हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 602 ⇒ पेन पेंसिल ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पेन पेंसिल।)

?अभी अभी # 602 ⇒ पेन पेंसिल ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जीवन, पढ़ने लिखने का नाम, पढ़ते रहो सुबहो शाम ! हमारे जमाने में ऐसी कोई नर्सरी राइम नहीं थी।

हम जब पैदा हुए थे, तब सुना था, हमारी मुट्ठी बंद थी, और हमसे यह पूछा जाता था, नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है, तब तो हम जवाब नहीं दे पाए, क्योंकि उनके पास अपना खुद का जवाब मौजूद था, मुट्ठी में है, तकदीर हमारी। लेकिन हमने तो जब हमारी मुट्ठी खोली तो उसमें हमने पेन – पेंसिल को ही पाया।

न जाने क्यों इंसान को अक्षर ज्ञान की बहुत पड़ी रहती है। जिन बच्चों के हाथों में झुनझुना और गुड्डे गुड़िया होना चाहिए, उन्हें अनार आम, और एबीसीडी भी आनी ही चाहिए। सबसे पहले एक गिनती वाली पट्टी आती थी, जिसमें गोल गोल प्लास्टिक की रंग बिरंगी गोलियां दस तार वाले खानों में जुड़ी रहती थी। एक से सौ तक की गिनती उन प्लास्टिक की गोलियों से सीखी जाती थी और पट्टी, जिसे स्लेट कहते थे, पर चार उंगलियों और एक अंगूठे के बीच मिट्टी की कलम, जिसे हम पेम कहते थे, पकड़ा दी जाती थी। जब तक आप ढंग से पेम पकड़ना नहीं सीख लेते,  आपकी अक्षर यात्रा शुरू ही नहीं हो सकती।।

ढाई अक्षर तो बहुत दूर की बात है, जिन हाथों में हमारी तकदीर बंद है, वह जिन्दगी की स्लेट पर एक लकीर ढंग से नहीं खींच पा रहा है। आज जिसे इमोजी कहा जा रहा है, ऐसे कई इमोजी बन जाने के बाद, जब तक,  अ अनार का,  A,  एबीसीडी का, और चार अंक, १, २, ३, ४ के नहीं लिख लिए जाते, भैया होशियार नहीं कहलाए जाते थे। एक,  दो,  तीन, चार,  लो भैया बन गया होशियार।

तुमने कितनी पेम तोड़ी है, और कितनी पेम खाई है, आज हमसे कोई हिसाब भले ही ना मांगे, लेकिन हमने पेम भी खाई है, और मार भी खाई है। मिट्टी में पैदा हुए, अपने देश की मिट्टी ही खाई है, कोई रिश्वत नहीं खाई।।

लेकिन हम पेम वालों को समय रंग बिरंगे पेन और पेंसिलों से ज्यादा दूर नहीं रख पाया। हमारे हाथ में स्लेट और पेम पकड़ाकर जब बड़ा भैया कागज पर पेन पेंसिल से लिखता था, तो हम सोचते थे, कल हम भी बड़े होंगे, शान से पट्टी पेम की जगह, कॉपी में पेंसिल पेन से लिखेंगे। लेकिन हमारे भैया ने कभी हमें कभी पेन पेंसिल को हाथ नहीं लगाने दिया। गर्व से डांटकर कहता,  तुम अभी बच्चे हो, तोड़ डालोगे। और हमारा दिल टूट जाता।

पेम से ढाई आखर सीखने के बाद,  हमारी नर्सरी में कागज और पेंसिल का प्रवेश होता था। बहुत टूटती थी, पेंसिल की नोक, तब हम शार्पनर नहीं समझते थे। नादान थे, ब्लेड से पेंसिल छीलने पर उंगली भी कटती थी, और मार भी खाते थे।

तकदीर का लिखा तो खैर, कौन मिटा सकता है, लेकिन पेंसिल का लिखा,  जरूर इरेज़र से मिटाया जा सकता है।।

हम तब तक पेन के बहुत करीब आ गए थे। कलम दवात, पेन का ही अतीत है। पुरातन और सनातन तक हम नहीं जाएंगे, बस सरकंडे की कलम थी, जो बाद में होल्डर बन गई और स्याही दवात में बंद हो गई।

पेन, पेंसिल और होल्डर में एक समानता है, इनमें नोक होती है। बस यही नोक ही लेखन की नाक है। पेंसिल की नोक की तरह पेन देखो,  पेन की धार देखो।

Pen is mightier than sword. किसी ने लिख मारा। और पढ़े लिखे लोगों में आपस में तलवारबाजी चलने लगी।।

आज के इस हथियार को जब हम कल देखते, तो बड़ा आश्चर्य होता था, ढक्कन वाला पेन, जिसमें एक स्टैंड भी होता था,  खीसे में लगाने के लिए। पीतल की, स्टील की अथवा धारदार निब,

जिसके नीचे एक सहारा और बाद में आंटे वाला हिस्सा, जिसे खोलकर पेन में ड्रॉपर से स्याही, यानी camel ink, भरी जाती थी। गर्मियों में कितने हाथ खराब हुए, कितने कंपास, बस्ते और कपड़े इस पेन के चूने से खराब हुए,  मत पूछिए। आज कोई यकीन नहीं करेगा।

पेन पेंसिल का साथ जितना हमें मिला, उतना आज की पीढ़ी को नहीं मिल रहा। सुंदर लेखन, स्वच्छ लेखन और शुद्ध लेखन, मन और विचार दोनों को बड़ा सुकून देता है। बिना पढ़े लिखे, कोई हस्ताक्षर कभी बड़ा नहीं बनता। समय का खेल है।

Only Signatories become Dignitaries.

