हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #59 ☆ अकाल मृत्यु हरणं ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच – अकाल मृत्यु हरणं ☆

जगत सतत गतिमान है। जगत सतत परिवर्तनशील है। जो कल था, वह आज नहीं है। आज है वह कल नहीं होगा। क्षण-क्षण, हर क्षण परिवर्तन हो रहा है। यह क्षण वर्तमान है। अगले क्षण, पिछला क्षण निवर्तमान है।

उपरोक्त बिंदुओं से लगभग हर व्यक्ति शाब्दिक स्तर पर सहमत होता है। तथापि जैसे ही परिवर्तन स्वयं पर लागू करने का समय आता है वह ठिठक जाता है, ठहर जाता है। अपनी स्थिति में परिवर्तन सहजता से स्वीकार नहीं करता।

अपनी स्थिति में परिवर्तन स्वीकार न कर पाना ही जड़ता है। भौतिकविज्ञान में जड़ता का नियम है। यह नियम कहता है कि किसी वस्तु का वह गुण जो उसकी गति की अवस्था में किसी भी प्रकार के परिवर्तन का विरोध करता है, जड़त्व (इनर्शिया) कहलाता है। यदि कोई वस्तु विराम अवस्था में है तो वह विराम अवस्था में रहना चाहती है और यदि कोई वस्तु एक समान वेग से गतिशील है तो गतिशील रहना चाहती है जब तक की कोई बाह्य बल इसको अपनी अवस्था परिवर्तन के लिए विवश न कर दे।

विज्ञान, जड़त्व के तीन प्रकार प्रतिपादित करता है, 1) विराम का जड़त्व, 2) गति का जड़त्व और 3) दिशा का जड़त्व। ज्ञान अर्थात अध्यात्म जड़त्व को समग्रता से देखता है। विज्ञान नियम को स्थूल के स्तर पर लागू करता है। अध्यात्म इसे सूक्ष्म तक ले जाता है।

जड़त्व हमारे सूक्ष्म में अपनी जगह बना चुका। सास चाहती है कि कुर्सी गत बीस वर्ष से जहाँ रखी जाती है, वहाँ से इंच भर भी दायें-बायें न हिलाई जाय। बहू कुर्सी की दशा और दिशा दोनों बदलना चाहती है। समय के साथ बहू वांछित परिवर्तन कर भी लेती है। लेकिन अब उसे भी अपने कार्यकलाप और कार्यप्रक्रिया में कोई बदलाव स्वीकार नहीं। वह अब अपनी जड़ता का शिकार होने लगती है।

तन और मन में बसी जड़ता परिवर्तन नहीं चाहती। ऑफिस का समय बदल जाय तो लोग असहज होने लगते हैं। ऑफिस में उपस्थिति बायोमेट्रिक हुई तो लगे कोसने। कइयों को तो जो नया है, वह निरर्थक लगता है। कम्प्युटर आया तो मैनुअल तरीके से काम करने के पक्ष में मोर्चे निकले। मोबाइल आया तो लैंडलाइन का जमकर गुणगान करने लगे। कार्यकलाप ऑनलाइन हो चले पर परिवर्तन के विरोध ने ऑफलाइन ही बनाये रखा।

परिवर्तन का विरोध करनेवाला मनुष्य क्या सारे परिवर्तन रोक पाता है? चेहरे पर झुर्रियाँ बढ़ रही हैं। एंटी एजिंग लोशन लगा-लगाकर थक चुके। रोक लो झुर्रियाँ, रोक सकते हो तो! उम्र हाथ से सरपट फिसल रही है, थाम लो, थाम सकते हो तो! जीवन, मृत्यु की दिशा में यात्रा कर रहा है। बदल दो दिशा, बदल सकते हो तो!

वस्तुत: भीतर का भय, परिवर्तन को स्वीकार नहीं करने देता। भयभीत व्यक्ति आगे कदम नहीं उठाता। जहाँ का तहाँ खड़ा रहता है।

परिवर्तन सृष्टि का एकमात्र नियम है जो परिवर्तित नहीं होता। परिवर्तन चेतन तत्व है। चेते रहने, चैतन्य रहने के लिए परिवर्तन के साथ चलो, कालानुरूप कदमताल करो। अन्यथा काल चलता रहेगा, जड़ता का शिकार पीछे छूटता जाएगा। सृष्टि साक्षी है कि जो काल से पीछे छूटा, अकाल नाश को प्राप्त हुआ।

सनातन संस्कृति जब प्राणिमात्र के लिए ‘अकाल मृत्यु हरणं’ की कामना करती है तो जड़ता के अवसान और चैतन्य के उत्थान की बात करती है।

जड़ता को झटको। काल के अनुरूप चलो। सदा चैतन्य रहो। कालाय तस्मै नम:।

© संजय भारद्वाज

प्रात: 4:53 बजे, 23.8.20

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ जीवनसूत्र.. ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

ॐ गं गणपतये नम:।  सभी मित्रों को श्रीगणेश चतुर्थी की बधाई।

त्योहार सादगी से मनाएँ। कोरोनाकाल को दृष्टिगत रखते हुए सभी नियमों का पालन करें।

प्रार्थना है कि विघ्नहर्ता, वायरस के विघ्न को शीघ्रतिशीघ्र नष्ट करने में मनुष्य के प्रयासों को अपना आशीर्वाद प्रदान करें।

☆ संजय दृष्टि  ☆ जीवनसूत्र.. ☆

पानी उथला हो तो उछाल मारता है, गहरा मंद-मंद बहता है। मनुष्य के शरीर में लगभग 60 प्रतिशत जल होता है।

जो पिंड में, वही बिरमांड में। मनुष्य और पानी का अंतर्सम्बंध समझ लो तो जीवन को जीने का सूत्र मिल जाता है।

जीवन सूत्र है पानी।

 

©  संजय भारद्वाज 

14 जून 2020, प्रात: 9:13

# निठल्ला चिंतन

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 58 ☆ आईना झूठ नहीं बोलता ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय एवं प्रेरक आलेख आईना झूठ नहीं बोलता।  यह आलेख पढ़ करअनायास ही काजल फिल्म का कालजयी गीत ” तोरा  मन दर्पण कहलाये ” याद आ गया । इस गंभीर विमर्श  को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 58 ☆

