हिन्दी साहित्य-आलेख *होली पर विशेष – सामाजिक समरसता* डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

होली पर विशेष – सामाजिक समरसता 
प्राचीन काल में आदमी का जीवन पूरी तरह प्रकृति से जुड़ा था ।यही वह समय था , जब उसने  ऋतुओं का धूमधाम से स्वागत करने की परम्परा कायम की ओर इसकी एक पुरातन कड़ी है होली । यह संधि  ऋतु यानी सर्दी के जाने और गर्मी के आने का पर्व है । नये धान्य की आगवानी का उल्लास पर्व है होली । इसकी आहट तो वसंत के आगमन से होने लगती है । आज के युग में मनुष्य दिनों दिन प्रकृति से दूर होता जा रहा है तथा पर्यावरण के रक्षक जंगलों को मनुष्य अपने स्वार्थ की खातिर काटकर जगह जगह कांक्रीट के जंगल बढ़ाता जा रहा है जिससे पर्यावरण पर बुरा प्रभाव पड़ा है ।
प्रकृति से दूर होने पर होली के मायने भी बदल गये हैं । कभी होली कृष्ण के समान ललित मानी जाती थी , परन्तु बदलते हालात के साथ अश्लीलता , अशिष्टता और घिनोनापन जुड़ गया है । पारम्परिक रंग गुलाल , अबीर से होली खेलने के स्थान पर ग्रीस , तारकोल , आइल ,सिल्वरपेन्ट के साथ ही नाली के कीचड़ से होली खेलने वाले बढ़ते जा रहे हैं ।युवतियों के दुपट्टे खींचने और बुजुर्गों की टोपियां उछालकर मजा लेने वाले भी कम नहीं हैं ।
होली जो सामाजिक समरसता का प्रतीक हुआ करती थी, अब बदला लेने के पर्व में तब्दील होती जा रही है । एक दूसरे से दुश्मनी के फलस्वरूप होली की आड़ में  इस दिन किसी पर तेजाब फेंकना या छुरा चाकू के वार से खून की होली खेलने का पर्व होता जा रहा है होली ।सच कहा जाये तो ये तत्व होलिहार हैं ही नहीं, ये हुड़दंगिए हैं, जिनमें वसंत का रस लेने की क्षमता नहीं है । होलिहार तो अपनी शालीन ठिठोली, मस्ती और उल्लास से प्रकृति की मादक अंगड़ाई की मिठास बांटते हैं । प्रेम और सामाजिक मिलन के इस पर्व की महत्वता को बचाने और आगे आने वाली पीढ़ी को इसके वास्तविक स्वरूप को पहचानने के लिए  हमारा कर्तव्य है कि हम वैमनस्यता को त्यागकर भाईचारे के साथ होली मनायें ।
© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,म .प्र . 482002

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख – * परिवर्तनकामी थे: हरिशंकर परसाई * –श्रीमती सुसंस्कृति परिहार

श्रीमती सुसंस्कृति परिहार

हिन्दी आलेख – परिवर्तनकामी थे: हरिशंकर परसाई

(प्रस्तुत है श्रीमती सुसंस्कृति परिहार जी का स्व. हरीशंकर परसाईं  जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर एक खोजपरख आलेख।)
– साभार श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी , जबलपुर 
‘बात बोलेगी हम नहीं, भेद खोलेगी बात ही’ कवियों के कवि शमशेर बहादुर सिंह की उपरोक्त पंक्तियां हरिशंकर परसाई की रचनाओं पर बिल्कुल सटीक बैठती हैं । हरिशंकर परसाई अगर चौदहवीं शताब्दी में पैदा होते तो कबीर होते और कबीर यदि बीसवीं शताब्दी में पैदा होते तो हरिशंकर परसाई होते । आजादी के पहले के भारत को जानना हो तो प्रेमचंद को पढ़ना चाहिए और आजादी के बाद के भारत को जानना हो तो हमें परसाई को पढ़ना होगा । इन मशहूर कथनों से हमें पता चलता है कि परसाई किस परंपरा में आते हैं ?
हरिशंकर परसाई का जन्म 22 अगस्त 1922 को होशंगाबाद जिले के जमानी गांव में हुआ इनके पिता का नाम श्री झूमक लाल परसाई था। माता का नाम श्रीमती चंपाबाई था । पांच भाई बहनों में परसाई जी सबसे बड़े थे ।उनकी प्राथमिक शिक्षा गांव की प्रायमरी शाला में हुई और मिडिल एवं हाई स्कूल की पढ़ाई टिमरनी हाई स्कूल में  ।1940 में मैट्रिक परीक्षा पास कर कुछ दिन वन विभाग में नौकरी की जहां से जबलपुर आ गये और जुलाई 1943 में मॉडल हाई स्कूल जबलपुर में शिक्षक हो गये । होशंगाबाद से लेकर जबलपुर तक नर्मदा उनके साथ रहीं । ‘नर्मदा तीरे’ नामक कालम में से ही उनका लेखन प्रारंभ हुआ ।  सुदीप बनर्जी की कविता की पंक्ति है -मैं जहां जहां गया, नदियां मेरे बहुत काम आईं । यही हाल परसाई जी का था । नर्मदा को कुंवारी नदी कहा जाता है परसाई जी भी आजीवन कुंवारे रहे ।
आजादी से मोह भंग की प्रक्रिया हिंदी के रचनाकारों को छठे दशक में शुरू हुई जबकि परसाई जी का मोहभंग आज़ादी के 3 माह बाद ही हो गया था इसी से हम उनकी पैनी दृष्टि का अंदाजा लगा सकते हैं उनकी पहली रचना प्रहरी में 23 नवंबर 1947 को ‘पैसे का खेल ‘शीर्षक से प्रकाशित हुई ।आजाद भारत में जो  पैसे का खेल शुरू हुआ उसे उन्होंने देख लिया था । प्रेमचंद जी ने ‘महाजनी सभ्यता’ लिखी बहुत बाद में किंतु महाजनी सभ्यता के विस्तार से परसाई लिखना प्रारंभ करते हैं ।
आजादी के बाद पनपते पाखंड, अनीति, अनाचार, अत्याचार, शोषण, संप्रदायवाद एवं साम्राज्यवाद के ख़तरों से परसाई जी आजीवन  लड़ते रहे तथा देशवासियों को सतर्क करते रहे । मुक्तिबोध जैसे युग प्रवर्तक कवि से उनकी मित्रता उनके जीवनकाल की अमूल्य निधि थी । खतरा उठा कर भी अभिव्यक्ति देने का संस्कार उन्होंने कबीर और मुक्ति बोध से पाया । मुक्तिबोध के अलावा ग़ालिब ,निराला एवं फ़ैज़ को अत्यधिक पसंद करते थे ।
परसाई जी व्यंग को विधा नहीं मानते थे उनके लेखन को किस खाने में रखा जाए यह बात हमेशा समीक्षकों के लिए समस्या रही है ।इसी तरफ इशारा करते हुये उन्होंने लिखा था- ‘मैं लेखक छोटा हूँ किन्तु संकट बड़ा  हूँ ‘। ‘मैं ‘ को आधार बनाकर जिस तरह उन्होंने अपने ऊपर निर्मम प्रहार किए हैं वैसा साहित्य में दुर्लभ है ।जो व्यंग्य लेखक अपनी आलोचना नहीं कर सकता सिर्फ दूसरों की आलोचना करता है उन पर व्यंग करता है वह सफल व्यंग्यकार नहीं हो सकता । परसाई की रचनाओं में गंभीर चिंतन है । रचना पूरी तरह व्यंग्य  के माहौल में डूबी रहती है पर दैनिक जीवन की वास्तविकतायें  हमारे सामने आती रहती हैं । उदाहरणत: एक स्थान पर भी लिखते हैं –‘हमारे जीवन में नारी को जो मुक्ति मिली है क्यों मिली है ।कैसे मिली आंदोलन से ,आधुनिक दृष्टि से ,उसके व्यक्तित्व की स्वीकृति से -नहीं उसकी मुक्ति का कारण महंगाई है। नारी मुक्ति के इतिहास में यह वाक्य अमर रहेगा एक कमाई से पूरा नहीं पड़ता ।’
अपनी खुद की मुफलिसी पर उन्होंने बहुत लिखा है:- ‘वे नेता पर गर्व करते हैं ‘दुख का ताज में लिखते हैं-‘ जिसके पास कुछ नहीं होता, अनंत दुख होता है वह धीरे धीरे शहादत के गर्व के साथ कष्ट भोगता है ।जीने के लिए आधार चाहिए और तब अभाव में यह दुख ही जीवन का आधार हो जाता है ।’
बाबा नागार्जुन ने वाणी ने पाये प्राणदान नामक कविता में उनके व्यंग्य बाणों के बारे में लिखा है –
छूटने लगे अविरल गति से
जब परसाई के व्यंग बाण
सरपट भागे तब धर्मध्वजी
दुष्टों के कम्पित हुए प्राण ।
आईये उनके कुछ व्यंग्य बाणों को भी देख लें—
इज्ज़तदार ऊंची झाड़ की ऊंची टहनी पर दूसरों के बनाए घोसले में अंडे देता है।
दानशीलता, सीधापन, भोलापन असल में इस तरह का इन्वेस्टमेंट है।
सड़ा विद्रोह एक रुपए में चार आने किलो के हिसाब से बिक जाता है ।
धर्म धंधे से जुड़ जाए इसी को योग कहते हैं। अर्थशास्त्र जब धर्मशास्त्र के ऊपर चाहे बैठता है तब गौ रक्षा आंदोलन के नेता पंडित जूतों की दुकान खोल लेते हैं।
परसाई जी जन जीवन से  जुड़े रचनाकार थे । मेरे समकालीन शीर्षक से लिखते हुए साहित्यकार अपने समय के साहित्यकारों पर लिखते हैं किंतु परसाई ने रिक्शा वाले, पान वाले, चाय वाले को समकालीन लिखा । हजारों हजार छात्रों और नौजवानों ने उनके लेखक एवं सानिध्य से प्रेरणा ली उनके ऊपर जब किसी संस्था वालों ने हमला किया तो बरसते पानी में जबलपुर के 5000 मजदूरों ने जुलूस निकाला और उनके निवास पर उनके प्रति समर्थन व्यक्त करने गए। ऐसी घटना दुनिया में शायद ही कहीं अन्यत्र हुई हो ।
उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ मध्य प्रदेश में अग्रणी बनाए रखा और ‘वसुधा’ जैसी पत्रिका का संपादन किया । आवश्यक लिखना, निरंतर लिखना परसाई जी से सीखने की चीज़ है । वे ऐसी विचारधारा को जरूरी मानते हैं  जिसमें जीवन का ठीक विश्लेषण हो सके और निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके। इसके बिना लेखक गलत निष्कर्ष का शिकार हो जाता है । वे मानते हैं ,प्रतिबद्धता एक गहरी चीज है जो इस बात से तय होती है इस समाज में जो द्वंद है उनमें लेखक किस तरफ खड़ा है? पीड़ितों के साथ या पीड़कों के साथ । वे मानते हैं जीवन जैसा है उसे बेहतर होना चाहिए ।जो गलत मूल्य हैं उन्हें नष्ट होना चाहिए क्योंकि साहित्य के मूल्य जीवन मूल्यों से बनते हैं ।निश्चित है परसाई के व्यंग शिष्टता का संबंध उच्च वर्गीय मनोरंजन से ना होकर समाज में सर्वहारा की लड़ाई से अधिक है जो आगे जाकर मनुष्य की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है ।वे प्रगतिकामी होने के साथ-साथ मानवता के लिए समर्पित रहे।
© श्रीमती सुसंस्कृति परिहार 
– साभार श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी , जबलपुर 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- आलेख – * डॉ अ. कीर्तिवर्धन का काव्य संसार * – श्री अभिषेक वर्धन

