हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ दक्षिण अफ्रीका : मिस्टर बैरिस्टर एम. के. गांधी से गांधी बनाने की ओर ☆ श्री मनोज मीता

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-1

श्री मनोज मीता

 

(सुप्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक श्री मनोज मीता जी का ई-अभिव्यक्ति  में हार्दिक स्वागत है.आप अनेक सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्ध हैं एवं सुदूरवर्ती क्षेत्रों में सामाजिक सेवाएं प्रदान करते हैं. महात्मा गांधी पर केंद्रित लेखों से चर्चित.)

 

☆ दक्षिण अफ्रीका : मिस्टर बैरिस्टर एम. के. गांधी से गांधी बनाने की ओर ☆

 

गांधी, दक्षिण अफ्रीका बैरिस्टर एम.के. गांधी बन के गए थे पर वहाँ जाने के बाद वो धीर-धीरे जनमानस के गांधी बन गए। यह एक लम्बी प्रक्रिया है । गांधी वहां बाबा अब्दुल्ला के केस में वकील की हैसियत से गए थे पर समय के साथ गांधी वहाँ रह रहे काले कुली के वकील बन गए। गांधी, मोहन से महात्मा बनने की प्रक्रिया बचपन से ही शुरू हो गई थी। उस ब्रितानी सल्तनत जिसका कभी सूर्य अस्त नहीं होता था, उसपे ग्रहण, गांधी के सत्य-अहिंसा और सत्याग्रह के इस प्रयोग की शुरूआत दक्षिण अफ्रिका में ही हो चुकी थी। कुछ घटनाओं ने बैरिस्टर गांधी को जनमानस का गांधी बनाने में मदद की और यह प्रक्रिया शुरू हुई।

यह घटना 7 जून 1893 के एक सर्द रात की है। गांधी तभी बमुश्किल 23 वर्ष के एक बैरिस्टर थे। शायद तब के दक्षिण अफ्रीका के सबसे पढ़े लिखे हिन्दुस्तानी या उनकी भाषा में कुली, वो डरबन से नेटल की यात्रा पे थे। इंगलैंड से पढ़ा लिखा बैरिस्टर प्रथम श्रेणी के डिब्बे में अकेले बैठा सफर कर रहा था। उस बैरिस्टर को नेटल जाना था। रात्रि के 9 बजे के आसपास गाड़ी नेटल की राजधानी Pitarmaritjrbag पहुंची। ये एक हाड़ कंपा देने वाली सर्द रात थी। बैरिस्टर गांधी अपने आप में खोया नींद में ऊँघ रहा था कि तभी एक अंग्रेज प्रथम श्रेणी के उस डिब्बे में पहुँचा। बैरिस्टर गांधी सतर्क हो गया और अकेले इस यात्रा में एक सहयात्री को पा के खुश भी हो गया कि चलो आगे की यात्रा संग-संग होगी। वो अंग्रेज लापरवाह सा अपने हैट और ओवर कोट को प्रथम श्रेणी के डब्बे में लगे खुटी से टांग कर अपनी सीट की ओर मुड़ा, अचानक उसकी नजर बगल की सीट पर बैठे बैरिस्टर गांधी पे पड़ी, उसके चेहरे का रंग ही बदल गया। वो बिना कुछ कहे उतर गया। गांधी को अजीब सा लगा, पर उस सर्द रात और नींद ने गांधी को कुछ सोचने नहीं दिया। कुछ ही देर में वो अंग्रेज, रेलवे के दो अधिकारियों के साथ वापस आया। अधिकारियों ने आते ही बैरिस्टर गांधी को फरमान सुनाया कि आपको यह डिब्बा खाली करना होगा क्योंकि एक अंग्रेज किसी काले कुली के साथ सफर नहीं कर सकता है। गांधी ने कुली संबोधन पर प्रतिवाद किया और बताया कि वो एक बैरिस्टर है और अपने मुवक्किल के केस के सिलसिले में जा रहा है। पर उन रेल अधिकारियों पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने अपना अंतिम निर्णय सुनाते हुए कहा कि आप बैरिस्टर हैं इससे कोई अंतर नहीं पड़ता, आप यहाँ से अपनी यात्रा माल डिब्बे में करें। बैरिस्टर गांधी ने कहा कि मेरे पास प्रथम श्रेणी का वैध टिकट है और मैं इसी टिकट से इस प्रथम श्रेणी के डिब्बे में डरबन से सफर कर रहा हूँ। मैं आगे भी इसी डब्बे में सफर करूँगा, बैरिस्टर गांधी ने दृढ़ता-पूर्वक कहा। अधिकारियों ने चेतावनी देते हुए कहा कि तुम इस डिब्बे को खाली करो नहीं तो हम पुलिस बुला लेंगे, पर गांधी टस से मस नहीं हुआ। अधिकारियों ने आवाज देकर पुलिस को बुला लिया और बैरिस्टर गांधी को सामान सहित प्लेटफार्म पे फेंकवा दिया। गांधी प्लेटफार्म पर गिरे तो प्लेटफार्म पर रखे बेंच का एक हिस्सा हाथ के पकड़ में आ गया, इस कारण गांधी का सर प्लेटफार्म के फर्श से टकराने से बच गया नहीं तो गांधी का सर निश्चित रूप से फट गया होता और चोट तो लगी ही थी। इस अप्रत्याशित अपमान की जगह गांधी को चोट के दर्द का पता नहीं चल रहा था। अपने बिखरे सामान के साथ गांधी प्लेटफार्म पे पड़ा था कि उस रेल अधिकारी ने पास आकर कहा तुम चाहो तो अब भी यहाँ से माल डिब्बे में आगे का सफर कर सकते हो, पर गांधी ने पुनः दृढ़ता-पूर्वक इंकार से सिर हिलाया। वो गांधी की तरफ उपहास की नजरों से देखते हुए चल दिए। गाड़ी भी गांधी को वहीं छोड़ आगे बढ़ गई। अकेला बैरिस्टर गांधी उस प्लेटफार्म पर रहा गया। प्लेटफार्म का अँधेरा दूर वेटिंग रूम से आ रही मध्यम पीली रौशनी दूर कर रही थी, पर गांधी का अपमान कौन दूर करेगा! गांधी अपने अपमान से जूझ रहा था। थोड़ी चेतना आने के बाद, गांधी उसी बेंच पर जिसने अधिक चोटिल होने से बचाया था, बैठ गया। कुछ समझ नहीं आ रहा था, तभी गांधी को लगा कोई फुसफुसा के कह रहा है कि यहाँ बहुत ठंढी है, आप वेटिंग रूम में चले जाएँ। हम आपका सामान स्टेशन मास्टर के यहाँ रख देते है। गांधी को लगा की यह काल्पनिक है, पर वो अपना सामान वहीं छोड़ कर वेटिंग रूम चला गया। तेज दर्द, पहाड़ी शहर की सर्द हवा और अपमान ने गांधी को संज्ञा-शून्य बना दिया। गांधी का ओवर कोट भी सामान में ही रह गया था जो अब स्टेशन मास्टर के कमरे में बंद हो गया था। इन सभी से लड़ते हुए कब गांधी सो गए या मूर्छित हुए उन्हें पता नहीं। सुबह गांधी की नींद खुली तो देखा कि वो एक गंदे कम्बल से लिपटे हुए थे। तभी दो काले कुली समीप आए और कहा कि आप हाथ मुँह धो लें। हम आपका सामान ला देते हैं। गांधी ने उनसे पूछा क्या ये कम्बल तुम लोगों का है? उन्होंने कहा अगर यह कम्बल नहीं देते तो आप इस ठण्ड में मर ही जाते। गांधी ने वेटिंग रूम के नल से मुँह-हाथ धो लिया, वो कुली उनका सामान लेकर भी आ गए और साथ में यह भी कहा कि बाबू यहाँ तो हम कालों के साथ ये रोजमर्रे की बात है। पर गांधी अब अपने अपमान और दर्द से उबर चुके थे। उन्होंने पहला कम किया कि रेलवे के जनरल मैनेजर को एक लम्बा तार भेजकर अपने साथ किये गए दुर्व्यवहार की शिकायत की। दक्षिण अफ्रीका के इतिहास में पहली बार रेल प्रशासन ने अपने अधिकारी द्वारा किये गए दुर्व्यवहार के लिए किसी काले भारतीय से लिखित माफी मांगी।आज भी Pitarmaritjrbag स्टेशन पर यह लिखा है कि 7 जून 1893 की रात एम.के. गांधी को प्रथम श्रेणी के डिब्बे से यहीं बाहर धकेल दिया गया था। इस घटना ने गांधी के जीवन पर गहरा प्रभाव छोड़ा। यह घटना, गांधी को नस्लीय उत्पीड़न के खिलाफ लड़ने की उर्जा दे गई।

यहाँ से गांधी दूसरी गाड़ी से चार्ल्स टाउन पहुँचे, वहाँ से आगे का सफर घोड़ा-गाड़ी से होनी थी क्योंकि इसके आगे रेल की सुविधा नहीं थी। घोड़ा-गाड़ी को वहाँ स्टेट कोच कहा जाता था। जिसको 6 से 8 घोड़े खींचते थे। स्टेट कोच का टिकट रेल टिकट के साथ ही हो जाता था। इस तरह गांधी एक दिन देर थे, पर इस टिकट पर कोई दिनांक नहीं लिखा था। गांधी उस टिकट को लेकर स्टेट कोच के मास्टर के पास गए और आगे के सफर की बात कही। स्टेट कोच के मास्टर ने कहा यह टिकट बेकार हो चुका है। यह किसी काम का नहीं, तुम इस टिकट पर अब सफर नहीं कर सकते। गांधी ने कहा कि इस तरह कह देने से नहीं होगा। आपको मुझे संतुष्ट करना होगा, साथ ही गांधी ने बाबा अब्दुल्ला का नाम भी लिया और कहा कि मेरे स्थगित यात्रा की सूचना आपको सेठ अब्दुल्ला ने तार से दी ही होगी। सेठ अब्दुल्ला उस क्षेत्र के एक बड़े व्यापारी थे और उनके मुलाजिम लगातार सफर करते रहते थे। मास्टर ने कहा ये कुली बहुत तंग करते हैं। गांधी ने प्रतिवाद करते हुए कहा कि मैं एक बैरिस्टर हूँ। मास्टर ने गांधी को गौर से देखा और कहा नस्ल तो कुली का ही है। गांधी ने कहा नस्ल रंग से नहीं होता। अब मास्टर ने समझा कि ये व्यक्ति मुझसे अच्छा और फर्राटेदार इंगलिश बोलता है और कोट पेंट में भी है। इसका प्रभाव मास्टर पे पड़ा और उसने कहा ठीक है तुम सफर कर सकते हो पर तुम्हें मेरी जगह, कोचवान के पास बैठना होगा और मैं अन्दर बैठूँगा। गांधी को अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचना जरुरी था इसलिए तैयार हो गए। गांधी ने कोचवान के बगल में बैठ कर सफर शुरू कर दिया। खुले में सफर करना तेज ठण्ढ हवा गांधी को विचलित कर रही थी। बग्घी सुबह 3 बजे Pardikof पहुंची। तेज ठंडी हवा बह रही थी, कोच मास्टर ने गांधी को इशारे से नीचे आने को कहा। गांधी ने पूछा क्यों? मास्टर ने कहा मुझे सिगरेट पीना है। तो? गांधी ने कहा। कोच मास्टर ने कह तुम यहँ बैठो और उसने बग्घी के पांवदान की ओर इशारा किया। गांधी ने साफ इंकार कर दिया और कहा कि मैं अपने सीट पे हूँ और यहाँ से उठूँगा तो तुम्हारे सीट पे अन्दर बैठूँगा। एक कुली की ये मजाल! गांधी की बात गांधी के मुँह में ही रह गई। मास्टर ने गांधी पर हमला करते हुए ताबड़तोड़ घूँसे का बौछार कर दिया। गांधी इस अचानक हमले से गिरते-गिरते बचे। पर गांधी ने अपना सीट नहीं छोड़ा। गांधी ने कोच के राड को कस कर पकड़ रखा था। बग्घी में सफर कर रहे कुछ यूरोपियन यात्रियों ने बीच-बचाव किया नहीं तो मास्टर गांधी को मार ही देता। यह स्थिति थी दक्षिण अफ्रीका की। कोई भारतीय बोल नहीं सकता और गांधी ने बोलना शुरू किया था जिसका परिणाम गांधी पर हमले के रूप में हो रहा था। अपने गंतव्य पर पहुँचकर गांधी ने बिना किसी संकोच के अपने साथ घटी घटना को बताया और कहा कि मैं इसकी शिकायत करूँगा। वहाँ उपस्थित लोगों ने कहा हम कालों के साथ ये होता ही रहा है, पर हम कोई शिकायत नहीं करते। गांधी ने स्टेट कोच उपलब्ध कराने वाली कम्पनी में शिकायत दर्ज कराई और उसका सुखद परिणाम भी मिला। कंपनी ने गांधी को पत्र द्वारा सूचित किया कि कल जो यहाँ Staindatrn से जाने वाली बड़ी बग्घी में आप अन्य यात्रियों के साथ कोच के अंदर यात्रा करेंगे और जो मास्टर कल के सफर में था उसे हटा दिया गया है। ये वहाँ रह रहे भारतीयों के लिए अजूबा था कि किसी काले कीे शिकायत पर ऐसा निर्णय भी लिया जा सकता है। बैरिस्टर गांधी धीरे-धीरे जनमानस के गांधी बन रहे थे जिसके किये पे भारतीयों को गर्व हो रहा था और वो गांधी में अपने होने का सोच रहे थे।

