हिंदी साहित्य – आलेख ☆ ऐतिहासिक धरोहर – मां विंध्यवासिनी देवी धाम… ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

डॉ.वंदना पाण्डेय

परिचय 

शिक्षा – एम.एस.सी. होम साइंस, पी- एच.डी.

पद : प्राचार्य,सी.पी.गर्ल्स (चंचलबाई महिला) कॉलेज, जबलपुर, म. प्र. 

विशेष – 

  • 39 वर्ष का शैक्षणिक अनुभव। *अनेक महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल में सदस्य ।
  • लगभग 62 राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में शोध-पत्रों का प्रस्तुतीकरण।
  • इंडियन साइंस कांग्रेस मैसूर सन 2016 में प्रस्तुत शोध-पत्र को सम्मानित किया गया।
  • अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान शोध केंद्र इटली में 1999 में शोध से संबंधित मार्गदर्शन प्राप्त किया। 
  • अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘एनकरेज’ ‘अलास्का’ अमेरिका 2010 में प्रस्तुत शोध पत्र अत्यंत सराहा गया।
  • एन.एस.एस.में लगभग 12 वर्षों तक प्रमुख के रूप में कार्य किया।
  • इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अनेक वर्षों तक काउंसलर ।
  • आकाशवाणी से चिंतन एवं वार्ताओं का प्रसारण।
  • लगभग 110 से अधिक आलेख, संस्मरण एवं कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।

 प्रकाशित पुस्तकें- 1.दृष्टिकोण (सम्पादन) 2 माँ फिट तो बच्चे हिट 3.संचार ज्ञान (पाठ्य पुस्तक-स्नातक स्तर)

☆ आलेख ☆ ऐतिहासिक धरोहर – मां विंध्यवासिनी देवी धाम☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

 

ऐतिहासिक धरोहर – मां विंध्यवासिनी देवी धाम 

जहां मनोकामनाएं होती हैं पूरी

ग्राम ‘पिपरहटा’ जिला ‘कटनी’ मध्यप्रदेश का ‘मां विंध्यवासिनी देवी धाम’ कटनी से 14 एवं जबलपुर से मात्र 112 कि.मी. दूर स्थित है। यहाँ पहुंचने का मार्ग पक्का, सीधा और सुगम है। मां ‘विंध्यवासिनी देवी धाम’ इन दिनों बड़ी चर्चा में है। बड़े भूखंड में निर्मित इस मंदिर में ध्यान-पूजन, अर्चन करने हेतु पर्याप्त स्थान है। धर्म, विज्ञान आस्था, आध्यात्म, सौहार्द की नींव पर खड़ा यह मां विंध्यवासिनी देवी धाम लोगों की अपार श्रद्धा और आकर्षण का केंद्र है। ग्राम वासियों के अनुसार मां विंध्यवासिनी की कृपा से भक्तों को जीवन में अनेक चमत्कारिक शुभ संकेत भी दिखाई देते हैं। प्रतिदिन भोर से पहले ही शंख, घण्टों-घण्टियों, मंत्रोच्चर से यहां का संपूर्ण परिसर उल्लास के साथ-साथ सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण हो जाता है। गोधूलि बेला में दीप प्रज्वलन, आरती भजन लोगों को आनंदित करते हैं। विंध्यवासिनी धाम में ग्रामीण महिलाओं द्वारा निरंतर श्रद्धापूर्ण भजन कीर्तन का आयोजन होता रहता है। मंदिर के कारण श्रद्धा और आध्यात्म के साथ साथ क्षेत्र में सद्भाव एवं सद्गुणों का संचार भी हो रहा है। यहां संपूर्ण नवरात्र के साथ-साथ दुर्गानवमीं, रामनवमीं पर विशेष पूजन-अर्चन, यज्ञ-हवन का आयोजन होता है। लोग अपनी आस्था-विश्वास और उम्मीद को लेकर मां के दरबार में आते हैं और आशीर्वाद से झोली भर कर जाते हैं। भक्ति संगीत की स्वर-लहरियां क्लांत मन को शान्ति प्रदान करती हैं।

मां विंध्यवासिनी के संबंध में अनेक कथाएं प्रचलित हैं। श्रीमद्भागवत पुराण में उल्लेख मिलता है कि असुरों का नाश करने हेतु पराशक्ति देवी योगमाया ने मां यशोदा के गर्भ से गोकुल में नंद बाबा के घर कन्या रूप में जन्म लिया था। इसी समय मथुरा के कारागार में मथुरा नरेश कंस की बहन देवकी ने भी आठवें पुत्र के रूप में कृष्ण को जन्म दिया, जिसे पिता वासुदेव ने घनघोर बरसात वाली काली रात में मां यशोदा के पास सुरक्षित पहुंचा दिया तथा उनकी पुत्री योगमाया को अपने साथ ले आए। प्रातः जब कंस को देवकी की आठवीं संतान की सूचना प्राप्त हुई तो उसे कन्या जन्म पर आश्चर्य हुआ क्योंकि देवकी के आठवें पुत्र से कंस के वध की देववाणी हुई थी। जब कंस ने इस कन्या को पत्थर पर पटक कर मारना चाहा तो वह उसके हाथ से छूटकर दिव्य रूप में भविष्यवाणी करते हुए आकाश में समाहित हो गई कि उसका वध करने वाला पृथ्वी पर आ चुका है। कथा के अनुसार जब देवताओं ने योगमाया से पुनः देवलोक चलने का आग्रह किया तो उन्होंने असुरों का नाश करने पृथ्वी पर विंध्याचल पर्वत में रहने की इच्छा प्रकट की और यहीं वास करने लगीं चूँकि उन्होंने विंध्य पर्वत को अपना निवास बनाया था अतः उन्हें विंध्यवासिनी के नाम से जाना जाने लगा।

