प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
( ई- अभिव्यक्ति का यह एक अभिनव प्रयास है। इस श्रंखला के माध्यम से हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकारों को सादर चरण स्पर्श है जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं एवं हमें हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। इस पीढ़ी के साहित्यकारों को डिजिटल माध्यम में ससम्मान आपसे साझा करने के लिए ई- अभिव्यक्ति कटिबद्ध है एवं यह हमारा कर्तव्य भी है। इस प्रयास में हमने कुछ समय पूर्व आचार्य भगवत दुबे जी एवं डॉ राजकुमार ‘सुमित्र’ जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलेख आपके लिए प्रस्तुत किया था जिसे आप निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं : –
- हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆ – हेमन्त बावनकर
- हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆ – डॉ.भावना शुक्ल
इस यज्ञ में आपका सहयोग अपेक्षित हैं। आपसे अनुरोध है कि कृपया आपके शहर के वरिष्ठतम साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को अवगत कराने में हमारी सहायता करें। हम यह स्तम्भ विगत रविवार से प्रारम्भ कर रहे हैं। हमारा प्रयास रहेगा कि आपको प्रत्येक रविवार एक ऐसे ही ख्यातिलब्ध साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से आपको परिचित करा सकें।
☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆
(आज ससम्मान प्रस्तुत है मेरे गुरुवर एवं संस्थापक प्राचार्य केंद्रीय विद्यालय-1, जबलपुर प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विमर्श उनके सुपुत्र श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी की कलम से। मैं श्री विवेक जी का हार्दिक आभारी हूँ जो उन्होंने मेरे इस आग्रह को स्वीकार किया। श्री विवेक रंजन जी को साहित्य की विभिन्न विधाएँ विरासत में मिली हैं, जिन्हें उन्होंने अपनी अभियांत्रिकीय शिक्षा एवं कार्य के साथ निरंतर संजो कर रखा है। वे ही नहीं हम भी उनके पिताश्री को .. एक सफल पिता, शिक्षाविद, राष्ट्रीय भावधारा के निर्झर कवि, संस्कृत ग्रंथो के हिन्दी काव्य अनुवादक, अर्थशास्त्री और सहज इंसान के रूप में अपना आदर्श मानते हैं। उनकी जीवन यात्रा एवं कृतियों/उपलब्धियों की जानकारी आप इस लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं >>>> प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध ‘)
(प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी के सुपुत्र श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ )
मेरे पिता उम्र के दशवें दशक में हैं, परमात्मा की कृपा, उनका स्वयं का नियमित रहन सहन, खान पान, व्यायाम, लेखन, नियमित टहलना, पठन, स्वाध्याय, संयम का ही परिणाम है कि वे आज भी निरंतर सक्रिय जीवन व्यतीत कर रहे हैं. जब तक माँ का साथ रहा, पिताजी के समय पर भोजन, फल, दूध की जम्मेदारी वे लिये रहीं, माँ के हृदयाघात से दुखद आकस्मिक निधन के बाद मेरी पत्नी ने बहू से बेटी बनकर ये सारी जिम्मेदारियां उठा ली. समय पर दवा के लिये ३ डिबियां बना दी गई हैं, जिनमें नियम से दवाई निकाल कर रख दी जाती हैं, जिन्हें याद दिलाकर पिताजी को खिलाना होता है. पिताजी की दिनचर्या इतनी नियमित है कि मैं कहीं भी रहूं समय देखकर बता सकता हूं कि वे इस वक्त क्या कर रहे होंगे.
