हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 297☆ आलेख – इंटरनेट ने दुनियां को नए सोपान दिए हैं… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 295 ☆

? आलेख – इंटरनेट ने दुनियां को नए सोपान दिए हैं? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

एक अप्रचलित अपेक्षाकृत सर्वथा नई तकनीक है इंटरनेट रेडियो। इस को ऑनलाइन रेडियो, वेब रेडियो, नेट रेडियो, स्ट्रीमिंग रेडियो, ई-रेडियो और आईपी रेडियो के नाम से भी जाना जाता है।

यह इंटरनेट के ज़रिए प्रसारित होने वाली एक डिजिटल ऑडियो सेवा है। इसलिए इसकी आवाज बहुत साफ होती है। त्वरित प्रसारण विधा है। इंटरनेट पर प्रसारण को आमतौर पर वेबकास्टिंग के रूप में संदर्भित किया जाता है क्योंकि इसे व्यापक रूप से वायरलेस माध्यम से प्रसारित नहीं किया जाता है। इसे या तो इंटरनेट के माध्यम से चलने वाले एक स्टैंड-अलोन डिवाइस के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है, या एक कंप्यूटर के माध्यम से चलने वाले सॉफ़्टवेयर के रूप में उपयोग किया जाता है। यह पॉडकास्ट से भिन्न होता है, क्योंकि इसकी रिकॉर्डिंग सदैव सुलभ नहीं होती।

इंटरनेट रेडियो का उपयोग आम तौर पर आवाज के माध्यम से संचार और आसानी से संदेश  प्रसारण के लिए किया जाता है। इसे एक वायरलेस संचार नेटवर्क के माध्यम से प्रसारित किया जाता है जो इंटरनेट से जुड़ा होता है।

इंटरनेट रेडियो में स्ट्रीमिंग मीडिया शामिल है, जो श्रोताओं को ऑडियो की एक सतत स्ट्रीम प्रदान करता है जिसे आम तौर पर यू ट्यूब के समान फिर से  नहीं चलाया जा सकता। यह बिल्कुल पारंपरिक प्रसारण रेडियो मीडिया की तरह होता है, अंतर यह होता है कि  इंटरनेट से जुड़े होने के कारण इंटरनेट रेडियो डाउन लोडिंग द्वारा कहीं भी सुना जा सकता है।

इंटरनेट रेडियो सेवाएँ समाचार, खेल, बातचीत और संगीत की विभिन्न शैलियाँ प्रदान कर रही  हैं – हर वह प्रारूप जो पारंपरिक प्रसारण रेडियो स्टेशनों पर उपलब्ध है। इंटरनेट रेडियो पर भी धीरे धीरे सुलभ हो रहा है।

स्टार्ट-अप हेतु यह बिल्कुल नायाब नया आइडिया है। कम लागत में विज्ञापन द्वारा बड़ी कमाई का साधन बन सकता है। इसके लिए कोई लाइसेंस वांछित नहीं है।

पहली इंटरनेट रेडियो सेवा 1993 में शुरू की गई थी। 2017 तक, दुनिया में सबसे लोकप्रिय इंटरनेट रेडियो प्लेटफ़ॉर्म और एप्लिकेशन में ट्यूनइन रेडियो, आईहार्टरेडियो और सिरियस एक्सएम शामिल हैं।

जयपुर से बॉक्स एफ एम नाम  से एक इंटरनेट रेडियो शुरू किया गया है। इसमें अत्यंत उत्कृष्ट साहित्यिक कार्यक्रम प्रसारित हो रहे हैं। श्री प्रभात गोस्वामी जी इसमें व्यंग्य के रंग नाम से व्यंग्य केंद्रित लोकप्रिय अद्भुत आयोजन प्रत्येक बुधवार को शाम 4 से 5 बजे तक प्रस्तुत करते हैं।

7 अगस्त को मुझे इस कार्यक्रम में आमंत्रित किया गया था।

आप भी www.boxfm.co.in जैसे इंटरनेट रेडियो एप के द्वारा मोबाइल पर नवीन टेलेकास्ट किए गए प्रोग्राम सुन सकते हैं।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 445 ⇒ पालना (Cradle)… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पालना (Cradle)।)

?अभी अभी # 445 ⇒ पालना (Cradle)? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जसोदा हरि पालनैं झुलावै।

हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ-जोइ कछु गावै॥

माता यशोदा कहां जानती है, जिस नंद के लाल को वह पालने में झुला रही है, वे संसार को पालने वाले पालनहार और तारनहार साक्षात योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं।

पालने को पलना भी कहा जाता है। मां की गोद से और मां के आंचल से बड़ा दुनिया का कोई पलना नहीं। पालने का एक अर्थ पालन पोषण करना भी होता है। इसी मां का पेट कभी बालक के लिए एक ऐसा पालना होता है, जिसमें वह जीव जन्म के पहले ही, लगातार नौ महीने तक आराम से खाता पीता, और पुष्ट होता रहता है।