शिव पुराण के अनुसार माँ विंध्यवासिनी को सती का रूप माना गया है। कहा जाता है कि जिन-जिन स्थानों पर सती के शरीर के अंश गिरे वहां-वहां शक्ति पीठ स्थापित हुए, किंतु विंध्याचल के इस पर्वत में सती अपने पूर्ण रूप में विद्यमान है। इसीलिए इस स्थान की विशेष महत्ता है। मां विंध्यवासिनी को वनदुर्गा के नाम से भी जाना जाता है संभवतः विंध्य पर्वत के घने जंगल में रहने कारण उन्हें वनदुर्गा कहा जाने लगा। स्थानीय लोगों के अनुसार इनका बिंदुवासिनी नाम भी प्रचलित है। विद्वानों के अनुसार बिंदु का तात्पर्य उस बिंदु से है जिससे ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई है। सृष्टि के आरंभ से ही विंध्यवासिनी देवी की पूजा होती रही है। सृष्टि का विस्तार उनके शुभाशीष का परिणाम है अतः उन्हें सृष्टि की कुलदेवी के रूप में मान्यता प्राप्त है। माना जाता है कि सृष्टि के इस क्षेत्र का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं हो सकता। ब्रह्मा, विष्णु, महेश स्वयं मां विंध्यवासिनी को मातृ तुल्य मानते हैं। एक कथा के अनुसार यह वही स्थान है जहां मां भगवती की कृपा से विष्णुजी को सुदर्शन चक्र प्राप्त हुआ था।

मां विंध्यवासिनी का प्रमुख मंदिर उत्तर प्रदेश में गंगा नदी के किनारे मिर्जापुर से 8 किलोमीटर दूर विंध्याचल में स्थित है। ईश्वर की असीम अनुकम्पा है कि अब मां विंध्यवासिनी के भव्य एवं दिव्य दर्शन हमें मध्यप्रदेश के कटनी के निकट ग्राम पिपरहटा स्थित मंदिर में सहजता से हो रहे हैं।

आईए चलें दर्शन करने ग्राम

‘पिपरहटा’ के मां विंध्यवासिनी धाम 🙏

© डॉ. वंदना पाण्डेय 

चंचल बाई पटेल महिला महाविद्यालय, जबलपुर

संपर्क : 1132 /3 पचपेड़ी साउथ सिविल लाइंस, जबलपुर, म. प्र. मोबाइल नंबर :  883 964 2006 ई -मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 498 ⇒ अपने अपने दायरे ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अपने अपने दायरे।)

?अभी अभी # 498 ⇒ अपने अपने दायरे ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

“A man is born free, but everywhere in chains”…

मनुष्य पैदा तो स्वतंत्र होता है, लेकिन हर जगह संबंधों के बंधनों से जकड़ा रहता है।

 – दार्शनिक रूसो

वैसे तो संबंध शब्द से ही बंध का बोध भी होता है। हर व्यक्ति अपने आप में एक इकाई है और उसके अपने अपने दायरे हैं।

यही दायरा उसका अपना संसार है। बच्चा पैदा होता है और कुछ ही समय में बच्चों की दुनिया में चला जाता है। यह उसकी अपनी दुनिया है, आप बड़े हैं, आपकी दुनिया अलग है। आप अब बच्चे नहीं बन सकते।

बस इसी तरह बचपन से लेकर बुढ़ापे तक हम अपने-अपने दायरे यानी अपने-अपने संसार में जीते रहते हैं। आप अपने दायरे का कितना भी विस्तार करें उसकी अपनी कुछ सीमाएं हैं। कहने को पूरी दुनिया आपकी है, आपका ही देश प्रदेश है, लेकिन दुनिया के इसी देश प्रदेश में आपका गांव शहर है जिसमें आपका भी एक अपना घर है। आपका अपना परिवार है, आपके सगे संबंधी, नाते रिश्तेदार और यार दोस्त भी हैं। दुनिया चल रही है और आप भी इसी दुनिया में अपना अलग संसार चला रहे हैं। बस यही आपका दायरा है।।

एक दूसरे से जुड़ना अपने दायरे को विस्तृत करना है। कुछ रिश्ते आपको जकड़ लेते हैं और कुछ रिश्तो को आप नहीं छोड़ पाते। कहने को प्रेम का रिश्ता सबसे बड़ा होता है, शायद इसीलिए कहा गया है सबसे ऊंची प्रेम सगाई। क्या प्रेम में सिर्फ सगाई ही होती है, शादी नहीं होती। और अगर किसी ने प्यार में धोखा खाया तो कितनी जल्दी वह कह उठता है ;

ये दुनिया, ये महफिल

मेरे काम की नहीं,

मेरे काम की नहीं…..

इधर प्रेम सगाई टूटी, और उधर पूरी दुनिया ही तितर बितर हो गई ;

साथी न कोई मंज़िल

दिया है न कोई महफ़िल चला मुझे लेके ऐ दिल, अकेला कहाँ…

हम सब जीवन में एक बार उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच जाते हैं जब हमारे दायरे सिमटने लगते हैं हमारी दुनिया छोटी होने लगती है हम एकाएक, अकेले पड़ने लगते हैं। इस अकेलेपन का एहसास आपको अपनी दुनिया के दायरे में रहते हुए भी हो सकता है।

ऐसा क्यों होता है कि अक्सर एक उम्र के बाद हर इंसान अपने दायरे में ही सिमटकर रह जाता है।

सिर्फ अपने बच्चे और अपना परिवार। एकाएक बच्चे विदेश क्या चले गए, मानो दुनिया ही चली गई। हम दो हमारे दो से अब केवल हम दो ही रह गए और उधर हमारे दो, दो से चार हो गए, और हम कहते रह गए ;

दुनिया बदल गई

मेरी दुनिया बदल गई।

टुकड़े हुए जिगर के

छुरी दिल पे चल गई। ।

अगर आपके दायरे में संगीत है, कला है, किताबें हैं, साहित्य है, सतगुरु का सत्संग है, स्वाध्याय है, तो आपकी दुनिया कभी अकेली नहीं हो सकती। आपने अपना दायरा अब इतना विस्तृत कर लिया है, जहां सुख चैन है, संतोष है और सिर्फ प्रेम नहीं दिव्य प्रेम है। इस अवस्था में कोई गिला, शिकवा, शिकायत नहीं, तुम्हारी भी जय जय, हमारी भी जय जय। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पुस्तक ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – पुस्तक ? ?

