हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 42 ☆ मेरी रचना प्रक्रिया☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक आलेख  “ मेरी  रचना प्रक्रिया।  श्री विवेक जी ने  इस आलेख में अपनी रचना प्रक्रिया पर विस्तृत विमर्श किया है। आपकी रचना प्रक्रिया वास्तव में व्यावहारिक एवं अनुकरणीय है जो  एक सफल लेखक के लिए वर्तमान समय के मांग के अनुरूप भी है।  उनका यह लेख शिक्षाप्रद ही नहीं अपितु अनुकरणीय भी है। उन्हें इस  अतिसुन्दर आलेख के लिए बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 42 ☆ 

मेरी रचना प्रक्रिया

मूलतः व्यंग्य, लेख, विज्ञान, बाल नाटक,विज्ञान कथा, कविता आदि मेरी अभिव्यक्ति की विधायें हैं.

मेरे प्रिय व्यंग्य, रामभरोसे, कौआ कान ले गया, धन्नो बसंती और बसंत, खटर पटर, मिलीभगत, आदि मेरे लोकप्रिय व्यंग्य संग्रह हैं. जल जंगल और जमीन बाल विज्ञान की पुस्तक है जो प्रदेश स्तर पर प्राथमिक शालाओ में खूब खरीदी व सराही गई, हिंदोस्तां हमारा, जादू शिक्षा का, नाटक की पुस्तकें हैं.आक्रोश १९९२ में विमोचित पहला कविता संग्रह है.

मैं रचना को मन में परिपक्व होने देता हूं, सामान्यतः अकेले घूमते हुये, अधनींद में, सुबह बिस्तर पर, वैचारिक स्तर पर सारी रचना का ताना बाना बन जाता है फिर जब मूड बनता है तो सीधे कम्प्यूटर पर लिख डालता हूं. मेरा मानना है कि किसी भी विधा का अंतिम ध्येय उसकी उपयोगिता होनी चाहिये. समाज की कुरीतियो, विसंगतियो पर प्रहार करने तथा पाठको का ज्ञान वर्धन व उन्हें सोचने के लिये ही वैचारिक सामग्री देना मेरी रचनाओ का लक्ष्य होता है.

मेरी रचना का विस्तार कई बार अमिधा में सीधे सीधे जानकारी देकर होता है, तो कई बार प्रतीक रूप से पात्रो का चयन करता हूं. कुछ बाल नाटको में मैने नदी,पहाड़,वृक्षो को बोलता हुआ भी रचा है. अभिव्यक्ति की विधा तथा विषय के अनुरूप इस तरह का चयन आवश्यक होता है, जब जड़ पात्रो को चेतन स्वरूप में वर्णित करना पड़ता है.  रचना की संप्रेषणीयता संवाद शैली से बेहतर बन जाती है इसलिये यह प्रक्रिया भी अनेक बार अपनानी पड़ती है.

कोई भी रचना जितनी छोटी हो उतनी बेहतर होती है,न्यूनतम शब्दों में अधिकतम वैचारिक विस्तार दे सकना रचना की सफलता माना जा सकता है.  विषय का परिचय, विस्तार और उपसंहार ऐसा किया जाना चाहिये कि प्रवाहमान भाषा में सरल शब्दो में पाठक उसे समझ सकें.नन्हें पायको के लिये लघु रचना, किशोर और युवा पाठको के लिये किंचित विस्तार पूर्वक तथ्यात्मक तर्को के माध्यम से रचना जरूरी होती है. मैं बाल कथा ५०० शब्दों तक समेट लेता हूं, वही आम पाठको के लिये विस्तार से २५०० शब्दों में भी लिखता हूं. अनेक बार संपादक की मांग के अनुरूप भी रचना का विस्तार जरूरी होता है. व्यंग्य की शब्द सीमा १००० से १५००शब्द पर्याप्त लगती है. कई बार तो पाठको की या संपादक की मांग पर वांछित विषय पर लिखना पड़ा है. जब स्वतंत्र रूप से लिखा है तो मैंने पाया है कि अनेक बार अखबार की खबरों को पढ़ते हुये या रेडियो सुनते हुये कथानक का मूल विचार मन में कौंधता है.

मेरी अधिकांश रचनाओ के शीर्षक रचना पूरी हो जाने के बाद ही चुने गये हैं. एक ही रचना के कई शीर्षक अच्छे लगते हैं. कभी  रचना के ही किसी वाक्य के हिस्से को शीर्षक बना देता हूं. शीर्षक ऐसा होना जरूरी लगता है जिसमें रचना की पूरी ध्वनि आती हो.

मैंने  नाटक संवाद शैली में ही लिखे हैं. विज्ञान कथायें वर्णनात्मक शैली की हैं. व्यंग्य की कुछ रचनायें मिश्रित तरीके से अभिव्यक्त हुई हैं. व्यंग्य रचनायें प्रतीको और संकेतो की मांग करती हैं. मैं सरलतम भाषा, छोटे वाक्य विन्यास, का प्रयोग करता हूं. उद्देश्य यह होता है कि बात पाठक तक आसानी से पहुंच सके. जिस विषय पर लिखने का मेरा मन बनता है, उसे मन में वैचारिक स्तर पर खूब गूंथता हूं, यह भी पूर्वानुमान लगाता हूं कि वह रचना कितनी पसंद की जावेगी.

मेरी रचनायें कविता या कहानी भी नितांत कपोल कल्पना नही होती.मेरा मानना है कि कल्पना की कोई प्रासंगिकता वर्तमान के संदर्भ में अवश्य ही होनी चाहिये. मेरी अनेक रचनाओ में धार्मिक पौराणिक प्रसंगो का चित्रण मैंने वर्तमान संदर्भो में किया है.

मेरी पहचान एक व्यंग्यकार के रूप में शायद ज्यादा बन चुकी है. इसका कारण यह भी है कि सामाजिक राजनैतिक विसंगतियो पर प्रतिक्रिया स्वरूप समसामयिक व्यंग्य  लिख कर मुझे अच्छा लगता है, जो फटाफट प्रकाशित भी होते हैं.नियमित पठन पाठन करता हूं, हर सप्ताह किसी पढ़ी गई किताब की परिचयात्मक संक्षिप्त समीक्षा भी करता हूं. नाटक के लिये मुझे साहित्य अकादमी से पुरस्कार मिल चुका है. बाल नाटको की पुस्तके आ गई हैं. इस सबके साथ ही बाल विज्ञान कथायें लिखी हैं . कविता तो एक प्रिय विधा है ही.

पुस्तक मेलो में शायद अधिकाधिक बिकने वाला साहित्य आज बाल साहित्य ही है. बच्चो में अच्छे संस्कार देना हर माता पिता की इच्छा होती है, जो भी माता पिता समर्थ होते हैं, वे सहज ही बाल साहित्य की किताबें बच्चो के लिये खरीद देते हैं. यह और बात है कि बच्चे अपने पाठ्यक्रम की पुस्तको में इतना अधिक व्यस्त हैं कि उन्हें इतर साहित्य के लिये समय ही नही मिल पा रहा.

आज अखबारो के साहित्य परिशिष्ट ही आम पाठक की साहित्य की भूख मिटा रहे हैं.पत्रिकाओ की प्रसार संख्या बहुत कम हुई है. वेब पोर्टल नई पीढ़ी को साहित्य सुलभ कर रहे हैं. किन्तु मोबाईल पर पढ़ना सीमित होता है, हार्ड कापी में किताब पढ़ने का आनन्द ही अलग होता है.  शासन को साहित्य की खरीदी करके पुस्तकालयो को समृद्ध करने की जरूरत है.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 23 – महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। डॉ भीमराव  आम्बेडकर जी के जन्म दिवस के अवसर पर  हम  आपसे इस माह महात्मा गाँधी जी एवं  डॉ भीमराव आंबेडकर जी पर  आधारित आलेख की श्रंखला प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का  प्रथम आलेख  “महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर। )

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 23 – महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर  – 1

परतंत्र भारत में समाज सुधार के लिए स्वयं को समर्पित करने वाले महापुरुषों  में डाक्टर भीमराव आम्बेडकर और मोहनदास करमचंद गांधी का नाम अग्रिम पंक्ति में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। डाक्टर भीम राव आम्बेडकर को स्वतन्त्रता के पूर्व से ही दलित वर्ग के नेतृत्वकर्ता के रूप में पहचान मिली और वे वंचित शोषित समाज के प्रतिनिधि के रूप में पहले साइमन कमीशन के सामने मुंबई में  और फिर तीनों  गोलमेज कांफ्रेंस, लन्दन में न केवल सम्मिलित हुए वरन उन्होंने तत्कालीन भारतीय समाज में दलितों की समस्या पुरजोर ढंग से अंग्रेज सरकार के सामने रखी। इसके पूर्व भी डाक्टर आम्बेडकर विभिन्न मंचों पर दलित समुदाय की समस्याएं उठाते रहे और अस्पृश्यता के खिलाफ आन्दोलन व जनजागरण की मुहीम चलाते रहे। इस दिशा में महाड़ के चवदार तालाब में अपने अनुयायियों के साथ प्रवेश कर अंजुली भर जल पीने और नाशिक के कालाराम मंदिर तथा अन्य हिन्दू धार्मिक स्थलों  में दलितों के प्रवेश को लेकर किये गए आन्दोलनों, अछूतों के उपनयन संस्कार आदि के आयोजनों ने उन्हें पर्याप्त ख्याति दी।  दूसरी ओर गांधीजी ने भी दलित समाज की पीड़ा को समझा और उनको मुख्य धारा में शामिल करने, छुआछूत का भेद मिटाने, मंदिरों में प्रवेश, दलित वर्ग के शैक्षणिक, आर्थिक व सामाजिक विकास  आदि को लेकर सामाजिक आंदोलन किये, उन्हें ‘हरिजन’ नाम दिया और ‘हरिजन’ नाम से एक समाचार पत्र का सम्पादन भी किया। गांधीजी ने कांग्रेस के कार्यों के लिए लगभग एक  करोड़ रूपये का चन्दा सन 1921 में एकत्रित किया था, इसमें से बड़ी रकम उन्होंने अछूतपन मिटाने जैसे  रचनात्मक कार्यों के लिये आवंटित की थी। गांधीजी ने 1933 में भारत का व्यापक दौरा किया जिसे इतिहास में हरिजन दौरे का नाम मिला।  दोनों नेताओं के बीच दलितों के उत्थान को लेकर इस सामाजिक बुराई को लेकर गहरे मतभेद थे। आज भी यदा कदा इन मतभेदों को लेकर चर्चाएँ होती रहती हैं और दोनों को एक दूसरे के कट्टर विरोधी और कटु आलोचक के रूप में दिखाया जाता है। वस्तुतः ऐसा है नहीं। इन दोनों नेताओं के बीच दलित समाज के उत्थान को लेकर चिंता थी, दोनों इस सामाजिक बुराई को दूर करना चाहते थे लेकिन जहाँ एक ओर कानूनविद आम्बेडकर इस बुराई को दूर करने के लिए कठोर कारवाई और  क़ानून का सहारा लेना चाहते थे तो दूसरी ओर गांधीजी इसे सौम्यता के साथ सामाजिक बदलाव व ह्रदय परिवर्तन के माध्यम से दूर करना चाहते थे।

