हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ विश्वास बनाम बर्दाश्त ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं. आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी  का रिश्तों को लेकर एक बेहद संवेदनात्मक एवं शिक्षाप्रद आलेख “विश्वास बनाम बर्दाश्त”.  रिश्तों की बुनियाद ही विश्वास पर टिकी होती है.  रिश्तों में एक बार भी शक की दीमक लग गई तो रिश्तों की दीवार ढहने में कोई समय नहीं लगता.   कहते हैं कि – शक की बीमारी का इलाज हकीम लुकमान के पास भी नहीं था।  डॉ मुक्ता जी  ने वर्तमान समय में  रिश्तों की अहमियत, उन्हें निभाने की कला एवं रिश्तों में कड़वाहट आने से टूटने तक की प्रक्रिया की बेहद बेबाक एवं बारीकी से  विवेचना की  है.  इस बेहद संवेदनशील आलेख के लिए उनकी कलम को नमन. )

 

☆ आलेख –  विश्वास बनाम बर्दाश्त ☆

 

‘रिश्ते बनते तो विश्वास से हैं, परंतु चलते बर्दाश्त से हैं‘ इस वाक्य में इतनी बड़ी सीख छिपी है… जैसे सीप में अनमोल मोती। विश्वास ज़िन्दगी की अनमोल दौलत है। विश्वास द्वारा आप किसी का हृदय ही नहीं जीत सकते, उसमें स्थायी बसेरा भी स्थापित कर सकते हैं। विश्वास से बड़े-बड़े देशों में संधि हो सकती है, युद्ध-विराम की कसौटी पर भी  विश्वास सदा खरा उतरता है। विश्वास द्वारा आप गिरते को थाम कर, उसमें धैर्य, साहस व उत्साह का संचार कर सकते हैं, जिसे जीवन में धारण कर वह कठिन से कठिन आपदाओं का सामना कर सकता है। हिमालय पर्वत की चोटी पर परचम लहरा सकता है, सागर के अथाह जल में थाह पा सकता है…यह है विश्वास की महिमा।

‘रिश्ते विश्वास से बनते हैं’और जब तक विश्वास कायम रहता है, रिश्ते मज़बूत रहते हैं, पनपते हैं, विकसित होते हैं…परंतु जब हृदय रूपी आकाश पर संदेह रूपी बादल मंडराने लगते हैं, शक़ हदय में स्थान बना लेता है…तब थम जाता है यह दोस्ती का सिलसिला और एक-दूसरे को बर्दाश्त करना कठिन हो जाता है।  ह्रदय का स्वभाव बन जाता है… हर पल दोषारोपण करने का, कमियां ढूंढने का, अवगुणों को उजागर करने का, अहं-प्रदर्शन करने का और ज़िन्दगी उस पड़ाव पर आकर थम जाती है, जहां वह स्वयं को एकांत से जूझता हुआ अनुभव करता है। लाख चाहने पर भी वह शंका रूपी व्यूह से मुक्त नहीं हो पाता

शायद! इसीलिए हमारे ऋषि मुनि सहनशीलता का संदेश बखानते हैं, क्योंकि यह वह संजीवनी है जो बड़े-बड़े दिग्गजों के हौंसले पस्त कर देती है। दूसरे शब्दों में  ‘सहना है, कहना नहीं ‘ इसी का प्रतिरूप है, मानो ये सिक्के के दो पहलू हैं। नारी को  बचपन से ही मौन रहने व ऊंचा न बोलने की हिदायत दी जाती है और बचपन में ही यह अहसास दिला दिया जाता है कि उसे दूसरे घर में जाना है।सो! उसे मौन रूपी गुणों को आत्मसात् कर प्रत्युत्तर नहीं देना है। यही दो घरों की इज़्ज़त बचाने का मात्र साधन है,उपादान है, कुंजी है। इसी के आधार पर ही वह दो कुलों की मान-मर्यादा की रक्षा कर सकती है।

परंतु आजकल इससे उलट होता है। संसार का कोई भी प्राणी किसी के अंकुश में नहीं रहना चाहता। हर इंसान अहर्निश अहं में डूबा रहता है, स्वयं को सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम स्वीकारता है जिसके सम्मुख दूसरों का अस्तित्व नगण्य होता है। वास्तव में रिश्ते बर्दाश्त से चलते हैं अर्थात् उनका निर्वाह दूसरे को उसकी कमियों के साथ स्वीकारने से होता है। जैसा कि सर्वविदित है कि इंसान गलतियों का पुतला है, अवगुणों की खान है, स्व-पर व राग-द्वेष की ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ इंसान मोह-माया के जंजाल से मुक्त नहीं हो पाता। संसार के आकर्षण उसे हर पल आकर्षित कर पथ-भ्रष्ट करते हैं और वह स्वार्थ के आधीन होकर,अपने जीवन के मूल लक्ष्य से भटक जाता है

रिश्ते बनाना बहुत आसान है। मानव पल भर में रूप-सौंदर्य व वस्तुओं-संसाधनों की ओर आकर्षित हो जाता है, जो देखने में सुंदर-मनभावन होते हैं। परंतु कुछ समय बाद उसका भ्रम टूट जाता है और विश्वास के स्थान पर जन्म लेता है…अविश्वास, संदेह,  भ्रम व आशंका, जिसके कारण संबंध अनायास टूट जाते हैं।

सत्य ही तो है, ‘आजकल संबंध व स्वप्न ऐसे टूट जाते हैं, जैसे भुने हुए पापड़।’  एक-दूसरे को बर्दाश्त न करने के कारण संबंध-विच्छेद होने में पल भर भी नहीं लगता। उसके पश्चात् मानव ‘तू नहीं, और सही’ की राह पर चल निकलता है और ‘लिव इन’ में रहना पसंद करता है… जहां कोई बंधन नहीं, सरोकार नहीं, दायित्व नहीं…. और एक दिन यह उन्मुक्तता जी का जंजाल बन जाती है, जिसके परिणाम- स्वरूप वह रह जाता है, नितांत अकेला, खुद से बेखबर, अपनों की भीड़ में अपनों को तलाशता, सुक़ून पाने को लालायित, इत-उत झांकता,परिवार- जनों से ग़ुहार लगाता… परंतु सब निष्फल।

ऐसी विसंगतियों से उपजे रिश्ते कभी स्थायी नहीं होते। आजकल तो रिश्तों को ग्रहण लग गया है।कोई भी रिश्ता पाक़-साफ़ नहीं रहा। गुरु-शिष्य व पिता- पुत्री का संबंध, जिसे सबसे अधिक पावन स्वीकारा जाता था, उस पर भी कालिख पुत गई है। अन्य संबंधों  की चर्चा करना तो व्यर्थ है। आजकल बहन- बेटी का रिश्ता भी अस्तित्वहीन हो गया है और शेष बचा है, एक ही रिश्ता… औरत का, जिसे वासना पूर्ति का मात्र साधन समझा जाता है। समाज में गिरते मूल्यों के कारण चंद दिनों की मासूम कन्या हो या नब्बे वर्ष की वृद्धा…दबंग लोग उससे दुष्कर्म करने में भी संकोच नहीं करते क्योंकि उन्हें तो पल भर में अपनी हवस को शांत करना होता है। उस स्थिति में वे जाति-पाति व उम्र के बंधनों से ऊपर उठ जाते हैं।