तैलाद्रक्षेत् जलाद्रक्षेत् रक्षेत् शिथिलबंधनात।

मूर्खहस्ते न दातव्यमेवं वदति पुस्तकम्।।

पुस्तक की गुहार है, ‘तेल से मेरी रक्षा करो, जल से मेरी रक्षा करो, मेरे बंधन (बाइंडिंग)  शिथिल मत होने दो। मुझे मूर्ख के हाथ मत पड़ने दो।’

संदेश स्पष्ट है, पुस्तक संरक्षण के योग्य है।  पुस्तक को बाँचना, गुनना, चिंतन करना, चैतन्य उत्पन्न करता है। यही कारण है कि हमारे पूर्वज पुस्तकों को लेकर सदा जागरूक रहे। नालंदा विश्वविद्यालय का पुस्तकालय इसका अनुपम उदाहरण रहा। पुस्तकों को जाग्रत देवता में बदलने के लिए  पूर्वजों ने ग्रंथों के पारायण की परंपरा आरंभ की। कालांतर में पराधीनता के चलते समुदाय में हीनभावना घर करती गई। यही कारण है कि पठनीयता के संकट पर चर्चा करते हुए आधुनिक समाज धार्मिक पुस्तकों का पारायण करने वाले पाठक को गौण कर देता है। कहा जाता है, जब पग-पग पर  होटलें हों किंतु ढूँढ़े से भी पुस्तकालय न मिले तो पेट फैलने लगता है और मस्तिष्क सिकुड़ने लगता है। वस्तुस्थिति यह है कि  भारत के घर-घर में धार्मिक पुस्तकों का पारायण करने वाले जनसामान्य ने  इस कहावत को धरातल पर उतरने नहीं दिया।

पुस्तकों के महत्व पर भाष्य करते हुए अमेरिकी इतिहासकार बारबरा तुचमैन ने लिखा,’पुस्तकों के बिना इतिहास मौन है, साहित्य गूंगा है,  विज्ञान अपंग है,  विचार स्थिर है।’ बारबारा ने पुस्तक को  समय के समुद्र में खड़ा दीपस्तम्भ भी कहा। समय साक्षी है कि  पुस्तकरूपी  दीपस्तंभ ने जाने कितने सामान्य जनो को महापुरुषों में बदल दिया। सफ़दर हाशमी के शब्दों में,

किताबें कुछ कहना चाहती हैं,

किताबें तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।

पुस्तकों के संग्रह में रुचि जगाएँ, पुस्तकों के अध्ययन का स्वभाव बनाएँ।

 © संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 3 अक्टूबर 2024 से नवरात्रि साधना आरम्भ हो गई है 💥

🕉️ इस साधना के लिए मंत्र इस प्रकार है-

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

देवीमंत्र की कम से कम एक माला हर साधक करें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 497 ⇒ शास्त्रीय भाषा ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “शास्त्रीय भाषा।)

?अभी अभी # 497 ⇒ शास्त्रीय भाषा ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

Classical language

मुझे जितना शास्त्रीय संगीत का शौक है उतना ही क्लासिकल लिटरेचर का भी। हमारी पुरानी फिल्में भी क्लासिक होती थी और उनके गीत भी।

मुझे संस्कृत नहीं आती फिर भी हमारे अधिकांश ग्रंथ संस्कृत भाषा में ही है। संस्कृत शास्त्र की भाषा है, फिर भले ही वह भगवद्गीता हो अथवा भागवत पुराण। महाकवि कालिदास तक ने अपनी सभी रचनाएं संस्कृत में ही लिखी हैं। संस्कृत तो वैसे ही देवों की भाषा है, अन्य कई भाषाओं की जननी है।

हाल ही में भारत सरकार ने फैसला किया है कि असमिया, बंगाली, मराठी, पाली और प्राकृत को शास्त्रीय भाषाओं का दर्जा दिया जाएगा। वैसे क्लासिक का अर्थ ही उत्कृष्ट होता है। क्लास, क्लासिक और क्लासिकल को आप हिंदी में शास्त्र, शास्त्रोक्त और शास्त्रीय भी कह सकते हैं। वैसे अंग्रेजी के शब्द क्लास का अर्थ श्रेणी अथवा कक्षा भी होता है।

ट्रेन के स्लीपर बर्थ की भी तीन क्लास होती है, अपर, मिडिल और लोअर। हम आप भी तो किसी क्लास अर्थात् श्रेणी में आते हैं, उच्च, मध्यम अथवा निम्न। ।

इसी तरह क्लासिकल को हम शास्त्रीय, प्राचीन, चिर प्रतिष्ठित, उत्कृष्ट, उच्च कोटि का, मनमोहक, श्रेष्ठ, और पारंपरिक भी कह सकते हैं। सभी भारतीय भाषाओं का सम्मान राष्ट्र का सम्मान ही तो है। हाल ही में घोषित पांच शास्त्रीय भाषाएं देश में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषाएं हैं। कितने बंगाली और मराठी उपन्यासों का अनुवाद हमने हिंदी में पढ़ा है। एक समय में तो हमारी पूरी फिल्म इंडस्ट्री बंगाली और मराठी कलाकारों से ही सुशोभित हो रही थी।

फिल्म संगीत के क्षेत्र में लता, आशा, सुमन ही नहीं, सहगल, मन्ना डे, किशोर कुमार, भप्पी लाहिड़ी और आज की श्रेया घोषाल भी शामिल हैं। कौन भूल सकता है सत्यजीत रे, मृणाल सेन और ऋषिकेश मुखर्जी के योगदान को। असम के एक अकेले संगीतकार भूपेन हजारिका जैसे भारत रत्न, पूरे देश का गौरव हैं।

शास्त्रीय संगीत की तो पूछिए ही मत। भातखंडे, पलुस्कर से लगाकर पंडित भीमसेन जोशी और कुमार गंधर्व पर ही जाकर यह सूची रुकने वाली नहीं। जरा गंगूबाई हंगल और किशोरी अमोणकर को सुनकर तो देखिए। ।

देवों की इस भूमि पर जितनी भी प्रांतीय भाषाए हैं, उनकी अपनी संस्कृति है, अपनी विरासत है। सभी भाषाएं शास्त्रीय ही हैं, सिर्फ आवश्यकता है उनके प्रचार प्रसार की और उन्हें से देश की मुख्य धारा से जोड़ने की।

पांच राज्यों की जिन भाषाओं को हाल ही में शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिया गया है, यह तो एक तरह की शुरुआत ही है, सभी भारतीय भाषाओं को आपस में जोड़ने की।

हम केवल अपनी मातृभाषा का ही सम्मान नहीं करें, देश की हर भाषा हमें आपस में जोड़ती है, हर भारतीय भाषा शास्त्रीय भाषा है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 496 ⇒ स्त्री और इस्त्री… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्त्री और इस्त्री…।)

?अभी अभी # 496 ⇒ स्त्री और इस्त्री… ? श्री प्रदीप शर्मा ?