डॉ अ. कीर्तिवर्धन का काव्य संसार – दो काव्य संग्रह लोकार्पित

विद्यालक्ष्मी चैरिटेबल ट्रस्ट तथा एच डी चैरिटेबल सोसायटी के संयुक्त तत्वावधान में एस डी कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, मुजफ्फरनगर के सभागार में विगत 22 दिसंबर 2018 को आयोजित अविस्मरणीय समारोह में डॉ अ कीर्तिवर्धन की दो पुस्तकों “मानवता की ओर” तथा “द वर्ल्ड ऑफ पोइट्री” (The World of Poetry)  का लोकार्पण किया गया। कार्यक्रम का शुभारंभ डॉ कीर्ति वर्धन जी द्वारा हाइकु शैली में लिखी तथा भारती विश्वनाथन जी द्वारा स्वरबद्ध की गयी सरस्वती वंदना से किया गया।

पुस्तक के विषय में अपनी बात रखते हुये कीर्तिवर्धन जी ने समाज में घटते संस्कारों व सामाजिक मूल्यों के प्रति चिन्ता जाहिर की और बताया कि उनकी कविता भूतकाल से सीखकर वर्तमान के धरातल पर खड़ी होकर भविष्य की चुनौतियों के लिये समाज को तैयार करने का प्रयास है। मानवीय दृष्टिकोण तथा मानवता भारतीय जीवन शैली है, उसके बिना विश्व कल्याण सम्भव नही है। अपनी चार पंक्तियों के माध्यम से उन्होने कहा –

टूटकर   भी   किसी   के   काम   आ जाऊँगा,
मैं पत्ता हूँ,  गल गया तो खाद बन जाऊँगा।
हो सका तो मुझको जलाना ईंधन के वास्ते,
किसी के काम आ सकूँ, खुशी से जल जाऊँगा।

डॉ अ कीर्तिवर्धन की चुनिंदा कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद ‘द वर्ल्ड ऑफ पोइट्री’ के अनुवादक डॉ राम शर्मा (विभागाध्यक्ष अंग्रेजी जे वी कॉलेज बडौत) के अनुसार कीर्ति जी की कविताएँ सरल, सहज व मानवीय संवेदनाओं से पूर्ण हैं। आज कीर्ति जी की अंग्रेजी में अनुदित कविताएँ विश्व पटल पर पढी और सराही जाती हैं। श्री रोहित कौशिक जी के अनुसार डॉ कीर्ति वर्धन जी की कविताओं में समाज बदलने की ताकत है। वह आदमी को इन्सान बनने की प्रेरणा देते हैं। उन्होंने आशा जताई कि कीर्ति जी समाज को कुछ और भी बेहतर देने में सक्षम होंगे। श्री राजेश्वर त्यागी जी, मेरठ के अनुसार ‘मानवता की ओर’ मानवीय संवेदनाओं का जीवन्त दस्तावेज है। पुस्तक की अनेक रचनाओं का उल्लेख करते हुये उन्होने कहा कि अपने 52 वर्ष के लेखनकाल में उन्होने मानवीय संवेदनाओं की ऐसी सृजना नही की।

