हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – मानस प्रश्नोत्तरी – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – मानस प्रश्नोत्तरी ☆

*प्रश्न:* चिंतित हूँ कि कुछ नया उपज नहीं रहा।

*उत्तर:* साधना के लिए अपनी सारी ऊर्जा को बीजरूप में केन्द्रित करना होता है। केन्द्र को धरती के गर्भ में प्रवेश करना होता है। अँधेरा सहना होता है। बाहर उजाला देने के लिए भीतर प्रज्ज्वलित होना होता है। तब जाकर प्रस्फुटित होती है अपने विखंडन और नई सृष्टि के गठन की प्रक्रिया।…हम बीज होना नहीं चाहते, हम अँधेरा सहना नहीं चाहते, खाद-पानी जुटाने का श्रम करना नहीं चाहते, हम केवल हरा होना चाहते हैं।…अपना सुख-चैन तजे बिना पूरी नहीं होती हरा होने और हरा बने रहने की प्रक्रिया।

…स्मरण रहे, यों ही नहीं होता सृजन!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – विजयादशमी विशेष – ☆ विजयादशमी – एक तथ्यात्मक विवेचना ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। आज प्रस्तुत है उनका आलेख  “विजयादशमी  – एक तथ्यात्मक विवेचना”।  यह आलेख उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक  का एक महत्वपूर्ण  अंश है। इस आलेख में आप  नवरात्रि के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं ।  आप पाएंगे  कि  कई जानकारियां ऐसी भी हैं जिनसे हम अनभिज्ञ हैं।  श्री आशीष कुमार जी ने धार्मिक एवं वैज्ञानिक रूप से शोध कर इस आलेख एवं पुस्तक की रचना की है तथा हमारे पाठको से  जानकारी साझा  जिसके लिए हम उनके ह्रदय से आभारी हैं। )

 

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“विजयादशमी  – एक तथ्यात्मक विवेचना”।

 

रावण के लिए यह आखिरी रात्रि बहुत परेशानी भरी थी। वह सीधे भगवान शिव के मंदिर गया, जहाँ रावण को छोड़कर किसी को भी अंदर जाने की अनुमति नहीं थी। उसने शिव ताण्डव स्तोत्र से शिव की प्रार्थना करनी शुरू कर दी। भगवान शिव रावण के सामने प्रकट हुए और कहा, “रावण, तुमने मुझे क्यों याद किया?”

रावण ने उत्तर दिया, “हे महादेव! मैं आपको प्रणाम करता हूँ, मुझे लगता है कि आप अपने सबसे बड़े भक्त को भूल गए हैं। मैं वही रावण हूँ जिसने आपके चरणों में अपने कई सिर समर्पित किए हैं। आप जानते हैं कि कुछ वानरों के साथ राम ने लंका पर आक्रमण किया है और मेरे सबसे बड़े बेटे इंद्रजीत सहित लंका के लगभग सभी महान योद्धाओं को मार डाला है, और ऐसा लगता है कि आप भी उनकी सहायता कर रहे हैं। हे भगवान! अब लंका में केवल रावण ही जीवित बचा है जो युद्ध लड़ सके। मैं कल के युद्ध में आपसे लंका की ओर से लड़ने का अनुरोध करता हूँ”

भगवान शिव मुस्कुराये और कहा, “रावण आप जानते हैं कि मैं उच्च और निम्न के बीच पक्षपात नहीं करता हूँ, और मैंने आपको और मेघनाथ को सभी संभव अस्त्र, शस्त्र और शक्तियों दी थी, जो तीनोंलोकों में किसी के भी पास नहीं है। मैंने आपको यह भी चेतावनी दी कि किसी भी परिस्थिति में दूसरों के नुकसान पहुंचाने के लिए उनका उपयोग नहीं करेंगे, लेकिन आपने मेरे शब्दों पर ध्यान नहीं दिया । आप और आपके बेटे ने प्रकृति के सभी नियमों को अपनी इच्छा और हवस पूर्ति की लिए बार बार तोड़ा आप लोगों ने बार-बार अपराध किया है। आपने ‘रत’, पृथ्वी के वैश्विक कानून को अस्तव्यस्त किया है, इसलिए विनाश की देवी-निऋती आपसे बहुत प्रसन्न है । लेकिन निऋती का अर्थ विनाश है। तो वह आपको और आपके राज्य को नष्ट किए बिना कैसे छोड़ सकती है? तो भगवान विष्णु ने आपको अन्य देवताओं और देवियों के सहयोग से दंडित करने का निर्णय किया है । अब तुम्हारा समय आ गया है। कोई भी जो पाँच तत्वों के इस शरीर में आता है उसे एक दिन जाना ही होगा और कल आपका दिन है इस पंच तत्वों से निर्मित देह को त्यागने का। ओह ताकतवर रावण, क्या आप मृत्यु से भयभीत हो?”

निऋती मृत्यु के छिपे हुए इलाकों और दुःखों की हिंदू देवी है, एक दिक्पाल (दिशाओं के अभिभावक) जो, दक्षिण पश्चिम दिशा का प्रतिनिधित्व करती है। निऋती का अर्थ है रत की अनुपस्थिति,  रत अर्थात अधिभौतिक, आधिदैविक, आधियात्मिक  नियम जिनका पालन करने से ही सृष्टि चल रही है और यदि कोई इन नियमों या ब्रम्हांडीय चक्रों को तोड़ दे तो संसार में प्रलय आ जाता है। तो निऋती ही ब्रम्हांड की अव्यवस्था, विकार, अशांति आदि की देवी हुई । निऋती वैदिक ज्योतिष में एक केतु शासक नक्षत्र है, जो कि माँ काली और माँ धूमावती के रूप में दृढ़ता से जुड़ा हुआ है। ऋग्वेद के कुछ स्त्रोत में निऋती का उल्लेख किया गया है, अधिकांशतः संभावित प्रस्थान के दौरान उनसे सुरक्षा माँगना या उसके लिए निवेदन करना दर्शाया गया है। ऋग्वेद के उस लेख में उनसे बलिदान स्थल से प्रस्थान के लिए निवेदन किया गया है। अथर्व वेद में, उन्हें सुनहरे रूप में वर्णित किया गया है। तैत्तिरीया ब्राह्मण (I.6.1.4) में, निऋती को काले रंग के कपड़े पहने हुए अंधेरे के रूप में वर्णित किया गया है और उनके बलिदान के लिए उन्हें काली भूसी अर्पित की जाती हैं । वह अपने वाहन के रूप में एक बड़े कौवे का उपयोग करती हैं। वह अपने हाथ में एक कृपाण रखती हैं । पुराणिक कथा में निऋती को अलक्ष्मी के नाम से जाना जाता है। जब समुद्र मंथन किया गया था, तब उसमे से एक विष भी प्रकट हुआ था जिसे निऋती के रूप में जाना जाता था। उसके बाद देवी लक्ष्मी, धन की देवी प्रकट हुई। इसलिए निऋती को लक्ष्मी की बड़ी बहन माना जाता है। लक्ष्मी धन की अध्यक्षता करती हैं, और निऋती दुखों की अध्यक्षता करती है, यही कारण है कि उन्हें अलक्ष्मी कहा जाता है । इनके नाम का सही मूल उच्चारण तीन लघु स्वरों के साथ तीन अक्षर है: “नी-रत-ती”; पहला ‘र’ एक व्यंजन है, और दूसरा ‘र’ एक स्वर है ।

रावण ने उत्तर  दिया, “मैं तीनों दुनिया का विजेता हूँ। मुझे मृत्यु का भय नहीं है, लेकिन यह मेरी ज़िंदगी में पहली बार है जब मैं हार देख रहा हूँ, तो ये भय हार का है, मृत्यु की नहीं”

भगवान शिव ने उत्तर दिया, “सब कुछ शाश्वत है, इस दुनिया में कुछ भी नष्ट नहीं हो सकता है, केवल रूप बदलते हैं, आप नहीं जानते कि आप अपने पूर्व जन्मों में क्या थे? अपने आप को यहाँ या वहाँ संलग्न न करें, फिर सब कुछ आपका है । रावण, सब कुछ सापेक्ष है सफलता, हार, यहाँ तक कि आपका अहंकार भी, और जो पूर्ण है वह ब्रह्मांड में प्रकट ही नहीं होता है। तो आप अपनी जीत या हार की तुलना करके पूर्ण नहीं हो सकते हैं। अमरत्व इस ज्ञात संसार में उपस्थित ही नहीं है । जिसकी भी शुरुआत हुई है एक दिन वो खत्म होनी चाहिए। सृजन के पदानुक्रम के भीतर, संगठित परिसरों के चेतना, पदार्थों के रूप उपस्थित हैं, जिनकी अवधि समय की हमारी धारणा के संबंध में बहुत अधिक दिखाई देती है। इनमें से कुछ रूप हैं जिन्हें हम अमर कहते हैं। हमारी इंद्रियों, आत्माओं और देवताओं द्वारा किए गए लोगों की तुलना में अधिक सूक्ष्म संयोजनों के स्तर पर प्रपत्र फिर भी बहुतायत के क्षेत्र में हैं- प्रकृति का ज्ञानक्षेत्र । इस प्रकार देवता भी जन्म और मृत्यु के चक्र से बाहरनहीं होते हैं, हालकि मनुष्य के समय के मानदंडों में उनका जीवन बहुत ही लंबी अवधि का प्रतीत हो सकता है । रावण के रूप में आपकी भूमिका समाप्त हो गई है, लेकिन अगली भूमिका आपके लिए तैयार है। आपने रावण की अपनी भूमिका का आनंद लिया है, अब अगली भूमिका के लिए तैयार रहें, और इस तरह से युद्ध  लड़ें  कि  आपका नाम तब तक लिया जाये जब तक की भगवान राम का”

रावण ने कहा, “महानतम भगवान, मुझे जीवन के रहस्यों को समझने और मेरे हार के भय को दूर करने के लिए धन्यवाद। अब मैं कल अपनी अंतिम लड़ाई करने के लिए पूरी तरह से तैयार हूँ”

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #18 – आम सहमति ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है “आम सहमति ” ।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 18 ☆

 

☆ आम सहमति

 

पिछले अनेक खण्डित चुनाव परिणामो से वर्तमान संवैधानिक प्रावधानो में संशोधन की जरूरत लगती है.  सरकार बनाने के लिये बड़ी पार्टी के मुखिया को नही वरन चुने गये सारे प्रतिनिधियो के द्वारा उनमें आपस में चुने गये मुखिया को बुलाया जाना चाहिये. आखिर हर पार्टी के चुने गये प्रतिनिधि भले ही उनके क्षेत्र के वोटरों के बहुमत से चुने जाते हैं किन्तु हारे हुये प्रतिनिधि को भी तो जनता के ही वोट मिलते हैं, और इस तरह वोट प्रतिशत की दृष्टि से हर पार्टी की सरकार में भागीदारी उचित लगती है.

