हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #12 – समष्टि….व्यष्टि! ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली    । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 12 ☆

 

☆ समष्टि …. व्यष्टि ! ☆

 

रेल में भीड़-भड़क्का है। हर कोई अपने में मशगूल। एक तीखा, अनवरत स्वर ध्यान बेधता है। साठ से ऊपर की एक स्त्री, संभवतः स्वर यंत्र में कोई दोष है। बच्चा मचलकर किसी वस्तु के लिए हठ करता है, एक साँस में रोता है, कुछ उसी तरह के स्वर में भुनभुना रही है वह। अंतर इतना कि बच्चे के स्वर को उसके अबोध भाव के चलते बहुत देर तक बरदाश्त किया जा सकता है पर यह स्वर बिना थके इतना लगातार कि खीज पैदा हो जाए। दूर से लगा कि यह भीख मांगने का एक और तरीका भर है। वह निरंतर आँख से दूर जा रही थी और साथ ही कान भुनभुनाहट से राहत महसूस कर रहे थे।

किसी स्टेशन पर रेल रुकी। प्लेटफॉर्म की विरुद्ध दिशा में वही भुनभुनाहट सुनाई दी। वह स्त्री पटरियों पर उतरकर दूसरी तरफ के प्लेटफॉर्म पर चढ़ी। हाथ से इशारा करती, उसी तरह भुनभुनाती बेंच पर बैठे एक यात्री से उसका बैग छीनने लगी। बैगवाला व्यक्ति हड़बड़ा गया। उस स्टेशन से रोज यात्रा करनेवाले एक यात्री ने हाथ के इशारे से महिला को आगे जाने के लिए कहा। बुढ़िया आगे बढ़ गई।

माज़रा समझ में आ गया। बुढ़िया का दिमाग चल गया है। पराया सामान, अपना समझती है, उसके लिए विलाप करती है।

चित्र दुखद था। कुछ ही समय में चित्र एन्लार्ज होने लगा। व्यष्टि का स्थान समष्टि ने ले लिया था। क्या मर्त्यलोक में मनुष्य परायी वस्तुओं के प्रति इसी मोह से ग्रसित नहीं है? इन वस्तुओं को पाने के लिए भुनभुनाना, न पा सकने पर विलाप करना, बौराना और अंततः पूरी तरह दिमाग चल जाना।

अचेत अवस्था से बाहर आओ। समय रहते चेत जाओ अन्यथा समष्टि का चित्र रिड्युस होकर व्यष्टि पर रुकेगा। इस बार हममें से कोई उस बुढ़िया की जगह होगा।

इति।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – राजभाषा दिवस विशेष – ☆ राष्ट्रभाषा : मनन-मंथन-मंतव्य ☆ – श्री संजय भारद्वाज

राजभाषा दिवस विशेष 

श्री संजय भारद्वाज 

 

(राजभाषा दिवस पर श्री संजय भारद्वाज जी का  विशेष आलेख राष्ट्रभाषा : मनन-मंथन-मंतव्य.

☆ राष्ट्रभाषा : मनन-मंथन-मंतव्य ☆

 

भाषा का प्रश्न समग्र है। भाषा अनुभूति को अभिव्यक्त करने का माध्यम भर नहीं है। भाषा सभ्यता को संस्कारित करने वाली वीणा एवं संस्कृति को शब्द देनेवाली वाणी है। किसी भी राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति नष्ट करनी हो तो उसकी भाषा नष्ट कर दीजिए। इस सूत्र को भारत पर शासन करने वाले विदेशियों ने भली भाँति समझा। आरंभिक आक्रमणकारियों ने संस्कृत जैसी समृद्ध और संस्कृतिवाणी को हाशिए पर कर अपने-अपने इलाके की भाषाएँ लादने की कोशिश की। बाद में सभ्यता की खाल ओढ़कर अंग्रेज आया। उसने दूरगामी नीति के तहत भारतीय भाषाओं की धज्जियाँ उड़ाकर अपनी भाषा और अपना हित लाद दिया। लद्दू खच्चर की तरह हिंदुस्तानी उसकी भाषा को ढोता रहा। अंकुश विदेशियों के हाथ में होने के कारण वह असहाय था।

यहाँ तक तो ठीक था। शासक विदेशी था, उसकी सोच और कृति में परिलक्षित स्वार्थ व धूर्तता उसकी कूटनीति और स्वार्थ के अनुरूप थीं। असली मुद्दा है स्वाधीनता के बाद का। अंग्रेजी और अंग्रेजियत को ढोते लद्दू खच्चरों की उम्मीदें जाग उठीं। जिन्हें वे अपना मानते थे, अंकुश उनके हाथ में आ चुका था किंतुु वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि अंतर केवल चमड़ी के रंग में हुआ था। देसी चमड़ी में अंकुश हाथ में लिए फिरंगी अब भी खच्चर पर लदा रहा। अलबत्ता आरंभ में पंद्रह बरस बाद बोझ उतारने का ‘लॉलीपॉप’ जरुर दिया गया। धीरे-धीरे ‘लॉलीपॉप’ भी बंद हो गया। खच्चर मरियल और मरियल होता गया। अब तो देसी चमड़ी के फिरंगियों की धूर्तता देखकर गोरी चमड़ी का फिरंगी भी दंग रह गया है।

प्रश्न है कि जब राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा माना जाता है तो क्या हमारी व्यवस्था को एक डरा-सहमा लोकतंत्र अपेक्षित था? लोकतंत्र जो न बोल सके, न सुन सके, देखे तो सही पर अभिव्यक्त न हो सके? विगत सत्तर वर्षों का घटनाक्रम देखें तो उत्तर ‘हाँ’ में मिलेगा।

राष्ट्रभाषा को स्थान दिये बिना राष्ट्र के अस्तित्व और सांस्कृतिक अस्मिता को परिभाषित करने की चौपटराजा प्रवृत्ति के परिणाम भी विस्फोटक रहे हैं। इन परिणामों की तीव्रता विभिन्न क्षेत्रों में अनुभव की जा सकती है। इनमें से कुछ की चर्चा यहाँ की जा रही है।

राष्ट्रभाषा शब्द के तकनीकी उलझाव और आठवीं अनुसूची से लेकर अपभ्रंश बोलियों तक को राष्ट्रभाषा की चौखट में शामिल करने के शाब्दिक छलावे की चर्चा यहाँ अप्रासंगिक है। राष्ट्रभाषा से स्पष्ट तात्पर्य देश के सबसे बड़े भूभाग पर बोली-लिखी और समझी जाने वाली भाषा से है। भाषा जो उस भूभाग पर रहनेवाले लोगों की संस़्कृति के तत्वों को अंतर्निहित करने की क्षमता रखती हो, जिसमें प्रादेशिक भाषाओं और बोलियों से शब्दों के आदान-प्रदान की उदारता निहित हो। हिंदी को उसका संविधान प्रदत्त पद व्यवहारिक रूप में प्रदान करने के लिए आम सहमति की बात करने वाले भूल जाते हैं कि राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगीत और राष्ट्रभाषा अनेक नहीं होते। हिंदी का विरोध करने वाले कल यदि राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगीत पर भी विरोध जताने लगें, अपने-अपने ध्वज फहराने लगें, गीत गाने लगें तो क्या कोई अनुसूची बनाकर उसमें कई ध्वज और अनेक गीत प्रतिष्ठित कर दिये जायेंगे? क्या तब भी यह कहा जायेगा कि अपेक्षित राष्ट्रगीत और राष्ट्रध्वज आम सहमति की प्रतीक्षा में हैं? भीरु व दिशाहीन मानसिकता दुःशासन का कारक बनती है जबकि सुशासन स्पष्ट नीति और पुरुषार्थ के कंधों पर टिका होता है।

सांस्कृतिक अवमूल्यन का बड़ा कारण विदेशी भाषा में देसी साहित्य पढ़ाने की अधकचरी सोच है। राजधानी के एक अंग्रेजी विद्यालय ने पढ़ाया गया- ‘सीता वॉज़ स्वीटहार्ट ऑफ रामा’ ठीक इसके विपरीत श्रीराम को सीताजी के कानन-कुण्डल मिलने पर पहचान के लिए लक्ष्मण जी को दिखाने का प्रसंग स्मरण कीजिए। लक्ष्मण जी का कहना कि मैने सदैव भाभी माँ के चरण निहारे, अतएव कानन-कुण्डल की पहचान मुझे कैसे होगी?- यह भाव संस्कृति की आत्मा है। कुसुमाग्रज की मराठी कविता में शादीशुदा बेटी का मायके में ‘चार भिंतीत नाचली’ ( शादीशुदा बेटी का मायके आने पर आनंद विभोर होना) का भाव तलाशने के लिए सारा यूरोपियन भाषाशास्त्र खंगाल डालिये। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी।