 

© श्री मनोज meeta

संस्थापक, गांधी आश्रम, शोभानपुर, अमरपुर, बांका (बिहार)

ईमेलः [email protected]

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -1☆ गांधी विचार की वर्तमान प्रासंगिकता ☆ श्री राकेश कुमार पालीवाल

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-1 

श्री राकेश कुमार पालीवाल

 

(सुप्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक श्री राकेश कुमार पालीवाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है.  आप वर्तमान में महानिदेशक (आयकर), हैदराबाद के पद पर पदासीन हैं। गांधीवादी चिंतन के अतिरिक्त कई सुदूरवर्ती आदिवासी ग्रामों को आदर्श गांधीग्राम बनाने में आपका महत्वपूर्ण योगदान है। आपने कई पुस्तकें लिखी हैं जिनमें ‘कस्तूरबा और गाँधी की चार्जशीट’ तथा ‘गांधी : जीवन और विचार’ प्रमुख हैं। इस अवसर पर श्री राकेश कुमार पालीवाल जी का यह आलेख सामयिक एवं प्रासंगिक ही नहीं अपितु अनुकरणीय भी है.)

 

गांधी विचार की वर्तमान प्रासंगिकता

 

गांधी विचार की वर्तमान प्रासंगिकता पर जब भी कोई विचार विमर्श होता है मेरे जेहन में दो घटनाएं कौंधती हैं – एक गांधी द्वारा अपनी हत्या के कुछ दिन पहले दिया वह बयान जिसमें उन्होंने आजाद भारत में अपने दायित्वों और अधूरे कार्यो के बारे में बताया था, और दूसरी घटना 2004 की है जब मुझे एक आत्मीय वार्तालाप में बाबा आम्टे ने इस विषय पर अपने विचार बताए थे। इस लेख में सबसे पहले भूमिका के रूप में इन दो घटनाओं को ही दोहराना चाहता हूं क्योंकि इन दोनों घटनाओं से गांधी विचार की वर्तमान प्रासंगिकता समझने में मुझे बहुत मदद मिली है।

1947 में जब देश आजाद हुआ तब देशवासियों को ऐसा महसूस होने लगा था मानो अंग्रेजी शासन के कारण ही देश में तमाम समस्या थी और उनके जाते ही राम राज्य जैसी स्थिति हो जाएगी।हालांकि आजादी की पूर्व संध्या पर पंजाब और बंगाल के भयंकर साम्प्रदायिक दंगों ने आजादी की नई नींव की चूलें ही हिलाकर रख दी थी। गांधी ने इस हालत में दिल्ली में आजादी के महा जश्न में शिरकत करने की बजाय बंगाल में भड़के भयावह दंगों को रोकने को वरीयता दी थी। वे यह भी भांप रहे थे कि आजादी के बाद का भारत भी बहुत सारी समस्याओं से घिरा रहेगा इसीलिए उन्होंने तत्कालीन कांग्रेस को भंग कर कांग्रेसियों को सलाह दी थी कि वे सत्ता का मोह छोड़कर देश सेवा के रचनात्मक कार्यों में लग जाएं। यह कमोबेश वही रचनात्मक कार्य थे जिन्हें गांधी और उनके सहयोगी स्वाधीनता संग्राम आंदोलन के दौरान बहुत साल से करते आए थे।

आजादी के समय भी अधूरे रह गए रचनात्मक कार्य गांधी को आजादी से भी ज्यादा प्रिय थे, इसीलिए वे अक्सर कहते थे कि आजादी के पहले देश की जनता को आजादी अक्षुण्ण रखने के लिए जागरूक करने की जरूरत है। इसी पृष्ठभूमि में  एक प्रश्न के उत्तर में गांधी ने कहा था कि आजादी के बाद भी हमें बहुत काम करना है क्योंकि अंग्रेजी शासन हटने से देश को केवल एक चौथाई (राजनीतिक) आजादी मिली है। अभी हमें देशवासियों के लिए तीन चौथाई आजादी अर्थात सामाजिक आजादी, आर्थिक आजादी और धार्मिक या आध्यात्मिक आजादी अर्जित करनी है। गांधी का इशारा समाज में फैली छुआछूत और जातिवाद, देश के गांवों में पसरी भयंकर गरीबी और विभिन्न धर्म और संप्रदायों के बीच फैली नफरत की आग की तरफ था।गांधी के इस कथन को ध्यान में रखते हुए देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि आज भी गांधी के विचार हमारे देश और समाज के लिए उतने ही जरूरी हैं जितने आजादी के समय थे। धार्मिक उन्माद जैसे कुछ मामलों में तो हालात दिन ब दिन बदतर हुए हैं।इसलिए गांधी विचार की प्रासंगिकता भी बढ़ गई है।

2004 में मुझे बाबा आम्टे से उनके आश्रम आनन्द वन में एक आत्मीय वार्ता का अवसर प्राप्त हुआ था। उन दिनों उनकी तबियत काफी नासाज थी लेकिन यह मेरा सौभाग्य था कि उस दिन वे कुछ बेहतर महसूस कर रहे थे जो मेरे साथ करीब आधा घण्टा गुफ्तगू कर सके। उन दिनों मुझे भी गांधी विचार का वैसा अहसास नहीं था जैसा बाद के वर्षों में हुआ। मैंने बातों बातों में उनसे पूछा था –  आने वाले समय में गांधी विचार की क्या प्रासंगिकता रहेगी। जैसे ही बाबा से यह प्रश्न किया उनकी आंखों में चमक बढ़ गई और बिना पलक झपके उन्होंने तुरंत कहा – जिस तरह से विश्व तेजी से हिंसा की तरफ बढ़ता जा रहा है वैसे ही आने वाले समय में पूरे विश्व को गांधी विचार की आवश्यकता और शिद्दत से महसूस होगी। बाबा आम्टे ने जिस आत्म विश्वास के साथ यह कहा था उस पर मैंने उस दिन भी संदेह नहीं किया था क्योंकि बाबा जैसे संत के अनुभव से उपजे ज्ञान पर अविश्वास का कोई कारण नही हो सकता। आज तो मैं भी उसी आत्मविश्वास के साथ यह कह सकता हूं कि आगामी वर्षों में गांधी विचार की प्रासंगिकता और ज्यादा बढ़ेगी क्योंकि विश्व के आधुनिक महान चिंतकों में अकेले गांधी ही ऐसे चिंतक दिखते हैं जिन्होंने हमारे समय की तमाम समस्याओं और चिंताओं पर समग्रता से चिंतन मनन किया है और उनका अहिंसक समाधान करने की हर सम्भव कोशिश की है।

गांधी विचार की वर्तमान प्रासंगिकता पर एक और प्रत्यक्ष प्रमाण याद आ रहा है। बॉम्बे सर्वोदय मंडल के एक छोटे से कमरे से वरिष्ठ गांधीवादी तुलसीदास सौमैया जी अपने युवा सहयोगी राजेश के साथ मिलकर वर्धा आश्रम और जलगांव के जैन गांधी संस्थान की सहायता से गांधी विचार के प्रचार प्रसार के लिए mkgandhi.org नाम से एक वेबसाइट का संचालन करते हैं। कहने के लिए यह एक सादगीपूर्ण साइट है जिस पर कोई खासताम झाम नही है लेकिन कुछ ही साल में तेजी से यह वेबसाइट संभवतः गांधी विचार की सबसे बड़ी वेबसाइट बन गई। इस साइट को अब तक विश्व के दो सौ से ज्यादा देशों के दो करोड़ से अधिक लोगों ने गांधी विचार को जानने समझने के लिए न केवल देखा है बल्कि गांधी के प्रति अपने भावों को भी अभिव्यक्ति दी है। बिना किसी विज्ञापन या प्रचार के इस वेबसाइट का तेजी से विश्व में लोकप्रिय होना यह साबित करता है कि विश्व भर में प्रबुद्ध वर्ग गांधी विचार की तरफ बहुत ध्यान और उम्मीद से देख रहा है।

कुछ साल पहले मुझे वर्धा आश्रम में तीन दिन बिताने का मौका मिला था। आश्रम में रखी विज़िटर्स पुस्तिका पर बहुत से लोग अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। ये लोग दूर दराज के भी थे और काफी आसपास के परिवेश से भी आए थे। मैंने यहां आने वाले लोगों की टिप्पणी देखी तो यह सहज ही आभास हुआ कि गांधी और उनके विचारों के प्रति आज भी लोगों मे कितनी श्रद्धा और विश्वास है।

