हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ असम की आहोम जनजाति ☆ – सुश्री निशा नंदिनी 

सुश्री निशा नंदिनी 

☆ असम की आहोम जनजाति ☆

(आज प्रस्तुत है सुदूर पूर्व  भारत की प्रख्यात  लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी जी का आलेख। यह आलेख असम की आहोम जनजाति जो कि मूल रूप से ताई जाति से संबद्ध हैं के बारे में बेहद रोचक  जानकारी  प्रदान करता है । )  

अहोम लोग मूल रूप से ताई जाति के लोग हैं। असम में आने के बाद से ही उन्हें आहोम नाम से संबोधित किया गया। इन लोगों का मूल निवास स्थान चीन के दक्षिण पश्चिम अंचल, वर्तमान में  यूनान प्रांत के मूंगमाउ राज्य में था। इन लोगों को ताई लोगों के बीच बड़े गुट के तौर पर जाना जाता है। इन लोगों के पूर्वज 13वीं शताब्दी में चुकाफा राजा के नेतृत्व में पाटकाई पर्वत पार कर पूर्वी असम या तत्कालीन सौमार में आए और राज्य की स्थापना की। बाद में धीरे धीरे पश्चिम की तरफ मनाह तक राज्य का विस्तार कर 600 वर्षों से अधिक समय तक राज्य का शासन किया। इन लोगों की भाषा ताई या शान थी। लेकिन कालक्रम में विभिन्न वजहों से खास तौर पर राज्य विस्तार के साथ देश की जनसंख्या में वृद्धि होने पर प्रजा की सुविधा के बारे में सोच कर उन लोगों ने अपनी भाषा की जगह असमीया भाषा को स्वीकार कर लिया। लेकिन प्राचीन पूजा पाठ, रीति नीति संबंधी समस्त कार्य उनके पंडित पुरोहित ताई भाषा में ही करते रहे और आज भी कर रहे हैं। इसी तरह राज्य के कार्य में भी 18 वीं शताब्दी तक आहोम भाषा का प्रचलन था। वर्तमान समय में ताई भाषा बोलने वाले लोगों कीसंख्या

पूर्वोत्तर भारत के असम से लेकर म्यांमार, दक्षिण चीन, थाईलैंड, लाओस, कंबोडिया, वियतनाम तक फैल गई है। आहोम के अलावा असम में खामती, फाके, खामयांग, आइतन और तुकंग नामक पांच ताई जनगोष्ठीयों के लोग रहते हैं। सन 2012-14 के सर्वेक्षण के अनुसार वर्तमान समय में आहोम लोगों की जनसंख्या लगभग 25 लाख है।

वर्तमान समय में उनका निवास स्थान चराईदेव, शिवसागर, डिब्रूगढ़, जोरहाट, गोलाघाट, लखीमपुर, धेमाजी और तिनसुकिया जिले में है। इसके अलावा गुवाहाटी सहित अन्य शहरों में भी काफी मात्रा में आहोम  लोग रहते हैं। इनकी मुख्य जीविका शालि धान की खेती थी। इसके साथ ही वे गाय, भैंस, सूअर, बकरी, मुर्गी का पालन भी करते थे। आजकल काफी लोगों ने जीव जंतु पालना छोड़ दिया है। पुरुष रेशम के कीट का पालन करते हैं और महिलाएं एंडी, मुगा, रेशम कीट का पालन करती हैं। सूत कातकर घर में ही वे जरुरी कपड़े का इंतजाम करती हैं। साग सब्जी की बाड़ी, केले सुपारी का बगीचा, एक लकड़ी की बाड़ी (घर) आहोम लोगों के निवास स्थान का स्वाभाविक मंजर होता है। जिनके पास जमीन है वे घर के परिसर में ही खेती करते हैं। वर्तमान समय में चाय की खेती भी कर रहे हैं।

पहले ये लोग मचान घर में रहते थे। जिनके खंभे लकड़ी के और दीवारें बांस की होती थीं और फूस का छप्पर होता था। घर के दो हिस्से होते थे। एक बड़ा घर और एक अतिथि घर। बड़े घर में एक रसोई होती थी और बाकी कमरों का उपयोग स्त्रियों के शयनकक्ष के रूप में किया जाता था। अतिथि घर का उपयोग अतिथियों के बैठने और रहने के लिए किया जाता था। प्रत्येक घर के साथ एक मवेशी घर भी अवश्य होता था। लेकिन आजकल सबके पास पक्के मकान हैं। आहोम लोगों का मुख्य भोजन भात है। भात के साथ स्वादिष्ट व्यंजन पकाना उनकी एक संस्कृति है। अक्सर वे लोग एक खट्टा साग या किसी दाल का व्यंजन विभिन्न सब्जियों, मछली या मांस आदि को भूनकर या उबालकर खाना पसंद करते हैं।

आहोम लोग दैनिक जीवन में जिन पेय पदार्थों का उपयोग करते हैं। उसका नाम है लाउ या साज। अक्सर लाही और बड़ा चावल को मिश्रित कर उबाल कर उसके साथ हूरपीठा को मिलाकर लाउ तैयार किया जाता है। काली चाय भी मुख्य पेय पदार्थ है।

आहोम लोग पूर्वजों की अवस्थिति पर विश्वास करते हैं। पूर्वजों की पूजा आराधना करना उनका प्रधान धर्म है। मृत माता पिता सहित 14 पुरखों को डाम के तौर पर मानकर विभिन्न अवसरों पर पूजा करते हैं। इन सभी पूजा में जीव का उत्सर्ग किया जाता है और ताई भाषा में स्तुति की जाती है। वैष्णव धर्म ग्रहण करने के बाद से यह पूजा आराधना सिर्फ पंडितों के बीच ही रह गई है।

आहोम लोगों के लिए विवाह वंश रक्षा के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण मांगलिक अनुष्ठान है। ये लोग सकलंग और देऊबान पद्धति से विवाह संपादित करते हैं। इन लोगों का शब्दकोश, इतिहास, आख्यान, नीतिशास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, पूजा विधि आदि आहोम भाषा में रचित कई भोजपत्र ग्रंथ मौजूद हैं।

आहोम लोगों की संस्कृति अनूठी है। कृषि, स्थापत्य, शिल्पकला, रेशम और बुनाई शिल्प, पोशाक, अलंकार, खाद्य प्रस्तुति, विश्वास अविश्वास आदि का असमीया संस्कृति के सभी पहलुओं पर आहोम लोगों का सांस्कृतिक प्रभाव देखा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर शालि खेती का प्रचलन, पौद की सहायता से धान रोपना, गोटिया भैंस की मदद से हल जोतना, पगडंडी बनाकर खेत में सिंचाई की व्यवस्था करना, डिब्बे में बीज भरकर रखना इत्यादि। कई पहलुओं पर उनकी संस्कृति का प्रभाव असमीया संस्कृति में मौजूद है।

धन जन सहित असम को एक शक्तिशाली देश के हिसाब से निर्मित करने और यहां रहने वाले सभी लोगों को एक शासन के अधीन लाने में एक असमीया जाति के हिसाब से निर्मित करने के अलावा असम में रहने वाली विभिन्न जातियों और जनजातियों के बीच संपर्क भाषा के तौर पर असमीया भाषा का प्रचलन करने में आहोम लोगों का योगदान अतुलनीय है।

 

© निशा नंदिनी भारतीय 
तिनसुकिया,असम

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ बिन पानी सब सून ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

☆ बिन पानी सब सून ☆ 

(श्री संजय भारद्वाज जी का e-abhivyakti में स्वागत है। आप एक विख्यात साहित्यकार के अतिरिक्त पुणे की सुप्रसिद्ध साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था “हिन्दी आन्दोलन परिवार, पुणे” के अध्यक्ष भी हैं।   जल से संबन्धित शायद ही ऐसा कोई तथ्य शेष हो जिसकी व्याख्या  श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा इस लेख में न की गई हो। e-abhivyakti आपसे भविष्य में ऐसी और भी रचनाओं की अपेक्षा करता है।)

जल जीवन के केंद्र में है। यह कहा जाए कि जीवन पानी की परिधि तक ही  सीमित है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।  नाभिनाल हटाने से लेकर मृतक को स्नान कराने तक सारी प्रक्रियाओं में जल है। अर्घ्य द्वारा  जल के अर्पण से तर्पण तक जल है।  कहा जाता है-“क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा,पंचतत्व से बना सरीरा।’ इतिहास साक्षी है कि पानी के अतिरिक्त अन्य किसी तत्व की उपलब्धता देखकर मानव ने बस्तियॉं नहीं बसाई। पानी के स्रोत के इर्द-गिर्द नगर और महानगर बसे। प्रायः हर शहर में एकाध नदी, झील या प्राकृतिक जल संग्रह की उपस्थिति इस सत्य को शाश्वत बनाती है। भोजन ग्रहण करने से लेकर विसर्जन तक जल साथ है।  यह सर्वव्यापकता उसे सोलह संस्कारों में अनिवार्य रूप से उपस्थित कराती है।

पानी की सर्वव्यापकता भौगोलिक भी है।  पृथ्वी का लगभग दो-तिहाई भाग जलाच्छादित है पर कुल उपलब्ध जल का केवल 2.5 प्रतिशत ही पीने योग्य है। इस पीने योग्य जल का भी बेहद छोटा हिस्सा ही मनुष्य की पहुँच में है। शेष  सारा जल  अन्यान्य कारणों से मनुष्य के लिए उपयोगी नहीं है। कटु यथार्थ ये भी है कि विश्व की कुल जनसंख्या के लगभग 15 प्रतिशत को आज भी स्वच्छ जल पीने के लिए उपलब्ध नहीं है। लगभग एक अरब लोग गंदा पानी पीने के लिए विवश हैं। विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार विश्व में लगभग 36 लाख लोग प्रतिवर्ष गंदे पानी से उपजनेवाली बीमारियों से मरते हैं।

जल प्राण का संचारी है। जल होगा तो धरती सिरजेगी। उसकी कोख में पड़ा बीज पल्लवित होगा। जल होगा तो धरती  शस्य-श्यामला होगी। जीवन की उत्पत्ति के विभिन्न धार्मिक सिद्धांत मानते हैं कि धरती की शस्य श्यामलता के समुचित उपभोग के लिए विधाता ने जीव सृष्टि को जना। विज्ञान अपनी सारी शक्ति से अन्य ग्रहों पर जल का अस्तित्व तलाशने में जुटा है। चूँकि किसी अन्य ग्रह पर जल उपलब्ध होने के पुख्ता प्रमाण अब नहीं मिले हैं, अतः वहॉं जीवन की संभावना नहीं है।  सुभाषितकारों ने भी जल को  पृथ्वी के त्रिरत्नों में से एक माना है-“पृथिव्याम्‌ त्रीनि रत्नानि जलमन्नम्‌ सुभाषितम्‌।’

मनुष्य को ज्ञात चराचर में जल की सर्वव्यापकता तो विज्ञान सिद्ध है। वह ऐसा पदार्थ है जो ठोस, तरल और वाष्प तीनों रूपों में है। वह जल, थल और नभ तीनों में है। वह ब्रह्मांड के तीनों घटकों का समन्वयक है। वह “पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते  ‘का प्रमाणित संस्करण है। हिम से जल होना, जल से वायु होना और वायु का पुनः जल होकर हिम होना, प्रकृति के चक्र का सबसे सरल और खुली आँखों से दिखने वाला उदाहरण है। आत्मा की नश्वरता का आध्यात्मिक सिद्धांत हो या ऊर्जा के अक्षय रहने का वैज्ञानिक नियम, दोनों को  अंगद के पांव -सा प्रतिपादित करता-बहता रहता है जल।

