(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “काश का आकाश…“।)
अभी अभी # 630 ⇒ काश का आकाश श्री प्रदीप शर्मा
जिस प्रकार आशा का आकाश होता है, एक आकाश काश का भी होता है। अभाव में भी सुख की अनुभूति ही काश है। हम भी अगर बच्चे होते ! हम इस उम्र में बच्चे तो नहीं बन सकते, लेकिन कल्पना में बचपन का आनंद तो ले सकते हैं। आइए, काश के सहारे ही ज़िन्दगी जी लें।
दो ही शब्द आशा के हैं, और दो ही काश के ! आशा उम्मीद है, सकारात्मकता है, एक खुला हुआ आकाश है। जब हमारी आशा निराशा में बदल जाती है, मन के आकाश में काले बादल छा जाते हैं, हम दुखी हो जाते हैं। ।
काश, यथार्थ के आगे अस्थाई आत्म – समर्पण है। बचपन में हम सोचते थे, काश बड़े होकर हमारा भी एक खुद का मकान हो, बड़ी सी कार हो। खूब पैसा हो। आज हो सकता है, हमारे पास वह सब कुछ हो, लेकिन हम काश फिर भी कुछ मांग बैठें ! काश हमें भी मन की शांति हो। कोई तो दो घड़ी हमारे पास बैठे, हमारे मन की बात सुने।
सोचिए, अगर जीवन में काश न हो तो जीवन कितना नीरस हो जाए !
कभी न कभी, कहीं न कहीं,
कोई न कोई तो आएगा।
अपना मुझे बनाएगा,
दिल से मुझे लगाएगा।
कभी न कभी
या फिर ;
दिल की तमन्ना थी मस्ती में,
मंज़िल से भी दूर निकलते।
अपना भी कोई साथी होता,
हम भी बहकते, चलते चलते। ।
काश में कोई गिला शिकवा नहीं, कोई शिकायत नहीं, एक तरह से उस ऊपर वाले से गुजारिश है। मेरी तकदीर के मालिक, मेरा कुछ फैसला कर दे। भला चाहे भला कर दे, बुरा चाहे, बुरा कर दे। कितना अफसोस होता है, जब बड़ी बड़ी इमारतें हमारी धूप खा जाती है और हम एक झोपड़ी की तरफ गिरती धूप देखकर कहते हैं, काश
यह धूप हमें भी नसीब होती।
दीवानेपन की भी हद होती है, गौर फरमाइए :
ऐ काश किसी दीवाने को,
हम से भी मोहब्बत हो जाए।
हम लुट जाएं, दिल खो जाए
बस, आज क़यामत हो जाए। ।
अब इसको आप क्या कहेंगे ;
गमे हस्ती से बस बेगाना होता
खुदाया, काश मैं दीवाना होता
ऐसा ही एक दीवानापन मुझ पर भी सवार है। काश कोई ऐसा वायरस इस दुनिया में फैल जाए कि नफ़रत इस जहान से हमेशा हमेशा के लिए अलविदा हो जाए। आमीन!
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 123 ☆ देश-परदेश – विश्व निद्रा दिवस ☆ श्री राकेश कुमार ☆
14 मार्च शुक्रवार 2025 को प्रतिवर्षानुसार संपूर्ण विश्व निद्रा दिवस मनाने की तैयारियों में लगा हुआ हैं। कुछ व्हाट्स ऐप यूनिवर्सिटी के मेधावी शोधकर्ताओं से इस बाबत चर्चा भी हुई हैं। उन सभी ने एक मत से कहा ये तो ” कुंभकरण” जोकि रावण के अनुज थे, उनके अवतरण दिवस को मनाने के लिए सैकड़ों वर्षों से आयोजित किया जाता हैं।
कुछ शोधकर्ताओं ने तो इसकी पुष्टि करते हुए ऐतिहासिक प्रमाणों की फोटो तक भी प्रेषित कर दी हैं। हम समझ गए ये त्यौहार भी हमारी प्राचीन परंपरा और संस्कृति से भी प्राचीन है, जिसको अब पूरा विश्व भी स्वीकार कर चुका हैं।
