हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #16 – कचरे के खतरे ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है “कचरे के खतरे” ।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 16 ☆

 

☆ कचरे के खतरे ☆

 

घर-आँगन सब आग लग रही, सुलग रहे वन-उपवन
दर-दीवारें चटख रही हैं, जलते छप्पर-छाजन

तन जलता है, मन जलता है जलता जन-धन जीवन
एक नहीं जलते सदियों से जकड़े गर्हित बन्धन।

दूर बैठकर ताप रहा है, आग लगाने वाला
मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझाने वाला।

….. डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन

विकास का सूचक और अर्थव्यवस्था का आधार  बढ़ता मशीनीकरण आज आधुनिक जीवन के हर क्षेत्र को संचालित कर रहा है । आधुनिक जीवन मशीनों पर इस कदर निर्भर है कि इसके बिना कई काम रूक जाते हैं । इंटरनेट और मोबाइल  दूरी व समय की सीमाओं को लांघ कर सारी दुनिया को अपने में समेटने का दावा करते हैं । इस यंत्र युग में सारी दुनिया में हिंसा, शोषण, विषमता और बेरोजगारी भी बढ़ रही है । स्वास्थ्य समस्याएँ और पर्यावरण विनाश भी अपने चरम पर हैं । दौड़ती-भागती जिंदगी में समय का अभाव प्राय: आम शिकायत रहती है । रिश्तों में कृत्रिमता और दूरियाँ बढ़ रही हैं।  लोग स्वयं को बेहद अकेला महसूस करने लगे हैं । बढ़ती मशीनों ने मनुष्य की शारीरिक श्रम की आदत को कम करके स्वास्थ्य समस्याओ का आधार तैयार किया है । दूरदर्शी गांधीजी ने चेताया था – ”अगर मशीनीकरण की यह सनक जारी रही, तो काफी संभावना है कि एक समय ऐसा आएगा जब हम इतने असमर्थ और लाचार हो जाएगे कि अपने को ही यह कोसने लगेंगे कि हम भगवान द्वारा दी गई शरीर रूपी मशीन का इस्तेमाल करना क्यों भूल गए” । बढ़ता मशीनीकरण उपभोक्तावाद को बढ़ावा देकर समाज में विषमता की नींव को पुख्ता करता आया है । एक औद्योगिककृत अर्थव्यवस्था में अंधाधुंध बढ़ता मशीनीकरण वस्तुत: स्थानीय जरूरतों व सीमाओ को लांघकर व्यापक स्तर पर वस्तुओ के उत्पादन, बिक्री या खपत को बढ़ाने की महत्वाकांक्षाओ से प्रेरित होता है । औद्योगिक कचरे को व्यापाकता से बढ़ाता है ! ग्लोबल वार्मिंग को जन्म देता है । पर्यावरण प्रदूषण की  ऐसी आग को जन्म देता है जिसे बुझाने वाला सचमुच  कोई नहीं है ।

भोपाल गैस त्रासदी को २३ वर्ष हो गए हैं । वहां पर पड़ा जहरीला अपशिष्ट प्रत्येक मानसून में जमीन में रिस कर प्रति वर्ष  क्षेत्र को और अधिक जहरीला बना रहा है । कंपनी को इस बात के लिए मजबूर किया जाना चाहिये कि वह इसे अमेरिका ले जाकर इसका निपटान वहां के अत्याधुनिक संयंत्रों में करे । परन्तु इसके बजाय सरकारें अब भोपाल ही नहीं गुजरात में अंकलेश्वर व म.प्र. के पीथमपुर के भस्मकों में इसे जला कर इस औद्योगिक कचरे को नष्ट करना चाहती है ।

इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के अनुपयोगी हो जाने से इकट्ठा हो रहे कचरे का निपटान सही ढंग से नहीं हो पाने के कारण पर्यावरण के खतरे बढ़ रहे है । एक अध्ययन के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष डेढ़ लाख टन ई-वेस्ट या इलेक्ट्रॉनिक कचरा बढ़ रहा है । इसमें देश में बाहर से आने वाले कबाड़ को जोड़ दिया जाए तो न केवल कबाड़ की मात्रा दुगुनी हो जाएगी, वरन् पर्यावरण के खतरों और संभावित दुष्परिणामों का सही अनुमान नहीं लगाया जा सकेगा । प्रतिवर्ष भारत में बीस लाख कम्प्यूटर अनुपयोगी हो जाते हैं । इनके अलावा हजारों की तादाद में प्रिंटर, फोन, मोबाईल, मॉनीटर, टीवी, रेडियो, ओवन, रेफ्रिजरेटर, टोस्टर, वेक्यूम क्लीनर, वाशिंग मशीन, एयर कंडीशनर, पंखे, कूलर, सीडी व डीवीडी प्येयर, वीडियो गेम, सीडी, कैसेट, खिलौने, फ्लोरेसेंट ट्यूब, बल्ब, ड्रिलिंग मशीन, मेडिकल इंस्टूमेंट, थर्मामीटर और मशीनें आदि भी बेकार हो जाती हैं । जब उनका उपयोग नहीं हो सकता तो ऐसा औद्योगिक कचरा खाली भूमि पर इकट्ठा होता रहता है, इसका अधिकांश हिस्सा जहरीला और प्राणीमात्र के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होता है । कुछ दिनों पहले इस तरह के कचरे में खतरनाक हथियार व विस्फोटक सामगी भी पाई गई थी । इनमें धातुओ व रासायनिक सामग्री की भी काफी मात्रा होती है जो संपर्क में आने वाले लोगों की सेहत के लिए खतरनाक होती है । लेड, केडमियम, मरक्यूरी, एक्बेस्टस, क्रोमियम, बेरियम, बेटीलियम, बैटरी आदि यकृत, फेफड़े, दिल व त्वचा की अनेक बीमारियों का कारण बनते हैं । अनुमान है कि यह कचरा एक करोड़ से अधिक लोगों को बीमार करता है । इनमें से ज्यादातर गरीब, महिलाएँ व बच्चे होते हैं । इस दिशा में गंभीरता से कार्रवाई होना जरूरी है । मगर देश के लोगों की मानसिकता अभी कबाड़ संभालने व कचरे से आजीविका कमाने की बनी हुई है ।

उर्जा उत्पादन हेतु ताप विद्युत संयंत्र , बड़े बाँध , प्रत्यक्ष, परोक्ष बहुत अधिक मात्रा में औद्योगिक कचरा फैला रहे हैं।  सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा, ऊर्जा के बेहतरीन विकल्प माने गए हैं । राजस्थान में इन दोनों विकल्पों के अच्छे मानक स्थापित हुए हैं । सोलर लैम्प, सोलर कुकर जैसे कुछ उपकरण प्राय: लोकप्रिय रहे हैं।   एशियन डेवलपमेंट बैंक के साथ मिलकर टाटा पॉवर कंपनी लिमिटेड देश में (विशेषकर महाराष्ट्र में) कई करोड़ों रूपये के बड़े पवन ऊर्जा प्लांट लगाने की योजना बना रही है । इसी तरह से दिल्ली सरकार भी ऐसी कुछ निजी कंपनियों की ओर ताक रही हैं जो राजस्थान में पैदा होती पवन ऊर्जा दिल्ली पहुंचा सकें । परमाणु ऊर्जा के निर्माण से पैदा होते परमाणु कचरे में प्लूटोनियम जैसे ऐसे रेडियोएक्टिव तत्वों का यह प्रदूषण पर्यावरण में भी फैल सकता है और भूमिगत जल में भी ।

एशियन डेवलपमेट बैक ने हाल ही गंगा के प्रदूषण रोकने के लिए एक योजना तैयार की है । गंगा के किनारे के  नगरों की पानी, सवरेज, सॉलिड वेस्ट मेनेजमेंट, सड़क, ट्रेफिक व नदियों के प्रदूषण को दूर किया जायेगा।संयुक्त राष्ट्र ने एक रिपोर्ट में कहा है कि व्यापक औद्योगिक कचरे ,भूमि का जरूरत से ज्यादा दोहन और सिंचाई के गलत तरीकों से  जलवायु परिवर्तन हो रहा है .मरूस्थलों के बढ़ते क्षैत्रफल के कारण लाखों लोग अपने घर छोड़ने को मजबूर हो सकते हैं।  रिपोर्ट में कहा गया है कि भूमि का मरूस्थल में बदलना पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा है और विश्व की एक तिहाई जनसंख्या इसका शिकार बन सकती है । रिपोर्ट के अनुसार औद्योगिक संतुलन, कृषि के कुछ सरल तरीके अपनाने आदि से वातावरण में कार्बन की मात्रा कम हो सकती है । इसमें सूखे क्षैत्रों में पेड़ उगाने जैसे कदम शामिल हैं।औद्योगिक अपशिष्ट से दिल्ली की जीवन धारा यमुना, इस कदर मैली हो चुकी है कि राज्य सरकार १९९३ से ही ‘यमुना एक्शन प्लान’ जैसी कई योजनाओ द्वारा सफाई अभियान चला रही है, जिस पर करोड़ों-अरबों रूपए लगाए जा चुके हैं। किसी भी नदी को जिंदा रखने के लिए ‘इको सिस्टम’ की सुरक्षा उतनी ही जरूरी है जितनी उसमें बहते पानी की गुणवत्ता।

पर्यटन जनित डिस्पोजेबल प्लास्टिक कचरे से बढ़ता प्रदूषण खतरनाक स्तर तक पहुँच रहा है ,जिस पर त्वरित नियंत्रण जरूरी है .सरकार ने  रिसायकल्ड पॉलिथिन के उपयोग पर पाबंदी लगा रखी है । केवल नए प्लास्टिक दानों से बनी बीस माइक्रोन से अधिक की थैलियों का ही उपयोग किया जा सकता है । 25 माइक्रोन से कम की रिसायकल्ड प्लास्टिक की थैलियां और २० माइक्रोन से कम की नई प्लास्टिक की थैलियों के उपयोग पर प्रतिबंध रहेगा। किसी भी नदी-नाले, पाइप लाइन और पार्क आदि सार्वजनिक स्थलों पर इन थैलियों का कचरा डालने पर रोक रहेगी । नगरीय निकाय इन थैलियों के लिए अलग-अलग कचरा पेटी रखेंगे।  पॉलीथिन के कारण सीवर लाइन बंद हो जाती है । इस वजह से दूषित पानी बहकर पाइप लाइन तक पहुंचकर पेयजल को दूषित करता है जिससे बीमारियां फैलती है । इसे उपजाऊ जमीन में फेंकने से भूमि बंजर होती जाती है । कचरे के साथ जलाने से जहरीली गैसे निकलती है जो वायु प्रदूषण फैलाती  है और ओजोन परत को क्षति पहुंचाती है ।गाय बैल आदि जानवर पालिथिन में चिपके खाद्य पदार्थ खाने के प्रलोभन में पतली पालीथिन की पन्नियां गुटक जाते हैं जो उनके पेट में फँस कर रह जाती हैं एवं उनकी मृत्यु हो जाती है . अतः पालीथिन पर प्रभावी नियंत्रण जरूरी है ।

