हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 434 ⇒ हमारा संसार… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हमारा संसार।)

?अभी अभी # 434 ⇒ हमारा संसार? श्री प्रदीप शर्मा  ?

ये दुनिया हमने नहीं बनाई, हमने जब जन्म लेकर जिस संसार को देखा, बस उसे ही अपना संसार मान लिया। अगर एक बच्चे से पूछा जाए, उसका संसार कित्ता, तो वह भोलेपन से अपने दोनों छोटे छोटे हाथ फैलाकर कह देगा इत्ता, क्योंकि उसने अभी तक उतना ही संसार देखा है।

हमने दुनिया देख ली, इसलिए हमारा संसार बहुत बड़ा हो गया। हमें फख्र है कि हम दीन दुनिया की खबर रखते हैं। जब कि सच यह है कि हमारी अपनी बनाई हुई दुनिया भी बहुत छोटी है। हमने अपने घर बार, रिश्तेदार, यार दोस्त और जमीन जायदाद को ही अपना संसार मान लिया है। जिस घर में रहते हैं, भले ही किराए का हो, उसे अपना घर कहते हैं, जिस मोहल्ले में रहते हैं, उसे अपना मोहल्ला कहते हैं, केवल कुछ लोगों से परिचय के बल पर पहले हमारा शहर, फिर प्रदेश और तत्पश्चात् देश की सीमाओं को लांघ पूरी दुनिया को अपनी मान बैठते हैं। अगर दुनिया में सब ठीकठाक तो ये जिन्दगी कितनी हसीन है और अगर कहीं पत्ता भी खड़का, तो ये दुनिया, ये महफिल मेरे काम की नहीं।।

ये दुनिया न मेरे बाप की, न तेरे बाप की, फिर भी इस दुनिया का कोई मालिक तो होगा। कोई इस भ्रम में है कि वो दुनिया पर राज कर रहा है, और कोई अपने बनाए संसार में ही खुश होकर यह स्वीकार कर रहा है, कि ऐ मालिक तेरे बंदे हम। यानी हम एक ऐसे अज्ञात मलिक के संसार में, किराए से रह रहे हैं, जिसे हम “सबका मालिक एक” मान बैठे हैं, लेकिन आपने कभी उसे देखा नहीं।

उस कथित मालिक ने आपको अपना कथित संसार ९९ साल की लीज पर दिया है, और वह भी बिना किसी लिखा पढ़ी के। आपके कायदे कानून वहां नहीं चलते। विधि का विधान होता है, संविधान नहीं। आप चाहो तो उसे शाहों का शाह कहो, अथवा तानाशाह, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह गुंडे नहीं यमदूत पालता है। गरीबी, मुफलिसी और बीमारी से डरा धमकाकर आपको रात दिन परेशान करता रहता है।।

इसी संसार में होते हैं कुछ पहलवान, जिन पर वह कुछ विशेष ही मेहरबान होता है। वे पहलवान अपने संचित पुण्य के बल पर इतराते रहते हैं, भोग योनी होते हुए भी राजयोग लिखवाकर लाते हैं। उन्हें भी ऐसा भ्रम हो जाता है, कि अब तो वे ही इस दुनिया के मालिक हैं, लेकिन ऊपर वाला कब किसकी लीज टर्मिनेट कर दे, इसलिए मन ही मन उस मालिक से डरते रहते हैं और मालिक को भेंट पूजा चढ़ाते रहते हैं।

इसीलिए शायद कबीर कह गए हैं ;

पानी केरा बुदबुदा

अस मानुस की जात।

एक दिना छुप जाएगा

ज्यों तारा परभात।।

शैलेंद्र भी तो आखिर यही फरमाते हैं ;

तुम्हारे महल चौबारे, यहीं रह जाएंगे सारे

अकड़ किस बात की प्यारे ये सर फिर भी झुकाना है..

