हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ मेघ-मल्हार से गूँजता जलतरंग ☆ श्रीमती समीक्षा तैलंग ☆

श्रीमती समीक्षा तैलंग

☆ मेघ-मल्हार से गूँजता जलतरंग ☆ श्रीमती समीक्षा तैलंग  ☆

कभी मस्तिष्क भी सोच में पड़ जाता है कि आज के समय में जहाँ मनुष्य धीरज खो चुका है वहीं ईश्वर ने प्रकृति को कितनी शांति और धैर्य से रचा है! मस्तिष्क के बारीक से बारीक तन्तुओं को सही जगह जोड़ने वाला और ऐसी कलाकृति को रचनेवाला रचित एकमेव है। कितना कठिन है समझना कि वो एक ही है जो शल्यकार, शिल्पकार, चित्रकार, संगीतकार आदि आदि सब कुछ है। भ्रमित मनुष्य नाहक ही अपनी पीठ थपथपाने में समय गँवाता है। वो हर उस कलाकृति का श्रेय स्वयं लेना चाहता है। मगर क्या ऐसा संभव है? क्यों नहीं समझता कि गर्भ को बनाने में मनुष्य का अंशमात्र भी योगदान नहीं है। आख़िर मनुष्य भी तो उसी प्रकृति प्रदत्त रचना का अंश भर है। ये अलग बात है कि मनुष्य की अधीरता प्रकृति की शांति खंडित कर उसे विखंडित कर रही है।

क्या मनुष्य, क्या ही बारीक से बारीक कीट से लेकर बड़े से बड़े प्राणी, पर्वत, झीलें, नदी, बर्फ, जल-थल, आकाश-पाताल, ज्वालामुखी आदि आदि का प्रणेता वही ईश्वर है। इतनी सारी ऋतुएँ। न जाने कितना गणित करके ऋतुओं में सामंजस्य बैठाया होगा। दिन-रात की व्यवस्था की होगी। सूर्य-चंद्र-नक्षत्रों का उदय-अस्त-दिशा सब कुछ तय किया होगा। क्या ही कमाल की व्यवस्था कर रखी है जिसके इशारे पर दुनिया चलती है। ये ब्रह्मांड भी गुंजायमान है। उसके स्वर धरती पर बसने वाले कुछ बेसुरों से मेल नहीं खाते। इस तरह का प्रबंधन किसी अन्य के लिए असंभव है। यह पुस्तकीय नहीं बल्कि शास्त्रीय ज्ञान है जिसे बदला नहीं जा सकता। इस असीमित ज्ञान की गंगा में जब भी गोता लगाओ तब एक नया संसार सामने आता है। यही सब विस्मित भी करता है।

वर्षा ऋतु अपने साथ केवल पानी की कुछ बूँदें ही नहीं लाती बल्कि झुलसकर उजड़ी हुई प्रकृति को पुनर्जीवित भी करती है। पुनर्जीवन की समझ विकसित करनी हो तो शव के रूप से होकर शिव का रूप समझने की शक्ति यही ऋतु देती है। अन्य किसी ऋतु में पुनर्जीवन देने की ताकत नहीं है। तभी तो यह चातुर्मास शिवकाल भी है। कण-कण में बसा शिव, प्रकृति के माध्यम से अंतर्नाद करता हुआ गुंजायमान रहता है। शिव को जल, जंगली पत्ते, जंगली फूल, धतुरा यही सब तो पसंद है। तभी तो वे सिंचाई में इतने मगन रहते हैं कि उनकी मेहनत से पूरी कायनात पर जल अभिषेक सतत होता रहता है। जाने कितनी ही औषधियाँ यही ऋतु लेकर आती है। हर पीड़ा की नाशक,,,। हर कोना हर-हर के नाद से ध्वनित हो रहा है। वो हर ही है जो शिव है और जो शिव है वही हरता है दुखों को। प्रकृति के सारे कष्टों का निवारण यही महादेव करते हैं।

ऋग्वेद के सातवें मण्डल के एक सौ सातवें सूक्त में वर्षा ऋतु का वर्णन इस प्रकार है-

गोमायुरदादजमायुरदात्पृश्निरदाद्धरितो नो वसूनि ।

गवां मण्डूका ददतः शतानि सहस्रसावे प्र तिरन्त आयुः ॥१०॥

इस सूक्त में वर्षाकाल को ‘सहस्रसाव’ कहा गया है।

जेठ की तपन से सिकुड़ती नदियाँ इस ऋतु में अपनी ओट में जल धारणकर बस बहती चलती है। नदियों की कांवर यात्रा का यह स्वरूप ही अलग है। रास्ते में पड़ने वाली शिव पिंडियों पर जलाभिषेक करते हुए आगे बढ़ती चलती हैं। पाप-पुण्य से परे दूसरों का हित ही इसका ध्येय है। ये नवयौवना अपने साथ-साथ जाने कितने लोगों को जीवनदान देने के लिए अविरत चलती जाती है। हर किसी की आत्मा तृप्त करने का भार इसे शिव ने सौंपा है। आज तक उसका पालन कर रही है। राग, लोभ, मोह, ऊँच, नीच, थकन जैसे शब्द उसकी शब्दावली में ही नहीं हैं। निश्छल होकर बहना उसका प्रारब्ध है। वो किसी में अंतर नहीं करती। भेदभाव रहित यह नदी चंचल होकर भी कितनी गहराई है उसके स्वभाव में। कोई मात्र चंचला कह भी दे तो क्या वह उससे रुष्ट होकर उस प्यासे की प्यास बुझाना बंद कर दे! उसके सौंदर्य की गाथा जितनी कहो कम है। तथापि उसकी सुंदरता उसके कर्तव्यबोध में है, उसकी उदारता में है इसलिए वह पापमोचनी भी है। उसके जैसा सहनशील होना सबके बूते की बात नहीं है। वो अपने साथ केवल पानी और मिट्टी नहीं बहाती। उसके साथ-साथ कष्ट-दुख-सुख सब बहता है।