हमारे दादाश्री ने हमें भी कुंभकरण नाम से नवाजा था। घर में कोई भी परिचित या अजनबी आता तो वो हमेशा कहते थे, कुंभकरण जाओ मेहमान के लिए जल ले कर आओ।
हमारा पूरा जीवन बिना सूर्योदय देखे हुए व्यतीत हुआ है। जब सूर्य देवता दस से बारह घंटे तक उपलब्ध रहते हैं, तो दिन में कभी भी उनके दर्शन कर सकते हैं। दिन में दस बजे के बाद उठने के कुछ समय बाद हमारा प्रिय पेय ” मीठी लस्सी” है। यदि आलू के पराठे साथ में हो तो सोने पर सुहागा हो जाता है।
मीठी लस्सी ग्रहण करने के बाद तो हम चिर निद्रा के आगोश में आकर, दिन में ही तारे (सपने) देखने लग जाते हैं। आप भी प्रयास कर सकते हैं, यदि लम्बी नींद लेनी हो तो कम से कम आधा लीटर लस्सी अवश्य ग्रहण करें।
हमारे कई मित्र तो हमेशा ही नींद में रहते हैं। दिन के समय जागते हुए भी यदि आप उनसे कोई बात पूछें तो वो एकबार तो हक़ब्का जाते हैं। चाणक्य ने भी ये ही कहा था “सोते हुए मूर्ख व्यक्ति को कभी भी नहीं उठाना चाहिए”।
हम भी इस लेख से व्हाट्स ऐप और सोशल मीडिया के उन पाठकों को जागने का निरर्थक प्रयास कर रहें है, जोकि जागते हुए भी सो रहें हैं। बुरा ना माने होली है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बदलते साथी…“।)
अभी अभी # 629 ⇒ बदलते साथी श्री प्रदीप शर्मा
रेडियो सीलोन पर युगल गीतों का एक प्रोग्राम आता था, बदलते साथी। जिसमें एक मुख्य गायक होता था, और हर गीत में अन्य गायक बदलते रहते थे। अगर मुख्य गायक मुकेश है तो हर गीत में उसका साथी बदलता रहेगा, कभी लता, कभी आशा, तो कभी रफी, किशोर अथवा महेंद्र कपूर। यानी आधे घंटे के प्रोग्राम में मुकेश के सात आठ साथी बदल जाते थे।
हमारे जिंदगी के सफर में भी कितने साथी हमारे साथ चले होंगे, कुछ कुछ कदम, तो कुछ कदम से कदम मिलाकर चले, जब तक दम था, लेकिन एक दिन आखिर उनको बिछड़ना तो था ही ;
हमसफ़र साथ अपना छोड़ चले।
रिश्ते नाते वो सारे तोड़ चले। ।
आज अगर हम उन साथियों को याद करें, तो मिलने बिछड़ने की दास्तान बहुत लंबी हो जाएगी। पहले किसी की उंगली थामी, फिर मां का आंचल और पिताजी का कंधा। भाई बहन, यार दोस्त, अड़ोस पड़ोस और कामकाज के सहयोगियों का, किसका साथ हमें नहीं मिला।
वे दिन थे, जब मन में उमंग थी, उत्साह था, सब कुछ कितना खूबसूरत लगता था। शायद हमने भी कभी यह गीत अपने समय में गाया हो ;
आज मेरे संग हँस लो
तुम आज मेरे संग गा लो
और हँसते गाते इस जीवन
की उलझी राह संवारो ..
लेकिन समय का पंछी उड़ता जाए, और समय के साथ ही, मिलना बिछड़ना चला करता है। बहुत दर्द होता है, जब पुराने साथी बिछड़ते हैं, क्योंकि वह सच्चाई, ईमानदारी और भोलापन आज के रिश्तों में कहां।
मतलब की सब यारी, बिछड़े सभी बारी बारी। ।
साथी बदलते हैं, लेकिन साथ नहीं बदलता। किसी ने यूं ही नहीं कह दिया ;
जनम जनम का साथ है तुम्हारा हमारा, तुम्हारा हमारा
अगर न मिलते इस जीवन में लेते जनम दुबारा ;
दुबारा तो छोड़िए, ये साहब तो ;
सौ बार जनम लेंगे,
सौ बार फ़ना होंगे
ऐ जान-ए-वफ़ा फिर भी,
हम तुम न जुदा होंगे ..