संस्कृत के प्रख्यात विद्वान डॉ उमाकांत शुक्ल जी ने कीर्तिजी की सहृदयता तथा मानवीय दृष्टिकोण को रेखांकित करते हुये उनकी पूर्व पुस्तकों मुझे इन्सान बना दो, सुबह सवेरे, सच्चाई का परिचय पत्र  में भी उनके मानवतावादी दृष्टिकोण की चर्चा की और आशीर्वाद देते हुये कहा कि कीर्तिवर्धन जी अपनी रचनाओं से समाज में मानवता का परचम फहराते रहेंगे और बच्चों में संस्कारों का रोपण करने में संलग्न रहेंगे। प्रसिद्ध शिक्षाविद डॉ एस एन चौहान के अनुसार  कीर्तिवर्धन जी अच्छे साहित्यकार के साथ बेहतरीन इंसान भी हैं। उनकी कविताएं इंसानी मूल्यों के प्रति संवेदना, प्रेरणा व स्फूर्ति पैदा करने वाली हैं। उनके अनुसार “मानवता की ओर” एक ऐसी कृति है जो आज के आपाधापी के युग में कल्याण का पथ प्रशस्त कर सकेंगी।  कीर्तिजी की बुजुर्गों पर केन्द्रित पुस्तक “जतन से ओढी चदरिया” को सराहते हुए उन्होने कहा कि यदि इसको पढा और समझा जाये तो समाज में वृद्धाश्रम की समस्या समाप्त हो जायेगी। डॉ चौहान ने कीर्तिवर्धन जी की रचनाओं के कन्नड, तमिल, मैथिली, नेपाली, अंगिका, तमिल व उर्दू अनुवादों की भी चर्चा की।

साभार श्री अभिषेक वर्धन, मुजफ्फरनगर

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- आलेख – * आत्मनिर्भरता के लिए सेल्फी * – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव “विनम्र”

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव “विनम्र”

आत्मनिर्भरता के लिए सेल्फी

(प्रख्यात साहित्यकार श्री विवेक  रंजन  श्रीवास्तव जी  ‘सेल्फी ‘को  किस दृष्टि से देखते हैं, जरा आप भी देखिये।)  

“स्वाबलंब की एक झलक पर न्यौछावर कुबेर का कोष ” राष्ट्र कवि मैथली शरण गुप्त की ये पंक्तियां सेल्फी फोटो कला के लिये प्रेरणा हैं. ये और बात है कि कुछ दिल जले  कहते हैं कि सेल्फी आत्म मुग्धता को प्रतिबिंबित करती हैं. ऐसे लोग यह भी कहते हैं कि सेल्फी मनुष्य के वर्तमान व्यस्त एकाकीपन को दर्शाती है. जिन्हें सेल्फी लेनी नही आती ऐसी प्रौढ़ पीढ़ी सेल्फी को आत्म प्रवंचना का प्रतीक बताकर अंगूर खट्टे हैं वाली कहानी को ही चरितार्थ करते दीखते हैं.

अपने एलबम को पलटता हूं तो नंगधुड़ंग नन्हें बचपन की उन श्वेत श्याम  फोटो पर दृष्टि पड़ती हैं जिन्हें मेरी माँ या पिताजी ने आगफा कैमरे की सेल्युलर रील घुमा घुमा कर खींचा रहा होगा. अपनी यादो में खिंचवाई गई पहली तस्वीर में मैं गोल मटोल सा हूँ, और शहर के स्टूडियो के मालिक और प्रोफेशनल फोटोग्राफर कम शूट डायरेक्टर लड़के ने घर पर आकर, चादर का बैकग्राउंड बनवाकर सैट तैयार करवाया था, हमारी फेमली फोटोग्राफ के साथ ही मेरी कुछ सोलो फोटो भी खिंची थीं. मुझे हिदायत दी थी कि मैं कैमरे के लैंस में देखूं, वहाँ से चिड़िया निकलने वाली है. घर के कम्पाउंड में वह जगह चुनी गई थी जिससे सूरज की रोशनी मुझ पर पड़े  और पिताजी के इकलौते बेटे का  बढ़िया सा फोटो बन सके. फोटो अच्छा ही है, क्योकि वह फ्रेम करवाया गया और बड़े सालों तक हमारे ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाता रहा.अब वह फोटो मेरी पत्नी और बच्चो के लिये आर्काईव महत्व का बन चुका है.

यादो के एलबम को और पलटें तो स्कूल , कालेज के वे ग्रुप फोटो मिलते हैं जिन्हें हार्ड दफ्ती पर माउंट करके नीचे नाम लिखे होते थे कि बायें से दायें कौन कहां खड़ा है. मॉनिटर होने के नाते मैं मास्साब के बाजू में सामने की पंक्ति पर ही सेंटर फारवार्ड पोजीशन पर मौजूद जरूर हूं पर यदि नाम न लिखा हो तो शायद खुद को भी आज पहचानना कठिन हो. वैसे सच तो यह है कि मरते दम तक हम खुद को कहाँ पहचान पाते हैं, प्याज के छिलको या कहें गिरगिटान की तरह हर मौके पर अलग रंग रूप के साथ हम खुद को बदलते रहते हैं. आफिस के खुर्राट अधिकारी भी बीबी और बास के सामने दुम दबाते नजर आते हैं. शादी में जयमाला की रस्मो के सूत्रधार फोटोग्राफर ही होते हैं वे चाहें तो गले में पड़ी हुई माला उतरवा कर फिर से डलवा दें. शादी का हार गले में क्या पड़ता है, पत्नी जीवन भर शीशे में उतारकर फोटू खींचती रहती है ये और बात है कि वे फोटू दिखती नही जीवन शैली में ढ़ल जाती हैं.

कालेज के दिन वे दिन होते हैं जब आसमान भी लिमिट नही होता. अपने कालेज के दिनो में हम स्टडी ट्रिप पर दक्षिण भारत गये थे. ऊटी के बाटनिकल गार्डेन के सामने खिंचवाई गई उस फोटो का जिक्र जरूरी लगता है जिसे निगेटिव प्लेट पर काले कपड़े से ढ़ांक कर बड़े से ट्रिपाईड पर लगे  कैमरे के सामने लगे ढ़क्ककन को हटाकर खींचा गया था, और फिर केमिकल ट्रे में धोकर कोई घंटे भर में तैयार कर हमें सुलभ करवा दिया गया था. कालेज के दिनो में हम फोटो ग्राफी क्लब के मेंम्बर रहे हैं. डार्क रूम में लाल लाइट के जीरो वाट बल्ब की रोशनी में हमने सिल्वर नाइत्रेट के सोल्यूशन में सधे हाथो से सैल्युलर फिल्में धोई और याशिका कैमरे में डाली हैं. आज भी वे निगेटिव हमारे पास सुरक्षित हैं, पर शायद ही उनसे अब फोटो बनवाने की दूकाने हों.