रिश्तों की दास्तान बड़ी अजब है। खून आजकल पानी होता जा रहा है और इंसान मानवता के नाम पर कलंक है, जिसका उदाहरण है…गली-गली,चप्पे- चप्पे पर दुर्योधन और दु:शासन का द्रौपदी का चीर- हरण कर, मर्यादा की सीमाओं को लांघ जाना… जिसके उदाहरण हर शहर में निर्भया, आसिफ़ा व अन्य पीड़िता के रूप में मिल जाते हैं, जो लंबे समय तक ज़िन्दगी व मौत के झूले में झूलती संघर्षरत देखी जा सकती हैं। उन्हें हरपल सामाजिक अवमानना, शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना सहन करनी पड़ती है। तनिक स्वयं को उसके स्थान पर रख कर देखिए …क्या मन:स्थिति होगी उन मासूम बालिकाओं की, जिन्होंने इतने दंश झेले होंगे। आजकल तो सबूत मिटा डालने के लिए, निर्मम हत्या कर डालने का प्रचलन बदस्तूर जारी है।

यह है समाज का घिनौना सत्य….यहां ऐसिड अटैक का ज़िक्र करना आवश्यक है। एकतरफ़ा प्यार या प्रेम का प्रतिदान न मिलने की स्थिति में सरे-आम तेज़ाब डालकर उस मासूम को जला डालने को सामान्य-सी घटना समझा जाता है। क्या कहेंगे आप इसे… अहंनिष्ठता, विकृत मानसिकता या दबंग प्रवृत्ति, जिसके वश में हो कर इंसान ऐसे कुकृत्य को अंजाम देता है, जिसका मूल कारण है… संस्कार- हीनता, जीवन-मूल्यों का विघटन व समाज में बढ़ गई संवेदनशून्यता, जिसके कारण रिश्ते रेत होते जा रहे हैं।

संदेह, शक़ व अविश्वास के वातावरण में व्यक्ति एकांत की त्रासदी झेलने को विवश है और मानव स्वयं को इन रिश्तों के बोझ तले दबा हुआ असहाय-सा पाता है और उन्हें निर्भयता से तोड़ कर स्वतंत्रता-पूर्वक अपना जीवन-यापन करना चाहता है। संबंधों को गले में लिपटे हुए मृत्त सर्प की भांति अनुभव करता है, जिनसे वह शीघ्रता से मुक्ति प्राप्त कर लेना चाहता है। इसलिए रिश्तों में ताज़गी,माधुर्य व संजीदगी के न रहने के कारण, वह उसे बंधन समझ कुलबुलाता है और ठीक-गलत में भेद नहीं कर पाता। आजकल मानव रिश्तों को ढोने में विश्वास नहीं करता और उन्हें सांप की केंचुली की भांति उतार फेंकने के पश्चात् ही सुकून पाता है… जिसका मुख्य कारण है, सहनशीलता का अभाव। मानव अपनी मनोनुकूल स्थिति में  जीना चाहता है। ‘खाओ पीओ, मौज उड़ाओ’ और ‘जो गुज़र गया, उसे भूल जाओ’ तथा स्मृतियों में व उसके साथ ज़िन्दगी मत बसर करो और जो तुम्हारे गले की फांस बन जाए, उसे अनुपयोगी समझ अपनी ज़िन्दगी से बेदखल कर, नये जीवन साथी की तलाश करो।’यही ज़िन्दगी का सार है और आज की संस्कारहीन युवा पीढ़ी इन सिद्धांतों में विश्वास रखती है, जो ज़िन्दगी को नरक बना कर रख देते हैं। ऐसे लोग, जिनमें सहनशीलता का अभाव होता है..जो दूसरों पर विश्वास नहीं करते, कभी भी उस भटकन से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकते। सो! सहनशीलता मानव का सर्वश्रेष्ठ, सर्वोच्च व सर्वोत्तम आभूषण है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 12 – अंतिम चेतावनी ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “अंतिम चेतावनी ।)

Amazon Link – Purn Vinashak

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 12 ☆

 

☆ अंतिम चेतावनी  

 

रावण ने कहा –  “हे बेवकूफ वानर, मैं वही रावण हूँ जिनकी बाहों की शक्ति पूरा कैलाश जानता है। मेरी बहादुरी की सराहना महादेव ने भी की है जिनके आगे मैंने अपने सिर भेट स्वरूप चढ़ायेहैं । तीनों दुनिया मेरे विषय में जानती है”

अंगद ने कहा –  “आप अपने रिश्तेदारों के विषय में जानते हैं। ताड़का, मारिच, सुभाहू, और अन्य कई अब वह कहाँ हैं? वे भगवान राम के द्वारा जैसे वो बच्चों को खेल खिला रहे हो इस तरह मारे गए।भगवान परशुराम (अर्थ : राम जिनके पास हमेशा एक कुल्हाड़ी हो), जिन्होंने क्षत्रियों के पूरे वंश को कई बार मारा था को भगवान राम ने बिना किसी भी कुल्हाड़ी के पराजित किया था। वह इंसान कैसे हो सकते है? हे मूर्ख, क्या राम एक इंसान है? क्या काम देव (कामुक या यौन प्रेम की इच्छाओं के भगवान), केवल एक तीरंदाज है? क्या गंगा (दुनिया की सबसे पवित्र नदी), केवल एक नदी है? क्या कल्पवृक्ष (इच्छा-पूर्ति करने वाला दिव्य वृक्ष) केवल एक वृक्ष है? क्या अनाज केवल एक दान है? क्या अमृत (अमरता का तरल), केवल एक रस ​​है ? क्या गरुड़ केवल एक पक्षी है? क्या शेषनाग (एक दिव्य सांप जो यह दिखाता है कि विनाश के बाद क्या बचा है), केवल एक साँप है? क्या चिंतामाणि (इच्छा-पूर्ति करने वाला रत्न), केवल एक मणि है? क्या वैकुण्ठ (भगवान विष्णु का निवास, हर आत्मा का अंतिम गंतव्य), केवल एक लोकहै? क्या वह वानर जिसने तुम्हारे बेटे और तुम्हारी सेना को मार डाला, एवं अशोक वटिका को नष्ट कर दिया, और तुम्हारे नगर जला को डाला केवल एक वानर है? हे, रावण, भगवान राम के साथ शत्रुता को भूल जाओ और उनकी शरण में चले आओ, अन्यथा तुम्हारे कुल का नामोनिशान तक मिट जायेगा”

 

 

© आशीष कुमार  

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – विजयादशमी पर्व विशेष – ☆ भारतीय संस्कृति के पोषक: श्रीराम ☆ – डॉ ज्योत्सना सिंह राजावत

विजयादशमी पर्व विशेष

डॉ ज्योत्सना सिंह राजावत

 

(विजयादशमी पर्व के अवसर पर आज प्रस्तुत है डॉ. ज्योत्सना सिंह रजावत जी का विशेष आलेख “भारतीय संस्कृति के पोषक: श्रीराम.)

 

☆ भारतीय संस्कृति के पोषक: श्रीराम ☆

 

प्रेम दया करुणा के सिन्धु प्रभु श्री राम वाल्मीकि रामायण के आधार,भारतीय संस्कृति के पोषक ,अत्यंत गम्भीर, उच्चतम विचार एवं संयमित आचरण वाले राम के चरित्र को जानना समझना सहज नहीं है,लेकिन उनका सहृदयी स्वभाव,जन जन के हृदय में है। विपत्तिकाल में भी संयम और साहस की सीख श्री राम का चरित्र स्वयं में एक प्रमाण है ऋषि-मुनियों का मान,मात-पिता, गुरुओं का सम्मान, भाइयों के प्रति समर्पण, पशु-पक्षियों की सुध, जन-जन का चिन्तन ही उन्हें  राम बनाता है।

महर्षि वाल्मीकि की अनुपम निधि रामायण एवं अन्य धार्मिक ग्रंथ राम के आदर्शों को आज भी बनाए हुए हैं महर्षि वाल्मीकि ने लगभग 24000 श्लोकों में आदि रामायण लिखी है जिसमें उन्होंने श्रीराम के चरित्र को आदर्श पुरुष के रूप में अंकित किया है प्रथम ग्रन्थ रामायण दूसरा अध्यात्म रामायण और तीसरा रामचरितमानस है। रामकथा के जीवन मूल्य आज भी सर्वथा प्रासंगिक हैं राम एक आदर्श पुत्र आदर्श पति एवं आदर्श राजा के रूप में हमारे मानस पटल पर अंकित हैं,और रामकथा के अन्य सभी पात्र किसी न किसी आदर्श को प्रस्तुत करते हैं।