कोई भी सभ्य समाज नियमों से ही चल सकता है. जनहितकारी नियमों को बनाने और उनके परिपालन को सुनिश्चित करने के लिए शासन की आवश्यकता होती है. राजतंत्र, तानाशाही, धार्मिक सत्ता या लोकतंत्र, नामांकित जनप्रतिनिधियों जैसी विभिन्न शासन प्रणालियों में लोकतंत्र ही सर्वश्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि लोकतंत्र में आम आदमी की सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित होती है एवं उसे भी जन नेतृत्व करने का अधिकार होता है. भारत में हमने लिखित संविधान अपनाया है. शासन तंत्र को विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के उपखंडो में विभाजित कर एक सुदृढ लोकतंत्र की परिकल्पना की है. विधायिका लोकहितकारी नियमों को कानून का रूप देती है. कार्यपालिका उसका अनुपालन कराती है एवं कानून उल्लंघन करने पर न्यायपालिका द्वारा दंड का प्रावधान है. विधायिका के जनप्रतिनिधियों का चुनाव आम नागरिको के सीधे मतदान के द्वारा किया जाता है किंतु हमारे देश में आजादी के बाद के अनुभव के आधार पर, पार्टीवाद तथा चुनावी जीत के बाद संसद एवं विधानसभाओं में पक्ष विपक्ष की राजनीति ही लोकतंत्र की सबसे बडी कमजोरी के रूप में सामने आई है.

सत्तापक्ष कितना भी अच्छा बजट बनाये या कोई अच्छे से अच्छा जनहितकारी कानून बनाये विपक्ष उसका विरोध करता ही है. उसे जनविरोधी निरूपित करने के लिए तर्क कुतर्क करने में जरा भी पीछे नहीं रहता. ऐसा केवल इसलिए हो रहा है क्योंकि वह विपक्ष में है. हमने देखा है कि वही विपक्षी दल जो विरोधी पार्टी के रूप में जिन बातो का सार्वजनिक विरोध करते नहीं थकता था, जब सत्ता में आये तो उन्होनें भी वही सब किया और इस बार पूर्व के सत्ताधारी दलो ने उन्हीं तथ्यों का पुरजोर विरोध किया जिनके कभी वे खुले समर्थन में थे. इसके लिये लच्छेदार शब्दो का मायाजाल फैलाया जाता है. ऐसा बार-बार लगातार हो रहा है. अर्थात हमारे लोकतंत्र में यह धारणा बन चुकी है कि विपक्षी दल को सत्ता पक्ष का विरोध करना ही चाहिये. शायद इसके लिये स्कूलो से ही, वादविवाद प्रतियोगिता की जो अवधारणा बच्चो के मन में अधिरोपित की जाती है वही जिम्मेदार हो. वास्तविकता यह होती है कि कोई भी सत्तारूढ दल सब कुछ सही या सब कुछ गलत नहीं करता . सच्चा लोकतंत्र तो यह होता कि मुद्दे के आधार पर पार्टी निरपेक्ष वोटिंग होती, विषय की गुणवत्ता के आधार पर बहुमत से निर्णय लिया जाता, पर ऐसा होता नही है.

अन्ना हजारे या बाबा रामदेव किसी पार्टी या किसी लोकतांत्रिक संस्था के निर्वाचित जनप्रतिनिधि नहीं है किंतु इन जैसे तटस्थ मनिषियों को जनहित एवं राष्ट्रहित के मुद्दो पर अनशन तथा भूख हडताल जैसे आंदोलन करने पड रहे है एवं समूचा शासनतंत्र तथा गुप्तचर संस्थायें इन आंदोलनों को असफल बनाने में सक्रिय है. यह लोकतंत्र की बहुत बडी विफलता है. इन मनीषियों को तो देश व्यापी जनसमर्थन भी मिल रहा है . मेरा मानना यह है कि आदर्श लोकतंत्र तो यह होता कि मेरे जैसा कोई साधारण एक व्यक्ति भी यदि देशहित का एक सुविचार रखता तो उसे सत्ता एवं विपक्ष का खुला समर्थन मिल सकता.

इन अनुभवो से यह स्पष्ट होता है कि हमारी संवैधानिक व्यवस्था में सुधार की व्यापक संभावना है.  दलगत राजनैतिक धु्व्रीकरण एवं पक्ष विपक्ष से उपर उठकर मुद्दों पर आम सहमति या बहुमत पर आधारित निर्णय ही विधायिका के निर्णय हो ऐसी सत्ताप्रणाली के विकास की जरूरत है. इसके लिए जनशिक्षा को बढावा देना तथा आम आदमी की राजनैतिक उदासीनता को तोडने की आवश्यकता दिखती है. जब ऐसी व्यवस्था लागू होगी तब किसी मुद्दे पर कोई 51 प्रतिशत या अधिक जनप्रतिनिधि एक साथ होगें तथा किसी अन्य मुद्दे पर कोई अन्य दूसरे 51 प्रतिशत से ज्यादा जनप्रतिनिधि, जिनमें से कुछ पिछले मुद्दे पर भले ही विरोधी रहे हो साथ होगें तथा दोनों ही मुद्दे बहुमत के कारण प्रभावी रूप से कानून बनेगें.

क्या हम निहित स्वार्थो से उपर उठकर ऐसी आदर्श व्यवस्था की दिशा में बढ सकते है एवं संविधान में इस तरह के संशोधन कर सकते है. यह खुली बहस का एवं व्यापक जनचर्चा का विषय है जिस पर अखबारो, स्कूल, कालेज, बार एसोसियेशन, व्यापारिक संघ, महिला मोर्चे, मजदूर संगठन आदि विभिन्न विभिन्न मंचो पर खुलकर बाते होने की जरूरत हैं, जिससे इस तरह के जनमत के परिणामो पर पुनर्चुनाव की अपेक्षा मुद्दो पर आधारित रचनात्मक सरकारें बन सकें जिनमें निर्दलीय जन प्रतिनिधियो की कथित खरीद फरोख्त घोड़ो की तरह न हो बल्कि वे मुद्दो पर अपनी सहमति के आधार पर सरकार का सकारात्मक हिस्सा बन सकें.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #15 – मॉं-बाप का साया ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली   कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

(इस आलेख का अंग्रेजी भावानुवाद आज के ही अंक में  ☆  Parent’s shadow ☆ शीर्षक से प्रकाशित किया गया है. इसअतिसुन्दर भावानुवाद के  लिए हम  कॅप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के ह्रदय से आभारी हैं. )  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 15☆

 

☆ मॉं-बाप का साया☆

 

प्रातः भ्रमण के बाद पार्क में कुछ देर व्यायाम करने बैठा। व्यायाम के एक चरण में दृष्टि आकाश की ओर उठाई। जिन पेड़ों के तनों के पास बैठकर व्यायाम करता हूँ, उनकी ऊँचाई देखकर आँखें फटी की फटी रह गईं। लगभग 70 से 80 फीट ऊँचे विशाल पेड़ एवम्‌ उनकी घनी छाया। हल्की-सी ठंड और शांत वातावरण विचार के लिए पोषक बने। सोचा, माता-पिता भी पेड़ की तरह ही होते हैं न! हम उन्हें उतना ही देख पाते हैं जितना पेड़ के तने को। तना प्रायः हमें ठूँठ-सा ही लगता है। अनुभूत होती इस छाया को समझने के लिए आँखें फैलाकर ऊँचे, बहुत ऊँचे देखना होता है। हमें छत्रछाया देने के लिए निरंतर सूरज की ओर बढ़ते और धूप को ललकारते पत्तों का अखण्ड संघर्ष समझना होता है। दुर्भाग्य से जब कभी छाया समाप्त हो जाती है तब हम जान पाते हैं मॉं-बाप का साया माथे पर होने का महत्व!

 

… अनुभव हुआ हम इतने क्षुद्र हैं कि लंबे समय तक गरदन ऊँची रखकर इन पेड़ों को निहार भी नहीं सकते, गरदन दुखने लगती है।

 

….ईश्वर सब पर यह साया और उसकी छाया लम्बे समय तक बनाए रखे।…तने को नमन कर लौट आया घर अपनी माँ के साये में।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 11 – राम जी की सेना चली ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   राम जी की सेना चली।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 11 ☆

 

☆ राम जी की सेना चली 

 

महान वास्तुकार विश्वकर्मा के पुत्र नल, कुछ वानरों को वास्तु (वास्तुकला विज्ञान) के बुनियादी ढांचे और निर्माण के ज्ञान का प्रशिक्षण दे रहे थे। अग्नि के पुत्र नील लड़ाई के लिए हथियारों को आकार दे रहे थे। भगवान राम की सेना में शामिल होने के लिए स्वर्ग से कुबेर के अवतार, गंधमदाम (‘गंध’ का अर्थ खुशबु/बदबू है और ‘मदाम’ का अर्थ है नियंत्रक, इसलिए गंधमदाम का अर्थ है कि वह जो सभी प्रकार की गंधों पर नियंत्रण रखता है) भी आये  थे। उनके पास अपने शरीर की गंध की तीव्रता को नियंत्रित करने की विशेष शक्ति थी।

देवताओं के शिक्षक बृहस्पति के अवतार तार को भी स्वयं बृहस्पति द्वारा भगवान राम की सहायता करने के लिए भेजा गया था।अश्विन कुमार के पुत्र मैन्द (अर्थ : छोटे रास्ते या सड़क) और द्विवेद (अर्थ : दो प्रकार की सच्चाई का ज्ञान), महान चिकित्सक और सर्जन भी युद्ध में घायल होने वाले वानारों की सहायता  के लिए भाग लेने आये ।

