हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 34 ☆ लॉक डाउन ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  समसामयिक एवं प्रेरक आलेख  लाॅकडाऊन । 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 34 ☆

☆ लाॅकडाऊन ☆

आज हम बड़ी विपत्ति में फंसे हुए हैं। हम क्या पूरा संसार दुनिया इटली, अमेरिका जो एक पावर फुल देश है फ्रांस, जर्मनी, युगांडा सब अपने-आप में एक सम्पूर्णता को बनाए रखे हुए हैं, पर एक  छोटे से वाइरस ने सबको जड़ से हिलाकर रख दिया है हम उससे हार गए हैं। डर कर लाॅकडाऊन हो  गए हैं। हाहाकार मचा हुआ है हर तरफ  अब हमारा बैंक बैलेंस सोना, चांदी, हीरे, बड़ी – बड़ी बिल्डिंग, रेस्टोरेंट, फाईव  स्टार होटल में खाना, एक से एक मंहगे कपड़े, जूते, चैन, फोरव्हीलर सब जहाँ का तहाँ रखा हुआ है हमारे किसी काम का नहीं है। हम एक जोड़ी कपड़ों में अपना समय निकाल रहे हैं। सारी चीजें अलमारी में पड़ी हुई हैं ।क्यों हुआ ऐसा कभी सोचा नहीं – कभी नहीं।

अब जब हमने सोचा ही नहीं तो प्रकृति को सोचना पड़ा है।

देखिए नदियाँ अपने आप साफ स्वच्छ हो चली हैं और झीलों का क्या कहना- सुंदर अठखेलियां कर रही हैं। सड़क – मार्ग, नालियाँ,  गांव,  शहर सभी अपना बेलेंस बना चुके हैं।समाज के सभी ठेकेदारों ने खूब कोशिश की स्वच्छता को बनाए रखने की पर नहीं हो सका प्रकृति ने रास्ता निकाल लिया । सब कुछ अपने आप हो रहा। पशु-पक्षी जो साँस लेने मैं भी अचकचा रहे थे सभी बेहतर उड़ान भरने  लगे हैं। गहरी साँस के साथ ऊँचे – ऊँचे उड़ने लगे हैं एक मानव ही है जो एक छोटे से वाईरस के कारण घर में दबा बैठा है। हम तो बहुत पीछे आते हैं।  बड़े बड़े शहर भी कुछ कर पाए नहीं यहाँ तो नाना पाटेकर का डायलॉग काम कर रहा है “एक मच्छर वाला ” न कर सका वह  वाइरस  ने क्र दिखाया। यह कह सकते हैं  कि हमारे कर्मो का ही फल है जो प्रकृति ने हमें दिया है।

अरे अब तक जो हुआ सो हुआ।  अब भी कुछ अच्छे कर्मों से सभी कुछ सुधारा जा सकता है।

धन नहीं, सम्पति नहीं, सभी का सामंजस्य  प्रकृति बना रही है। अच्छा बोलिए, मदद करिए, नियम से रहिए यह आदत जब अपने इस लाॅकडाऊन मे पड़ जाऐगी तो सच मानिए कि फिर कोई भी वायरस हमें छू ही नहीं सकेगा अपनी सुरक्षा हम स्वयं कर सकेंगे।

यदि इस लाॅकडाऊन मे निर्मल मन मदद करने की प्रवृत्ति और नियम को आजमा लिया तो मानकर चलिए हम भी उन बड़े देशों जैसे हो जाएँगे जो आज एक उच्च स्तरीय  के माने – जाने जाते हैं।

कोरोना का डर घर में ही नहीं बल्कि पूरे देश में गांव में भी है गाँव का आदमी बाहर से किसी को अपने गाँव में पहुंचने नहीं देता एकदम रास्ता रोक देता है।

आज प्रकृति मुस्कुरा रही है क्योंकि उसने  सामंजस्य स्थापित कर लिया है और यह मानकर चलिए जब हम लाॅकडाऊन से बाहर होंगे तो हमें भी नियम पालने मे चलने मे असुविधा न होगी

अच्छा सोचिए, अच्छा करिए तब देखिये आप क्या  से क्या  होंगे और हमारा भारत कहाँ से कहाँ पहुँच जाएगा।

हम एक बेहतर पड़ोसी, बेहतर बेटा, बेहतर पिता बनकर तैयार हो जायेगे। और आगे आने वाले सभी समस्याओं का सामना और समाधान निश्चित रूप से कर पाएंगे।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #53 ☆ मन्त्र ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच – मंत्र ☆

‘सुबह हुई’ या ‘एक और सुबह हुई?’…’शाम हुई’ या ‘एक और शाम हुई?’…कितनी सुबहें आ चुकीं जीवन में…. कितनी शामें बीत चुकीं जीवन की ?…सुबह- शाम करते कितने जीवन रीत चुके?

रीतने की रीति से मुक्त होने का एक सरल उपाय कहता हूँ। ‘सुबह हुई, शाम हुई’ के स्थान पर  ‘एक और सुबह हुई, एक और शाम हुई’ कहना शुरू करो। ‘एक और’ का मंत्र भौतिक तत्व को परमसत्य की ओर मोड़ देगा।

प्रयोग करके देखो। यात्रा की दिशा और दशा बदल जाएगी।

© संजय भारद्वाज

(रात्रि 2.10 बजे, 4 जून 2019)

# परमसत्य की यात्रा मंगलमय हो।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – यही बाकी निशां होगा ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है महान स्वतंत्रता सेनानी स्व मंगल पांडे एवं उनकी वर्तमान पीढ़ी की जानकारी देता एक देशभक्ति से ओतप्रोत  ओजस्वी आलेख  –yahi बाकी निशान होगा। भारत सरकार ने स्व मंगल पण्डे जी के सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया था।  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य –  यही बाकी निशां होगा ☆

स्व जगदम्बा प्रसाद मिश्रा जी द्वारा 1916 में रचित कालजयी रचना आज भी उतनी ही प्रासंगिक है – –

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरने वालों का‌ यही बाकी निशां होगा ।।

इस कथन को सत्य साबित होते देखना वास्तव में हृदय को सुखद अनुभूति कराता है। घाघरा और गंगा की पावन गोद में बसे बलिया जिले के माटी की तासीर ही ऐसी है, जहां की मातायें सिंह शावकों को जन्म देती है जिनकी घनगर्जना से दुश्मनों की छाती फटती है। वतन की आन बान शान के लिए अपनी आत्माहुति देना यहां के रणबांकुरों का शौक तो है ही, यहां की मिट्टी के इतिहास में हमारी सांस्कृतिक सभ्यताओं के ध्वजवाहक ऋषि मुनियों की गौरवगाथा भी समाहित है।

यहीं की मिट्टी से जन्म लेता है, मंगल पाण्डेय नामक रणबांकुरा फौजी  जिसका जन्म  १९ जुलाई सन १८२७ में बलिया जिले के नगवां में हुआ था।  जिन्होंने अपने युवा काल में ३४वी बटालियन नेटिव इन्फैंट्री बैरकपुर बंगाल की पैदल सेना में सैनिक नं १४४६ के रूप में नौकरी की।  अंग्रेज गोरों के खिलाफ  स्वतंत्रता आंदोलन के बगावत  का इतिहास रचने का श्रेय इनके हिस्से जाता है।  जिन्होंने बगावत का इतिहास लिखते हुए अंग्रेज अफसरों पर धावा बोल दिया।  जिसके चलते सारे भारत में  स्वतंत्रता आंदोलन की चिंगारी धधक कर जल उठी।

अंग्रेज सरकार घबरा गई औरउन्हें आनन फानन में ८अप्रैल १८५७ को फांसी दे दी गई , लेकिन वह जवान मरते मरते अपनी शहादत के  बल पर अपने पदचिन्हों के बाकी निशान छोड़ गया तथा अपने कर्मों से स्वतंत्रता आंदोलन का प्रथम अध्याय स्वर्ण अक्षरों में लिख गया।  उसी कुल में स्व० पदुमदेव पाण्डेय जी का जन्म  हुआ , जिन्हें अदम्य शौर्य साहस कर्मनिष्ठा  वंशानुगत विरासत में मिली थी।  अपने कुल की उसी अक्षुण्ण परंपराको कायम रखते हुए  उन्होंने  सन् १९६४ स्पोर्ट्स कोटे से फौज की नौकरी की  और सन् १९६५ में पाकिस्तान भारत के युद्ध में अद्म्य शौर्य  साहस तथा विपरित परिस्थितियों में  युद्ध लड़ कर  शत्रु का संहार ही नहीं किया, बारूद खत्म होने पर भी रण नहीं छोड़ा, बल्कि अदम्य साहस का परिचय देते हुए दुश्मन की निगाहें बचा अपने अनेक घायल साथियों को पीठ पर लाद उन्हेंअस्पताल तक ला उनकी प्राण रक्षा की।  जिसके बदले उन्हें भारत सरकार द्वारा  स्वर्ण पदक दे सम्मानित किया गया।