☆ आईना झूठ नहीं बोलता

लोग आयेंगे, चले जायेंगे। मगर आईने में जो है, वही रहेगा, क्योंकि आईना कभी झूठ नहीं बोलता, सदैव सत्य अर्थात् हक़ीक़त को दर्शाता है…जीवन के स्याह व सफेद पक्ष को उजागर करता है। परंतु बावरा मन यही सोचता है कि हम सदैव ठीक हैं और दूसरों को स्वयं में सुधार लाने की आवश्यकता है। यह तो आईने की धूल साफ करने जैसा है, चेहरे को नहीं, जबकि चेहरे की धूल साफ करने पर ही आईने की धूल साफ होगी। जब तक हम आत्मावलोकन कर दोष-दर्शन नहीं करेंगे, हमारी दुष्प्रवृत्तियों का शमन कैसे संभव होगा? हम हरदम परेशान व दूसरों से अलग-थलग रहेंगे।

जीवन मेंं सदैव दूसरों का साथ अपेक्षित है। सुख बांटने से बढ़ता है तथा दु:ख बांटने से घटता है। दोनों स्थितियों में मानव को लाभ होता है। सुंदर संबंध शर्तों व वादों से नहीं जन्मते, बल्कि दो अद्भुत लोगों के मध्य संबंध स्थापित होने पर ही होते हैं। जब एक व्यक्ति अपने साथी पर अथाह, गहन अथवा अंध-विश्वास करता है और दूसरा उसे बखूबी समझता है, तो यह है संबंधों की पराकाष्ठा।

सम+बंध अर्थात् समान रूप से बंधा हुआ। दोनों में यदि अंतर भी हो, तो भी भाव-धरातल पर समता की आवश्यकता है। इसी में जाति, धर्म, रंग, वर्ण का स्थान नहीं तथा पद-प्रतिष्ठा भी महत्वहीन है। वैसे प्यार व दोस्ती तो विश्वास पर कायम रहती है, शर्तों पर नहीं। महात्मा बुद्ध का यह कथन इस भाव को पुष्ट करता है कि ‘जल्दी जागना सदैव लाभकारी होता है। फिर चाहे नींद से हो, अहं से, वहम से या सोए हुए ज़मीर से। ख़िताब, रिश्तेदारी सम्मान की नहीं, भाव की भूखी होती है…बशर्ते लगाव दिल से होना चाहिए, दिमाग से नहीं।’ सो! संबंध तीन-चार वर्ष में समाप्त होने वाला डिप्लोमा व डिग्री नहीं, जीवन भर का कोर्स है। यह अनुभव व जीने का ढंग है। सो! आप जिससे संबंध बनाते हैं, उस पर विश्वास

कीजिए। यदि कोई उसकी निंदा भी करता है, तो भी आप उसके प्रति मन में अविश्वास का भाव न पनपने दें, बल्कि संकट की घड़ी में उसकी अनुपस्थिति में ढाल बन कर खड़े रहें। लोगों का काम तो कहना होता है। वे किसी को उन्नति के पथ पर अग्रसर होते देख, केवल ईर्ष्या ही नहीं करते, उनकी मित्रता में सेंध लगा कर ही सुक़ून पाते हैं। सो! कबीर की भांति आंख मूंद कर नहीं, आंखिन देखी पर ही विश्वास कीजिए। उन्हीं के शब्दों में ‘बुरा जो ढूंढन मैं चला, मोसों बुरा न कोय।’ इसलिए अपने अंतर्मन में झांकिए, आप स्वयं में असंख्य दोष पाएंगे। दोषारोपण की प्रवृत्ति का त्याग ही आत्मोन्नति का सुगम व सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। केवल सत्य पर विश्वास कीजिए। झूठ के आवरण को हटाने के लिए चेहरे पर लगी धूल को हटाने की आवश्यकता है अर्थात् अपने अंतस की बुराइयों पर विजय पाने की दरक़ार है।

इसी संदर्भ में मैं कहना चाहूंगी कि ऐसे लोगों की ओर आकर्षित मत होइए, जो ऊंचे मुक़ाम पर पहुंचे हैं,। परंतु वे तुम्हारे सच्चे हितैषी हैं, जो तुम्हें ऊंचाई से गिरते देख थाम लेते हैं। सो! लगाव दिल से होना चाहिए, दिमाग़ से नहीं। जहां प्रेम होता है, तमाम बुराइयां, अच्छाइयों में परिवर्तित हो जाती हैं तथा अविश्वास के दस्तक देते व अच्छाइयां लुप्तप्राय: हो जाती हैं। त्याग व समर्पण का दूसरा नाम दोस्ती है। इसमें दोनों पक्षों को अपनी हैसियत से बढ़ कर समर्पण करना चाहिए। अहं इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। ईगो अर्थात् अहं तीन शब्दों निर्मित है, जो रिलेशनशिप अर्थात् संबंधों को ग्रस लेता है। दूसरे शब्दों में एक म्यान में दो तलवारें नहीं समा सकतीं। संबंध तभी स्थायी अथवा शाश्वत बनते हैं, जब अहं, राग-द्वेष व स्व-पर का भाव नहीं होता।

सो! जिससे बात करने में खुशी दुगुन्नी तथा दु:ख आधा रह जाए, वही अपना है, शेष तो दुनिया है, जो तमाशबीन होती है। वैसे भी अहंनिष्ठ लोग समझाते अधिक व समझते कम हैं। इसलिए अधिकतर मामले सुलझते कम, उलझते अधिक हैं। यदि जीवन को समझना है, तो पहले मन को समझो, क्योंकि जीवन हमारी सोच का साकार रूप है। जैसी सोच, वैसा जीवन। इसलिए कहा जाता है कि असंभव दुनिया में कुछ नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोचते हैं। इसलिए कहा जाता है, मानव असीम शक्तियों का पुंज है। स्वेट मार्टन के शब्दों में ‘केवल विश्वास ही एकमात्र ऐसा संबल है, जो हमें अपनी मंज़िल तक पहुंचा देता है।’ सो! विश्वास के साथ-साथ लगन व्यक्ति से वह सब करवा लेती है, जो वह नहीं कर सकता। साहस व्यक्ति से वह सब कराता है, जो वह कर सकता है। किन्तु अनुभव व्यक्ति से वह कराता है, जो उसे करना चाहिए। इसलिए अनुभव की भूमिका सबसे अहम् है, जो हमें गलत दिशा की ओर जाने से रोकती है और साहस व लग्न अनुभव के सहयोगी हैं।