पुरार्जितानि पापानि नाशमायन्ति यस्य वै। रामायणे महाप्रीति तस्य वै भवति धुव्रम्।।

रामायणस्यापि नित्यं भवति यद्गृहे। तद्गृहे तीर्थ रूपं हि दुष्टानां पाप नाशनम्।।

 जिस घर में प्रतिदिन रामायण की कथा होती है वह तीर्थ रूप हो जाता है। वहां दुष्टों के पाप का नाश होता है। कितनी अनूठी महिमा है राम नाम की। राम नाम को जपने वाला साधक राम की भक्ति और मोक्ष दोनों को प्राप्त कर लेता है, निर्गुण  उपासकों के राम घट-घट वासी हैं।

कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूंढ़े वन माहिं।

ऐसे घट-घट राम हैं, दुनियां देखे नाहिं।।

संत कबीर कहते हैं।

निर्गुण राम जपहु रे भाई,

अविगत की गत लखी न जाई।।

घट-घट वासी राम की व्यापकता को स्वीकारते हुए संत कवि तुलसीदास जी कहते हैं –

सियाराम मय सब जग जानी।

करहुं प्रणाम जोर जुग पानी।।

रामचरित मानस जन जन के जीवन की अमूल्य निधि है। जीवन जीने की अद्भुत सीख दी गई है गोस्वामी जी कहते है कि जीवन मरुस्थल हैऔर रामचरित मानस ही इस मृगमय जीवन के लिए चिन्मय प्रकाश ज्योति है।

जिन्ह एहिं बार न मानस धोऐ।ते कायर कलिकाल बिगोए।

तृषित निरखि रवि कर भव बारी।फिरहहि मृग जिमि जीव दुखारी।।

संस्कृत भाषा में एवं अन्य भाषाओं में अनेको ग्रन्थं राम कथा पर लिखे गए लेकिन राम का स्वरूप स्वभाव सब ग्रन्थों में समान ही है भगवान शंकर स्वयं  राम नाम के उपासक हैं

रकारादीनि नामानि श्रृण्वतो मम पार्वति।

चेतःप्रसन्नतां याति रामनामाभिशंड़्कया।।

गोस्वामी तुलसीदास लिखते है कि घोर कलियुग मेंश्री राम नाम ही सनातनरूप से कल्याण का निवास है मनोरथों को पूर्ण करने वाले हैं आनंद के भण्डार श्री राम जिनका अनोखा रंग रूप सौन्दर्य जो भी देखता है ठगा सा रह जाता है। इतना ही नही उनका कल्याण करने का स्वभाव जन हित की भावना के सभी उपासक है…..”राम नाम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु”

प्रेम के उदधि से पूर्ण हृदय वाले राम काम क्रोध आदि विकारों पर विजय प्राप्त कर शान्त चित्त से, धर्य से, विपरीत परिस्थितियों में भी अपने आप आप को संयमित रखते हैं। स्नेह दया प्रेम से सबके हृदय में स्थित रहकर,अपने हृदय मे समाहित कर दया की धारा निरन्तर निर्झरित होकर वहती रहती है यह अद्भुत शक्ति आह्लादित आनन्दित कर असीम सुख की अनुभूति प्रदान करती है दया एक दैवीय गुण है। इसका आचरण करके मनुष्य देवत्व को प्राप्त कर लेता है, दयालु हृदय में परमात्मा का प्रकाश सदैव प्रस्फुटित होता है। दया का निधान दया का सागर ईश्वर स्वयं है।.समस्त धरातल के प्राणियों में दया उस परम शक्ति से ही प्राप्त होती है। लेकिन मनुष्य अज्ञानता के वशीभूत होकर दया को समाप्त कर राक्षस के समान आचरण करने लगता है।

महर्षि व्यास ने लिखा है ‘सर्वप्राणियों के प्रति दया का भाव रखना ही ईश्वर तक पहुँचने का सबसे सरल मार्ग बताया है।’

दया,कोमल स्पर्श का भाव है, कष्ट,पीड़ा से व्यथित व्यक्ति के मन को सुखकारी लेप सा सुकून देता है। दया,करुणा, रहम,संम्वेदना, सहानुभूति समानार्थी शब्दों का भाव एक ही है। यह मानवीय गुण हैं सभी में निहित है, लेकिन प्रभु श्री राम दया के, प्रेम के, अगाध भण्डार हैं  ,तुलसी कृत रामचरित मानस के अरण्यकाण्ड में जब गृध्रराज जटायु को जीवन और मृत्यु के मध्य संघर्ष करते देखा उनका मन दया से भर गया उन्होंने बड़ी आत्मीयता से अपने हाथों से जटायु के सिर का स्पर्श किया राम का सुखद स्नेह पाकर  जटायु ने पीड़ा से भरी अपनी आँखें खोल दी दया के सागर प्रभु श्री राम को देखकर उसकी सारी पीड़ा स्वतः दूर हो गई। जटायु ने अपने वचन और सीता मैंया की रक्षा में अपने प्राण त्याग दिये कृतज्ञता सम्मान और स्नेह की भावना से ओतप्रोत प्रभु श्री राम ने गृध्रराज जटायु को पितृतुल्य सम्मान देते हुए बिधि बिधान से दाह संस्कार करते हैं गोदावरी की पवित्र धारा में जलांजलि समर्पित करते हैं। श्री राम का अपने भक्तों सेवकों पर सदैव अनुपम स्नेह रहा। राम का स्नेह ,राम की कृपा अनन्त साधना, और वर्षों की तपस्या से भी सुलभ नहीं हो पाती है।लेकिन छल से रहित निर्मल मन वाले जन के हृदय में सदैव प्रभु बसते हैं एक स्मरण मात्र से दौड़े चले आते हैं

सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला॥

स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई।

प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा॥

सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुंदर आसन बैठारे॥

कमल सदृश नेत्र और विशाल भुजाओं वाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किए हुए सुंदर, साँवले और गोरे दोनों भाइयों के चरणों में शबरीजी लिपट पड़ीं प्रेम में अत्यंत मग्न हो गईं, मुख से कोई भी वचन नहीं निकले।पैर पखारकर सुंदर आसनों पर बैठाया और मीठे मीठे स्वादिष्ट कन्द, मूल फल लाकर दिए। राम ने अत्यंत प्रेमभाव से बार-बार प्रशंसा करके उन फलों को बड़े आनंद और स्नेह से खाया। पौराणिक संकेतों में लिखा है कि शबरी शबर नामक म्लेच्छ जातिबिशेष के लोग दक्षिणापथवासिनः शाप के कारण मलेच्छ बन गए थे उनका समाज अलग स्थान था लेकिन राम दया और करुणा के अनन्त भण्डार हैं शबरी की सेवा समर्पण भक्तिभाव से राममय हो गई और राम ने शबरी को ऋषि मुनियों को प्राप्त होने वाला स्थान दिया।  प्रभु की सेवा में समर्पित, नौका यापन में कर्मरत निर्मल मन वाला केवट राम की अनमोल भक्ति पाकर राममय हो गया।