उसके ठीक  छह साल बाद सन् १९७१ में फिर एक बार शत्रुओं ने युद्ध थोपा ।  इस बार फिर उस वीर जवान  ने अपनी टुकड़ी के साथ अदम्य साहस का परिचय देते हुए रण में दुश्मन का मानमर्दन करते हुए  विजय श्री का वरण कर विजेता बन रण से लौटे। सन् १९७३ में उन्हें एक बार फिर ‌उत्कृष्ट  सेवा के बदले कांस्य पदक हेतु चुना गया,जो उनके समर्पण कर्तव्यपरायणता  का सम्मान है और अंत में अपना सेवा काल  सकुशल  पूरा कर  सन् १९८० में सेवा  निवृत्त हो गये । सकुशल जीवन यापन करते हुए २६ अगस्त सन् २०१७ को परलोक गमन करते हुए  अपने त्याग तपस्या  मानव सेवा की उत्कृष्ट मिसाल पेश कर अपने पदचिन्हों का निशान बाकी छोड़ गये जो सदियों सदियों तक लोगों की ज़ेहन में बसा रहेगा, अपनी लेखनी के माध्यम से हम मां भारती के उस लाल को भावभीनी विनम्र श्रद्धांजली अर्पित करते हैं।

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 49 – अंतिम ज्ञान ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं  ज्ञानवर्धक आलेख  “अंतिम ज्ञान। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 49 ☆

☆ अंतिम ज्ञान 

मनुष्यों में, उम्र का बढ़ना मानव शरीर में परिवर्तन का प्रतिनिधित्व होता है, जिसमें शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक परिवर्तन शामिल होता है । लेकिन अभी भी उम्र बढ़ने का कारण वैज्ञानिकों के लिए अज्ञात है । उम्र बढ़ने का सबसे करीबी सिद्धांत बाहरी रूप से DNA विभाजन या ऑक्सीकरण होता है, जो जैविक प्रणाली को विफल कर सकता है या आंतरिक प्रक्रिया जैसे DNA टेलीमीटर के छोटे होने का कारण बन सकता है । कुछ प्रजातियों को अमर माना जा सकता है, उदाहरण बैक्टीरिया जो पुत्री कोशिकाओं के उत्पादन करने के लिए जिम्मेदार है या जानवरों में जीनस हाइड्रा, जिनकी पुनर्जागरण क्षमता होती है जिससे वे बुढ़ापे से बचते हैं ।

संक्षेप में, बस इतना समझें ले कि सामान्य मानव कोशिका लगभग 50 कोशिका विभाजन के बाद मर जाती है । अगर किसी भी तरह से हम इसे अनंत बना सके या क्षतिग्रस्त कोशिका की मरम्मत करके इसे जैसी थी वैसी ही बना सके, तो व्यक्ति की उम्र रुक जाएगी ।

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 53 ☆ अन्याय सहना : भीषण अपराध ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख अन्याय सहना : भीषण अपराध।  यह सत्य है कि अन्याय करने से, अन्याय सहने वाला अधिक दोषी होता है। किन्तु, अन्याय करने वाले के विरोध में कितने लोग खड़े हो पाते हैं, यह अलग प्रश्न है। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 53 ☆

☆ अन्याय सहना : भीषण अपराध

‘याद रखिए सबसे बड़ा अपराध अन्याय सहना और ग़लत के साथ समझौता करना है।’ सुभाष चंद्र बोस की यह पंक्तियां हमें स्मरण कराती हैं, गीता में भगवान कृष्ण के मुख से नि:सृत वाणी का…’अन्याय करने से, अन्याय सहने वाला अधिक दोषी होता है’ –यह कथन ध्यातव्य है, अनुकरणीय है, जो मानव में ऊर्जा संचरित करता है; आत्मबल का अहसास दिलाता है; अंतर्मन में छिपी दैवीय शक्तियों के अवलोकन का संदेश देता है व स्वयं को पहचानने की प्रेरणा देता है। इतना ही नहीं, यह हमें अपने पूर्वजों का स्मरण कराता है तथा स्वर्णिम अतीत में झांकने का दम भरता है… हमें अपनी संस्कृति की ओर लौटने को प्रवृत्त करता है और विश्वास व अहसास दिलाता है कि ‘अपनी संस्कृति से विमुख होना, हमें पतन के गर्त में धकेल देता है।’

पाश्चात्य की ‘हैलो-हाय’ की मूल्यहीन संस्कृति हमें सुसंस्कारित नहीं कर रही, बल्कि पथ-भ्रष्ट कर रही है। हम मर्यादा की सभी सीमाओं का अतिक्रमण कर, स्वयं को आधुनिक समझ रहे हैं। यह हमें अपने देश की मिट्टी व अपनों से बहुत दूर ले जा रही है … जिसके परिणाम-स्वरूप हम अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं और निपट स्वार्थी बन रहे हैं। हम केवल अपने व अपने परिवार के दायरे में सिमट कर रह गये हैं। दूसरे शब्दों में हम आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं, जो सामाजिक विषमता के रूप में हमारे समक्ष हैं।

आत्मकेंद्रितता का भयावह परिणाम, सामाजिक विश्रृंखलता के रूप में हमारे हृदय में वैमनस्य का भाव उत्पन्न करता है। अहं द्वन्द्व का जनक है व संघर्ष का प्रतिरूप है। वह मानव का सबसे बड़ा शत्रु है; जिसके भंवर में फंसा मानव चाह कर भी मुक्त नहीं हो सकता। जैसे सुनामी की लहरों में डूबती- उतराती नौका में बैठे नाविक व अन्य यात्रियों की मन:स्थिति होती है, वे स्वयं को नियति के समक्ष असहाय, विवश व बेबस अनुभव कर, सृष्टि-नियंता से भीषण आपदा से रक्षा करने की ग़ुहार लगाते हैं; अनुनय-विनय करते हैं… उस विषम परिस्थिति में उनका अहं विगलित हो जाता है। परंतु इस मन: स्थिति में हर इंसान स्वयं को दयनीय दशा में पाता है और भविष्य में शुभ कर्म व सत्कर्म करने की ग़ुहार लगाता है। परंतु भंवर से उबरने के पश्चात् चंद लोग तो प्रायश्चित-स्वरूप जीवन को सृष्टि-नियंता की बख्शीश समझ, स्वयं तो शुभ कर्मों की ओर प्रवृत्त होते हैं; दूसरों को भी शुभ कर्म कर अच्छा व सज्जन बनने की प्रेरणा देते हैं। ऐसा व्यक्ति सत्य की अडिग राह पर चलने लगता है और अन्याय करने या गलत पक्ष के लोगों के साथ समझौता न करने का अटल निश्चय करता है। सो! उसका जीवन के प्रति सोच व दृष्टिकोण ही बदल जाता है। वह प्रकृति के कण- कण व प्राणी-मात्र में परमात्म-सत्ता का अनुभव करता है…सबसे प्रेम-व्यवहार करता है… करुणा की वर्षा करता है तथा समाज द्वारा बहिष्कृत दुर्बल, असहाय लोगों की सहायता कर सुक़ून पाता है। फलत: वह गलत के साथ कभी भी समझौता नहीं करता। यह सर्वविदित है कि यदि एक बार कदम गलत राह की ओर बढ़ जाते हैं, तो वह उस दल-दल मेंं धंसता चला जाता है… बुराइयों के जंजाल से कभी मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता, क्योंकि अंधी गलियों से लौट पाना कठिन ही नहीं, असंभव होता है।

आत्मकेंद्रित व्यक्ति के हृदय में उचित-अनुचित, शुभ-अशुभ व अच्छे-बुरे का भेद नहीं रहता। वह उसी कार्य को अंजाम देता है, जिसमें केवल उसका हित होता है और वह जीवन का सबसे भयावह दौर होता है। ऐसा व्यक्ति मज़लूमों पर ज़ुल्म ढाता है; उनकी भावनाओं को रौंद कर; उनके जज़्बातों की परवाह न करते हुए सुख-शांति व आनन्द की प्राप्त करता है। उनके आंसू व चीत्कार भी उसके हृदय को द्रवित नहीं कर पाते। वह इंसान से जल्लाद बन जाता है और मासूमों पर ज़ुल्म ढाना उसका पेशा।