परंतु पथ की बाधाएं हमारे पथ की अवरोधक हैं … कोई निखर जाता है, कोई बिखर जाता है। यहां साहस अपना चमत्कार दिखाता है। सो! संकट के समय परिवर्तन की राह को अपनाना चाहिए। तूफ़ान में कश्तियां/ अभिमान में हस्तियां/ डूब जाती हैं/ ऊंचाई पर वे पहुंचते हैं/ जो प्रतिशोध के बजाय/ परिवर्तन की सोच रखते हैं। सो! अहंनिष्ठ मानव पल भर मेंं अर्श से फ़र्श पर आन गिरता है। इसलिए ऊंचाई पर पहुंचने के लिए मन में प्रतिशोध का भाव न पनपने दें, क्योंकि इसका जन्म ईर्ष्या व अहं से होता है। आंख बंद करने से मुसीबत टल नहीं जाती और मुसीबत आए बिना आंख नहीं खुलती। जब तक हम अन्य विकल्प के बारे में सोचते नहीं, नवीन रास्ते नहीं खुलते। इसलिए मुसीबतों का सामना करना सीखिए। यह कायरता है, पराजय है। ‘डू ऑर डाई, करो या मरो’ जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। कौन कहता है आकाश में छेद हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो। दुनिया में असंभव कुछ भी नहीं। अक्सर मानव को स्वयं स्थापित मील के पत्थरों को तोड़ने में बहुत आनंद आता है। सो थक कर राह में विश्राम मत करो और न ही बीच राह से लौटने का मन बनाओ। मंज़िल बाहें पसारे आपकी राह तकेगी। स्वर्ग-नरक की सीमाएं निश्चित नहीं हैंं, हमारे कार्य-व्यवहार ही उन्हें निर्धारित करते हैं।

श्रेष्ठता संस्कारों से प्राप्त होती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। जिसने दूसरों के दु:ख में दु:खी होने का हुनर सीख लिया, वह कभी दुखी नहीं हो सकता। ‘ज़रा संभल कर चल/ तारीफ़ के पुल के नीचे से/  मतलब की नदी बहती है।’ इसलिए प्रशंसकों से सदैव दूरी बना कर रखनी चाहिए, क्योंकि ये उन्नति के पथ में अवरोधक होते हैं। इसलिए कहा जाता है, घमंड मत कर ऐ दोस्त/ अंगारे भी राख बनते हैं। इसलिए संसार में इस तरह जीओ कि कल मर जाना है। सीखो इस तरह, जैसे आपको सदैव जीवित रहना है। शायद इसलिए ही थमती नहीं ज़िंदगी किसी के बिना/  लेकिन यह गुज़रती भी नहीं/ अपनों के बिना। सो क़िरदार की अज़मत को न गिरने न दिया हमने/  धोखे बहुत खाए/ लेकिन धोखा न दिया हमने। इसलिए अंत में मैं यही कहना चाहूंगी, आनंद आभास है/  जिसकी सबको तलाश है/ दु:ख अनुभव है/ जो सबके पास है। फिर भी ज़िंदगी में वही कामयाब है/ जिसे खुद पर विश्वास है। इसलिए अहं नहीं, विश्वास रखिए। आपको सदैव आनंद की प्राप्ति होगी। रास्ते अनेक होते हैं। निश्चय आपको करना है कि आपको किस ओर जाना है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 11 ☆ व्यावहारिक ज्ञान की कमी बच्चों की सबसे बड़ी कमजोरी ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  व्यावहारिक ज्ञान की कमी बच्चों की सबसे बड़ी कमजोरी)

☆ किसलय की कलम से # 11 ☆

☆ व्यावहारिक ज्ञान की कमी बच्चों की सबसे बड़ी कमजोरी ☆

जिस ज्ञान का उपयोग दैनिक जीवन में किया जाता हो, दिनचर्या का जो विशेष अंग हो। वार्तालाप और कार्य करते समय जिस ज्ञान से आपकी सकारात्मक छवि का पता चले, वही व्यावहारिक ज्ञान है। बच्चों के क्रियाकलाप, आचार-विचार, बड़ों के प्रति श्रद्धा व सम्मान इसी व्यावहारिक ज्ञान की परिणति होते हैं। दो-तीन पूर्व-पीढ़ियों से मानव समाज में व्यवहारिकता लगातार कम होती जा रही है। आदर, सम्मान, परमार्थ, सद्भाव, भाईचारा, मित्रता, दीन-दुखियों की सेवा जैसे गुणों की कमी स्पष्ट दिखाई देने लगी है। शिक्षा प्रणाली, अर्थ-महत्ता, सामाजिक व्यवस्था व हमारे बदलते दृष्टिकोण भी इसके महत्त्वपूर्ण कारक हैं। आज गुरुकुल प्रथा लुप्त हो गई है, जहाँ बच्चों को भेजकर उन्हें शिक्षा के अतिरिक्त व्यावहारिक ज्ञान, आचार-विचार, आदर-सम्मान, परिश्रम, आत्मनिर्भरता, विनम्रता, चातुर्य, अस्त्र-शस्त्र विद्या, योग-व्यायाम के साथ-साथ भावी जीवन के उच्च आदर्शों को भी सिखाया जाता था। संयुक्त परिवार में बड़े-बुजुर्ग अपने अनुभव व ज्ञान के सूत्र संतानों को बताया करते थे। बच्चों के हृदय में झूठ, घमण्ड, ईर्ष्या, अनादर, असभ्यता का कोई स्थान नहीं होता था। न ही कोई उन्हें ऐसे कृत्यों हेतु बढ़ावा दे सकता था। व्यावहारिक ज्ञान के एक उदाहरण को तुलसीदास जी प्रस्तुत करते हैं-