कटु सत्य यह है कि भाषाई प्रतिबद्धता और सांस्कृतिक चेतना के धरातल पर वर्तमान में भयावह उदासीनता दिखाई देती है। समृद्ध परंपराओं के स्वर्णमहल खंडहर हो रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है, भारतीय भाषाओं को शिक्षा के माध्यम से बेदखल किया जाना। चूँकि भाषा संस्कृति की संवाहक है, अंग्रेजी माध्यम का अध्ययन यूरोपीय संस्कृति का आयात कर रहा है। एक भव्य धरोहर डकारी जा रही है और हम दर्शक-से खड़े हैं। शिक्षा के माध्यम को लेकर बनी शिक्षाशास्त्रियों की अधिकांश समितियों ने सदा प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने की सिफारिश की। यह सिफारिशें आज कूड़े-दानों में पड़ी हैं।

यूरोपीय भाषा समूह की अंग्रेजी के प्रयोग से ‘कॉन्वेंट एजुकेटेड’ पीढ़ी, भारतीय भाषा समूह के अनेक अक्षरों का उच्चारण नहीं कर पाती। ‘ड़’,‘ण’  अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। ‘पूर्ण’, पूर्न हो चला है, ‘ शर्म ’ और ‘श्रम’ में एकाकार हो चला है। हृस्व और दीर्घ मात्राओं के अंतर का निरंतर होता क्षय अर्थ का अनर्थ कर रहा है।‘लुटना’ और ‘लूटना’ एक ही हो गये हैं। विदेशियों द्वारा की गई ‘लूट’ को ‘लुटना’ मानकर हम अपनी लुटिया डुबोने में अभिभूत हो रहे हैं।

लिपि नये संकट से गुजर रही है। इंटरनेट पर खास तौर पर फेसबुक, गूगल प्लस, ट्विटर जैसी साइट्स पर देवनागरी को रोमन में लिखा जा रहा है। ‘बड़बड़’ के लिए barbar/ badbad  (बर्बर या बारबर या बार-बार) लिखा जा रहा है। ‘करता’, ‘कराता’, ‘कर्ता’ में फर्क कर पाना भी संभव नहीं रहा है। जैसे-जैसे पीढ़ी पेपरलेस हो रही है, स्क्रिप्टलेस भी होती जा रही है।

सर्वाधिक घातक पक्ष है कि आसन्न संकट के प्रति समुदाय चिंतित नहीं दिखता। बिना जेब की लंगोट से बिना जेब के कफ़न तक की यात्रा का उद्देश्य केवल अपनी जेब भरना रह गया है। जेब भरी रखने की इस तृष्णा ने सामुदायिक चेतना का मानो अपहरण कर लिया है। मृत्यु की अपरिहार्यता को लिपि पर लागू करनेवाले भूल जाते हैं कि मृत्यु प्राकृतिक हो तब भी प्राण बचाने की चेष्टा की जाती है। ऐसे लोगों को याद दिलाया जाना चाहिये कि यहाँ तो लिपि की सुनियोजित हत्या हो रही है और हत्या के लिए भारतीय दंडसंहिता की धारा 302 के अंतर्गत मृत्युदंड का प्रावधान है।

सारी विसंगतियों के बीच अपना प्रभामंडल बढ़ाती भारतीय भाषाओं विशेषकर हिंदी के विरुद्ध ‘फूट डालो और राज करो’ की कूटनीति निरंतर प्रयोग में लाई जा रही है। इन दिनों  हिंदी की बोलियों को स्वतंत्र भाषा के रूप में मान्यता दिलाने की गलाकाट प्रतियोगिता शुरु हो चुकी है। खास तौर पर गत जनगणना के समय इंटरनेट के जरिये इस बात का जोरदार प्रचार किया गया कि हम हिंदी की बजाय उसकी बोलियों को अपनी मातृभाषा के रूप में पंजीकृत करायें। संबंधित बोली को आठवीं अनुसूची में दर्ज कराने के सब्जबाग दिखाकर, हिंदी की व्यापकता को कागज़ों पर कम दिखाकर आंकड़ो के युद्ध में उसे परास्त करने के वीभत्स षड्यंत्र से क्या हम लोग अनजान हैं? राजनीतिक इच्छाओं की नाव पर सवार बोलियों को भाषा में बदलने के आंदोलनों के प्रणेताओं (!) को समझना होगा कि यह नाव उन्हें घातक भाषायी षड्यंत्र की सुनामी के केंद्र की ओर ले जा रही है। अपनी राजनीति चमकाने और अपनी रोटी सेंकनेवालों के हाथ फंसा नागरिक संभवतः समझ नहीं पा रहा है कि यह भाषायी बंदरबाँट है। रोटी किसीके हिस्से आने की बजाय बंदर के पेट में जायेगी। बेहतर होता कि मूलभाषा-हिंदी और उपभाषा के रूप में बोली की बात की जाती।

संसर्गजन्य संवेदनहीनता, थोथे दंभवाला कृत्रिम मनुष्य तैयार कर रही है। कृत्रिमता की ये पराकाष्ठा है कि मातृभाषा या हिंदी न बोल पाने पर व्यक्ति लज्जा अनुभव नहीं करता पर अंग्रेजी न जानने पर उसकी आँखें स्वयंमेव नीची हो जाती हैं। शर्म से गड़ी इन आँखों को देखकर मैकाले और उसके भारतीय वंशजों की आँखों में विजय के अभिमान का जो भाव उठता होगा, अठारह  अक्षोहिणी सेना को परास्त कर वैसा भाव पांडवों की आँखों में भी न उठा होगा।

ग्लोबलाइजेशन के नाम पर लोकल को खारिज करने का नया वितण्डावाद इन दिनों जोरों पर है। लोकल, ग्लोबल की इकाई है। अनेक लोकल मिलकर ग्लोबल बनते हैं। इकाई के बिना दहाई की कल्पना करना,…कल्पना भी हास्यास्पद है।

संस्कृत को पाठ्यक्रम से हटाना एक अक्षम्य भूल रही। तर्क दिया गया कि इसमें जो कुछ है, भूतकाल है। आधुनिकता के साथ ये भाषा नहीं चल पायेगी। क्या आधुनिकता का अर्थ यूरोप से आयातित ही हो सकता है जबकि संशोधनों में संस्कृत भाषा एवं देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता वादातीत सिद्ध हो चुकी है। कतिपय स्वयंभू विद्वानों के मतानुसार संस्कृत हिंदुओं की भाषा रही, अतः उसका प्रयोग उचित नहीं होगा। जिस भूभाग पर जो समुदाय बहुतायत में होगा, स्वाभाविक है कि रचा जानेवाला साहित्य उस समुदाय की सांस्कृतिक मूल्यधर्मिता को दर्शायेगा। समुदाय की धार्मिक संस्कृति हो सकती है पर संस्कृति धार्मिक नहीं होती। फिर भाषा हिंदू और मुसलमान कबसे होने लगी? उर्दू साहित्य में बड़ा योगदान गैर मुस्लिमों का है तो क्या उनका लेखन काफिर कहलायेगा? हमारे समय की सबसे बड़ी विडंबना है कि अक्षर पर टिप्पणी करने का काम निरक्षर कर रहा है।

त्रिभाषा सूत्र में हिंदी, प्रादेशिक भाषा एवं संस्कृत/अन्य क्षेत्रीय भाषा का प्रावधान किया जाता तो देश को ये दुर्दिन देखने को नहीं मिलते। अब तो हिंदी को पालतू पशु की तरह दोहन मात्र का साधन बना लिया गया है। जनता से हिंदी में मतों की याचना करनेवाले निर्वाचित होने के बाद अधिकार भाव से अंग्रेजी में शपथ उठाते हैं।