राम पर गढ़ा साहित्य और राम दोनों ही भारतीय संस्कृति के पोषक हैं। राम का आचरण,कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता हैं मानवीय मूल्यों का संवर्धन करता हैं ।भारतीय संस्कृति में सत्य अहिंसा धैर्य क्षमा अनासक्ति इंद्रियनिग्रह सुचिता निष्कपटता त्याग उदारता दया करुणा आदि तत्वों समाहित है। इन सब का समाहार रामकथा में बड़ी सहजता से सर्वत्र दिखाई देता है राम कथा का गुणगान वाल्मीक रामायण में,तुलसीकृत रामचरितमानस में, संस्कृत के विभिन्न ग्रंथों में ,भवभूति के उत्तररामचरित में ,मैथिलीशरण गुप्त कृत साकेत में ,शशिधर पटेरिया के बुंदेली रामायण गीत काव्य में , विभिन्न भाषाओं के अनेकानेक ग्रंथों में राम के चरित्र का गुणगान पढ़ने को मिलता है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के उच्च मानवीय आदर्शों का अनुकरण कर ही भारतीय संस्कृति की अनुपम धरोहर है इसको सुरक्षित रखना ही हम सब का कर्तव्य हो।आने वाली पीढ़ी विलासिता की चकाचौंध में कहीं अपने राम के आदर्शों को न विसरा दे।आज मानव विकारों के आधीन हैं, काम क्रोध,लोभ मोह,मद,मात्सर्य का दास है समाज दिशाहीन है,दिग्भ्रमित है अपने अन्दर के रावण को पोषित कर बाहर रावण ढ़ूढ़ रहा है।  राम ने अपने विकारों पर सदैव नियंत्रित कर स्वामित्व जमाया।

इस विकट परिस्थिती में राम के आदर्श ही पीढ़ी को संस्कारित करने में समर्थ होगें।

 

डॉ ज्योत्स्ना सिंह राजावत

सहायक प्राध्यापक, जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर मध्य प्रदेश

सी 111 गोविन्दपुरी ग्वालियर, मध्यप्रदेश

९४२५३३९११६,

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – मानस प्रश्नोत्तरी – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – मानस प्रश्नोत्तरी ☆

*प्रश्न:* चिंतित हूँ कि कुछ नया उपज नहीं रहा।

*उत्तर:* साधना के लिए अपनी सारी ऊर्जा को बीजरूप में केन्द्रित करना होता है। केन्द्र को धरती के गर्भ में प्रवेश करना होता है। अँधेरा सहना होता है। बाहर उजाला देने के लिए भीतर प्रज्ज्वलित होना होता है। तब जाकर प्रस्फुटित होती है अपने विखंडन और नई सृष्टि के गठन की प्रक्रिया।…हम बीज होना नहीं चाहते, हम अँधेरा सहना नहीं चाहते, खाद-पानी जुटाने का श्रम करना नहीं चाहते, हम केवल हरा होना चाहते हैं।…अपना सुख-चैन तजे बिना पूरी नहीं होती हरा होने और हरा बने रहने की प्रक्रिया।

…स्मरण रहे, यों ही नहीं होता सृजन!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – विजयादशमी विशेष – ☆ विजयादशमी – एक तथ्यात्मक विवेचना ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। आज प्रस्तुत है उनका आलेख  “विजयादशमी  – एक तथ्यात्मक विवेचना”।  यह आलेख उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक  का एक महत्वपूर्ण  अंश है। इस आलेख में आप  नवरात्रि के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं ।  आप पाएंगे  कि  कई जानकारियां ऐसी भी हैं जिनसे हम अनभिज्ञ हैं।  श्री आशीष कुमार जी ने धार्मिक एवं वैज्ञानिक रूप से शोध कर इस आलेख एवं पुस्तक की रचना की है तथा हमारे पाठको से  जानकारी साझा  जिसके लिए हम उनके ह्रदय से आभारी हैं। )

 

Amazon Link – Purn Vinashak

 

“विजयादशमी  – एक तथ्यात्मक विवेचना”।

 

रावण के लिए यह आखिरी रात्रि बहुत परेशानी भरी थी। वह सीधे भगवान शिव के मंदिर गया, जहाँ रावण को छोड़कर किसी को भी अंदर जाने की अनुमति नहीं थी। उसने शिव ताण्डव स्तोत्र से शिव की प्रार्थना करनी शुरू कर दी। भगवान शिव रावण के सामने प्रकट हुए और कहा, “रावण, तुमने मुझे क्यों याद किया?”

रावण ने उत्तर दिया, “हे महादेव! मैं आपको प्रणाम करता हूँ, मुझे लगता है कि आप अपने सबसे बड़े भक्त को भूल गए हैं। मैं वही रावण हूँ जिसने आपके चरणों में अपने कई सिर समर्पित किए हैं। आप जानते हैं कि कुछ वानरों के साथ राम ने लंका पर आक्रमण किया है और मेरे सबसे बड़े बेटे इंद्रजीत सहित लंका के लगभग सभी महान योद्धाओं को मार डाला है, और ऐसा लगता है कि आप भी उनकी सहायता कर रहे हैं। हे भगवान! अब लंका में केवल रावण ही जीवित बचा है जो युद्ध लड़ सके। मैं कल के युद्ध में आपसे लंका की ओर से लड़ने का अनुरोध करता हूँ”

भगवान शिव मुस्कुराये और कहा, “रावण आप जानते हैं कि मैं उच्च और निम्न के बीच पक्षपात नहीं करता हूँ, और मैंने आपको और मेघनाथ को सभी संभव अस्त्र, शस्त्र और शक्तियों दी थी, जो तीनोंलोकों में किसी के भी पास नहीं है। मैंने आपको यह भी चेतावनी दी कि किसी भी परिस्थिति में दूसरों के नुकसान पहुंचाने के लिए उनका उपयोग नहीं करेंगे, लेकिन आपने मेरे शब्दों पर ध्यान नहीं दिया । आप और आपके बेटे ने प्रकृति के सभी नियमों को अपनी इच्छा और हवस पूर्ति की लिए बार बार तोड़ा आप लोगों ने बार-बार अपराध किया है। आपने ‘रत’, पृथ्वी के वैश्विक कानून को अस्तव्यस्त किया है, इसलिए विनाश की देवी-निऋती आपसे बहुत प्रसन्न है । लेकिन निऋती का अर्थ विनाश है। तो वह आपको और आपके राज्य को नष्ट किए बिना कैसे छोड़ सकती है? तो भगवान विष्णु ने आपको अन्य देवताओं और देवियों के सहयोग से दंडित करने का निर्णय किया है । अब तुम्हारा समय आ गया है। कोई भी जो पाँच तत्वों के इस शरीर में आता है उसे एक दिन जाना ही होगा और कल आपका दिन है इस पंच तत्वों से निर्मित देह को त्यागने का। ओह ताकतवर रावण, क्या आप मृत्यु से भयभीत हो?”

निऋती मृत्यु के छिपे हुए इलाकों और दुःखों की हिंदू देवी है, एक दिक्पाल (दिशाओं के अभिभावक) जो, दक्षिण पश्चिम दिशा का प्रतिनिधित्व करती है। निऋती का अर्थ है रत की अनुपस्थिति,  रत अर्थात अधिभौतिक, आधिदैविक, आधियात्मिक  नियम जिनका पालन करने से ही सृष्टि चल रही है और यदि कोई इन नियमों या ब्रम्हांडीय चक्रों को तोड़ दे तो संसार में प्रलय आ जाता है। तो निऋती ही ब्रम्हांड की अव्यवस्था, विकार, अशांति आदि की देवी हुई । निऋती वैदिक ज्योतिष में एक केतु शासक नक्षत्र है, जो कि माँ काली और माँ धूमावती के रूप में दृढ़ता से जुड़ा हुआ है। ऋग्वेद के कुछ स्त्रोत में निऋती का उल्लेख किया गया है, अधिकांशतः संभावित प्रस्थान के दौरान उनसे सुरक्षा माँगना या उसके लिए निवेदन करना दर्शाया गया है। ऋग्वेद के उस लेख में उनसे बलिदान स्थल से प्रस्थान के लिए निवेदन किया गया है। अथर्व वेद में, उन्हें सुनहरे रूप में वर्णित किया गया है। तैत्तिरीया ब्राह्मण (I.6.1.4) में, निऋती को काले रंग के कपड़े पहने हुए अंधेरे के रूप में वर्णित किया गया है और उनके बलिदान के लिए उन्हें काली भूसी अर्पित की जाती हैं । वह अपने वाहन के रूप में एक बड़े कौवे का उपयोग करती हैं। वह अपने हाथ में एक कृपाण रखती हैं । पुराणिक कथा में निऋती को अलक्ष्मी के नाम से जाना जाता है। जब समुद्र मंथन किया गया था, तब उसमे से एक विष भी प्रकट हुआ था जिसे निऋती के रूप में जाना जाता था। उसके बाद देवी लक्ष्मी, धन की देवी प्रकट हुई। इसलिए निऋती को लक्ष्मी की बड़ी बहन माना जाता है। लक्ष्मी धन की अध्यक्षता करती हैं, और निऋती दुखों की अध्यक्षता करती है, यही कारण है कि उन्हें अलक्ष्मी कहा जाता है । इनके नाम का सही मूल उच्चारण तीन लघु स्वरों के साथ तीन अक्षर है: “नी-रत-ती”; पहला ‘र’ एक व्यंजन है, और दूसरा ‘र’ एक स्वर है ।