आइए! हम दृष्टिपात करते हैं, प्रति-पक्ष की मन: स्थिति पर, जो उसे नियति स्वीकार लेते हैं। उनके हृदय में यह भावना घर कर जाती है कि उन्हें अपने पूर्व-जन्म के कृत-कर्मों का फल मिल रहा है और भाग्य के लेखे-जोखे को कोई नहीं बदल सकता। काश! वे पहचान पाते…अंतर्निहित अलौकिक शक्तियों को… तो वे भी ज़ुल्म ढाने वाले का प्रतिरोध कर पाते और अन्याय सहने के पाप से बच पाते। इंसान की सहनशक्ति ही प्रति-पक्ष को और अधिक ज़ुल्म करने को प्रेरित करती है; न्यौता देती है। यदि वह साहस जुटा कर उस परिस्थिति का सामना करता है, तो विरोधियों के हौसले पस्त हो जाते हैं और वह उन्हें समान दृष्टि से देखने लगता है।

गलत व्यक्ति की अहमियत स्वीकार, स्वार्थ-वश उसके साथ समझौता करना अपराध है, पाप है, हेय है, त्याज्य है, निंदनीय है; जो आपको कभी भी सुक़ून नहीं प्रदान कर सकता। हितोपदेश व गीता का सारगर्भित संदेश इस तथ्य को उजागर करता है कि ‘न तो कोई किसी का मित्र है, न ही शत्रु, बल्कि व्यवहार से ही मित्र व शत्रु बनते हैं अर्थात् परमात्मा ने सबको समान रूप प्रदान किया है, परंतु व्यक्ति का व्यवहार ही मित्र व शत्रु का रूप प्रदान करते हैं। व्यवहार हमारी सोच व स्वार्थ-वृत्ति पर आश्रित होता है। स्वार्थ-परता शत्रुता के भाव की जननी है; जो जीवन में नकारात्मकता को जाग्रत करती है।’ परंतु सकारात्मक सोच मानव में मैत्री भाव को संचरित करती है, जिसमें प्राणी-मात्र के हित की भावना निहित रहती है। ऐसे लोगों के केवल मित्र होते हैं, शत्रु नहीं; वे सर्वहिताय की भावना से ओत-प्रोत रहते हैं…सबके मंगल की कामना करते हैं। इसलिए नकारात्मक सोच के व्यक्ति की संगति करना कारग़र नहीं है। सो! वह आपको सदैव गलत दिशा की ओर प्रवृत्त करेगा, क्योंकि जो उसके पास होगा, उसकी धरोहर होगी और उसी संपदा को वह दूसरों को देगा।

मुझे स्मरण हो रही हैं, योगवशिष्ट की पंक्तियां, ‘जिस वस्तु का, जिस भाव से चिंतन किया जाता है, वह उसी प्रकार से अनुभव में आने लगती है’– उक्त भाव को पोषित करती हैं। हमारी सोच ही हमारे व्यक्तित्व की निर्धारक है, निर्माता है। इसका सशक्त उदाहरण है ‘रेकी’…यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा हम दूर बैठे अपनी भावनाएं, दूसरे व्यक्ति तक प्रेषित कर सकते हैं। यदि भावनाएं शुभ हैं, तो वहां के वातावरण में शांति, उल्लास व आनंद वर्षा होने लगेगी। यदि वहां ईर्ष्या, द्वेष व प्रतिशोध का भाव होगा; तो दु:ख, पीड़ा व क्लेश के भाव उन तक पहुंचेंगे। इस प्रकार हम अनुभव कर सकते हैं कि मानव की सोच ही उसके व्यवहार की जन्मदाता है, निर्माता है, पोषक है। इस संसार में जो भी आप दूसरे को देते हैं; वही लौटकर आपके पास आता है। तो क्यों ना अच्छा ही अच्छा किया जाए, ताकि सब का मंगल हो। सो! हम स्वयं अपने भाग्य-निर्माता हैं  तथा हमें अपने कर्मों का फल जन्म-जन्मांतर तक भुगतना पड़ता है।

सो! हमें अन्याय का सामना करते हुए अपने दायित्व का वहन करना चाहिए और ग़लत के साथ समझौता कदापि नहीं करना चाहिए तथा अपनी आंतरिक शक्तियों को संचित कर, पूर्ण साहस व उत्साह से उन विषम परिस्थितियों का सामना करना चाहिए। जो व्यक्ति इन दैवीय गुणों को जीवन में संचित कर लेता है; आत्मसात् कर लेता है; पथ की बाधाओं व आपदाओं को रौंदता हुआ निरंतर उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है और आकाश की बुलंदियों को भी छू सकता है। इसलिए मानव को अच्छे भावों-विचारों को धरोहर रूप में संजोकर रखना चाहिए तथा उसे आगामी पीढ़ी को सौंपने के पश्चात् ही अपने कर्त्तव्यों व दायित्वों की इतिश्री समझनी चाहिए।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 6 ☆ प्राकृतिक असंतुलन का दुष्परिणाम है कोविड-19 : एक गंभीर चेतावनी ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। आज से आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक समसामयिक एवं सकारात्मक आलेख  ‘प्राकृतिक असंतुलन का दुष्परिणाम है कोविड-19 : एक गंभीर चेतावनी।)

☆ किसलय की कलम से # 6 ☆

☆ प्राकृतिक असंतुलन का दुष्परिणाम है कोविड-19 : एक गंभीर चेतावनी ☆

(अन्तहीन लालसा को जरूरत में बदलना होगा)

(धैर्य, सावधानी, सद्भावना से ही हारेगा कोविड-19)

कोविड-19 महामारी के चलते आज लोगों का डरे-सहमे होना लाजमी है। वैसे भी जब यमराज हमारे दरवाजे पर दस्तक दे रहे हों तो घर से बाहर निकलने की कोई बेवकूफी करेगा ही क्यों? जो बाहर निकल रहे हैं उनके लिए तो बस इतना ही कहा जाएगा कि ऊपर वाले की इच्छा के बगैर पत्ता  भी नहीं खरकता फिर घर से बाहर निकलने की बात तो बहुत दूर की है। हमने दूसरी बात यह भी सुनी है कि ईश्वर ने इंसान का सब कुछ तो अपने पास रखा है लेकिन बुद्धि-विवेक इंसान के सुपुर्द कर उसी पर छोड़ दिया है कि अच्छे-बुरे का निर्णय तू ही कर और उसका परिणाम भी खुद भोग। अर्थात जो जैसा करेगा, सो वैसा भरेगा। जिस कारण ईश्वर को दोष देने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता। आजकल यह मजेदार बात आम हो गई है कि ईश्वर तो बाद में देखेगा पहले पुलिस ही घर से बाहर निकलते ही आपके कर्मों का फल दे रही है।

यदि हम मान भी लें कि-

जन्म, विवाह, मरण गति सोई।

जो जस लिखा तहाँ तस होई।।

तब भी बुद्धि-विवेक का सहारा लेकर किये गए सकारात्मक कर्मों से कई अनिष्ट तो कट ही सकते हैं। कहा भी गया है कि आपके कर्म आपका भाग्य बदलने की सामर्थ्य रखते हैं।

  वर्तमान में सरकार द्वारा बताए गए कर्म आपके दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदल सकते हैं। कोविड-19 के बनते-बिगड़ते गंभीर हालात को देखते हुए मुझे भी यह बात किसी दृष्टिकोण से गलत नहीं लगती। बहुत पहले सुना था हैजा, प्लेग, चेचक आदि महामारियों से लोग भयाक्रांत हो जाते थे, लेकिन विकास और तकनीकि ने इन बीमारियों का अंत कर दिया, लेकिन आज कोविड-19 नामक वायरस की बीमारी ने सम्पूर्ण विश्व को हिला कर रख दिया है। सच कहें तो उन परिस्थितियों से कहीं ज्यादा। इंसान इंसान के पास आने से कतराने लगा है। आज किसी के द्वारा स्पर्श की गई सामग्री को भी लेने के पहले बुद्धि- विवेक का उपयोग करने वाला आदमी दस बार सोचने लगा है और बड़ी सावधानी के साथ सेनेटेराइज करने के उपरान्त ही कुछ लेता है। आखिर ऐसी नौबत आई ही क्यों? यह संवेदनशील एवं विचारणीय विषय है। इस पर विश्व स्तरीय चिंतन- मनन की आवश्यकता है। इसके पीछे मानव द्वारा प्रकृति तथा अन्य जीव-जंतुओं के साथ खिलवाड़ करना तो नहीं है? हम निजी स्वार्थवश कहीं अपनी सीमाएँ तो नहीं लाँघ रहे हैं?  ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’  हमारे ग्रंथों का ही लघु सूत्र है। हमारी इस अंतहीन लालसा के परिणाम अब सामने आने शुरू हो गए हैं। चिंतन कर अब मान भी लेना चाहिए कि  हम प्रकृति के साथ अत्याचार  करने लगे हैं।