साहित्यकारों के साथ भी समस्या है। दुर्भाग्य से भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों के बड़े वर्ग में  भाषाई प्रतिबद्धता दिखाई नहीं देती। इनमें से अधिकांश ने ने भाषा को साधन बनाया, साध्य नहीं। हद तो ये है कि अपनी साहित्यिक अभिव्यक्ति पर मोहित, दूसरे की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए आगे भी नहीं आना चाहता। यही स्थिति हिंदी की रोटी खानेवाले प्राध्यापकों और हिंदी फिल्म के कलाकारों की भी है। सिनेमा में हिंदी में संवाद बोलकर हिंदी की रोटी खानेवाले सार्वजनिक वक्तव्य अंग्रेजी में करते हैं। ऐसे सारे वर्गों के लिए वर्तमान दुर्दशा पर अनिवार्य आत्मपरीक्षण का समय आ चुका है।

हिंदी और हिंदीतर लेखक, निवासी और प्रवासी लेखक जैसी संज्ञाएं भी इसी शृंखला की अगली कड़ी हैं। इस तर्ज़ पर तो भारत के सभी अंग्रेजी लेखकों को अब तक ‘अंग्रेजीतर अंग्रेजी लेखक’ के सैकड़ों अंतरराष्ट्रीय सम्मान कूट लेने चाहिए थे। आशा है कि इन अवरोधों को समाप्त कर हम आगे आ पाएँगे और विश्वभर के हिंदी लेखकों का एक ही समुदाय होगा।

भाषा के साथ-साथ भारतीयता के विनाश का जो षडयंत्र रचा गया, वह अब आकार ले चुका है। भारत में दी जा रही तथाकथित आधुनिक शिक्षा में रोल मॉडेल भी यूरोपीय चेहरे ही हैं। नया भारतीय अन्वेषण अपवादस्वरूप ही दिखता है। डूबते सूरज के भूखंड से आती हवाएँ, उगते सूरज की भूमि को उष्माहीन कर रही हैं।

छोटी-छोटी बात पर और प्रायः बेबात  संविधान को इत्थमभूत धर्मग्रंथ-सा मानकर अशोभनीय व्यवहार करने वाले छुटभैयों से लेकर कथित राष्ट्रीय नेताओं तक ने कभी राष्ट्रभाषा को मुद्दा नहीं बनाया। जब कभी किसीने इस पर आवाज़ उठाई तो बरगलाया गया कि भाषा संवेदनशील मुद्दा है। तो क्या देश को संवेदनहीन समाज अपेक्षित है? कतिपय बुद्धिजीवी भाषा को कोरी भावुकता मानते हैं। शायद वे भूल जाते हैं कि युद्ध भी कोरी भावुकता पर ही लड़ा जाता है। युद्धक्षेत्र में ‘हर-हर महादेव’ और ‘पीरबाबा सलामत रहें’ जैसे भावुक (!!!) नारे ही प्रेरक शक्ति का काम करते हैं। यदि भावुकता से राष्ट्र एक सूत्र में बंधता हो, व्यवस्था शासन की दासता से मुक्त होती हो, शासकों की संकीर्णता पर प्रतिबंध लगता हो, अनुशासन कठोर होता हो तो भावुकता देश की अनिवार्य आवश्यकता हो जाती है।

वर्तमान में सीनाजोरी अपने चरम पर है। काली चमड़ी के अंगे्रज पैदा करने के लिए भारत में अंग्रेजी शिक्षा लानेवाले मैकाले के प्रति नतमस्तक होता  आलेख पिछले दिनों एक हिंदी अखबार में पढ़ने को मिला। यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब जनरल डायर और जनरल नील-छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप और पृथ्वीराज चौहान के स्थान पर देश में शौर्य के प्रतीक के रूप में पूजे जाने लगेंगे।

सामान्यतः श्राद्धपक्ष में आयोजित होनेवाले हिंदी पखवाड़े के किसी एक दिन हिंदी के नाम का तर्पण कर देने या सरकारी सहभोज में सम्म्मिलित हो जाने भर से हिंदी के प्रति भारतीय नागरिक के कर्तव्य  की इतिश्री नहीं हो सकती। आवश्यक है कि नागरिक अपने भाषाई अधिकार के प्रति जागरुक हों। वे ह सूचना के अधिकार के तहत राष्ट्रभाषा को राष्ट्र भर में मुद्दा बनाएँ।

भारतीय भाषाओं के आंदोलन को आगे ले जाने के लिए छात्रों से अपेक्षित है कि वे अपनी भाषा में उच्च शिक्षा पाने के अधिकार को यथार्थ में बदलने के लिए पहल करें। स्वाधीनता के सत्तर वर्ष बाद भी न्यायव्यवस्था के निर्णय विदेशी भाषा में आते हों तो संविधान की पंक्ति-‘भारत एक सार्वभौम गणतंत्र है’ अपना अर्थ खोने लगती है।

देखने में आया है कि चीन का युवा अंग्रेजी में कोई बात सीखता है तो सबसे पहले उसे मंदारिन में अनूदित कर इंटरनेट पर अपलोड कर देता है। भारतीय युवाओं से भी अपेक्षित है कि दुनिया की हर तकनीक को भारतीय भाषाओं में उपलब्ध करा दें। आधुनिक तकनीक और संचार के अधुनातन साधनों से अपनी बात दुनिया तक पहुँचाना तुलनात्मक रूप से बेहद आसान हो गया है। भारतीय भाषाओं में अंतरजाल पर इतनी सामग्री अपलोड कर दें कि ज्ञान के इस महासागर में डुबकी लगाने के लिए अन्य भाषा भाषी भी हमारी  भाषाएँ सीखने को  विवश  हो जाएँ।

सरकार से अपेक्षित है कि हिंदी प्रचार संस्थाओं के सहयोग से विदेशियों को हिंदी सिखाने के लिए क्रैश कोर्सेस शरू करे। भारत आनेवाले  सैलानियों के लिए ये कोर्सेस अनिवार्य हों। वीसा के लिए आवश्यक नियमावली में इसे समाविष्ट किया जा सकता है।

कहने-सुनने-लिखने के लिए बहुत कुछ है। हम सब पर सामुदायिक रूप से जड़त्व का नियम (लॉ ऑफ इनरशिआ) लागू होता है। हम यथास्थितिवादी हो चले हैं।
कर्मयोग की मीमांसा करते हुए गीता में कहा गया है-

श्रेयान् स्वधर्मः विगुणः परधर्मात् सु अनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मः भय आवहः॥

अर्थात् अपना धर्म चाहे उसमें कमियाँ  ही क्यों न हों, दूसरे के धर्म से अच्छा है। परधर्म अपनाने से अपने धर्म का पालन करते हुए मृत्यु का अंगीकार करना श्रेयस्कर है। क्या भारतीयता, भारतीय धरती पर जन्म लेनेवाले का धर्म नहीं होना चाहिए? हिंदी भाषा और हिंदी संस्कृति के लिए पहल हिंदुस्तानी नहीं करेगा तो फिर कौन करेगा? कहा भी गया है- य: क्रियावान स पण्डित:।

बढ़ते विदेशी पूँजीनिवेश के साथ भारतीय भाषाओं और भारतीयता का संघर्ष ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’की स्थिति में आ खड़ा हुआ है। समय की मांग है कि  ‘उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से सफेद कैसे’ जैसी तुलना या मैग्निफाइंग ग्लास लेकर पत्र-पत्रिकाओं में गलतियाँ तलाशने की वृत्ति छोड़कर, बड़े उद्देश्य की पूर्ति के लिए सभी साहित्यकार साथ आएँ। केवल हिंदी नहीं अपितु भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों के एकसाथ आने की आवश्यकता है। प्रादेशिक स्तर पर प्रादेशिक भाषा और राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के नारे को बुलंद करना होगा। ‘अंधाधुंध अंग्रेजी’के विरुद्ध ये एकता अनिवार्य है।

बीते सात दशकों में पहली बार भाषा नीति को लेकर  वर्तमान केंद्र सरकार संवेदनशील और सक्रिय दिखाई दे रही है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता, भारत और भारतीयता के पक्ष में स्वयं प्रधानमंत्री ने पहल की है। मंत्री तो मंत्री रक्षा और विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता भी हिंदी में अपनी बात रख रहे हैं। यह सही समय है कि हिंदी और भारतीय भाषाओं के पक्ष में आम जनता स्वप्रेरणा से आगे आए।