सजन रे, झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है।

हमारा ही बनाया संसार जब लुट जाता है, तब कैसा लगता है।

हर स्थिति और परिस्थिति में बस यही पारंपरिक प्रार्थना सूझती है ;

ऐ मालिक तेरे बन्दे हम… ऐसे हों हमारे करम… नेकी पर चलें और बदी से डरें…

ताकि हँसते हुए निकले दम।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 207 ☆ या अनुरागी चित्त की… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना या अनुरागी चित्त की। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 207 ☆ या अनुरागी चित्त की

भटकता हुआ मन कैसे, कब, कहाँ, किस ओर आकर्षित हो जाए ये कहा नहीं जा सकता। आँधी- तूफान की तरह विचारों का आना- जाना, सही गलत का भेद भुलाकर बस अपने लाभ की चिंता में सारा जीवन बिता देना। अंत समय में लेखा- जोखा की फाइल देखने पर सब कुछ शून्य बटे सन्नटा।

ऐसी स्थिति सभी की होती है, जीवन के हर पहलू को ध्यान से देखें तो समझ में आता है बिना मतलब इधर से उधर चहलकदमी करते हुए वक्त बिता दिया है। सारे परिणाम अपने अनुकूल कभी नहीं रहे, मजे की बात तो ये है कि जो कुछ मिला उसमें असंतुष्टि रही। भावना और संभावना के खेल में उलझते हुए कब समय बीत गया ये पता ही नहीं चला। पसंद और नापसंद के साथ जिसे रहना आ गया समझो वो विजेता की तरह लक्ष्य को साध ले जाएगा। क्या आपने महसूस किया कि परिणाम कभी आशानुरूप नहीं होते हैं, जब ऐसा लगता है कि बस मंजिल चार कदम की दूरी पर है तो अचानक से उम्मीद टूट जाती है। जो है जैसा है उसे बदलने से कहीं ज्यादा अच्छा ये होगा कि हम स्वयं के दृष्टिकोण को बदले, हर पल कुछ नया सीखते हुए समय का सदुपयोग करें। सकारात्मक चिंतन से सब कुछ संभव है।

जो लोग निरंतर अपने कार्यों में जुटे रहते हैं उन्हें देर- सबेर सही पर योग्यता से अधिक मिल जाता है इसीलिए सपनों का पीछा करते रहिए, अपने आपको उपयोगी बनाइए तभी सफलता मिलने पर आपको सच्चा आनन्द आएगा और शिखर पर लंबे समय तक टिक पायेंगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 294 ☆ आलेख – व्यंग्य शैली या विधा ? ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 294 ☆

? आलेख – व्यंग्य शैली या विधा ? ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

मुझे गर्व है कि मैने व्यंग्य को शैली से विधा बनते हुए देखा है. हरिशंकर परसाई को यह श्रेय जाता है कि उन्होंने साहित्य में कबीर के समय से अभिव्यक्ति की एक लोकप्रिय विधा पर इतना गद्य रचा कि साहित्य जगत को व्यंग्य को विधा के रूप में स्वीकार करना पड़ा. मैं अपने स्कूली जीवन से वह सब निरंतर पढ़ता रहा, और इसके प्रभाव से अछूता नहीं रह पाया तथा व्यंग्य लेखन करने लगा.

व्यंग्य को समाज सुधार का अचूक अस्त्र बताते हुए कहा जाता है कि ‘‘व्यंग्य साहित्यिक अजायब घर में लुप्त डॉयनासोर या टैरोडैक्टायल की पीली पुरानी हड्डियों का ढांचा नहीं बल्कि एक जीवंत विधा है जिसे बीसवीं सदी के साहित्य में अहम् भूमिका अदा करनी है. ’’ इसी संदर्भ में वक्रोक्ति संप्रदाय के आचार्य कुंतक ने वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा घोषित करते हुए ‘‘वक्रोक्ति जीवितम्’’ ग्रंथ का प्रणयन किया. आचार्य ने वक्रोक्ति को ‘‘वैदग्ध्य भंगी भणिति’’ अर्थात् कवि कर्म-कौशल से उत्पन्न वैचिर्त्यपूर्ण कथन के रूप में स्वीकार किया है, अर्थात् जो काव्य तत्व किसी कथन में लोकोत्तर चमत्कार उत्पन्न करे उसका नाम वक्रोक्ति है. सीधे-सीधे जहां पर वक्ता कुछ कहे और श्रोता लक्षित संदर्भ बिना कहे ही समझ ले, वह वक्रोक्ति होती है. वक्रोक्ति के मुख्य दो प्रकार हैं, प्रथम श्लेष वक्रोक्ति, दूसरी काकु वक्रोक्ति. श्लेष वक्रोक्ति में शब्द प्रवंचना है और काकु में कण्ठ प्रवंचना. इन्हीं तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि व्यंग्य एक ऐसी साहित्यिक विधा है जिसमें समाज में व्याप्त विसंगतियों, कमजोरियों, कथनी-करनी के अंतर एवं समाज में व्याप्त अंधविश्वास व कुरीतियों को कुरेद कर व्यंग्यकार उजागर करता है, तथा इसके लिए जिम्मेवार व्यक्ति का साहसपूर्वक विरोध करता है. सामाजिक संरचना के विकास में निरंतर अवरोधक तत्त्वों का पर्दा गिराता है. वर्तमान संदर्भ व परिस्थितियों में साहित्य में व्यंग्य की नितांत आवश्यकता और बुद्धि चातुर्य व भाषा कौशल के साथ व्यंग्य के  अनुप्रयोग की सार्थकता ही स्वयमेव व्यंग्य शास्त्र है, और जब व्यंग्य का शास्त्र है तो स्पष्ट है कि व्यंग्य शैली नहीं विधा है. आज भी व्यंग्य को शैली कहने की भूल इसलिए की जाती है क्योंकि व्यंग्य विधा इतनी सहज है कि उसके प्रयोग किसी भी विधा के भीतर छोटे छोटे टुकड़ों में रचनाकार करते हैं, जिससे कहानी, लेख, कविता, लघु कथाएं इत्यादि जिसमे भी व्यंग्य का अनुप्रयोग अंतर्निहित हो, वह रचना जीवंत बन जाती है.