प्रधानमंत्री जी ने बेहद महत्वपूर्ण देशव्यापी स्वच्छता अभियान चलाया हुआ है । रोजमर्रा शहरो से निकलने वाले घरेलू कचरे का सुरक्षित निष्पादन बहुत जरूरी है । ज्वलनशील कचरे को जलाकर बिजली उत्पादन की परियोजनायें बनाई जा रही हैं . जबलपुर में एक ऐसी ही परियोजना से प्रतिदि ८ मेगावाट बिजली इन दिनो बन रही है । जो प्लास्टिक, कागज, पुट्ठे का कचरा रिसाइकिल हो सकता है उसे निरंतर पुनरूपयोग किया जाना आवश्यक है । इसके लिये भी उद्योग स्थापित किये जाने को प्रोत्साहन की आवश्यकता है । जो बायो डिग्रेडबल कचरा कम्पोस्ट जैसी खाद बना सकता है उससे खाद बनाने की इकाईयां लगानी जरूरी हैं ।  समग्र रूप से कहा जा सकता है कि  कचरा प्रगति का दूसरा पहलू है जिससे बचना मुश्किल है, पर उसके समुचित तरीके से डिस्पोजल से ही हम मानव जीवन और प्रगति के बीच तादात्म्य बना कर विज्ञान के वरदान को अभिशाप बनने से रोक सकते हैं ।

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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हिंदी साहित्य – अभियंता दिवस विशेष – ☆ भारत रत्न अभियंता सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया के जन्म दिवस पर विशेष ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

अभियंता दिवस विशेष 
श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(अभियंता दिवस पर  वरिष्ठ साहित्यकार एवं अभियंता  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी का  विशेष आलेख  भारत रत्न अभियंता सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया के जन्म दिवस पर विशेष.) 

 

 ☆ भारत रत्न अभियंता सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया के जन्म दिवस पर विशेष ☆

 

आज अमेरिका में सिलिकान वैली में तब तक कोई कंपनी सफल नही मानी जाती जब तक उसमें कोई भारतीय इंजीनियर कार्यरत न हो, भारत के आई आई टी जैसे संस्थानो के इंजीनियर्स ने विश्व में अपनी बुद्धि से भारतीय श्रेष्ठता का समीकरण अपने पक्ष में कर दिखाया है, प्रतिवर्ष भारत रत्न सर मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरैया का जन्मदिवस इंजीनियर्स डे के रूप में मनाया जाता है, पंडित नेहरू ने कल कारखानो को नये भारत के तीर्थ कहा था, इन्ही तीर्थौ के पुजारी, निर्माता इंजीनियर्स को आज अभियंता दिवस पर बधाई,…विगत कुछ दशको में इंजीनियर्स की छबि में भ्रष्टाचार के घोलमाल में बढ़ोत्री हुई है, अनेक इंजीनियर्स शासनिक अधिकारी या मैनेजमेंट की उच्च शिक्षा लेकर बड़े मैनेजर बन गये हैं, आइये आज इंजीनियर्स डे पर कुछ पल चिंतन करे समाज में इंजीनियर्स की इस दशा पर, हो रहे इन परिवर्तनो पर

… इंजीनियर्स अब राजनेताओ के इशारो चलने वाली कठपुतली नही हो गये हैं क्या? देश में आज इंजीनियरिंग शिक्षा के हजारो कालेज खुल गये हैं, लाखो इंजीनियर्स प्रति वर्ष निकल रहे हैं, पर उनमें से कितनो में वह योग्यता या जज्बा है जो भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया में था,……मनन चिंतन का विषय है.

भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया की जीवनी, अध्ययन और  प्रेरणा पुंज

भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया का जन्म मैसूर (कर्नाटक) के कोलार जिले के चिक्काबल्लापुर तालुक में 15 सितंबर 1860 को हुआ था। उनके पिता का नाम श्रीनिवास शास्त्री तथा माता का नाम वेंकाचम्मा था। पिता संस्कृत के विद्वान थे। विश्वेश्वरैया ने प्रारंभिक शिक्षा जन्म स्थान से ही पूरी की। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने बंगलूर के सेंट्रल कॉलेज में दाखिला लिया। लेकिन यहां उनके पास धन का अभाव था। अत: उन्हें टयूशन करना पड़ा। विश्वेश्वरैया ने 1881 में बीए की परीक्षा में अव्वल स्थान प्राप्त किया। इसके बाद मैसूर सरकार की मदद से इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पूना के साइंस कॉलेज में दाखिला लिया। 1883 की एलसीई व एफसीई (वर्तमान समय की बीई उपाधि) की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करके अपनी योग्यता का परिचय दिया। इसी उपलब्धि के चलते महाराष्ट्र सरकार ने इन्हें नासिक में सहायक इंजीनियर के पद पर नियुक्त किया।

दक्षिण भारत के मैसूर, कर्र्नाटक को एक विकसित एवं समृद्धशाली क्षेत्र बनाने में भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया का अभूतपूर्व योगदान है। तकरीबन 55 वर्ष पहले जब देश स्वंतत्र नहीं था, तब कृष्णराजसागर बांध, भद्रावती आयरन एंड स्टील व‌र्क्स, मैसूर संदल ऑयल एंड सोप फैक्टरी, मैसूर विश्वविद्यालय, बैंक ऑफ मैसूर समेत अन्य कई महान उपलब्धियां एमवी ने कड़े प्रयास से ही संभव हो पाई। इसीलिए इन्हें कर्नाटक का भगीरथ भी कहते हैं। जब वह केवल 32 वर्ष के थे, उन्होंने सिंधु नदी से सुक्कुर कस्बे को पानी की पूर्ति भेजने का प्लान तैयार किया जो सभी इंजीनियरों को पसंद आया। सरकार ने सिंचाई व्यवस्था को दुरुस्त करने के उपायों को ढूंढने के लिए समिति बनाई। इसके लिए भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया ने एक नए ब्लॉक सिस्टम को ईजाद किया।

उन्होंने स्टील के दरवाजे बनाए जो कि बांध से पानी के बहाव को रोकने में मदद करता था। उनके इस सिस्टम की प्रशंसा ब्रिटिश अधिकारियों ने मुक्तकंठ से की। आज यह प्रणाली पूरे विश्व में प्रयोग में लाई जा रही है।

विश्वेश्वरैया ने मूसा व इसा नामक दो नदियों के पानी को बांधने के लिए भी प्लान तैयार किए। इसके बाद उन्हें मैसूर का चीफ इंजीनियर नियुक्त किया गया।

उस वक्त राज्य की हालत काफी बदतर थी। विश्वेश्वरैया लोगों की आधारभूत समस्याओं जैसे अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी आदि को लेकर भी चिंतित थे। फैक्टरियों का अभाव, सिंचाई के लिए वर्षा जल पर निर्भरता तथा खेती के पारंपरिक साधनों के प्रयोग के कारण समस्याएं जस की तस थीं। इन समस्याओं के समाधान के लिए विश्वेश्वरैया ने इकॉनोमिक कॉन्फ्रेंस के गठन का सुझाव दिया। मैसूर के कृष्ण राजसागर बांध का निर्माण कराया।

कृष्णराजसागर बांध के निर्माण के दौरान देश में सीमेंट नहीं बनता था, इसके लिए इंजीनियरों ने मोर्टार तैयार किया जो सीमेंट से ज्यादा मजबूत था। 1912 में विश्वेश्वरैया को मैसूर के महाराजा ने दीवान यानी मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया।

विश्वेश्वरैया शिक्षा की महत्ता को भलीभांति समझते थे। लोगों की गरीबी व कठिनाइयों का मुख्य कारण वह अशिक्षा को मानते थे। उन्होंने अपने कार्यकाल में मैसूर राज्य में स्कूलों की संख्या को 4,500 से बढ़ाकर 10,500 कर दिया। इसके साथ ही विद्यार्थियों की संख्या भी 1,40,000 से 3,66,000 तक पहुंच गई। मैसूर में लड़कियों के लिए अलग हॉस्टल तथा पहला फ‌र्स्ट ग्रेड कॉलेज (महारानी कॉलेज) खुलवाने का श्रेय भी विश्वेश्वरैया को ही जाता है। उन दिनों मैसूर के सभी कॉलेज मद्रास विश्वविद्यालय से संबद्ध थे। उनके ही अथक प्रयासों के चलते मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना हुई जो देश के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक है। इसके अलावा उन्होंने श्रेष्ठ छात्रों को अध्ययन करने के लिए विदेश जाने हेतु छात्रवृत्ति की भी व्यवस्था की। उन्होंने कई कृषि, इंजीनियरिंग व औद्योगिक कालेजों को भी खुलवाया।

वह उद्योग को देश की जान मानते थे, इसीलिए उन्होंने पहले से मौजूद उद्योगों जैसे सिल्क, संदल, मेटल, स्टील आदि को जापान व इटली के विशेषज्ञों की मदद से और अधिक विकसित किया। धन की जरूरत को पूरा करने के लिए उन्होंने बैंक ऑफ मैसूर खुलवाया। इस धन का उपयोग उद्योग-धंधों को विकसित करने में किया जाने लगा। 1918 में विश्वेश्वरैया दीवान पद से सेवानिवृत्त हो गए। औरों से अलग विश्वेश्वरैया ने 44 वर्ष तक और सक्रिय रहकर देश की सेवा की। सेवानिवृत्ति के दस वर्ष बाद भद्रा नदी में बाढ़ आ जाने से भद्रावती स्टील फैक्ट्री बंद हो गई। फैक्ट्री के जनरल मैनेजर जो एक अमेरिकन थे, ने स्थिति बहाल होने में छह महीने का वक्त मांगा। जोकि विश्वेश्वरैया को बहुत अधिक लगा। उन्होंने उस व्यक्ति को तुरंत हटाकर भारतीय इंजीनियरों को प्रशिक्षित कर तमाम विदेशी इंजीनियरों की जगह नियुक्त कर दिया। मैसूर में ऑटोमोबाइल तथा एयरक्राफ्ट फैक्टरी की शुरूआत करने का सपना मन में संजोए विश्वेश्वरैया ने 1935 में इस दिशा में कार्य शुरू किया। बंगलूर स्थित हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स तथा मुंबई की प्रीमियर ऑटोमोबाइल फैक्टरी उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है। 1947 में वह आल इंडिया मैन्युफैक्चरिंग एसोसिएशन के अध्यक्ष बने। उड़ीसा की नदियों की बाढ़ की समस्या से निजात पाने के लिए उन्होंने एक रिपोर्ट पेश की। इसी रिपोर्ट के आधार पर हीराकुंड तथा अन्य कई बांधों का निर्माण हुआ।