उधर पर्वत भी क्या ही सुंदरतम होकर हृष्ट-पुष्ट हो जाते हैं। वे भी अपने पुनर्जन्म की गाथा सुनाते हैं। कितने ही सूख चुके पेड़ वापिस अपने वक्ष पर नई कोपलों के साथ जीवंत हो उठते हैं। ठूँठ दिखने वाली टहनियों पर भी जब कोपलें दिखायी देने लगती हैं तो उसका यशगान भी वही प्रकृति कर रही होती है। मेघ झुरमुट में उन पर्वत शृंखलाओं को अपनी ओट में ऐसे छुपा लेते हैं जैसे माँ अपने बच्चे को काले टीके का नज़रबट्टू लगाकर दुनियावी नकारात्मक ताक़तों से उसकी रक्षा करती है। माँ हो या बाप। जैसे हो काले विट्ठल या हो काले राम। कोई उसे बाप कहता है तो कोई माँ। उसके दोनों रूपों में जैसे कोई अंतर ही नहीं।

उसी तरह ये मेघ हैं। कितना कुछ छुपा देते हैं कि स्वर्ग की हलचल को भू और भुव पर कोई भाँप भी न सके। पर्वतों और दर्रों के बीच बसी दुनिया को ऊपर से ऐसे ढाँप लेते हैं और बहते चलते हैं जैसे ऊपर भी कोई भागीरथी बह रही हो। उसी की सहस्त्र जलधाराएँ पर्वतों के बीच ऊपर से नीचे गिरती हुई उन मेघों से ऐसे उतरती हैं मानो दूध की नदियाँ बह रही हों। कितना कारुणिक, ममत्वपूर्ण और प्रसन्न करने वाला होता है वह क्षण।

मेघों के आँचल की आड़ में पल्लवित होते पर्वत और उसके परजीव। सभी के लिए यह ऋतु एक गान है। बिजली की गर्जना और वृष्टि की समष्टि में विलीन होने की यह कोई साधारण घटना नहीं है। यह विलीन होने को प्रेरित करने वाली घटना है। अंत सबका विलीन होना ही है, यही संपूर्ण सत्य है। तभी जाकर मिट्टी की उर्वरता का लाभ अनेकानेक पीढ़ियों को होता है। यह ऋतु उनमें से एक है जो चार आश्रमों में गृहस्थ से होते हुए वानप्रस्थ को प्रस्थान करती है।

इस ऋतु के गीत को मेघों से गिरते पानी के स्वर और ताल से समझा जा सकता है। लगता है जैसे उसे ही सुनकर मेघ-मल्हार राग का जन्म हुआ होगा। स्वर भी तो प्रकृति ने ही दिये हैं। षड्ज का ‘सा’, ऋषभ का ‘रे’, गंधार का ‘ग’, मध्यम का ‘म’, पंचम का ‘प’, धैवत का ‘ध’, निषाद का ‘नी’। पानी जब मेघों से बरसता है तब धरती पर इसकी थाप इन्हीं सात सुरों में पडती है। जलतरंग का आविष्कार यहीं से हुआ होगा।

वहीं शिव का तांडवरूप नटराज भी है। नृत्य और अभिनय में नटराज का कोई सानी नहीं। धरती उनके इस नृत्य से काँपती है इसलिए उनके शांतस्वरूप के प्रति आस्था बनाये रखती है। उनसे एक नदी के रूप में गंगा के साथ सरस्वती भी है। नटराज और सरस्वती गायन, वादन, नृत्य, विद्या, अभिनय सभी के अधिष्ठाता हैं। जब कण-कण में शिव विद्यमान हैं तो यह दीक्षाएँ स्वयं ईश्वर प्रदत्त ही रहेंगी। वे स्वयं प्रकृति के रक्षक होकर इन विद्याओं के भी संरक्षक हैं। हरी-हरी धरती पर ‘हरी’ का वास है। यही श्रावण है। यही मेघों का मल्हार है।

(अहा ज़िंदगी पत्रिका में प्रकाशित…)

© श्रीमती समीक्षा तैलंग 

पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 462 ⇒ भुट्टा… (CORN)☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “भुट्टा।)

?अभी अभी # 462 ⇒ भुट्टा? श्री प्रदीप शर्मा  ?

C…O…R …N

फिल्म श्री 420 की यह पहेली तो आपने भी सुनी होगी ;

इचक दाना बिचक दाना,

दाने ऊपर दाना

छज्जे ऊपर लड़की नाचे

लड़का है दीवाना ..

द ग्रेट छलिया, आवारा राजकपूर इसी गीत में आगे फरमाते हैं ;

हरी थी, मन भरी थी

लाख मोती जड़ी थी,

राजा जी के बाग में

दुशाला ओढ़े खड़ी थी।

कच्चे पक्के बाल हैं उसके,

मुखड़ा है सुहाना

बोलो बोलो क्या ?

बुड्ढी, नहीं भुट्टा …

इचक दाना …!!

हमें भी दुशाला ओढ़े यह जीव भुट्टा नहीं भुट्टो नजर आता है, और हमारा देशभक्त दुशासन जाग जाता है। हम इसका चीरहरण शुरू कर देते हैं, दुष्ट हो अथवा दुश्मन उसके चीरहरण के वक्त तो द्वारकाधीश भी लाज बचाने नहीं आते। जब इसका वस्त्र तार तार हो जाता है, तो अंदर से बेनजीर नहीं, जुल्फिकार अली भुट्टो निकल आते हैं, हम उनकी दाढ़ी मूंछ भी नोच लेते हैं, लेकिन उसे कच्चा नहीं चबाते। हमारे भी कुछ संस्कार हैं, हम उसे भूनकर खाते हैं।

पहले तो हिंदुस्तान पाकिस्तान भी एक ही था और भुट्टे की फसल यहां से वहां तक लहराती थी। बाद में भुट्टा हमने रख लिया और भुट्टो पाकिस्तान में चला गया। आज बिलावल भुट्टो का कोई नाम लेने वाला नहीं और हम इस मौसम में हमारे भुट्टे को छोड़ने वाले नहीं।।

पता नहीं, यह देसी भुट्टा कब अमेरिका चला गया और वहां से पढ़ लिखकर अमरीकन भुट्टा बनकर भारत आ गया। हम तो बचपन से ही देसी भुट्टा खाते चले आ रहे हैं, और इधर सुना है, भुट्टे के बच्चे भी पैदा होने लग गए हैं, जिन्हें बेबी कॉर्न कहा जाने लगा है।

सब बड़े घरों के चोंचले हैं।

हमने ना तो कभी बचपन में कॉर्न फ्लेक्स खाया और ना ही स्वीट कॉर्न। हां भुट्टे के कई व्यंजन खाए हैं, मसलन भुट्टे का कीस, भुट्टे की कचोरी और भुट्टे के पकौड़े। भुट्टे के तो खैर लड्डू भी बनते हैं।।