लगभग चार दशक पूर्व दक्षिण अफ्रीका का एक छोटा सा देश आज़ाद हुआ। मंत्रिमंडल की पहली बैठक में निर्णय लिया गया कि देश आज से ‘रोडेशिया’ की बजाय ‘जिम्बॉब्वे’ कहलायेगा।  राजधानी ‘सेंटलुई’ तुरंत प्रभाव से ‘हरारे’ होगी। नई सदी प्रतीक्षा में है कि कब ‘इंडिया’ की केंचुली उतारकर ‘भारत’ बाहर आयेगा।

प्रश्न अनेक हैं। हमारी अपेक्षा है कि समुदाय चिंतन करने को प्रवृत्त हो। चिंतन, चेतना को झकझोरे और चैैतन्य नागरिक सक्रिय हो। नीति कहती है कि समाज दुर्जनों की सक्रियता से नहीं, सज्जनों की निष्क्रियता से बाधित होता है। ‘इंडिया’ की केंचुली से मुक्ति के लिए हम सबकी सामूहिक सक्रियता वांछित है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिंदी साहित्य – राजभाषा दिवस विशेष – ☆ स म्मा न ☆ – श्री सदानंद आंबेकर

राजभाषा दिवस विशेष 

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

 

(राजभाषा दिवस पर श्री सदानंद आंबेकर  जी का  विशेष आलेख स म्मा न.) 

 

स म्मा न

 

सुबह के लगभग ग्यारह-बारह बजे के समय अचानक बैंड़ बाजों की आवाज से लोग चौंक उठे। आंखें उठाकर देखा तो पाया कि बाजार के मध्य से एक जुलूस जा रहा है। उसके बीच में सुसज्जित पालकी पर एक तेजोमय मुद्रा वाली वयोवृद्ध महिला सुंदर से वस्त्र पहने बैठी है। चार लोग पालकी उठाए चले जाते है। बीच बीच में जुलूस के लोग उसकी जय-जयकार भी बोल रहे हैं। सभी लोग अत्यंत कौतुहूल से उस जुलूस एवं उसके मध्य जा रही वृद्धा को देख रहे थें किंतु समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उस जुलूस में काफी लोग थे जिनमें सामान्य जन से लेकर अनेक बड़े नेता भी दृष्टिगोचर हो रहे थे। लोगों के उत्साह का पारावार न था। जुलूस यों ही जयकार करता हुआ आगे चला गया ।

अनेक दिनों बाद उसी बाजार के एक दुकानदार ने देखा कि वही बूढ़ी महिला सड़क के किनारे उदास सी बैठी हुई है एवं लोगों की उपेक्षा भरी दृष्टि उस पर पड़ रही थी, किंतु उस दुकानदार को अपने काम की जल्दी थी सो वह भी सामान्य सी नजर ड़ाल कर आगे बढ़ गया।

एक बार पुनः वही वृद्धा उसे दूसरे मार्ग पर दिखाई दी और इस बार वह और भी बुरी अवस्था में थी। उसके वे नए वस्त्र तो एकदम जीर्ण हो गये थे एवं वह स्वयं भी क्लांत एवं भूखी प्यासी दीख रही थी। आश्चर्य यह था उस दिन जुलूस में सम्मिलित वे कुछेक लोग आज आसपास से गुजरते हुए उसे देख तक नहीं रहे थे। आज उस दुकानदार से रहा नहीं गया एवं सहानुभूति एवं उत्सुकता की मिलीजुली भावना के वशीभूत वह वृद्धा के पास गया एवं पूछ ही लिया कि माई आप कौन हैं एवं उस दिन एवं आज के दिन की आपकी स्थिति में जमीन आसमान का अंतर देख रहा हूँ तो इसका क्या कारण है और मैं आपकी क्या कुछ मदद कर सकता हूँ ?

उस वृद्धा ने अत्यंत सहजता से उत्तर दिया – “उस दिन की सम्मानित महिला मैं ही थी एवं आज की उपेक्षित बुढ़िया भी मैं ही हूँ। मैं इस देश की राजभाषा हूँ, मेरा नाम हिन्दी है एवं जिस दिन तुमने मुझे पालकी में देखा था वह दिन हिन्दी दिवस-चौदह सितंबर था।”

 

©  सदानंद आंबेकर

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हिंदी साहित्य – राजभाषा दिवस विशेष – ☆ भाषायें अभिव्यक्ति का माध्यम, परस्पर अनुपूरक होती हैं. ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

राजभाषा दिवस विशेष 
श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(राजभाषा दिवस पर  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी का  विशेष आलेख भाषायें अभिव्यक्ति का माध्यम, परस्पर अनुपूरक होती हैं.) 

 

 ☆ भाषायें अभिव्यक्ति का माध्यम, परस्पर अनुपूरक होती हैं ☆

 

संविधान सभा में देवनागरी में लिखी जाने वाली हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया है. स्वाधीनता आन्दोलन के सहभागी रहे हमारे नेता जिनके प्रयासो से हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया  आखिर क्यो चाहते थे कि हिन्दी  केन्‍द्र और प्रान्तों के बीच संवाद की भाषा बने? स्पष्ट है कि वे एक लोकतांत्रिक राष्ट्र का सपना देख रहे थे जिसमें जनता की भागीदारी सुनिश्चित करनी थी. उन मनीषियो ने एक ऐसे नागरिक की कल्पना थी जो बौद्धिक दृष्टि से तत्कालीन राजकीय  संपर्क भाषा अंग्रेजी का पिछलग्‍गू नहीं, बल्कि आत्मनिर्भर हो.  यही स्वराज अर्थात अपने ऊपर अपना ही शासन की अवधारणा की संकल्पना  भी थी.  इस कल्पना में आज भी वही शक्ति है.  इसमें आज भी वही राष्ट्रीयता का आकर्षण है.

आजादी के बाद से आज तक अगर एक नजर डालें तो हमें दिखता है कि भारत की जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा इस बीच हिन्दी, उर्दू, मराठी, गुजराती, कन्नड़, तमिल, तेलगू आदि भारतीय भाषाओं के माध्यम से ही साक्षर हुआ है. आजादी के समय 100 में 12 लोग साक्षर थे,  आज साक्षरता का स्तर बहुत बढ़ा है.  इस बीच भारत की आबादी भी बहुत अधिक बढ़ी है,अर्थात आज ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक है जो हिन्दी में पढ़ना-लिखना जानते हैं.

हिन्दी आज ३० से अधिक देशो में ८० करोड़ लोगो की भाषा  है.विश्व हिन्दी सम्मेलन सरकारी रूप से आयोजित होने वाला हिन्दी पर केंद्रित  महत्वपूर्ण आयोजन है.  यह सम्मेलन प्रत्येक तीसरे वर्ष आयोजित किया जाता है। इस वर्ष यह आयोजन मारीशस में आयोजित हो रहा है.वैश्विक स्तर पर भारत की इस प्रमुख भाषा के प्रति जागरुकता पैदा करने, समय-समय पर हिन्दी की विकास यात्रा का मूल्यांकन करने, हिन्दी साहित्य के प्रति सरोकारों को मजबूत करने, लेखक-पाठक का रिश्ता प्रगाढ़ करने व जीवन के विवि‍ध क्षेत्रों में हिन्दी के प्रयोग को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से 1975 से विश्व हिन्दी सम्मेलनों की श्रृंखला आरंभ हुई है । हिन्दी को वैश्विक सम्मान दिलाने की  परिकल्पना को पूरा करने की दिशा में विश्वहिन्दी सम्मेलनो की भूमिका निर्विवाद है.

सम्मेलन में विश्व भर से हि्दी अनुरागी भाग लेते हैं. जिनमें गैर हिन्दी मातृ भाषी ‘हिन्दी विद्वान’ भी शामिल होते हैं। 1975 में नागपुर में पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के सहयोग से  संपन्न हुआ था,  जिसमें विनोबा जी ने हिन्दी को विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित किये जाने हेतु संदेश भेजा था।उसके बाद मॉरीशस, ट्रिनिदाद एवं टोबैको, लंदन, सूरीनाम में ऐसे सम्मेलन हुए।  इनमें से कम से कम चार सम्मेलनों में संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को आधिकारिक भाषा के रूप स्थान दिलाये जाने संबंधी प्रस्ताव पारित भी हुए.