वह किसी भी कार्य को योजनाबद्ध तरीके से पूरा करने में विश्वास करते थे। 1928 में पहली बार रूस ने इस बात की महत्ता को समझते हुए प्रथम पंचवर्षीय योजना तैयार की थी। लेकिन विश्वेश्वरैया ने आठ वर्ष पहले ही 1920 में अपनी किताब रिकंस्ट्रक्टिंग इंडिया में इस तथ्य पर जोर दिया था।

इसके अलावा 1935 में प्लान्ड इकॉनामी फॉर इंडिया भी लिखी। मजे की बात यह है कि 98 वर्ष की उम्र में भी वह प्लानिंग पर एक किताब लिख रहे थे। देश की सेवा ही विश्वेश्वरैया की तपस्या थी। 1955 में उनकी अभूतपूर्व तथा जनहितकारी उपलब्धियों के लिए उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया। जब वह 100 वर्ष के हुए तो भारत सरकार ने डाक टिकट जारी कर उनके सम्मान को और बढ़ाया। 101 वर्ष की दीर्घायु में 14 अप्रैल 1962 को उनका स्वर्गवास हो गया। 1952 में वह पटना गंगा नदी पर पुल निर्माण की योजना के संबंध में गए। उस समय उनकी आयु 92 थी। तपती धूप थी और साइट पर कार से जाना संभव नहीं था। इसके बावजूद वह साइट पर पैदल ही गए और लोगों को हैरत में डाल दिया। विश्वेश्वरैया ईमानदारी, त्याग, मेहनत इत्यादि जैसे सद्गुणों से संपन्न थे। उनका कहना था, कार्य जो भी हो लेकिन वह इस ढंग से किया गया हो कि वह दूसरों के कार्य से श्रेष्ठ हो।

उनकी जीवनी हमारे लिये प्रेरणा है।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #12 – समष्टि….व्यष्टि! ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली    । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 12 ☆

 

☆ समष्टि …. व्यष्टि ! ☆

 

रेल में भीड़-भड़क्का है। हर कोई अपने में मशगूल। एक तीखा, अनवरत स्वर ध्यान बेधता है। साठ से ऊपर की एक स्त्री, संभवतः स्वर यंत्र में कोई दोष है। बच्चा मचलकर किसी वस्तु के लिए हठ करता है, एक साँस में रोता है, कुछ उसी तरह के स्वर में भुनभुना रही है वह। अंतर इतना कि बच्चे के स्वर को उसके अबोध भाव के चलते बहुत देर तक बरदाश्त किया जा सकता है पर यह स्वर बिना थके इतना लगातार कि खीज पैदा हो जाए। दूर से लगा कि यह भीख मांगने का एक और तरीका भर है। वह निरंतर आँख से दूर जा रही थी और साथ ही कान भुनभुनाहट से राहत महसूस कर रहे थे।

किसी स्टेशन पर रेल रुकी। प्लेटफॉर्म की विरुद्ध दिशा में वही भुनभुनाहट सुनाई दी। वह स्त्री पटरियों पर उतरकर दूसरी तरफ के प्लेटफॉर्म पर चढ़ी। हाथ से इशारा करती, उसी तरह भुनभुनाती बेंच पर बैठे एक यात्री से उसका बैग छीनने लगी। बैगवाला व्यक्ति हड़बड़ा गया। उस स्टेशन से रोज यात्रा करनेवाले एक यात्री ने हाथ के इशारे से महिला को आगे जाने के लिए कहा। बुढ़िया आगे बढ़ गई।

माज़रा समझ में आ गया। बुढ़िया का दिमाग चल गया है। पराया सामान, अपना समझती है, उसके लिए विलाप करती है।

चित्र दुखद था। कुछ ही समय में चित्र एन्लार्ज होने लगा। व्यष्टि का स्थान समष्टि ने ले लिया था। क्या मर्त्यलोक में मनुष्य परायी वस्तुओं के प्रति इसी मोह से ग्रसित नहीं है? इन वस्तुओं को पाने के लिए भुनभुनाना, न पा सकने पर विलाप करना, बौराना और अंततः पूरी तरह दिमाग चल जाना।

अचेत अवस्था से बाहर आओ। समय रहते चेत जाओ अन्यथा समष्टि का चित्र रिड्युस होकर व्यष्टि पर रुकेगा। इस बार हममें से कोई उस बुढ़िया की जगह होगा।

इति।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – राजभाषा दिवस विशेष – ☆ राष्ट्रभाषा : मनन-मंथन-मंतव्य ☆ – श्री संजय भारद्वाज

राजभाषा दिवस विशेष 

श्री संजय भारद्वाज 

 

(राजभाषा दिवस पर श्री संजय भारद्वाज जी का  विशेष आलेख राष्ट्रभाषा : मनन-मंथन-मंतव्य.

☆ राष्ट्रभाषा : मनन-मंथन-मंतव्य ☆

 

भाषा का प्रश्न समग्र है। भाषा अनुभूति को अभिव्यक्त करने का माध्यम भर नहीं है। भाषा सभ्यता को संस्कारित करने वाली वीणा एवं संस्कृति को शब्द देनेवाली वाणी है। किसी भी राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति नष्ट करनी हो तो उसकी भाषा नष्ट कर दीजिए। इस सूत्र को भारत पर शासन करने वाले विदेशियों ने भली भाँति समझा। आरंभिक आक्रमणकारियों ने संस्कृत जैसी समृद्ध और संस्कृतिवाणी को हाशिए पर कर अपने-अपने इलाके की भाषाएँ लादने की कोशिश की। बाद में सभ्यता की खाल ओढ़कर अंग्रेज आया। उसने दूरगामी नीति के तहत भारतीय भाषाओं की धज्जियाँ उड़ाकर अपनी भाषा और अपना हित लाद दिया। लद्दू खच्चर की तरह हिंदुस्तानी उसकी भाषा को ढोता रहा। अंकुश विदेशियों के हाथ में होने के कारण वह असहाय था।

यहाँ तक तो ठीक था। शासक विदेशी था, उसकी सोच और कृति में परिलक्षित स्वार्थ व धूर्तता उसकी कूटनीति और स्वार्थ के अनुरूप थीं। असली मुद्दा है स्वाधीनता के बाद का। अंग्रेजी और अंग्रेजियत को ढोते लद्दू खच्चरों की उम्मीदें जाग उठीं। जिन्हें वे अपना मानते थे, अंकुश उनके हाथ में आ चुका था किंतुु वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि अंतर केवल चमड़ी के रंग में हुआ था। देसी चमड़ी में अंकुश हाथ में लिए फिरंगी अब भी खच्चर पर लदा रहा। अलबत्ता आरंभ में पंद्रह बरस बाद बोझ उतारने का ‘लॉलीपॉप’ जरुर दिया गया। धीरे-धीरे ‘लॉलीपॉप’ भी बंद हो गया। खच्चर मरियल और मरियल होता गया। अब तो देसी चमड़ी के फिरंगियों की धूर्तता देखकर गोरी चमड़ी का फिरंगी भी दंग रह गया है।

प्रश्न है कि जब राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा माना जाता है तो क्या हमारी व्यवस्था को एक डरा-सहमा लोकतंत्र अपेक्षित था? लोकतंत्र जो न बोल सके, न सुन सके, देखे तो सही पर अभिव्यक्त न हो सके? विगत सत्तर वर्षों का घटनाक्रम देखें तो उत्तर ‘हाँ’ में मिलेगा।

राष्ट्रभाषा को स्थान दिये बिना राष्ट्र के अस्तित्व और सांस्कृतिक अस्मिता को परिभाषित करने की चौपटराजा प्रवृत्ति के परिणाम भी विस्फोटक रहे हैं। इन परिणामों की तीव्रता विभिन्न क्षेत्रों में अनुभव की जा सकती है। इनमें से कुछ की चर्चा यहाँ की जा रही है।

राष्ट्रभाषा शब्द के तकनीकी उलझाव और आठवीं अनुसूची से लेकर अपभ्रंश बोलियों तक को राष्ट्रभाषा की चौखट में शामिल करने के शाब्दिक छलावे की चर्चा यहाँ अप्रासंगिक है। राष्ट्रभाषा से स्पष्ट तात्पर्य देश के सबसे बड़े भूभाग पर बोली-लिखी और समझी जाने वाली भाषा से है। भाषा जो उस भूभाग पर रहनेवाले लोगों की संस़्कृति के तत्वों को अंतर्निहित करने की क्षमता रखती हो, जिसमें प्रादेशिक भाषाओं और बोलियों से शब्दों के आदान-प्रदान की उदारता निहित हो। हिंदी को उसका संविधान प्रदत्त पद व्यवहारिक रूप में प्रदान करने के लिए आम सहमति की बात करने वाले भूल जाते हैं कि राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगीत और राष्ट्रभाषा अनेक नहीं होते। हिंदी का विरोध करने वाले कल यदि राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगीत पर भी विरोध जताने लगें, अपने-अपने ध्वज फहराने लगें, गीत गाने लगें तो क्या कोई अनुसूची बनाकर उसमें कई ध्वज और अनेक गीत प्रतिष्ठित कर दिये जायेंगे? क्या तब भी यह कहा जायेगा कि अपेक्षित राष्ट्रगीत और राष्ट्रध्वज आम सहमति की प्रतीक्षा में हैं? भीरु व दिशाहीन मानसिकता दुःशासन का कारक बनती है जबकि सुशासन स्पष्ट नीति और पुरुषार्थ के कंधों पर टिका होता है।