यही दाने सूखने पर मक्का कहलाते हैं। मक्के की रोटी और सरसों का साग में अगर पंजाब की खुशबू है तो मक्के के ढोकलों में गुजरात का स्वाद। जिसे हम मक्के की धानी कहते हैं, उसे अंग्रेजी में पॉपकॉर्न कहते हैं। अगर आईनॉक्स

(INOX) मॉल में फिल्म देखने जाएं, तो नाश्ते के कॉम्बो की कीमत तीन अंकों में होती है। फिर भी लोग पॉपकॉर्न खाते हुए पॉर्न देखना पसंद करते हैं। शरीफ लोग घर पर ही हॉट कॉफी पीते हुए हॉट स्टार और नेटफ्लिक्स से काम चला लेते हैं।

इस बार पानी बाबा सावन में नहीं आए, अब भादो में ककड़ी भुट्टा साथ लाए हैं। दाने दाने पर खाने वाले का नाम लिखा है। दांत अगर अच्छे हैं, तो भुट्टे को सेंककर मुंह से खाइए और अगर दांत जवाब देने लग गए हैं तो भुट्टे का कीस, प्रेम से खाइए खिलाइए। अधिक नाजुक मिजाज लोगों के लिए कॉर्न सूप और बेबी कार्न है न।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 255 – शिवोऽहम्… (06) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 255 शिवोऽहम्… (06) ?

आत्मषटकम् के छठे और अंतिम श्लोक में आदिगुरु शंकराचार्य महाराज आत्मपरिचय को पराकाष्ठा पर ले जाते हैं।

अहं निर्विकल्पो निराकाररूपो

विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम् ।

न चासङ्गतं नैव मुक्तिर्न मेयः

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥

मैं किसी भिन्नता के बिना, किसी रूप अथवा आकार के बिना, हर वस्तु के अंतर्निहित आधार के रूप में हर स्थान पर उपस्थित हूँ। सभी इंद्रियों की पृष्ठभूमि में मैं ही हूँ। न मैं किसी वस्तु से जुड़ा हूँ, न किसी से मुक्त हूँ। मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ।

विचार करें, विवेचन करें तो इन चार पंक्तियों में अनेक विलक्षण आयाम दृष्टिगोचर होते हैं। आत्मरूप स्वयं को समस्त संदेहों से परे घोषित करता है। आत्मरूप एक जैसा और एक समान है। वह निश्चल है, हर स्थिति में अविचल है।

आत्मरूप निराकार है अर्थात  जिसका कोई आकार नहीं है। सिक्के का दूसरा पहलू है कि आत्मरूप किसी भी आकार में ढल सकता है। आत्मरूप सभी इन्द्रियों को व्याप्त करके स्थित है, सर्वव्यापी है। आत्मरूप में न  मुक्ति है, न ही बंधन। वह सदा समता में स्थित है। आत्मरूप किसी वस्तु से जुड़ा नहीं है, साथ ही किसी वस्तु से परे भी नहीं है। वह कहीं नहीं है पर वह है तभी सबकुछ यहीं है।

वस्तुतः मनुष्य स्वयं के आत्मरूप को नहीं जानता और परमात्म को ढूँढ़ने का प्रयास करता है। जगत की इकाई है आत्म। इकाई के बिना दहाई का अस्तित्व नहीं हो सकता। अतः जगत के नियंता से परिचय करने से पूर्व स्वयं से परिचय करना आवश्यक और अनिवार्य है।

मार्ग पर जाते एक साधु ने अपनी परछाई से खेलता बालक देखा। बालक हिलता तो उसकी परछाई हिलती। बालक दौड़ता तो परछाई दौड़ती। बालक उठता-बैठता, जैसा करता स्वाभाविक था कि परछाई की प्रतिक्रिया भी वैसी होती। बालक को आनंद तो आया पर अब वह परछाई को प्राप्त करना का प्रयास करने लगा। वह बार-बार परछाई को पकड़ने का प्रयास करता पर परछाई पकड़ में नहीं आती। हताश बालक रोने लगा। फिर एकाएक जाने क्या हुआ कि बालक ने अपना हाथ अपने सिर पर रख दिया। परछाई का सिर पकड़ में आ गया। बालक तो हँसने लगा पर साधु महाराज रोने लगे।

जाकर बालक के चरणों में अपना माथा टेक दिया। कहा, “गुरुवर, आज तक मैं परमात्म को बाहर खोजता रहा पर आज आत्मरूप का दर्शन करा अपने मुझे मार्ग दिखा दिया।”

आत्मषटकम् मनुष्य को संभ्रम के पार ले जाता है, भीतर के अपरंपार से मिलाता है। अपने प्रकाश का, अपनी ज्योति की साक्षी में दर्शन कराता है।

इसी दर्शन द्वारा आत्मषटकम् से निर्वाणषटकम् की यात्रा पूरी होती है। निर्वाण का अर्थ है, शून्य, निश्चल, शांत, समापन। हरेक स्थान पर स्वयं को पाना पर स्वयं कहीं न होना। मृत्यु तो हरेक की होती है, निर्वाण बिरले ही पाते हैं।

षटकम् के शब्दों को पढ़ना सरल है। इसके शाब्दिक अर्थ को जानना तुलनात्मक रूप से   कठिन। भावार्थ को जानना इससे आगे की यात्रा है,  मीमांसा कर पाने का साहस उससे आगे की कठिन सीढ़ी है पर इन सब से बहुत आगे है आत्मषट्कम् को निर्वाणषटकम् के रूप में अपना लेना। अपना निर्वाण प्राप्त कर लेना। यदि निर्वाण तक पहुँच गए तो शेष जीवन में अशेष क्या रह जाएगा? ब्रह्मांड के अशेष तक पहुँचने का एक ही माध्यम है, दृष्टि में शिव को उतारना, सृष्टि में शिव को निहारना और कह उठना, शिवोऽहम्…!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 27 अगस्त से 9 दिवसीय श्रीकृष्ण साधना होगी। इस साधना में ध्यान एवं आत्म-परिष्कार भी साथ साथ चलेंगे।💥

🕉️ इस साधना का मंत्र है ॐ कृष्णाय नमः 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 461 ⇒ दियासलाई ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दियासलाई ।)

?अभी अभी # 461 ⇒ दियासलाई? श्री प्रदीप शर्मा  ?