भारतीय लोक जीवन में तो जल की महत्ता और सत्ता अपरंपार है। वह प्राणदायी नहीं अपितु प्राण है।  वह प्रकृति के कण-कण में है। वह पानी के अभाव से निर्मित मरुस्थल में पैदा होनेवाले तरबूज के भीतर है, वह खारे सागर के किनारे लगे नारियल में मिठास का सोता बना बैठा है। प्रकृति के समान मनुष्य की देह में भी दो-तिहाई जल है। जल जीवन रस है। अनेक स्थानों पर लोकजीवन में वीर्य को जल कहकर भी संबोधित किया गया है। जल निराकार है। निराकार जल, चेतन तत्व की ऊर्जा  धारण करता है। जल प्रवाह है। प्रवाह चेतना को साकार करता है। जल परिस्थितियों से समरूप होने का अद्‌भुत उदाहरण है। पात्र मेंं ढलना उसका चरित्र और गुणधर्म है। वह ओस है, वह बूँद है, वह झरने में है, नदी, झील, तालाब, पोखर, ताल, तलैया, बावड़ी, कुएँ, कुईं  में है और वह सागर में भी है। वह धरती के भीतर है और धरती के ऊपर भी है। वह लघु है, वही प्रभु है। कहा गया है-“आकाशात पतितं तोयं यथा गच्छति सागरं।’ बूँद  वाष्पीकृत होकर समुद्र से बादल में जा छिपती है। सागर बूँद को तरसता है तो बादल बरसता है और लघुता से प्रभुता का चक्र अनवरत चलता है।

लोक का यह अनुशासन ही था जिसके चलते  कम पानी वाले अनेक क्षेत्रों विशेषकर राजस्थान में घर की छत के नीचे पानी के हौद बनाए गए थे। छत के ढलुआ किनारों से वर्षा का पानी इस हौद में एकत्रित होता। जल के प्रति पवित्रता का भाव ऐसा कि जिस छत के नीचे जल संग्रहित होता, उस पर शिशु  के साथ माँ या युगल का सोना वर्जित था। प्रकृति के चक्र के प्रति श्रद्धा तथा “जीओ और जीने दो’  की सार्थकता ऐसी कि कुएँ के चारों ओर हौज बॉंधा जाता। पानी खींचते समय हरेक से अपेक्षित था कि थोड़ा पानी इसमें भी डाले। ये हौज  पशु-पक्षियों के लिए मनुष्य निर्मित पानी के स्रोत थे। पशु-पक्षी इनसे अपनी  प्यास  बुझाते। पुरुषों का स्नान कुएँ के समीप ही होता। एकाध बाल्टी पानी से नहाना और कपड़े धोना दोनों काम होते। इस प्रक्रिया में प्रयुक्त पानी से आसपास घास उग आती। यह घास पानी पीने आनेवाले मवेशियों के लिए चारे का काम करती।

पनघट तत्कालीन दिनचर्या की धुरि था। नंदलाल और राधारानी के अमूर्त प्रेम का मूर्त प्रतीक पनघट, नायक-नायिका की आँखों में होते मूक संवाद का रेकॉर्डकीपर पनघट, पुरुषों के राम-श्याम होने का साझा मंच पनघट और स्त्रियों के सुख-दुख के कैथारसिस के लिए मायका-सा पनघट ! पानी से भरा पनघट आदमी के भीतर के प्रवाह  का विराट दर्शन था।  कालांतर में  सिकुड़ती सोच ने पनघट का दर्शन निरपनिया कर दिया। कुएँ का पानी पहले खींचने को लेकर सामन्यतः किसी तरह के वाद-विवाद का उल्लेख नहीं मिलता। अब सार्वजनिक नल से पानी भरने को लेकर उपजने वाले कलह की परिणति हत्या में होने  की खबरें अखबारों में पढ़ी जा सकती हैं। स्वार्थ की विषबेल और मन के सूखेपन ने मिलकर ऐसी स्थितियाँ पैदा कर दीं कि गाँव की प्यास बुझानेवाले स्रोत अब सूखे पड़े हैं। भाँय-भाँय करते कुएँ और बावड़ियाँ एक हरी-भरी सभ्यता के खंडहर होने के साक्षी हैं।

हमने केवल पनघट नहीं उजाड़े, कुओं को सींचनेवाले तालाबों और छोटे-मोटे प्राकृतिक स्रोतों को भी पाट दिया। तालाबों की कोख में रेत-सीमेंट उतारकर गगनचुम्बी इमारतें खड़ी कर दीं।  बाल्टी से पानी खींचने की बजाय मोटर से पानी उलीचने की प्रक्रिया ने मनुष्य की मानसिकता में भयानक अंतर ला दिया है। बूँद-बूँद सहेजनेवाला समाज आज उछाल-उछाल कर पानी का नाश कर रहा है। दस लीटर में होनेवाला स्नान शावर के नीचे सैकड़ों लीटर पानी से खेलने लगा है। पैसे का पीछा करते आदमी की आँख में जाने कहाँ से दूर का न देख पाने की बीमारी-‘मायोपिआ’ उतर आई है। इस मायोपिआ ने शासन और अफसरशाही की आँख का पानी ऐसा मारा कि  सूखे से जूझते क्षेत्र में नागरिक को अंजुरि भर पानी उपलब्ध कराने की बजाय क्रिकेट के मैदान को लाखों लीटर से भिगोना ज्यादा महत्वपूर्ण समझा गया।

पर्यावरणविद  मानते हैं कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा।  प्राकृतिक संसाधन निर्माण नहीं किए जा सकते। प्रकृति ने उन्हें रिसाइकिल करने की प्रक्रिया बना रखी है। बहुत आवश्यक है कि हम प्रकृति से जो ले रहे हैं, वह उसे लौटाते भी रहें। पानी की मात्रा की दृष्टि  से भारत का स्थान विश्व में तीसरा है। विडंबना है कि  सबसे अधिक तीव्रता से भूगर्भ जल का क्षरण हमारे यहॉं ही हुआ है। नदी को माँ कहनेवाली संस्कृति ने मैया की गत बुरी कर दी है।  गंगा अभियान के नाम पर व्यवस्था द्वारा चालीस हजार करोड़ डकार जाने के बाद भी गंगा सहित अधिकांश नदियाँ अनेक स्थानों पर नाले का रूप ले चुकी हैं। दुनिया भर में ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते ग्लेशियर पिघल रहे हैं। आनेवाले दो दशकों में पानी की मांग में लगभग 43 प्रतिशत बढ़ोत्तरी की आशंका है और हम गंभीर जल संकट के मुहाने पर खड़े हैं।

आसन्न खतरे से बचने की दिशा में सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर कुछ स्थानों पर अच्छा काम हुआ है। कुछ वर्ष पहले चेन्नई में रहनेवाले हर  नागरिक के लिए वर्षा जल संरक्षण को अनिवार्य कर तत्कालीन कलेक्टर ने नया आदर्श सामने रखा। देश भर के अनेक गाँवों में स्थानीय स्तर पर कार्यरत समाजसेवियों और संस्थाओं ने लोकसहभाग से तालाब खोदे  हैं और वर्षा जल संरक्षण से सूखे ग्राम को बारह मास पानी उपलब्ध रहनेवाले ग्राम में बदल दियाहै। ऐसेे प्रयासों को राष्ट्रीय स्तर पर गति से और जनता को साथ लेकर चलाने की आवश्यकता है।

रहीम ने लिखा है-” रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून, पानी गये न ऊबरे, मोती, मानस, चून।’ विभिन्न संदर्भों  में इसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न हो सकती है किंतु पानी का यह प्रतीक जगत्‌ में जल की अनिवार्यता को प्रभावी रूप से रेखांकित करता है।  पानी के बिना जीवन की कल्पना करते ही मुँह सूखने लगता है। जिसके अभाव की  कल्पना इतनी भयावह है, उसका यथार्थ कैसा होगा!  महादेवीजी के शब्दों में कभी-कभी यथार्थ कल्पना की सीमा को माप लेता है। वस्तुतः पानी में अपनी ओर खींचने का एक तरह का अबूझ आकर्षण है। समुद्र की लहर जब अपनी ओर खींचती है तो पैरों के नीचे की ज़मीन ( बालू)  खिसक जाती है। मनुष्य की उच्छृंखलता यों ही चलती रही तो ज़मीन खिसकने में देर नहीं लगेगी।

इन पंक्तियों के लेखक की एक कविता कहती है-

 

आदमी की आँख का

जब मर जाता है पानी,

खतरे का निशान

चढ़ जाता है पानी।

आदमी की आँख में

जब भर आता है पानी,

खतरे के निशान से

उतर जाता है पानी।

 

बेहतर होगा कि हम समय रहते आसन्न खतरे से चेत जाएँ।

 

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष-हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे

मोबाइल 9890122603

[email protected]

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ हिन्दू नववर्ष, चैत्र नवरात्रि, गुड़ी पड़वा वर्ष प्रतिपदा ☆ – डॉ उमेश चंद्र शुक्ल

डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल  

हिन्दू नववर्ष, चैत्र नवरात्रि, गुड़ी पड़वा वर्ष प्रतिपदा

(हिन्दू नववर्ष, चैत्र नवरात्रि, गुड़ी पड़वा वर्ष प्रतिपदापर्व पर  डॉ उमेश चंद्र शुक्ल जी का  विशेष  आलेख  उनके व्हाट्सएप्प  से साभार। )

 

*हिन्दू नववर्ष, चैत्र नवरात्रि, गुड़ी पड़वा वर्ष प्रतिपदा पर आपको एवम् आपके परिवार को ढेर  सारी हार्दिक शुभकामनाएं*

*चैत्र शुक्ल प्रतिपदा,*
*विक्रमी संवत् २०७६*
*सृष्टि संवत् १९६०८५३१२० वर्ष*
*दिनांक – ६ अप्रैल शनिवार २०१९ ई.
*सनातन महत्व-*
  1. सृष्टि संवत्
  2. मनुष्य उत्पत्ति संवत्
  3. वेद संवत्
  4. देववाणी भाषा संवत्
  5. सम्पूर्ण प्राणी उत्पत्ति संवत्
*ऐतिहासिक महत्व -*
  1.    विक्रम संवत्
  2.    शक संवत्
  3.    आर्य सम्राट विक्रमादित्य जन्मदिवस
  4.    युधिष्ठिर राज्याभिषेक दिवस
  5.    आर्यसमाज स्थापना दिवस

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को नव वर्ष प्रारंभ होता है। इसी दिन सूर्योदय के साथ सृष्टि का प्रारंभ परमात्मा ने किया था। अर्थात् इस दिन सृष्टि प्रारंभ हुई थी तब से यह गणना चली आ रही है।