प्रातकाल उठि कै रघुनाथा #

मात, पिता, गुरु नावहिं माथा

ऐसी एक नहीं असंख्य जीवनोपयोगी बातें हैं, जिन्हें बच्चे बचपन में ही हृदयंगम कर लेते थे। ऐसे संस्कारित बच्चों को देखकर घर आये मेहमान तक उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने से स्वयं को रोक नहीं पाते थे। ये वही सद्गुण थे जो उनके द्वारा जीवनपर्यंत व्यवहार में लाए जाते थे। बच्चों को सत्य-असत्य, घृणा-प्रेम, छल-निश्छल का अंतर बचपन में ही समझा दिया जाता था। उन्हें इस तरह से संस्कारित किया जाता था कि वे सदैव सकारात्मकता की ओर अग्रसर हों और प्रायः होता भी यही था। तभी तो उस काल के समाज में झूठ, आडंबर, छल, द्वेष, निरादर के आज जैसे उदाहरण कम दिखाई देते थे। धीरे-धीरे जब हम अधिक स्वार्थी, चतुर और चालाक होते गए तो उसी अनुपात में मानवीय आदर्श भी हमसे शनैःशनैः दूर होने लगे। हमारे द्वारा किये जा रहे निम्न स्तरीय व्यवहार व कृत्य हमारी संतानों को भी विरासत में मिल ही रहे हैं। आजकल जब हम स्वयं अपनी संतानों के मन में झूठ, अनैतिकता, भ्रष्टाचार, अवसरवादिता आदि अवगुणों को सुभाषितों जैसे रटाते हैं, तब हम कल्पना तो कर ही सकते हैं कि बच्चों में किन संस्कारों अथवा कुसंस्कारों की बहुलता होगी। कुछ अपवाद छोड़ भी दिए जाएँ तो हम पाएँगे कि आजकल अधिकांश घरों में पहुँचते ही संबंधित व्यक्ति को छोड़कर परिवार के अधिकांश सदस्य किनारा कर लेते है, अभिवादन की बात तो बहुत दूर की है। उस परिवार के बच्चों को चरण स्पर्श करना, नमस्ते करना जब सिखाया ही नहीं गया होता तो वे करेंगे ही क्यों? कारण यह भी है कि ऐसा न करने पर उनके माता-पिता तक उन्हें ऐसा करने हेतु नहीं कहते। वहीं आप पिछली सदी की ओर मुड़कर देखें और स्मरण कर स्वयं से पूछें-  क्या आप घर आए मेहमान को यथोचित अभिवादन नहीं करते थे? उनके स्वागत-सत्कार में नहीं लग जाते थे? यदि पहले आप अपने से बड़ों का आदर करते थे, तो आज आप अपने बच्चों में वैसे ही श्रेष्ठ संस्कार क्यों नहीं डालते? यह भी एक चिंतन का विषय है। क्या आपको परंपराओं व संस्कारों के लाभ ज्ञात नहीं हैं, या फिर अभी तक आप भेड़-चाल ही चल रहे हैं। अपने घर या समाज में देखा कि वह किसी ऋषि-मुनियों या बुजुर्गों के पैर छूता है, तो मैं भी पैर छूने लगा। पूरे विश्व को विदित है कि हमारी भारतीय संस्कृति एवं अधिकांश परंपराओं के अनेकानेक लाभ हैं। आपके द्वारा चरणस्पर्श करने से क्या आप में विनम्रता का गुण नहीं आता? क्या अहंकार का भाव कम नहीं होता? परसेवा से आपके हृदय को जो शांति मिलती है, क्या वह आपने अनुभव नहीं की? कभी भूखे को भोजन, प्यासे को पानी, बेसहारा को सहारा, बीमार की तीमारदारी अथवा भटक रहे व्यक्ति को सकुशल गंतव्य तक पहुँचाने पर मिली आत्मशांति को पुनः स्मृत नहीं किया। आज भी आप इन हीरे-मोतियों से भी बहुमूल्य ‘गुणरत्नों’ से अपने अंतर्मन का श्रृंगार कर सकते हैं। आज जब सारे विश्व का परिदृश्य बदल रहा है, मानवीय मूल्यों का क्षरण हो रहा है। अपने बड़े-बुजुर्ग ही स्वयं को उपेक्षित महसूस करने लगे हैं तब हम सभी को अपनी जान से प्यारी संतानों के लिए यही सब सिखाने का बीड़ा तो उठाना ही पड़ेगा। इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहा जाएगा कि हम स्वयं ही आज अपनी संतानों को अवगुणों की भट्टी में झोंकने पर तुले हैं।

बड़ी ग्लानि व दुख होता है आज की अधिकतर संतानों को देखकर, जो भौतिक सुख-समृद्धि व स्वार्थ की चाह में अपना दुर्लभ मानव जीवन अर्थ और स्वार्थ में व्यर्थ गँवा रहे हैं। महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि अब इन अनभिज्ञ बच्चों को व्यावहारिक ज्ञान समझाने के लिए न ही कोई गुरुकुल बचे हैं और न ही उनके आजा-आजी, नाना-नानी या चाचा-चाची उनके पास होते हैं। आजकल माता-पिता की व्यस्त दिनचर्या के चलते बच्चों को शिक्षा और संस्कार देने वाले मात्र वैतनिक शिक्षक होते हैं। उनमें से बहुतायत में वे लोग शिक्षा देने का दायित्व सम्हाले हुए हैं जिन्हें स्वयं न ही व्यावहारिक, न ही शैक्षिक और न ही नैतिक ज्ञान का पूर्व अनुभव होता है। आप स्वयं पता लगा सकते हैं कि केवल आम डिग्रियों के आधार पर ही अन्य  पदों की तरह शिक्षक पद की पात्रता सुनिश्चित कर दी जाती है। क्या ‘गुरु के वास्तविक पद’ के अनुरूप आज के शिक्षक कहीं दिखाई देते हैं? समाज में ऐसी ही विसंगतियों व कमियों के चलते आज आदर्श और समर्पित शिक्षकों की महती आवश्यकता महसूस की जाने लगी है। घर में भी माता-पिता और बुजुर्गों द्वारा अपने बच्चों को व्यावहारिक ज्ञान और संस्कार देने की भी जरूरत है। अब भी यदि ऐसा नहीं होता, तो आगे क्या होगा आप-हम स्वयं अनुमान लगा सकते हैं।

हमें बच्चों में जीवनोपयोगी कहानियों, कविताओं, सद्ग्रंथों व अपने व्यवहार से उनमें यथासंभव सकारात्मकता के बीज रोपने होंगे, तभी हमारे बच्चे सुसंस्कारित हो पाएँगे, हमारा समाज सुधर पायेगा और तब जाकर ही वे परिस्थितियाँ निर्मित होंगी जब शिक्षकों तथा आपका दिया गया व्यावहारिक ज्ञान समाज में बदलाव लाने हेतु सक्षम हो सकेगा।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 39 – बापू के संस्मरण-13- मरने के लिए अकेला आया हूँ …… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – मरने के लिए अकेला आया हूं ……”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 39 – बापू के संस्मरण – 13 – मरने के लिए अकेला आया हूँ  …… 