रावण ने उत्तर  दिया, “मैं तीनों दुनिया का विजेता हूँ। मुझे मृत्यु का भय नहीं है, लेकिन यह मेरी ज़िंदगी में पहली बार है जब मैं हार देख रहा हूँ, तो ये भय हार का है, मृत्यु की नहीं”

भगवान शिव ने उत्तर दिया, “सब कुछ शाश्वत है, इस दुनिया में कुछ भी नष्ट नहीं हो सकता है, केवल रूप बदलते हैं, आप नहीं जानते कि आप अपने पूर्व जन्मों में क्या थे? अपने आप को यहाँ या वहाँ संलग्न न करें, फिर सब कुछ आपका है । रावण, सब कुछ सापेक्ष है सफलता, हार, यहाँ तक कि आपका अहंकार भी, और जो पूर्ण है वह ब्रह्मांड में प्रकट ही नहीं होता है। तो आप अपनी जीत या हार की तुलना करके पूर्ण नहीं हो सकते हैं। अमरत्व इस ज्ञात संसार में उपस्थित ही नहीं है । जिसकी भी शुरुआत हुई है एक दिन वो खत्म होनी चाहिए। सृजन के पदानुक्रम के भीतर, संगठित परिसरों के चेतना, पदार्थों के रूप उपस्थित हैं, जिनकी अवधि समय की हमारी धारणा के संबंध में बहुत अधिक दिखाई देती है। इनमें से कुछ रूप हैं जिन्हें हम अमर कहते हैं। हमारी इंद्रियों, आत्माओं और देवताओं द्वारा किए गए लोगों की तुलना में अधिक सूक्ष्म संयोजनों के स्तर पर प्रपत्र फिर भी बहुतायत के क्षेत्र में हैं- प्रकृति का ज्ञानक्षेत्र । इस प्रकार देवता भी जन्म और मृत्यु के चक्र से बाहरनहीं होते हैं, हालकि मनुष्य के समय के मानदंडों में उनका जीवन बहुत ही लंबी अवधि का प्रतीत हो सकता है । रावण के रूप में आपकी भूमिका समाप्त हो गई है, लेकिन अगली भूमिका आपके लिए तैयार है। आपने रावण की अपनी भूमिका का आनंद लिया है, अब अगली भूमिका के लिए तैयार रहें, और इस तरह से युद्ध  लड़ें  कि  आपका नाम तब तक लिया जाये जब तक की भगवान राम का”

रावण ने कहा, “महानतम भगवान, मुझे जीवन के रहस्यों को समझने और मेरे हार के भय को दूर करने के लिए धन्यवाद। अब मैं कल अपनी अंतिम लड़ाई करने के लिए पूरी तरह से तैयार हूँ”

 

© आशीष कुमार  

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #18 – आम सहमति ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है “आम सहमति ” ।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

Amazon Link for eBook :  सकारात्मक सपने

 

Kobo Link for eBook        : सकारात्मक सपने

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 18 ☆

 

☆ आम सहमति

 

पिछले अनेक खण्डित चुनाव परिणामो से वर्तमान संवैधानिक प्रावधानो में संशोधन की जरूरत लगती है.  सरकार बनाने के लिये बड़ी पार्टी के मुखिया को नही वरन चुने गये सारे प्रतिनिधियो के द्वारा उनमें आपस में चुने गये मुखिया को बुलाया जाना चाहिये. आखिर हर पार्टी के चुने गये प्रतिनिधि भले ही उनके क्षेत्र के वोटरों के बहुमत से चुने जाते हैं किन्तु हारे हुये प्रतिनिधि को भी तो जनता के ही वोट मिलते हैं, और इस तरह वोट प्रतिशत की दृष्टि से हर पार्टी की सरकार में भागीदारी उचित लगती है.

कोई भी सभ्य समाज नियमों से ही चल सकता है. जनहितकारी नियमों को बनाने और उनके परिपालन को सुनिश्चित करने के लिए शासन की आवश्यकता होती है. राजतंत्र, तानाशाही, धार्मिक सत्ता या लोकतंत्र, नामांकित जनप्रतिनिधियों जैसी विभिन्न शासन प्रणालियों में लोकतंत्र ही सर्वश्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि लोकतंत्र में आम आदमी की सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित होती है एवं उसे भी जन नेतृत्व करने का अधिकार होता है. भारत में हमने लिखित संविधान अपनाया है. शासन तंत्र को विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के उपखंडो में विभाजित कर एक सुदृढ लोकतंत्र की परिकल्पना की है. विधायिका लोकहितकारी नियमों को कानून का रूप देती है. कार्यपालिका उसका अनुपालन कराती है एवं कानून उल्लंघन करने पर न्यायपालिका द्वारा दंड का प्रावधान है. विधायिका के जनप्रतिनिधियों का चुनाव आम नागरिको के सीधे मतदान के द्वारा किया जाता है किंतु हमारे देश में आजादी के बाद के अनुभव के आधार पर, पार्टीवाद तथा चुनावी जीत के बाद संसद एवं विधानसभाओं में पक्ष विपक्ष की राजनीति ही लोकतंत्र की सबसे बडी कमजोरी के रूप में सामने आई है.

सत्तापक्ष कितना भी अच्छा बजट बनाये या कोई अच्छे से अच्छा जनहितकारी कानून बनाये विपक्ष उसका विरोध करता ही है. उसे जनविरोधी निरूपित करने के लिए तर्क कुतर्क करने में जरा भी पीछे नहीं रहता. ऐसा केवल इसलिए हो रहा है क्योंकि वह विपक्ष में है. हमने देखा है कि वही विपक्षी दल जो विरोधी पार्टी के रूप में जिन बातो का सार्वजनिक विरोध करते नहीं थकता था, जब सत्ता में आये तो उन्होनें भी वही सब किया और इस बार पूर्व के सत्ताधारी दलो ने उन्हीं तथ्यों का पुरजोर विरोध किया जिनके कभी वे खुले समर्थन में थे. इसके लिये लच्छेदार शब्दो का मायाजाल फैलाया जाता है. ऐसा बार-बार लगातार हो रहा है. अर्थात हमारे लोकतंत्र में यह धारणा बन चुकी है कि विपक्षी दल को सत्ता पक्ष का विरोध करना ही चाहिये. शायद इसके लिये स्कूलो से ही, वादविवाद प्रतियोगिता की जो अवधारणा बच्चो के मन में अधिरोपित की जाती है वही जिम्मेदार हो. वास्तविकता यह होती है कि कोई भी सत्तारूढ दल सब कुछ सही या सब कुछ गलत नहीं करता . सच्चा लोकतंत्र तो यह होता कि मुद्दे के आधार पर पार्टी निरपेक्ष वोटिंग होती, विषय की गुणवत्ता के आधार पर बहुमत से निर्णय लिया जाता, पर ऐसा होता नही है.