यह नववर्ष किसी जाति, वर्ग, देश, संप्रदाय का नहीं है अपितु यह मानव मात्र का नववर्ष है। यह पर्व विशुद्ध रुप से भौगोलिक पर्व है। क्योकि प्राकृतिक दृष्टि से भी वृक्ष वनस्पति फूल पत्तियों में भी नयापन दिखाई देता है। वृक्षों में नई-नई कोपलें आती हैं। वसंत ऋतु का वर्चस्व चारों ओर दिखाई देता है। मनुष्य के शरीर में नया रक्त बनता है। हर जगह परिवर्तन एवं नयापन दिखाई पडता है। रवि की नई फसल घर में आने से कृषक के साथ संपूर्ण समाज प्रसन्नचित होता है। वैश्य व्यापारी वर्ग का भी आर्थिक दृष्टि से यह महीना महत्वपूर्ण माना जाता है। इससे यह पता चलता है कि जनवरी साल का पहला महीना नहीं है पहला महीना तो चैत्र है, जो लगभग मार्च-अप्रैल में पड़ता है। १ जनवरी में नया जैसा कुछ नहीं होता किंतु अभी चैत्र माह में देखिए नई ऋतु, नई फसल, नई पवन, नई खुशबू, नई चेतना, नया रक्त, नई उमंग, नया खाता, नया संवत्सर, नया माह, नया दिन हर जगह नवीनता है। यह नवीनता हमें नई ऊर्जा प्रदान करती है।
नव वर्ष को शास्त्रीय भाषा में नवसंवत्सर (संवत्सरेष्टि) कहते हैं। इस समय सूर्य मेष राशि से गुजरता है इसलिए इसे *”मेष संक्रांति”* भी कहते हैं।
प्राचीन काल में नव-वर्ष को वर्ष के सबसे बड़े उत्सव के रूप में मनाते थे। यह रीत आजकल भी दिखाई देती है जैसे महाराष्ट्र में गुडीपाडवा के रुप में मनाया जाता है तथा बंगाल में पइला पहला वैशाख और गुजरात आदि अनेक प्रांतों में इसके विभिन्न रूप हैं।
नववर्ष का प्राचीन एवं ऐतिहासिक महत्व-
  1. आज चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन ही परम पिता परमात्मा ने १९६०८५३१२० वर्ष पूर्व यौवनावस्था प्राप्त मानव की प्रथम पीढ़ी को इस पृथ्वी माता के गर्भ से जन्म दिया था। इस कारण यह “मानव सृष्टि संवत्” है।
  2. इसी दिन परमात्मा ने अग्नि वायु आदित्य अंगिरा चार ऋषियों को समस्त ज्ञान विज्ञान का मूल रूप में संदेश क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के रूप में दिया था। इस कारण इस वर्ष को ही वेद संवत् भी कहते हैं।
  3. आज के दिन ही मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने लंका पर विजय प्राप्त कर वैदिक धर्म की ध्वजा फहराई थी। (ज्ञातव्य है कि भगवान श्रीराम का राज्याभिषेक चैत्र शुक्ल षष्ठी को हुआ था ना की प्रतिपदा अथवा दीपावली पर) (विजयादशमी व दीपावली का श्रीराम से कोई संबंध नहीं है देखे श्रीमद् वाल्मीकि रामायण)।प0
  4. आज ही से कली संवत् तथा भारतीय विक्रम संवत् युधिष्ठिर संवत् प्रारंभ होता है।
  5. आज ही के शुभ दिन विश्व वंद्य अद्वितीय वेद द्रष्टा महर्षि दयानन्द सरस्वती ने संसार में वेद धर्म के माध्यम से सब के कल्याणार्थ “आर्य समाज” की स्थापना की थी। इसी भावना को ऋषि ने आर्य समाज के छठे नियम में अभिव्यक्त करते हुए लिखा *”संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात शारीरिक आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना”*
         महानुभावों! इन सब कारणों से यह संवत् केवल भारतीय या किसी पंथ विशेष के मानने वालों का नहीं अपितु संपूर्ण विश्व मानवों के लिए है।
आइए! हम सार्वभौम संवत् को निम्न प्रकार से उत्साह पूर्वक  मनाएं -*
  1. यह संवत् मानव संवत् है इस कारण  हम सब स्वयं को एक परमात्मा की संतान समझकर मानव मात्र से प्रेम करना सीखें। जन्मना ऊंच-नीच की भावना, सांप्रदायिकता, भाषावाद, क्षेत्रीयता, संकीर्णता आदि भेदभाव को पाप मानकर विश्वबंधुत्व एवं प्राणी मात्र के प्रति मैत्री भाव जगाएं। अमानवीयता व दानवता का नाश तथा मानवता की रक्षा का व्रत लें।
  2. आज वेद संवत् भी प्रारंभ है। इस कारण हम सब अनेक मत पंथों के जाल से निकलकर संपूर्ण भूमंडल पर एक वेद धर्म को अपनाकर प्रभु कार्य के ही पथिक बनें। हम भिन्न-भिन्न समयों पर मानवों से चलाए पंथों के जाल में न फसकर मानव को मानव से दूर न करें। जिस वेद धर्म का लगभग २ अरब वर्ष से सुराज्य इस भूमंडल पर रहा उस समय (महाभारत से पूर्व तक) संपूर्ण विश्व त्रिविध तापों से मुक्त होकर मानव सुखी समृद्धि व आनंदित था। किसी मजहब का नाम मात्र तक ना था। इसलिए उस वैदिक युग को वापस लाने हेतु सर्वात्मना समर्पण का व्रत लें। स्मरण रहे धर्म मानव मात्र का एक ही है, वह है वैदिक धर्म।
  3. वैदिक धर्म के प्रतिपालक मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की विजय दिवस पर हम आज उस महापुरुष की स्मृति में उनके आदर्शों को अपनाकर ईश्वर भक्त, आर्य संस्कृति के रक्षक, वेद भक्त, सच्चे वेदज्ञ गुरु भक्त, मित्र व भातृवत्सल, दुष्ट संहारक, वीर, साहसी, आर्य पुरुष व प्राणी मात्र के प्रिय बने। रावण की भोगवादी सभ्यता के पोषक ना बनें।
  4. आज राष्ट्रीय संवत् पर महाराज युधिष्ठिर विक्रमादित्य आदि की स्मृति में अपने प्यारे आर्यावर्त भारत देश की एकता अखंडता एवं समृद्धि की रक्षा का व्रत लें। राष्ट्रीय स्वाभिमान का संचार करते हुए देश की संपत्ति की सुरक्षा संरक्षा के व्रति बनें। जर्जरीभूत होते एवं जलते उजड़ते देश में इमानदारी, प्राचीन सांस्कृतिक गौरव, सत्यनिष्ठा, देशभक्ति, कर्तव्यपरायणता व वीरता का संचार करें।
  5. आज आर्य समाज स्थापना दिवस होने के कारण *”कृण्वन्तो विश्वमार्यम्”* वेद के आदेशानुसार सच्चे अर्थों में आर्य बनें एवं संसार को आर्य बनाए न की नामधारी आर्य। आर्य शब्द का अर्थ है- सत्य विज्ञान  न्याय से युक्त वैदिक अर्थात ईश्वरीय मर्यादाओं का पूर्ण पालक, सत्याग्रही, न्यायकारी, दयालु, निश्छल, परोपकारी, मानवतावादी व्यक्ति। इस दिवस पर हम ऐसा ही बनने का व्रत लें तभी सच्चे अर्थों में आर्य (श्रेष्ठ मानव) कहलाने योग्य होंगे। आर्यत्व आत्मा व अंतःकरण का विषय है। न कि कथन मात्र का।

 

© डॉ.उमेश चन्द्र शुक्ल
अध्यक्ष हिन्दी-विभाग परेल, मुंबई-12

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख – “होली पर्व” – डॉ उमेश चंद्र शुक्ल

डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल  

होली पर्व

(होली  पर्व पर  डॉ उमेश चंद्र शुक्ल जी का  विशेष  आलेख  उनके व्हाट्सएप्प  से साभार। )

इस पर्व का प्राचीनतम नाम वासन्ती नव सस्येष्टि है अर्थात् बसन्त ऋतु के नये अनाजों से किया हुआ यज्ञ, परन्तु होली होलक का अपभ्रंश है।
यथा–
(अ) तृणाग्निं भ्रष्टार्थ पक्वशमी धान्य होलक: (शब्द कल्पद्रुम कोष) अर्धपक्वशमी धान्यैस्तृण भ्रष्टैश्च होलक: होलकोऽल्पानिलो मेद: कफ दोष श्रमापह। (भाव प्रकाश) अर्थात्―तिनके की अग्नि में भुने हुए (अधपके) शमो-धान्य (फली वाले अन्न) को होलक कहते हैं। यह होलक वात-पित्त-कफ तथा श्रम के दोषों का शमन करता है।
(ब) होलिका―किसी भी अनाज के ऊपरी पर्त को होलिका कहते हैं-जैसे-चने का पट पर (पर्त) मटर का पट पर (पर्त), गेहूँ, जौ का गिद्दी से ऊपर वाला पर्त। इसी प्रकार चना, मटर, गेहूँ, जौ की गिदी को प्रह्लाद कहते हैं। होलिका को माता इसलिए कहते है कि वह चनादि का निर्माण करती *(माता निर्माता भवति)* यदि यह पर्त पर (होलिका) न हो तो चना, मटर रुपी प्रह्लाद का जन्म नहीं हो सकता। जब चना, मटर, गेहूँ व जौ भुनते हैं तो वह पट पर या गेहूँ, जौ की ऊपरी खोल पहले जलता है, इस प्रकार प्रह्लाद बच जाता है। उस समय प्रसन्नता से जय घोष करते हैं कि होलिका माता की जय अर्थात् होलिका रुपी पट पर (पर्त) ने अपने को देकर प्रह्लाद (चना-मटर) को बचा लिया।
(स) अधजले अन्न को होलक कहते हैं। इसी कारण इस पर्व का नाम *होलिकोत्सव* है और बसन्त ऋतुओं में नये अन्न से यज्ञ (येष्ट) करते हैं। इसलिए इस पर्व का नाम *वासन्ती नव सस्येष्टि* है। यथा―वासन्तो=वसन्त ऋतु। नव=नये। येष्टि=यज्ञ। इसका दूसरा नाम *नव सम्वतसर* है। मानव सृष्टि के आदि से आर्यों की यह परम्परा रही है कि वह नवान्न को सर्वप्रथम अग्निदेव पितरों को समर्पित करते थे। तत्पश्चात् स्वयं भोग करते थे। हमारा कृषि वर्ग दो भागों में बँटा है―(1) वैशाखी, (2) कार्तिकी। इसी को क्रमश: वासन्ती और शारदीय एवं रबी और खरीफ की फसल कहते हैं। फाल्गुन पूर्णमासी वासन्ती फसल का आरम्भ है। अब तक चना, मटर, अरहर व जौ आदि अनेक नवान्न पक चुके होते हैं। अत: परम्परानुसार पितरों देवों को समर्पित करें, कैसे सम्भव है।
तो कहा गया है– *अग्निवै देवानाम मुखं* अर्थात् अग्नि देवों–पितरों का मुख है जो अन्नादि शाकल्यादि आग में डाला जायेगा। वह सूक्ष्म होकर पितरों देवों को प्राप्त होगा।
हमारे यहाँ आर्यों में चातुर्य्यमास यज्ञ की परम्परा है। वेदज्ञों ने चातुर्य्यमास यज्ञ को वर्ष में तीन समय निश्चित किये हैं―(1) आषाढ़ मास, (2) कार्तिक मास (दीपावली) (3) फाल्गुन मास (होली) यथा *फाल्गुन्या पौर्णामास्यां चातुर्मास्यानि प्रयुञ्जीत मुखं वा एतत सम्वत् सरस्य यत् फाल्गुनी पौर्णमासी आषाढ़ी पौर्णमासी* अर्थात् फाल्गुनी पौर्णमासी, आषाढ़ी पौर्णमासी और कार्तिकी पौर्णमासी को जो यज्ञ किये जाते हैं वे चातुर्यमास कहे जाते हैं आग्रहाण या नव संस्येष्टि।
समीक्षा―आप प्रतिवर्ष होली जलाते हो। उसमें आखत डालते हो जो आखत हैं–वे अक्षत का अपभ्रंश रुप हैं, अक्षत चावलों को कहते हैं और अवधि भाषा में आखत को आहुति कहते हैं। कुछ भी हो चाहे आहुति हो, चाहे चावल हों, यह सब यज्ञ की प्रक्रिया है। आप जो परिक्रमा देते हैं यह भी यज्ञ की प्रक्रिया है। क्योंकि आहुति या परिक्रमा सब यज्ञ की प्रक्रिया है, सब यज्ञ में ही होती है। आपकी इस प्रक्रिया से सिद्ध हुआ कि यहाँ पर प्रतिवर्ष सामूहिक यज्ञ की परम्परा रही होगी इस प्रकार चारों वर्ण परस्पर मिलकर इस होली रुपी विशाल यज्ञ को सम्पन्न करते थे। आप जो गुलरियाँ बनाकर अपने-अपने घरों में होली से अग्नि लेकर उन्हें जलाते हो। यह प्रक्रिया छोटे-छोटे हवनों की है। सामूहिक बड़े यज्ञ से अग्नि ले जाकर अपने-अपने घरों में हवन करते थे। बाहरी वायु शुद्धि के लिए विशाल सामूहिक यज्ञ होते थे और घर की वायु शुद्धि के लिए छोटे-छोटे हवन करते थे दूसरा कारण यह भी था।
ऋतु सन्धिषु रोगा जायन्ते―अर्थात् ऋतुओं के मिलने पर रोग उत्पन्न होते हैं, उनके निवारण के लिए यह यज्ञ किये जाते थे। यह होली हेमन्त और बसन्त ऋतु का योग है। रोग निवारण के लिए यज्ञ ही सर्वोत्तम साधन है। अब होली प्राचीनतम वैदिक परम्परा के आधार पर समझ गये होंगे कि होली नवान्न वर्ष का प्रतीक है।
पौराणिक मत में कथा इस प्रकार है―होलिका हिरण्यकश्यपु नाम के राक्षस की बहिन थी। उसे यह वरदान था कि वह आग में नहीं जलेगी। हिरण्यकश्यपु का प्रह्लाद नाम का आस्तिक पुत्र विष्णु की पूजा करता था। वह उसको कहता था कि तू विष्णु को न पूजकर मेरी पूजा किया कर। जब वह नहीं माना तो हिरण्यकश्यपु ने होलिका को आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को आग में लेकर बैठे। वह प्रह्लाद को आग में गोद में लेकर बैठ गई, होलिका जल गई और प्रह्लाद बच गया। होलिका की स्मृति में होली का त्यौहार मनाया जाता है l जो नितांत मिथ्या हैं।।
होली उत्सव यज्ञ का प्रतीक है। स्वयं से पहले जड़ और चेतन देवों को आहुति देने का पर्व हैं।  आईये इसके वास्तविक स्वरुप को समझ कर इस सांस्कृतिक त्योहार को बनाये। होलिका दहन रूपी यज्ञ में यज्ञ परम्परा का पालन करते हुए शुद्ध सामग्री, तिल, मुंग, जड़ी बूटी आदि का प्रयोग कीजिये।
*आप सभी को होली उत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ ।*
© डॉ.उमेश चन्द्र शुक्ल
अध्यक्ष हिन्दी-विभाग परेल, मुंबई-12