वैसे भी आज हमारे देश में या विश्व में जितनी भी बड़ी समस्या दिखाई देती हैं उनका सम्यक समाधान गांधी विचार में मिलता है। उदाहरण के तौर पर वर्तमान समय की एक सबसे बड़ी चुनौती क्लाइमेट चेंज की बताई जा रही है। इसी से जुड़ी हुई बड़ी समस्या दिनोदिन बिगड़ते पर्यावरण और हर तरफ गहराते जल संकट की है। यदि हम पिछली सदी में गांधी विचार का ठीक से अनुसरण करते तब यह समस्याएं इतना विकराल रूप धारण नही करती। गांधी सादगीपूर्ण जीवन यापन पर बहुत जोर देते थे और खुद भी सादगीपूर्ण सात्विक जीवन जीते थे। उनकी मान्यता थी कि पृथ्वी पर हर जीव की आवश्यकता के हिसाब से संसाधन मौजूद हैं लेकिन हमारी धरती एक भी व्यक्ति के अनन्त लालच का पोषण नही कर सकती। एक तरह से गांधी ने लगभग सौ साल पहले हमें बहुत स्पष्ट शब्दों में चेताया था कि प्रकृति का जरूरत से अधिक दोहन प्रकृति सहन नहीं कर सकती।

हमने गांधी की बात ध्यान से नहीं सुनी, उस पर ठीक से अमल नहीं किया। इसका दुष्फल हमारे सामने है। हमारा देश ही नहीं अपितु पूरा विश्व अभूतपूर्व पर्यावरण संकट से जूझ रहा है। इसका समाधान गांधी मार्ग पर चलने से आसानी से हो सकता है। यह काम कड़े कानून बनाने से सम्भव नहीं है। इसके लिए भी गांधी के अहिंसक जन भागीदारी वाले आंदोलन की जरूरत है जिसमें बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण कार्यक्रम आयोजित करने होंगे। रोपे गए पौधों का उचित रखरखाव करना होगा और लकड़ी की खपत कम कर जंगल बचाने होंगे। इसी राह से पर्यावरण बचेगा। इसी तरीके से जल संकट टलेगा।

गांधी के बाद भी बहुत से लोगों ने गांधी के विचारों का अनुसरण कर महान काम किए हैं। नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग और आँग सांग सूकी आदि ऐसी प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय हस्तियां हैं जिन्होंने अपने रचनात्मक आंदोलनों का श्रेय गांधी को दिया है। आजादी के बाद हमारे देश में भी बहुत सी विभूतियों ने गांधी विचार अपनाकर कई रचनात्मक कार्यों को अंजाम दिया है। विनोबा भावे का भूदान आंदोलन हो या चंबल के डकैतों का आत्म समर्पण, बाबा आम्टे का कुष्ठ रोगियों को आत्मनिर्भर बनाने के काम आदि में गांधी विचार ही प्रेरक शक्ति था। आज भी देश के विभिन्न हिस्सों में कई संस्था और व्यक्ति अपने स्तर पर अपनी क्षमता के अनुसार गांधी विचार के अनुसार सफलता पूर्वक कार्य कर रहे हैं।

भारत की विशेष सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के परिपेक्ष्य में देखें तो आज यह बेहतर समझ में आ रहा है कि क्यों गांधी भारत के लिए यूरोप के शहरी औधोगिकरण के मॉडल को सिरे से अस्वीकार करते थे। वे भारत की नस नस से वाकिफ थे और अपने समकालीनों में संभवतः भारत की जमीनी हकीकत को सबसे बेहतर समझते थे। उन्होंने देश के लिए ग्राम विकास के उस मॉडल की वकालत की थी जिससे देश की अधिसंख्यक ग्रामीण आबादी गांव में रहते हुए अपना आर्थिक विकास कर आत्म निर्भर हो सके। वे बारम्बार यह दोहराते थे कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है और गांवों का समग्र विकास किए बगैर भारत का समग्र विकास नहीं हो सकता।

ग्राम विकास पर जोर देने के पीछे गांधी शायद उस स्थिति को भांप रहे थे जिससे आज हमें जूझना पड़ रहा है। गांवों का समुचित विकास नही होने से एक तरफ गांवों से युवाओं का निरंतर पलायन हुआ है जिससे गांव श्रीहीन हो रहे हैं और दूसरी तरफ शहरों में आबादी का दबाव इतना बढ़ गया है कि वहां की व्यवस्थाएं चरमरा रही हैं। महानगरों में जिस तेजी से झुग्गियों की बाढ़ आ रही है वह निकट भविष्य मे थमती दिखाई नहीं देती। गांवों की श्रीहीनता और महानगरों की दुर्दशा का हल भी गांधी विचार में मिलता है। गांधी अपने रचनात्मक कार्यों में गांव के लिए कुटीर उद्योगों को सबसे ज्यादा महत्व देते थे। इससे गांव के युवाओं को गांव में ही रोजगार मिलता था और उन्हें रोजी रोटी के लिए गांव का हरा भरा वातावरण छोड़कर शहर की झुग्गी बस्तियों के दमघोंटू वातावरण में रहने की मजबूरी नहीं होती।

गांधी विचार की एक खासियत यह भी है कि वह ऊपर से देखने में बहुत सरल लगते हैं और साथ ही प्रथम दृष्टया अव्यवहारिक लगते हैं लेकिन जब हम उनकी जड़ तक पहुंचते हैं और मन से अपनाते हैं तब उसका आकर्षण इतना सघन होता है कि हम उसके बाहर नहीं आ सकते। इसे हम देश विदेश घूमकर मल्टी नेशनल कम्पनियों की करोडों की कमाई वाली नौकरियां छोड़कर दूरदराज के इलाके में पांच दस एकड़ जमीन पर जैविक खेती कर जीवन यापन करने का निर्णय लेने वाले प्रबुद्ध वर्ग के लोगों से बात कर समझ सकते हैं। इन लोगों ने गांव में खेती करने का रास्ता बहुत सोच समझकर सार्थक जीवन जीने के लिए चुना है क्योंकि वहां इन्हें प्रदूषण मुक्त साफ हवा मिल रही है और पेस्टीसाइड रहित जहर मुक्त भोजन मिल रहा है जो स्वस्थ जीवन के लिए सबसे जरूरी है। ऐसा शांतिपूर्ण सुकून का जीवन महानगरों में संभव नही है। दरअसल जाने अंजाने ऐसे लोग अपने लिए गांधी मार्ग ही चुन रहे हैं जो सबसे सुरक्षित और सही मार्ग है। मैंने भी आने वाले समय के लिए यही रास्ता चुना है क्योंकि मुझे भी यही सबसे बेहतर रास्ता नजर आ रहा है। और गांधी के ही शब्दों में “हमे खुद से ही बदलाव की शुरुआत करनी है।”

 

© श्री राकेश कुमार पालीवाल

हैदराबाद

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ गांधी जी के मुख्य  सरोकार ☆ डॉ.  मुक्ता

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-1 

डॉ.  मुक्ता

(सम्माननीय डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  हम डॉ. मुक्ता जी के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने  अपना अमूल्य समय निकालकर ई-अभिव्यक्ति के इस विशेष अंक के लिए  “गांधी जी के मुख्य  सरोकार”  विषय पर अपने विचार प्रस्तुत किये। )

 

गांधी जी के मुख्य सरोकार

 

गांधी जी आधुनिक भारत के वे अकेले नेता हैं, जो किसी एक वर्ग, एक विषय, एक लक्ष्य को लेकर नहीं  चले। वे जन-जन के नेता थे, करोड़ों लोगों के हृदय पर राज्य करते थे। सुप्रसिद्ध विद्वान और समीक्षक रामविलास शर्मा का तो यहां तक कहना है कि ‘ विश्व इतिहास में किसी एक व्यक्ति का इतना व्यापक प्रभाव कहीं भी, कभी भी नहीं देखा गया। वे भारतीय जन-जन की आशाओं,आकांक्षाओं को समझते थे। वे उन्हें अपनी और उनकी सांझी भाषा में व्यक्त करते थे। उनकी लोकप्रियता का यह एक महत्वपूर्ण उपादान था। उन्होंने जो कुछ भी कहा या किया, उसमें उनका लेशमात्र भी स्वार्थ या लाभ नहीं था। उनके प्रति जनता की अपार श्रद्धा तथा विश्वास का यह एक मुख्य कारण था।

ज्ञान, शिक्षा, कला, साहित्य, समाज-सुधार और देश को पराधीनता के बंधन से मुक्त करवाने के यह सभी आंदोलन विभिन्न क्षेत्रों, विभिन्न वर्गों और विविध विधाओं में आरंभ हुए। इन आंदोलनों ने असंख्य छोटे-बड़े स्तर के आंदोलनकारियों को जन्म दिया। राजा राममोहन राय से लेकर दयानंद सरस्वती, केशवचंद्र सेन, भारतेंदु आदि अनेक महान् व्यक्तियों के नेतृत्व में जाति व समाज के यह आंदोलन आगे बढ़े। इस आरंभिक अभ्युदय की अगली कड़ी में सर्वाधिक महत्वपूर्ण नाम आता है… मोहनदास करमचंद गांधी का, जिसने भारत की समग्रता को समझा और वे मुक्ति, विकास व कल्याण में प्रवृत्त हुए।

गांधी जी के चिंतन व निर्माण पर विश्व की विभिन्न विभूतियों का प्रभाव पड़ा। दूसरे शब्दों में वे उनसे अत्यंत प्रभावित थे। गांधीजी के सत्याग्रह की अवधारणा पर टॉलस्टॉय का प्रभाव था। उनका सर्वोदय आंदोलन रस्किन तथा ग्राम सभा या ग्राम पंचायत आंदोलन हेनरी मेनस से प्रभावित था। परंतु योग व वेदान्त, जो विशुद्ध भारतीय धरोहर थी,उसने वैचारिक व व्यावहारिक स्तर पर गांधी जी को प्रभावित किया और उन्होंने इसे केवल अपने जीवन में ही आत्मसात् नहीं किया, बल्कि समस्त मानव जाति को उसे अपनाने की शिक्षा भी दी। चलिए! इसी संदर्भ में उनके चंद मुख्य सरोकारों पर चर्चा कर लेते हैं।

साम्राज्यवाद : गांधीजी के सम्मुख साम्राज्यवाद मुख्य चुनौती थी और यह उनके संघर्ष का मुख्य सरोकार था, जिसका उन्होंने सर्वाधिक विरोध किया। देश की राजनीतिक व आर्थिक स्वतंत्रता के निमित्त उन्होंने साम्राज्यवाद को मुख्य बाधा स्वीकारा और जीवन में स्वदेशी अपनाने का संदेश दिया। इसके माध्यम से हमारा देश, विदेशी अर्थतंत्र से मुक्ति प्राप्त कर सकता था। यह एक ऐसी मुहिम थी, जिसे अपना कर हम विदेशी शोषण से मुक्ति प्राप्त कर सकते थे।

गांधी जी को दक्षिण अफ्रीका में मज़दूरों के बीच रहने, काम करने, उन्हें संगठित करने व लंबे समय तक उस संघर्ष को संचालित करने का अनुभव था। उन्होंने भारत के गाँव-गाँव में जाकर छोटे किसानों व खेतिहर मज़दूरों से अपना भावनात्मक संबंध ही नहीं बनाया, उनके मनोमस्तिष्क को आंदोलित भी किया। इस प्रकार  वे उन्हें लंबे, कठिन संघर्ष के लिए प्रेरित कर सके और इसमें उन्हें सफलता भी प्राप्त हुई।