डिजिटल टेक्नीक की क्रांति नई सदी में आई. पिछली सदी के अंत में तस्करी से आये जापानी आटोमेटिक टाइमर कैमरे को सामने सैट करके रख कर मिनिट भर के निश्चित समय के भीतर कैमरे के सम्मुख पोज बनाकर सेल्फी हमने खींची है, पर तब उस फोटो को सेल्फी कहने का प्रचलन नहीं था. सेल्फी शब्द की उत्पत्ति मोबाइल में कैमरो के कारण हुई. यूं तो मोबाईल बाते करने के लिये होता है पर इंटनेट, रिकार्डिग सुविधा, और बढ़िया कैमरे के चलते अब हर हाथ में मोबाईल, कम्प्यूटर से कहीं बढ़कर बन चुके हैं. जब हाथ में मोबाईल हो, फोटोग्राफिक सिचुएशन हो, सिचुएसन न भी हो तो खुद अपना चेहरा किसे बुरा दिखता है.  ग्रुप फोटो में भी लोग अपना ही चेहरा ज्यादा देखते हैं . हर्रा लगे न फिटकरी रंग चोखा आये की शैली में सेल्फी खींचो और डाल दो इंस्टाग्राम या फेसबुक पर लाईक ही लाईक बटोर लो. अभिव्यक्ति का श्रेष्ठ साधन हैं सेल्फी. मेरे फेसबुक डाटा बताते हैं कि मेरी नजर में मेरे अच्छे से अच्छे व्यंग को भी उतने लाइक नही मिलते जितने मेरी खराब से खराब प्रोफाइल पिक को लोड करते ही मिल जाते हैं. शायद पढ़ने का समय नही लगाना पड़ता, नजर मारो और लाइक करो इसलिये . शायद इस भावना से भी कि सामने वाला  भी लाइक रेसीप्रोकेट करेगा. यूं लड़कियो को यह प्रकृति प्रदत्त सुविधा है कि वे किसी को लाइक करें न करें उनकी फोटो हर कोई लाइक करता है.

सेल्फी से ही रायल जमाने के तैल चित्र बनवाने के मजे लेने हो तो अब आपको घंटो एक ही पोज पर चित्रकार के सामने स्थिर मुद्रा में बैठने की कतई जरूरत नहीं है. प्रिज्मा जैसे साफ्टवेयर मोबाईल पर उपलब्ध हैं, सेल्फी लोड करिये और अपना राजसी तैल चित्र बना लीजीये वह भी अलग अलग स्टाइल में मिनटो में.

जब सस्ती सरल सुलभ सेल्फी टेक्नीक हर हाथ में हो तो उसके व्यवसायिक उपयोग केसे न हों. कुछ इनोवेटिव एम बी ए पढ़े प्रोडक्ट मेनेजर्स ने उनके उत्पाद के साथ  सेल्फी लोड करने  पर पुरस्कार योजनायें भी बना डालीं . कोई कचरे के साथ सेल्फी से हिट है तो कोई देश के विकास में योगदान दे रहा है योगासन की सेल्फी से, तो अपनी ढ़ेर सी शुभकामनायें सभी सेल्फ़ीबाजो को. सैल्फी युग में सब कुछ हो, भगवान से यही दुआ है कि हम सैल्फिश होने से बचें और खतरनाक सेल्फी लेते हुये  किसी पहाड़ की चोटी,  बहुमंजिला इमारत, चलती ट्रेन, या बाइक पर स्टंट की सेल्फी लेते किसी की जान न जावें.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख – * पैसा कमाने के चक्कर में निजी अस्पतालों ने दिया सिजेरियन डिलीवरी को बढ़ावा * – सुश्री ऋतु गुप्ता

सुश्री ऋतु गुप्ता

पैसा कमाने के चक्कर में निजी अस्पतालों ने दिया सिजेरियन डिलीवरी को बढ़ावा

(सुश्री ऋतु गुप्ता जी  का एक सार्थक, सामयिक  एवं सटीक लेख। सुश्री ऋतु जी ने एक अत्यंत ज्वलंत  समस्या  पर अपने विचार रखे हैं । इस विषय  पर  हमारे साथ ही चिकित्सा जगत से जुड़े लोगों को मानवीय दृष्टिकोण से विचार करने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त मैं यह भी कहना चाहूँगा कि अभी भी  कुछ सम्माननीय चिकित्सक हैं, जो बिना हिम्मत हारे अथक प्रयास करते  हैं ताकि सर्जरी की आवश्यकता न पड़े। हम उनका सादर सम्मान करते हैं।) 

जब मैनें 20 जनवरी रविवारीय दैनिक ट्रिब्यून में एक न्यूज का हैडलाइन पढ़ा कि मोटी कमाई के लिए सिजेरियन डिलीवरी को बढ़ावा दे रहे हैं निजी अस्पताल, मेरे अपने साथ बीती एक-एक घटना मेरी आँखों के सामने तैर गई।आज क्या आज से दस साल पहले भी तो यही तो होता था। तब भी तो सिजेरियन डिलीवरी के नये -नये बहाने खोज लिए जाते थे और बेचारे घरवाले डॉक्टर्स के सामने कुछ बोल नहीं पाते और मजबूरन हाँ भर देते।

मुझे पूरा टाईम हो चुका था  डिलीवरी कभी भी हो सकती थी। एक दिन जब मेरी तबीयत थोड़ा बिगड़ी तो मैं अपने डॉक्टर के पास गई उसने कहा कि तुरंत एडमिट करना पड़ेगा बच्चे ने अंदर ही पॉटी कर ली है।मुझे आर्टिफिशियल दर्द चालू किये गये लेकिन असफल रहे। इंजेक्शन व दवाओं के जरिये कोशिश की जाती रही लेकिन दर्द रूक रहे थे। मैं जब तक होश में थी मुझे याद है कई डाक्टर व स्टाफ के लोग खड़े थे।मेरे कानों में यह शब्द साफ पड़ रहे थे कि बच्चे का सिर नीचे फंस चुका है,ऑपरेशन भी नहीं कर सकते फोरसेप्स डिलीवरी करनी पड़ेगी वो भी जल्दी क्योंकि बच्चे की हार्ट बीट कम होती जा रही हैं।उसके बाद पता नहीं मुझे होश नहीं रहा मालूम नहीं जान बूझ  कर बेहोश किया गया था या फिर दवाओं की ओवरडोज से ऐसा हुआ था। मेरे शरीर का ज्यादातर ब्लड बह चुका था शायद गलत कट लग गया था। मुझे 24घंटों के बाद होश आया। बेटे को 5 दिन तक नर्सरी में डाल दिया गया।बहुत कोशिशों के बाद  ही मेरी तबीयत में कुछ सुधार आना शुरू हुआ।बाद में उन डॉक्टर्स में से हमारे जान पहचान के एक ने बताया कि केस बिगड़ चुका था. दूसरे अस्पताल में शिफ्ट करने की पूरी योजना बना ली थी अगर कुछ झण और देरी होती तो। बाद में पता चला इतने नामी नर्सिंगहोम में भी ज्यादातर डिलीवरी सिजेरियन के चक्कर में ऐसे ही करते हैं। एक बार तो दिल किया कि केस कर दें डॉक्टर पर लेकिन सबूत क्या था कि मुझे यह समस्या नहीं थी। सिजेरियन डिलवरी तो नहीं हो पाई मेरी पर फोरसेप्स डिलीवरी व नाजुक हालत की वजह से कई दिन वहाँ रख पूरा पैसा वसूल लिया।

पिछले एक दशक में एनएचएफएस के अनुसार सिजेरियन डिलीवरी की प्रतिशत दुगुनी हो गई है जो 2005 में 8.5%  थी वह 2016 तक  17.2% पहुंच गई। निजी अस्पतालों में 40% व सरकारी अस्पतालों में 16.44% डिलीवरी सीजेरियन होती हैं। डॉक्टर्स के अनुसार वे बहुत जरूरत पड़ने पर ही ऐसा करते हैं, उनके अनुसार ऐसी कई विभिन्न परिस्थितियों में जैसे यूटरस का मूहँ नहीं खुलना, बी.पी. हाई होना,बच्चे की धड़कन कम होना, गले में गर्भनाल फंसना, बच्चे का, उल्टा या फिर कमजोर होना इत्यादि। लेकिन जो भी है निजी अस्पतालों में नॉर्मल डिलीवरी का इंतजार न कर आननफानन में कुछ ऐसा प्रेशर बना देते हैं कि हार कर घरवाले तैयार हो जाते हैं।