Please share your Post !

Shares
आलेख
Warning: Trying to access array offset on value of type bool in /var/www/wp-content/themes/square/inc/template-tags.php on line 138

हिन्दी साहित्य-आलेख *होली पर विशेष – सामाजिक समरसता* डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

होली पर विशेष – सामाजिक समरसता 
प्राचीन काल में आदमी का जीवन पूरी तरह प्रकृति से जुड़ा था ।यही वह समय था , जब उसने  ऋतुओं का धूमधाम से स्वागत करने की परम्परा कायम की ओर इसकी एक पुरातन कड़ी है होली । यह संधि  ऋतु यानी सर्दी के जाने और गर्मी के आने का पर्व है । नये धान्य की आगवानी का उल्लास पर्व है होली । इसकी आहट तो वसंत के आगमन से होने लगती है । आज के युग में मनुष्य दिनों दिन प्रकृति से दूर होता जा रहा है तथा पर्यावरण के रक्षक जंगलों को मनुष्य अपने स्वार्थ की खातिर काटकर जगह जगह कांक्रीट के जंगल बढ़ाता जा रहा है जिससे पर्यावरण पर बुरा प्रभाव पड़ा है ।
प्रकृति से दूर होने पर होली के मायने भी बदल गये हैं । कभी होली कृष्ण के समान ललित मानी जाती थी , परन्तु बदलते हालात के साथ अश्लीलता , अशिष्टता और घिनोनापन जुड़ गया है । पारम्परिक रंग गुलाल , अबीर से होली खेलने के स्थान पर ग्रीस , तारकोल , आइल ,सिल्वरपेन्ट के साथ ही नाली के कीचड़ से होली खेलने वाले बढ़ते जा रहे हैं ।युवतियों के दुपट्टे खींचने और बुजुर्गों की टोपियां उछालकर मजा लेने वाले भी कम नहीं हैं ।
होली जो सामाजिक समरसता का प्रतीक हुआ करती थी, अब बदला लेने के पर्व में तब्दील होती जा रही है । एक दूसरे से दुश्मनी के फलस्वरूप होली की आड़ में  इस दिन किसी पर तेजाब फेंकना या छुरा चाकू के वार से खून की होली खेलने का पर्व होता जा रहा है होली ।सच कहा जाये तो ये तत्व होलिहार हैं ही नहीं, ये हुड़दंगिए हैं, जिनमें वसंत का रस लेने की क्षमता नहीं है । होलिहार तो अपनी शालीन ठिठोली, मस्ती और उल्लास से प्रकृति की मादक अंगड़ाई की मिठास बांटते हैं । प्रेम और सामाजिक मिलन के इस पर्व की महत्वता को बचाने और आगे आने वाली पीढ़ी को इसके वास्तविक स्वरूप को पहचानने के लिए  हमारा कर्तव्य है कि हम वैमनस्यता को त्यागकर भाईचारे के साथ होली मनायें ।
© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,म .प्र . 482002

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख – * नारी सम्मान * – सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

नारी सम्मान
(सुश्री मालती मिश्रा जी   का अंतरराष्ट्रीय दिवस पर विशेष आलेख नारी सम्मान )
‘यत्र नार्यस्य पूज्यन्ते, रमंते तत्र देवता’
कहा जाता है कि जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवताओं का निवास होता है किन्तु आधुनिक समाज में नारी को पूजा की नहीं आदर की पात्र बनने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। यह विषम परिस्थिति मात्र कुछ महीनों या कुछ वर्षों की देन नहीं है बल्कि यह तो सदियों से ही चला आ रहा है कि नारी को देवी की पदवी से गिरा कर उसे भोग्या समझा जाने लगा तभी तो महाभारत काल में ही धर्म के वाहक माने जाने वाले पांडव श्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिर ने अपनी पत्नी द्रुपद नरेश की पुत्री और इंद्रप्रस्थ की महारानी द्रौपदी को ही जुए में दाँव पर लगा दिया और विजेता कौरवों ने उनकी पत्नी को जीती हुई दासी मान भरी सभा में अपमान किया।
दहेज प्रथा, सती प्रथा जैसी कुरीतियों का शिकार नारी ही होती आई है, भोग्या भनाकर बाजारों में बेची जाती रही है, तरह-तरह की शारीरिक व मानसिक प्रताड़नाओं का शिकार आज भी होती है। नारी की दुरुह दशा पर सूफी संतों की दृष्टि तो पड़ी किन्तु पुरुषत्व के चश्मे के साथ.. तभी तो तुलसीदास जैसे महाकवि लिख डालते हैं-
“ढोल,गँवार,शूद्र,पशु नारी,
ये सब ताड़न के अधिकारी।।”
समाज सुधारक मानवता के द्योतक, निराकार ब्रह्म के उपासक, समाज के पथ-प्रदर्शक कहे जाने वाले संत कबीर दास लिखते हैं-
“नारी की झाँई पड़त,
अंधा होत भुजंग,
कबिरा तिन की कौन गति,
नित नारी के संग।”
रहीम दास कहते हैं-
“उरग तुरग नारी नृपति,
नीच जाति,हथियार।
रहिमन इन्हें सँभालिये,
पलटत लगत न वार।”
एक ओर पुरुष समाज नारी पर दया दिखाते हैं वहीं दूसरी ओर उसे निम्न कोटि की, भोग्या और मनोरंजन की वस्तु मानकर अपने झूठें अहं पिपासा को तृप्त करते हैं।
पुरुषों की ऐसे ही कृत्यों को देख कर साहिर लुधियानवी ने नारी टीस को महसूस किया और उसे अपनी कलम की स्याही बना ली और इसी तिलमिलाहट में लिख बैठे….
“बिकती हैं कहीं,बाजारों में,
तुलती है कहीं दीनारों में।
नंगी नचवाई जाती है, अय्याशों के दरबारों में।
यह वो बेइज्जत चीज है जो बँट जाती है इज्जतदारों में।।
समय के साथ-साथ समाज सुधारकों व विद्वानों की दृष्टि नारी की दयनीय दशा पर पड़ी और उन्होंने स्वीकारा कि किसी भी देश की सामाजिक व मानसिक उन्नति का अनुमान हम उस देश-काल की स्त्रियों की स्थिति से लगा सकते हैं, नारी समाज देश का आधा भाग होती है, जब तक समाज में महिलाएँ भी पुरुषों के समान सुरक्षित, समर्थ और शक्तिशाली नहीं होंगी तब तक समाज में संतुलन नहीं होगा और असंतुलित समाज या देश का सकारात्मक उत्थान संभव नहीं।
गुप्त जी 1914 में प्रकाशित महत्वपूर्ण काव्य ‘भारत-भारती’ में आधुनिक महिलाओं की उन्नति पर अत्यधिक बल देते हुए देश में शिक्षा के व्यापक स्तर पर प्रसार की बात करते हुए कहते हैं कि “हमारी शिक्षा तब तक कोई काम नहीं आएगी, जब तक महिलाएँ शिक्षित नहीं होंगी, यदि पुरुष शिक्षित हो गए और महिलाएँ अनपढ़ रह गईं तो हमारा समाज ऐसे शरीर की तरह होगा जिसका आधा हिस्सा लकवे से बेकार है।”
तब स्त्री को इस योग्य बनाने का अभियान चलाया गया कि वह पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चलने में सक्षम हो सके। इसके लिए एक ओर विभिन्न संस्थाओं के द्वारा जनता को सामाजिक बुराइयों के प्रति जागरूक करने का काम किया गया, तो दूसरी ओर भारतेन्दु हरिश्चंद्र और उनके साथी लेखकों द्वारा अपने नाटकों, निबंधों और काव्यों के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किया गया। आधुनिक युग के सुधार आंदोलनों पर यदि दृष्टिपात करें तो पाएँगे कि उस समय के अधिकांश सुधार आंदोलन नारी-उत्थान से संबंधित थे जैसे- पर्दा-प्रथा, सती-प्रथा, शिशु-कन्या-हत्या, बाल-विवाह आदि।
उस समय का ये संघर्ष आज हमें मामूली लग सकता है किन्तु उस देश-काल के नजरिए से सोचें तो यह बहुत ही दुरुह व संघर्षपूर्ण कार्य था।
धीरे-धीरे ये कुरीतियाँ तो समाप्त हो गईं परंतु पितृसत्तात्मक समाज का चलन खत्म नहीं हुआ और स्त्री-पुरुष के अंतस में जो स्त्रियों को पुरुषों से कमतर या उनके अधीन मानने की धारणा समा चुकी है, वह अब भी निरापद कायम है। आज भी कानूनी रूप से समान अधिकारों के आवरण में समानता लुप्त है,  हमारे देश में अभी भी महिला और पुरुष की साक्षरता दर समान नहीं है एक सैंपल सर्वे के रिपोर्ट के अनुसार पुरुषों की साक्षरता दर ८३ प्रतिशत है तो महिलाओं की ६७ प्रतिशत, अर्थात् अभी भी पुरुषों की तुलना में १६ प्रतिशत महिलाएँ अशिक्षित हैं। विभिन्न संथानों में कार्यरत महिलाओं को पुरुषों के समान कार्य, समान पद के लिए समान वेतन नहीं प्राप्त होता।
आज स्त्री समर्थ होने के बाद भी यही मानती है कि शादी से पहले पिता शादी के बाद पति और वृद्धावस्था में पुत्र के बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं। अभी भी लड़की के विवाह का फैसला भी पिता ही लेता है। दाह संस्कार पुत्र ही करता है। पिता की संपत्ति में कानूनन बराबर अधिकार होने के बाद भी बेटियों को उनके अधिकारों से वंचित रखा जाता है। संपत्ति में हिस्सा लेने के उपरांत भाइयों-भाइयों का रिश्ता तो बना रह सकता है परंतु यदि बहन को हिस्सा देना पड़े तो भाई-बहन का रिश्ता दांव पर लग जाता है। कहते हैं स्त्री ही स्त्री की शत्रु होती है, स्त्रियों को पीछे धकेलने में स्त्रियों का योगदान सर्वाधिक होता है। कौन से कार्य लड़कों के हैं और कौन से कार्य लड़कियों के इसका निर्धारण घर में ही माँ तथा अन्य बड़े बुज़ुर्गों द्वारा कर दिया जाता है और इसी मानसिकता के साथ बेटियों की परवरिश की जाती है कि उन्हें घर के सारे काम करने आने चाहिए क्योंकि उनका प्रथम कार्यक्षेत्र घर की चारदीवारी के भीतर होता है, वह चाहे बाहर नौकरी पेशा ही क्यों न हों किन्तु घर के भीतर के सारे काम, परिवार के सदस्यों की देख-रेख आदि उनका उत्तरदायित्व है वहीं दूसरी ओर लड़कों को इस सीख के साथ बड़ा किया जाता है कि उनका कार्यक्षेत्र सिर्फ घर से बाहर है।
आज भी समाज में संस्कार, लज्जा, चरित्र आदि को संभालने का उत्तरदायित्व सिर्फ स्त्री का माना जाता है। यदि स्त्री अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाना चाहे तो मर्यादा रूपी हथियार दिखा कर उसकी आवाज दबा दी जाती है। यूँ तो बेटा-बेटी समान हैं परंतु बेटियों को संस्कारों का पाठ पढ़ाते समय बेटों को वही पाठ पढ़ाने की प्रथा अब भी नहीं है, आज भी समाज में स्त्रियों को सीता, सावित्री जैसी पौराणिक आदर्शों का उदाहरण देकर उनकी सोच को दायरों में सीमित करने का प्रयास किया जाता है किन्तु पुरुषों से राम बनने की अपेक्षा नहीं की जाती। यदि कोई लावारिस नवजात शिशु पाया जाता है तो उँगली सिर्फ माँ पर उठाई जाती है, पिता के विषय में तो कोई सोचता ही नहीं।
हम आधुनिक समाज में जी रहे हैं और आज स्त्रियों ने धरती से अंतरिक्ष तक हर क्षेत्र में अपनी योग्यता को सिद्ध किया है, फिर भी देर रात अकेली घर से बाहर जाते हुए वह डरती है, क्योंकि आज भी स्त्री पुरुषों की नजर में भोग्या बनी हुई है। आधुनिकता का दंभ भरने वाला हमारा समाज आज भी स्त्री को वह सम्मान वह अधिकार नहीं दे पाया जिसका वर्णन हमारे वेदों और प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। इसका कारण यही है कि पुरुष समाज अपना सत्तात्मक दंभ छोड़ना नहीं चाहता, इसीलिए स्त्री जब भी अधिकारों के लिए सजग हुई तभी पुरुषों की नजर से विलग हुई, जब भी इसने सिर उठाने का प्रयास किया पुरुष का अहंकार  आहत हुआ, जब भी स्त्री ने कमर सीधा कर सीधे खड़े होने की कोशिश की पुरुष को अपनी कमर झुकती महसूस हुई, जब भी इसने धरती पर अपने पैर जमाना चाहा पुरुषों को अपने पैरों तले की धरती खिसकती दिखाई दी और जब भी स्त्री ने अपना मौन तोड़ा तभी पुरुष वर्ग को अपने अस्तित्व पर खतरा मंडराता नजर आया।
ऐसा ही होता है जब हम किसी के अधिकारों पर जबरन आधिपत्य जमा कर बैठे होते हैं, तो उसकी तनिक सी सतर्कता हमारे कान खड़े कर देती है और हर जायज क्रियाकलाप भी हमें नागवार गुजरती है।
आज महिला दिवस के अवसर पर नारियों को तरह-तरह के सम्मान दिए जाते हैं, तरह-तरह से उनकी उपलब्धियों और संघर्षों को सराहा जाता है किन्तु यह सब भी सिर्फ सामयिक ही होता है यदि नारी-सम्मान को धरातल पर लाना है तो जन-जन को उसके सम्मान को हृदय में स्थान देना होगा, उसे वर्ष में एक दिन नहीं बल्कि हर दिन हर पल सम्मान की दृष्टि से देखना होगा उसे अपने समक्ष प्रतिद्वंद्वी न समझकर अपने समकक्ष सहभागी सहयोगी समझना होगा तभी सही मायने में नारी को सगर्व सम्मान की प्राप्ति हो सकेगी।
© मालती मिश्रा ‘मयंती’✍️