जातीय व सांप्रदायिक समस्या: गांधी जी सांप्रदायिकता को मुख्य राष्ट्रीय अभिशाप स्वीकारते थे। हिंदू-मुस्लिम भेद व वैमनस्य उन्हें मंज़ूर नहीं था। वे इस तथ्य से अवगत थे कि जातीय परिपेक्ष्य में पंजाबी हिंदू व पंजाबी मुसलमानों की भाषा, साहित्य व संस्कृति सांझी थी, समान थी। भारत के हर प्रदेश व क्षेत्र के हिंदु व मुसलमानों के बारे में भी उनकी यही विचारधारा रही है। उनके विचार से मज़हब का भेद होने और पूरी मज़हबी स्वतंत्रता के होने पर, झगड़े का कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता। वे दोनों को समान रूप से भारतीय स्वीकारते थे।

गांधी जी हिंदी व उर्दू को एक ही भाषा के दो रूप स्वीकारते थे क्योंकि इसमें भेद केवल लिपि व थोड़ी- बहुत शब्दावली का रहा है। गांधी जी समस्या के बारे में सजग व सचेत थे। उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर हिंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाने पर बल दिया। वास्तव में यह हिंदी की स्वीकार्यता का आग्रह था,जिसमें सामान्य व्यवहार की भाषा के रूप में क्लिष्ट संस्कृत व क्लिष्ट फारसी से मुक्त सामान्य भारतीय की घर-बाज़ार की भाषा (स्ट्रीट लैंग्वेज) की स्वीकृत का प्रयास था। इसके पीछे उनका मूल लक्ष्य था… राष्ट्रीय एकता की सुदृढ़ता व सांप्रदायिकता के  विष का निराकरण, ताकि देश में सौहार्द बना रह सके। आइए! इसी संदर्भ में हम उनकी भाषा नीति पर चर्चा कर लेते हैं।

भाषा नीति: गांधी जी की भाषा संबंधी आस्था ही उनकी भाषा नीति थी। गांधी जी जीवन के हर क्षेत्र में विभिन्न जाति-संप्रदाय, धर्म-मज़हब, विविध भाषा-भाषी लोगों में सामंजस्य स्थापित करनाचाहते थे। सो! उन्होंने विविध भाषा-भाषी लोगोंके बीच जाकर, उनकी भाषाओं को सम्मान दिया ताकि उनकी जातीय अस्मिता सुरक्षित रह सके। गांधी जी के मतानुसार ‘जातीय भाषा के माध्यम से उनकी संपूर्ण प्रतिभा, क्षमता व गौरव की  परिणति होती है, क्योंकि मानव अपनी मातृभाषा में सुंदर, सशक्त व सारगर्भित भावाभिव्यक्ति कर सकता है। इसलिए उन्होंने प्रादेशिक भाषाओं में शिक्षा, प्रशासन व साहित्य लेखन पर बल दिया क्योंकि भाषा वह निर्मल नदी नीर है, जो अपनी राह में आने वाली बाधाओं से उसका मार्ग अवरुद्ध नहीं होने देता। ऐसे स्वस्थ वातावरण में ही भाषाएं पूर्ण रूप से विकसित हो पाती हैं।

राष्ट्रीय संदर्भ में गांधी जी संपूर्ण भारत के लिए हिंदी को अंतर-जातीय, अंतर-क्षेत्रीय, अंतर-प्रादेशिक संपर्क भाषा के रूप में स्वीकारते थे।वे क्षेत्रीय व जातीय अलगाव के विरोधी थे…उनकी अस्मिता- अस्तित्व को महत्ता प्रदान करते थे। वे राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय स्वाभिमान के लिए जातीय अस्मिता के पक्षधर थे। वे भारतीय इतिहास व परंपरा के निमित्त हिंदी भाषा के राष्ट्रीय वर्चस्व को रेखांकित करते थे। गांधी जी के दृष्टिकोण को यदि मान्यता प्रदान की जाती, तो सत्तर वर्ष गुज़र जाने के पश्चात् भी हिंदी राजभाषा के रूप में ठोकरें न खा रही होती…वह राष्ट्रभाषा के रूप में सम्मान पा चुकी होती। देश में एक भाषा का प्रचलन होने से भारतीयता की पहचान बनती। परन्तु हिंदी को आज भी राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं हो सकी,जबकि तुर्की में वहां की भाषा को मातृभाषा को अपनाने का आदेश जारी करते हुए कहा कि ‘जिन्हें तुर्की भाषा को अपनाने में आपत्ति है, वे चौबीस घंटे में देश छोड़कर जा सकते हैं।’ इस प्रकार तुर्की भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त हो गया। परंतु हमारा देश आज तक ऐसा फरमॉन जारी करने का साहस नहीं जुटा पाया। जिस देश की मातृभाषा नहीं होती, वहां राष्ट्रीय एकता की दुहाई देना मात्र ढकोसला है। मां व मातृभाषा सदैव एक ही होती है…इससे सबका मंगल होता है। यदि गांधीजी की राष्ट्रभाषा नीति को लागू कर दिया जाता तो जातीय व क्षेत्रीय भाषाएं भी स्वाभाविक रूप से विकसित हो पातीं और दक्षिण भारतीय भाषाएं इसकी राह में रोड़ा न अटकातीं।

सामाजिक सुधार: गांधी जी सामाजिक कुरीतियों का निराकरण करना चाहते थे ताकि सांप्रदायिक सद्भाव बना रह सके, जिसमें प्रमुख था… छुआछूत का निराकरण। छुआछूत भारतीय समाज का कोढ़ है, जिसका विरोध उन्होंने अपने आश्रम व जीवन में दलितों के प्रति सम्मान, समानता व भाईचारे की भावना को दर्शा कर किया। हरिजन की परिकल्पना, शूद्रों के प्रति सामाजिक न्याय की अलख जगाकर, उन्हें समान धरातल पर स्थापित करना, जाति-पाति के नाम पर शोषण के निराकरण के अंतर्गत गांधी जी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।इससे देश में राष्ट्रीय चेतना अभूतपूर्व रूप से जाग्रत हुई और सामाजिक सद्भावना ने ह्रदय की कटुता को सौहार्द में परिवर्तित कर दिया, जिससे देश में व्याप्त अशांति व उथल- पुथल को विराम की प्राप्ति हुई।

गांधी जी रोगी व निर्बल की सेवा को पूजा रूप में स्वीकारते थे…विशेष रूप से कुष्ठ रोगियों को अवांछित व परित्यक्त न मानकर ,उनकी सेवा को मानवता की सेवा स्वीकारते थे।

गांधी जी राजनैतिक नेता होने के साथ-साथ आदर्शवादी, धर्म-परायण, मूल्यों में आस्था रखने वाले, व्यावहारिक व बौद्धिक क्षमता की प्रतिमूर्ति थे। वे शोषण, समानता व अस्पृश्यता की समस्या को अर्थतंत्र से जोड़ कर देखते थे। वे जानते थे कि पूंजीवादी व्यवस्था किसान को मज़दूर बनने पर तो विवश तो कर सकती है, परंतु रोज़गार नहीं प्रदान कर सकती। इसलिए उन्होंने किसानों को बेरोज़गार मज़दूरों की आर्थिक दशा सुधारने के लिए लघु उद्योग स्थापित करने तथा स्वदेशी अपनाने का सार्थक सुझाव दिया। वास्तव में यह उनमें आत्म- सम्मान जगाने का उपक्रम था, जो आत्मनिर्भरता का उपादान था। वे संगठन की परिभाषा से भली-भांति परिचित थे…जिसके लिए आवश्यकता थी, अपने भीतर की शक्तियों को पहचानने की। वैसे भी वे इस तथ्य से भी परिचित थे कि ज्ञान-विज्ञान द्वारा देश रूढ़ियों व अंधविश्वासों से मुक्त हो पाएगा। सो! वे स्त्री शिक्षा के भी प्रबल समर्थक थे तथा स्त्री-पुरुष में समानता का भाव चाहते थे, क्योंकि एक पक्ष के कमज़ोर होने पर समाज कभी भी उन्नत नहीं हो सकता।

गांधी जी भारतीय एकता के प्रबल साधक व सांप्रदायिक शक्तियों के विरोधी थे। अलगाववादी मुस्लिम नेतृत्व की कट्टरता व अड़ियलपन के कारण वे देश-विभाजन को रोक नहीं पाए। वहीं उनके राजनैतिक उत्तराधिकारिओं की स्वार्थपरता व नकारात्मकता भी इसके लिए उत्तरदायी है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् गांधी जी ने कांग्रेस के सर्वव्यापी आंदोलन को भंग करने और विभिन्न  विचारधाराओं के आधार पर,विभिन्न दलों के गठन का प्रस्ताव रखा, जिस पर अमल नहीं करने से, देश की यह दुर्गति-दुर्दशा हुई।

जहां तक भाषा का संबंध है, गांधी जी सरकारी कामकाज अंग्रेजी में बंद कर, हिंदी व प्रादेशिक भाषाओं के प्रति आग्रहशील थै। इसके साथ ही वे अछूत व सवर्ण के भेद को समाप्त कर, जातिगत विखण्डन को समाप्त करना चाहते थे, परंतु यह भी संभव नहीं हो पाया।

गांधी जी का स्वदेशी आंदोलन स्वालंबन का पक्षधर था… शोषण मुक्ति, अहिंसा, अध्यात्मिक नैतिक सोच व देश की शक्तियों की मुक्ति का समायोजन था। परंतु पाश्चात्य प्रभाव के कारण पराश्रिता बढ़ गई। गांधी जी की इच्छा थी कि धनी, जाग़ीरदार, पूंजीपति स्वयं को स्वामी नहीं, न्यासी (ट्रस्टी ) मानें तथा जनहित में प्रबंधक व दैवीय दूत (एजेंट) के रूप में निष्ठा से कार्य करें। इसी कड़ी में विनोबा भावे के भूदान आंदोलन के सफल न होने का कारण भी निष्ठा का अभाव था। इन विफलताओं का मुख्य कारण उनके शिष्यों-उत्तराधिकारियों की नासमझी, नैतिक दुर्बलता, स्वार्थपरता व नकारात्मक सोच थी, जिस पर गांधी जी नियंत्रण नहीं रख पाये।

गांधी जी मानवता, नैतिकता, सामाजिक- प्रतिबद्धता, व राष्ट्रीय-सामाजिक चेतना से संपन्न महान विभूति थे, जो जीवन पर्यंत जनहित में कार्यरत रहे…यही उन्हें विश्व में अद्भुत, विलक्षण व्यक्तित्व प्रदान करता है। गांधी जी के सरोकार, उनका संघर्ष व मानवतावाद हमें सामाजिक दायित्वों का स्मरण कराते हैं… हमारा मार्ग प्रशस्त करते हैं। सम्पूर्ण विश्व में गांधी जी की प्रतिमा का लगाया जाना, उनके संघर्ष व सकारात्मक सोच के प्रति नतमस्तक होना है। यदि देश उनके सरोकारों को हृदय से स्वीकारता तो ऐसा होता…उनके सपनों का भारत। गांधी जी के ही शब्दों में ‘मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा, जिसमें गरीब लोग भी यह महसूस करेंगे कि भारत उनका देश है… जिसके निर्माण में उनकी आवाज़ का महत्व है। मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा, जिसमें उच्च व निम्न वर्गों का भेदभाव नहीं होगा और जिसमें विविध संप्रदायों में मेलजोल होगा। ऐसे भारत में अस्पृश्यता या शराब और दूसरी नशीली चीजों के अभिशाप के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। उसमें स्त्रियों को वही अधिकार प्राप्त होंगे, जो पुरुषों को होंगे। शेष सारी दुनिया के साथ हमारा संबंध शांति का होगा। यह है …मेरे सपनों का भारत।’

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ चंपारण सत्याग्रह: एक शिकायत की जाँच ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक -1

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है.   आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.)