जो लोग स्कूल को इस्कूल और स्मृति को इस्मृति कहते हैं, उनके लिए स्त्री और इस्त्री में कोई अंतर नहीं। वैसे देखा जाए तो स्त्री हाड़ मांस की होती है और उसमें जान होती है, जबकि एक इस्त्री लोहे की होती है और बेजान होती है। लोहे की इस्त्री की दो प्रकार की होती है, एक कोयले से जलने वाली और दूसरी बिजली से चलने वाली। जब कि एक स्त्री के तो चलने के लिए हाथ पांव तो होते ही हैं, लेकिन उसकी जबान भी बहुत चलती है।

जोत से जोत की तरह, एक इस्त्री, दूसरी इस्त्री से नहीं जलती, इस्त्री को तो जलाना पड़ता है, जब कि एक स्त्री दूसरी स्त्री को देखते ही जलने लगती है। इस्त्री से कपड़ों पर प्रेस की जाती है, जबकि स्त्री अपने आपको इंप्रेस करने के लिए आकर्षक कपड़े पहनती है।।

मेरे घर में स्त्री भी है और इस्त्री भी, लेकिन हम घर पर प्रेस नहीं करते। बरसों से एक धोबी आता था, जो रोज के पहनने के कपड़े कपड़ों और घर मोटी मोटी चादरों को ले जाता था। पहले कपड़े भट्टी में धोए जाते थे, फिर सुखाकर उन पर इस्तरी की जाती थी।

अधिक महंगी साड़ियां और पुरुषों के सूट लॉन्ड्री में दिए जाते थे, जहां उनकी पेट्रोल से धुलाई होती थी।

जब तक घर बड़ा था, घर में छोटे बड़े भाई बहन थे, कपड़े घर पर ही मोगरी से कूटे जाते थे, धोकर सुखाए जाते थे, और कपड़ों पर प्रेस भी घर पर ही होती थी। केवल आवश्यक कपड़े ही धोबी के यहां जाते थे।।

आज घर घर में वाशिंग मशीन है और वह भी सेमी ऑटोमेटिक और ऑटोमेटिक। सूती कपड़ों का स्थान अब टेरीकॉट ने ले लिया है। छोटे परिवार सुखी परिवार के सभी सदस्य कामकाज में व्यस्त रहते हैं, कुछ घरों में नियमित धोबी आता है, और कपड़े इस्त्री करवाने ले जाता है। चार चार आने से बढ़कर अब एक कपड़े की इस्त्री भी कम से कम पांच छ: रुपए की पड़ने लगी है। फिर भी आम आदमी आज भी इस्त्री वाले कपड़े पहनना ही पसंद करता है।

बाजार में रेडीमेड कपड़ों की बहार है, धोबी और दर्जी सब भूखे मर रहे हैं। जब से पहनने के कपड़ों में जींस का प्रवेश हुआ है क्या युवा और क्या युवती, घर-घर जींस का फैशन हो गया है। हमारे यहां जींस को सिर्फ धोया जाता है उस पर इस्त्री नहीं की जाती। विदेशों में इसे यूज एण्ड थ्रो वाला पहनावा माना जाता है।।

जब से फटी जींस का फैशन शुरू हुआ है, सिलाई, धुलाई और इस्त्री सबको अलविदा कह दिया गया है। कुछ संस्कारी घरों में आज भी स्त्री और इस्त्री दोनों की उतनी ही जरूरत है और उन्हें उतना ही सम्मान भी मिलता है।

मेरे घर में आज भी इस्त्री से अधिक उपयोगी मेरी स्त्री ही है। घर में जींस वाली कोई पीढ़ी नहीं। वह मेरे धुले कपड़े करीने से तह करके बिस्तरों के नीचे दबा देती है। इस तरह उन पर बिना इस्त्री किए ही प्रेस हो जाती है।।

एक हैप्पिली रिटायर्ड इंसान को और क्या चाहिए। वानप्रस्थ की उम्र भी गुजर रही है, अब तो तन से नहीं, केवल मन से सन्यास लेने का समय शुरू हो रहा है। सादा जीवन, संतुष्ट जीवन, बस विचार हमारे अभी इतनी ऊंचाईयों पर नहीं पहुंचे। साधारण लोग, साधारण पसंद।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 104 – देश-परदेश – सी सी टीवी कैमरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 104 ☆ देश-परदेश – सी सी टीवी कैमरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

दो दशक से अधिक समय हो गया, सीसी टीवी कैमरा को हमारे देश में पदार्पण किए हुए। वर्ष दो हज़ार में अजमेर शाखा में पदस्थापना के समय बैंक की शाखा में एक फ्रॉड में करीब सात लाख का नगद भुगतान हो गया था। शाखा प्रबंधक ने पास के एक हलवाई की दुकान पर लगे हुए सीसी टीवी कैमरे का मुआयना कर आने के लिए हमें कहा था।

हलवाई की रसोई दुकान के ऊपर थी जहां कर्मचारी मिठाई आदि बनाते थे, नीचे बिक्री होती थी, जहां मालिक बैठ कर गल्ला संभालने के साथ रसोई में लगे कैमरे से नज़र रखता था। हम रसोई में भी गए, और कर्मचारियों से बात की, वो परेशान से लगे, बोले पहले हम दिन के अनेक बार दूध पी जाते थे, एक दो मुट्ठी मेवें भी डकार जाते थे, अब सीसी टीवी से ये सब बंद हो गया है।

आजकल घर के अलावा गलियों, बाजारों आदि में भी कैमरे लग चुके हैं। कुछ दिन पूर्व एक मित्र के घर जाना हुआ, उनके घर के बाहर अलीगढ़ी ताला देख, यू टर्न लेकर घर आ गए। दूसरे दिन मित्र का फोन आया, तो बोला, बता कर आना चाहिए था। उसने हमें कैमरे में देख लिया था।