गुलज़ार ने पहले माचिस बनाई, फिर उससे बीड़ी जलाई और शोर मचा दिया कि जिगर में बड़ी आग है। आज रसोई में गैस लाइटर है, लेकिन भगवान की दीया बत्ती, माचिस से ही की जाती है। हम कभी माचिस को गौर से नहीं देखते। अगर घर में इन्वर्टर न हो, और लाइट चली जाए, तो नानी नहीं, माचिस की ही पहले याद आती है।

दो चकमक पत्थरों को आपस में रगड़कर पाषाण युग में अग्नि प्रज्ज्वलित की जाती थी। कुछ सूखी लकड़ियाँ भी ऐसी होती थीं, जिनके घर्षण से आग पैदा हो जाती थी। कालांतर में आग लगाने और आग बुझाने के कई साधन आ गए। पेट्रोल तो पानी में भी आग लगा देता है। लोग पहले तो नफ़रत की आग लगाते हैं, फिर प्रश्न पूछते हैं, ये आग कब बुझेगी।।

जिस तरह जहाँ धुआँ होता है, वहाँ आग होती है, उसी तरह जहाँ धूम्रपान होता है, वहाँ दियासलाई होती है। जब भी अंधेरे में माचिस की तलाश होती है, एक धूम्रपान प्रेमी ही काम आता है। वह देवानंद की फिल्मों का दौर था, और हर फिक्र को धुएँ में उड़ाने की बात होती थी, हर सिगरेट-प्रेमी के पास एक सिगरेट लाइटर होता था। अपने लाइटर से किसी की सिगरेट जलाना तहजीब का एक अनूठा नज़ारा पेश करता था। तुम क्या जानो, धूम्रपान-निषेध के मतवालों।

एक माचिस, माचिस नहीं, अगर उसमें तीली नहीं। मराठी में माचिस को आक्पेटी कहते हैं, और तीली को काड़ी ! मराठी भाषा में काड़ी के दो मतलब हैं। काड़ी का हिंदी में एक ही मतलब है, उँगली। इस मराठी वाली काड़ी से, हर आम आदमी, फुर्सत में कभी तो कान का मैल निकालता है, या फिर खाना खाने के बाद, दाँतों में फँसे हुए अन्न कण निकालता है। इसे शुद्ध हिंदी में काड़ी करना कहते हैं। जिनके दाँतों में सूराख है, उनके लिए माचिस की एक तीली किसी जेसीबी मशीन से कम नहीं। लगे रहो मुन्नाभाई।।

एक फ़िल्म आई थी दीया और तूफ़ान। उसमें सिर्फ दीये और तूफान का जिक्र था, दियासलाई का नहीं। अगर तूफान दीये को बुझा सकता है, तो एक दियासलाई दीये को वापस जला भी सकती है। कितना खूबसूरत शब्द है दियासलाई ! वह सलाई जिसने दीये को रोशनी दिखाई। दियासलाई आग नहीं लगाती, बुझते दीयों को जलाती है।

एक और सलाई होती है, जिसे दीपावली पर जलाया जाता है, उसे फुलझड़ी कहते हैं। कुछ लोग इसे दीये से जलाने की कोशिश करते हैं, फुलझड़ी तो जल जाती है, लेकिन दीया बुझ जाता है। आखिर एक फुलझड़ी की उम्र ही कितनी होती है ? नाम ही उसका फूल और झड़ी से मिलकर बना है। जवानी भी एक फुलझड़ी ही तो है, जब तक आग है, चमक है, बाद में सब धुआं धुआं। बस एक दीपक प्रेम का जलता रहे, दियासलाई में ही निहित हो, सबकी भलाई।।

जब से बिजली के उपकरण बढ़ गए हैं, केवल दीया बाती के वक्त ही माचिस की याद आती है। वे भी दिन थे, जब शाम होते ही, चिमनी और लालटेन जलाई जाती थी। बरसात में माचिस की एक बच्चे की तरह हिफ़ाजत करनी पड़ती थी। जितनी बार केरोसिन का स्टोव बुझता था, उतनी बार माचिस जलती थी। अगर माचिस नमी के कारण सील जाती तो उसे हाथ की गर्मी दी जाती थी।

एक माचिस में कितनी तीलियाँ होती हैं, उस पर लिखा हुआ होता है। जीवनोपयोगी वस्तुओं का विज्ञापन नहीं होता। टाटा ने नमक बनाया, माचिस नहीं। टाटा का, देश का, iodized नमक आज 20 ₹ का है, जब कि एक माचिस आज भी सिर्फ एक रुपए की है। हमने घोड़ा छाप माचिस देखी है। माचिस पर भी घोड़े की छाप ! अरे कोई कारण होगा।।

योग असंग्रह की बात करता है और कुछ लोगों को संग्रह का शौक होता है। स्टाम्प टिकट और खाली माचिस के संग्रह का शौक। जो जीवन में कलेक्टर, डिप्टी कलेक्टर नहीं बन पाते वे टिकट कलेक्टर बनने के बजाय स्टाम्प टिकट और कॉइन कलेक्टर बन जाते हैं। एक माचिस की तरह जुनून भी एक आग है। अच्छा शौक पालना बुरा नहीं। बुरा शौक पालना, अच्छी बात नहीं।

घर घर को रोशन करे दियासलाई ! माचिस की तरह अपनी प्रतिभा का सदुपयोग करें। मानवता प्रकाशित हो, जगमगाए ! आपकी माचिस कभी किसी की ज़िंदगी में आग न लगाए। हैप्पी दियासलाई।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #247 ☆ शिकायतें नहीं वाज़िब… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख शिकायतें नहीं वाज़िब… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 247 ☆

☆ शिकायतें नहीं वाज़िब… ☆

न जाने कौन सी शिकायतों का हम शिकार हो गये/ जितना दिल साफ रखा, उतने हम गुनहग़ार हो गये–गुलज़ार जी की यह पंक्तियाँ हमें जीवन के कटु सत्य से अवगत कराती हैं। मानव जितना छल-कपट, राग-द्वेष व स्व-पर से दूर रहेगा, लोग उसे मूर्ख समझेंगे; अकारण दोषारोपण करेंगे और उसका उपहास करेंगे–जिसका मूल कारण है आत्मकेंद्रिता का भाव अर्थात् स्व में स्थित रहना और बाह्याडंबरों में लीन न होना तथा अपने से इतर व्यर्थ की बातों का चिंतन-मनन न करना। ऐसा इंसान दुनियादारी से दूर रहता है, मानव निर्मित कायदे-कानूनों की परवाह नहीं करता तथा प्रचलित परंपराओं, मान्यताओं व अंधविश्वासों में लिप्त नहीं होता। ऐसे व्यक्ति से लोगों को बहुत-सी शिकायतें रहती हैं, जिससे उसका दूर का नाता भी नहीं होता।