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख – * मीठे जल का झरना है लघुकथा * – श्री बलराम अग्रवाल जी से डॉ.भावना शुक्ल की वार्ता

मीठे जल का झरना है लघुकथा 

(श्री बलराम अग्रवाल जी से डॉ.भावना शुक्ल की वार्ता  के अंश)

वरिष्ठ साहित्यकार ,लघु कथा के क्षेत्र में नवीन आयाम स्थापित करने वाले, लघुकथा के अतिरिक्त कहानियां, बाल साहित्य, लेख, आलोचना तथा अनुवाद के क्षेत्र में अपनी कलम चलाने वाले, संपादन के क्षेत्र में सिद्धहस्त, जनगाथा, लघुकथा वार्ता ब्लॉग पत्रिका के माध्यम से संपादन करने वाले, अनेक सम्मानों से सम्मानित, बलराम अग्रवाल जी सौम्य और सहज व्यक्तित्व के धनी हैं. श्री बलराम जी से लघुकथा के सन्दर्भ में जानने की जिज्ञासा रही इसी सन्दर्भ में श्री बलराम अग्रवाल जी से डॉ. भावना शुक्ल की बातचीत के अंश ……

भावना शुक्ल : आपके मन में लघुकथा लिखने के अंकुर कैसे फूटे? क्या घर का वातावरण साहित्यिक था?

बलराम अग्रवाल : नही; घर का वातावरण साहित्यिक नहीं था, धार्मिक था। परिवार के पास सिर्फ मकान अपना था। उसके अलावा न अपनी कोई दुकान थी, न खेत, न चौपाया, न नौकरी। पूँजी भी नहीं थी। रोजाना कमाना और खाना। इस हालत ने गरीबी को जैसे स्थायी-भाव बना दिया था। उसके चलते घर में अखबार मँगाने को जरूरत की चीज नहीं, बड़े लोगों का शौक माना जाता था। नौवीं कक्षा में मेरे आने तक मिट्टी के तेल की डिबिया ही घर में उजाला करती रही। बिजली के बल्ब ने 1967 में हमारा घर देखा। ऐसा नहीं था कि अखबार पढ़ने की फुरसत किसी को न रही हो। सुबह-शाम दो-दो, तीन-तीन घंटे रामचरितमानस और गीता का पाठ करने का समय भी पिताजी निकाला ही करते थे। बाबा को आल्हा, स्वांग आदि की किताबें पढ़ने का शौक था। किस्सा तोता मैना, किस्सा सरवर नीर, किस्सा… किस्सा… लोकगाथाओं की कितनी ही किताबें उनके खजाने में थीं, जो 1965-66 में उनके निधन के बाद चोरी-चोरी मैंने ही पढ़ीं। पिताजी गीताप्रेस गोरखपुर से छ्पी किताबों को ही पढ़ने लायक मानते थे। छोटे चाचा जी पढ़ने के लिए पुरानी पत्रिकाएँ अपने किसी न किसी दोस्त के यहाँ से रद्दी के भाव तुलवा लाते थे। वे उन्हें पढ़ते भी थे और अच्छी रचनाओं/वाक्यों को अपनी डायरी में नोट भी करते थे। उनकी बदौलत ही मुझे साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग, सरिता, मुक्ता, नवनीत, राष्ट्रधर्म, पांचजन्य जैसी स्तरीय पत्रिकाओं के बहुत-से अंकों को पढ़ने का सौभाग्य बचपन में मिला।

लघुकथा को अंकुरित करने का श्रेय 1972 के दौर में लखनऊ से प्रकाशित होने वाली लघु पत्रिका ‘कात्यायनी’ को जाता है। उसमें छपी लघु आकारीय कथाओं को पढ़कर मैं पहली बार ‘लघुकथा’ शब्द से परिचित हुआ। उन लघु आकारीय कथाओं ने मुझमें रोमांच का संचार किया और यह विश्वास जगाया कि भविष्य में कहानी या कविता की बजाय मैं लघुकथा लेखन पर ही अपना ध्यान केन्द्रित कर सकता हूँ। ‘कात्यायनी’ के ही जून 1972 अंक में मेरी पहली लघुकथा ‘लौकी की बेल’ छपी।

भावना शुक्ल : लघुकथा लिखने का मानदंड क्या है?

बलराम अग्रवाल : अनेक विद्वानों ने लघुकथा लिखने के अनेक मानदंड स्थापित किये हैं। उदाहरण के लिए, कुछेक ने लघुकथा की शब्द-सीमा निर्धारित कर दी है तो कुछेक ने आकार सीमा। हमने मानदंड निर्धारित करने में विश्वास नहीं किया; बल्कि लघुकथा के नाम पर कुछ भी लिख डालने और कुछ भी छाप देने वालों के लिए कुछ अनुशासन सुझाने की जरूरत अवश्य महसूस की।  ‘मानदंड’ शब्द से जिद की गंध आती है, तानाशाही रवैये का भास होता है; ‘अनुशासन’ समय के अनुरूप बदले जा सकते हैं। तात्पर्य यह है कि हमने अनुशासित रहते हुए, लघुकथा लेखन को कड़े शास्त्रीय नियमों से मुक्त रखने की पैरवी की है।

भावना शुक्ल : आपकी दृष्टि में लघुकथा की परिभाषा क्या होनी चाहिए ?

बलराम अग्रवाल : लघुकथा मानव-मूल्यों के संरक्षण, संवर्द्धन है, न ही गणित जैसा निर्धारित सूत्रपरक विषय है। इसका सम्बन्ध मनुष्य की सांवेदनिक स्थितियों से है, जो पल-पल बदलती रह सकती हैं, बदलती रहती हैं। किसी लघुकथा के रूप, स्वरूप, आकार, प्रकृति और प्रभाव के बारे में जो जो आकलन, जो निर्धारण होता है, जरूरी नहीं कि वही निर्धारण दूसरी लघुकथा पर भी ज्यों का त्यों खरा उतर जाए। इसलिए इसकी कोई एक सर्वमान्य परिभाषा नहीं है, हो भी नहीं सकती। अपने समय के सरोकारों से जुड़े विषय और प्रस्तुति वैभिन्न्य ही लघुकथा के सौंदर्य और साहित्य में इसकी उपयोगिता को तय करते हैं। इसलिए जाहिर है कि परिभाषाएँ भी तदनुरूप बदल जाती हैं।

भावना शुक्ल : लघुकथा ‘गागर में सागर’ को चरितार्थ करती है; आपका दृष्टिकोण क्या है ?

बलराम अग्रवाल : भावना जी, ‘गागर में सागर’ जैसी बहुत-सी पूर्व-प्रचलित धारणाएँ और मुहावरे रोमांचित ही अधिक करते हैं; सोचने, तर्क करने का मौका वे नहीं देते। ‘गागर में सागर’ समा जाए यानी बहुत कम जगह में कथाकार बहुत बड़ी बात कह जाए, इस अच्छी कारीगरी के लिए उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए; लेकिन सागर के जल की उपयोगिता कितनी है, कभी सोचा है? लगभग शून्य। गागर में भरे सागर के जल से न किसी की प्यास बुझ सकती है, न घाव ही धुल सकता है और न अन्य कोई कार्य सध सकता है। ‘लघुकथा’ ठहरा हुआ खारा पानी तो कतई नहीं है। वह अक्षय स्रोत से निकला मीठे जल का झरना है; नदी के रूप में जिसका विस्तार सागर पर्यंत है। इसलिए समकालीन लघुकथा के संदर्भ में, ‘गागर में सागर’ के औचित्य पर, हमारे विद्वानों को पुनर्विचार करना चाहिए। छठी, सातवीं, आठवीं कक्षा के निबंधों में रटा दी गयी उपमाओं से मुक्त होकर हमें नयी उपमाएँ तलाश करनी चाहिए।

भावना शुक्ल : आपके दृष्टिकोण से लघुकथा और कहानी में आप किसे श्रेष्ठ मानते हैं; और क्यों?