सांस्कृतिक अवमूल्यन का बड़ा कारण विदेशी भाषा में देसी साहित्य पढ़ाने की अधकचरी सोच है। राजधानी के एक अंग्रेजी विद्यालय ने पढ़ाया गया- ‘सीता वॉज़ स्वीटहार्ट ऑफ रामा’ ठीक इसके विपरीत श्रीराम को सीताजी के कानन-कुण्डल मिलने पर पहचान के लिए लक्ष्मण जी को दिखाने का प्रसंग स्मरण कीजिए। लक्ष्मण जी का कहना कि मैने सदैव भाभी माँ के चरण निहारे, अतएव कानन-कुण्डल की पहचान मुझे कैसे होगी?- यह भाव संस्कृति की आत्मा है। कुसुमाग्रज की मराठी कविता में शादीशुदा बेटी का मायके में ‘चार भिंतीत नाचली’ ( शादीशुदा बेटी का मायके आने पर आनंद विभोर होना) का भाव तलाशने के लिए सारा यूरोपियन भाषाशास्त्र खंगाल डालिये। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी।

कटु सत्य यह है कि भाषाई प्रतिबद्धता और सांस्कृतिक चेतना के धरातल पर वर्तमान में भयावह उदासीनता दिखाई देती है। समृद्ध परंपराओं के स्वर्णमहल खंडहर हो रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है, भारतीय भाषाओं को शिक्षा के माध्यम से बेदखल किया जाना। चूँकि भाषा संस्कृति की संवाहक है, अंग्रेजी माध्यम का अध्ययन यूरोपीय संस्कृति का आयात कर रहा है। एक भव्य धरोहर डकारी जा रही है और हम दर्शक-से खड़े हैं। शिक्षा के माध्यम को लेकर बनी शिक्षाशास्त्रियों की अधिकांश समितियों ने सदा प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने की सिफारिश की। यह सिफारिशें आज कूड़े-दानों में पड़ी हैं।

यूरोपीय भाषा समूह की अंग्रेजी के प्रयोग से ‘कॉन्वेंट एजुकेटेड’ पीढ़ी, भारतीय भाषा समूह के अनेक अक्षरों का उच्चारण नहीं कर पाती। ‘ड़’,‘ण’  अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। ‘पूर्ण’, पूर्न हो चला है, ‘ शर्म ’ और ‘श्रम’ में एकाकार हो चला है। हृस्व और दीर्घ मात्राओं के अंतर का निरंतर होता क्षय अर्थ का अनर्थ कर रहा है।‘लुटना’ और ‘लूटना’ एक ही हो गये हैं। विदेशियों द्वारा की गई ‘लूट’ को ‘लुटना’ मानकर हम अपनी लुटिया डुबोने में अभिभूत हो रहे हैं।

लिपि नये संकट से गुजर रही है। इंटरनेट पर खास तौर पर फेसबुक, गूगल प्लस, ट्विटर जैसी साइट्स पर देवनागरी को रोमन में लिखा जा रहा है। ‘बड़बड़’ के लिए barbar/ badbad  (बर्बर या बारबर या बार-बार) लिखा जा रहा है। ‘करता’, ‘कराता’, ‘कर्ता’ में फर्क कर पाना भी संभव नहीं रहा है। जैसे-जैसे पीढ़ी पेपरलेस हो रही है, स्क्रिप्टलेस भी होती जा रही है।

सर्वाधिक घातक पक्ष है कि आसन्न संकट के प्रति समुदाय चिंतित नहीं दिखता। बिना जेब की लंगोट से बिना जेब के कफ़न तक की यात्रा का उद्देश्य केवल अपनी जेब भरना रह गया है। जेब भरी रखने की इस तृष्णा ने सामुदायिक चेतना का मानो अपहरण कर लिया है। मृत्यु की अपरिहार्यता को लिपि पर लागू करनेवाले भूल जाते हैं कि मृत्यु प्राकृतिक हो तब भी प्राण बचाने की चेष्टा की जाती है। ऐसे लोगों को याद दिलाया जाना चाहिये कि यहाँ तो लिपि की सुनियोजित हत्या हो रही है और हत्या के लिए भारतीय दंडसंहिता की धारा 302 के अंतर्गत मृत्युदंड का प्रावधान है।

सारी विसंगतियों के बीच अपना प्रभामंडल बढ़ाती भारतीय भाषाओं विशेषकर हिंदी के विरुद्ध ‘फूट डालो और राज करो’ की कूटनीति निरंतर प्रयोग में लाई जा रही है। इन दिनों  हिंदी की बोलियों को स्वतंत्र भाषा के रूप में मान्यता दिलाने की गलाकाट प्रतियोगिता शुरु हो चुकी है। खास तौर पर गत जनगणना के समय इंटरनेट के जरिये इस बात का जोरदार प्रचार किया गया कि हम हिंदी की बजाय उसकी बोलियों को अपनी मातृभाषा के रूप में पंजीकृत करायें। संबंधित बोली को आठवीं अनुसूची में दर्ज कराने के सब्जबाग दिखाकर, हिंदी की व्यापकता को कागज़ों पर कम दिखाकर आंकड़ो के युद्ध में उसे परास्त करने के वीभत्स षड्यंत्र से क्या हम लोग अनजान हैं? राजनीतिक इच्छाओं की नाव पर सवार बोलियों को भाषा में बदलने के आंदोलनों के प्रणेताओं (!) को समझना होगा कि यह नाव उन्हें घातक भाषायी षड्यंत्र की सुनामी के केंद्र की ओर ले जा रही है। अपनी राजनीति चमकाने और अपनी रोटी सेंकनेवालों के हाथ फंसा नागरिक संभवतः समझ नहीं पा रहा है कि यह भाषायी बंदरबाँट है। रोटी किसीके हिस्से आने की बजाय बंदर के पेट में जायेगी। बेहतर होता कि मूलभाषा-हिंदी और उपभाषा के रूप में बोली की बात की जाती।

संसर्गजन्य संवेदनहीनता, थोथे दंभवाला कृत्रिम मनुष्य तैयार कर रही है। कृत्रिमता की ये पराकाष्ठा है कि मातृभाषा या हिंदी न बोल पाने पर व्यक्ति लज्जा अनुभव नहीं करता पर अंग्रेजी न जानने पर उसकी आँखें स्वयंमेव नीची हो जाती हैं। शर्म से गड़ी इन आँखों को देखकर मैकाले और उसके भारतीय वंशजों की आँखों में विजय के अभिमान का जो भाव उठता होगा, अठारह  अक्षोहिणी सेना को परास्त कर वैसा भाव पांडवों की आँखों में भी न उठा होगा।

ग्लोबलाइजेशन के नाम पर लोकल को खारिज करने का नया वितण्डावाद इन दिनों जोरों पर है। लोकल, ग्लोबल की इकाई है। अनेक लोकल मिलकर ग्लोबल बनते हैं। इकाई के बिना दहाई की कल्पना करना,…कल्पना भी हास्यास्पद है।

संस्कृत को पाठ्यक्रम से हटाना एक अक्षम्य भूल रही। तर्क दिया गया कि इसमें जो कुछ है, भूतकाल है। आधुनिकता के साथ ये भाषा नहीं चल पायेगी। क्या आधुनिकता का अर्थ यूरोप से आयातित ही हो सकता है जबकि संशोधनों में संस्कृत भाषा एवं देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता वादातीत सिद्ध हो चुकी है। कतिपय स्वयंभू विद्वानों के मतानुसार संस्कृत हिंदुओं की भाषा रही, अतः उसका प्रयोग उचित नहीं होगा। जिस भूभाग पर जो समुदाय बहुतायत में होगा, स्वाभाविक है कि रचा जानेवाला साहित्य उस समुदाय की सांस्कृतिक मूल्यधर्मिता को दर्शायेगा। समुदाय की धार्मिक संस्कृति हो सकती है पर संस्कृति धार्मिक नहीं होती। फिर भाषा हिंदू और मुसलमान कबसे होने लगी? उर्दू साहित्य में बड़ा योगदान गैर मुस्लिमों का है तो क्या उनका लेखन काफिर कहलायेगा? हमारे समय की सबसे बड़ी विडंबना है कि अक्षर पर टिप्पणी करने का काम निरक्षर कर रहा है।

त्रिभाषा सूत्र में हिंदी, प्रादेशिक भाषा एवं संस्कृत/अन्य क्षेत्रीय भाषा का प्रावधान किया जाता तो देश को ये दुर्दिन देखने को नहीं मिलते। अब तो हिंदी को पालतू पशु की तरह दोहन मात्र का साधन बना लिया गया है। जनता से हिंदी में मतों की याचना करनेवाले निर्वाचित होने के बाद अधिकार भाव से अंग्रेजी में शपथ उठाते हैं।

साहित्यकारों के साथ भी समस्या है। दुर्भाग्य से भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों के बड़े वर्ग में  भाषाई प्रतिबद्धता दिखाई नहीं देती। इनमें से अधिकांश ने ने भाषा को साधन बनाया, साध्य नहीं। हद तो ये है कि अपनी साहित्यिक अभिव्यक्ति पर मोहित, दूसरे की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए आगे भी नहीं आना चाहता। यही स्थिति हिंदी की रोटी खानेवाले प्राध्यापकों और हिंदी फिल्म के कलाकारों की भी है। सिनेमा में हिंदी में संवाद बोलकर हिंदी की रोटी खानेवाले सार्वजनिक वक्तव्य अंग्रेजी में करते हैं। ऐसे सारे वर्गों के लिए वर्तमान दुर्दशा पर अनिवार्य आत्मपरीक्षण का समय आ चुका है।

हिंदी और हिंदीतर लेखक, निवासी और प्रवासी लेखक जैसी संज्ञाएं भी इसी शृंखला की अगली कड़ी हैं। इस तर्ज़ पर तो भारत के सभी अंग्रेजी लेखकों को अब तक ‘अंग्रेजीतर अंग्रेजी लेखक’ के सैकड़ों अंतरराष्ट्रीय सम्मान कूट लेने चाहिए थे। आशा है कि इन अवरोधों को समाप्त कर हम आगे आ पाएँगे और विश्वभर के हिंदी लेखकों का एक ही समुदाय होगा।

