों अथवा संस्थानों द्वारा बाक़ायदा अपने समाचार पत्र और टी. वी. चेनल्स संचालित किए जा रहे हैं. हमें आज ये भी सुनने को मिल जाता है कि कुछ समाचार पत्र और चेनल्स काला बाज़ारी पर उतर आते हैं.

मैं ऐसा नहीं कहता कि ये कृत्य हर स्तर पर है, लेकिन आज इस सत्यता से मुकरा भी नहीं जा सकता.

आज की पत्रकारिता कैसी हो? तो प्रतिप्रश्न ये उठता है कि पत्रकारिता कैसी होना चाहिए?

पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य सामाजिक घटनाओं और गतिविधियों को समाज के सामने उजागर कर जन-जन को उचित और सार्थक दिशा में अग्रसर करना है.

हमारी ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक परंपराओं के साथ ही उनकी कार्यप्रणाली से भी अवगत कराना पत्रकारिता के कर्तव्य हैं.

हर अहम घटनाओं तथा परिस्थिजन्य आकस्मिक अवसरों पर संपादकीय आलेखों के माध्यम से समाज के प्रति सचेतक की भूमिका का निर्वहन करना भी है.

एक जमाने की पत्रकारिता चिलचिलाती धूप, कड़कड़ाती ठंड एवं वर्षा-आँधी के बीच पहुँचकर जानकारी एकत्र कर ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के साथ हमारे समक्ष प्रस्तुत करने को कहा जाता था,

लेकिन आज की पत्रकारिता वातानुकूलित कक्ष, अंतर-जाल, सूचना-तंत्र, ए. सी. वाहनों और द्रुतगामी वायुयान-हेलिकॉप्टरों से परिपूर्ण व्यवस्थाओं के साथ की जाने लगी है, लेकिन बावज़ूद इसके लगातार पत्रकारिता के मूल्यों का क्षरण चिंता का विषय है.

आज आपके मोहल्ले की मूलभूत समस्याओं को न्यूज चेनल्स या समाचार पत्रों में स्थान नहीं मिलता, लेकिन निरुद्देशीय किसी नेता, अभिनेता या किसी धार्मिक मठाधीश के छोटे से क्रियाकलाप भी  प्रमुखता से छापे या दिखाये जाएँगे. ऐसा क्यों है? इसके पीछे जो कारण हैं वे निश्चित रूप से विचारणीय हैं? यहाँ पर इसका जिम्मेदार आज की  उच्च जीवन शैली, लोकप्रियता एवं महत्त्वाकांक्षा की भावना को भी माना जा सकता है.

हर छोटा आदमी, बड़ा बनाना चाहता है और बड़ा आदमी, उससे भी बड़ा.

आख़िर ये कब तक चलेगा ? क्या शांति और सुख से मिलीं घर की दो रोटियों की तुलना हम फ़ाइव स्टार होटल के खाने से कर सकते हैं?

शायद कभी नहीं.

हर वक्त एक ही चीज़ श्रेष्ठता की मानक नहीं बन सकती. यदि ऐसा होता तो आज तुलसी, कबीर, विनोबा या मदर टेरेसा को इतना महत्त्व प्राप्त नहीं होता.

जब तक हमारे जेहन में स्वांतःसुखाय से सर्वहिताय की भावना प्रस्फुटित नहीं होगी, पत्रकारिता के मूल्यों में निरंतर क्षरण होता ही रहेगा.

आज हमारे पत्रकार बन्धु निष्पाप पत्रकारिता करके देखेंगे तो उन्हें वो पूँजी प्राप्त होगी जो धन-दौलत और उच्च जीवन शैली से कहीं श्रेष्ठ होती है.

आपके अंतःकरण का सुकून, आपकी परोपकारी भावना, आपके द्वारा उठाई गई समाज के आखरी इंसान की समस्या आपको एक आदर्श इंसान के रूप में प्रतिष्ठित करेगी.

आज के पत्रकार कभी आत्मावलोकन करें कि वे पत्रकारिता धर्म का कितना निर्वहन कर रहे हैं.

कुछ प्रतिष्ठित या पहुँच वाले पत्रकार स्वयं को अति विशिष्ट श्रेणी का ही मानते हैं. ऐसे पत्रकार कभी ज़मीन से जुड़े नहीं होते, वे आर्थिक तंत्र और पहुँच तंत्र से अपने मजबूत संबंध बनाए रखते हैं.

लेकिन यह भी वास्तविकता है कि ज़मीन से जुड़ी पत्रकारिता कभी खोखली नहीं होती, वह कालजयी और सम्मान जनक होती है.