बलराम अग्रवाल : ‘श्रेष्ठ’ मानने, ‘श्रेष्ठ’ बनाने और तय करने की स्पर्द्धा मनुष्य समाज की सबसे घटिया और घातक वृत्ति है। प्रकृति में अनगिनत किस्म के पेड़ झूमते हैं, अनेक किस्म के फूल खिलते हैं, अनेक किस्म के पंछी उड़ते-चहचहाते हैं। सबका अपना स्वतंत्र सौंदर्य है। वे जैसे भी हैं, स्वतंत्र हैं। सबके अपने-अपने रूप, रस, गंध हैं। सब के सब परस्पर श्रेष्ठ होने की स्पर्द्धा से सर्वथा मुक्त हैं। लघुकथा और कहानी भी कथा-साहित्य की दो स्वतंत्र विधाएँ हैं जिनका अपना-अपना स्वतंत्र सौंदर्य है, अपनी-अपनी स्वतंत्र श्रेष्ठता है। नवांकुरों की जिज्ञासाएँ अल्प शिक्षितों जैसी हो सकती हैं। इन्हें स्पर्द्धा में खड़ा करने की आदत से कम से कम प्रबुद्ध साहित्यिकों को तो अवश्य ही बाज आना चाहिए।

भावना शुक्ल : आप हिंदी में लघुकथा का प्रारंभ कब से मानते हैं और आपकी दृष्टि में पहला लघुकथाकार कौन हैं ?

बलराम अग्रवाल : हिंदी में लघुकथा लेखन कब से शुरू हुआ, यह अभी भी शोध का ही विषय अधिक है। मेरे पिछले लेखों और वक्तव्यों में, सन् 1876 से 1880 के बीच प्रकाशित पुस्तिका ‘परिहासिनी’ के लेखक भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाम का उल्लेख पहले लघुकथाकार के तौर पर हुआ है। इधर, कुछ और भी रचनाएँ देखने में आयी हैं। मसलन, आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में पहले हिंदी समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ से एक ऐसी कथा-रचना उद्धृत की है, जो अपने समय की अभिजात्य क्रूरता को पूरी शिद्दत से पेश करती है। यह रचना लघुकथा के प्रचलित मानदंडों पर लगभग खरी उतरती है। मैं समझता हूँ कि जब तक आगामी शोधों में स्थिति स्पष्ट न हो जाए, तब तक इस रचना को भी हिंदी लघुकथा की शुरुआती लघुकथाओं में गिनने की पैरवी की जा सकती है। ‘उदन्त मार्तण्ड’ की अधिकांश रचनाओं के स्वामी, संपादक और लेखक जुगुल किशोर शुक्ल जी ही थे—अगर यह सिद्ध हो जाता है तो, पहला हिन्दी लघुकथाकार भी उन्हें ही माना जा सकता है।

भावना शुक्ल : आप लघुकथा का क्या भविष्य देखते हैं?

बलराम अग्रवाल : किसी भी रचना-विधा का भविष्य उसके वर्तमान स्वरूप में निहित होता है। लघुकथा के वर्तमान सर्जक अपने समय की अच्छी-बुरी अनुभूतियों को शब्द देने के प्रति जितने सजग, साहसी, निष्कपट, निष्पक्ष, ईमानदार होंगे, उतना ही लघुकथा का भविष्य सुन्दर, सुरक्षित और समाजोपयोगी सिद्ध होगा।

भावना शुक्ल : लघुकथा के प्रारंभिक दौर के 5 और वर्तमान दौर के 5 उन लघुकथाकारों के नाम दीजिए जो आपकी पसंद के हो ?

बलराम अग्रवाल : यह एक मुश्किल सवाल है। सीधे तौर पर नामों को गिनाया जा सकना मुझ जैसे डरपोक के लिए सम्भव नहीं है।  हिन्दी में प्रारम्भिक दौर की जो सक्षम लघुकथाएँ हैं, उनमें भारतेंदु की रचनाएँ चुटकुलों आदि के बीच से और प्रेमचंद तथा प्रसाद की रचनाएँ उनकी कहानियों के बीच से छाँट ली गयी हैं। 1916 में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की ‘झलमला’ भी अपनी अन्त:प्रकृति में छोटे आकार की कहानी ही है। उसके लघु आकार से असन्तुष्ट होकर बाद में बख्शी जी ने उसे 4-5 पृष्ठों तक फैलाया और ‘झलमला’ नाम से ही कहानी संग्रह का प्रकाशन कराया।  उसी दौर के कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर आदि जिन अन्य कथाकारों के लघुकथा संग्रह सामने आते हैं, उनमें स्वाधीनता प्राप्ति के लिए संघर्ष की आग ‘न’ के बराबर है, लगभग नहीं ही है। किसी रचना में कोई सन्दर्भ अगर है भी, तो वह संस्मराणात्मक रेखाचित्र जैसा है, जिसे ‘लघुकथा’ के नाम पर घसीटा भर जा रहा है। कम से कम मेरे लिए यह आश्चर्य का विषय रहा है कि स्वाधीनता संघर्ष के उन सघन दिनों में भी, जब पूरा देश ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ का नारा लगा रहा था, हमारे लघुकथाकारों ने जुझारुता और संघर्ष से भरी लघुकथाएँ क्यों नहीं दीं। वे ‘नैतिकता’, ‘बोध’ और ‘आत्म दर्शन’ ही क्यों बघारते-सिखाते रहे?… और मेरी समझ में इसके दो कारण आते हैं—पहला, सामान्य जीवन में गांधी जी की बुद्ध-आधारित अहिंसा का प्रभाव; और दूसरा, दार्शनिक भावभूमि पर खड़ी खलील जिब्रान की लघुकथाओं का प्रभाव।

लेकिन, ‘नैतिकता’, ‘बोध’ और ‘आत्म दर्शन’ के कथ्यों की अधिकता के बावजूद सामाजिकता के एक सिरे पर विष्णु प्रभाकर अपनी जगह बनाते हैं। वे परम्परागत और प्रगतिशील सोच को साथ लेकर चलते हैं। 1947-48 में लेखन में उतरे हरिशंकर परसाई अपने समकालीनों में सबसे अलग ठहरते हैं। उनमें संघर्ष के बीज भी नजर आते हैं और हथियार भी।

अपने समकालीन लघुकथाकारों के बारे में, मेरा मानना है कि हमारी पीढ़ी के कुछ गम्भीर कथाकारों ने लघुकथा को एक सार्थक साहित्यिक दिशा देने की ईमानदार कोशिश की है। लेकिन, उन्होंने अभी कच्चा फर्श ही तैयार किया है, टाइल्स बिछाकर इसे खूबसूरती और मजबूती देने के लिए आगामी पीढ़ी को सामने आना है। लघुकथा में, हमारी पीढ़ी के अनेक लोग गुणात्मक लेखन की बजाय संख्यात्मक लेखन पर जोर देते रहे हैं। लघुकथा संग्रहों और संपादित संकलनों/पत्रिकाओं का, समझ लीजिए कि भूसे का, ढेर लगाते रहे हैं। वे सोच ही नहीं पाये कि भूसे के ढेर से सुई तलाश करने का शौकीन पाठक गुलशन नन्दा और वेद प्रकाश काम्बोज को पढ़ता है। साहित्य के पाठक को सुई के लिए भूसे का ढेर नहीं, सुई का ही पैकेट चाहिए। भूसे का ढेर पाठक को परोसने की लेखकीय वृत्ति ने लघुकथा की विधापरक स्वीकार्यता को ठेस पहुँचायी है, उसे दशकों पीछे ठेला है। जिस कच्चे फर्श को तैयार करने की बात मैं पहले कह चुका हूँ, उसमें अपेक्षा से अधिक समय लगा है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि बाजारवादी सोच में फँसे नयी पीढ़ी के भी अनेक लेखक ‘संख्यात्मक’ वृद्धि के उनके फार्मूले का अनुसरण कर विधा का अहित कर रहे हैं। मेरी दृष्टि में… और शायद अनेक प्रबुद्धों की दृष्टि में भी, वास्तविकता यह है कि लघुकथा का विधिवत् अवतरण इन हवाबाजों की वजह से अभी भी प्रतिक्षित है।

भावना शुक्ल : खलील जिब्रान के व्यक्तित्व से आप काफी प्रभावित हैं, क्यों ?

बलराम अग्रवाल : खलील जिब्रान को जब पहली बार पढ़ा, तो लगा—यह आदमी उपदेश नहीं दे रहा, चिंगारी लगा रहा है, मशाल तैयार कर रहा है। कहानियों के अलावा, उन्होंने अधिकतर कथात्मक गद्य कविताएँ लिखी हैं जो हिन्दी में अनुवाद के बाद गद्यकथा बनकर सामने आई हैं, लेकिन उनमें भाषा प्रवाह और सम्प्रेषण काव्य का ही है। खलील जिब्रान के कथ्य, शिल्प और शैली सब की सब प्रभावित करती हैं। उनके कथ्यों में मौलिकता, प्रगतिशीलता और मुक्ति की आकांक्षा है। वे मनुष्य की उन वृत्तियों पर चोट करते हैं जो उसे ‘दास’ और ‘निरीह’ बनाये रखने के लिए जिम्मेदार हैं। वे सामन्ती और पूँजीवादी मानसिकता को ही बेनकाब नहीं करते, बौद्धिकता और दार्शनिकता के मुखौटों को भी नोंचते हैं। उनकी खूबी यह है कि वे ‘विचार’ को दार्शनिक मुद्रा में शुष्क ढंग से पेश करने की बजाय, संवाद के रूप में कथात्मक सौंदर्य प्रदान करने की पहल करते हैं, शुष्कता को रसदार बनाते हैं। उदाहरण के लिए, उनकी यह रचना देखिए—

वह मुझसे बोले–“किसी गुलाम को सोते देखो, तो जगाओ मत। हो सकता है कि वह आजादी का सपना देख रहा हो।”

“अगर किसी गुलाम को सोते देखो, तो उसे जगाओ और आजादी के बारे में उसे बताओ।” मैंने कहा।

भावना शुक्ल : आपने फिल्म में भी संवाद लिखे हैं। ‘कोख’ फिल्म के बाद किसी और फिल्म में भी संवाद लिखे हैं ?

बलराम अग्रवाल : वह मित्रता का आग्रह था। स्वयं उस ओर जाने की कभी कोशिश नहीं की।

भावना शुक्ल : आज के नवयुवा लघुकथाकारों को कोई सुझाव दीजिये जिससे उनका लेखन और पुष्ट हो सके ?

बलराम अग्रवाल : सबसे पहले तो यह कि वे अपने लेखन की विधा और दिशा निश्चित करें। दूसरे, सम्बन्धित विषय का पहले अध्ययन करें, उस पर मनन करे; जो भी लिखना है, उसके बाद लिखें।

भावना शुक्ला : चलते-चलते, एक लघुकथा की ख्वाहिश पूरी कीजिये जिससे आपकी बेहतरीन लघुकथा से हम सब लाभान्वित हो सकें ………

बलराम अग्रवाल : लघुकथा में अपनी बात को मैं प्रतीक, बिम्ब और कभी-कभी रूपक का प्रयोग करते हुए कहने का पक्षधर हूँ। ऐसी ही लघुकथाओं में से एक… ‘समन्दर:एक प्रेमकथा’ यहाँ पेश है :

समन्दर:एक प्रेमकथा

“उधर से तेरे दादा निकलते थे और इधर से मैं…”

दादी ने सुनाना शुरू किया। किशोर पौत्री आँखें फाड़कर उनकी ओर देखती रही—एकदम निश्चल; गोया कहानी सुनने की बजाय कोई फिल्म देख रही हो।

“लम्बे कदम बढ़ाते, करीब-करीब भागते-से, हम एक-दूसरे की ओर बढ़ते… बड़ा रोमांच होता था।”

यों कहकर एक पल को वह चुप हो गयीं और आँखें बंद करके बैठ गयीं।

बच्ची ने पूछा—“फिर?”