पहले मां के पेट में पलना और जन्म के बाद पालने में माता यशोदा की लोरी सुनना। ।

एक मां के लिए उसका बालक किसी कृष्ण से कम नहीं, और हर बालक के लिए उसकी मां ही यशोदा है। हर बच्चा पलने में पलकर ही बड़ा होता है।

आजकल यह काम तो आया और घर की मेड भी कर लेती है। बच्चा झूले में सो रहा है, मां दफ्तर में काम करने गई है।

पाल पोसकर जब हमें बड़ा किया जाता है, तो हम खुद ही बगीचे में झूला झूलने लग जाते हैं। पालने का सुख हमें झूले में मिलने लगता है। पालने में पले बच्चे को आप झूले से कैसे दूर रख सकते हैं। गुजरात में आपको हर घर में एक झूला मिलेगा, जिसमें बड़े बूढ़ सभी, अवकाश के पलों में, पालने का सुख लेते नजर आएंगे। ।

एक मां अपने बच्चे को कितने कष्ट से पालती है। मजदूरों के बच्चे भी पालने में झूलते हैं। उनकी माएं, मजदूरी करते करते, किसी पेड़ की छांव में, अपनी साड़ी से ही झूला तैयार कर, उसमें बच्चे को सुला, काम करती रहती हैं। मां वसुन्धरा इतनी दयावान और कृपालु है कि किसी मां को मातृत्व सुख से वंचित नहीं रखती, और हर बालक के जीवन में मां का प्यार और आंचल की छांव सुरक्षित है।

हरी भरी हमारी वसुंधरा क्या किसी मां से कम है। जगत माता और परम पिता ही सारी सृष्टि में व्याप्त हैं। कोई बालक अनाथ नहीं। सर पर आशा का आसमान, उसकी हरी भरी गोद और मंद मंद समीर क्या किसी पालने से कम है। उसका पालना बहुत बड़ा है और उसकी गोद में सभी ऋषि, मुनि, सन्यासी और गृहस्थ दिन रात खेलते रहते हैं ;

ओ पालनहारे, निर्गुण और न्यारे

तुम्हरे बिन हमरा कौनो नाहीं।

हमरी उलझन सुलझाओ भगवन

तुम्हरे बिन हमरा कौनो नाहीं। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 444 ⇒ आया साजन झूम के… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आया साजन झूम के।)

?अभी अभी # 444 ⇒ आया साजन झूम के? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्या बात है, क्या इस बार सावन के महीने में यह उदासी क्यों, क्या इस बार सावन नहीं आया। नहीं आया तो है, लेकिन हर बार की तरह उमड़ घुमड़कर, जोर शोर से और झूमकर नहीं आया। बड़ा परेशान सा, उमस और पसीने से नहाया सा लगता है। उधर कुछ पसीने की बूंदें टपकती हैं, और लोग उसे ही सावन की बूंदाबांदी समझ लेते है और सावन के गीत गाना शुरू कर देते हैं।

क्या बात करते हो, कहीं कहीं तो सड़कों पर नाव चल रही है, लोग झूमकर नहीं, तैरकर सड़क पार कर रहे हैं, कहीं बादल फट रहे हैं और कहीं धरती फट रही है। वहां तो सावन, साजन की तरह नशे में धुत होकर झूम रहा है और इधर आपको सावन से इसलिए शिकायत है, कि सावन झूम नहीं रहा है। ।

ये सावन और साजन की भी गजब की जुगलबंदी है, उधर सावन झूमता है, इधर साजन नशे में झूमता है। सजनी को अगर सावन और साजन एक साथ मिल जाए, तो वह भी झूम उठती है ;

पड़ गए झूले

सावन रुत आई रे

सीने में हूक उठे

अल्लाह दुहाई रे …

मौसम की मस्ती का मज़ा कुछ अलग ही होता है। सावन का महीना आस और प्यास का है। अगर इस मौसम में भी सावन नहीं झूमे, तो कब झूमेगा। सूरज ने निकलना छोड़ दिया है, यानी उसने सावन के लिए आसमान साफ कर दिया है। लेकिन सावन के बादलों की स्थिति ऐसी है, मेरे साथी खाली जाम। वह कैसे छलकाए जाम। बेचारा प्यासा सावन।

आजकल बच्चा बच्चा जानता है, सावन आग लगाता भी है और फिर बुझाता भी वही है। उधर विरहिणी के नैना सावन भादो हो रहे हैं, और इधर सावन सूखा जा रहा है। सावन तो झूम नहीं रहा है, और उधर साजन झूमते हुए, यह गीत गाते चले आ रहे हैं ;

सावन के महीने में

एक आग सी सीने में

लगती है तो पी लेता हूं

दो चार घड़ी जी लेता हूं …

हे इंद्रदेव, सावन की आग बुझाओ, सबको दो घड़ी जी लेने दो, अमृत वर्षा करो, सबको पीकर तृप्त हो लेने दो। सजनी सावन की झड़ी में झूमने लगे, और साजन का नशा हिरन हो जाए और वह भी कह उठे,

आया सावन झूम के। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 444 ⇒ योगदान (Contributuon)… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “योगदान (Contributuon)।)

?अभी अभी # 444 योगदान (Contributuon)? श्री प्रदीप शर्मा  ?