हम देखते हैं, आज के अधिकांश पत्रकार कब काल कवलित हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता और न ही कोई उन्हें याद रखने की आवश्यकता महसूस करता।

आज पत्रकारिता की नयी नयी विधियाँ जन्म ले चुकीं हैं. डेस्क पर बैठ कर सारी सामग्री एकत्र की जाती है, जो विभिन्न आधुनिक तकनीकि, विभिन्न एजेंसियों एवं संबंधित संस्थान के नेटवर्क द्वारा संकलित की जाती हैं. इनके द्वारा निश्चित रूप से विस्तृत सामग्री प्राप्त होती है,

लेकिन डेस्क पर बैठा पत्रकार / संपादक प्रत्यक्षदर्शी न होने के कारण समाचारों में वो जीवंतता नहीं ला पाता, समाचारों में वो भावनाएँ नहीं ला पाता, क्योंकि वो दर्द और वो खुशी समाचारों में आ ही नहीं सकती, जो एक प्रत्यक्षदर्शी पत्रकार की हो सकती है.

आज के कुछ प्रेस फोटोग्राफर पीड़ित, शोषित अथवा आत्मदाह कर रहे इंसान की मदद करने के बजाय फोटो या वीडियो बनाने को अपना प्रथम कर्त्तव्य मानते है और दूसरे प्रेस फोटोग्राफर्स को कॉल करके बुलाते हैं। वह दिन कब आएगा जब वे कैमरा फेंककर मदद को दौड़ेंगे? जिस दिन ऐसा हुआ वह दिन पत्रकारिता के स्वर्णिम युग की शुरुआत होगी।

मेरी धारणा है कि यदि आपने पत्रकारिता को चुना है तो समाज के प्रति उत्तरदायी भी होना एक शर्त है अन्यथा आपका जमीर और ये  पीड़ित समाज आपको निश्चिंतता की साँस नहीं लेने देगा।

हम अपने ज्ञान, अनुभव, लगन तथा परिश्रम से भी वांछित गंतव्य पर पहुँच सकते हैं, बस फर्क यही है कि आपको अनैतिकता के शॉर्टकट को छोड़कर नैतिकता का नियत मार्ग चुनना होगा। पत्रकारिता को एक बौद्धिक, मेहनती, तात्कालिक एवं कलमकारी का जवाबदारी भरा कर्त्तव्य कहें तो गलत नहीं होगा।

धन तो और भी तरह से कमाया जा सकता है, लेकिन पत्रकारीय प्रतिष्ठा का अपना अलग महत्त्व होता है। पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है और लोकतंत्र के इस स्तम्भ की हिफाजत करना हम सब का दायित्व है।

अंततः निष्कर्ष यह है कि पत्रकारिता यथा संभव यथार्थ के धरातल पर चले, अपनी आँखों से देखे, अपने कानों से सुने और पारदर्शी गुण अपनाते हुए समाज को आदर्शोन्मुखी बनाने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करे, आज विकृत हो रहे समाज में ऐसी ही पत्रकारिता की ज़रूरत है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 45 – बापू के संस्मरण-21 – कितने कुर्ते  आपको चाहिए ? ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “कितने कुर्ते  आपको चाहिए ?”)

☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण – 21 – कितने कुर्ते  आपको चाहिए ? ☆ 

एक बार गांधीजी अपनी कलकत्ता  यात्रा  के दौरान  एक बंगाली सज्जन  के घर  उनसे मिलने गए।

उस  समय   वे केवल धोती  के समान  एक छोटा  सा  कपड़ा  पहनते  थे। उन्हे इस तरह देख गृह स्वामी  की छोटी बच्ची  ने कौतूहलवश  उनसे  एक सवाल  पूछ लिया –क्या  आपके  पास  पहनने के कपड़े  नहीं है ?  गांधीजी भी बड़े विनोदी स्वभाव के थे। उन्होने  उत्तर  दिया – “क्या  करूँ, सचमुच  मेरे  पास कपड़े  नहीं है।”

यह  सुनकर  वह बच्ची  बोल उठी – “मैं  अपनी माँ  से कह कर  आपको कुर्ता दिलवा  दूंगी। मेरी माँ के हाथ  का  सिला कुर्ता  आप पहनेंगे न ?”

