हिन्दी साहित्य – शिक्षक दिवस विशेष – ☆ वर्तमान शिक्षा का आधार प्राचीन शिक्षा व्यवस्था हो ☆ – डॉ ज्योत्सना सिंह राजावत

शिक्षक दिवस विशेष

डॉ ज्योत्सना सिंह राजावत

 

(शिक्षक दिवस के अवसर पर आज प्रस्तुत है डॉ. ज्योत्सना सिंह रजावत जी का विशेष आलेख “वर्तमान शिक्षा का आधार प्राचीन शिक्षा व्यवस्था हो”.)

 

☆ वर्तमान शिक्षा का आधार प्राचीन शिक्षा व्यवस्था हो ☆

 

विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन ।

स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥

प्राचीन काल में शिक्षा की महत्ता को यहाँ तक स्वीकार किया गया है कि विद्वान और राजा की कोई तुलना नहीं हो सकती है. क्योंकि राजा तो केवल अपने राज्य में सम्मान पाता है, जबकि विद्वान सर्वत्र, यानि जहाँ-जहाँ जाता है हर जगह सम्मान पाता है।भारत की प्राचीन शिक्षा आध्यात्मिकता पर आधारित थी। शिक्षा का प्रारंभिक स्वरूप ऋग्वेद था। वेद और वेदागों में शिक्षा का उद्देश्य, ब्रह्मचर्य, तप और योगाभ्यास से तत्वों का समन्वित सार, उपनिषद, आरण्यक, वैदिक संहिताओं में, स्वाध्याय, सांगोपांग अध्ययन, श्रवण, मनन की शिक्षा दी जाती थी।विद्यार्थी जीवन का सबसे पहला और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आश्रम ब्रह्मचर्य आश्रम था जहाँ बालक की पाँच वर्ष की अवस्था से शिक्षा आरंभ कर दी जाती थी। गुरुगृह में रहकर गुरुकुल की शिक्षा प्राप्त करने की योग्यता  उपनयन संस्कार से प्राप्त होती थी। धर्म ग्रन्थों में चारो वर्णों के बालकों के अध्ययन की अवस्था का अलग- अलग विधान था। गुरु के उपदेश पर चलते हुए वेदग्रहण करनेवाले व्रतचारी श्रुतर्षि जो सुनकर वेदमंत्रों को कंठस्थ कर लेते थे। आचार्य स्वर के साथ वेदमंत्रों का परायण करते और  ब्रह्मचारी छात्र उन उसी प्रकार दोहराते चले जाते थे।  ब्रह्मचर्य का पालन सभी विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य था। प्रातः वन्दन संध्या वन्दन,होम अनुष्ठान करते थे। विद्यार्थियों के लिए भिक्षाटन अनिवार्य था। भिक्षा से प्राप्त अन्न गुरु को समर्पित कर देते थे। समावर्तन के अवसर पर गुरुदक्षिणा देने की प्रथा थी। समावर्तन के पश्चात्‌ भी स्नातक स्वाध्याय करते, नैष्ठिक ब्रह्मचारी आजीवन अध्ययन करते, समावर्तन के ब्रह्मचारी दंड, कमंडल, मेखला, आदि को त्याग देते थे। ब्रह्मचर्य व्रत में जिन-जिन वस्तुओं का निषेध था उन सबका उपयोग कर सकते थे।ब्रह्मचारी अध्ययन और अनुसंधान में सदा लगे रहते थे ,वाद विवाद और शास्त्रार्थ में संम्मिलित होकर अपनी योग्यता का प्रमाण देते थे।

भारतीय शिक्षा में आचार्य का स्थान बड़ा ही गौरव स्थान था। उनका बड़ा आदर और सम्मान होता था। आचार्य पारंगत विद्वान्‌, सदाचारी, क्रियावान्‌, विद्यार्थियों के कल्याण के लिए सदा कटिबद्ध रहते उनके चरित्र निर्माण,के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते थे।

धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः ।

तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते ॥

धर्म को जाननेवाले, धर्म मुताबिक आचरण करनेवाले, धर्मपरायण, और सब शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करनेवाले गुरु कहे जाते हैं ।

आजकल गुरु शिष्य परम्परा मिट गई है। प्राचीन शिक्षा प्रणाली एवं वर्तमान शिक्षा प्रणाली में बहुत अंतर आ गया है।अब शिक्षकों का मुख्य उद्देश्य अर्थ कमाना है। अब न गुरुओं में समर्पण है एवं चरित्र निर्माण की बात है ,और न ही छात्रों में सम्मान की भावना। अब इन दोनों के मध्य सिर्फ औपचारिकता मात्र रह गई है। पहले जहाँ बच्चे शिक्षा प्राप्त करने के लिए,घर परिवार से दूर गुरुकुल में रहते थे। गुरु मातृ पितृ से बढ़कर होते थे , गुरु छात्रों को अन्तः ज्ञान और वाह्य ज्ञान की शिक्षा के लिए सदैव समर्पित रहते थे। आज मशीनीकरण के युग में शिक्षा देने के उपकरण भी उपलब्ध हो गए हैं, बच्चों में नैतिक मूल्यों काआभाव हो गया है।वर्तमान शिक्षा का आधार प्राचीन शिक्षा व्यवस्था हो । प्रत्येक व्यक्ति शिक्षित हो।