अस्तु, व्यंग्य मात्र शैली नहीं एक सुस्थापित प्रभावी पूर्ण विधा है.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 433 ⇒ स्टोव्ह… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्टोव्ह ।)

?अभी अभी # 433 ⇒ π स्टोव्ह π? श्री प्रदीप शर्मा  ?

Stove

आज सुबह सुबह सपने में स्टोव्ह महाराज के दर्शन हो गए। स्टोव्ह को आप ना तो चूल्हा कह सकते हैं और ना ही सिगड़ी, और गैस स्टोव तो कतई नहीं, क्योंकि यह घासलेट यानी केरोसिन से जलता था। हो सकता है, किसी घर में आज यह मौजूद हो, लेकिन शायद चालू हालत में नहीं, क्योंकि आजकल जितनी आसानी से पेट्रोल उपलब्ध है, उतनी आसानी से घासलेट नहीं। वैसे घासलेट भी एक पेट्रोल प्रॉडक्ट ही है। पहले हर किराने की दुकान पर भी यह आसानी से उपलब्ध हो जाता था। राशन की दुकान पर गेहूं चावल के साथ घासलेट का भी कोटा था।

इसे चलाना बड़ा आसान था। बस इसकी पीतल की टंकी में पेट्रोल भर दो, और बत्ती लगाकर चार पांच पंप मार दो। पहले थोड़ा भभकेगा लेकिन फिर लाइन पर आ जाएगा। अगर फिर भी नखरे दिखाए, तो इसके मुंह में स्टोव की पिन से उंगली करते ही रास्ते पर आ जाएगा।।

जब घरों में रसोई गैस नहीं पहुंची थी, तब घर घर सिगड़ी और चूल्हे का ही बोलबाला था। सिगड़ी के लिए कोयले और चूल्हे के लिए लकड़ी। चूल्हा जहां होता था, वह चौका कहलाता था। चौका चूल्हा, रोज लीपा जाता था। नो स्टैंडिंग किचन। बैठकर ही खाना बनाओ, और तमीज से बैठकर ही खाना खाओ।

सिगड़ी थोड़ी सुविधाजनक थी, आसानी से मूव हो सकती थी, लेकिन कोयले बहुत खाती कभी लकड़ी के, तो कभी पत्थर के। बस इसी बीच घरों में मिस्टर स्टोव्ह का आगमन हो गया। यह आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता था और बेचारा खुद घासलेट पी पीकर आपको चाय के साथ पकौड़े भी तलकर देता था।।

मेरी नौकरी की कुंवारी गृहस्थी इस स्टोव्ह ने ही तो जमाई थी, जब मुझे पहली बार घर छोड़कर बाहर जाना पड़ा था। एक बोरे में आवश्यक सामान के साथ मिस्टर स्टोव्ह भी लद लिए थे। शहर से चार घंटे की दूरी पर रोजाना आना जाना संभव जो नहीं था।