यह सम्मेलन प्रवासी भारतीयों के ‍लिए बेहद भावनात्मक आयोजन होता है. क्योंकि ‍भारत से बाहर रहकर हिन्दी के प्रचार-प्रसार में वे जिस समर्पण और स्नेह से भूमिका निभाते हैं उसकी मान्यता और प्रतिसाद भी उन्हें इसी सम्मेलन में मिलता है. निर्विवाद रूप से देश से बाहर और देश में भी हम सब को एकता के सूत्र में जोड़ने में हिन्दी की व्यापक भूमिका है. अनेक हिन्दी प्रेमियो के द्वारा निजी व्यय व व्यक्तिगत प्रयासो से विश्व हिन्दी सम्मेलन जैसे सरकारी आयोजनो के साथ ही समानान्तर प्रयास भी किये जा रहे हैं.  स्वंयसेवी आधार पर हिंदी-संस्कृति का प्रचार-प्रसार, भाषायी सौहार्द्रता तथा सामूहिक रूप से सांस्कृतिक अध्ययन-पर्यटन सहित एक दूसरे से अपरिचित सृजनरत रचनाकारों के मध्य परस्पर रचनात्मक तादात्म्य के लिए अवसर उपलब्ध कराना भी ऐसे आयोजनो का उद्देश्य है. इस तरह के प्रयास  समर्पित हिन्दी प्रेमियो का एक यज्ञ हैं. विश्व हिन्दी सम्मेलनो की प्रासंगिकता हिन्दी को विश्व  स्तर पर प्रतिष्ठित करने में है.प्रायः ऐसे सम्मेलनो में हिस्सेदारी और सहभागिता प्रश्न चिन्ह के घेरे में रहती है क्योकि लेखक, रचनाकार, साहित्यकार होने के कोई मापदण्ड निर्धारित नही किये जा सकते. सत्ता पर काबिज लोग अपने लोगो को हिन्दी के ऐसे पवित्र यझ्ञ के माध्यम से उपकृत करने से नही चूकते.यही हाल हिन्दी को लेकर सरकारी सम्मानो और पुरस्कारो का भी रहता है. वास्तविक रचनाधर्मी अनेक बार स्वयं को ठगा हुआ महसूस करता है. अस्तु.

शहरों, छोटे कस्बों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में भी आज मोबाइल के माध्यम से इन्टरनेट का उपयोग बढ़ता जा रहा है. ऐसे में इस नये संपर्क माध्यम को हिन्दी सक्षम बनाना, हिन्दी में तकनीकी, भाषाई, सांस्कृतिक जानकारियां इंटरनेट पर सुलभ करवाने के व्यापक प्रयास आवश्यक हैं. सरल हिंदी के माध्यम से विद्यार्थियों, शिक्षकों, व्यापारियों एवं जन सामान्य हेतु  व्यापार के नए आयाम खोज रहे हर एक हिंदी भाषी भारतीय का न सिर्फ ज्ञान वर्धन बल्कि एक सफल भविष्य-वर्धन अति आवश्यक है. विकसित एवं विकासशील राष्ट्रों में ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ व्यापारियों ने एक छोटी सी सोच को बड़ा व्यापार बनाया है. भाषा का इसमें बड़ा योगदान रहा है. चिंतन मनन हिन्दी के अनुकरण प्रयोग को बढ़ावा देने, विचारों को जागृत करना ही विश्व हिन्दी सम्मेलनो, हिन्दी दिवस के आयोजनो का मूल उद्देश्य  है.

प्रायः जब भी हिन्दी की बात होती है तो इसे अंग्रेजी से तुलनात्मक रूप से देखते हुये क्षेत्रीय भाषाओ की प्रतिद्वंदी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. यह धारणा नितांत गलत है. आपने कभी भी हाकी और फुटबाल में, क्रिकेट और लान टेनिस में या किन्ही भी खेलो में परस्पर प्रतिद्वंदिता नही देखी होगी. सारे खेल सदैव परस्पर अनुपूरक होते हैं, वे शारीरिक सौष्ठव के संसाधन होते हैं, ठीक इसी तरह भाषायें अभिव्यक्ति का माध्यम होती हैं, वे संस्कृति की संवाहक होती हैं वे परस्पर अनुपूरक होती हैंं प्रतिद्वंदी तो बिल्कुल नही यह तथ्य हमें समझने और समझाने की आवश्यकता है. इसी उदार समझ से ही हिन्दी को राष्ट्र भाषा का वास्तविक दर्जा मिल सकता है.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – महत्वपूर्ण सूचना ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि – महत्वपूर्ण सूचना  ☆

 

दो वर्ष पहले की घटना स्मरण हो आई। हिंदी सिनेमा पर एक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी के सिलसिले में 8 -9 सितंबर 2017 को पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में आमंत्रित था। सुबह टहल कर लौटते हुए  निकटस्थ बॉयज़ होस्टल-7 की कैंटीन में चाय पीने बैठा। कैंटीन चालक ने अन्न की बर्बादी के विरुद्ध एक बोर्ड लगा रखा है। इस बोर्ड की तस्वीर साझा कर रहा हूँ। सोचता हूँ कि यह बोर्ड छोटे-बड़े  रेस्टोरेंट से लेकर घर की डाइनिंग टेबल तक लगा होना चाहिए। स्मरण रहे, आपकी जूठन किसीका भोजन हो सकती थी।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 8 – अद्भुत पराक्रम ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “अद्भुत पराक्रम।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 8 ☆

 

☆ अद्भुत पराक्रम 

 

सभी प्रकार के वायु के ज्ञाता, वायु में अपनी गति शुरू करते हैं । समुद्र के ऊपर आकाश में कुछ दूरी चलने के बाद, एक समुद्री राक्षस ने भगवान हनुमान के मार्ग को अवरुद्ध कर दिया ।

यह सुरसा थी ‘सुर’ का अर्थ है देवता और ‘सा’ का अर्थ समान है । तो सुरसा का अर्थ देवता के समान है या वो जिसमें देवतो जैसी शक्तियाँ हैं । वह कश्यप और क्रोधवश की 10 बेटियों में से एक और साँपो की माँ थी ।

उसने भगवान हनुमान को रोक दिया और कहा, “हे! वानर  तुम कहाँ जा रहे हो? मुझे भगवान ब्रह्मा से वरदान प्राप्त है कि मेरे मुँह  में प्रवेश किए बिना कोई भी इस स्थान से आगे नहीं जा सकता है”

भगवान हनुमान ने उत्तर दिया, “ठीक है, पहले मैं आपको अपना परिचय दूँगा । मैं हनुमान हूँ और भगवान राम की पत्नी देवी सीता को लंका में  खोजने जा रहा हूँ ”

जैसे की प्रत्येक प्राणी की मूल प्रकृति होती है की जब हम कोई नया नाम सुनते हैं तो हम इसे दोहराते हैं । तो सुरसा ने कहा, “ओह हनुमान! लेकिन तुम्हे मेरे मुँह  में आना होगा”

जल्द ही भगवान हनुमान ने कहा, “हे देवी, अपने अभी अपने मुँह  से हनुमान नाम पुकारा । नाम को किसी भी जीवित व्यक्ति की पहचान के रूप में परिभाषित किया गया है । इसलिए जब आपने अपने मुँह से मेरा नाम पुकारा, तो आपका वरदान विफल नहीं हुआ क्योंकि हनुमान आपके मुँह  से आया ”

सुरसा, भगवान हनुमान की बुद्धि से बहुत प्रभावित हुई और हाँ, भगवान ब्रह्मा जी का वरदान भी असफल नहीं हुआ । तब सुरसा ने भगवान हनुमान को आशीर्वाद दिया और उनका मार्ग छोड़ दिया । भगवान हनुमान समुद्र के ऊपर आकाश में अपने रास्ते पर आगे बढ़ गए ।

भगवान हनुमान काले और सफेद बादलों से गुज़रते हुए आगे बढ़ रहे थे जिसमे से कुछ सिर्फ देखावे की लिए थे अन्य कुछ बादलो में बारिश के लिए पानी भरा था ।