देश की आजादी में भले ही हमारा योगदान ना रहा हो, लेकिन देश को आगे बढ़ाने में तो हर नागरिक का कुछ ना कुछ योगदान रहता ही है। योगदान स्वैच्छिक और नजर भी आ सकता है और परोक्ष अथवा अनिवार्य भी।

हमारा सरकार को कर चुकाना दायित्व भी है और योगदान भी। मतदान भी एक तरह से लोकतंत्र को मजबूत करने की दिशा में आपका योगदान ही तो है।

चूंकि यह शब्द संज्ञा है, अत: योगदान के साथ छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। ऐसा प्रतीत होता है, योगदान दो शब्दों से मिलकर बना है, जिनका अपने आप में स्वतंत्र अर्थ है। योग एवं दान। यानी किसी भी तरह के दान में आपकी ओर से भी कुछ जोड़ा जाए अथवा मिलाया जाए। योग जोड़ने अथवा मिलाने को ही तो कहते हैं। अनुदान अथवा अंशदान भी तो योगदान में ही आते हैं। वैसे अनुदान स्वीकार करने में आपकी पात्रता देखी जाती है, इसमें आपका कैसा योगदान।।

अगर वास्तव में योगदान की बात करें तो हमसे अधिक योगदान तो इस संसार में पेड़ पौधों, वनस्पतियों, नदी नालों, सूरज चंदा और पशु पक्षियों का है। पांच में से एक तत्व की भी कमी हुई और हमारी हालत खराब। पेड़ पौधे अगर ऑक्सीजन नहीं छोड़ें और कार्बन डाइऑक्साइड ग्रहण नहीं करें, तो हमारा तो सांस लेना ही दूभर हो जाए।

इसे भी योग ही कहेंगे कि हमारी नजर एक और ऐसे ही शब्द पर पड़ गई जो योगदान से मिलता जुलता है। आप चाहें तो दोनों को एक दूसरे का पूरक भी कह सकते हैं। वहां दान की नहीं, सहयोग की भावना है।।

क्या सहयोग और योगदान में आपको कुछ समानता नज़र आती है। आपका सहयोग ही तो आपका योगदान है। बस दोनों में केवल इतना अंतर है कि सहयोग पूरी तरह स्वैच्छिक होता है। और तो और आजादी के पहले, अंग्रेजों के खिलाफ किया गया असहयोग आंदोलन भी पूरी तरह स्वैच्छिक ही था लेकिन उसमें लोगों का योगदान जबर्दस्त था।

सहयोग का अर्थ दो या अधिक व्यक्तियों या संस्थाओं का मिलकर काम करना है। सहयोग की प्रक्रिया में ज्ञान का बारंबार तथा सभी दिशाओं में आदान-प्रदान होता है। यह एक समान लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में उठाया गया बुद्धि विषयक कार्य है। यह जरूरी नहीं है कि सहयोग के लिये नेतृत्व की आवश्यकता हो।।

साथी हाथ बढ़ाना

एक अकेला थक जाएगा

मिलकर बोझ उठाना ….

आपका सहयोग ही तो आपका योगदान है। सबसे बड़ा योग सहयोग ही है और सबसे बड़ा दान, उस दिशा में आपका योगदान।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 96 – देश-परदेश – अनुशासनहीनता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 96 ☆ देश-परदेश – अनुशासनहीनता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

एक पुराना गीत “सारे नियम तोड़ दो” हमारे देशवासियों का प्रिय गीत हैं। हमारे कर्म भी तो वैसे ही हैं। कोई भी धार्मिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि कार्य में नियमों को तोड़ना हमारी फितरत में हैं। हमारी रगों में बहता खून भी नियम तोड़ कर रक्त दबाव बढ़ता रहता हैं। आप यादि नियम से रहेंगे तो खून भी नियमित होकर बह सकता हैं।

बचपन में घर से दो पेंसिल लेकर जाते बच्चे को मां ये कहती है, कोई दूसरा बच्चा यादि पेंसिल मांगे तो कह देना मेरे पास एक ही है। माता पिता बच्चे के साथ होटल में खाना खा कर आने के बाद घर में आकर कोई और बहाना बना देते हैं। बच्चा भी झूठ बोलने की कला सीख लेता हैं।

युवा बच्चे को बिना लाइसेंस वाहन चलाने के लिए प्रेरित कर यातायात के नियमों की धज्जियां उड़ाना सिखा देते हैं। पिता लाल बत्ती नियम का खुलम खुल्ला उलंघन करते हुए, बचपन में ही बच्चों को नियम तोड़ने की कला में महारत बनने की प्रेरणा दे देता हैं।

यौवन की दहलीज पार करते ही सरकारी कार्यालय में गलत कार्यों के लिए रिश्वत देना/ लेना को जीवन की एक अनौपचारिकता का नाम देकर अपना लिया जाता हैं।