चार घंटे जाने के और चार घंटे आने के। हां वीकेंड और छुट्टियों में आना जाना सुविधाजनक रहता था।

छोटे से कस्बे में एक अकेले व्यक्ति को एक कमरा तब बीस रुपए में मिला था, लेकिन वह सन् १९७२ था। बोरे का मुंह खोलते ही स्टोव्ह सहित मेरी गृहस्थी का सामान बाहर निकल आया। बहन और मां का यह सम्मिलित प्रयास था। सबसे पहले तवा, चकला बेलन और चिमटा, संडसी और साथ में कढ़ाई, तपेली, परात सहित थाली, कटोरी, चम्मच और ग्लास भी। बिस्तरों का एक होल्डाल साथ में। बाकी जुगाड़ इतना मुश्किल नहीं था।।

स्टोव्ह पर आप चाय, सब्जी तो बना सकते हैं, लेकिन रोटी नहीं सेक सकते। हां मजे से तिकोने परांठे अथवा कड़ाही में पूरी भजिए भी तल सकते हैं। लेकिन हमने मध्यम मार्ग रोटी का ही चुना। रोटी को तवे पर पहले एक ओर से सेंक लिया, फिर उसे पलटकर एक सूती कपड़े से आहिस्ता आहिस्ता गुदगुदा दिया और रोटी फूलकर कुप्पा हो जाती थी। गैस कुकर के अभाव में सब्जी के साथ कभी कभी खिचड़ी भी बन जाया करती थी।

वैसे हमारी यह कुंवारी गृहस्थी केवल कुछ वर्ष ही चली, क्योंकि हमारा तबादला वापस हमारे शहर ही हो गया। आज सुबह मिस्टर स्टोव्ह ने दर्शन देकर बीते दिनों की याद दिला दी। आज स्टोव्ह की तो छोड़िए, घर में एक बूंद घासलेट भी नसीब नहीं होता। बहुत बहुएं जलकर मरी हैं इस मुए घासलेट से। आज मुझे स्टोव्ह की ना सही, लेकिन एक बोतल केरोसिन की जरूरत है, उंगली कट गई, तो थोड़ा घासलेट डाल दिया, डेटॉल का काम करता है। लोहे की जंग हो अथवा खटमल कॉकरोच की जंग, सबमें कारगर। अब तो काला हिट, lizol और हार्पिक का ही जमाना है। घासलेट की बदबू कौन सहे।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – वादा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  वादा ? ?

अपनी समस्याएँ लिए प्रतीक्षा करता रहा वह। उससे समाधान का वादा किया गया था। व्यवस्था में वादा अधिकांशतः वादा ही रह जाता है। अबकी बार उसने पहले के बजाय दूसरे के वादे पर भरोसा किया। प्रतीक्षा बनी रही। तीसरे, चौथे, पाँचवें, किसीका भी वादा अपवाद नहीं बना। वह प्रतीक्षा करता रहा, समस्या का कद बढ़ता गया।

आज उसने अपने आपसे वादा किया और खड़ा हो गया समस्या के सामने सीना तानकर।…समस्या हक्की-बक्की रह गई।..चित्र पलट गया। उसका कद निरंतर बढ़ता गया, समस्या लगातार बौनी होती गई।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 432 ⇒ छाता और बरसात… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “छाता और बरसात।)

?अभी अभी # 432 ⇒ छाता और बरसात? श्री प्रदीप शर्मा  ?

उधर आसमान को पता ही नहीं कि सावन आ गया है, लोग बेसब्री से बारिश का इंतजार कर रहे हैं और इधर एक हम हैं जो पंखे के नीचे बैठकर छाते की बात कर रहे हैं। याद आते हैं वे बरसात के दिन, जब उधर आसमान से रहमत बरसती थी और इधर हम बंदूक की जगह छाता तानकर उसका सामना करते थे। आज हमने सीख लिया, जब रहमत बरसे, तो कभी छाता मत तानो, बस रहमत की बारिशों में भीग जाओ।

जब हमारा सीना भी छप्पन सेंटीमीटर था, तब हम भी बरसती बारिश में सीना तानकर सड़क पर निकल जाते थे, क्योंकि तब घर में कोई नहीं था, जो हमारे लिए बिनती करता, नदी नारे ना जाओ श्याम पैंया पड़ूं। तबीयत से भीगकर आते थे, मां अथवा बहन टॉवेल लेकर हमारा इंतजार करती थी, कपड़े बदलो, और गर्मागर्म दूध पी लो।।