 

चम्पारन बिहार में है । वहां गांधीजी ने सत्याग्रह की एक शानदार लड़ाई लड़ी थी। गोरे वहां के लोगों को बड़ा सताते थे। नील की खेती करने के कारण वे निलहे कहलाते थे । उन्हीं की जांच करने को गांधीजी वहां गये थे । उनके इस काम से जनता जाग उठी । उसका साहस बढ़ गया, लेकिन गोरे बड़े परेशान हुए वे अब तक मनमानी करते आ रहे थे । कोई उनकी ओर उंगली उठाने वाला तक न था। अब इस एक आदमी ने तूफान खड़ा कर दिया. वे आग-बबूला हो उठे।

इसी समय एक व्यक्ति ने आकर गांधीजी से कहा,`यहां का गोरा बहुत दुष्ट है।वह आपको मार डालना चाहता है। इस काम के लिए उसने हत्यारे भी तैनात कर दिये हैं।’

गांधीजी ने बात सुन ली।

उसके बाद एक दिन, रात के समय अचानक वह उस गोरे की कोठी पर जा पहुंचे। गोरे ने उन्हें देखा तो घबरा गया। उसने पूछा,`तुम कौन हो? गांधीजी ने उत्तर दिया, मैंमोहन दास करम चंद  गांधी हूं ।’ वह गोरा और भी हैरान हो गया । बोला, `गांधी! `हां मैं गांधी ही हूं. गांधीजी ने उत्तर दिया, `सुना है तुम मुझे मार डालना चाहते हो । तुमने हत्यारे भी तैनात कर दिये हैं ।’

गोरा सन्न रह गया जैसे सपना देख रहा हो। अपने मरने की बात कोई इतने सहज भाव से कह सकता है!

वह कुछ सोच सके, इससे पहले ही गांधीजी फिर बोले, `मैंने किसी से कुछ नहीं कहा. अकेला ही आया हूं । बेचारा गोरा! उसने डर को जीतने वाले ऐसे व्यक्ति कहां देखे थे!

वह आगे कुछ भी नहीं बोल सका ।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ पुनर्पाठ – ‘अ’ से अटल ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ पुनर्पाठ – ‘अ’ से अटल ☆

(आज अटल जी की द्वितीय पुण्यतिथि है। गतवर्ष उनके महाप्रयाण पर उद्भूत भावनाएँ साझा कर रहा हूँ।)

अंततः अटल जी महाप्रयाण पर निकल गये। अटल व्यक्तित्व, अमोघ वाणी, कलम और कर्म से मिला अमरत्व!

लगभग 15 वर्षों से सार्वजनिक जीवन से दूर, अनेक वर्षों से वाणी की अवरुद्धता, 93 वर्ष की आयु में देहावसान और तब भी अंतिम दर्शन के लिए जुटा विशेषकर युवा जनसागर। ऋषि व्यक्तित्व का प्रभाव पीढ़ियों की सीमाओं से परे होता है।

हमारी पीढ़ी गांधीजी को देखने से वंचित रही पर हमें अटल जी का विराट व्यक्तित्व अनुभव करने का सौभाग्य मिला। इस विराटता के कुछ निजी अनुभव मस्तिष्क में घुमड़ रहे हैं।

संभवतः 1983 या 84 की बात है। पुणे में अटल जी की सभा थी। राष्ट्रीय परिदृश्य में रुचि के चलते इससे पूर्व विपक्ष के तत्कालीन नेताओं की एक संयुक्त सभा सुन चुका था पर उसमें अटल जी नहीं आए थे।

अटल जी को सुनने पहुँचा तो सभा का वातावरण देखकर आश्चर्यचकित रह गया। पिछली सभा में आया वर्ग और आज का वर्ग बिल्कुल अलग था। पिछली सभा में उपस्थित जनसमूह में मेरी याद में एक भी स्त्री नहीं थी। आज लोग अटल जी को सुनने सपरिवार आए थे। हर परिवार ज़मीन पर दरी बिछाकर बैठा था। अधिकांश परिवारों में माता,पिता, युवा बच्चे और बुजुर्ग माँ-बाप को मिलाकर दो पीढ़ियाँ अपने प्रिय वक्ता को सुनने आई थीं। हर दरी के बीच थोड़ी दूरी थी। उन दिनों पानी की बोतलों का प्रचलन नहीं था। अतः जार या स्टील की टीप में लोग पानी भी भरकर लाए थे। कुल जमा दृश्य ऐसा था मानो परिवार बगीचे में सैर करने आया हो। विशेष बात यह कि भीड़, पिछली सभा के मुकाबले डेढ़ गुना अधिक थी। कुछ देर में मैदान खचाखच भर चुका था। सुखद विरोधाभास यह भी कि पिछली सभा में भाषण देने वाले नेताओं की लंबी सूची थी जबकि आज केवल अटल जी का मुख्य वक्तव्य था। अटल जी के विचार और वाणी से आम आदमी पर होने वाले सम्मोहन का यह मेरा पहला प्रत्यक्ष अनुभव था।

उनकी उदारता और अनुशासन का दूसरा अनुभव जल्दी ही मिला। महाविद्यालयीन जीवन के जोश में किसी विषय पर उन्हें एक पत्र लिखा। लिफाफे में भेजे गये पत्र का उत्तर पोस्टकार्ड पर उनके निजी सहायक से मिला। उत्तर में लिखा गया था कि पत्र अटल जी ने पढ़ा है। आपकी भावनाओं का संज्ञान लिया गया है। मेरे लिए पत्र का उत्तर पाना ही अचरज की बात थी। यह अचरज समय के साथ गहरी श्रद्धा में बदलता गया।

तीसरा प्रसंग उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद का है। बस से की गई उनकी पाकिस्तान यात्रा के बाद वहाँ की एक लेखिका अतिया शमशाद ने प्रचार पाने की दृष्टि से कश्मीर की ऐवज़ में उनसे विवाह का एक भौंडा प्रस्ताव किया था। उपरोक्त घटना के संदर्भ में तब एक कविता लिखी थी। अटल जी के अटल व्यक्तित्व के संदर्भ में उसकी कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं-

मोहतरमा!
इस शख्सियत को समझी नहीं
चकरा गई हैं आप,
कौवों की राजनीति में
राजहंस से टकरा गई हैं आप..।

कविता का समापन कुछ इस तरह था-

वाजपेयी जी!
सौगंध है आपको
हमें छोड़ मत जाना,
अगर आप चले जायेंगे
तो वेश्या-सी राजनीति
गिद्धों से राजनेताओं
और अमावस सी व्यवस्था में
दीप जलाने
दूसरा अटल कहाँ से लाएँगे..!