सरकार भी चिंतित है इन सिजेरियन डिलीवरी की वजह से क्योंकि एक तो प्रसूता के शरीर पर इससे गलत असर होता है,दूसरे नॉर्मल डिलीवरी व सिजेरियन डिलीवरी के खर्चे में कई गुणा अंतर है। जहाँ नॉर्मल में दस हजार के आसपास तो सिजेरियन में लगभग पचास हजार के आसपास का खर्चा है।स्वास्थय मंत्रालय ने इन बातों को ध्यान में रखते हुए सीजीएचएस से जूड़े सभी प्राईवेट व सरकारी अस्पतालों के लिए जरुरी कर दिया है कि इस तरह हर दिन हुई डिलीवरी को बोर्ड लगा कर सार्वजनिक करें।

सुप्रीम कोर्ट में भी गुहार लगाई गई है कि कोई ऐसा कानून व नियम निकाले जाये कि बेवजह सिजेरियन डिलीवरी से बचा जा सकें। वैसे भी निजी अस्पतालों पर इल्जाम लगते रहें हैं कि पैसा कमाने के चक्कर में मरीज को जबरदस्ती ज्यादा दिन एडमिट रखते हैं, जबरदस्ती की ज्यादा दवाईयां आदि लिख देते हैं।इन शिकायतों में भी कुछ सुधार हो सकेगा। इसके लिए भी और ज्यादा जागरूक होना पड़ेगा कि प्रेग्नेंसी के दौरान उचित व पौष्टिक डाइट, कैल्शियम, आयरन व अन्य जरूरी विटामिन मिल सके।उचित देखरेख से इन परस्थितियों से बचा जा सकता है। भगवान स्वरूप डॉक्टर्स को भी चाहिए की वे बिना किसी जरूरी वजह ऐसी डिलीवरी करने से बचें। क्योंकि इससे स्वास्थ्य व पैसे दोनों का ही नुकसान हैं। वे अपने इस सम्मानजनक पेशे व ओहदे का ध्यान रखें।

© ऋतु गुप्ता

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख – आज की पत्रकारिता – डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