अश्विन कुमार आकाश के पुत्र, रात्रि और सूर्य उदय के बीच के समय के देवता, जो सुबह आसमान में सबसे पहले दिखाई देते हैं। सुबह (पुसान) के अग्रदूत, चिकित्सा विज्ञान की पुस्तक अश्विन कुमार संहिता इन्हीं की देन है। इन्हें देवताओं के चिकित्सक भी कहा जाता है।

वरुण के पुत्र सुसेनाह (‘सु’ का अर्थ अच्छा या स्वर्गीय और ‘सेनाह’ का अर्थ है वैद्य या डॉक्टर तो सुसेनाह का अर्थ अच्छा चिकित्सक या स्वर्ग का चिकित्सक है) जो अकेले हजारों सेनाओं के बराबर है, भी भगवान राम के पक्ष में धर्म युद्ध में भाग लेने आये ।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 18 ☆ चलते-फिरते पुतले ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी  का  आलेख  “चलते-फिरते पुतले”.  डॉ  मुक्ता जी ने इस आलेख के माध्यम से  टूटते हुए संयुक्त परिवारों  ही नहीं अपितु  एकल परिवारों में भी होते हुए बिखराव पर विस्तृत चर्चा की है.  उन्होंने  सामाजिक  इकाइयों के बिखराव पर न केवल अपनी राय रखी है अपितु  बच्चों से लेकर बड़े बूढ़ों तक की मनोदशा की भी विस्तृत चर्चा की है . अब आप स्वयं पढ़ कर आत्म मंथन करें  कि – हम इस दिशा में क्या कर सकते हैं?  आदरणीया डॉ मुक्ता जी  का आभार एवं उनकी कलम को इस विषय पर चर्चा की पहल के लिए नमन।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 18 ☆

 

☆ चलते-फिरते पुतले ☆

 

न कुछ सुनते हैं और न कुछ कहते हैं/ मेरे घर में चलते-फिरते पुतले रहते हैं… इन पंक्तियों ने अंतर्मन को झिंझोड़ कर रख दिया। कितनी पीड़ा, कितनी टीस, कितना दर्द भरा होगा हृदय में…और कितनी संजीदगी से मनोव्यथा को बयान कर सुक़ून पाया होगा अनाम कवयित्री ने। वैसे तो आजकल यह घर- घर की कहानी है। हर इंसान यहां एकांत की त्रासदी झेल रहा है। एक छत के नीचे रहते हुए पति-पत्नी में पनप रहा, अजनबीपन का अहसास अक्सर देखा जा रहा है, जिसका सबसे अधिक खामियाज़ा बच्चे व वृद्ध भुगत रहे हैं…जो सबके बीच रहते हुए भी स्वयं को अकेला अनुभव करते हैं। यह जनमानस की पीड़ा है..और है आज के समाज का कटु यथार्थ। संयुक्त परिवार प्रथा टूटने के कग़ार पर है… अंतिम सांसें ले रही है और उसके स्थान पर बखूबी काबिज़ है… एकल परिवार-व्यवस्था। जिन परिवारों में बुज़ुर्ग रहते भी हैं, उनकी मन:स्थिति विचित्र-सी रहती है… जैसे भीड़ में व्यक्ति स्वयं को खोया-खोया अनुभव करता है और अपनी सोच, अपनी कल्पनाओं व अपने भावों-विचारों में गुम रहता है…लाख प्रयत्न करने पर भी वह उस परिवार का हिस्सा नहीं बन पाता।

आश्चर्य होता है कि आजकल तो कामवाली बाईयों को भी परिवार की परिभाषा समझ में आ गई है। वे जानती हैं कि परिवार में तीन या चार प्राणी होते हैं… पति-पत्नी और एक या दो बच्चे। सो! वे आजकल कल संयुक्त परिवार में कार्य करने को तत्पर नहीं होतीं और टका-सा जवाब देकर रुख्सत हो जाती हैं। छोड़िए! इतना ही नहीं, आजकल बच्चे भी इस तथ्य से भली-भांति परिचित हैं कि परिवार रूपी इकाई में दादा-दादी का स्थान नहीं होता। सो! वे सदैव अपने माता-पिता के साथ रहना अधिक पसंद करते हैं और यह स्वाभाविक भी है। घर में बड़े-बुज़ुर्ग तो दिनभर प्रतीक्षारत रहते हैं और अपने आत्मजों तथा नाती- पोतों की एक झलक प्राप्त कर खुद को खुशकिस्मत समझते हैं। कई बार तो महीनों तक संवाद होता ही नहीं। परंतु तीन-चार फुट दूरी से सुबह-शाम पांव छूने का औपचारिक सिलसिला अनवरत जारी रहता है और वे उनपर आशीषों  की वर्षा करते नहीं अघाते।

‘न कुछ सुनते हैं, न कुछ कहते हैं’…यह संवादहीनता की स्थिति ‘कैसे हैं’,’ठीक हूं’ ‘खुश रहो’ तक सिमट कर रह जाती है। अपने-अपने द्वीप में कैद,एक-दूसरे के सुख-दु:ख से बेखबर,पति-पत्नी में भी कहां हो पाता है मधुर संवाद…अक्सर वे संवाद नहीं, विवाद में विश्वास रखते हैं..एक-दूसरे पर अपने मन की भड़ास निकालते हैं और दोषारोपण करना तो मानो उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन जाता है। ऑफिस का दिनभर का गुस्सा, घर में दस्तक देते ही एक-दूसरे पर निकाल कर, वे सुक़ून पाते हैं। बच्चे,जब देर रात अपने माता-पिता को चीखते-चिल्लाते देखते हैं तो वे सोने का उपक्रम करते हैं…कहीं वे ही उनके क्रोध का शिकार न बन जाएं।

दिनभर आया या नैनी के आंचल में पनपते बच्चे, माता-पिता के स्नेह व प्यार-दुलार के अभाव में स्वयं को निरीह, नि:स्सहाय व नितांत अकेला अनुभव करते हैं। मोबाइल, टी•वी• व मीडिया से अत्यधिक जुड़ाव उन्हें अपराध जगत् की ओर प्रवृत्त करता है और उस दलदल से वे चाह कर भी निकल नहीं पाते। शराब व ड्रग्स के नशे में वे औचित्य-अनौचित्य का भेद नहीं कर पाते और बचपन में ही जघन्य- घिनौने अपराधों को अंजाम देकर अपने जीवन को नरक में धकेल देते हैं। बच्चों को इन दुर्दम-भीषण परिस्थितियों में देख कर, माता-पिता हैरान-परेशान से, स्वयं को किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में पाते हैं। और हर संभव प्रयास करने पर भी वे उन्हें लौटा पाने में स्वयं को असहाय-असमर्थ पाते हैं।

वे इन विषम परिस्थितियों में बच्चों को हर पल टूटते हुए देखकर दु:खी रहते हैं तथा सोचते हैं आखिर उनके संस्कारों में कहां कमी रह गई? उनके आत्मज गलत राहों पर क्यों अग्रसर हो गये? उन्होंने सब सीमाओं का अतिक्रमण क्यों कर लिया? विवाह के पवित्र-बंधन को नकार वे सदैव एक-दूसरे को नीचा दिखलाने में क्यों लीन रहे? यहां तक कि वे अपने बच्चों को भी दिशाहीन होने से भी नहीं रोक पाए। वे अपने भाग्य को कोसते हुए स्वयं को दोषी अनुभव करते हैं।

आधुनिक प्रतिस्पर्द्धात्मक युग में अक्सर माता-पिता लिव इन या अलगाव की स्थिति में पहुंच,अपने बच्चों का भविष्य दांव पर लगा यह सोचते हैं कि ‘जो बच्चों के भाग्य में लिखा होगा, उन्हें अवश्य मिल जाएगा।’ उनके भविष्य के लिए ऐसे माहौल में रहकर अपना जीवन नष्ट करना करने की उन्हें कोई उपयोगिता- उपादेयता नज़र नहीं आती। वास्तव में यही है, आज की युवा पीढ़ी के जीवन का कटु सत्य… जिससे उन्हें हर पल जूझना पड़ता है। वे घर में चलते-फिरते पुतलों की मानिंद प्रतीत होते हैं…अहसासों व  जज़्बातों से कोसों दूर, जिनमें न सौहार्दपूर्ण-  पारस्परिक संबंध होते हैं, न ही सरोकार। उनमें संवादहीनता ही नहीं, व्याप्त होती है संवेदनशून्यता, एक-दूसरे के प्रति उपेक्षा भाव, जहां वे अहंनिष्ठता के कारण अपनी-अपनी दुनिया मस्त रहते हुए, इतनी दूरियां बढ़ा लेते हैं, जिन्हें पाटना व जहां से लौट पाना असंभव हो जाता है।

काश! ये चलते-फिरते, कुछ न कहते पुतले आत्म- मुग्धावस्था को त्याग, एक-दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार कर, अपने बच्चों के भविष्य के प्रति चिंतित रहते हुए व अपने माता-पिता के प्रति दायित्व-वहन करते हुए जीवन पथ पर अग्रसर होते… तो ज़िन्दगी बहुत खूबसूरत होती। हर दिन उत्सव होता और घर में संवेदनशून्यता की स्थिति के स्थान पर,एक-दूसरे के प्रति समर्पण भाव होता तथा मन-आंगन में चिर- वसंत रहता। आइए! दिनों के फ़ासलों को मिटा, संकीर्ण मानसिकता को त्याग, समर्पण भाव से जीवन-पथ पर अग्रसर हों, जहां अलौकिक आनंद बरसे, बच्चों के मान-मनोबल से घर-आंगन गूंजता रहे। यही होगी हमारे जीवन की सार्थकता…निकट भविष्य में बच्चों को घर में रहते एकांत की त्रासदी को झेलना न पड़े व माता-पिता को वृद्धाश्रम में अपनी ज़िन्दगी को न ढोना पड़े और उन अपनों के इंतज़ार में उनकी आंखें गंगा-जमुना की भांति बरसती न रहें।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2 ☆ महात्मा गांधी के सपनों का भारत ☆ डॉ भावना शुक्ल

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। आज प्रस्तुत है महात्मा गांधी जी की 150  वीं जयंती पर उनका विशेष आलेख  “महात्मा गांधी के सपनों का भारत ”। 

☆ महात्मा गांधी के सपनों का भारत ☆

 

संत महात्मा आदमी, राजा रंक फकीर।

गांधी जी के रूप में, पाई एक नजीर।।

 