वैसे भी आजकल लोग शुक्रिया कम, शिकायतें अधिक करते हैं। वैसे तो यही दुनिया का दस्तूर है। शिकायत करने से अहम् का पोषण होता है और शुक्रिया करते हुए अहम् का विगलन व विसर्जन होता है और दूसरे को महत्ता देने का भाव रहता है, जो उन्हें स्वीकार्य नहीं होता। शिकायतें न करने से दोनों पक्षों का हित होता है।

शिकायत व निंदा का निकट का संबंध है। शिकायतें आप व्यक्ति के मुख पर करते हैं और निंदा उसके पीछे करते हैं। यदि हम दोनों में भेद करना चाहें, तो शिकायतें निंदा से बेहतर हैं और उनका समाधान भी लभ्य होता है। शायद! इसलिए ही कबीर ने निंदक को अपने समीप  रखने का संदेश दिया है, क्योंकि वह आपको आपकी कमियों, दोषों व सीमाओं से अवगत कराता है तथा स्वयं से अधिक अहमियत देता है; अपना अमूल्य समय आपके हित नष्ट करता है। है ना वह आपका सबसे बड़ा हितैषी? चलिए, उसके द्वारा निर्दिष्ट सुझावों पर ध्यान दें।

शिकायतें यदि स्वार्थ हित की जाती है तो उन पर ध्यान ना देना उचित है। यदि वे वाज़िब हैं, तो उसे दूर करने का प्रयास करें। इससे आत्मविश्वास ही नहीं, परहित भी होगा। परंतु यह तभी संभव है, जब आपके हृदय में किसी के प्रति मलिनता का भाव ना हो। उसके लिए आवश्यक है, अपने हृदय को गंगा जल की भांति पावन व निर्मल रखने की। जैसे गंगाजल बरसों तक पवित्र रहता है, उसमें कोई दोष उत्पन्न नहीं होता, हमें भी स्वयं को माया-मोह के बंधनों से मुक्त रखना चाहिए। ‘ब्रह्म सत्यं, जगत मिथ्या’ को स्वीकारते हुए मानव शरीर को पानी के बुलबुले की भांति नश्वर, क्षणिक व अस्तित्वहीन स्वीकारना चाहिए और संसार को दो दिन का मेला, जहां मानव को दिव्य खुशी पाने के लिए एकांत में रहना अपेक्षित है, क्योंकि मौन हमें ऊर्जस्वित करता है।

समय नदी की भांति निरंतर गतिशील है तथा प्रकृति पल-पल रंग बदलती है। मौसम भी आते- जाते रहते हैं। इस संसार में जो भी मिला है, प्रभु का कृपा प्रसाद समझ कर स्वीकारें, क्योंकि सब यहीं छूट जाना है। ‘यह किराए का मकाँ है/  कौन तब तक ठहरेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे! खाली हाथ तू जायेगा।’  वैसे शिकायत अपनों से होती है, गैरों से नहीं, क्योंकि शिकायत का सीधा संबंध निजी स्वार्थ से होता है; दूसरों के हृदय में आपके प्रति ईर्ष्या भाव नहीं होता– क्योंकि उनका आपके साथ गहन संबंध नहीं होता। अपनों की भीड़ में अपनों को तलाशना दुनिया का सबसे कठिनतम कार्य है। अक्सर अपने ही आप पर पीछे से वार करते हैं। इसलिए मानव को यह सीख दी गई है कि ‘पीठ हमेशा पीछे से मज़बूत रखें, क्योंकि शाबाशी और धोखा दोनों पीछे से मिलते हैं।’ जो इंसान दूसरों पर अधिक विश्वास करता है, सबसे अधिक धोखे खाता है।

बहुत कमियाँ निकालते हैं हम, दूसरों में अक्सर/ आओ! एक मुलाकात हम उस आईने से भी कर लें’ अर्थात् दूसरों से शिकायतें व दोषारोपण करने से पूर्व आत्मावलोकन करना अत्यंत आवश्यक है। आईना हमें हक़ीक़त से परिचित कराता है, अपने पराये का भेद बताता है/  ज़िंदगी कहाँ रुलाती है हमें/ रुलाते तो वे लोग हैं/  जिन्हें हम अपनी/ ज़िंदगी समझ बैठते हैं। वैसे भी सुक़ून बाहर से नहीं मिलता, इंसान के अंतर्मन में बसता है। बाहर ढूंढने पर तो उलझनें ही मिलेंगी। सो! ‘उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/  बेवजह न किसी से ग़िला कीजिए।’ जी हाँ! मेरे गीत की पंक्तियाँ इसी कटु यथार्थ से परिचित कराती हैं कि जीवन में उलझनें बहुत है। परंतु हमें उनका समाधान अपने अंतर्मन में ढूँढना चाहिए, क्योंकि जब समस्या हमारे मन में है तो समाधान दूसरों के पास कैसे संभव है?

हम अपने मन के मालिक हैं और उस पर अंकुश लगा दिशा परिवर्तन कर सकते हैं। परंतु है तो यह अत्यंत कठिन, क्योंकि वह तो पल भर में तीन लोगों की यात्रा कर लौट आता है। ‘मन को मंदिर हो जाने दो/ देह को चंदन हो जाने दो/ मन में उठ रहे संशय को/ उमड़-घुमड़ कर बरस जाने दो’ स्वरचित गीत की पंक्तियाँ इसी भाव को प्रकट करती हैं। यदि मन मंदिर होगा, तो देह चंदन की भांति पावन रहेगी और मन प्रभु चरणों में समर्पित होगा। ऐसी स्थिति में संदेह, संशय व शंका के बादल बरस जाएंगे और मन उस दिशा  की ओर चल निकलेगा। ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ यदि आपका हृदय पवित्र है, तो आपको गंगा स्नान की आवश्यकता नहीं है। इसलिए इसमें दुष्भावनाओं का वास नहीं होना चाहिए। परंतु 21वीं सदी इसका अपवाद है। आजकल वही व्यक्ति दोषी ठहराया जाता है, जिसका हृदय निर्मल, निश्छल व पवित्र होता है तथा उसमें कलुषता नहीं होती। ‘शक्तिशाली विजय भव’ आज का नारा है। निर्बल पर प्रहार किए जाते हैं। वैसे तो यह युगों-युगों की परंपरा है। आइए! स्वयं को इस जंजाल से मुक्त रखें। सरल, सहज व सामान्य जीवन जीएँ। अपेक्षा व उपेक्षा से दूर रहें, क्योंकि यह संसार दु:खालय है। जीवन अनमोल है और हर पल को अंतिम जानकर जीएँ। पता नहीं, यह हंसा तब उड़ जाएगा। खाली हाथ तू आया है/ खाली हाथ तू जाएगा। ‘जितना दिल साफ रखा/ उतना हम गुनहगार हो गए।’ परंतु हमें यही सोचना है कि जीवन यात्रा बहुत छोटी है। हमें तेरी-मेरी अर्थात् निंदा-स्तुति के जाल में नहीं फँसना है ।भले ही हम पर कितने ही इल्ज़ाम लगाए जाएं। झूठ के पाँव नहीं होते और सत्य सात परर्दों के पीछे से भी उजागर हो जाता है। संघर्ष अखरता ज़रूर है, लेकिन बाहर से सुंदर व भीतर से मज़बूत बनाता है।