तब कहां आज की तरह सड़कों पर इतनी कारें और दुपहिया वाहन थे। इंसान बड़ी दूरी के लिए साइकिल और कम दूरी के लिए ग्यारह नंबर की बस से ही काम चला लेता था। शायद ही कोई ऐसा घर हो, जिसमें तब छाता ना हो। खूंटी पर टोपी, कुर्ते के साथ आम तौर पर एक छाता भी नजर आता था, काले रंग का। जी हां हमने तो पहले पहल काले रंग का ही छाता देखा था।

एक छाते में दो आसानी से समा जाते थे, और साथ में आगे छोटा बच्चा भी। उधर बच्चा बड़ा हुआ, उसके लिए भी एक बेबी अंब्रेला, यानी छोटा छाता।

अपने छाते से बारिश का सामना करना, तब हमारे लिए बच्चों का ही तो खेल था।

छाता भी क्या चीज है, खुलते ही छा जाता है, हमारे और बरसात के बीच, और छाते से छतरी बन जाता है। एक थे गिरधारी, जिन्होंने अपनी उंगली पर इंद्रदेव को नचा दिया था, छाते की जगह पर्वत ही उठा लिया था।

कलयुग में गलियन में गिरधारी ना सही, छाताधारी ही सही।।

समय के साथ, साइकिल की तरह छाते भी लेडीज और जेंट्स होने लग गए।

रंगबिरंगे फैशनेबल छाते, जापानी गुड़िया और मैं हूं पेरिस की हसीना ब्रांड छाते। हमें अच्छी तरह याद है, छातों में ताड़ी होती थी, जिससे बटन दबाते ही छाता तन जाता था और काले मोट कपड़े पर शायद धन्टास्क लिखा रहता था।

छाता कभी आम आदमी का उपयोग साधन था। कामकाजी संभ्रांत पुरुष डकबैक की बरसाती, हेट और गमबूट पहना करते थे, जेम्स बॉन्ड टाइप। कामकाजी महिलाओं के लिए भी लेडीज रेनकोट उपलब्ध होते थे। हर स्कूल जाने वाले बच्चे के पास बारिश के दिनों में बरसाती भी होती थी।।

समाज में एक तबका ऐसा भी है, जो पन्नी(पॉलिथीन) ओढ़कर ही बारिश का सामना कर लेता है। हमने कई बूढ़ी औरतों को गेहूं की खाली बोरी ओढ़कर जाते देखा है।

आज भी छाते की उपयोगिता कम नहीं हुई है। जो पैदल चलते हैं, उनकी यह जरूरत है। जो कार में चलते हैं, उन्हें भी बरसते पानी में, कार में बैठते वक्त और उतरते वक्त छाते का सहारा लेना ही पड़ता है।।

क्या विडंबना है, नीली छतरी वाले और हमारे बीच भी एक छतरी। रहमत बरसा, लेकिन छप्पर तो मत फाड़। कुंए, नदी, तालाब, पोखर, लबालब भरे रहें, लेकिन हमारे सब्र के बांध की परीक्षा तो मत ले। अब तो हमें तेरी तारीफ के लिए बांधे पुलों पर भी भरोसा नहीं रहा, बहुत झूठी तारीफ की हमने तेरी अपने स्वार्थ और खुदगर्जी की खातिर। हमें माफ कर।।

छाते का एक मनोविज्ञान है, एक छाते में दो प्रेमी बड़ी आसानी से समा जाते हैं।

प्रेम भाई बहन का भी हो सकता है और पति पत्नी का भी। साथ में भीगना भी, और भीगने से बचना भी, तब ही तो प्रेम छाता है। किसी अनजान व्यक्ति को भीगते देख उसे अपनी छतरी में जगह भी वही देगा, जिसके दिल में जगह होगी। हर इंसान तो नेमप्लेट लगाकर नहीं घूम सकता न ;

तेरा साथ रहा बारिशों में छाते की तरह,

भीग तो पूरा गए, पर हौंसला बना रहा।

(अनूप शुक्ल से साभार)

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 431 ⇒ चिन्तामणि… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चिन्तामणि।)