राजनीति के राजहंस, अंधेरी व्यवस्था में दीप के समान प्रज्ज्वलित रहे भारतरत्न अटलबिहारी वाजपेयी जी अजर रहेंगे, अमर रहेंगे!

©  संजय भारद्वाज 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #58 ☆ 15 अगस्त के सूर्योदय पर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच –15 अगस्त के सूर्योदय पर ☆
आज 15 अगस्त का सूर्योदय होने को है। 15 अगस्त यानि हमारी राजनीतिक स्वतंत्रता का दिन, स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में भारत के उदय का दिन। स्वतंत्रता, व्यक्ति और देश के प्रवास और विकास में महती भूमिका निभाती है। सहज है कि इसका उत्सव मने।

दुखद और विसंगत स्थिति यह है कि एक वर्ग 15 अगस्त को ‘फलां देश में ये है, फलां देश में ये है जबकि इस देश में…’ ( मानो वह इस देश का नागरिक न हो) जैसी अव्यवहार्य तुलना से हीनभावना का शिकार हो रहा होता है। अपने ही देश की खामियों को इंगित करने वाली कविताओं की 15 अगस्त और 26 जनवरी के आसपास सोशल मीडिया पर बाढ़ आ जाती है। जैसे हमारा देश दुनिया का ऐसा टापू हो जिसे सूर्य ने छुआ न हो और सब तरफ अंधेरा पसरा हो।

किसी भी देश की व्यवस्था में चाहे वह कितना ही उन्नत क्यों न हो, कुछ कमियाँ अवश्य होती हैं। दुनिया को सबसे ज़्यादा  हथियार बेचने वाला महाशक्ति अमेरिका, हथियारों के  जंजाल में ऐसा फँसा है कि उसके विद्यालयों में उसीके छात्र, लाइसेंसशुदा बंदूकों से एक-दूसरे का रक्त बहा रहे हैं और व्यवस्था लाचार है। इसी तरह किसी देश की, चाहे वह कितना ही पिछड़ा हुआ क्यों न हो, कुछ अच्छाइयाँ अवश्य होती हैं।  पाकिस्तान जैसे पिछड़े देश में सड़क दुर्घटना या भावावेश में हुए कुछ अपराधों में पीड़ित पक्ष को परस्पर सहमति के आधार पर  ‘एलिमनी’ या हर्जाना देकर अपराध से मुक्त होने का प्रावधान है। पीढ़ियों के वैमनस्य और अनंत न्यायिक प्रक्रिया से तो कुछ मायनों में यह बेहतर है।

खामियाँ गिनाने से नहीं, उसके लिए साधे जाने वाले समय से असहमति है। 364 दिन दरकिनार कर  एक दिन ही देश की कमियाँ याद आना क्या इंगित करता है? सनद रहे कि सोहर के समय मर्सिया नहीं बाँचा जाता।

स्वाधीनता दिवस सोहर गाने का दिन है। इस सोहर के नए बोल प्रसिद्ध साहित्यकार अमृता प्रीतम ने लिखे थे। अमृता ने विदेश से इमरोज़ को लिखे ख़त में कहा था, ”यदि एक वाक्य में बताना हो कि मेरी ज़िंदगी में तुम्हारी अहमियत क्या है तो मैं कहूँगी- इमरोज़, तू 15 अगस्त है मेरी ज़िंदगी की।”

15 अगस्त यानि स्वाधीन देश में  वैचारिक स्वाधीनता के उन्मुक्त गगन में विचरण कर सकने के अधिकार पर अधिकृत मोहर। एक व्यक्ति से कहा गया कि कल्पना करो कि तुम रोटी और प्याज खा रहे हो। उसने कहा, कल्पना ही करनी है तो मैं पूड़ी और राजभोग की करुँगा। ‘मेन इज़ अ प्रॉडक्ट ऑफ हिज़ थॉट्स।’ देश के नागरिकों की जो सोच होगी, वही देश की सोच बनेगी। युद्ध के मैदान में सेना की टुकड़ी के हर जवान की सोच होती है कि सबसे पहले देश, सबसे अंत में मैं। यही सोच मनोबल बढ़ाती है, लक्ष्य को बेधती है, सेना को अजेय बनाती है। सेना की टुकड़ी एक उदाहरण है। इस मॉडेल को देश पर लागू करने में आने वाली कठिनाइयाँ गिनाना इसका हल नहीं है। कठिनाइयाँ कहाँ नहीं हैं? अपने कलेजे के टुकड़े को ममत्व से स्तनपान कराने वाली माँ को भी बच्चे के काटने से कठिनाई है। घर्षण न हो तो वाहन चलाने में कौनसा कौशल बचा रहेगा? गुरुत्वाकर्षण न हो तो आकाश में उड़ने का साहस किस काम का रहेगा?  कठिनाई न होगी तो पराक्रम का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा। पराक्रम से ही मिलती है स्वाधीनता।

स्वाधीनता दिवस देश की आबादी का सामूहिक जन्मदिन है। आइए, सामूहिक जन्मोत्सव मनाएँ, सबको साथ लेकर मनाएँ। इस अनूठे जन्मोत्सव का सुखद विरोधाभास यह कि जैसे-जैसे एक पीढ़ी समय की दौड़ में पिछड़ती जाती है, उस पीढ़ी के अनुभव से समृद्ध होकर देश अधिक शक्तिशाली और युवा होता जाता है।

देश को निरंतर युवा रखना देशवासी का धर्म और कर्म दोनों हैं। चिरयुवा देश का नागरिक होना सौभाग्य और सम्मान की बात है। हिंद के लिए शरीर के हर रोम से, रक्त की हर बूँद से ‘जयहिंद’ तो बनता ही है।

जयहिंद!