लेकिन सच तो यही है कि हमारा सच्चा साथी और हितैषी तो केवल एक रहबर, परम पिता परमात्मा है, जो हमसे कभी जुदा नहीं होता। जिस व्यक्ति में अच्छाई है, उसमें वह सदा विराजमान है, और वही हमारा सच्चा साथी है। स्वार्थ, मतलब और सब संसारी रिश्ते तो यहीं रह जाना है। सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है, अपना तो सिर्फ उसी से याराना है। ।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 280 ☆ मिलें होली, खेलें होली…
क्यों बाहर रंग तलाशता मनुष्य/
अपने भीतर देखो रंगों का इंद्रधनुष..,
जिसकी अपने भीतर का इंद्रधनुष देखने की दृष्टि विकसित हो ली, बाहर की दुनिया में उसके लिए नित मनती है होली। रासरचैया उन आँखों में हर क्षण रचाते हैं रास, उन आँखों का स्थायी भाव बन जाता है फाग।
फाग, गले लगने और लगाने का रास्ता दिखाता है पर उस पर चल नहीं पाते। जानते हो क्यों? अहंकार की बढ़ी हुई तोंद अपनत्व को गले नहीं लगने देती। वस्तुत: दर्प, मद, राग, मत्सर, कटुता का दहन कर उसकी धूलि में नेह का नवांकुरण है होली।
नेह की सरिता जब धाराप्रवाह बहती है तो धारा न रहकर राधा हो जाती है। शाश्वत प्रेम की शाश्वत प्रतीक हैं राधारानी। उनकी आँखों में, हृदय में, रोम-रोम में प्रेम है, श्वास-श्वास में राधारमण हैं।
सुनते हैं कि एक बार राधारमण गंभीर रूप से बीमार पड़े। सारे वैद्य हार गए। तब भगवान ने स्वयं अपना उपचार बताते हुए कहा कि उनकी कोई परमभक्त गोपी अपने चरणों को धो कर यदि वह जल उन्हें पिला दे तो वह ठीक हो सकते हैं। परमभक्त सिद्ध न हो पाने भय, श्रीकृष्ण को चरणामृत देने का संकोच जैसे अनेक कारणों से कोई गोपी सामने नहीं आई। राधारानी को ज्यों ही यह बात पता लगी, बिना एक क्षण विचार किए उन्होंने अपने चरण धो कर प्रयुक्त जल भगवान के प्राशन के लिए भेज दिया।
वस्तुत: प्रेम का अंकुरण भीतर से होना चाहिए। शब्दों को वर्णों का समुच्चय समझने वाले असंख्य आए, आए सो असंख्य गए। तथापि जिन्होंने शब्दों का मोल, अनमोल समझा, शब्दों को बाँचा भर नहीं बल्कि भरपूर जिया, प्रेम उन्हीं के भीतर पुष्पित, पल्लवित, गुंफित हुआ। शब्दों का अपना मायाजाल होता है किंतु इस माया में रमनेवाला मालामाल होता है। इस जाल से सच्ची माया करोगे, शब्दों के अर्थ को जियोगे तो सीस देने का भाव उत्पन्न होगा। जिसमें सीस देने का भाव उत्पन्न हुआ, ब्रह्मरस प्रेम का उसे ही आसीस मिला।
प्रेम ना बाड़ी ऊपजै / प्रेम न हाट बिकाय/
राजा, परजा जेहि रुचै / सीस देइ ले जाय…
बंजर देकर उपजाऊ पाने का सबसे बड़ा पर्व है धूलिवंदन। शीश देने की तैयारी हो तो आओ सब चलें, सब लें प्रेम का आशीष..!
इंद्रधनुष का सुलझा गणित / रंगी-बिरंगी छटाएँ अंतर्निहित / अंतस में पहले सद्भाव जगाएँ /नित-प्रति तब होली मनाएँ।….