आज हो गए हम डिजिटल, पढ़ लिख लिए,  ईको फ्रेंडली हो गए,  कागज़ बचाने लग गए, घर में ही एंड्रॉयड प्रिंटिंग स्टूडियो और फोटो स्टूडियो खोलकर बैठ गए। आप चाहो तो घर में ही एकता कपूर बन, एक फिल्म प्रोड्यूस कर नेटफ्लिक्स पर डाल दो।

अपने अतीत को ना भूलें। बच्चों को पट्टी पेम,  काग़ज़, किताबें और पैन पेंसिल से भी जोड़े रखें। स्कूल भी ब्लैक बोर्ड और चॉक खड़ू (crayon) से जुड़े रहें। ऑनलाइन से कभी कभी ऑफलाइन भी हो जाएं।

जीवन में थोड़ा नर्सरी, के.जी. भी हो जाए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

 

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ गद्य क्षणिका – आत्मकथ्य – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय गद्य क्षणिका “– आत्मकथ्य –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ गद्य क्षणिका ☆ — आत्म कथ्य — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

मैं अपनी इस उम्र तक विद्वानों की अपेक्षा अशिक्षितों के बीच अधिक रहा हूँ। उनसे मिली हुई भाषा मेरे लेखन की आत्मा है। अपनी ओर से मैं ऐसा करता हूँ उसमें कुछ तर्क और व्याकरण का मुलम्मा चढ़ा देता हूँ। बात ऐसी है मेरे ध्यान में विद्वान रहते हैं। मेरे लेखन का वास्तविक परीक्षण यहीं होता है। विद्वानों में मेरा लेखन मान्य हो जाए तो स्वयं विद्वान हो जाऊँ, अन्यथा मेरे अपने परिवेश के अशिक्षित तो मेरे अपने हैं ही।
***
© श्री रामदेव धुरंधर

13 – 10 – 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 277 – बिखराव ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 277 बिखराव… ?

आगे दुकान, पीछे मकान वाली शैली की एक फुटकर दुकान से सामान खरीद रहा हूँ।  दुकानदार सामूहिक परिवार में रहते हैं। पीछे उनके मकान से कुछ आवाज़ें आ रही हैं। कोई युवा परिचित या रिश्तेदार परिवार आया हुआ है। आगे के घटनाक्रम से स्पष्ट हुआ कि आगंतुक एकल परिवार है।

आगंतुक परिवार की किसी बच्ची का प्रश्न कानों में पिघले सीसे की तरह पड़ा, ‘दादी मीन्स?’ इस परिवार की बच्ची बता रही है कि दादी मीन्स मेरे पप्पा की मॉम। मेरे पप्पा की मॉम मेरी दादी है।… ‘शी इज वेरी नाइस।’

कानों में अविराम गूँजता रहा प्रश्न ‘दादी मीन्स?’ ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की संस्कृति में कुटुम्ब कितना सिमट गया है! बच्चों के सबसे निकट का दादी- नानी जैसा रिश्ता समझाना पड़ रहा है।

सामूहिक परिवार व्यवस्था के ढहने के कारणों में ‘पर्सनल स्पेस’ की चाहत के साथ-साथ ‘एक्चुअल स्पेस’ का कम होता जाना भी है। ‘वन या टू बीएचके फ्लैट, पति-पत्नी, बड़े होते बच्चे, ऐसे में अपने ही माँ-बाप अप्रासंगिक दिखने लगें तो क्या किया जाए? यूँ देखें तो जगह छोटी-बड़ी नहीं होती, भावना संकीर्ण या उदार होती है। मेरे  ससुर जी बताते थे  कि उनके गाँव जाते समय दिल्ली होकर जाना पड़ता था। दिल्ली में जो रिश्तेदार थे, रात को उनके घर पर रुकते। घर के नाम पर कमरा भर था पर कमरे में भरा-पूरा घर था।  सारे सदस्य रात को उसी कमरे में सोते तो करवट लेने की गुंज़ाइश भी नहीं रहती तथापि आपसी बातचीत और ठहाकों से असीम आनंद उसी कमरे में हिलोरे लेता।

कालांतर में समय ने करवट ली। पैसों की गुंज़ाइश बनी पर मन संकीर्ण हुए। संकीर्णता ने दादा-दादी के लिए घर के बाहर ‘नो एंट्री’ का बोर्ड टांक दिया। दादी-नानी की कहानियों का स्थान वीडियो गेम्स ने ले लिया। हाथ में बंदूक लिए शत्रु को शूट करने के ‘गेम’, कारों के टकराने के गेम, किसी नीति,.नियम के बिना सबसे आगे निकलने की मनोवृत्ति सिखाते गेम।  दादी- नानी की लोककथाओं में परिवार था, प्रकृति थी, वन्यजीव थे, पंछी थे, सबका मानवीकरण था। बच्चा तुरंत उनके साथ जुड़ जाता। प्रसिद्ध साहित्यकार निर्मल वर्मा ने कहा था, “बचपन में मैं जब पढ़ता था ‘एक शेर था’, सबकुछ छोड़कर मैं शेर के पीछे चल देता।”