आने वाली पीढ़ियाँ, भले करें संदेह ।

किंतु कभी यह देश था, गांधीजी का गेह ।।

 

पद दलित उत्पीड़ित दक्षिण एशिया के जागरण-जती, मुक्ति मंत्र दाता, मोहनदास करमचंद गांधी यानी महात्मा गांधी, जन-जन के प्यारे बापू, एक सफल, सबल क्रांति दृष्टा और महान स्वप्न दृष्टा थे।

वह ऐसे स्वप्न दृष्टा थे जिन्होंने अहिंसक क्रांति द्वारा आजादी का जो स्वप्न देखा, उसे साकार किया।

आजाद भारत कैसा हो? उनके सपनों में कैसे भारत की तस्वीर थी, यह कोई अबूझा तथ्य नहीं है। गांधीजी का खुली किताब सजीवन, उनके विचार और आचरण, उनके स्वप्निल भारत का चित्र स्पष्ट करते हैं।

गांधीजी बहुदा ‘रामराज’ की चर्चा करते थे। भारत में ‘रामराज’ चाहते थे। ‘रामराज’ से आशय किसी राजा के राज्य से नहीं, किसी संप्रदाय वादी राज्य से नहीं। वे किसी राजतंत्र, अधिनायक वादी राज्य के पक्षधर कतई नहीं थे। वह तो बस “रामराज” की नैतिकता, सत्याचरण, प्रेम, दया, करुणा, संपन्नता, निर्भयता और जनहित से युक्त राज्य और राज्य व्यवस्था की स्थापना चाहते थे।

बापू ने स्वप्न देखा क्योंकि वह संवेदनशील और कल्पनाशील थे। उनकी कल्पना यथार्थ की जमीन से उठकर पुरुषार्थ के आकाश में उड़ान भर्ती थी।

जिन आंखों में स्वत नहीं होते उनमें निराशा का अंधकार अंज जाता है। बापू स्वप्न दृष्टा थे इसलिए उन्होंने क्रांति का स्वप्न देखा और उसे मूर्त रूप दिया। फिर उन्होंने नए भारत का नया स्वप्न देखा। आइए, देखें सोचे विचारे, पहले उनके स्वप्न सागर की।

बापू…”स्वराज्य की मेरी धारणा के बारे में किसी को कोई धर्म ना रहे। वह है बाहरी नियंत्रण से पूर्ण स्वाधीनता और पूर्ण आर्थिक स्वाधीनता। इस प्रकार एक छोर पर है राजनीतिक स्वाधीनता और दूसरे छोर पर है आर्थिक। इसके 2 चोर और भी हैं जिनमें से एक छोर नैतिक व सामाजिक है और उसी का दूसरा छोर है… धर्म… इस शब्द के उत्कृष्टतम अर्थ में। इसमें हिंदुत्व, सलाम, ईसाई मजहब आदि सभी का समावेश है। पर यह उन सबसे ऊंचा है। आप इसे सत्य के नाम से पहचान सकते हैं।”

अपनी ‘रामराज्य’ की धारणा को भी गांधी ने अनेक बार स्पष्ट किया। वे कहा करते थे कि…” राजनीतिक स्वाधीनता से मेरा आशय यह नहीं है कि। हम ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमंस की ही पूरी नकल कर ले, या सोवियत रूस के शासन की, या इटली के फासिस्ट अथवा जर्मनी के नाजी राज की। उनकी शासन पद्धतियाँ उनकी अपनी ही विशेषता के अनुरूप हैं।

बापु ने अपनी धारणा को और स्पष्ट करते हुए कहा था…”हमारी शासन पद्धति हमारी ही विशेषता के अनुरूप होगी पर वह क्या हो, यह बता सजना मेरी सामर्थ के बाहर है। मैंने इसका वर्णन ‘रामराज’ के रूप में किया है अर्थ-अर्थ आम जनता की प्रभुसत्ता, जिसका आधार विशुद्ध रूप से नैतिक ही हो।”

अपने स्वप्निल भारत की स्वप्निल आर्थिक स्वाधीनता के बारे में बापू ने कहा था…”मेरे लिए तो भारतीय आर्थिक स्वाधीनता का अर्थ हर व्यक्ति का आर्थिक उत्थान है… हर पुरुष और स्त्री का और उसके अपने ही जागरूक प्रयत्नों द्वारा… इस पद्धति के अंतर्गत हर पुरुष और स्त्री के लिए पर्याप्त वस्त्र उपलब्ध रहेंगे और पर्याप्त खुराक, जिसमें दूध और मक्खन भी शामिल होंगे, जो आज करोड़ों को नसीब नहीं होते।”

वक्त और खुराक के साथ बापू ने जमीनी अधिकार के बारे में भी सोचा था। वे”सब भूमि गोपाल की” … यानी सब भूमि जनता की मानते थे।

गुलाम भारत के आर्थिक विषमता की स्थितियों से गांधीजी बेहद दुखी और चिंतित रहते थे। उनका विचार था स्वप्न था कि आजाद भारत में, नए भारत में यह स्थितियाँ नहीं रहेंगी।

बापू ने कहा था…”स्वतंत्र भारत में जहाँ कि गरीबों के हाथ में उतनी शक्ति होगी जितनी देश के बड़े से बड़े अमीरों के हाथ में, वैसे विषमता तो 1 दिन के लिए भी कायम नहीं रह सकती जैसे कि नई दिल्ली के महलों और वही नजदीक की उन सड़ी गली झोपड़ियों के बीच पाई जाती है जिनमें मजदूर वर्ग के गरीब लोग रहते हैं।”

बापू ने एक चेतावनी भी दी थी कि यदि आजाद भारत में आर्थिक विषमता की खाई पार्टी नहीं गई, यदि अमीर लोग अपनी संपत्ति और शक्ति का स्वेच्छा पूर्वक ही त्याग नहीं करते और सभी की भलाई के लिए उसमें हिस्सा नहीं बांटते तो “हिंसात्मक और खूनी क्रांति एक दिन होकर ही रहेगी।” ऐसा ना हो इसके लिए हम सभी को एकजुट होना होगा और बापू के सपने को साकार करना होगा।

 

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2☆ गांधी की खादी आज भी प्रासंगिक ☆ श्री विवेक रंजन  श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

श्री विवेक रंजन  श्रीवास्तव ‘विनम्र’

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने अपना अमूल्य समय देकर इस विशेषांक के लिए यह व्यंग्य प्रेषित किया.  आप एक अभियंता के साथ ही  प्रसिद्ध साहित्यकार एवं व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं. आपकी कई पुस्तकें और संकलन प्रकाशित हुए हैं और कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं. )

आलेख – गांधी की खादी आज भी प्रासंगिक ☆ 

 

बांधे गये रक्षा सूत्र के लिये भी  खादी के कच्चे धागे का ही उपयोग करते हैं . महात्मा कबीर ने तो

 

काहे कै ताना काहे कै भरनी,

कौन तार से बीनी चदरिया ॥

सो चादर सुर नर मुनि ओढी,

ओढि कै मैली कीनी चदरिया ॥

दास कबीर जतन करि ओढी,

जस कीं तस धर दीनी चदरिया ॥

पंक्तियां कहकर जीवन जीने की फिलासफी ही खादी की चादर के ताने बाने से समझा दी है. गांधी जी क़ानून के एक छात्र के रूप में इंग्लैंड में टाई सूट पहना करते थे, उन्होने खादी को कैसे और क्यों अपनाया, कैसे वे केवल एक धोती पहनने लगे यह जानना रोचक तो है ही, उनके सत्याग्रह के अद्भुत वैश्विक प्रयोग के मनोविज्ञान को समझने के लिये आवश्यक है कि हम जाने कि उन्होने खादी को अपनी ताकत कैसे और क्यो बना लिया.  1888 के सूट वाले बैरिस्टर गांधी 1921 में मदुरई में केवल धोती में दिखे, इस बीच आखिर ऐसा क्या हुआ कि बैरिस्टर गांधी ने अपना सूट छोड़ खादी की धोती को अपना परिधान बना लिया. दरअसल गांधी जी ने देश में बिहार के चंपारण ज़िले में पहली बार सत्याग्रह का सफल प्रयोग किया था.गांधी जी जब चंपारण पुहंचे तब वो कठियावाड़ी पोशाक में थे.  एक शर्ट, नीचे एक धोती, एक घड़ी, एक सफेद गमछा, चमड़े का जूता और एक टोपी उनकी पोशाक थी.ये सब कपड़े या तो भारतीय मिलों में बने  या फिर हाथ से बुने हुए थे. ये वो समय था जब पश्चिम में कपड़ा बनाने की मशीने चल निकली थीं. औद्योगिक क्रांति का काल था. मशीन से बना कपड़ा महीन होता था कम इसानी मेहनत से बन जाता था अतः तेजी से लोकप्रिय हो रहा था. इन कपड़े की मिलो के लिये बड़ी मात्रा में कपास की जरूरत पड़ती थी. कपड़े की प्रोसेसिंग के लिये बड़ी मात्रा में नील की आवश्यकता भी होती थी. बिहार के चंपारण क्षेत्र की उपजाऊ जमीन  में अंग्रेजो के फरमान से नील और कपास की खेती अनिवार्य कर दी गई थी. उस क्षेत्र के किसानो को उनकी स्वयं की इच्छा के विपरीत केवल नील और कपास ही बोना पड़ता था. एक तरह से वहां के सारे किसान परिवार अंग्रेजो के बंधक बन चुके थे.