 

डॉ ज्योत्स्ना सिंह

सहायक प्राध्यापक, जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – शिक्षक दिवस विशेष – ☆ इससे श्रेष्ठ शिक्षक नहीं देखे ☆ श्रीमति समीक्षा तैलंग

श्रीमति समीक्षा तैलंग 

 

(शिक्षक दिवस के अवसर पर प्रस्तुत है श्रीमति समीक्षा तैलंग जी  का विशेष आलेख  इससे श्रेष्ठ शिक्षक नहीं देखे. )

 

☆ इससे श्रेष्ठ शिक्षक नहीं देखे ☆

 

वैसे तो मेरी स्कूली पढाई किसी घुमक्कड़ की तरह ही 6 स्कूलों से हुई। मतलब किंडरगार्टन से लेकर बारहवीं। ऊपर से ये कि एक बीएससी ही किया उस पर भी दो विश्वविद्यालयों का ठप्पा। न जाने कितने तरह के टीचरों से पाला पडा़। कभी पीटने वालों से भी पडा़। और कभी प्यार से समझाकर सिखाने वालों से भी।

सोने पे सुहागा ऐसा कि पढाई भी दो माध्यमों से पूरी हुई। पहले अंग्रेजी फिर हिंदी माध्यम वो भी आठवीं में बदला गया। भैया ट्रांसफर के यही हाल होते हैं। सरकार तो बस ऑर्डर देना जानती है। शहरों से लेकर घरों की अदला बदली और फिर स्कूलों की अदला बदली से लेकर टीचरों और दोस्तों की। सब कुछ गड्डमड्ड।

पर आखिरी स्कूल की बात ही कुछ अलग थी। जितने भी टीचर थे वे खुद इतने अनुशासन में रहते कि बच्चों को अनुशासन में होना आवश्यक ही था। उन्हें जरा भी अनुशासनहीनता नहीं चलती। छोटी छोटी बातों पर कडी निगाह रहती। ब्लैकबोर्ड पर समझाते वक्त पूरा ध्यान रहता कि बैकबैंच पर कुछ खिचड़ी तो नहीं पक रही।

चॉक का निशाना भी बडा़ सटीक बैठता। क्लास में लडके लडकियां सब साथ पढते। पर पीटते वक्त टीचर कोई भेदभाव न करते। गलती की सजा दोनों को बराबर। आज के समय में शिक्षक भी सहमा हुआ और बच्चा भी। उस समय पढाई ऐसी कि कभी ट्यूशन पढने की जरूरत महसूस नहीं हुई। और यदि कोई अनुपस्थित हुआ बिना कारण तो समझो फिर उसकी शामत।

अरे भाई, घर धमक जाते सीधे। और यदि कोई वाजिब कारण मिलता तब उनकी पूरी कोशिश रहती कि बच्चे को कोई दिक्कत न हो। या पढाई में पीछे न छूट जाए। जिसके लिए प्राचार्य से निर्देश रहते कि स्कूल के बाद उनके घर जाकर पढाया जाए। और वे जाते भी।

उस स्कूल का एक और अलग रिवाज था। वहां किसी अभिवावक को स्कूल में टिचरों से मिलने नहीं आना पडता। बल्कि क्लास टीचर निश्चित दिन प्रत्येक छात्र के घर जाया करते। बाकायदा डायरी में पूरी रिपोर्ट तैयार करते। घर में सबसे मिलकर जाते।

एक बार की बात है। एक महीना तेज बुखार के कारण स्कूल नहीं जा पायी। तब हम लोग छतरपुर में रहते थे। वहां उस समय उतना अच्छा इलाज नहीं था। ग्यारहवीं क्लास में थी। वो भी साइंस सब्जेक्ट के साथ। कार से ग्वालियर ले जाया गया। ठीक होने में लगभग बीस पच्चीस दिन और लगे।

वापसी हुई तो ढेर सारी पढाई छूट चुकी थी। परीक्षाएं नजदीक थी। कोर्स को अपनी गति से बढना ही था। स्कूल में टीचरों ने एक्स्ट्रा क्लासेस लेकर पढाया। अब क्लास के संग पढाई का मिलना बहुत मुश्किल होता जा रहा था। हमारे स्कूल के प्राचार्य ने तभी निर्देश दिए कि उसकी पढाई काफी पिछड़ गई है। आप लोग हफ्ते में एक दिन जब तक कोर्स क्लास से नहीं मिल जाता और उसे जब तक समझ में नहीं आ जाता तब तक घर जाकर पढाना होगा। ट्यूशन पर पूरी पाबंदी थी। और शिक्षक भी अपने काम में ईमानदार। बचपन में देखा हुआ आगे के लिए सीख होती है।