क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा।

पंच रचित अति अधम शरीरा।।

अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश एवं पवन रूपी इन पाँच तत्त्वों से ही हमारा यह अधम शरीर और यह संपूर्ण ब्रह्मांड बना है। प्राकृतिक संतुलन हेतु इन तत्त्वों में भी संतुलन का होना परम आवश्यक है। असंतुलन ही विनाश का कारण है, लेकिन यह सामाजिक प्राणी  स्वार्थ लोलुपता में इतना लिप्त होता गया है कि वह इन तत्वों  का संतुलन बनाए रखना ही भूल गया। आज जब ओजोन परत क्षीण हो रही है, जलवायु प्रदूषण बद से बदतर होता जा रहा है। पर्यावरण की सुरक्षा हेतु ठोस कदम नहीं उठाये जा रहे हैं। प्रकृति संतुलन के अहम सहभागी वनस्पति व जीव-जंतुओं को भी हमारे द्वारा नहीं बक्शा जा रहा है? क्या तब भी हम उम्मीद करेंगे कि प्रकृति हमारे स्वास्थ्य व बेहतर जीवन शैली पर ध्यान देगी? एड्स, स्वाइन फ्लू, कोविड-19 जैसे यमराजों को तो एक न एक दिन हमारे दरवाजों पर दस्तक देना ही थी। क्या आज के पहले किसी ने सोचा था कि सारे विश्व के लोग महीनों चूहों जैसे अपने घरों में दुबक कर बैठेंगे? क्या रेल और हवाई जहाज कभी एक जगह खड़े रहेंगे? क्या आवागमन बन्द सा हो जाएगा? लोगों को सोशल डिस्टेंसिंग बनाये रखने हेतु आदेशित किया जाएगा, जबकि जीव जगत में मानव को ही सर्वश्रेष्ठ सामाजिक प्राणी माना गया है, फिर यह सब क्यों हुआ? क्या  ऐसा नहीं लग रहा है कि हमारी अपनी दुनिया रुक सी गई है। भला हो सरकार का कि अभी तक खाने के लाले नहीं पड़ने दिए। जरा कल्पना कीजिए यदि यही हालात तीन-चार महीने और रहे तो फिर क्या होगा ? तब हम यह भी जान लें कि आपका  तिजोरियों में भरा पैसा कोई काम आने वाला नहीं है। काम आयेगा तो स्वच्छ जल, स्वच्छ वायु, स्वच्छ वातावरण एवं निर्विकार भोजन। यही वक्त है आत्मचिंतन का। यही वक्त है इंसान को इंसानियत सीखने का। भले ही हम पूरी तरह से विश्व की वर्तमान परिस्थितियाँ नहीं देख पा रहे हैं और विवशता के चलते हमें घर पर रहना पड़ रहा है, लेकिन आप एक बार इसका दूसरा पहलू यह भी देखिए, यह भी जानिये कि आज कुछ ही दिनों में हमारी नदियाँ कितनी निर्मल हो गईं हैं। शहरों में वायु प्रदूषण कितना कम हो गया है। हम आज बिना सैलून, ब्यूटी पार्लर, धोबी, कामवाली, मनपसन्द सब्जियाँ, बिना मांसाहार, बिना आवागमन अर्थात बिना डीजल-पेट्रोल के भी इतने दिन गुजार सकते हैं। शायद आपने इनके अभाव में जीवन जीने  का कभी सोचा भी नहीं होगा। आज भले ही हम कोविड-19 को लेकर जोक्स बनाकर खुद को हँसा रहे हैं, बहला रहे हैं और इस बीमारी से स्वयं को सुरक्षित मान रहे हैं, लेकिन मोहल्ले या वार्ड में किसी को संक्रमित देखकर  भयभीत भी हो रहे हैं।

आज यह बताना भी आवश्यक है की जरा सी असावधानी हमें बहुत महँगी पड़ सकती है। संयोगवश ही सही हमारी सतर्कता हमें सुरक्षित भी रख सकती है। तब हमें अपने धैर्य, सावधानी और स्वविवेक से कोविड-19 के संक्रमण से स्वयं और दूसरों को भी बचाना होगा।

हम देखते हैं कि लोग मौत के मुँह से भी बाहर आ जाते हैं। चलती ट्रेन के पहियों के बीच से जीवित निकल आते हैं और ऊँचाई से गिरकर भी जिंदा बच जाते हैं। अर्थात हमारी हिम्मत, हमारा विश्वास एवं हमारी सुरक्षित दिनचर्या के साथ ही हमारी प्रतिरोधक क्षमता हमें रोगों को हराने का सामर्थ्य प्रदान करती है। सहस्राब्दियों का इतिहास गवाह है कि जीवन और कालचक्र कभी रुके नहीं, वे निरंतर चलते रहेंगे।

कोविड-19 कितना भी बड़ा राक्षस क्यों न हो, उसे पछाड़ना हमारी पहली प्राथमिकता  होना चाहिए। इसे हराने में कुछ वक्त और लगेगा, तब तक सावधानी ही इस बीमारी से बचने का सर्वोत्कृष्ट उपाय है। लगातार अध्ययन, प्रयोगों तथा शोधों से रामबाण औषधि व प्रतिरोधक टीका बनने में अब देर नहीं है। औषधि बनते ही हम, हमारा देश और पूरा विश्व चैन की साँस ले सकेगा। हम कोविड-19 से मुकाबला करने में सक्षम होंगे, ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है। तब तक धैर्य, सावधानी, सद्भावना व शांति के प्रयासों में निरंतर सहभागी बनें, स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहें।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

26 अप्रेल 2020

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ वीरांगना रानी दुर्गावती बलिदान दिवस विशेष – विश्व इतिहास की पहली महिला योद्धा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज  24 जून को  वीरांगना रानी दुर्गावती के बलिदान दिवस पर प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक प्रेरक एवं ऐतिहासिक आलेख  “विश्व इतिहास की पहली महिला योद्धा।  इस ऐतिहासिक आलेख  को हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने के लिए श्री विवेक जी  का हार्दिक आभार। )

☆ वीरांगना रानी दुर्गावती बलिदान दिवस विशेष – विश्व इतिहास की पहली महिला योद्धा ☆

(समय के साथ यदि ऐसे महत्वपूर्ण तथ्यो को नई पीढ़ी के सम्मुख दोहराया न जावे तो विस्मरण स्वाभाविक होता है,  आज की पीढ़ी को रानी दुर्गावती के संघर्ष से परिचित करवाना इसलिये भी आवश्यक है, जिससे देश प्रेम व राष्ट्रीय एकता हमारे चरित्र में व्याप्त रह सके इस दृष्टि से सरदार पटेल पर बहुत महत्वपूर्ण उपन्यास के लेखक व  एकता शक्ति ग्रुप के संस्थापक  इंजी अमरेन्द्र नारायण जी के नेतृत्व में विगत वर्ष रानी दुर्गावती जयंती का आयोजन कई संस्थाओ में किया गया था. इस वर्ष लाक डाउन के चलते इस आलेख में वर्णित  यू ट्यूब काव्य रचना के जरिये एकता शक्ति ग्रुप, जबलपुर वीरांगना रानी दुर्गावती को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करता है. आज जब देश की सीमाएं दुश्मन से घिरी हुई हैं एवं हमारी सेना में महिलाओं को बराबरी का दर्जा है, रानी दुर्गावती का सुस्मरण बहुत प्रासंगिक है )

माना जाता है कि विश्व इतिहास में रानी दुर्गावती पहली महिला है जिसने समुचित युद्ध नीति बनाकर अपने विरूद्ध हो रहे अन्याय के विरोध मे मुगल साम्राज्य के विरूद्ध शस्त्र उठाकर सेना का नेतृत्व किया और युद्ध क्षेत्र मे ही आत्म बलिदान दिया.रानी दुर्गावती के मदन महल के दर्शन किये हैं कभी आपने ? एक ही शिला को तराश कर यह वाच टावर, छोटा सा किला जबलपुर में पहाड़ी के उपर बनाया गया है. इसके आस पास अप्रतिम नैसर्गिक सौंदर्य बिखरा पड़ा है. रानी दुर्गावती सोलहवीं शताब्दि की वीरांगना थीं, उनके समय तक गौंड़ सेना पैदल व उसके सेनापति हाथियो पर होते थे, जबकि मुगल सेना घोड़ो पर सवार सैनिको की सेना थी. हाथी धीमी गति से चलते थे और  घोड़े तेजी से भागते थे,  इसलिये जो मुगल सैनिक घोड़ो पर रहते थे  वे तेज गति से पीछा भी कर सकते थे  और जब खुद की जान बचाने की  जरूरत होती  तो वो तेजी से भाग भी जाते.किंतु  पैदल गौंडी सेना धीमी गति से चलती  और जल्दी भाग भी नही पाती थी.