जब चंपारण के मोतिहारी स्टेशन पर 15 अप्रैल 1917 को  दोपहर में गांधी जी उतरे तो हज़ारों भूखे, बीमार और कमज़ोर हो चुके किसान गांधी जी को अपना दुख-दर्द सुनाने के लिए इकट्ठा हुए थे.इनमें से बहुत सी औरतें भी थीं जो घूंघट  और पर्दे से गांधी जी को आशा भरी आंखो से देख रही  थीं. स्त्रियो ने उन पर हो रहे जुल्म की कहानी गांधी जी को सुनाई, कि कैसे उन्हें पानी तक लेने से रोका जाता है, उन्हें शौच के लिए एक ख़ास समय ही दिया जाता है. बच्चों को पढ़ाई-लिखाई से दूर रखा जाता है. उन्हें अंग्रेज़ फैक्ट्री मालिकों के नौकरों और मिडवाइफ के तौर पर काम करना होता है. उन लोगों ने गांधी जी को बताया कि इसके बदले उन्हें केवल एक जोड़ी कपड़ा दिया जाता है. उनमें से कुछ को अंग्रेजों के लिए यौन दासी के रूप में उपलब्ध रहना पड़ता है. यह गांधी जी का कड़वे यथार्थ से पहला साक्षात्कार था. गांधी जी ने देखा कि नील फैक्ट्रियों के मालिक निम्न जाति की औरतों और मर्दों को जूते तक नहीं पहनने देते हैं. एक ओर कड़क अंग्रेज हुकूमत थी दूसरी ओर गांधी जी में अपने कष्टो के निवारण की आशा देखती गरीब जनता थी,किसी तरह की गवर्निंग ताकत  विहीन गांधी के पास केवल उनकी शिक्षा थी, संस्कार थे और आकांक्षा लगाये असहाय लोगों का जन समर्थन था .गांधी जी  ने बचपन से मां को व्रत, उपवास करते देखा था, वे तपस्या का अर्थ समझ रहे थे. हम कल्पना कर सकते हैं कि हनुमान जी की नीति, जिसमें जब लंका जाते हुये सुरसा ने उनकी राह रोकी तो ” ज्यो ज्यो सुरसा रूप बढ़ावा, तासु दून कपि रूप देखावा,सत योजन तेहि आनन कीन्हा अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा ” के अनुरूप जब गांधी जी ने देखा होगा कि  उनके पास मदद की गुहार लगाने आये किसानो के लिये अंग्रेजो से तुरंत कुछ पा लेना सरल नही था. अंग्रेजो की विशाल सत्ता सुरसा के सत योजन आनन सी असीम थी, और उससे जीतने के लिये लघुता को ही अस्त्र बनाना सहज विकल्प हो सकता था.  मदहोश सत्ता से  याचक बनकर कुछ पाया  नही जा सकता था. जन बल ही गांधी जी की शक्ति बन सकता था. और पर उपदेश कुशल बहुतेरे की अपेक्षा स्वयं सामान्य लोगो का आत्मीय हिस्सा बनकर जनसमर्थन जुटाने का मार्ग ही   उन्हें सूझ रहा  था. मदद मांगने आये किसानो को जब गांधी जी ने नंगे पांव या चप्पलो में देखा तो उनके समर्थन में तुरंत स्वयं भी उनने जूते पहनने बंद कर दिए.गांधी जी ने 16 और 18 अप्रैल 1917 के बीच  ब्रितानी अधिकारियों को दो पत्र लिखे जिसमें उन्होंने ब्रितानी आदेश को नहीं मानने की मंशा जाहिर की. यह उनका प्रथम सत्याग्रह था.8 नवंबर 1917 को गांधीजी ने सत्याग्रह का दूसरा चरण शुरू किया.वो अपने साथ काम कर रहे कार्यकर्ताओं को लेकर चंपारण पहुंचें. इनमें उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी, भी साथ थीं. तीन स्कूल  शुरू किए गये. हिंदी और उर्दू में  लड़कियों और औरतों की पढ़ाई शुरू हुई. इसके साथ-साथ खेती और बुनाई का काम भी उन्हें सिखाया जाने लगा. लोगों को कुंओ और नालियों को साफ-सुथरा रखने के लिए प्रशिक्षित किया गया.गांव की सड़कों को भी सबने मिलकर साफ किया. गांधी जी ने कस्तूरबा को कहा कि वो खेती करने वाली औरतों को हर रोज़़ नहाने और साफ-सुथरा रहने की बात समझाए. कस्तूरबा जब औरतों के बीच गईं तो उन औरतों में से एक ने कहा, “बा, आप मेरे घर की हालत देखिए. आपको कोई बक्सा दिखता है जो कपड़ों से भरा हुआ हो? मेरे पास केवल एक यही एक साड़ी है जो मैंने पहन रखी है. आप ही बताओ बा, मैं कैसे इसे साफ करूं और इसे साफ करने के बाद मैं क्या पहनूंगी? आप महात्मा जी से कहो कि मुझे दूसरी साड़ी दिलवा दे ताकि मैं हर रोज इसे धो सकूं.” जब  गांधी जी ने यह सुना तो उन्होने अपना चोगा बा को दे दिया था उस औरत को देने के लिए और इसके बाद से ही उन्होंने चोगा ओढ़ना बंद कर दिया.

सत्य को लेकर गांधीजी के प्रयोग और उनके कपड़ों के ज़रिए इसकी अभिव्यक्ति अगले चार सालों तक ऐसे ही चली जब तक कि उन्होंने लंगोट या घुटनों तक लंबी धोती पहनना नहीं शुरू कर दिया.1918 में जब वो अहमदाबाद में करखाना मज़दूरों की लड़ाई में शरीक हुए तो उन्होंने देखा कि उनकी पगड़ी में जितना कपड़ा लगता है, उसमें ‘कम से कम चार लोगों का तन ढका जा सकता है.’उन्होंने तभी से  पगड़ी पहनना छोड़ दिया. दार्शनिक विवेचना की जावे तो गांधी का आंदोलन को न्यूक्लियर  फ्यूजन से समझा जा सकता है, जबकि क्रांतिकारियो के आंदोलन को फिजन कहा जा सकता है. इंटीग्रेशन और डिफरेंशियेशन का गणित, आत्मा की इकाई में  परमात्मा के विराट स्वरूप की परिकल्पना की दार्शनिक ताकत ही गांधी के आंदोलन का मूल तत्व बना.   किसानो के पक्ष में मशीनीकरण के विरोध का स्वर उपजा.31 अगस्त 1920 को खेड़ा में किसानों के सत्याग्रह के दौरान गांधी जी ने खादी को लेकर प्रतिज्ञा ली.उन्होंने प्रण लेते हुए कहा था,”आज के बाद से मैं ज़िंदगी भर हाथ से बनाए हुए खादी के कपड़ों का इस्तेमाल करूंगा.”, “उस भीड़ में बिना किसी अपवाद के हर कोई विदेशी कपड़ों में मौजूद था. गांधी जी ने सबसे खादी पहनने का आग्रह किया. उन्होंने सिर हिलाते हुए कहा कि क्या हम इतने गरीब है कि खादी नहीं खरीद पाएंगे ?

गांधीजी कहते हैं, “मैंने इस तर्क के पीछे की सच्चाई को महसूस किया. मेरे पास बनियान, टोपी और नीचे तक धोती थी. ये पहनावा अधूरी सच्चाई बयां करती थी जहां देश के लाखों लोग निर्वस्त्र रहने के लिए मजबूर थे. चार इंच की लंगोट के लिए जद्दोजहद करने वाले लोगों की नंगी पिंडलियां कठोर सच्चाई बयां कर रही थी. मैं उन्हें क्या जवाब दे सकता था जब तक कि मैं ख़ुद उनकी पंक्ति में आकर नहीं खड़ा हो सकता. मदुरई में हुई सभा के बाद अगली सुबह से कपड़े छोड़कर और धोती को अपनाकर गांधी ने स्वयं को आम आदमी के साथ खड़ा कर लिया.”छोटी सी धोती और ह्थकरघे से बुना गया शॉल विदेशी मशीनो से बने कपड़ों के बहिष्कार के लिए हो रहे सत्याग्रह का प्रतीक बन गया.

यह गांधी की खादी की ताकत ही रही कि अब मोतिहारी में नील का पौधा महज संग्रहालय में सीमित हो गया है.इस तरह खादी को महात्मा गांधी ने अहिंसक हथियार बनाकर देश की आजादी के लिये उपयोग किया और ग्राम स्वावलंबन का अभूतपूर्व उदारहण दुनियां के सामने प्रस्तुत किया. खादी में यह ताकत कल भी थी, आज भी है. केवल बदले हुये समय और स्वरूप में खादी को पुनः वैश्विक स्तर पर विशेष रूप से युवाओ के बीच पुनर्स्थापित करने की आवश्यकता है.  खादी मूवमेंट आज भी रोजगार, राष्ट्रीयता की भावना और खादी का उपयोग करने वालो और उसे बुनने वालो को परस्पर जोड़ने में कारगर है.

खादी एक ईको फ्रेँडली  कपड़ा है. यह शुचिता व शुद्धता का प्रतीक है.खादी राष्ट्र के सम्मान का प्रतीक रही है. कभी महात्मा गांधी ने कहा था “हर हाथ को काम और हर कारीगर को सम्मान ” यह सूत्र वाक्य आज भी प्रेरणा है.  लगातार लोगो के बीच खादी को लोकप्रिय बनाने के लिये काम होना चाहिए.  खादी  बाजार फिर से पुनर्जीवित हो .  खादी बुनकरो का उत्थान,युवाओ तथा नई पीढ़ी में खादी के साथ ही महात्मा गांधी के  विचार तथा दृष्टिकोण का विस्तार कर और ग्रामीण विकास के लिये खादी के जरिये दीर्घकालिक रोजगार के अवसर बनाने के प्रयास जरूरी हैं. इन्ही उद्देश्यो से सरकार के वस्त्र मंत्रालय को कार्य दिशा बनाने की आवश्यकता है. प्रति मीटर खादी के उत्पादन में मात्र ३ लीटर पानी की खपत होती है, जबकि इतनी ही लम्बाई के टैक्सटाईल मिल के कपड़े के उत्पादन में जहां तरह तरह के केमिकल प्रयुक्त होते हैं, ५५ लिटर तक पानी लगता है. खादी हाथो से बुनी और बनाई जाती है, खादी लम्बी यांत्रिक गतिविधियो से मुक्त है अतः इसके उत्पादन में केमिकल्स व बिजली की खपत भी नगण्य होती है, इस तरह खादी पूरी तरह ईको फ्रेंडली है. जिसे अपनाकर हम पर्यावरण संरक्षण में अपना अपरोक्ष बड़ा योगदान सहज ही दे सकते हैं.