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ पुनर्पाठ – आज़ादी मुबारक ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ पुनर्पाठ – आज़ादी मुबारक ☆

(15 अगस्त 2016 को लिखा संस्मरण)

मेरा कार्यालय जिस इलाके में है, वहाँ वर्षों से सोमवार की साप्ताहिक छुट्टी का चलन है। दुकानें, अन्य व्यापारिक प्रतिष्ठान, यों कहिए  कमोबेश सारा बाजार सोमवार को बंद रहता है। मार्केट के साफ-सफाई वाले कर्मचारियों की भी साप्ताहिक छुट्टी इसी दिन रहती है।

15 अगस्त को सोमवार था। स्वाभाविक था कि सारे  छुट्टीबाजों के लिए डबल धमाका था। लॉन्ग वीकेंड वालों के लिए तो यह मुँह माँगी मुराद थी।

किसी काम से 15 अगस्त की सुबह अपने कार्यालय पहुँचा। हमारे कॉम्प्लेक्स का दृश्य देखकर सुखद अनुभूति हुई।  रविवार के आफ्टर इफेक्ट्स झेलने वाला हमारा कॉम्प्लेक्स कामवाली बाई की अनुपस्थिति के चलते अमूमन सोमवार को अस्वच्छ रहता है है। आज दृश्य सोमवारीय नहीं था। पूरे कॉम्प्लेक्स में झाड़ू- पोछा हो रखा था। दीवारें भी स्वच्छ! पूरे वातावरण में एक अलग अनुभूति, अलग खुशबू।

पता चला कि कॉम्प्लेक्स में काम करनेवाली बाई सीताम्मा, सुबह जल्दी आकर पूरे परिसर को झाड़-बुहार गई है। लगभग दो किलोमीटर पैदल चलकर काम करने आनेवाली इस निरक्षर लिए 15 अगस्त किसी तीज-त्योहार से बढ़कर था। तीज-त्योहार पर तो बख्शीस की आशा भी रहती है, पर यहाँ तो बिना किसी अपेक्षा के अपने काम को राष्ट्रीय कर्तव्य मानकर अपनी साप्ताहिक छुट्टी छोड़ देनेवाली इस  सच्ची नागरिक के प्रति गर्व का भाव जगा। छुट्टी मनाते सारे बंद ऑफिसों पर एक दृष्टि डाली तो लगा कि हम तो  धार्मिक और राष्ट्रीय त्योहार केवल पढ़ते-पढ़ाते रहे, स्वाधीनता दिवस को  राष्ट्रीय त्योहार, वास्तव में सीताम्मा ने  ही समझा।

आज़ादी मुबारक सीताम्मा, तुम्हें और तुम्हारे जैसे असंख्य कर्मनिष्ठ भारतीयों को!

सभी मित्रों को, भारत के हम सब नागरिकों को देश के स्वाधीनता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।

©  संजय भारद्वाज 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 14 – व्ही शांताराम-1 ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : व्ही शांताराम पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 14 ☆ 

☆ व्ही शांताराम…1 ☆

शांताराम राजाराम वनकुर्डे जिन्हें व्ही शांताराम या शांताराम बापू या अन्ना साहब के नाम से भी जाना जाता है का जन्म 18 नवम्बर 1901 को कोल्हापुर रियासत के ख़ास कोल्हापुर में हुआ था। वे हिंदी-मराठी फ़िल्म निर्माता, और अभिनेता के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने ड़ा कोटनिस की अमर कहानी, झनक-झनक पायल बाजे, दो आँखें बारह हाथ, नवरंग, दुनिया न माने, और पिंजरा जैसी अमर फ़िल्म बनाईं थीं।

डॉ. कोटनीस की अमर कहानी हिंदी-उर्दू के साथ-साथ अंग्रेजी में निर्मित 1946 की भारतीय फिल्म है। इसकी पटकथा ख़्वाजा अहमद अब्बास ने लिखी है और इसके निर्देशक वी शांताराम थे। अंग्रेजी संस्करण का शीर्षक “द जर्नी ऑफ डॉ. कोटनीस” था। दोनों ही संस्करणों में वी शांताराम डॉ॰कोटनीस की भूमिका में थे। फिल्म एक भारतीय चिकित्सक द्वारकानाथ कोटनीस के जीवन पर आधारित है, जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध में जापानी आक्रमण के दौरान चीन में अपनी सेवाएँ दी थीं।

फिल्म ख्वाजा अहमद अब्बास की कहानी “एंड वन डिड नॉट कम बैक” पर आधारित थी, जो खुद भी डॉ.द्वारकानाथ कोटनीस के बहादुर जीवन पर आधारित है। डा. कोटनीस को द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान येनान प्रांत में जापानी आक्रमण के खिलाफ लड़ने वाले सैनिकों को चिकित्सा सहायता प्रदान करने के लिए चीन भेजा गया था। चीन में रहते हुए उन्होंने जयश्री द्वारा अभिनीत एक चीनी लड़की चिंग लान से मुलाकात की। उनकी मुख्य उपलब्धि एक विपुल प्लेग का इलाज ढूँढना थी, लेकिन बाद में वे स्वयं इससे ग्रस्त हो गए। वे एक जापानी पलटन द्वारा पकड़े भी गए, किंतु वहाँ से भाग निकले। आखिरकार बीमारी ने उनकी जान ले ली।

व्ही शांताराम कोल्हापुर में बाबूराव पेंटर की महाराष्ट्र फ़िल्म कम्पनी में फुटकर काम करते थे। उन्हें 1921 में मूक फ़िल्म “सुरेखा हरण” में सबसे पहले काम करने का अवसर मिला। उन्होंने महसूस किया कि फ़िल्म सामाजिक बदलाव का सशक्त माध्यम हो सकता है। उन्होंने एक तरफ़ मानवता और मानव के भीतर अंतर्निहित अच्छाइयों को सामने लाते  हुए अन्याय और बुराइयों का प्रतिकार प्रस्तुत किया, वहीं संगीत के प्रभाव से मनोरंजन का संसार रचा। सात दशक तक उनकी फ़िल्म संसार में सक्रियता रही। उनमें संगीत की समझ थी इसलिए वे संगीतकारों से विचारविमर्श करके कलाकारों से कई बार रिहर्सल करवाते थे। चार्ली चैप्लिन ने उनकी मराठी फ़िल्म मानूस की प्रशंसा की थी