विशाल, सुसंगठित, साधन सम्पन्न मुगल सेना जो घोड़ो पर थी उनसे जीतना संख्या में कम, गजारोही गौंड सेना के लिये कठिन था,  फिर भी जिस तरह रानी दुर्गावती ने अकबर की दुश्मन से वीरता पूर्वक लोहा लिया, वह नारी सशक्तीकरण का अप्रतिम उदाहरण है. तीन बार तो रानी ने मुगल सेना को मात दे दी थी, पर फिर फिर से और बड़ी सेना लेकर आसफ खां चढ़ाई कर देता था.

९३ वर्षीय सुप्रसिद्ध कवि गीतकार एवं लेखक प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध  की एक रचना है ‘‘गौडवाने की रानी दुर्गावती” जिसमें उन्होनें दुर्गावती का  समग्र चित्रण किया है. प्रस्तुत है वह रचना

उपजाये हैं वीर अनेको विध्ंयाचल की माटी ने

दिये कई है रत्न देश को मां रेवा की घाटी ने

 

उनमें से ही एक अनोखी गढ मंडला की रानी थी

गुणी साहसी शासक योद्धा धर्मनिष्ठ कल्याणी थी

 

युद्ध भूमि में मर्दानी थी पर ममतामयी माता थी

प्रजा वत्सला गौड राज्य की सक्षम भाग्य विधाता थी

 

दूर दूर तक मुगल राज्य भारत मे बढता जाता था

हरेक दिशा मे चमकदार सूरज सा चढता जाता था

 

साम्राज्य विस्तार मार्ग में जो भी राह मे अड़ता था

बादशाह अकबर की आंखो में वह बहुत खटकता था

 

एक बार रानी को उसने स्वर्ण करेला भिजवाया

राज सभा को पर उसका कडवा निहितार्थ नहीं भाया

 

बदले में रानी ने सोने का एक पिंजन बनवाया

और कूट संकेत रूप मे उसे आगरा पहुंचाया

 

दोनों ने समझी दोनों की अटपट सांकेतिक भाषा

बढा क्रोध अकबर का रानी से न रही वांछित आशा

 

एक तो था मेवाड प्रतापी अरावली सा अडिग महान

और दूसरा उठा गोंडवाना बन विंध्या की पहचान

 

घने वनों पर्वत नदियों से गौड राज्य था हरा भरा

लोग सुखी थे धन वैभव था थी समुचित सम्पन्न धरा

 

आती हैं जीवन मे विपदायें प्रायः बिना कहे

राजा दलपत शाह अचानक बीमारी से नहीं रहे

 

पुत्र वीर नारायण बच्चा था जिसका था तब तिलक हुआ

विधवा रानी पर खुद इससे रक्षा का आ पडा जुआ

 

रानी की शासन क्षमताओ, सूझ बूझ से जलकर के

अकबर ने आसफ खां को तब सेना दे भेजा लडने

 

बडी मुगल सेना को भी रानी ने बढकर ललकारा

आसफ खां सा सेनानी भी तीन बार उससे हारा

 

तीन बार का हारा आसफ रानी से लेने बदला

नई फौज ले बढते बढते जबलपुर तक आ धमका

 

तब रानी ले अपनी सेना हो हाथी पर स्वतः सवार

युद्ध क्षेत्र में रण चंडी सी उतरी ले कर मे तलवार

 

युद्ध हुआ चमकी तलवारे सेनाओ ने किये प्रहार

लगे भागने मुगल सिपाही खा गौडी सेना की मार

 

तभी अचानक पासा पलटा छोटी सी घटना के साथ

काली घटा गौडवानें पर छाई की जो हुई बरसात

 

भूमि बडी उबड खाबड थी और महिना था आषाढ

बादल छाये अति वर्षा हुई नर्रई नाले मे थी बाढ

 

छोटी सी सेना रानी की वर्षा के थे प्रबल प्रहार

तेज धार मे हाथी आगे बढ न सका नाले के पार

 

तभी फंसी रानी को आकर लगा आंख मे तीखा बाण

सारी सेना हतप्रभ हो गई विजय आश सब हो गई म्लान

 

सेना का नेतृत्व संभालें संकट मे भी अपने हाथ

ल्रडने को आई थी रानी लेकर सहज आत्म विश्वास

 

फिर भी निधडक रहीं बंधाती सभी सैनिको को वह आस

बाण निकाला स्वतः हाथ से यद्यपि हार का था आभास

 

क्षण मे सारे दृश्य बदल गये बढे जोश और हाहाकार

दुश्मन के दस्ते बढ आये हुई सेना मे चीख पुकार

 

घिर गई रानी जब अंजानी रहा ना स्थिति पर अधिकार

तब सम्मान सुरक्षित रखने किया कटार हृदय के पार

 

स्वाभिमान सम्मान ज्ञान है मां रेवा के पानी मे

जिसकी आभा साफ झलकती गढ़ मंडला की रानी में

 

महोबे की बिटिया थी रानी गढ मंडला मे ब्याही थी

सारे गौंडवाने मे जन जन से जो गई सराही थी

 

असमय विधवा हुई थी रानी मां बन भरी जवानी में

दुख की कई गाथाये भरी है उसकी एक कहानी में

 

जीकर दुख मे अपना जीवन था जनहित जिसका अभियान

 

24 जून 1564 को इस जग से था किया प्रयाण

है समाधी अब भी रानी की नर्रई नाला के उस पार

 

गौर नदी के पार जहां हुई गौडो की मुगलों से हार

कभी जीत भी यश नहीं देती कभी जीत बन जाती हार

 

बडी जटिल है जीवन की गति समय जिसे दे जो उपहार

कभी दगा देती यह दुनियां कभी दगा देता आकाश

अगर न बरसा होता पानी तो कुछ और हुआ होता इतिहास

 

इस गीत को जबलपुर के श्री सोहन सलिल व सुश्री दिव्या सेठ ने स्वर तथा संगीत , व तकनीकी सहयोग देकर श्री प्रशांत सेठ ने बड़ी मेहनत से मधुर संगीत के साथ तैयार किया है. यह गीत यू ट्यूब पर निम्न लिंक पर सुलभ है. 

यूट्यूब वीडियो लिंक >>>>

(दुर्गावती शौर्य गाथा): गोंडवाना की रानी के साहस और बलिदान की कहानी

रानी दुर्गावती पर अनेक पुस्तके लिखी गई है, कुछ प्रमुख इस तरह है-

  1.   राम भरोस अग्रवाल की गढा मंडला के गोंड राजा
  2.   नगर निगम जबलपुर का प्रकाशन रानी दुर्गावती
  3.   डा. सुरेश मिश्रा की कृति रानी दुर्गावती
  4.   डा. सुरेश मिश्र की ही पुस्तक गढा के गौड राज्य का उत्थान और पतन
  5.   बदरी नाथ भट्ट का नाटक दुर्गावती
  6.   बाबूलाल चौकसे का नाटक महारानी दुर्गावती
  7.   वृन्दावन लाल शर्मा का उपन्यास रानी दुर्गावती
  8.   गणेश दत्त पाठक की किताब गढा मंडला का पुरातन इतिहास

इनके अतिरिक्त अंग्रेजी मे सी.यू.विल्स, जी.वी. भावे, डब्लू स्लीमैन आदि अनेक लेखको ने रानी दुर्गावती की महिमा अपनी कलम से वर्णित की है।

वीरांगना की स्मृति को अक्षुण्य बनाये रखने हेतु भारत सरकार ने 1988 मे एक साठ पैसे का डाक टिकट भी जारी किया है।

रानी दुर्गावती  ने 400 साल पहले ही जल संरक्षण के महत्व को समझा था, अपने शासनकाल मे जबलपुर मे उन्होने अनेक जलाशयो का निर्माण करवाया, कुछ ऐसी तकनीक अपनाई गई  कि पानी के प्राकृतिक बहाव का उपयोग करते हुये एक से दूसरे जलाशय में बिना किसी पम्प के  जल भराव होता रहता था. रानी ने अपने प्रिय दीवान आधार सिंग, कायस्थ के नाम पर अधारताल, अपनी प्रिय सखी के नाम पर चेरीताल और अपने हाथी सरमन के नाम पर हाथीताल बनवाये थे। ये तालाब आज भी विद्यमान है। प्रगति की अंधी दौड मे यह जरूर हुआ है कि अनेक तालाब पूरकर वहां भव्य अट्टालिकाये बनाई जा रही है।

रानी दुर्गावती के समय की और भी कुछ चीजे, सिक्के, मूर्तियां आदि  रानी के नाम पर ही स्थापित रानी दुर्गावती संग्रहालय जबलपुर में संग्रहित हैं.