चरखे से सूती, सिल्क या ऊनी धागा काता जाता है. फिर हथकरघे पर इस धागे से खादी का कपड़ा तैयार किया जाता है. खादी के कपड़े की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि इसकी बुनाई में ताने बाने के बीच स्वतः ही हवा निकलने लायक छिद्र बन जाते हैं. इन छिद्रो में जो हवा होती है, उसके चलते खादी के वस्त्रो में गर्मी में ठंडक तथा ठंडियो के मौसम में गर्मी का अहसास होता है, जो खादी के वस्त्र पहनने वाले को सुखकर लगता है. खादी के वस्त्र मजबूत होते हैं व बिना पुराने पड़े अपेक्षाकृत अधिक चलते हैं.प्रधानमंत्री मोदी जी ने भी अपने मन की बात में देश से कहा है कि हर नागरिक कम से कम वर्ष में एक जोड़ी कपड़ा खादी का अवश्य खरीदे. पर्यटन, योग, खादी का त्रिकोणीय साथ देश को नई प्रासंगिकता दे सकता है. विदेशी पर्यटक खादी को हथकरघे पर बनता हुआ देखना पसंद करते हैं. नये कलेवर में अब खादी में रंग, रूप, फैब्रिक, की विविधता भी शामिल हो चुकी है तथा अब खादी नये फैशन के सर्वथा अनुरूप है. लगभग नगण्य यांत्रिक लागत व केवल श्रम से खादी के धागे और उससे वस्त्रो का उत्पादन संभव है. इसलिये सुदूर ग्रामीण अंचलो में भी रोजगार के लिये सहज ही खादी उत्पादन को व्यवसाय के रूप में अपनाया जा सकता है. महिलायें घर बैठे इस रोजगार को अपनी आय का साधन बना सकती हैं.  खादी की लोकप्रियता बढ़ाई जावे, जिससे बाजार में खादी की मांग बढ़े और इस तरह अंततोगत्वा खादी के बुनकरो के आर्थिक हालात और भी बेहतर बन सकें. हम सब मिलकर खादी के ताने बाने इस तरह बुने कि नये फैशन, नये पहनावे के अनुरूप एक बार फिर से खादी दुनिया में नई  लोकप्रियता प्राप्त करे और विश्व में भारत का झंडा सर्वोच्च स्थान पर लहरा सकें.

विवेक रंजन श्रीवास्तव

A 1, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर

मो 7000375798

 

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ दक्षिण अफ्रीका : मिस्टर बैरिस्टर एम. के. गांधी से गांधी बनाने की ओर ☆ श्री मनोज मीता

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-1

श्री मनोज मीता

 

(सुप्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक श्री मनोज मीता जी का ई-अभिव्यक्ति  में हार्दिक स्वागत है.आप अनेक सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्ध हैं एवं सुदूरवर्ती क्षेत्रों में सामाजिक सेवाएं प्रदान करते हैं. महात्मा गांधी पर केंद्रित लेखों से चर्चित.)

 

☆ दक्षिण अफ्रीका : मिस्टर बैरिस्टर एम. के. गांधी से गांधी बनाने की ओर ☆

 

गांधी, दक्षिण अफ्रीका बैरिस्टर एम.के. गांधी बन के गए थे पर वहाँ जाने के बाद वो धीर-धीरे जनमानस के गांधी बन गए। यह एक लम्बी प्रक्रिया है । गांधी वहां बाबा अब्दुल्ला के केस में वकील की हैसियत से गए थे पर समय के साथ गांधी वहाँ रह रहे काले कुली के वकील बन गए। गांधी, मोहन से महात्मा बनने की प्रक्रिया बचपन से ही शुरू हो गई थी। उस ब्रितानी सल्तनत जिसका कभी सूर्य अस्त नहीं होता था, उसपे ग्रहण, गांधी के सत्य-अहिंसा और सत्याग्रह के इस प्रयोग की शुरूआत दक्षिण अफ्रिका में ही हो चुकी थी। कुछ घटनाओं ने बैरिस्टर गांधी को जनमानस का गांधी बनाने में मदद की और यह प्रक्रिया शुरू हुई।

यह घटना 7 जून 1893 के एक सर्द रात की है। गांधी तभी बमुश्किल 23 वर्ष के एक बैरिस्टर थे। शायद तब के दक्षिण अफ्रीका के सबसे पढ़े लिखे हिन्दुस्तानी या उनकी भाषा में कुली, वो डरबन से नेटल की यात्रा पे थे। इंगलैंड से पढ़ा लिखा बैरिस्टर प्रथम श्रेणी के डिब्बे में अकेले बैठा सफर कर रहा था। उस बैरिस्टर को नेटल जाना था। रात्रि के 9 बजे के आसपास गाड़ी नेटल की राजधानी Pitarmaritjrbag पहुंची। ये एक हाड़ कंपा देने वाली सर्द रात थी। बैरिस्टर गांधी अपने आप में खोया नींद में ऊँघ रहा था कि तभी एक अंग्रेज प्रथम श्रेणी के उस डिब्बे में पहुँचा। बैरिस्टर गांधी सतर्क हो गया और अकेले इस यात्रा में एक सहयात्री को पा के खुश भी हो गया कि चलो आगे की यात्रा संग-संग होगी। वो अंग्रेज लापरवाह सा अपने हैट और ओवर कोट को प्रथम श्रेणी के डब्बे में लगे खुटी से टांग कर अपनी सीट की ओर मुड़ा, अचानक उसकी नजर बगल की सीट पर बैठे बैरिस्टर गांधी पे पड़ी, उसके चेहरे का रंग ही बदल गया। वो बिना कुछ कहे उतर गया। गांधी को अजीब सा लगा, पर उस सर्द रात और नींद ने गांधी को कुछ सोचने नहीं दिया। कुछ ही देर में वो अंग्रेज, रेलवे के दो अधिकारियों के साथ वापस आया। अधिकारियों ने आते ही बैरिस्टर गांधी को फरमान सुनाया कि आपको यह डिब्बा खाली करना होगा क्योंकि एक अंग्रेज किसी काले कुली के साथ सफर नहीं कर सकता है। गांधी ने कुली संबोधन पर प्रतिवाद किया और बताया कि वो एक बैरिस्टर है और अपने मुवक्किल के केस के सिलसिले में जा रहा है। पर उन रेल अधिकारियों पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने अपना अंतिम निर्णय सुनाते हुए कहा कि आप बैरिस्टर हैं इससे कोई अंतर नहीं पड़ता, आप यहाँ से अपनी यात्रा माल डिब्बे में करें। बैरिस्टर गांधी ने कहा कि मेरे पास प्रथम श्रेणी का वैध टिकट है और मैं इसी टिकट से इस प्रथम श्रेणी के डिब्बे में डरबन से सफर कर रहा हूँ। मैं आगे भी इसी डब्बे में सफर करूँगा, बैरिस्टर गांधी ने दृढ़ता-पूर्वक कहा। अधिकारियों ने चेतावनी देते हुए कहा कि तुम इस डिब्बे को खाली करो नहीं तो हम पुलिस बुला लेंगे, पर गांधी टस से मस नहीं हुआ। अधिकारियों ने आवाज देकर पुलिस को बुला लिया और बैरिस्टर गांधी को सामान सहित प्लेटफार्म पे फेंकवा दिया। गांधी प्लेटफार्म पर गिरे तो प्लेटफार्म पर रखे बेंच का एक हिस्सा हाथ के पकड़ में आ गया, इस कारण गांधी का सर प्लेटफार्म के फर्श से टकराने से बच गया नहीं तो गांधी का सर निश्चित रूप से फट गया होता और चोट तो लगी ही थी। इस अप्रत्याशित अपमान की जगह गांधी को चोट के दर्द का पता नहीं चल रहा था। अपने बिखरे सामान के साथ गांधी प्लेटफार्म पे पड़ा था कि उस रेल अधिकारी ने पास आकर कहा तुम चाहो तो अब भी यहाँ से माल डिब्बे में आगे का सफर कर सकते हो, पर गांधी ने पुनः दृढ़ता-पूर्वक इंकार से सिर हिलाया। वो गांधी की तरफ उपहास की नजरों से देखते हुए चल दिए। गाड़ी भी गांधी को वहीं छोड़ आगे बढ़ गई। अकेला बैरिस्टर गांधी उस प्लेटफार्म पर रहा गया। प्लेटफार्म का अँधेरा दूर वेटिंग रूम से आ रही मध्यम पीली रौशनी दूर कर रही थी, पर गांधी का अपमान कौन दूर करेगा! गांधी अपने अपमान से जूझ रहा था। थोड़ी चेतना आने के बाद, गांधी उसी बेंच पर जिसने अधिक चोटिल होने से बचाया था, बैठ गया। कुछ समझ नहीं आ रहा था, तभी गांधी को लगा कोई फुसफुसा के कह रहा है कि यहाँ बहुत ठंढी है, आप वेटिंग रूम में चले जाएँ। हम आपका सामान स्टेशन मास्टर के यहाँ रख देते है। गांधी को लगा की यह काल्पनिक है, पर वो अपना सामान वहीं छोड़ कर वेटिंग रूम चला गया। तेज दर्द, पहाड़ी शहर की सर्द हवा और अपमान ने गांधी को संज्ञा-शून्य बना दिया। गांधी का ओवर कोट भी सामान में ही रह गया था जो अब स्टेशन मास्टर के कमरे में बंद हो गया था। इन सभी से लड़ते हुए कब गांधी सो गए या मूर्छित हुए उन्हें पता नहीं। सुबह गांधी की नींद खुली तो देखा कि वो एक गंदे कम्बल से लिपटे हुए थे। तभी दो काले कुली समीप आए और कहा कि आप हाथ मुँह धो लें। हम आपका सामान ला देते हैं। गांधी ने उनसे पूछा क्या ये कम्बल तुम लोगों का है? उन्होंने कहा अगर यह कम्बल नहीं देते तो आप इस ठण्ड में मर ही जाते। गांधी ने वेटिंग रूम के नल से मुँह-हाथ धो लिया, वो कुली उनका सामान लेकर भी आ गए और साथ में यह भी कहा कि बाबू यहाँ तो हम कालों के साथ ये रोजमर्रे की बात है। पर गांधी अब अपने अपमान और दर्द से उबर चुके थे। उन्होंने पहला कम किया कि रेलवे के जनरल मैनेजर को एक लम्बा तार भेजकर अपने साथ किये गए दुर्व्यवहार की शिकायत की। दक्षिण अफ्रीका के इतिहास में पहली बार रेल प्रशासन ने अपने अधिकारी द्वारा किये गए दुर्व्यवहार के लिए किसी काले भारतीय से लिखित माफी मांगी।आज भी Pitarmaritjrbag स्टेशन पर यह लिखा है कि 7 जून 1893 की रात एम.के. गांधी को प्रथम श्रेणी के डिब्बे से यहीं बाहर धकेल दिया गया था। इस घटना ने गांधी के जीवन पर गहरा प्रभाव छोड़ा। यह घटना, गांधी को नस्लीय उत्पीड़न के खिलाफ लड़ने की उर्जा दे गई।