इन्दौर के निकट महू छावनी में  (जिसका नामकरण अब डाक्टर आम्बेडकर नगर हो गया है)  14 अप्रैल 1891 को जन्मे भीमराव आम्बेडकर, सेना में सूबेदार रामजी राव के चौदहवें पुत्र थे और वे महात्मा गांधी से लगभग बाईस वर्ष छोटे थे। उम्र के इतने अंतर के बाद भी गांधीजी डाक्टर आम्बेडकर से अपने मतभेदों के बावजूद  संवाद करते रहते थे। पंडित जवाहर लाल नेहरु ने डाक्टर आम्बेडकर को अपनी मंत्रीपरिषद में क़ानून मंत्री बनाया, संविधान सभा का सदस्य बनाया और उनकी इच्छा के अनुरूप दलितों को आरक्षण का संवैधानिक अधिकार दिलाया यह सब कुछ निश्चय ही महात्मा गांधी की प्रेरणा से ही संभव हुआ।

गांधीजी और डाक्टर आम्बेडकर के मध्य अस्पृश्यता को लेकर बड़े गहरे मतभेद थे। जहाँ गांधीजी वर्ण व्यवस्था को हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग मानते थे और उनके मतानुसार अस्पृश्यता वर्ण व्यवस्था की देन  न होकर ऊँच-नीच की भावना का परिणाम है जो हिन्दुओं में फैल गई है व समाज को खाए जा रही है। डाक्टर आम्बेडकर का मानना था कि  अस्पृश्यता मनुवादी वर्ण व्यवस्था के कारण है और जब तक वर्णाश्रम को ख़त्म नहीं किया जाता तब तक अन्त्ज्य रहेंगे और उनकी मुक्ति संभव नहीं है। जाति प्रथा को भी गांधीजी अनिवार्य मानते थे और इसे वे रोजगार से जोड़कर देखते थे। डाक्टर आम्बेडकर के विचारों में स्वराज से पहले अछूत समस्या का निदान जरूरी था और वे दलित वर्ग के लिए समता के अधिकारों की गारंटी स्वराज हासिल करने के पहले चाहते थे। उनकी मान्यता थी कि अगर अंग्रेजों के रहते अछूतों को उनके अधिकार नहीं मिले तो स्वराज प्राप्ति के बाद भारत की राजनीति में सवर्णों का एकाधिपत्य बना रहेगा और वे दलितों के साथ सदियों पुरानी परम्परा के अनुसार दुर्व्यवहार व भेदभाव करते रहेंगे। गांधीजी सोचते थे कि एक बार स्वराज मिल जाय तो फिर इस समस्या का निदान खोजा जाकर  अंत कर दिया जाएगा। गांधीजी ने दलितों को हिन्दू समाज में सम्मानजनक स्थान देने के लिए ‘हरिजन’ नाम दिया। डाक्टर आम्बेडकर और उनके अनुयायियों ने ‘हरिजन’ शब्द को कानूनी मान्यता देने संबंधी प्रस्ताव का डटकर विरोध किया। उनके मतानुसार यदि दलित ‘हरिजन’ यानी ईश्वर की संतान हैं तो क्या शेष लोग शैतान की संतान हैं?

गांधीजी और आम्बेडकर में मतभेद  अस्पृश्यता की उत्पत्ति को लेकर भी थे। गांधीजी का मानना था कि वेदों में चार वर्ण की तुलना शरीर के चार हिस्सों से की गई है। चूँकि चारों वर्ण शरीर का अंग हैं अत: उनमें ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं हो सकता। वे मानते थे कि पुर्नजन्म के सिद्धांत के अनुसार अच्छे कार्य करने से शूद्र भी अगले जन्म में ब्राह्मण वर्ण में पैदा हो सकता है। वे वर्ण व्यवस्था को सोपान क्रम जैसा नहीं मानते वरन उनके अनुसार अलग-अलग जातियों का होना हिन्दू धर्म में सामाजिक समन्वय व आर्थिक स्थिरता बनाए रखता है। हिन्दू समाज के एक समन्वित इकाई के रूप में कार्य करने का श्रेय वे वर्ण व्यवस्था को देते हैं। वे विभिन्न वर्णों व जातियों के मध्य विवाह व खान पान का निषेध नहीं करते हैं, लेकिन इस हेतु किसी भी जोर जबरदस्ती के वे खिलाफ हैं। गांधीजी के विपरीत आम्बेडकर ने वेदों में वर्णित वर्ण व्यवस्था की अलग ढंग से व्याख्या की। वे मानते हैं कि वर्ण व्यवस्था में विभिन्न वर्गों का शरीर के अंगों के समतुल्य मानना सोची समझी योजना है। मानव शरीर में पैर ही सबसे हेय अंग हैं और इसलिए शूद्र को सामाजिक व्यवस्था में सबसे निचली पायदान प्राप्त है। सामाजिक अपमान की यह धारणा उनके मतानुसार परतबद्ध असमानता के दम पर टिकी है। वे जाति प्रथा का कारण आर्थिक नहीं वरन एक ही जाति के भीतर विवाह की व्यवस्था को मानते हैं। उनके मतानुसार रोटी-बेटी का सम्बन्ध बनाए बिना जाति व्यवस्था ख़त्म नहीं होगी और जब तक जातियाँ अस्तित्व में अस्पृश्यता बनी रहेगी।

……….क्रमशः  – 2

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य- संस्मरण ☆ संस्मरणात्मक आलेख  – भाग रहा कोरोना ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

डॉ कुंवर प्रेमिल

(डॉ कुंवर प्रेमिल जी  जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लगातार लेखन का अनुभव हैं। अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। वरिष्ठतम नागरिकों ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक कई महामारियों से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है। आज प्रस्तुत है  उनके संस्मरण पर आधारित रचना “भाग रहा कोरोना”. उनके दीर्घ जीवन के एक संस्मरण  की स्मृतियाँ जो हमें याद दिलाती है  कि हम जीवन में कैसे-कैसे अनुभवों से गुजरते हैं।)

☆ संस्मरणात्मक आलेख  – भाग रहा कोरोना ☆  

सत्तर के दशक में ओडीसा राज्य में सरवे हेतु गया था. वहां का घना जंगल देख कर भय लगता था, बड़े बड़े अजगर, शेर, भालू, कदम-कदम पर मिलते थे, जान जोखिम में रहती थी,

हम लोग दिन भर जंगलों में काम करते थे, थक हार कर कैंप में लौटते तो हाथी दल से सामना हो जाता,  गाँव वालों के साथ टीन टप्पर बजाकर हाथियों को भगाया जाता,  भागते हाथियों को देख कर तालियां बजाते,

वैसा का वैसा दृश्य बाइस मार्च को देखने मिला, पूरा शहर घंटा-घडियाल, शंख बजा रहा था ऐसा लगता था जैसे हम लोग कोरोना को भगा रहे थे, और कोरोना सिर पर पैर रख कर भाग रहा था,

भागते हाथियों का संस्मरण भागते कोरोना से जोड़ कर मैं आशान्वित हो रहा था. आप भी हों. आशा से आसमान जो टंगा है.

यह संस्मरण सांकेतिक है किन्तु, इस आशा के पीछे छुपा है स्वास्थ्य कर्मियों, पुलिस एवं प्रशासनिक कार्य में जुटे हुए उन लाखों भारतीय नागरिकों का सतत निःस्वार्थ भाव से किया जा रहा कार्य जो हमें इस अदृश्य शत्रु से लड़ने में सहयोग दे रहे हैं।  घंटे घड़ियाल, शंख, थाली और तालियों से उन सबको नमन।

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – बचपना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – बचपना  ☆

बच्चों को उठाने के लिए माँ-बाप अलार्म लगाकर सोते हैं। जल्दी उठकर बच्चों को उठाते हैं। किसी को स्कूल जाना है, किसी को कॉलेज, किसी को नौकरी पर। किसी दिन दो-चार मिनट पहले उठा दिया तो बच्चे चिड़चिड़ाते हैं।  माँ-बाप मुस्कराते हैं, बचपना है, धीरे-धीरे समझेंगे।…धीरे-धीरे बच्चे ऊँचे उठते जाते हैं और खुद को ‘सेल्फमेड’ घोषित कर देते हैं।
सोचता हूँ कि माँ-बाप और परमात्मा में कितना साम्य है! जीवन में हर चुनौती से दो-दो हाथ करने के लिए जागृत और प्रवृत्त करता है ईश्वर। माँ-बाप की तरह हर बार जगाता, चाय पिलाता, नाश्ता कराता, टिफिन देता, चुनौती फ़तह कर लौटने की राह देखता है। हम फ़तह करते हैं चुनौतियाँ और खुद को ‘सेल्फमेड’ घोषित कर देते हैं।
कब समझेंगे हम? अनादिकाल से चला आ रहा बचपना आख़िर कब समाप्त होगा?
घर पर रहें, स्वस्थ रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

( प्रातः 6:52 बजे,28.8.19)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 37 – मस्तिष्क, शरीर और विज्ञान ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण आलेख  मस्तिष्क, शरीर और विज्ञान। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 37 ☆

☆ मस्तिष्क, शरीर और विज्ञान

 

जैसा कि मैंने आपको बताया था कि हमें वर्तमान और आने वाले जीवन में अपने अच्छे या बुरे कर्मों के फलो का सामना करना पड़ता है, ये कर्म गुप्त रूप से लिंग शरीर में 17 गुणों के रूप में सांकेतिक शब्दों में उपस्थित रहते हैं या आप कह सकते हैं कि यह निर्देशिका (index) के रूप में रहते हैं । लेकिन जैसा ही आत्मा लिंग शरीर के साथ नए शरीर में प्रवेश करती है, जल्द ही यह निर्देशिका संकेत-वर्गीकरण (index coding) से विस्तृत रूप में खुल जाता है और उचित चक्र स्थानों पर प्रक्षेपित हो जाता है और चक्रों के कंपन की आवृत्तियों को प्रभावित करता है, और चक्रों के कंपन की आवृत्तियों का ये अंतर ही हमारे DNA में नाइट्रोजन और प्रोटीन संकेत-वर्गीकरण के रूप में मानचित्रित (map) हो जाता है । हाइड्रोजन बंधन DNA की दोहरी कुंडलिनी (double-helix) संरचना को एक साथ रखते हैं, जो जीवन के निर्माण खंडों के लिए मूल इकाई है । एक हाइड्रोजन परमाणु के साथ बातचीत का प्रत्यक्ष माप DNA और बहुलक जैसे त्रि-आयामी अणुओं की पहचान के लिए मार्ग प्रशस्त करता है । तो अब आप समझ सकते हैं कि कैसे हमारे सकल शरीर के DNA से सूक्ष्म शरीर के प्राणमय कोश के चक्रों के बीच सूचना का आदान प्रदान होता है । इसके अतरिक्त हमारा DNA पूरे ब्रह्मांड की जानकारी को संग्रहित कर सकता है ।