सच में आज भी याद है, उन टीचरों ने इतनी मेहनत से पढाया कि उस समय भी उन्होंने मुझसे 75% प्रतिशत के ऊपर लाकर ही दम लिया। वो भी साइंस स्ट्रीम में।

वाकई तब हमारे शिक्षक सख्त जरूर हुआ करते थे। पर उन्हीं की बदौलत तब जो भी कुछ सीख पाए, आज तक याद है। उन सभी गुरुजनों को मेरा हृदय से नमन।

उस स्कूल के मेरे कुछ दोस्त फेसबुक पर हैं जो शायद इस पोस्ट को पढकर उन्हें भी अपने स्कूल के लिए गर्व महसूस होगा।

 

© श्रीमति समीक्षा तैलंग, पुणे 

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – बचपना – सेल्फमेड ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ बचपना – सेल्फमेड  ☆

 

बच्चों को उठाने के लिए माँ-बाप अलार्म लगाकर सोते हैं। जल्दी उठकर बच्चों को उठाते हैं। किसीको स्कूल जाना है, किसीको कॉलेज, किसीको नौकरी पर। किसी दिन दो-चार मिनट पहले उठा दिया तो बच्चे चिड़चिड़ाते हैं।  माँ-बाप मुस्कराते हैं, बचपना है, धीरे-धीरे समझेंगे।…धीरे-धीरे बच्चे ऊँचे उठते जाते हैं और खुद को ‘सेल्फमेड’ घोषित कर देते हैं।

सोचता हूँ कि माँ-बाप और परमात्मा में कितना साम्य है! जीवन में हर चुनौती से दो-दो हाथ करने के लिए जागृत और प्रवृत्त करता है ईश्वर। माँ-बाप की तरह हर बार जगाता, चाय पिलाता, नाश्ता कराता, टिफिन देता, चुनौती फ़तह कर लौटने की राह देखता है। हम फ़तह करते हैं चुनौतियाँ और खुद को ‘सेल्फमेड’ घोषित कर देते हैं।

कब समझेंगे हम? अनादिकाल से चला आ रहा बचपना आख़िर कब समाप्त होगा?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – श्री गणेश चतुर्थी विशेष – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – संकल्प ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संकल्प ☆

 

प्रथम पूज्य, गजानन, श्रीगणेश को नमन।…

 

एक अनुरोध, वाचन संस्कृति का निरंतर क्षय हो रहा है। श्रीगणेश चतुर्थी से अनंत चतुर्दशी तक किसी एक पुस्तक / ग्रंथ का अध्ययन करने का संकल्प करें।

 

प्रतिदिन कुछ पृष्ठ पढ़ें और मनन करें।

 

महर्षि वेदव्यास के शब्दों को ‘महाभारत’ के रूप में लिपिबद्ध करने वाले, कुशाग्रता के देवता के प्रति यह समुचित आदरभाव होगा।

 

श्रीगणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाएँ।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

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हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – डर ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ डर ☆

 

पिता की खाँसी की आवाज़ सुनकर उसने रेडियो की आवाज़ बेहद धीमी कर दी। उन दिनों संयुक्त परिवार थे, पुरुष खाँस कर ही भीतर आते ताकि महिलाओं को सूचना मिल जाए।…”संतोष की माँ, ये तुम्हारे लल्ला को बताय देना कि वो आज के बाद उस रघुवंस के आवारा छोकरे के साथ दीख गया तो टाँग तोड़कर घर बिठाय देंगे, कौनो पढ़ाई-वढ़ाई नाय, सब बंद कर देंगे”…. वह मन मसोस कर रह गया। रात को बिस्तर पर पड़े-पड़े सोचता रहा कि 17 बरस का तो हो लिया, अब और कितना बड़ा होना पड़ेगा कि पिता से डरना न पड़े।.. ‘शायद बेटे का जन्म बाप से डरने के लिए ही होता है’, वह मन ही मन बड़बड़ाया और औंधा होकर सो गया।

आज उसका अपना बेटा 15 बरस का हो चुका। बेहद जिद्‌दी! कल-से उसने घर में कोहराम मचा रखा था। उसे अपने जन्मदिन पर मोटरसाइकिल चाहिए थी और अभी तो उसकी आयु लाइसेंस लेने की भी नहीं है। ऊपर से शहर का ये विकराल ट्रैफिक! उसने सोच लिया था कि अबकी बार बेटे की ये ज़िद्‌द पूरी नहीं करेगा।..”मॉम, साफ-साफ बता देना डैड को, नेक्स्ट वीक मेरे बर्थडे से एक दिन पहले तक बाइक नहीं आई न, तो मैं घर छोड़कर चला जाऊँगा.. और फिर कभी वापस नहीं आऊँगा।”…उसने बेटे की माँ के हाथ में बाइक के लिए चेक दे दिया। रात को बिस्तर पर पड़े-पड़े सोचता रहा,..’शायद बाप का जन्म बेटे से डरने के लिए ही होता है’..और सीधा होकर पीठ के बल सो गया।