अन्ना हजारे या बाबा रामदेव किसी पार्टी या किसी लोकतांत्रिक संस्था के निर्वाचित जनप्रतिनिधि नहीं है किंतु इन जैसे तटस्थ मनिषियों को जनहित एवं राष्ट्रहित के मुद्दो पर अनशन तथा भूख हडताल जैसे आंदोलन करने पड रहे है एवं समूचा शासनतंत्र तथा गुप्तचर संस्थायें इन आंदोलनों को असफल बनाने में सक्रिय है. यह लोकतंत्र की बहुत बडी विफलता है. इन मनीषियों को तो देश व्यापी जनसमर्थन भी मिल रहा है . मेरा मानना यह है कि आदर्श लोकतंत्र तो यह होता कि मेरे जैसा कोई साधारण एक व्यक्ति भी यदि देशहित का एक सुविचार रखता तो उसे सत्ता एवं विपक्ष का खुला समर्थन मिल सकता.

इन अनुभवो से यह स्पष्ट होता है कि हमारी संवैधानिक व्यवस्था में सुधार की व्यापक संभावना है.  दलगत राजनैतिक धु्व्रीकरण एवं पक्ष विपक्ष से उपर उठकर मुद्दों पर आम सहमति या बहुमत पर आधारित निर्णय ही विधायिका के निर्णय हो ऐसी सत्ताप्रणाली के विकास की जरूरत है. इसके लिए जनशिक्षा को बढावा देना तथा आम आदमी की राजनैतिक उदासीनता को तोडने की आवश्यकता दिखती है. जब ऐसी व्यवस्था लागू होगी तब किसी मुद्दे पर कोई 51 प्रतिशत या अधिक जनप्रतिनिधि एक साथ होगें तथा किसी अन्य मुद्दे पर कोई अन्य दूसरे 51 प्रतिशत से ज्यादा जनप्रतिनिधि, जिनमें से कुछ पिछले मुद्दे पर भले ही विरोधी रहे हो साथ होगें तथा दोनों ही मुद्दे बहुमत के कारण प्रभावी रूप से कानून बनेगें.

क्या हम निहित स्वार्थो से उपर उठकर ऐसी आदर्श व्यवस्था की दिशा में बढ सकते है एवं संविधान में इस तरह के संशोधन कर सकते है. यह खुली बहस का एवं व्यापक जनचर्चा का विषय है जिस पर अखबारो, स्कूल, कालेज, बार एसोसियेशन, व्यापारिक संघ, महिला मोर्चे, मजदूर संगठन आदि विभिन्न विभिन्न मंचो पर खुलकर बाते होने की जरूरत हैं, जिससे इस तरह के जनमत के परिणामो पर पुनर्चुनाव की अपेक्षा मुद्दो पर आधारित रचनात्मक सरकारें बन सकें जिनमें निर्दलीय जन प्रतिनिधियो की कथित खरीद फरोख्त घोड़ो की तरह न हो बल्कि वे मुद्दो पर अपनी सहमति के आधार पर सरकार का सकारात्मक हिस्सा बन सकें.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #15 – मॉं-बाप का साया ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली   कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

(इस आलेख का अंग्रेजी भावानुवाद आज के ही अंक में  ☆  Parent’s shadow ☆ शीर्षक से प्रकाशित किया गया है. इसअतिसुन्दर भावानुवाद के  लिए हम  कॅप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के ह्रदय से आभारी हैं. )  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 15☆

 

☆ मॉं-बाप का साया☆

 

प्रातः भ्रमण के बाद पार्क में कुछ देर व्यायाम करने बैठा। व्यायाम के एक चरण में दृष्टि आकाश की ओर उठाई। जिन पेड़ों के तनों के पास बैठकर व्यायाम करता हूँ, उनकी ऊँचाई देखकर आँखें फटी की फटी रह गईं। लगभग 70 से 80 फीट ऊँचे विशाल पेड़ एवम्‌ उनकी घनी छाया। हल्की-सी ठंड और शांत वातावरण विचार के लिए पोषक बने। सोचा, माता-पिता भी पेड़ की तरह ही होते हैं न! हम उन्हें उतना ही देख पाते हैं जितना पेड़ के तने को। तना प्रायः हमें ठूँठ-सा ही लगता है। अनुभूत होती इस छाया को समझने के लिए आँखें फैलाकर ऊँचे, बहुत ऊँचे देखना होता है। हमें छत्रछाया देने के लिए निरंतर सूरज की ओर बढ़ते और धूप को ललकारते पत्तों का अखण्ड संघर्ष समझना होता है। दुर्भाग्य से जब कभी छाया समाप्त हो जाती है तब हम जान पाते हैं मॉं-बाप का साया माथे पर होने का महत्व!

 

… अनुभव हुआ हम इतने क्षुद्र हैं कि लंबे समय तक गरदन ऊँची रखकर इन पेड़ों को निहार भी नहीं सकते, गरदन दुखने लगती है।

 

….ईश्वर सब पर यह साया और उसकी छाया लम्बे समय तक बनाए रखे।…तने को नमन कर लौट आया घर अपनी माँ के साये में।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 11 – राम जी की सेना चली ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   राम जी की सेना चली।)

Amazon Link – Purn Vinashak

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 11 ☆

 

☆ राम जी की सेना चली 

 

महान वास्तुकार विश्वकर्मा के पुत्र नल, कुछ वानरों को वास्तु (वास्तुकला विज्ञान) के बुनियादी ढांचे और निर्माण के ज्ञान का प्रशिक्षण दे रहे थे। अग्नि के पुत्र नील लड़ाई के लिए हथियारों को आकार दे रहे थे। भगवान राम की सेना में शामिल होने के लिए स्वर्ग से कुबेर के अवतार, गंधमदाम (‘गंध’ का अर्थ खुशबु/बदबू है और ‘मदाम’ का अर्थ है नियंत्रक, इसलिए गंधमदाम का अर्थ है कि वह जो सभी प्रकार की गंधों पर नियंत्रण रखता है) भी आये  थे। उनके पास अपने शरीर की गंध की तीव्रता को नियंत्रित करने की विशेष शक्ति थी।

देवताओं के शिक्षक बृहस्पति के अवतार तार को भी स्वयं बृहस्पति द्वारा भगवान राम की सहायता करने के लिए भेजा गया था।अश्विन कुमार के पुत्र मैन्द (अर्थ : छोटे रास्ते या सड़क) और द्विवेद (अर्थ : दो प्रकार की सच्चाई का ज्ञान), महान चिकित्सक और सर्जन भी युद्ध में घायल होने वाले वानारों की सहायता  के लिए भाग लेने आये ।

अश्विन कुमार आकाश के पुत्र, रात्रि और सूर्य उदय के बीच के समय के देवता, जो सुबह आसमान में सबसे पहले दिखाई देते हैं। सुबह (पुसान) के अग्रदूत, चिकित्सा विज्ञान की पुस्तक अश्विन कुमार संहिता इन्हीं की देन है। इन्हें देवताओं के चिकित्सक भी कहा जाता है।

वरुण के पुत्र सुसेनाह (‘सु’ का अर्थ अच्छा या स्वर्गीय और ‘सेनाह’ का अर्थ है वैद्य या डॉक्टर तो सुसेनाह का अर्थ अच्छा चिकित्सक या स्वर्ग का चिकित्सक है) जो अकेले हजारों सेनाओं के बराबर है, भी भगवान राम के पक्ष में धर्म युद्ध में भाग लेने आये ।

 