मैं उन्हें एक सिद्धांतो के पक्के, अपनी धुन में रमें हुये सहज सरल व्यक्ति के रूप में ही पहचानता हूं. वे एक सफल पिता हैं, क्योकि उन्होने माँ के संग मिलकर हमें, मुझे व मेरी ३ बहनो को तत्कालीन औसत सामाजिक स्थितियों से बेहतर शिक्षा दी, हम सबको जीवन में सही दिशा उचित संस्कार देकर सुव्यवस्थित किया. उनके स्वयं के सदा भूख से एक रोटी कम खाने की आदत, भौतिकता की दौड़ के समय में भी संतोष की वृत्ति के कारण ही वे आज हमारे बच्चो तक को निर्देशित करने की स्थिति में हैं. वे स्वयं के लिए जरूरत से ज्यादा मितव्ययी हैं, पर हम लोगों को जब तब लाखो के चैक काटकर दे देते हैं । कागज व्यर्थ करना उन्हें पसंद नही आता हर टुकड़े पर लिखते हैं।
मण्डला में गौड़ राजाओ के दीवानी कार्यो हेतु मूलतः मुगलसराय के पास सिकंदरसराय से मण्डला आये हुये कायस्थ परिवार में मेरे पिता प्रो.चित्र भूषण श्रीवास्तव “विदग्ध” का जन्म २३मार्च १९२७ को स्व श्री सी एल श्रीवास्तव व माता श्रीमती सरस्वती देवी के घर हुआ था. पिताजी उनके भाईयो में सबसे बड़े हैं. मण्डला में हमारा घर महलात कहलाता है, जिसका निर्माण व शैली किले के साथ की है, घर नर्मदा तट से कोई २०० मीटर पर पर्याप्त उंचाई पर है. बड़ा सा आहाता है, इतना बड़ा कि वर्ष १९२६ में जब नर्मदा जी में अब तक की सबसे बड़ी बाढ़ आई थी तब वहां हजारो लोगो की जान बची थी. घर पर इस कार्य के लिये तत्कालीन अंग्रेज प्रशासको का दिया हुआ प्रशस्ति पत्र भी है. पिताजी बताते हैं कि जब वे बच्चे थे तो स्टीम एंजिन से चलने वाली बस से जबलपुर आवाजाही होती थी. नर्मदा जी के उस पार महाराजपुर में मण्डला फोर्ट नेरो गेज रेल्वे स्टेशन टर्मिनस था.जो नैनपुर जंकशन को मण्डला से जोड़ती है. अब नेरो गेज बंद हो चुकी है, ब्राड गेज लाईन डाली जा चुकी है. यह सब लिखने का आशय मात्र इतना कि पिताजी ने विकास के बड़े लम्बे आयाम देखे हैं, कहां आज वे मेरे बच्चो के साथ दुबई, श्रीलंका, आदि हवाई विदेश यात्रायें कर रहे हैं और कहां उन्होने लालटेन की रोशनी में पढ़ा,पढ़ाया है. स्वतंत्रता के आंदोलन में छात्र जीवन में सहभागिता की है. मण्डला के अमर शहीद उदय चंद जैन उनकी ही डेस्क पर बैठने वाले उनके सहपाठी थे. मेरे दादा जी कांग्रेस के एक्टिव कार्यकर्ता थे, छोटी छोटी देशभक्ति के गीतो की पुस्तिकायें वे युवाओ में वितरित करते थे, प्रसंगवश लिखना चाहता हूं कि आजादी के इन तरानो का संग्रह हमने जिला संग्रहालय मण्डला में भेंट किया है, जो वहां सुरक्षित है. पिताजी के आदर्श ऐसे, कि जब १९७० के आस पास स्वतंत्रता संग्राम सेनानियो की सूची बनी और ताम्र पट्टिकायें, पेंशन वगैरह वगैरह लाभ बटें तो न तो पिताजी ने स्वयं का और न ही हमारे दादा जी का नाम पंजीकृत करवाया.
पिताजी ने शालेय शिक्षा मण्डला के ही सरकारी स्कूल में प्राप्त की. एम.ए. हिन्दी, एम.ए.अर्थशास्त्र, साहित्य रत्न, एम.एड.की उपाधियां प्राप्त की.वे चाहते तो रेवेन्यू सर्विसेज में जा सकते थे, किन्तु जैसा वे चाहते थे,उन्होंने शिक्षण को ही अपनी नौकरी के रूप में चुना . वे केंद्रीय विद्यालय क्रमांक १ जबलपुर के संस्थापक प्राचार्य रहे. शिक्षा विभाग में दीर्घ कालीन सेवाये देते हुये प्रांतीय शासकीय शिक्षण महाविद्यालय जबलपुर से प्राध्यापक के रूप में सेवानिवृत हुये हैं. उस पुराने जमाने में उनका विवाह लखनऊ में हुआ. इतनी दूर शादी, मण्डला जैसे पिछड़े क्षेत्र में सहज बात नही थी. माँ, पढ़ी लिखी थीं. फिर मां ने नौकरी भी की, मैं समझ सकता हूं यह तो मुहल्ले के लिये अजूबा ही रहा होगा. मम्मी पापा ने साथ मिलकर पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की. नौकरी में तत्कालीन सी पी एण्ड बरार के अमरावती, खामगांव आदी स्थानो पर निकले, मुझे लगता है उनका यह संघर्ष आज मेरे बच्चों के दुबई, न्यूयार्क और हांगकांग जाने से बड़ा था.