शेर के बहाने जंगल की सैर करने के बजाय हमने इर्द-गिर्द और मन के भीतर काँक्रीट के जंगल उगा लिए हैं। प्राकृतिक जंगल हरियाली फैलाता है, काँक्रीट का जंगल रिश्ते खाता है। बुआ, मौसी, के विस्थापन से शुरू हुआ संकट दादी-नानी को भी निगलने लगा है।

मनुष्य के भविष्य को अतीत से जोड़ने का सेतु हैं दादी, नानी। अतीत अर्थात अपनी जड़। ‘हरा वही रहा जो जड़ से जुड़ा रहा।’ जड़ से कटे समाज के सामने ‘दादी मीन्स’ जैसे प्रश्न आना स्वाभाविक हैं।

अपनी कविता स्मरण आ रही है,

मेरा विस्तार तुम नहीं देख पाए,

अब बिखराव भी हाथ नहीं लगेगा,

मैं बिखरा ज़रूर हूँ, सिमटा अब भी नहीं…!

प्रयास किया जाए कि बिखरे हुए को समय रहते फिर से जोड़ लिया जाए। रक्त संबंध, संजीवनी की प्रतीक्षा में हैं। बजरंग बली को नमन कर क्या हम संजीवनी उपलब्ध कराने का बीड़ा उठा सकेंगे?

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

 🕉️ इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 601 ⇒ जगजीत सिंह के सुर और निदा फजली के गीत ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जगजीत सिंह के सुर और निदा फजली के गीत।)

?अभी अभी # 601 ⇒ जगजीत सिंह के सुर और निदा फजली के गीत ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आज प्रसिद्ध शायर निदा फाजली की पुण्यतिथि और ग़ज़ल गायकी के जादूगर जगजीतसिंह का जन्मदिन है। पहले गीत जन्म लेता है,फिर गायक उसे अपना स्वर देता है। इन दोनों के लिए ही शायद पहले कभी कहा गया होगा ;

तेरे सुर और मेरे गीत

आज बनेंगे दोनों मीत

जी हां ! ये दोनों मीत ही थे । मित्र ही को तो मीत कहते हैं। हर गीतकार की यही दिली तमन्ना होती है कि उसके गीत अमर जो जाएं ;

होठों को छू लो तुम,

मेरे गीत अमर कर दो

और निदा फ़ाज़ली की जितनी भी ग़ज़लों को इस पारस ने बस,छू भर दिया, उनकी किस्मत बदल गई ;

दुनिया जिसे कहते हैं,

जादू का खिलौना है ।

मिल जाए तो मिट्टी है,

खो जाए तो सोना है ।।

और

होश वालों को खबर क्या,

बेखुदी क्या चीज़ है ।

इश्क़ कीजे,फिर समझिए

ज़िन्दगी क्या चीज़ है ।।

आज निदा साहब को उनकी शायरी के लिए याद किया जा रहा है तो जगजीतसिंह को अपनी गायकी के लिए। गीत और गायकी की इस जुगल जोड़ी का भावपूर्ण मधुर स्मरण …

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 600 ⇒ मुझसे अच्छा कौन है ! ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मुझसे अच्छा कौन है !।)

?अभी अभी # 600 ⇒ मुझसे अच्छा कौन है ! ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अच्छा होना बुरा नहीं ! सबसे अच्छा होना तो कतई नहीं। बच्चे अच्छे होते हैं, बहुत अच्छे। अच्छे बेटे मस्ती नहीं करते, गटगट दूध पी जाते हैं। जो मम्मा का कहना नहीं मानते, वे गंदे बच्चे होते हैं।

कोई माँ अपने बच्चे को बड़ा होकर बुरा इंसान नहीं बनाना चाहती, इसलिए उसमें एक अच्छे इंसान बनने की भावना को प्रबल करती रहती है।

बाल मनोविज्ञान भी यही कहता है। बच्चों को मारना, झिड़कना, उन्हें सबके सामने अपमानित करना, उनके व्यक्तित्व पर विपरीत प्रभाव डालता है। वे जिद्दी, गुस्सैल और हिंसक हो जाते हैं। कुछ सुधारकों का यह भी मत है कि बच्चों को भविष्य में एक इंसान बनाने के लिए, सख्ती और अनुशासन भी ज़रूरी है। अधिक लाड़ प्यार से बच्चे बिगड़ जाते हैं।।

बालक के मन में केवल एक ही भाव होता है, मैं अच्छा हूँ, सबसे अच्छा ! वह हर जगह प्रथम आना चाहता है, खेल में, पढ़ाई में, बुद्धि और ज्ञान में। लोगों की तारीफ़ और प्रशंसा उसे और अधिक उत्साहित करती है और उसमें यह भाव पुष्ट होता जाता है, कि मुझसे अच्छा कोई नहीं।