“फिर क्या! बीच में समन्दर होता था—गहरा और काला…!”

“समन्दर!”

“हाँ… दिल ठाठें मारता था न, उसी को कह रही हूँ।”

“दिल था, तो गहरा और काला क्यों?”

“चोर रहता था न दिल में… घरवालों से छिपकर निकलते थे!”

“ओ…ऽ… आप भी?”

“…और तेरे दादा भी।”

“फिर?”

“फिर, इधर से मैं समन्दर को पीना शुरू करती थी, उधर से तेरे दादा…! सारा समन्दर सोख जाते थे हम और एक जगह जा मिलते थे।”

“सारा समन्दर!! कैसे?”

“कैसे क्या…ऽ… जवान थे भई, एक क्या सात समंदर पी सकते थे!”

“मतलब क्या हुआ इसका?”

“हर बात मैं ही बतलाऊँ! तुम भी तो दिमाग के घोड़ों को दौड़ाओ कुछ।” दादी ने हल्की-सी चपत उसके सिर पर लगाई और हँस दी।

© डॉ.भावना शुक्ल

wz 21 हरी सिंह पार्क, मुल्तान नगर,  110056 मो 9278720311, ईमेल [email protected]

सम्पर्क :  श्री बलराम अग्रवाल, एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-32 / मो 8826499115

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख – * परिवर्तनकामी थे: हरिशंकर परसाई * –श्रीमती सुसंस्कृति परिहार

श्रीमती सुसंस्कृति परिहार

हिन्दी आलेख – परिवर्तनकामी थे: हरिशंकर परसाई

(प्रस्तुत है श्रीमती सुसंस्कृति परिहार जी का स्व. हरीशंकर परसाईं  जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर एक खोजपरख आलेख।)
– साभार श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी , जबलपुर 
‘बात बोलेगी हम नहीं, भेद खोलेगी बात ही’ कवियों के कवि शमशेर बहादुर सिंह की उपरोक्त पंक्तियां हरिशंकर परसाई की रचनाओं पर बिल्कुल सटीक बैठती हैं । हरिशंकर परसाई अगर चौदहवीं शताब्दी में पैदा होते तो कबीर होते और कबीर यदि बीसवीं शताब्दी में पैदा होते तो हरिशंकर परसाई होते । आजादी के पहले के भारत को जानना हो तो प्रेमचंद को पढ़ना चाहिए और आजादी के बाद के भारत को जानना हो तो हमें परसाई को पढ़ना होगा । इन मशहूर कथनों से हमें पता चलता है कि परसाई किस परंपरा में आते हैं ?
हरिशंकर परसाई का जन्म 22 अगस्त 1922 को होशंगाबाद जिले के जमानी गांव में हुआ इनके पिता का नाम श्री झूमक लाल परसाई था। माता का नाम श्रीमती चंपाबाई था । पांच भाई बहनों में परसाई जी सबसे बड़े थे ।उनकी प्राथमिक शिक्षा गांव की प्रायमरी शाला में हुई और मिडिल एवं हाई स्कूल की पढ़ाई टिमरनी हाई स्कूल में  ।1940 में मैट्रिक परीक्षा पास कर कुछ दिन वन विभाग में नौकरी की जहां से जबलपुर आ गये और जुलाई 1943 में मॉडल हाई स्कूल जबलपुर में शिक्षक हो गये । होशंगाबाद से लेकर जबलपुर तक नर्मदा उनके साथ रहीं । ‘नर्मदा तीरे’ नामक कालम में से ही उनका लेखन प्रारंभ हुआ ।  सुदीप बनर्जी की कविता की पंक्ति है -मैं जहां जहां गया, नदियां मेरे बहुत काम आईं । यही हाल परसाई जी का था । नर्मदा को कुंवारी नदी कहा जाता है परसाई जी भी आजीवन कुंवारे रहे ।
आजादी से मोह भंग की प्रक्रिया हिंदी के रचनाकारों को छठे दशक में शुरू हुई जबकि परसाई जी का मोहभंग आज़ादी के 3 माह बाद ही हो गया था इसी से हम उनकी पैनी दृष्टि का अंदाजा लगा सकते हैं उनकी पहली रचना प्रहरी में 23 नवंबर 1947 को ‘पैसे का खेल ‘शीर्षक से प्रकाशित हुई ।आजाद भारत में जो  पैसे का खेल शुरू हुआ उसे उन्होंने देख लिया था । प्रेमचंद जी ने ‘महाजनी सभ्यता’ लिखी बहुत बाद में किंतु महाजनी सभ्यता के विस्तार से परसाई लिखना प्रारंभ करते हैं ।
आजादी के बाद पनपते पाखंड, अनीति, अनाचार, अत्याचार, शोषण, संप्रदायवाद एवं साम्राज्यवाद के ख़तरों से परसाई जी आजीवन  लड़ते रहे तथा देशवासियों को सतर्क करते रहे । मुक्तिबोध जैसे युग प्रवर्तक कवि से उनकी मित्रता उनके जीवनकाल की अमूल्य निधि थी । खतरा उठा कर भी अभिव्यक्ति देने का संस्कार उन्होंने कबीर और मुक्ति बोध से पाया । मुक्तिबोध के अलावा ग़ालिब ,निराला एवं फ़ैज़ को अत्यधिक पसंद करते थे ।
परसाई जी व्यंग को विधा नहीं मानते थे उनके लेखन को किस खाने में रखा जाए यह बात हमेशा समीक्षकों के लिए समस्या रही है ।इसी तरफ इशारा करते हुये उन्होंने लिखा था- ‘मैं लेखक छोटा हूँ किन्तु संकट बड़ा  हूँ ‘। ‘मैं ‘ को आधार बनाकर जिस तरह उन्होंने अपने ऊपर निर्मम प्रहार किए हैं वैसा साहित्य में दुर्लभ है ।जो व्यंग्य लेखक अपनी आलोचना नहीं कर सकता सिर्फ दूसरों की आलोचना करता है उन पर व्यंग करता है वह सफल व्यंग्यकार नहीं हो सकता । परसाई की रचनाओं में गंभीर चिंतन है । रचना पूरी तरह व्यंग्य  के माहौल में डूबी रहती है पर दैनिक जीवन की वास्तविकतायें  हमारे सामने आती रहती हैं । उदाहरणत: एक स्थान पर भी लिखते हैं –‘हमारे जीवन में नारी को जो मुक्ति मिली है क्यों मिली है ।कैसे मिली आंदोलन से ,आधुनिक दृष्टि से ,उसके व्यक्तित्व की स्वीकृति से -नहीं उसकी मुक्ति का कारण महंगाई है। नारी मुक्ति के इतिहास में यह वाक्य अमर रहेगा एक कमाई से पूरा नहीं पड़ता ।’
अपनी खुद की मुफलिसी पर उन्होंने बहुत लिखा है:- ‘वे नेता पर गर्व करते हैं ‘दुख का ताज में लिखते हैं-‘ जिसके पास कुछ नहीं होता, अनंत दुख होता है वह धीरे धीरे शहादत के गर्व के साथ कष्ट भोगता है ।जीने के लिए आधार चाहिए और तब अभाव में यह दुख ही जीवन का आधार हो जाता है ।’
बाबा नागार्जुन ने वाणी ने पाये प्राणदान नामक कविता में उनके व्यंग्य बाणों के बारे में लिखा है –
छूटने लगे अविरल गति से
जब परसाई के व्यंग बाण
सरपट भागे तब धर्मध्वजी
दुष्टों के कम्पित हुए प्राण ।
आईये उनके कुछ व्यंग्य बाणों को भी देख लें—
इज्ज़तदार ऊंची झाड़ की ऊंची टहनी पर दूसरों के बनाए घोसले में अंडे देता है।
दानशीलता, सीधापन, भोलापन असल में इस तरह का इन्वेस्टमेंट है।
सड़ा विद्रोह एक रुपए में चार आने किलो के हिसाब से बिक जाता है ।
धर्म धंधे से जुड़ जाए इसी को योग कहते हैं। अर्थशास्त्र जब धर्मशास्त्र के ऊपर चाहे बैठता है तब गौ रक्षा आंदोलन के नेता पंडित जूतों की दुकान खोल लेते हैं।
परसाई जी जन जीवन से  जुड़े रचनाकार थे । मेरे समकालीन शीर्षक से लिखते हुए साहित्यकार अपने समय के साहित्यकारों पर लिखते हैं किंतु परसाई ने रिक्शा वाले, पान वाले, चाय वाले को समकालीन लिखा । हजारों हजार छात्रों और नौजवानों ने उनके लेखक एवं सानिध्य से प्रेरणा ली उनके ऊपर जब किसी संस्था वालों ने हमला किया तो बरसते पानी में जबलपुर के 5000 मजदूरों ने जुलूस निकाला और उनके निवास पर उनके प्रति समर्थन व्यक्त करने गए। ऐसी घटना दुनिया में शायद ही कहीं अन्यत्र हुई हो ।
उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ मध्य प्रदेश में अग्रणी बनाए रखा और ‘वसुधा’ जैसी पत्रिका का संपादन किया । आवश्यक लिखना, निरंतर लिखना परसाई जी से सीखने की चीज़ है । वे ऐसी विचारधारा को जरूरी मानते हैं  जिसमें जीवन का ठीक विश्लेषण हो सके और निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके। इसके बिना लेखक गलत निष्कर्ष का शिकार हो जाता है । वे मानते हैं ,प्रतिबद्धता एक गहरी चीज है जो इस बात से तय होती है इस समाज में जो द्वंद है उनमें लेखक किस तरफ खड़ा है? पीड़ितों के साथ या पीड़कों के साथ । वे मानते हैं जीवन जैसा है उसे बेहतर होना चाहिए ।जो गलत मूल्य हैं उन्हें नष्ट होना चाहिए क्योंकि साहित्य के मूल्य जीवन मूल्यों से बनते हैं ।निश्चित है परसाई के व्यंग शिष्टता का संबंध उच्च वर्गीय मनोरंजन से ना होकर समाज में सर्वहारा की लड़ाई से अधिक है जो आगे जाकर मनुष्य की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है ।वे प्रगतिकामी होने के साथ-साथ मानवता के लिए समर्पित रहे।
© श्रीमती सुसंस्कृति परिहार 
– साभार श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी , जबलपुर 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- आलेख – * डॉ अ. कीर्तिवर्धन का काव्य संसार * – श्री अभिषेक वर्धन

डॉ अ. कीर्तिवर्धन का काव्य संसार – दो काव्य संग्रह लोकार्पित

विद्यालक्ष्मी चैरिटेबल ट्रस्ट तथा एच डी चैरिटेबल सोसायटी के संयुक्त तत्वावधान में एस डी कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, मुजफ्फरनगर के सभागार में विगत 22 दिसंबर 2018 को आयोजित अविस्मरणीय समारोह में डॉ अ कीर्तिवर्धन की दो पुस्तकों “मानवता की ओर” तथा “द वर्ल्ड ऑफ पोइट्री” (The World of Poetry)  का लोकार्पण किया गया। कार्यक्रम का शुभारंभ डॉ कीर्ति वर्धन जी द्वारा हाइकु शैली में लिखी तथा भारती विश्वनाथन जी द्वारा स्वरबद्ध की गयी सरस्वती वंदना से किया गया।

पुस्तक के विषय में अपनी बात रखते हुये कीर्तिवर्धन जी ने समाज में घटते संस्कारों व सामाजिक मूल्यों के प्रति चिन्ता जाहिर की और बताया कि उनकी कविता भूतकाल से सीखकर वर्तमान के धरातल पर खड़ी होकर भविष्य की चुनौतियों के लिये समाज को तैयार करने का प्रयास है। मानवीय दृष्टिकोण तथा मानवता भारतीय जीवन शैली है, उसके बिना विश्व कल्याण सम्भव नही है। अपनी चार पंक्तियों के माध्यम से उन्होने कहा –