वो अपने कैमरे की तारीफ़ में कसीदे पढ़ कर उस पर खर्च की गई राशि से अपनी रईसी प्रमाणित करने के लिए प्रयासरत था। हमने उससे पूछा क्या तुम्हारे कैमरे में कभी चलती हुई चीटियां दिखती हैं क्या ? वो बोला नहीं कुत्ते बिल्ली अवश्य दिख जाते हैं।

उसने जिज्ञासा से पूछा ये चीटियां दिखने का क्या उपयोग होता होगा ? हमने उससे कहा, कि हमारे कैमरे में पड़ोस के घर में जाती हुई चींटियां भी दिखती है, इसका मतलब पड़ोसी के यहां कुछ ताजा ताजा मीठा बन रहा है। बाज़ार की दुकानों में से तो जिंदा कीड़े निकलते हैं, इसलिए लोग घर में निर्मित ताज़ा मीठा ही खाना पसंद करते हैं।

विगत माह एक बहुत बड़े आदमी के यहां विवाह में जाना हुआ, स्टेज पर भीड़ को देखते हुए बिना लिफाफा दिए हुए, भोजन ग्रहण कर वापिस आ गए। कुछ दिन पूर्व विवाह परिवार से एक व्यक्ति मिला, और नाराज़ होकर बोला, आप विवाह में पधारे नहीं, हमने स्वास्थ्य का हवाला देकर, किनारा काट लिया। बात आई गई हो गई। एक दिन विवाह वाले घर से उनके मुनीम का फोन आया, और कहने लगा, जब आप विवाह में आए थे, तो फिर मना क्यों किया। हमने कैमरे में आपको वापिस जाते हुए देखा है, और लिफाफा भी आपकी कमीज की ऊपरी जेब में स्पष्ट दिख रहा है। हमें तो “काटों तो खून नहीं”।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 495 ⇒ ॥ इमेज ॥ ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “इमेज ।)

?अभी अभी # 495 ⇒ ॥ इमेज ॥ ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आप इसे छवि कहें, तस्वीर कहें, इज्जत कहें, रुतबा कहें, रेपुटेशन कहें, चरित्र कहें, जो कहना चाहते हैं कहें, इससे आपकी इमेज अच्छी ही होगी। केवल जिनको अपनी इज्जत की चिंता नहीं, बाल बच्चों का खयाल नहीं, खानदान की फ़िक्र नहीं, ऐसे लोगों की बात छोड़िए।

हर इंसान चाहता है, वह कैसा भी हो, उसकी इमेज उससे भी अच्छी हो। इसलिए कई बार उसको नकली चेहरा सामने लाना पड़ता है, और अपनी असली सूरत को छुपानी पड़ती है लेकिन साहिर साहब उनके बारे में तपाक से लिख मारते हैं ;

क्या मिलिए, ऐसे लोगों से

जिनकी फितरत छुपी रहे।

नकली चेहरा सामने आए

असली सूरत छुपी रहे।।

कुछ लोग यह भांप भी लेते हैं, और तारीफ़ की आड़ में कह भी देते हैं, जो बात तुझ में है, तस्वीर में नहीं, तो कहीं इसका विपरीत भी नजर आता है। सोशल मीडिया हो या सामाजिक प्लेटफॉर्म, जो छवि हमारी प्रस्तुत की जाती है, हम क्या वाकई वैसे ही होते हैं। अपना एक अच्छा सा फोटो भिजवा देना। कम से कम फोटो तो ढंग का हो इंसान का।

फेसबुक पर पिछले कई वर्षों से मेरा एक ही फोटो चल रहा है। कुछ लोग फेसबुक और व्हाट्स एप पर अपनी तस्वीर के बजाय किसी भगवान की तस्वीर लगा देते हैं अथवा परिवार के किसी अन्य प्रिय सदस्य की। बिना चेहरे के किसी को जानने की कोई रीत हो, तो कोई हमें भी बताए।।

कुछ लोगों के चेहरे हमें मुग्ध कर देते हैं तो कुछ के चेहरे उन्हें ही आत्म मुग्ध किया करते हैं। अच्छा चेहरा तारीफ का मोहताज नहीं होता। लेकिन अपनी तारीफ किसे अच्छी नहीं लगती। बहुत कम सुंदर चेहरे ऐसे होते हैं, जिनकी तारीफ करो, और वे बुरा मान जाएं। हां, ऐसे कई चेहरे ज़रूर हैं, जिनकी तारीफ ना की जाए, तो वे बुरा मान जाते हैं।

मैं अपनी इमेज के बारे में बहुत सजग हूं। कॉलेज का एक वाकया है। मेरे एक मित्र के साथ कॉलेज के फ्री पीरियड में टहल रहे थे। इतने में अनिता नाम की एक लड़की सामने से निकली। मेरे दोस्त ने उसे सुनाते हुए मुझसे पूछा, क्यों तुमने अनिता फिल्म देखी है। इसमें क्या गलत था, मुझे नहीं मालूम। लेकिन मैं यह सोचता रह गया, यह लड़की मेरे बारे में क्या सोचेगी। मैं कैसे लोगों के साथ उठता बैठता हूं। जब कि वास्तविकता यह थी कि वह लड़की मुझे जानती तक नहीं थी। मनोविज्ञान में इसे अपराध बोध कहते हैं। और मेरे दोस्त ने जो लड़की पर कमेंट किया वह क्या था, मैं समझ नहीं पाया। लेकिन वह शायद eve teasing की शुरुआत हो।।

जो समाज में अपनी अच्छी छवि बनाना चाहते हैं, उन्हें दिखावा करना पड़ता है। दया, धर्म, दान, पुण्य और चैरिटी के अलावा भी कई तरीके हैं अच्छा दिखाई देने के। कुछ लोग जैसे हैं, वैसे ही रहते हैं। उनके व्यवहार में कृत्रिमता की जगह सहजता होती है। जो बात उन्हें पसंद नहीं आती, मुंह पर बोल देते हैं। ऐसे लोग स्पष्टवादी कहलाते हैं।