रानी दुर्गावती ने सर्वप्रथम मालवा के राज बाज बहादुर से लडाई लडी थी, जिसमें बाज बहादुर का काका फतेहसिंग मारा गया था। फिर कटंगी की घाटी मे दूसरी बार बाज बहादुर की सारी फौज का ही सफाया कर दिया गया। बाद मे रानी रूपमती को संरक्षण देने के कारण अकबर से युद्ध हुआ, जिसमें तीन बार दुर्गावती विजयी हुई पर आसफ खां के नेतृत्व मे चौथी बार मुगल सेना को जीत मिली और रानी ने आत्म रक्षा तथा नारीत्व की रक्षा मे स्वयं अपनी जान ले ली थी.

नारी सम्मान को दुर्गावती के राज्य मे सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती थी। नारी अपमान पर तात्कालिक दण्ड का प्रावधान था। न्याय व्यवस्था मौखिक एवं तुरंत फैसला दिये जाने वाली थी.  रानी दुर्गावती एक जन नायिका के रूप मे आज भी गांव चौपाल में लोकगीतो के माध्यम से याद की जाती हैं.

गायक मडंली-

तरी नाना मोर नाना रे नाना

रानी महारानी जो आय

माता दुर्गा जी आय

रन मां जूझे धरे तरवार, रानी दुर्गा कहाय

राजा दलतप के रानी हो, रन चंडी कहाय

उगर डकर मां डोले हो, गढ मडंला बचाय

हाथन मां सोहे तरवार, भाला चमकत जाय

सरपट सरपट घोडे भागे, दुर्गे भई असवार

तरी नाना………..

ये लोकगीत मंडला, नरसिंहपुर, जबलपुर, दमोह, छिंदवाडा, बिलासपुर, आदि अंचलो मे लोक शैली मे गाये जाते है इन्हें सैला गीत कहते है।

रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर 1524 को कालींजर मे हुआ था. उनके पिता कीरत सिंह चन्देल वंशीय क्षत्रिय शासक थे। इनकी मां का नाम कमलावती था। सन् 1540 में गढ मंडला के राजकुमार दलपतिशाह ने  विवाह कर दुर्गावती  का वरण किया था। अर्थात आज जो अंतर्जातीय विवाह स्त्री स्वात्रंत्य व नारी अस्मिता व आत्म निर्णय के प्रतीक रूप में समाज स्वीकार कर रहा है, उसका उदाहरण  रानी ने सोलहवीं शताब्दी में ही प्रस्तुत किया था. 1548 मे महाराज दलपतिशाह के निधन से रानी ने दुखद वैधव्य झेला। तब उनका पुत्र वीरनारायण केवल 3 वर्ष का था। उसे राजगद्दी पर बैठाकर रानी ने उसकी ओर से कई वर्षो तक कुशल राज्य संचालन किया।

आइने अकबरी मे अबुल फजल ने लिखा है कि रानी दुर्गावती के शासन काल मे प्रजा इतनी संपन्न थी कि लगान का भुगतान प्रजा स्वर्ण मुद्राओ और हाथियो के रूप मे करती थी।

शायद यही संपन्नता, मुगल राजाओ को गौड राज्य पर आक्रमण का कारण बनी।

शायद रानी ने राज्य की आय का दुरुपयोग व्यक्तिगत एशो आराम, बड़े बड़े किले महल आदि बनवाने की जगह आम जनता के सीधे हित से जुड़े कार्यो में अधिक किया, यही कारण है कि जहां मुगल शासको द्वारा निर्मित बड़े बड़े महल आदि आज भी विद्यमान हैं, वहीं रानी के ऐसे बड़े स्मारक अब नही हैं.

लेकिन, महत्वपूर्ण बात यह है कि अकबर ने विधवा रानी पर हमला कर, सब कुछ पाकर भी कलंक ही पाया, जबकि रानी ने अपनी वीरता से सब कुछ खोकर भी इतिहास मे अमर कीर्ति अर्जित की।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 34 – बापू के संस्मरण-8 देश-सेवा की और पहला कदम ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – देश-सेवा की और पहला कदम”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 34 – बापू के संस्मरण – 8 – देश-सेवा की और पहला कदम☆ 

गांधीजी ने साबरमती में आश्रम खोला था एक भाई उनसे मिलने आये । वह बहुत अच्छी अंग्रेजी जानते थे और मानते थे कि बढिया अंग्रेजी में लेख लिखना देश की सेवा करना हैं । उन्होंने  गांधीजी से कहा, “मेरे योग्य कोई हो तो बताइये” । उनका विचार था कि गांधीजी उनसे अंग्रेजी में लेख लिखने के लिए कहेंगे, पर बात कुछ और ही हुई उस समय गांधीजी गेहूं साफ कर रहे थे । उन्होंने कहा, “वाह यह  तो बहुत अच्छी बात है ये गेहूं बीनने है आप मदद करेंगे?”

वह भाई सकपका गये अच्छा नहीं लगा, परन्तु मना भी कैसे करते! बोले, “अवश्य मदद करुंगा” । वह गेहूं बीनने लगे ऊपर से शान्त, मन में सोच रहे थे कि कहां आ फंसा! गांधीजी कैसे हैं? इतनी बढ़िया अंग्रेजी जाननेवाले से गेहूं बिनवाते हैं! किसी तरह राम-राम करके उसने घंटा पूरा किया फिर बोला, “बहुत समय हो गया, अब जाना चाहता हूं” । गांधीजी ने कहा, “बस घबरा गये?” उसने कहा, “नहीं, घबराया तो नहीं, पर घर पर जरूरी काम है” ।

गांधीजी ने पूछा, “क्या काम है?” वह भाई बोले, “जी, रात को खाने में देर हो जाती है, इससे संध्या का नाश्ता कर लेता हूं, उसी का समय हो रहा है” ।

गांधीजी हंस पड़े बोले, “इसके लिये घर जाने की जरूरत नहीं है हमारा भोजन भी बस तैयार होने वाला है ।

हमें भी एक बार अपने साथ भोजन करने का मौका दीजिये हमारी नमक-रोटी आपको पसन्द होगी न? मैं काम में लगा हुआ था आपसे बातें नहीं कर सका माफ करें,अब खाते समय बातें भी कर लेंगे”।  वह भाई क्या करते! रुकना पड़ा कुछ देर में खाने का समय हो गया भोजन एकदम सादा रूखी रोटी, चावल और दाल का पानी न घी, न अचार, न मिर्च, न मसाले।

बापू ने उन भाई को अपने पास बैठाया बड़े प्यार से खाना परोसा भोजन शुरु होते ही बातें भी शुरु हो गई, पर उन भाई की बुरी हालत थी वह ठहरे मेवा-मिठाई से नाश्ता करने वाले  और वहां थी रुखी रोटी।  एक टुकड़ा मुंह में दें और एक घूंट पानी पिये तब भी एक रोटी पूरी न खा सके ।  इतने पर भी छुट्टी मिल जाती तो गनीमत थी वहां तो अपने बरतन आप मांजने का नियम था । जैसे-तैसे वह काम भी किया तब कहीं जाकर जाने का अवसर आया ।

जाते समय गांधीजी ने उनसे कहा, “आप देश की सेवा करना चाहते हैं, यह अच्छी बात है आपके ज्ञान और आपकी सूझ-बूझ का अच्छा उपयोग हो सकता है लेकिन इसके लिए शरीर का निरोग और मजबूत होना जरूरी हैं आप अभी से उसकी तैयारी करें यही आपका देश-सेवा की ओर पहला कदम होगा”

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य ☆ आलेख ☆ जो कबिरा कासी मरै ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला  स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध। आज प्रस्तुत है डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी  की एक विचारणीय आलेख ”जो कबिरा कासी मरै“।डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी  के इस सार्थक एवं  संत कबीर जी के विभिन्न पक्षों पर विमर्श के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन।  ) 

 ☆ जो कबिरा कासी मरै ☆

कबीर की कविता अपने समय के समाज की प्राणवायु है।लेकिन आज भी वह उसी तरह बह रही है जैसी पहले बहती थी।उसकी चंदनी सुवास से आज भी वातावरण महमह महक रहा है।उसकी मूल्यगत महत्ता आज भी अप्रासंगिक नहीं हुई है।कबीर की कविता बहती हुई सरिता है,सरोवर या कूप का नीर नहीं जिसमें कालांतर में सड़न की गुंजाइश रहती है. वे संस्कृत और भाषा (हिंदी)के बहाने इस सत्य को कह भी जाते हैं-