 

☆ चंपारण सत्याग्रह: एक शिकायत की जाँच ☆

 

शिकायत का अर्थ क्या है? किसी के अनुचित या नियम विरुद्ध व्यवहार के फलस्वरूप मन में होनेवाला असंतोष, उक्त असंतोष को दूर करने के लिए संबंधित अथवा आधिकारिक व्यक्ति से किया जानेवाला निवेदन, किसी के अनुचित काम का किसी के सम्मुख किया जानेवाला कथन, दंडित करवाने के उद्देश्य से किसी की किसी दूसरे से कही जानेवाली सही या गलत बात आदि को हम शिकायत के रूप में वर्गीकृत कर सकते है।

आज से सौ वर्ष पूर्व ऐसी ही एक जन शिकायत ने हमारे देश की दिशा व दशा बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाहित की। इस जन शिकायत को सुनने उसे स्वीकार करने, जाँच किए जाने का निर्णय लेने व जाँच प्रतिवेदन प्रस्तुत करने आदि का यदि समुचित अध्यन किया जाये तो हम शिकायत निराकरण के वास्तविक उद्देश्य को बखूबी प्राप्त कर सकते हैं। यह शिकायत चंपारण (बिहार) के किसानों के द्वारा महात्मा गांधी से की गई थी। चम्पारन गंगा के उस पार हिमालय की तराई में बसा हुआ है। चंपारण जिले में नीलवरों (निलहे गोरे) अंग्रेज प्राय: एकसौ बरसों से नील की खेती करवा रहे थे। प्राय: सारे चंपारण जिले भर में जहाँ कहीं नील की अच्छी खेती होती वहाँ अंग्रेजों ने नील के कारखाने खोल लिए, खेती की ज़मीनों पर कब्जा कर लिया था। चंपारण जिले के बहुत सेaर्कों का उपयोग कर निलहे गोरों ने इस प्रथा को कानूनी स्वरूप दे दिया था। प्रति बीघा पाँच कट्ठे या तीन कट्ठे क्षेत्र में किसानों को नील बोना ही पड़ता था। इसे  पाँच कठिया या तीन कठिया प्रथा कहा जाता था। जो किसान नील की खेती करने से इंकार कर देते उन पर बहुत अत्याचार किए जाते। उनके घर व खेत लूट लिए जाते। खेत में जानवरों को चरने के लिए छोड़ दिया जाता। झूठे मुक़दमे में फसा दिया जाता। जुर्माना लगाया जाता। मार पीट की जाती।

जब गांधीजी दिसंबर 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में शामिल हुये तब वहाँ चंपारण के एक किसान राजकुमार शुक्ल उनसे मिले व वहाँ का हाल उन्हे सुनाया।  अपनी आत्मकथा “सत्य के प्रयोग” में गांधीजी लिखते हैं –“ राजकुमार शुक्ल नामक चम्पारन के एक किसान थे। उन पर दुख पड़ा था।यह दुख उन्हे अखरता था। लेकिन अपने इस दुख के कारण उनमें नील के इस दाग को सबके लिए धो डालने की तीव्र लगन पैदा हो गई थी। जब मैं लखनऊ काँग्रेस  में गया तो वहाँ इस किसान ने मेरा पीछा पकड़ा। ‘वकील बाबू आपको सब हाल बताएंगे’ – यह वाक्य वे कहते जाते थे और मुझे चम्पारन आने का निमंत्रण देते जाते थे।“ बाद में गांधीजी की मुलाक़ात वकील बाबू अर्थात बृजकिशोर बाबू से राजकुमार शुक्ल ने करवाई । सभी ने गांधीजी से आग्रह किया कि निलहे गोरों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों के खिलाफ वे एक प्रस्ताव कांग्रेस में प्रस्तुत करें। गांधीजी ने यह कहते हुये इससे इंकार कर दिया कि वे जब तक वहाँ की स्थिति देखकर और जाँच कर स्वयं को संतुष्ट नहीं कर लेते कोई  प्रस्ताव प्रस्तुत नहीं करेंगे। उन्होने  किसानों को शीघ्र ही चंपारण आने का आश्वासन दिया। गांधीजी अपनी आत्म कथा में लिखते हैं “ कहाँ जाना है, क्या करना है, और क्या देखना है, इसकी मुझे जानकारी न थी। कलकत्ते में भूपेनबाबू के यहाँ मेरे पहुँचने के पहले उन्होने वहाँ डेरा डाल दिया था। इस अपढ़, अनगढ़ परंतु निश्चयवान किसान ने मुझे जीत लिया था।“ गांधीजी कलकत्ता से राजकुमार शुक्ला के साथ अप्रैल 1917 में चंपारण के लिए रवाना हुये। गांधीजी के नेतृत्व में चंपारण में निलहे गोरों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों व शोषण की शिकायत की जाँच में अपनाई गई प्रक्रिया आज भी प्रासंगिक है। उनके द्वारा चंपारण में की गई जाँच कार्यवाही निम्नानुसार चली।

 

  • राजकुमार शुक्ला के साथ गांधीजी पटना में डाक्टर राजेंद्र प्रसाद के घर उनकी अनुपस्थिति में पहुँचे एवं राजेंद्र प्रसाद जी के नौकर ने उन्हे एक देहाती मुवक्किल समझ कर बड़ा रूखा व्यवहार किया, कोई आदर सत्कार नहीं किया। लेकिन इसे गांधीजी ने अन्यथा नहीं लिया और न ही राजेंद्र प्रसाद जी से बाद में मिलने पर कोई शिकवा शिकायत की।
  • पटना से गांधीजी मुजपफरपुर होते हुये चंपारण जिले के मुख्यालय मोतीहारी 15 अप्रैल 1917 को  पहुँचे। गांधीजी स्थानीय भाषा व बोली से अपरिचित थे। किसानों की बात ठीक ठीक समझी जा सके अत: उन्होने सहयोग के लिए आचार्य कृपलानी को अपने साथ ले लिया व ब्रजकिशोर बाबू एवं डाक्टर राजेंद्र प्रसाद आदि को बुलावा भेज दिया।
  • चंपारण जिले के मुख्यालय में शुरू में गांधीजी एक वकील के घर में ठहरे। बादमें उन्होने एक बड़ा आहाता किराये पर लिया ताकि पीढ़ित किसान निर्भय होकर उनसे मिल सकें।
  • गांधीजी चंपारण के किसानों की हालत व निलहे गोरों के विरुद्ध उनकी शिकायतों में कितनी सच्चाई है इसकी जाँच करना चाहते थे। किन्तु किसानों से संपर्क करने के पहले उन्होने यह आवश्यक समझा कि वे निलहे गोरों व जिले में पदस्थ अग्रेज़ सरकार के उच्च अधिकारी (कमिश्नर) से मिल ले। इस हेतु उन्होने निलहे गोरों की संस्था प्लांटर्स असोशिएशन व कमिश्नर दोनों को पत्र लिखा। यद्द्पि इन दोनों से उन्हे कोई विशेष सहयोग प्राप्त नहीं हुआ और उसकी जगह धमकियाँ मिली।
  • गांधीजी मोतीहारी के पास स्थित एक गाँव जा रहे थे जहाँ एक किसान का घर निलहे गोरे द्वारा लूट लिया गया था,  किंतु रास्ते में ही उन्हे कलेक्टर का आदेश मिला की वे जिला छोड़कर चले जाएँ। गांधीजी ने इस आदेश को मानने से इंकार कर दिया।
  • गांधीजी के चंपारण पहुँचने के बाद शिकायतकर्ता किसानों के दिल से डर ख़त्म हो गया। जो शोषित किसान अदालत जाने से भीं डरते थे वे गांधीजी के पास बहुत बड़ी संख्या में आकर निलहे गोरों द्वारा किए जा रहे शोषण, अत्याचारों व जुल्मों के बारे में बताने लगे। गांधीजी में उन्हे अपना उद्धारक दिखाई दिया।
  • इस प्रकार चंपारण में जाँच कार्यवाही शुरू हो गई। 20-25 हज़ार किसानों के बयान दर्ज़ किए गए। बयानों से पता चला की जो जुल्म पूर्व में सुने गए थे हालात उससे भी बदतर थे।
  • किसानों के बयान दर्ज करने का कार्य स्थानीय वकील करते थे। गांधीजी ने बयान दर्ज करने वाले वकीलों से कह रखा था कि बयान स्वीकार करने के पूर्व उसकी सत्यता को सुनिश्चित करने हेतु किसानों से आवश्यक प्रश्न जिरह आदि  अवश्य करे ताकि कोई गलत बयानी न कर सके। जिसकी बात मूल में ही बेबुनियाद मालूम हो उसके बयान न लिखे जाएँ।
  • बयान दर्ज करते समय यदि कोई विशेष सूचना मिलती तो उसे तत्काल ही गांधीजी के ध्यान में लाया जाता अन्यथा लिखित बयान समय समय पर गांधीजी को दे दिये जाते और वे उसका बड़ी बारीकी से अध्ययन करते।
  • अनेक बार गांधीजी अपने सहयोगियों व किसानों को साथ लेकर पीढ़ित किसान के गाँव जाकर वस्तुस्थिति की प्रत्यक्ष जाँच भी करते।
  • गांधीजी के नेतृत्व में चल रही इस जाँच कार्यवाही में अंग्रेजी सरकार के अधिकारी, कर्मचारी व खुफिया पुलिस अप्रत्यक्ष रूप से अड़ंगा डालने की कोशिश करते। गांधीजी ने इसे कभी भी अन्यथा नही लिया और न ही उनका कोई विरोध किया अथवा उन्हे कार्य स्थल से दूर चले आने को कहा।
  • एक बार एक निलहे गोरे ने गांधीजी को प्रभावित करने के लिए अपने गाँव बुलाया व 3-4 किसानों से अपनी प्रसंशा करवाई। गांधीजी इससे कतई प्रभावित नही हुये उल्टे उन्होने अन्य उपस्थित किसानों से ही वास्तविकता की जानकारी ले निलहे गोरे व वहाँ उपस्थित अग्रेज़ सरकार के अधिकारी का मुख बंद कर दिया।
  • जाँच कार्यवाही के दौरान जहाँ गांधीजी का व्यवहार शिकायतकर्ता किसानो के साथ सहानुभूतिपूर्ण था, वहीं उनके संबंध निलहे गोरों के साथ मित्रतापूर्ण थे। वे अक्सर उनका आतिथ्य स्वीकार करते थे और उनका पक्ष भी सुनते थे।
  • प्रारंभ में गांधीजी चंपारण की स्थिति जानने के लिए वहाँ एक या दो दिन ही रुकना चाहते थे किन्तु विषय की व्यापकता व गंभीरता को देखते हुये वे काफी लंबे समय तक मोतीहारी में ठहरे व जाँच की कार्यवाही पूरी की। गांधीजी का मोतीहारी प्रवास अप्रैल 1917 से सितंबर 1917 तक रहा।
  • इस जाँच का परिणाम यह हुआ कि सरकार ने एक कमीशन बनाया जिसमे किसानों के अलावा जमींदारों, मालगुजारो, निलहे गोरों के प्रतिनिधि भी शामिल किए गए। गांधीजी भी इसके सदस्य बनाए गए। कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने किसानों के पक्ष में अनेक फैसले लिए जिनसे निलहे गोरे भी सहमत हुये।