(ट्रू मीडिया द्वारा प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ पर केंद्रित विशेषांक का आवरण पृष्ठ )
१९४८ में सरस्वती पत्रिका में पिताजी की पहली रचना प्रकाशित हुई. निरंतर पत्र पत्रिकाओ में कविताये, लेख, छपते रहे हैं.आकाशवाणी व दूरदर्शन से अनेक प्रसारण होते रहे हैं. दूरदर्शन भोपाल ने एक व्यक्तित्व ऐसा नाम से उन पर फ़िल्म बनाई है । ट्रू मीडिया ने उन पर केंद्रित विशेषांक प्रकाशित किया है । ईशाराधन, वतन को नमन,अनुगुंजन,नैतिक कथाये,आदर्श भाषण कला,कर्म भूमि के लिये बलिदान,जनसेवा, अंधा और लंगड़ा, मुक्तक संग्रह,अंतर्ध्वनि, समाजोपयोगी उत्पादक कार्य, शिक्षण में नवाचार मानस के मोती, अनुभूति, रघुवंश हिंदी भावानुवाद, भगवत गीता हिंदी काव्य अनुवाद, मेघदूतम, हाल ही प्रकाशित शब्दधारा आदि साहित्यिक व शैक्षिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. संस्कृत तथा मराठी से हिन्दी भावानुवाद के क्षेत्र में आपने उल्लेखनीय कार्य किया है. संस्कृत न जानने वाली युवा पीढ़ी के लिये भगवत गीता का हिन्दी पद्यानुवाद, महा कवि कालिदास के अमर ग्रंथो मेघदूतम् का हिन्दी पद्यानुवाद तथा रघुवंशम् पद्यानुवाद एवं मराठी से हिन्दी अनुवादित प्रतिभा साधन प्रमुख अनुवादित पुस्तकें हैं. समसामयिक घटनाओ पर वे नियमित काव्य विधा में अपनी अभिव्यक्ति करते रहते हैं. उन्हें दूरदर्शन देखना ही भरोसेमंद लगता है. उनके कमरे से आस्था व उस जैसे चैनलो की आवाजें ही हमें सुनने मिलती हैं. अखबार बहुत ध्यान से देर तक दोपहर में पढ़ा करते हैं. उनके सिराहने किताबो, पत्रिकाओ का ढ़ेर लगा रहता है. रात में भी कभी जब उनकी नींद खुल जाती है, पढ़ना उनका शगल है. मेरी पत्नी कभी कभी मुझसे कहा करती है कि यदि पापा जी जितना पढ़ते हैं उतना कोई बच्चा पढ़ ले तो कई बार आई ए एस पास हो जाये . वे व्यवहार में इतने सदाशयी हैं कि आदर पूर्वक बुला लिया तो आयोजन में समय से पहुंच जायेंगे, साहित्य ही नही किसी भी जोड़ तोड़ से हमेशा से बहुत दूर रहते हैं. जबलपुर आने के बाद से उम्र के चलते व हमारे रोकने से अब वे स्वयं तो बागवानी नही करते किंतु पेड़ पौधो में उनकी बड़ी रुचि है. उनकी बागवानी के शौक को मेरी पत्नी क्रियान्वयन करती दिखती है ।मण्डला में वे नियमित एक घण्टे प्रतिदिन सुबह घर पर बगीचे में काम करते, व इसे अपना व्यायाम कहते. युवावस्था में वे हाकी, बालीबाल, खेला करते थे, उनके माथे पर हाकी स्टिक से लगा गहरा कट का निशान आज भी है. वे अपने परिवेश में सदैव साहित्यिक वातावरण सृजित करते रहे, जिस भी संस्थान में रहे वहां शैक्षणिक पत्रिका प्रकाशन, साहित्यिक आयोजन करवाते रहे. उन्होने संस्कृत के व हिन्दी के प्रचार प्रसार के लिये राष्ट्र भाषा प्रचार समिति वर्धा, तथा बुल्ढ़ाना संस्कृत साहित्य मण्डल के साथ बहुत कार्य किये. अनेक पुस्तकालयो में लाखो की किताबें वे दान दे चुके हैं. प्रधानमंत्री सहायता कोष, उदयपुर के नारायण सेवा, तारांशु व अन्य संसथानो में घर के किसी सदस्य की किसी उपलब्धि, जन्मदिन आदि मौको पर नियमित चुपचाप दान राशि भेजने में उन्हें अच्छा लगता है. वे आडम्बर से दूर सरस्वती के मौन साधक हैं. मुझे लगता है कि वे गीता को जी रहे हैं.
संप्रति..
प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध
बंगला नम्बर ए १
विद्युत मंडल कालोनी, रामपुर, जबलपुर म.प्र.
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