गांधीजी ने कहा –”जरूर पहनूँगा ,लेकिन  एक कुर्ते  से मेरा  काम नहीं चलेगा।”

“कोई  बात नहीं, मेरी  माँ  आपको  दो कुर्ते  दे देगी” –उस बच्ची  ने कहा।

“नहीं,नही, दो कुर्ते  से मेरा  काम नहीं चलेगा”– गांधी का उत्तर  था।

“तब  कितने कुर्ते  आपको चाहिए ?”- बच्ची  का सवाल  था।

तब  गांधीजी ने बड़ी गंभीरता  से कहा – “बेटी, मुझे  35 करोड़ कुर्ते  चाहिए। जब  तक  देश के हर व्यक्ति के तन  पर कपड़ा नहीं होगा, तब तक  मैं  कैसे और कपड़े  पहन लूँ।”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ☆ सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆ क्योंकि मैं राष्ट्र माँ नहीं ☆ श्रीमती समीक्षा तैलंग 

श्रीमती समीक्षा तैलंग 

हम ई-अभिव्यक्ति पर एक अभियान की तरह प्रतिदिन “संदर्भ: एकता शक्ति” के अंतर्गत एक रचना पाठकों से साझा कर रहे हैं। हमारा आग्रह  है कि इस विषय पर अपनी सकारात्मक एवं सार्थक रचनाएँ प्रेषित करें। हमने सहयोगी  “साहित्यम समूह” में “एकता शक्ति आयोजन” में प्राप्त चुनिंदा रचनाओं से इस अभियान को प्रारम्भ कर दिया  हैं। आज प्रस्तुत है श्रीमती समीक्षा तैलंग जी की महात्मा गाँधी जयंती पर रचित एवं नवरात्रि पर्व पर एक विचारणीय लेख  “क्योंकि मैं राष्ट्र माँ नहीं”

☆  सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆ क्योंकि मैं राष्ट्र माँ नहीं

मैं जानती हूं बापू के वचन। और निबाह भी करती हूँ तब तक, जब तक कोई सामने से हमला न करे।

बुरा मत देखो-

लेकिन क्या करूँ तब, जब देखने वाले की आंख मुझ पर गलत निगाहें डालती है? देखने दूं उसे…? निहारने दूं अपनी काया को, जब वो उन्हीं गंदी निगाहों से अंदर तक झाँकने की कोशिश करता है? या शोर मचाऊं? कौन आएगा बचाने? निर्भया को कभी कोई बचाने नहीं आता। चीखती है वो। लेकिन सुनने वाले की रूह नहीं काँपती। वो उन आँखों का शिकार होती है हमेशा। बस उसकी एक ही गलती है, कि वो निहत्थी है। तो क्या करूं, बार बार निर्भया बनने तैयार रहूँ? या निर्भीक होकर उसकी आंखें दबोच उसके उन हाथों में धर दूं, जिससे वो अपराध करता है? या फिर अहिंसा की पुजारी होकर उसे बख़्श दूँ?

बुरा मत सोचो-
उन सबकी सोच का क्या करूं जो उन्हें स्त्री की तरफ घूरने पर मजबूर करती है। घृणित मानसिकता से उपजी सोच लडकियों के कपडों से लेकर उसकी चालढाल, उसकी बातों, सब पर वाहियात कमेंट्स करके जता देती है। खुद में सुधार की बजाए, उंगलियां हमेशा स्त्री की तरफ उठती हैं। क्योंकि वे कमजोर हैं। अपनी गलतियों पर परदा डालने के लिए उनकी सोच उन्हें ऐसा करने पर मजबूर करती है। लेकिन मैं ऐसा नहीं सोचती। मेरी सोच मुझे न घूरने के लिए कहती है और न ही पुरुषों पर टिप्पणी के लिए विवश करती है। क्योंकि मेरी सोच हीन भावना से ग्रसित नहीं। मेरी सोच स्वावलंबी है। फिर क्यों न मैं, ऐसी घटिया सोच रखने वाले को सबके सामने खींचकर एक तेज चपाट दूं? उसे सोचने का अधिकार केवल खुद पर है। मुझ पर कतई नहीं।

बुरा मत कहो-
मैं कहां कहती हूं बुरा…। जब वो नुक्कड़ पर खड़े होकर सीटी बजाते हैं। या फिर सडक रोककर आवारागर्दी करते हैं। ऊलजलूल बकते हैं। फिर भी मैं चुप रहूं? उनकी अश्लील बातों को सुनकर आगे बढ़ जाऊं? उनकी घिनौनी हरकतों को नजरंदाज़ कर दूं? उनके दिमाग में उपज रहे अपराध के प्रति सजग न होकर, वहां से चुपचाप निकलकर, उन्हें शह दे दूं? नहीं, मैं ऐसा आत्मघाती कदम उठाने के लिए कभी तैयार नहीं। मैं उसे उसके किए की सजा जरूर दूंगी। सहकर नहीं, डटकर…।

बापू तुम सच में महात्मा हो। अपनी इंद्रियों पर काबू रख सकते हो। लेकिन ये सब, महात्मा नहीं। इसलिए इनकी इंद्रियां इन्हें भटकाती हैं। लेकिन मुझे इन पर लगाम कसना जरूर आता है। अपनी आत्मरक्षा के लिए। क्योंकि मैं राष्ट्र-मां नहीं। मैं एक साधारण स्त्री हूं।

© श्रीमती समीक्षा तैलंग 

पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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