गांधीजी ने चंपारण जिले के गांवो के अपने दौरो से किसानों की इस दुर्दशा का कारण जानने का भी प्रयास किया। उन्होने पाया कि किसानों में गरीबी का एक कारण शिक्षा, स्वच्छता व स्वास्थ के प्रति जागरूकता की कमी है। इन कमियों के निराकरण हेतु उन्होने विशेष प्रयास कर प्रारंभ में छह गांवो में बालकों के लिए पाठशाला खोलने का निर्णय लिया। शिक्षण कार्य के लिए स्वयंसेवक आगे आए और कस्तूरबा गांधी आदि महिलाओं ने अपनी योग्यता के अनुसार शिक्षा कार्य में सहयोग दिया।  प्रत्येक पाठशाला में एक पुरुष और एक स्त्री की व्यवस्था की गई थी। उन्ही के द्वारा दवा वितरण और सफाई के प्रति जागरूकता बढ़ाने का काम किया जाने लगा।

इस पूरी जाँच का नतीजा हुआ कि तीन/ पाँच कठिया व्यवस्था समाप्त हुयी व चम्पारन के किसानों को लगभग 46 प्रकार के करों से मुक्ति मिली। इस संबंध में आवश्यक कानून बनाने हेतु  अंग्रेज सरकार पर दबाब पड़ा। निलहे गोरों का रौब ख़त्म हुआ। किसानों में हिम्मत आई। वे अब और जुल्म सहने के लिए तैयार नही थे। जब जुल्म बंद हो गया तो शोषण भी ख़त्म हो गया तो नील का कारोबार  मुनाफे का व्यवसाय नहीं रह गया और निलहे गोरे धीरे धीरे कुछ ही सालों में अपनी चल अचल संपत्ति ,जमीन जायदाद, कोठियाँ आदि बेच चंपारण छोड़ कर चले गए। देश को डॉ राजेंद्र प्रसाद जैसे अनेक लगनशील नेता मिले। बिहार में शैक्षणिक, सामाजिक व राजनैतिक उत्तकर्ष की नई बयार बहने लगी।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ क्योंकि मैं राष्ट्र मां नहीं ☆ श्रीमती समीक्षा तैलंग

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक – 1

श्रीमती समीक्षा तैलंग 

 

(150वीं गांधी जयंती के अवसर पर प्रस्तुत है श्रीमति समीक्षा तैलंग जी   की विशेष रचना क्योंकि मैं राष्ट्र मां नहीं श्रीमति समीक्षा तैलंग प्रसिद्ध साहित्यकार एवं व्यंग्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। इस रचना के लिए श्रीमति समीक्षा जी के हम हृदय से आभारी हैं।)

क्योंकि मैं राष्ट्र मां नहीं

 

 

मैं जानती हूं बापू के वचन। और निबाह भी करती हूँ तब तक, जब तक कोई सामने से हमला न करे।

बुरा मत देखो- 

लेकिन क्या करूँ तब, जब देखने वाले की आंख मुझ पर गलत निगाहें डालती है? देखने दूं उसे…? निहारने दूं अपनी काया को, जब वो उन्हीं गंदी निगाहों से अंदर तक झाँकने की कोशिश करता है? या शोर मचाऊं? कौन आएगा बचाने? निर्भया को कभी कोई बचाने नहीं आता। चीखती है वो। लेकिन सुनने वाले की रूह नहीं काँपती। वो उन आँखों का शिकार होती है हमेशा। बस उसकी एक ही गलती है, कि वो निहत्थी है। तो क्या करूं, बार बार निर्भया बनने तैयार रहूँ? या निर्भीक होकर उसकी आंखें दबोच उसके उन हाथों में धर दूं, जिससे वो अपराध करता है? या फिर अहिंसा की पुजारी होकर उसे बख़्श दूँ?

बुरा मत सोचो- 

उन सबकी सोच का क्या करूं जो उन्हें स्त्री की तरफ घूरने पर मजबूर करती है। घृणित मानसिकता से उपजी सोच लडकियों के कपडों से लेकर उसकी चालढाल, उसकी बातों, सब पर वाहियात कमेंट्स करके जता देती है। खुद में सुधार की बजाए, उंगलियां हमेशा स्त्री की तरफ उठती हैं। क्योंकि वे कमजोर हैं। अपनी गलतियों पर परदा डालने के लिए उनकी सोच उन्हें ऐसा करने पर मजबूर करती है। लेकिन मैं ऐसा नहीं सोचती। मेरी सोच मुझे न घूरने के लिए कहती है और न ही पुरुषों पर टिप्पणी के लिए विवश करती है। क्योंकि मेरी सोच हीन भावना से ग्रसित नहीं। मेरी सोच स्वावलंबी है। फिर क्यों न मैं, ऐसी घटिया सोच रखने वाले को सबके सामने खींचकर एक तेज चपाट दूं? उसे सोचने का अधिकार केवल खुद पर है। मुझ पर कतई नहीं।

बुरा मत कहो-

मैं कहां कहती हूं बुरा…। जब वो नुक्कड़ पर खड़े होकर सीटी बजाते हैं। या फिर सडक रोककर आवारागर्दी करते हैं। ऊलजलूल बकते हैं। फिर भी मैं चुप रहूं? उनकी अश्लील बातों को सुनकर आगे बढ़ जाऊं? उनकी घिनौनी हरकतों को नजरंदाज़ कर दूं? उनके दिमाग में उपज रहे अपराध के प्रति सजग न होकर, वहां से चुपचाप निकलकर, उन्हें शह दे दूं? नहीं, मैं ऐसा आत्मघाती कदम उठाने के लिए कभी तैयार नहीं। मैं उसे उसके किए की सजा जरूर दूंगी। सहकर नहीं, डटकर…।

बापू तुम सच में महात्मा हो। अपनी इंद्रियों पर काबू रख सकते हो। लेकिन ये सब, महात्मा नहीं। इसलिए इनकी इंद्रियां इन्हें भटकाती हैं। लेकिन मुझे इन पर लगाम कसना जरूर आता है। अपनी आत्मरक्षा के लिए। क्योंकि मैं राष्ट्र मां नहीं। मैं एक साधारण सी स्त्री हूं।

 

© समीक्षा तैलंग, पुणे

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – रजत जयंती वर्ष विशेष – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

(आज हम संजय दृष्टि के अंतर्गत श्री संजय भारद्वाज जी का  हिंदी आंदोलन परिवार की रजत जयंती पर विशेष आलेख प्रस्तुत करना चाहेंगे.  आखिर संजय दृष्टि ने कभी तो इस पर्व की कल्पना की होगी. अतः आप सबको समर्पित श्री संजय भारद्वाज जी का यह विशेष आलेख .)   

 

☆ संजय दृष्टि  – रजत जयंती वर्ष विशेष ☆

स्मृतिपटल पर है एक तारीख़, 30 सितम्बर 1995.., हिंदी आंदोलन परिवार की पहली गोष्ठी। पच्चीस वर्ष बाद आज 30 सितम्बर 2019..। कब सोचा था कि इतनी महत्वपूर्ण तारीख़ बन जायेगी 30 सितम्बर!
हर वर्ष 30 सितम्बर को स्मृतिमंजुषा एक नवीन स्मृति सम्मुख रख देती है। आज किसी स्मृति विशेष की चर्चा नहीं करूँगा।..हाँ इतना अवश्य है कि जब संस्था जन्म ले रही थी और सपने धरती पर उतरना चाह रहे थे तो राय मिलती थी कि अहिंदीभाषी क्षेत्र में हिंदी आंदोलन, रेगिस्तान में मृगतृष्णा सिद्ध होगा। आँख को सपनों की सृष्टि पर भरोसा था और सपनों को आँख की दृष्टि पर। आज पीछे मुड़कर देखता हूँ तो अमृता प्रीतम याद आती हैं। अमृता ने लिखा था, ‘रेगिस्तान में लोग धूप से चमकती रेत को पानी समझकर दौड़ते हैं। भुलावा खाते हैं, तड़पते हैं। लोग कहते हैं, रेत रेत है, पानी नहीं बन सकती और कुछ सयाने लोग उस रेत को पानी समझने की गलती नहीं करती। वे लोग सयाने होंगे पर मेरा कहना है, जो लोग रेत को पानी समझने की गलती नहीं करते, उनकी प्यास में ज़रूर कोई कसर होगी।’
हिंआप की प्यास सच्ची थी, इतनी सच्ची कि जहाँ कहीं हिंआप ने कदम बढ़ाए, पानी के सोते फूट पड़े।
हिंआप की यह यात्रा समर्पित है प्रत्यक्ष, परोक्ष कार्यकर्ताओं, पदाधिकारियों विशेषकर कार्यकारिणी के सदस्यों और हितैषियों को। हर उस व्यक्ति को जो चाहे एक इंच ही साथ चला पर यात्रा की अनवरतता बनाए रखी। यह आप मित्रों की ही शक्ति और विश्वास था कि हिंआप इस क्षेत्र में कार्यरत सर्वाधिक सक्रिय संस्था के रूप में उभर सका।
हिंदी आंदोलन परिवार के रजतजयंती प्रवेश के इस अवसर पर वरिष्ठ लेखिका वीनु जमुआर जी ने एक साक्षात्कार लिया है। आज के महापर्व को मान देकर ‘ई-अभिव्यक्ति’ ने भी इसे सचित्र प्रकाशित किया है। इसका लिंक संलग्न है। गत सप्ताह ‘आसरा मुक्तांगन’ के नवीन अंक में भी यह साक्षात्कार छपा था। सुविधा के लिए प्लेन टेक्स्ट प्रारूप में भी इसे संलग्न किया जा रहा है। इसे पढ़ियेगा, पहली से 238वीं गोष्ठी की हिंआप की यात्रा को संक्षेप में जानियेगा और संभव हो तो अपनी बात भी अवश्य कहियेगा।
अंत में एक बात और, दुष्यंत कुमार का एक कालजयी शेर है-
कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो…!
सिर झुकाकर कहना चाहता हूँ कि-  पच्चीस वर्ष पहले तबीयत से उछाला गया एक पत्थर, आसमान में छोटा-सा ही सही , छेद तो कर चुका।..
 *उबूंटू!* 
संजय भारद्वाज
संस्थापक-अध्यक्ष, 
हिंदी आंदोलन परिवार

 

☆ संस्थापक-अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – नवरात्रि विशेष – ☆ नवरात्रि – एक तथ्यात्मक विवेचना ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। आज प्रस्तुत है उनका आलेख  “नवरात्रि  – एक तथ्यात्मक विवेचना”।  यह आलेख उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक  का एक महत्वपूर्ण  अंश है। इस आलेख में आप  नवरात्रि के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं ।  आप पाएंगे  कि  कई जानकारियां ऐसी भी हैं जिनसे हम अनभिज्ञ हैं।  श्री आशीष कुमार जी ने धार्मिक एवं वैज्ञानिक रूप से शोध कर इस आलेख एवं पुस्तक की रचना की है तथा हमारे पाठको से  जानकारी साझा  जिसके लिए हम उनके ह्रदय से आभारी हैं। )