पेरिस ओलंपिक में एक महिला पहलवान सुश्री अंतिम पंगल ने अपनी बहन को नियम विरुद्ध अपने कार्ड से उसको “सिर्फ खिलाड़ियों” के लिए निर्धारित स्थान पर ले जाने का प्रयास किया और पकड़ी गई हैं। उनके निजी सहायक भी नशे की हालत में टैक्सी वाले से वाद विवाद कर चर्चा में हैं।

ओलंपिक नियम के अनुसार तुरंत पेरिस से निष्कासित कर दिया गया हैं। तीन वर्ष का प्रतिबंध भी संभव हैं। इससे पूर्व भी एक अन्य पहलवान सुश्री विनेश पोगट ने भी अपने भाई को उसकी कुश्ती के समय विशेष अनुमति की मांग करी थी।

मांग तो पंजाब के मुख्य मंत्री ने भी की थी, वो पेरिस जायेंगे तो हॉकी टीम का मनोबल बढ़ा सकेंगे। हॉकी टीम में अधिकतर खिलाड़ी पंजाबी भाषा वाले ही हैं, यादि पंजाब के मुख्य मंत्री वहां चले जाते, तो हो सकता है, हॉकी का गोल्ड मेडल हमारी झोली में होता। उन्होंने तो विनेश को भी वज़न कम करने के लिए मूढ़ मुड़वाने की सलाह भी दी हैं। यादि वो पेरिस गए हुए होते तो विनेश को और भी ज्ञानवर्धन कर देते।

अब आप सब भी तो दिन भर व्हाट्स ऐप खोल खोल कर देखते रहते है, कोई समय निर्धारित कर लेवें, इसलिए हम सब भी तो अनुशासनहीन श्रेणी में ही आते हैं। खेलों के मेडल हो या जिंदगी की जंग हो सभी अनुशासन से ही संभव हो सकता हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 443 ⇒ षड्यंत्र की बू… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “षड्यंत्र की बू ।)

?अभी अभी # 443 ⇒ षड्यंत्र की बू ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

ईश्वर ने हमें सोचने के लिए दिमाग, अच्छा बुरा देखने के लिए आँखें, सुनने के लिए कान और सूंघने के लिए एक नाक भी दी है।

हमारे सेंस ऑफ ह्यूमर की तरह ही हमारी सेंस ऑफ स्मेल यानी घ्राण शक्ति भी गज़ब की है। खुशबू बदबू की अच्छी पहचान तो हमें बचपन से है ही, हमारी पाक साफ नाक पर कभी कोई गंदी मक्खी भी नहीं बैठ सकती, और अगर कभी बैठी भी हो, तो वह यकीनन, मधुमक्खी ही होगी ;

हर हसीं चीज़ का मैं तलब्गार हूँ।

रस का फूलों का गीतों का बीमार हूँ।

कहने का मतलब यह कि- हम खुशबू और बदबू में आसानी से अंतर पहचान लेते हैं। दुनिया ओ दुनिया, तेरा जवाब नहीं। फूलों की खुशबू से किसे परेशानी होगी लेकिन कृत्रिम खुशबू हमारी पसंद नहीं। जो स्वाद के शौकीन हैं, उन्हें तो प्याज लहसुन में भी खुशबू नजर आती है।

लेकिन माफ करें, बदबू तो बदबू होती है।।

क्या कभी आपको नेकी में खुशबू नजर आई। अगर नेकी में खुशबू होती तो क्या लोग उसे दरिया में डालते। लेकिन हम तो सूंघकर ही समझ जाते हैं, आज रसोई में क्या पक रहा है। सराफे की गर्गागर्म सेंव और खौलती कढ़ाई में तैरते कचोरी समोसे की खुशबू राजवाड़े तक फैल जाती है। लेकिन अगर आपके आसपास कहीं ट्रेंचिंग ग्राउंड है, तो समझिए आपकी नाक कट गई।

सभी जानते हैं, बद अच्छा बदनाम बुरा की तरह ही, बू तो ठीक है, लेकिन बदबू बहुत बुरी है। हमने भी इस पहाड़ जैसी जिंदगी में कई तरह की बदबूएं झेली हैं, हमारी हालत क्या हुई होगी, केवल हम और हमारी नाक ही जानती है, फिर भी हमें आज तक किसी षड्यंत्र की बू नहीं आई।।

बू शब्द को आप गंध भी कह सकते हैं। गैस पर रखा दूध भी जल सकता है और सब्जी भी। जलने की भी एक गंध होती है, जिसे आप बू कह सकते हैं। केवल एक इंसान ही ऐसा है, जो ऊपर से तो शांत नजर आता है, लेकिन अंदर से पूरी तरह जल भुन जाता है। पारखी लोग पहचान ही लेते हैं, यह आग कहां कहां लगी है। आओ, थोड़ा और हवा दे दें। जली अच्छी जली।