असल में मानव DNA एक जैविक रूप से जटिल अणु है । यह शरीर की सभी प्रमुख अंग प्रणालियों के बीच संचार का समन्वय करता है । एक पूरी तरह से नई दवा बनायीं गयी है जिसमें DNA के एकल जीन काटने और बदलने के बिना शब्दों और आवृत्तियों द्वारा प्रभावित और पुन: क्रमादेश किया जा सकता है । प्रोटीन के निर्माण के लिए हमारे DNA का 10% से कम उपयोग होता है । शेष 90% कबाड़ (Junk) DNA की तरह होता हैं । हमारा DNA न केवल हमारे शरीर के निर्माण के लिए ज़िम्मेदार है बल्कि सूचना संग्रहण (data storage) और संचार केंद्र के रूप में भी कार्य करता है । DNA मानव भाषा के निर्माण के लिए आवश्यक सभी जानकारी को भी संग्रहित करता है ।

जीवित गुणसूत्र (chromosome) एक त्रिविमीय (hologram) संगणक (computer) की तरह कार्य करते हैं । शरीर के साथ संवाद करने के लिए गुणसूत्र अंतर्जात (endogenous) DNA ऊर्जा का एक रूप उपयोग करते हैं ।

DNA क्षारीय जोड़े और भाषा की मूल संरचना का समान स्वरूप होता है, इसमें कोई DNA डिकोडिंग (छिपे को खोलना) आवश्यक नहीं होती है । अर्थ है कि हम शब्दों और ध्वनियों का उपयोग करके मानव शरीर में मौलिक परिवर्तन कर सकते हैं ।

मानव DNA निर्वात (vacuum) में विक्षुब्ध (disturbing) स्वरूप (pattern) का कारण बन सकता है, इस प्रकार चुंबकीय छिद्रों(wormholes) का उत्पादन होता है । ये ब्रह्मांड में पूरी तरह से अलग-अलग क्षेत्रों के बीच सुरंग से जुड़े होते हैं जिसके माध्यम से जानकारी अंतरिक्ष और समय के बाहर प्रसारित की जा सकती है । DNA सूचना के इन टुकड़ों(bits) को आकर्षित करता है और उन्हें हमारी चेतना पर भेजता है । दूर संवेदन संचार (telepathy channeling) की यह प्रक्रिया आराम की स्थिति में सबसे प्रभावी है । इस तरह के दूर संवेदन संचार को प्रेरणा या अंतर्ज्ञान के रूप में अनुभव किया जाता है। क्या आप जानते हैं कि DNA हटा दिए जाने के बाद अंतरिक्ष और समय के बाहर से ऊर्जा सक्रिय छिद्रों(wormholes) के माध्यम से बहती रहती है । ये विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र हैं ।

सभी विभीषण के शिक्षण से प्रसन्न थे ।

शाम को वे सभी मुंबई के पर्यटन स्थलों का दौरा करने गए ।

जून में वे कैलाश मानसरोवर गए । उन्होंने कैलाश मानसरोवर के रास्ते में सभी उप-मार्गों की खोज की थी, लेकिन उन्हें भगवान हनुमान का कोई संकेत नहीं मिला । तो वे बिना उम्मीद के ही मुंबई वापस आ गए ।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 41 ☆ सन्दर्भ वर्तिका – साहित्यिक विकास में संस्थाओ की भूमिका ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक आलेख  “सन्दर्भ वर्तिका – साहित्यिक विकास में संस्थाओ की भूमिका”।  श्री विवेक जी ने वर्तिका के सन्दर्भ में साहित्यिक विकास में संस्थाओं की भूमिका पर प्रकाश डाला है। अग्रज साहित्यकार स्व साज जबलपुरी जी से मेरे आत्मीय सम्बन्ध रहे हैं और उनके साथ जबलपुर की संस्था साहित्य परिषद् में कार्य करने का अवसर भी प्राप्त हुआ।  स्व साज भाई द्वारा रोपित वर्तिका आज वटवृक्ष का रूप धारण कर लेगी इसकी उन्हें भी कल्पना नहीं होगी।  इसका सम्पूर्ण योगदान समर्पित कार्यकर्ता सदस्यों को जाता है। श्री विवेक रंजन जी  का यह प्रेरकआलेख निश्चित ही वर्तिका के सदस्यों के  हृदय में  उत्साह का संचार करेगा ऐसी भावना  है। उन्हें इस  अतिसुन्दर आलेख के लिए बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 41 ☆ 

☆ सन्दर्भ वर्तिका – साहित्यिक विकास में संस्थाओ की भूमिका ☆

  वास्तव में साहित्य निरंतर साधना है. नियमित अभ्यास से ही लेखन में परिष्कार परिलक्षित होता है. रचनाकारों के लिये साहित्यिक संस्थायें स्कूल का कार्य करती हैं. अलग अलग परिवेश से आये समान वैचारिक पृष्ठभूमि के लेखक कवि मित्रो से मेल मुलाकात, पठन पाठन की सामग्री के आदान प्रदान, साहित्यिक यात्राओ में साथ की अनुभूतियां वर्तिका जैसी सक्रिय साहित्यिक संस्थाओ की सदस्यता से ही संभव हो पाती हैं.  एक दूसरे के लेखन से रचनाकार परस्पर प्रभावित होते हैं. नई रचनाओ का जन्म होता है. नये संबंध विकसते हैं. तार सप्तक से सामूहिक रचना संग्रह उपजते हैं. वरिष्ठ साहित्यकारो के सानिध्य से सहज ही रचनाओ के परिमार्जन की प्रक्रिया पूरी हो जाती है. प्रकाशको, देश की अन्य संस्थाओ से परिचय के सूत्र सघन होते हैं. साहित्यिक विकास में संस्थाओ की भूमिका निर्विवाद है.

जबलपुर की गिनी चुनी पंजीकृत साहित्यिक संस्थाओ में वर्तिका एक समर्पित साहित्यिक सांस्कृतिक सामाजिक संस्था है जो नियमित आयोजनो से अपनी पहचान बनाये हुये है. प्रति माह के अंतिम रविवार को बिना नागा काव्य गोष्ठी का आयोजन वर्तिका करती आ रही है. यह क्रम बरसों से अनवरत जारी है. पाठकीय त्रासदी से निपटने के लिये वर्तिका ने अनोखा तरीका अपनाया है, जब सामान्य पाठक रचना तक सुगमता से नही पहुंच रहे तो वर्तिका ने हर माह कविता के फ्लैक्स तैयार करवाकर, उसे बड़े पोस्टर के रूप में शहर के मध्य शहीद स्मारक के प्रवेश के पास लगवाने का बीड़ा उठा रखा है. स्वाभाविक है सुबह शाम घूमने जाने वाले लोगों के लिये यह कविता का बैनर उन्हें मिनट  दो मिनट रुककर कविता पढ़ने के लिये मजबूर करता है. नीचे लिखे मोबाईल पर मिलते जन सामान्य के  फीड बैक से इस प्रयोग की सार्थकता सिद्ध होती दिखती है. समारोह पूर्वक इस काव्य पटल का विमोचन किया जाता है, जिसकी खबर शहर के अखबारो में सचित्र सिटी पेज का आकर्षण होती है. प्रश्न यह उठा कि इस महत्वपूर्ण कार्यक्रम के लिये कविता का चयन कैसे किया जावे ? उत्तर भी हम मित्रो ने स्वयं ही ढ़ूंढ़ निकाला, जिस माह जिन कवियों का जन्मदिन होता है, उस माह उन एक या दो  कवि मित्रो  की कविताओ को पोस्टर में स्थान दिया जाता है.

सामान्यतः साहित्यिक आयोजनो के व्यय के लिये रचनाकार राज्याश्रयी रहा है. राज दरबारो के समय से वर्तमान सरकारो तक किंबहुना यही स्थिति दिखती है. किन्तु इस दिशा में लेकको में वैचारिक परिवर्तन करने में भी साहित्यिक संस्थाओ की भूमिका बड़ी सकारात्मक दिखती है. वर्तिका की हीबात करें तो मुझे स्मरण नही कि हम लोगो को कभी कोई सरकारी अनुदान मिला है. हर आयोजन के लिये हम लोकतांत्रिक, स्वैच्छिक तरीके से परस्पर चंदा करते हैं. इसी सामूहिक सहयोग से मासिक काव्य गोष्ठियां, वार्षिक सम्मान समारोह, साहित्यिक कार्यशालायें, वैचारिक गोष्ठियां,मासिक काव्य पटल,  साहित्यिक पिकनिक, सामाजिक दायित्वो के लिये वृद्धाश्रम, अनाथाश्रमो में योगदान, सांस्कृतिक गितिविधियां, सहयोगी प्रकाशन आदि आदि आयोजन वर्तिका के बैनर से होते आ रहे हैं. आयोजन के अनुरूप, पदाधिकारियो के कौशल व संबंधो से किंचित परिवर्तन धन संग्रह हेतु होता रहता है. उदाहरण के लिये सम्मान समारोह के लिये हम अपने संपर्को में परिचितो से आग्रह करते हैं कि वे अपने प्रियजनो की स्मृति में दान स्वरूप संस्था के नियमो के अनुरूप सम्मान प्रदान करें, और हमने देखा है कि बड़ी संख्या में हर वर्ष सम्मान प्रदाता सामने आते रहे हैं. वर्तिका ने कभी भी उस साहित्यकार से कभी कोई आर्थिक सहयोग नही लिया जिसे हम उसकी साहित्यिक उपलब्धियो के लिये सम्मानित करते हैं, यही कारण है कि वर्तिका के अलंकरण राष्ट्रीय ख्याति अर्जित करते हैं. प्रकाशन हेतु मित्र संस्थानो से विज्ञापन के आधार पर आर्थिक सहयोग मिल जाता है, तो काव्य पटल के लिये जिसका जन्मदिन साहित्यिक स्वरूप से मनाया जाता है, वह प्रसन्नता पूर्वक सहयोग कर देता है, कुल मिलाकर बिना किसी बाहरी मदद के भी संस्था की गतिविधियां सफलता पूर्वक वर्ष भर चलती रहती हैं. और अखबारो में वर्तिका के आयोजन छाये रहते हैं. संरक्षक मनोनीत किये जाते हैं, जो खुशी खुशी संस्था को नियत राशि दान स्वरूप देते हैं, यह राशि संस्था के खाते में  बैंक में जमा रखी जाती है.