शनैः शनैः जब वह बड़ा होता है, तो परिस्थितियां बदलती जाती हैं। संघर्ष, चुनौतियाँ और प्रतिस्पर्धाओं से गुजरते हुए वह परिपक्व होता है। प्रयत्न, पुरुषार्थ और भाग्य अगर साथ देता है, तो वह सफलता की सीढियां पार करते हुए सबसे आगे निकल जाता है। पद, सम्मान और प्रतिष्ठा मिलते ही, अचानक उसे अहसास होता है कि वह अब एक बड़ा आदमी बन गया है। क्या उससे अच्छा भी कोई हो सकता है।।

लोगों से मिलने वाली प्रशंसा और सम्मान से अभिभूत हो, वह और अच्छा दिखने की कोशिश करता है। काम, क्रोध, लालच और अहंकार जैसे विकार अंदर ही अंदर कब विकसित हो गए, उसे पता ही नहीं चलता। उसे बस तारीफ़ और प्रशंसा ही अच्छी लगने लगती है, और वह अपने आप में स्वयं को एक सबसे अच्छा आदमी मान बैठता है।।

अब उससे विरोध, असहमति अथवा आलोचना बर्दाश्त नहीं होती। वह केवल ऐसे ही लोगों के संपर्क में रहना पसंद करता है, जो उसे केवल अच्छा नहीं, सबसे अच्छा आदमी मानें। उससे सलाह लें, मार्गदर्शन लें, उसके पाँव छुएं, लोगों के सामने उसकी तारीफ़ करें।

एक साधारण आदमी को वे परेशानियां नहीं झेलनी पड़ती, जो एक अच्छे आदमी को झेलना पड़ती है। अधिकतर प्रतिस्पर्धा सफल और अच्छे लोगों में ही होती है। एक दूसरे से आगे बढ़ने और , और अधिक अच्छा बनने की स्पर्धा। और बस यहीं से, अच्छा बनने के लिए बुरे हथकंडों का भी सहारा लिया जाने लगता है। एक मैराथन, कौन जीवन में सबसे अच्छा बनकर दिखाता है।

सबसे सच्चा नहीं, सबसे अच्छा।।

सबसे अच्छा तो खैर, ईश्वर ही है। वह ही जानता है, हम कितने अच्छे हैं। हमारा बच्चा सबसे अच्छा है, हमारी माँ सबसे अच्छी है, हमारा परिवार सबसे अच्छा है, और हमारा देश सबसे अच्छा है। सबमें अच्छाई देखना भी बुरा नहीं। लेकिन जिस दिन यह भाव आ गया, मुझसे अच्छा कौन ? समझिए, कुछ तो गड़बड़ है…!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #266 ☆ ख़ामोशियों का सबब… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख ख़ामोशियों का सबब। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 266 ☆

☆ ख़ामोशियों का सबब… ☆

‘कुछ वक्त ख़ामोश होकर भी देख लिया हमने /  फिर मालूम हुआ कि लोग सच में भूल जाते हैं’ गुलज़ार का यह कथन शाश्वत् सत्य है और आजकल ज़माने का भी यही चलन है। ख़ामोशियाँ बोलती हैं, जब तक आप गतिशील रहते हैं। जब आप चिंतन-मनन में लीन हो जाते हैं, समाधिस्थ अर्थात् ख़ामोश हो जाते हैं, तो लोग आपसे बात तक करने की ज़ेहमत भी नहीं उठाते। वे आपको विस्मृत कर देते हैं, जैसे आपका उनसे कभी संबंध ही ना रहा हो। वैसे भी आजकल के संबंध रिवाल्विंग चेयर की भांति होते हैं। आपने तनिक नज़रें घुमाई कि सारा परिदृश्य ही परिवर्तित हो जाता है। अक्सर कहा जाता है ‘आउट ऑफ साइट, आउट ऑफ माइंड।’ जी हाँ! आप दृष्टि से ओझल क्या हुए, मनोमस्तिष्क से भी सदैव के लिए ओझल हो जाते हैं।

सुना था ख़ामोशियाँ बोलती है। जी हाँ! जब आप ध्यानस्थ होते हैं, तो मौन हो जाते हैं और बहुत से विचित्र दृश्य आपको दिखाई देने पड़ते हैं और बहुत से रहस्य आपके सम्मुख उजागर होने लगते हैं। उस स्थिति में अनहद नाद के स्वर सुनाई पड़ने लगते हैं तथा आप अपनी सुधबुध खो बैठते हैं। दूसरी ओर यदि आप चंद दिनों तक ख़ामोश अर्थात् मौन हो जाते हैं, तो लोग आपको भुला देते हैं। यह अवसरवादिता का युग है। जब तक आप दूसरों के लिए उपयोगी है, आपका अस्तित्व है, वजूद है और लोग आपको अहमियत प्रदान करते हैं। जब उनका स्वार्थ सिद्ध हो हो जाता है, मनोरथ पूरा हो जाता है, वे आपको दूध से मक्खी की भांति निकाल फेंक देते हैं। वैसे भी एक अंतराल के पश्चात् सब फ्यूज़्ड बल्ब हो जाते हैं, छोटे-बड़े का भेद समाप्त हो जाता है और सब चलते-फिरते पुतले नज़र आने लगते हैं अर्थात् अस्तित्वहीन हो जाते हैं। ना उनका घर में कोई महत्व रहता है, ना ही घर से बाहर, मानो वे पंखविहीन पक्षी की भांति हो जाते हैं, जिन्हें सोचने-समझने व निर्णय लेने का अधिकार नहीं होता।