?अभी अभी # 430 ⇒ चिन्तामणि? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सरकारी स्कूल में पढ़ने का एक लाभ यह भी हुआ कि सभी प्रमुख हिंदी लेखकों से परिचय हो गया। प्रसाद, प्रेमचंद, निराला, महादेवी और हजारीप्रसाद द्विवेदी। सुमित्रानंदन पंत को व्यक्तित्व के आधार पर महिला समझने की भूल हम भी कर बैठे थे। लेकिन सबसे अधिक हमें जिसने प्रभावित किया, वे थे, आचार्य रामचंद्र शुक्ल।

हिंदी साहित्य का इतिहास तो हमने बाद में पढ़ा, लेकिन मनोभाव और विकारों पर चिंतामणि में संकलित उनके निबंधों ने हमें अधिक प्रभावित किया। हमने अंग्रेजी निबंधकार फ्रांसिस बेकन को भी पढ़ा, लेकिन उनमें वह बात नहीं थी, जो चिंतामणि में हमने पाई। । दूसरा हमारा उनकी ओर झुकाव उनके व्यक्तित्व के कारण था, विदेशी पहनावा, गले में टाई, घनी विशिष्ट प्रकार की मूंछ और आंखों पर मोटा चश्मा। ।

तब से आज तक, उनकी शायद एक ही तस्वीर उपलब्ध है। हमारी उनकी केवल एक ही समानता रही है, मैं भी बचपन से ही उनकी तरह मोटा चश्मा लगाता आ रहा हूं। उनका मोटा चश्मा जहां उनके ज्ञान के आगार, तीक्ष्ण बुद्धि और विद्वत्ता का प्रतीक है, वहीं मेरा मोटा चश्मा मेरी मोटी बुद्धि का प्रतीक। हाथ कंगन को आरसी क्या, आप एक तरफ चिंतामणि रख दीजिए और दूसरी ओर अभी अभी। अंतर स्पष्ट हो जाएगा।

मनोभाव हमारे विचारों का ही तो प्रकटीकरण है। अगर चित्त शुद्ध है तो विचार भी शुद्ध ही होंगे और अगर चित्त विकार युक्त है तो वे विचार मनोविकार कहलाएंगे।

चिंता और चिंतन से भी बेहतर एक मार्ग स्वाध्याय का है, जहां चिंतन, मनन, के साथ अध्यात्म चिंतन भी संभव है। चिंतामणि है तो हमारे अंदर ही, उसे बाहर नहीं खोजा जा सकता ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 94 – देश-परदेश – मेरे दोस्त पिक्चर अभी बाकी है ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

 

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 94 ☆ देश-परदेश – मेरे दोस्त पिक्चर अभी बाकी है ☆ श्री राकेश कुमार ☆

इस नाम से भी एक पिक्चर बन चुकी हैं। पिक्चर कितनी प्रसिद्ध हुई ? ये जानकारी हमें तो नहीं है, लेकिन इसका उपयोग डायलॉग के रूप में खूब चल रहा हैं।

आडंबर विवाह की चर्चा अभी चल ही रही हैं। सामाजिक मंच कह रहे है, पूरी दुनिया पर राज करने वाले देश की राजधानी लंदन में भी एक बड़े आयोजन की सुगबुघाट जोरों पर हैं।

उनको क्या अंतर पड़ता है, कोई बहुत बड़ा होटल उन्होंने कुछ समय से लीज पर लिया हुआ हैं। वहीं आयोजन हो जाएगा। अंतर तो उनको पड़ेगा, जिनके पास “पार्टी वियर” का सीमित प्रावधान हैं। प्रत्येक कार्यक्रम में भाग लेने वाले के लिए तो धर्म संकट की स्थिति बन गई हैं। एक वर्ष के आसपास से तो विवाह चल रहा हैं। देश में सबसे लंबी आम चुनाव की प्रक्रिया भी पूरी हो गई हैं। नीट का मामला भी सुप्रीम कोर्ट ने सुलटा दिया है। विश्व के अनेक जोड़ों का भी “आडंबर विवाह वर्ष” के दौरान हुआ है, उनके यहां तो नए मेहमान के आने की घोषणा भी हो चुकी हैं। इनमें से कुछ के विवाह विच्छेद की तैयारी में हैं।