बात षडयंत्र की बू की हो रही है। हमारी नाक इसके बारे में मौन है। वह इस मामले में अनावश्यक नहीं घुसना चाहती। उसे आज तक कभी किसी षडयंत्र की बू नहीं आई। हां कान जरूर यह कबूल करते हैं कि उन्हें इसकी भनक जरूर हुई थी।।

नाक का काम सूंघना है, चाहे खुशबू हो या बदबू, अनावश्यक अफवाहें फैलाना नहीं। इस काम के लिए ईश्वर ने आपको जुबां दी है, लगाओ जितना नमक मिर्ची लगाना हो, लेकिन आय विल नेवर पोक माय नोज इन दीज़ अफेअर्स। यानी इन मामलों में, मैं कभी व्यर्थ ही अपनी नाक नहीं घुसेड़ूंगा। जय हिंद !

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

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मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ – थोड़ा और… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख  थोड़ा और…।)

☆ आलेख – थोड़ा और… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

पेरिस ओलंपिक, अब समापन की ओर है। करीब करीब सभी खेल हो चुके हैं और ओलंपिक क्लोजिंग सेरेमनी करीब आ गई है।  देश के 140 करोड़ लोगों में से 117 लोगों का दल, 16 स्पर्धा में, 70 पुरुष और 46 महिलाएं ओलंपिक खेलों में भाग लेने के लिए पेरिस गया था।

हम अभी तक केवल एक सिल्वर और पांच ब्रांज मेडल प्राप्त कर सके हैं। क्या हम इसी से खुश हैं, या हमें थोड़े और मेडल मिलना चाहिए थे? हम आकलन करें, हमसे कहां भूल हुई कि जिन खेलों में हम चौथे स्थान पर रहे, हम तीसरे स्थान पर आ सकते थे। जिनमें तीसरे पर रहे उससे और आगे जा सकते थे। हम एक दूसरे को शाबाशी दे रहे हैं, एक दूसरे को बधाई दे रहे हैं कि हम एक सिल्वर और चार पांच मेडल लेकर लौटे हैं।

 इसको लेकर भी बातें हो रही हैं, कि हम कहां पर पिछड़ गए?  क्या कमी रह गई हमारे खिलाड़ियों की ट्रेनिंग में? क्या हम और बेहतर सुविधा अपने देश में खिलाड़ियों को दे सकते थे? क्या हम उनके लिए और अच्छी परिस्थितियों का निर्माण कर सकते थे? अगर 28 राज्यों से हम खिलाड़ी देखें तो क्यों नहीं? राज्यों की प्रतिस्पर्धा में जिन राज्यों के खिलाड़ी नहीं पहुंच पाए, उनमें क्या कमी है क्या वह राज्य इस बात का आकलन करेंगे कि वह अपने खिलाड़ियों को और अधिक सुविधा देकर उन्हें अच्छे ग्राउंड, अच्छी ट्रेनिंग, अच्छी डाइट, अच्छे उपकरण देकर तैयार करेंगे ताकि देश की टीम में उनका भी प्रतिनिधित्व हो सके। जो अभी बहुत कम है, छोटे-छोटे देश हमसे आगे निकल गए, छोटे-छोटे देशों में, खेलों पर अधिक राशि खर्च की जाती है, खिलाड़ियों को शुरू से ही बेहतर तकनीक और बेहतर साधन मुहैया कराए जाते हैं।  अच्छे विदेशी कोच उन्हें ट्रेनिंग देते हैं, जो हमारे यहां नहीं है हमारे यहां खेल संघो पर उनका कब्जा है जो कभी खेले ही नहीं। जो कभी खेल नहीं खेला, वह खिलाड़ियों की मनोदशा को नहीं समझ सकता। वह खेलों में नए-नए किस्म की टेक्नोलॉजी के बारे में बात नहीं कर सकता। आजकल खेल केवल शारीरिक क्षमता से नहीं बल्कि तकनीकि और मनोवैज्ञानिक ढंग से खेले जाते हैं, परंतु जो कभी खेला ही नहीं, वह यह सब बातें जान ही नहीं पाता। इस तरह हम खेलों में पिछड़ते जाते हैं। फिर आती है बात खेलों में राजनीति की, भाई भतीजावाद की, यह सब खेल का ही हिस्सा है। खैर हम तो यह कहेंगे कि थोड़ी मेहनत और, थोड़ा और…

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 252 – शिवोऽहम्…(3) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 252 शिवोऽहम्…(3) ?