(प्रकाशनाधीन संग्रह से)

©  संजय भारद्वाज, पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #14 – देश बनाने की जिम्मेदारी युवाओं पर ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

 

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है “देश बनाने की जिम्मेदारी युवाओं पर”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 14 ☆

 

☆ देश बनाने की जिम्मेदारी युवाओं पर ☆

 

देश, जितना व्यापक शब्द है, उससे भी अधिक व्यापक है यह सवाल कि देश कौन बनाता है ? नेता, सरकारी कर्मचारी, शिक्षक, मजदूर, वरिष्ठ नागरिक, साधारण नागरिक, महिलाएं, युवा… आखिर कौन ? शायद हम सब मिलकर देश बनाते हैं. लेकिन फ़िर भी प्रश्न है कि इनमें से सर्वाधिक भागीदारी किसकी ? तब तत्काल दिमाग में विचार आता है कि यथा राजा तथा प्रजा. नेतृत्व अनुकरणीय उदाहरण रखे, व आम नागरिक उसका पालन करें तभी देश बनता है. देश बनाने की जिम्मेदारी सर्वाधिक युवाओं पर है. भारत के लिये खुशी की बात यह है कि हमारी जनसंख्या का पचास प्रतिशत से अधिक हिस्सा पच्चीस से चालीस वर्ष आयु वर्ग का है.. जिसे हम “युवा” कहते हैं, जो वर्ग सामाजिक, आर्थिक, शारीरिक, मानसिक सभी रूपों में सर्वाधिक सक्रिय रहता है, यह तो उम्र का तकाजा है । वहीं दूसरी तरफ़ लगातार हिंसक, अशिष्ट, उच्छृंखल होते जा रहे… चौराहों पर खडे़ होकर फ़ब्तियाँ कसते..यौन अपराधो में लिप्त तथाकथित युवाओं को देखकर मन वितृष्णा से भर उठता है । इस महत्वपूर्ण समूह की आज भारत में जो हालत है वह कतई उत्साहजनक नहीं कही जा सकती.पर सभी बुराईयों को युवाओं पर थोप देना उचित नहीं है ।