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री शिव महापुराण का पारायण सम्पन्न हुआ। अगले कुछ समय पटल पर छुट्टी रहेगी। जिन साधकों का पारायण पूरा नहीं हो सका है, उन्हें छुट्टी की अवधि में इसे पूरा करने का प्रयास करना चाहिए।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “परीक्षा और अग्नि परीक्षा…“।)
अभी अभी # 628 ⇒ परीक्षा और अग्नि परीक्षा श्री प्रदीप शर्मा
परीक्षा तो हम बचपन से देते आ रहे हैं। परीक्षा फल या तो पास होता है अथवा फैल। हर व्यक्ति पास नहीं होता और हर व्यक्ति फैल भी नहीं होता। सफलता और असफलता जीवन के दो आयाम हैं, जो सफल होता है, वह आगे बढ़ जाता है, और जो असफल होता है, वह थोड़ा पीछे रह जाता है। लेकिन संसार में अस्तित्व दोनों प्रकार के लोगों का हमेशा कायम रहता है, कोई जीवन में सफल है, तो कोई असफल। कोई अगर आगे बढ़ रहा है तो कोई पीछे भी छूट रहा है।
जीवन की परीक्षा में सफल होना अपने आपमें एक पुरस्कार है और असफल होना एक सबक। जो आज फैल हुआ हैं, वह कल पास भी हो सकता है।
गारंटीड सक्सेस गाइड से भी लोग जीवन में आगे बढ़े हैं और कोचिंग क्लासेस से भी। कुछ लोग परीक्षाएं पास कर करके भी जीवन में सफल नहीं हो पाए और कुछ बिना पढ़े ही बाजी मार ले गए। संभावनाओं और विसंगतियों, सफलता और असफलता का नाम ही तो जिंदगी है।।
कभी कभी हमें जीवन में अग्नि परीक्षा भी देनी पड़ती है। सीता ने भी अग्नि परीक्षा दी थी। भक्त प्रह्लाद की भी एक तरह से अग्नि परीक्षा ही तो थी। अग्नि परीक्षा में सब उत्तीर्ण नहीं होते। सुकरात और मीरा दोनों ने जहर का प्याला पीया। इतिहास में दोनों अमर हैं।
जब जब भी हम अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते हैं, वह हमारी अग्नि परीक्षा ही तो होती है। युद्ध में एक सिपाही की अग्नि परीक्षा ही तो होती है, युद्ध में जीत अगर अग्नि परीक्षा है तो युद्ध में शहीद होना भी अग्नि परीक्षा ही है। अग्नि परीक्षा में परिणाम नहीं देखा जाता, त्याग और समर्पण देखा जाता है।।
जो सच्चाई, ईमानदारी और धर्म के मार्ग पर चलते हैं, संसार उनकी अग्नि परीक्षा लेता ही रहता है।
सत्यवादी हरिश्चंद्र एक ही पैदा हुआ है, क्योंकि वह अग्नि परीक्षा में सफल हुआ। आज के युग में सत्य के मार्ग पर चलना कांटों से खेलना है। अगर आप सच के मार्ग पर निःसंकोच निडर होकर चल रहे हैं, तो मान लीजिए आप अग्नि परीक्षा ही दे रहे हैं।
झूठ फरेब, अन्याय, अत्याचार और शोषण की इस दुनिया में एक आम आदमी पल पल में अग्नि परीक्षा दे रहा है, फिर भी वह जिंदा है, क्या यह ईश्वर का चमत्कार नहीं !
आज दुनिया किताबी ज्ञान, आधुनिक विज्ञान और एक नई बीमारी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के बलबूते पर ही चल रही है। आप परीक्षाएं देते रहिए, गला काट स्पर्धा में आगे बढ़ते रहिए, सफलता के परचम गाड़ते रहिए। निश्चिंत रहिए, आपको जीवन में कोई अग्नि परीक्षा नहीं देनी। वैसे भी होती क्या है अग्नि परीक्षा, गूगल सर्च तो इसे महज एसिड टेस्ट बता रहा है। यह कलयुग है, यहां परीक्षा और अग्नि परीक्षा नहीं, डिजिटल शिक्षा होती है। वैसे डिजिटल क्राइम से बचना भी किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “रंग में भंग…“।)
अभी अभी # 627 ⇒ रंग में भंग श्री प्रदीप शर्मा
मैं रंगों की होली नहीं खेलता, और भांग नहीं पीता। मुझे रंग से परहेज है, होली से नहीं। मुझे होली से नहीं, रंग और गुलाल से एलर्जी है, एलर्जी का मतलब वही सर्दी जुकाम और सांस की शिकायत।