भाषा के साथ-साथ भारतीयता के विनाश का जो षडयंत्र रचा गया, वह अब आकार ले चुका है। भारत में दी जा रही तथाकथित आधुनिक शिक्षा में रोल मॉडेल भी यूरोपीय चेहरे ही हैं। नया भारतीय अन्वेषण अपवादस्वरूप ही दिखता है। डूबते सूरज के भूखंड से आती हवाएँ, उगते सूरज की भूमि को उष्माहीन कर रही हैं।

छोटी-छोटी बात पर और प्रायः बेबात  संविधान को इत्थमभूत धर्मग्रंथ-सा मानकर अशोभनीय व्यवहार करने वाले छुटभैयों से लेकर कथित राष्ट्रीय नेताओं तक ने कभी राष्ट्रभाषा को मुद्दा नहीं बनाया। जब कभी किसीने इस पर आवाज़ उठाई तो बरगलाया गया कि भाषा संवेदनशील मुद्दा है। तो क्या देश को संवेदनहीन समाज अपेक्षित है? कतिपय बुद्धिजीवी भाषा को कोरी भावुकता मानते हैं। शायद वे भूल जाते हैं कि युद्ध भी कोरी भावुकता पर ही लड़ा जाता है। युद्धक्षेत्र में ‘हर-हर महादेव’ और ‘पीरबाबा सलामत रहें’ जैसे भावुक (!!!) नारे ही प्रेरक शक्ति का काम करते हैं। यदि भावुकता से राष्ट्र एक सूत्र में बंधता हो, व्यवस्था शासन की दासता से मुक्त होती हो, शासकों की संकीर्णता पर प्रतिबंध लगता हो, अनुशासन कठोर होता हो तो भावुकता देश की अनिवार्य आवश्यकता हो जाती है।

वर्तमान में सीनाजोरी अपने चरम पर है। काली चमड़ी के अंगे्रज पैदा करने के लिए भारत में अंग्रेजी शिक्षा लानेवाले मैकाले के प्रति नतमस्तक होता  आलेख पिछले दिनों एक हिंदी अखबार में पढ़ने को मिला। यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब जनरल डायर और जनरल नील-छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप और पृथ्वीराज चौहान के स्थान पर देश में शौर्य के प्रतीक के रूप में पूजे जाने लगेंगे।

सामान्यतः श्राद्धपक्ष में आयोजित होनेवाले हिंदी पखवाड़े के किसी एक दिन हिंदी के नाम का तर्पण कर देने या सरकारी सहभोज में सम्म्मिलित हो जाने भर से हिंदी के प्रति भारतीय नागरिक के कर्तव्य  की इतिश्री नहीं हो सकती। आवश्यक है कि नागरिक अपने भाषाई अधिकार के प्रति जागरुक हों। वे ह सूचना के अधिकार के तहत राष्ट्रभाषा को राष्ट्र भर में मुद्दा बनाएँ।

भारतीय भाषाओं के आंदोलन को आगे ले जाने के लिए छात्रों से अपेक्षित है कि वे अपनी भाषा में उच्च शिक्षा पाने के अधिकार को यथार्थ में बदलने के लिए पहल करें। स्वाधीनता के सत्तर वर्ष बाद भी न्यायव्यवस्था के निर्णय विदेशी भाषा में आते हों तो संविधान की पंक्ति-‘भारत एक सार्वभौम गणतंत्र है’ अपना अर्थ खोने लगती है।

देखने में आया है कि चीन का युवा अंग्रेजी में कोई बात सीखता है तो सबसे पहले उसे मंदारिन में अनूदित कर इंटरनेट पर अपलोड कर देता है। भारतीय युवाओं से भी अपेक्षित है कि दुनिया की हर तकनीक को भारतीय भाषाओं में उपलब्ध करा दें। आधुनिक तकनीक और संचार के अधुनातन साधनों से अपनी बात दुनिया तक पहुँचाना तुलनात्मक रूप से बेहद आसान हो गया है। भारतीय भाषाओं में अंतरजाल पर इतनी सामग्री अपलोड कर दें कि ज्ञान के इस महासागर में डुबकी लगाने के लिए अन्य भाषा भाषी भी हमारी  भाषाएँ सीखने को  विवश  हो जाएँ।

सरकार से अपेक्षित है कि हिंदी प्रचार संस्थाओं के सहयोग से विदेशियों को हिंदी सिखाने के लिए क्रैश कोर्सेस शरू करे। भारत आनेवाले  सैलानियों के लिए ये कोर्सेस अनिवार्य हों। वीसा के लिए आवश्यक नियमावली में इसे समाविष्ट किया जा सकता है।

कहने-सुनने-लिखने के लिए बहुत कुछ है। हम सब पर सामुदायिक रूप से जड़त्व का नियम (लॉ ऑफ इनरशिआ) लागू होता है। हम यथास्थितिवादी हो चले हैं।
कर्मयोग की मीमांसा करते हुए गीता में कहा गया है-

श्रेयान् स्वधर्मः विगुणः परधर्मात् सु अनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मः भय आवहः॥

अर्थात् अपना धर्म चाहे उसमें कमियाँ  ही क्यों न हों, दूसरे के धर्म से अच्छा है। परधर्म अपनाने से अपने धर्म का पालन करते हुए मृत्यु का अंगीकार करना श्रेयस्कर है। क्या भारतीयता, भारतीय धरती पर जन्म लेनेवाले का धर्म नहीं होना चाहिए? हिंदी भाषा और हिंदी संस्कृति के लिए पहल हिंदुस्तानी नहीं करेगा तो फिर कौन करेगा? कहा भी गया है- य: क्रियावान स पण्डित:।

बढ़ते विदेशी पूँजीनिवेश के साथ भारतीय भाषाओं और भारतीयता का संघर्ष ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’की स्थिति में आ खड़ा हुआ है। समय की मांग है कि  ‘उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से सफेद कैसे’ जैसी तुलना या मैग्निफाइंग ग्लास लेकर पत्र-पत्रिकाओं में गलतियाँ तलाशने की वृत्ति छोड़कर, बड़े उद्देश्य की पूर्ति के लिए सभी साहित्यकार साथ आएँ। केवल हिंदी नहीं अपितु भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों के एकसाथ आने की आवश्यकता है। प्रादेशिक स्तर पर प्रादेशिक भाषा और राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के नारे को बुलंद करना होगा। ‘अंधाधुंध अंग्रेजी’के विरुद्ध ये एकता अनिवार्य है।

बीते सात दशकों में पहली बार भाषा नीति को लेकर  वर्तमान केंद्र सरकार संवेदनशील और सक्रिय दिखाई दे रही है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता, भारत और भारतीयता के पक्ष में स्वयं प्रधानमंत्री ने पहल की है। मंत्री तो मंत्री रक्षा और विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता भी हिंदी में अपनी बात रख रहे हैं। यह सही समय है कि हिंदी और भारतीय भाषाओं के पक्ष में आम जनता स्वप्रेरणा से आगे आए।

लगभग चार दशक पूर्व दक्षिण अफ्रीका का एक छोटा सा देश आज़ाद हुआ। मंत्रिमंडल की पहली बैठक में निर्णय लिया गया कि देश आज से ‘रोडेशिया’ की बजाय ‘जिम्बॉब्वे’ कहलायेगा।  राजधानी ‘सेंटलुई’ तुरंत प्रभाव से ‘हरारे’ होगी। नई सदी प्रतीक्षा में है कि कब ‘इंडिया’ की केंचुली उतारकर ‘भारत’ बाहर आयेगा।

प्रश्न अनेक हैं। हमारी अपेक्षा है कि समुदाय चिंतन करने को प्रवृत्त हो। चिंतन, चेतना को झकझोरे और चैैतन्य नागरिक सक्रिय हो। नीति कहती है कि समाज दुर्जनों की सक्रियता से नहीं, सज्जनों की निष्क्रियता से बाधित होता है। ‘इंडिया’ की केंचुली से मुक्ति के लिए हम सबकी सामूहिक सक्रियता वांछित है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिंदी साहित्य – राजभाषा दिवस विशेष – ☆ स म्मा न ☆ – श्री सदानंद आंबेकर

राजभाषा दिवस विशेष 

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

 

(राजभाषा दिवस पर श्री सदानंद आंबेकर  जी का  विशेष आलेख स म्मा न.) 

 

स म्मा न

 

सुबह के लगभग ग्यारह-बारह बजे के समय अचानक बैंड़ बाजों की आवाज से लोग चौंक उठे। आंखें उठाकर देखा तो पाया कि बाजार के मध्य से एक जुलूस जा रहा है। उसके बीच में सुसज्जित पालकी पर एक तेजोमय मुद्रा वाली वयोवृद्ध महिला सुंदर से वस्त्र पहने बैठी है। चार लोग पालकी उठाए चले जाते है। बीच बीच में जुलूस के लोग उसकी जय-जयकार भी बोल रहे हैं। सभी लोग अत्यंत कौतुहूल से उस जुलूस एवं उसके मध्य जा रही वृद्धा को देख रहे थें किंतु समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उस जुलूस में काफी लोग थे जिनमें सामान्य जन से लेकर अनेक बड़े नेता भी दृष्टिगोचर हो रहे थे। लोगों के उत्साह का पारावार न था। जुलूस यों ही जयकार करता हुआ आगे चला गया ।

अनेक दिनों बाद उसी बाजार के एक दुकानदार ने देखा कि वही बूढ़ी महिला सड़क के किनारे उदास सी बैठी हुई है एवं लोगों की उपेक्षा भरी दृष्टि उस पर पड़ रही थी, किंतु उस दुकानदार को अपने काम की जल्दी थी सो वह भी सामान्य सी नजर ड़ाल कर आगे बढ़ गया।

एक बार पुनः वही वृद्धा उसे दूसरे मार्ग पर दिखाई दी और इस बार वह और भी बुरी अवस्था में थी। उसके वे नए वस्त्र तो एकदम जीर्ण हो गये थे एवं वह स्वयं भी क्लांत एवं भूखी प्यासी दीख रही थी। आश्चर्य यह था उस दिन जुलूस में सम्मिलित वे कुछेक लोग आज आसपास से गुजरते हुए उसे देख तक नहीं रहे थे। आज उस दुकानदार से रहा नहीं गया एवं सहानुभूति एवं उत्सुकता की मिलीजुली भावना के वशीभूत वह वृद्धा के पास गया एवं पूछ ही लिया कि माई आप कौन हैं एवं उस दिन एवं आज के दिन की आपकी स्थिति में जमीन आसमान का अंतर देख रहा हूँ तो इसका क्या कारण है और मैं आपकी क्या कुछ मदद कर सकता हूँ ?