पिक्चर अभी बहुत सारी बाकी हो सकती है, क्या पता अमेरिका, फ्रांस जैसे देशों में कोई आयोजन प्रस्तावित हों ?बड़े लोग बड़ी बातें, पेरिस ओलंपिक के उद्घाटन में शिरकत करने के समय, फ्रांस के राष्ट्रपति से मुलाकात भी हुई है। हो सकता है, फ्रांस भी चाहता हो, एक वैवाहिक कार्यक्रम उनके देश में भी आयोजित होना चाहिए।

हम भी चाहते हैं, ये दावतें, खुशियां हमेशा गुलज़ार रहें, ताकि हमें भी कुछ लिखने का मौका मिलता रहे।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 430 ⇒ नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि।)

?अभी अभी # 430 ⇒ नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बच्चे धर्म और संस्कृति नहीं समझते, वे तो जो सीखते हैं, वही उनका संस्कार हो जाता है। बच्चा जब बोलना सीखता है, तो तोते की तरह हम भी उससे राम राम, और जय श्री कृष्ण बुलवाते हैं। हमारी ही देखादेखी जब वह हाथ भी जोड़ता है और झुककर सबके पांव छूता है, तो हम बहुत खुश होते हैं। लोग भी कहते हैं, बड़ा संस्कारी बच्चा है। जो हमने उसे सिखाया, वही तो उसने सीखा।

बचपन में हमने भी वही सीखा जो हमारा माहौल था। मोहल्ले में एक ही उम्र के बच्चे ही बच्चे, अधिकतर मराठी भाषी। हम आपस में लड़ते खेलते उनकी भाषा भी समझते गए। मोहल्ले के पीछे ही एक मैदान था, जिसे हम ग्राउंड कहते थे, आज जहां अर्चना का कार्यालय है, वहीं कभी शाखा भी लगती थी। खेलते खेलते हम भी शाखा में पहुंच जाते थे, नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि कहते हुए।।

स्कूल में भी मैदान में सबसे पहले सर्व धर्म प्रार्थना होती थी, और उसके बाद पीटी। पीटी को फिजिकल ट्रेनिंग कहते हैं, यह हमें बहुत बाद में पता चला। सर्व धर्म प्रार्थना हमें आज भी याद है, ॐ तत्सत् श्री नारायण तू, पुरुषोत्तम गुरु तू।

घर के सामने ही वैदिकाश्रम था, जहां कथा, कीर्तन, सत्संग, गणेशोत्सव के सांस्कृतिक कार्यक्रम और विवाह भी संपन्न होते थे। मंदिर की आरती की घंटी हमें आकर्षित करती थी, और हम भागकर, आंख मूंदे, हाथ जोड़कर खड़े हो जाते थे। प्रसाद आते ही, आंखें खुल जाती थी, और प्रसाद के लिए हाथ पसर जाता था।।

तब हम कहां धर्म, संस्कृति और राजनीति समझते थे।

आज हम शाखा का मतलब भी समझते हैं और आरएसएस का भी। 

आपने याद दिलाया तो हमें याद आया, कि आज से पहले सरकारी कर्मचारी आरएसएस के कार्यक्रमों में भाग नहीं ले सकते थे।

यह तो यही बात हुई कि मछली को पानी में घुसने की इजाजत नहीं दी जाए। अगर सैंया ही कोतवाल हो, तो फिर डर काहे का।।

हिंदू राष्ट्र, धर्म संस्कृति और सनातन धर्म की बात करना कोई अपराध नहीं, हाथी तो कब का निकल गया था, लेकिन पूंछ लगता है, सन् १९६६ से दबी पड़ी थी। अब सनातन का हाथी अपनी चाल चलेगा, कोई पांव तो रखकर देखे अब पूंछ अथवा मूंछ पर।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 250 – शिवोऽहम् ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 250 शिवोऽहम् ?

।। चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।।

गुरु द्वारा परिचय पूछे जाने पर बाल्यावस्था में जगद्गुरु आदि शंकराचार्य द्वारा दिया गया उत्तर निर्वाण षटकम् कहलाया। वेद और वेदांतों का मानो सार है निर्वाण षटकम्। इसका पहला श्लोक कहता है,

मनोबुद्ध्यहङ्कार चित्तानि नाहं

न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे ।

न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥

मैं न मन हूँ, न बुद्धि, न ही अहंकार। मैं न श्रवणेंद्रिय (कान) हूँ, न स्वादेंद्रिय (जीभ), न घ्राणेंद्रिय (नाक) न ही दृश्येंद्रिय (आँखें)। मैं न आकाश हूँ, न पृथ्वी, न अग्नि, न ही वायु। मैं सदा शुद्ध आनंदमय चेतन हूँ, मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ।

मनुष्य का अपेक्षित अस्तित्व शुद्ध आनंदमय चेतन ही है। आनंद से परमानंद की ओर जाने के लिए, चिदानंद से सच्चिदानंद की ओर जाने के लिए साधन है मनुष्य जीवन।

सर्वसामान्य मान्यता है कि यह यात्रा कठिन है। असामान्य यथार्थ यह  कि यही यात्रा सरल  है।

इस यात्रा को समझने के लिए वेदांतसार का सहारा लेते हैं जो कहता है कि अंत:करण और बहि:करण, इंद्रिय निग्रह के दो प्रकार हैं।  मन, बुद्धि और अहंकार अंत:करण में समाहित हैं। स्वाभाविक है कि अंत:करण की इंद्रियाँ देखी नहीं जा सकतीं, केवल अनुभव की जा सकती हैं। संकल्प- विकल्प की वृत्ति अर्थात मन, निश्चय-निर्णय की वृत्ति अर्थात बुद्धि एवं स्वार्थ-संकुचित भाव की वृत्ति अर्थात अंहकार। इच्छित का हठ करनेवाले मन, संशय निवारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाली बुद्धि और अपने तक सीमित रहनेवाले अहंकार की परिधि में मनुष्य के अस्तित्व को समेटने का प्रयास हास्यास्पद है।

बहि:करण की दस इंद्रियाँ हैं। इनमें से चार इंद्रियों आँख, नाक, कान, जीभ तक मनुष्य जीवन को बांध देना और अधिक हास्यास्पद है।

सनातन दर्शन में जिसे अपरा चेतना कहा गया है, उसमें निर्वाण षटकम् के पहले श्लोक में निर्दिष्ट आकाश, भूमि, अग्नि, वायु, मन, बुद्धि, अहंकार जैसे स्थूल और सूक्ष्म दोनों तत्व सम्मिलित हैं। अपरा प्रकृति केवल जड़ पदार्थ या शव ही जन सकती है। परा चेतना या परम तत्व या चेतन तत्व या आत्मा का साथ ही उसे चैतन्य कर सकता है, चित्त में आनंद उपजा सकता है, चिदानंद कर सकता है।

आनंद प्राप्ति में दृष्टिकोण महत्वपूर्ण है। दृष्टिकोण में थोड़ा-सा परिवर्तन, जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन लाता है। मनुष्य का अहंकार जब उसे भास कराने लगता है कि उसमें सब हैं, तो यह भास, उसे घमंड से चूर कर देता है। दृष्टिकोण में परिवर्तन हो जाए तो वह धन, पद, कीर्ति पाता तो है पर उसके अहंकार से बचा रहता है। वह सबमें खुद को देखने लगता है। सबका दुख, उसका दुख होता है। सबका सुख, उसका सुख होता है। वह ‘मैं’ से ऊपर उठ जाता है।

यूँ विचार करें करें कि जब कोई कहता है ‘मैं’ तो किसे सम्बोधित कर रहा होता है? स्वाभाविक है कि यह यह ‘मैं’ स्थूल रूप से दिखती देह है। तथापि यदि आत्मा न हो, चेतन स्वरूप न हो तो देह तो शव है। शव तो स्वयं को सम्बोधित नहीं कर सकता। चिदानंद चैतन्य, शव को शिव करता है  और जगद्गुरु आदि शंकराचार्य के शब्द सृष्टि में चेतनस्वरूप की उपस्थिति का सत्य, सनातन प्रमाण बन जाते हैं।

इसीलिए कहा गया है, ‘शिवोहम्’, … मैं शिव हूँ.. ‘मैं’ से शव का नहीं शिव का बोध होना चाहिए। यह बोध मानसपटल पर उतर आए तो यात्रा बहुत सरल हो जाती है।

यात्रा सरल हो या जटिल, इसमें अभ्यास की बड़ी भूमिका है। अभ्यास के पहले चरण में निरंतर बोलते, सुनते, गुनते रहिए, ‘शिवोऽहम्।’

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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