यहाँ से गांधी दूसरी गाड़ी से चार्ल्स टाउन पहुँचे, वहाँ से आगे का सफर घोड़ा-गाड़ी से होनी थी क्योंकि इसके आगे रेल की सुविधा नहीं थी। घोड़ा-गाड़ी को वहाँ स्टेट कोच कहा जाता था। जिसको 6 से 8 घोड़े खींचते थे। स्टेट कोच का टिकट रेल टिकट के साथ ही हो जाता था। इस तरह गांधी एक दिन देर थे, पर इस टिकट पर कोई दिनांक नहीं लिखा था। गांधी उस टिकट को लेकर स्टेट कोच के मास्टर के पास गए और आगे के सफर की बात कही। स्टेट कोच के मास्टर ने कहा यह टिकट बेकार हो चुका है। यह किसी काम का नहीं, तुम इस टिकट पर अब सफर नहीं कर सकते। गांधी ने कहा कि इस तरह कह देने से नहीं होगा। आपको मुझे संतुष्ट करना होगा, साथ ही गांधी ने बाबा अब्दुल्ला का नाम भी लिया और कहा कि मेरे स्थगित यात्रा की सूचना आपको सेठ अब्दुल्ला ने तार से दी ही होगी। सेठ अब्दुल्ला उस क्षेत्र के एक बड़े व्यापारी थे और उनके मुलाजिम लगातार सफर करते रहते थे। मास्टर ने कहा ये कुली बहुत तंग करते हैं। गांधी ने प्रतिवाद करते हुए कहा कि मैं एक बैरिस्टर हूँ। मास्टर ने गांधी को गौर से देखा और कहा नस्ल तो कुली का ही है। गांधी ने कहा नस्ल रंग से नहीं होता। अब मास्टर ने समझा कि ये व्यक्ति मुझसे अच्छा और फर्राटेदार इंगलिश बोलता है और कोट पेंट में भी है। इसका प्रभाव मास्टर पे पड़ा और उसने कहा ठीक है तुम सफर कर सकते हो पर तुम्हें मेरी जगह, कोचवान के पास बैठना होगा और मैं अन्दर बैठूँगा। गांधी को अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचना जरुरी था इसलिए तैयार हो गए। गांधी ने कोचवान के बगल में बैठ कर सफर शुरू कर दिया। खुले में सफर करना तेज ठण्ढ हवा गांधी को विचलित कर रही थी। बग्घी सुबह 3 बजे Pardikof पहुंची। तेज ठंडी हवा बह रही थी, कोच मास्टर ने गांधी को इशारे से नीचे आने को कहा। गांधी ने पूछा क्यों? मास्टर ने कहा मुझे सिगरेट पीना है। तो? गांधी ने कहा। कोच मास्टर ने कह तुम यहँ बैठो और उसने बग्घी के पांवदान की ओर इशारा किया। गांधी ने साफ इंकार कर दिया और कहा कि मैं अपने सीट पे हूँ और यहाँ से उठूँगा तो तुम्हारे सीट पे अन्दर बैठूँगा। एक कुली की ये मजाल! गांधी की बात गांधी के मुँह में ही रह गई। मास्टर ने गांधी पर हमला करते हुए ताबड़तोड़ घूँसे का बौछार कर दिया। गांधी इस अचानक हमले से गिरते-गिरते बचे। पर गांधी ने अपना सीट नहीं छोड़ा। गांधी ने कोच के राड को कस कर पकड़ रखा था। बग्घी में सफर कर रहे कुछ यूरोपियन यात्रियों ने बीच-बचाव किया नहीं तो मास्टर गांधी को मार ही देता। यह स्थिति थी दक्षिण अफ्रीका की। कोई भारतीय बोल नहीं सकता और गांधी ने बोलना शुरू किया था जिसका परिणाम गांधी पर हमले के रूप में हो रहा था। अपने गंतव्य पर पहुँचकर गांधी ने बिना किसी संकोच के अपने साथ घटी घटना को बताया और कहा कि मैं इसकी शिकायत करूँगा। वहाँ उपस्थित लोगों ने कहा हम कालों के साथ ये होता ही रहा है, पर हम कोई शिकायत नहीं करते। गांधी ने स्टेट कोच उपलब्ध कराने वाली कम्पनी में शिकायत दर्ज कराई और उसका सुखद परिणाम भी मिला। कंपनी ने गांधी को पत्र द्वारा सूचित किया कि कल जो यहाँ Staindatrn से जाने वाली बड़ी बग्घी में आप अन्य यात्रियों के साथ कोच के अंदर यात्रा करेंगे और जो मास्टर कल के सफर में था उसे हटा दिया गया है। ये वहाँ रह रहे भारतीयों के लिए अजूबा था कि किसी काले कीे शिकायत पर ऐसा निर्णय भी लिया जा सकता है। बैरिस्टर गांधी धीरे-धीरे जनमानस के गांधी बन रहे थे जिसके किये पे भारतीयों को गर्व हो रहा था और वो गांधी में अपने होने का सोच रहे थे।

 

© श्री मनोज meeta

संस्थापक, गांधी आश्रम, शोभानपुर, अमरपुर, बांका (बिहार)

ईमेलः [email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -1☆ गांधी विचार की वर्तमान प्रासंगिकता ☆ श्री राकेश कुमार पालीवाल

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-1 

श्री राकेश कुमार पालीवाल

 

(सुप्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक श्री राकेश कुमार पालीवाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है.  आप वर्तमान में महानिदेशक (आयकर), हैदराबाद के पद पर पदासीन हैं। गांधीवादी चिंतन के अतिरिक्त कई सुदूरवर्ती आदिवासी ग्रामों को आदर्श गांधीग्राम बनाने में आपका महत्वपूर्ण योगदान है। आपने कई पुस्तकें लिखी हैं जिनमें ‘कस्तूरबा और गाँधी की चार्जशीट’ तथा ‘गांधी : जीवन और विचार’ प्रमुख हैं। इस अवसर पर श्री राकेश कुमार पालीवाल जी का यह आलेख सामयिक एवं प्रासंगिक ही नहीं अपितु अनुकरणीय भी है.)

 

गांधी विचार की वर्तमान प्रासंगिकता

 

गांधी विचार की वर्तमान प्रासंगिकता पर जब भी कोई विचार विमर्श होता है मेरे जेहन में दो घटनाएं कौंधती हैं – एक गांधी द्वारा अपनी हत्या के कुछ दिन पहले दिया वह बयान जिसमें उन्होंने आजाद भारत में अपने दायित्वों और अधूरे कार्यो के बारे में बताया था, और दूसरी घटना 2004 की है जब मुझे एक आत्मीय वार्तालाप में बाबा आम्टे ने इस विषय पर अपने विचार बताए थे। इस लेख में सबसे पहले भूमिका के रूप में इन दो घटनाओं को ही दोहराना चाहता हूं क्योंकि इन दोनों घटनाओं से गांधी विचार की वर्तमान प्रासंगिकता समझने में मुझे बहुत मदद मिली है।

1947 में जब देश आजाद हुआ तब देशवासियों को ऐसा महसूस होने लगा था मानो अंग्रेजी शासन के कारण ही देश में तमाम समस्या थी और उनके जाते ही राम राज्य जैसी स्थिति हो जाएगी।हालांकि आजादी की पूर्व संध्या पर पंजाब और बंगाल के भयंकर साम्प्रदायिक दंगों ने आजादी की नई नींव की चूलें ही हिलाकर रख दी थी। गांधी ने इस हालत में दिल्ली में आजादी के महा जश्न में शिरकत करने की बजाय बंगाल में भड़के भयावह दंगों को रोकने को वरीयता दी थी। वे यह भी भांप रहे थे कि आजादी के बाद का भारत भी बहुत सारी समस्याओं से घिरा रहेगा इसीलिए उन्होंने तत्कालीन कांग्रेस को भंग कर कांग्रेसियों को सलाह दी थी कि वे सत्ता का मोह छोड़कर देश सेवा के रचनात्मक कार्यों में लग जाएं। यह कमोबेश वही रचनात्मक कार्य थे जिन्हें गांधी और उनके सहयोगी स्वाधीनता संग्राम आंदोलन के दौरान बहुत साल से करते आए थे।

आजादी के समय भी अधूरे रह गए रचनात्मक कार्य गांधी को आजादी से भी ज्यादा प्रिय थे, इसीलिए वे अक्सर कहते थे कि आजादी के पहले देश की जनता को आजादी अक्षुण्ण रखने के लिए जागरूक करने की जरूरत है। इसी पृष्ठभूमि में  एक प्रश्न के उत्तर में गांधी ने कहा था कि आजादी के बाद भी हमें बहुत काम करना है क्योंकि अंग्रेजी शासन हटने से देश को केवल एक चौथाई (राजनीतिक) आजादी मिली है। अभी हमें देशवासियों के लिए तीन चौथाई आजादी अर्थात सामाजिक आजादी, आर्थिक आजादी और धार्मिक या आध्यात्मिक आजादी अर्जित करनी है। गांधी का इशारा समाज में फैली छुआछूत और जातिवाद, देश के गांवों में पसरी भयंकर गरीबी और विभिन्न धर्म और संप्रदायों के बीच फैली नफरत की आग की तरफ था।गांधी के इस कथन को ध्यान में रखते हुए देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि आज भी गांधी के विचार हमारे देश और समाज के लिए उतने ही जरूरी हैं जितने आजादी के समय थे। धार्मिक उन्माद जैसे कुछ मामलों में तो हालात दिन ब दिन बदतर हुए हैं।इसलिए गांधी विचार की प्रासंगिकता भी बढ़ गई है।