कोई भी साहित्यिक संस्था केवल संस्था के विधान से नही चलती. वास्तविक जरूरत होती है कि संस्था ऐसे कार्य करे जिनकी पहचान समाज में बन सके. इसके साथ साथ संस्था से जुड़े वरिष्ठ, व युवा साथियो को प्रत्येक के लिये सम्मानजनक तरीके से प्रस्फुटित होने के मौके संस्था के आयोजनो के माध्यम से मिल सकें. यह सब  तभी संभव है जब संस्था के पदाधिकारी  निर्धारित लक्ष्यो की पूर्ति हेतु, बिना वैमनस्य के, आत्म प्रवंचना को पीछे छोड़कर समवेत भाव से संस्था के लिये हिलमिलकर कार्य करें, प्रतिभावान होने के साथ ही  विनम्रता  और एकजुटता के साथ संस्था के लिये समर्पित होना भी संस्था चलाने के लिये सदस्यो में होना जरूरी होता हैं.

एक बात जो वर्तिका की सफलता में बहुत महत्वपूर्ण है, वह है हमारे पदाधिकारियों का समर्पण भाव. अपने व्यक्तिगत समय व साधन लगाकर अध्यक्ष, संयोजक, संरक्षक ही नही वर्तिका के सभी सामान्य सदस्य तक एक फोन पर जुट जाते हैं, एक दूसरे की व्यक्तिगत, पारिवारिक, साहित्यिक खुशियो में सहज भाव से शरीक होते हैं, सदैव सकारात्मक बने रहना सरल नही होता पर संस्था की यही विशेषता हमें अन्य संस्थाओ से भिन्न बनाती है. मैं जानबूझकर कोई नामोल्लेख नही कर रहा हूं, किन्तु हम सब जानते हैं कि संस्थापक सदस्यो से लेकर नये जुड़ते, जोड़े जा रहे सदस्य, पूर्व रह चुके अध्यक्ष, सचिव, कोषाध्यक्ष व अन्य पदाधिकारी सब एक दूसरे का सम्मान रखते हैं, एक दूसरे को बताकर, पूछकर, सहमति भाव से निर्णय लेकर संस्थागत कार्य करते हैं, पारदर्शिता रखते हैं, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को संस्था से बड़ा नही बनने देते, ऐसी कार्यप्रणाली ही वर्तिका जैसी सक्रिय साहित्यिक संस्था की सफलता का मंत्र है.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 22 – महात्मा गांधी: आज़ादी और  भारत का विभाजन ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “महात्मा गांधी : आज़ादी और  भारत का विभाजन। )

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 22 – महात्मा गांधी : आज़ादी और  भारत का विभाजन

अंग्रेजों ने इस आन्दोलन को कुचलने में कोई कसर न छोड़ी और बड़ी दमनात्मक कार्यवाहियाँ आंदोलनकारियों के विरुद्ध की। गांधीजी ने अंग्रेजों की दमनात्मक कार्यवाहियों के खिलाफ 10 फरवरी 1943 को जेल में ही  21 दिन का  उपवास शुरू कर दिया। सारे विश्व में ब्रिटिश दमनकारी नीतियों की आलोचना होने लगी। अंततः 8 मई 1944 को गांधीजी रिहा हुये और सुप्त पड़ चुके आंदोलन में नई जान आ गई। गांधीजी की माँग पर अंग्रेजों ने कांग्रेस के सभी नेताओं को रिहा कर दिया और बातचीत तथा समझौते की कोशिशों के नए दौर चालू हुये। 25 जून 1945  में अंग्रेज सरकार ने भारत के सभी राजनैतिक दलों को शिमला वार्ता के लिए बुलाया। गांधीजी भी इसमे वाइसराय के विशेष आग्रह पर व्यक्तिगत हैसियत से शामिल हुये।  इसके बाद वार्ताओं के अनेक दौर हुये। वैवल योजना(1945) के तहत प्रस्ताव लाये गए, सत्ता के हस्तांतरण का फार्मूला लेकर केबिनेट मिशन (1946) आया। लेकिन ये सब प्रयास जिन्ना की जिद्द पर बलि चढ़ गए। जिन्ना मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र की माँग पर अड़े थे तो गांधीजी और उनके अनेक सहयोगी देश का विभाजन नहीं चाहते थे। जिन्ना के दो राष्ट्र के सिद्धांत से असहमत गांधीजी ने काफी पहले से ही उनसे चर्चा कर समस्या का निदान खोजने के प्रयास किए। गांधीजी ने अनेक अवसरों पर जिन्ना व सरकार को स्पष्ट किया कि कांग्रेस केवल हिंदुओं की पार्टी नही है वह अपने सदस्यों का प्रतिनिधित्व करती है जिसमे मुसलमान भी शामिल है।

लार्ड माउंटबैटन 21 फरवरी 1947 को भारत के वाइसराय बने। उन्होने देश की आज़ादी का खाका तैयार करने के उद्देश्य से 1 अप्रैल 1947 से चार प्रमुख भारतीय नेताओं से अलग अलग मिलना प्रारंभ किया। ये नेता थे गांधीजी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल और मोहम्मद अली जिन्ना। लार्ड माउंटबैटन जानते थे कि गांधीजी बटवारे के सख्त विरोधी हैं तो जिन्ना बटवारे से कम कुछ नही चाहते।  अत: उन्होने अपनी योजना कुछ इस प्रकार बनाई की गांधीजी को बातचीत के माध्यम से बटवारे के लिए तैयार किया जा सके। गांधीजी ने लार्ड माउंटबैटन से होने वाली बैठक के एक दिन पहले ही कहा था कि भारत का बटवारा मेरी लाश पर ही होगा अपने जीते जी मैं कभी भारत के बटवारे के लिए तैयार नहीं हो सकता। लार्ड माउंटबैटन ने जब उनसे विभाजन को टालने के लिए और विकल्प पूंछे तो उनका जबाब था कि एक बच्चे के दो टुकड़े करने के बजाय उसे मुसलमानों को दे दो। वह इसके लिए भी तैयार थे कि जिन्ना जो हिस्सा माँगते थे उसके बदले उन्हे पूरा हिन्दुस्तान ही दे दिया जाय, जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग को सरकार बनाने को कहा जाय। गांधीजी को विश्वास था कि कांग्रेस भी देश का बटवारा नहीं चाहती है और वह उसे रोकने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाएगी। जब लार्ड माउंटबैटन ने गांधीजी से जानना चाहा कि इस बात पर जिन्ना का रवैया क्या होगा तो गांधीजी ने हँसते हुये कहा ‘अगर आप उनसे कहेंगे कि यह सुझाव मेरा है तो उनका जबाब होगा: धूर्त गांधी’।

लेकिन गांधीजी के तमाम प्रयासों से कोई बात नही बनी।  जिन्ना अपने दो राष्ट्र के सिद्धांत से पीछे हटने को तैयार न थे तो दूसरी तरफ कांग्रेस भी दो धड़ों में बटती जा रही थी, एक धडा विभाजन को अपरिहार्य मानने लगा था । ऐसी परिस्थितियों के बीच 3 जून 1947 को लॉर्ड माउंटबैटन ने ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर भारत विभाजन की घोषणा कर दी। इस विभाजन प्रस्ताव पर  चर्चा के लिए 14 व 15 जून को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की एक विशेष बैठक दिल्ली में बुलाई गई। इस बैठक में प्रस्तावित बटवारे के खिलाफ कई आवाजें उठीं। सिंध के लोग भी बटवारे के विरोध में थे। पुरुषोत्तम दास टंडन, जय प्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, अब्दुल गफ्फार खान  और गांधीजी आदि ने विभाजन के खिलाफ भाषण दिये। राम मनोहर लोहिया ने तो इस बैठक में विभाजन का सारा ठीकरा पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल व मौलाना आज़ाद पर फोड़ दिया।

यह मानते हुये कि विभाजन तो अब होगा ही कांग्रेस व मुस्लिम लीग ने आगे की तैयारियाँ शुरू कर दी। सत्ता हस्तांतरण की तारीख पहले जून 1947 तय की गई जिसे बदलकर अक्तूबर 1947 किया गया और अंतत: 15 अगस्त 1947 का दिन भारत की आज़ादी के लिए निर्धारित किया गया। इसके एक दिन पहले 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान ने भारत से अलग होकर एक नए राष्ट्र का रूप धारण किया। भारत की आज़ादी का दिन 15 अगस्त 1947  लार्ड माउंटबैटन ने शायद जापान के आत्म समर्पण की दूसरी वर्षगांठ से अपने व्यक्तिगत जुड़ाव के कारण तय किया क्योंकि दो वर्ष पहले ही  इसी  दिन जब वे दो 10 डाउनिंग स्ट्रीट में ब्रिटिश प्रधानमंत्री के साथ बैठे थे तब जापान के आत्म समर्पण की खबर आई थी।

देश की आज़ादी अपने साथ हिंदु मुस्लिम दंगों की एक नई खेप भी साथ लाई। 1947 के प्रारंभ में ही नोआखली में भीषण सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे। दंगों की यह आग बंगाल के गांवों और बिहार तक फैल गयी। कहीं हिन्दू  मारे जाते तो बदले में वे मुसलमानों को मारते। दंगो की विभीषिका के बीच गांधीजी ने श्रीरामपुर में डेरा डाल दिया और नोआखली  के गावों में प्रायश्चित यात्रा शुरू करने का निर्णय लिया।  और अगले सात सप्ताहों में वे 116 मील पैदल चलकर 47 गांवों में गए, रात वहीं रुके, जो कुछ ग्रामीणों ने खाने को दिया प्रेम से खाया और सांप्रदायिक सौहाद्र की स्थापना कर हज़ारों हिंदुओं और मुसलमानों को अकाल मृत्यु से बचाया। जब गांधीजी मुस्लिम बहुल गावों में जाते तो कई बार लोग विरोध में नारे लगाते दीवारों पर चेतावनी स्वरूप नारे लिख देते – ‘खबरदार आगे मत बढ़ना! ‘पाकिस्तान की बात माँग लो!’ या ‘अपनी खैर चाहते हो तो लौट जाओ!’ । पर गांधीजी पर इन धमकी भरी बातों का कोई असर न होता और आखिर में उनकी अहिंसा की जीत हुयी नोआखली में शांति स्थापित हुयी।

14 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि जब पंडित जवाहरलाल नेहरू भारत की संविधान सभा में अपना प्रसिद्ध भाषण “Tryst with Destiny” दे रहे थे तब इस आज़ादी के आंदोलन का मसीहा उसका कर्ता धर्ता कलकत्ता में शांति स्थापित करने के लिए मुस्लिम बहुल मोहल्ले हैदर मैंशन में ठहरा हुआ था। विभाजन की पीड़ा से ग्रस्त गांधीजी,  दंगो के खतरों की आशंका से लोगो को मुक्ति दिलाने में लगे हुये थे। उनके प्रयासों से कलकत्ता और बंगाल के अन्य हिस्सों में शांति बनी रही, दंगे फसाद रुके रहे। लार्ड माउंटबैटन ने उन्हे दिल्ली से पत्र लिखा था: ‘पंजाब में हमारे पास 55,000 सिपाही हैं, फिर भी वहाँ दंगे हो रहे हैं। बंगाल में हमारे सेना दल में सिर्फ एक सिपाही है और वहाँ कोई दंगा नहीं हुआ।‘