निर्वाण षटकम् का हर शब्द मनुष्य के अस्तित्व पर हुए सारे अनुसंधानों से आगे की यात्रा कराता है। इसका सार मनुष्य को स्थूल और सूक्ष्म की अवधारणा के परे ले जाकर ऐसे स्थान पर खड़ा कर देता है जहाँ ओर से छोर तक केवल शुद्ध चैतन्य है। वस्तुत: लौकिक अनुभूति की सीमाएँ जहाँ समाप्त होती हैं, वहाँ से निर्वाण षटकम् जन्म लेता है।

तृतीय श्लोक के रूप में जगद्गुरु आदि शंकराचार्य का परिचय और विस्तृत होता है,

न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ

मदो नैव मे नैव मात्सर्यभाव:

न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्ष:

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।।3।।

अर्थात न मुझे द्वेष है, न ही अनुराग। न मुझे लोभ है, न ही मोह। न मुझे अहंकार है, न ही मत्सर या ईर्ष्या की भावना। मैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से परे हूँ। मैं सदा शुद्ध आनंदमय चेतन हूँ, मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ।

राग मनुष्य को बाँधता है जबकि द्वेष दूरियाँ उत्पन्न करता है। राग-द्वेष चुंबक के दो विपरीत ध्रुव हैं। चुंबक का अपना चुंबकीय क्षेत्र है। अनेक लोग, समान और विपरीत ध्रुवों के निकट आने से उपजने वाले क्रमश: विकर्षण और आकर्षण तक ही अपना जीवन सीमित कर लेते हैं। यह मनुष्य की क्षमताओं की शोकांतिका है।

इसी तरह मोह ऐसा खूँटा होता है जिससे मनुष्य पहले स्वयं को बाँधता है और फिर मोह मनुष्य को बाँध लेता है। लोभ मनुष्य को सीढ़ी दर सीढ़ी मनुष्यता से नीचे उतारता जाता है। इनसे मुक्त हो पाना लौकिक से अलौकिक होने, तमो गुण से वाया रजो गुण, वाया सतो गुण, गुणातीत होने की यात्रा है।

एक दृष्टांत स्मरण हो आ रहा है। संन्यासी गुरुजी का एक नया-नया शिष्य बना। गुरुजी दैनिक भ्रमण पर निकलते तो उसे भी साथ रखते। कोई न कोई शिक्षा भी देते। आज भी मार्ग में गुरुजी शिष्य को अपरिग्रह की शिक्षा देते चल रहे थे। संन्यास और संचय का विरोधाभास समझा रहे थे। तभी शिष्य ने देखा कि गुरुजी एक छोटे-से गड्ढे के पास रुक गये, मानो गड्ढे में कुछ देख लिया हो। अब गुरुजी ने हाथ से मिट्टी उठा-उठाकर उस गड्ढे को भरना शुरू कर दिया। शिष्य ने झाँककर देखा तो पाया कि गड्ढे में कुछ स्वर्णमुद्राएँ पड़ी हैं और गुरुजी उन्हें मिट्टी से दबा रहे हैं। शिष्य के मन में विचार उठा कि अपरिग्रह की शिक्षा देनेवाले गुरुजी के मन में स्वर्णमुद्राओं को सुरक्षित रखने का विचार क्यों उठा? शिष्य का प्रश्न गुरुजी पढ़ चुके थे। हँसकर बोले, “पीछे आनेवाले किसी पथिक का मन न डोल जाए, इसलिए मैं मिट्टी पर मिट्टी डाल रहा हूँ।”  

मिट्टी पर मिट्टी डालने की लौकिक गतिविधि में निहितार्थ गुणातीत होने की अलौकिकता है।

गतिविधि के संदर्भ में देखें तो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष जीवन के चार पुरुषार्थ हैं। इनमें से हर पुरुषार्थ की विवेचना अनेक खंडों के कम से कम एक ग्रंथ की मांग करती है। यदि इनके प्रचलित सामान्य अर्थ तक ही सीमित रहकर भी विचार करें तो धर्म, अर्थ,  काम या मोक्ष की लालसा न करना याने इन सब से ऊपर उठकर भीतर विशुद्ध भाव जगना। ‘विशुद्ध’, शब्द  लिखना क्षण भर का काम है, विशुद्ध होना जन्म-जन्मांतर की तपस्या का परिणाम है।

परिणाम कहता है कि तुम अनादि हो पर आदि होकर रह जाते हो। तुम अनंत हो पर अपने अंत का साधन स्वयं जुटाते हो। तुम असीम हो पर तन और मन की सीमाओं में बँधे रहना चाहते हो। तुम असंतोष और क्षोभ ओढ़ते हो जबकि तुम परम आनंद हो।

राग, द्वेष, लोभ, मोह, मद, मत्सर, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन सब से हटकर अपने अस्तित्व पर ध्यान केंद्रित करो। तुम अनुभव करोगे अपना अनादि रूप, अनुभूति होगी अंतर्निहित ईश्वरीय अंश की, अपने भीतर के चेतन तत्व की। तब शव होने की आशंका समाप्त होने लगेगी, बचेगी केवल संभावना, जो प्रति पल कहेगी ‘शिवोऽहम्।’

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 442 ⇒ बेटी बेटे… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बेटी बेटे।)

?अभी अभी # 442 ⇒ बेटी बेटे? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कल रात एक पुराने मित्र को फोन लगाया, बहुत दिनों से बातचीत नहीं हुई थी। फेसबुक और व्हाट्सएप ने जब से फोन का स्थान लिया है, केवल गुड मॉर्निंग और फाॅरवर्डेड मैसेज से ही काम चल जाता है। फोन पर घंटी गई, लेकिन किसी ने उठाया नहीं। हम ज्यादा किसी को फोन पर परेशान नहीं करते। अचानक उधर से घंटी आई, फोन किसी महिला ने किया था। पता चला पापा की बिटिया है।