आज की पत्रकारिता
(दिनांक 23 दिसंबर 2018 को कच्छी  जैन भवन जबलपुर में पत्रकार विकास मंच के तटवाधान में आयोजित पत्रकारिता पर डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी का व्याख्यान)
निज कबित्त केहि लाग न नीका
सरस होउ अथवा अति फीका
अपना काम, अपना नाम, अपना व्यवसाय किसे अच्छा नहीं लगता। वकील अपने व्यवसाय और अपनी जीत के लिए कितनी झूठी-सच्ची दलीलें देते हैं, हम सभी जानते हैं। डॉक्टर और दूकानदार अपने लाभ के लिए क्या झूठ नहीं बोलते?
तब पत्रकार बंधु कोई अलग दुनिया के तो हैं नहीं। इन्हें भी लाभ की आकांक्षा है, सारी दुनिया में लोग रोजी-रोटी से आगे भी कुछ चाहते हैं।
बस यही वह चाह है जो हमें ईमानदारी के मार्ग पर चलने से रोकती है। आज मैं कुछ ऐसी बातों का उल्लेख करना चाहता हूँ, जो कुछ पत्रकार बंधुओं  को अच्छी नहीं लगेंगी। दूसरी ओर ये वो बातें हैं जो समाज में  पत्रकारों के लिए आये दिन कही भी जाती हैं।
मेरा सभी बंधुओं से निवेदन है कि वे इन बातों एवं तथ्यों को व्यक्तिगत नहीं लेंगे।
आज के बदलते वक्त और परिवेश में पत्रकारिता के उद्देश्य एवं स्वरूप में जमीन-आसमान का अंतर हो गया है। अकल्पनीय परिवर्तन हो गए हैं।आईये, हम कुछ कड़वे सच और उनकी हक़ीक़त पर चिंतन करने की कोशिश करें।
सर्वप्रथम, यदि हम ब्रह्मर्षि नारद जी को पत्रकारिता का जनक कहें तो उनके बारे में कहा जाता है कि वे एक स्थान पर रुकते ही नहीं थे. आशय ये हुआ कि नारद जी भेंटकर्ता एवं घुमंतू प्रवृत्ति के थे.
आज की पत्रकारिता से ये गुण लुप्तप्राय हो गये हैं. इनकी जगह दूरभाष, विज्ञप्तियाँ और एजेंसियाँ ले रहीं हैं. सारी की सारी चीज़ें प्रायोजित और व्यावसायिक धरातल पर अपने पैर जमा चुकी हैं.
आज की पत्रकारिता के गुण-धर्म और उद्देश्य पूर्णतः बदले हुए प्रतीत होने लगे हैं. आजकल पत्रकारिता, प्रचार-प्रसार और अपनी प्रतिष्ठा पर लगातार ध्यान केंद्रित रखती है.
पहले यह कहा जाता था कि सच्चे पत्रकार किसी से प्रभावित नहीं होते, चाहे सामने वाला कितना ही श्रेष्ठ या उच्च पदस्थ क्यों न हो, लेकिन अब केवल इन्हीं के इर्दगिर्द आज की पत्रकारिता फलफूल रही है.
आज हम सारे अख़बार उठाकर देख लें, सारे टी. वी. चेनल्स देख लें. हम पत्र-पत्रिकाएँ या इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री देख लें, आपको हर जगह व्यावसायिकता तथा टी. आर. पी. बढाने के फार्मूले नज़र आएँगे. हर सीधी बात को नमक-मिर्च लगाकर या तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने का चलन बढ़ गया है. बोला कुछ जाता है, समाचार कुछ बनता है. घटना कुछ होती है, उसका रूप कुछ और होता है.
कुछ समाचार पत्र एवं चेनल्स तो मन माफिक समाचारों के लिए एजेंसियों की तरह काम करने लगे हैं. इससे भी बढ़कर कुछ धनाढ्य व्यक्तियों अथवा संस्थानों द्वारा बाक़ायदा अपने समाचार पत्र और टी. वी. चेनल्स संचालित किए जा रहे हैं. हमें आज ये भी सुनने को मिल जाता है कि कुछ समाचार पत्र और चेनल्स काला बाज़ारी पर उतार आते हैं.
मैं ऐसा नहीं कहता कि ये कृत्य हर स्तर पर है, लेकिन आज इस सत्यता से मुकरा भी नहीं जा सकता.
आज की पत्रकारिता कैसी हो? तो प्रतिप्रश्न ये उठता है कि पत्रकारिता कैसी होना चाहिए?
पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य सामाजिक घटनाओं और गतिविधियों को समाज के सामने उजागर कर जन-जन को उचित और सार्थक दिशा में अग्रसर करना है.
हमारी ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक परंपराओं के साथ ही उनकी कार्यप्रणाली से भी अवगत कराना पत्रकारिता के कर्तव्य हैं.
हर अहम घटनाओं तथा परिस्थिजन्य आकस्मिक अवसरों पर संपादकीय आलेखों के माध्यम से समाज के प्रति सचेतक की भूमिका का निर्वहन करना भी है.
एक जमाने की पत्रकारिता चिलचिलाती धूप, कड़कड़ाती ठंड एवं वर्षा-आँधी के बीच पहुँचकर जानकारी एकत्र कर ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के साथ हमारे समक्ष प्रस्तुत करने को कहा जाता था,
लेकिन आज की पत्रकारिता वातानुकूलित कक्ष, अंतर-जाल, सूचना-तंत्र, ए. सी. वाहनों और द्रुतगामी वायुयान-हेलिकॉप्टरों से परिपूर्ण व्यवस्थाओं के साथ की जाने लगी है, लेकिन बावज़ूद इसके लगातार पत्रकारिता के मूल्यों का क्षरण चिंता का विषय है.
आज आपके मोहल्ले की मूलभूत समस्याओं को न्यूज चेनल्स या समाचार पत्रों में स्थान नहीं मिलता, लेकिन निरुद्देशीय किसी नेता, अभिनेता या किसी धार्मिक मठाधीश के छोटे से क्रियाकलाप भी  प्रमुखता से छापे या दिखाये जाएँगे. ऐसा क्यों है? इसके पीछे जो कारण हैं वे निश्चित रूप से विचारणीय हैं? यहाँ पर इसका जिम्मेदार आज की  उच्च जीवन शैली, लोकप्रियता एवं महत्त्वाकांक्षा की भावना को भी माना जा सकता है.
हर छोटा आदमी, बड़ा बनाना चाहता है और बड़ा आदमी, उससे भी बड़ा.
आख़िर ये कब तक चलेगा ? क्या शांति और सुख से मिलीं घर की दो रोटियों की तुलना हम फ़ाइव स्टार होटल के खाने से कर सकते हैं?
 शायद कभी नहीं.
 हर वक्त एक ही चीज़ श्रेष्ठता की मानक नहीं बन सकती. यदि ऐसा होता तो आज तुलसी, कबीर, विनोबा या मदर टेरेसा को इतना महत्त्व प्राप्त नहीं होता.
जब तक हमारे जेहन में स्वांतःसुखाय से सर्वहिताय की भावना प्रस्फुटित नहीं होगी, पत्रकारिता के मूल्यों में निरंतर क्षरण होता ही रहेगा.
आज हमारे पत्रकार बन्धु निष्पाप पत्रकारिता करके देखेंगे तो उन्हें वो पूँजी प्राप्त होगी जो धन-दौलत और उच्च जीवन शैली से कहीं श्रेष्ठ होती है.
आपके अंतःकरण का सुकून, आपकी परोपकारी भावना, आपके द्वारा उठाई गई समाज के आखरी इंसान की समस्या आपको एक आदर्श इंसान के रूप में प्रतिष्ठित करेगी.
आज के पत्रकार कभी आत्मावलोकन करें कि वे पत्रकारिता धर्म का कितना निर्वहन कर रहे हैं.
कुछ प्रतिष्ठित या पहुँच वाले पत्रकार स्वयं को अति विशिष्ट श्रेणी का ही मानते हैं. ऐसे पत्रकार कभी ज़मीन से जुड़े नहीं होते, वे आर्थिक तंत्र और पहुँच तंत्र से अपने मजबूत संबंध बनाए रखते हैं.
लेकिन यह भी वास्तविकता है कि ज़मीन से जुड़ी पत्रकारिता कभी खोखली नहीं होती, वह कालजयी और सम्मान जनक होती है.
हम देखते हैं, आज के अधिकांश पत्रकार कब काल कवलित हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता और न ही कोई उन्हें याद रखने की आवश्यकता महसूस करता।
आज पत्रकारिता की नयी नयी विधियाँ जन्म ले चुकीं हैं. डेस्क पर बैठ कर सारी सामग्री एकत्र की जाती है, जो विभिन्न आधुनिक तकनीकि, विभिन्न एजेंसियों एवं संबंधित संस्थान के नेटवर्क द्वारा संकलित की जाती हैं. इनके द्वारा निश्चित रूप से विस्तृत सामग्री प्राप्त होती है,
 लेकिन डेस्क पर बैठा पत्रकार / संपादक प्रत्यक्षदर्शी न होने के कारण समाचारों में वो जीवंतता नहीं ला पाता, समाचारों में वो भावनाएँ नहीं ला पाता, क्योंकि वो दर्द और वो खुशी समाचारों में आ ही नहीं सकती, जो एक प्रत्यक्षदर्शी पत्रकार की हो सकती है.
आज के कुछ प्रेस फोटोग्राफर पीड़ित, शोषित अथवा आत्मदाह कर रहे इंसान की मदद करने के बजाय फोटो या वीडियो बनाने को अपना प्रथम कर्त्तव्य मानते है और दूसरे प्रेस फोटोग्राफर्स को कॉल करके बुलाते हैं। वह दिन कब आएगा जब वे कैमरा फेंककर मदद को दौड़ेंगे? जिस दिन ऐसा हुआ वह दिन पत्रकारिता के स्वर्णिम युग की शुरुआत होगी।
मेरी धारणा है कि यदि आपने पत्रकारिता को चुना है तो समाज के प्रति उत्तरदायी भी होना एक शर्त है अन्यथा आपका जमीर और ये  पीड़ित समाज आपको निश्चिंतता की साँस नहीं लेने देगा।
हम अपने ज्ञान, अनुभव, लगन तथा परिश्रम से भी वांछित गंतव्य पर पहुँच सकते हैं, बस फर्क यही है कि आपको अनैतिकता के शॉर्टकट को छोड़कर नैतिकता का नियत मार्ग चुनना होगा। पत्रकारिता को एक बौद्धिक, मेहनती, तात्कालिक एवं कलमकारी का जवाबदारी भरा कर्त्तव्य कहें तो गलत नहीं होगा।
धन तो और भी तरह से कमाया जा सकता है, लेकिन पत्रकारीय प्रतिष्ठा का अपना अलग महत्त्व होता है। पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है और लोकतंत्र के इस स्तम्भ की हिफाजत करना हम सब का दायित्व है।
अंततः निष्कर्ष यह है कि पत्रकारिता यथा संभव यथार्थ के धरातल पर चले, अपनी आँखों से देखे, अपने कानों से सुने और पारदर्शी गुण अपनाते हुए समाज को आदर्शोन्मुखी बनाने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करे, आज विकृत हो रहे समाज में ऐसी ही पत्रकारिता की ज़रूरत है।
© विजय तिवारी  “किसलय”, जबलपुर 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख – आम हिन्दी पाठकों को हिंग्लिश परोसते कुछ अखबार – डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