(इस आलेख हेतु संदर्भ डोमनिक लापियर व लैरी कालिन्स की पुस्तक फ्रीडम एट मिड नाइट तथा जसवंत सिंह की पुस्तक जिन्ना भारत-विभाजन के आईने में से ली गई है। कुछ जानकारियाँ राकेश कुमार पालीवाल द्वारा रचित गांधी जीवन और विचार से भी ली गई हैं।)

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #44 ☆ रंगमंच और मुखौटे (कोरोनावायरस और हम – 5) ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 44 – रंगमंच और मुखौटे  ☆

‘कोरोनावायरस और हम’  शृंखला का भाग-5

‘ऑल द वर्ल्ड इज़ अ स्टेज एंड ऑल द मेन एंड वूमेन मिअरली प्लेयर्स।’ सारा जगत एक रंगमंच है और सारे स्त्री-पुरुष केवल रंगकर्मी।

यह वाक्य लिखते समय शेक्सपिअर ने कब सोचा होगा कि शब्दों का यह समुच्चय, काल की कसौटी पर शिलालेख  सिद्ध होगा।

जिन्होंने रंगमंच शौकिया भर किया नहीं अपितु रंगमंच को जिया है, वे जानते हैं कि पर्दे के पीछे भी एक मंच होता है। यही मंच असली होता है। इस मंच पर कलाकार की भावुकता है, उसकी वेदना और संवेदना है। करिअर, पैसा, पैकेज की बनिस्बत थिएटर चुनने का साहस है। पकवानों के मुकाबले भूख का स्वाद है।

फक्कड़ फ़कीरों का जमावड़ा है यह रंगमंच। समाज के दबाव और प्रवाह के विरुद्ध यात्रा करनेवाले योद्धाओं का समवेत सिंहनाद है यह रंगमंच।

कोरोनावायरस से उपजे कोविड-19 ने पर्दे के सामने कृत्रिमता जीनेवालों को पर्दे के पीछे के मंच पर ला पटका है। यह आत्मविवेचन का समय है।

नाटक के इतिहास और विवेचन से ज्ञात होता है कि लोकनाट्य ने आम आदमी से तादात्म्य स्थापित किया। यह किसी लिखित संहिता के बिना ही जनसामान्य की अभिव्यक्ति का माध्यम बना। लोकनाट्य की प्रवृत्ति सामुदायिक रही।  सामुदायिकता में भेदभाव नहीं था। अभिनेता ही दर्शक था तो दर्शक भी अभिनेता था। मंच और दर्शक के बीच न ऊँच, न नीच। हर तरफ से देखा जा सकनेवाला। सब कुछ समतल, हरेक के पैर धरती पर।

लोकनाट्य में सूत्रधार था, कठपुतलियाँ थीं, कुछ देर लगाकर रखने के लिए मुखौटा था। कालांतर में आभिजात्य रंगमंच ने  दर्शक और कलाकार के बीच अंतर-रेखा खींची। आभिजात्य होने की होड़ में आदमी ने मुखौटे को स्थायीभाव की तरह ग्रहण कर लिया।

अब मुखौटे उतरने का समय है। ऐसे ही कुछ मुखौटे उतरे जब दिल्ली के एक मल्टीस्पेशलिटी हॉस्पिटल के डॉक्टर्स और  मेडिकल स्टाफ को उनकी हाउसिंग सोसायटी ने इसलिए घर छोड़ने के लिए कह दिया क्योंकि अस्पताल में नोवेल कोरोना से संक्रमित मरीज़ के आने की बात सुनी गई थी।

बंगलुरू में एक परिवार के कुछ लोगों को होम क्वारंटीन करने पर  सोसायटी के लोगों ने ऐसे बर्ताव किया मानो इस परिवार ने कोई पाप कर दिया हो। पाप, पुण्य  वैसे भी सापेक्ष होता है लेकिन उसके चर्चा अभी प्रासंगिक नहीं है।

दिल्ली में आइटीबीपी के कैंप में विदेशों से आए भारतीयों को 14 दिन के लिए क्वारंटीन रखने के विरोध में पास रहने वाले नागरिकों ने प्रदर्शन किया।

समुदाय से सामुदायिकता नष्ट हो चली है। संक्रमित रुग्ण या एहतियातन क्वारंटीन में रखे लोगों से दुर्व्यवहार करनेवाले भूल रहे हैं कि इसका शिकार कोई भी हो सकता है। इस कोई में वे स्वयं भी समाविष्ट हैं। दुर्भाग्य से ऐसा कुछ हो गया तो जिन डॉक्टरों को उन्हीं के घर में जाने देने का विरोध कर रहे थे, अस्पताल में उन्हीं डॉक्टरों की शरण में जाना होगा। यदि क्वारंटीन में जाना पड़ा और विरोध करने मज़मा जुट गया तो स्थिति क्या होगी?

मुखौटे उतर रहे हैं लेकिन पर्दे के पीछे कुछ सच्चे रंगकर्मी भी बैठे हैं। ये रंगकर्मी आइटीबीपी में हैं, भारतीय सेना में हैं। विदेशियों को भारत लाने वाले विमानों के पायलट और क्रू के रूप में हैं। ये सच्चे रंगकर्मी डॉक्टर हैं, पैरामेडिकल स्टाफ हैं, नर्स हैं, सफाईकर्मी हैं, वार्डबॉय हैं। ये सच्चे रंगकर्मी पुलिस और होमगार्ड हैं। ये सब मुस्तैदी से जुटे हैं कोरोना के विरुद्ध।

सूत्रधार कह रहा है कि पर्दों में वायरस हो सकता है। अब पर्दे हटाइए। बहुत देख लिया प्रेक्षागृह में पर्दों के आगे खेला जाता नाटक। चलिए लौटें सामुदायिक नाट्य में। केवल तालियाँ न बजाएँ। अपनी भूमिका तय करें। तय भूमिका निभाएँ, दायित्व भी उठाएँ।

बिना मुखौटे के मंच पर लौटें। बिना कृत्रिम रंग लगाए अपनी भूमिका निभा रहे असली चेहरों को शीश नवाएँ। जीवन का रंगमंच आज हम से यही मांग करता है।

 

©  संजय भारद्वाज

(विश्व रंगमंच दिवस के एक दिन बाद, 28.3.2020, रात्रि 8.39 बजे)

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 40 ☆ परदेश में कोरोना पर दौहित्र को एक नाना की खुली चिट्ठी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक भावनात्मक पत्र    “परदेश में कोरोना पर दौहित्र को एक नाना की खुली चिट्ठी”।  मानवता के अदृश्य शत्रु  से युद्ध में  हम सभी  परिवार के सदस्य / मित्र गण तकनीकी रूप  (ऑडियो / वीडियो )  से पहले से ही नजदीक  थे किन्तु भौतिक रूप से ये दूरियां बढ़ गई हैं । हम अपने घर /देश में कैद हो गए हैं।  आशा है कोई न कोई वैज्ञानिक हल शीघ्र  ही निकलेगा और हम फिर से पहले  जैसा जीवन जी सकेंगे। यह पत्र  उन कई लोगों के लिए प्रारूप होगा जो अपने परिवार के सदस्यों को ईमेल पर  अपनी भावनाएं प्रकट करना चाह रहे होंगे। श्री विवेक रंजन जी  को इस  बेहतरीन रचना / पत्र के   लिए बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 40 ☆ 

☆ परदेश में कोरोना पर दौहित्र को एक नाना की खुली चिट्ठी ☆

 

हमारे आल्हाद के केंद्र प्यारे रुवीर बेटा

नानी नाना का बहुत सारा दुलार,

हमारा यह पत्र  तुम शायद पांच, छः साल बाद पढ़कर कुछ समझ सकोगे. तुम्हारे आने से हम सबके जीवन में खुशियों की नई फुहार आई है. हम सबने तुम्हारे आने की खूब खुशियां मनाई थी, और पल पल तुम्हें बढ़ते हुये महसूस किया था.  समय बीतता गया,तुम्हारे पहली करवट लेने,खुद बैठ पाने,  घुटनो के बल चलने, तुम्हारा पहला दांत निकलने, और पहला कदम चल लेने के हर पल की गवाह तुम्हारी मम्मी बनी रहीं. फोटो, वीडीयो काल्स के जरिये हम सब हर दिन तुम्हें लेकर खुश होते रहे हैं. इस बीच तुम्हारे पापा मम्मी ने हर पल तुम्हें बढ़ते देखा,  दादी, नानी बारी बारी से तुम्हारे पास आती जाती रहीं.

कल तुम एक वर्ष के हो जाओगे. तुम्हारे पहले जन्म दिन को धूमधाम से सब साथ साथ पहुंचकर मनाने के लिये हम सबकी बहुत सारी प्लानिंग थी. पेरिस से लेकर स्विटजरलैंड, लंदन से लेकर हांगकांग  कई प्लान डिस्कस हुये थे. तुम्हारे दादा जी कीनिया के जंगलों में या जयपुर के पैलेस में पार्टी देना चाहते थे तो कोई कहीं और.  अंततोगत्वा पेरिस फाईनल हुआ और तुम्हारे पापा ने तो पेरिस की फलाईट टिकिट्स भी बुक कर दी थी. यह वर्ष २०२० के शुरूवाती दिनों की बात थी. किन्तु बेटा समय के गर्भ में क्या होता है यह किसी को भी नही पता होता.

पिछले दो महीनों में चीन से शुरू हुआ करोना वायरस का संक्रमण इस तेजी से पूरी दुनियां में फैला कि मानव जाति के इतिहास में पहली बार सारी दुनियां बिल्कुल थम गई है. हर कहीं लाकडाउन है. सब घरों में कैद होने को विवश हैं, जो नासमझी से घरों में स्वयं बन्द नहीं हो रहे हैं, सरकारें उन्हें घरों में रहने को मजबूर कर रही हैं.क्योकि यह संक्रमण आदमी से आदमी के संपर्क से फैलता है. अब तक इस सब के मूल कारण करोना कोविड २०१९ वायरस का कोई उपचार नही खोजा जा सका है. दुनियां भर में संपन्न से संपन्न देशों में भी इस महामारी के लिये अब तक चिकित्सा सुविधायें अपर्याप्त हैं. अब तेजी से इस सब पर बहुत काम हो रहा है. तुम्हारे अमिताभ मामा भी न्यूयार्क में एम आई टी के एक प्रोजेक्ट में सस्ते इमरजेंसी वेंटीलेटर्स बनाने और ऐसे ब्रेसलेट बनाने पर काम कर रहे हैं जो दो लोगों के बीच एक मीटर की दूरी से कम फासले पर आते ही वाइब्रेट करेंगे, क्योकि इस फासले से कम दूरी होने पर इस वायरस के संक्रमण का खतरा होता है. मतलब यह ऐसा अजब समय आ गया है कि इंटरनेट के जरिये दूर का आदमी पास हो गया है पर पास के आदमी से दूरी बनाना जरूरी हो गया है. तुम्हारे पापा दुबई में तुम्हारे पास घर से ही इंटरनेट के जरिये आफिस का काम कर रहे हैं, मौसी हांगकांग में घर से ही उसके आफिस का काम कर रही है. मैं यहा जबलपुर में बंगले में बंद हूं. दुनिया  भर की सड़कें सूनी हैं, ट्रेन और हवाई जहाज थम गये हैं. सोचता हूं  सब कुछ घर से तो नही हो सकता, खेतो में किसानो के काम किये बिना फल, सब्जी, अनाज कुछ नही हो सकता, मजदूरों और कारीगरो की मेहनत के बिना ये मशीनें सब कुछ नहीं बना सकती. पर समय से समझौता ही जिंदगी है.