सच्चे झूठे की पहचान चेहरे से कहां हो पाती है। इसीलिए कहा भी गया है ;

दिल को देखो, चेहरा न देखो,

चेहरे ने लाखों को लूटा

दिल सच्चा और चेहरा झूठा।

हर सूरत के पीछे एक सीरत भी है। सु अच्छा को कहते हैं, शायद इसीलिए हमें किसी की सूरत अच्छी लगती है। जो छुपा हुआ है, उसको देखना, सीरत है। चेहरे के अलावा, दिल के अलावा विचार भी एक कसौटी होती है, इंसान को परखने की। सूरत अगर प्रदर्शन है तो विचार दर्शन। एक बार विचार मेल खा गए, तो फिर मन का मैल भी साफ हो जाता है।

लोग अपनी बुराई छुपाए रखते हैं, अच्छाई का प्रदर्शन किया करते हैं। काश हम अपनी अच्छाई छुपाएं और बुराई को बाहर आने दें। क्यों न हम जीवन में अच्छाई का स्वागत करें और बुराई को बाहर का रास्ता दिखाएं। जैसे हैं, वैसे दिखें। और जैसा दिखना चाहते हैं, वैसे ही बनें।।

हम कितनी भी अपनी अक्ल लगा लें, मेज और इमेज के चक्कर में पड़े रहें, किसी की शक्ल ही ऐसी होती है कि दिल कह उठता है ;

कुछ ऐसी प्यारी शक्ल

मेरी दिलरुबा की है।

जो देखता है कहता है

कुदरत खुदा की है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 260 – सार्थक ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 260 सार्थक… ?

जीवन मानो एक दौड़ है। जिस किसी से पूछो, कहता है; वह दौड़ना चाहता है, आगे बढ़ना चाहता है। फिर बताता है कि अब तक जीवन में कितना आगे बढ़ चुका है। अलबत्ता कभी विचार किया कि आगे यानी किस ओर बढ़ रहे हैं? मनुष्य प्रतिप्रश्न दागता है कि यह कैसा निरर्थक विचार है? स्वाभाविक है कि जीवन की ओर बढ़ रहे हैं। सच तो यह है कि प्रश्न तो सार्थक ही था पर मनुष्य का उत्तर नादानी भरा है। जीवन की ओर नहीं बल्कि मनुष्य मृत्यु की ओर बढ़ रहा होता है। 

भयभीत या अशांत होने के बजाय शांत भाव से तार्किक विचार अवश्य करना चाहिए। मनुष्य चाहे न चाहे, कदम बढ़ाए, न बढ़ाए, पहुँचेगा तो मृत्यु के पास ही। मनुष्य के वश में यदि पीछे लौटना होता तो वह बार-बार लौटता, अनेक बार लौटता, मृत्यु तक जाता ही नहीं, फिर लौट आता, चिरंजीवी होने का प्रयास करता रहता।

स्मरण रखना, मृत्यु का कोई एक गंतव्य नहीं है,  बल्कि यात्रा का हर चरण मृत्यु का स्थान हो सकता है, मृत्यु का अधिष्ठान हो सकता है। विधाता जानता है मनुष्य की वृत्ति, यही कारण है कि कितना ही कर ले जीव, पीछे लौट ही नहीं सकता। जिज्ञासा पूछती है कि लौट नहीं सकते तो विकल्प क्या है? विकल्प है, यात्रा को सार्थक करना।

सार्थक जीने का कोई समय विशेष नहीं होता। मनुष्य जब अपने अस्तित्व के प्रति चैतन्य होता है, फिर वह अवस्था का कोई भी पड़ाव हो, उसी समय से जीवन सार्थक होने लगता है।

एक बात और, यदि जीवन में कभी भी, किसी भी पड़ाव पर मृत्यु आ सकती है तो किसी भी पड़ाव पर जीवन आरंभ क्यों नहीं हो सकता? इसीलिए कहा है,

कदम उठे, 

यात्रा बनी,

साँसें खर्च हुईं

अनुभव संचित हुआ,

कुछ दिया, कुछ पाया

अर्द्धचक्र पूर्ण हुआ,

भूमिकाएँ बदलीं-

शेष साँसों को

पाथेय कर सको 

तो संचय सार्थक है

अन्यथा

श्वासोच्छवास व्यर्थ है..!

ध्यान रहे, जीवन में वर्ष तो हरेक जोड़ता है पर वर्षों में जीवन बिरला ही फूँकता है। आपका बिरलापन प्रस्फुटन के लिए प्रतीक्षारत है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 3 अक्टूबर 2024 से नवरात्रि साधना आरम्भ हो गई है 💥

🕉️ इस साधना के लिए मंत्र इस प्रकार है-

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

देवीमंत्र की कम से कम एक माला हर साधक करें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ मैं अकेला रहता हूं, पर अकेलेपन में नहीं – प्रो एम पी गुप्ता ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है श्री अजीत सिंह जी द्वारा प्रस्तुत एक अनुभव पर आधारित आलेख मैं अकेला रहता हूं, पर अकेलेपन में नहीं – प्रो एम पी गुप्ता…’।)

☆ आलेख – मैं अकेला रहता हूं, पर अकेलेपन में नहीं – प्रो एम पी गुप्ता ☆  श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

(हिसार में वरिष्ठ नागरिकों की हमारी संस्था वानप्रस्थ के सदस्य प्रो एम पी गुप्ता जी का 89वां जन्मदिन है। वे अकेले ही रहते हैं पर उनकी दिनचर्या सभी वरिष्ठ नागरिकों के लिए एक प्रेरणा जैसी है।)

☆ गूगल बन रहा है बुढ़ापे का दोस्त – अजीत सिंह ☆

छोटे होते परिवारों और रोज़गार के लिए दूर शहरों और विदेशों में जाने की नई पीढ़ी की मजबूरी के कारण अक्सर देखने में आता है कि माता-पिता बुढ़ापे में  अकेले ही रह जाते हैं। स्थिति उस समय और भी विकट ही जाती है जब पति-पत्नी में से कोई एक चल बसे।

हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय हिसार के पूर्व प्रोफेसर 87 वर्षीय डॉ एम पी गुप्ता 12 साल पहले पत्नी के स्वर्गवास होने के बाद  घर में अकेले रहते हैं लेकिन अकेलापन महसूस नहीं करते। उन्होंने इसका एक ढंग निकाल लिया है। वे रोजाना 4 घंटे घर में रखे कंप्यूटर  पर काम करते हैं। वे ब्रॉडबैंड सुविधा के साथ यह समय इंटरनेट पर अपनी मनमर्जी की जानकारी ढूंढने और उसे पढ़ने में लगाते हैं।

” मैं फेसबुक, वॉट्सएप जैसे सोशल मीडिया साइट पर अपना समय बर्बाद नहीं करता। वहां लोग ऊट-पटांग संदेश भेजकर अपना रौब जमाना चाहते हैं। अक्सर तो फॉरवर्ड किए गए संदेशों की भरमार रहती है। यह सब कुल मिलाकर बहुत बोरिंग होता है।

प्रो गुप्ता का कहना है कि गूगल का मामला अलग है हालांकि ये सभी इंटरनेट या ब्रॉडबैंड पर आधारित हैं।

“गूगल आपको आपकी मर्ज़ी की सूचना खोजने और आनंदित होने की सुविधा देता है। में चाहूं तो नोबेल पुरस्कारों के बारे उनके घोषित होते ही विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकता हूं। या फिर मेरी हॉबी फोटोग्राफी के बारे सब कुछ जान सकता हूं। चाहूं तो अपनी पसंद के पुराने पंजाबी गाने सुन सकता हूं और गीतों के  बोल भी प्राप्त कर सकता हूं”।

डॉ गुप्ता ने बताया कि उन्होंने अपने पैतृक कस्बे जगराओं और वहां की मशहूर हस्ती लाला लाजपतराय के बारे में रोचक जानकारी हाल ही में गूगल से ही प्राप्त की।

“मुझे यह जानकर खुशी मिली कि लाला लाजपतराय जगराओं से हिसार आए थे वकालत के लिए और मैं जगराओं से हिसार आया था नौकरी के लिए और यहीं का होकर रह गया।

“समाचार माध्यमों से या फिर मित्रों से बातचीत में अक्सर कुछ सवालों के जवाब पूरे नहीं मिल पाते। गूगल पर जाकर मैं उनके जवाब ढूंढ लेता हूं। ऐसा करने पर मुझे एक तरह की संतुष्टि और आनंद मिलता है। मुझे ऐसा भी लगता है कि काश यह सुविधा उस वक़्त उपलब्ध होती जब मैं यूनिवर्सिटी में पढ़ाता था। उस समय जानकारी इकट्ठा करने के लिए लाइब्रेरियों के चक्कर लगाने पढ़ते थे। कई हफ्ते लग जाते थे। अब वही काम एक दो घंटे या फिर एक दो दिन में हो जाता है।

पहले पुस्तक ढूंढ़ना, फिर जानकारी ढूंढ़ना और फिर हाथ से नोट लिखना या संबंधित पृष्ठों की फोटो कॉपी लेना, यह सब काफी लंबी व ऊबाऊ प्रक्रिया थी। आज तो गूगल पर जानकारी सर्च करना है और फिर उसका कॉपी-पेस्ट लेना है। सीधा प्रिंट ले लो या पेन ड्राइव में डाल लो।

डॉ गुप्ता कहते हैं कि वरिष्ठ नागरिकों को कंप्यूटर व स्मार्टफोन की टेक्नोलॉजी अवश्य सीखनी चाहिए। यह बहुत ही आसान है। गूगल का भरपूर उपयोग करना चाहिए मगर फेसबुक और वॉट्सएप की लत नहीं डालनी चाहिए।

गूगल आपका अकेलापन दूर कर देगा। आप बुढ़ापे का आनंद ले सकेंगे, अपनी शर्तों पर, मन चाहे ढंग से।

डॉ गुप्ता की राय है कि बच्चों को भी वॉट्सएप और फेसबुक की बजाय गूगल के उपयोग की तरफ मोड़ना चाहिए। इसमें अध्यापकों व अभिभावकों की अहम भूमिका होगी।

“जिसकी हमें ज़रूरत है , हम वही जानकारी लेंगे। किसी की हम पर थोंपी जा रही जानकारी क्यों लें?”

“बुढ़ापे में अकेलापन बहुत से लोगों को परेशान करता है। इसे दूर करने के लिए टेक्नोलॉजी की मदद ली जा सकती है। समाचारपत्र, रेडियो, टेलीविजन ये सभी एकतरफा संवाद करते हैं। अपनी सुनाते हैं, हमारी नहीं सुनते। हमारा सारा समय भी खा जाते हैं। गूगल आज्ञाकारी पुत्र है। जब कहोगे, तभी हाज़िर होगा, जो मांगोगे वही ला कर देगा। आजकल मैं गूगल की मदद से अंगदान, देहदान के बारे में जानकारी इकट्ठा कर रहा हूं”।

डॉ एम पी गुप्ता 1996 में प्रोफेसर के पद से रिटायर हुए थे। बेटा सेना में कर्नल है और दो बेटियां जयपुर और दिल्ली में अच्छी तरह अपनी अपनी घर गृहस्थी चला रही हैं।  बातचीत होती रहती है, मिलना जुलना समय समय पर ही हो पाता है, पर यह कोई समस्या नहीं है।

” मैं अकेला रहता हूं, पर अकेलेपन में नहीं। कुछ साथी मिलते रहते हैं, और सबसे बढ़िया दोस्त गूगल है जो हरदम मेरे साथ ही रहता है”।

डॉ गुप्ता की  ज़िन्दगी यूं तो सही ढंग से चली पर  2009 में पत्नी को ब्रेन कैंसर हुआ तो कष्ट भी उठाना पड़ा। 2012 में उनका स्वर्गवास हुआ और तबसे डॉ गुप्ता अकेले ही रहते हैं।

“बुढ़ापे की सही काट यह है कि आदमी अपनी पसंद के किसी रचनात्मक शौक को अपना ले। किसी चीज़ से इश्क करले; पेंटिंग, बागबानी, ज्ञानवर्धन, गायन, लेखन,शेरो-शायरी, किसी से भी।  दोस्तों की मंडली भी ज़रूरी है। यह मानसिक सेहत के लिए अति आवश्यक है। खुशी एक मानसिक अवस्था मात्र है। ज़िन्दगी में न ऊंचे पहाड़ हैं न गहरी घाटी। बस छोटे मोटे उतार चढ़ाव हैं”।