बच्चे अपने परिवार में मग्न हो जाते हैं और आप घर में अनुपयोगी सामान की भांति एक कोने में पड़े रहते हैं। आपको किसी भी मामले में हस्तक्षेप करने व सुझाव देने का अधिकार नहीं रहता। यदि आप कुछ कहना भी चाहते हैं, तो ख़ामोश रहने का संदेश नहीं; आदेश दिया जाता है और आप मौन रहने को विवश हो जाते हैं।  ख़ामोशियों से बातें करना आपकी दिनचर्या में शामिल हो जाता है। आपको आग़ाह कर दिया जाता है कि आप अपने ढंग व इच्छा से अपनी ज़िंदगी जी चुके हैं, अब हमें अपनी ज़िंदगी चैन-औ-सुक़ून से बसर करने दो। यदि आप में संयम है, तो ठीक है, नहीं है, तो आपको घर से बाहर अर्थात् वृद्धाश्रम का रास्ता दिखा दिया जाता है। वहाँ आपको हर पल प्रतीक्षा रहती हैं उन अपनों की, आत्मजों की, परिजनों की और वे उनकी एक झलक पाने को लालायित रहते हैं और एक दिन सदा के लिए ख़ामोश हो जाते हैं और इस मिथ्या जहान से रुख़्सत हो जाते हैं।

अतीत बदल नहीं सकता और चिंता भविष्य को संवार नहीं सकती। इसलिए भविष्य का आनंद लेना ही श्रेयस्कर है। उसमें जीवन का सच्चा सुख निहित है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। इसलिए ‘जो पीछे छूट गया है, उसका शोक मनाने की जगह जो आपके पास है, आपका अपना है; उसका आनंद उठाना सीखें’, क्योंकि ‘ढल जाती है हर चीज़ अपने वक्त पर / बस व्यवहार और लगाव ही है / जो कभी बूढ़ा नहीं होता। किसी को समझने के लिए भाषा की आवश्यकता नहीं होती, कभी-कभी उसका व्यवहार बहुत कुछ कह देता है। मनुष्य जैसे ही अपने व्यवहार में उदारता व प्रेम का समावेश करता है, उसके आसपास का जगत् सुंदर हो जाता है।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

23.2.24

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 599 ⇒ नागरिक शास्त्र ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नागरिक शास्त्र।)

?अभी अभी # 599 ⇒ नागरिक शास्त्र ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बचपन में मैं एक मंद-बुद्धि छात्र था। घर में दादा जी के कल्याण विशेषांक पड़े रहते थे, सो शास्त्र शब्द से परिचित था। जब नागरिक शास्त्र का नाम सुना तो आश्चर्य हुआ कि नागरिकों के लिए लिखा गया शास्त्र बच्चों को क्यों पढ़ा रहे हैं? बाद में मास्टरजी ने मेरी अलग से क्लास लेकर नागरिक शास्त्र का मतलब समझाया।

हमने नागरिक शास्त्र भी पढ़ा और सामाजिक अध्ययन भी, क्योंकि कोर्स में था। तब समझने की उम्र नहीं थी। परीक्षा के लिए पढ़ते थे। पानीपत की पढ़ाई और प्लासी के युद्ध की तारीख तक याद करनी पड़ती थी। नागरिकों के अधिकार और कर्त्तव्य, मताधिकार और चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवार की योग्यता में यह भी अनिवार्य था कि वह पागल और दिवालिया न हो। आज लगता है, दुनिया पागल है, या फिर में दीवाना।।

कॉलेज में जाकर फिर वही सब समाज शास्त्र, राजनीति शास्त्र, कानून की पढ़ाई और एमबीए में मानव संसाधन के अंतर्गत आ गया। लोकतंत्र और संविधान की आत्मा की चिंता जब एकदम बढ़ जाती है, तो आम आदमी सोचने लग जाता है कि ऐसा क्या हो रहा है, जो उसने कहीं नहीं पढ़ा। कहीं सिद्धांत और व्यवहार में जमीन आसमान का अंतर तो नहीं।

कॉलेज में अर्थ-शास्त्र और राजनीति विज्ञान पढ़ाने वाले साईकल पर आते थे, और व्यापारियों और नेताओं के पुत्र स्कूटर, मोटर सायकिल और जीप में। छात्र-संघ के चुनाव में राजनैतिक पार्टियों के लोगों का भी आना जाना लगा रहता था। कुछ छात्र केवल राजनीति करने आते थे। परीक्षा में चाकू की नोक पर नकल करते थे, फिर भी पास नहीं हो पाते थे। अगर पास होते रहते, तो कॉलेज छोड़ना पड़ता। प्रोफ़ेसर भगवान से प्रार्थना करते थे, कि ऐसे छात्र पास हो जाएं, तो मिठाई बाँटें।।

जो ठीक से पढ़ाई नहीं कर पाए वे नेता और वकील बन गए। अच्छे वाद-विवाद और परिसंवादों में भाग लेने वाले पत्रकार बन गए, जो अच्छी गालियाँ बक लेते थे, वे पुलिस में चले गए। बाकी जो बचे, वे बैंक, एलआईसी और शिक्षा विभाग में सेटल हो गए।