“संसकीरत कूप जल ,भाखा बहता नीर. “

कबीर निजी जीवन में संत हैं और सामाजिक जीवन में समाज सुधारक। कुटिया के भीतर वे भले ही बहुत बडे निर्गुण संत और भक्त हैं पर उससे बाहर आते ही वे योद्धा हो जाते हैं।वे धूप-छांह वाली बदली नहीं घहरा कर बरसने वाले मेघ बन जाते हैं और भक्ति भाव की वह नदी बनकर बह उठते हैं जो केव ल भादों में ही नहीं प्यासों के लिए जेठ मास में भी बराबर बहती है-

“भक्ति भाव भादों नदी, सबै चलीं घहराय ।

सरिता सोइ सराहिये, जो जेठ मास ठहराय ॥ “

वे किसी को अतृप्त नहीं छोड़ना चाहते हैं।इसीलिए तो जेठ में भी जग को सीचने वाली नदी बने रहना चाहते हैं। इसलिए बाहर निकलते ही कभी लाठी तो कभी लुकाठा हाथ में थाम लेते हैं।कबीर उस व्यक्ति का नाम ही है जिसे खुद नहीं पता होता कि वह कब और क्या करने वाला है। लेकिन उसे हमेशा एक बात पता रहती है कि समाज की भलाई किसमे है।वह अंधेरा घिरा देखते हैं तो लुकाठा सबसे पहली अपनी ही कुटिया पर रखते हैं। उसके बाद कब किसकी कुटिया पर रख देंगे कोई नहीं जानता।वे भी नहीं जो हाथ जोडे उनके पीछे-पीछे चल पडे थे। लेकिन सबको विश्वास है कि हाथ में लुकाठा आते ही वे सच्चे पर अक्खड़ समाज चेता हो जाते हैं।जब भी और जहाँ भी खड़े होते हैं , सबको चेताते हुए चलते हैं-

“कबिरा खड़ा बजार में,लिए लुकाठा हाथ।

जो घर जारै आपना चलै हमारे साथ।।”

उन्हे खुद भी यह पता नहीं रहता है कि जब वे बाहर निकलते हैं तो उनकी भक्ति उनकी कुटिया के भीतर ही छूट जाती है।उस समय वे उस देह का ध्यान करते हैं जिस पर वस्त्र नहीं है। जिस पर वस्त्र नहीं होते उसके लिए वे लौटते ही वस्त्र बुनते हैं।वे उस वस्त्र को बुन कर नहीं छोड़ देते उसे पहनाते भी हैं ,जिसे उसकी ज़रूरत है। इसलिए कबीर जितने देह के भीतर हैं उससे अधिक वे देह के बाहर हैं।देह में होते हुए भी विदेह हैं।

कबीर सगुण की खाट खड़ी करने में माहिर हैं पर कभी-कभी खुद भी इसे गिराते हैं और उसी पर अपनी अन्मैली चदरिया बिछाकर बैठ जाते हैं।पाहन पूजने वालों को पानी पी-पकर गरियाते हैं।लेकिन खुद पाहन पूजते हैं।पर, चकिया पूजते हैं।वह इसलिए कि चकिया उपयोगी देवता है।दूसरा बेडौल हो या अति चिकना पाहन न तो उनके किसी काम का है और न उस जनता के ही लिए उपयोगी है ,जो पत्थरो के शिव्लिंग या अन्य देवी-देवताओं के सामने हाथ जोड़े खड़ी रहती है।

जहाँ पर शांति नहीं होती वहाँ वे शांति की आराधना करते हैं। उनकी नमाज़ वहीं होती है जहाँ कोई दुखियारी या दुखियारा होता है।वे उन्हें भली -भांति पता रहत है कि सबाब किसमें ज़्यादा है किसी गिरे हुए को उठाने में या नमाज़ अदा करने में। नमाज़ बाद में पढ़ते हैं। पहले तो वे गिरे हुए को उठाते हैं।ऐसे भक्त हैं वे।

कबीर को पढ़ते हुए वह युग सामने आ जाता है जब हिंदू-मुस्लिम आमने -सामने टकराते थे।लेकिन खून -खराबा शायद वैसा नहीं था जैसा सांप्रदायिक ज़हर फैलाने वाले बताते हैं।कबीर ने काशी में रहते हुए भक्ति की धारा में डुबकी लगाई।काशी विश्वनाथ के प्रांगण में ताल ठोंक कर हिंदू मुसलमान दोनों को ललकारा।यह केवल कबीर के बूते की बात थी।जब समाज को उसमें डूबते हुए देखा तो फौरन उससे बाहर आकर उन्हें चेताने लग गए। उन दिनों दोनों दीनों के लोग अपने-अपने धर्म को बेहतर बताते थे। लेकिन आज जैसा वैमनस्य उस समय शायद ही रहा हो।’ उनकी बोली-बानी और भाषा का रूप देखकर हम खुद ही अनुमान लगा सकते हैं कि यदि वे आज होते और अपने दोहे फेसबुक पर पोस्ट कर देते तो क्या उन्हें लाख-दो लाख से कम गालियां मिलतीं।हाथ कंगन को आरसी क्या पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या’ चलें लगे हाथ उदाहरण भी देख ही लेते हैं-

“कांकर ,पाथर जोरि के, मस्ज़िद लई ,बनाय ।

ता चढि मुल्ल बांग दे,क्या बहरा हुआ खुदाय।।”

हिंदुओं को भी उन्होंने आड़े हाथों लिया –

“पाहन पूजे हरि मिलै ,तो मैं पूजूं पहार ।”

उन्होंने निंदा की तो जमकर की।इसमें अपनी,अपनों या परायों की जैसी कोई सीमा रेखा ही नहीं बनाई।कबीर के अलावा और किसमें इतना साहस है कि वह निंदक को खुले हृदय से स्वीकारे।इन्होंने निंदक को स्वीकारा ही नहीं बल्कि आंगन में ही उसकी कुटी भी छवा दी।शुभ चिंतकों ने टोका तो उसके लाभ भी बता दिए और उन्हें भी अपने आंगन में ऐसा ही करने की सलाह दे डाली ,

”निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय।

बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करे सुभाय।।”

प्रशंसा की तो उसमें भी कोर कसर नहीं छोड़ी-

“लाली मेरे लाल की ,जित देखूं तित लाल।

लाली देखन मैं गई ,मैं भी हो गई लाल।।”

उन्होंने अपने लाभ के लिए कभी चाटुकारिता कभी नहीं की और किसी और को खुश करने के लिए कभी किसी अन्य की निंदा भी नहीं की । वे तो मस्तमौला थे।फक्कड़ थे।कुछ-कुछ औघड़ भी थे। मौज़ में आए तो किसी के भी चिमटा चिपका दिए और चलते बने।कोई रोया तो रुककर झाड़े तब चले।वे रमता जोगी बहता पानी थे।उन्हें रोक भी कोई कैसे सकता था।

उन्होंने कभी किसी को मझधार में नहीं छोड़ा ।वे खुद भी कभी बीच में नहीं रुके या तो इस पार या उस पार।उनकी खुद की अपनी धारा भी थी और विचारधारा भी।वे सामंजस्य के कवि थे। असमंजस के नहीं। न खुद असमंजस में रहे और न किसी को डाला। या तो खुद किनारे हो लिए या सामने वाले को किनारे कर दिया। अपनी नापसंदगी और गंदगी को कभी ढोया नहीं।जब कोई चीज़ अनावश्यक और भारी लगने लगी,उसे उतार फेंका और चलते बने।

२४ मई २०१६ को महामहिम राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी के क्वांग्चौ,चीन आगमन पर मैंने ‘इंदु संचेतना’का विशेषांक निकाला था।उसमें स्नातक चतुर्थ वर्ष की छात्रा सुश्री झांग्छिन(हिंदी नाम शांति) ने महामहिम के नाम पत्र छपने के लिए दिया।उस पत्र में उसने भारतीय साहित्य समाज और संस्कृति के प्रति युवाओं के आकर्षण का उल्लेख किया था। उसने अपने पत्र में भारत के साहित्यकारों का विशेष उल्लेख किया है।पहले हैं लेखक प्रेम चंद फिर कबीर।समाज चेता कबीर का प्रभामंडल इतना दीप्त है कि सभी उसकी रोशनी में कुछ न कुछ पढ़ ही लेते हैं।उसके पत्र का वह अंश उद्धृत कर रहा हूँ जिसमें उसने कबीर को ससम्मान उल्लिखित किया है-