डॉ गुप्ता बुधवार व शुक्रवार को वरिष्ठ नागरिकों की संस्था वानप्रस्थ की बैठकों में नियमित रूप से जाते हैं। सेक्टर-15 में उनके कई पुराने मित्र रहते हैं जिनके साथ वे सुबह शाम की सैर भी करते हैं और गपशप भी।

“गपशप बहुत ज़रूरी है, हंसना हंसाना ज़रूरी है और मिलना जुलना बहुत ज़रूरी है।

उम्र की परवाह न करें। मस्त रहें।

स्व. अटल बिहारी बाजपेयी जी  की कविता याद रखें,

‘उम्र का हरेक दौर मज़ेदार है

अपनी उम्र का मज़ा लीजिये।

ज़िंदा दिल रहिए जनाब,

ये चेहरे पे उदासी कैसी,

वक्त तो बीत ही रहा है,

उम्र की ऐसी की तैसी…!

☆ ☆ ☆ 

© श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन हिसार।

मो : 9466647037

(लेखक श्री अजीत सिंह हिसार से स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे 2006 में दूरदर्शन केंद्र हिसार के समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए।)

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 494 ⇒ ॥ दीवार॥ ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हमारे पास भी भेजा है ।)

?अभी अभी # 494 ⇒ ॥ दीवार॥ ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

THE WALL

यहां हम अमिताभ बच्चन अभिनीत, और सलीम जावेद के संवाद वाली फिल्म दीवार का जिक्र नहीं कर रहे। हम उस दीवार का जिक्र कर रहे हैं जो दो घरों के बीच, दो दिलों के बीच, और दो मुल्कों के बीच खड़ी हो जाती है। बंटवारे की त्रासदी तो हमने सुनी है, लेकिन देखी नहीं, क्योंकि हमारा जन्म आजादी के बाद ही हुआ है। एक दीवार घर बनाती है और एक दीवार घर का बंटवारा करवाती है। एक दीवार पैसे की भी होती है। मुकेश का यह गीत शायद आपने सुना हो ;

चाँदी की दीवार न तोड़ी, प्यार भरा दिल तोड़ दिया

इक धनवान की बेटी ने, निर्धन का दामन छोड़ दिया

दुनिया की सबसे बड़ी दीवार चीन की है। यह अलग बात है कि इसी चीन ने हाल ही में कोरोनावायरस फैलाकर इंसान और इंसान के बीच भी दीवार खड़ी कर दी थी। कभी हमारे घरों की भी दीवारें मोटी होती थी आजकल तो 4 इंच की दीवारों से ही काम चल जाता है। पुराने किलों की दीवारें देखिये, वे इतनी चौड़ी और मोटी होती थी कि उनके ऊपर से हाथी गुजर जाते थे।।

पैतृक संपत्ति में आजकल अपना हिस्सा कोई नहीं छोड़ता। गांव में संयुक्त परिवार की जमीन जायदाद होती थी परिवार के सभी सदस्य एक साथ रहते थे। कुछ मकानों में तो सिर्फ देखरेख और रखरखाव के लिए ही किसी रिश्तेदार अथवा जरूरतमंद परिवार को बिना किराए के ही रख लिया जाता था। सदियां गुजर जाती थी और मकान पर जिसका कब्जा था उसका ही हो जाता था।

वक्त करवट लेता है, परिवारों में प्रेम और सम्मान का स्थान स्वार्थ और लालच ले लेता है। परिवार के सदस्यों और रिश्तेदारों की तो छोड़िए, आज के समय में तो पुराने किराएदार भी मकान खाली नहीं करते। जब मुआवजे से भी बात नहीं बनती तो कानूनी कार्रवाई करनी पड़ती है।।

अगर कोई व्यक्ति सीधा-साधा और कमजोर हुआ तो जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला सिद्धांत लागू हो जाता है। अतिक्रमण और अवैध कब्जा आजकल आम बात है। आज भी गांवों में अधिकतर विवाद जर जोरू और जमीन को लेकर ही होते हैं। शहरों में तो बहू के आते ही बंटवारे शुरू हो जाते हैं घरों में दीवार खड़ी हो जाती है।

कानून आपको कर्तव्य नहीं सिखाता केवल अधिकार की लड़ाई लड़ना ही सिखाता है। व्यक्ति में प्रेम और त्याग की जगह जब स्वार्थ और लालच जन्म ले लेता है, तब इंसान और इंसान के बीच नफरत की दीवार खड़ी हो जाती है। इधर रिश्ते में दरार आई और उधर दीवार खड़ी हुई। देखिए, जगजीत सिंह की यह खूबसूरत ग़ज़ल, जिसमें दर्द भी है और उम्मीदभी ;

रिश्तों में दरार आई

बेटे ना रहे बेटे,

भाई ना रहे भाई

रिश्तों में दरार आई

परखा है लहू अपना,

भरता है ज़माने को

तूफ़ान में कोई भी,

आया ना बचाने को

साहिल पे नज़र आए, कितने ही तमाशाई

रिश्तों में दरार आई

ढूँढे से नहीं मिलता,

राहत का जहाँ कोई

टूटे हुए ख़्वाबों को,

ले जाए कहाँ कोई

हर मोड़ पे होती है, एहसास की रूसवाई

रिश्तों में दरार आई

ज़ख़्मों से खिली कलियाँ, अश्क़ों से खिली शबनम

पतझड़ के दरीचे से,

आया है नया मौसम

रातों की स्याही से,

ली सुबहो ने अंगड़ाई

रिश्तों में दरार आई

ख़ामोश नज़र दिल का क्या राज़ छिपाएगी

टूटेगा अगर शीशा आवाज़ तो आएगी

अब अपना मुकद्दर है,

ये दर्द ये तन्हाई

रिश्तों में दरार आई

मुश्किल हैं अगर राहें, इतनी भी नहीं मुश्किल

ख़्वाबों पे यकीं हो तो,

कैसे न मिले मंज़िल

वो देख तेरी मंज़िल

बाहों में सिमट आई

रिश्तों में दरार आई।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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