तभी समुद्र में से एक मादा राक्षसी सिंहिका (अर्थ : शेरनी की शक्तियों से युक्त) उभर कर ऊपर आयी । सिंहिका हिरण्यकशिपु की पुत्री और छाया ग्रह राहु (जो सूर्य और चंद्रमा पर ग्रहण लगाने के लिए जिम्मेदार होता है) की माँ थी । दरअसल सिंहिका ‘मन्देह’ नामक एक प्रकार की रक्षसी थी ‘मन’ का अर्थ है मस्तिष्क की विचार प्रक्रिया और ‘देह’ का अर्थ है शरीर इसलिए मन्देह किसी के शरीर और मस्तिष्क  के बीच के सामंजस्य का प्रतीक है । इस प्रजाति के राक्षस चट्टानों पर लटके रहते है गर्मी को सहन नहीं कर सकते इसलिए रोज सूरज से लड़ते प्रतीत होते हैं और सूर्योदय के समय पानी में छिपे रहते हैं ।

हिरण्यकशिपु  हिरण्य अर्थात “सोना,” कशिपु अथार्त “मुलायम कुशन” या स्वर्ण आभा या सोने के कपड़े पहने हुए, एक ऐसे व्यक्ति को चित्रित करने के लिए कहा है जो धन और यौन जीवन का बहुत शौकीन है, उनके छोटे भाई, हिरण्यक्ष को विष्णु भगवन के अवतारों में से एक वाराह ने मारा था । अपने भाई की मृत्यु से नाराज, हिरण्यकशिपु ने भगवान ब्रह्मा से तपस्या करके जादुई शक्तियाँ  हासिल करने का निर्णय  किया । बाद में उन्हें भगवान विष्णु के नृसिंह अवतार ने मारा । किंवदंती के अनुसार, हिरण्यकशिपु, असुरो का राजा था और उसने ब्रह्मा से वरदान अर्जित किया था जिसने उसे लगभग अविनाशी बना दिया था । वह घमंडी हो गया, सोचा कि वह ईश्वर है, और माँग की कि हर कोई केवल उसकी पूजा करे ।

सिंहिका ने अपने आप से कहा, “एक बड़ा प्राणी लंबे समय बाद दिखाई दिया है । आज मैं इस प्राणी को खाऊंगी और अपनी भूख मिटाऊँगी” यह सोचकर वह भगवान हनुमान की छाया को पकड़ती है । हनुमान अचानक मिले बंधन से परेशान हो जाते है । जैसे सिंहिका का पुत्र राहु, सूर्य और चन्द्रमा पर ग्रहण लगा सकता है इसी तरह वह हवा पर ग्रहण लगा सकती थी । सिंहिका वायु के प्रवाह को रोकती है जिसके कारण कोई भी उड़ने वाला जीव कुछ पल के लिए आकाश में रुक जाता है, और सिंहिका समुद्र के पानी पर उड़ने वाले जीव की छाया देखकर उस छाया को पकड़ लेती है, इससे की वो उड़ने वाला जीव एक ही जगह बंद हो जाता है और तेजी से नीचे समुन्द्र में गिरने लगता है, और वह उन्हें पकड़ कर खा लेती है ।

पवन पुत्र भगवान हनुमान ने उनका मार्ग सिंहिका द्वारा अवरुद्ध किये जाने के बाद चारों ओर देखा और बाद में समुद्र की सतह पर सिंहिका को खड़ा पाया ।

भगवान हनुमान को तुरंत एहसास हुआ कि यह सिंहिका ही है जो उन पर आक्रमण कर रही थी, और जल्द ही भगवान हनुमान ने अपने शरीर को बढ़ाना शुरू कर दिया, फिर उन्होंने अपने शरीर को एक दम से छोटा कर दिया और सिंहिका के मुँह में घुस कर उसके सिर को भेद कर बहार निकल आये । भगवान हनुमान ने उसके पैरों को भी उसके शरीर से अलग कर दिया । उसने रोना शुरू कर दिया और समुद्र में गिर गयी और फिर भगवान हनुमान से अनुरोध किया ” ओह! ताकतवर भगवान, मेरी गलती भूल जाओ और मुझ पर दया करो । अब मैं हिलने में भी असमर्थ हूँ । कृपया मुझे समुद्र में एक ऐसा स्थान सुझाएं जहाँ पर विभिन्न प्राणियों का आना जाना हो  और  जहाँ   से मैं पानी पर उनकी छाया देख कर अपने  लिए अपना खाना पकड़ सकू क्योंकि अब मैं हिल डुल नहीं सकती”

भगवान हनुमान ने अपने शरीर के आकार को बढ़ाने के बाद उसे अपनी हथेली में रखा और एक विशेष दिशा में फेंक दिया ।

वह जगह जहाँ वह गिर थी वह अभी भी एक रहस्य है, और उत्तरी अटलांटिक महासागर के पश्चिमी हिस्से में परिभाषित क्षेत्र है, जहाँ  आज भी रहस्यमय परिस्थितियों में कई विमान और जहाज गायब हो जाते हैं । हाँ, वह स्थान जहाँ पर सिंहिका की उपस्थिति अभी भी अनुभव की जाती है वह बरमूडा त्रिभुज है । जो अभी भी उस जगह पर गुजरने वाले हवाईजहाज और समुद्री जहाजों के रूप में अपना खाना पकड़ती है ।

आकाश से देवता ने भगवान हनुमान को आशीर्वाद दिया ताकि वह अपने प्रयोजन में सफल हो सके । उन्होंने कहा, “हे! महान वानर  जिनके पास चार गुण हैं: धर्ति – साहस, दृष्टि – दूरदर्शिता, मती – बुद्धि और दक्ष्य – क्षमता होते है वो अपने उद्देश्यों में कभी विफल नहीं होते ।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – प्रेम ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि – प्रेम ☆

“वी आर इन रिलेशन.., आई लव हर डैड,” होस्टल में रहनेवाले बेटे ने फोन पर ऐलान किया था। वह चुप रहा। यहाँ-वहाँ की बातें कर कुछ देर बाद फोन रख दिया।

ज़्यादा समय नहीं बीता। शायद छह महीने बाद ही उसने घोषणा कर दी, ” हमारा ब्रेकअप हो गया है। आई डोंट लव हर एनीमोर।” कुछ देर के संवाद के बाद पिता ने फिर फोन रख दिया।

‘लव हर.., डोंट लव हर..??’ देह तक पहुँचने का रास्ता कितना छोटा होता है! मन तक पहुँचने का रास्ता कहीं ठहरने का नाम ही नहीं लेता बल्कि हर कदम के बाद पीछे लौटने का रास्ता बंद होता जाता है। न रास्ता ठहरता है, न पीछे लौट सकने की गुंजाइश का खत्म होना रुकता है। प्रेम और वापस लौटना विलोम हैं। लव में ‘अन-डू’ का ऑप्शन नहीं होता। जो खुद को लौटा हुआ घोषित करते  हैं, वे भी केवल देह लेकर ही लौट पाते हैं। मन तो बींधा पड़ा होता है वहीं। काँटा चुभने की पीर, गुमशुदा के गुमशुदा रहने की दुआ, खोने की टीस, पाने की भी टीस, पराये का अपना होने की प्रीत, अपने का पराया होने की रीत, थोड़ा अपना पर थोड़ा पराया दिखता मीत.., किसी से भी, कहीं से भी वापस नहीं लौट पाता मनुष्य।

जन्म-जन्मांतर बीत जाते हैं प्रेम में!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 15 ☆ ऑनर किलिंग ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी  का एक आलेख जिसमें उन्होंने  समाज की एक हृदयविदारक परंपरा  ऑनर किलिंग पर अपनी बेबाक राय रखी है.  साथ ही उन्होंने आह्वान किया है कि कैसे  समाज में इस बुराई को दूर कर एक सकारात्मक समाज की स्थापना की जा सकती है. आदरणीया डॉ मुक्त जी का आभार एवं उनकी कलम को इस पहल के लिए नमन।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 15 ☆

 

☆ ऑनर किलिंग ☆

 