मैं यह भी जानता हूं कि रंग में भंग नहीं मिलाई जाती और भंग में कोई रंग नहीं मिलाया जाता, फिर भी रंग और भंग जितनी जल्दी चढ़ते हैं, उतनी जल्दी उतरते नहीं। रंग लगाते हैं और भंग को चढ़ाते हैं। ।
भंग, भांग का ही शॉर्ट फॉर्म है और इसे शिवजी की बूटी भी कहते हैं। इसे ठंडाई के साथ छाना जाता है। ठंडाई भांग नहीं होती, इसमें भाग की तरह नशा नहीं होता, लेकिन माल पड़ा होता है, जो स्वास्थ्यवर्धक होते हुए दिमाग में तरावट लाती है।
रंगों की मस्ती में अगर भंग की तरंग शामिल हो जाए, तो रंग बरसने लगता है। वैसे तो रंगों का अपना नशा होता है, जिसमें कुछ हद तक प्रेम भी शामिल होता है। किसी को रंगना आत्मिक प्रेम का प्रदर्शन भी होता है और कहीं कहीं यह केवल शारीरिक होकर ही रह जाता है। ।
जब रंग और भंग अपने शबाब पर होते हैं, तब देह अपना अस्तित्व खो देती है। अजब मस्ती का आलम होता है। चेहरे अपनी पहचान खो बैठते हैं, जिसके साथ अस्मिता और अहंकार भी कहीं दुबककर बैठ जाते हैं। छोटों बड़ों और स्त्री पुरुष का भेद भी गायब हो जाता है। इसे ही तो शायद एक रंग में रंगना कहते हैं।
वैस रंग, रंग होता है, और नशा, नशा। इन्हें एक दूसरे से दूर ही रखा जाए तो अच्छा, क्या पता, कब रंग में भंग हो जाए। भंग का रंग, और रंग में भंग हमने देखा है, और वह भी कॉलेज के दिनों में। बात बहुत पुरानी है, लेकिन यादगार है। ।
परीक्षा और होली का त्योहार सदा से साथ साथ चले आ रहे हैं। छात्र मन मसोसकर परीक्षा की तैयारी किया करते हैं, जब कि उनका मन होली खेलना चाहता है। हम भी मन मसोसकर परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, जब कि आसपास होली का माहौल था।
हमारा जमाना कंबाइंड स्टडी का था। मिल जुलकर पढ़ने से मन भी लग जाता था और परीक्षा के इम्पोर्टेंट भी हाथ लग जाते थे। मेरा कमरा तीन चार सहपाठियों और नमकीन, सेंव परमल से सुसज्जित रहता था। चाय पानी और नाश्ते के साथ हम परीक्षा की तैयारी किया करते थे। ।
एक दिन भरी दोपहर में, हमारे बड़े भाई साहब हम पढ़ाकू छात्रों पर मेहरबान हुए और हम सबके लिए मैंगो ज्यूस भिजवा दिया। वे नहीं जानते थे, ज्यूस में हल्की सी भांग मिली है। हम तो खैर अनजान थे ही, सूत गए।
इसी बीच भरी दोपहर में हमारे एक मित्र साइकिल पर तशरीफ लाए। वे हमें गलती से बुद्धिमान छात्र मानते थे, और इम्पोर्टेंट के चक्कर में बड़ी दूर से, उम्मीद लेकर आए थे। हम सब उनके इस प्रयोजन से भी अनभिज्ञ थे। ।
गर्मी के कारण उनका चेहरा लाल और तमतमाया लग रहा था। किसी मित्र ने भंग की तरंग में पूछ लिया, क्या बात है, सतीश भाई, कैसे आना हुआ। आप भी क्या चढ़ाकर आए हो। उनका गर्मी से तमतमाया चेहरा अब और लाल हो गया और वे बिना कुछ कहे, चुपचाप बिना कुछ कहे रवाना हो गए।
बात आई गई हो गई। लेकिन बाद में पता चला, वे हमारे अशिष्ट व्यवहार और हल्के मजाक से आहत होकर वापस चले गए थे। वे बड़े संजीदा और सुसंस्कृत परिवार से थे और उनको खास कर मुझसे इस तरह के व्यवहार की उम्मीद नहीं थी। परीक्षा के दिनों में कौन किसको भाग पिलाता है, और वह भी मेरे जैसा तथाकथित जिम्मेदार मित्र। ।
उनको समझाने में और सामूहिक खेद प्रकट करने में बहुत समय लगा। लेकिन बिना रंग के भी रंग में भंग हो सकता है, यह सबक हमने उन परीक्षा के दिनों में सीख ही लिया..!!