प्रश्न है, आजकल के युवा ऐसे क्यों हैं ? क्यों यह युवा पीढी़ इतनी बेफ़िक्र और मनमानी करने वाली है । जब हम वर्तमान और भविष्य की बातें करते हैं तो हमें इतिहास की ओर भी देखना होगा । भूतकाल जैसा होगा, वर्तमान उसकी छाया होगा ही  और भविष्य की बुनियाद बनेगा ।  आज के युवा को पिछले समय ने ‘विरासत’ में क्या दिया है, कैसा समाज और संस्कार दिये हैं ? आजादी के बाद से हमने क्या देखा है… तरीके से संगठित होता भ्रष्टाचार, अंधाधुंध साम्प्रदायिकता, चलने-फ़िरने में अक्षम लेकिन देश चलाने का दावा करने वाले नेता, घोर जातिवादी नेता और वातावरण, राजनीति का अपराधीकरण या कहें कि अपराधियों का राजनीतिकरण, नसबन्दी के नाम पर समझाने-बुझाने का नाटक और लड़के की चाहत में चार-पाँच-छः बच्चों की फ़ौज… अर्थात जो भी बुरा हो सकता था, वह सब विगत में देश में किया जा चुका है  । इसका अर्थ यह भी नहीं कि उस समय में सब बुरा ही बुरा हुआ, लेकिन जब हम पीछे मुडकर देखते हैं तो पाते हैं कि कमियाँ, अच्छाईयों पर सरासर हावी हैं । अब ऐसा समाज विरासत में युवाओं को मिला है, तो उसके आदर्श भी वैसे ही होंगे ।  राजीव गाँधी कुछ समय के लिये, इस देश के प्रधानमन्त्री नहीं बने होते, तो शायद हम आज के तकनीकी प्रतिस्पर्धा के युग में नहीं जी रहे होते । देश के उस एकमात्र युवा प्रधानमन्त्री ने देश की सोच में जिस प्रकार का जोश और उत्साह पैदा किया, उसी का नतीजा है कि आज हम कम्प्यूटर और सूचना तन्त्र के युग में जी रहे हैं “दिल्ली से चलने वाला एक रुपया नीचे आते-आते पन्द्रह पैसे रह जाता है” यह वाक्य उसी पिछ्ली पीढी को उलाहना था, जिसकी जिम्मेदारी आजादी के बाद देश को बनाने की थी, और दुर्भाग्य से कहना पड़ता है कि, उसमें वह असफ़ल रही । परिवार नियोजन और जनसंख्या को अनियंत्रित करने वाली पीढी़ बेरोजगारों को देखकर चिन्तित हो रही है, पर अब देर हो चुकी है। भ्रष्टाचार को एक “सिस्टम” बना देने वाली पीढी युवाओं को ईमानदार रहने की नसीहत देती है । देश ऐसे नहीं बनता… अब तो क्रांतिकारी कदम उठाने का समय आ गया है… रोग इतना बढ चुका है कि कोई बडी “सर्जरी” किये बिना ठीक होने वाला नहीं है । विदेश जाते सॉफ़्टवेयर या आईआईटी इंजीनियरों तथा आईआईएम के मैनेजरों को देखकर आत्ममुग्ध मत होईये… उनमें से अधिकतर तभी वापस आयेंगे जब  यहाँ वातावरण बेहतर होगा.  कस्बे में, गाँव में रहने वाले युवा जो असली देश बनाते है,  हम उन्हें बेरोजगारी भत्ता दे रहे हैं, आश्वासन दे रहे हैं, राजनैतिक रैलियाँ दे रहे हैं,  पान-गुटखे दे रहे हैं, मर्डर-हवस सैक्स, सांस्कृतिक अधोपतन को बढ़ावा देने वाली फिल्में दे रहे हैं, “कैसे भी पैसा बनाओ” की सीख दे रहे हैं, कानून से ऊपर कैसे उठा जाता है, बता रहे हैं….आज के ताजे-ताजे बने युवा को भी “म” से मोटरसायकल,और  “म” से मोबाईल  चाहिये, सिर्फ़ “म” से मेहनत के नाम पर वह जी चुराता है.स्थितियां बदलनी होंगी.  युवा पीढ़ी को देश बनाने की चुनौती स्वीकारनी ही होगी.उन्हें अपना सपना स्वयं देखना होगा,और एक सुखद भविष्य के निर्माण करने हेतु जिम्मेदारी का निर्वहन करना होगा. संवैधानिक व्यवस्था में रहकर बिना आंदोलन हड़ताल या प्रदर्शन किये, पाश्चात्य अंधानुकरण के बिना युवा चेतना का उपयोग राष्ट्र कल्याण में उपयोग आज देश में जरूरी है.  इन दिनों वातावरण तो राष्ट्र प्रेम का बना है, सरकार ने डिजिटल लिटरेसी बढाने हेतु कदम उठाये है, विश्व में भारत की साख बढ़ती दिख रही है, अब युवा इस मौके को मूर्त रूप दे सकते हैं।

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 3 ☆ ग्रामीण युवकांना रोजगार सुवर्ण संधी ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है।  इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है। श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनका आलेख ग्रामीण युवकांना रोजगार सुवर्ण संधी

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 3 ☆

 

☆ ग्रामीण युवकांना रोजगार सुवर्ण संधी ☆

 

“चरखा,चपला आणि चेंजमेकर ” या लेखात श्री.संदीप वासलेकर यांनी म्हटलंय.

“आईसलंडसारख्या  फक्त तीन लाख लोकवस्तीच्या छोट्या देशातले ग्रामीण उद्योजक जगभर  कोळंबीच्या कवचाचं मलम लोकप्रिय करु शकतात.जगातले अनेक देश तिथल्या पारंपरिक पदार्थांना व वस्तूंना बाजारपेठेत स्थान मिळवून देण्याचा प्रयत्न करतात तर आपण कां नाही ? मला हे त्यांचं म्हणणं अतिशय मोलाचं वाटलं

श्री.वासलेकर यांच्या एका बेल्जियमच्या मित्राच्या मुलानं उच्चविद्यविभूषित असूनही एकदा काही मित्रांच्या सांगण्यावरून इंटरनेटद्वारा चपला विकण्याचा व्यवसाय सुरू केला व त्याला काहीही अनुभव नव्हता, फक्त काहीतरी नवीन,वेगळं करायचं म्हणून त्यानं तीन वर्षांत चपला विकून एवढी संपत्ती मिळवली की ती त्याच्या वडिलांनी ३०वर्ष आंतरराष्ट्रीय संघटनांमधे काम करुन जी बचत केली होती तिच्या दुप्पट होती.

लेखक पुढं म्हणतात महाराष्ट्रातही जर काही आभिनव पद्धतीने विचार करणारे व धडाडी असणारे तरुण पुढं आले तर कोल्हापुरी चप्पल ही जागतिक बाजारपेठेत मानाचं स्थान मिळवू शकेल.