मित्र की सभी बेटियां हैं, और फिलहाल वह एक बेटी के साथ इसी शहर में रह रहा है।

रात के नौ ही बजे थे, बिटिया ने बताया पापा सो गए हैं। इतनी जल्दी ? नहीं उन्हें सर्दी, खांसी, जुकाम था, अभी दवा देकर सुलाया है। मेरा मित्र मुझसे भी पांच साल बड़ा है। कभी संयुक्त परिवार था, आज बेटी का परिवार ही उसका परिवार है। हाल चाल पूछकर मैने यह कहकर फोन रख दिया, पापा से बाद में बात कर लूंगा।।

बचपन के दोस्त, स्कूल कॉलेज के सहपाठी और बैंक के अधिकांश हम उम्र मित्रों का आज यही हाल है। उम्र के इस पड़ाव पर उनकी सबसे बड़ी पूंजी उनके बेटी बेटे ही हैं। जब खुद बेटे थे, तो मां बाप की सेवा की। जब खुद मां बाप बने तो अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दी, लिखाया पढ़ाया। आज भगवान की दया से बेटी बेटे, सभी अपनी गृहस्थी में सुखी हैं। कोई पुणे में है तो कोई हैदराबाद अथवा बेंगलुरु में। कई के बच्चे तो विदेशों में जॉब कर रहे हैं। उनमें से कई तो ग्रीन कार्ड होल्डर भी हो गए हैं।

बेटी बेटे और बहू दामाद में अब ज्यादा फर्क नहीं रहा। कभी वे मां बाप/सास ससुर के पास आ जाते हैं तो कभी ये लोग उनके पास चले जाते हैं। अब परिवार वैसे भी छोटे हो चले हैं, जितने सदस्य मिल जुलकर रहें, उतना ही बेहतर है। कोरोना काल की कुछ कड़वी यादें भी हैं, सबको एक दूसरे की सुरक्षा की सतत चिंता बनी रहती है।।

समय और परिस्थिति सब कुछ बदल देता है। यार दोस्त भी और खानपान और रहन सहन भी। कभी दादाजी हमारी उंगली पकड़कर घुमाने ले जाते थे और आज नाती पोते हमारा हाथ पकड़कर हमें फीनिक्स मॉल घुमाते हैं।

हमें मोबाइल और कंप्यूटर चलाना सिखाते हैं। बड़े होकर बच्चा बनने का भी एक अपना ही सुख है।

हम जो अपने आसपास देखते हैं, वही हमारी दुनिया होती है, और उसे ही हम सच मान लेते हैं। आज की पीढ़ी बदनाम भी है और स्वार्थी खुदगर्ज भी। घर घर में तलाक आम है और वृद्धाश्रम आज भी गुलजार हैं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 441 ⇒ महमूद और किशोर कुमार… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “महमूद और किशोर कुमार।)

?अभी अभी # 441 ⇒ महमूद और किशोर कुमार? श्री प्रदीप शर्मा  ?

फिल्मों में हास्य, संगीत और मनोरंजन का जब भी जिक्र होगा, महमूद और किशोर कुमार को अवश्य याद किया जाएगा। केवल भाव भंगिमा के बल पर दुनिया को हंसाने वाला अगर चार्ली चैपलिन था तो थॉमस हार्डी जैसी बेजोड़ जोड़ी शायद ही दुनिया में दूसरी पैदा हुई हो।

किशोर कुमार के तो व्यक्तित्व में ही मस्ती, हास्य और चुलबुलापन था। जो लोग दुनिया में खुशियां बिखेरते हैं, उनके अंदर भी एक संजीदा इंसान होता है, चाहे वह जॉनी वॉकर, महमूद अथवा किशोर ही क्यों ना हो। ढलती उम्र में आनंद में जॉनी वॉकर का आंसू भिगो देने वाला मार्मिक अभिनय, किशोर कुमार की दो फिल्में दूर का राही और दूर गगन की छांव में तथा महमूद का कुंवारा बाप जैसी फिल्में तो यही साबित करती हैं।।

महमूद और किशोर कुमार के पहले दो शब्द जॉनी वॉकर के बारे में। हम पीते नहीं, लेकिन जॉनी वॉकर की कॉमेडी का नशा हमारे सर चढ़कर बोलता था। जॉनी वॉकर गुरुदत्त की खोज थे और गुरुदत्त की छोटी लेकिन महत्वपूर्ण पारी उन्हें एक उत्कृष्ट अभिनेता और महान निर्माता साबित करने के लिए काफी थी। उनकी अधिकांश फिल्मों में जॉनी भाई को भी अपने विशिष्ट अंदाज में देखा जा सकता था। लेकिन अफसोस गुरुदत्त के असमय जाते ही