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – रंगोत्सव
होली अर्थात विभिन्न रंगों का साथ आना। साथ आना, एकात्म होना। रंग लगाना अर्थात अपने रंग या अपनी सोच अथवा विचार में किसी को रँगना। विभिन्न रंगों से रँगा व्यक्ति जानता है कि उसका विचार ही अंतिम नहीं है। रंग लगानेवाला स्वयं भी सामासिकता और एकात्मता के रंग में रँगता चला जाता है। रँगना भी ऐसा कि रँगा सियार भी हृदय परिवर्तन के लिए विवश हो जाए। अपनी एक कविता स्मरण हो आती है,
सारे विरोध उनके तिरोहित हुए,
भाव मेरे मन के पुरोहित हुए,
मतभेदों की समिधा,
संवाद के यज्ञ में,
सद्भाव के घृत से,
सत्य के पावक में होम हुई,
आर-पार अब
एक ही परिदृश्य बसता है,
मेरे मन के भावों का
उनके ह्रदय में,
उनके विचार का
मेरे मानसपटल पर
प्रतिबिंब दिखता है…!
होली या फाग हमारी सामासिकता का इंद्रधनुषी प्रतीक है। यही कारण है कि होली क्षमापना का भी पर्व है। क्षमापना अर्थात वर्षभर की ईर्ष्या मत्सर, शत्रुता को भूलकर सहयोग- समन्वय का नया पर्व आरंभ करना।
जाने-अनजाने विगत वर्षभर में किसी कृत्य से किसी का मन दुखा हो तो हृदय से क्षमायाचना। आइए, शेष जीवन में हिल-मिलकर अशेष रंगों का आनंद उठाएँ, होली मनाएँ।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री शिव महापुराण का पारायण सम्पन्न हुआ। अगले कुछ समय पटल पर छुट्टी रहेगी। जिन साधकों का पारायण पूरा नहीं हो सका है, उन्हें छुट्टी की अवधि में इसे पूरा करने का प्रयास करना चाहिए।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “फागुन मास सुहावन लागे…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
रंगों की बौछार में भींगते हुए लोग सकारात्मकता के साथ श्यामल हो जाना चाहते हैं। बरसाना, नंद गाँव, वृंदावन की बात ही क्या, यहाँ फगुआ गाते हुए भक्त लठ्ठमार होली का आनन्द भी उठाते हैं। रंगभरी ग्यारस से जो गुलाल उड़ना शुरू होता है, वो रंग पंचमी पर जाकर पूर्ण होता है …
ग्वालवाले झूम जाते, मास फागुन रंग में।
कृष्ण राधामय हुए अब, होलिका हुड़दंग में।।
धड़कनों को थाम रखते, ले गुलालन हाथ में।
रूप वृन्दावन सुहावन, गोप ग्वाले साथ में।।
संस्कारों को जीवित रखने का प्रबल माध्यम हमारे त्यौहार होते हैं जो न केवल मिलजुलकर रहना सिखाते वरन एक दूसरे का सम्मान, बड़ों का आदर, छोटों को स्नेह करना सिखाते हैं। प्राकृतिक रंगों के साथ जुड़कर अपने घरों में हरी धनिया, बथुआ,पालक, चुकंदर, गाजर, टेसू के फूल के द्वारा रंग बनाइए और उससे खेलें। आजकल तो व्यवस्थित कालोनियों में एक साथ मिलकर ,तय समय में ऐसे ही रंगो का प्रयोग हो रहा है। घर के बनें पकवान विशेषकर गुझिया, दही बड़ा, काँजी बड़ा, शक्कर पारा, सलोनी , पापड़ी, खाजा व कचौड़ियों का स्वाद इसमें चार चाँद लगा देता है।
आप सभी को होलिकोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ। रंगोत्सव में सारे भेदभाव मिटाकर एक दूसरे के अपना बनाइए तभी सच्चे मायनों में वसुधैव कुटुंबकम सार्थक होगा।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – “मुगल भारत में इसलिए स्थाई हुए क्योंकि उन्होंने भारतीय पर्वों की परवाह की…” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 341 ☆