 

Amazon Link – Purn Vinashak

 

☆ नवरात्रि – एक तथ्यात्मक विवेचना

 

हम दिव्य शक्ति को कई संभावित तरीके से प्रस्तुत कर सकते हैं जितनी भी हमारी चेतना हमें अनुमति देगी। मैंने आपको कुछ विशेष दिनों और रातों के विषय में पहले ही बताया है। उसी क्रम में एक वर्ष में चार बार हमारी पृथ्वी पर ऊर्जा का अनुक्रम आता है, यह लगातार नौ दिनों तक इतना खास समय होता है कि उन विशेष दिनों में किए गए हर कार्य के अच्छे परिणाम मिलते हैं।आपको अवश्य ही दो सामान्य नवरात्रि के विषय में एक वसंत नवरात्रि, जिसे चैत्र के चंद्र महीने (सर्दियों के बाद, मार्च-अप्रैल) में मनाया जाता है। भारत के कई क्षेत्रों में यह त्यौहार वसंत की फसल काटने के बाद और अन्यो में फसल के दौरान ही पड़ता है। वसंत नवरात्रि के नौवें दिन भगवान राम के जन्म के रूप में मनाया जाता है और उसे राम नवमी कहा जाता है।

दूसरे, शरद नवरात्रि है।आपको ज्ञात नहीं होगा की एक जीव अपने एक जीवन काल में दस महाविद्याओं में से केवल एक को ही सिद्ध करके उस एक देवी की सारी शक्तियाँ प्राप्त कर सकता है। परन्तु केवल रावण ही एक ऐसा जीवनधारी हुआ है जिसने अपने दस मुखों से एक साथ दस महाविद्याओं के मंत्रो का जाप करके उन्हें सिद्ध किया था। इसलिए रावण के पास दस की दस महाविद्याओं की सम्पूर्ण शक्तियाँ थी। भगवान राम इससे अवगत थे इसलिए युद्ध के समय भगवान राम ने देवी का नौ दिन रातों तक व्रत किया था। व्रत की पहली रात्रि ही देवी माँ ने स्वयँ प्रकट होकर भगवान राम को आशीर्वाद दिया की इसी पल से उनकी दस महाविद्याओं की शक्तियाँ रावण उपयोग नहीं कर पायेगा। और हुआ भी वो ही। अगर रावण के पास से दस महाविद्याओं की शक्तियाँ विलुप्त ना होती तो उसे हराना असंभव था। तभी से भगवान राम द्वारा ही शरद नवरात्रि का व्रत आरम्भ हुआ।

ये दो नवरात्रि वसंत और शरद ऋतु के मौसम में पड़ते हैं जिसमें वर्ष के बाकी दिनों की तुलना में बीमारियां अधिक होती हैं। धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व के अतिरिक्त, लोग इन दो नवरात्रियों के दौरान शरीर और मस्तिष्क को साफ करने और देवी की कृपा से रोगों को रोकने के लिए नौ दिन उपवास रखते हैं।

लेकिन तीन और ना कि केवल दो और नवरात्रि भी होते हैं। कुछ लोगों को वर्ष में देवी पूजा के दो और नौ दिनों के विषय में ज्ञात है जिन्हें गुप्त नवरात्रि कहते हैं। इन दो गुप्त नवरात्रियों में आम तौर पर आम गृहस्थ आश्रम के सदस्यों के द्वारा पूजा की अनुमति नहीं होती है, लेकिन इन दिनों तांत्रिकों द्वारा गुप्त रूप से दस महाविद्याओं की पूजा की जाती है। इन दो गुप्त नवरात्रियों में से एक माघ माह (जनवरी – फरवरी) में आती हैं सर्दी के मौसम में। इस गुप्त नवरात्री के नौ दिनों में से उत्सव का पाँचवा दिन अक्सर स्वतंत्र रूप से वसंत पंचमी या बसंत पंचमी के रूप में मनाया जाता है, जो हिन्दू परंपरा में वसंत की आधिकारिक शुरुआत है, जिसमें देवी सरस्वती जो की कला, संगीत, लेखन अदि की देवी है का स्वागत पतंग उड़ाने के माध्यम से किया जाता है। कुछ क्षेत्रों में, वसंत पंचमी को प्यार के हिंदू देवता, ‘कामदेव’ के दिन के रूप में भी मनाते हैं। दूसरी गुप्त नवरात्री मानसून के मौसम की शुरुआत में आषाढ़ माह (जून-जुलाई) में आती है।

लेकिन दुनिया में बहुत कम लोग ही पाँचवीं नवरात्रि ‘महा गुप्त नवरात्रि’ के नौ दिनों के विषय में अवगत हैं, जिनके आने के समय की गणना महान ज्योतिषियों द्वारा करना भी बहुत कठिन है। उस ‘महा गुप्त नवरात्रि’ के समय हमारे सौरमंडल से और अस्तित्व के अन्य क्षेत्र से पृथ्वी पर सचमुच में बहुत ज्यादा सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है। यह ‘महा गुप्त नवरात्रि’ के नौ दिन असल में एक साथ आने की जगह खंडों या भागों में आते हैं। आप समझ सकते हैं कि यह ‘महा गुप्त नवरात्रि’ वह समय है जब हमारे ब्रह्मांड में दैवीय इच्छा के साथ कुछ बड़ा परिवर्तन होने जा रहा होता है। यह भी जरूरी नहीं है एक ये ‘महा गुप्त नवरात्रि’ हमारे वर्षों के मानकों के अनुसार प्रत्येक वर्ष आये। यह वह समय है जब अनंत शक्ति का दिव्य पुरुष (पुरुष देवताएवं भगवान) रूप भी ब्रह्मांड के स्त्री पहलू की पूजा करता है।

आशीष ने कहा, “क्या बात है सर, मैंने इस पाँचवें नवरात्रि के विषय में कभी नहीं सुना है। महोदय, कृपया मुझे यह भी बताएं कि लोग देवताओं और देवियों के स्वरूप के विषय में जो बताते हैं क्या वे सही हैं? अर्थात स्वर्ग में रहने रहने वाले बहुत सारे देवता और देवी हैं, जिनमे से कुछ के चार सिर हैं, कुछ के बहुत सारे हाथ हैं आदि?”

 

© आशीष कुमार  

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #17 – कोशिश करने वालों की हार नहीं ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है “कोशिश करने वालों की हार नहीं ” ।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

Amazon Link for eBook :  सकारात्मक सपने

 

Kobo Link for eBook        : सकारात्मक सपने

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 18 ☆

 

☆ कोशिश करने वालों की हार नहीं ☆

 

व्यक्ति द्वारा जीवन मे प्रतिपादित कर्म ही उसकी पहचान बनते हैं. अपना जीवन लक्ष्य निर्धारित कर उस दिशा में बढ़ना आवश्यक है,अंततोगत्वा सफलता मिलना सुनिश्चित है. असफलता केवल इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि प्रयत्न पूरे मनोयोग से सही दिशा में नहीं किया गया है.प्रयासों में असफलता, सफलता के मार्ग का एक पड़ाव मात्र है. जो मार्ग में ही थककर, लौट जाते हैँ या राह बदल लेते है, व जीवन के संघर्ष में असफल होते हैं. उनका व्यक्तित्व पलायनवादी बन जाता है.प्रत्येक कार्य में उनकी असफलता दृष्टिगत होती है.सफल व्यक्ति सेवा करता है असफल व्यक्ति सेवा करवाता है। सफल व्यक्ति के पास समाधान होता है असफल व्यक्ति के पास समस्या। सफल व्यक्ति के पास एक कार्यक्रम होता है असफल व्यक्ति के पास एक बहाना। सफल व्यक्ति कहता है यह काम मैं करुँगा असफल व्यक्ति कहता है यह काम मेरा नहीं है।

सफल व्यक्ति समस्या में समाधान देखता है असफल व्यक्ति समाधान में समस्या ढ़ूँढ़ निकालता  है। सफल व्यक्ति कहता है यह काम कठिन है लेकिन संभव है असफल व्यक्ति कहता है यह काम असंभव है। सफल व्यक्ति समय का पूर्ण सदुपयोग करता है असफल व्यक्ति समय का व्यर्थ कामों में दुरुपयोग करता है। सफल व्यक्ति हर वस्तु सही स्थान पर रखता है असफल व्यक्ति हर वस्तु बेतरतीब रखता है। सफल व्यक्ति परिवार और समाज को धर्म एवं सेवा के कार्यो से जोड़ता है असफल व्यक्ति धर्म एवं सेवा कार्यो से स्वयं भी भागता है और परिवार, समाज को तोड़ता है । सफल व्यक्ति अपने परिवेश में सफाई रखता है असफल व्यक्ति अपने घर का कचरा भी दूसरों के घर के आगे फेंकता हैं। सफल व्यक्ति भोजन जूठा नहीं छोड़कर अन्नउपजाने वाले किसान के श्रम  का सम्मान करता है असफल व्यक्ति जूठा छोड़कर अन्न देवता का अपमान करने में शर्म अनुभव भी नहीं करता.

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करना आवश्यक है. सफलता के लिये क्या कमी रह गई, इसका आकलन कर  और सुधार कर जब तक  सफल न हो, नींद चैन को त्याग संघर्ष में निरत रहना पड़ता है, तब हम सफलता की जय जय कार के अधिकारी बन पाते हैं.मन का विश्वास रगों में साहस भरता है. कोशिश करने वालों की मेहनत कभी बेकार नहीं होती,  हार हो भी पर अंतिम परिणिति उनकी जीत ही होती है. सफलता संघर्ष से प्राप्त होती है इसीलिये उसे उपलब्धि माना जाता है और सफलता पर बधाई दी जाती है.

किसी कवि की ये पंक्तियां एक गोताखोर पर लिखी गई हैं,जो हमें प्रेरणा देती हैं कि यदि हम उत्साह पूर्वक जीवन मंथन करते हुये, दुनिया के अथाह सागर में गोते लगाते रहें तो एक दिन हमारे हाथो में भी सफलता के मोती अवश्य होंगे.

 

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,

जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है.

मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,

बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में.

मुट्ठी उसकी खाली पर हर बार नहीं होती,

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #14 – आइये पर्यावरण बचाएं ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली   कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

यह आलेख आदरणीय श्री संजय भारद्वाज जी ने पर्यावरण दिवस की दस्तक पर लिखा था किन्तु, यह आलेख उस पल तक सार्थक एवं सामायिक दर्ज होना चाहिए जब तक हम पर्यावरण को बचाने में सफल नहीं हो जाते.  अब तो यह आलेख प्रासंगिक भी है. अभी हाल ही में 16 वर्षीय पर्यावरण कार्यकर्ता सुश्री ग्रेटा थनबर्ग जी  ने  संयुक्त राष्ट्र के उच्चस्तरीय जलवायु सम्मेलन के दौरान अपने भाषण से संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस सहित विश्व के बड़े नेताओं को झकझोर दिया.यदि अभी भी हम सचेत नहीं हुए और कार्बन उत्सर्जन को कम करने के प्रयास नहीं किए गए तो पृथ्वी के सभी जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा.