महाराष्ट्र शासनाने ,राज्य खादी ग्रामोद्योग मंडळाचा सभापती म्हणून विशाल चोरडिया या युवकाची नियुक्ती केली.त्याला औद्योगिक पार्श्र्वभूमी होती व ग्रामीण भागात नाविन्यपूर्ण उद्योग सुरू करण्याची त्याची प्रबळ इच्छा होती.

त्याने नुकत्याच काही जागतिक नेत्यांना भेटून महाराष्ट्रातल्या ग्रामोद्योगावर माहिती देण्याची इच्छा व्यक्त केली.त्याला  फक्त पाचच मिनिटं वेळ देण्यात आला या पाचच मिनिटं मिळालेल्या वेळात विशालने पाहुण्यांना मसाले म्हणजे भारतीय मसाल्यांचे अनेक नमुने दिले व हे सर्व लोक भारतीय मसाल्यांचे व इतर पदार्थांचे  इतके फॅन बनले आहेत.असे लेखकाला महिन्याभरात जगभरातून निरोप यायला लागले.व राजकीय वर्तुळात भारतीय मसाल्याबाबत अनेक ठिकाणी चर्चा झाली.विशालनं हे फक्त पाच मिनिटांत सिद्ध केलं होतं.आता त्यानं कोल्हापूरी चप्पल ,मध,खादी, बांबू यांना देशभर व आंतरराष्ट्रीय बाजारपेठेत स्थान मिळवून देण्यासाठी  जोरदार प्रयत्न सुरू केले आहेत.

लेखकाचे म्हणणे आहे की, रोजगार निर्माण करणारे प्रत्येक जिल्ह्यात  किमान १० ते १५ म्हणजे संपूर्ण महाराष्ट्राच्या ग्रामीण भागात नाविन्यपूर्ण रोजगार निर्माण करणाऱ्या ५००चेंजमेकर्स युवकाची गरज आहे.असे युवक तयार होणं गरजेचं आहे.नुसतं आम्ही बेकार आहोत, बेरोजगार आहोत अशी टिमकी बडवत बसण्यापेक्षा अशा कृतीशील गोष्टीत रस घेऊन ते केले पाहिजेत.’केल्याने होतं आहे रे !आधि केलेचि पाहिजे !! इतर घटक म्हणजे मित्रमंडळे, गणेशोत्सव मंडळांच्या सभासद यांचा सहभाग होणे गरजेचे आहे.उत्सवाचेवेळी फक्त ढोल बडवून आयुष्यभर पोट भरत नाही   त्याबरोबरच हेही करणे आवश्यक आहे हे युवकांनी लक्षात घ्यावे.

विशालने आता खादी व ग्रामोद्योग महामंडळाच्या प्रयत्नातून महाराष्ट्रातील कृषी व ग्रामीण विभागात चेंजमेकर तयार करण्याचा उपक्रम आखला पाहिजे. युवकांना डोंगरात भरपूर आवळ्याची झाडे असतात विशेषतः सह्याद्रीच्या कुशीत तेथून आवळ्याची उपलब्धता होऊ शकेल त्यापासून अनेक औषधी व खाद्यपदार्थ बनविता येतील.आवळ्याची शेती करुन भरपुर उत्पादन मिळू शकते.नाचणीपासूनही अनेक सुरेख खाद्यपदार्थ बनतात.ह्यासारखे उत्पादन करणाऱ्या  युवकांना  शासनाने मदत केली पाहिजे.शिवाय सकाळ समूह चे ‘ यिन ‘ हे नेटवर्क ,व सामाजिक संस्था , औद्योगिक संघटना व समाजाच्या इतर घटकांनीही योगदान दिले तर हे परिवर्तन होणं शक्य आहे.

त्यासाठी आपल्याला अनेक मार्गांनी प्रयत्न करण्याची गरज आहे.विविध विषयात मूलभूत संशोधन, ग्रामोद्योग व शेतीमालाची निर्यात या तीन क्षेत्रात प्रचंड वाव आहे.

जर आईसलंडसारख्या तीन लाख लोकवस्तीच्या छोट्याशा देशातील ग्रामीण उद्योजक जगभर कोळंबीच्या कवचाचं मलम लोकप्रिय करु शकतात तर आपल्या युवकांना , कोल्हापूरी चप्पल,सौरचरख्यानं केलेली उच्च दर्जाची खादी, आंबा, केळी,आवळा  नाचणी या पदार्थांच्या  प्रक्रियेतून. केलेले पदार्थ बाजारपेठेत नेणं आणि त्यांचं तिथं बस्तान बसवणं सहज शक्य होईल,पण युवकांनी हे मनावर घेतलं तर ग्रामीण महाराष्ट्रात आपण नक्कीच समृद्धी आणू शकतो.

सर्वांना हा सप्तरंग मधील लेख वाचणे शक्य झाले नसेल तर त्यांना ही माहिती नक्कीच उपयुक्त ठरेल.ज्यांना शक्य आहे त्यांनी मूळ लेख जरुर वाचावा.