आज संविधान और लोकतंत्र पर एक अनजान खतरा मंडरा रहा है। बंद, हड़ताल, धरने और सत्याग्रह का आदी यह देश विरोध और असहमति को नहीं पचा पा रहा। हमारे दिवंगत समाजसेवी शेर जॉर्ज आज की परिस्थिति में रेल के पहिये छोड़, किसी साधारण फैक्ट्री में हड़ताल भी नहीं करवा सकते थे। आज इंकलाब जिंदाबाद और बोल मजूरा हल्ला बोल, बोलने वाला वामिया कहलाता है। लाल झंडे को सलाम करने वाला अर्बन नक्सल कहलाता है।।

सुप्रीम कोर्ट में और संसद में संविधान पर बहस होती है। न्यूज़ हेड-लाइन्स बनती है, लोकतंत्र खतरे में ! आम आदमी सोचता है कि आखिर उसने ऐसा क्या कर डाला कि संविधान और लोकतंत्र खतरे में पड़ गया। उसे तो अपनी रोजी रोटी और बाल-बच्चों से ही फुर्सत नहीं। सरकार के अनुसार तो, सरकार बहुत अच्छा काम कर रही है। रेडियो, अखबार, सोशल मीडिया और स्वयं प्रधान सेवक इसके गवाह है। मतलब यह सब, भ्रष्टाचारियों, काला-बाज़ारियों और विपक्ष का किया धरा है।।

अब आपातकाल की घनघोर निंदा करने के बाद, सरकार देश में इमरजेंसी तो घोषित करने से रही। बस जो राज्य देश में अस्थिरता फैला रहे हैं, देशद्रोहियों का साथ दे रहे हैं, वहाँ राष्ट्रपति शासन लगाकर पुनः चुनाव करवा सकती है। कांग्रेस भी तो यही करती आ रही है। आम आदमी तो नोटा का बटन दबाकर भी बदनाम ही हुआ जा रहा है। वह तो सरकार को माई-बाप समझकर, जिसको कहेगी, उसको वोट दे देगा। वह तो यह सोचकर ही डर गया है कि फलाना नहीं तो कौन।

इधर देश बेचने की अफवाह भी चल रही है। विपक्षी यह भी नहीं बता रहे कि किसको बेचने वाले हैं। अब तक एक पार्टी को आँख मूँदकर वोट देते चले आए, कुछ साल किसी और को भी देकर देख लेते हैं। एक वोट का ही तो सवाल है। एक नागरिक, शास्त्र पढ़ सकता है, लेकिन संविधान तो विशेषज्ञों का काम है। वह तो रोज मंदिर जाता है, और जहाँ भी कुम्भ और महाकुंभ होता है, वहाँ जाकर एक डुबकी लगाकर अमृत की कुछ बूंदों से कृत-कृत्य हो जाता है। जब तक एक नागरिक की ईश्वर में आस्था है, हमारा देश सुरक्षित है। अब अंधों में काना राजा देश चलाते आया है, आज भी विपक्ष में सब अँधे हैं। नागरिक शास्त्र तो यही कहता है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 598 ⇒ l| अनाड़ी || ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “l| अनाड़ी ||।)

?अभी अभी # 598 ⇒ l| अनाड़ी || ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

(Clumsy)

बलमा अनाड़ी मन भाये

का करूं, समझ ना आये ..

अनाड़ी अनपढ़ नहीं होता, वह अकुशल हो सकता है, नासमझ हो सकता है। बच्चे भी नासमझ होते हैं, लेकिन वे अबोध होते हैं, बढ़ती उम्र के साथ परिपक्व होते चले जाते हैं।

शैलेन्द्र का अनाड़ी सब कुछ सीख गया, बस होशियारी नहीं सीख सका। यहां साहिर का बलमा इतना अनाड़ी है कि ;

होठ हिले तो बात न जाने

नैन मिले तो घात न जाने

निस दिन जी तरसाये

हाय …

यानी बलमा का होशियार होना भी जरूरी है। वह इतना पढ़ा लिखा होना चाहिए कि उधर होंठ हिले, और इधर बात पकड़ी। आपस में आँखें तक नहीं मिल पा रही हैं, क्योंकि जनाब चश्मा चढ़ाकर अखबार पढ़ रहे हैं। घर का कुंभ छोड़ प्रयाग महाकुंभ में आंखें गड़ाए पड़े हैं।।

अब बेचारी का अगर बेडलक ही खराब है तो क्या करे। कहीं कहीं तो यह शिकायत होती है, कि मिलकर बिछड़ गए नैना, हाय मिल के बिछड़ गए नैना। लेकिन यहां मामला कुछ अलग है ;

नेहा लगा ऐसे प्रीतम से

बिन कारन जो रूठे हमसे

समझे न समझाए

आ आ समझे न समझाए

हाय राम …

यानी बेचारा बलमा तो दिल दे बैठता है और आप उससे प्रेम करती हैं। वैसे नेहा का अर्थ प्यार से देखना भी होता है। जिनके कलेजे पर छुरियां चलती हैं, शायद वे ही नेहा लगाने का अर्थ जानते हैं। जो अनाड़ी है, वह तो अकारण ही रूठ जाता है, नासमझ है, उसे कौन समझाए।