समय और समझ दोनों को दोनों एक साथ किस्मत वालों को मिलते हैं, क्योंकि अक्सर समय पर समझ नहीं आती और समझ आने पर समय निकल चुका होता है। सो! दस्तूर-ए- दुनिया को समझिए, पर अपने मन को मालिन मत होने दें। ‘ज़िंदगी में समझ में आ गई तो अकेले में मेला/ समझ में नहीं आई तो मेले में अकेला।’ सो! चिंतन-मनन कीजिए और प्रसन्नता के भाव से ज़िंदगी बसर कीजिए। शिकायतें तज, शुक्रिया करें और जो मिला है, उसी में संतोष से रहें। यह जीवन व समय बहुत अनमोल है, लौट कर आने वाला नहीं। हर लम्हे को अंतिम साँस तक खुशी से जी लें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 459 ⇒ एक दिन की दास्तान ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एक दिन की दास्तान।)

?अभी अभी # 459 ⇒ एक दिन की दास्तान? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हर दिन एक नया दिन होता है। अपने साथ एक नई दास्तान लेकर आता है। दुनिया भविष्य के गर्त में छुपी होती है, घटनाएँ अंजाम लेती रहती हैं। दिन परवान चढ़ता रहता है।

अभी सुबह नहीं हुई ! सूरज नहीं उगा। तारीख़ ने दस्तक देना शुरू कर दिया। कैलेंडर ने एक दिन आगे खसका दिया। आज किसी की शादी है, किसी की शादी की वर्षगाँठ है और किसी का जन्मदिन है। सबके लिए यह आज का दिन खुशियाँ लाया है। कितना अच्छा दिन है। ।

अभी आज का अखबार आपके हाथों में नहीं आया। फिर भी आप निश्चिंत हैं। सोशल मीडिया पर आज के शुभ संदेश प्रसारित होने शुरू हो गए हैं। सुविचार और मंगलकामनाएं दिन को शुभ ही बनाए रखेंगी।

आज किसी के घर शहनाई बजेगी। किसी के घर किसी बच्चे ने जन्म लिया होगा। किसी के मन की मुराद पूरी हुई होगी। किसी की नौकरी का शायद आज पहला दिन हो, कोई शायद आज अपना सेवाकाल समाप्त कर रहा हो। यह सब आज के दिन ही तो होना है। रोज यही तो होता है। यही तो इस एक दिन की दास्तान है। ।

दिन किसी के अच्छे लिए अच्छे होते हैं, तो किसी के लिए बुरे भी। बुरे दिन इतिहास में काले दिन के रूप में दर्ज़ किये जाते हैं।

9/11, 26/11 अभी गुज़रे ही हैं। दिन को सब बर्दाश्त करना पड़ता है। दिन कभी अपना चेहरा नहीं छुपाता। वह जानता है स्वर्णिम इतिहास भी वही दिन बनाता है।

आज के दिन की दास्तान अभी लिखी जाना बाकी है। हमारे चेहरे की खुशी, हमारी आशा और विश्वास आज के दिन को एक विश्वसनीय दिन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। आज के दिन की दास्तान यादगार हो। एक अच्छे दिन की शुभकामना।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 211 ☆ देखो दो दो मेघ बरसते… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना विस्तार है गगन में। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 211 ☆ देखो दो दो मेघ बरसते…

दोस्ती, रिश्ता, व्यवहार बराबरी में ही करना चाहिए। जब तक एक स्तर नहीं होगा तो विवाद खड़े होंगे। हमारे बोलचाल में अंतर होने से समझने की क्षमता भी अलग होगी। जब भी सच्चे व्यक्ति को जान बूझकर नीचे गिराने का प्रयास होगा तो दोषी व्यक्ति को ब्रह्मांडअवश्य ही दण्ड देता है।

तकदीर बदल परिदृश्य तभी

बदलेंगे क़िस्मत के लेखे।

श्रम करना होगा मनुज सभी

जब स्वप्न विजय श्री के देखे।।

पत्थरों के जुड़ने से पहाड़ बन सकता है, बूंदो के जुड़ने से समुद्र बन सकता है तो यदि हम नियमित थोड़ा – थोड़ा भी परिश्रम करें तो क्या अपनी तकदीर नहीं बदल सकते हैं। अब चींटी को लीजिए किस तरह अनुशासन के साथ क्रमबद्ध होकर असंभव को भी संभव कर देती है।

जहाँ चार बर्तन होते हैं वहाँ नोक – झोक कोई बड़ी बात नहीं। कुछ लोगों को आधी रोटी पर दाल लेने में आनंद आता है ऐसा एक सदस्य ने विवाद को बढ़ाने की दृष्टि से कहा।

तो दूसरे ने मामले को शान्त करवाने हेतु कहा – जिंदगी के हर रंगों का आनन्द लेना भी एक कला है जिसे सभी को आना चाहिए तभी जीवन की सार्थकता है।

सबसे समझदार व अनुभवी सदस्य ने कहा क्या हुआ आप प्रेम का घी और डाल दिया करिये दाल व रोटी दोनों का स्वाद कई गुना बढ़ जायेगा।

ये तो समझदारी की बातें हैं जिनको जीवन में उपयोग में लाएँ, लड़ें – झगड़े खूब परन्तु शीघ्र ही बच्चों की तरह मनभेद मिटा कर एक हो जाएँ तभी तो हम अपने भारतीय होने पर गौरवान्वित हो सकेंगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 298☆ बुंदेली बारता – हमाओ दिमाक तन्निक कुंद है बुंदेली में… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 299 ☆

? बुंदेली बारता – हमाओ दिमाक तन्निक कुंद है बुंदेली में? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

हमसै कभौं कोई कुछ कयें और हम न करें ऐसो होई न सकत. संपादक जी ने भाट्सऐप पे कई कि हमें बुंदेली में कछु लिखने ही है. काऐ से कि अभिनंदन ग्रंथ की किताब बन रई हैं बुंदेली की. अच्छो काम है, अपनी जड़ों को सींचने भोतई जरूरी और अच्छो काम है.