ही माहिती उपयुक्त आहेच ती आपापल्या ग्रुपवर टाकून शक्य तितकी प्रसिद्धी द्यावी व ग्रामीण युवकांना रोजगार मिळून ते देशाचे ‘धनवान ‘ नागरिक व्हावेत ही उर्मी मनाशी बाळगून या उर्मिलेने या लेखाद्वारे ही  शुभेच्छा धरुन अल्पसा प्रयत्न केला आहे.

श्री समर्थ म्हणतात नां ‘ यत्न तो देव ‘ !

युवकांनो हे वाचा आणि नक्की प्रयत्न करा यश तुमचेच आहे.करणाऱ्यांना खूप सुंदर शुभेच्छा!!

 

©®उर्मिला इंगळे, सातारा 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 6 – तत्वनाश ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “तत्वनाश।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 6 ☆

 

☆ तत्वनाश 

 

रावण अपने दरबार में अपने मंत्रियों के साथ अपने सिंहासन पर  बैठा हैं, और उसके सामने तीन अप्सरायें नृत्य कर रही हैं, जिन्हें इंद्र द्वारा मेघानाथ को शुल्क के रूप में दिया गया था, जब मेघनाथ ने भगवान ब्रह्मा के अनुरोध पर इंद्र को अपने बंधन से मुक्त कर दिया था । गंधर्व संगीत बजा रहे हैं ।

गंधर्व गंध का अर्थ है खुशबू और धर्व का अर्थ है धारण करना इसलिए गंधर्व पृथ्वी की गंध के धारक हैं, खासकर वृक्ष   और पौधों की । असल में हम कह सकते हैं कि गंधर्व किसी भी वृक्ष   या पौधे का सार या आत्मा हैं । ये अप्सराओं के पति हैं । यह निम्न वर्ग के देवता हैं । यही सोम के रक्षक भी हैं, तथा देवताओं की सभा में गायक हैं । हिन्दू धर्मशास्त्र में यह देवताओं तथा मनुष्यों के बीच दूत (संदेश वाहक) होते हैं । भारतीय परंपरा में आपसी तथा पारिवारिक सहमति के बिना गंधर्व विवाह अनुबंधित होता है । इनके शरीर का कुछ भाग पक्षी, पशु या जानवर हो सकता हैं जैसे घोड़ा इत्यादि । इनका संबंध दुर्जेय योद्धा के रूप में यक्षों से भी है । पुष्पदंत (अर्थ : पुष्प का चुभने वाला भाग) गंधर्वराज के रूप में जाने जाते हैं ।

मारीच ब्राह्मण के रूप में वन  में भगवान राम के निवास के द्वार पर पहुँचा और जोर से कहा, “भिक्षा देही” (मुझे दान दो) ।

लक्ष्मण ने मारीच को देखा और कहा, “कृपया आप यहाँ  बैठिये, मेरी भाभी अंदर है । वह जल्द ही आपको दान देगी” कुछ समय बाद देवी सीता अपने हाथों में भोजन के साथ झोपड़ी से बाहर आयी, और उस भोजन को मारीच को दे दिया ।

मारीच ने सीता को आशीर्वाद दिया और फिर कहा, “मेरी प्यारी बेटी, मुझे लगता है कि तुम किसी चीज़ के विषय में चिंतित हो, तुम जो भी जानना चाहती हो मुझसे पूछ सकती हो?”

देवी सीता ने उत्तर  दिया, “हे! महान आत्मा, मेरे ससुर जी लगभग 12 साल पहले स्वर्गवासी हो गए थे, और उनकी मृत्यु सामान्य नहीं थी । उनकी मृत्यु के समय हम वन  में आ गए थे और उसके कारण हम उनकी आत्मा की शांति के लिए किसी भी रीति-रिवाजों को करने में असमर्थ थे, उनकी मृत्यु का कारण अपने बच्चो का व्योग था । तो अब मेरी चिंता का कारण यह है कि हम इतने लंबे समय के बाद वन में सभी रीति-रिवाजों को कैसे पूरा करे जिससे की मेरे ससुर जी की आत्मा को शांति मिल सके?”