© आशीष कुमार  

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 18 ☆ चलते-फिरते पुतले ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी  का  आलेख  “चलते-फिरते पुतले”.  डॉ  मुक्ता जी ने इस आलेख के माध्यम से  टूटते हुए संयुक्त परिवारों  ही नहीं अपितु  एकल परिवारों में भी होते हुए बिखराव पर विस्तृत चर्चा की है.  उन्होंने  सामाजिक  इकाइयों के बिखराव पर न केवल अपनी राय रखी है अपितु  बच्चों से लेकर बड़े बूढ़ों तक की मनोदशा की भी विस्तृत चर्चा की है . अब आप स्वयं पढ़ कर आत्म मंथन करें  कि – हम इस दिशा में क्या कर सकते हैं?  आदरणीया डॉ मुक्ता जी  का आभार एवं उनकी कलम को इस विषय पर चर्चा की पहल के लिए नमन।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 18 ☆

 

☆ चलते-फिरते पुतले ☆

 

न कुछ सुनते हैं और न कुछ कहते हैं/ मेरे घर में चलते-फिरते पुतले रहते हैं… इन पंक्तियों ने अंतर्मन को झिंझोड़ कर रख दिया। कितनी पीड़ा, कितनी टीस, कितना दर्द भरा होगा हृदय में…और कितनी संजीदगी से मनोव्यथा को बयान कर सुक़ून पाया होगा अनाम कवयित्री ने। वैसे तो आजकल यह घर- घर की कहानी है। हर इंसान यहां एकांत की त्रासदी झेल रहा है। एक छत के नीचे रहते हुए पति-पत्नी में पनप रहा, अजनबीपन का अहसास अक्सर देखा जा रहा है, जिसका सबसे अधिक खामियाज़ा बच्चे व वृद्ध भुगत रहे हैं…जो सबके बीच रहते हुए भी स्वयं को अकेला अनुभव करते हैं। यह जनमानस की पीड़ा है..और है आज के समाज का कटु यथार्थ। संयुक्त परिवार प्रथा टूटने के कग़ार पर है… अंतिम सांसें ले रही है और उसके स्थान पर बखूबी काबिज़ है… एकल परिवार-व्यवस्था। जिन परिवारों में बुज़ुर्ग रहते भी हैं, उनकी मन:स्थिति विचित्र-सी रहती है… जैसे भीड़ में व्यक्ति स्वयं को खोया-खोया अनुभव करता है और अपनी सोच, अपनी कल्पनाओं व अपने भावों-विचारों में गुम रहता है…लाख प्रयत्न करने पर भी वह उस परिवार का हिस्सा नहीं बन पाता।

आश्चर्य होता है कि आजकल तो कामवाली बाईयों को भी परिवार की परिभाषा समझ में आ गई है। वे जानती हैं कि परिवार में तीन या चार प्राणी होते हैं… पति-पत्नी और एक या दो बच्चे। सो! वे आजकल कल संयुक्त परिवार में कार्य करने को तत्पर नहीं होतीं और टका-सा जवाब देकर रुख्सत हो जाती हैं। छोड़िए! इतना ही नहीं, आजकल बच्चे भी इस तथ्य से भली-भांति परिचित हैं कि परिवार रूपी इकाई में दादा-दादी का स्थान नहीं होता। सो! वे सदैव अपने माता-पिता के साथ रहना अधिक पसंद करते हैं और यह स्वाभाविक भी है। घर में बड़े-बुज़ुर्ग तो दिनभर प्रतीक्षारत रहते हैं और अपने आत्मजों तथा नाती- पोतों की एक झलक प्राप्त कर खुद को खुशकिस्मत समझते हैं। कई बार तो महीनों तक संवाद होता ही नहीं। परंतु तीन-चार फुट दूरी से सुबह-शाम पांव छूने का औपचारिक सिलसिला अनवरत जारी रहता है और वे उनपर आशीषों  की वर्षा करते नहीं अघाते।

‘न कुछ सुनते हैं, न कुछ कहते हैं’…यह संवादहीनता की स्थिति ‘कैसे हैं’,’ठीक हूं’ ‘खुश रहो’ तक सिमट कर रह जाती है। अपने-अपने द्वीप में कैद,एक-दूसरे के सुख-दु:ख से बेखबर,पति-पत्नी में भी कहां हो पाता है मधुर संवाद…अक्सर वे संवाद नहीं, विवाद में विश्वास रखते हैं..एक-दूसरे पर अपने मन की भड़ास निकालते हैं और दोषारोपण करना तो मानो उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन जाता है। ऑफिस का दिनभर का गुस्सा, घर में दस्तक देते ही एक-दूसरे पर निकाल कर, वे सुक़ून पाते हैं। बच्चे,जब देर रात अपने माता-पिता को चीखते-चिल्लाते देखते हैं तो वे सोने का उपक्रम करते हैं…कहीं वे ही उनके क्रोध का शिकार न बन जाएं।

दिनभर आया या नैनी के आंचल में पनपते बच्चे, माता-पिता के स्नेह व प्यार-दुलार के अभाव में स्वयं को निरीह, नि:स्सहाय व नितांत अकेला अनुभव करते हैं। मोबाइल, टी•वी• व मीडिया से अत्यधिक जुड़ाव उन्हें अपराध जगत् की ओर प्रवृत्त करता है और उस दलदल से वे चाह कर भी निकल नहीं पाते। शराब व ड्रग्स के नशे में वे औचित्य-अनौचित्य का भेद नहीं कर पाते और बचपन में ही जघन्य- घिनौने अपराधों को अंजाम देकर अपने जीवन को नरक में धकेल देते हैं। बच्चों को इन दुर्दम-भीषण परिस्थितियों में देख कर, माता-पिता हैरान-परेशान से, स्वयं को किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में पाते हैं। और हर संभव प्रयास करने पर भी वे उन्हें लौटा पाने में स्वयं को असहाय-असमर्थ पाते हैं।

वे इन विषम परिस्थितियों में बच्चों को हर पल टूटते हुए देखकर दु:खी रहते हैं तथा सोचते हैं आखिर उनके संस्कारों में कहां कमी रह गई? उनके आत्मज गलत राहों पर क्यों अग्रसर हो गये? उन्होंने सब सीमाओं का अतिक्रमण क्यों कर लिया? विवाह के पवित्र-बंधन को नकार वे सदैव एक-दूसरे को नीचा दिखलाने में क्यों लीन रहे? यहां तक कि वे अपने बच्चों को भी दिशाहीन होने से भी नहीं रोक पाए। वे अपने भाग्य को कोसते हुए स्वयं को दोषी अनुभव करते हैं।

आधुनिक प्रतिस्पर्द्धात्मक युग में अक्सर माता-पिता लिव इन या अलगाव की स्थिति में पहुंच,अपने बच्चों का भविष्य दांव पर लगा यह सोचते हैं कि ‘जो बच्चों के भाग्य में लिखा होगा, उन्हें अवश्य मिल जाएगा।’ उनके भविष्य के लिए ऐसे माहौल में रहकर अपना जीवन नष्ट करना करने की उन्हें कोई उपयोगिता- उपादेयता नज़र नहीं आती। वास्तव में यही है, आज की युवा पीढ़ी के जीवन का कटु सत्य… जिससे उन्हें हर पल जूझना पड़ता है। वे घर में चलते-फिरते पुतलों की मानिंद प्रतीत होते हैं…अहसासों व  जज़्बातों से कोसों दूर, जिनमें न सौहार्दपूर्ण-  पारस्परिक संबंध होते हैं, न ही सरोकार। उनमें संवादहीनता ही नहीं, व्याप्त होती है संवेदनशून्यता, एक-दूसरे के प्रति उपेक्षा भाव, जहां वे अहंनिष्ठता के कारण अपनी-अपनी दुनिया मस्त रहते हुए, इतनी दूरियां बढ़ा लेते हैं, जिन्हें पाटना व जहां से लौट पाना असंभव हो जाता है।