उस वृद्धा ने अत्यंत सहजता से उत्तर दिया – “उस दिन की सम्मानित महिला मैं ही थी एवं आज की उपेक्षित बुढ़िया भी मैं ही हूँ। मैं इस देश की राजभाषा हूँ, मेरा नाम हिन्दी है एवं जिस दिन तुमने मुझे पालकी में देखा था वह दिन हिन्दी दिवस-चौदह सितंबर था।”

 

©  सदानंद आंबेकर

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हिंदी साहित्य – राजभाषा दिवस विशेष – ☆ भाषायें अभिव्यक्ति का माध्यम, परस्पर अनुपूरक होती हैं. ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

राजभाषा दिवस विशेष 
श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(राजभाषा दिवस पर  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी का  विशेष आलेख भाषायें अभिव्यक्ति का माध्यम, परस्पर अनुपूरक होती हैं.) 

 

 ☆ भाषायें अभिव्यक्ति का माध्यम, परस्पर अनुपूरक होती हैं ☆

 

संविधान सभा में देवनागरी में लिखी जाने वाली हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया है. स्वाधीनता आन्दोलन के सहभागी रहे हमारे नेता जिनके प्रयासो से हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया  आखिर क्यो चाहते थे कि हिन्दी  केन्‍द्र और प्रान्तों के बीच संवाद की भाषा बने? स्पष्ट है कि वे एक लोकतांत्रिक राष्ट्र का सपना देख रहे थे जिसमें जनता की भागीदारी सुनिश्चित करनी थी. उन मनीषियो ने एक ऐसे नागरिक की कल्पना थी जो बौद्धिक दृष्टि से तत्कालीन राजकीय  संपर्क भाषा अंग्रेजी का पिछलग्‍गू नहीं, बल्कि आत्मनिर्भर हो.  यही स्वराज अर्थात अपने ऊपर अपना ही शासन की अवधारणा की संकल्पना  भी थी.  इस कल्पना में आज भी वही शक्ति है.  इसमें आज भी वही राष्ट्रीयता का आकर्षण है.

आजादी के बाद से आज तक अगर एक नजर डालें तो हमें दिखता है कि भारत की जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा इस बीच हिन्दी, उर्दू, मराठी, गुजराती, कन्नड़, तमिल, तेलगू आदि भारतीय भाषाओं के माध्यम से ही साक्षर हुआ है. आजादी के समय 100 में 12 लोग साक्षर थे,  आज साक्षरता का स्तर बहुत बढ़ा है.  इस बीच भारत की आबादी भी बहुत अधिक बढ़ी है,अर्थात आज ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक है जो हिन्दी में पढ़ना-लिखना जानते हैं.

हिन्दी आज ३० से अधिक देशो में ८० करोड़ लोगो की भाषा  है.विश्व हिन्दी सम्मेलन सरकारी रूप से आयोजित होने वाला हिन्दी पर केंद्रित  महत्वपूर्ण आयोजन है.  यह सम्मेलन प्रत्येक तीसरे वर्ष आयोजित किया जाता है। इस वर्ष यह आयोजन मारीशस में आयोजित हो रहा है.वैश्विक स्तर पर भारत की इस प्रमुख भाषा के प्रति जागरुकता पैदा करने, समय-समय पर हिन्दी की विकास यात्रा का मूल्यांकन करने, हिन्दी साहित्य के प्रति सरोकारों को मजबूत करने, लेखक-पाठक का रिश्ता प्रगाढ़ करने व जीवन के विवि‍ध क्षेत्रों में हिन्दी के प्रयोग को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से 1975 से विश्व हिन्दी सम्मेलनों की श्रृंखला आरंभ हुई है । हिन्दी को वैश्विक सम्मान दिलाने की  परिकल्पना को पूरा करने की दिशा में विश्वहिन्दी सम्मेलनो की भूमिका निर्विवाद है.

सम्मेलन में विश्व भर से हि्दी अनुरागी भाग लेते हैं. जिनमें गैर हिन्दी मातृ भाषी ‘हिन्दी विद्वान’ भी शामिल होते हैं। 1975 में नागपुर में पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के सहयोग से  संपन्न हुआ था,  जिसमें विनोबा जी ने हिन्दी को विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित किये जाने हेतु संदेश भेजा था।उसके बाद मॉरीशस, ट्रिनिदाद एवं टोबैको, लंदन, सूरीनाम में ऐसे सम्मेलन हुए।  इनमें से कम से कम चार सम्मेलनों में संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को आधिकारिक भाषा के रूप स्थान दिलाये जाने संबंधी प्रस्ताव पारित भी हुए.

यह सम्मेलन प्रवासी भारतीयों के ‍लिए बेहद भावनात्मक आयोजन होता है. क्योंकि ‍भारत से बाहर रहकर हिन्दी के प्रचार-प्रसार में वे जिस समर्पण और स्नेह से भूमिका निभाते हैं उसकी मान्यता और प्रतिसाद भी उन्हें इसी सम्मेलन में मिलता है. निर्विवाद रूप से देश से बाहर और देश में भी हम सब को एकता के सूत्र में जोड़ने में हिन्दी की व्यापक भूमिका है. अनेक हिन्दी प्रेमियो के द्वारा निजी व्यय व व्यक्तिगत प्रयासो से विश्व हिन्दी सम्मेलन जैसे सरकारी आयोजनो के साथ ही समानान्तर प्रयास भी किये जा रहे हैं.  स्वंयसेवी आधार पर हिंदी-संस्कृति का प्रचार-प्रसार, भाषायी सौहार्द्रता तथा सामूहिक रूप से सांस्कृतिक अध्ययन-पर्यटन सहित एक दूसरे से अपरिचित सृजनरत रचनाकारों के मध्य परस्पर रचनात्मक तादात्म्य के लिए अवसर उपलब्ध कराना भी ऐसे आयोजनो का उद्देश्य है. इस तरह के प्रयास  समर्पित हिन्दी प्रेमियो का एक यज्ञ हैं. विश्व हिन्दी सम्मेलनो की प्रासंगिकता हिन्दी को विश्व  स्तर पर प्रतिष्ठित करने में है.प्रायः ऐसे सम्मेलनो में हिस्सेदारी और सहभागिता प्रश्न चिन्ह के घेरे में रहती है क्योकि लेखक, रचनाकार, साहित्यकार होने के कोई मापदण्ड निर्धारित नही किये जा सकते. सत्ता पर काबिज लोग अपने लोगो को हिन्दी के ऐसे पवित्र यझ्ञ के माध्यम से उपकृत करने से नही चूकते.यही हाल हिन्दी को लेकर सरकारी सम्मानो और पुरस्कारो का भी रहता है. वास्तविक रचनाधर्मी अनेक बार स्वयं को ठगा हुआ महसूस करता है. अस्तु.

शहरों, छोटे कस्बों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में भी आज मोबाइल के माध्यम से इन्टरनेट का उपयोग बढ़ता जा रहा है. ऐसे में इस नये संपर्क माध्यम को हिन्दी सक्षम बनाना, हिन्दी में तकनीकी, भाषाई, सांस्कृतिक जानकारियां इंटरनेट पर सुलभ करवाने के व्यापक प्रयास आवश्यक हैं. सरल हिंदी के माध्यम से विद्यार्थियों, शिक्षकों, व्यापारियों एवं जन सामान्य हेतु  व्यापार के नए आयाम खोज रहे हर एक हिंदी भाषी भारतीय का न सिर्फ ज्ञान वर्धन बल्कि एक सफल भविष्य-वर्धन अति आवश्यक है. विकसित एवं विकासशील राष्ट्रों में ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ व्यापारियों ने एक छोटी सी सोच को बड़ा व्यापार बनाया है. भाषा का इसमें बड़ा योगदान रहा है. चिंतन मनन हिन्दी के अनुकरण प्रयोग को बढ़ावा देने, विचारों को जागृत करना ही विश्व हिन्दी सम्मेलनो, हिन्दी दिवस के आयोजनो का मूल उद्देश्य  है.

प्रायः जब भी हिन्दी की बात होती है तो इसे अंग्रेजी से तुलनात्मक रूप से देखते हुये क्षेत्रीय भाषाओ की प्रतिद्वंदी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. यह धारणा नितांत गलत है. आपने कभी भी हाकी और फुटबाल में, क्रिकेट और लान टेनिस में या किन्ही भी खेलो में परस्पर प्रतिद्वंदिता नही देखी होगी. सारे खेल सदैव परस्पर अनुपूरक होते हैं, वे शारीरिक सौष्ठव के संसाधन होते हैं, ठीक इसी तरह भाषायें अभिव्यक्ति का माध्यम होती हैं, वे संस्कृति की संवाहक होती हैं वे परस्पर अनुपूरक होती हैंं प्रतिद्वंदी तो बिल्कुल नही यह तथ्य हमें समझने और समझाने की आवश्यकता है. इसी उदार समझ से ही हिन्दी को राष्ट्र भाषा का वास्तविक दर्जा मिल सकता है.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – महत्वपूर्ण सूचना ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि – महत्वपूर्ण सूचना  ☆

 

दो वर्ष पहले की घटना स्मरण हो आई। हिंदी सिनेमा पर एक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी के सिलसिले में 8 -9 सितंबर 2017 को पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में आमंत्रित था। सुबह टहल कर लौटते हुए  निकटस्थ बॉयज़ होस्टल-7 की कैंटीन में चाय पीने बैठा। कैंटीन चालक ने अन्न की बर्बादी के विरुद्ध एक बोर्ड लगा रखा है। इस बोर्ड की तस्वीर साझा कर रहा हूँ। सोचता हूँ कि यह बोर्ड छोटे-बड़े  रेस्टोरेंट से लेकर घर की डाइनिंग टेबल तक लगा होना चाहिए। स्मरण रहे, आपकी जूठन किसीका भोजन हो सकती थी।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 8 – अद्भुत पराक्रम ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “अद्भुत पराक्रम।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 8 ☆

 

☆ अद्भुत पराक्रम 

 

सभी प्रकार के वायु के ज्ञाता, वायु में अपनी गति शुरू करते हैं । समुद्र के ऊपर आकाश में कुछ दूरी चलने के बाद, एक समुद्री राक्षस ने भगवान हनुमान के मार्ग को अवरुद्ध कर दिया ।