मारीच ने कहा, “तो यह तुम्हारी चिंता का कारण है । चिंता मत करो पुत्री चार दिनों के एक पूर्णिमा दिवस होगा, उस दिन तुम्हारे पति को कुछ यज्ञ (बलिदान) करना होगा और याद रखना कि उसे यज्ञ में वेदी के रूप में सुनहरे हिरण की खाल का उपयोग करना है । मैं उस दिन आऊँगा और उस यज्ञ को करने में तुम्हारे पति की सहायता करूँगा । बस तुम्हे इतना याद रखना है की चार दिनों के भीतर तुम्हे सुनहरे हिरण की त्वचा की आवश्यकता है”

तब मारीच वहाँ  से चला गया । जब भगवान राम लौटे, देवी सीता और लक्ष्मण ने उन्हें उन्ही ऋषि के विषय   में बताया जो आये  थे, और अपने पिता की आत्मा की शांति के लिए सुनहरे हिरण की त्वचा के साथ यज्ञ का सुझाव दिया था

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – आलेख – ☆ आओ मनायें…श्रीकृष्ण’ का जन्मोत्सव ☆ – सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष 

सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’

(श्रीकृष्ण जन्माष्टमी  के शुभ अवसर पर प्रस्तुत है ,नरसिंहपुर मध्यप्रदेश की वरिष्ठ साहित्यकार सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’ जी का आलेख “आओ मनाएँ….श्रीकृष्ण  जन्मोत्सव”। )

✍   आओ मनायें…श्रीकृष्ण’ का जन्मोत्सव ✍ 

 

भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि की भयानक तूफानी अंधियारी रात में धरती को असुरों के अत्याचारों से मुक्त कराने ‘कृष्ण’ रूपी सूर्य उदित हुआ, जिनका जन्मदिन हम हर साल बड़े ही हर्ष-उल्लास से मनाते हैं… द्वापर युग में सृष्टिपालक भगवान विष्णु सोलह कला संपन्न पूर्णावतार लेकर आये और अपने इस स्वरूप में उन्होंने मर्यादा पालन के साथ-साथ बालपन से ही सभी प्रकार की लीलायें दिखाई… परन्तु दुर्बल मानव मन केवल कुछ ही लीला के आधार पर उनके संपूर्ण जीवन का आकलन कर स्वयं को उनके समकक्ष खड़ा कर लेता हैं…
अक्सर लोग उनके माखनचोर, मटकीफोड़, वस्त्रचोर, रास रचैया, मुरली बजैया, छलिया, रणछोड़, बहुपत्नीवादी, कूटनीतिज्ञ आदि कुछ प्रसंगों का ज़िक्र कर अपनी हरकतों पर पर्दा डालना चाहते हैं… जबकि उनके कर्मयोगी, संयमी, आदर्श शिष्य, पुत्र, भाई, राजा, मित्र, सलाहकार, सारथी, सहयोगी, सेवक, योद्धा, विवेकी, कला मर्मज्ञ, राजनीतिज्ञ आदि और भी कई महत्वपूर्ण उल्लेखनीय तथ्यों को अनदेखा कर देते हैं…
इसकी वजह शायद ये हैं कि कर्तव्य पालन, धर्मरक्षक, कर्मवादी होना थोड़ा मुश्किल होता हैं जबकि उन सब हरकतों का हवाला देकर खुद की गलतियों को न्यायसंगत ठहराना अपेक्षाकृत सहज होता हैं… उनका वास्तविक विराट स्वरूप वही हैं, जो उन्होंने ‘महाभारत’ के दौरान अपने सखा कुंतीपुत्र ‘अर्जुन’ को दिखाया था, जिसे इन मानवीय नेत्रों से देख पाना संभव नहीं उसके लिये तो दिव्य दृष्टि चाहिये और जिनके पास वो हैं केवल वही उन्हें समग्रता में देख सकते हैं…
उन सभी लीलाओं के मर्म को समझने की बुद्धि हमारे पास नहीं इसलिये यदि हम जीवन में कुछ बनना चाहते हैं तो आज उनके जन्मदिवस के इस पावन दिन पर उनसे यही विनती करें कि वो हमें कर्मपथ पर अनवरत चलने का साहस और दृढ इच्छाशक्ति प्रदान करें… उनके ‘गीता’ के कर्मसिद्धांत को अपने जीवन में अक्षरशः उतार सकें हम सबको ऐसा विवेक दे… तो आओ मिलकर मनायें उन विराट व्यक्तित्व महानायक और हमारे अपने श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव… सभी को उनके अवतार दिवस की हार्दिक शुभकामनायें… ???!!!
*© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’*

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – दृष्टिभ्रम या सत्य ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

??  दृष्टिभ्रम या सत्य  ??

 

हिरण मोहित था पानी में अपनी छवि निहारने में। ‘मैं’ का मोह इतना बढ़ा कि आसपास का भान ही नहीं रहा। सुधबुध खो बैठा हिरण।
अकस्मात दबे पाँव एक लम्बी छलांग और हिरण की गरदन, शेर के जबड़ों में थी। पानी से परछाई अदृश्य हो गई।
जाने क्या हुआ है मुझे कि हिरण की जगह मनुष्य और शेर की जगह काल के जबड़े दिखते हैं।
ऊहापोह में हूँ, मुझे दृष्टिभ्रम हुआ है या सत्य दिखने लगा है?
हमारी आँखें सत्यदर्शी हों। 

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

 

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