2004 में मुझे बाबा आम्टे से उनके आश्रम आनन्द वन में एक आत्मीय वार्ता का अवसर प्राप्त हुआ था। उन दिनों उनकी तबियत काफी नासाज थी लेकिन यह मेरा सौभाग्य था कि उस दिन वे कुछ बेहतर महसूस कर रहे थे जो मेरे साथ करीब आधा घण्टा गुफ्तगू कर सके। उन दिनों मुझे भी गांधी विचार का वैसा अहसास नहीं था जैसा बाद के वर्षों में हुआ। मैंने बातों बातों में उनसे पूछा था –  आने वाले समय में गांधी विचार की क्या प्रासंगिकता रहेगी। जैसे ही बाबा से यह प्रश्न किया उनकी आंखों में चमक बढ़ गई और बिना पलक झपके उन्होंने तुरंत कहा – जिस तरह से विश्व तेजी से हिंसा की तरफ बढ़ता जा रहा है वैसे ही आने वाले समय में पूरे विश्व को गांधी विचार की आवश्यकता और शिद्दत से महसूस होगी। बाबा आम्टे ने जिस आत्म विश्वास के साथ यह कहा था उस पर मैंने उस दिन भी संदेह नहीं किया था क्योंकि बाबा जैसे संत के अनुभव से उपजे ज्ञान पर अविश्वास का कोई कारण नही हो सकता। आज तो मैं भी उसी आत्मविश्वास के साथ यह कह सकता हूं कि आगामी वर्षों में गांधी विचार की प्रासंगिकता और ज्यादा बढ़ेगी क्योंकि विश्व के आधुनिक महान चिंतकों में अकेले गांधी ही ऐसे चिंतक दिखते हैं जिन्होंने हमारे समय की तमाम समस्याओं और चिंताओं पर समग्रता से चिंतन मनन किया है और उनका अहिंसक समाधान करने की हर सम्भव कोशिश की है।

गांधी विचार की वर्तमान प्रासंगिकता पर एक और प्रत्यक्ष प्रमाण याद आ रहा है। बॉम्बे सर्वोदय मंडल के एक छोटे से कमरे से वरिष्ठ गांधीवादी तुलसीदास सौमैया जी अपने युवा सहयोगी राजेश के साथ मिलकर वर्धा आश्रम और जलगांव के जैन गांधी संस्थान की सहायता से गांधी विचार के प्रचार प्रसार के लिए mkgandhi.org नाम से एक वेबसाइट का संचालन करते हैं। कहने के लिए यह एक सादगीपूर्ण साइट है जिस पर कोई खासताम झाम नही है लेकिन कुछ ही साल में तेजी से यह वेबसाइट संभवतः गांधी विचार की सबसे बड़ी वेबसाइट बन गई। इस साइट को अब तक विश्व के दो सौ से ज्यादा देशों के दो करोड़ से अधिक लोगों ने गांधी विचार को जानने समझने के लिए न केवल देखा है बल्कि गांधी के प्रति अपने भावों को भी अभिव्यक्ति दी है। बिना किसी विज्ञापन या प्रचार के इस वेबसाइट का तेजी से विश्व में लोकप्रिय होना यह साबित करता है कि विश्व भर में प्रबुद्ध वर्ग गांधी विचार की तरफ बहुत ध्यान और उम्मीद से देख रहा है।

कुछ साल पहले मुझे वर्धा आश्रम में तीन दिन बिताने का मौका मिला था। आश्रम में रखी विज़िटर्स पुस्तिका पर बहुत से लोग अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। ये लोग दूर दराज के भी थे और काफी आसपास के परिवेश से भी आए थे। मैंने यहां आने वाले लोगों की टिप्पणी देखी तो यह सहज ही आभास हुआ कि गांधी और उनके विचारों के प्रति आज भी लोगों मे कितनी श्रद्धा और विश्वास है।

वैसे भी आज हमारे देश में या विश्व में जितनी भी बड़ी समस्या दिखाई देती हैं उनका सम्यक समाधान गांधी विचार में मिलता है। उदाहरण के तौर पर वर्तमान समय की एक सबसे बड़ी चुनौती क्लाइमेट चेंज की बताई जा रही है। इसी से जुड़ी हुई बड़ी समस्या दिनोदिन बिगड़ते पर्यावरण और हर तरफ गहराते जल संकट की है। यदि हम पिछली सदी में गांधी विचार का ठीक से अनुसरण करते तब यह समस्याएं इतना विकराल रूप धारण नही करती। गांधी सादगीपूर्ण जीवन यापन पर बहुत जोर देते थे और खुद भी सादगीपूर्ण सात्विक जीवन जीते थे। उनकी मान्यता थी कि पृथ्वी पर हर जीव की आवश्यकता के हिसाब से संसाधन मौजूद हैं लेकिन हमारी धरती एक भी व्यक्ति के अनन्त लालच का पोषण नही कर सकती। एक तरह से गांधी ने लगभग सौ साल पहले हमें बहुत स्पष्ट शब्दों में चेताया था कि प्रकृति का जरूरत से अधिक दोहन प्रकृति सहन नहीं कर सकती।

हमने गांधी की बात ध्यान से नहीं सुनी, उस पर ठीक से अमल नहीं किया। इसका दुष्फल हमारे सामने है। हमारा देश ही नहीं अपितु पूरा विश्व अभूतपूर्व पर्यावरण संकट से जूझ रहा है। इसका समाधान गांधी मार्ग पर चलने से आसानी से हो सकता है। यह काम कड़े कानून बनाने से सम्भव नहीं है। इसके लिए भी गांधी के अहिंसक जन भागीदारी वाले आंदोलन की जरूरत है जिसमें बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण कार्यक्रम आयोजित करने होंगे। रोपे गए पौधों का उचित रखरखाव करना होगा और लकड़ी की खपत कम कर जंगल बचाने होंगे। इसी राह से पर्यावरण बचेगा। इसी तरीके से जल संकट टलेगा।

गांधी के बाद भी बहुत से लोगों ने गांधी के विचारों का अनुसरण कर महान काम किए हैं। नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग और आँग सांग सूकी आदि ऐसी प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय हस्तियां हैं जिन्होंने अपने रचनात्मक आंदोलनों का श्रेय गांधी को दिया है। आजादी के बाद हमारे देश में भी बहुत सी विभूतियों ने गांधी विचार अपनाकर कई रचनात्मक कार्यों को अंजाम दिया है। विनोबा भावे का भूदान आंदोलन हो या चंबल के डकैतों का आत्म समर्पण, बाबा आम्टे का कुष्ठ रोगियों को आत्मनिर्भर बनाने के काम आदि में गांधी विचार ही प्रेरक शक्ति था। आज भी देश के विभिन्न हिस्सों में कई संस्था और व्यक्ति अपने स्तर पर अपनी क्षमता के अनुसार गांधी विचार के अनुसार सफलता पूर्वक कार्य कर रहे हैं।

भारत की विशेष सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के परिपेक्ष्य में देखें तो आज यह बेहतर समझ में आ रहा है कि क्यों गांधी भारत के लिए यूरोप के शहरी औधोगिकरण के मॉडल को सिरे से अस्वीकार करते थे। वे भारत की नस नस से वाकिफ थे और अपने समकालीनों में संभवतः भारत की जमीनी हकीकत को सबसे बेहतर समझते थे। उन्होंने देश के लिए ग्राम विकास के उस मॉडल की वकालत की थी जिससे देश की अधिसंख्यक ग्रामीण आबादी गांव में रहते हुए अपना आर्थिक विकास कर आत्म निर्भर हो सके। वे बारम्बार यह दोहराते थे कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है और गांवों का समग्र विकास किए बगैर भारत का समग्र विकास नहीं हो सकता।

ग्राम विकास पर जोर देने के पीछे गांधी शायद उस स्थिति को भांप रहे थे जिससे आज हमें जूझना पड़ रहा है। गांवों का समुचित विकास नही होने से एक तरफ गांवों से युवाओं का निरंतर पलायन हुआ है जिससे गांव श्रीहीन हो रहे हैं और दूसरी तरफ शहरों में आबादी का दबाव इतना बढ़ गया है कि वहां की व्यवस्थाएं चरमरा रही हैं। महानगरों में जिस तेजी से झुग्गियों की बाढ़ आ रही है वह निकट भविष्य मे थमती दिखाई नहीं देती। गांवों की श्रीहीनता और महानगरों की दुर्दशा का हल भी गांधी विचार में मिलता है। गांधी अपने रचनात्मक कार्यों में गांव के लिए कुटीर उद्योगों को सबसे ज्यादा महत्व देते थे। इससे गांव के युवाओं को गांव में ही रोजगार मिलता था और उन्हें रोजी रोटी के लिए गांव का हरा भरा वातावरण छोड़कर शहर की झुग्गी बस्तियों के दमघोंटू वातावरण में रहने की मजबूरी नहीं होती।

गांधी विचार की एक खासियत यह भी है कि वह ऊपर से देखने में बहुत सरल लगते हैं और साथ ही प्रथम दृष्टया अव्यवहारिक लगते हैं लेकिन जब हम उनकी जड़ तक पहुंचते हैं और मन से अपनाते हैं तब उसका आकर्षण इतना सघन होता है कि हम उसके बाहर नहीं आ सकते। इसे हम देश विदेश घूमकर मल्टी नेशनल कम्पनियों की करोडों की कमाई वाली नौकरियां छोड़कर दूरदराज के इलाके में पांच दस एकड़ जमीन पर जैविक खेती कर जीवन यापन करने का निर्णय लेने वाले प्रबुद्ध वर्ग के लोगों से बात कर समझ सकते हैं। इन लोगों ने गांव में खेती करने का रास्ता बहुत सोच समझकर सार्थक जीवन जीने के लिए चुना है क्योंकि वहां इन्हें प्रदूषण मुक्त साफ हवा मिल रही है और पेस्टीसाइड रहित जहर मुक्त भोजन मिल रहा है जो स्वस्थ जीवन के लिए सबसे जरूरी है। ऐसा शांतिपूर्ण सुकून का जीवन महानगरों में संभव नही है। दरअसल जाने अंजाने ऐसे लोग अपने लिए गांधी मार्ग ही चुन रहे हैं जो सबसे सुरक्षित और सही मार्ग है। मैंने भी आने वाले समय के लिए यही रास्ता चुना है क्योंकि मुझे भी यही सबसे बेहतर रास्ता नजर आ रहा है। और गांधी के ही शब्दों में “हमे खुद से ही बदलाव की शुरुआत करनी है।”

 

© श्री राकेश कुमार पालीवाल

हैदराबाद

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