‘ऑनर किलिंग’ विपरीतार्थक शब्द… सम्मान-पूर्वक मृत्यु, अर्थात् समाज का एक घिनौना सत्य…जो सदियों से हर जाति, हर मज़हब के लोगों में प्रचलित है। प्रश्न उठता है, ‘आखिर यह प्रथा आई कहां से?’ शायद इसका जन्म हुआ मानव में निहित सर्वश्रेष्ठता के भाव से, उसके अहं से, उसके ग़ुरूर से।  यह वह दुर्भाव अर्थात् दूषित भाव है, जो मानव को मानवता से कोसों दूर ले जाता है। उसकी संवेदनाएं मर जाती हैं और वह ठूंठ मात्र रह जाता है, क्योंकि संवेदन- शून्य व्यक्ति हृदयहीन, दैवीय गुणों से विहीन…स्नेह,  सौहार्द, ममता,त्याग, सहानुभूति आदि की भावनाओं से बहुत दूर…अहंलीन मानव दूसरों के अस्तित्व को नगण्य समझता है।

वह घर-परिवार में एकछत्र साम्राज्य चाहता है, यहां तक कि वह अपने आत्मजों को भी अपनी सम्पत्ति- धरोहर स्वीकारता है तथा आशा करता है कि वे कठपुतली की भांति उसका हर हुक्म बजा लाएं… उसके हर आदेश की अनुपालना तुरंत करें।’ नो’ व ‘असंभव’ शब्द उसके शब्दकोश से नदारद होते हैं। उसमें प्रत्युत्तर सुनने का सामर्थ्य नहीं होता। वह शख्स अजीब होता है…जो अपने से अधिक बुद्धिमान, सामर्थ्यवान व शक्तिशाली किसी दूसरे को नहीं समझता।

सब परिवारजन उसकी अमुक प्रवृत्ति से सदैव परेशान  रहते हैं। उसके घर आते ही बच्चे इधर-उधर छिप जाते हैं और पत्नी का चेहरा भी भय से कुम्हला जाता है क्योंकि वह नहीं जानती कब वह उस पर अकारण बरसने लगे?और उसके माता-पिता भी उसके व्यवहार के प्रति आशंकित रहते हैं क्योंकि वह किसी भी पल सीमाओं को लांघ सकता है। वह किसी भी पल, किसी को कटघरे में खड़ा कर सकता है।

चलिये! अब बच्चों की नियति पर चर्चा करते हैं… किस मन:स्थिति में वे उस घर में रहते हैं, जहां पिता, पिता नहीं, एक हिटलर की मानिंद सदैव व्यवहार करता है। बच्चों को वह अपनी संपत्ति समझता है और उन्हें अपने अंकुश में रखना चाहता है। बच्चों को उसकी हर गलत बात को सही कहना पड़ता है क्योंकि दूसरे पक्ष की बात सुनने का धैर्य उसमें होता ही नहीं। बच्चे उसे अपनी नियति स्वीकार, सुंदर कल की कल्पना में खोए रहते हैं कि आत्मनिर्भर होने के पश्चात् उन्हें वह सब नहीं सहना पड़ेगा…वे निरंकुश व स्वछंद हो जाएंगे तथा अपनी इच्छानुसार निर्णय लेने में स्वतंत्र होंगे।

परंतु वह समय आने से पूर्व, यदि बेटा या बेटी,किसी को चाहने लगते हैं, प्रेम करने लगते हैं, तो सुनामी की गगनचुंबी लहरें उस घर की शांति व सुख चैन को समाप्त कर देती हैं, लील जाती हैं। उसका तीसरा नेत्र खुल जाता है और वह लातों व घूसों पर उतर आता है। बेटी को तो वह घर की चारदीवारी में कैद कर लेता है और उससे मोबाइल आदि भी छीन लिया जाता है। वह मासूम दीवारों से सिर टकराती, आंसू बहाती, बार-बार ग़ुहार लगाती रहती है कि वह उसके साथ अपना जीवन बसर करना चाहती है। वह दिल की गहराईयों से उसे पसंद करती है और उसके बिना ज़िन्दा नहीं रह सकती।

परंतु उसकी आवाज़ उसके कानों से टकरा कर लौट आती है। यदि वह कभी उससे जिरह करने का साहस जुटाती है, तो उस पर पाबंदियां बढ़ा दी जाती हैं और कुलनाशिनी, कुलक्षिणी कहकर उसे ही नहीं, उसकी मां को भी लताड़ा जाता है। जब जुल्म की इंतहा हो जाती है तो अक्सर वह उन ज़ंजीरों को तोड़ कर भाग निकलती है,जहां वे स्वतंत्रता से सुख की सांस ले सके।

इसके पश्चात् अक्सर उस घर में हंगामा व गाली- ग़लौच होता रहता है और वह ज़ालिम हर पल आसमान को  सिर पर उठाए डोलता रहता है। उसके  मन में यही ख़लिश रहती है कि यदि वह एक बार उसके सामने आ जाए, तो वह उसे अपनी ताकत का एहसास दिला कर सुक़ून पा सके। पिता होने से पहले वह हिटलर है। वह किसी भी सीमा तक जा सकता है और यही ‘शक्ति-प्रदर्शन’ है ऑनर किलिंग।

लड़की का पिता व परिवारजन अपने-अपने मान- सम्मान की दुहाई देते हुए उन दोनों की हत्या पर अपनी पीठ ठोंकते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि उन्होंने बच्चों को जन्म देकर कोई एहसान नहीं किया और न ही वे गुलाम हैं उनकी सल्तनत में…सो! वे उससे मनमाने व्यवहार की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं?

प्रेम सात्विक भाव है…प्रेम सामीप्य का प्रतिरूप है …एक-दूसरे की भावनाओं को समझते हुए क़रीब लाने का उपादान है। प्रेम संगीत है…प्रेम उच्छ्वास है … प्रेम वह पावन भाव है, जो मलय वायु के झोंकों सम शीतलता प्रदान करता है। परंतु जन्मदाता ही बच्चों में प्रेम का भाव प्रकट होते ही उनके दुश्मन क्यों बन जाते हैं? क्या झूठा अहं व मान-सम्मान बच्चों की ज़िन्दगी से अधिक अहमियत रखता है? शायद उनकी नज़रों में प्रेम करना ग़ुनाह है, जिसका मूल्य उनके आत्मजों को अपने प्राणों की बलि देकर ही चुकाना पड़ता है।

चलिए! इन कट्टरपंथी विचारधारा वाले माता-पिता के व्यवहार पर  दृष्टिपात कर लें…आजकल तो वे स्वयं को ख़ुदा स्वीकारने लगे हैं क्योंकि वे अपनी इच्छानुसार बच्चों को जन्म देते हैं, अन्यथा भ्रूण हत्या करवा देते हैं और बच्चों के युवा होने पर उनकी भावनाओं को न समझते हुए उनकी हत्या तक कर डालते हैं। क्या आप ऐसे सिरफिरे लोगों को ख़ुदा से कम आंकेंगे?

यह कहावत आजकल मान्य नहीं है कि जन्म व मृत्यु तो सृष्टि-नियंता के हाथ में है। मानव उसके हाथों का खिलौना मात्र हैं। वह जितनी सांसें लिखवा कर इस संसार में जन्म लेता है, उससे एक सांस भी अधिक  नहीं ले सकता। अरे! यह इक्कीसवीं सदी है… परंपरागत मान्यताएं बदल गई हैं… सोच भी पहले सी कहां है? शायद! वह ज़ालिम पिता यह सोचकर फूला नहीं समाता कि उसने ही उसे जन्म दिया था, तो उसे मार कर, उसकी  जान लेकर उसने कोई गुनाह नहीं किया।

विभिन्न प्रदेशों में खापें इस विचारधारा की पक्षधर हैं, पोषक हैं। युवाओं को अपनी इच्छानुसार विवाह करने का अधिकार प्रदत्त नहीं है। वे कुल-गोत्र, जात-बिरादरी की मर्यादा पर अधिक ध्यान देती हैं और उनकी हत्या करने को उचित ठहराती हैं। आश्चर्य होता है यह देख कर कि अनेक वर्ष तक साथ, एक छत के नीचे ज़िन्दगी बसर कर रहे पति- पत्नी को, भाई-बहन के रूप में राखी बांधने का फरमॉन स्वीकारना पड़ता है। तभी उन्हें व उनके माता-पिता को जात-बिरादरी व गांव से निष्कासित कर दिया जाता है, तो कभी उन्हें अमानवीय यातनाएं दी जातीं हैं।