आलेख – मुगल भारत में इसलिए स्थाई हुए क्योंकि उन्होंने भारतीय पर्वों की परवाह की… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
विवेक रंजन श्रीवास्तव
भोपाल
होली रंगों का त्योहार है। रंग खुशी के प्रतीक होते हैं। दुखद है कि आज गंगा जमनी तहजीब की बात तो होती है पर जो लोग अपने हित साधन के लिए यह बात करते हैं वे ही उस पर अमल नहीं करते। इतिहास के पन्नों में देखें तो भारत में मुसलमान केवल इसलिए यहां के निवासी बन सके क्योंकि उन्होंने हिंदुस्तान की संस्कृति को अपनाया । मुगल बादशाहों के समय में होली के त्योहार का खूब जिक्र मिलता है। इतिहास के जानकार बताते हैं कि मुगल शासन में बादशाहों को रंग से कोई परहेज नहीं था । मुगल शासन काल में मवेशी के सींगो के खोल में रंग भरकर पिचकारी के रूप में इस्तेमाल कर रंग फेंका जाता था। बादशाह जहांगीर के समय में बांस की पिचकारी बनाकर उसमें रंग भरकर वह अपने महल के दरबारी और राज्यों के साथ होली खेलते थे। यह उल्लेख साहित्य में वर्णित है। बादशाह मोहम्मद शाह के होली खेलने का जिक्र इतिहास में दर्ज है। जहांगीर काल में जहांगीर द्वारा होली खेलने की कई पेंटिंग्स आज भी मौजूद हैं। प्लास्टिक का आविष्कार मुगल शासन काल में तो नहीं हुआ था। तब बांस की पिचकारी बनाकर , या धातु की पिचकारी का उपयोग किया जाता था। ग़ुलाल और वनस्पतियों, खास कर टेसू के फूलों के रंगों को पानी में घोलकर पिचकारी में भरा जाता था। जिससे होली खेली जाती थी। यह प्रथा भारत की संस्कृति का हिस्सा है।आज भी कई ऐसे मुस्लिम परिवार हैं जो होली का त्योहार गर्व से खेलते हैं। होली को ईद e गुलाबी कहा जाता था । अकबर का जोधाबाई के साथ और जहांगीर का नूरजहां के साथ होली खेलने का वर्णन है. पत्थर के बड़े हौद में रंग बनाया जाता था। अतः आज रंग का विरोध परम्परा या सांस्कृतिक न होकर राजनैतिक अधिक दिखता है।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय एवं ज्ञानवर्धक आलेख – “हाइकु में व्यक्त भावों की अभिव्यक्ति के मूल स्वर”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 204 ☆
☆ आलेख – हाइकु में व्यक्त भावों की अभिव्यक्ति के मूल स्वर☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
हाइकु जापानी काव्य की एक संक्षिप्त किंतु प्रभावशाली विधा है, जो प्रकृति, मानवीय भावनाओं और जीवन के क्षणिक अनुभवों को 5-7-5 की वर्ण-संरचना में समेटती है। भारतीय साहित्य में हिंदी हाइकु ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है, जहाँ यह जापानी शैली से प्रेरित होकर भी भारतीय संस्कृति, संवेदनाओं और जीवन के रंगों से सरोबार है। प्रस्तुत संग्रह में विभिन्न हाइकुकारों ने अपनी रचनात्मकता और भावनात्मक गहराई से जीवन के विविध आयामों को उकेरा है। यहां हम इन सभी हाइकुओं की समीक्षा करते हुए, इनके भाव, शिल्प और संदेश को प्रस्तुत करेंगे।
हमने हाइकु का समीक्षात्मक विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए कोशिश की है कि इसमें प्रत्येक हाइकु को शामिल किया जाए। इसमें हाइकु की संक्षिप्तता और गहनता को ध्यान में रखते हुए, इनके भाव, शिल्प और संदेश को संतुलित रूप से विश्लेषित किया गया है। यह समीक्षा प्रेम, प्रकृति, जीवन, दर्शन, और सामाजिक संदर्भों के विविध पहलुओं को उजागर करती है।