साफ साफ क्यों नहीं कहती, वह नादान भी है। देखिए, फिल्म अलबेला(१९५१) में जनाब राजेंद्र कृष्ण क्या कहते हैं ;

बलमा बड़ा नादान रे

प्रीत की ना जाने पहचान रे

बैयां पकड़ूं, हाथ दबाऊं

समझत नाहीं कैसे समझाऊं

लाख जतन किए

हार गई मैं, मैं रोगी हो गई

जान रे …

बलमा बड़ा नादान रे।।

अनाड़ी है, नादान है, भोला है, नासमझ है, यानी टेढ़ा है, फिर भी मेरा है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 597 ⇒ सर्वे भवन्तु सुखिन: ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सर्वे भवन्तु सुखिन:।)

?अभी अभी # 597 ⇒ सर्वे भवन्तु सुखिन: ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

यह जानते हुए भी, कि सिक्के के दो पहलू होते हैं, जहां दिन होते हैं, वहीं रातें भी होती हैं, जन्म है तो मरण भी, सुख अगर है तो दुख भी, हम सबको सदा सुखी रहो कहना नहीं भूलते, किसी का अशुभ ना हो, प्राणी मात्र का कल्याण हो। कहीं यह हमारी महज मानवीयता अथवा अध्यात्म दर्शन तो नहीं।

जब कि नियति का विधान अपनी जगह है। दैहिक, दैविक और भौतिक ताप अपनी जगह हैं और असुर हों अथवा दुष्ट राक्षस, जो भी अपने इष्ट को भक्ति और जप तप से प्रसन्न कर लेता है वह मुंहमांगा वरदान पा लेता है और हमारे यहां ऐसे तपस्वी सिद्ध पुरुषों और ऋषि मुनियों की भी कमी नहीं, जो अगर रुष्ट हो जाएं तो देवताओं को भी श्राप दे बैठें।।

सांसारिक सुख, सत्य सनातन नहीं है, यह जानते हुए भी इंसान अपने रहने के लिए, संतोष कुटी, सुखनिवास, गरीबखाने, दौलतखाने अथवा आनंद भवन का ही निर्माण करता है, किसी कोपभवन का नहीं। घर की बगिया में फूलों के साथ, देखादेखी में कैक्टस भले ही उगा ले, कभी कांटे नहीं उगाएगा। दिन में किसी को अगर सुप्रभात कहेगा तो रात्रि को शुभ रात्रि भी कहेगा, जन्मदिन पर बधाई भी देगा और विवाह पर वर वधू को सुखी जीवन का आशीर्वाद भी। लेकिन दुख और कष्ट की घड़ी में बधाई नहीं दी जाती, केवल चिंता और अफसोस व्यक्त किया जाता है। जीते जी किसी से लाख दुश्मनी पाल लें, जाते समय वह भी स्वर्गीय हो ही जाता है।

सुख अगर हमारा दर्शन और प्रदर्शन है तो तकलीफ और परेशानी हमारी दुखती रग है। क्या यह हमारा बड़प्पन नहीं जब हम दुख के क्षणों में भी यही गीत गुनगुनाते हैं ;

खुश रहो, हर खुशी हो

तुम्हारे लिए।

छोड़ दो आंसुओं को

हमारे लिए।।

यह भी सच है, दिल खुश होता है तो वाह निकलती है और जब दिल टूटता है तो आह निकलती है। खुशी में जो दिल बल्लियों उछलता है, गम के वक्त बैठ सा जाता है।

कोई सागर,

दिल को बहलाता नहीं,

बेखुदी में करार आता नहीं।।

सृजन में सुख है। अगर सृजन में सुख नहीं होता तो इस सृष्टि का निर्माण ही नहीं होता। युगों से युगों तक, और कयामत से कयामत तक, कई बार यह सृष्टि बनी और बिगड़ी है।

जिसने सृजन का सुख भोगा है, उसी ने सृजन की पीड़ा भी भोगी है।

हम तो हाड़ मांस के इंसान हैं, वह सर्वशक्तिशाली जो सभी ऐश्वर्यों का स्वामी है, सुखसागर के परमानंद सहोदर में जो वैकुंठवासी, आकंठ डूबा हुआ है, उसने भी सृजन सुख की चाह में ही इस नश्वर संसार की रचना कर दी। हम अपनी मर्जी से नहीं, उसकी ही मर्जी से तो पैदा हुए हैं। हम अगर उसके लिए महज खिलौने हैं तो समझ में नहीं आता, क्या कहीं वह भी तो कोई अबोध बालक तो नहीं। जब तक चाहता है, खिलौने से खेलता है, और जब मन भर जाता है, तो खिलौना तोड़ देता है। लेकिन बड़ा निष्ठुर है यह बालक।।

सुख दुख के इस संसार में जब तक इंसान रहेगा, वह अपना खुद का एक सुखी संसार बनाकर ही रहेगा।

वह दुनिया से भी लड़ेगा और दुनिया बनाने वाले से भी। अगर ऐसा नहीं होता तो क्या ये दुनिया हमें चांद से बेहतर नजर आती। हमने सूरज से अगर आग लेना सीखा है तो अपनी खुशियों में हमें चार चांद लगाना भी आता है।