सो हम बुंदेली में लिखने को मन बना के बैठ तो गये, पर सच्ची कै रये, हमाओ दिमाक थोड़ो कुंद है बुंदेली में. पहले कभौं कुछ लिखोई नई हतो हमने बुंदेली में. और एक बात बतायें भले हमाई अम्मा बरी, बिजौरा, बुकनू, कचरियां बनात हैं मगर हमाए घर में हम औरें खड़ी हिन्दी में बतकई करत हैं, सो बुंदेली में लिखबे को तै करके हम बुरे फंसे. हमाओ फील्ड नई है ऐ. फिर हमने सोची कि ऐसो कौन सों अंग्रेजी में हम बड़े एक्सपर्ट हैं, पर बड़े बड़े पेपर लिखत हैं न, बोलत भी हैं, अरे दुनियां घूम आये अंग्रेजी बोल बोल के. फिर आज को जमानो तो ए आई को है, जो अगर कहीं फंसे तो इंटरनेट को आसरो है ना. तो हम कम्प्यूटर खोल के बैठ गये लिखबे को. कौनो मुस्किल नई, हम लिखहैं, आखिर हमो नरो गड़ो है न मण्डला के महलात में.

अब अगलो पाइंट जे आऔ कि आखिर लिखें तो का लिखें ? सोचे कि सबसे अच्छो ये है बुंदेली के बारे में लिख डारें. तो ऐसो है कि देस के बीचोंबीच को क्षेत्र है बुन्देलखण्ड. इते जौन लोकभाषा बोलचाल में घरबार में लोग बोलत हैं, ओही है बुंदेली. कोई लिखो भओ इतिहास नई होने से तै नई है कि बुंदेली कित्ती पुरानी बोली है. पर जे तो सौ फीसद तै है कि बुंदेली बहुतै मीठी बोली है, अरे ईमें तो गारी भी ऐसीं लगें जैसे कान में सीरा पड़ रओ. भरोसा नई हो तो कोनो सादी में बरात हो आओ. घरे पंगत में बिठाके, प्रेम से पुरी सब्जी और गुलगुले खिला खिला के ऐसी ऐसी गाली देंवे हैं लुगाईयां लम्बे लम्बे घूंघट मे कि सुन के तुम सर्मा जाओ. मगर मजाल है कि तुमे बुरो लगे. अरे ऐसी मिठास भरी संस्कृति है बुंदेली की.

हम इत्तो कै सकत हैं कि भरतमुनि के नाट्य शास्‍त्र में सोई बुंदेली बोली का उल्लेख मिलत है, मने भौतई पुरानी है अपनी बुंदेली. कहो जा सकत है कि बुंदेली की अम्मा प्राकृत शौरसेनी भाषा रई है और संस्कृत को बुंदेली के पिता कै सकत हैं. जगनिक आल्हाखंड तथा परमाल रासो प्रौढ़ भाषा की रचना कही जात हैं. जगनिक और विष्णुदास को बुंदेली के पहले कवि माने जात हैं. भारतेन्दु के टैम के लोककवि ईसुरी के रचे भये फाग गीत आज भी बुंदेलखंड में मन्डली वालों के रटे भए हैं. ईसुरी के गीतन में बुन्देली लोक जीवन की मिठास, अल्हड़ प्रेम की मादकता और रसीली रागिनी है. जे गीत तबियत तर करके मदमस्त कर देत हैं. पढ़बे बारों ने ईसुरी पर डाक्टरेट कर डारी हैं. उनके गीतन में जीवन को मनो बिग्यान, श्रंगार, समाज, राजनीति, भक्ति, योग, संयोग, वियोग, लौकिक शिक्षा, काया, माया सबै कुछ है. गांवन को बर्णन ईसुरी के फागों में कियो गओ है. मजे की बात जे है कि इत्ते पर भी बुंदेली को लिखो भओ बहुत कम है, सब याददास्त के जरिये सुनत कहत सासों से बहुओ और दादा से पोतों तक चल रओ है. बुंदेली में काम करबों को बहुत गुंजाइस है. बुंदेली में बारता मने गद्य में कम लिखो गओ है. गीत जादा हैं. फाग, गारी, बिबाह गीत, खेतन में काम करबे बकत गाने वाले गीत बगैरा बहुत हैं. जा भाषा सारे बुंदेलखंड में एकई रूप में मिलत आय. मगर बोली के कई रूप में बोलबे को लहजा जगा के हिसाब से बदलत जात है. जई से कही गई है कि कोस-कोस पे बदले पानी, गांव-गांव में बानी. जा हिसाब से बुंदेलखंड में बहुतई बोली चलन में हैं जैसे डंघाई, चौरासी पवारी, विदीशयीया( विदिशा जिला में बोली जाने वाली) बगैरा.

तो हमाओ आप सबन से हाथ जोड़ के बिनती है कि बुंदेली कि डिक्सनरी बनाई जाये, जो कहाबतें और मुहाबरे अपनी नानी दादी बोलत हैं उन्हें लिख के किताब बनाई जाए. बुंदेली गीतों को गाकर यू ट्यूब पर लोड करो जाये. जेमें अपने नाती नतरन को हम कभौं बता सकें कि हाउ स्वीट इज बुंदेली.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 458 ⇒ प्रार्थना और निवेदन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “प्रार्थना और निवेदन।)

?अभी अभी # 458 ⇒ प्रार्थना और निवेदन? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 Prayer & request

प्रार्थना समर्पण और शरणागति की वह सर्वोच्च अवस्था है, जहां अपने व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर स्वयं के कल्याण और पूरे जगत के कल्याण के लिए उस सर्वशक्तिमान घट घट व्यापक, अंतर्यामी परम पिता परमेश्वर से याचक बन कुछ मांगा जाए। जप, तप, ध्यान धारणा और समाधि से जो हासिल नहीं होता, वह केवल सच्चे मन से की गई प्रार्थना से अत्यंत सरलता से प्राप्त हो सकता है। कठिन परिस्थितियों में जब डॉक्टर भी घुटने टेक देते हैं, तो जीव के पास केवल प्रार्थना का ही सहारा होता है।