आम हिन्दी पाठकों को हिंग्लिश परोसते कुछ अखबार
(आजकल हिन्दी के समाचार पत्रों में हिंगलिश के उपयोग पर डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी का तथ्यात्मक एवं विचारणीय आलेख)
भूमंडलीकरण या सार्वभौमिकता की बात कोई नई नहीं है। हमारे प्राचीन ग्रंथ ‘वसुधैव कुटुंबकम्” की बात लिख कर इसकी आवश्यकता पहले ही प्रतिपादित कर चुके हैं, लेकिन इसका आशय यह कदापि नहीं है कि आवश्यकता न होते हुए भी हम अपनी संस्कृति ,रीति-रिवाज, परंपराओं, धर्म एवं भाषा तक को दरकिनार कर दूसरों की गोद में बैठ जाएँ। बेहतर तो यह है कि हम स्वयं को ही इतना सक्षम बनाने का प्रयास करें कि हमें छोटी-छोटी बातों के लिए दूसरों का मुँह न ताकना पड़े। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि हम केवल और केवल नकलची बनकर नकल न उतारते फिरें।  परिस्थितियों एवं परिवेश की आवश्यकतानुरूप स्वयं को ढालना अच्छी बात है, परंतु बिना सोचे-समझे अंधानुकरण को बेवकूफी भी कहा जाता है। एक छोटा सा उदाहरण है ‘नेक टाई’ का। इसे गले में बाँधने का सिर्फ और सिर्फ यही उद्देश्य है कि ठंडे देशों में गले और गले के आसपास ठंड से बचा जा सके परंतु हमारे यहाँ मई-जून की गर्मी में भी मोटे कोट-पेंट के साथ नेक टाई पहन कर लोग अपनी तथाकथित प्रतिष्ठा बताने से नहीं चूकते। आंग्ल भाषा की उपयोगिता अथवा आवश्यकता हो या न हो कुछ पढ़ेलिखे नासमझ अंग्रेजी झाड़े बिना नहीं रह पाते। हम केवल परस्पर वार्तालाप की बात करें तब क्या दो विभिन्न भाषी एक दूसरे की बात समझ पाएँगे? कदापि नहीं। बस, मैं यही कहना चाहता हूँ कि आजकल हमारे कुछ हिंदी अखबार वालों का मानना है कि वे देवनागरी में इंग्लिश लिखकर अपनी ज्यादा लोकप्रियता अथवा पहुँच बना लेंगे। ऐसा करना क्या, सोचना भी गलत होगा। एक हिंदी के आम पाठक को उसकी अपनी भाषा के अतिरिक्त चीनी, रूसी, जापानी या अंग्रेजी के शब्दों को देवनागरी में लिखकर पढ़ाओगे तो क्या वह आपके द्वारा लिखी बात पूर्णरूपेण समझ सकेगा? नहीं समझेगा न। आप सोचते हैं जो लोग अंग्रेजी समझते हैं उनके लिए आसानी है, तो जिसे अंग्रेजी आती है फिर आपके हिन्दी अखबार क्यों पढ़ेगा। दूसरी बात जिसे हिंदी कम आती है अथवा अहिंदी भाषी है, तब तो ऐसे लोग हिंदी के बजाय अपनी भाषा को ज्यादा पसंद करेंगे, अथवा अंग्रेजी को रोमन में न पढ़कर पूरा अंग्रेजी अखबार ही न खरीदेंगे।
यह मात्र सांकेतिक चित्र है।

मेरे मत से इन तथाकथित अखबार वालों की भाषा से यदि हिंग्लिश तबका जुड़ता है, जिसे ये हिंग्लिश पाठकों की अतिरिक्त वृद्धि मानते हैं तो उन्हें स्वीकारना पड़ेगा कि उससे कहीं ज्यादा इनके हिन्दी पाठकों में कमी हो रही है। उनके पास अन्य पसंदीदा  अखबारों के विकल्प भी होते हैं। आज के अंतरजालीय युग में जब हर सूचना हमारे पास आप से पहले पहुँच रही है, तब इन तथाकथित अखबारों की प्राथमिकताएँ बची कहाँ हैं। आज के तकनीकी युग एवं खोजी पत्रकारिता के चलते छोटे से छोटा अखबार भी पिछड़ा नहीं है। अब तो ग्रामीण अंचल तक अद्यतन रहते हैं। राष्ट्रभाषा हिन्दी की मर्यादा, सम्मान एवं संवर्धन हमारा कर्तव्य है। हिन्दी के पावन आँचल में किसी गैर भाषा के इस तरह थिगड़े लगाने का प्रयास राष्ट्रभाषा का अपमान और मेरे अनुसार राष्ट्रद्रोह जैसा है। विश्व की किसी भी भाषा, संस्कृति अथवा परंपराओं से घृणा अथवा अनादर हमारी संस्कृति में नहीं है। हमारे नीति शास्त्रों में ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ भी लिखा है। आज हिन्दी की विकृति पर तुले हुए लोग हठधर्मिता की पराकाष्ठा पार करते नजर आ रहे हैं। इनकी अपने देश, अपनी संस्कृति एवं अपनी राष्ट्रभाषा संबंधी प्रतिबद्धता भी संशय के कटघरे में खड़ी प्रतीत होने लगी है। आज आप किसी भी पाठक से पूछ लीजिए, वह आज लिखी जा रही विकृत भाषा एवं अव्यवहारिक संस्कृति से स्वयं को क्षुब्ध बतलायेगा। अब तो सुबह-सुबह अखबार पढ़ कर मन में कड़वाहट सी भर जाती है। अप्रिय भाषा एवं अवांछित समाचारों की बाढ़ सी दिखाई देती है, वहीं अखबारों की यह भी मनमानी चलती है कि हम अपने घर, अपने समूह या विज्ञापन का चाहे जितना बड़ा भाग प्रकाशित करें, मेरी मर्जी। पाठक के दर्द की किसी को चिंता नहीं रहती। सरकार भी इनकी नकेल नहीं कस पाती। सरकारी, बड़े व्यवसायियों एवं नेताओं के विज्ञापनों की बड़ी कमाई से अखबार बड़े उद्योगों में तब्दील हो गए हैं। हम चाहे जब अखबार के मुख्य अथवा नगर पृष्ठ तक में एक अदद पूरी खबर के लिए तरस जाते हैं, फिर नगर, देश-प्रदेश एवं समाज की बात तो बहुत दूर है। समाचार पत्रों से स्थानीय साहित्य भी जैसे लुप्त होता जा रहा है। आज दरकार है आदर्श भाषा की, आदर्श सोच की और आदर्श अखबारों की। साथ ही देश तथा समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व की। मैं मानता हूँ कि समाज सुधार का ठेका अखबारों ने नहीं ले रखा है,  किंतु यह भी सत्य है कि, ये तथाकथित अखबार क्या मानक गरिमा का ध्यान रख पाते हैं।

अंत में पुनः मेरा मानना है कि आज जब हर छोटे-बड़े शहरों में पहले जैसे एक-दो नहीं पचासों अखबार निकलते हैं, तब ऐसे में अपनी व्यावसायिक तथा निजी सोच पर नियंत्रण कर ये विशिष्ट अखबार हम असंगठित पाठकों को मनमाना परोसने से परहेज करें। राष्ट्रभाषा हिंदी को हिंग्लिश बनने से बचाने के प्रयास करना हम सभी का नैतिक कर्त्तव्य है, इसे अमल में लाने का विनम्र अनुरोध है।
© विजय तिवारी ‘किसलय’ 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख – आत्मनिर्भरता ही आत्मविश्वास की पहली सीढ़ी – सुश्री ऋतु गुप्ता

सुश्री ऋतु गुप्ता

 

आत्मनिर्भरता ही आत्मविश्वास की पहली सीढ़ी

(सुश्री ऋतु गुप्ता जी के लेख ,कहानी व कविताएँ विभिन्न समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं।दैनिक ट्रिब्यून में जनसंसद में आपको लेख लिखने के लिए कई बार प्रथम पुरस्कार मिला है। आपका एक काव्य संग्रह ‘आईना’ प्रकाशित हो चुका है। दो किताबें प्रकाशन के लिए तैयार हैं। प्रस्तुत है सुश्री ऋतु जी का यह प्रेरणास्पद लेख।)

मैनें अपनी जिंदगी से चाहे कुछ सीखा हो या न पर एक बात जरूर सीखी है कि- अगर आत्मविश्वास प्रबल है तो जीत निश्चित है।आत्मविश्वास का अर्थ यही है कि अपने ऊपर विश्वास या फिर यह भी कह सकते हैं कि अपने द्वारा किये जाने वाले कार्यों पर पूर्ण विश्वास। इंसान को जब तक यह लगता है कि वह हर कार्य करने में सक्षम व समर्थ है तब उसका अपने ऊपर विश्वास बना रहता है और यह जीवनरूपी गाड़ी सरपट दौड़ती रहती है,जैसे ही अपने ऊपर से भरोसा डगमगाता है तो उसकी स्थिति पंक्चर टायर वाली गाड़ी के समान हो जाती है।और उसके साथ खत्म होने लगता है उत्साह भरे जीवन का नेतृत्व।यह बात सही कही गई है “मन के हारे हार है, मन के जीते जीत”। 