उन्होंने विष्णुपंत दामले, के.आर. धैबर, एस. फट्टेलाल और एस. बी. कुलकर्णी के साथ मिलकर 1929 में प्रभात फ़िल्म कम्पनी बनाई जिसने नेताजी पालेकर फ़िल्म का निर्माण किया और 1932 में “अयोध्याचे राजा” फ़िल्म बनाई। उन्होंने 1942 में प्रभात फ़िल्म कम्पनी छोड़कर राजकमल कलामंदिर की स्थापना की, जो कि अपने समय का सबसे श्रेष्ठ स्टूडियो था।

शांताराम की सृजनात्मकता उनके प्रेम प्रसंगों और उनकी तीन शादियों से जुड़ी थी। उन्होंने 1921 में पहली शादी अपने से 12 साल छोटी विमला बाई से की थी। उनका पहला विवाह उनके बाद के दो विवाहों के वाबजूद पूरे जीवन चला, पहली शादी से उनके चार बच्चे हुए। प्रभात, सरोज, मधुरा और चारूशीला। मधुरा का विवाह प्रसिद्ध संगीतज्ञ पंडित जसराज से हुआ था।

शांताराम की एक  नायिका जयश्री कमूलकर थी, जिनके साथ उन्होंने कई मराठी फ़िल्म और एक हिंदी फ़िल्म शकुंतला की थी, दोनों ने प्रेम में पड़ कर 22 अक्टूबर 1941 को शादी कर ली। जयश्री से उनको तीन बच्चे हुए, मराठी फ़िल्म निर्माता किरण शांताराम, राजश्री (फ़िल्म हीरोईन) और तेजश्री। शांताराम ने राजश्री को बतौर हीरोईन और जितेंद्र को हीरो के रूप में  साथ-साथ “गीत गाया पत्थरों में” अवसर दिया था।

दो आँखे बारह हाथ, झनक-झनक पायल बाजे, जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली, सेहरा और नवरंग की नायिका संध्या के साथ काम करते-करते शांताराम और संध्या में प्रेम हो गया तो 1956 में उन्होंने शादी कर ली।

जब “झनक-झनक पायल बाजे” और “दो आँखे बारह हाथ” बन रही थी तब शांताराम के पास के सभी आर्थिक संसाधन चुक गए इसलिए उन्होंने विमला बाई और जयश्री से उनके ज़ेवर गिरवी रखकर बाज़ार से धन लेने माँगे। विमला बाई ने तुरंत अपने ज़ेवर निकालकर दे दिए, संध्या ने शांताराम की प्रेमिका और फ़िल्म की नायिका होने के नाते भी शांताराम के माँगे बिना अपने सभी ज़ेवर शांताराम को सौंप दिए लेकिन जयश्री ने अपने ज़ेवर दुबारा माँगने पर भी नहीं दिए। इस बात को लेकर शांताराम और जयश्री के सम्बंधों में खटास पड़ गई। जयश्री को जब बाद में संध्या द्वारा दिए गए ज़ेवरों के बारे में पता चला तो उसने कुछ ज़ेवर उसे देना चाहे लेकिन संध्या ने यह कहकर कि उसने ज़ेवर पहनना छोड़ दिया है, ज़ेवर लेने से मना कर दिया।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री कृष्ण जन्माष्टमी विशेष ‘संजय उवाच’ – कृष्णनीति ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”)

☆ श्री कृष्ण जन्माष्टमी विशेष ‘संजय उवाच’ – कृष्णनीति ☆

जीवन अखंड संघर्ष है। इस संघर्ष के पात्रों को प्रवृत्ति के आधार पर दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है, भाग लेनेवाले और भाग लेनेवाले। एक संघर्ष में भाग लेता है, दूसरा संघर्ष से भाग लेता है। बिरला कोई रणनीतिकार होता है जो भाग लेने के लिए सृष्टि के हित में भाग लेता है। ऐसा रणनीतिकार कालजयी होता है। ऐसा रणनीतिकार संयोग से नहीं अपितु परम योग से बनता है। अत: योगेश्वर कहलाता है।

योगेश्वर श्रीकृष्ण के वध के लिए जरासंध ने  कालयवन को भेजा। विशिष्ट वरदान के चलते कालयवन को परास्त करना सहज संभव न था। शूरवीर मधुसूदन युद्ध के क्षेत्र से कुछ यों निकले कि कालयवन को लगा, वे पलायन कर रहे हैं। उसने भगवान का पीछा करना शुरू कर दिया।

कालयवन को दौड़ाते-छकाते श्रीकृष्ण उसे उस गुफा तक ले गए जिसमें ऋषि मुचुकुंद तपस्या कर रहे थे। अपनी पीताम्बरी ऋषि पर डाल दी। उन्माद में कालयवन ने ऋषिवर को ही लात मार दी। विवश होकर ऋषि को चक्षु खोलने पड़े और कालयवन भस्म हो गया। साक्षात योगेश्वर की साक्षी में ज्ञान के सम्मुख  अहंकार को भस्म तो होना ही था।

कृष्ण स्वार्थ के लिए नहीं सर्वार्थ के लिए लड़ रहे थे। यह ‘सर्व’ समष्टि से तात्पर्य रखता है। यही कारण था कि रणकर्कश ने समष्टि के हित में रणछोड़ होना स्वीकार किया।

भगवान भलीभाँति जानते थे कि आज तो येन केन प्रकारेण वे असुरी शक्ति से लोहा ले लेंगे पर कालांतर में जब वे पार्थिव रूप में धरा पर नहीं होंगे और इसी तरह के आक्रमण होंगे तब प्रजा का क्या होगा? ऋषि मुचुकुंद को जगाकर कृष्ण आमजन में अंतर्निहित सद्प्रवृत्तियों को जगा रहे थे, किसी कृष्ण की प्रतीक्षा की अपेक्षा सद्प्रवृत्तियों की असीम शक्ति का दर्शन करवा रहे थे।

स्मरण रहे, दुर्जनों की सक्रियता नहीं अपितु सज्जनों की निष्क्रियता समाज के लिए अधिक घातक सिद्ध होती है। कृष्ण ने सद्शक्ति की लौ समाज में जागृत की।

प्रश्न है कि कृष्णनीति की इस लौ को अखंड रखने के लिए हम क्या कर रहे हैं? हमारी आहुति स्वार्थ के लिए है या सर्वार्थ के लिए? विवेचन अपना-अपना है, निष्कर्ष भी अपना-अपना ही होगा।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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