टूटकर   भी   किसी   के   काम   आ जाऊँगा,
मैं पत्ता हूँ,  गल गया तो खाद बन जाऊँगा।
हो सका तो मुझको जलाना ईंधन के वास्ते,
किसी के काम आ सकूँ, खुशी से जल जाऊँगा।

डॉ अ कीर्तिवर्धन की चुनिंदा कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद ‘द वर्ल्ड ऑफ पोइट्री’ के अनुवादक डॉ राम शर्मा (विभागाध्यक्ष अंग्रेजी जे वी कॉलेज बडौत) के अनुसार कीर्ति जी की कविताएँ सरल, सहज व मानवीय संवेदनाओं से पूर्ण हैं। आज कीर्ति जी की अंग्रेजी में अनुदित कविताएँ विश्व पटल पर पढी और सराही जाती हैं। श्री रोहित कौशिक जी के अनुसार डॉ कीर्ति वर्धन जी की कविताओं में समाज बदलने की ताकत है। वह आदमी को इन्सान बनने की प्रेरणा देते हैं। उन्होंने आशा जताई कि कीर्ति जी समाज को कुछ और भी बेहतर देने में सक्षम होंगे। श्री राजेश्वर त्यागी जी, मेरठ के अनुसार ‘मानवता की ओर’ मानवीय संवेदनाओं का जीवन्त दस्तावेज है। पुस्तक की अनेक रचनाओं का उल्लेख करते हुये उन्होने कहा कि अपने 52 वर्ष के लेखनकाल में उन्होने मानवीय संवेदनाओं की ऐसी सृजना नही की।

संस्कृत के प्रख्यात विद्वान डॉ उमाकांत शुक्ल जी ने कीर्तिजी की सहृदयता तथा मानवीय दृष्टिकोण को रेखांकित करते हुये उनकी पूर्व पुस्तकों मुझे इन्सान बना दो, सुबह सवेरे, सच्चाई का परिचय पत्र  में भी उनके मानवतावादी दृष्टिकोण की चर्चा की और आशीर्वाद देते हुये कहा कि कीर्तिवर्धन जी अपनी रचनाओं से समाज में मानवता का परचम फहराते रहेंगे और बच्चों में संस्कारों का रोपण करने में संलग्न रहेंगे। प्रसिद्ध शिक्षाविद डॉ एस एन चौहान के अनुसार  कीर्तिवर्धन जी अच्छे साहित्यकार के साथ बेहतरीन इंसान भी हैं। उनकी कविताएं इंसानी मूल्यों के प्रति संवेदना, प्रेरणा व स्फूर्ति पैदा करने वाली हैं। उनके अनुसार “मानवता की ओर” एक ऐसी कृति है जो आज के आपाधापी के युग में कल्याण का पथ प्रशस्त कर सकेंगी।  कीर्तिजी की बुजुर्गों पर केन्द्रित पुस्तक “जतन से ओढी चदरिया” को सराहते हुए उन्होने कहा कि यदि इसको पढा और समझा जाये तो समाज में वृद्धाश्रम की समस्या समाप्त हो जायेगी। डॉ चौहान ने कीर्तिवर्धन जी की रचनाओं के कन्नड, तमिल, मैथिली, नेपाली, अंगिका, तमिल व उर्दू अनुवादों की भी चर्चा की।

साभार श्री अभिषेक वर्धन, मुजफ्फरनगर

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- आलेख – * आत्मनिर्भरता के लिए सेल्फी * – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव “विनम्र”

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव “विनम्र”

आत्मनिर्भरता के लिए सेल्फी

(प्रख्यात साहित्यकार श्री विवेक  रंजन  श्रीवास्तव जी  ‘सेल्फी ‘को  किस दृष्टि से देखते हैं, जरा आप भी देखिये।)  

“स्वाबलंब की एक झलक पर न्यौछावर कुबेर का कोष ” राष्ट्र कवि मैथली शरण गुप्त की ये पंक्तियां सेल्फी फोटो कला के लिये प्रेरणा हैं. ये और बात है कि कुछ दिल जले  कहते हैं कि सेल्फी आत्म मुग्धता को प्रतिबिंबित करती हैं. ऐसे लोग यह भी कहते हैं कि सेल्फी मनुष्य के वर्तमान व्यस्त एकाकीपन को दर्शाती है. जिन्हें सेल्फी लेनी नही आती ऐसी प्रौढ़ पीढ़ी सेल्फी को आत्म प्रवंचना का प्रतीक बताकर अंगूर खट्टे हैं वाली कहानी को ही चरितार्थ करते दीखते हैं.

अपने एलबम को पलटता हूं तो नंगधुड़ंग नन्हें बचपन की उन श्वेत श्याम  फोटो पर दृष्टि पड़ती हैं जिन्हें मेरी माँ या पिताजी ने आगफा कैमरे की सेल्युलर रील घुमा घुमा कर खींचा रहा होगा. अपनी यादो में खिंचवाई गई पहली तस्वीर में मैं गोल मटोल सा हूँ, और शहर के स्टूडियो के मालिक और प्रोफेशनल फोटोग्राफर कम शूट डायरेक्टर लड़के ने घर पर आकर, चादर का बैकग्राउंड बनवाकर सैट तैयार करवाया था, हमारी फेमली फोटोग्राफ के साथ ही मेरी कुछ सोलो फोटो भी खिंची थीं. मुझे हिदायत दी थी कि मैं कैमरे के लैंस में देखूं, वहाँ से चिड़िया निकलने वाली है. घर के कम्पाउंड में वह जगह चुनी गई थी जिससे सूरज की रोशनी मुझ पर पड़े  और पिताजी के इकलौते बेटे का  बढ़िया सा फोटो बन सके. फोटो अच्छा ही है, क्योकि वह फ्रेम करवाया गया और बड़े सालों तक हमारे ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाता रहा.अब वह फोटो मेरी पत्नी और बच्चो के लिये आर्काईव महत्व का बन चुका है.

यादो के एलबम को और पलटें तो स्कूल , कालेज के वे ग्रुप फोटो मिलते हैं जिन्हें हार्ड दफ्ती पर माउंट करके नीचे नाम लिखे होते थे कि बायें से दायें कौन कहां खड़ा है. मॉनिटर होने के नाते मैं मास्साब के बाजू में सामने की पंक्ति पर ही सेंटर फारवार्ड पोजीशन पर मौजूद जरूर हूं पर यदि नाम न लिखा हो तो शायद खुद को भी आज पहचानना कठिन हो. वैसे सच तो यह है कि मरते दम तक हम खुद को कहाँ पहचान पाते हैं, प्याज के छिलको या कहें गिरगिटान की तरह हर मौके पर अलग रंग रूप के साथ हम खुद को बदलते रहते हैं. आफिस के खुर्राट अधिकारी भी बीबी और बास के सामने दुम दबाते नजर आते हैं. शादी में जयमाला की रस्मो के सूत्रधार फोटोग्राफर ही होते हैं वे चाहें तो गले में पड़ी हुई माला उतरवा कर फिर से डलवा दें. शादी का हार गले में क्या पड़ता है, पत्नी जीवन भर शीशे में उतारकर फोटू खींचती रहती है ये और बात है कि वे फोटू दिखती नही जीवन शैली में ढ़ल जाती हैं.

कालेज के दिन वे दिन होते हैं जब आसमान भी लिमिट नही होता. अपने कालेज के दिनो में हम स्टडी ट्रिप पर दक्षिण भारत गये थे. ऊटी के बाटनिकल गार्डेन के सामने खिंचवाई गई उस फोटो का जिक्र जरूरी लगता है जिसे निगेटिव प्लेट पर काले कपड़े से ढ़ांक कर बड़े से ट्रिपाईड पर लगे  कैमरे के सामने लगे ढ़क्ककन को हटाकर खींचा गया था, और फिर केमिकल ट्रे में धोकर कोई घंटे भर में तैयार कर हमें सुलभ करवा दिया गया था. कालेज के दिनो में हम फोटो ग्राफी क्लब के मेंम्बर रहे हैं. डार्क रूम में लाल लाइट के जीरो वाट बल्ब की रोशनी में हमने सिल्वर नाइत्रेट के सोल्यूशन में सधे हाथो से सैल्युलर फिल्में धोई और याशिका कैमरे में डाली हैं. आज भी वे निगेटिव हमारे पास सुरक्षित हैं, पर शायद ही उनसे अब फोटो बनवाने की दूकाने हों.

डिजिटल टेक्नीक की क्रांति नई सदी में आई. पिछली सदी के अंत में तस्करी से आये जापानी आटोमेटिक टाइमर कैमरे को सामने सैट करके रख कर मिनिट भर के निश्चित समय के भीतर कैमरे के सम्मुख पोज बनाकर सेल्फी हमने खींची है, पर तब उस फोटो को सेल्फी कहने का प्रचलन नहीं था. सेल्फी शब्द की उत्पत्ति मोबाइल में कैमरो के कारण हुई. यूं तो मोबाईल बाते करने के लिये होता है पर इंटनेट, रिकार्डिग सुविधा, और बढ़िया कैमरे के चलते अब हर हाथ में मोबाईल, कम्प्यूटर से कहीं बढ़कर बन चुके हैं. जब हाथ में मोबाईल हो, फोटोग्राफिक सिचुएशन हो, सिचुएसन न भी हो तो खुद अपना चेहरा किसे बुरा दिखता है.  ग्रुप फोटो में भी लोग अपना ही चेहरा ज्यादा देखते हैं . हर्रा लगे न फिटकरी रंग चोखा आये की शैली में सेल्फी खींचो और डाल दो इंस्टाग्राम या फेसबुक पर लाईक ही लाईक बटोर लो. अभिव्यक्ति का श्रेष्ठ साधन हैं सेल्फी. मेरे फेसबुक डाटा बताते हैं कि मेरी नजर में मेरे अच्छे से अच्छे व्यंग को भी उतने लाइक नही मिलते जितने मेरी खराब से खराब प्रोफाइल पिक को लोड करते ही मिल जाते हैं. शायद पढ़ने का समय नही लगाना पड़ता, नजर मारो और लाइक करो इसलिये . शायद इस भावना से भी कि सामने वाला  भी लाइक रेसीप्रोकेट करेगा. यूं लड़कियो को यह प्रकृति प्रदत्त सुविधा है कि वे किसी को लाइक करें न करें उनकी फोटो हर कोई लाइक करता है.

सेल्फी से ही रायल जमाने के तैल चित्र बनवाने के मजे लेने हो तो अब आपको घंटो एक ही पोज पर चित्रकार के सामने स्थिर मुद्रा में बैठने की कतई जरूरत नहीं है. प्रिज्मा जैसे साफ्टवेयर मोबाईल पर उपलब्ध हैं, सेल्फी लोड करिये और अपना राजसी तैल चित्र बना लीजीये वह भी अलग अलग स्टाइल में मिनटो में.

जब सस्ती सरल सुलभ सेल्फी टेक्नीक हर हाथ में हो तो उसके व्यवसायिक उपयोग केसे न हों. कुछ इनोवेटिव एम बी ए पढ़े प्रोडक्ट मेनेजर्स ने उनके उत्पाद के साथ  सेल्फी लोड करने  पर पुरस्कार योजनायें भी बना डालीं . कोई कचरे के साथ सेल्फी से हिट है तो कोई देश के विकास में योगदान दे रहा है योगासन की सेल्फी से, तो अपनी ढ़ेर सी शुभकामनायें सभी सेल्फ़ीबाजो को. सैल्फी युग में सब कुछ हो, भगवान से यही दुआ है कि हम सैल्फिश होने से बचें और खतरनाक सेल्फी लेते हुये  किसी पहाड़ की चोटी,  बहुमंजिला इमारत, चलती ट्रेन, या बाइक पर स्टंट की सेल्फी लेते किसी की जान न जावें.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

Please share your Post !

Shares
image_print