क्या प्रार्थना इतनी आसान है, कि आंख मूंदी और ॐ जय जगदीश हरे गा लिया। भक्तजनों के संकट क्षण में दूर करें, ओम् जय जगदीश हरे। पूरा चार्टर ऑफ़ डिमांड्स है इस जगदीश जी की आरती में। आरती भी तो सामूहिक प्रार्थना का ही परिष्कृत स्वरूप है।।

ईश्वर की इस सृष्टि में एक संसार हमारा भी है। हमारे परिवार के हम कर्ता हैं, हमारा घर परिवार और संसार केवल आपसी प्रेम, अपेक्षा, आग्रह, अनुनय विनय, और निवेदन से ही तो चलता है। स्कूल कॉलेज में भर्ती और रोजगार के लिए आवेदन अथवा प्रार्थना पत्र के बिना कहां काम चलता है। समय आने पर गधे को बाप भी बनाना पड़ता है, और टेढ़ी उंगली से घी भी निकालना पड़ता है।

हम पर कब किसी आदेश, निवेदन अथवा प्रार्थना का असर पड़ा है। इधर हम अपनी मनमानी कर रहे हैं और उधर भी केवल ईश्वर की ही मर्जी चल रही है। जब संसार में स्वार्थ और खुदगर्जी बढ़ जाती है तो संकट के समय में सबको खुदा याद आ जाता है। कोरोना काल में पूरा संसार ईश्वर के आगे नतमस्तक था। वही तार रहा था, और वही पार लगा रहा था।।

अपने सांसारिक स्वार्थ से ऊपर उठकर सबके कल्याण के लिए उसके दरबार में अरज लगाना ही सच्ची प्रार्थना है, अजान, अरदास है, और चित्त शुद्धि का एकमात्र उपाय है ;

गोविन्द हे गोपाल

हे गोविन्द हे गोपाल

हे दयानिधान

प्राणनाथ अनाथ सखे

दीन दर्द निवार

हे समरथ अगम्य पूरण

मोह माया धार

अंध कूप महा भयानक

नानक पार उतार।।

हे गोविन्द हे गोपाल

है गोविन्द हे गोपाल।

अब तो जीवन हारे,

प्रभु शरण हैं तिहारे ॥

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 457 ⇒ डिनर के पहले… डिनर, के बाद ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “डिनर के पहले… डिनर, के बाद।)

?अभी अभी # 457 ⇒ डिनर के पहले… डिनर, के बाद ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

Startar & dessert

जिसे हम साधारण भाषा में खाना अथवा भोजन कहते हैं, अंग्रेजों ने उसका समयबद्ध तरीके से नामकरण किया है, ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर, जिसे हम साधारण भाषा में सुबह का चाय नाश्ता, दोपहर का भोजन और रात का खाना कहते हैं। आकर्षक भाषा में इसे ही अल्पाहार, स्वल्पाहार एवं रात्रिभोज कहते हैं।

रात भर भूखे रहे, सुबह जाकर उपवास तोड़ा, इसलिए वह अंग्रेजों का ब्रेकफास्ट हुआ। देहात में तो कुल्ला, दातून के बाद ही कुछ कलेवा कर आदमी खेत खलिहान अथवा काम धंधे रोजगार पर निकल जाता था। हां एक शहरी जरूर ब्रेड बटर, पोहे, इडली, अथवा बाजार से लाए जलेबी, समोसा अथवा कचोरी खाकर स्कूल, दफ्तर अथवा कामकाज पर निकल जाता था।।

अंग्रेज जितने समय के पाबंद होते थे उतने ही खाने के भी। उनके हाथ में ही नहीं, दिमाग में भी घड़ी लगी रहती थी। ब्रेकफास्ट टाइम, लंच टाइम, टी टाइम और रात का डिनर भी घड़ी से ही होता था।

समय के साथ घर घर में डाइनिंग टेबल भी पसर गई। उसी पर सुबह का नाश्ता, बच्चों का होमवर्क, और सब्जी सुधारना भी हो जाता था। अब दिन भर डाइनिंग टेबल का अचार डालने से तो रहे, बहू के दहेज में अलमारी और ड्रेसिंग टेबल के साथ घर में डाइनिंग टेबल भी चली आई। रात को सब मिल जुलकर इसी पर डिनर भी कर लेते हैं।।

जो दिन में संभव नहीं हो, उसे रात का डिनर कहते हैं। पूरे सप्ताह काम ही काम, बस वीकेंड में ही थोड़ा आराम मिलता है। टीवी, मोबाइल और सोशल मीडिया ने पुराने सिनेमाघरों का सत्यानाश कर दिया है। सब फिल्में हॉट स्टार और नेट फ्लिक्स पर देख लो।

इसके बजाय क्यों ना रात का खाना बाहर ही खाया जाए।

पुराने जमाने के सिनेमाघरों की तरह आजकल खाने पीने की होटलें भी हाउसफुल रहने लग गई हैं, घंटों इंतजार करने के बाद अपना नंबर आता है।

अच्छी होटलों में तो दरवाजे पर सजा धजा दरबान सलाम भी करता है।।

होटलों का डिनर तो स्टार्ट ही स्टार्टर से होता है। पापड़, सलाद और सूप के अलावा चिली पनीर के कुछ टुकड़े आपकी भूख को बढ़ाने का काम करते हैं। स्प्राउट्स यानी अंकुरित अनाज भला क्यों पीछे रहे। यह अलग बात है कि हमारे जैसे लोगों का तो स्टार्टर से ही पेट भर जाता है। फिर मुख्य भोजन, जिसे मेन कोर्स कहते हैं, वह सर्व होता है।

बच्चों की दुनिया अलग ही होती है। उनको तो सिर्फ सिजलर, पास्ता, पिज्जा मंचूरियन से मतलब होता है। वैसे भी भारतीय भोजन में चाइनीज फूड का अतिक्रमण हो ही चुका है।।

कोई भी डिनर तब तक पूरा नहीं होता, जब तक कुछ डेजर्ट ना मंगवा लिए जाएं। जो मीठे के शौकीन नहीं हैं, वे आइसक्रीम, कोल्डड्रिंक अथवा फ्रूट कस्टर्ड से डिनर का समापन करते हैं। भरपेट भोजन और वह भी पूरी तरह से कैशलैस।

हुआ ना यह भी एक तरह का मुफ्त डिनर ही न..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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