जॉनी वॉकर भी गुमनामी के अंधेरे में ना जाने कहां खो गए।

किशोर कुमार एक हरफनमौला कलाकार थे, कभी गायक तो कभी निर्माता और अभिनेता। उनकी बनाई हास्य फिल्मों में चलती का नाम गाड़ी और बढ़ती का नाम दाढ़ी प्रमुख है, जिनमें अशोक, किशोर और अनूप, तीनों कुमार एक साथ देखे जा सकते हैं।

एक अभिनेता के रूप में उनकी गंगा की लहरें, हम सब उस्ताद हैं और मि. एक्स इन बॉम्बे प्रमुख हैं।

इन सभी फिल्मों में एक खासियत है, इनमें आपको महमूद कहीं नजर नहीं आएंगे।।

किशोर कुमार का अपना अलग ही अंदाज है। उन्हीं की कहानी उन्हीं की जबानी संक्षेप में ;

चलचित्रम् की कथा सुनाए किशोरकुमारम्

जय गोविन्दं जय गोपालं !

उछलम् कूदम जय महमूदम्, बम बम नाचे किशोर कुमारम् …

एक बड़ा फिल्म निर्माता चार चार हीरो और हीरोइन लेकर फिल्म तो बना सकता है, लेकिन महमूद, जॉनी वॉकर और किशोर कुमार को एक साथ लेकर फिल्म नहीं बना सकता।

बहुत कम ऐसी फिल्में हैं, जिनमें महमूद और जॉनी वॉकर ने एक साथ काम किया हो। वैसे किशोर कुमार को एक कॉमेडियन के रूप में भी अधिक फिल्में नहीं मिल पाई हैं, क्योंकि किशोर कुमार शुरू से ही भारतीय फिल्मों के एक सफल गायक बन चुके थे।

महमूद एक हास्य कलाकार के अलावा अभिनेता एवं प्रोड्यूसर डायरेक्टर भी थे। छोटे नवाब, भूत बंगला, साधु और शैतान, बॉम्बे टू गोवा, पड़ोसन और कुंवारा बाप उनकी कुछ प्रमुख फिल्में मानी जाती हैं। फिल्म प्यार किए जा एकमात्र ऐसी फिल्म थी, जिसमें किशोर कुमार, महमूद और ओमप्रकाश साथ साथ थे।

इनमें से तीन फिल्मों में आपको महमूद के साथ किशोर कुमार भी नजर आएंगे। किशोर तो किशोर हैं, जहां भी जाएंगे छा जाएंगे, फिर भले ही वह फिल्म बॉम्बे टू गोवा हो अथवा साधु और शैतान।

फिल्म पड़ोसन ने तो इतिहास ही रच दिया।।

महमूद ने कॉमेडी में कई जोड़ियां बनाई। किशोर के अलावा आई एस जौहर के साथ भी फिल्म जौहर महमूद इन गोवा में दर्शकों ने इन्हें खूब पसंद किया। जौहर महमूद इन हांगकांग उतनी नहीं चली और जौहर महमूद इन काश्मीर शायद चल ही नहीं आई।

महमूद ने अभिनेत्रियों शशिकला और मुमताज के अलावा शुभा खोटे, अरुणा ईरानी और साउथ की अभिनेत्री भारती के साथ भी जोड़ियां जमाकर दर्शकों को गुदगुदाया।

दिलीप, देव और राजकपूर अपनी फिल्मों से महमूद को दूर ही रखते थे।।

महमूद ने किशोर कुमार के प्लेबैक का भी अपनी फिल्मों में भरपूर उपयोग किया, जब कि मन्ना डे उनके पसंदीदा गायक थे।

फिल्म भूत बंगला का किशोर कुमार का गीत, जागो सोने वालों, सुनो मेरी कहानी महमूद पर ही फिल्माया गया है।

फिल्म मस्ताना का एक गीत चंदा ओ चंदा, किसने चुराई, तेरी मेरी निंदिया में किशोर का साथ लता ने भी दिया है। कुंवारा बाप की महमूद की मर्मस्पर्शी लोरी भी तो किशोर कुमार और लता ही ने गाई है ;

आ री आ जा निंदिया

तू ले चल कहीं

उड़न खटोले में दूर,

दूर, दूर, यहाँ से दूर

आ री आजा निंदिया

तू ले चल कहीं ….

कॉमेडी फॉर कॉमेडी सेक और आर्ट फॉर आर्ट्स सेक ! महमूद की फिल्म पड़ोसन के गीत एक चतुर नार बड़ी होशियार में बड़ा धर्मसंकट आन पड़ा। संगीत में कौन गायक महान, मन्ना डे अथवा किशोर कुमार। उधर मन्ना डे महमूद को अपना स्वर दे रहे हैं और इधर किशोर अपना स्वर सुनील दत्त को। कला की जीत हुई और संगीत हार गया। कभी कभी ऐसा भी होता है, जब किशोर, महमूद और मन्ना डे की जुगलबंदी होती है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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