 – हेमन्त बावनकर 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 14☆

 

☆ आइए पर्यावरण बचाएं ☆

 

लौटती यात्रा पर हूँ। वैसे ये भी भ्रम है, यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी..और आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! खैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब यू टर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी की सड़कें। इन सड़कों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से इंवेस्टमेंट के लिए ‘आउटर’ में जगह तलाशते लोग निजी और किराये के वाहनों में घूम रहे हैं। ‘धरती के एजेंटों’ की चाँदी है। बुलडोज़र और जे.सी.बी की घरघराहट के बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोजाना अपने साथियों का कत्लेआम खुली आँखों से देखने को अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के हाथों कटने के लिए।

मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़ कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।

हमारे पूर्वज पेड़ लगाते थे और धरती में श्रम इन्वेस्ट करते थे। हम पेड़ काटते हैं और धरती को माँ कहने के फरेब के बीच शर्म बेचकर ज़मीन की फरोख्त करते हैं। मुझे तो खरीदार, विक्रेता, मध्यस्थ सभी ‘एजेंट’ ही नज़र आते हैं। धरती को खरीदते-बेचते एजेंट। विकास के नाम पर देश जैसे ‘एजेंट हब’ हो गया है!

मन में विचार उठता है कि मनुष्य का विकास और प्रकृति का विनाश पूरक कैसे हो सकते हैं? प्राणवायु देनेवाले पेड़ों के प्राण हरती ‘शेखचिल्ली वृत्ति’ मनुष्य के बढ़ते बुद्ध्यांक (आई.क्यू) के आँकड़ों को हास्यास्पद सिद्ध कर रही है। धूप से बचाती छाँव का विनाश कर एअरकंडिशन के ज़रिए कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देकर ओज़ोन लेयर में भी छेद कर चुके आदमी  को देखकर विश्व के पागलखाने एक साथ मिलकर अट्टहास कर रहे हैं। ‘विलेज’ को ‘ग्लोबल विलेज’ का सपना बेचनेवाले ‘प्रोटेक्टिव यूरोप’ की आज की तस्वीर और भारत की अस्सी के दशक तक की तस्वीरें लगभग समान हैं। इन तस्वीरों में पेड़ हैं, खेत हैं, हरियाली है, पानी के स्रोत हैं, गाँव हैं। हमारे पास अब सूखे ताल हैं, निरपनिया तलैया हैं, जल के स्रोतों को पाटकर मौत की नींव पर खड़े भवन हैं, गुमशुदा खेत-हरियाली  हैं, चारे के अभाव में मरते पशु और चारे को पैसे में बदलकर चरते मनुष्य हैं।

माना जाता है कि मनुष्य, प्रकृति की प्रिय संतान है। माँ की आँख में सदा संतान का प्रतिबिम्ब दिखता है। अभागी माँ अब संतान की पुतलियों में अपनी हत्या के दृश्य पाकर हताश है।

और हाँ, पर्यावरण दिवस भी दस्तक दे रहा है। हम सब एक सुर में सरकार, नेता, बिल्डर, अधिकारी, निष्क्रिय नागरिकों को कोसेंगे। कागज़ पर लम्बे, चौड़े भाषण लिखे जाएँगे, टाइप होंगे और उसके प्रिंट लिए जाएँगे। प्रिंट कमांड देते समय स्क्रीन पर भले पर शब्द उभरें-‘ सेव इन्वायरमेंट। प्रिंट दिस ऑनली इफ नेसेसरी,’ हम प्रिंट निकालेंगे ही। संभव होगा तो कुछ लोगों खास तौर पर मीडिया को देने के लिए इसकी अधिक प्रतियाँ निकालेंगे।

कब तक चलेगा हम सबका ये पाखंड? घड़ा लबालब हो चुका है। इससे पहले कि प्रकृति केदारनाथ के ट्रेलर को लार्ज स्केल सिनेमा में बदले, हमें अपने भीतर बसे नेता, बिल्डर, भ्रष्ट अधिकारी तथा निष्क्रिय नागरिक से छुटकारा पाना होगा।

चलिए इस बार पर्यावरण दिवस पर सेमिनार, चर्चा वगैरह के साथ बेलचा, फावड़ा, कुदाल भी उठाएँ, कुछ पेड़ लगाएँ, कुछ पेड़ बचाएँ। जागरूक हों, जागृति करें। यों निरी लिखत-पढ़त और बौद्धिक जुगाली से भी क्या हासिल होगा?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 10 – अहंकार दहन ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   अहंकार दहन।)

Amazon Link – Purn Vinashak

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 9 ☆

 

☆ अहंकार दहन 

 

राहु और केतु राहु हिन्दू ज्योतिष के अनुसार असुर स्वरभानु का कटा हुआ सिर है, जो ग्रहण के समय सूर्य और चंद्रमा का ग्रहण करता है । इसे कलात्मक रूप में बिना धड़ वाले सर्प के रूप में दिखाया जाता है, जो रथ पर आरूढ़ है और रथ आठ श्याम वर्णी घोड़ों द्वारा खींचा जा रहा है । वैदिक ज्योतिष के अनुसार राहु को नवग्रह में एक स्थान दिया गया है । दिन में राहुकाल नामक मुहूर्त (24 मिनट) की अवधि होती है जो अशुभ मानी जाती है । समुद्र मंथन के समय स्वरभानु नामक एक असुर ने धोखे से दिव्य अमृत की कुछ बूंदें पी ली थीं । सूर्य और चंद्र ने उसे पहचान लिया और मोहिनी अवतार में भगवान विष्णु को बता दिया । इससे पहले कि अमृत उसके गले से नीचे उतरता, विष्णु जी ने उसका गला सुदर्शन चक्र से काट कर अलग कर दिया । परंतु तब तक उसका सिर अमर हो चुका था । यही सिर राहु और धड़ केतु ग्रह बना और सूर्य- चंद्रमा से इसी कारण द्वेष रखता है । इसी द्वेष के चलते वह सूर्य और चंद्र को ग्रहण करने का प्रयास करता है । ग्रहण करने के पश्चात सूर्य राहु से और चंद्र केतु से, उसके कटे गले से निकल आते हैं और मुक्त हो जाते हैं ।

केतु भारतीय ज्योतिष में उतरती लूनर नोड को दिया गया नाम है । केतु एक रूप में स्वरभानु नामक असुर के सिर का धड़ है । यह सिर समुद्र मन्थन के समय मोहिनी अवतार रूपी भगवान विष्णु ने काट दिया था । यह एक छाया ग्रह है । माना जाता है कि इसका मानव जीवन एवं पूरी सृष्टि पर अत्यधिक प्रभाव रहता है । कुछ मनुष्यों के लिये यह ग्रह ख्याति दिलाने में अत्यंत सहायक रहता है । केतु को प्रायः सिर पर कोई रत्न या तारा लिये हुए दिखाया जाता है, जिससे रहस्यमयी प्रकाश निकल रहा होता है । भारतीय ज्योतिष के अनुसार राहु और केतु, सूर्य एवं चंद्र के परिक्रमा पथों के आपस में काटने के दो बिन्दुओं के द्योतक हैं जो पृथ्वी के सापेक्ष एक दुसरे के उलटी दिशा में (180 डिग्री पर) स्थित रहते हैं । चुकी ये ग्रह कोई खगोलीय पिंड नहीं हैं, इन्हें छाया ग्रह कहा जाता है । सूर्य और चंद्र के ब्रह्मांड में अपने-अपने पथ पर चलने के कारण ही राहु और केतु की स्थिति भी साथ-साथ बदलती रहती है । तभी, पूर्णिमा के समय यदि चाँद केतु (अथवा राहू) बिंदु पर भी रहे तो पृथ्वी की छाया पड़ने से चंद्र ग्रहण लगता है, क्योंकि पूर्णिमा के समय चंद्रमा और सूर्य एक दुसरे के उलटी दिशा में होते हैं । ये तथ्य इस कथा का जन्मदाता बना कि “वक्र चंद्रमा ग्रसे ना राहू”। अंग्रेज़ी या यूरोपीय विज्ञान में राहू एवं केतु को क्रमशः उत्तरी एवं दक्षिणी लूनर नोड कहते हैं । तथ्य यह है कि ग्रहण तब होता है जब सूर्य और चंद्रमा इन बिंदुओं में से एक पर सांप द्वारा सूर्य और चंद्रमा की निगलने की समझ को जन्म देता है । प्राचीन तमिल ज्योतिषीय लिपियों में, केतु को इंद्र के अवतार के रूप में माना जाता था । असुरो के साथ युद्ध के दौरान, इंद्र पराजित हो गया और एक निष्क्रिय रूप और एक सूक्ष्म राज्य केतु के रूप में ले लिया । केतु के रूप में इंद्र अपनी पिछली गलतियों, और असफलताओं को अनुभव करने के बाद भगवान शिव की आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर हो गया ।

दरअसल रावण ने सभी नौ ग्रहों के देवताओं का अपहरण कर लिया था और उन्हें लंका में ले आया था, लेकिन जल्द ही भगवान ब्रह्मा लंका आये और रावण से सभी ग्रहों को मुक्त करने का अनुरोध किया ताकि ब्रह्मांड में जीवन का चक्र प्रभावित न हो । रावण ने उन्हें एक शर्त पर मुक्त किया कि रावण प्रत्येक ग्रह की एक प्रतिलिपि बनायीं, और उन्हें बनाने के बाद उसने सभी ग्रहों के देवताओं को अपने ग्रहों की शक्तियो के सार को प्रत्येक प्रतिलिपि में प्रविष्ट करने का आदेश दिया,एक-एक करके मुख्य ग्रह के अनुसार । इसलिए सूर्य ने रावण द्वारा बनाए गए सूर्य की प्रतिलिपि में अपनी शक्तियों के सार को डाला, चंद्रमा ने रावण द्वारा बनाए गए चंद्रमा की प्रतिलिपि में अपनी शक्तियों को सम्मिलित किया आदि आदि अन्य ग्रहो ने भी किया । इसके बाद रावण ने सभी नौ ग्रहो को मुक्त कर दिया ।

तब रावण ने लंका का अपना निजी राशि चक्र बनाया जिससे लंका के प्रत्येक हिस्से पर एक ही तरह का प्रभाव पड़े और सभी प्रतिलिपि ग्रहों को रावण द्वारा परिभाषित गति के साथ आगे बढ़ने का आदेश दिया गया, इसका अर्थ है कि लंका में कभी भी कोई नुकसान या खतरा नहीं होगा किसी भी परिस्थिति में । भगवान हनुमान, रावण की शक्ति और बुद्धि से आश्चर्यचकित थे । फिर उन्होंने अपने मस्तिष्क में सोचा कि लंका को यदि कोई नुकसान पहुँचाना है, तो इन प्रतिलिपि ग्रहों को किसी भी तरह से मुक्त करना होगा । रावण भी भगवान हनुमान को लगभग एक मिनट तक देखता रहा, आखिर में उन्होंने भगवान हनुमान से कहा, “तो तुम हो वो शरारती वानर जिसने मेरे सबसे खूबसूरत बगीचे को नष्ट कर दिया और मेरे बेटे अक्षय कुमार को भी मार डाला, क्या तुम सजा के लिए तैयार हो?”

 

© आशीष कुमार  

Please share your Post !

Shares
image_print