आज बाजार, कारखाने धर्मस्थल सब बंद हैं. पर कुछ धर्मांध कट्टर लोग जो इस एकाकी रहने के आदेश को मानने तैयार नही है, और यह कुतर्क देते हैं कि उन्हें उनका भगवान या खुदा बचा लेगा, उन्हें मैं यह कहानी बताना चाहता हूं. हुआ यूं कि  एक बार बाढ़ आने पर किसी गांव में सब लोग अपने घरबार छोड़ निकल पड़े पर एक इंसान जो स्वयं को भगवान का बहुत बड़ा बक्त मानता था, अपने घर से हटने को तैयार ही नही था, उसे मनाने पास पडोसियो से लेकर सरपंच तक सब पहुंचे पर वह यही रट लाये रहा कि उसे तो भगवान बचा लेंगें क्योकि वह उनका भक्त है, प्रशासन ने हेलीकाप्टर भेजा पर हठी इंसान नही माना और आखिरकार बाढ़ में बहकर मर गया , जब वह मरकर भगवान के पास पहुंचा तो उसने भगवान से कहा कि मैं तो आपका भक्त था पर आपने मुझे क्यो नही बचाया ?  भगवान ने उसे उत्तर दिया कि मैं तो तुम्हें बचाने कभी पडोसी, कभी सरपंच, कभी हेलीकाप्टर चालक बनकर तुम तक पहुंचता रहा पर तुम ही नही माने. आशय मात्र इतना है कि वक्त की नजाकत को पहचानना जरुरी है, आज डाक्टर्स के वेश में भगवान हमारी मदद को हमारे साथ खड़े हैं. और यह समय भी बीत ही जायेगा. दुनियां के इतिहास में पहले भी कठिनाईयां आई हैं. दो विश्वयुद्ध हुये, प्लेग, हैजा, जैसी महामारियां फैलीं, जगह जगह बरसात न होने से अकाल पड़े, पर ये सारी मुसीबतें कुछ देशों या कुछ क्षेत्रो तक सीमित रहीं. महात्मा गांधी ग्राम स्वराज की इकानामी की परिकल्पना करते थे जिसका अर्थ यह था कि देश का हर गांव अपने आप में आत्मनिर्भर इकाई होता. पर विकास ने इतने पांव फैलाये हैं कि अब दुनियां इंटरनेटी वैश्विक मंच बन गया है. इसी साल २०२० के सूर्योदय की खुशियां हमने हांग कांग में  मौसी के संग  शुरू कर भारत, दुबई, लंदन, न्यूयार्क में तुम्हारे मामा के साथ उगते सूरज को देखकर, मतलब  लगभग २४ घंटो तक महसूस की हैं.

हम सब हमेशा तुम्हारे लिये क्षितिज की सीमाओ के सतरंगे इंद्रधनुष की रंगीनियों की परिकल्पना करते हैं. तुम्हें खूब पढ़ लिख कर, गीत संगीत, खेलकूद जिसमें भी तुम्हारी रुचि हो उसमें बढ़चढ़ कर मेहनत करना और मन से बहुत अच्छा इंसान बनना है. आज हर देश अपने वीसा अपने पासपोर्ट अपनी सीमा के बंधनो में सिमटे हुये हैं, पर सोचता हूं शायद तुम उस दिन के साक्षी जरूर बनो जब कोई भी कहीं भी स्वतंत्र आ जा सके. हर वैज्ञानिक प्रगति पर सारी मानव जाति का बराबरी का अधिकार हो. बस यही कामना है कि इंसानी दिमाग में ऐसा फितूर कभी न उपजे कि न दिखने वाले परमाणु बम अथवा किसी वायरस की विभीषिका से हम यूं दुबकने को मजबूर होवें.

दिल से सारा आशीर्वाद

तुम्हारी नानी और नाना

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य ☆ आलेख ☆ मानवता का सफरनामा – डरा सो मरा ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला  स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध। आज प्रस्तुत है डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी का लम्बा किन्तु , विचारणीय एवं पठनीय आलेख  ” मानवता का सफरनामा – डरा सो मरा“।  वास्तव में  यह संस्मरणात्मक आलेख मानवता के अदृश्य शत्रु के कारण सारे विश्व में व्याप्त भय के वातावरण में अनुशासन ही नहीं अपितु, इस भय से भी लाभ कमाने वालों को नसीहत देता दस्तावेज है।  मानवता के इस सफरनामे  के माध्यम से डॉ गंगाप्रसाद जी ने अपने संवेदनशील हृदय की मनोभावनाओं को रेखांकित किया है। डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी  के इस सार्थक एवं समसामयिक आलेख के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन।  ) 

 ☆ संस्मरणात्मक आलेख – – मानवता का सफरनामा – डरा सो मरा ☆

दिनांक –26-03- 2020
दिन-गुरुवार, समय 2:42

सुबह-सुबह मेरे ड्राइवर ने आकर दस्तक दी। आते ही जुमला उछाला, ‘जो डरा सो मरा’। मैंने यह जानते हुए भी कि जुमला मुझ पर ही उछाला  गया है सिर नीचे कर बाउंसर जाने दिया। वह गेट के बाहर ज़मीन पर ही बैठ गया और उसके ठीक पीछे लिफ्ट के बगल वाली सीढ़ियों पर उसकी बीबी जिसे कोरोना के डर से हमने बर्तन मांजने से चार दिन पहले ही मना किया है। मेरा अनुमान यही है कि मेरी ही तरह के और भी सामान्य काल के वीरों और संकट काल के भीरुओं ने उसे मना कर दिया होगा। अन्य दिनों की तरह ना तो उसे अंदर आने को कहा और ना ही कुर्सी ही ऑफ़र की। पहले भी वह भीतर भले आ जाता था पर कुर्सी पर कभी नहीं बैठा। हमेशा यही कहता था ‘साहब हमें ज़मीन पर ही बैठना अच्छा लगता है।’ उसका इस तरह बैठना मुझे पहले अच्छा लगता रहा है। कल उसका जमीन पर बैठना मुझे उतना बेतकल्लुफ नहीं लगा सो अच्छा भी नहीं लगा लेकिन इसे बुरा लगना भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यह अखरने वाली बात मुझे उसके जाने के बाद पता चली।

25 फ्लैट वाले हमारे अपार्टमेंट का वह केयर टेकर भी है। इन दिनों उसकी पत्नी, दो बेटे और उसे मिलाकर परिवार के कुल 4 सदस्य बस एक कमरे में गुजर-बसर करते हैं। कोई तीन-चार महीने पहले उसका बड़ा  बेटा, बहू और पोती भी इसी के साथ रहते थे। यानी इसका कुल मिलाकर 7 जनों का कुनबा  है। लेकिन जिन दिनों इसके बहू बेटा साथ रहते थे, केवल वही कमरे में सोते थे और शेष जन 12:00 बजे रात के बाद बाहर की पार्किंग में अपनी अपनी खाट बिछाकर सो जाते थे। लेकिन ये सभी तभी सो पाते थे जब अपार्टमेंट के मुख्य द्वार पर ताला लग जाए और ताला लगने का समय 12:00 रात निर्धारित है। इसके बावज़ूद ‘निबल की बहू सबकी सरहज। ‘आने जाने वालों की आज़ादी के कारण ताला कभी-कभी एक-दो बजे भी खोलना पड़ता  है। संभव है कि इन दिनों इन लोगों को कुछ राहत हो क्योंकि अभी लॉकडाउन का काल है। यह सब केवल मैं अनुमान से कह रहा हूँ । वह इसलिए कि दो दिनों से नीचे उतरना क्या दरवाज़े से बाहर भी कदम नहीं रखा है। लेकिन केवल नींद ही तो सब कुछ नहीं है भूख भी तो कुछ है। नींद भी तभी लगती है जब पेट में कुछ पड़े। जब मुझ पेट भरे हुए को नींद  नहीं आ रही है तो उन्हें कैसे आती होगी।  रोज कुआं खोदकर पानी पीने वालों का दर्द  भला वे क्या जानेंगे जिनके घर बिसलेरी की बोतलें आती हैं।

बीते रविवार को ये लोग अपने भांजे की मंगनी में गए थे। ज़ाहिर सी बात है सारी जमा पूंजी वही खरच आए होंगे। ड्राइवर के उस जुमले पर जो जीवन का असली फलसफा था मैंने सौ रुपए निछावर किए तो उसने ऐसे लपक लिए जैसे कोई बंदर हाथ से थैली लपक लेता है। ऐसा एक  वाकया उज्जैन में वास्तव में मेरे साथ उस समय घटा था जब भैरवनाथ के दर पर गया था। चढ़ाने जा रहे प्रसाद को एक लंगूर मेरे हाथ से बिजली की गति से लपक ले गया था। यह तो गनीमत है कि प्रसाद वाले के द्वारा लाख कहने के बावजूद मैंने शराब की बोतल नहीं ली थी। नहीं तो हो सकता है कि वह उसे भी लपक ले जाता और मेरे ही सामने बैठकर गटकता।  इंसान के भीतर की पीड़ा के लिए इतनी भोंड़ी उपमा मैं उसके अपमान के लिए नहीं अपितु उसकी ज़रूरत की तीव्रता को दर्शाने के लिए दे रहा हूँ। यद्यपि मेरे बिस्तर पर डेढ़ सौ रुपए और पड़े थे लेकिन एटीएम के कुंजीपटल को दबाने के डर से मेरे मन ने पुनः अपने बढ़े  हुए हाथ सायास रोक लिए थे। उसकी पत्नी को कुछ दिनों के लिए काम से विरमित के कारण और कुछ अपने जीवनानुभव से भी उस अपढ़ ने मेरे डर को पढ़ लिया था। इसमें झूठ भी क्या है। आज की रात मिलाकर दो रातें हो रही हैं बिना सोए हुए। यह डर नहीं तो और क्या है!