“मैं चीन में गुओगडोंग यूनिवर्सिटी ओफ़ फ़ोरेन स्टाडीज़ में हिंदी का एडवांस कोर्स कर रही हूँ ।मुझे याद है कि छोटी आयु में ही मैंने प्रेमचंद की कई कहानियाँ मंडारिन (चीनी भाषा )में पढ़ी थीं।वे विलक्षण कहानियाँ इतनी रोचक लगी थीं कि मैं अब तक बिल्कुल उनमें ही मग्न रही हूँ।वास्तव में मशहूर कथाकार प्रेमचंद के अतिरिक्त और भी बहुत सारे लोकप्रिय लेखक और कवि/कवयित्रियाँ हिंदी में हैं जिन्हें हिंदी साहित्य के इतिहास में अपनी खास जगह मिली है।भक्तिकाल में कबीर सबसे अधिक प्रभावित करते हैं।खासकर अपनी बेबाक बानी के कारण भी वे मुझे सबसे अधिक प्रासंगिक लगते हैं।भारत की जाति-पांति और सांप्रदायिकता के विरुद्ध उतनी खरी बानी किसी की नहीं है जितनी कबीर की।मेरी समझ से साहित्य आईना जैसा होता है जो अपने समाज से संबंधित जाति व राष्ट्रीय निवासियों की मनः स्थिति और उनकी दशा को यथार्थपूर्ण शब्दों में प्रकट करता है।

हिंदी साहित्य से प्रेम के कारण मैं हिंदी सीखने भारत गई थी। भारत में रहते हुए उसकी सभ्यता और संस्कृति में मेरी ज़बरदस्त रुचि बढ़ गई।भारतीय शौक भी मुझे हो गए।अनेक रस्म-रिवाज़ निभाने और शौक रखने वाले भारतीय भी मुझे पसंद हैं।मुझे भारत सिर्फ एक देश भर नहीं लगा।उसका वैश्विक रूप ,अलग-अलग भाषाएँ।अलग-अलग खान-पान,रंग रूप सभी कुछ मुझे मोहता रहा है । दुनिया भर के लोगों के लिए बहुत सी सीखने लायक नयी-पुरानी चीज़ें हैं वहाँ।”

चीन के विद्यार्थी बड़े चतुर सुजान हैं। वे हमारे कवियों और लेखकों की खूबी और खामियां हमसे अधिक तर्क संगत ढंग से जानते -मानते हैं।ऊपर के अनुच्छेद में झांग्छिन जिसका हिंदी नाम शांति है ने बड़ी बेबाकी से सबसे पहले प्रेम चंद फिर कबीर का नाम लेते हुए साहित्य को समाज का दर्पण कहा है।साहित्य की बात करते हुए वह भावुक नहीं हुई है।जिन और कवि/लेखकों को उसने पढा है उनमें समाज को यह आईना दिखाने की वह ताकत उसे नहीं दिखी होगी जो इनमें दिखी।इसीलिए उसने सबसे प्रेम चंद फिर कवियों में कबीर का नाम लिया है।उसने साहित्य को जिस समाज का आईना कहा है,कबीर उसी आइने को लेकर गली -गली ,चौराहे -चौराहे सबको दिखाते घूमे हैं। यही उनकी सबसे बड़ी सामाजिक उपादेयता भी है।इसी लिए देश क्या विदेश में भी उनकी सामाजिक उपादेयता को मूल्यांकित भी किया जा रहा है।

उन्होंने अलग से रोने के लिए कोई चेले-चूले नहीं मूड़े। क्योंकि उन्हें इस बात का बिल्कुल डर नहीं था कि उनके लिए कोई रोने वाला होगा या नहीं। उलटे उन्हें यह भरोसा था कि उनके कर्म उन्हें समाज में अमर बनाए रखेंगे-

“जब आए थे जगत में ,जगत हंसा हम रोए।

ऐसी करने कर चलें,हम हंसें जग रोए।।”

उनका यह विश्वास उनके किसी भी समकालीन संत में नहीं था।फिर वे चाहे रविदास हों या नानक उनके अपने जीवन काल में ही सभी के पंथ दूर से नज़र में आने लगे थे। उनके फहराते हुए ध्वज हर आने-जाने वाले को चिल्ला-चिल्लाकर उनके पंथ बताने लगे थे। लेकिन कबीर के साथ ऐसा न था।लोग जान ही न पाते थे कि उनका पंथ क्या है?प्रेम उनका असली पंथ था।कबीर जग के भले में अपना भला समझते थे न कि केवल अपने या ध्वज के नीचे आए कुछ अपनों के मोक्ष में।इस दृष्टि से संसार उनके लिए ठीक उसी तरह मिथ्या नहीं था जैसा और संतों के लिए था। वे संसार से भी उसी तरह प्रेम करते थे जैसे खुद से और अपने खुदा से।इसलिए उन्होंने संसार और घोर संसारियों को बुरा भला कहकर भी उसी तरह गले लगाए रखा जैसे मां-बाप अपनी नादान और नालायक संतान को भी बड़े प्यार से गले लगाए रखते हैं। उन्होंने प्रेम को खानों या खांचों में भी बांटना कभी उचित नहीं समझा।उन्होंने प्रेम को बस प्रेम रहने दिया।उसमें अलग से कोई रंग नहीं मिलाया।उसे खुद भी छककर पिया और औरों को भी उसी विशुद्ध प्रेमामृत का पान कराया-

“कबिरा प्याला प्रेम का, अंतर लिया लगाय ।

रोम रोम में रमि रहा, और अमल क्या खाय ॥”

बैठ कर पुजाना पाप था उनके लिए।थकते भी नहीं थे वे।इसलिए जीवन भर चलते रहे। कुछ करने वाले को ही वे कुछ देने के पक्ष में रहते थे। अलस अकर्मा साधु या गृहस्थ उन्हें कभी नहीं रुचे। बड़े कर्मठ थे कबीर और उन्हें अपने कर्म पर अटूट भरोसा भी था। कर्म के प्रबल पक्षधर और अकर्मण्यता के धुर विरोधी थे वे।फिर वह चाहे तारने का दंभ भरने वाला भगवान ही क्यों न हो।उसको भी मुफ्त में यश देना उन्हें कभी नहीं रुचा।राम को भी काम पर लगाने के लिए उन्होंने हरी भरी काशी त्यागी और ऊसर-बांगर वाले मगहर को चल पड़े –

“जो कबिरा कासी मरै, रामै कौन निहोर।”

 

©  डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

सूरत, गुजरात

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #52 ☆ साक्षात्कार ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ अंतरराष्ट्रीय योग दिवस ☆

शुभ प्रभात। आज अंतरराष्ट्रीय योग दिवस है। योग, सनातन संस्कृति द्वारा मानवता को दिया गया सबसे बड़ा उपहार है।

योग का शाब्दिक अर्थ मेल या मिलना है। सूक्ष्म और स्थूल के मेल से देह, मन एवं चेतना को सक्रिय करने तथा सक्रिय रखने का अद्भुत साधन है योग।

यदि योग, ध्यान, प्राणायम करते हैं तो नियमित रखिए। यदि नहीं तो आज से अवश्य आरम्भ कीजिए।

अंतरराष्ट्रीय योग दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # साक्षात्कार

शाम के घिरते धुँधलके में बालकनी से सड़क की दूसरी ओर का दृश्य निहार रहा हूँ। काफी ऊँचाई पर सुदूर आकाश में दो पंछी पंख फैलाये, धीमी गति से उड़ते दिख रहे हैं। एक धीरे-धीरे नीचे की ओर आ रहा है। नीचे आने की क्रिया में पेड़ के पीछे की ओर जाकर विलुप्त हो गया। संभवत: कोई घोंसला उसकी प्रतीक्षा में है। दूसरा दूर और दूर जा रहा है, निरंतर आकाश की ओर। थोड़े समय बाद आँखों को केवल आकाश दिख रहा है।

जीवन भी कुछ ऐसा ही है। घोंसला मिलना, जगत मिलना। जगत मिलना, जन्म पाना।आकाश में ओझल होना, प्रयाण पर निकलना। प्रयाण पर निकलना, काल के गाल में समाना।

प्रकृति को निहारो, हर क्षण जन्म है। प्रकृति को निहारो, हर क्षण मरण है। प्रकृति है सो पंचमहाभूत हैं। पंचमहाभूत हैं सो जन्म है। प्रकृति है सो पंचतत्वों में विलीन होना है, पंचतत्वों में विलीन होना है सो मरण है। प्रकृति है सो पंचेंद्रियों के माध्यम से जीवनरस का पान है। जीवनरस का पान है सो जीवन का वरदान है। जन्म का पथ है प्रकृति, जीवन का रथ है प्रकृति, मृत्यु का सत्य है प्रकृति।

प्रकृति जन्म, परण, मरण है। जन्म, परण, मरण, जीव की गति का अलग-अलग भेष हैं।जन्म, परण, मरण ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैं।

ब्रह्मा, विष्णु, महेश,त्रिदेव हैं। प्रकृति त्रिदेव है। सहजता से त्रिदेव के साक्षात दर्शन कर सकते हो।

साधो! कब करोगे दर्शन?

©  संजय भारद्वाज

संध्या 7:28, 13.6.20

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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