आत्मविश्वास खोने के जिम्मेदार बहुत से हालात व परिवेश, जगह और समाज हो सकते हैं।बहुत बार इंसान मानसिक कुंठाओं से व हीन भावनाओं से ग्रस्त हो इसका कारण बन बैठता है। बच्चे बहुत कोमल दिल वाले होते हैं । वे जल्द ही इन कुंठाओं के शिकार हो बैठते हैं। अपने आसपास ही ऐसे उदाहरण देखने को मिल जाते हैं जैसे- एक घर में दो बहनों और भाइयों की सुंदरता या गुणों में अंतर है तो यह तुलना उनके बीच बचपन  से ही चल पड़ती है। तुलना करने वालों का मकसद चाहे कुछ भी हो पर वे मासूम इस बात को दिल पर ले बैठते हैं। यहाँ तक माँ-बाप व सभी यह बात भूल जाते हैं कि अपनी पाँचों उंगलियां भी कभी बराबर नहीं होती।

एक उदाहरण और ले सकते हैं कि कोई बच्चा जो जन्म से ही शारिरिक विकलांगता लिए पैदा हुआ है या फिर किसी दुर्घटना वश विकलांग हो गया है तो उसका दिल बेहद कोमल हो जाता है वह इस बात को स्वीकार करने को तैयार होता भी है तो सामाजिक माहौल ऐसा होता है कि उसको यह बात भूलने ही नहीं दी जाती। हर जगह चाहे नौकरी हो, शादी का सवाल हो या फिर शिक्षा हर जगह  यह कमी आड़े आने लगती है।उसका विश्वास टूटने लगता है, ऊपर से सामाजिक ताने और आहत कर जाते हैं।

कोई इंसान किस परिवार या जगह पर जन्म लेता है सफलता सिर्फ उसी पर निर्भर नहीं करती कई बार गरीब परिवार के बच्चों ने वो मुकाम हासिल किये हैं जो अमीर भी नहीं सोच सकते। उदाहरण के लिए हम अब्राहम लिंकन, डॉक्टर ए. पी. जे. अब्दुल कलाम  और अल्बर्ट आइंस्टीन आदि अनेक ऐसे उदाहरण है जिन्होंने अपने दृढ़ निश्चय व आत्मविश्वास के साथ हर कामयाबी हासिल की है।थॉमस अल्वा एडीसन ने 1000 बार बल्ब के बनाने के बाद सफलता प्राप्त की थी पर हौंसले बुलंद रहे उनके।

“हौंसले हों गर बुलन्द कामयाबी भी पैर चूम जाती है

इरादे हों दृढ़ तो वक्त की सुई पक्ष में ही घूम जाती है।

चाहे आप छोटी या बड़ी जगह से हो, पर आपकी सफलता आपके आत्मविश्वास और दृढ़ता से निर्धारित होती है।” -मिशेल ओबामा

अच्छा भला इंसान भी कई बार आत्मविश्वास खोने लगता है जैसे – अच्छी शिक्षा के बाद भी मन लायक नौकरी का न मिलना, मन लायक जीवनसाथी का न मिलना और व्यवसाय आदि में घाटा। इन सब घटनाओं से जीवन असंतुलित हो जाता है। जीवन की डोर हाथ से छूटने लगती है। बहुत कोशिश के बाद भी संभलना मुश्किल हो जाता है। जीवन नैया जब तक आत्मविश्वास रहता है बिना किसी भंवर के आगे बढ़ती रहती है, लेकिन जब अविश्वास रूपी भंवर में फंसने लगती है डूबने के पूरे-पूरे आसार नजर आते हैं।

स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार- “पुराने धर्मों में कहा गया है कि नास्तिक वह है,जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता। नया धर्म कहता है कि नास्तिक वह है,जो अपने ऊपर विश्वास नहीं करता।”

किसी का खोया आत्मविश्वास कैसे लौटे इसमे इंसान खुद अपनी सबसे ज्यादा मदद कर सकता है।सबसे पहले तो उसे खुद चाहिए कि कितने ही बुरे हालात क्यूँ न हो अपने ऊपर से भरोसा कतई न खोये। उसके बाद उसे समझना चाहिए कि अगर राह सही है तो भटकने के बाद भी वह अपनी मंजिल तक ही पहुंचेगा। समाज में भी दूसरे लोगों से अपेक्षा की जाती है कि ऐसे व्यक्ति का मनोबल बढ़ायें ना कि हतोत्साहित करें।

कुछ ऐसे उपाय हैं जिनके चिंतन से हर चिंता दूर हो सकती है जैसे- हर कार्य के लिए दृढ़ इच्छा रखें, लगन से ही कार्य सिद्ध हुआ करते हैं, न कि सोच से।  एक निश्चित लक्ष्य साध कर चलें, नाकामी से मनोबल न गिरने दें, चिंतन करे चिंता नहीं ,सफल हस्तियों की जीवनी पढ़ें व साकारात्मक सोच रखें। एक बार असफलता से जिंदगी पूरी नहीं हो जाती सफलता के लिए तो अभी पूरा जीवन पड़ा है। अगर बार-बार असफलता मिलती है तो भी घबराने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वह अकेला ऐसा इंसान नहीं है। उसके पड़ाव में ऐसे अनगिनत लोग मिल जायेंगे जो उसका हाथ पकड़ चलने को तैयार हैं और जिनको हालातों ने वैसा ही बना दिया है। वे मिलजुल  कर अपनी समस्याओं का सामाधान निकाल सकते हैं व एक-दूसरे का सहारा बन सकते हैं।

ऐसे ही बच्चों के मामले में तो बहुत एहतियात बरतने की जरूरत है क्योंकि बच्चे कच्ची मिट्टी से बने बर्तनों के समान है जैसे ढालें ढल जाते हैं। बच्चों के ऊपर कभी अपने सपनों का बोझ नहीं लादना चाहिए। उनकी अपनी अलग सपनों की दुनिया हो सकती है। हमेशा उनका मनोबल उंचा कर उनके काम की तारीफ करनी चाहिए। किसी के साथ तुलना न कर उसकी योग्यता को बढ़ावा देना चाहिए। सबके सामने उसकी काबिलियत की तारीफ करनी चाहिए। ऐसा करने से बच्चों में दृढ़ सकंल्प की भावना पैदा होगी व मनोबल बढ़ेगा।

आवेग में आकर कभी गलत कदम नहीं उठाने चाहिए क्योंकि यह बुजदिलों का काम है। जीवन अनमोल है इसका एक-एक क्षण महत्वपूर्ण है अगर हम अपने को महत्त्व देते हैं और प्यार करते है तो यह समाज व दुनिया भी हमें प्यार करेगें। अपने को किसी से कम आंकना खुद के साथ नाइंसाफी है।

आत्मविश्वास से आत्मसम्मान मिलता है और वह आत्मनिर्भरता की पहली सीढ़ी है। यह सफलता व कामयाब जीवन की कुंजी है। बुरा वक्त कभी कह कर नहीं आता।उससे लड़कर आगे बढ़ना ही बाहदुरी है। अपने ऊपर विश्वास रखने वाले कमजोर से कमजोर इंसान कामयाब हो जाते हैं व आत्मविश्वास खोने वाले कामयाब से कामयाब इंसान नाकाम। आत्मविश्वास ही हर सफलता की सीढ़ी है।

© ऋतु गुप्ता

Please share your Post !

Shares
image_print