यह सुरसा थी ‘सुर’ का अर्थ है देवता और ‘सा’ का अर्थ समान है । तो सुरसा का अर्थ देवता के समान है या वो जिसमें देवतो जैसी शक्तियाँ हैं । वह कश्यप और क्रोधवश की 10 बेटियों में से एक और साँपो की माँ थी ।

उसने भगवान हनुमान को रोक दिया और कहा, “हे! वानर  तुम कहाँ जा रहे हो? मुझे भगवान ब्रह्मा से वरदान प्राप्त है कि मेरे मुँह  में प्रवेश किए बिना कोई भी इस स्थान से आगे नहीं जा सकता है”

भगवान हनुमान ने उत्तर दिया, “ठीक है, पहले मैं आपको अपना परिचय दूँगा । मैं हनुमान हूँ और भगवान राम की पत्नी देवी सीता को लंका में  खोजने जा रहा हूँ ”

जैसे की प्रत्येक प्राणी की मूल प्रकृति होती है की जब हम कोई नया नाम सुनते हैं तो हम इसे दोहराते हैं । तो सुरसा ने कहा, “ओह हनुमान! लेकिन तुम्हे मेरे मुँह  में आना होगा”

जल्द ही भगवान हनुमान ने कहा, “हे देवी, अपने अभी अपने मुँह  से हनुमान नाम पुकारा । नाम को किसी भी जीवित व्यक्ति की पहचान के रूप में परिभाषित किया गया है । इसलिए जब आपने अपने मुँह से मेरा नाम पुकारा, तो आपका वरदान विफल नहीं हुआ क्योंकि हनुमान आपके मुँह  से आया ”

सुरसा, भगवान हनुमान की बुद्धि से बहुत प्रभावित हुई और हाँ, भगवान ब्रह्मा जी का वरदान भी असफल नहीं हुआ । तब सुरसा ने भगवान हनुमान को आशीर्वाद दिया और उनका मार्ग छोड़ दिया । भगवान हनुमान समुद्र के ऊपर आकाश में अपने रास्ते पर आगे बढ़ गए ।

भगवान हनुमान काले और सफेद बादलों से गुज़रते हुए आगे बढ़ रहे थे जिसमे से कुछ सिर्फ देखावे की लिए थे अन्य कुछ बादलो में बारिश के लिए पानी भरा था ।

तभी समुद्र में से एक मादा राक्षसी सिंहिका (अर्थ : शेरनी की शक्तियों से युक्त) उभर कर ऊपर आयी । सिंहिका हिरण्यकशिपु की पुत्री और छाया ग्रह राहु (जो सूर्य और चंद्रमा पर ग्रहण लगाने के लिए जिम्मेदार होता है) की माँ थी । दरअसल सिंहिका ‘मन्देह’ नामक एक प्रकार की रक्षसी थी ‘मन’ का अर्थ है मस्तिष्क की विचार प्रक्रिया और ‘देह’ का अर्थ है शरीर इसलिए मन्देह किसी के शरीर और मस्तिष्क  के बीच के सामंजस्य का प्रतीक है । इस प्रजाति के राक्षस चट्टानों पर लटके रहते है गर्मी को सहन नहीं कर सकते इसलिए रोज सूरज से लड़ते प्रतीत होते हैं और सूर्योदय के समय पानी में छिपे रहते हैं ।

हिरण्यकशिपु  हिरण्य अर्थात “सोना,” कशिपु अथार्त “मुलायम कुशन” या स्वर्ण आभा या सोने के कपड़े पहने हुए, एक ऐसे व्यक्ति को चित्रित करने के लिए कहा है जो धन और यौन जीवन का बहुत शौकीन है, उनके छोटे भाई, हिरण्यक्ष को विष्णु भगवन के अवतारों में से एक वाराह ने मारा था । अपने भाई की मृत्यु से नाराज, हिरण्यकशिपु ने भगवान ब्रह्मा से तपस्या करके जादुई शक्तियाँ  हासिल करने का निर्णय  किया । बाद में उन्हें भगवान विष्णु के नृसिंह अवतार ने मारा । किंवदंती के अनुसार, हिरण्यकशिपु, असुरो का राजा था और उसने ब्रह्मा से वरदान अर्जित किया था जिसने उसे लगभग अविनाशी बना दिया था । वह घमंडी हो गया, सोचा कि वह ईश्वर है, और माँग की कि हर कोई केवल उसकी पूजा करे ।

सिंहिका ने अपने आप से कहा, “एक बड़ा प्राणी लंबे समय बाद दिखाई दिया है । आज मैं इस प्राणी को खाऊंगी और अपनी भूख मिटाऊँगी” यह सोचकर वह भगवान हनुमान की छाया को पकड़ती है । हनुमान अचानक मिले बंधन से परेशान हो जाते है । जैसे सिंहिका का पुत्र राहु, सूर्य और चन्द्रमा पर ग्रहण लगा सकता है इसी तरह वह हवा पर ग्रहण लगा सकती थी । सिंहिका वायु के प्रवाह को रोकती है जिसके कारण कोई भी उड़ने वाला जीव कुछ पल के लिए आकाश में रुक जाता है, और सिंहिका समुद्र के पानी पर उड़ने वाले जीव की छाया देखकर उस छाया को पकड़ लेती है, इससे की वो उड़ने वाला जीव एक ही जगह बंद हो जाता है और तेजी से नीचे समुन्द्र में गिरने लगता है, और वह उन्हें पकड़ कर खा लेती है ।

पवन पुत्र भगवान हनुमान ने उनका मार्ग सिंहिका द्वारा अवरुद्ध किये जाने के बाद चारों ओर देखा और बाद में समुद्र की सतह पर सिंहिका को खड़ा पाया ।

भगवान हनुमान को तुरंत एहसास हुआ कि यह सिंहिका ही है जो उन पर आक्रमण कर रही थी, और जल्द ही भगवान हनुमान ने अपने शरीर को बढ़ाना शुरू कर दिया, फिर उन्होंने अपने शरीर को एक दम से छोटा कर दिया और सिंहिका के मुँह में घुस कर उसके सिर को भेद कर बहार निकल आये । भगवान हनुमान ने उसके पैरों को भी उसके शरीर से अलग कर दिया । उसने रोना शुरू कर दिया और समुद्र में गिर गयी और फिर भगवान हनुमान से अनुरोध किया ” ओह! ताकतवर भगवान, मेरी गलती भूल जाओ और मुझ पर दया करो । अब मैं हिलने में भी असमर्थ हूँ । कृपया मुझे समुद्र में एक ऐसा स्थान सुझाएं जहाँ पर विभिन्न प्राणियों का आना जाना हो  और  जहाँ   से मैं पानी पर उनकी छाया देख कर अपने  लिए अपना खाना पकड़ सकू क्योंकि अब मैं हिल डुल नहीं सकती”

भगवान हनुमान ने अपने शरीर के आकार को बढ़ाने के बाद उसे अपनी हथेली में रखा और एक विशेष दिशा में फेंक दिया ।

वह जगह जहाँ वह गिर थी वह अभी भी एक रहस्य है, और उत्तरी अटलांटिक महासागर के पश्चिमी हिस्से में परिभाषित क्षेत्र है, जहाँ  आज भी रहस्यमय परिस्थितियों में कई विमान और जहाज गायब हो जाते हैं । हाँ, वह स्थान जहाँ पर सिंहिका की उपस्थिति अभी भी अनुभव की जाती है वह बरमूडा त्रिभुज है । जो अभी भी उस जगह पर गुजरने वाले हवाईजहाज और समुद्री जहाजों के रूप में अपना खाना पकड़ती है ।

आकाश से देवता ने भगवान हनुमान को आशीर्वाद दिया ताकि वह अपने प्रयोजन में सफल हो सके । उन्होंने कहा, “हे! महान वानर  जिनके पास चार गुण हैं: धर्ति – साहस, दृष्टि – दूरदर्शिता, मती – बुद्धि और दक्ष्य – क्षमता होते है वो अपने उद्देश्यों में कभी विफल नहीं होते ।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – प्रेम ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि – प्रेम ☆

“वी आर इन रिलेशन.., आई लव हर डैड,” होस्टल में रहनेवाले बेटे ने फोन पर ऐलान किया था। वह चुप रहा। यहाँ-वहाँ की बातें कर कुछ देर बाद फोन रख दिया।

ज़्यादा समय नहीं बीता। शायद छह महीने बाद ही उसने घोषणा कर दी, ” हमारा ब्रेकअप हो गया है। आई डोंट लव हर एनीमोर।” कुछ देर के संवाद के बाद पिता ने फिर फोन रख दिया।

‘लव हर.., डोंट लव हर..??’ देह तक पहुँचने का रास्ता कितना छोटा होता है! मन तक पहुँचने का रास्ता कहीं ठहरने का नाम ही नहीं लेता बल्कि हर कदम के बाद पीछे लौटने का रास्ता बंद होता जाता है। न रास्ता ठहरता है, न पीछे लौट सकने की गुंजाइश का खत्म होना रुकता है। प्रेम और वापस लौटना विलोम हैं। लव में ‘अन-डू’ का ऑप्शन नहीं होता। जो खुद को लौटा हुआ घोषित करते  हैं, वे भी केवल देह लेकर ही लौट पाते हैं। मन तो बींधा पड़ा होता है वहीं। काँटा चुभने की पीर, गुमशुदा के गुमशुदा रहने की दुआ, खोने की टीस, पाने की भी टीस, पराये का अपना होने की प्रीत, अपने का पराया होने की रीत, थोड़ा अपना पर थोड़ा पराया दिखता मीत.., किसी से भी, कहीं से भी वापस नहीं लौट पाता मनुष्य।

जन्म-जन्मांतर बीत जाते हैं प्रेम में!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 15 ☆ ऑनर किलिंग ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी  का एक आलेख जिसमें उन्होंने  समाज की एक हृदयविदारक परंपरा  ऑनर किलिंग पर अपनी बेबाक राय रखी है.  साथ ही उन्होंने आह्वान किया है कि कैसे  समाज में इस बुराई को दूर कर एक सकारात्मक समाज की स्थापना की जा सकती है. आदरणीया डॉ मुक्त जी का आभार एवं उनकी कलम को इस पहल के लिए नमन।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 15 ☆

 

☆ ऑनर किलिंग ☆

 