काश! ये चलते-फिरते, कुछ न कहते पुतले आत्म- मुग्धावस्था को त्याग, एक-दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार कर, अपने बच्चों के भविष्य के प्रति चिंतित रहते हुए व अपने माता-पिता के प्रति दायित्व-वहन करते हुए जीवन पथ पर अग्रसर होते… तो ज़िन्दगी बहुत खूबसूरत होती। हर दिन उत्सव होता और घर में संवेदनशून्यता की स्थिति के स्थान पर,एक-दूसरे के प्रति समर्पण भाव होता तथा मन-आंगन में चिर- वसंत रहता। आइए! दिनों के फ़ासलों को मिटा, संकीर्ण मानसिकता को त्याग, समर्पण भाव से जीवन-पथ पर अग्रसर हों, जहां अलौकिक आनंद बरसे, बच्चों के मान-मनोबल से घर-आंगन गूंजता रहे। यही होगी हमारे जीवन की सार्थकता…निकट भविष्य में बच्चों को घर में रहते एकांत की त्रासदी को झेलना न पड़े व माता-पिता को वृद्धाश्रम में अपनी ज़िन्दगी को न ढोना पड़े और उन अपनों के इंतज़ार में उनकी आंखें गंगा-जमुना की भांति बरसती न रहें।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2 ☆ महात्मा गांधी के सपनों का भारत ☆ डॉ भावना शुक्ल

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। आज प्रस्तुत है महात्मा गांधी जी की 150  वीं जयंती पर उनका विशेष आलेख  “महात्मा गांधी के सपनों का भारत ”। 

☆ महात्मा गांधी के सपनों का भारत ☆

 

संत महात्मा आदमी, राजा रंक फकीर।

गांधी जी के रूप में, पाई एक नजीर।।

 

आने वाली पीढ़ियाँ, भले करें संदेह ।

किंतु कभी यह देश था, गांधीजी का गेह ।।

 

पद दलित उत्पीड़ित दक्षिण एशिया के जागरण-जती, मुक्ति मंत्र दाता, मोहनदास करमचंद गांधी यानी महात्मा गांधी, जन-जन के प्यारे बापू, एक सफल, सबल क्रांति दृष्टा और महान स्वप्न दृष्टा थे।

वह ऐसे स्वप्न दृष्टा थे जिन्होंने अहिंसक क्रांति द्वारा आजादी का जो स्वप्न देखा, उसे साकार किया।

आजाद भारत कैसा हो? उनके सपनों में कैसे भारत की तस्वीर थी, यह कोई अबूझा तथ्य नहीं है। गांधीजी का खुली किताब सजीवन, उनके विचार और आचरण, उनके स्वप्निल भारत का चित्र स्पष्ट करते हैं।

गांधीजी बहुदा ‘रामराज’ की चर्चा करते थे। भारत में ‘रामराज’ चाहते थे। ‘रामराज’ से आशय किसी राजा के राज्य से नहीं, किसी संप्रदाय वादी राज्य से नहीं। वे किसी राजतंत्र, अधिनायक वादी राज्य के पक्षधर कतई नहीं थे। वह तो बस “रामराज” की नैतिकता, सत्याचरण, प्रेम, दया, करुणा, संपन्नता, निर्भयता और जनहित से युक्त राज्य और राज्य व्यवस्था की स्थापना चाहते थे।

बापू ने स्वप्न देखा क्योंकि वह संवेदनशील और कल्पनाशील थे। उनकी कल्पना यथार्थ की जमीन से उठकर पुरुषार्थ के आकाश में उड़ान भर्ती थी।

जिन आंखों में स्वत नहीं होते उनमें निराशा का अंधकार अंज जाता है। बापू स्वप्न दृष्टा थे इसलिए उन्होंने क्रांति का स्वप्न देखा और उसे मूर्त रूप दिया। फिर उन्होंने नए भारत का नया स्वप्न देखा। आइए, देखें सोचे विचारे, पहले उनके स्वप्न सागर की।

बापू…”स्वराज्य की मेरी धारणा के बारे में किसी को कोई धर्म ना रहे। वह है बाहरी नियंत्रण से पूर्ण स्वाधीनता और पूर्ण आर्थिक स्वाधीनता। इस प्रकार एक छोर पर है राजनीतिक स्वाधीनता और दूसरे छोर पर है आर्थिक। इसके 2 चोर और भी हैं जिनमें से एक छोर नैतिक व सामाजिक है और उसी का दूसरा छोर है… धर्म… इस शब्द के उत्कृष्टतम अर्थ में। इसमें हिंदुत्व, सलाम, ईसाई मजहब आदि सभी का समावेश है। पर यह उन सबसे ऊंचा है। आप इसे सत्य के नाम से पहचान सकते हैं।”

अपनी ‘रामराज्य’ की धारणा को भी गांधी ने अनेक बार स्पष्ट किया। वे कहा करते थे कि…” राजनीतिक स्वाधीनता से मेरा आशय यह नहीं है कि। हम ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमंस की ही पूरी नकल कर ले, या सोवियत रूस के शासन की, या इटली के फासिस्ट अथवा जर्मनी के नाजी राज की। उनकी शासन पद्धतियाँ उनकी अपनी ही विशेषता के अनुरूप हैं।

बापु ने अपनी धारणा को और स्पष्ट करते हुए कहा था…”हमारी शासन पद्धति हमारी ही विशेषता के अनुरूप होगी पर वह क्या हो, यह बता सजना मेरी सामर्थ के बाहर है। मैंने इसका वर्णन ‘रामराज’ के रूप में किया है अर्थ-अर्थ आम जनता की प्रभुसत्ता, जिसका आधार विशुद्ध रूप से नैतिक ही हो।”

अपने स्वप्निल भारत की स्वप्निल आर्थिक स्वाधीनता के बारे में बापू ने कहा था…”मेरे लिए तो भारतीय आर्थिक स्वाधीनता का अर्थ हर व्यक्ति का आर्थिक उत्थान है… हर पुरुष और स्त्री का और उसके अपने ही जागरूक प्रयत्नों द्वारा… इस पद्धति के अंतर्गत हर पुरुष और स्त्री के लिए पर्याप्त वस्त्र उपलब्ध रहेंगे और पर्याप्त खुराक, जिसमें दूध और मक्खन भी शामिल होंगे, जो आज करोड़ों को नसीब नहीं होते।”

वक्त और खुराक के साथ बापू ने जमीनी अधिकार के बारे में भी सोचा था। वे”सब भूमि गोपाल की” … यानी सब भूमि जनता की मानते थे।

गुलाम भारत के आर्थिक विषमता की स्थितियों से गांधीजी बेहद दुखी और चिंतित रहते थे। उनका विचार था स्वप्न था कि आजाद भारत में, नए भारत में यह स्थितियाँ नहीं रहेंगी।

बापू ने कहा था…”स्वतंत्र भारत में जहाँ कि गरीबों के हाथ में उतनी शक्ति होगी जितनी देश के बड़े से बड़े अमीरों के हाथ में, वैसे विषमता तो 1 दिन के लिए भी कायम नहीं रह सकती जैसे कि नई दिल्ली के महलों और वही नजदीक की उन सड़ी गली झोपड़ियों के बीच पाई जाती है जिनमें मजदूर वर्ग के गरीब लोग रहते हैं।”

बापू ने एक चेतावनी भी दी थी कि यदि आजाद भारत में आर्थिक विषमता की खाई पार्टी नहीं गई, यदि अमीर लोग अपनी संपत्ति और शक्ति का स्वेच्छा पूर्वक ही त्याग नहीं करते और सभी की भलाई के लिए उसमें हिस्सा नहीं बांटते तो “हिंसात्मक और खूनी क्रांति एक दिन होकर ही रहेगी।” ऐसा ना हो इसके लिए हम सभी को एकजुट होना होगा और बापू के सपने को साकार करना होगा।

 

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

Please share your Post !

Shares