मेरी पत्नी शुगर की मरीज़ है। टीवी पर बार-बार शुगर वालों को हाई रिस्क कहा जा रहा है। इटली में रह रहे एक भारतीय शेफ और देशभक्त गायिका श्वेता पण्डित के डरावने अनुभव वाले वीडियो। इसी तरह से अन्य देशों के डरावने दृश्यों से भरे संदेश पर संदेश के बावज़ूद अपने कुछ देश वासियों की नादानियां और भी डराती हैं। इस वज़ह से कई दफ़े टी वी बंद करके कुछ ही मिनटों में पुन: उसे खोल के बैठ जाता हूँ।

बच्चे और नातिनें पोतियाँ,नाते रिश्तेदार और मित्र हमसे दूर हैं। उनके ठहाके और  दूर से दिखने वाले चेहरों की आभासी खुशी  जब तक देखता हूँ खुश रहता हूँ। उसके बाद फिर वही मायूसी। कंपनी के काम से गया बीमार भांजा इन्दौर में फँस गया है और भतीजा बंगलौर में। गाँव में माँ और भाई, उनकी पत्नियाँ, बहुएँ और पोते-पोतियाँ। लब्बोलुआब यह कि बहिनें और उनके  परिवार समेत पूरा कुनबा अलग-अलग गाँवों और शहरों में। इन सबसे कम से कम बारह सौ से डेढ़ हज़ार किलोमीटर दूर बैठा मैं। डर को इतने भयावह रूप में वह भी इतने करीब से बल्कि अपने ही भीतर ज़हर बुझे बरछे  की मानिंद धंसे पहले कभी नहीं देखा। शायद अपने-अपने जीवन में पहली दफ़ा इतने बड़े और अदृश्य शत्रु से हर कोई अकेले लड़ रहा है। यह भी इस धरती के इतिहास का पहला युद्ध है जिसे एक जुटता के साथ किंतु अकेले-अकेले लड़ते हुए घर बैठे जीता जा सकता है।

टीवी चैनलों पर बैठे डरे-डरे चेहरे और भी डरा रहे हैं। उनसे भी ज़्यादा विकसित देशों से आने वाली खबरें डरा रही हैं। फिर हम क्यों ना डरें। आखिर हम भी तो हांड़-माँस के ही हैं ना। जिसके परिणाम का पता ना हो डर लगता ही है। बड़े से बड़ा प्रतिभाशाली विद्यार्थी भी परीक्षा परिणाम के पूर्व डरा डरा-डरा रहता है। यह दीगर बात है कि बाद में  वह कहे कि मैं अपने परिणाम से आश्वस्त था। मैं भी अपनी ही तरह के डरे हुए दूसरे बुद्धिजीवियों की तरह बाद में झूठ बोलूं इसके पूर्व ही अपने डर को लिपिबद्ध कर लेना चाहता हूँ। हो सकता है कुछ दिन बीतने के बाद मैं इसे लिख देने के बावज़ूद अपनी ईमानदारी कह कर कॉलर ऊँचा करूँ। अपने को खुद ही हरिश्चंद्र या गाँधी  पुकारूँ। इसे अपना अप्रतिम साहस बताऊँ। यह और बात है। पर, अभी तो अपने भीतर का डर यथार्थ है। वास्तविक है।

ऊपर मैं जिस ड्राईवर की बात कर रहा था ऐसे न जाने कितने हर गली, हर मोहल्ले, हर गांव और हर शहर में पड़े होंगे। बहुतेरे नालों के किनारे की झुग्गियों में भी होंगे। कूड़ेदानों और भिनभिनाती मक्खियों (इससे अनजान कि मक्खियाँ भी कोरोना की संवाहिका हैं) से भरे कूड़े  के ढेरों  में जीविका खोजने वालों पर ढेर के ढेर मुंह बना रहे होंगे। उन सबके चूल्हे ठंडे पड़े होंगे। शराबियों की बीबियाँ अपने शौहरों को अब न कोस रही होंगी। जब कोई काम पर ही न गया होगा तो पिएगा क्या? अब वह भी अपनी करनी पर पछता रहा होगा। सुनारों की दुकानें भी नहीं खुली होंगी जहां अपने इकलौते जेवर पायल या  बिछियों को बेचकर कोई मजबूर मज़दूरन  अपने बच्चों के लिए आटा ला सके। माना कि इनकी नींद तो इस मज़बूरी से भी उड़ी होगी। परंतु मेरी नींद क्यों उड़ी हुई है?

कल के पहले मेरा यही ड्राइवर जिसका नाम ए बी चौहाण है, स्वाभिमानी लगता रहा है। ज़बरन देने पर ही इसने कभी कुछ पैसे  अपनी हथेली पर  रखने दिए हैं। लेकिन कल उसमें यह स्वाभिमान गायब-सा दिखा। अपने स्वाभिमान की भरपाई एक और नए जुमले से की कि, ‘मौत से वह डरे जिसके पास कुछ हो। मेरे पास न तो कोई दुकान है न मकान फिर मैं क्यों डरूं।’ शायद यही जीवन दर्शन अन्य निर्धनों का भी हो। हमें उन्हें डराने से अधिक समझाना है। मुझे लगता है हम बुद्धिजीवियों ने यही नहीं किया।

मुंबई और पुणे से अपने-अपने वतनों को गठरी लादे भाग रही  भीड़ों का भी  ध्येय वाक्य मेरे ड्राइवर वाला ही ध्येय वाक्य रहा होगा। हो यह भी सकता है कि सामने खड़ी मौत के डर और भूख के भय की वज़ह से इंसान से भीड़ में तब्दील यह जन सैलाब ‘मरता क्या न करता’ की रहन पर  हज़ार-हज़ार किलोमीटर तक के सफ़र पर पैदल, रिक्शे, साइकिल, ट्रेन या बस में ठूंसे-ठूंसे जाने को खुशी-खुशी तैयार हो। इन सबकी अपनी-अपनी मजबूरियां हैं। पर वे सड़क की ओर पागलों की तरह क्यों भागे जा रहे हैं जिनके घर कम से कम महीने भर का राशन है। मौज़-मस्ती के चक्कर में उठ-बैठ रहे हैं या फिर पुलिस से धींगामुश्ती कर रहे हैं। कोई जन प्रतिनिधि वह भी विधायक सपर्पित चिकित्सकों के लिए गालियों का उपहार दे रहा है। हाथ उठा रहा है। इनमें कुछेक सही भी हो सकते हैं। पर पुलिस भी इतनी पागल या महाबली  नहीं कि दिन भर भागती हुई लाठियाँ ही भाँजती रहे। पुरी की सब्जी मंडी से भी हम कुछ सीख ले सकते हैं।

मेरा डर कुछ इसलिए भी बढ़ा है क्योंकि कल रात को 9:00 बजे से ही कुत्ते भौंकने लगे थे। अभी  जब सुबह के 4:00 बज रहे हैं कहीं से भी कुत्तों के भौंकने की आवाज़ नहीं आ रही है और न ही सड़क पर किसी भी प्रकार के वाहन का स्वर। फर फर फर फर पत्तियां फड़काने वाली सामने की नीम भी मौन है और कभी हर हर हर हर हरहराने वाले कोने वाले पीपल बाबा भी।

नींद अभी तक नहीं आई है और सात बजते-बजते टीवी पर देखता हूँ कि मुश्किल से पाँच साल का बच्चा अपने पिता को ड्यूटी पर नहीं जाने दे रहा है। रो-रो कर उसका बुरा हाल है। वह अपने पिता से गुहार कर रहा है कि, “पापा प्लीज़ बाहर मत जाओ कोरोना है।” बिलखते बच्चे और पिता को कर्तव्य और वात्सल्य के बीच झूलते कारुणिक दृश्य किसे नहीं द्रवित कर देंगे। पिता आखिर चला गया और बाहर जाकर रोया होगा। यही सोच-सोच कर मेरी आँखें अभी तक नम हैं। भीतर-बाहर कहीं से भी कुछ भी सामान्य नहीं लग रहा है। कभी-कभी लगता है कि  कहीं यह सब कुछ अपने ही भीतर का रचा हुआ तो नहीं है जो उमड़ घुमड़ कर बादलों-सा फट पड़ने को आतुर है। लेकिन हाथ-पाँव पटक-पटक बेहाल हुए जा रहे बच्चे के विलाप को कैसे झुठलाऊँ।

बच्चे से बूढ़े  तक में व्यापे डर के इतने सारे रूप और कारणों के होते हुए भी हमारे पास ऐसा बहुत कुछ है जो जीवन के प्रति साहस बढ़ाने और आशा बँधाने के लिए पर्याप्त है बल्कि पर्याप्त ही नहीं पर्याप्त से भी कुछ अधिक है। अपवाद स्वरूप एकाध जनप्रतिनिधियों की नापाक हरक़तों के विपरीत विधायकों, सांसदों, सरकारों की राहत वाली घोषणाएँ। करोड़ों  गरीबों के लिए हाथ बढ़ाते भामा शाह। भूखों को खाना खिलाते, सैनेटाइज़र और मास्क लिए राहों में खड़े उत्साही नागरिक। अपनी आँखों के तारे को झिटक कर ड्यूटी जाते पुलिस कर्मी। अपनी गीली आँखों से अपने परिवार को भूले हुए उनसे महीनों से दूर राष्ट्रीय गौरव को बढ़ाते समर्पित चिकित्सक। इनमें से बहुतों की हफ्तों और महीनों से उड़ी नीँदें भी मेरी नींद उड़ने का कारण है। हमें क्या पता कि  हमारे प्रधानमंत्री, उनके मंत्रिमंडल के सदस्य और अधिकारी कब से नहीं सोए हैं। कर्मचारी कब नहाते-धोते हैं। इसका पता तो उनके घर वालों को भी नहीं होगा। सब कुछ सबसे नहीं कहा जा सकता। कुछ बातें महसूसने की भी होती हैं। शायद मेरी बेचैनी का एक कारण यह भी है।

अपनी महासागरीय संस्कृति महाप्रलय के बाद भी सँभली है। संस्कृति-शूरों के शौर्य और धैर्य से धरती लहलहाई है। इस संकट काल में कल्पना करें कि मनु का अकेलापन हमारे इस अकेलेपन या घर में अपनों के बीच  बैठकर समाज से कटाव (वह भी करुणार्द्र  अपील के साथ कही जा रही ‘दूरी पर रहने’ का) से कितना बड़ा रहा होगा। निश्चय ही अपने आयतन में भी और गुरुत्त्व में भी हमारे इस एकांतवास से यहाँ तक कि कैदियों के एकांतवास से भी इतना बड़ा रहा होगा जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। उसकी तुलना में हमारा यह अकेलापन कितना लघु, हल्का और सीमित है। लक्ष्मण को शक्ति लगने के बाद वाले राम, यदुवंश के सर्वनाश के बाद वाले कृष्ण, पुत्र के दाह संस्कार के लिए अपनी ही पत्नी से कर मांगते हरिश्चंद्र, अपने बेटों को दीवार में चुने जाते देखने वाले गुरु गोविंद सिंह हों या दूसरे सिक्ख गुरु थाल में अपने ही बेटे का कटा सिर इस उपहास के साथ हृदय विदारक दृश्य को देखते-सहते हुए कि, ‘यह तरबूज है।’  मानव जाति और राष्ट्र के लिए अपने को इन विषम स्थितियों में संभालने वाले परम साहसी और सन्तोखी  गुरु हों या फिर शीश महल गुरुद्वारा पर मत्था टेकते ही आज भी रोंगटे खड़े कर देने जैसे असर रखने वाले  क्रूरता के शिकार हुए गुरु तेग बहादुर जैसे वीर बहादुर हों। क्या ये वीर बहादुर हमें कुछ भी साहस नहीं देते? हमारा मनोबल नहीं बढ़ाते? बढ़ाते हैं। बहुत बढ़ाते हैं तभी तो हम अब तक अजेय माने जाने वाले शत्रु के सामने पहाड़-सा सीना ताने खड़े हैं।