~ प्रेम और व्यक्तिगत संवेदना
अनिता वर्मा ‘अन्नु’: ‘दिल में बसी/ अब होती हैं बातें/ यादों से तेरी।‘
यह हाइकु प्रेम की स्मृति और उसकी शाश्वतता को दर्शाता है। प्रिय की अनुपस्थिति में यादें संवाद का आधार बनती हैं, जो एक मार्मिक उदासी को व्यक्त करता है।
अनुपमा प्रधान: ‘वो मेरा प्यार/ न बन पाया मेरा/ रूठी किस्मत।‘
प्रेम की असफलता और भाग्य की विडंबना यहाँ प्रमुख है। “रूठी किस्मत” एक सशक्त प्रतीक है जो मानव की असहायता को रेखांकित करता है।
उषा पाण्डेय ‘कनक‘: ‘आँखों ने रोपे/ बीज, प्रेम भाव के/ दिल मुस्काये।‘
प्रेम की उत्पत्ति और उसका विकास इस हाइकु में बीज और मुस्कान के रूपक से सुंदरता से चित्रित हुआ है। यह प्रेम की सकारात्मक शक्ति को दर्शाता है।
निशा नंदिनी भारतीय: ‘तुम्हीं रोशनी/ तुमसे है जीवन/ हो अर्धांगिनी।‘
यह हाइकु दांपत्य प्रेम और जीवनसाथी के महत्व को उजागर करता है। “रोशनी” और “अर्धांगिनी” भारतीय संस्कृति में नारी की केंद्रीय भूमिका को प्रतिबिंबित करते हैं।
तपेश भौमिक: ‘तन्हाई पर/ याद आई उसकी/ वो हरजाई!‘
एकाकीपन में प्रेम की स्मृति और विश्वासघात का दर्द इस हाइकु में स्पष्ट है। “हरजाई” शब्द भावनात्मक तीव्रता को बढ़ाता है।
~ प्रकृति और ऋतु चित्रण
आशा पांडेय: ‘जाड़े की रात/ गुलजार अलाव/ कहानी झरे।‘
सर्द रात में अलाव की गर्माहट और कहानियों का प्रवाह इस हाइकु में ग्रामीण जीवन की सादगी को जीवंत करता है। “कहानी झरे” एक काव्यात्मक अभिव्यक्ति है।
आशीष कुमार मीणा: ‘नाच उठा है/ देखो मन मयूर/ भीग वर्षा में।‘
वर्षा में मन का आनंद और स्वतंत्रता का चित्रण इस हाइकु की विशेषता है। “मन मयूर” एक सुंदर रूपक है जो प्रकृति और भाव का संनाद दर्शाता है।
जीवन की जटिलता और उससे मुक्ति की असंभवता यहाँ व्यक्त हुई है। यह एक रोचक रूपक है।
राजपाल सिंह गुलिया: ‘पेड़ रो रहे/ धुआँ पीकर ही ये/ बड़े हो रहे।‘
प्रदूषण और पर्यावरण की पीड़ा का यह हाइकु मार्मिक है। “पेड़ रो रहे” संवेदनशील चित्रण है।
लाडो कटारिया: ‘एहतियात/ है कोरोना अभी भी/ चौकस रहें।‘
महामारी के प्रति सतर्कता का यह हाइकु समकालीन संदर्भ में प्रासंगिक है।
विभा रानी श्रीवास्तव: ‘पक्षी का गीत―/ वोमेरेहोंठोपर/ ऊँगलीरखे।‘
प्रकृति और मौन का यह हाइकु सूक्ष्म संवेदना को व्यक्त करता है।
विमला नागला: ‘उर मूरत/ सांवली है सूरत/ कष्ट हरता।‘
प्रिय या ईश्वर की छवि और उसकी कृपा यहाँ व्यक्त हुई है।
शेख़ शहज़ाद उस्मानी: ‘सुस्वागतम/ आइये व जाइये/ रोका किसने?’
जीवन की स्वतंत्रता और उसकी क्षणभंगुरता का यह हाइकु हल्के व्यंग्य के साथ प्रस्तुत हुआ है।
डा. सरोज गुप्ता: ‘आज मौसम/ बड़ा खुशगवार/ हो जाए मस्ती।‘
मौसम की खुशी और जीवन का आनंद यहाँ सरलता से व्यक्त हुआ है।
~ निष्कर्ष
यह हाइकु संग्रह हिंदी साहित्य में हाइकु की व्यापकता और गहराई को प्रदर्शित करता है। प्रेम, प्रकृति, परिवार, दर्शन, और सामाजिकता के विविध रंग इन रचनाओं में संक्षिप्त किंतु प्रभावशाली ढंग से उभरे हैं। प्रत्येक हाइकु अपने आप में एक संपूर्ण भाव-चित्र है, जो पाठक को सोचने और अनुभव करने के लिए प्रेरित करता है। ये रचनाएँ हाइकु की उस शक्ति को प्रमाणित करती हैं, जो कम शब्दों में गहन अर्थ समेट लेती है।