एक पल में हम उससे प्रश्न कर बैठते हैं, दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई ! काहे को दुनिया बनाई ? और दूसरे ही पल जब किसी फूल से बच्चे की ओर देखते हैं, तो अनायास ही चहक कर कह उठते हैं, लो एक कली मुसकाई ! उस पल तो वाकई यही लगता है, यही शास्वत सुख है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 596 ⇒ पीठ सुनती है ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पीठ सुनती है।)

?अभी अभी # 596 ⇒ पीठ सुनती है ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जब दीवारों के कान हो सकते हैं, तो पीठ क्यों नहीं सुन सकती ? एक समय था, जब दीवारें भी मजबूत हुआ करती थीं, आज की तरह चार इंच की नहीं। मोटी मोटी दस इंच की दीवारें, जिनमें आले भी, होते थे और ताक भी, और तो और अलमारी भी। कमरों की दीवारों में या तो खिड़कियां होती थीं, या फिर रोशनदान। खिड़की अथवा रोशनदान ही संभवतः दीवारों के कान होते होंगे, जिनसे हवा के साथ कई रहस्य भी दीवारों तक पहुंच जाते होंगे। शायर लोग दीवारों से सर यूं ही नहीं टकराया करते। दीवारें जरूर उनके कान में कुछ कहती होंगी।

जब हम दीवार की ओर पीठ करके खड़े होते हैं, तो शायद हमारी पीठ भी कुछ तो सुनती ही होगी। मुझे अच्छी तरह याद है, बचपन में मैं दीवार से सटकर बैठता था, तो शरीर में कुछ सिहरन, कुछ सरसरी सी होती थी, ऐसा महसूस होते ही, जहां हाथ उस जगह पहुंचा, अनायास खटमल हाथ में आ जाता था। खटमलों की टोली पीठ पर चढ़कर आस्तीन तक पहुंच जाती थी। हमने आस्तीन में सांप ही नहीं, खटमल भी पाले हैं।।

हम जब किसी की तारीफ करते हैं, तो उसकी पीठ थपथपाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण के वक्त सभी सदस्य मेज़ थपथपाया करते हैं। किसी प्रस्ताव को ध्वनिमत से पास करने पर भी मेज़ थपथपाई जाती है। पीठ को थपथपाने पर पीठ को भी कुछ कुछ होता है, पीठ तो सहलाने पर वह भी अभिभूत हो जाती है। पीठ सब सुनती भी है, और महसूस भी करती है।

इंसान का सबसे ज्यादा बोझ उसकी पीठ ही वहन करती है। कंधों पर भी तो बोझ होता है, लेकिन दोनों कंधे भी तो पीठ पर ही लदे रहते हैं। इंसान हो या कछुआ, पीठ तो दोनों की ही मजबूत होती है। हमारा तो छोड़िए, पूरी पृथ्वी का भार वहन करते कूर्मावतार।।

पीठ पीछे तारीफ ही नहीं, बुराई भी होती है। युद्ध में बुजदिल पीठ दिखाते हैं, कायर पीठ पीछे छुरा भी भोंकते हैं, पीठ पीछे लोग क्या क्या गुल खिलाते हैं, कभी पलटकर भी देखिए।

हमें अपनी पीठ नजर नहीं आती, सामने सीना जरूर नजर आता है क्योंकि हमने सीना तानकर ही चलना सीखा है। हम अपनी पीठ ना तो देखते हैं, और ना ही किसी को दिखाते हैं। जिसकी बुराई करना हो, निःसंकोच उसके मुंह पर करते हैं, लेकिन पीठ पीछे उसकी तारीफ ही करते हैं।

हमारी पीठ ही हमारी रीढ़ है, शरीर की सबसे मजबूत और लचीली हमारी रीढ़ ही है। यह हमें झुकना भी सिखाती है और तनकर खड़े रहना भी। स्थूल और सूक्ष्म, मूलाधार से सहस्रार, पंच तत्व और सातों लोक इसी में समाए हैं। लोग आस्तीन में सांप पालते हैं, जब कि असली सर्पिणी रूपी ज्ञानवती कुंडलिनी तो यहीं विराजमान है।।

विद्या और ज्ञान को हम पीठ कभी नहीं दिखाते। विद्यापीठ, ज्ञानपीठ सृजन पीठ और व्यास पीठ हमारे ज्ञान के आगार हैं। श्रुति, स्मृति से यह ज्ञान पुस्तकों में आया और बच्चों की पीठ पर किताबों का बोझ लाद दिया गया। बच्चों की पीठ पर किताबें हैं, या गेहूं का बोरा।

कराग्रे वस्ते लक्ष्मी, कर मूले सरस्वती ! और सरस्वती किताबों से चलकर डिजिटल होती हुई बच्चों की नाजुक हथेलियों में मोबाइल में कैद हो गई। कम उम्र में आंखों पर चश्मा, गर्दन और रीढ़ की हड्डी पर दबाव। घर, दफ्तर मोबाइल, पी सी, डेस्क टॉप। जिस इंसान ने कभी काम से पीठ नहीं चुराई, कमर का दर्द लिए, पीठ की एम .आई. आर., हड्डियों के डॉक्टर को दिखा रहा है। डॉक्टर की रिपोर्ट बयां कर रही है, और पीठ सुन रही है अपनी ही दास्तान।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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