बात सिर्फ इतनी-सी ही नहीं है कि हम इन साहसी त्यागियों और बलिदानियों से कुछ भी साहस नहीं ले पा रहे हैं। बात कुछ और  है जिसके कारण हमारी साहसी और बलिदानी  संस्कृति के संवाहक प्रबुद्ध जन तक के भीतर भी डर  समाया हुआ है और मेरी ही तरह और भी बहुतों की नींद उड़ी हुई है। हमारे इन बलिदानियों के शत्रु दृश्य थे और हमारा शत्रु अदृश्य।

इन कारणों के बीच से अपना सिर उठाता एक और बड़ा कारण भी है मेरे भीतर समाए डर और उसके फलस्वरूप नींद उड़ने का। यह है नक्सलियों द्वारा 17 जवानों की निर्मम हत्या। इसी के साथ एक और घटना भी है जो भीतर तक दहला देती है। वह घटना किसी और स्थल की नहीं बल्कि उस स्थल की है जिसके दरवाज़े  हमेशा-हमेशा के लिए  जितना किसी भक्त के लिए खुले रहते हैं उतना ही भूखे के लिए भी और जिसका एक धर्म लंगर खिलाना भी है। यह घटना अफगानिस्तान के उस गुरुद्वारे की है जिसमें हमने 20 लाशें बिछी हुई देखीं। इतना ही नहीं कइयों के तो चिथड़े भी उड़े हुए थे। नक्सली और आतंकी गतिविधियों में बिछी हुई है लाशें भय को भी भयभीत कर देने की क्षमता रखती हैं। मेरी पीड़ा के यह और पिछले सारे कारण या तो ममता के कारण हैं या फिर करुणा के। मेरी चिंता का एक विषय और है कि मेरी वृत्ति के विपरीत एक वृत्ति घृणा भी इनके साथ-साथ मेरे भीतर किसी के लिए  हिलोरें मारे जा रही है।

कोरोना जैसी विश्वव्यापी महामारी के कारण बने आपातकाल में एक ओर जहाँ सारा विश्व एकजुट होकर अपने अदृश्य शत्रु से लोहा ले रहा है वहीं दूसरी ओर आतंकी और नक्सली गतिविधियाँ  जारी हैं। इन्हीं के सहधर्मी  साइबर जालसाज, मुनाफ़ाखोर और नकली मास्क बनाने वाले भी अवसर का लाभ उठाकर सक्रिय हैं। ऐसी मुश्किल घड़ी में जब पता नहीं कब कहां से और किसके द्वार पर मौत अपने लावलश्कर के साथ आ खड़ी हो और जो इन  दुष्टों के द्वार भी आ सकती है वह भी बिना दस्तक दिए, इनकी हरकतें घृणा ही पैदा कर सकती  हैं।

निष्प्राण ट्रेन तक का एक टर्मिनल पॉइंट होता है।वह वहीं ठहर भी जाती है। उसके आगे वह एक इंच भर भी नहीं जाती। लेकिन लगता है कि क्रूरता और लोभ का कोई टर्मिनल पॉइंट है ही  नहीं। माना इन नक्सलियों और आतंकियों का कोई भी दीन-ईमान नहीं होता। लेकिन मानवता की सेवा का ढोंग रचने वाले  व्यापारियों तक में भी तो कुछ न कुछ होना ही चाहिए। अगर  नकली मास्क पकड़ में ना आए होते तो न जाने कितने धरती के भगवान (हमारे जीवन रक्षक चिकित्सक) इनके लोभ की भेंट चढ़ गए होते। उन्हें पहनने वाले मरीज़ और चिकित्सक केवल एक विश्वास के नाते मारे जाते। ऐसे धन लोलुप भी हमारे हत्यारे ही हैं। हाँ, एक बात ज़रूर है कि इनके द्वारा की गई हत्याओं से न तो खून फैलता है और न खौलता है फिर भी न जाने क्यों मेरा खून खौल रहा है।

हमारा समकाल भीषण संकट का काल है,जिसमें हमारे देश के प्रधानमंत्री से लेकर हर जिम्मेदार पत्रकार, नागरिक, नेता, अभिनेता, रचनाकार और गायक अपने-अपने तरीके से और पूरी ईमानदारी से बहुत संवेदनशील तरीके से अपील कर रहे हैं। मुझे पूरी उम्मीद है कि इनसे पत्थर भी पसीज  गए होंगे। पर, मनुष्य जाति के कलंक  नक्सली आतंकी और धन लोलुप व्यापारी बिंदास भाव से अपने कुत्सित, क्रूर और बर्बर कृत्य में लिप्त हैं। मेरे भीतर कुंडली मारकर बैठ गया डर और उससे उड़ी नींद को असली समाधान तभी मिलेगा जब ये हत्यारे भी निर्भया के हत्यारों की तरह तख्ते पर झूल रहे होंगे। आखिर इनका भी तो कोई न कोई टर्मिनस होना ही चाहिए।

अपने ही घर में रहना न किसी से मिलना-जुलना  न किसी को बुलाना। इसके बावजूद बीस-बीस बार हाथ धोना यह आज का यथार्थ है डर नहीं । लेकिन यह डर में तब्दील हो रहा है? कोई और अवसर होता तो इतनी बार और इतनी  देर तक हाथ धोने के कारण किसी न किसी मनोचिकित्सक के पास जाना ही पड़ता। लेकिन आज समय की माँग है। युग सत्य है। हर युग का अपना धर्म होता है। चारित्र होता है। युग सत्य होता है। इस सत्य को कोई नकार नहीं सकता। इसलिए बड़े से बड़ा चिकित्सक भी इसे ही सही ठहराएगा। हो भी क्यों न! एक-एक करके अपने भाइयों को खोता हुआ रावण या बेटों को  खोता हुआ धृतराष्ट्र भी कभी इतना न डरा होगा। यदि वे इतना डरे होते तो न तो ये युद्ध होते और न ही रावण और धृतराष्ट्र का सर्व(वंश)नाश होता है।

मेरी समझ में सर्वसहा भारत भूमि भी इतना और पहले कभी न डरी होगी। न तो भीतरी आक्रमणकारियों के आतंक से और न ही बाहरी आक्रांताओं के आक्रमणों से। शायद उनके द्वारा अनेकश: किए गए  नरसंहारों से भी नहीं। जलियांवाला बाग हत्याकांड से भी हमारा देश इतना भयभीत न हुआ होगा। दोनों विश्व युद्धों से भी दुनिया इतनी तो नहीं ही डरी  होगी वरना ये दोनों युद्ध 5-5 सालों तक न खिंचे होते। लेकिन हम दुस्साहसी रावण नहीं हैं और मोहांध धृतराष्ट्र भी नहीं। हमारी आँखें खुली हैं और दृष्टि भी साफ़ है। इससे एक बात साफ़ हो जाती है कि यह डर सकारात्मक है। लेकिन इसे इतना भी पैनिक नहीं बनने देना है कि सीधे अटैक ही पड़  जाए।

सारी बातें एक तरफ़ और यह कहावत एक तरफ़  यानी कि सौ बातों की एक बात ‘मन के हारे हार है मन के जीते जीत।’

हम जीतेंगे इस कोरोना से भी। जैसे जीतते आए हैं त्रेता में रावण को और द्वापर में कौरव दल को। भले ही यह कलयुग का समय है। पर,यह जीत तभी संभव है जब हम सरकारी लॉकडाउन का उसी आस्था से सम्मान करें जिनके साथ अपने पूजा स्थलों पर जाते हैं। घर में कोई सामान न हो तो अपरिग्रही होकर 14 अप्रैल तक रह सह लें। खाने का सामान भी कम पड़ जाए तो कुछ दिनों के लिए उपवास  और रोज़े रख लें। इसी में बुद्धिमानी है। -“सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्ध्ं  त्यजति पण्डित:।”

इस तरह यदि अपने संकल्पशील मन से लड़ें तो इस कलयुग में भी इस महायुद्ध को जीतने में महाभारत से  तीन दिनों का ही अधिक समय लगेगा यानी इक्कीस दिनों में जीता जा सकेगा। इनमें से भी इतने दिन तो बीत ही चुके हैं कि बस महाभारत के युद्धकाल के बराबर का ही समय बचा है।

यकीन मानो ये दिन ब्रह्मा के दिन नहीं हैं। कट जाएँगे। कोई सरकार और उसके अधिकारियों-कर्मचारियों को शत्रु न समझें। सरकारी प्रयासों के उलटे अर्थ न लें। कोई भी कर्मचारी न तो किसी के झूठे सज़्दे में है और न ही किसी से दुश्मनी निभाने के मूड में। वह अपने कर्तव्य और धर्म को निभा रहा है न कि किसी दूसरे के। तुम्हें कष्ट देने की मंशा भी उसकी कत्तई नहीं है। हथेली पर जान लिए  सीमा पर  संगीनें ताने खड़े वीर जवानों की भाँति चिकित्सक, पुलिस और अन्य कर्मचारी जो हमारी आवश्यक सेवाओं में लगे हैं, कोरोना वारियर्स हैं। दुनिया भर से मिल रही सूचनाएं बताती हैं कि कोरोना के दूसरे चरण में प्रवेश तक ही कई चिकित्सक जान भी गवां चुके थे। अपने देश में भी एक चिकित्सक शहीद हुआ है।  फिर भी चिकित्सक  सेवाएँ दे रहे हैं। इसी तरह के खतरे दूसरे कर्मचारियों को भी हैं। उनके त्याग को समझें। इसे दुष्यंत के एक शेर की मदद से (उसके परिप्रेक्ष्य को सीधे ऋजु कोण पर बदलते हुए) भी समझा जा सकता है-

“अपने ही बोझ से दुहरा हुआ होगा
वह सज़दे में नहीं था तुम्हें धोखा हुआ होगा।”

अत:आइए हम सब मिलकर अपने मन को बिना हराए इसे घर में ही रहकर हराने का संकल्प लें, ‘तन्मे मन: शिव संकल्पम् अस्तु!’

 

डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

सूरत, गुजरात

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