‘ऑनर किलिंग’ विपरीतार्थक शब्द… सम्मान-पूर्वक मृत्यु, अर्थात् समाज का एक घिनौना सत्य…जो सदियों से हर जाति, हर मज़हब के लोगों में प्रचलित है। प्रश्न उठता है, ‘आखिर यह प्रथा आई कहां से?’ शायद इसका जन्म हुआ मानव में निहित सर्वश्रेष्ठता के भाव से, उसके अहं से, उसके ग़ुरूर से।  यह वह दुर्भाव अर्थात् दूषित भाव है, जो मानव को मानवता से कोसों दूर ले जाता है। उसकी संवेदनाएं मर जाती हैं और वह ठूंठ मात्र रह जाता है, क्योंकि संवेदन- शून्य व्यक्ति हृदयहीन, दैवीय गुणों से विहीन…स्नेह,  सौहार्द, ममता,त्याग, सहानुभूति आदि की भावनाओं से बहुत दूर…अहंलीन मानव दूसरों के अस्तित्व को नगण्य समझता है।

वह घर-परिवार में एकछत्र साम्राज्य चाहता है, यहां तक कि वह अपने आत्मजों को भी अपनी सम्पत्ति- धरोहर स्वीकारता है तथा आशा करता है कि वे कठपुतली की भांति उसका हर हुक्म बजा लाएं… उसके हर आदेश की अनुपालना तुरंत करें।’ नो’ व ‘असंभव’ शब्द उसके शब्दकोश से नदारद होते हैं। उसमें प्रत्युत्तर सुनने का सामर्थ्य नहीं होता। वह शख्स अजीब होता है…जो अपने से अधिक बुद्धिमान, सामर्थ्यवान व शक्तिशाली किसी दूसरे को नहीं समझता।

सब परिवारजन उसकी अमुक प्रवृत्ति से सदैव परेशान  रहते हैं। उसके घर आते ही बच्चे इधर-उधर छिप जाते हैं और पत्नी का चेहरा भी भय से कुम्हला जाता है क्योंकि वह नहीं जानती कब वह उस पर अकारण बरसने लगे?और उसके माता-पिता भी उसके व्यवहार के प्रति आशंकित रहते हैं क्योंकि वह किसी भी पल सीमाओं को लांघ सकता है। वह किसी भी पल, किसी को कटघरे में खड़ा कर सकता है।

चलिये! अब बच्चों की नियति पर चर्चा करते हैं… किस मन:स्थिति में वे उस घर में रहते हैं, जहां पिता, पिता नहीं, एक हिटलर की मानिंद सदैव व्यवहार करता है। बच्चों को वह अपनी संपत्ति समझता है और उन्हें अपने अंकुश में रखना चाहता है। बच्चों को उसकी हर गलत बात को सही कहना पड़ता है क्योंकि दूसरे पक्ष की बात सुनने का धैर्य उसमें होता ही नहीं। बच्चे उसे अपनी नियति स्वीकार, सुंदर कल की कल्पना में खोए रहते हैं कि आत्मनिर्भर होने के पश्चात् उन्हें वह सब नहीं सहना पड़ेगा…वे निरंकुश व स्वछंद हो जाएंगे तथा अपनी इच्छानुसार निर्णय लेने में स्वतंत्र होंगे।

परंतु वह समय आने से पूर्व, यदि बेटा या बेटी,किसी को चाहने लगते हैं, प्रेम करने लगते हैं, तो सुनामी की गगनचुंबी लहरें उस घर की शांति व सुख चैन को समाप्त कर देती हैं, लील जाती हैं। उसका तीसरा नेत्र खुल जाता है और वह लातों व घूसों पर उतर आता है। बेटी को तो वह घर की चारदीवारी में कैद कर लेता है और उससे मोबाइल आदि भी छीन लिया जाता है। वह मासूम दीवारों से सिर टकराती, आंसू बहाती, बार-बार ग़ुहार लगाती रहती है कि वह उसके साथ अपना जीवन बसर करना चाहती है। वह दिल की गहराईयों से उसे पसंद करती है और उसके बिना ज़िन्दा नहीं रह सकती।

परंतु उसकी आवाज़ उसके कानों से टकरा कर लौट आती है। यदि वह कभी उससे जिरह करने का साहस जुटाती है, तो उस पर पाबंदियां बढ़ा दी जाती हैं और कुलनाशिनी, कुलक्षिणी कहकर उसे ही नहीं, उसकी मां को भी लताड़ा जाता है। जब जुल्म की इंतहा हो जाती है तो अक्सर वह उन ज़ंजीरों को तोड़ कर भाग निकलती है,जहां वे स्वतंत्रता से सुख की सांस ले सके।

इसके पश्चात् अक्सर उस घर में हंगामा व गाली- ग़लौच होता रहता है और वह ज़ालिम हर पल आसमान को  सिर पर उठाए डोलता रहता है। उसके  मन में यही ख़लिश रहती है कि यदि वह एक बार उसके सामने आ जाए, तो वह उसे अपनी ताकत का एहसास दिला कर सुक़ून पा सके। पिता होने से पहले वह हिटलर है। वह किसी भी सीमा तक जा सकता है और यही ‘शक्ति-प्रदर्शन’ है ऑनर किलिंग।

लड़की का पिता व परिवारजन अपने-अपने मान- सम्मान की दुहाई देते हुए उन दोनों की हत्या पर अपनी पीठ ठोंकते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि उन्होंने बच्चों को जन्म देकर कोई एहसान नहीं किया और न ही वे गुलाम हैं उनकी सल्तनत में…सो! वे उससे मनमाने व्यवहार की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं?

प्रेम सात्विक भाव है…प्रेम सामीप्य का प्रतिरूप है …एक-दूसरे की भावनाओं को समझते हुए क़रीब लाने का उपादान है। प्रेम संगीत है…प्रेम उच्छ्वास है … प्रेम वह पावन भाव है, जो मलय वायु के झोंकों सम शीतलता प्रदान करता है। परंतु जन्मदाता ही बच्चों में प्रेम का भाव प्रकट होते ही उनके दुश्मन क्यों बन जाते हैं? क्या झूठा अहं व मान-सम्मान बच्चों की ज़िन्दगी से अधिक अहमियत रखता है? शायद उनकी नज़रों में प्रेम करना ग़ुनाह है, जिसका मूल्य उनके आत्मजों को अपने प्राणों की बलि देकर ही चुकाना पड़ता है।

चलिए! इन कट्टरपंथी विचारधारा वाले माता-पिता के व्यवहार पर  दृष्टिपात कर लें…आजकल तो वे स्वयं को ख़ुदा स्वीकारने लगे हैं क्योंकि वे अपनी इच्छानुसार बच्चों को जन्म देते हैं, अन्यथा भ्रूण हत्या करवा देते हैं और बच्चों के युवा होने पर उनकी भावनाओं को न समझते हुए उनकी हत्या तक कर डालते हैं। क्या आप ऐसे सिरफिरे लोगों को ख़ुदा से कम आंकेंगे?

यह कहावत आजकल मान्य नहीं है कि जन्म व मृत्यु तो सृष्टि-नियंता के हाथ में है। मानव उसके हाथों का खिलौना मात्र हैं। वह जितनी सांसें लिखवा कर इस संसार में जन्म लेता है, उससे एक सांस भी अधिक  नहीं ले सकता। अरे! यह इक्कीसवीं सदी है… परंपरागत मान्यताएं बदल गई हैं… सोच भी पहले सी कहां है? शायद! वह ज़ालिम पिता यह सोचकर फूला नहीं समाता कि उसने ही उसे जन्म दिया था, तो उसे मार कर, उसकी  जान लेकर उसने कोई गुनाह नहीं किया।

विभिन्न प्रदेशों में खापें इस विचारधारा की पक्षधर हैं, पोषक हैं। युवाओं को अपनी इच्छानुसार विवाह करने का अधिकार प्रदत्त नहीं है। वे कुल-गोत्र, जात-बिरादरी की मर्यादा पर अधिक ध्यान देती हैं और उनकी हत्या करने को उचित ठहराती हैं। आश्चर्य होता है यह देख कर कि अनेक वर्ष तक साथ, एक छत के नीचे ज़िन्दगी बसर कर रहे पति- पत्नी को, भाई-बहन के रूप में राखी बांधने का फरमॉन स्वीकारना पड़ता है। तभी उन्हें व उनके माता-पिता को जात-बिरादरी व गांव से निष्कासित कर दिया जाता है, तो कभी उन्हें अमानवीय यातनाएं दी जातीं हैं।

परन्तु आज कल कुछ सुखद परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। चंद खापों का मृत्यु-भोज की परंपरा का  विरोध करना या विवाह पर डी•जे• आदि न चलाने की पेशकश, दहेज न लेने-देने की मुहिम आदि उन की सकारात्मक सोच की ओर संकेत करते हैं। परंतु आवश्यकता है… खापें व समाज के ठेकेदार, बच्चों को अपनी इच्छानुसार जीवनसाथी चयन करने की स्वतंत्रता प्रदान कर, उदार हृदयता का परिचय दें। उनके विरुद्ध मनमाने निर्णय ले, बेतुके व विचित्र फरमान जारी न करें।

ऑनर किलिंग यदि एक की होती है, तो दोनों परिवार सकते में आ जाते हैं… उनमें मातम पसर जाता है…. क्योंकि वे एक-दूसरे के अभाव में जीने की कल्पना भी नहीं कर पाते। यह आघात  दोनों परिवारों की खुशियों को समूल नष्ट कर देता है, सुनामी की लहरों की भांति लील जाता है। प्रेम प्रतिदान का दूसरा रूप  है। यह देने का नाम है। सो! यदि समाज के रसूख-दार लोग बच्चों को निर्णय लेने की स्वतंत्रता प्रदान करें तथा मनचाहे जीवनसाथी को वरण करने का अधिकार प्रदान करें ताकि वे प्रसन्नता से अपना जीवन बसर कर सकें। वे उनकी भावनाओं का तिरस्कार न करें, यही जीवन की  सार्थकता है। आइए! मिलकर जीवन में नया उजाला लाएं। एक स्वर्णिम सुबह तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। सारी सृष्टि उपवन की भांति महक रही है,जहां चिर वसन्त है। हम भी मनोमालिन्य मिटाकर, प्रेम भाव से एक नए युग का सूत्रपात करें, जहां सम्बन्धों की गरिमा व अहमियत हो…स्व-पर व राग-द्वेष की भावनाओं के स्थान पर हम अलौकिक प्रेम व अनहद नाद की मस्ती में खो जाएं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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