परन्तु आज कल कुछ सुखद परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। चंद खापों का मृत्यु-भोज की परंपरा का  विरोध करना या विवाह पर डी•जे• आदि न चलाने की पेशकश, दहेज न लेने-देने की मुहिम आदि उन की सकारात्मक सोच की ओर संकेत करते हैं। परंतु आवश्यकता है… खापें व समाज के ठेकेदार, बच्चों को अपनी इच्छानुसार जीवनसाथी चयन करने की स्वतंत्रता प्रदान कर, उदार हृदयता का परिचय दें। उनके विरुद्ध मनमाने निर्णय ले, बेतुके व विचित्र फरमान जारी न करें।

ऑनर किलिंग यदि एक की होती है, तो दोनों परिवार सकते में आ जाते हैं… उनमें मातम पसर जाता है…. क्योंकि वे एक-दूसरे के अभाव में जीने की कल्पना भी नहीं कर पाते। यह आघात  दोनों परिवारों की खुशियों को समूल नष्ट कर देता है, सुनामी की लहरों की भांति लील जाता है। प्रेम प्रतिदान का दूसरा रूप  है। यह देने का नाम है। सो! यदि समाज के रसूख-दार लोग बच्चों को निर्णय लेने की स्वतंत्रता प्रदान करें तथा मनचाहे जीवनसाथी को वरण करने का अधिकार प्रदान करें ताकि वे प्रसन्नता से अपना जीवन बसर कर सकें। वे उनकी भावनाओं का तिरस्कार न करें, यही जीवन की  सार्थकता है। आइए! मिलकर जीवन में नया उजाला लाएं। एक स्वर्णिम सुबह तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। सारी सृष्टि उपवन की भांति महक रही है,जहां चिर वसन्त है। हम भी मनोमालिन्य मिटाकर, प्रेम भाव से एक नए युग का सूत्रपात करें, जहां सम्बन्धों की गरिमा व अहमियत हो…स्व-पर व राग-द्वेष की भावनाओं के स्थान पर हम अलौकिक प्रेम व अनहद नाद की मस्ती में खो जाएं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिंदी साहित्य – श्री गणेश विसर्जन विशेष – ☆ अथ श्री गणेश  व्यथा ☆ – श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

 

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है।  गायत्री तीर्थ  शांतिकुंजहरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास

हम श्री सदानंद आंबेकर जी  के आभारी हैं  जिन्होंने श्री गणेश विसर्जन से सम्बंधित हमारी परम्पराओं के साथ ही पर्यावरण पर अपनी पैनी दृष्टी डालते हुए  इस विचारात्मक आलेख की रचना की है. )

 

☆ अथ श्री गणेश  व्यथा ☆

 

भाद्रपद पूर्णिमा की सुबह, मंगलमूर्ति गणपतिजी कैलाश पर महाकाल शंकर जी के समक्ष बैठे हुये थे। चेहरा म्लान, शरीर क्लांत दिखाई दे रहा था। पास ही मूषकराज भी शरीर को झटक झटक कर सुखाने का उपक्रम करते दीख रहे थे।

भगवान आशुतोष ने माता पार्वती की ओर गहरी दृष्टि से देखा और गणपतिजी से पूछा- क्या बात है वत्स ? उल्लासित नहीं दिख रहे हो ?

वे आगे कुछ और पूछते इतने में मंगलमूर्ति व्यग्रता से बोल उठे- पिताजी मुझे यह हर वर्ष धरती पर कब तक जाना होगा?

भोलेनाथ- क्यों क्या हो गया? धरती पर तो तुम्हारा बड़ा स्वागत सत्कार होता है। फिर ?

गणनाथ – स्वागत और सत्कार ? पिताश्री अब आज धरती पर झांक कर देखिये, मेरी प्रतिमायें सिरविहीन, भुजाविहीन, भग्रावस्था में जलाशयों के किनारों पर पैरों तले पड़ी मिलेंगी।

भोलेनाथ – अच्छा … ऐसी अवमानना . . . मैं अभी डमरू बजा दूँ तो चहुँ ओर प्रलय आ जायेगी।

गणपति- रहने दीजिये पिताजी, धरती पर मेरी प्रतिमाओं की स्थापना के पास मानव निर्मित वृहदाकार ध्वनि विस्तारक यंत्रों का शोर आप दस दिनों तक अहर्निश सुनेंगे तो अपने डमरू और शंख रुद्र की ध्वनि को भूल जायेंगे। कुछ दिन तक तो आपको बधिरता लगेगी। उफ्फ, आप स्वागत-सत्कार की बात कह रहे थे, पहले दिन तो खूब धूमधाम से मेरा स्वागत होता है, भजन, आरती, नारे लगते हैं पर अगले दिन से मानव न मालूम कौन सी वाणी में गीत बजाता है, मुझे तो कुछ समझ नहीं आता है। सायंकाल में महिला पुरुष भक्त दर्शनों को आते हैं, तो मेरे स्थापना करने वाले भी एकदम संत प्रकृति के हो जाते हैं, पर रात्रि बढने पर वे ही आपकी सेना के भूत पिशाचों की श्रेणी में आकर मदिरापान करने लगते हैं और आपके महाप्रलय की शैली में अबूझ नृत्य करते हैं।

मुझे अर्पित किया गया प्रसाद भी न मालूम किस पदार्थ का होता है, बड़ा अप्रिय लगता है, और दान का धन भी न जाने कहाँ चला जाता है। धरती पर विद्युत ऊर्जा अतिशय अपव्यय मैं देखता हूँ। पिताश्री, यह यंत्रणा दस दिनों तक मैं सहता हूँ।

दसवें दिन फिर मुझे बड़े आदर के साथ विसर्जन हेतु जुलूस में ले जाया जाता है और किसी जलाशय, समुद्र के तट पर ले जाकर जयकारों के साथ अत्यंत गंदे जल में विसर्जित किया जाता है। जल में मैं देखता हूँ, नाना प्रकार के जलचर बड़े घबराये हुये से भागते दिखाई पड़ते हैं और वह जल भी, उफ्फ . .  कितना गंदा होता है। पिताजी , उनके जयकारों में वे कहते हैं- अगले बरस तू जल्दी आ, आप ही बताईये मैं फिर क्या करने जाऊँ? कहाँ है भक्ति, श्रद्धा, समर्पण एवं आदर्श के प्रति प्रेम? मुझे बताईये पिताजी, क्या पुण्यात्मा लोकमान्य तिलक जी से स्वर्ग में मेरी भेंट हो पायेगी ?? मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि उन्होंने किन पवित्र उद्देश्यों को लेकर मोहल्ले में सार्वजनिक गणेश उत्सव की परम्परा आरम्भ की थी?

पिताश्री, मेरी पीड़ा आप स्वयं भी समझ सकते हैं, जब श्रावण में कांवड यात्रा रूपी हुडदंग में आपकी घोर अवमानना होती है। अगले माह मेरी स्नेहमयी माताजी को भी नवरात्रि में धरती पर जाना होता है, मैं तो कहूँगा कि वे भी इस विषय में एक बार सोच लें।

यह सब सुनकर भगवान पशुपतिनाथ को अतिशय क्रोध आ गया और वे आवेश में खड़े होकर गर्जना करने लगे- जाग, जाग, जाग, मानव जाग।

दूर कहीं से आवाज आ रही थी उठो, उठो, उठो और अचानक जोर का धक्का लगा तो मेरी नींद झटके से खुल गई और देखा, पिताजी मुझे झकझोर कर कह रहे थे- अरे निकम्मे, विसर्जन करके रात देर में आया, अब कब तक सोयेगा, चल उठ और काम पर लग जा।

 

©  सदानंद आंबेकर

(इस विषय पर अभी पढने में आई एक छोटी सी मराठी कविता से प्रेरणा लेकर साभार लिखा गया)

 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – समुद्र मंथन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि – समुद्र मंथन ☆

…समुद्र मंथन क्या एक बार ही हुआ था?

 

…. फिर ये नित, निरंतर, अखण्डित रूप से मन में जो मथा जा रहा होता है, वह क्या है?… विष भी अपना, अमृत भी अपना! राक्षस भी भीतर, देवता भी भीतर!… और मोहिनी बनकर जग को भरमाये रखने की चाह भी भीतर!

 

… समुद्र मंथन क्या सचमुच एक बार ही हुआ था..?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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